क्या वनस्पति विज्ञान का अंत हो चुका है? – डॉ. किशोर पंवार

पिछले दिनों सेल प्रेस रिव्यू में विज्ञान और समाज शीर्षक के अंतर्गत एक पर्चा छपा था – दी एंड ऑफ बॉटनी। यह पर्चा संयुक्त रूप से अर्जेंटाइना के वनस्पति संग्रहालय के जार्ज वी. क्रिसी, लिलियाना कैटीनास, मारिया एपीडोका और मिसौरी वनस्पति उद्यान के पीटर सी. हॉच द्वारा लिखा गया है। इस पर्चे का शीर्षक वाकई चौंका देने वाला है और हमें वनस्पति विज्ञान के वर्तमान यथार्थ से रू-ब-रू कराता है।

मैं स्वयं वनस्पति शास्त्र का शिक्षक रहा हूं। यह पर्चा पढ़ते हुए मुझे विक्रम विश्वविद्यालय की वानस्पतिकी अध्ययन शाला में स्नातकोत्तर शिक्षा (1977-78) के अपने दिन याद आ गए। 1982 तक वहीं मैं शोध छात्र भी रहा। बॉटनी डिपार्टमेंट में एम.एससी. की कक्षाएं खचाखच भरी होती थीं। वनस्पति विज्ञान के प्रतिष्ठित प्राध्यापकों द्वारा अध्यापन किया जाता था। फिर गिरावट का एक ऐसा दौर आया कि विद्यार्थी लगातार कम होते चले गए। अध्यापकों की नई भर्ती हुई नहीं और जो थे वे एक के बाद एक रिटायर होते गए। और वर्तमान में यहां एक ही स्थायी प्राध्यापक है। और विभाग आज वनस्पति शास्त्र विषय लेने वाले विद्यार्थियों को तरसता है।

मुख्य विषय वनस्पति विज्ञान की उपेक्षा वर्तमान में एक विश्वव्यापी चिंता का कारण बन चुकी है। इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कारण कमोबेश वैश्विक हैं। दूसरी ओर, इसकी उप-शाखाएं (जैसे बायो-टेक्नोलॉजी, मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, एनवायरमेंटल साइंस और माइक्रोबायोलॉजी आदि) फल-फूल रही हैं। दुख की बात तो यह है कि इन तथाकथित नए प्रतिष्ठित विषयों को पढ़ाने वाले, चलाने वाले प्राध्यापक मूल रूप से वनस्पति विज्ञान के विद्यार्थी ही रहे हैं।

वैसे यह पर्चा अमेरिका के संदर्भ में लिखा गया है लेकिन समस्या अमेरिका तक सीमित नहीं है, दुनिया भर में यही स्थिति है। वनस्पति विज्ञान के कई प्राध्यापक भी सामान्य पौधों तक को पहचानने में असमर्थ हैं। यह जानते हुए भी कि पेड़-पौधे जीवन का आधार हैं, हम इस संकट तक कैसे पहुंचे, इसके कारण क्या हैं? इस परिस्थिति को बदलने के लिए हम क्या कर सकते हैं? ऐसे ही कुछ सवाल उक्त पर्चे में उठाए गए हैं जिनका उल्लेख यहां किया जा रहा है।

इस पर्चे में एक विधेयक की भी बात है जिसका शीर्षक है ‘दी बॉटेनिकल साइंस एंड नेटिव प्लांट मटेरियर रिसर्च रीस्टोरेशन एंड प्रमोशन एक्ट’ जिसे ‘बॉटनी विधेयक’ भी कहा जा रहा है। यह उन चेतावनियों का नतीजा है जो यूएस नेशनल पार्क सर्विसेज़ एंड ब्यूरो आफ लैंड मैनेजमेंट जैसे संस्थानों द्वारा समय-समय पर दी गई थीं। इन संस्थानों का कहना है कि उन्हें वर्तमान में ऐसे वनस्पति शास्त्री पर्याप्त संख्या में नहीं मिल रहे हैं जो घुसपैठी पौध प्रजातियों, जंगल की आग के बाद पुन:वनीकरण और आधारभूत भूमि प्रबंधन के क्षेत्र में मदद कर सकें।

विधेयक का उद्देश्य वनस्पति शास्त्र में शोध और विज्ञान क्षमता को बढ़ावा देना और स्थानीय पौध सामग्री की मांग बढ़ाना है। बिल में त्वरित कार्रवाई की ज़रूरत बताई गई है क्योंकि अगले कुछ वर्षों में सेवा निवृत्ति के चलते तथा नई भर्ती के अभाव में यूएस अपने आधे से भी अधिक विशेषज्ञ वनस्पति शास्त्री गंवा देगा। यह टिप्पणी यूं तो विशेषकर यूएस के लिए है, पर कमोबेश यही स्थिति सारी दुनिया में है।  

बॉटनी शब्द आठवीं शताब्दी के दौरान होमर द्वारा इलियड में दिया गया था। यह धीरे-धीरे पूरे रोमन साम्राज्य में फैला और इसका व्यावहारिक महत्व रेनेसां काल में काफी बढ़ा। बॉटनी ने आधुनिक विज्ञान में लीनियस और डारविन के विचारों को बढ़ावा देने में मदद की और कई महान प्रकृतिविदों ने मिलकर 19वीं से लेकर 20वीं शताब्दी तक इसे स्थापित किया। लेकिन इन 2700 वर्षों में पहली बार यह शब्द विलोप के खतरे से जूझ रहा है। इसके लिए जाने-अनजाने स्वयं इससे जुड़े लोग ही ज़िम्मेदार हैं।

एक उदाहरण देखिए। वर्ष 2017 में शेनजेन में संपन्न हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में दुनिया भर के लगभग 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। यहां 14 अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वनस्पति शास्त्रियों द्वारा वनस्पति विज्ञान पर एक घोषणा प्रस्तुत की गई। जिसमें सात योजनाबद्ध प्राथमिकताएं बताई गई थीं। लेकिन घोषणा के मजमून में बॉटनी शब्द कहीं नहीं था; इसका स्थान पादप विज्ञान ने ले लिया था।

वनस्पति विज्ञान का ह्यास

वनस्पति विज्ञान के उपविषयों के प्रसार स्वीकार्य हैं, परंतु एक असंतुलित दृष्टिकोण अपनाने से गड़बड़ी होती है। आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान जैसे विषय वर्गीकरण विज्ञान एवं आकारिकी जैसे विषयों पर हावी हो जाते हैं। वस्तुत:,   इन तथाकथित उच्च श्रेणी के विषयों ने वनस्पति विज्ञान की बहुआयामी प्रकृति को तार-तार कर दिया है। गौरतलब है कि आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान, जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे विषय वनस्पति विज्ञान की बुनियाद के बिना अधूरे हैं। उदाहरण के लिए, पदानुक्रम के किसी भी स्तर पर कोई भी जैविक परियोजना बिना वैज्ञानिक नाम के पूरी नहीं होती।

प्राकृतिक इतिहास के संग्रह खतरे में

हर्बेरिया तथा अन्य प्राकृतिक इतिहास के संग्रहों का रख-रखाव संग्रहालयों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है। ऐसे संग्रह समाज के लिए अमूल्य हैं। ये जैव विविधता और इसके वितरण को समझने की नींव बनाते हैं। हर्बेरिया पौधों की फीनॉलॉजी (ऋतुचक्र) के अध्ययन के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इनके आधार पर परागण के इतिहास और शाकाहारियों के असर का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान पौधों में पाए जाने वाले स्टोमेटा की तुलना किसी हर्बेरिया के स्पेसिमेन से करके यह देखा जा सकता है कि उनमें स्टोमेटा की संख्या में कितना बदलाव आया है। इनसे यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कैसे तालमेल बैठाती हैं।

दुखद बात यह है कि प्राकृतिक इतिहास के ये संग्रह और सम्बंधित संस्थान तेज़ी से बंद हो रहे हैं। दुर्भाग्य से बजट का अभाव इनके बंद होने के लिए ज़िम्मेदार है। इस तरह के नकारात्मक सामाजिक परिणामों को व्यापक रूप से पत्र-पत्रिकाओं और संपादकों, यहां तक कि लोकप्रिय मीडिया ने भी व्यक्त किया है।

प्राकृतिक इतिहास संग्रह पर मंडराते इन वैश्विक खतरों का वनस्पति विज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि कई वनस्पति अनुसंधान परियोजनाओं को हर्बेरिया आदि की आधारभूत आवश्यकता होती है। यहां तक कि आणविक और पारिस्थितिकी विज्ञान सहित अधिकांश जैविक अनुसंधान जीवों की सही-सही पहचान पर निर्भर करता है। प्राकृतिक इतिहास संग्रह में जीवों के नमूनों (वाउचर) का संरक्षण आवश्यक है।

वनस्पति विज्ञान के क्षरण का एक और कारण वर्तमान में शोध पत्रों के महत्व को आंकने का तरीका भी है। आजकल यह देखा जाता है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में किया है। इसके चलते आणविक जीव विज्ञान या सूक्ष्मजीव अनुसंधान की तुलना में वनस्पति विज्ञान के शोध पत्रों को कमतर आंका जाता है।

वनस्पति विज्ञान में घटती रुचि का एक कारण कुछ गलतफहमियां भी हैं। उदाहरण के लिए एक विचार प्रचलित है कि वर्गीकरण विज्ञान (टेक्सॉनॉमी) मूलत: एक विवरणात्मक शाखा है, जिसमें केवल अवलोकन होते हैं। यह गलतफहमी का एक स्पष्ट उदाहरण है। वास्तव में वर्गीकरण विज्ञान में विवरणों की आवश्यकता तो होती है लेकिन साथ ही सिद्धांत, तथा आनुभविक और ज्ञान की मीमांसा की गहनता भी ज़रूरी होती है। यह परिकल्पना आधारित होता है और इसमें मैदानी तथा प्रयोगशालाई विशेषज्ञता ज़रूरी होती है।

तस्वीर कैसे बदल सकती है

इस समस्या का संभावित समाधान दो-तरफा है। पहला विज्ञान की वर्तमान संस्कृति का रोना न रोते हुए यह सोचना होगा कि व्यक्तिगत तौर पर वनस्पति शास्त्री क्या कर सकते हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक व्यक्तियों के रूप में क्या करते हैं इस पर न अटकते हुए यह सोचना होगा कि विज्ञान की संस्कृति क्या कर सकती है।

व्यक्तिगत स्तर पर इस हेतु कुछ प्रयास किए जा सकते हैं, जैसे –

  • वनस्पति विज्ञान शब्द का सम्मान करना और इसके निंदात्मक प्रयोग को अस्वीकार करना।
  • इस क्षेत्र में जोखिमपूर्ण लेकिन नई ज़मीन तोड़ने वाले काम करना, जबकि फिलहाल यह फैशन में नहीं है।
  • असंतुलित दृष्टिकोण को चुनौती देना। यह स्वीकार करना कि समकक्ष समीक्षित शोध पत्र काम के मूल्यांकन का प्रमुख आधार हैं।
  • शोध कार्य के मूल्यांकन में उल्लेखों की गिनती की विधि को अस्वीकार करना।
  • प्राकृतिक इतिहास संग्रह का मूल्य समझना बहुत ज़रूरी है।

विज्ञान की संस्कृति के संदर्भ में भी कई कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे –

  • सरकारों को ऐसे कानून और नीतियां बनानी चाहिए जो वनस्पति विज्ञान के कद को बढ़ा सकें।
  • वैज्ञानिक समुदायों को प्राकृतिक इतिहास के महत्व को समझना होगा और उन तरीकों को बदलना होगा जिनसे वैज्ञानिक अनुसंधान के नतीजों का मूल्यांकन विभिन्न एजेंसियों द्वारा किया जाता है।
  • जीव-स्तर पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ाना होंगे।
  • प्राकृतिक संग्रह को बोझ के रूप में नहीं बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने और जैव विविधता का संरक्षण करने की संपदा के रूप में देखना होगा।
  • इसी तरह फंडिंग एजेंसियों को उन मापदंडों में विविधता लानी होगी जिनके आधार पर वित्त प्रदान करने के निर्णय किए जाते हैं। वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान के महत्व को पहचानना और विज्ञान की अन्य शाखाओं के लिए इसके मूल्य और प्राकृतिक इतिहास संग्रह का समर्थन करना ज़रूरी है।
  • विश्वविद्यालय स्तर पर वनस्पति विज्ञान के पाठ्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और फैकल्टी को इस तरह संतुलित करना कि उन पाठ्यक्रम को पढ़ाने और वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान करने में सक्षम वैज्ञानिकों की पर्याप्त संख्या हो।
  • वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को वनस्पति विज्ञान की जीव-स्तर की पांडुलिपियों के खिलाफ संभावित पूर्वाग्रह से बचना होगा और बिब्लियोमेट्रिक्स के आधार पर अपनी पत्रिकाओं का महत्व स्थापित करने की प्रवृत्ति से बचना होगा।
  • विज्ञान अकादमियों को अपने घटकों को बॉटनी पर चर्चा हेतु प्रोत्साहित करना होगा।
  • मीडिया में आम जनता के लिये वनस्पति विज्ञान का कवरेज बढ़ाना। जिसमें पौधों के बारे में हमारे ज्ञान और समाज में उनके महत्व और प्राकृतिक इतिहास संग्रह की प्रासंगिकता और पौधों तथा अन्य जीवों की पहचान करने में सक्षम व्यक्तियों को महत्व देना शामिल है।
  • शिक्षकों को हमारे युवाओं के बीच जीवन के अंतर-सम्बंधों की भूमिका और मानव के अस्तित्व के लिए पौधों के महत्व और जैव विविधता के महत्व को समझाना होगा।

कुल मिलाकर पूरी दुनिया में वनस्पति विज्ञान के अध्यापन की मौजूदा स्थिति बहुत ही खराब है; हम सबके जीवन से सीधे तौर पर जुड़े इस विषय की महत्ता को पुन: स्थापित करने के लिए अभी से युद्ध स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे। तभी कुछ अच्छे नतीजों की आशा की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नासा की शुक्र की ओर उड़ान

हाल ही में नासा ने शुक्र ग्रह पर दो यान भेजने की घोषणा है। शुक्र हमारा पड़ोसी है और अत्यधिक गर्म है। इस मिशन का उद्देश्य यह समझना है कि शुक्र ऐसा आग का गोला कैसे बन गया जहां लेड भी पिघल जाता है, पृथ्वी कैसे विकसित हुई और पृथ्वी पर जीवन योग्य परिस्थितियां कैसे बनीं?

इन दो अंतरिक्ष यान में से एक यान है DAVINCI+ (डीप एटमॉस्फियर वीनस इनवेस्टिगेशन ऑफ नोबेल गैसेस, कैमिस्ट्री एंड इमेजिंग)। यह शुक्र पर कार्बन डाईऑक्साइड और सल्फ्यूरिक एसिड से संतृप्त विषाक्त बादलों की मोटी परत का अध्ययन करेगा। दूसरा यान है VERITAS (वीनस एमिसिविटी, रेडियो साइंस, इनसार, टोपोग्राफी एंड स्पेक्ट्रोस्कोपी) जो शुक्र की सतह का विस्तृत नक्शा बनाएगा और इसका भूगर्भीय इतिहास पता लगाएगा।

आकार और द्रव्यमान में शुक्र लगभग पृथ्वी के समान है। दूसरी ओर, पृथ्वी के विपरीत इसका वातावरण अत्यंत गर्म और दुर्गम है, लेकिन इस पर कभी हमारी पृथ्वी की तरह समशीतोष्ण वातावरण और समुद्र रहे होंगे। शुक्र की परिस्थितियों में यह बदलाव कैसे आए, इसे समझना यह समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है कि वास्तव में शुक्र और पृथ्वी में कितनी समानता थी।

नासा के इस मिशन की घोषणा भूले-बिसरे ग्रह शुक्र में अंतरिक्ष विज्ञानियों की बढ़ती दिलचस्पी के दौर में हुई है। अमेरिका का अंतिम शुक्र मिशन, मैजेलन, वर्ष 1994 में समाप्त हुआ था। उसके बाद युरोप और जापान ने अपने यान शुक्र पर भेजे, और पृथ्वी स्थित दूरबीनों की मदद से ही वैज्ञानिक इस पर नज़र रखे हुए थे। लेकिन इतने अध्ययन के बावजूद भी शुक्र के बारे में कई जानकारियां स्पष्ट नहीं हैं। जैसे शुक्र की सतह पर ज्वालामुखीय गतिविधियों के प्रमाण मिले थे, लेकिन वहां वैसी टेक्टॉनिक गतिविधियों का अभाव है जो पृथ्वी पर ज्वालामुखीय गतिविधियां चलाती है। इसके अलावा शुक्र के वायुमंडल में फॉस्फीन गैस की उपस्थिति भी विवादास्पद रही है, जो वहां जीवन होने का संकेत हो सकती है।

संभवत: 2030 तक DAVINCI+ अंतरिक्ष यान शुक्र के लिए रवाना हो जाएगा। शुक्र पर पहुंचकर यह वहां के पृथ्वी की तुलना में 90 गुना घने वायुमंडल मे उतरेगा, उतरते-उतरते विभिन्न ऊंचाइयों पर हवा के नमूने लेगा और पृथ्वी पर जानकारियां भेजता रहेगा। ये वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद करेंगी कि शुक्र कैसे विकसित हुआ था, और क्या इस पर कभी महासागर थे।

एक ओर, DAVINCI+ शुक्र के वायुमंडल का अध्ययन करेगा, वहीं VERITAS शुक्र की कक्षा में रहकर ही उसकी सतह का मानचित्रण करेगा। इससे प्राप्त चित्र, सतह के रसायन विज्ञान और स्थलाकृति के बारे में विस्तृत जानकारी शुक्र के भूगर्भीय इतिहास को समझने में मदद करेगी, और इस गुत्थी को सुलझाएगी कि शुक्र पर इतनी भीषण परिस्थितियां कैसे बनीं? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण पर बढ़ती चिंता

प्लास्टिक माउंट एवरेस्ट से लेकर अंटार्कटिका तक पहुंच चुका है। हर वर्ष, लाखों टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में बहा दिया जाता है। इनमें से कुछ बड़े टुकड़े तो समुद्र में तैरते रहते हैं, कुछ छोटे कण समुद्र के पेंदे में पहुंच जाते हैं तो कुछ का ठिकाना समुद्र की गहरी खाइयों के क्रस्टेशियन जीवों तक में होता है।

पिछले कुछ वर्षों में समुद्री प्लास्टिक पर प्रकाशित शोध पत्रों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्र संघ की विज्ञान की स्थिति सम्बंधी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में यह संख्या 46 थी जो 2019 में बढ़कर 853 हो गई।

युनिवर्सिटी ऑफ काडिज़ के कारमेन मोराल्स कहते हैं कि धातुओं या कार्बन यौगिकों जैसे प्रदूषकों की तुलना में प्लास्टिक ज़्यादा नज़र आता है जिसके चलते यह जनता और नीति निर्माताओं का अधिक ध्यान आकर्षित करता है। वैज्ञानिक यह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं कि यह प्लास्टिक कहां से आता है, कहां जाता है और पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है।

इन शोध प्रकाशनों में अभी भी ज़्यादा ध्यान समुद्र तटों, समुद्र के पेंदे या जंतुओं में प्लास्टिक की उपस्थिति पर दिया जा रहा है जबकि प्लास्टिक के रुाोतों और समाधानों पर काफी कम शोध पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हाल ही में मोराल्स और उनकी टीम ने विभिन्न अध्ययनों के डैटा के आधार पर कचरे से 1.2 करोड़ वस्तुओं की सूची तैयार की है जिनका आकार दो सेंटीमीटर से अधिक है। भोजन और पेय पदार्थों के पैकिंग में उपयोग होने वाली बोतलें, कंटेनर, रैपर और बैग्स कुल पर्यावरणीय कचरे का लगभग 44 प्रतिशत है।

प्लास्टिक प्रदूषण के पारिस्थितिकी प्रभाव को समझने के प्रयास भी चल रहे हैं। प्लास्टिक स्वयं तो अक्रिय पदार्थ हैं लेकिन इनमें अग्निरोधी पदार्थों और रंजकों के अलावा इन्हें लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए योजक मिलाए जाते हैं। यही चिंता का कारण हैं। हानिकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन भी बहते प्लास्टिक से चिपककर पर्यावरण में प्रवेश कर सकते हैं।

इसके अलावा, माइक्रोप्लास्टिक कण प्लवकों के आकार के होते हैं जिन्हें समुद्री जंतु भोजन समझकर निगल लेते हैं। छोटे नैनोप्लास्टिक तो और अधिक हानिकारक हो सकते हैं जो ऊतकों में प्रवेश कर जाते हैं और सूजन का कारण बन सकते हैं। अभी तक प्लास्टिक के विषैले प्रभावों को ठीक तरह से समझा नहीं जा सका है और पर्यावरण में पाए जाने वाले प्लास्टिक जैसा सम्मिश्रण प्रयोगशाला में बनाना कठिन कार्य है।

एक समाधान के तौर पर 2018 से लेकर अब तक 127 देशों ने प्लास्टिक बैग का उपयोग नियंत्रित करने के लिए कानून पारित किए हैं। लेकिन कुछ रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक पुनर्चक्रण की धीमी गति को देखते हुए ऐसे प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जैव-विघटनशील विकल्प ज़रूरी हैं।

ऐसे में वनस्पति-आधारित हाइड्रोकार्बन से प्राप्त सामग्री पर अनुसंधान में काफी तेज़ी आई है। लेकिन इसकी रफ्तार अभी भी समस्या की विकरालता के सामने काफी धीमी है। प्लास्टिक के पर्यावरण विकल्पों पर प्रकाशन 2011 में 404 से बढ़कर 2019 में 1111 हो गए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ साओ पाउलो के रासायनिक इंजीनियर इन दिनों कसावा स्टार्च से बायोडीग्रेडेबल प्लास्टिक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।       

कुछ वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण और परमाणु कचरे की समस्या में समानता देखते हैं। कहा जाता था कि विज्ञान के विकास के साथ नाभिकीय अपशिष्ट निपटान की तकनीकें विकसित होती जाएंगी। लेकिन आज भी परमाणु कचरे के निपटान की तकनीकें समस्या से काफी पीछे ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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तालाबंदी की सामाजिक कीमत – सोमेश केलकर

म तौर पर कीमत को हम मुद्रा से जोड़कर देखते हैं। लेकिन यहां हम सामाजिक कीमत की बात करेंगे। सामाजिक कीमत वह है जिसे किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए समाज सामूहिक रूप से वहन करता है। भारत के संदर्भ में यह पिछले साल मार्च और फिर इस साल अप्रैल-मई में की गई तालाबंदी के कारण समाज द्वारा झेली गई पीड़ा और क्षति है। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे आनन-फानन तालाबंदी ने लोगों का जीवन प्रभावित किया और किस तरह तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम की जा सकती थी।

तालाबंदी के कारण मौतें

भारत में मई 2021 तक मरने वालों की अधिकारिक संख्या 2,95,525 थी जिसका कारण सिर्फ महामारी नहीं थी। समाचार वेबसाइट theprint.in के अनुसार सिर्फ केरल में अप्रैल 2020 तक तालाबंदी के दौरान भूख, पुलिस की बर्बरता, चिकित्सा सहायता में देरी, आय के स्रोत चले जाने, भोजन व आश्रय न मिलने, सड़क दुर्घटनाओं, शराब की तलब, अकेलेपन या बाहर निकलने पर पाबंदी और तालाबंदी से जुड़े अपराध (गैर-सांप्रदायिक) के कारण 186 लोगों की जान चली गई थी।

अनौपचारिक क्षेत्र

देशव्यापी तालाबंदी के दौरान भारत के अधिकांश हिस्सों में कोविड-19 से लड़ने के लिए आवश्यक वस्तुओं की निर्बाध आपूर्ति की कोशिश हो रही थी। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन और कम लागत पर वितरण की मांग को पूरा करने के लिए श्रमिकों को क्या कीमत चुकानी पड़ी? ये ऐसे सवाल हैं जिनमें संक्रमण काल से परे दीर्घकालिक मानवीय चिंता झलकती है।

असंगठित और प्रवासी श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग (39 करोड़) है, जो सबसे कमज़ोर है और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के दायरे से या तो बाहर है या उसकी परिधि पर है। तालाबंदी की सामाजिक कीमत सबसे अधिक इसी मज़दूर वर्ग ने चुकाई है। और इसी वजह से यह तबका शोषण और मानव तस्करी जैसे संगठित अपराधों का आसानी से शिकार बन जाता है।

प्रवासी मज़दूरों के लिए अपने गांव वापस जाना भी आसान नहीं था। कई राज्यों में श्रमिकों को अपने गांव पहुंचने से पहले और बाद में अभाव और भूख का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने दैनिक निर्वाह के लिए महंगा कर्ज़ लेने को मजबूर होना पड़ा। इसने बच्चों को अपने माता-पिता द्वारा लिया कर्ज चुकाने के लिए बंधुआ मज़दूरी और भुगतान-रहित मज़दूरी करने की ओर धकेल दिया।

2020 के उत्तरार्ध में तालाबंदी के बाद जब चीज़ें सामान्य होने लगीं और कारखाने पूरी क्षमता के साथ शुरू हो गए तो कारखाना मालिकों ने अपने नुकसान की भरपाई के लिए श्रमिकों को कम पैसों पर रखना शुरू किया। ज़रूरतमंद, कमज़ोर और असंगठित श्रमिक पर्याप्त मज़दूरी या अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की स्थिति में न होने के कारण कम मज़दूरी पर काम करने लगे। कई राज्य सरकारों ने अर्थ व्यवस्था दुरुस्त करने की आड़ में श्रमिक कानूनों में ढील देकर श्रमिकों की मुसीबत और बढ़ा दी।

काम पर रखे गए नए मज़दूरों में बड़ी संख्या में बच्चे थे, परिवार की मदद करने के कारण उनका स्कूल छूट गया। कारखानों में मज़दूरी के लिए हज़ारों बच्चों की तस्करी भी हुई, जहां उन्हें अत्यंत कम मज़दूरी पर काम करना पड़ा और संभवत: शारीरिक, मानसिक और यौन उत्पीड़न भी झेलना पड़ा।

केंद्र और राज्य सरकारों को इन चुनौतियों से निपटने के लिए वृहद योजना बनाने की ज़रूरत है। खासकर असुरक्षित/हाशिएकृत बच्चों की सुरक्षा के लिए। यहां कुछ ऐसे तरीकों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्हें अपनाकर दोनों तालाबंदी का बेहतर प्रबंधन किया जा सकता था –

1. कानूनी ढांचे का आकलन और समीक्षा: केंद्र सरकार को मानव तस्करी के मौजूदा आपराधिक कानून, इसकी अपराध रोकने की क्षमता और पीड़ितों की ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता का आकलन करके लंबित मानव तस्करी विरोधी विधेयक को संशोधित करके संसद में पारित करवाना चाहिए।

2. कारखानों और विनिर्माण इकाइयों का निरीक्षण: छोटे और मध्यम व्यवसायी कारखानों को गैर-कानूनी ढंग से न चला पाएं, इसके लिए उनका निरीक्षण करना और उन्हें जवाबदेह बनाना चाहिए। बाल श्रम कानूनों के अनुपालन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही बाल श्रम रोकने के लिए कम से कम अगले दो वर्षों तक पंजीकृत कारखानों और अन्य निर्माण इकाइयों का गहन निरीक्षण किया जाना चाहिए।

3. कानून के अमल और पीड़ितों के पुनर्वास हेतु बजट आवंटन में वृद्धि: विमुक्त बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए 2016 में केंद्र सरकार ने अपनी योजना के तहत पीड़ितों को तीन लाख रुपए तक के मुआवज़े का प्रावधान रखा था। लेकिन बजट में योजना के लिए कुल आवंटन महज़ 100 करोड़ रुपए है जबकि योजना को बनाए रखने का न्यूनतम खर्च ही 100.2 करोड़ रुपए है। इसमें तत्काल वृद्धि आवश्यक है।

4. ऋण प्रणाली का विनियमन: ग्रामीण भारत में स्थानीय साहूकारों द्वारा तालाबंदी से प्रभावित लोगों का शोषण रोकने के लिए विनियमन की आवश्यकता है। इसमें उधार देने के लिए लायसेंस और ब्याज दर की उच्चतम सीमा निर्धारित करने के अलावा, सरकारी बैंकों द्वारा उचित शर्तों पर दीर्घावधि कर्ज़ देना व उदार वसूली प्रक्रियाएं शामिल हों। बंधुआ मज़दूरी को समाप्त करने में राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका हो।

महिलाएं

तालाबंदी की सामाजिक कीमत महिलाओं और बच्चों को भी चुकानी पड़ी है। आर्थिक के अलावा मनोवैज्ञानिक असर भी देखे जा रहे हैं। लोग पहले ही गंदगी और बदतर स्थितियों में रहने को मजबूर थे और अनियोजित तालाबंदी के कारण लिंग-आधारित हिंसा, बाल-दुर्व्यवहार, सुरक्षा में कमी, धन और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक असमानताएं बढ़ी हैं। महिलाएं वैसे ही अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करती हैं। ऊपर से लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य – मासिक स्राव सम्बंधी स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और पोषण – की और उपेक्षा हुई है और सीमित हुए संसाधनों ने स्थिति को और भी बदतर बनाया है।

तालाबंदी के दौरान बाल विवाह की संख्या में भी वृद्धि देखी गई है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2020 की तालाबंदी के दौरान, बाल विवाह से सम्बंधित लगभग 5584 फोन आए थे।

स्कूल बंद होने के कारण परिवारों और युवा लड़कियों तक पहुंच पाना और बाल-विवाह के मुद्दे पर बात करना मुश्किल हो गया है। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार बाल विवाह के चलते लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। और यदि हालात बिगड़ते हैं तो उन्हें गुलामी और घरेलू हिंसा भी झेलनी पड़ती है।

तालाबंदी में नौकरी गंवाने और आय न होने के चलते प्रवासी कामगार और मज़दूर भुखमरी और कर्ज़ की ओर धकेले गए। इस स्थिति में उन्हें बेटियों का शीघ्र विवाह करना ही उनकी सुरक्षा और जीवन के लिए उचित लगा।

शिक्षा

शिक्षा पर तालाबंदी का प्रभाव विनाशकारी रहा। मार्च 2020 में सख्त तालाबंदी लगते ही स्कूल भी बंद कर दिए गए। और बंद पड़े स्कूल अब तक सबसे उपेक्षित मुद्दा रहा है। विश्व बैंक ने अपनी 2020 की रिपोर्ट बीटन ऑर ब्रोकन: इनफॉर्मेलिटी एंड कोविड-19 इन साउथ एशिया में पर्याप्त डैटा के साथ इस पर एक व्यापक विश्लेषण प्रकाशित किया है कि कैसे महामारी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र को प्रभावित किया।

इस रिपोर्ट का एक दिलचस्प बिंदु है अर्थव्यवस्था पर स्कूल बंदी का प्रभाव। तालाबंदी की घोषणा के बाद से ही दक्षिण एशिया में स्कूल बंद हैं। भारत में भी मार्च 2020 से स्कूल बंद कर दिए गए थे। अधिकतर शहरी निजी स्कूलों ने ऑनलाइन शैली में कक्षाएं शुरू कर दी थीं। लेकिन सरकारी स्कूल अब भी कक्षाएं संचालित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि सुदूर और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों की इंटरनेट तक पहुंच नहीं है या उसका खर्च वहन करने की सामथ्र्य नहीं है। यह एक गंभीर मुद्दा है।

विश्व बैंक ने शायद पहली बार अपनी रिपोर्ट में स्कूल बंदी के प्रभावों के मौद्रिक आकलन की कोशिश की है। रिपोर्ट के नतीजे चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशियाई क्षेत्र में 39.1 करोड़ बच्चे स्कूलों से वंचित हुए जिसके कारण सीखने का गंभीर संकट पैदा हो गया है। महामारी के कारण 55 लाख बच्चे पढ़ाई छोड़ भी सकते हैं। इसके अलावा, स्कूल बंदी से स्कूली शिक्षा के 6 महीनों के समय का नुकसान हुआ है।

रिपोर्ट कहती है कि स्कूल बंद होने से न केवल सीखने पर अस्थायी रोक लगती है, बल्कि छात्रों द्वारा पूर्व में सीखी गई चीज़ों को भूलने का भी खतरा होता है। इसका आर्थिक असर भी चौंकाने वाला है। स्कूल बंदी के परिणामस्वरूप दक्षिण एशियाई क्षेत्र को 622 अरब डॉलर से 880 अरब डॉलर तक का नुकसान होने का अंदेशा है।

रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में एक औसत बच्चे के वयस्क होने के बाद उसकी जीवन भर की कमाई में कुल 4400 डॉलर की कमी आएगी जो उसकी संभावित आमदनी का 5 प्रतिशत है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि वर्तमान तालाबंदी से होने वाला कुल आर्थिक नुकसान, वर्तमान में शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च से काफी अधिक है।

सामाजिक पतन

भारत और अन्य देशों में कई तरह के नस्लवाद ने लोगों को बांट दिया है। धर्म-आधारित घृणा, जाति आधारित भेदभाव और उत्तर-पूर्वी लोगों को कलंकित करना किसी भी अन्य भेदभाव के समान ही घातक है। अनभिज्ञ और पक्षपाती मीडिया और लोगों ने देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया है और कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई को सामाजिक रूप से बहुत प्रभावित किया है। सार्स-कोव-2 वायरस को उसकी उत्पत्ति के चलते चीनी वायरस कहकर चीन के लोगों के साथ भेदभाव का माहौल बना। यह संवेदनशीलता के गिरते स्तर का द्योतक है। समाज ने तालाबंदी की यह एक और कीमत चुकाई है।

यदि उचित उपाय नहीं किए गए तो जातिवाद के विचार स्वाभाविक रूप से लोगों की मानसिकता में बने रहेंगे जो समाज की शांति और स्थिरता के लिए खतरा होगा। नस्लवाद के इस अदृश्य घातक वायरस से लड़ने के लिए व्यक्तिगत, सामुदायिक और सरकारी स्तर पर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के स्तर पर दीर्घकालिक नियोजन और सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। भारत में नेताओं को भाषा और मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है। उन्हें समस्या के समाधान निकालने के प्रयास करने चाहिए न कि समाधान में अड़ंगा लगाना चाहिए।

निष्कर्ष

यहां हमने तालाबंदी की समाज द्वारा चुकाई गई कुछ कीमतों पर ध्यान दिया। लेकिन हमारे आसपास कई और भी मुद्दे हैं जो दिखते तो हैं लेकिन उपेक्षित रह जाते हैं। जैसे किराए की दुकान में अपना व्यवसाय करने वाले छोटे व्यवसाय, तालाबंदी में दुकान बंद रखने के कारण उनकी आय तो रुक गई लेकिन दुकान का किराया तो देना ही पड़ा होगा।

भले ही आकलन करना कठिन हो, लेकिन स्पष्ट है कि 2020 और 2021 दोनों में भारत के लॉकडाउन की सामाजिक कीमत काफी अधिक रही है। तालाबंदी जैसे कठोर उपायों को लागू करने से पहले व्यवस्थित योजना तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम करने और लोगों का नुकसान कम करने व कम से कम असुविधा सुनिश्चित कर सकती है। यह सभी के लिए हितकर होगा कि हम अपनी गलतियों से सीखें, स्वास्थ्य व स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने पर अधिक ध्यान दें, चिकित्सा अध्ययन को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजें, और यह सुनिश्चित करें कि हमारे डॉक्टर देश छोड़कर न जाएं।

तालाबंदी अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा की भरपाई का अंतिम उपाय है, महामारी का समाधान नहीं। ज़रूरत है कि समाज के कमज़ोर वर्गों को होने वाले नुकसान को कम से कम करने के लिए उचित योजना बनाई जाए, और स्वास्थ्य सेवा में भारी निवेश किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भविष्य में ऐसी स्थिति फिर से उत्पन्न होने पर हमें स्वास्थ्य के कमज़ोर ढांचे की वजह से तालाबंदी न करनी पड़े। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुतली का आकार और बुद्धिमत्ता

हते हैं कि आंखें दिल की ज़ुबां होती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि ये हमारे मस्तिष्क का हाल भी बयां करती हैं। आंखों की पुतलियां न सिर्फ प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया देती हैं बल्कि उत्तेजना, रुचि तथा मानसिक थकावट के संकेत भी देती हैं। कई खुफिया एजेंसियां झूठ पकड़ने के लिए भी इनका उपयोग करती हैं।

पुतली आंख के बीच स्थित काले गोलाकार भाग को कहते हैं। इसका आकार लगभग 2 से 8 मिलीमीटर होता है। यह पुतली परितारिका नामक रंगीन क्षेत्र से घिरी होता है जो पुतली के आकार को नियंत्रित करता है।

इस विषय में जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में किए गए अध्ययन से पता चला है कि पुतली का मूल आकार बुद्धिमत्ता से निकट सम्बंध दर्शाता है। तार्किकता, एकाग्रता और स्मृति जांच में पाया गया कि जितनी बड़ी पुतली, उतनी ही अधिक बुद्धि। तीन अध्ययनों में किए गए संज्ञानात्मक परीक्षणों में सबसे अधिक और सबसे कम अंक प्राप्त करने वाले लोगों की पुतली के आकार में स्पष्ट अंतर देखे गए हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पुतली के फैलाव की तकनीक का उपयोग किया। पुतली के आकार और बुद्धि के बीच के सम्बंध को समझने के लिए एटलांटा समुदाय के 18 से 35 वर्षों के 500 से अधिक लोगों पर अध्ययन किया गया। इसके बाद उन्होंने शक्तिशाली कैमरा और कंप्यूटर से लैस ऑई ट्रैकर की मदद से उनकी पुतली के आकार का मापन किया। इस प्रक्रिया में प्रतिभागियों को लगभग चार मिनट तक कंप्यूटर का खाली स्क्रीन देखने को कहा गया और इस दौरान उनकी पुतली की स्थिर अवस्था को मापा गया। इसके आधार पर प्रत्येक प्रतिभागी की पुतली के औसत आकार की गणना की गई। तेज़ रोशनी में पुतलियां सिकुड़ जाती हैं, इसलिए अध्ययन के दौरान रोशनी मंद रखी गई।              

अध्ययन के अगले भाग में प्रतिभागियों की ‘तरल बुद्धिमत्ता’ (नई समस्याओं के प्रति तर्क करने की क्षमता), ‘कामकाजी स्मृति क्षमता’ (एक समय अवधि तक किसी जानकारी को याद रखने की क्षमता) और ‘एकाग्रता नियंत्रण’ (खलल की स्थिति में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता) को मापने के लिए कई संज्ञानात्मक परीक्षण किए गए।

उदाहरण के तौर पर, प्रतिभागियों को कंप्यूटर स्क्रीन के एक सिरे पर बड़े से टिमटिमाते तारे से ध्यान बचाते हुए स्क्रीन के विपरीत सिरे पर एक अक्षर की पहचान करना थी। यह अक्षर कुछ ही क्षणों के लिए प्रकट होता था, इसलिए क्षण भर भी इस टिमटिमाते तारे की ओर ध्यान दिया तो अक्षर नहीं देख पाएंगे। गौरतलब है कि मनुष्य में परिधीय दृष्टि से गुज़रने वाली वस्तुओं पर प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति होती है लेकिन इस कार्य में अक्षर पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश दिया गया था।     

शोधकर्ताओं ने पाया कि पुतली का मूल आकार तरल बुद्धिमत्ता, एकाग्रता नियंत्रण, और कुछ हद तक कामकाजी स्मृति क्षमता से जुड़ा है। पुतली का आकार उम्र के साथ घटता जाता है। विश्लेषण में इस बात का ध्यान रखते हुए भी यह सम्बंध बना रहता है।

सवाल है कि पुतली के आकार का सम्बंध बुद्धि से कैसे है? शोधकर्ताओं का मानना है कि पुतली का आकार मस्तिष्क के ऊपरी स्टेम में स्थित लोकस कोर्यूलियस की गतिविधि से सम्बंधित है। यह मस्तिष्क के अन्य हिस्सों से तंत्रिकाओं के माध्यम से जुड़ा होता है। लोकस कोर्यूलियस एक रसायन नॉरएपिनेफ्रिन मुक्त करता है जो मस्तिष्क और शरीर में तंत्रिका-संप्रेषक और हॉर्मोन के रूप में कार्य करता है। इसके साथ ही यह अनुभूति, एकाग्रता, सीखने और स्मृति जैसी प्रक्रियाओं को भी नियंत्रित करता है। यह मस्तिष्क की गतिविधियों का समन्वय भी करता है ताकि मस्तिष्क के दूरस्थ क्षेत्र चुनौतीपूर्ण कार्यों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मिलकर काम कर सकें।

लोकस कोर्यूलियस के काम में गड़बड़ी की वजह से मस्तिष्क के कार्यों में समन्वय अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसका सम्बंध अल्ज़ाइमर एवं एकाग्रता के अभाव से देखा गया है। मस्तिष्क की गतिवधियों में समन्वय बहुत महत्वपूर्ण है और मस्तिष्क अपनी अधिकांश ऊर्जा इसको बनाए रखने में खर्च करता है।

एक परिकल्पना यह है कि जिन लोगों में पुतलियों का आकार बड़ा होता है उनमें लोकस कोर्यूलियस की गतिविधि भी अधिक होती है जो संज्ञानात्मक प्रदर्शन के लिए लाभदायक है। फिर भी बड़े आकार की पुतलियों और बुद्धि का सम्बंध समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। आंखों में अभी काफी रहस्य हैं जिनको अभी और गहराई से समझना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैज्ञानिक साहित्य में नकली शोध पत्रों की भरमार

क अध्ययन से पता चला है कि वैज्ञानिक साहित्य में कंप्यूटर प्रोग्राम द्वारा रचे गए बेमतलब शोध पत्रों की संख्या काफी अधिक है। यदि प्रकाशकों द्वारा कार्यवाही की जाती है तो 200 से अधिक शोध पत्र हटाए जा सकते हैं।

यह मुद्दा सबसे पहले तब सामने आया जब 2005 में तीन पीएचडी छात्रों ने शोध पत्र बनाने वाला SCIgen नामक सॉफ्टवेयर तैयार किया। वे बताना चाहते थे कि कुछ सम्मेलनों में अर्थहीन पेपर भी स्वीकार किए जाते हैं। यह सॉफ्टवेयर बेतरतीब शीर्षकों, शब्दों और चार्ट्स के माध्यम से शोध आलेख तैयार करता है। मानव पाठक इसकी निरर्थकता को बहुत ही आसानी से पकड़ सकते हैं।

वर्ष 2012 तक कंप्यूटर वैज्ञानिक सिरिल लेबे ने SCIgen की मदद से तैयार किए गए 85 नकली पत्रों का पता लगाया था जो IEEE द्वारा प्रकाशित किए जा चुके हैं। इसके अलावा एक अन्य प्रकाशक स्प्रिंगर द्वारा भी कई नकली शोध पत्र प्रकाशित किए गए हैं। हालांकि, ये लेख या तो वापस ले लिए गए या हटा दिए गए हैं। फिर भी लेबे ने एक वेबसाइट शुरू की है जिसमें कोई भी पेपर या शोध पत्र अपलोड कर सकता है और पता लगा सकता है कि यह SCIgen की मदद से तैयार किया गया है या नहीं। स्प्रिंगर ने भी ऐसे पत्रों का पता लगाने के लिए SciDetect नामक सॉफ्टवेयर तैयार किया है।

इन कूट-रचित पर्चों का पता लगाने के लिए पहले तो लेबे ने SCIgen की शब्दावली के विशिष्ट शब्दों का सहारा लिया। फ्रांस के एक अन्य वैज्ञानिक ने SCIgen रचित पर्चों में प्रमुख वैयाकरणिक तत्वों का पता लगाने का काम किया। पिछले महीने ही दोनों ने डायमेंशन डैटाबेस में मौजूद लाखों पर्चों में ऐसे वाक्यांशों की खोज की है। इस अध्ययन में उन्होंने 243 ऐसे लेख पाए जो पूर्ण या आंशिक रूप से SCIgen की मदद से तैयार किए गए थे। ये लेख 2008 से 2020 के दौरान प्रकाशित किए गए हैं और मुख्य रूप से कंप्यूटर साइंस क्षेत्र के जर्नल, सम्मेलनों, प्रीप्रिंट साइट्स में छपे हैं। इनमें से कुछ तो ओपन-एक्सेस जर्नल में प्रकशित हुए हैं। 46 पर्चों को वेबसाइटों से वापस ले लिया या हटा दिया गया है। पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने 20 अन्य पेपर्स को भी हटाया है जो MATHgen (गणित) और SBIR प्रपोज़ल जनरेटर द्वारा रचे गए थे।

गौरतलब है कि SCIgen की मदद से तैयार किए गए अधिकांश नवीनतम पेपर चीन (64 प्रतिशत) और भारत (22 प्रतिशत) के शोधकर्ताओं द्वारा लिखे गए हैं। कुछ लेखकों ने बताया कि उनका नाम उनसे पूछे बगैर शामिल किया गया है। लेकिन कई लेख वास्तविक संदर्भ सूची के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। लगता है कि वैज्ञानिकों की प्रकाशन-प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया है। 

SCIgen रचित दो ऐसे पेपर्स का पता लगा है जिन्हें IEEE ने वापस नहीं लिया है। इसी तरह स्प्रिंगर का भी एक पेपर वापस नहीं लिया गया है जिसमें कुछ भाग MATHgen द्वारा रचित है। इस पड़ताल से कुछ प्रकाशक बहुत चिंतित हैं क्योंकि इससे यह भी पता चलता है कि इन सभी पेपर्स की विशेषज्ञ समीक्षा के दौरान ये पेपर्स पकड़े नहीं जा सके थे। यानी इस प्रक्रिया के साथ भी समझौता हुआ था।

SCIgen की मदद रचित सबसे अधिक सामग्री को प्रकाशित करने वालों में स्विस ट्रांस टेक पब्लिकेशन्स (57), भारत स्थित ब्लू आईज़ इंटेलिजेंस इंजीनियरिंग एंड साइंस पब्लिकेशन (BEIESP, 54) और फ्रांस स्थित अटलांटिस प्रेस (39) है। ट्रांस टेक और अटलांटिस ने लेखों को वापस लेते हुए इस पर जांच करने की बात कही है जबकि BEIESP का कहना है कि वह मूल सामग्री पर आधारित पेपर गहन समकक्ष समीक्षा और सभी तरह की जांच के बाद ही प्रकाशित करता है।

एक अध्ययन में पता चला है कि समकक्ष समीक्षा के पहले पेपर साझा करने वाले एक सर्वर (SSRN), पर भी SCIgen रचित 16 लेख प्रकाशित हुए हैं जिनकी जांच जारी है। ऐसे में वैज्ञानिकों को अपारदर्शी तरीकों से शोध पत्रों को प्रकाशित करने को लेकर काफी चिंता है। उदाहरण के लिए IEEE ने तो अपनी वेबसाइट से ऐसे शोध पत्रों को तो हटा लिया है और अन्य प्रकाशकों को औपचारिक तौर पर ऐसे पत्र हटाने के संदेश भी दिए हैं। SSRN सर्वर से कुछ पेपर्स तो बिना किसी रिकॉर्ड के हटा दिए गए हैं।

वैसे तो SCIgen की मदद से तैयार किए गए पेपर्स की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन इस तरह के पेपर्स का प्रकाशित होना वैज्ञानिक प्रकाशन की परंपरा के लिए काफी खतरनाक है। (स्रोत फीचर्स)

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एंटीबॉडी युक्त नेज़ल स्प्रे बचाएगा कोविड से

हामारी की शुरुआत से वैज्ञानिक कोविड-19 के उपचार के लिए एंटीबॉडी विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। फिलहाल कई एंटीबॉडी क्लीनिकल परीक्षण के अंतिम दौर में हैं और कइयों को अमेरिका और अन्य देशों की नियामक एजेंसियों द्वारा आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है।

अलबत्ता, डॉक्टरों के बीच एंटीबॉडी उपचार अधिक लोकप्रिय नहीं है। गौरतलब है कि फिलहाल एंटीबॉडी इंट्रावीनस मार्ग (रक्त शिराओं) से दी जाती हैं न कि सीधे सांस मार्ग जबकि वायरस मुख्य रूप से वहीं पाया जाता है। इस वजह से काफी अधिक मात्रा में एंटीबॉडी का उपयोग करना होता है। एक अन्य चुनौती यह है कि सार्स-कोव-2 वायरस के कुछ संस्करण ऐसे भी हैं जो एंटीबॉडीज़ को चकमा देने में सक्षम हैं।

इस समस्या के समाधान के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के हेल्थ साइंस सेंटर के एंटीबॉडी इंजीनियर ज़ीचियांग एन और उनकी टीम ने ऐसी एंटीबॉडी विकसित कीं जिन्हें सीधे श्वसन मार्ग में पहुंचाया जा सके जहां उनकी ज़रूरत है। इसके लिए टीम ने स्वस्थ हो चुके लोगों की हज़ारों एंटीबॉडीज़ की जांच की और अंतत: ऐसी एंटीबॉडीज़ पर ध्यान केंद्रित किया जो सार्स-कोव-2 के उस घटक की पहचान कर पाएं जो वायरस को कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। इनमें से सबसे प्रभावी IgG एंटीबॉडीज़ पाई गर्इं जो संक्रमण के बाद अपेक्षाकृत देर से प्रकट होती हैं लेकिन विशिष्ट रूप से किसी रोगजनक के खिलाफ कारगर होती हैं।

इसके बाद टीम ने सार्स-कोव-2 को लक्षित करने वाले IgG अंशों को IgM नामक एक अन्य अणु से जोड़ा। IgM संक्रमण के प्रति काफी शुरुआती दौर में प्रतिक्रिया देता है। इस तरह से तैयार किए गए IgM ने सार्स-कोव-2 के 20 संस्करणों के विरुद्ध मात्र IgG की तुलना में अधिक शक्तिशाली प्रभाव दर्शाया। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब विकसित किए गए IgM को चूहों के श्वसन मार्ग में संक्रमण के 6 घंटे पहले या 6 घंटे बाद डाला गया तो दो दिनों के भीतर चूहों में वायरस का संक्रमण कम हो गया।

लेकिन फिलहाल ये प्रयोग चूहों पर किए गए हैं और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या ये एंटीबॉडी मनुष्यों में उसी तरह से काम करेंगी।

एन का मत है कि यह एंटीबॉडी एक तरह का रासायनिक मास्क है जिसका उपयोग सार्स-कोव-2 के संपर्क में आए व्यक्ति कर सकते हैं। यह उन लोगों के लिए रक्षा का एक और कवच हो सकता है जो टीका लगने के बाद पूरी तरह सुरक्षित नहीं हुए हैं।

IgM अणु अपेक्षाकृत टिकाऊ होते हैं, इसलिए इनको नेज़ल स्प्रे के रूप में आपातकालीन उपयोग के लिए रखा जा सकता है। फिलहाल कैलिफोर्निया आधारित IgM बायोसाइंस नामक एक बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी द्वारा एन के साथ मिलकर इस एंटीबॉडी के क्लीनिकल परीक्षण की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या कुछ पौधे रात में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं? – डॉ. किशोर पंवार

जकल अखबारों में, नेट पर, सोशल मीडिया पर ऐसे पौधों की सूचियों की भरमार है जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि वे रात में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया (https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/home-garden/5-plants-that-release-oxygen-at-night/photostory/59969056.cms) में छपी यह खबर ‘फाइव प्लांट्स रिलीज़ ऑक्सीजन एट नाइट’। ये पांच पौधे हैं एलो वेरा, स्नेक प्लांट, ऑर्किड, नीम और पीपल। इनमें पहले तीन पौधे तो ‘कैम’ प्रकार के हैं परंतु बाकी दो सामान्य प्रकार के हैं। अर्थात अन्य सभी पौधों जैसा प्रकाश संश्लेषण करने वाले हैं। कैम के बारे में आगे बात करते हैं। एक और साइट है फर्न एंड पेटल्स जिसमें आलेख है ‘9 प्लांट रिलीज़ ऑक्सीजन एट नाइट’। नाम हैं एलो वेरा, पीपल, स्नेक प्लांट, अरेका पाम, नीम, ऑर्किड, जरबेरा, क्रिसमस कैक्टस, तुलसी, मनी प्लांट।

इन सब में कहीं ना कहीं नासा का ज़िक्र है। परंतु नासा की मूल रिपोर्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ये पौधे रात में ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इस रिपोर्ट में यह ज़रूर कहा गया है कि ये तरह-तरह के वाष्पशील पदार्थों को सोखकर घर के अंदर की हवा को साफ करते हैं। ये हवा से रात में भी कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर कैम पौधे हैं।

हद तो तब हो गई जब प्राणी विज्ञान के मेरे एक परिचित प्राध्यापक ने रोज़ मेरे मोबाइल पर चौबीसों घंटे ऑक्सीजन छोड़ने वाले पौधों की लिस्ट भेजना शुरू कर दिया। मैंने उन्हें बताया कि ऐसा नहीं हो सकता परंतु वे मानते ही नहीं, पौधों की सूची रोज़ डाल देते हैं।

1989 में प्रकाशित नासा की उक्त रिपोर्ट में 15 पौधों की सूची है। इनमें इंग्लिश आईवी, स्पाइडर प्लांट, पीस लिली, चाइनीस एवरग्रीन, बैम्बू पाम, हार्टलीफ फिलोडेंड्रॉन, एलीफैंट फिलोडेंड्रॉन, गोल्डन पोथास, ड्रेसीना की विभिन्न किस्में, फाइकस बेंजामिना आदि के नाम हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये हवा को साफ करते हैं, हमारे आसपास की हवा से प्रदूषक पदार्थों को हटाते हैं। ये मुख्य रूप से बेंज़ीन, फॉर्मेल्डिहाइड, ट्राइक्लोरोएथेन, ज़ायलीन, अमोनिया जैसे वाष्पशील पदार्थों को सोखते हैं। साथ ही कार्बन डाईऑक्साइड भी सोखते हैं। इनमें से कुछ पौधे कैम प्रकार के भी हैं। रात में स्टोमैटा खुले होने के कारण ये इन प्रदूषकों को सोखते रहते हैं। रिपोर्ट में रात में ऑक्सीजन छोड़ने का ज़िक्र कहीं नहीं है।

तो भ्रम का कारण क्या है?

मुझे लगता है कि यह भ्रम आधी-अधूरी जानकारी से उत्पन्न हुआ है। हमने यह तो पढ़ लिया कि कैम पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण करते हैं पर यह ध्यान नहीं दिया कि इस क्रिया का कौन-सा चरण रात में और कौन-सा चरण दिन में चलता है। इस क्रिया के कितने चरण हैं? और कौन, कब और कैसे कार्य करता है?

पौधों में भोजन निर्माण अर्थात प्रकाश संश्लेषण एक बहुत ही जटिल जैव रासायनिक क्रिया है। इसमें चार चीज़ों की ज़रूरत होती है। पहला, प्रकाश; सामान्यत: इसका स्रोत सूर्य का प्रकाश ही है। वैसे कृत्रिम प्रकाश यानी फिलामेंट बल्ब, सीएफएल या एलईडी की तेज़ रोशनी में भी यह क्रिया हो सकती है। दूसरा, पानी (जो जड़ों से सोखा जाता है); तीसरा, कार्बन डाईऑक्साइड (गैस जो हवा से मिलती है)। और चौथा है क्लोरोफिल यानी पत्तियों में उपस्थित हरा पदार्थ। पौधों में भोजन निर्माण की क्रिया को एकदम सरल रूप में हम यू लिख सकते हैं

यह जटिल जैव रासायनिक क्रिया पौधों में 2 चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण के लिए प्रकाश ज़रूरी होता है। अत: इसे प्रकाश-निर्भर क्रिया कहते हैं। इसमें पानी भाग लेता है, कुछ इस तरह  – क्लोरोफिल की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा पानी के अणु को तोड़ती है जिसके फलस्वरूप ऑक्सीजन बनती है और साथ में एटीपी और एनएडीपीएच जैसे अणुओं के रूप में रासायनिक ऊर्जा संचित कर ली जाती है। इसके लिए प्रकाश ज़रूरी है।

अर्थात भोजन निर्माण (प्रकाश संश्लेषण) के प्रथम चरण में हरे पौधे प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं। इसे प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया कहते हैं और ऑक्सीजन इसी के दौरान निकलती है। यह ऑक्सीजन स्टोमैटा के रास्ते हवा में विसरित हो जाती है। अन्य सभी जीवों के लिए ऑक्सीजन का यही स्रोत है।

प्रकाश संश्लेषण के दूसरे चरण को डार्क रिएक्शन (प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया) कहते हैं। इसके लिए प्रकाश ज़रूरी नहीं होता परंतु यह प्रकाश की उपस्थिति में भी चलती रह सकती है और चलती है। अर्थात सामान्य पौधों में प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया दिन में साथ-साथ लगातार चलती रहती हैं। प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के दौरान उस रासायनिक ऊर्जा का उपयोग होता है जो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के दौरान रासायनिक रूप संचित हुई थी। प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया को हम कुछ इस प्रकार लिख सकते हैं

कार्बन डाईऑक्साइड + एटीपी + एनडीपीएच = कार्बोहाइड्रेट + पानी  + एडीपी + एनएडीपी

अधिकांश पौधों में यही चरण होते हैं। इन सामान्य पौधों के अलावा कुछ ऐसे भी पौधे हैं जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में उगते हैं। यहां पानी की कमी होती है और गर्मी अधिक होती है। लिहाज़ा, पानी बचाने के लिए इन पौधों के स्टोमैटा दिन में बंद रहते हैं और रात में खुलते हैं। इन्हें क्रेसुलेसियन एसिड मेटाबोलिज़्म (कैम) पौधे कहा जाता है। इस प्रक्रिया को सबसे पहले क्रेसुलेसी कुल के पौधों में खोजा गया था।

स्टोमैटा बंद होने के कारण कैम पौधों में दिन के समय गैसों का आदान-प्रदान बहुत कम होता है। रात में स्टोमैटा खुले रहते हैं और हवा की आवाजाही रहती है। अत: रात के समय ये पौधे कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण करते हैं। इस कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में परिवर्तित करके पत्तियों की कोशिकाओं में जमा कर लिया जाता है।

दिन में जब इन कोशिकाओं पर सूर्य की रोशनी गिरती है तब स्टोमैटा तो बंद रहते हैं परंतु रात में बने कार्बनिक अम्लों के टूटने से  कार्बन डाईऑक्साइड बनने लगती है जो प्रकाश संश्लेषण की सामान्य क्रिया में भाग लेती है। यह पहले चरण (प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया) में बनी ऑक्सीजन एवं रासायनिक ऊर्जा अर्थात एटीपी और एनएडीपीएच द्वारा प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के रास्ते कार्बोहायड्रेट में बदल जाती है।

कैम-प्रेमियों के लिए
वैसे तो यह स्पष्ट ही है कि पौधा चाहे सामान्य प्रकाश संश्लेषण करने वाला हो या कैम चक्र की मदद लेता हो, ऑक्सीजन का उत्पादन तो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के चरण में ही होता है और ज़ाहिर है यह अभिक्रिया दिन में होती है। लेकिन फिर भी यदि किसी कैम प्रेमी को पीपल के नीचे रात बिताकर ऑक्सीजन प्राप्त करने की धुन सवार है, तो एक सूचना काफी लाभदायक हो सकती है। पता यह चला है कि पीपल का पेड़ या पौधा उसी स्थिति में कैम चक्र का उपयोग करता है जव वह किसी अन्य पेड़ के ऊपर उगा हो। मिट्टी में लगा पीपल का पेड़ सामान्य प्रकाश संश्लेषण ही करता है। ज़ाहिर है किसी अन्य पेड़ के ऊपर पीपल के नन्हे पौधे ही उगते हैं, पेड़ तो ज़मीन पर ही होते हैं। तो कैम-सुख के लिए (यदि रात में ऑक्सीजन देने में मददगार हो तो भी) आपको किसी पेड़ के ऊपर उगे पीपल के पेड़ ढूंढने होंगे।

कैम पौधे इस मायने में विशिष्ट हैं उनमें रात में कैम चक्र चलता है। लेकिन दिन में उसी कोशिका में प्रकाश-निर्भर क्रिया और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया (केल्विन चक्र) दोनों चलते रहते हैं। अत: स्पष्ट है कि रात में ये ऑक्सीजन नहीं छोड़ते क्योंकि रात में उनमें प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया नहीं होती। रात में तो केवल कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण ही होता है। यानी सामान्य पौधों एवं कैम पौधों में अंतर सिर्फ इतना है कि कैम पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में जमा करके रखा जाता है और बाद में मुक्त कर दिया जाता है। शेष प्रक्रिया तो वही है।   

सवाल यह है कि क्या कुछ पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण का प्रथम चरण यानी प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। इसका जवाब है कि यह संभव नहीं है क्योंकि प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया में पानी को तोड़कर उससे ऑक्सीजन मुक्त करने की क्रिया के लिए प्रकाश की जितनी मात्रा चाहिए रात में नहीं मिलती। यहां तक कि चांदनी रात में भी नहीं, क्योंकि पूर्णिमा की रात को भी चंद्रमा से दिन के सूर्य के प्रकाश की तुलना में 32 हज़ार गुना कम प्रकाश मिलता है। अत: यह कहना गलत है कि कैम पौधे (जैसे एलो वेरा, स्नेक प्लांट आदि) रात में प्रकाश संश्लेषण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। हां, ये आसपास की हवा को साफ ज़रूर करते हैं। अत: कैम पौधे एयर प्यूरीफायर हो सकते हैं परंतु रात में ऑक्सीजन प्रदाता कदापि नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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संरक्षित ऊतकों से 1918 की महामारी के साक्ष्य

र्ष 1918 में उस समय के नए इन्फ्लुएंज़ा स्ट्रेन से मारे गए दो जर्मन सैनिकों के फेफड़ों से बीसवीं सदी की सबसे विनाशकारी महामारी की आणविक झलक देखने को मिली है। इन दोनों सैनिकों के फेफड़े लगभग सौ वर्षों से बर्लिन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में फॉर्मेलिन में संरक्षित रखे हुए हैं। हाल ही में शोधकर्ताओं ने इन फेफड़ों में से वायरस के जीनोम के बड़े हिस्से को सफलतापूर्वक अनुक्रमित किया है। इन आंशिक जीनोम्स में इस बात के सुराग मिले हैं कि शायद इस फ्लू महामारी की दो लहरों के बीच यह वायरस मनुष्यों के साथ अनुकूलित हुआ होगा। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने 1918 में कभी जान गंवाने वाली म्यूनिश की एक महिला से प्राप्त रोगजनक के पूरे जीनोम को भी अनुक्रमित किया है। यह रोगजनक वायरस का तीसरा ऐसा जीनोम है और उत्तरी अमेरिका के बाहर का पहला। संग्रहालय में संरक्षित सामग्री से आरएनए वायरस को पुनर्जीवित करने के ऐसे काम की पूर्व में सिर्फ कल्पना की जा सकती थी।        

गौरतलब है कि वर्तमान में जीनोम अनुक्रमण एक नियमित कार्य हो गया है। कोरोनावायरस महामारी के दौरान शोधकर्ताओं द्वारा सार्स-कोव-2 के 10 लाख से अधिक जीनोम का डैटाबेस एकत्रित किया गया है जिससे नए संस्करणों निगरानी की जा सकी है। लेकिन 1918-19 में महामारी के लिए ज़िम्मेदार एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा वायरस के बहुत कम अनुक्रमण उपलब्ध हैं।

इससे पहले 2000 के दशक में अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने अलास्का की बर्फ में दफन एक महिला के शरीर से प्राप्त नमूनों से एक पूरा जीनोम तैयार किया था। इसी तरह 2013 में आर्म्ड

फोर्सेस इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी में संरक्षित नमूनों से अमेरिका के घातक फ्लू का दूसरा जीनोम पुनर्निर्मित किया गया। दोनों ही प्रयास काफी श्रमसाध्य और महंगे थे।

इसी तरह के एक प्रयास में रॉबर्ट कोच इंस्टीट्यूट के जीव वैज्ञानिक सेबेस्टियन कैल्विनैक और उनके सहयोगियों ने 1900 से 1931 के बीच बर्लिन के चिकित्सा संग्रहालय में संरक्षित फेफड़ों के ऊतकों के 13 नमूनों की जांच की। उनमें से तीन नमूनों में फ्लू वायरस के आरएनए मिले जो डेटिंग करने पर 1918 के समय के पाए गए। गौरतलब है कि सार्स-कोव-2 की तरह इन्फ्लुएंज़ा वायरस का जीनोम भी आरएनए आधारित था। आरएनए कई टुकड़ों में था लेकिन यह वायरस के पूरे जीनोम को तैयार करने के लिए काफी था। यह एक 17 वर्ष की महिला का था और दोनों सैनिकों में पाए गए जीनोम को 90 प्रतिशत और 60 प्रतिशत तक तैयार किया जा सका।

दो सैनिकों से प्राप्त आंशिक जीनोम महामारी की पहली और हल्की लहर के समय के हैं जिसके बाद 1918 के अंत में इसने काफी गंभीर रूप ले लिया था। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह वायरस पक्षियों से उत्पन्न हुआ था और पहली और दूसरी लहर के बीच मनुष्यों में बेहतर ढंग से अनुकूलित हो गया। इसका एक कारण वायरस की सतह पर उपस्थित एक महत्वपूर्ण प्रोटीन हीमग्लूटिनिन के लिए ज़िम्मेदार जीन हो सकता है। इसमें अमीनो अम्ल की अदला-बदली वाला उत्परिवर्तन हुआ जिसमें पक्षियों के फ्लू वायरस में पाए जाने वाले एक अमीनो अम्ल ग्लायसिन की जगह एस्पार्टिक अम्ल ने ले ली। यह एस्पार्टिक अम्ल मनुष्यों के वायरस की विशेषता होती है। हालांकि, दोनों जर्मन अनुक्रमों में एस्पार्टिक अम्ल ऐसी स्थिति में था जिससे यह बात संभव नहीं लगती।

फिर भी शोधकर्ताओं को वायरस के न्यूक्लियोप्रोटीन के जीन में विकास के संकेत मिले हैं। वास्तव में न्यूक्लियोप्रोटीन एक ऐसा प्रोटीन है जो यह निर्धारित करने में मदद करता है कि वायरस किस प्रजाति को संक्रमित कर सकता है। 1918 की महामारी के अंत में पाए गए दोनों फ्लू स्ट्रेन के जीन में दो ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए जो इन्फ्लुएंज़ा को मानव शरीर की प्राकृतिक एंटीवायरल सुरक्षा से बचने में मदद करते हैं। जर्मन सैनिकों से प्राप्त अनुक्रम पक्षियों से मेल खाते हैं। कैल्विनैक के अनुसार महामारी के शुरुआती महीनों में मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से खुद को बेहतर तरीके से बचाने के लिए वायरस विकसित हुआ। इसी तरह महिला के फ्लू स्ट्रेन में भी पक्षियों के समान न्यूक्लियोप्रोटीन पाए गए जबकि उसकी मृत्यु की अनिश्चित तारीख को देखते हुए स्ट्रेन के विकास के बारे में कोई अधिक निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते।

महिला के पूर्ण जीनोम से अन्य सुराग मिले हैं। शोधकर्ताओं ने इन जीन्स का उपयोग करते हुए वायरस के पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स को पुनर्जीवित किया है। कोशिका कल्चर प्रयोगों में उन्होंने पाया कि म्यूनिश स्ट्रेन का पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स अलास्का स्ट्रेन में पाए गए पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स से लगभग आधा सक्रिय है।

इस अध्ययन में पूरा वायरस नहीं बनाया गया था इसलिए इसमें कोई भी सुरक्षा सम्बंधी चिंताएं नहीं हैं। फिर भी ये अध्ययन पैथोलॉजी के इन खज़ानों की महत्ता को दर्शाते हैं जो आने वाले समय में 1918 की महामारी के बारे में अधिक जानकारी दे सकते हैं। इसकी मदद से भविष्य की महामारियों को नियंत्रित करने में भी मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निएंडरथल की विरासत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

स्सी पार के मेरे जैसे लोग तो कलाई पर घड़ी सिर्फ समय देखने के लिए बांधते हैं, लेकिन आज के ‘फैशनपरस्त’ युवा आम तौर पर करीने से फटी हुई जींस और कई सुविधाओं से लैस घड़ी पहनते हैं, जो न केवल समय बताती है बल्कि उनके लिए सही ट्वीट्स, फिल्में और आज का संगीत भी सुनाती हैं। उनकी तुलना में मेरे जैसे लोग म्यूज़ियम में रखे जाने लायक नमूने हैं। लेकिन जब मैं उनमें से कुछ अधिक ‘ज्ञानियों’ से यह पूछता हूं कि यह तकनीकी प्रगति कितने पहले शुरू हुई थी, तो वे गर्व से बताते हैं कि दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार और उसका लौह स्तंभ, दोनों ही लौह युग के हैं।

आधुनिक मनुष्य

‘आधुनिक’ मनुष्य अपने अन्य होमिनिन पूर्वजों के साथ लौह युग के बहुत पहले, लगभग तीन लाख साल पहले, से पृथ्वी पर रह रहे हैं। लेकिन ये ‘अन्य’ लोग कौन थे? इनमें से एक ‘अन्य’ मानव पूर्वज है ‘निएंडरथल’, जिनकी हड्डियां सबसे पहले जर्मनी के डसेलडोर्फ के पूर्व में स्थित निएंडर घाटी में मिली थीं। इसलिए इन्हें ‘निएंडरथल’ कहा गया। ये होमिनिन लगभग 4,30,000 साल पहले पृथ्वी पर अस्तित्व में आए थे, लेकिन होमो सेपियन्स के विपरीत इनका विकास (या फैलाव) अफ्रीका में नहीं हुआ। प्रारंभिक मनुष्यों से पहली बार इनका सामना तब हुआ जब मनुष्य अफ्रीका से बाहर निकले।

तब होमो सेपियन्स और इनके बीच प्रतिस्पर्धा हुई या उनके बीच सहयोग का सम्बंध बना? एशिया और युरोप के जिन स्थानों पर इन दो प्रजातियों का आमना-समाना हुआ वहां के लोगों की आनुवंशिकी का अध्ययन कर इन सवालों के जवाब पता लगे हैं। इस तरह के विश्लेषण करने की तकनीकें अब तेज़ी से उन्नत होती जा रही हैं – इसके लिए अब ज़रूरत होती है सिर्फ हड्डी के एक टुकड़े की, और दांत मिल जाए तो और भी अच्छा। विश्लेषण में, हड्डी या दांत में छेद करके कुछ मिलीग्राम पाउडर निकाला जाता है और उस जंतु का डीएनए प्राप्त किया जाता है। फिर उसे अनुक्रमित किया जाता है। कभी-कभी तो इन टुकड़ों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि प्राचीन मनुष्यों के आवास स्थलों – जैसे गुफाओं – की तलछट में ही विश्लेषण योग्य डीएनए मिल जाते हैं! आनुवंशिकी की सभी तकनीकी और बौद्धिक प्रगति के पीछे स्वीडिश आनुवंशिकीविद स्वांते पाबो और जैव रसायनज्ञ जोहानेस क्राउस का उल्लेखनीय योगदान है।

‘आधुनिक’ मनुष्य इन क्षेत्रों के स्थानीय लोगों के साथ अंतर-जनन करते थे। साइंस पत्रिका के 9 अप्रैल के अंक में प्रकाशित लेख, निएंडरथल से आधुनिक मनुष्य कब संपर्क में आए, में डॉ. एन गिब्स बताती हैं कि हाल ही में इस अंतर-जनन से जन्मी संकर संतान की जांघ की हड्डी प्राप्त हुई है। प्राप्त नमूनों के हालिया आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि बुल्गारिया की बाचो किरो गुफा में निएंडरथल पहले आए थे (50,000 साल से भी पहले) और वहां वे अपने पत्थरों के औजार छोड़ गए थे। इसके बाद आधुनिक मानव दो अलग-अलग समयों पर, लगभग 45,000 पहले और 36,000 साल पहले, वहां आकर रहे, और गुफा में मनके और पत्थर छोड़ गए। 45,000 साल पूर्व इस गुफा में रहने वाले तीन मानव नरों के जीनोम डैटा से पता चलता है कि तीनों की कुछ ही पीढ़ियों पूर्व निएंडरथल इनकी वंशावली में शामिल थे। इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि इस क्षेत्र में आधुनिक मनुष्य ने वहां के स्थानीय लोगों के साथ अंतर-जनन किया था, और निएंडरथल और आधुनिक मनुष्य का एक संकर समूह बना था। इस संकर समूह में निएंडरथल की विरासत 3.4 प्रतिशत से 3.8 प्रतिशत के बीच थी, (आधुनिक गैर-अफ्रीकियों में यह विरासत लगभग 2 प्रतिशत है)। यह विरासत गुणसूत्र खंड के लंबे-लंबे टुकड़ों के रूप में है, जो प्रत्येक अगली पीढ़ी में छोटे होते जाते हैं। इन टुकड़ों की लंबाई को मापकर यह अनुमान लगाया गया कि निएंडरथल 6-7 पीढ़ी पहले उक्त तीनों के पूर्वज रहे होंगे।

एक अन्य अध्ययन में चेक गणराज्य में ज़्लेटी कुन पहाड़ी से लगभग साबुत मिली एक स्त्री की खोपड़ी, जो लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी बाचो किरो से मिले तीन व्यक्तियों के अवशेष, के विश्लेषण में पता चलता है कि लगभग 70 पीढ़ियों (2000 साल) पूर्व निएंडरथल उसके पूर्वज थे।

इन चारों की आनुवंशिक वंशावली का अध्ययन थोड़ा अचंभित करता है कि वर्तमान युरोपीय लोगों में उनके कोई चिंह नहीं मिलते। हालांकि वे वर्तमान के पूर्वी-एशियाई लोगों और मूल अमरीकियों के सम्बंधी हैं। इन युरेशियन गुफा वासियों के वंशज पूर्व की ओर पलायन कर गए, हिम-युगीन बेरिंग जलडमरूमध्य को पार करने की कठिनाई झेली और अमेरिका की वीज़ा-मुक्त यात्रा का आनंद लिया।

इसके बाद आगे के अध्ययनों में निएंडरथल के जीनोम की आधुनिक मनुष्य के साथ तुलना की गई, जिसमें दोनों के डीएनए अनुक्रमों में आनुवंशिक परिवर्तन दिखे। आधुनिक मनुष्य में निएंडरथल से विरासत में मिले गुणसूत्र के खंड घटकर दो प्रतिशत रह गए, लेकिन विरासत में मिले इन नए जींस ने मनुष्यों को क्या लाभ पहुंचाए? इस विरासत की वजह से मनुष्य 4 लाख साल पूर्व ठंडे क्षेत्रों में रहने के लिए अनुकूलित हुआ। निएंडरथल ने हमें अफ्रीकी मनुष्यों से हटकर ठंड के अनुकूल त्वचा और बालों के रंग में भिन्नताएं दीं। इसके साथ ही, अनुकूली चयापचय और प्रतिरक्षा भी दी जिसने नए खाद्य स्रोतों और रोगजनकों के साथ बेहतर तालमेल बैठाने में मदद दी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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