इन दिनों फफूंद के बड़े चर्चे हैं। ब्लैक फंगस, वाइट
फंगस और फिर येलो फंगस। वैसे ये फफूंदें तो सहस्राब्दियों से हमारे साथ रहती आई
हैं और रहेंगी। कभी दोस्त तो कभी दुश्मन बन कर।
अनुमान के मुताबिक हमारे आसपास फफूंद की
15-50 लाख तक प्रजातियां हो सकती हैं। इनमें से अधिकांश मृतजीवी हैं (मृत, सड़ते-गलते
जीवों से भोजन प्राप्त करती हैं)। इनमें से कुछ ही मानव में बीमारी फैलाने के लिए
ज़िम्मेदार मानी गई हैं। पृथ्वी पर हमारे सहित सभी जीव-जंतु फफूंदों के साथ-साथ
विकसित हुए हैं। मानव का प्रतिरक्षा तंत्र भी इनके साथ विकसित हुआ है। अत: इनके
संक्रामक होने की संभावना बहुत कम होती है।
काली फफूंद के बीजाणु सांस के साथ, खाने
के साथ या फिर त्वचा के द्वारा प्रवेश करते हैं। ये बीजाणु ही रोग का कारण होते
हैं।
फफूंद ऐसे जीव हैं जो न तो पेड़-पौधों से
मेल खाते हैं न जंतुओं से। ये बैक्टीरिया भी नहीं हैं। ये तो अलग ही किस्म के जीव
हैं। इन्हें हम कुकुरमुत्ता, टोडस्टूल या यह खमीर जैसे नामों से जानते
हैं। इनकी उत्पत्ति, रचना, व्यवहार एवं प्रजनन आदि के तरीके लंबे समय
तक रहस्य और रोमांच के आवरण में ढंके रहे। कई किंवदंतियां जुड़ी हैं इनकी उत्पत्ति
से। जैसे कूड़े के ढेर पर कुत्ता पेशाब कर दे तो कुकुरमुत्ते उगते हैं।
इनमें पौधों की तरह न जड़ होती है न तना, पत्ती
या फूल। जंतुओं की तरह इनमें हाथ-पैर, सिर वगैरह भी नहीं है। और तो और, ये
पौधों की तरह अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते हैं। और न ही जंतुओं की तरह चरते-कुतरते
हैं। इसके बावजूद भी ये दूर-दूर तक फैले हुए हैं। कुछ ज़मीन पर उगते हैं तो कुछ पानी
में मिलते हैं। कुछ पेड़-पौधों की पत्तियों,
तनों, जड़ों
और फलों पर अपना डेरा जमाते हैं तो कुछ हमारे जैसे जंतुओं की त्वचा पर। डैंड्रफ
यानी रूसी भी एक तरह की फफूंद है। तरह-तरह के फफूंद नाशक इनका सफाया नहीं कर पाते।
हां, यह अलग बात है डैंड्रफ हटाने के चक्कर में हमारी जेबें ज़रूर
साफ होती रहती हैं। खुजली, दाद और एग्ज़ीमा का कारण भी फफूंद ही हैं।
ये भोजन कहां से पाती हैं?
सड़ी-गली लकड़ियों और बरसात में घूरे पर उगी
काली, सफेद, भूरी छतरियां,
कार्टून कथाओं के
मेंढक के छाते, ज़मीन पर उगी पफ बॉल्स तथा अर्थस्टार्स सब इनके ही विभिन्न
रूप हैं। इन सबकी एक ही खासियत है कि ये हरे नहीं होते यानी क्लोरोफिल इनमें नहीं
होता। परिणामस्वरूप ये अपना भोजन नहीं बना पाते। मगर जीने के लिए तो भोजन ज़रूरी
है।
लिहाज़ा, अधिकांश फफूंद मृतजीवी हैं। कुछ ऐसी भी हैं जो पहले किसी जीते-जागते जीव से परजीवी की तरह भोजन लेती रहती हैं और फिर उसके मर जाने पर भी उनका पीछा नहीं छोड़ती हैं – जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी। ऐसी फफूंद विकल्पी परजीवी कहलाती हैं। कुछ फफूंदों ने भोजन चुराने का रास्ता भी अपनाया है, अमरबेल के समान। कुछ फफूंद इससे उलट भी होती हैं – वे यूं तो मृतजीवी होती हैं, परंतु मौका मिलते ही परजीवी बन जाती हैं। ब्लैक फंगस इसी मौकापरस्त श्रेणी में आती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://en.gaonconnection.com/wp-content/uploads/2021/05/Yellow-fungus.jpg
यह तो सब जानते हैं कि सख्तजान टार्डिग्रेड्स बहुत अधिक ठंड
और गर्मी दोनों बर्दाश्त कर सकते हैं। वे निर्वात में जीवित रह सकते हैं और
हानिकारक विकिरण भी झेल जाते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि टार्डिग्रेड्स
ज़ोरदार टक्कर भी झेल लेते हैं, लेकिन एक सीमा तक। यह अध्ययन टार्डिग्रेड
द्वारा अंतरिक्ष की टक्करों को झेल कर जीवित बच निकलने की उनकी क्षमता और अन्य
ग्रहों पर जीवन के स्थानांतरण में उनकी भूमिका की सीमाएं दर्शाता है।
2019 में इस्राइली चंद्र मिशन, बेरेशीट, दुर्घटनाग्रस्त
हो गया था। इस इस्राइली यान के साथ गुपचुप तरीके से चांद पर सूक्ष्मजीव
टार्डिग्रेड्स (जलीय भालू, साइज़ करीब 1.5 मि.मी.) भेजे गए थे। लेकिन
चांद पर उतरते वक्त लैंडर और साथ में उसकी सारी सवारियां दुर्घटनाग्रस्त हो गर्इं।
टार्डिग्रेड्स चांद पर यहां-वहां बिखरे और यह चिंता पैदा हो गई कि वे वहां के
वातावरण में फैल गए होंगे। इसलिए क्वीन मेरी युनिवर्सिटी की अलेजांड्रा ट्रेस्पस
जानना चाहती थीं कि क्या टार्डिग्रेड्स इतनी ज़ोरदार टक्कर झेल कर जीवित बचे होंगे?
यह जानने के लिए उनकी टीम ने लगभग 20
टार्डिग्रेड्स को अच्छे से खिला-पिलाकर फ्रीज़ करके शीतनिद्रा की अवस्था में पहुंचा
दिया, जिसमें उनकी चयापचय गतिविधि की दर महज़ 0.1 प्रतिशत रह गई।
फिर,
उन्होंने नायलॉन की
एक खोखली बुलेट में एक बार में दो से चार टार्डिग्रेड भरे और गैस गन से उन्हें कुछ
मीटर दूरी पर स्थित एक रेतीले लक्ष्य पर दागा। यह गन पारंपरिक बंदूकों की तुलना
में कहीं अधिक वेग से गोली दाग सकती है। एस्ट्रोबायोलॉजी में प्रकाशित
नतीजों के अनुसार टार्डिग्रेड लगभग 900 मीटर प्रति सेकंड (लगभग 3000 किलोमीटर
प्रति घंटे) तक की टक्कर के बाद जीवित रह सके,
और 1.14 गीगापास्कल
तक की ज़ोरदार टक्कर सहन कर गए। इससे तेज़ टक्कर होने पर उनका कचूमर निकल गया था।
तो बेरेशीट के दुर्घटनाग्रस्त होने पर
टार्डिग्रेड्स जीवित नहीं बचे होंगे। हालांकि लैंडर कुछ सैकड़ा मीटर प्रति सेकंड की
रफ्तार पर टकराया था, लेकिन टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि इससे 1.14 गीगापास्कल से
कहीं अधिक तेज़ झटका पैदा हुआ होगा, जो कि टार्डिग्रेड की सहनशक्ति से अधिक रहा
होगा।
ये नतीजे पैनस्पर्मिया सिद्धांत को भी
सीमित करते हैं, जो कहता है कि किसी उल्कापिंड या क्षुद्रग्रह की टक्कर के
साथ जीवन किसी अन्य ग्रह पर पहुंच सकता है। ऐसी टक्कर से उल्का पिंड में उपस्थित
जीवन भी प्रभावित या नष्ट होगा। यानी किसी उल्कापिंड के साथ पृथ्वी पर जीवन आने
(पैनस्पर्मिया) की संभावना कम है। कम से कम जटिल बहु-कोशिकीय जीवों का इस तरह
स्थानांतरण आसानी से संभव नहीं है।
वैसे ट्रैस्पस का कहना है कि स्थानांतरण
भले ‘मुश्किल’ हो, लेकिन असंभव भी नहीं है। पृथ्वी से उल्कापिंड आम तौर पर 11
किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक की रफ्तार से टकराते हैं;
मंगल पर 8 किलोमीटर
प्रति सेकंड की रफ्तार से। ये टार्डिग्रेड्स की सहनशक्ति से कहीं अधिक हैं। लेकिन
पृथ्वी या मंगल पर कहीं-कहीं उल्कापिंड की टक्कर कम वेग से भी होती है, जिसे
टार्डिग्रेड बर्दाश्त कर सकते हैं।
इसके अलावा, पृथ्वी से टक्कर के बाद चट्टानों के जो छोटे टुकड़े चंद्रमा की तरफ उछलते हैं, उनमें से लगभग 40 प्रतिशत की रफ्तार इतनी धीमी होती है कि टार्डिग्रेड जीवित रह सकें। यानी सैद्धांतिक रूप से यह संभव है कि पृथ्वी से चंद्रमा पर जीवन सुरक्षित पहुंच सकता है। कुछ सूक्ष्मजीव 5000 मीटर प्रति सेकंड का वेग झेल सकते हैं। उनके जीवित रहने की संभावना और भी अधिक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/Tardigrade_1280x720.jpg?itok=ummY4EeM
कोविड-19 महामारी ने यह तथ्य पुख्ता किया है कि जब तक सभी लोग
सुरक्षित नहीं होंगे तब तक इस महामारी से कोई भी सुरक्षित नहीं होगा। मार्च 2021
के दूसरे पखवाड़े में दुनिया भर के समाचार पत्रों में एक संयुक्त पत्र प्रकाशित हुआ
था, जिसमें दुनिया भर के नेताओं ने भविष्य में होने वाले
प्रकोपों के समय आपसी सहयोग और पारदर्शिता में सुधार के लिए एक महामारी संधि का
आह्वान किया है। उनका कहना है कि कोविड-19 महामारी ने वैश्विक समुदाय के सामने
सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।
इस संधि पर हस्ताक्षर करने वालों में यूके
के प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और
जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल जैसी हस्तियों समेत युरोप,
अफ्रीका, दक्षिण
अफ्रीका और एशिया के 20 से अधिक देशों के नेता व अधिकारी शामिल हैं।
भविष्य की महामारियों से निपटने के लिए इस
संधि की शुरुआत करने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक टेडरोस
एडेनॉम गेब्रोयेसस और युरोपीय परिषद के अध्यक्ष चार्ल्स माइकल ने भी इस
अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके अलावा अल्बेनिया, चिली, कोस्टा
रिका, युरोपीय परिषद, फीजी,
फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, इंडोनेशिया, इटली, नार्वे, पुर्तगाल, कोरिया
गणराज्य, रोमानिया, रवांडा,
सेनेगल, दक्षिण
अफ्रीका, स्पेन, थाईलैंड,
त्रिनिदाद व टोबैगो, ट्यूनीशिया, युनाइटेड
किंगडम और युक्रेन के नेताओं ने भी इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं।
खास बात यह है कि इस महामारी के दौरान जिन
दो देशों – चीन और अमेरिका – के बीच पारदर्शिता में कमी,
(कु)प्रचार करने और
गलत सूचनाओं के प्रसार को लेकर तनातनी रही,
वे ही देश इस सूची से
गायब हैं। जब इस संधि के प्रस्तावक और हस्ताक्षरकर्ता,
गेब्रोयेसस से
अमेरिका और चीन की इस संधि से अनुपस्थिति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने यह आश्वासन
दिया कि इस संधि पर अमेरिका और चीन की प्रतिक्रिया ‘सकारात्मक’ है, लेकिन
उन्होंने इस बात की पुष्टि नहीं की कि अमेरिका और चीन (साथ ही रूस और अन्य
उल्लेखनीय अनुपस्थित देश) इसमें शामिल होंगे या नहीं।
संधि व पत्र क्या कहते हैं?
वैश्विक नेताओं ने इस पत्र से उम्मीद जगाई
है। पत्र में लिखा है कि ‘एक अधिक मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचा बनाया जा
सकता है जो भावी पीढ़ी को अधिक सुरक्षित कर सकता है।’
‘भविष्य में दुनिया में और भी अन्य
महामारियां और गंभीर स्वास्थ्य संकट आएंगे। और कोई भी राष्ट्रीय सरकार या संघ
अकेले इन मुश्किलों का सामना नहीं कर सकता। और यह तो वक्त बताएगा कि यह ज़रूरत कब
पड़ेगी।’
इस संधि का उद्देश्य राष्ट्रीय, क्षेत्रीय
और वैश्विक क्षमताओं को मज़बूत करना है और भविष्य की महामारियों के प्रति लचीलापन
बनाना है। यह उद्देश्य डब्ल्यूएचओ के उद्देश्य से मेल खाता है जो मानता है कि विश्व
के हरेक व्यक्ति को बेहतर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो।
पारदर्शिता इस अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि
के मुख्य बिंदुओं में से एक है। देखा गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान
पारदर्शिता में कमी लगातार एक डर पैदा करती रही।
यूके पहले ही कह चुका है कि वह एक नई
स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी शुरू करेगा जो यह सुनिश्चित करेगी कि देश किसी भी भावी
महामारी से निपटने के लिए तैयार रहे। चूंकि हाल ही में टीकों की आपूर्ति और वितरण
देशों के बीच कटुता का नवीन स्रोत बनकर उभरा है,
इसलिए यह संधि
महामारी के दौरान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी केंद्रित होगी। अंतर्राष्ट्रीय
महामारी संधि का आह्वान करने वाले अंतर्राष्ट्रीय नेताओं का कहना है कि संधि का
मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक क्षमताओं को मज़बूत
करने वाले और भावी महामारियों के प्रति लचीलापन बनाने वाले राष्ट्रव्यापी व
सामाजिक तरीकों को बढ़ावा देना है।’
अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि का आगाज़ करने
वाले नेताओं को लगता है कि यह संधि चेतावनी प्रणाली को बेहतर करने में सहयोग
बढ़ाएगी। संधि इसमें शामिल राष्ट्रों के साथ डैटा साझा करने और अनुसंधान करने की
बात भी कहती है। इसमें स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर टीके व
सार्वजनिक स्वास्थ्य विकास, और जन स्वास्थ्य सामग्री (जैसे टीके, दवाइयां, नैदानिक
उपकरण और व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण) की वितरण युक्तियों का भी उल्लेख किया गया है।
संधि में उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह भी है
कि यह संधि हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच ‘पारदर्शिता,
सहयोग और ज़िम्मेदारी’
बढ़ाएगी। यही बात नेताओं ने भी अपने पत्र में कही है: ‘यह संधि अपने नियमों और
मानदंडों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परस्पर दायित्व और साझा ज़िम्मेदारी, पारदर्शिता
और सहयोग को बढ़ावा देगी।’
संधि के हस्ताक्षरकर्ताओं का कहना है कि
‘इन उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम दुनिया भर के नेताओं और सभी हितधारकों समेत
समुदाय और निजी क्षेत्रों के साथ भी काम करेंगे। देश,
सरकार और
अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के प्रमुख होने के नाते यह सुनिश्चित करना हमारी
ज़िम्मेदारी है कि दुनिया कोविड-19 महामारी से सबक सीखे।’
अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि अपना स्वरूप
ले रही है, और अधिक से अधिक देशों के प्रतिनिधि महामारी के खिलाफ
दुनिया को एकजुट करने के लिए इसमें शामिल हो रहे हैं। ऐसे में सात औद्योगिक देशों
के समूह (जी-7) से उम्मीद है कि जून में यूके में होने वाले शिखर सम्मेलन में वे
महामारी संधि के विचार को समझें।
संधि के संभावित परिणाम
यह तंत्र इसलिए बनाया जा रहा है ताकि भावी
महामारियों से बेहतर ढंग से निपटने में हस्ताक्षरकर्ता देश एक-दूसरे को तैयार
करें। यदि यह संधि अस्तित्व में आती है तो इसके परिणाम कुछ इस प्रकार हो सकते हैं
–
डैटा साझा करने और साझा अनुसंधान करने से महामारियों के
खिलाफ सुरक्षा उपाय जल्द पता किए जा सकेंगे,
क्योंकि ऐसा करने से
एक ही समस्या पर न सिर्फ अधिक लोग काम कर रहे होंगे बल्कि वे एक-दूसरे के साथ
मिलकर काम कर रहे होंगे।
कुछ देशों के पास टीके बनाने के लिए ज़रूरी कच्चा माल
बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि कुछ देशों को अपने टीके बनाने के लिए इसे आयात करना
पड़ता है। इसलिए देशों के बीच संसाधनों की साझेदारी से टीकों और दवाइयों का तेज़ी से
निर्माण किया जा सकेगा।
भविष्य में महामारी का सामना करके देश समन्वित तरह से श्रम
विभाजन कर सकेंगे, जिससे वे अपनी विशेषज्ञता के अनुसार स्वास्थ्य सेवा
सामग्रियों का निर्माण कर सकेंगे और इन सामग्रियों और सुविधाओं की एक विस्तृत
आपूर्ति शृंखला स्थापित कर सकेंगे। जो एक अकेले राष्ट्र या संगठन द्वारा हासिल करना
संभव नहीं है।
चूंकि इस संधि के तहत देश एक-दूसरे की मदद करेंगे और ऐसे
कार्यों से राष्ट्रों के बीच सद्भावना बनेगी,
नतीजतन यह संधि देशों
के बीच बेहतर सम्बंध बना सकेगी।
चूंकि संधि के सदस्य इसमें शामिल अन्य सदस्यों से चिकित्सा
उपकरणों की सहायता मांग सकते हैं, इसलिए इससे किसी भी राष्ट्र के लिए
चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ जाएगी। यह किसी देश को सिर्फ अपनी स्वास्थ्य
सुविधाओं के साथ महामारी से अकेले जूझने की तुलना में अधिक मददगार साबित होगा।
महामारी से यदि कुछ देशों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाती है, तो
इस संधि के तहत हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच होने वाले लेन-देन के कारण कुछ हद तक
उन देशों का आर्थिक विकास भी हो सकेगा। इस तरह के लेन-देन सुरक्षात्मक उपकरण, चिकित्सा
संसाधन, कच्चे माल आदि की आपूर्ति करने वाले देशों को राजस्व देंगे।
निष्कर्ष
दुनिया भर के नेताओं द्वारा ज़रूरत के वक्त एक दूसरे की मदद करने का आह्वान, अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि, काफी अच्छा विचार है। महामारी को हराने और जान-माल के नुकसान को कम करने के लिए एकजुट होकर काम करना एक अच्छा विचार है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि संधि कैसी होगी। अमेरिका, चीन और रूस ने संधि पर हस्ताक्षर क्यों नहीं किए, यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। जी-7 शिखर सम्मेलन होने ही वाला है। इसलिए जब तक इन सवालों के जवाब स्पष्ट नहीं हो जाते और संधि एक ठोस रूप और ढांचा अख्तियार नहीं करने लगती, तब तक यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि वास्तव में इस संधि से लोगों को कोविड-19 और भविष्य में आने वाली महामारियों के दौरान लाभ मिलेगा या नहीं। आशावादी होना और बेहतर की कामना करना अच्छा है, लेकिन सभी की समस्याओं को हल करने के लिए एक ही संधि से आस बांधना भी व्यावहारिक नहीं है। इस तरह की संधि यकीनन सही दिशा में एक कदम है और मौजूदा हालात में यह आशाजनक ही लग रही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.consilium.europa.eu/media/49751/10-points-infographic-pandemics-treaty-thumbnail-2021.png
वयोवृद्ध पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के अग्रणी सुंदरलाल
बहुगुणा का 21 मई को 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इसके दो हफ्ते पहले उन्हें
कोविड-19 के चलते ऋषिकेश के एक अस्पताल में भर्ती किया गया था। जंगलों और नदियों
को बचाने के उनके प्रयासों और मानव कल्याण में उनके महान योगदान के लिए उन्हें
हमेशा याद किया जाएगा।
उनका जन्म टिहरी गढ़वाल में गंगा किनारे एक गांव में हुआ था। जब वे स्कूली
छात्र थे तब उनकी मुलाकात प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन से हुई, जिन्होंने आगे चलकर कारावास के दौरान अपने जीवन का बलिदान कर दिया था। समाज के
प्रति समर्पित उनके जीवन से बहुगुणा जी प्रेरित हुए और उन्होंने सुमन जी का अनुसरण
करने का फैसला किया। वे गोपनीय ढंग से सुमन जी से सम्बंधित खबरें भेजने लगे, जिसके कारण उन्हें पुलिसिया कार्रवाई का सामना करना पड़ा। बचने के लिए वे लाहौर
चले गए,
लेकिन जब टिहरी साम्राज्य में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था
तब वे लौट आए।
पहले तो उन्हें टिहरी में प्रवेश नहीं करने दिया गया, लेकिन
किसी तरह वे संघर्षों में शामिल हुए और आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आज़ादी के बाद उन्होंने खुद को विभिन्न सामाजिक उद्देश्यों के लिए समर्पित कर
दिया। अपनी निर्विवाद ईमानदारी और गहन समर्पण भाव के कारण उस समय वे गढ़वाल के
सामाजिक-राजनीतिक दुनिया के उभरते हुए सितारे थे। उन्हें विमला नौटियाल जी के पिता
की ओर से शादी का प्रस्ताव आया, लेकिन विमला जी तब तक सामाजिक
कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी सरला बहन की शिष्या बन गर्इं थी और राजनीति की
चमक-दमक से दूर ग्रामीणों की सेवा के प्रति समर्पित थीं। उन्होंने सुंदरलाल जी के
सामने यह शर्त रखी कि वे उनसे शादी तभी करेंगी जब वे राजनीति की चमक-दमक छोड़ उनके
साथ दूर-दराज़ के ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की सेवा करने के लिए राज़ी होंगे।
सुंदरलाल जी इस बात पर राज़ी हो गए। शादी के बाद वे दोनों घनसाली के पास स्थित
सिलयारा गांव में ग्रामीणों की सेवा करने के लिए बस गए। यह गांव बालगंगा नदी के
निकट था। वहां उन्होंने सिलयारा आश्रम बसाया, जो
सामाजिक गतिविधियों का प्रशिक्षण केंद्र बना। दोनों ने ही दृढ़ता से महात्मा गांधी
को अपना मुख्य शिक्षक और प्रेरणा स्रोत माना।
चीन के आक्रमण के बाद गांधीवादी विनोबा भावे ने हिमालयी क्षेत्र में गांधीवादी
सामाजिक कार्यकर्ताओं से व्यापक स्तर पर सामाजिक कार्य करने का आह्वान किया था। तब
विमला जी की सहमति से वे उत्तराखंड के कई हिस्सों, खासकर
गढ़वाली क्षेत्र में अधिक यात्राएं करने लगे और आश्रम की बागडोर विमला जी ने संभाल
ली। इन यात्राओं से सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों में उनकी भागीदारी बढ़ी।
सुंदरलाल जी और विमला जी दोनों ही ने शराब विरोधी आंदोलनों और अस्पृश्यता को
चुनौती देने वाले दलित आंदोलनों में भाग लिया। इस दौरान हेंवलघाटी जैसे क्षेत्र
में कई युवा कार्यकर्ताओं के साथ उनके प्रगाढ़ सम्बंध बने। सत्तर के दशक के अंत में
अद्वानी और सालेट जैसे जंगलों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में चिपको आंदोलन
की शुरुआत की गई,
जिसने लोगों में बहुत उत्साह पैदा किया। यह आंदोलन कांगर और
बडियारगढ़ जैसे सुदूर जंगलों तक भी फैला, जहां सुंदरलाल बहुगुणा
ने बहुत कठिन परिस्थितियों में घने वन क्षेत्र में लंबे समय तक उपवास किया। साथ ही
साथ उन्होंने सरकार के वरिष्ठ लोगों के साथ संवाद बनाए रखा। खासकर, प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मन में उनके लिए बहुत सम्मान था। उनके
प्रयासों से बहुत बड़ी सफलता हासिल हुई – सरकार हिमालय क्षेत्र के एक बड़े इलाके में
पेड़ों की कटाई रोकने के लिए तैयार हो गई।
इस सफलता के बाद उन्होंने जंगलों और पर्यावरण को बचाने में लोगों की भागीदारी
का संदेश फैलाने के लिए भूटान और नेपाल सहित कश्मीर से लेकर कोहिमा तक हिमालयी
क्षेत्र के एक बड़े हिस्से की बहुत लंबी और कठिन यात्रा की। कई चरणों में की गई इस
यात्रा के दौरान उनकी जान पर कई बार खतरे आए, लेकिन
वे रुके नहीं और अपनी यात्रा पूरी की।
उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ टिकाऊ आजीविका की सुरक्षा पर भी ज़ोर
दिया। उन्होंने विस्थापन का पुरज़ोर विरोध किया और वन श्रमिकों को संगठित किया।
उन्होंने कई रचनात्मक कार्य भी किए। जैसे, खत्म
होते जंगलों को पुर्नजीवित करना और जैविक/प्राकृतिक/पारंपरिक खेती को बढ़ावा देना।
जल्द ही वे हिमालयी क्षेत्र में बांध परियोजनाओं द्वारा होने वाली सामाजिक और
पर्यावरणीय हानि को रोकने के आंदोलन में गहन रूप से जुड़ गए, खासकर विशाल और अत्यधिक विवादास्पद टिहरी बांध परियोजना विरोधी आंदोलन से।
उच्च-स्तरीय आधिकारिक रिपोर्टों द्वारा इसके हानिकारक प्रभावों की पुष्टि किए जाने
के बावजूद इस परियोजना को बढ़ावा दिया जा रहा था। यह उनका यह बहुत लंबा और कठिन
संघर्ष रहा। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपना आश्रम छोड़ दिया और विमला जी के साथ कई
महीनों तक गंगा नदी के तट पर डेरा डाले रहे।
भले ही उनका यह लंबा संघर्ष उच्च जोखिम वाले बांध बनने से न रोक सका, लेकिन बेशक उनके इस संघर्ष ने इन महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति दूर-दूर तक
जागरूकता फैलाई।
सुंदरलाल बहुगुणा जी भारत के कई हिस्सों और यहां तक कि विदेशों में भी वन
संरक्षण और पर्यावरण संघर्ष के एक प्रेरणा स्रोत बन कर उभरे। जैसे, पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों को बचाने के लिए छेड़े गए अप्पिको आंदोलन के वे एक
महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत थे। उन्हें महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में
आमंत्रित किया गया और पर्यावरणीय मुद्दों पर व्यापक तौर पर उनकी राय ली गई। उन्हें
पद्मविभूषण सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया।
अपनी आजीविका के लिए उन्होंने आजीवन हिंदी और अंग्रेज़ी में अंशकालिक पत्रकार
और लेखक के रूप में काम किया। उनके साक्षात्कारों के अलावा उनके लेख और रिपोर्ट कई
प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। विमला जी ने मुझे बताया
कि उनके पूर्व में प्रकाशित लेखन के कम से कम दो संग्रह छपकर आने वाले हैं।
उन्होंने भूदान आंदोलन और हिमालयी क्षेत्र में टिकाऊ आजीविका और पर्यावरण
संरक्षण के संयोजन के साथ एक वैकल्पिक विकास रणनीति विकसित करने जैसे कई रचनात्मक
कार्यों में योगदान दिया।
उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दिन देहरादून में अपनी बेटी के घर बिताए। पिछले
वर्ष जब मैंने सुंदरलाल जी और विमला जी की जीवनी लिखी, और
अपनी पत्नी मधु के साथ उन्हें यह पुस्तक भेंट करने के लिए देहरादून गया तो वे
कमज़ोर होने के बावजूद बातचीत करने के लिए बड़े उत्सुक और खुश थे। उनकी बेटी माधुरी
और विमला जी द्वारा उनकी बहुत देखभाल की जा रही थी।
यहां यह भी याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि सत्तर सालों के साथ के दौरान उनकी पत्नी विमला जी ने उनके सभी प्रयासों में साथ और योगदान दिया। वे सभी संघर्षों, बाधाओं और उपलब्धियों में हमेशा साथ रहे। वे अपने पीछे विमला जी और एक बेटी माधुरी और दो बेटे राजीव और प्रदीप छोड़ गए हैं। पर्यावरण संरक्षण और लोगों की टिकाऊ आजीविका के लिए काम करते रहना ही उनके लिए हमारी सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://spiderimg.amarujala.com/assets/images/2021/05/21/750×506/sundarlal_1621583639.jpeg
प्रतिरक्षा तंत्र बेतरतीबी से निर्मित खजाने से कैसे काम चलाता है?
प्रतिरक्षा तंत्र यह कैसे सुनिश्चित करता है कि पहचान के लिए
जो चाभियां वह बना रहा है, वे किसी गलत ताले को नहीं
खोलेंगी और खुद ही बीमारी का कारण नहीं बन जाएंगी?
ज़ाहिर है कि यदि प्रतिरक्षा तंत्र को इस तरह तैयार किया गया है कि वह जिन
लक्ष्यों को पहचाने उनके खिलाफ ज़ोरदार कार्रवाई करे, तो हम
यह तो नहीं चाहेंगे कि वह किसी ऐसी चीज़ को लक्ष्य के रूप में पहचान ले जिसकी हमें
ज़रूरत है,
जैसे हमारी लिवर की कोशिकाएं। लेकिन हमने कहा था कि विकसित
होता प्रतिरक्षा खजाना तो मूलत: बेतरतीब होता है। इसलिए यह संभावना रहती ही है कि
उसमें ऐसे ग्राही तैयार हो जाएंगे जो हमारे अपने शरीर के सामान्य हिस्सों यानी
‘स्व’ को लक्ष्य के रूप में पहचान लेंगे।
अब चूंकि हम ग्राही-निर्माण प्रणाली की बेतरतीब व्यवस्था को गंवाना नहीं चाहते, इसलिए हम इस समस्या में उलझ जाते हैं कि ऐसी बी तथा टी कोशिकाएं बन जाएंगी जो
स्व-पहचान ग्राहियों से लैस होंगी। यदि हम ऐसी कोशिकाओं को बनने से रोक नहीं सकते, तो हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि बनने के बाद उन्हें ठप कर दिया जाएगा। इसके
लिए पहली ज़रूरी बात यह होगी कि उन कोशिकाओं को पहचाना जाए जिन पर ऐसे ग्राही हैं, जो अपने शरीर के किसी घटक को पहचानते हों। इसके बाद किसी युक्ति से उन्हें ठप
करना होगा। प्रतिरक्षा विज्ञान की अत्यंत प्रतिष्ठित ‘मूलभूत मान्यता’ यह है कि
प्रतिरक्षा तंत्र ‘अपने’ और ‘पराए’ में भेद करता है। यह काम छंटाई जैसी साधारण
प्रक्रियाओं पर टिका है हालांकि प्रतिरक्षा वैज्ञानिक इसे ‘नकारात्मक चयन’ कहकर
महिमामंडित करते हैं।
इसका मतलब है कि ‘अपने-पराए’ का भेद संरचना के किसी सामान्य नियम के तहत नहीं
किया जाता। प्रतिरक्षा तंत्र में ऐसा कोई पूर्व निर्धारित मापदंड नहीं है जो उसे
बताए कि वे अणु कौन-से हैं जो शरीर में ‘सामान्यत:’ बनते हैं। इनकी परिभाषा शुद्ध
रूप से अनुभव-आधारित है: यदि कोई चीज़ लगातार आसपास नज़र आती है, शरीर में सब जगह मिलती है और किसी घुसपैठिए के कामकाज से जुड़ा कोई चिंह नहीं
है तो बहुत संभावना है कि यह ‘अपना’ अणु होगा। अन्यथा इसके पराया होने की संभावना
ज़्यादा है।
प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा ‘अपने’ की पहचान
सवाल यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र ऐसे अनुभव-आधारित फैसले कैसे करता है? एक तरीका यह है कि यदि कोई अणु लगातार उपस्थित हो तो काफी संभावना है कि उसका
सामना ‘नवनिर्मित’ बी या टी कोशिका से जन्म लेते ही हो जाएगा। तो एक नियम यह है कि
यदि कोई बी या टी कोशिका लड़कपन (यानी बनने के कुछ ही समय बाद) में ही किसी लक्ष्य
को पहचान ले,
तो वह बी या टी कोशिका हानिकारक है और उसे खामोश हो जाना
चाहिए। यदि उसे (बी या टी कोशिका को) अपना लक्ष्य प्रौढ़ होने के बाद नज़र आए तो
संभावना यह है कि वह लक्ष्य पराया होगा और ऐसी कोशिकाओं को उस लक्ष्य के विरुद्ध
पूरी ताकत से प्रतिक्रिया देना चाहिए। दूसरे शब्दों में बी व टी कोशिकाओं के विकास
के दौरान एक अवधि ऐसी होती है (कोशिका की सतह पर ग्राही के अभिव्यक्त होने के
तुरंत बाद) जब किसी एंटीजन से सामना होने पर वे सक्रिय होने की बजाय निष्क्रिय हो
जाएंगी।
ज़ाहिर है,
इसमें कई भूल-चूक की संभावना है। यदि शरीर में कोई संक्रमण
चल रहा है,
जिसके अणु (एंटीजन) नवजात प्रतिरक्षा कोशिकाओं को नज़र आ
जाते हैं,
तो ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाओं को छांटकर अलग कर दिया जाएगा।
वे उस एंटीजन के विरुद्ध कार्रवाई करने की बजाय निष्क्रिय हो जाएंगी। ऐसा गर्भाशय
में पल रहे बच्चे के मामले में होता है जो अपनी मां से कोई संक्रमण (जैसे
हिपैटाइटिस बी वायरस) हासिल कर लेता है।
दूसरा,
शरीर के सारे अणु लगातार अस्थि मज्जा या थायमस ग्रंथि में
आते-जाते तो नहीं रह सकते। शरीर के कई अणु कोशिकांतर्गत प्रोटीन के रूप में होते
हैं। या कुछ अणु मात्र कुछ विशिष्ट ऊतकों में प्रकट होते हैं। इसलिए संभावना है कि
अस्थि मज्जा या थायमस ग्रंथि में रहते हुए बी या टी कोशिकाएं इनके संपर्क में न
आएं। लेकिन जब वे अपनी जन्मस्थली से निकलकर व्यापक शरीर में पहुंचेंगी तो उनका
सामना इन अणुओं से होगा। यदि ऐसा हुआ, तो चाहे ये अणु शरीर के
दृष्टिकोण से ‘अपने’ हों, लेकिन प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें
‘पराया’ मानेगा और हमला कर देगा। यह तो स्वास्थ्य व खुशहाली के लिए नुकसानदायक
होगा। तो एक और पहचान व्यवस्था की ज़रूरत है। क्या किया जाए?
प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करे कि किस पर हमला करे और किसे छोड़ दे?
हमने ऊपर कहा था कि ‘अपने’ को पहचानने का एक और तरीका यह है कि ‘अपने’ पर
सामान्यत: किसी घुसपैठिए के कामकाज का कोई चिंह नहीं होगा। यह चीज़ एक अन्य समस्या
से जुड़ी है जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं। इसका सम्बंध प्रतिरक्षा तंत्र के
पहचान मॉडल से है। यदि किसी चीज़ पर कोई ‘बिल्ला’ चिपका है, तो ज़रूरी
नहीं कि वह चीज़ हानिकारक ही हो। लिहाज़ा, हर ‘बिल्ले’ पर टूट पड़ना
संसाधन और श्रम की बरबादी होगी। तो प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करे कि कब
प्रतिक्रिया दे और कब अनदेखा करे?
दरअसल,
यह दिक्कत एक अन्य वजह से और मुश्किल हो जाती है – ध्यान
रखें कि प्रतिरक्षा तंत्र को अलग-अलग रोगजनकों के बारे में यह भी फैसला करना होता
है कि कार्रवाई के किस मार्ग का उपयोग करे। वायरस को थामने के लिए उसे संक्रमित
कोशिका को मारना होता है; कोशिका से बाहर मौजूद संक्रमण
के लिए विशिष्ट किस्म की एंटीबॉडी बनानी होती हैं; और
विकल्पी परजीवियों के लिए उन भक्षी-कोशिकाओं को सक्रिय करना होता है जिनके अंदर ये
परजीवी बैठे हैं।
इनमें से कोई भी प्रतिक्रिया हर किस्म के संक्रमण के विरुद्ध कारगर नहीं
होंगी। तो प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करेगा कि कब क्या करना है? और इसके साथ टीकों की बात जोड़ लें, तो हम प्रतिरक्षा तंत्र
को कैसे तैयार करेंगे कि वह सही किस्म की शक्तिशाली प्रतिक्रिया दे? आप देख ही सकते हैं कि प्रतिरक्षा खज़ाने की छंटाई करना टी और बी कोशिकाओं के
संदर्भ में सही निर्णय करने की सामान्य समस्या का ही हिस्सा है।
इस समस्या से निपटने का एक ही वास्तविक तरीका है – कि किसी लक्ष्य की पहचान के
बाद प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया को संदर्भ के भरोसे छोड़ दिया जाए। यानी यह
संदर्भ ऐसे संकेतों से बना होगा जो यह नहीं बताएंगे कि लक्ष्य क्या है, बल्कि यह बताएंगे कि वह लक्ष्य ‘खतरे’ का द्योतक है या नहीं ऐसा होने पर
प्रतिरक्षा कोशिका को चुप बैठने की बजाय कुछ करना चाहिए। ज़ाहिर है, सबसे सरल संदर्भ संकेत वे होंगे जिनका उपयोग जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र करता है
– जैसे कि भक्षी कोशिकाएं अपने ढंग से परजीवियों से निपटने में करती हैं। कोशिकाओं
की सतह पर उपस्थित अणु तथा रुाावित प्रोटीन दोनों का स्तर संक्रमण से प्रेरित होता
है,
ऐसे संदर्भ जनित संकेत होते हैं और यदि लक्ष्य की पहचान ऐसे
संकेतों की अनुपस्थिति में हो तो बी और टी कोशिकाएं कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगी
बल्कि खामोश कर दी जाएंगी। यह एक सफल नकारात्मक चयन होगा।
बहरहाल,
नकारात्मक चयन की ये सारी शैलियां लगभग ही ठीक बैठती हैं, और अपेक्षा की जानी चाहिए कि इनमें कई खामियां होंगी। दरअसल, सामान्य व्यक्तियों में भी स्व-सक्रिय प्रतिरक्षा कोशिकाएं बहुत दुर्लभ नहीं
होतीं। तो सवाल उठता है कि ऐसी स्व-सक्रिय प्रतिरक्षा कोशिकाएं बार-बार
आत्म-प्रतिरक्षा बीमारियां पैदा क्यों नहीं करतीं। इस सवाल का जवाब इस बात में
छिपा है कि संदर्भ-जनित संकेत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का सूक्ष्म प्रबंधन करते
हैं।
ठप कर दी गई बी और टी कोशिकाओं का क्या होता है?
यह कहना तो ठीक है कि आप बी या टी कोशिका को ठप कर देंगे। लेकिन ठप करने का
ठीक-ठीक मतलब क्या है? मोटे तौर पर प्रतिरक्षा तंत्र के सामने दो
विकल्प हैं। एक तो यह है कि जिस कोशिका को ठप किया जाना है उसे उकसाया जाए कि वह
अपने मारक जीन्स को सक्रिय करके खुदकुशी कर ले। इसका मतलब होगा कि वह स्व-सक्रिय
कोशिका भौतिक रूप से मिटा दी जाएगी और फिर कभी समस्या पैदा नहीं करेगी। नवजात बी व
टी कोशिकाओं द्वारा स्व-लक्ष्य की कुशलतापूर्व पहचान और साथ में खतरे के सशक्त
संदर्भ-जनित संकेत मौजूद हों, तो सफाए का यही तरीका अपनाया
जाता है।
दूसरी ओर,
यदि संकेत (खास तौर से संदर्भ-जनित संकेत) इतने सशक्त न हों
कि वे कोशिका को खुदकुशी तक खींच लाएं, तो उस कोशिका को कोल्ड
स्टोरेज में डालकर खामोश रखा जा सकता है। कहने का मतलब कि उसके साथ ऐसी छेड़छाड़ की
जाती है कि वह काफी समय तक किसी चीज़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं दे पाएगी। यह एक
ऐसा उपचार है जो सिर्फ नवजात कोशिकाओं पर नहीं बल्कि सारी बी व टी कोशिकाओं पर
किया जा सकता है। तो यह छंटाई का एक सामान्य तरीका है।
लेकिन यह उपचार बार-बार करते रहना होगा, और
इसलिए ये संभावित स्व-सक्रिय बी व टी कोशिकाएं शरीर के लिए हमेशा एक खतरे के रूप
में उपस्थित रहेंगी। बहरहाल, प्रतिरक्षा तंत्र के पास इनसे
निपटने के उपाय हैं जो इन कोशिकाओं के ग्राहियों में फेरबदल कर सकते हैं। ऐसा
फेरबदल करने पर ये स्व की बजाय पराए लक्ष्यों को पहचानने लगती हैं। यानी कोल्ड स्टोरेज
विकल्प का कुछ फायदा तो है। ज़ाहिर है, यदि ग्राही को ही बदल
दिया गया तो इस कोशिका को ठप करने का उपचार फिर शायद काम न करे क्योंकि यह उपचार
इस बात पर निर्भर है कि कोई ग्राही शरीर में सदा उपस्थित किसी चीज़ को पहचाने। यदि
ग्राही बदल गया तो ये कोशिकाएं फिर से सक्रिय हो जाएंगी और संभावना है कि किसी काम
आएं।
तो हमने देखा कि विभिन्न सम्बंधित तंत्रों से कोशिकाएं और प्रक्रियाएं उधार लेकर प्रतिरक्षा तंत्र अपने लिए ऐसे जुगाड़ करता है कि उसे काम करने में मदद मिलती है – किसी भी बाहरी घुसपैठिए के खिलाफ काफी लक्ष्योन्मुखी ढंग से। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://2rdnmg1qbg403gumla1v9i2h-wpengine.netdna-ssl.com/wp-content/uploads/sites/3/2016/11/immuneSystem-1190000241-770×553-1-650×428.jpg
लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व युरोपीय खोजकर्ताओं ने न केवल
कैरेबिया के मूल निवासियों के जीवन को तहस-नहस किया बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र
को भी काफी नुकसान पहुंचाया था। एक नए अध्ययन से पता चला है कि इस द्वीप पर रहने
वाले लगभग 70 प्रतिशत सांप और छिपकलियां खत्म हो चुके हैं। इसके पीछे उपनिवेशकों
के साथ आए बिल्ली, चूहों और रैकून को ज़िम्मेदार बताया जा रहा
है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार कमज़ोर प्रजातियों के लिए समस्याएं मनुष्यों के कारण
नहीं बल्कि मनुष्यों की पर्यावरण से परस्पर क्रिया से उत्पन्न हुई हैं।
गौरतलब है कि पांडा जैसे लोकप्रिय जीवों की तुलना में छिपकली, सांप और अन्य सरिसृपों और उनके इतिहास के बारे में हम कम ही जानते हैं। फिर भी
ऐसा माना जाता है कि ये प्रजातियां पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका
निभाती हैं। ये जीव पौधों का परागण करते हैं, बीजों
को फैलाते हैं,
छोटे जीवों को खाते हैं और स्वयं भी बड़े जीवों द्वारा खाए
जाते हैं। इनमें से कुछ तो धरती के नीचे बिलों में रहते हुए पूरे भूपटल को ही बदल
देते हैं।
ऐसे में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री के पुराजंतु
वैज्ञानिक कोरंतन बुशातों ने कैरेबिया की संवेदनशील जैव विविधता के अध्ययन हेतु
अपने सहयोगियों के साथ पूर्वी कैरेबिया स्थित गुआदेलूप के छह द्वीपों पर पहले से
खुदाई की गई गुफाओं का अध्ययन किया। ये छह द्वीप पूर्व में फ्रांस के अधीन थे। टीम
ने गुफाओं के फर्श की विभिन्न परतों को हटाते हुए हड्डियों के हज़ारों टुकड़े
एकत्रित किए जिनमें से कुछ तो तीन मिलीमीटर से भी छोटे थे।
खोजे गए 43,000 जीवाश्मों में से शोधकर्ताओं ने 16 विभिन्न प्रकार की छिपकलियों
और सांपों की पहचान की। जीवाश्मों को चार समूहों में विभाजित किया गया: 32,000 से
11,000 वर्ष पुराने, 11,650 से 2540 वर्ष पुराने, 2450 से 458 वर्ष पुराने (वह अवधि जब मूल निवासी बस चुके थे लेकिन युरोपीय
नहीं पहुंचे थे) और 458 से वर्तमान समय तक।
साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक द्वीप
पर 11,000 वर्ष पूर्व चार प्रकार के सांप और पांच प्रकार की छिपकलियां पाई जाती
थीं जो अब नहीं पाई जातीं। इनकी जगह छिपकलियों की चार अन्य प्रजातियों ने ली, जिनमें से दो प्रजातियां लगभग 2000 वर्ष पूर्व प्रकट हुई थीं जबकि अन्य दो
युरोपियों के आगमन के बाद। संभावना है कि ये कैरेबिया के अन्य हिस्सों से आई हैं।
बुशातों और उनकी टीम ने गुआदेलूप में छिपकलियों और सांपों के 40,000 वर्ष के जैव
विकास इतिहास पर ध्यान दिया। उन्होंने पाया कि 1493 में क्रिस्टोफर कोलंबस के आने
से पूर्व कैरेबिया में 13 सरिसृप प्रजातियां उपस्थित थीं। जलवायु परिवर्तन और मूल
निवासियों की उपस्थिति उनके लिए कोई समस्या नहीं रही।
लेकिन इनकी लगभग आधी आबादी युरोपीय लोगों के आने के बाद गायब हो गई, जिनमें सांप की तीन और छिपकलियों की पांच प्रजातियां थीं। कुछ द्वीपों पर तो
70 प्रतिशत तक सरिसृप प्रजातियां खत्म हो गर्इं। ऐसी आशंका है कि छिपकलियां या तो
युरोपीय लोगों द्वारा लाए गए आक्रामक जीवों का शिकार हो गर्इं या फिर गन्ने की
खेती के कारण उन्होंने अपना प्राकृतवास खो दिया।
हालांकि, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की क्षति का पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। इस निष्कर्ष से वैज्ञानिकों के बीच प्रचलित एक आम सिद्धांत को बल मिलता है कि जब तक देशज लोगों ने अपनी पारंपरिक प्रथाओं के साथ भूमि प्रबंधन किया है, तब तक जैव विविधता भी मनुष्यों के साथ-साथ सहजता से उपस्थित रह सकी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Iguana_Guadalupe_1280x720.jpg?itok=cYa__1km
वनों की कटाई जब चिंता का बड़ा विषय है, तब संयुक्त राज्य अमेरिका में दुनिया के सबसे बड़े वानिकी प्रयोग को 22 अप्रैल
को हरी झंडी मिल गई है। प्रयोग के तहत यह आकलन करने की कोशिश की जाएगी कि जैव
विविधता का संरक्षण करते हुए लकड़ी के उत्पादन के सबसे अच्छे तरीके क्या हो सकते
हैं। प्रयोग के लिए वनों की नियंत्रित कटाई करने की अनुमति भी मिलेगी।
परियोजना की शुरुआत करने वाले ओरेगन स्टेट युनिवर्सिटी (ओएसयू) के थॉमस डीलुका
का कहना है कि जंगल ज़रूरी हैं लेकिन हमें लकड़ी की भी ज़रूरत है। तो लकड़ी उत्पादन के
बेहतर तरीके खोजने होंगे और यह परियोजना हमें इसी काम में मदद करेगी।
दक्षिण-पश्चिमी ओरेगन में नव-निर्मित एलियट स्टेट रिसर्च फॉरेस्ट की लगभग
33,000 हैक्टर भूमि इस परियोजना के अधीन होगी। इसे 40 से अधिक भागों में बांटकर
वैज्ञानिक कई वन-प्रबंधन रणनीतियों का परीक्षण करेंगे, जिनमें
से कुछ में वनों की कटाई भी की जाएगी। इस परियोजना की सलाहकार समिति के सदस्यों
में पर्यावरणविद,
शिकारी, लकड़हारे और स्थानीय जनजातियों
के लोग शामिल हैं।
दशकों से एलियट वन क्षेत्र विवादों में घिरा रहा है। यहां वनों की कटाई एक बड़ा
व्यवसाय है। जंगल के एक हिस्से में महत्वपूर्ण और प्राचीन डगलस फर और अन्य वृक्ष
हैं। जंगल के अन्य हिस्सों में 1930 के बाद से सक्रिय रूप से कटाई और इनकी जगह नए
पौधे लगाने का काम हो रहा है। प्राचीन जंगलों में कई विलुप्तप्राय पक्षी रहते हैं।
2012 में,
इनके संरक्षण के उद्देश्य से यहां वाणिज्यिक वन कटाई पर रोक
लगा दी गई थी।
2018 में ओएसयू शोधकर्ताओं द्वारा यह परियोजना प्रस्तावित करने से पहले तक, ओरेगन राज्य ने वन संरक्षण के लिए कई बातें स्वीकार की थीं। लेकिन इस संपदा को
शोध वन में बदलने का ओएसयू का प्रस्ताव छोटे स्तर पर वनों की कटाई फिर से शुरू कर
देगा। योजना के मुताबिक एलियट वन में कटाई से होने वाली आमदनी प्रयोग का बुनियादी
ढांचा बनाने और संचालन में मदद करेगी।
यूएस सहित दुनिया भर में दर्जनों शोध वन हैं। यहां वैज्ञानिक पारिस्थितिकी और
मिट्टी से लेकर अम्लीय वर्षा और कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर के प्रभावों का
अध्ययन करते हैं। लेकिन एलियट शोध वन इनसे अलग और बड़ी परियोजना है। परियोजना के
समर्थकों का कहना है कि यह वैज्ञानिकों को पहली बार इतने बड़े स्तर पर पारिस्थितिकी
वानिकी का परीक्षण करने का अवसर प्रदान करेगी।
परियोजना के अनुसार इसके अधीन जंगल के उस 40 प्रतिशत से अधिक हिस्से में जंगल
की कटाई नहीं होगी, जहां पुराने वृक्ष हैं। बाकी हिस्से को 40
छोटे हिस्सों में बांटकर विभिन्न तरह के भूमि प्रबंधन के अध्ययन किए जांएगे। इनमें
से कुछ हिस्सों में चुनिंदा पेड़ों की कटाई होगी। बाकी वन के आधे हिस्से को काट कर
पूरा साफ किया जाएगा, जबकि बाकी आधे वन क्षेत्र का संरक्षण किया
जाएगा। प्रत्येक तरह के प्रबंधन का प्रभाव समझने के लिए वैज्ञानिक जंगल में कार्बन
के स्तर,
नदी-नालों के स्वास्थ्य, और
कीटों,
पक्षियों और मछलियों में विविधता का आकलन करेंगे।
मंज़ूरी मिलने के बावजूद परियोजना को कई बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। 1930
से ही ओरेगन पब्लिक स्कूल एलियट वन से कटाई के माध्यम से कानूनन राजस्व लेता है।
परियोजना को इसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी।
अन्य बाधाएं भी हैं। इस परियोजना में वे जंगलों को कैसे नियंत्रित करेंगे, और जोखिमग्रस्त और लुप्तप्राय प्रजातियों का किस तरह प्रबंधन करेंगे इसकी एक
विस्तृत योजना पहले ही तैयार करनी होगी। और इसके लिए यूएस फिश एंड वाइल्डलाइफ
सर्विस का अनुमोदन भी प्राप्त करना होगा।
ओएसयू के दल ने पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय जनजातियों, उद्योगों,
पर्यावरणविदों और परियोजना समिति के अन्य सदस्यों के साथ
बैठकें और बातचीत करके सहमति बनाने की कोशिश की है। लेकिन इस पर बहस पूरी तरह खत्म
नहीं हुई है। कई पर्यावरणविदों का अब भी सवाल है कि जलवायु संकट के दौर में कार्बन
सोखने और संग्रहित करने वाले जंगलों का पूरी तरह सफाया करना कितना जायज़ है। सौ साल
पहले की गलतियों को फिर एक बार नहीं दोहराया जाना चाहिए।
इसके अलावा काष्ठ उद्योग के साथ ओएसयू के सम्बंध भी संदेह के दायरे में हैं।
जैसे 2019 में,
ओएसयू के कॉलेज ऑफ फॉरेस्ट्री ने अपने एक जंगल के 6.5
हैक्टर क्षेत्र में फैले पेड़ों को काटने की अनुमति दे दी थी, जिसमें सैकड़ों साल पुराने वृक्ष लगे थे।
डीलुका मानते हैं कि अतीत में गलतियां हुई थीं लेकिन युनिवर्सिटी का अच्छा अकादमिक रिकॉर्ड है, वे एलियट वन में एक विश्व स्तरीय अनुसंधान सुविधा बनाना चाहते हैं। अगर हम काष्ठ संसाधनों की आपूर्ति के लिए वनों में कटाई करते हुए प्रजातियों को बचाए रखने के तरीके पता कर लेते हैं, तो यह बहुत प्रभावी होगा। बहरहाल, सब कुछ अंतिम प्रबंधन योजना पर निर्भर करेगा लेकिन तब तक तो सलाहकार समिति ने परियोजना को अस्थायी हरी झंडी दिखा दी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nature.com/articles/d41586-021-01256-9
प्रतिरक्षा तंत्र उन तालों की चाभियां कैसे बनाता है, जिन्हें उसने पहले कभी न देखा हो? और यह कैसे सुनिश्चित
करता है कि हर किरदार के पास एक अनोखी चाभी हो?
प्रतिरक्षा तंत्र की अंतहीन विविधता
हमने पिछली बार बात की थी प्रतिरक्षा तंत्र के लिए एक सचमुच खुले खज़ाने के निर्माण
की। अब तक हमने जो बातें की हैं उनसे तो जीन्स के पुन:संयोजन के करतबों से मात्र
एक काफी बड़े खज़ाने के निर्माण तक पहुंच पाए हैं। वास्तव में एक अनंत खज़ाना बनाने
का एकमात्र तरीका तो यही होगा कि प्रतिरक्षा ग्राहियों की प्रत्येक शृंखला के
परिवर्ती क्षेत्र बनाने वाले VDJ या VJ एक्सॉन
में उत्परिवर्तन की मदद ली जाए। भेड़ जैसे कुछ प्राणि ऐसा करते भी हैं और मुर्गों
जैसे कुछ जीव इस विधि का थोड़ा परिवर्तित रूप इस्तेमाल करते हैं।
अलबत्ता,
माइस (एक किस्म का चूहा, जिसके
प्रतिरक्षा तंत्र का सर्वाधिक अध्ययन किया गया है) और मनुष्य इसकी बजाय एक ज़्यादा
आसान जुगाड़ का सहारा लेते हैं। सबसे पहले तो वे V,
D और J मिनी-जीन्स को जोड़ने में एक बुनियादी पुनर्मिश्रण मशीनरी
का उपयोग करते हैं। यह मशीनरी जोड़े जाने वाले दो जीन्स को पंक्तिबद्ध कर देती है।
पंक्तिबद्ध करने में वह पहचान व सीध मिलाने के लिए अनुक्रम पहचान का उपयोग करती
है। प्रत्येक मिनी-जीन के कोडिंग क्षेत्र के नज़दीक एक चिंह होता है जो दो संरक्षित
अनुक्रमों से बना होता है – एक हैप्टोमर (7 क्षार) और एक नैनोमर (9 क्षार)। ये
एक-दूसरे से 12 अथवा 23 क्षारों की दूरी पर होते हैं। सीध मिलाने की क्रियाविधि
ऐसी है कि 7-12-9 संकेत चिंह सिर्फ 7-23-9 संकेत चिंह से जुड़ सकता है। चूंकि V और J दोनों भारी शृंखला मिनी-जीन्स पर एक ही किस्म के
संकेत-चिंह होते हैं, इसलिए यह व्यवस्था सुनिश्चित कर देती है कि
वे भारी शृंखला में D
मिनी-जीन को छोड़कर गलती से भी एक-दूसरे से नहीं जुड़ेंगे।
विविधता उत्पन्न करने का अगला जुगाड़ इस तथ्य पर टिका है कि VDJ को जोड़ते समय पुनर्मिश्रण की
घटना में डीएनए दोहरी कुंडली में से एक सूत्र को काटना अनिवार्य होता है। इसके
चलते कोशिकीय रख-रखाव की इस मशीनरी को मौका मिल जाता है कि कटे हुए सूत्र का उपयोग
करते हुए दूसरे सूत्र को भी तोड़ दे और फिर दोनों सिरों को जोड़कर एक हेयरपिन जैसा
छल्ला बना दे। तो अब पुनर्मिश्रण की मशीनरी डीएनए के इन दो हेयरपिन छल्लों को पकड़
लेती है – प्रत्येक मिनी-जीन का एक छल्ला – और उन्हें पास-पास लाकर सिल देती है।
सिलने के बाद वह इन्हें फिर से काटकर खोल देती है। इस काटने की वजह से वह छल्ला
दूसरी बार जहां से खुलता है वह मूल स्थान से अलग होता है। तो अब डीएनए के दो सूत्र
एक ही बिंदु पर समाप्त नहीं होते। वास्तव में एक दूसरे की अपेक्षा थोड़ा आगे तक
लटका होता है। यह बाहर लटकता टुकड़ा डीएनए सफाई करने वाले एंज़ाइम्स
(एक्सोन्यूक्लिएज़) के प्रति बहुत संवेदनशील होता है। ये एंज़ाइम तत्काल इनका मुंह
पकड़कर इन्हें चबाना शुरू कर देते हैं। कई बार जोश में आकर वे बाहर लटकते हिस्से से
भी अधिक चबा डालते हैं। ज़ाहिर है, यह प्रक्रिया जुड़ाव बिंदु पर
डीएनए के अनुक्रम को इस तरह बदल देती है, जैसा जीनोम के द्वारा
अपेक्षित नहीं था। दूसरे शब्दों में, अब जीनोम सांचे से इतर
बेतरतीबी VDJ एक्सॉन में शामिल हो चुकी है।
एक अन्य रख-रखाव एंज़ाइम (टर्मिनल डीऑक्सीन्यूक्लियोटाइड ट्रांसफरेज़) डीएनए में
से क्षारों को इस तरह हटा सकता है जो मूल योजना का हिस्सा नहीं था। यह एंज़ाइम
अनुक्रम को और बदल देता है।
क्या बी-कोशिका और टी-कोशिका ग्राही विविधता में कुछ पैटर्न हैं?
हमने बात की थी कि बी-कोशिकाएं और टी-कोशिकाएं अपने लक्ष्यों को अलग-अलग ढंग
से पहचानती हैं। बी-कोशिका के ग्राही सारे लक्ष्यों को पहचानते हैं और उनमें कोई
स्थान-आधारित रुकावट नहीं होती। दूसरी ओर, टी-कोशिकाएं
किसी लक्ष्य को तभी पहचानती हैं जब वह किसी कोशिका की सतह पर एमएचसी प्रोटीन से
जुड़ा कोई पेप्टाइड हो। ज़ाहिर है, इन एमएचसी प्रोटीन्स में बहुत
अधिक विविधता नहीं होगी। हमने कहा भी था कि मात्र उन टी-कोशिकाओं को चुना जाता है
जो शरीर में उपलब्ध एमएचसी प्रोटीन से सम्बद्ध अज्ञात पेप्टाइड को पहचान पाए। इस
प्रक्रिया को सकारात्मक चयन कहते हैं।
तो बी- एवं टी-कोशिकाओं के ग्राहियों के विभिन्न खंडों में विविधता का इससे
क्या सम्बंध है?
स्पष्ट है कि बी-कोशिकाओं के ग्राहियों के सारे हिस्सों में काफी विविधता की ज़रूरत
होगी क्योंकि ग्राही के सारे घटकों का संपर्क लक्ष्यों के निहायत विविध आकारों से
होने की संभावना है। इसके विपरीत टी-कोशिका ग्राहियों के जो हिस्से एमएचसी अणु से
संपर्क बनाएं उनमें उतनी विविधता की ज़रूरत नहीं है जितनी कि उस हिस्से में जो
पेप्टाइड के संपर्क में आएगा।
तो टी-कोशिकाओं के ग्राहियों के निर्माण में VDJ मिनी-जीन हिस्सों का योगदान कितना है (जो सांचे के रूप में
काम करते हैं) और जोड़ वाले हिस्सों का क्या योगदान है जो गैर-सांचा गत ढंग से काम
करते हैं?
रोचक बात है कि टी-कोशिका ग्राही के वे हिस्से जो पेप्टाइड
के संपर्क में आते हैं, उनका कोडिंग गैर-सांचागत विविधता-जनक हिस्से
में होता है। V, D और J जीन्स में विविधता स्वाभाविक रूप से V, D और J समूहों में उपलब्ध वैकल्पिक समूहों से आती
है। यहां,
टी-कोशिका ग्राहियों के लिए उपलब्ध संख्या कहीं कम होती है, बनिस्बत बी-कोशिका ग्राहियों के। इससे एक बार फिर यह बात रेखांकित होती है कि
पेप्टाइड के संपर्क में आने वाले ग्राहियों की अपेक्षा एमएचसी प्रोटीन्स के संपर्क
में आने वाले टी-कोशिका ग्राहियों में विविधता काफी कम होती है। दूसरी ओर, बी-कोशिका ग्राहियों के लिए मिनी-जीन्स के विकल्पों की संख्या बहुत अधिक होती
है क्योंकि उन्हें बहुत अधिक कुल विविधता की ज़रूरत होती है। यानी पूरी व्यवस्था
में न सिर्फ विविधता बढ़ाने का इंतज़ाम है बल्कि उन हिस्सों में विविधता और अधिक
बढ़ाने का इंतज़ाम है जहां इसकी ज़्यादा ज़रूरत हो।
प्रत्येक कोशिका पर एक ही ग्राही होता है जबकि गुणसूत्र दो होते हैं
लक्ष्य-पहचान के क्लोनल विविधरूपी मॉडल के फायदों की बात करते हुए हमने कहा था
कि बेहतर होगा यदि प्रत्येक कोशिका पर एक ही लक्ष्य का ग्राही हो ताकि अनजाने में
लक्ष्य-पहचान में कोई घालमेल न हो। लेकिन यदि ग्राही शृंखला बनाने के लिए VDJ सम्मिश्रण होना है तो जब
प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्रों की दो प्रतिलिपियां होती हैं तो प्रत्येक कोशिका
पर दो ग्राही शृंखलाएं क्यों नहीं बन जाती?
इसके दो समाधान हैं। एक तो यह कि पूरी प्रक्रिया बेतरतीबी से चलती है, इसलिए संयोगवश हो सकता कि दो में से एक शृंखला ऐसी बने जो निरर्थक हो। दरअसल, इसकी वजह से ही कई बी- और टी-कोशिकाएं नाकाम रहती हैं और मर जाती हैं। इसका
मतलब है कि इन कोशिकाओं को बनाने की प्रक्रिया में काफी बरबादी निहित है।
एक ही कोशिका पर दो ग्राही नहीं बनने देने का एक तरीका यह है कि दोनों
ग्राहियों को परस्पर होड़ करने दी जाए। जो शृंखला पहले बन जाए वह दूसरी शृंखला के
निर्माण की प्रक्रिया को रोक दे।
अलबत्ता, ये दोनों ही प्रक्रियाएं पूर्ण रूप से कारगर नहीं हैं। ऐसी कई बी- व टी-कोशिकाएं होती हैं जिन पर दो-दो पहचान-ग्राही होते हैं। ये प्रतिरक्षा गफलत की वाहक होती हैं, खासकर यदि किसी कोशिका पर एक ग्राही ऐसा हो जो शरीर के अपने किसी अणु को पहचानता हो। लेकिन इस मसले को तब संभाल लिया जाता है जब उन कोशिकाओं को नष्ट किया जाता है जो शरीर के अपने अणु को प्रतिरक्षा-लक्ष्य के रूप में पहचानती हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://2rdnmg1qbg403gumla1v9i2h-wpengine.netdna-ssl.com/wp-content/uploads/sites/3/2016/11/immuneSystem-1190000241-770×553-1-650×428.jpg
भारत में कोविड-19 की दूसरी भयावह लहर ने देश को गंभीर स्थिति
में पहुंचा दिया है। वैज्ञानिक समुदाय यह समझने के प्रयास कर रहा है कि
कोरोनावायरस के कौन-से संस्करण इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।
ऐसा बताया जा रहा है कि संस्करण बी.1.617 अधिक संक्रामक और प्रतिरक्षा को चकमा
देने में सक्षम है। जंतुओं पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि यह संस्करण गंभीर
रूप से बीमार करने में सक्षम हो सकता है। गौरतलब है कि बी.1.617 संस्करण पूरे भारत
में प्रमुख संस्करण के रूप में उभरा है।
कुछ समय पूर्व भारत में कोविड-19 के मामलों में अचानक वृद्धि के पीछे कई
संस्करणों के होने का कारण बताया जा रहा था। जीनोमिक डैटा के आधार पर यूके में
पहचाना गया बी.1.1.7 संस्करण दिल्ली और पंजाब में देखा गया था जबकि पश्चिम बंगाल
में नया संस्करण बी.1.618 और महाराष्ट्र में बी.1.617 संस्करण प्रमुख रूप से पाया
गया है। बी.1.617 संस्करण सबसे प्रमुख संस्करण के रूप में उभरा है जिसके मामले
दिल्ली में काफी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इस सम्बंध में नेशनल सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल
के निदेशक सुरजीत सिंह कई राज्यों में उछाल के पीछे बी.1.617 संस्करण को प्रमुख
मान रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बी.1.617 को ‘चिंताजनक संस्करण’ की श्रेणी में रखा
है। इसका मतलब है कि यह संस्करण पूर्व के ज्ञात संस्करणों की तुलना में तेज़ी से
फैलता है,
गंभीर रूप से बीमार करता है या फिर प्रतिरक्षा से बच निकलने
में सक्षम है। हाल ही में यूके सरकार ने बी.1.617.2 उप-प्रकार को भी इसी श्रेणी
में डाला है। कुछ अन्य ‘चिंताजनक संस्करण’ भी उभरे हैं। पी.1 संस्करण ब्राज़ील में
दूसरी लहर का प्रमुख कारण बताया गया है जबकि यूके में बी.1.1.7 संस्करण के कारण
कोविड मामलों में काफी वृद्धि देखी गई।
हालांकि,
बी.1.617 पर डैटा अभी जारी हुआ है लेकिन ऐसा अनुमान है कि
यह भारत में पहले से उपस्थित कई संस्करणों में से उभरा है। सबसे पहले इस संस्करण
का पता अक्टूबर में चला था। इसके बाद से जनवरी के अंत में बढ़ते मामलों को देखते हुए
इस संस्करण पर निगरानी बढ़ा दी गई और महाराष्ट्र में बी.1.617 एक प्रमुख संस्करण के
रूप में पाया गया। तब से इसके कई उपवंश उभरने लगे। बी.1.617 में वैज्ञानिकों ने
वायरस के स्पाइक प्रोटीन में आठ उत्परिवर्तन देखे हैं। इनमें से दो उत्परिवर्तन
ऐसे थे जो इसे अधिक संक्रामक बनाते हैं और तीसरा उत्परिवर्तन वही है जिसने पी.1 को
प्रतिरक्षा को चकमा देने में सक्षम बनाया है।
यह भी पता चला है कि बी.1.617 संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में आंतों और
फेफड़ों की कोशिकाओं में प्रवेश करने में थोड़ा अधिक सक्षम है। हालांकि, इससे अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि यह मामूली-सा बदलाव कैसे संचरण में वृद्धि
करता है। फिर भी जीवों पर किए गए अध्ययन में बी.1.617 संस्करण ने काफी गंभीर रूप
से बीमार किया है।
इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज के वायरोलॉजिस्ट रविन्द्र गुप्ता के शोध
से पता चला है कि टीकाकृत लोगों की एंटीबॉडीज़ अन्य संस्करणों की तुलना में
बी.1.617 के विरुद्ध कम प्रभावी हैं। टीकाकृत लोगों के सीरम में आम तौर पर
एंटीबॉडी उपस्थित होते हैं जो वायरस को बेअसर करते हुए कोशिकाओं को संक्रमित होने
से बचाते हैं। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि दिल्ली में जिन स्वास्थ्य
सेवा कर्मचारियों को कोवीशील्ड का टीका लगाया गया है और जो दोबारा से संक्रमित हुए
हैं उनमें अधिकांश में बी.1.617 संस्करण पाया गया है। लेकिन उनके अनुसार यह टीके
को किसी भी तरह से असरहीन नहीं बनाते हैं।
इसी तरह जर्मनी की टीम ने पूर्व में सार्स-कोव-2 से ग्रसित 15 लोगों के सीरम
का परीक्षण किया और पाया कि उनके एंटीबॉडीज़ पिछले संस्करणों की तुलना में बी.1.617
के विरुद्ध लगभग 50 प्रतिशत कम प्रभावी हैं। फाइज़र टीके की दो खुराक प्राप्त लोगों
के सीरम का परीक्षण करने पर देखा गया कि एंटीबॉडीज़ बी.1.617 के विरुद्ध लगभग 67
प्रतिशत कम प्रभावी हैं। इसके साथ ही भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन टीका
और कोवीशील्ड पर एक अप्रकाशित अध्ययन टीके को प्रभावी बताते हैं। जबकि वैज्ञानिकों
ने कोवैक्सीन द्वारा उत्पन्न एंटीबॉडीज़ की प्रभाविता में कुछ कमी पाई है।
फिर भी गुप्ता ने चेतावनी दी है कि प्रयोगशाला में किए गए ये सभी अध्ययन छोटे
समूहों पर किए गए हैं जिनमें अन्य ‘चिंताजनक संस्करणों’ की तुलना में एंटीबॉडी
प्रभावशीलता में मामूली कमी देखी गई है। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने किसी संस्करण
के टीके की प्रतिरक्षा से बच निकलने की क्षमता का पता लगाने के लिए सीरम परीक्षण
को उचित नहीं बताया है। टीकों से बड़ी संख्या में एंटीबॉडी का उत्पादन होता है
जिसके चलते टीके की क्षमता में मामूली गिरावट महत्वपूर्ण नहीं होती है। इसके अलावा, प्रतिरक्षा प्रणाली के अन्य भाग जैसे टी-कोशिकाओं पर भी कोई प्रभाव नहीं देखा
गया है।
उदाहरण के तौर पर, बी.1.351 संस्करण को एंटीबॉडी को निष्क्रिय करने की क्षमता के रूप में देखा जाता है जबकि मनुष्यों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि कई टीके गंभीर बीमारी को रोकने में इस संस्करण के विरुद्ध काफी प्रभावी रहे हैं। इन्हीं कारणों से टीकों को बी.1.617 के विरुद्ध भी काफी प्रभावी माना जा रहा है जो गंभीर रूप से बीमार पड़ने से बचा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/68733/aImg/42077/variants-article-l.jpg
करीब डेढ़ साल से पूरी दुनिया में वायरस जनित रोग कोविड-19 से
त्राहि-त्राहि मची हुई है। कोविड-19 से जैसे-तैसे मरीज़ अपनी जान बचाकर राहत महसूस
करे उसके पहले ही एक और विकट समस्या उसे घेर लेती है। यह नई समस्या पिछले कुछ
महीनों से व्यापक असर दिखा रही है। यह एक अत्यंत साधारण और आम तौर पर हमारे आसपास
पाई जाने वाली फफूंद (ब्रेड मोल्ड) की देन है। इन दिनों इससे होने वाले रोग म्यूकरमाइकोसिस
के संदर्भ में यह ब्लैक फंगस के नाम से जानी जा रही है।
ब्लैक फंगस या काली फफूंद सामान्यत: बासी रोटियों, ब्रेड, सड़े-गले पदार्थों, चमड़े की चीज़ों, गोबर, मिट्टी और नमी वाले स्थानों पर पाई जाती है। कवक विज्ञान की दृष्टि से ये ज़ायगोमाइकोटिना
समूह की सदस्य हैं जो मुख्य रूप से मृतोपजीवी हैं (यानी सड़ते-गलते पदार्थों से
पोषण प्राप्त करती हैं)। अपवादस्वरूप ये दुर्बल परजीवी की तरह व्यवहार करती हैं।
इनका शरीर महीन सफेद तंतुओं के जाल से बना होता है और पर्याप्त पोषण और अनुकूल
पर्यावरण में ये असंख्य गहरे भूरे या काले बीजाणु का उत्पादन करती हैं। ये बीजाणु
ही फफूंद के फैलाव और रोग के कारण बनते हैं।
दुर्बल माने जाने वाले ये परजीवी भी इन दिनों उग्र रूप धारण कर चुके हैं। इस
रोग के कारण कई लोगों को अपनी आंखें गंवाना पड़ी हैं, लकवा
हो गया और यहां तक कि कई लोगों की जान भी जा चुकी है।
यह फफूंद रक्त वाहिनी में घुसपैठ करती है और नाक, आंख, फेफड़ों,
मस्तिष्क और गुर्दों सहित शरीर के प्रमुख अंगों को नुकसान
पहुंचाती है। पूरे विश्व में म्यूकरमाइकोसिस पैदा करने वाली प्रमुख फफूंद राइज़ोपस
ओराइज़ी है। इसके अलावा अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में इसी वर्ग के म्यूकर सहित 11
वंश और 27 प्रजातियां मनुष्य में संक्रमण का कारण बनती हैं।
हवा में उपस्थित बीजाणु जब सांस के माध्यम से मानव शरीर में पहुंचते हैं तो ये
संक्रमण की शुरुआत कर सकते हैं।
म्यूकरमाइकोसिस का संक्रमण उन व्यक्तियों में जल्दी हो जाता है जिनको
डायबिटीज़ अथवा रक्त सम्बंधी कोई गंभीर रोग हो, या
जिनका अंग प्रत्यारोपण हुआ हो। कॉर्टिकोस्टेरॉइड (बीटामेथेसोन, प्रेड्निसोलोन, डेक्सामेथेसोन वगैरह) उपचार ले रहे
व्यक्तियों में भी इस रोग की संभावना अधिक होती है। एशियाई देशों में डायबिटीज़ इस
रोग का खतरा बढ़ाने वाला सबसे प्रमुख कारण है, वहीं
रक्त रोग और अंग प्रत्यारोपण युरोपीय देशों और अमेरिका में इस रोग का खतरा बढ़ाते
हैं।
वर्तमान परिदृश्य में वैश्विक स्तर पर म्यूकरमाइकोसिस के प्रकरणों में वृद्धि
हो रही है मगर यह वृद्धि भारत और चीन में बहुत अधिक है क्योंकि यहां अनियंत्रित
डायबिटीज़ के मरीज़ों की संख्या ज़्यादा है। अलग-अलग अध्ययनों में पाया गया है कि
भारत में इस रोग से संक्रमित 57 प्रतिशत लोग अनियंत्रित डायबिटीज़ से ग्रस्त थे
वहीं वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 40 के आसपास है। भारत में अधिक संक्रमण के पीछे
एक कारण यह भी है कि यहां की जनता नियमित स्वास्थ्य जांच नहीं करवा पाती है और
डायबिटीज़ के प्रति भी लापरवाही बरती जाती है। यह म्यूकरमाइकोसिस संक्रमण को न्यौता
देने जैसा है।
भारत में कई गहन चिकित्सा इकाइयों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि इनमें से
24 प्रतिशत में म्यूकरमाइकोसिस संक्रमण उपस्थित था। भारत में इस संक्रमण की दर
बहुत अधिक है। यहां प्रति वर्ष नौ लाख लोग इससे संक्रमित होते हैं जबकि शेष विश्व
में दस हज़ार लोग ही प्रति वर्ष संक्रमित होते हैं।
अध्ययन में यह भी पाया गया है कि इस संक्रमण में लौह तत्व की अधिकता और
डीफेरोक्सामाइन उपचार की भी बड़ी भूमिका है। पहले डायबिटीज़ जन्य कीटोएसिडोसिस, डाएलिसिस और गुर्दे खराब होने की दशा में लौह तत्व की अधिकता को नियंत्रित
करने के लिए डीफेरोक्सामाइन का काफी उपयोग किया जाता था। डीफेरोक्सामाइन के द्वारा
अलग किया गया लौह तत्व राइज़ोपस द्वारा पकड़ लिया जाता है, जिससे
इस फफूंद की अच्छी वृद्धि होने लगती है। ऐसे रोगियों की मृत्यु दर 80 प्रतिशत तक
होती है।
उपचार से बचाव बेहतरकुछ सावधानियां हैं जो इस कवक के जानलेवा संक्रमण से बचा सकती हैं: अस्पताल के उपकरणों के अलावा ब्लैक फंगस सूक्ष्म बीजाणुओं द्वारा मुंह और नाक के रास्ते प्रवेश करती है। अत: बचाव का एक तरीका घर पर भी मास्क का उपयोग करना है। मास्क गीला ना हो और कपड़े का हो तो बेहतर। विशेषकर डायबिटीज़ मरीज़ों के लिए मास्क बहुत उपयोगी हो सकता है। घर पर या ऑफिस में जब सफाई की जाती है तब ट्रिपल लेयर मास्क लगा ही लेना चाहिए क्योंकि इस दौरान उड़ने वाली धूल के कणों में विभिन्न प्रकार की फफूंद के बीजाणु पाए जाने की संभावना ज़्यादा होती है। कवक के संक्रमण का एक और रुाोत कूलर के पैड भी हैं क्योंकि वहां लगातार नमी फफूंद की वृद्धि के लिए अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध कराती है।
म्यूकरमाइकोसिस के मामले संदूषित उपचार उपकरणों और चिपकने
वाली (एडहेसिव) पट्टियों के कारण भी बढ़ते हैं। अमेरिका के अस्पतालों में उपयोग किए
जाने वाले कपड़े और बिस्तर संदूषित पाए गए और उनमें राइज़ोपस की प्रजातियां मिलीं।
कुछ मामलों में म्यूकरमाइकोसिस से होने वाली मौत का आंकड़ा बहुत अधिक है: शारीरिक
रूप से कमज़ोर,
गंभीर बीमारी से अभी-अभी ठीक हुए, सर्जरी
करवा चुके,
कैंसर, एड्स से पीड़ित और रोग
प्रतिरोधक क्षमता की दिक्कतों से जूझ रहे रोगी।
आज के हालात में म्यूकरमाइकोसिस के भारत में लगातार बढ़ते मामलों के पीछे
रोगियों की कमजोर पड़ चुकी प्रतिरोधक क्षमता और गंभीर रोग से ग्रस्त होना तो एक
कारण है ही किंतु विगत कुछ माह से कोविड-19 के प्रकरणों में अप्रत्याशित वृद्धि के
कारण पूरे चिकित्सा तंत्र में जो अफरा-तफरी मच गई, उसके
चलते अस्पतालों द्वारा स्वच्छता की अनदेखी संक्रमण को विस्फोटक स्थिति में
पहुंचाने का एक प्रमुख कारण माना जा सकता है। ऑक्सीजन प्रदाय उपकरणों, बिस्तरों आदि की समुचित सफाई ना होना भी इस संक्रमण को बढ़ाने में सहायक रहा।
एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि आनन-फानन औद्योगिक ऑक्सीजन का उपयोग
अस्पतालों में किए जाने की वजह से भी फफूंद संक्रमण में वृद्धि हुई है। आक्सीजन की
भारी डिमांड देखते हुए उद्योगों में प्रयोग होने वाले ऑक्सीजन, नाइट्रोजन,
आर्गन व नाइट्रोजन गैसों के सिलेंडरों में गैस भरकर
अस्पतालों में पहुंचाना पड़ा। लेकिन इन्हें अस्पतालों में भेजने से पहले पूरी तरह
कीटाणु रहित नहीं किया जा सका। डाक्टरों का कहना है कि ऑक्सीजन आपूर्ति की
पाइपलाइन व ह्यूमिडीफायर में फंगस जमा होने व कंटेनर में साधारण पानी का उपयोग
करने से भी बीमारी बढ़ी। वैसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने स्पष्ट किया है
कि ऑक्सीजन उपचार और फफूंद संक्रमण के बीच निश्चित सम्बंध नहीं देखा गया है।
संस्थान का मत है कि इसके पीछे डायबिटीज़ और स्टेरॉइड चिकित्सा की भूमिका हो सकती
है।
फफूंद जन्य रोग हवा में इनके बीजाणुओं की उपस्थिति या संदूषित चिकित्सा सामग्री के माध्यम से फैलते हैं। अत: अब प्राथमिकता के आधार पर सभी अस्पतालों और वहां की सामग्री की स्वच्छता सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि बिना महंगे इलाज के लोगों को इस संक्रमण से बचाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/news/976/cpsprodpb/2D3E/production/_118428511_gettyimages-1215124320-170667a.jpg