सेल पत्रिका में प्रकाशित
एक शोध पत्र में एक पौधे और कीट के बीच जीन हस्तांतरण का मामला रिपोर्ट हुआ है। मामला
यह है कि एक सफेद मक्खी (व्हाइटफ्लाई, बेमिसिया टेबेकी) जिन पौधों से पोषण
लेती है, उनमें से एक पौधे से एक जीन
सफेद मक्खी में स्थानांतरित हुआ है। यह जीन (BtPMaT1)
कीट को फिनॉलिक ग्लायकोसाइड समूह के रसायनों से
सुरक्षा प्रदान करता है। कई पौधे कीटों के हमले से स्वयं की रक्षा के लिए ये रसायन
बनाते हैं। यह जीन मिल जाने के बाद यह मक्खी इस पौधे को बगैर किसी नुकसान के खा सकती
है।
अलग-अलग प्रजातियों के बीच
आपस में लैंगिक प्रजनन के बिना जीन्स का लेन-देन क्षैतिज जीन स्थानांतरण कहलाता है।
क्षैतिज जीन स्थानांतरण पूर्व में एक-कोशिकीय जीवों, तथा कवक व गुबरैलों जैसे कुछ बहुकोशिकीय जीवों में भी देखा गया
था। यह कई तरीकों से हो सकता है। एक तो आनुवंशिक सामग्री किसी वायरस के माध्यम से एक
से दूसरे जीव में स्थानांतरित हो सकती है, वहीं कुछ जीव पर्यावरण में मुक्त पड़े डीएनए भी ग्रहण कर सकते हैं।
सफेद मक्खियां पौधों में बीमारियां
फैलाती हैं और फसलों को तबाह भी कर डालती हैं। इसलिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज़
के यूजुन झैंग और उनके साथी यह समझना चाह रहे थे कि पौधों द्वारा अपने बचाव में रुाावित
रसायनों से सफेद मक्खियां कैसे बच निकलती हैं।
यह जानने के लिए शोधकर्ता
सफेद मक्खी के जीनोम में उस जीन की तलाश कर रहे थे जो उसे पौधों द्वारा छोड़े गए कीटनाशक
के खिलाफ लड़ने में मदद करता है। सफेद मक्खियों के जीनोम की तुलना उन्होंने उन अन्य
कीटों के जीनोम से की जो इन पौधों के विषाक्त रसायनों को झेल नहीं पाते थे और मर जाते
थे। उन्हें BtPMaT1 नामक जीन मिला जो इसी कीट में है और एक ऐसा प्रोटीन बनाता है जो फिनॉलिक ग्लायकोसाइड
को बेअसर कर देता है।
इसके बाद, शोधकर्ताओं ने नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन
डैटाबेस का उपयोग कर इस जीन के विकास के बारे में पता किया। उन्हें किसी भी अन्य कीट
में यह जीन या इसके समान कोई अन्य जीन नहीं मिला। इसका मतलब है कि सफेद मक्खी में यह
जीन कहीं और से आया था।
आखिरकार, उन्हें एक ऐसा जीन मिल गया। लेकिन वह जीन किसी कीट
में न होकर पौधे में था। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि साढ़े तीन करोड़ वर्ष पहले किसी
वायरस ने पौधे में उस जीन का भक्षण कर लिया होगा और किसी सफेद मक्खी ने उस वायरस-संक्रमित
पौधे को खा लिया होगा। वायरस ने वह जीन सफेद मक्खी के जीनोम में स्थानांतरित कर दिया
होगा, जहां से वह सफेद मक्खी की
पूरी आबादी में आ गया होगा। यह दर्शाता है कि अन्य जीवों से स्थानांतरित हुए जीन किसी
जीव को बेहतर तरीके से जीवित रहने में मदद कर सकते हैं।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने सफेद मक्खियों में BtPMaT1 जीन को निष्क्रिय करने की योजना बनाई। इसके लिए उन्होंने विषैले टमाटर के पौधों को जेनेटिक रूप से संशोधित कर ऐसी व्यवस्था की कि वे एक ऐसा आरएनए बनाने लगें जो BtPMaT1 को निष्क्रिय कर देता है। जब सफेद मक्खियों ने टमाटर के इन पौधों को खाया तो जीन के काम न कर पाने के कारण वे मारी गर्इं। उक्त जीन से रहित एक अन्य कीट को जब ये पौधे खिलाए गए तो उनकी मृत्यु दर अपरिवर्तित रही। इससे लगता है कि ऐसे पौधे विकसित किए जा सकते हैं जो सफेद मक्खियों के लिए हानिकारक हों लेकिन अन्य प्रजातियों को नुकसान न पहुंचाएं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00782-w/d41586-021-00782-w_18990036.jpg
आम समझ है कि गरीबी कम होने से ऊर्जा उपयोग में वृद्धि होगी।
लेकिन हाल ही में नेपाल, वियतनाम और ज़ाम्बिया में किए
गए अध्ययन से विपरीत परिणाम सामने आए हैं, जिसमें
गरीबी में कमी का सम्बंध ऊर्जा के कम उपयोग से देखा गया है।
अत्यधिक गरीबी को खत्म करने की वर्तमान रणनीतियां इस सोच पर टिकी हैं कि इसके
लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है। तभी तो परिवारों और सरकार की खर्च करने की क्षमता
बढ़ेगी और हम अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कर पाएंगे। इस तरह गरीबी की
‘पहचान’ आय के आधार पर करने से ‘समाधान’ आर्थिक विकास के रूप में उभरता है।
हालांकि,
बढ़ती असमानताओं और विश्व के अधिकांश भागों में स्वच्छता
संकट के चलते आर्थिक विकास के फायदे शायद न मिल पाएं। ज़ाहिर है कि गरीबी का सम्बंध
सिर्फ आय से नहीं बल्कि विभिन्न अधिकारों और सेवाओं से वंचना से है। यानी लोग
इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि उनके पास प्रतिदिन गरीबी सीमा से अधिक खर्च करने के
लिए पैसे नहीं हैं बल्कि उनके पास स्वच्छता, शिक्षा
या स्वास्थ्य प्रदान करने वाली वस्तुओं या सेवाओं तक पहुंच नहीं है। वास्तव में आय
में वृद्धि के बाद भी इन सेवाओं तक पहुंच बना पाना काफी मुश्किल होता है। वर्तमान
में सवा अरब लोगों को स्वच्छता और साफ पानी मयस्सर नहीं है जबकि तीन अरब लोगों के
पास स्वच्छ र्इंधन भी नहीं है। यह सही है कि गरीबी अभावों का निर्धारण करती है
लेकिन सिर्फ आय एकमात्र कारक नहीं है।
इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट की शोधकर्ता मार्टा बाल्ट्रुज़ेविक्ज़ और उनके सहयोगियों ने बहुआयामी गरीबी के अन्य कारणों को समझने और कम संसाधनों से इसका समाधान करने पर अध्ययन किया। इसमें मुख्य रूप से दो सवालों पर अध्ययन किया: अच्छे जीवन के लिए क्या चाहिए, और इसमें कितनी ऊर्जा खर्च होती है? शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने का भी प्रयास किया है कि इन संसाधनों का किस प्रकार उपयोग किया जाता है, किसके द्वारा किया जाता है, किस उद्देश्य से किया जाता है और इससे गरीबी पर किस प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। इसके साथ ही साफ पानी, भोजन, बुनियादी शिक्षा और आधुनिक ईंधन तक पहुंच से सम्बंधित अभावों का भी अध्ययन किया गया है। अध्ययन में खर्च और जीवन स्तर के आंकड़े राष्ट्रीय पारिवारिक सर्वेक्षणों से और ऊर्जा खपत की जानकारी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा जारी किए गए आकड़ों से ली गई। इनकी मदद से वे यह देख पाए कि कोई परिवार बिजली, ईंधन, यातायात के लिए पेट्रोल तथा सेवाओं और सामान वगैरह के रूप में कितनी ऊर्जा का उपयोग करता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन घरों में स्वच्छ ईंधन, सुरक्षित पानी, बुनियादी शिक्षा और पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है, यानी जो लोग अत्यधिक गरीब की श्रेणी में नहीं आते हैं, वे देश के राष्ट्रीय औसत से सिर्फ आधी ऊर्जा का उपयोग करते हैं। यह निष्कर्ष इस तर्क के एकदम विपरीत है कि अत्यधिक गरीबी से बचने के लिए अधिक संसाधनों और ऊर्जा की ज़रूरत है। ऊर्जा खपत में कमी का सबसे बड़ा कारण खाना बनाने के लिए लकड़ी, कोयला या चारकोल जैसे पारंपरिक ईंधन से हटकर अधिक कुशल और कम प्रदूषण करने वाले र्इंधनों (बिजली या गैस) का उपयोग करना है।
देखा जाए तो ज़ाम्बिया, नेपाल और वियतनाम में आमदनी और सामान्य खर्च और मनोरंजन पर किए जाने वाले खर्चों की अपेक्षा आधुनिक ऊर्जा संसाधनों का वितरण बहुत असमान है। इसके परिणामस्वरूप, अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों को अधिक मलिन ऊर्जा का उपयोग करना पड़ता है जिसके स्वास्थ्य तथा जेंडर सम्बंधी कुप्रभाव होते हैं। अकुशल ईंधन के उपयोग से खाना पकाने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत भी होती है।
ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या उच्च आय और अधिक ऊर्जा उपकरणों के उपयोग करने
वाले परिवारों के पास गरीबी से बचने की बेहतर संभावना होती है? कुछ परिवारों के लिए यह सही हो सकता है लेकिन उच्च आय या फिर मोबाइल फोन होना
न तो बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की शर्त हैं और न ही इसकी गारंटी। बिजली और
स्वच्छता तक पहुंच के अभाव में कई अपेक्षाकृत सम्पन्न परिवार भी बच्चों के कुपोषण
या कोयले के उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से बच नहीं पाते। यह विडंबना है कि
अधिकांश परिवारों के लिए स्वच्छ र्इंधन की तुलना में मोबाइल फोन प्राप्त करना
ज़्यादा आसान है। ऐसे में घरेलू आय के माध्यम से विकास को मापने से गरीबी और उसके
अभावों की अधूरी समझ ही प्राप्त हो सकती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि गरीब देशों में विकास के
लिए अधिक ऊर्जा का उपयोग न किया जाए। उनका कहना है कि कुल ऊर्जा खपत की बजाय गरीबी
से निजात पाने के लिए सामूहिक सेवाओं पर अधिक निवेश किया जाए।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि गरीब देशों के पास इन सेवाओं में
निवेश करने की इतनी कम क्षमता क्यों है। वास्तव में गरीबी होती नहीं, बल्कि निर्मित की जाती है – संरचनात्मक समायोजन या राष्ट्रीय ऋण पर ऊंचे ब्याज
जैसी धन निष्कर्षण की सम्बंधित प्रणालियों के माध्यम से।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से अमीर अल्पसंख्यक वर्ग ज़िम्मेदार है जो अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है, लेकिन दुर्भाग्य से इसके परिणाम गरीब बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को वहन करना पड़ते हैं। इस नज़रिए से देखें तो मानव विकास न सिर्फ आर्थिक न्याय का बल्कि जलवायु न्याय का भी मुद्दा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/blogs/cache/file/782DD3D0-8C72-4406-8B46DFBF36478C99_source.jpg?w=590&h=800&7DA3CB2B-12F0-4620-9D9706361C10C8C0
विश्व आबादी के बुढ़ाने की दर में तेज़ी से बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप
वर्ष 2019 में विश्व की लगभग 9.1 प्रतिशत आबादी (70.3 करोड़ लोग) 65 वर्ष या उससे
अधिक उम्र की थी। और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह संख्या बढ़कर डेढ़ अरब (आबादी का
15.3 प्रतिशत) हो जाएगी। जैसे-जैसे आबादी की औसत उम्र बढ़ रही है, दृष्टि सम्बंधी विकारों का दबाव भी बढ़ रहा है। इन विकारों को टाला जा सकता है
यदि अंधेपन या मध्यम से लेकर गंभीर दृष्टि दोष के कुछ आम कारण – जैसे मोतियाबिंद, निकट या दूर दृष्टि दोष, ग्लूकोमा (कांचबिंदु) और
मधुमेहजनित रेटिनोपैथी – को प्रारंभिक अवस्था में पहचानने और उपचार करने का तंत्र
मौजूद हो। नेत्र रोगों से बचाव और उन्हें बहाल करने के लिए उपचार मुहैया कराना
बहुत ही नेक कार्य होगा। वास्तव में, विश्व के कई देश इस दिशा
में जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं, वे बड़ी मुस्तैदी के साथ दृष्टि
को बहाल करने में जुटे हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि यह कितना बड़ा कार्य है।
फरवरी 2021 में लैंसेट में नेत्र रोग के वैश्विक बोझ पर प्रकाशित एक
बड़े अध्ययन में पिछले 30 सालों के आंकड़े बताते हैं कि भले ही इस दौरान अंधेपन की
समस्या को कम करने के प्रयासों में काफी प्रगति हुई है, लेकिन
अब भी इस दिशा में काफी काम करने की ज़रूरत है। लक्ष्य अभी दूर है, और अलग-अलग देशों की स्थिति में काफी भिन्नता है।
वर्तमान में पूरे विश्व में 50 वर्ष से अधिक उम्र के 1.5 करोड़ से अधिक लोग
मोतियाबिंद से ग्रसित हैं। इसके अलावा लगभग साढ़े आठ करोड़ लोग लेंस सम्बंधी विकारों
से पीड़ित हैं,
जिनका उपचार उचित चश्मा पहनाकर किया जा सकता है। यह आवश्यक
है कि अधिक से अधिक देश अपने क्षेत्र में इन समस्याओं को दूर करने के प्रयास करें
ताकि अनावश्यक ही अंधेपन का शिकार हो रहे लोगों की संख्या में कमी आए और अधिक से
अधिक लोग 20-20 दृष्टि का आनंद ले सकें।
प्रायद्वीपीय भारत (जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र का पूर्वी
हिस्सा,
तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी,
आंध्र प्रदेश और ओडिशा आते हैं) की आबादी लगभग 36 करोड़ है।
इनमें से लगभग 13 लाख लोग नेत्रहीन हैं, और 76 लाख लोग
इलाज-योग्य नेत्र समस्याओं, जैसे मोतियाबिंद और कमज़ोर नज़र, से पीड़ित हैं। यदि हम विभिन्न तरीकों से (या स्तरों पर) उपचार मुहैया करवाकर
अनावश्यक अंधापन कम करने के लिए एक कारगर प्रणाली स्थापित कर पाएं तो यह अंधेपन के
भार को कम करने की दिशा में बड़ी प्रगति होगी।
दरअसल,
प्रायद्वीपीय भारत में तीन उल्लेखनीय केंद्र हैं – मदुरै
स्थित अरविंद आई केयर सिस्टम, चेन्नई (और बैंगलुरु) स्थित
शंकर नेत्रालय और हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान। पहले दो केंद्र
शहर और उसके उपनगरों में नेत्रहीन लोगों का उपचार (देखभाल) करते हैं, और अरविंद आई केयर सिस्टम तमिलनाडु के कई ज़िलों में चलित सुविधाओं के माध्यम से
देखभाल और ज़रूरतमंदों के लिए मुफ्त इलाज मुहैया कराता है। इसी तरह शंकर नेत्रालय
भी चेन्नई व उसके उपनगरों में और बैंगलुरू व उसके उपनगरों में चलित सुविधा के
माध्यम से उपचार और ज़रूरतमंद गरीबों को मुफ्त उपचार देता हैं। एल. वी. प्रसाद
नेत्र संस्थान ने समूचे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा राज्यों
(और महाराष्ट्र के नांदेड़) के लिए ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड प्रणाली
(स्तरित प्रणाली) स्थापित की है। इस पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर 208 से अधिक
ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण ‘दृष्टि केंद्र’ स्थापित किए गए हैं। इनमें से
प्रत्येक केंद्र लगभग 500-500 स्थानीय लोगों की मुफ्त नेत्र देखभाल कर रहे हैं।
जैसे चश्मा उपलब्ध करवाकर, मोतियाबिंद उपचार के लिए
नज़दीकी रोग विशेषज्ञ से उपचार कराने की सलाह देकर वगैरह। समुदायों से संपर्क की
महत्वपूर्ण कड़ी ‘दृष्टि रक्षकों’ की एक बड़ी फौज है। इन्हें अपने क्षेत्रों में
लोगों के साथ जुड़ने और उनके साथ नेत्र स्वास्थ्य और देखभाल पर बात करने के लिए
प्रशिक्षित किया गया है।
पिरामिड के दूसरे स्तर पर, 21 ग्रामीण नेत्र देखभाल
चिकित्सालय खोले गए हैं जो ज़िला स्तर पर लोगों की देखभाल या उपचार करते हैं। तीसरे
स्तर पर तीन केंद्र स्थापित किए गए हैं (हरेक की अपनी शाखाएं हैं)। ये केंद्र इलाज
के नियमित कार्यों के अलावा नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान भी करते हैं।
और पिरामिड के शीर्ष पर हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद नेत्र संस्थान है जो
विभिन्न स्तरों पर किए जा रहे कार्यों पर लगातार (चौबीसों घंटे) निगरानी रखता है, और ज़रूरत पड़ने पर उनमें सुधार करता है।
सबसे अधिक सराहनीय यह है स्थानीय व्यापारी और अन्य सभी स्तरों पर मौजूद
सेवाभावी लोग ग्रामीण नेत्र स्वास्थ्य पिरामिड के कार्यों में मदद के लिए तत्पर
हैं – ग्रामीण स्तर (पिरामिड के सबसे निचले स्तर) पर लगभग 1000 लोग और ज़िला स्तर
के द्वितीयक केंद्रों पर लगभग दर्जन भर लोग कार्य कर रहे हैं। ये स्थानीय स्तर के
गेट्स या टाटा फाउंडेशन हैं, हम उनके इस परोपकार के तहेदिल
से आभारी हैं।
भारत के अन्य नेत्र विज्ञान केंद्रों की क्या स्थिति है? मुंबई स्थित आदित्य ज्योत केंद्र मुंबई, खास कर धारावी (जहां दो वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक लाख लोग रहते हैं) में सेवा देता है। प्रोजेक्ट प्रकाश दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, अहमदाबाद, हरियाणा और अन्य जगहों पर कार्य कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे पिरामिड मॉडल का विश्लेषण कर रहे हैं, उसे बेहतर बना रहे हैं। और स्थानीय भौगोलिक व जनांकिक स्थितियों के आधार पर इसमें बदलाव कर इसे लागू करेंगे। हम उनका स्वागत करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करते हैं। दरअसल, हमें समूचे भारत में अधिकाधिक पिरामिडों की ज़रूरत है ताकि देश में कोई भी अनावश्यक ही अंधा न हो; पूरा भारत 20-20 दृष्टि का आनंद ले! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/qgokvr/article34993346.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/27TH-SCIEYE-CAREjpg
हाल ही में उत्तर-पश्चिमी चीन के गान्सु प्रांत में पाए गए
जीवाश्मों से विशाल गैंडा की एक नई प्रजाति पहचानी गई है। यह प्रजाति लगभग 2.65
करोड़ वर्ष पूर्व ओलिगोसीन युग के दौरान पाई जाती थी। नई प्रजाति (पैरासेराथेरियम
लिनज़िएंज़) विलुप्त हो चुके सींगरहित गैंडा वंश से सम्बंधित है।
विशाल गैंडे को पृथ्वी के अब तक के सबसे बड़े स्तनधारियों में गिना जाता है।
चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के प्रोफेसर टाओ डेंग और उनके सहयोगियों के अनुसार इसकी
खोपड़ी और पैर अब तक ज्ञात सभी स्तनधारियों की तुलना में लंबे हैं लेकिन इसके पैर
की बड़ी हड्डी बहुत विशाल नहीं है।
डेंग आगे बताते हैं कि इस जीव का आकार आर्द्र या शुष्क जलवायु वाले खुले जंगली
क्षेत्रों के लिए उपयुक्त था। पूर्वी युरोप, एनाटोलिया
और कॉकेशस में पाए गए कुछ अवशेषों को छोड़कर, विशाल
गैंडे मुख्य रूप से एशिया में चीन, मंगोलिया, कज़ाकस्तान और पाकिस्तान के क्षेत्रों में रहते थे। गौरतलब है कि मध्य इओसीन
युग से ओलिगोसीन युग के अंत तक विशाल गैंडे के सभी छह वंश चीन के उत्तर-पश्चिम से
दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रों में पाए जाते थे। इनमें पैरासेराथेरियम वंश के
गैंडे सबसे अधिक संख्या में थे। इनकी उपस्थिति के अधिकांश प्रमाण पूर्वी और मध्य
एशिया के क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूर्वी युरोप और पश्चिमी एशिया में इनके
खंडित नमूने प्राप्त हुए हैं। केवल तिब्बती पठार के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में पैरासेराथेरियम
बगटिएन्स प्रजाति के पर्याप्त और स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
गौरतलब है कि पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़ के जीवाश्मों में एक पूर्ण
खोपड़ी,
कुछ रीढ़ की हड्डियां और जबड़े की हड्डी प्राप्त हुए हैं।
विश्लेषण से पता चला है कि पैरासेराथेरियम लिनज़िएंज़ अपने वंश की सबसे
विकसित प्रजाति थी।
कम्युनिकेशन्स बायोलॉजी में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ओलिगोसीन युग की शुरुआत में पैरासेराथेरियम प्रजातियां पश्चिम की ओर कज़ाकस्तान की ओर फैली जबकि इनके वंशजों का विस्तार दक्षिण एशिया में हुआ। इसके बाद ओलिगोसीन युग के आगे के दौर में पैरासेराथेरियम तिब्बती क्षेत्र को पार करते हुए उत्तर की ओर लौटे और पश्चिम में कज़ाकस्तान में पूर्व में लिंज़िया घाटी की ओर उभरे। गौरतलब है कि ओलिगोसीन युग के आखरी दौर की उष्णकटिबंधीय परिस्थितियों ने विशालकाय गैंडे को मध्य एशिया की ओर आकर्षित किया जो इस बात के संकेत देता है कि उस समय तक तिब्बत का क्षेत्र ऊंचे पठार के रूप में विकसित नहीं हुआ था। अनुमान है कि ओलिगोसीन युग के दौरान, विशाल गैंडे शायद तिब्बत को पार करते हुए या टेथिस महासागर के पूर्वी तट के रास्ते मंगोलियाई पठार से दक्षिण एशिया तक फैले थे। इस विशाल गैंडे के तिब्बती क्षेत्र पार करके भारत-पाकिस्तान उपमहाद्वीप तक पहुंचने के अन्य साक्ष्य मौजूद हैं। एक बात तो साफ है कि तिब्बत का पठार उस समय तक इन बड़े स्तनधारी जीवों के विचरण में बाधा नहीं बना था। (स्रोत फीचर्स)
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नाभिकीय संलयन ऊर्जा के क्षेत्र में जानी-मानी कंपनी जनरल
फ्यूज़न ने हाल ही में घोषणा की है कि वह अगले साल अपने संलयन आधारित पायलट बिजली
संयंत्र का निर्माण शुरू करेगी। इस संयंत्र का आकार वाणिज्यिक बिजली संयंत्र का 70
प्रतिशत होगा। यूके सरकार द्वारा वित्तीय समर्थन प्राप्त इस संयंत्र को स्थापित
करने का उद्देश्य ऊर्जा उत्पन्न करना नहीं बल्कि यह दर्शाना है कि कंपनी द्वारा
विकसित संलयन का नया तरीका कितना व्यावहारिक है।
दशकों से कार्बन मुक्त ऊर्जा के विकल्प के तौर पर नाभिकीय संलयन शोधकर्ताओं और
निवेशकों को लुभाता आया है। नाभिकीय संलयन में होता यह है कि दो या दो से अधिक
हल्के नाभिक (प्राय: हाइड्रोजन) आपस में जुड़कर एक भारी नाभिक (हीलियम) बनाते हैं; इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। यही वह प्रक्रिया है जो सूरज को उसकी
ऊर्जा प्रदान करती है। समस्या यह है कि नाभिकों के संलयन के लिए अत्यधिक ताप और
दाब की आवश्यकता होती है। अब तक कोई भी संलयन रिएक्टर खर्च की गई ऊर्जा से अधिक
उर्जा का उत्पादन नहीं कर पाया है।
वैसे लगता है कि फ्रांस की विशाल अंतर्राष्ट्रीय परियोजना ITER यह लक्ष्य पहले हासिल कर
लेगी। इस रिएक्टर में विशाल अतिचालक चुंबकों द्वारा एक पात्र में आयनित गैस (प्लाज़्मा)
बनाए रखी जाती है और इसे माइक्रोवेव या पार्टिकल किरणों द्वारा गर्म किया जाता है।
फिलहाल यह परियोजना कछुआ चाल से आगे बढ़ रही है और ऊर्जा लाभ 2035 के बाद ही मिलने
की उम्मीद है। इसलिए नई परियोजनाओं के लिए मौका है।
जनरल फ्यूज़न कंपनी ने मैग्नेटाइज़्ड टारगेट फ्यूज़न तकनीक का उपयोग किया है।
इसमें एक इंजेक्टर सिगरेट के धुएं के छल्ले जैसा प्लाज़्मा का छल्ला बनाता है, छल्ला अपने घूर्णन से एक चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। यह चुंबकीय क्षेत्र कणों
के बादल को जोड़े रखता है। इस बादल का जीवनकाल चंद मिलीसेकंड ही होता है। इन चंद
मिलीसेकंड की अवधि में इसको संपीड़न द्वारा इतना ताप और दाब दिया जाता है कि संलयन
होने लगे। अब कंपनी इस छल्ले को थोड़ी लंबी अवधि तक बनाए रखने में सफल हुई है।
प्लाज़्मा के छल्ले जिस कक्ष में भेजे जाते हैं वहां तरल लीथियम की परत तेज़ी
गति से घूमती रहती है। यह परत नाभिकीय संलयन में मुक्त हुए उच्च ऊर्जा वाले कणों
को अवशोषित कर लेती है, जिससे रिएक्टर सुरक्षित रहता है। जब प्लाज़्मा
कक्ष के मध्य में पहुंचता है तो सैकड़ों पिस्टन नियमित अंतराल से रिएक्टर की दीवार
पर बाहर से प्रहार करते हैं, यह लीथियम को अंदर की ओर धकेलता
है और प्लाज़्मा को संपीड़ित कर देता है ताकि संलयन क्रिया शुरू हो जाए। व्यावसायिक
रिएक्टर से ऊर्जा लाभ लेने के लिए प्रत्येक कुछ सेकंड के अंतराल पर नए प्लाज़्मा
छल्ले संपीड़ित करने होंगे।
फिलहाल इस प्रायोगिक संयंत्र का लक्ष्य संलयन के लिए ज़रूरी 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान हासिल करना और पूरी प्रक्रिया को किफायती दर्शाना है। बड़े व्यावसायिक रिएक्टर में उपयोग किए जाने वाले ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण के बजाय इसमें अपेक्षाकृत कम क्रियाशील शुद्ध ड्यूटेरियम का उपयोग किया जाएगा। इससे ट्रिशियम की दुर्लभता, अतिरिक्त ऊष्मा और रेडियोधर्मिता जैसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। यदि पायलट संयंत्र काम कर पाता है तो ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण संलयन भी काम करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Fusion%20Island-1280×720.jpg?itok=ZTGNCiFC
इन दिनों कोरोनावायरस सुर्खियों में है। इसने लाखों लोगों को बीमार कर दिया है और कई लाख लोगों की जान ले ली है। लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। वायरसों ने जीव जगत में सहयोग व सहकार की भूमिका भी अदा की है। और सहयोग व सहकार केवल थोड़े समय के लिए नहीं बल्कि हमेशा-हमेशा के लिए। उन्होंने जीवों में घुसपैठ कर उनकी कोशिकाओं में अपने जीन्स छोड़ दिए हैं जिनकी बदौलत उन प्रजातियों के विकास की दिशा बदल गई।
दिलचस्प बात है कि स्तनधारी आज अपने वर्तमान रूप में वायरस की बदौलत ही हैं।
अगर वायरस स्तनधारियों में घुसपैठ न करते तो शायद हम आज भी अंडे दे रहे होते। आज
के स्तनधारी तो हरगिज नहीं होते जो अपने बच्चे को गर्भ में सहेजकर रखते हैं।
गर्भधारण के लिए ज़रूरी बीजांडासन (प्लेसेंटा) वायरस की ही देन है।
हम जानते हैं कि स्तनधारी समूह के एक बड़े वर्ग – चूहे, चमगादड़, व्हेल,
हाथी, छछूंदर, कुत्ते,
बिल्ली, भेड़, मवेशी, घोड़ा,
कपि, बंदर व मनुष्य में प्लेसेंटा
पाया जाता है। प्लेसेंटा एक तश्तरीनुमा संरचना है जो एक ओर गर्भाशय से जुड़ा होता
है और दूसरी ओर भ्रूण से -एक रस्सीनुमा रचना नाभि-रज्जू (अम्बलिकल कॉर्ड) के
माध्यम से।
प्लेसेंटा एक ऐसी व्यवस्था है जो गर्भ में पल रहे बच्चे को वहां एक नियत अवधि
तक टिके रहने में अहम भूमिका अदा करती है। मनुष्य में बच्चा लगभग नौ माह तक मां के
गर्भ में रहता है। इस दौरान उसे ऑक्सीजन व पोषण चाहिए जो प्लेसेंटा के ज़रिए ही मां
से उपलब्ध होता है। गर्भस्थ शिशु के उत्सर्जित पदार्थ भी प्लेसेंटा द्वारा ही हटाए
जाते हैं। प्लेसेंटा बच्चे के विकास को प्रेरित करता है। यह बच्चे को कई तरह के
संक्रमणों से भी बचाता है। यह दिलचस्प है कि गर्भावस्था के दौरान मां को होने वाली
अधिकांश बीमारियों से गर्भ में पल रहा बच्चा सुरक्षित रहता है। प्लेसेंटा कई
मायनों में बच्चे व मां के बीच एक अवरोध का भी काम करता है। और सबसे बड़ी बात तो यह
है कि प्लेसेंटा की बदौलत ही मां का शरीर भ्रूण को पराया मानकर उस पर हमला नहीं करता।
भ्रूण इस मायने में पराया होता है कि उसके आधे जीन तो पिता से आए हैं।
सवाल यह है कि मादा स्तनधारी में अंडे के निषेचन के बाद प्लेसेंटा के निर्माण
के लिए कौन-से जीन्स ज़िम्मेदार हैं? इस सवाल का जवाब वे वायरस देते
हैं जिन्होंने लाखों साल पहले स्तनधारियों के किसी पूर्वज को संक्रमित किया था। उन
वायरसों ने संक्रमित जंतुओं की जान नहीं ली, बल्कि
उनकी कोशिकाओं में जाकर बैठ गए। मज़े की बात यह है कि वायरस मेज़बान की कोशिका के
जीनोम का हिस्सा बन गए व मेज़बान ने उनका फायदा उठाया।
बात 6.5 करोड़ बरस पहले की है। एक छोटा, मुलायम, छछूंदर जैसा निशाचर जीव था। यह आधुनिक स्तनधारी जैसा ही दिखता था। अलबत्ता, उसमें प्लेसेंटा नहीं था। आधुनिक स्तनधारियों का प्लेसेंटा उस छछूंदरनुमा जीव
के साथ एक रेट्रोवायरस की मुठभेड़ का नतीजा है।
वायरस की खासियत होती है कि यह किसी सजीव कोशिका में पहुंचकर उसके केंद्रक में
अपना न्यूक्लिक अम्ल (यानी जेनेटिक पदार्थ) डाल देता है। वायरस का न्यूक्लिक अम्ल
मेज़बान कोशिका के जेनेटिक पदार्थ डीएनए को निष्क्रिय कर देता है और खुद कोशिका पर
नियंत्रण कर लेता है। अब उस जीव की कोशिका पर वायरस की ही सल्तनत होती है। वायरस
उस कोशिका में अपनी प्रतिलिपियां बनाने लगता है।
रेट्रोवायरस एक प्रकार के वायरस हैं जो आनुवंशिक सामग्री के रूप में आरएनए का
इस्तेमाल करते हैं। कोशिका को संक्रमित करने के बाद रेट्रोवायरस अपने आरएनए को
डीएनए में बदलने के लिए रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ नामक एंज़ाइम का इस्तेमाल करते हैं।
रेट्रोवायरस तब अपने वायरल डीएनए को मेज़बान कोशिका के डीएनए में एकीकृत कर देता
है। एड्स वायरस रेट्रोवायरस ही है।
आज के स्तनधारियों के पूर्वज के शुक्राणु या अंडाणुओं में वायरस के जीन्स
पहुंच गए और फिर हर पीढ़ी में पहुंचने में कामयाब हो गए। इस तरह से वायरस पूरी तरह
से मेज़बान के जीनोम का हिस्सा बन गए। जीनोम अध्ययन से पता चलता है कि मानव के
जीनोम में वायरसों के लगभग एक लाख ज्ञात अंश हैं जो हमारे कुल डीएनए के आठ फीसदी
से अधिक है। यानी हम आठ फीसदी वायरस से बने हुए हैं।
जब कोई वायरस अपने जीनोम को मेज़बान के साथ एकीकृत करता है तो नए संकर जीनोम
बनते हैं तथा वह कोशिका मर जाती है। लेकिन कभी-कभी अनहोनी घट सकती है। मसलन अगर
शुक्राणु या अंडाणु वायरस से संक्रमित होकर निषेचित हो जाएं तो अगली पीढ़ियों में
वायरल जीनोम की एक प्रति होगी। इसे वैज्ञानिक अंतर्जात रेट्रोवायरस कहते हैं।
प्रारंभिक स्तनधारियों में वायरस के उन कबाड़ में पड़े हुए जीन्स का इस्तेमाल
प्लेसेंटा बनाने में किया जाने लगा जो आज भी जारी है। सिंसिटिन जीन जो रेट्रोवायरस
के जीनोम का हिस्सा था वह लाखों बरस पहले स्तनधारी के पूर्वजों में घुसपैठ कर चुका
है। यह स्तनधारियों में गर्भधारण के लिए बेहद अहम है।
मूल रूप से सिंसिटिन नामक प्रोटीन वायरस को मेज़बान कोशिका के साथ जुड़ने में
मदद करता है। बेशक, सिंसिटिन प्राचीन वायरस की देन है जो
गर्भावस्था के दौरान प्लेसेंटा की कोशिकाओं में अभिव्यक्त होता है। सिंसिटिन मात्र
वही कोशिकाएं बनाती हैं जो भ्रूण और गर्भाशय की संपर्क सतह पर होती हैं। ये आपस
में जुड़कर एक-कोशिकीय परत बना लेती हैं व भ्रूण अपनी मां से इसके ज़रिए आवश्यक पोषण
प्राप्त करता है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इस जुड़ाव के लिए सिंसिटिन का
बनना अनिवार्य है। सिंसिटिन का जीन मूलत: वायरस का जीन है।
यह दिलचस्प है कि सिंसिटिन प्रोटीन का जीन विकासक्रम में स्तनधारियों के जीनोम
में बना रहा। सिंसिटिन तब प्रकट होता है जब कोई पराई चीज़ आक्रमण करे। स्वाभाविक है
कि अंडाणु को निषेचित करने वाला नर का शुक्राणु मादा के लिए पराया होता है। जब
निषेचित अंडा गर्भाशय में आता है, तब सिंसिटिन प्रोटीन का
निर्माण ब्लास्टोसिस्ट की बाहरी परत की कोशिकाएं करती हैं व भ्रूण को गर्भाशय की
दीवार से चिपकने का रास्ता आसान बनाती है।
स्तनधारियों में सिंसिटिन का निर्माण करने वाले जीन आम तौर पर सुप्तावस्था में
पड़े रहते हैं। जब गर्भधारण की स्थिति बनती है तब ये जागते हैं और सिंसिटिन के
निर्माण का सिलसिला शुरू होता है। सिंसिटिन प्रोटीन प्लेसेंटा व मातृ कोशिका के बीच
सीमाओं को निर्धारित करता है। अंड कोशिका के निषेचन के लगभग एक सप्ताह बाद भ्रूण
एक गोल खोखली गेंदनुमा रचना (ब्लास्टोसिस्ट) में विकसित हो जाता है व गर्भाशय में
रोपित होकर प्लेसेंटा के निर्माण को उकसाता है। यही प्लेसेंटा भ्रूण को ऑक्सीजन और
पोषण उपलब्ध कराता है। ब्लोस्टोसिस्ट की बाहरी परत की कोशिकाएं प्लेसेंटा की बाहरी
परत का निर्माण करती हैं और जो कोशिकाएं गर्भाशय से सीधे संपर्क में होती हैं वे
सिंसिटिन प्रोटीन का निर्माण करती हैं।
कोशिकाओं में काफी कबाड़ डीएनए होता है और एक कबाड़ डीएनए में ज़्यादातर हिस्सा सहजीवी वायरसों का है। एक तरह से डीएनए के ये टुकड़े मानव और वायरस के बीच की सीमा को धुंधला करते हैं। इस नज़रिए से मनुष्य आंशिक रूप वायरस की ही देन हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.mdpi.com/viruses/viruses-12-00005/article_deploy/html/images/viruses-12-00005-g001.png
कोविड-19 संक्रमण से उबरने के बाद कई लोग लंबे समय तक तमाम
लक्षणों से जूझ रहे हैं। इसे दीर्घ कोविड कहा जाने लगा है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन
की तंत्रिका वैज्ञानिक एथेना अक्रामी ने 3,500 से अधिक लोगों पर किए अध्ययन में
दीर्घ कोविड के 205 लक्षण पाए हैं। इनमें थकान, सूखी
खांसी,
सांस में तकलीफ, सिरदर्द और मांसपेशीय
दर्द वगैरह शामिल हैं। थकान, काम के बाद अस्वस्थता और
संज्ञानात्मक विकार जैसे लक्षण छह महीने तक बने रहे। वैसे लक्षणों की तीव्रता
लगातार एक जैसी नहीं रहती, लोग बीच-बीच में थोड़ा बेहतर
महसूस करते हैं।
महामारी की शुरुआत में गंभीर मामलों से निपटने की प्राथमिकता में दीर्घ कोविड
की अनदेखी हुई। लेकिन मई 2020 में, पीड़ितों का एक फेसबुक ग्रुप
बना जिसमें वर्तमान में 40,000 से अधिक लोग जुड़े हैं।
अब दीर्घ कोविड सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में पहचाना जा चुका है।
जनवरी में WHO ने कोविड-19 उपचार के
दिशानिर्देशों में जोड़ा है कि दीर्घ कोविड के मद्देनज़र कोविड-19 के रोगियों की
संक्रमण उपरांत देखभाल तक पहुंच होनी चाहिए।
कई फंडिंग एजेंसियां भी दीर्घ कोविड के विभिन्न अध्ययनों को वित्तीय समर्थन
देने के लिए आगे आई हैं। यूके बायोबैंक ने स्व-परीक्षण किट उपलब्ध कराने की योजना
बनाई है ताकि कोविड-19 से संक्रमितों की पहचान की जा सके और उन्हें अध्ययनों में
शामिल किया जा सके।
दीर्घ कोविड से सम्बंधित चार बड़े सवालों पर नेचर पत्रिका ने प्रकाश
डालने की कोशिश की है।
दीर्घ कोविड कितने लोगों में होता है, कौन अधिक जोखिम में है?
फिलहाल पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कुछ ही लोगों को क्यों होता है
और अधिक जोखिम किसे है। अधिकांश शुरुआती अध्ययन उन लोगों पर ही हुए थे जो गंभीर
कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती हुए थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल
सेंटर की कार्डियोलॉजिस्ट अनी नलबंडियन और उनके साथियों ने नौ अध्ययनों के आधार पर
पाया कि कोविड-19 से उबरने के बाद 32.6 से 87.4 प्रतिशत रोगियों में कम से कम एक
लक्षण कई महीनों तक बना रहता है।
लेकिन वास्तव में कोविड-19 से संक्रमित अधिकांश लोग इतने बीमार नहीं पड़ते कि
उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़े। ऐसे लोग अध्ययनों से छूट जाते हैं। इसलिए यूके
के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (ONS) ने अप्रैल 2020 के बाद से कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए 20,000 से अधिक लोगों पर
नज़र रखी। ONS ने पाया कि उबरने के 12 हफ्ते
बाद भी 13.7 प्रतिशत लोगों ने कम से कम एक लक्षण अनुभव किया। आम तौर पर संक्रमण
मुक्त होने के बाद 4 हफ्ते से अधिक समय तक लक्षण बने रहते हैं तो इसे दीर्घ कोविड
कहा जाता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह स्थिति अधिक दिखती है – 23
प्रतिशत महिलाओं और 19 प्रतिशत पुरुषों में संक्रमण के पांच सप्ताह बाद भी लक्षण
मौजूद थे।
इसके अलावा अधेड़ लोगों में भी इसका जोखिम अधिक है। ONS के अनुसार, 35 से 49 वर्ष की आयु के 25.6
प्रतिशत लोगों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण बरकरार थे। युवाओं व वृद्ध लोगों में
ये कम दिखे। हालांकि अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि बुज़ुर्गों में दीर्घ कोविड कम
दिखने की एक वजह यह हो सकती है कि अधिकतर संक्रमित बुज़ुर्गों की मृत्यु हो जाती
है। 2-11 वर्ष के लगभग 10 प्रतिशत संक्रमित बच्चों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण
दिखे हैं।
अभी तक की समझ के आधार पर, अधिक जोखिम में कौन है इसका
पूर्वानुमान करने में उम्र, लिंग और संक्रमण के पहले
सप्ताह में लक्षणों की गंभीरता महत्वपूर्ण लगते हैं।
लेकिन कई अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। खासकर यह स्पष्ट नहीं है कि दीर्घ कोविड
से महज 10 प्रतिशत लोग ही क्यों प्रभावित होते हैं? लेकिन
यदि मात्र 10 प्रतिशत लोग भी प्रभावित होते हैं, तो भी
यह आंकड़ा लाखों में होगा।
दीर्घ कोविड क्यों होता है?
वैसे तो दीर्घ कोविड के विविध लक्षणों पर विस्तृत अध्ययन किए जा रहे हैं, लेकिन यह होता क्यों है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं चला है। देखा गया है कि
दीर्घ कोविड कई अंगों को प्रभावित करता है, इससे
लगता है कि यह बहु-तंत्रीय विकार है।
अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ हफ्तों बाद यह वायरस शरीर से लगभग खत्म हो
जाता है इसलिए यह संभावना तो कम है कि संक्रमण ही इतना लंबा चल रहा है। लेकिन
वायरस के अवशेष (जैसे प्रोटीन अणु) ज़रूर महीनों तक शरीर में बने रह सकते हैं। भले
ही ये अवशेष कोशिकाओं को संक्रमित न करें, लेकिन
हो सकता है कि वे शरीर के कामकाज में कुछ बाधा डालते हों।
इसके अलावा एक संभावना यह है कि दीर्घ कोविड प्रतिरक्षा प्रणाली के अति सक्रिय
होने और शरीर के बाकी हिस्सों पर हमला करने की वजह से होता है। यानी दीर्घ कोविड
एक ऑटोइम्यून बीमारी हो सकती है। अलबत्ता, यह
कहना जल्दबाज़ी होगी कि इनमें से कौन-सी परिकल्पना सही है। यह भी हो सकता है कि
अलग-अलग लोगों के लिए कारण अलग-अलग हों।
इसके कारण को बेहतर समझने के लिए पोस्ट हॉस्पिटलाइज़ेशन कोविड-19 स्टडी (PHOSP-COVID) के तहत यूके के 1000 से अधिक
रोगियों के रक्त के नमूनों में शोथ, हृदय सम्बंधी समस्याओं और अन्य
परिवर्तनों का पता लगाया जा रहा है। इसके अलावा, शोधकर्ताओं
के एक दल ने कोविड-19 से पीड़ित 300 लोगों के हर चार महीने के अंतराल पर रक्त और
लार के नमूने लेकर उनमें शोथ, रक्त का थक्का बनाने वाली
प्रणाली में बदलाव और वायरस की मौजूदगी के प्रमाण तलाशे। अध्ययन में उन्होंने रक्त
में साइटोकाइन्स (जो प्रतिरक्षा का नियमन करते हैं) का स्तर परिवर्तित पाया। इससे
लगता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली असंतुलित थी। इसके अलावा ऐसे प्रोटीन संकेतक भी
मिले जो तंत्रिका तंत्र सम्बंधी विकार की ओर इशारा करते हैं। शोधकर्ता इस काम में
मशीन लर्निंग की भी मदद ले रहे हैं।
इसी कड़ी में PHOSP-COVID अध्ययन में शामिल रेचेल इवांस
और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके 1077 लोगों में
शारीरिक दुर्बलता, दुÏश्चता जैसी मानसिक-स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों और संज्ञानात्मक क्षति को जांचा।
उन्होंने इसमें उम्र और लिंग जैसी बुनियादी जानकारी शामिल की और जैव रासायनिक डैटा
(जैसे सी-रिएक्टिव प्रोटीन) का स्तर भी रिकॉर्ड किया। गणितीय विश्लेषण की मदद से
देखा गया कि क्या एक जैसे लक्षण वाले रोगियों के समूह दिखाई देते हैं? कोविड-19 की गंभीरता, या अंगों की क्षति के स्तर और
दीर्घ कोविड की गंभीरता के बीच बहुत कम सम्बंध पाया गया।
विश्लेषण में दीर्घ कोविड के भिन्न-भिन्न लक्षणों वाले चार समूहों की पहचान
हुई। तीन समूहों में अलग-अलग स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलता थी, जबकि संज्ञानात्मक समस्या नहीं या बहुत कम थी। चौथे समूह के लोगों में मध्यम
स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलताएं थी, लेकिन
संज्ञानात्मक समस्याएं अत्यधिक थीं।
क्या यह संक्रमण-उपरांत लक्षण है?
कुछ वैज्ञानिक के लिए दीर्घ कोविड की स्थिति कोई हैरत की बात नहीं थी। संक्रमण
ठीक होने के बाद लंबे समय तक लक्षण बने रहना कई मामलों में देखा गया है। दरअसल
मायेल्जिक एन्सेफलाइटिस या क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (ME/CFS) वायरस संक्रमणों के बाद उपजी एक स्थिति है जिसमें लोग
सिरदर्द,
थोड़े से काम के बाद काफी थकान जैसे लक्षणों का अनुभव करते
हैं।
वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित हो चुके 253 लोगों पर हुए एक अध्ययन में देखा
गया था कि लगभग 12 प्रतिशत लोगों में 6 महीने बाद भी थकान, मांसपेशीय-कंकालीय
दर्द,
तंत्रिका सम्बंधी समस्या और मनोदशा में गड़बड़ी जैसे लक्षण
मौजूद थे। यानी दीर्घ कोविड संक्रमण-उपरांत लक्षण हो सकता है।
लेकिन दीर्घ कोविड के लक्षण ME/CFS से काफी अलग हैं। उदाहरण के लिए दीर्घ कोविड वाले लोगों में सांस की तकलीफ ME/CFS वाले लोगों की तुलना में अधिक
दिखती है।
क्या किया जा सकता है?
चूंकि इस विकार को अभी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है इसलिए उपचार/मदद सम्बंधी
विकल्प काफी सीमित हैं। जर्मनी, इंगलैंड वगैरह कुछ देशों में
दीर्घ कोविड से पीड़ित लोगों के लिए क्लीनिक खोले जा रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है, लेकिन इस विकार से निपटने के लिए कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों की ज़रूरत है
क्योंकि दीर्घ कोविड शरीर के कई हिस्सों को प्रभावित करता है। दीर्घ कोविड से
पीड़ित हर व्यक्ति में औसतन 16-17 लक्षण दिखाई देते हैं, लेकिन
अक्सर क्लीनिकों में सभी के उपचार की व्यवस्था नहीं होती।
इसकी सामाजिक और राजनीतिक चुनौती सबसे बड़ी है। दीर्घ कोविड से जूझ रहे लोगों
को आराम की ज़रूरत है, अक्सर कई महीनों तक वे बहुत काम नहीं कर
सकते और ऐसे में उन्हें सहयोग की आवश्यकता है। खास तौर से श्रमिक वर्ग के लिए यह
एक बड़ी चुनौती हो सकती है। एक सुझाव है कि उनकी स्थिति को विकलांगता के रूप में
पहचाना जाना चाहिए।
कुछ लोग इसकी दवा खोजने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। यूके के HEAL-COVID नामक अध्ययन का उद्देश्य
दीर्घ कोविड की स्थिति बनने से रोकना है। इसमें कोविड-19 के अस्पताल में भर्ती
रोगियों को ठीक होने के बाद विशिष्ट दवाइयां दी जाएंगी।
और अंत में यह सवाल कि कोविड-19 के टीके इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं? बेशक ये टीके कोविड-19 के खिलाफ कारगर हैं लेकिन क्या वे दीर्घ कोविड से भी
बचाव करते हैं?
हालिया अध्ययन में दीर्घ कोविड से पीड़ित 800 लोगों पर टीके के प्रभाव जांचे
गए। इनमें से 57 प्रतिशत लोगों के लक्षणों में सुधार दिखा, 24
प्रतिशत में कोई परिवर्तन नहीं दिखे और 19 प्रतिशत लोगों की हालत टीके की पहली
खुराक के बाद और बिगड़ गई। अनुमान है कि यदि संक्रमण पश्चात वायरस के कुछ अवशेष
शरीर में छूट भी गए हैं तो टीका उनका खात्मा कर सकता है या प्रतिरक्षा प्रणाली में
आए असंतुलन को ठीक कर सकता है।
कुल मिलाकर दुनिया भर के शोधकर्ता दीर्घ कोविड को समझने और लोगों को उससे उबारने की जद्दोजहद में हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nature.com/articles/d41586-021-01511-z
कोविड-19 टीकों की कमी का सामना करते हुए कुछ देशों ने एक
अप्रमाणित रणनीति अपनाई और टीके की खुराक के लिए अलग-अलग टीकों का उपयोग किया। आम
तौर पर अधिकांश टीकों की दो खुराक दी जाती है। लेकिन कनाडा और कई युरोपीय देश कुछ
रोगियों में दो खुराकों के लिए अलग-अलग टीकों के उपयोग की सिफारिश कर रहे हैं। और, शुरुआती आंकड़े बता रहे हैं कि मजबूरी की यह रणनीति वास्तव में लाभदायक हो सकती
है।
तीन अध्ययनों में रक्त के नमूनों की जांच करने पर पता चला है कि एस्ट्राज़ेनेका
टीके की एक खुराक के बाद दूसरी खुराक के लिए फाइज़र-बायोएनटेक टीके का उपयोग करने
से मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित होती है। इनमें से दो अध्ययनों से यह भी
पता चला है कि मिश्रित टीकों से फाइज़र-बायोएनटेक की दो खुराकों के बराबर सुरक्षा
मिलेगी जो सबसे प्रभावी कोविड-19 टीकों में से एक है।
यदि टीकों का मिला-जुला उपयोग सुरक्षित और प्रभावी होता साबित है तो अरबों
लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। क्लीनिकल रिसर्च स्पेशलिस्ट क्रिस्टोबल
बेल्डा-इनिएस्ता के अनुसार तब दूसरी खुराक के लिए उसी टीके की उपलब्धता की चिंता
नहीं रहेगी। उनके नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में 448 लोगों में एस्ट्राज़ेनेका
और बायोएनटेक टीकों के मिले-जुले उपयोग में दूसरी खुराक के दो सप्ताह बाद मामूली
साइड इफेक्ट और मज़बूत एंटीबॉडी प्रतिक्रिया देखी गई।
इसी तरह बर्लिन स्थित चैरिटी युनिवर्सिटी हॉस्पिटल में 61 स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं को 10 से 12 सप्ताह के अंतराल से दो खुराकें दी गर्इं। इन सभी
कार्यकर्ताओं में स्पाइक एंटीबॉडी पाई गई जो तीन सप्ताह के अंतराल में
फाइज़र-बायोएनटेक टीके की दोनों खुराकें प्राप्त होने के बाद पाई गई थीं और कोई
साइड इफेक्ट भी नहीं हुआ। इसके अलावा, एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को
बढ़ावा देने वाली और शरीर को संक्रमित कोशिकाओं से छुटकारा दिलाने वाली टी-कोशिकाओं
की प्रतिक्रया भी पूरी तरह फाइज़र-बायोएनटेक से टीकाकृत लोगों से अधिक पाई गर्इं।
जर्मनी की टीम ने एक छोटे अध्ययन में लगभग समान परिणाम सामने पाए हैं।
इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों का मत है कि दो अलग-अलग टीकों की खुराकें
अधिक शक्तिशाली साबित हो सकती हैं। गौरतलब है कि दो टीकों को मिलाकर उपयोग करने से
प्रतिरक्षा प्रणाली को रोगजनकों को पहचानने के कई तरीके मिल सकते हैं। वैज्ञानिकों
के अनुसार mRNA आधारित टीके एंटीबॉडी
प्रतिक्रिया को तेज़ करते हैं और वेक्टर-आधारित टीके टी-कोशिका प्रतिक्रियाओं को शुरू
करते हैं। इसलिए दो प्रकार के टीकों का उपयोग करने पर बेहतर परिणाम मिलते हैं।
अलबत्ता,
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है और
लंबे समय के अध्ययनों की ज़रूरत है। फिलहाल वैज्ञानिक लगभग 100 लोगों में आठ
विभिन्न प्रकार के टीकों को अदल-बदल कर लगाने का प्रयास कर रहे
हैं और साथ ही दो खुराकों के बीच के अंतराल में भी परिवर्तन करके अध्ययन किया
जाएगा।
फिर भी, ये निष्कर्ष नीति परिवर्तन के लिए सहायक सिद्ध हुए हैं। स्पेन ने 60 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिए मिश्रित टीकों के उपयोग करने की अनुमति दी है। कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे और डेनमार्क जैसे देश जिन्होंने एस्ट्राज़ेनेका टीकों पर आयु सीमा निर्धारित की थी उन्होंने भी इस तरह के सुझाव दिए हैं। आगे चलकर और अधिक टीके शामिल किए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/vials_1280p_0.jpg?itok=iEYFoEVj
वैसे तो मध्य और दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले उदबिलाव
एकाकी होते हैं लेकिन हाल ही के अध्ययन में पता चला है कि वे खूब बड़बड़ाते रहते
हैं। वे विभिन्न तरह से किंकियाकर और गुर्राकर आश्चर्य से लेकर प्रसन्नता तक
व्यक्त करते हैं। इन नतीजों से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि उदबिलावों में
संवाद-संचार कैसे विकसित हुआ। इसके अलावा यह अध्ययन इन लुप्तप्राय जानवरों के
संरक्षण में भी मदद कर सकता है।
सभी उदबिलाव गुर्राकर और चिंचियाकर संवाद करते हैं। कुछ सामाजिक उदबिलाव, जैसे अमेज़न के विशाल उदबिलाव (Pteronura brasiliensis), 22 अलग-अलग तरह की आवाज़ें निकालते हैं। दूसरी ओर, नॉर्थ
अमेरिकी नदीवासी उदबिलावों (Lontra canadensis) जैसे कुछ एकाकी प्रवृत्ति के
उदबिलावों में संवाद के केवल चार तरीके ज्ञात हैं। लेकिन नियोट्रॉपिकल नदीवासी
उदबिलावों (L. longicaudis) में संवाद का अध्ययन मुश्किल रहा है, क्योंकि
ये वर्ष में एक बार ही प्रजनन के लिए साथ आते हैं।
इसलिए इन उदबिलावों में संचार-संवाद का अध्ययन करने के लिए विएना विश्वविद्यालय
की जैव ध्वनिकीविद सबरीना बेटोनी ने तीन जोड़ी नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलावों का
साल भर अध्ययन किया। ये उदबिलाव ब्राज़ील तट के निकट कैटरिना टापू पर एक शरण-स्थल
में नर-मादा जोड़ियों के रूप में रखे गए थे। बेटोनी ने उनके द्वारा निकाली गई हर
आवाज़ को रिकॉर्ड किया, और उनकी ध्वनि तरंगों का विश्लेषण करके
उनका वर्गीकरण किया। इसके अलावा उन्होंने तीन महीने तक इन उदबिलावों पर नज़र भी रखी
ताकि यह समझ सकें कि वे किन परिस्थितियों में किस तरह की आवाज़ निकालते हैं।
प्लॉस वन पत्रिका में उन्होंने बताया है कि वे विभिन्न व्यवहारों के
लिए छह तरह की आवाज़ें निकालते हैं। जब वे मनुष्यों या अन्य जानवरों का ध्यान अपनी
ओर खींचना चाहते हैं तो वे हल्का से चिंचियाते हैं। भोजन या दुलार की विनती करने
के लिए वे धीमे से कुड़कुड़ाते हैं। खेलने के दौरान वे किंकियाते हैं। जब कुछ नया
होते देखते हैं (जैसे भोजन लेकर आता व्यक्ति) तो वे अपने पिछले पैरों पर खड़े होकर
सांस छोड़ने जैसी ‘हाह’ की आवाज़ निकालते हैं। इसके अलावा, लड़ाई
के समय या अपने भोजन की सुरक्षा में वे गुर्राते हैं।
नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलाव की ये आवाज़ें सिर्फ उनकी ही प्रजाति तक सीमित नहीं
हैं। इनमें से कुछ तरह की आवाज़ें, जैसे हाह या चिंचियाने की, पूरी तरह से भिन्न वातावरण में रहने वाले और भिन्न आनुवंशिक विशेषताओं वाले
उदबिलावों में भी हैं। विभिन्न प्रजातियों में ध्वनियों की समानता देख कर लगता है
कि ये ध्वनियां इनके साझा पूर्वज में मौजूद थीं। शोधकर्ता आगे जानना चाहते हैं कि
वाणि-उत्पादन कैसे विकसित हुआ होगा। अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि संभवत: जंगली
उदबिलाव कैद में रखे उदबिलावों जैसी ध्वनि न निकालते हों।
बहरहाल, उम्मीद है कि इस काम से उदबिलावों के संरक्षण में मदद मिलेगी। इस प्रजाति को लुप्तप्राय घोषित किया गया है। आवाज़ों की मदद से इन्हें एक जगह बुलाकर गिनती की जा सकेगी। और वैसे भी यह अध्ययन लोगों को इनके प्रति आकर्षित तो करेगा ही। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdnph.upi.com/ph/st/th/5871621953986/2021/i/16219658441310/v2.1/Brazils-neotropical-otter-uses-a-wide-vocal-range-researchers-say.jpg?lg=4
स्कूल के दिनों की सुखद यादों में हमें अक्सर परख नलियों, बुन्सन बर्नर की मदद से किए गए रसायन विज्ञान के प्रयोग भी याद आते हैं। रसायन
विज्ञान अणुओं के गुणों का अध्ययन है। हर सजीव या निर्जीव चीज़ अणुओं से बनी होती
है। लेकिन स्कूल में पढ़ाए गए साधारण रसायन, जैसे
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (जिसमें दो परमाणु होते हैं – एक हाइड्रोजन; एक क्लोरीन),
जैविक रसायन विज्ञान की जटिलताओं के सामने बौने पड़ जाते
हैं। किसी प्रोटीन अणु में हज़ारों परमाणु हो सकते हैं।
अणुओं का अनुरूपण
रासायनिक सिद्धांतों के बढ़ते ज्ञान के कारण ‘परख नली’ से आगे बढ़कर अणुओं का
सैद्धांतिक अध्ययन, उनकी संरचना और अन्य अणुओं से उनकी परस्पर
क्रिया का अध्ययन संभव हो गया है। उदाहरण के लिए जिस तरह अनुरूपण (सिमुलेशन) गेम
में कंप्यूटर के पर्दे पर विमान के उड़ने-उतरने का अनुरूपण किया जाता है, उसी तरह जटिल जैविक अणुओं की परस्पर क्रिया का भी पर्याप्त सटीकता के साथ
अनुरूपण किया जा सकता है। अनुरूपण चाहे विमान की उड़ान का हो या अणुओं का, अनुरूपण की गणितीय विधियों को भौतिकी के मूलभूत नियमों से जोड़ा जाता है।
देखा जाए तो कोई भी प्रोटीन एक-दूसरे से जुड़े अमीनो एसिड (20 अमीनो एसिड, जिनमें से प्रत्येक अमिनो एसिड 10 से 27 परमाणुओं से बना होता है) की एक सीधी शृंखला
ही तो है,
जो बड़े करीने से एक अद्वितीय आकार में तह की गई होती है।
प्रत्येक अमीनो एसिड पर आवेश (धनात्मक, ऋणात्मक, उदासीन) या उसके जुड़ने (या चिपकने) की क्षमता भिन्न होती है। अमीनो एसिड की इस
शृंखला के कुछ हिस्से अणु की गहराई में दबे होते हैं। और बाकी हिस्से सतह पर होते
हैं। सतह पर मौजूद अमीनो एसिड ही अन्य प्रोटीन्स से लेन-देन करते हैं – ये कोई
संरचना बनाने,
ग्राही तथा एंटीबॉडी आदि से जुड़ने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अब हम वास्तविक दुनिया का रुख करते हैं। हममें से कई लोगों
ने कोविड-19 महामारी की प्रगति पर लगातार नज़र रखी है, और
इसके थमने या धीमा होने के संकेतों पर नज़र रखी है। हमने नई शब्दावली सीखी है, और कंटीले स्पाइक वाले गेंदनुमा वायरस की डरावनी छवि के आदी भी हो गए हैं।
वर्तमान में हम इस वायरस के नवीन और अधिक चिंताजनक संस्करणों का सामना कर रहे
हैं। प्रत्येक संस्करण को या तो उसके भौगोलिक उत्पत्ति, या
डब्ल्यूएचओ नामकरण पद्धति (अल्फा, बीटा, आदि)
से मिले नाम,
या ज़्यादा सटीक E484K, D614G जैसे नामों से पुकारा जाता है। E484K, D614G जैसी ये संख्याएं हमें प्रोटीन में अमीनो एसिड की रैखीय शृंखला का ध्यान
दिलाती हैं। इस मामले में यह वायरस की सतह पर मौजूद स्पाइक प्रोटीन है।
स्पाइक प्रोटीन संक्रमण शुरू करता है – यह हमारे फेफड़ों और अन्य ऊतकों की
कोशिकाओं की सतह पर मौजूद ग्राहियों से जुड़ जाता है। यह प्रोटीन अणु 1273 अमीनो
एसिड की एक शृंखला है, और तीन अलग-अलग अणु मिलकर वायरस का
‘स्पाइक’ बनाते हैं। वायरस संस्करण E484K में संख्या 484 अमीनो एसिड की इस शृंखला
के 484वें स्थान की द्योतक है। E इस स्थान पर पहले संस्करण में मौजूद ऋणात्मक आवेश वाले अमीनो एसिड ग्लूटामेट
का संकेत है जो मेज़बान ग्राही से जाकर जुड़ता है। पूरा नाम दर्शाता है कि इस
संस्करण में ऋणावेशित E
(ग्लूटामेट) का स्थान अब धनावेशित अमीनो एसिड K (लाइसीन) ने ले लिया है। यह वाला उत्परिवर्तन बीटा और गामा
संस्करणों में पाया गया है।
उत्परिवर्तन का प्रभाव
गौरतलब है कि उत्परिवर्तन में ऋणात्मक आवेश वाले ग्लूटामेट का स्थान धनात्मक
आवेश वाले लाइसीन ने ले लिया है। क्या यह हम मनुष्यों के लिए अच्छी खबर है? उपलब्ध मैदानी आंकड़ों से पता चलता है कि वायरस का यह संस्करण अधिक संक्रामक
है। और तो और,
वायरस का यह संस्करण वायरस के खिलाफ बनी एंटीबॉडी से बच
निकलने में भी सक्षम है।
सुर्खियों में छाए डेल्टा संस्करण में E484Q उत्परिवर्तन
हुआ है। इसमें Q का
मतलब ग्लूटामाइन है, जो ग्लूटामेट (E) से बहुत अलग नहीं है लेकिन Q उदासीन और ध्रुवीय है।
एक अन्य उत्परिवर्तन है L452 R। यह उत्परिवर्तन भी स्पाइक के ग्राही से बंधने वाले स्थान पर हुआ है। इसमें L का मतलब है ल्यूसीन जो कि अनावेशित और
‘चिपचिपा’ अमीनो एसिड है, और R धनावेशित आर्जिनीन है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि वायरस के कई चिंताजनक संस्करणों के स्पाइक
प्रोटीन के ग्राही से जुड़ने वाले हिस्से में सिर्फ एक या दो अमीनो एसिड में
परिवर्तन नहीं हुए हैं। यूके में पहली बार देखे गए अल्फा संस्करण में कुल 23
उत्परिवर्तन हैं। इनमें से नौ उत्परिवर्तन स्पाइक प्रोटीन के किसी अन्य भाग में
हुए हैं और कुछ अन्य उत्परिवर्तन वायरस के अन्य भागों में हुए हैं, जिन्हें अच्छी तरह समझा नहीं जा सका है।
यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के परिवर्तन – विशाल अणु में एक या दो प्रतिस्थापन – का काफी कुशल और काफी विश्वसनीय कंप्यूटर मॉडल तैयार किया जा सकता है। जब भी वायरस प्रोटीन का नया संस्करण सामने आता है तो इस तरह की मॉडलिंग करके हम उसके बारे में त्वरित अनुमान लगा सकते हैं। इसके अलावा, मॉडलिंग हमें वायरस के प्रोटीन से मज़बूती से जुड़ने वाली औषधियों के अणुओं को डिज़ाइन करने और उन्हें परिष्कृत करने में मदद कर सकता है। उदाहरण के लिए, कोरोनावायरस में एक एंज़ाइम होता है (प्रोटीएज़ वर्ग का एंज़ाइम), जो नए वायरस कण बनने से पहले स्पाइक प्रोटीन में कांट-छांट करके उसे सही आकार देता है। यदि औषधि अणु इस एंज़ाइम से कसकर बंध जाए, तो वह इस कांट-छांट को रोक कर वायरस की वृद्धि बाधित करेगा। आणविक मॉडलिंग से हज़ारों संभावित औषधियों में कुछ सर्वाधिक कारगर अणुओं को पहचानने में मदद मिलती है, जिनकी कारगरता फिर प्रयोगशाला में जांची जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/5c31ej/article34799223.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/Figure-1-new