हमारी आंखे सूर्य के प्रकाश के स्पेक्ट्रम का कुछ हिस्सा ही देख पाती हैं – 400-700 नैनोमीटर तरंगदैर्घ्य (visible light spectrum) वाला हिस्सा। इससे छोटी पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट – UV Rays), और इससे बड़ी अवरक्त (इंफ्रारेड) तरंगदैर्घ्य को हमारी नग्न आंखें नहीं देख (infrared light invisible to eyes) पाती हैं। हालांकि, कुछ तकनीकें और उपकरण विकसित किए गए हैं जिनकी मदद से हम कुछ अल्ट्रावॉयलेट और इंफ्रारेड तरंगें देख पाते हैं। इन तरंगों को देखने का फायदा फॉरेंसिक जांच में, चिकित्सा में, अंधेरी रात की हलचल देखने में, पुरानी पेंटिंग्स की परतें खोलने आदि (infrared in forensic and medical) में उठाया जाता है।
तो, थोड़ी बातें इंफ्रारेड प्रकाश को हमारी आंखों के देखने लायक बनाने वाले उपकरणों की। ऐसा एक उपकरण है थर्मल इमेजिंग कैमरा (thermal imaging camera)। दरअसल, इंफ्रारेड तरंगें ऊष्मा प्रभाव पैदा करती हैं। यह कैमरा वस्तुओं द्वारा उत्सर्जित इंफ्रारेड ऊर्जा को भांपता है। किसी सतह पर इंफ्रारेड विकिरण की कितनी तीव्रता है इस जानकारी के आधार पर वह एक तस्वीर बनाता है जिसे हम देख सकते हैं। इससे बनी तस्वीर लाल-नीले-पीले रंगों में मिलती है। ऐसा ही एक अन्य उपकरण है नाइट विज़न चश्मा (night vision goggles) । यह साधारण बायनॉक्यूलर जितना बड़ा और चश्मे जैसा होता है। यह 800 से 1600 नैनोमीटर के नीयर इंफ्रारेड प्रकाश को दृश्य प्रकाश में परिवर्तित कर देता है, जिसे हम देख पाते हैं।
उपरोक्त दोनों उपकरण इंफ्रारेड विज़न में मददगार तो हैं लेकिन इनकी कुछ सीमाएं हैं। जैसे इमेजिंग कैमरा और नाइट विज़न चश्मा दोनों ही बड़े और भारी हैं। और उन्हें चलाने के लिए अलग से बैटरी या बिजली लगती है। हालांकि इमेजिंग कैमरा तो तीन-चार रंगों में दृश्य तस्वीर बनाता है, लेकिन नाइट विज़न चश्मा केवल एकरंगी हरा इंफ्रारेड विज़न (monochrome night vision) देता है।
कोशिश थी कि इंफ्रारेड विज़न देने वाले उपकरण भी कॉम्पेक्ट और आसान बन जाएं, जिससे इनकी उपयोगिता बढ़े, खासकर जाली नोट, जाली दस्तावेज़ आदि (infrared contact lenses, fake note detection device) पकड़ने में। इसी कोशिश में वैज्ञानिकों ने इंफ्रारेड विज़न देने वाले कॉन्टेक्ट लेंस बनाए हैं। जिन्हें साधारण कॉन्टेक्ट लेंस की तरह आंखों में लगाकर इंफ्रारेड मंजर देख सकते हैं।
ये लेंस चीन की युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों ने विकसित किए हैं। इन्हें बनाने के लिए उन्होंने साधारण कॉन्टेक्ट लेंस में नैनोकण (nano particles in lenses, infrared detecting lens) जोड़े हैं। ये नैनोकण नीयर इंफ्रारेड प्रकाश को दृश्य प्रकाश में परिवर्तित करते हैं जिससे हम इंफ्रारेड मंजर देख सकते हैं, यहां तक कि बंद आंखों से भी। एक और फायदा यह है कि ये बहु-रंगी दृश्य दिखाते हैं, जो नाइट विज़न गॉगल में संभव नहीं होता।
हालांकि, शुरू में इन लेंस की कुछ कमियां थीं। चूंकि लेंस नैनोकण को जोड़कर बनाए गए हैं, इसलिए इनसे बनी तस्वीर थोड़ी धुंधली (infrared vision blur, nanoparticle limitations in lenses) बनती थी। टीम ने इस खामी को भी कुछ हद तक दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने लेंस में एक और अतिरक्त लेंस जोड़ा है ताकि नैनोकण से बिखरा प्रकाश एक जगह केंद्रित हो, और तस्वीर साफ बने। यह कमी तो कुछ हद तक दूर हो गई लेकिन इसकी एक और दिक्कत अभी बनी हुई है। ये लेंस कमज़ोर इंफ्रारेंड प्रकाश को नहीं देख पाते, इनकी पकड़ में सिर्फ अत्यंत शक्तिशाली इंफ्रारेड विकिरण आते हैं; जैसे एलईडी लाइट से उत्सर्जित शक्तिशाली इंफ्रारेड विकिरण (infrared LED detection, lens infrared sensitivity)।
दूसरी ओर, नाइट विज़न चश्मा कमज़ोर इंफ्रारेड विकिरण को भी भांप कर, उसे शक्तिशाली बनाकर बेहतर इंफ्रारेड दृश्य निर्मित करते हैं।
बहरहाल, वैज्ञानिक इस खामी को दूर करने पर भी काम कर रहे हैं। यदि ये लेंस और उन्नत तस्वीर देने में सफल हो जाते हैं तो सर्जरी वगैरह में डॉक्टर्स को ज़्यादा ताम-झाम वाले उपकरणों से निजात (infrared in surgery, future of medical optics) मिल सकती है। इसके बारे में शोधकर्ताओं ने सेल पत्रिका (cell journal) में विस्तार से बताया है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/lw1200/magazine-assets/d41586-025-01630-x/d41586-025-01630-x_51005236.jpg
इमली, नींबू, कैरी जैसी खट्टी चीज़ें (sour fruits) वैसे तो हम चटखारे लेकर खाते हैं, लेकिन इनको खाने से चेहरे पर उभरी तरह-तरह की भंगिमाओं से भी हम खूब वाकिफ हैं – भिंची हुई अधखुली आंखें, सिकुड़ा-कसकर बंद मुंह और मुंह में आता पानी! हम खट्टा तो खाते हैं या खा सकते हैं लेकिन एक हद तक, थोड़ी मात्रा में। हम इन्सानों की वरीयता मीठे स्वाद की अधिक (sweet vs sour taste, human taste preference) होती है, खासकर फलों के मामले में। लेकिन, शायद आपने गौर किया हो, कई पक्षी खट्टे फल (नींबू, कैरी) वगैरह बड़े मज़े से खाते हैं, और वो भी बिना ‘मुंह बिगाड़े’। और तो और, हमारी तरह थोड़ी मात्रा में नहीं बल्कि ये खट्टे फल इनका भोजन होते हैं। लेकिन कैसे वे इतना खट्टा खा लेते हैं? क्या उनको खट्टा नहीं लगता है?
इसी गुत्थी को सुलझाया है चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जीवविज्ञानी लेई लुओ, वैकासिक जीवविज्ञानी हाओ झांग और उनके दल ने। उनका कहना है कि हमारे लिए जो घोर खट्टी चीज़ें है, कुछ पक्षियों को वे उतनी खट्टी लगती ही नहीं हैं (bird sour taste tolerance, why birds eat lemon)। और, ऐसा होता है उनके खास विकसित स्वाद ग्राहियों की वजह से, जो खट्टेपन को दबा देते हैं।
दरअसल, पिछले कुछ सालों में अध्ययनों का दायरा ‘पक्षी क्या खाते हैं’ से ‘पक्षी जो खाते हैं वो क्यों-कैसे खाते हैं’ समझने तक बढ़ा है (avian feeding behavior)। इसी के साथ ही, खट्टे स्वाद को भी तफसील से समझा जाने लगा। अभी, सात साल पहले ही यह मालूम चला है कि कशेरुकियों में खट्टे स्वाद के ग्राही कौन से हैं। इन ग्राहियों को OTOP1 (OTOP1 taste receptor) की संज्ञा दी गई है।
तो, शोधकर्ताओं के मन में सवाल थे कि क्या उनके खट्टे स्वाद के ग्राही कुछ भिन्न होते हैं और यदि होते हैं तो क्या अंतर है? जैव-विकास में यह अंतर कब आया? इसका फायदा क्या है?
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों, कबूतर और एक तरह की सॉन्ग बर्ड कैनरी के OTOP1 ग्राहियों को अलग-अलग सांद्रता के अम्लीय घोल (खट्टे घोल) ‘चखाए’ और उनकी प्रतिक्रिया (taste receptor comparison, mouse vs bird sour taste) देखी। पाया गया कि खट्टापन बढ़ने के साथ चूहों के ग्राहियों की सक्रियता बढ़ती गई। अधिक खट्टे खाद्य पदार्थ चूहों और हम जैसे अन्य स्तनधारियों को अधिक खट्टे लगते हैं। लेकिन कबूतर और कैनरी के खट्टे स्वाद के (OTOP1) ग्राही नींबू जितनी खटास वाले घोल पर भी कम सक्रिय रहे। यानी उन्हें खट्टा स्वाद उतना खट्टा नहीं लगता। इसके अलावा यह भी देखा गया कि कैनरी पक्षी के OTOP1 स्वाद ग्राही कबूतर की तुलना में खट्टे के प्रति अधिक सहनशील (canary taste tolerance) हैं।
अब देखना था कि विभिन्न कशेरुकियों के OTOP1 स्वाद ग्राही इतनी अलग-अलग प्रतिक्रिया क्यों करते हैं। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने OTOP1 ग्राही को एन्कोड करने वाले जीन के अलग-अलग हिस्सों में उत्परिवर्तन (mutation and taste adaptation) करके देखे। इससे उन्हें चार ऐसे अमीनो एसिड मिले जो खट्टेपन की सहनशीलता को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अंतत: उन्हें एक ऐसा अमीनो एडिस – G378 (G378 amino acid) – मिला जो खट्टेपन की सहनशीलता को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। और, यह अमीनो एसिड सिर्फ कैनरी जैसे सॉन्ग बर्ड्स में पाया जाता है। अध्ययन में भी तो सॉन्ग बर्ड्स के स्वाद ग्राही ही खट्टे स्वाद के प्रति सबसे अधिक सहनशील दिखे थे।
फिर, शोधकर्ताओं ने विभिन्न पक्षियों (खट्टा खाने और न खाने वाले पक्षियों) के OTOP1 के प्रोटीन अनुक्रमों की तुलना की। उन्होंने पाया कि सॉन्ग बर्डस में G378 – और इससे हासिल खटास के प्रति सहनशीलता – करीब ढाई से साढ़े तीन करोड़ साल पहले प्रकट (evolution of taste in birds) हुई है। दिलचस्प बात यह है कि सॉन्ग बर्ड्स में G378 का प्राकट्य मीठे स्वाद के ग्राहियों के उद्भव के साथ हुआ है।
ऐसा अनुमान है कि पक्षियों द्वारा खट्टे फल खाने को वरीयता देना अन्य जीवों के साथ भोजन प्रतिस्पर्धा (food competition in animals) को कम करता है। जब फल खाने वाले अन्य स्तनधारी जीव, खासकर बड़े जीव, मीठे फल खाते हैं, तो खट्टे फल पक्षियों के लिए बचे रहते हैं। खासकर आपदा की स्थिति में खट्टे फल खाकर ऊर्जा ले पाना जीवित रहने का एक अच्छा तरीका है।
एक संभावना यह भी है कि पक्षियों में खट्टेपन की सहनशीलता और पौधों में पक्षी-अनुकूल फलों का स्वाद सह-विकास (co-evolution plants and birds, seed dispersal by birds) का परिणाम है। पक्षी फल खाकर अपने मल (बीट) के माध्यम से दूर-दूर तक बीज फैलाते हैं, यदि पेड़-पौधों के फलों का स्वाद पक्षियों को भाएगा तो उसके बीज दूर-दूर तक पहुंचेंगे। जो पेड़-पौधे के हित में होगा। इसलिए, एक मान्यता है कि पेड़-पौधे अपने फलों का स्वाद पक्षी अनुकूल करते गए होंगे।
बहरहाल, इस क्षेत्र में अध्ययन अभी शुरू ही हुए हैं। दुनिया भर में पक्षियों की 10,000 से अधिक प्रजातियां हैं, जिनका विविध तरह का भोजन (bird species diet diversity) है। इन पर व्यापक अध्ययन कई परतें खोल सकता है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zo65c41/full/_20250618_on_sourtolerancebirds-1750356008097.jpg
पैंगोलिन दुनिया के इकलौते स्तनधारी जीव हैं जिनके शरीर पर सुरक्षात्मक कवच (pangolin with scales) होता है। लेकिन दुर्भाग्य से इनकी आबादी बहुत तेज़ी से कम हो रही है। इसके लिए इनकी खाल की अवैध तस्करी (illegal pangolin trade) को दोष दिया जाता है, लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि नाइजीरिया के क्रॉस रिवर जंगलों में इनकी संख्या घटने की वजह कुछ और है – इनके मांस के लिए स्थानीय लोगों द्वारा शिकार (pangolin meat hunting)।
कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 3 साल तक 33 गांवों में 800 से ज़्यादा शिकारियों और व्यापारियों से बातचीत में पाया कि हर साल करीब 21,000 पैंगोलिन मारे जाते हैं। हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर पैंगोलिन का शिकार इरादतन नहीं होता, बल्कि खेतों में काम करते समय ये अचानक मिल जाते हैं और मारे जाते हैं या जाल में फंस जाते हैं। चिंताजनक बात यह है कि अन्य शिकारी जीवों से बचाव की पैंगोलिन की रणनीति – सिकुड़कर गोल गेंदनुमा (pangolin defense mechanism) बन जाना – मनुष्यों के लिए इन्हें पकड़ना आसान बना देती है।
इस शोध से पता चला है कि पैंगोलिन के शिकार की सबसे बड़ी वजह है उसका मांस (pangolin meat consumption)। पकड़े गए करीब तीन-चौथाई पैंगोलिन शिकारी खुद खाते हैं और बाकी को स्थानीय बाज़ारों (local wildlife markets, bushmeat in Nigeria) में बेच देते हैं। इसके उलट, उनकी खाल या तो फेंक दी जाती है या बहुत कम कीमत पर बिकती है। इसकी तुलना में मांस से तीन-चार गुना अधिक कमाई होती है।
असल में, स्थानीय इलाकों में पैंगोलिन का मांस बीफ या चिकन से भी अधिक स्वादिष्ट (pangolin meat preference over beef) माना जाता है। कुछ पारंपरिक मान्यताएं तो इसे गर्भवती महिलाओं के लिए फायदेमंद भी मानती हैं, ताकि बच्चा स्वस्थ हो। ऐसी सांस्कृतिक मान्यताओं के चलते शिकार और इन जानवरों की धीमी प्रजनन दर (pangolin reproduction rate) मिलकर इनकी संख्या दोबारा बढ़ने नहीं देती। ऊपर से, तेज़ी से हो रही जंगलों की कटाई और खेती की वजह से पैंगोलिन का प्राकृतवास खत्म (pangolinhabitat loss) होता जा रहा है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस संकट से निपटने के लिए सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय नियमों से काम नहीं चलेगा, स्थानीय स्तर (community-based conservation) पर भी ठोस कदम उठाने होंगे। इनमें शामिल हैं: गांवों में मज़बूत निगरानी दल, स्थानीय रूप से लागू वन्यजीव सुरक्षा कानून, और ऐसी योजनाएं जो लोगों की जंगली जानवरों के शिकार से हासिल मांस पर निर्भरता घटाएं (wildlife protection laws) ।
प्रोफेसर एंड्रयू बामफोर्ड के अनुसार जब तक लोगों के व्यवहार का कारण (understanding local hunting behavior) नहीं समझा जाता, तब तक कोई कारगर संरक्षण योजना नहीं बन सकती। साथ ही संरक्षण के प्रयासों में सहभागिता के लिए ज़रूरी है कि स्थानीय लोग पैंगोलिन के पारिस्थितिकी महत्व को समझें (ecological role of pangolins)।
अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता डॉ. चार्ल्स एमोगोर ‘पैंगोलिनो’ (Pangolino) नामक एक स्थानीय संगठन चलाते हैं जो ऐसी ही एक पहल कर रहा है। उनका कहना है कि यदि हमने पैंगोलिन को खो दिया तो हम जैव विकास की 8 करोड़ साल पुरानी धरोहर (evolutionary significance of pangolins, pangolin extinction threat) खो देंगे। ये एकमात्र शल्कधारी स्तनधारी हैं और इनके पूर्वज डायनासौर के समकालीन थे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/d5/Pangolin_brought_to_the_Range_office%2C_KMTR_AJTJ_cropped.jpg/1200px-Pangolin_brought_to_the_Range_office%2C_KMTR_AJTJ_cropped.jpg
दांतों में प्लाक जमता है और आम तौर पर ठीक से मंजन करने से साफ हो जाता है। लेकिन यदि ठीक से साफ न हो यह मुसीबत और तकलीफों का सबब बन जाता है। लेकिन जीवाश्म विज्ञानियों, नृविज्ञानियों और पुरा मानव वैज्ञानिकों के लिए यह अतीत में झांकने की खिड़की है। दरअसल, दांत में प्लाक (ancient dental plaque) की परत के भीतर उस मनुष्य के खान-पान सम्बंधी जानकारी, बीमारी, व्यवहार, डीएनए (DNA from teeth) प्रोटीन आदि सम्बंधी जानकारी इकट्ठी होती जाती है। मृत्यु के बाद यदि दांत सुरक्षित रह जाते हैं तो वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, डीएनए विश्लेषण आदि की मदद से उस व्यक्ति से सम्बंधित जानकारी हासिल कर सकते हैं।
चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के शोधकर्ताओं के एक दल ने हाल ही के दो अध्ययनों में यही किया। दांतों में जमा प्लाक ने उन्हें यह निर्धारित करने में मदद की कि खुदाई में मिली खोपड़ी किस प्राचीन मानव की है (ancient skull discovery)।
चीन के हार्बिन के पास खुदाई में प्राचीन मानव की एक खोपड़ी लगभग साबुत हालत में मिली थी। इस बड़ी और भारी खोपड़ी में कपाल पर भौंह-रेखा मोटी और उभरी हुई थी। इसे वैज्ञानिकों ने ‘ड्रैगन मैन’ (Dragon Man) नाम दिया। ‘ड्रैगन मैन’ का काल निर्धारण कर वैज्ञानिकों ने यह तो मालूम कर लिया कि यह खोपड़ी करीब 1,46,000 साल पहले के किसी मानव की है। फिर, खोपड़ी का आकार-आकृति, उसके जीवित होने का समय, उसके मिलने का स्थान देखकर अनुमान लगाया कि यह खोपड़ी संभवत: किसी डेनिसोवन मनुष्य (Denisovan hominin) की होगी।
अब तक डेनिसोवन का कोई कंकाल पूरा साबुत हालात में नहीं मिला था। अब तक जिन भी अवशेषों की पुष्टि डेनिसोवन के रूप में की गई है वह उनकी हड्डियों के टुकड़ों से मिले डीएनए के आधार पर की गई है। और ऐसी ही जानकारियों के आधार पर वैज्ञानिकों ने उनकी कद-काठी (Denisovan genome, fossil DNA analysis) का अनुमान लगाया है।
इसलिए, ‘ड्रैगन मैन’ डेनिसोवन था या नहीं, इसकी पुष्टि डीएनए विश्लेषण से हो सकती थी। लेकिन वैज्ञानिकों को खोपड़ी की मोटी हड्डी और सलामत दांतों से अच्छा व अध्ययन योग्य हालत का डीएनए (ancient DNA extraction challenges) हाथ नहीं लगा।
तब, चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की आनुवंशिकीविद किआओमेई फू (Qiaomei Fu) ने दांतों के प्लाक का रुख किया जो सख्त होकर कैलकुलस (dental calculus) बन गया था। वैसे दांतों के प्लाक में अच्छी हालात में डीएनए मिलना मुश्किल होता है लेकिन इसके सख्त होने के कारण इसके भीतर की सामग्री के ज़्यादा अच्छी हालात में सलामत रहने की संभावना रहती है। फू और उनकी टीम ने खोपड़ी में बची हुए एकमात्र दाढ़, जो कि काली पड़ चुकी थी, से प्लाक खुरच कर निकाला और इससे डीएनए सामग्री (DNA sample from calculus) हासिल की।
फिर, ज्ञात डेनिसोवन मनुष्य के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mitochondrial DNA) से ‘ड्रैगन मैन’ के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए की तुलना की तो पाया कि ड्रैगन मैन वाकई में डेनिसोवन है। इसके अलावा, ड्रैगन मैन के डीएनए की तुलना साइबेरिया (Siberia) के अन्य स्थलों पर मिले डेनिसोवन मनुष्यों के डीएनए से भी की। तो पता चला कि ड्रैगन मैन की खोपड़ी अपेक्षाकृत प्राचीन डेनिसोवन वंश की है, जो शुरुआती डेनिसोवन्स से सम्बंधित है। ये निष्कर्ष सेल पत्रिका (Cell journal) में रिपोर्ट किए गए हैं।
इन्हीं शोधकर्ताओं द्वारा साइंस (Science) में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में उन्होंने प्लाक से निकाले गए प्रोटीन नमूनों का विश्लेषण किया था। पाया कि ये नमूने तो तिब्बत से ताइवान (Tibet to Taiwan Denisovans) तक फैले डेनिसोवन मानवों की हड्डियों के प्रोटीन से मेल खा रहे थे।
दोनों अध्ययनों से यह तो स्पष्ट है कि ड्रैगन मैन एक डेनिसोवन मानव ही था। जिसका अब एक मूर्त चेहरा (Denisovan face reconstruction) उन्हें मिल गया है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने पहले भी उपलब्ध जानकारी के आधार पर डेनिसोवन के चेहरे के अनुमान लगाए थे लेकिन वे अनुमान सिर्फ दांतों या हड्डियों के छोटे-मोटे टुकड़ों के विश्लेषण पर आधारित थे। अब चेहरे के नैन-नक्श की जानकारी देने के लिए एक पूरी खोपड़ी है। (स्रोत फीचर्स)
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वैज्ञानिकों को यह तो काफी पहले से पता था कि यदि ऑक्टोपस की एक भुजा घायल हो जाए तो उनका यह उपांग दो शाखाओं में विभाजित हो जाता है और एक नई भुजा विकसित होती है (octopus limb regeneration)। अलबत्ता यह पता नहीं था कि यह नौवीं भुजा कितनी कामकाजी होती है और ऑक्टोपस क्षतिग्रस्त भुजा के साथ काम चलाना कैसे सीखता (octopus behavior after injury) है।
अब वैज्ञानिकों ने पहली बार प्राकृवास (natural habitat) में ऑक्टोपस का अध्ययन कर न सिर्फ टूटी हुई भुजा को फिर से विकसित होते देखा है बल्कि उसमें संवेदनशीलता का विकास भी देखा (octopus sensory recovery) है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्पैनिश द्वीप इबीसा (Ibiza) के तट पर एक युवा ऑक्टोपस (Octopus vulgaris) को देखा, जिस पर शिकारी ने हमला किया था और उसकी आठ में से पांच भुजाएं घायल (octopus injury in wild) हो गई थीं। हालांकि, अधिकांश भुजाएं तो ठीक हो गईं, लेकिन सामने की दाहिनी भुजा दो हिस्सों में बंट गई, जिससे उसके पास नौ भुजाएं (nine arms in octopus) हो गईं।
शुरुआत में, ऑक्टोपस ने दर्द की वजह से घायल भुजा का इस्तेमाल शिकार (hunting behavior) जैसे खतरनाक कामों में नहीं किया। उसकी बजाय पास की दूसरी भुजा ने काम संभाला, जिससे पता चलता है कि घायल भुजा की सुरक्षा के लिए वे अपना व्यवहार कैसे बदलते (adaptive behavior in octopus) हैं।
लेकिन समय के साथ एक विचित्र चीज़ देखी गई। इस टूटी भुजा की दोनों शाखाएं मज़बूत होने लगीं और जटिल, जोखिमपूर्ण काम करने लगीं, जैसे चीज़ों को छूना और शिकार पकड़ना (prey capture with regrown arm)। यह बदलाव ऑक्टोपस के लचीलेपन (behavioral flexibility) को बखूबी उजागर करता है; न सिर्फ शरीर बल्कि उसके व्यवहार के लचीलेपन को भी। ऑक्टोपस की भुजाएं कुछ हद तक मस्तिष्क से स्वतंत्र (octopus decentralized nervous system) काम करती है, यानी ये मस्तिष्क के दखल के बिना संवेदी प्रतिक्रिया देने में सक्षम होती हैं। एनिमल पत्रिका (animal journal) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि यह व्यवहार उसकी नव-निर्मित नौवीं भुजा में भी नज़र आया जब वह स्वस्थ होकर नए-नए काम करने लगी।(स्रोतफीचर्स)
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यह तो जानी-मानी बात है कि कोशिका जीवन की इकाई (cell is the basic unit of life) होती है। इसका मतलब यह है कि जीवन की सारी क्रियाएं कोशिका नामक प्रकोष्ठ में संपन्न होती हैं। कई सारे जीव एक-कोशिकीय (unicellular organisms) होते हैं यानी उनका शरीर एक कोशिका से बना होता है और यह एक कोशिका जीवन की समस्त क्रियाएं (पोषक पदार्थों का अवशोषण, पाचन, अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन, आसपास के परिवेश के बारे में सूचनाएं प्राप्त करना और उन पर प्रतिक्रिया देना, पोषक पदार्थों से ऊर्जा प्राप्त करना, और श्वसन वगैरह) संपन्न करती है। लेकिन कई जीव बहुकोशिकीय (multicellular organisms) होते हैं। उनमें उक्त सारी क्रियाओं को कई सारी कोशिकाएं मिल-बांटकर समन्वय से संपन्न करती हैं।
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे शरीर में कितनी कोशिकाएं (how many cells in human body) होती हैं। यदि आप यह संख्या जान जाएंगे तो आपको यह बात हैरान करेगी कि इतनी सारी कोशिकाएं मिल-जुलकर कैसे काम करती हैं। इस संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र (scientific paper on cell count) में दिलचस्प खुलासे किए गए हैं।
प्रोसीडिंग्सऑफदीनेशनलएकेडमीऑफसाइंसेज़ (PNAS) में प्रकाशित समीक्षा पर्चे में जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर मैथेमेटिक्स इन साइंस के इयान हटन, एरिक गालब्रेथ, नोनो साहा सिरिल मर्लो, टीमू मीटिनेन, बेंजामिन स्मिथ तथा जेफ्री शैंडर ने एक औसत पुरुष, एक औसत स्त्री और 10 वर्ष के बालक के शरीर में कोशिकाओं की संख्या के जो अनुमान पेश किए हैं वे तालिका 1 में देखिए।
तालिका 1: मानवशरीरमेंकोशिकाओंकीसंख्या
पुरुष (वज़न 70 किलोग्राम, कद 176 से.मी., उम्र 20-50 वर्ष)
36 ट्रिलियन
स्त्री (वज़न 60 किलोग्राम, कद 163 से.मी., उम्र 20-50 वर्ष)
इन आंकड़ों तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 60 अलग-अलग ऊतकों में 400 किस्म की कोशिकाओं (400 types of human cells) की साइज़ व संख्याओं के आंकड़े शामिल किए। लेखकों ने स्वीकार किया है कि ये आंकड़े औसत पर आधारित हैं और यह इनकी सीमा है।
इसी प्रकार से उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि जिन शोध पत्रों (research papers on cell biology) या संदर्भों का सहारा लिया गया है, उनमें अधिकांशत: आंकड़े 60 किलोग्राम वज़न के एक वयस्क पुरुष के आंकड़े थे, और वर्तमान अनुमान के लिए उन्हें इन्हीं के आधार पर गणना करनी पड़ी थी।
कोशिकाओं की संख्या का अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने पूर्व शोध साहित्य (scientific literature) का सहारा लिया। किसी भी ऊतक की प्रति इकाई में सबसे प्रमुख कोशिका प्रकार के तुलनात्मक अनुपात, कोशिका संख्या, सतह के क्षेत्रफल और डीएनए सांद्रता (DNA density) को आधार बनाया गया। इन आंकड़ों को इंटरनेशनल कमीशन ऑन रेडियोलॉजिकल प्रोटेक्शन के आंकड़ों से जोड़कर प्रत्येक किस्म की कोशिका की संख्या का अनुमान लगाया गया।
शोधकर्ताओं ने अलग-अलग प्रकार की कोशिकाओं के वज़न (cell mass estimation) का आकलन भी किया। 400 से अधिक प्रकार की कोशिकाओं के वज़न के आंकड़े विभिन्न हिस्टॉलॉजी (histology data) स्रोतों से प्राप्त किए गए, जिनका अनुमान कोशिकाओं की आकृति, लंबाई, व्यास तथा कभी-कभी अन्य किस्म की कोशिकाओं से समानता के आधार पर किया गया है। इसके बाद कोशिका संख्या में कोशिका के वज़न से गुणा करके शरीर में उस किस्म की कोशिका का कुल बायोमास निकाल गया।
कोशिकाओंकीसाइज़ (cell size variation)
यह तो सभी जानते होंगे कि शरीर की सारी कोशिकाएं (human cells are not all the same size) एक समान नहीं होतीं। वैसे तो सारी कोशिकाएं कुछ काम तो एक जैसे करती हैं, लेकिन हर किस्म की कोशिका इन सामान्य कामों के अलावा कुछ विशिष्ट काम (specialized cell functions) करती हैं। जैसे कुछ कोशिकाएं ऑक्सीजन से जुड़कर उसे शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं, कुछ कोशिकाएं पर्यावरण से मिलने वाले संकेतों को ग्रहण करती हैं और उन्हें दिमाग तक पहुंचाती हैं, कुछ कोशिकाएं भोजन के पाचन के लिए एंज़ाइमों का निर्माण करती हैं, वगैरह। आप सोच ही सकते हैं कि हमारे शरीर में कितने सारे काम होते हैं और उनके लिए कितनी तरह की विशिष्ट कोशिकाओं की ज़रूरत होगी। फिर इन कोशिकाओं के कामों के बीच समन्वय भी करना होता है।
यह तो हुई बात कामकाज की। यह भी देखा गया है कि मानव शरीर में कोशिकाओं की साइज़ में भी बहुत विविधता (cell size range in human body) होती है। इस विविधता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सबसे बड़ी कोशिका सबसे छोटी कोशिका से 10 लाख गुना बड़ी (size difference among human cells) होती है। मोटे तौर पर कहें तो सबसे छोटी कोशिका यदि छछूंदर के बराबर मानी जाए, तो सबसे बड़ी कोशिका एक ब्लू व्हेल के बराबर निकलेगी।
साइज़ में विविधता के अलावा एक अंतर प्रत्येक किस्म की कोशिकाओं की संख्या (variation in cell count) में भी देखने को मिलता है।
लेकिन इयान हटन व साथियों के उपरोक्त समीक्षा पर्चे में हमारे शरीर में कोशिकाओं को लेकर एक दिलचस्प बात बताई गई है: किसी किस्म की कोशिका जितनी बड़ी-बड़ी होती हैं, उनकी कुल संख्या उतनी ही कम होती है जबकि छोटी-छोटी कोशिकाएं संख्या में अधिक पाई जाती हैं।
वैसे यह बात हमारे आसपास की कई चीज़ों पर लागू होती है और इसे ज़िफ (Zipf’s law in biology) का नियम कहा जाता है। नियम यह कहता है कि जब किसी चीज़ की साइज़ दुगनी हो जाती है तो उसकी कुल आबादी आधी रह जाती है। जैसे जीवजगत में बड़े जीवों की तादाद कम होती है, बनिस्बत छोटे जीवों के।
तो जीव वैज्ञानिकों के मन में विचार आया कि इस नियम को मानव शरीर पर लागू करके देखा जाए। और जब किया तो आश्चर्यजनक नतीजे मिले। मानव शरीर में विभिन्न किस्म की कोशिकाओं के आयतन और उनकी संख्या के आंकड़े एकत्रित करके इनके पैटर्न (cell size vs frequency pattern) का विश्लेषण करने पर देखा गया कि ज़िफ का नियम कोशिकाओं पर भी लागू होता है।
देखा गया कि जब किसी किस्म की कोशिकाओं का आयतन दुगना होता है, तो शरीर में उस किस्म की कोशिकाओं की आवृत्ति आधी रह जाती है। एक उदाहरण देखिए। हमारे शरीर में केंद्रक-विहीन लाल रक्त कोशिकाएं सबसे अधिक संख्या में पाई जाती हैं। दूसरी ओर, हमारे हाथ-पैरों की मांसपेशियों की बड़ी-बड़ी कोशिकाएं सबसे कम होती हैं। आयतन के हिसाब से देखेंगे तो लाल रक्त कोशिकाएं (RBCs – red blood cells) सबसे छोटी और मांसपेशीय कोशिकाएं सबसे बड़ी होती हैं।
लेकिन सवाल यह है कि इस नियम को जानकर फायदा क्या (benefits of Zipf’s law in cell biology)। शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे डॉक्टरों को कई तंत्रों को बेहतर समझने में मदद मिलेगी और उन कोशिका किस्मों की संख्या का आकलन किया जा सकेगा जिनकी गिनती करना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए लिम्फोसाइट (lymphocytes in immune system) नामक प्रतिरक्षा कोशिकाओं की शरीर में संख्या जीव वैज्ञानिकों के अनुमान से कहीं अधिक हो सकती है।
खैर नियम लागू हो ना हो, हम मानव शरीर में कोशिकाओं के प्रकारों और उनकी संख्या के आंकड़े देखने का आनंद तो ले ही सकते हैं।
प्रोसीडिंग्सऑफनेशनलएकेडमीऑफसाइंसेज़(PNAS) में प्रकाशित उक्त समीक्षा पर्चे आधार पर विभिन्न कोशिका प्रकारों की बात करते हैं। नीचे दिया गया चार्ट देखें।
आप सोच रहे होंगे कि कोशिकाओं का कुल वज़न 38.616 ग्राम ही है जो शरीर के वज़न से काफी कम है। यह बताता है कि हमारे शरीर में काफी वज़न पानी (body water composition) का होता है जिसमें से लगभग दो-तिहाई पानी कोशिकाओं के अंदर होता और एक-तिहाई कोशिकाओं के बाहर पाया जाता है। (स्रोतफीचर्स)
एपिथीलियल, एंडोथीलियलकोशिकाएं: नाना प्रकार की एपिथीलियल कोशिकाएं शरीर पर और आंतरिक अंगों की बाहरी सतह पर आवरण बनाती हैं। एंडोथीलियल कोशिकाएं रक्त वाहिनियों की अंदरुनी सतह पर फैली होती हैं। इन दोनों की कुल संख्या 1780 अरब है। कुल वज़न 1940 ग्राम।
फाइब्रोब्लास्टतथाओस्टिऑइड: फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाएं शरीर के संयोजी ऊतक बनाती हैं जबकि ओस्टिऑइड कोशिकाएं (ओस्टियोब्लास्ट तथा ओस्टियोसाइट समेत) हड्डियों में पाई जाती हैं। संख्या 470 अरब। वज़न 720 ग्राम।
न्यूरॉनवग्लियलकोशिकाएं: इस वर्ग में 57 किस्म की तंत्रिका कोशिकाएं और 22 किस्म की ग्लियल कोशिकाएं शामिल हैं। परिधीय तंत्रिका तंत्र में कोशिकाओं की साइज़ तथा संख्या में काफी विविधता होती है। इनकी संख्या 134 अरब है। कुल वज़न 938 ग्राम।
स्टेमकोशिकाएं, जर्मकोशिकाएंतथापेरिसाइट: इस वर्ग की कोशिकाओं में क्षमता होती है कि वे परिपक्व होकर अन्य किस्म की अपेक्षाकृत विभेदित कोशिकाएं बना सकें। इनमें ऊसाइट (अपरिपक्व अंडाणु कोशिकाएं) शामिल हैं। संख्या 229 अरब। वज़न 106 ग्राम।
रक्तकोशिकाएं: रक्त में कई तरह की कोशिकाएं होती हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी होती हैं जिनमें केंद्रक नहीं होता (एरिथ्रोसाइट्स तथा प्लेटलेट्स)। एरिथ्रोसाइट्स फेफड़ों से ऑक्सीजन लेकर विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं जबकि प्लेटलेट्स खून का थक्का बनने में भूमिका निभाती हैं। लिम्फोसाइट, मोनोसाइट्स तथा मैक्रोफेज कोशिकाएं प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा हैं और केंद्रक युक्त होती हैं। रक्त में कोशिकाओं की कुल संख्या 24,900 अरब होती है। इनमें से भी लाल रक्त कोशिकाएं यानी एरिथ्रोसाइट्स लगभग 19,200 अरब होती हैं। रक्त कोशिकाओं का कुल वज़न 6500 ग्राम।
मायोसाइटयानीमांसपेशीयकोशिकाएं: ये दो तरह की होती हैं – रेखित तथा चिकनी। रेखित कोशिकाएं कंकाल व हृदय में पाई जाती हैं। जबकि चिकनी मांसपेशीय कोशिकाएं खोखले अंगों, वाहिकाओं की दीवारों, आंखों तथा अन्य स्थानों पर पाई जाती हैं। संख्या 87 अरब। कुल वज़न 14,000 ग्राम।
एडिपोसाइट: ये वसा कोशिकाएं हैं। इनमें श्वेत वसा कोशिकाएं और भूरी वसा कोशिकाएं होती हैं। ये त्वचा के नीचे, अंदरुनी मुलायम अंगों तथा अस्थि मज्जा में स्थित होती हैं और शरीर में वसा संग्रह करती हैं। इनकी संख्या 261 अरब है। कुल वज़न 18,200 ग्राम।
सोने के बाद चांदी सबसे कीमती धातु मानी जाती है। कई परिवारों में खुशी के मौकों पर सोने-चांदी की चेन-अंगूठियां ली-दी जाती हैं (या पहनी जाती हैं)। बेशक, चांदी सोने से सस्ती है।
लेकिन जब उद्योग (silver in industry) और ऊर्जा उत्पादन (silver in clean energy) में उपयोग की बात आती है तो चांदी सोने को पछाड़ देती है। पूरे भारत में चांदी का इस्तेमाल छतों पर लगे सौर पैनलों (solar panels) के माध्यम से सौर ऊर्जा को कैद करने में किया जाता है। इससे पूरे देश में सालाना लगभग 108 गीगावॉट स्वच्छ एवं हरित बिजली पैदा होती है। यह मात्रा कोयले से पैदा होने वाली बिजली की लगभग 10 प्रतिशत है। इसके अलावा, भारत की लगभग 1.4 अरब आबादी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मोबाइल फोन (silver in mobile phones) में विद्युत चालन और भंडारण के लिए चांदी का इस्तेमाल किया जाता है। हर मोबाइल फोन में लगभग 100-200 मिलीग्राम चांदी होती है। इसी तरह, एक सामान्य लैपटॉप में 350 मिलीग्राम चांदी उपयोग होती है, और वर्तमान में भारत में लगभग 5 करोड़ लैपटॉप हैं।
यदि भारत में मोबाइल फोन और लैपटॉप इतनी संख्या में हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया में इनकी संख्या कितनी होगी। अनुमान है कि मोबाइल-लैपटॉप या ऐसी ही अन्य चीज़ों में पूरे विश्व में लगभग 7275 मीट्रिक टन चांदी लगती है। लेकिन (इन उपकरणों के खराब होने पर इनसे) बमुश्किल 15 प्रतिशत चांदी ही वापस निकालकर पुनर्चक्रित (silver recycling) की जाती है। जब कोई फोन या कंप्यूटर खराब हो जाता है या फेंक दिया जाता है तो उसमें मौजूद चांदी भी कूड़े में चली जाती है। काश! हम इन बेकार उपकरणों से यह चांदी वापिस निकाल पाते…
यह तो साफ है कि स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन में चांदी (silver in renewable energy) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस संदर्भ में मारिया स्मिरनोवा एक हालिया रिपोर्ट स्प्रॉट सिल्वर रिपोर्ट (Sprott Silver Report) में लिखती हैं कि जैसे-जैसे अधिकाधिक देश सौर पैनलों का उपयोग करके अक्षय ऊर्जा बनाएंगे, वैसे-वैसे चांदी की मांग (silver demand in solar industry) में लगातार वृद्धि होगी। वे आगे बताती हैं कि भले ही कुछ समूह सौर ऊर्जा के लिए अन्य धातुओं (जैसे लीथियम, कोबाल्ट और निकल) का उपयोग करने पर विचार कर रहे हैं, फिर भी स्वच्छ और हरित ऊर्जा उत्पादन में चांदी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। और, इस साल चांदी की मांग में लगभग 170 प्रतिशत वृद्धि होने की उम्मीद है। इसके अलावा, कारों, बसों और ट्रेनों (electric vehicles) में ईंधन के रूप में पेट्रोल की जगह सौर ऊर्जा का उपयोग होना शुरू हुआ है। स्मिरनोवा आगे बताती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2035 तक, दुनिया भर में बिकने वाली हर दूसरी कार इलेक्ट्रिक होगी। इसका मतलब होगा कि हमें और चांदी चाहिए होगी।
इसी संदर्भ में, फिनलैंड के प्रोफेसर टिमो रेपो और उनके साथियों ने अपने शोधपत्र में चांदी को पुनःचक्रित करने की एक कुशल रासायनिक विधि (green silver recovery) प्रस्तुत की है। इस विधि में कार्बनिक वसीय अम्लों (जैसे लिनोलेनिक या ओलिक एसिड) (fatty acids for silver extraction) का उपयोग चांदी निकालने में किया गया है। ये कार्बनिक वसीय अम्ल तिलहन, मेवों और वनस्पति तेलों (जैसे जैतून का तेल या मूंगफली का तेल) में पाए जाते हैं, जिनका दैनिक भोजन में उपयोग होता है।
गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे (e-waste silver recovery) से चांदी को पुन: प्राप्त करना आसान नहीं है: प्रबल अम्लों और साइनाइड के उपयोग की वजह से इस प्रक्रिया में विषाक्त पदार्थ पैदा हो सकते हैं। अन्य धातुओं और मिश्र धातुओं से चांदी को अलग करने की पारंपरिक विधियों का उपयोग करने की बजाय उपरोक्त समूह ने सूरजमुखी, मूंगफली और अन्य तेलों में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले साधारण असंतृप्त वसीय अम्लों के उपयोग से चांदी को अलग करके पुन: हासिल करने की एक विधि विकसित की है। समूह ने पाया कि इनका पुनर्चक्रण किया जा सकता है और इस प्रकार ये कार्बनिक विलायक और जलीय माध्यम से बेहतर हैं।
शोधकर्ताओं ने इस विधि को ‘शहरी खनन’ (urban mining of silver) में भी कारगर पाया है, जहां कबाड़ या कचरे में फेंके गए कंप्यूटर के मदरबोर्ड और अन्य इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़ों के कचरे से चांदी पुन: निकाली जा सकती है। शोध दल का निष्कर्ष है, “वसीय अम्ल बहुमूल्य बहु-धातु अपशिष्ट के निपटान का उन्नत माध्यम बन सकते हैं।” (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.technologynetworks.com/production/dynamic/images/content/399617/fatty-acids-extract-silver-from-electronic-waste-399617-960×540.jpg?cb=13342110
कल्पना कीजिए कि आप किसी जंगल या शहर की सड़क पर चल रहे हैं, और आपको दूर-दूर तक किसी जीव या इंसान का नामोनिशान तक न दिखे, फिर भी वैज्ञानिक यह बता दें कि वहां से कौन-कौन से जीव गुज़रे चुके हैं, कौन से वायरस मौजूद थे, और यह भी बता दें कि वहां से गुज़रने वाले लोग किस मूल के हैं। और, यदि यह कहा जाए कि यह कोई कोरी कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है तो?
यह संभव हुआ है पर्यावरणीय डीएनए (ई-डीएनए) (environmental DNA) का विश्लेषण करने की एक नई तकनीक नैनोपोर सिक्वेंसिंग (nanopore sequencing) से। शोधकर्ताओं ने इसका इस्तेमाल किसी क्षेत्र में मौजूद जैव-विविधता (biodiversity monitoring) की तस्वीर पेश करने में किया है।
गौरतलब है कि हर सजीव, चाहे वह इंसान हो, जानवर हों या वनस्पतियां, अपने आसपास के वातावरण में त्वचा की झिल्ली, लार, बाल या कोशिकाओं जैसे बहुत बारीक कण छोड़ते रहते हैं, जिनमें उनका डीएनए (DNA traces in environment) होता है। वैज्ञानिक इन कणों को मिट्टी, पानी या हवा से इकट्ठा कर यह पता लगा सकते हैं कि वहां कौन-कौन से जीव मौजूद हैं या थे। इस तरह प्राप्त डीएनए को पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए कहते हैं।
पहले वैज्ञानिक मेटाबारकोडिंग (metabarcoding DNA technique) नामक तकनीक से ई-डीएनए का अध्ययन करते थे। इससे यह पता चलता था कि किस तरह के जीव वहां थे, लेकिन यह तरीका धीमा, महंगा और सीमित जानकारी वाला था। फिर आई शॉटगन सिक्वेंसिंग (shotgun sequencing) तकनीक। इसमें किसी खास डीएनए को ढूंढने की बजाय नमूने के सम्पूर्ण डीएनए के छोटे-छोटे टुकड़ों का अनुक्रमण किया जाता है और उन्हें किसी पज़ल की तरह कंप्यूटर की मदद से जोड़कर पहचान की जाती है।
अब, एक नई तकनीक (नैनोपोर सिक्वेंसिंग) विकसित की गई है। इसकी मदद से वैज्ञानिक एक बार में डीएनए की लंबी शृंखला पढ़ सकते हैं। इससे नतीजे और भी सटीक मिलते हैं। और तो और, यह तकनीक न सिर्फ तेज़ और सस्ती है, बल्कि इतनी कॉम्पैक्ट है कि इसे लैपटॉप (portable DNA sequencer) से जोड़ा जा सकता है।
इस तकनीक को आज़माने के लिए वैज्ञानिकों ने अप्रैल 2023 में फ्लोरिडा के वॉशिंगटन ओक्स गार्डन्स स्टेट पार्क में हवा के नमूने इकट्ठा किए। उन नमूनो में डीएनए का विश्लेषण करके बताया कि वहां एक जंगली बिल्ली (बॉबकैट), एक ज़हरीला सांप, चमगादड़, मच्छर, एक पक्षी (ऑस्प्रे), और अफ्रीकी, युरोपीय और एशियाई मूल के इंसान मौजूद थे। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने वहां इनमें से कोई जीव नहीं देखा था(airborne DNA sampling, wildlife DNA detection)।
इसी तरह का एक अध्ययन आयरलैंड की राजधानी डबलिन की हवा के नमूने लेकर भी किया गया। यहां वैज्ञानिकों को इंसानों की ज़्यादा विविध जेनेटिक जानकारी (human genetic diversity in air) मिली। उन्हें 221 प्रकार के इंसानी वायरस और बैक्टीरिया के डीएनए (human pathogens in air) मिले जो फ्लोरिडा के मुकाबले 7 गुना अधिक थे।
वैज्ञानिकों के अनुसार, यह तकनीक जंगलों और शहरों में जैव विविधता की निगरानी (urban biodiversity tracking) करने में काफी उपयोगी है। इसके अलावा, बाहरी और संकटग्रस्त प्रजातियों पर नज़र रखने, बीमारियां फैलाने वाले वायरस (airborne disease surveillance) या बैक्टीरिया की पहचान करने और बिना संपर्क के इंसानी उपस्थिति तथा वंश का अध्ययन करने में भी मददगार होगी। इससे किसी भी जगह पर मौजूद जीवन की एक पूरी तस्वीर सिर्फ हवा के विश्लेषण से मिल सकती है।
लेकिन इसके साथ एक चिंता भी है। यदि वैज्ञानिक हवा से इंसानी डीएनए पहचान सकते हैं, तो इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति पर नज़र रखने (genetic surveillance risks) के लिए भी किया जा सकता है। हालांकि अब तक के अध्ययनों में सिर्फ सामान्य वंश की जानकारी मिली है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं। लेकिन भविष्य में यह तकनीक इतनी विकसित हो सकती है कि व्यक्ति विशेष की जानकारी भी दे सके। कानून विशेषज्ञ नताली राम का कहना है कि सरकारें या निजी कंपनियां इस तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर निगरानी (mass DNA monitoring) के लिए कर सकती हैं। एक प्राइवेट कंपनी तो ऐसे छोटे ई-डीएनए स्कैनर बना रही है जो चुपचाप किसी कमरे में वायरस या इंसानी डीएनए की निगरानी कर सकता है। हालांकि, यह तकनीक है तो बहुत रोमांचक, लेकिन अभी इस पर कफी काम किया जाना बाकी है। उदाहरण के तौर पर, वैज्ञानिकों को फ्लोरिडा के समुद्री पानी में काऊपॉक्स वायरस के डीएनए (cowpox virus DNA detection) के अंश मिले हैं जबकि वहां ऐसा वायरस पाया ही नहीं जाता है। इससे यह सवाल उठता है कि कहीं इतने छोटे डीएनए अंश झूठी या भ्रामक जानकारी तो नहीं दे रहे? वैज्ञानिकों को ऐसे नतीजों को बहुत सोच-समझकर देखना चाहिए, क्योंकि सिर्फ डीएनए का मौजूद होना यह नहीं साबित करता कि वह जीव वास्तव में वहीं है या वह सक्रिय है। (स्रोत फीचर्स)
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यह बात तो पता है कि पुरुषों में उम्र के साथ कुछ कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम (chromosome) नदारद होने लगते हैं, खासकर कैंसर कोशिकाओं (cancer cells) से। लेकिन यह मालूम नहीं था कि Y क्रोमोसोम की अनुपस्थिति से शरीर पर किस तरह के प्रभाव पड़ते हैं। अब, कैंसर विशेषज्ञों ने कैंसर कोशिकाओं के एक ताज़ा अध्ययन में पाया है कि यदि कैंसर ट्यूमर (cancer tumor study) से Y क्रोमोसोम नदारद होता है तो मरीज़ के लिए अधिक घातक हो सकता है।
दरअसल, 2023 में एरिज़ोना विश्वविद्यालय के कैंसर विशेषज्ञ थियोडोरस्क्यू और उनके दल ने पाया था कि Y क्रोमोसोम का नदारद होना मनुष्यों में मूत्राशय के कैंसर (bladder cancer in men) की आक्रामकता को बढ़ाता है। उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा कोशिकाओं से भी Y क्रोमोसोम गायब हो सकते हैं, जिससे कैंसर से मृत्यु (cancer-related mortality) का जोखिम बढ़ जाता है।
हालिया अध्ययन में उपरोक्त शोधदल ने कैंसर-कोशिका जीनोम के विशाल भंडार (cancer genome database) से प्राप्त जानकारी के आधार पर दो समूहों की तुलना की: Y क्रोमोसोम विहीन और Y क्रोमोसोम सहित। उन्होंने पाया कि पुरुषों में, कई प्रकार के कैंसर में, कैंसर ट्यूमर से Y क्रोमोसोम नदारद हो तो वे उन मरीज़ों की तुलना में जल्दी मर जाते हैं जिनके कैंसर ट्यूमर में Y क्रोमोसोम मौजूद होता है। यह भी पता चला कि Y क्रोमोसोम का लोप कैंसर कोशिकाओं और प्रतिरक्षा कोशिकाओं दोनों में होता है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर की रक्षा के लिए ट्यूमर पर हमला करती हैं। अब, महज़ कैंसर कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम का लोप होता है तो उनमें अन्य उत्परिवर्तनों (genetic mutations in cancer) की संख्या और गंभीरता बढ़ती है। साथ ही, कुछ ऐसे परिवर्तन भी हो सकते हैं जिससे ट्यूमर प्रतिरक्षा प्रणाली की नज़र से बच निकले, उसकी पकड़ में न आए (immune evasion by cancer)।
लेकिन यदि Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी हो जाता है तो असर अलग होते हैं: Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है और प्रतिरक्षा तंत्र (immune system suppression) को शांत कर देता है, जिससे वे कैंसर से लड़ने के उतनी काबिल नहीं रहतीं। यानी, एक तो ट्यूमर बहुरूपिया, ऊपर से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की नज़र कमज़ोर। यह स्थिति मरीज़ के लिए घातक (fatal cancer outcomes) साबित होती है।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कैंसर कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप और उसी ट्यूमर के अंदर मौजूद प्रतिरक्षा कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप के बीच एक सहसम्बंध (correlation between tumor and immune cells) भी है; हो सकता है कि विचित्र रासायनिक आकर्षण (कीमोअट्रैक्शन) की वजह से ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं रक्त से ट्यूमर में खिंची चली आती होंगी जिनमें Y क्रोमोसोम नदारद होता है। हालांकि अभी इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।
लेकिन इतना पक्का है कि Y क्रोमोसोम की गैर-मौजूदगी कैंसर कोशिकाओं को अधिक आक्रामक (aggressive cancer) बनाती है, और Y क्रोमोसोम रहित प्रतिरक्षा कोशिकाएं कम प्रभावी (weakened immune defense) होती हैं।(स्रोतफीचर्स)
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लीलावती के ज़माने से आज लीलावती की बेटियों के लिए बहुत सी चीज़ें बदल गई हैं। बावजूद इसके, उनकी कहानी के कई हिस्से उनकी बेटियों के जीवन में भी झलकते हैं। सबसे पहले ज़िक्र सकारात्मक बदलावों का। कुछ साल पहले तक इस वास्तविकता को चिंताजनक विषय के रूप में देखना तो दूर, इस हकीकत को माना तक नहीं गया था कि विज्ञान के कार्यबल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व (या मौजूदगी) (women in STEM workforce) कम है।
लेकिन अब यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई है। अब सभी निर्णय लेने वाली संस्थाएं, चाहे वे संस्थान हों, या अकादमियां हों, या सरकारी विभाग हों, इस मुद्दे पर ध्यान देने की ज़रूरत महसूस करते हैं। यह पिछली पीढ़ियों की महिलाओं के अनुभव से काफी अलग है।
आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) में, जहां मैं सत्तर के दशक में एमएससी की छात्र थी, फैकल्टी इस बात से खुश थे कि एमएससी के कुछ बैचों में लगभग 50 प्रतिशत लड़कियां दाखिल हैं। हमारे शिक्षक भी इस तथ्य से वाकिफ थे कि फैकल्टी स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व (gender gap in academia) बहुत ही कम है (तब भौतिकी विभाग में एक महिला थी)। हालांकि, उन्होंने सोचा कि यह विधि का अपरिवर्तनीय विधान है, और इसमें बदलाव लाना उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी का हिस्सा नहीं समझा। अब ऐसी स्थिति कहीं नहीं है।
मैं प्रवेश स्तर पर महिलाओं को पेश आने वाली समस्याओं के बारे में ज़्यादा नहीं कहूंगी, क्योंकि इनके बारे में तो सबको अच्छी तरह से पता है और इन पर बहुत चर्चा भी होती है। अपने बारे में बात करूं, तो मैंने इस समस्या को बायपास कर दिया, क्योंकि सौभाग्य से मुझे शुरुआती चरण में पुणे विश्वविद्यालय (Savitribai Phule Pune University) में एक फैकल्टी का पद मिल गया। तब पुणे विश्वविद्यालय में न केवल एक अत्यंत सक्रिय भौतिकी विभाग था, बल्कि वहां महिला फैकल्टी की संख्या दहाई में थी (मैं दसवीं महिला फैकल्टी थी!)।
यह एक अनोखी स्थिति थी, और दुर्भाग्य से (कमोबेश) यही अनोखी स्थिति अब भी बनी हुई है। हालांकि, हममें से जो लोग वहां थे, उन्हें एक-दूसरे से बहुत सहयोग मिला। इसके अलावा, यह बहुत ही खुशमिजाज़ विभाग था जिसमें लोग अपने काम के प्रति महत्वाकांक्षी थे। इसने वास्तव में मुझे अपने शुरुआती वर्षों में आगे बढ़ने में मदद की। और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे ऐसे विषयों पर काम शुरू करने में मदद मिली, जिनकी मैं पहले से कोई जानकार नहीं थी। यहां इस बात को ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह विभाग न तो अच्छी तरह वित्त-पोषित (funded research departments) था और न ही कोई प्रसिद्ध विभाग था। इसमें बस ऐसे लोग थे जिनमें ‘हम कर सकते हैं’ का जज़्बा था। और, अंतत: यही मायने रखता है।
यह सब सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन परेशानियां और भी थीं। मैंने और मेरे पति ने दस साल तक अलग-अलग शहरों में काम किया (पुणे और चैन्नई, जो पास-पास तो कदापि नहीं हैं) (dual career challenges in academia)। यहां भी, मुझे अपने और अपने पति दोनों के परिवार से समर्थन मिला, और मैं इस समर्थन की आभारी हूं। यदि वे हम पर दबाव डालते तो शायद मैं नौकरी छोड़ देती, जैसा कि कई महिलाओं ने किया भी है।
इस बीच, एक ही जगह पर काम करने की कोशिश कर रहे जोड़ों के लिए काम का माहौल (work environment) बिल्कुल भी मददगार नहीं था। थक-हार कर मैं आईआईटी मद्रास (IIT Madras) चली गई, और वहां जाना मेरे लिए सौभाग्यशाली साबित हुआ। संस्थान में बहुत बड़े बदलाव हो रहे थे, और मुझे वहां अपना एक अलग मुकाम मिला। हालांकि यह बदलाव पीड़ादायी था।
मुझे मेरे मुनासिब ओहदे पर नहीं रखा गया था, शायद इसलिए क्योंकि मैं अपनी मनवाने की स्थिति में नहीं थी, जैसा कि अक्सर महिलाओं (women professionals) के साथ होता है। मैं जितने रुढ़िवादी और नौकरशाही माहौल (bureaucratic and conservative work culture) की आदी थी, यहां का माहौल उसकी तुलना में कहीं अधिक रूढ़िवादी और नौकरशाही वाला था। बदलाव के दौर के मेरे साथी मेरे शोधार्थी थे, जो मेरे साथ यहां आ गए थे। उन्हें भी अपनी जगह से उखड़ने का एहसास हो रहा था, लेकिन किसी तरह हम एक-दूसरे का हाथ थामकर इस बदलाव के दौर से गुज़रकर उबर आए।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा, जूनियर महिला शिक्षकों द्वारा झेली जाने वाली समस्याओं से सब अब अच्छी तरह वाकिफ हैं, भले ही उनका समाधान अभी तक न हुआ हो। इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य सभी ओहदों पर महिलाओं को अपने हिस्से के संघर्षों का सामना नहीं करना पड़ता। मध्यम स्तर के पदों पर मौजूद महिलाएं, एक व्यक्ति के रूप में और एक पेशेवर के रूप में, अपना सिर पानी से ऊपर रखने के लिए जूझती हैं। वे एक ही समय में वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों हैं! यानी, उन्हें स्वायत्तता दिए बिना ज़िम्मेदारी (responsibility without autonomy) दी जाती है। वरिष्ठ पदों पर आसीन महिलाओं से अक्सर उनके वरिष्ठ सहकर्मी आज्ञाकारी होने की अपेक्षा रखते हैं, और उनके कनिष्ठ सहकर्मी दब कर रहने की अपेक्षा रखते हैं।
उत्पीड़न (harassment in academia) के मुद्दे कई जगहों पर हैं, और इनसे शायद ही कभी पेशेवर तरीके से निपटा जाता है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर महिलाओं द्वारा उठाए गए गंभीर कदम (आवाज़) को उनके पुरुष सहकर्मियों द्वारा उठाए गए इसी तरह के कदमों से कहीं अधिक नापसंद (gender bias at workplace) किया जाता है। ऐसे रोल मॉडल बहुत कम हैं जिन्होंने इन समस्याओं को सफलतापूर्वक संभाला है। हालांकि, कई महिलाएं अपना नेटवर्क विकसित करती हैं और जान-पहचान और दोस्तों से सही सलाह एवं समर्थन से इन स्थितियों से उबरने में कामयाब हो जाती हैं। लीलावती की बेटियां (Leelavati’s Daughters) दोस्तों की थोड़ी मदद से काम चला रही हैं।
अंत में, हम इस पीढ़ी की महिलाएं अगली पीढ़ी की महिलाओं के लिए क्या उम्मीद करती हैं? आदर्श स्थिति शायद यह हो कि वे श्रेष्ठ और अनुकूल मुकाम (women leadership in science) पर पहुंचे, और यदि वे इस मुकाम पर हों तो उन्हें आश्चर्य हो कि हम जो इतनी चिल्लपों कर रहे थे वह किस बात के लिए थी। और तब, हममें से जो लोग उस समय तक जीवित रहें वे उन्हें यह याद दिलाएं कि जिन स्वतंत्रताओं (academic freedom) की सावधानीपूर्वक रक्षा नहीं की जाती, वे अक्सर हाथ से फिसल जाती हैं! (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://physics.iitm.ac.in/assets/img/Neelima%20M.%20Gupte.png