सबसे चमकदार ततैया के छत्ते

हालिया अध्ययन बताता है कि जीव-जगत में सबसे चमकदार हरी चमक जुगनू की नहीं होती, बल्कि एशिया में पाई जानी वाली पेपर ततैया के छत्ते हरे रंग में सबसे तेज़ चमकते हैं। जर्नल ऑफ दी रॉयल सोसाइटी इंटरफेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह प्रकाश ततैया के लार्वा (जीनस पॉलिस्टेस) द्वारा ककून में बुने रेशम प्रोटीन से निकलता है। इस चमक को पराबैंगनी रोशनी में 20 मीटर दूर से देखा जा सकता है।

शोधकर्ताओं को लगता है कि छत्ते की यह चमक संध्या के समय ततैया को घर वापसी में मदद करती है – जब शाम गहराने लगती है लेकिन हल्की पराबैंगनी रोशनी होती है। पोलिस्टेस 540 नैनोमीटर तरंग दैर्घ्य तक का प्रकाश देख सकते हैं, और ककून से निकलने वाला हरा प्रकाश इसी तंरग दैर्घ्य का होता है।

यह भी संभावना है कि यह फ्लोरेसेंट प्रोटीन सूर्य के पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित कर लेता है और विकसित होते लार्वा को इस हानिकारक विकिरण से बचाता है। संभवत: फ्लोरेसेंस लार्वा की वृद्धि में भी मदद करता है: शोधकर्ता बताते हैं कि कई पोलिस्टेस प्रजातियों की वृद्धि जंगल में बरसात के मौसम के दौरान होती हैं, जब अक्सर धुंध या बादल छाए रहते हैं। तब यह ककून लैम्प धुंध में ततैयों को सूर्य का अंदाज़ा देता है; ककून की हरी रोशनी ततैयों द्वारा दिन-रात चक्र का तालमेल बनाए रखने में उपयोग की जाती होगी, जो उनके उचित विकास में महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बच्चों में ‘लॉकडाउन मायोपिया’

गभग डेढ़ साल से बच्चे घर पर हैं। और तब से उनकी शिक्षा और मनोरंजन डिजिटल स्क्रीन में सिमट गए हैं। इसका मतलब है कि वे अधिक समय तक मोबाइल फोन देख रहे हैं। नेत्र रोग विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 महामारी के फैलने के बाद से 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मायोपिया (निकट दृष्टिता) के मामले बढ़े हैं। यह आंखों का ऐसा विकार है जिसमें दूर की चीज़ें देखने में कठिनाई होती है।

अग्रवाल आई हॉस्पिटल के विशेषज्ञ चिकित्सकों का कहना है कि बच्चों में ‘भेंगेपन’ के मामले भी अधिक देखे जा रहे हैं। एक निजी अस्पताल में सलाहकार नेत्र रोग विशेषज्ञ पलक मकवाना के अनुसार, ‘हमारे आंकड़े बताते हैं कि इस महामारी दौरान 5-15 वर्ष की उम्र के बच्चों में मायोपिया के मामलों में 100 प्रतिशत वृद्धि और भेंगापन के मामलों में पांच गुना वृद्धि हुई है।’

डॉ. मकवाना बताती हैं कि लॉकडाउन के दौरान कंप्यूटर, लैपटॉप, और मोबाइल फोन या टैबलेट के माध्यम से काम हुआ, और इस दौरान बार-बार ब्रेक भी नहीं लिए गए। शैक्षणिक व अन्य उद्देश्यों से स्क्रीन को घूरने के समय में काफी वृद्धि हुई है। आंखों पर पड़ने वाला यह तनाव भेंगेपन का कारण हो सकता है और मायोपिया को बढ़ावा देता है।

सलाहकार नेत्र रोग विशेषज्ञ टी. श्रीनिवास ने बताते हैं कि कोविड-19 महामारी की वजह से इस समस्या में तेज़ी आई है। चूंकि खुद को और परिवार को सुरक्षित रखना ही लोगों की सर्वोच्च प्राथमिकता थी इसलिए लोग नेत्र रोग विशेषज्ञों सहित अन्य चिकित्सकों से भी मुलाकात से बचते रहे। वे आगे बताते हैं, ‘बच्चों का नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास जाना नहीं हो पाने की वजह से कई बच्चे नामुनासिब पॉवर का चश्मा पहनते रहे, जिससे उनकी आंखों पर ज़ोर पड़ा। इससे उनकी नज़र और भी कमज़ोर हुई। बिना ब्रेक लिए लगातार डिजिटल स्क्रीन पर काम ने इस समस्या को और बढ़ाया। अक्सर 21 वर्ष की आयु तक नेत्रगोलक की साइज़ बदलती है। आम तौर पर बढ़ती उम्र में चश्मे का नंबर बदलता है। गलत नंबर वाले चश्मों का उपयोग और अधिक समय डिजिटल स्क्रीन पर बिताने से दृष्टि और भी कमज़ोर हो सकती है।’

मौजूदा हालात में, ऑनलाइन कक्षाओं से बचा नहीं जा सकता है। इसलिए डॉ. मकवाना का सुझाव है कि बच्चे कक्षा में शामिल होने के लिए मोबाइल फोन की बजाय लैपटॉप या डेस्कटॉप का उपयोग करें क्योंकि बड़ी स्क्रीन और आंखों के बीच की दूरी अधिक होती है। इसके अलावा, स्वस्थ और संतुलित आहार के साथ-साथ मैदानी खेल खेलने और दिन में एक से दो घंटे धूप में रहने की सलाह दी जाती है।(स्रोत फीचर्स)

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डेल्टा संस्करण अधिक संक्रामक क्यों?

ति-संक्रामक डेल्टा संस्करण का प्रकोप बढ़ने के मद्देनज़र वैज्ञानिक इसके तेज़तर प्रसार का जैविक आधार समझने का प्रयास कर रहे हैं। कई अध्ययनों से पता चला है कि डेल्टा संस्करण में उपस्थित एक अमीनो अम्ल में परिवर्तन से वायरस का प्रसार तेज़तर हुआ है। यूके में किए गए अध्ययन से पता चला है कि अल्फा संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण 40 प्रतिशत अधिक प्रसारशील है।

युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास मेडिकल ब्रांच के वायरोलॉजिस्ट पी-यौंग शी के अनुसार डेल्टा संस्करण की मुख्य पहचान ही संक्रामकता है जो नई ऊंचाइयों को छू रही है। शी की टीम और अन्य समूहों ने सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में एक अमीनो अम्ल में परिवर्तन की पहचान की है। यह वायरल अणु कोशिकाओं की पहचान करने और उनमें घुसपैठ करने के लिए ज़िम्मेदार है। P681R नामक यह परिवर्तनएक अमीनो अम्ल प्रोलीन को आर्जिनीन में बदल देता है, जो स्पाइक प्रोटीन की फ्यूरिन क्लीवेज साइट में होता है।

जब चीन में पहली बार सार्स-कोव-2 की पहचान की गई थी तब अमीनो अम्ल की इस छोटे खंड की उपस्थिति ने खतरे के संकेत दिए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि यह परिवर्तन इन्फ्लुएंज़ा जैसे वायरसों में बढ़ी हुई संक्रामकता से जुड़ा पाया गया है। लेकिन सर्बेकोवायरस कुल में पहले कभी नहीं पाया गया था। सर्बेकोवायरस वायरसों का वह समूह है जिसमें सार्स-कोव-2 सहित कोरोनावायरस शामिल हैं। यह मामूली सा खंड एक बड़े खतरे का द्योतक था।

गौरतलब है कि कोशिकाओं में प्रवेश करने के लिए ज़रूरी होता है कि मेज़बान कोशिका का प्रोटीन सार्स-कोव-2 प्रोटीन को दो बार काटे। सार्स-कोव-1 में दोनों बार काटने की प्रक्रिया वायरस के कोशिका से जुड़ने के बाद होती हैं। लेकिन सार्स-कोव-2 में फ्यूरिन क्लीवेज साइट होने का मतलब है कि काटने की पहली प्रक्रिया संक्रमित कोशिका से निकलने वाले नए वायरस में ही हो जाती है। ये पूर्व-सक्रिय वायरस कोशिकाओं को अधिक कुशलता से संक्रमित कर सकते हैं।

देखा जाए तो डेल्टा ऐसा पहला संस्करण नहीं है जिसमें फ्यूरिन क्लीवेज साइट को बदलने वाला उत्परिवर्तन होता है। अल्फा संस्करण में भी इसी स्थान पर एक अलग अमीनो अम्ल का परिवर्तन पाया जाता है। लेकिन डेल्टा में हुए उत्परिवर्तन का प्रभाव अधिक होता है।

शी की टीम ने यह भी पाया है कि डेल्टा संस्करण में स्पाइक प्रोटीन अल्फा संस्करण की तुलना में अधिक प्रभावी तौर से काटा जाता है। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की वायरोलॉजिस्ट वेंडी बारक्ले और उनकी टीम को भी इसी तरह के परिणाम मिले थे। दोनों समूहों द्वारा किए गए आगे के प्रयोगों से पता चला है कि स्पाइक प्रोटीन के इतनी कुशलता से कटने के पीछे P681R परिवर्तन काफी हद तक ज़िम्मेदार है।

वर्तमान में शोधकर्ता P681R और डेल्टा की संक्रामकता के बीच सम्बंध स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। शी की टीम ने मनुष्य के श्वसन मार्ग की संवर्धित उपकला कोशिकाओं को समान संख्या में अल्फा और डेल्टा के वायरस से संक्रमित किया और पाया कि डेल्टा संस्करण ने काफी तेज़ी से अल्फा को संख्या में पीछे छोड़ दिया। यही पैटर्न हकीकत में भी दिखाई दे रहा है। जब शोधकर्ताओं ने P681R परिवर्तन को हटा दिया तो डेल्टा संस्करण को मिलने वाला लाभ खत्म हो गया। शोधकर्ताओं का मानना है कि इस उत्परिवर्तन से एक कोशिका से दूसरी कोशिका में वायरस का प्रसार भी अधिक हुआ है।

हालांकि, इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि P681R परिवर्तन डेल्टा का एक अहम गुण है लेकिन शोधकर्ता यह नहीं मानते कि यही एकमात्र उत्परिवर्तन है जो डेल्टा को लाभ प्रदान करता है। डेल्टा के स्पाइक प्रोटीन और अन्य प्रोटीन्स में भी कई अन्य प्रकार के महत्वपूर्ण उत्परिवर्तन हो सकते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार डेल्टा संस्करण के तेज़ी से बढ़ने के पीछे अन्य कारक भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। डेल्टा के निकट सम्बंधी, कैपा नामक संस्करण में भी P681R सहित इसी प्रकार के उत्परिवर्तन थे लेकिन वह डेल्टा के समान विनाशकारी नहीं रहा। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जीव विज्ञानी बिंग चेंग के अनुसार कैपा का स्पाइक प्रोटीन काफी कम कटता है और डेल्टा की तुलना में कोशिका की झिल्ली से कम कुशलता से जुड़ता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस खोज से P681R की भूमिका पर काफी सवाल उठते हैं।

युगांडा के शोधकर्ताओं ने 2021 की शुरुआत में व्यापक रूप से फैले संस्करण में P681R परिवर्तन की पहचान की थी लेकिन यह डेल्टा के समान नहीं फैला जबकि इसने प्रयोगशाला अध्ययनों में वैसे गुण प्रदर्शित किए थे। वैज्ञानिकों की टीम ने महामारी की शुरुआत में वुहान में फैल रहे कोरोनावायरस में P681R परिवर्तन किया लेकिन इससे उसकी संक्रामकता में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिली। इससे लगता है कि एक से अधिक उत्परिवर्तन की भूमिका हो सकती है। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि डेल्टा में P681R की भूमिका के बावजूद फ्यूरिन क्लीवेज साइट पर परिवर्तन का महत्व रेखांकित हुआ है। और ऐसा परिवर्तऩ कई तरह से संभव है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड के स्रोत पर अभी भी अनिश्चितता

हाल ही में अमेरिकी खुफिया समुदाय ने राष्ट्रपति बाइडेन के आग्रह पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस दो-पृष्ठों की सार्वजनिक रिपोर्ट में टीम ने सभी उपलब्ध खुफिया रिपोर्टिंग और अन्य जानकारियों की जांच के बाद कुछ मुख्य परिणाम जारी किए हैं।

खुफिया समुदाय के अनुसार उसके पास सार्स-कोव-2 के स्रोत का पता लगाने के लिए पर्याप्त जानकारी ही नहीं है जिससे यह बताया जा सके कि यह जीवों से मनुष्यों में आया या फिर प्रयोगशाला से दुर्घटनावश निकला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खुफिया समुदाय के अंदर ही कोविड के संभावित स्रोत को लेकर सहमति नहीं है और दोनों परिकल्पनाओं के समर्थक मौजूद हैं।

फिर भी वे अपने मूल्यांकन के कुछ बिंदुओं पर एकमत हुए हैं। जैसे, दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में वायरस प्रकोप से पूर्व चीनी अधिकारियों को सार्स-कोव-2 की जानकारी नहीं थी। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 नवंबर 2019 के पहले ही उभरा था। एजेंसियों का यह भी मत है कि वायरस को जैविक हथियार के रूप में विकसित नहीं किया गया था।

इस दौरान बाइडेन ने चीनी सरकार से वुहान की ऐसी प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट की अनुमति देने का आग्रह किया था जहां कोरोनावायरस पर अध्ययन किया जाता है। चीनी अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। खुफिया समुदाय का भी ऐसा मानना है कि कोविड-19 की उत्पत्ति के निर्णायक आकलन के लिए चीन के सहयोग की आवश्यकता होगी।

फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम ने खुफिया समुदाय के इन निष्कर्षों का समर्थन किया है। ब्लूम व 17 अन्य वैज्ञानिकों ने एक पत्र जारी करके वायरस उत्पत्ति की परिकल्पनाओं पर संतुलित विचार करने का आह्वान किया है।

हारवर्ड युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी विलियम हैनेज इस मूल्यांकन को काफी संतुलित मानते हैं और उनके अनुसार खुफिया समुदाय का निष्कर्ष प्राकृतिक उत्पत्ति की ओर अधिक झुका प्रतीत होता है। उनका यह भी कहना है कि किसी भी स्थिति में शुरुआती मनुष्यों के मामलों या वायरस-वाहक जीवों के सबूतों के बिना एक स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंच पाना काफी मुश्किल होगा।

कुछ अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार बाइडेन सरकार को इस महामारी की शुरुआत को समझने और इससे सम्बंधित सवालों का जवाब तलाशने के लिए ‘दुगने प्रयास’ की आवश्यकता होगी। हालांकि, अभी कोई ठोस जवाब तो हमारे नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भविष्य में भी ऐसी ही अनिश्चितिता बनी रहेगी। वर्तमान में अमेरिकी सरकार भी समान विचारधारा वाले सहयोगियों के साथ मिलकर चीन सरकार पर दबाव बना रही है ताकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में सभी प्रासंगिक डैटा और साक्ष्यों की जांच करने की अनुमति मिल सके।(स्रोत फीचर्स)

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हल्दी के औषधि अणु – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत के हर रसोईघर में पकने वाले भोजन में हल्दी किसी न किसी रूप में इस्तेमाल होती है। हमारे दैनिक भोजन में या तो कच्ची हल्दी या हल्दी पाउडर के रूप में डाली जाने वाली हल्दी में लगभग तीन प्रतिशत करक्यूमिन नामक सक्रिय घटक होता है। करक्यूमिन एक पॉलीफिनॉल डाइकिटोन है (यह स्टेरॉयड नहीं है)। शोधकर्ता बताते हैं कि हल्दी में पाइपेरीन नामक एक और घटक होता है, जो क्षारीय होता है। हमारी रसोई में उपयोग होने वाले एक अन्य मसाले, कालीमिर्च, के तीखेपन के लिए पाइपेरीन ही ज़िम्मेदार है। पाइपेरीन शरीर में करक्यूमिन का अवशोषण बढ़ाता है। यह हल्दी को उसके विभिन्न उपचारात्मक और सुरक्षात्मक गुण देता है।

हल्दी से भारतीय उपमहाद्वीप, पश्चिम एशिया, बर्मा, इंडोनेशिया और चीन के लोग 4000 से भी अधिक सालों से परिचित हैं। यह हमारे दैनिक भोजन का महत्वपूर्ण अंग है। सदियों से इसे एक औषधि के रूप में भी जाना जाता रहा है। इसमें जीवाणु-रोधी, शोथ-रोधी और एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं। हर्बल औषधि विशेषज्ञ हल्दी का उपयोग गठिया, जोड़ों की जकड़न और जोड़ों के दर्द के पीड़ादायक लक्षणों के उपचार में करते थे। उनका यह भी दावा रहा है कि हल्दी गुर्दे की गंभीर क्षति को ठीक करने में मदद करती है। इनमें से  कुछ दावों को नियंत्रित क्लीनिकल परीक्षण कर जांचने की आवश्यकता है।

https://www.healthline.com पर हल्दी और उसके उत्पादों के कुछ साक्ष्य-आधारित लाभों की सूची दी गई है, जिनका उल्लेख यहां आगे किया गया है। इन लाभों के अलावा, हल्दी का सक्रिय अणु करक्यूमिन एक शक्तिशाली शोथ-रोधी और एंटी-ऑक्सीडेंट है; यह एक प्राकृतिक शोथ-रोधी है। लगातार बनी रहने वाली हल्की सूजन (शोथ) हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, और हृदय रोग और चयापचय सिंड्रोम को बढ़ावा देती है। शुक्र है कि करक्यूमिन रक्त-मस्तिष्क अवरोध को पार कर जाता है। (रक्त-मस्तिष्क अवरोध ऐसी कोशिकाओं की सघन परत है जो तय करती है कि रक्त में मौजूद कौन से अणु मस्तिष्क में जाएंगे और कौन से नहीं।) रक्त-मस्तिष्क अवरोध को पार करने की इसी क्षमता के चलते करक्यूमिन अल्ज़ाइमर के लिए ज़िम्मेदार एमीलॉइड प्लाक नामक अघुलनशील प्रोटीन गुच्छों के निर्माण को कम करता है या रोकता है। (हालांकि, इस संदर्भ में उपयुक्त जंतु मॉडल पर और मनुष्यों पर प्लेसिबो-आधारित अध्ययन की ज़रूरत है)। करक्यूमिन ब्रेन-डेराइव्ड न्यूरोट्रॉफिक फैक्टर (BDNF) को बढ़ावा देता है। BDNF एक ऐसा जीन है जो न्यूरॉन्स (तंत्रिका कोशिकाओं) को बढ़ाता है। BDNF को बढ़ावा देकर करक्यूमिन स्मृति और सीखने में मदद करता है। कुछ हर्बल औषधि विशेषज्ञों का कहना है कि यह कैंसर से भी बचा सकता है। कैंसर कोशिकाओं के मरने के साथ कैंसर का प्रसार कम होता है, और नई ट्यूमर कोशिकाओं का निर्माण रुक जाता है। गठिया और जोड़ों की सूजन में करक्यूमिन काफी प्रभावी पाया गया है। हर्बल औषधि चिकित्सक भी यही सुझाव देते आए हैं। यह अवसाद के इलाज में भी उपयोगी है। 60 लोगों पर 6 हफ्तों तक किए गए नियंत्रित अध्ययन में पाया गया है कि यदि अवसाद की आम दवाओं (जैसे प्रोज़ैक) को करक्यूमिन के साथ दिया जाए तो वे बेहतर असर करती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के गैरी स्मॉल और उनके साथियों का एक पेपर अमेरिकन जर्नल ऑफ जेरिएट्रिक साइकिएट्री में प्रकाशित हुआ है (doi: 10.1016/j.jagp.2017.10.10)। इस परीक्षण में शोधकर्ताओं ने 50 से 90 वर्ष की उम्र के 40 ऐसे वयस्कों पर अध्ययन किया जिन्हें भूलने की थोड़ी समस्या थी। उन्होंने 18 महीनों तक दिन में दो बार एक समूह को प्लेसिबो और दूसरे समूह को 90 मिलीग्राम करक्यूमिन दिया। अध्ययन की शुरुआत में और 18 महीने बाद सभी प्रतिभागियों का मानक आकलन परीक्षण किया गया, और उनके रक्त में करक्यूमिन का स्तर जांचा गया। इसके अलावा, अध्ययन के शुरू और 18 महीने बाद सभी प्रतिभागियों का पीईटी स्कैन भी किया गया ताकि उनमें अघुलनशील एमीलॉइड प्लाक का स्तर पता लगाया जा सके। अध्ययन में पाया गया कि करक्यूमिन का दैनिक सेवन ऐसे लोगों में स्मृति और एकाग्रता में सुधार कर सकता है जो मनोभ्रंश से पीड़ित न हों।

हाल ही में, मुंबई के एक समूह ने काफी रोचक अध्ययन प्रकाशित किया है, जो बताता है कि हल्दी कोविड-19 के रोगियों के उपचार में मदद करती है। शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के 40 रोगियों पर अध्ययन किया और पाया कि हल्दी रुग्णता और मृत्यु दर को काफी हद तक कम कर सकती है। के. एस. पवार और उनके साथियों का यह पेपर फ्रंटियर्स इन फार्मेकोलॉजी में प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है: कोविड-19 के सहायक उपचार के रूप में पाइपेरीन और करक्यूमिन का मुख से सेवन: एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण। इसे नेट पर पढ़ा जा सकता है। अध्ययन महाराष्ट्र के एक 30-बेड वाले कोविड-19 स्वास्थ्य केंद्र में किया गया था। लाक्षणिक कोविड-19 के सहायक उपचार के रूप में पाइपेरीन के साथ करक्यूमिन का सेवन रुग्णता और मृत्यु दर को काफी हद तक कम कर सकता है, और स्वास्थ्य तंत्र का बोझ कम कर सकता है। (वैसे बैंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जी. पद्मनाभन द्वारा किए गए विस्तृत अध्ययन में पता चला है कि करक्यूमिन एक बढ़िया प्रतिरक्षा सहायक है)। यह वास्तव में एक उल्लेखनीय प्रगति है। इसे देश भर के केंद्रों में आज़माया जा सकता है जहां महामारी अभी भी बनी हुई है। (स्रोत फीचर्स)

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जीन थेरेपी से कैंसर का जोखिम

हाल ही में एक दुर्लभ तंत्रिका रोग के लिए उपयोग की जाने वाली जीन थेरेपी का क्लीनिकल परीक्षण रोक दिया गया है। परीक्षण में सहभागी एक व्यक्ति में अस्थि मज्जा सम्बंधी समस्या विकसित होने लगी थी जिससे भविष्य में ल्यूकेमिया की संभावना बढ़ सकती है। अध्ययन की आयोजक कंपनी ब्लूबर्ड बायो के अनुसार कैंसर शायद एक वायरस के कारण हुआ है जिसका उपयोग रोगी की स्टेम कोशिकाओं में उपचारात्मक जीन पहुंचाने में किया गया था।

हालांकि, ब्लूबर्ड के शोधकर्ताओं और अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि यह समस्या शायद अन्य जीन उपचारों में उपयोग होने वाले इसी प्रकार के वायरस, (लेंटीवायरस) से उत्पन्न न हों क्योंकि इस अध्ययन में प्रयुक्त वायरस की एक अनूठी विशेषता थी। वैसे आज तक लेंटीवायरस का सम्बंध कैंसर से नहीं देखा गया है।

दरअसल तीसरे चरण का यह परीक्षण सेरेब्रल एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी नामक बीमारी के इलाज के लिए है। यह बीमारी एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी प्रोटीन (एएलडीपी) एंज़ाइम के जीन में उत्परिवर्तन के कारण होती है। यह एंज़ाइम कुछ विशिष्ट वसाओं को तोड़ने का काम करता है। जिन लोगों में इस जीन की क्रियाशील प्रतिलिपि नहीं होती उनके मस्तिष्क में वसा जमा होने लगती है। यह जमाव तंत्रिकाओं के उस कुचालक आवरण को क्षति पहुंचाता है जो तंत्रिकाओं को विद्युत संकेत तेज़ी से और दक्षतापूर्वक भेजने में मदद करता है। यह जीन ‘X’ गुणसूत्र में होता है इसलिए यह समस्या लड़कों को ज़्यादा प्रभावित करती है। क्योंकि यदि इस जीन की एक प्रति उत्परिवर्तित हो जाए तो लड़कों के पास दूसरा ‘X’ गुणसूत्र तो होता नहीं है।     

उपचार के अभाव में एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी सुनने, देखने, याददाश्त और समन्वय की क्षमता को नुकसान पहुंचाती है और लक्षण प्रकट होने के 10 वर्षों के भीतर मृत्यु हो जाती है। कम उम्र में ही अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण की मदद जीन युक्त स्टेम कोशिकाएं डालकर तंत्रिका सम्बंधी क्षति को रोका जा सकता है। लेकिन इसके लिए दानदाता ढूंढना मुश्किल होता है और इस तरह के प्रत्यारोपण से प्रत्यारोपण-बनाम-मेज़बान बीमारियों का भी खतरा रहता है जिसमें दानदाता की कोशिकाएं रोगी की कोशिकाओं पर हमला करने लगती हैं।

जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि रोगी की अस्थि मज्जा की स्टेम कोशिकाएं एकत्र की जाती हैं और उन्हें एएलडीपी के स्वस्थ जीन वाहक लेंटीवायरस के साथ एक डिश में रखा जाता है ताकि वह जीन इन कोशिकाओं में पहुंच जाए। स्वयं मरीज़ के शरीर की अस्थि मज्जा कोशिकाओं को नष्ट करने के बाद इन संशोधित कोशिकाओं को प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। पिछले माह इस इलाज के लिए ब्लूबर्ड बायो को 17 वर्ष से कम उम्र के 32 रोगियों पर युरोप में विपणन की स्वीकृति प्राप्त हुई थी। अब 35 रोगियों पर किया जाने वाला दूसरा परीक्षण 2024 में पूरा होने की संभावना है।

ब्लूबर्ड कंपनी ने वर्तमान परीक्षण में एक व्यक्ति में इलाज के एक वर्ष बाद मायलोडिसप्लास्टिक सिंड्रोम (एमडीएस) विकसित होते देखा। यह समस्या एक प्रकार का रक्त-कोशिका विकार है जो आगे चलकर ल्यूकेमिया का रूप ले सकता है। ब्लूबर्ड बायो के चीफ साइंटिफिक ऑफिसर फिलिप ग्रेगरी के अनुसार जीन थेरेपी लेने वाले दो अन्य रोगियों की अस्थि मज्जा कोशिकाओं में गड़बड़ियां पाई गर्इं जो भविष्य में एमडीएस का रूप ले सकती हैं। इसी कारण अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने इस अध्ययन को ऐहतियात के तौर पर रोक दिया है।

यह बात काफी लम्बे समय से पता रही है कि जिस वायरस की मदद से आनुवंशिक सामग्री को किसी व्यक्ति के जीनोम में पहुंचाया जाता है वह आसपास के किसी कैंसर जीन को सक्रिय कर सकता है। 2000 के दशक की शुरुआत में प्रशासन ने ऐसे दर्जनभर जीन थेरेपी परीक्षणों पर रोक लगा दी थी जब माउस से प्राप्त रेट्रोवायरस (लेंटीवायरस से भिन्न किस्म का वायरस) के उपयोग से लोगों में ल्यूकेमिया विकसित हो गया था। इसलिए वैज्ञानिकों ने इसके स्थान पर लेंटीवायरस का उपयोग करना शुरू किया। विशेषज्ञों का मानना है कि इन वायरसों को इंजीनियर करके और अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है।

देखा जाए तो जीन थेरेपी के लिए लेंटीवायरस का रिकॉर्ड अच्छा रहा है। ग्रेगरी के अनुसार इस नए मामले में शोधकर्ताओं को लेंटीवायरल डीएनए रोगी की रक्त कोशिकाओं में उन स्थलों पर मिला जो एमडीएस से सम्बंधित हैं। इससे लगता है कि वायरल डीएनए ने रक्त स्टेम कोशिकाओं को असामान्य रूप से बढ़ने के लिए प्रेरित किया होगा।              

ग्रेगरी का मत है कि इस परीक्षण में समस्या का मुख्य कारण वायरस-वाहक की डिज़ाइन का एक खास गुण है। इस वायरस में एक आनुवंशिक अनुक्रम है जिसे प्रमोटर कहा जाता है। संभवत: यह प्रमोटर बहुत सामान्य किस्म का है। यह कई जीन्स को सक्रिय कर देता है। इस शक्तिशाली प्रोमोटर का उपयोग करके मस्तिष्क कोशिकाएं बीमारी के इलाज के लिए उच्च स्तर के एएलडीपी का निर्माण तो करती हैं लेकिन आसपास के कैंसर जीन को सक्रिय करने का जोखिम बना रहता है। शोधकर्ताओं ने अन्य प्रमोटर्स की पहचान की है जो कैंसर के जोखिम को कम करते हैं। लेकिन अभी तक इस प्रकार के प्रमोटर का उपयोग नहीं किया गया है।

बहरहाल, ग्रेगरी का मत है कि सेरेब्रल एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी के दुर्बलताजनक प्रभाव को देखते हुए और अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के जोखिमों को देखते हुए जीन थेरेपी के फायदे उसके जोखिम से कहीं अधिक हैं। लेंटीवायरस आधारित जीन थेरेपी के फायदों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस तरह के उपचार की मदद से एक दर्जन से अधिक स्वास्थ्य संबंधी समस्या वाले 300 से अधिक रोगियों का इलाज किया जा चुका है। (स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरण संकट और महात्मा गांधी – भारत डोगरा

लवायु बदलाव के संकट पर चर्चा चरम पर है। इस समस्या की गंभीरता के बारे में आंकड़े और अध्ययन तो निरंतर बढ़ रहे हैं, किंतु दुख व चिंता की बात है कि समाधान की राह स्पष्ट नहीं हो रही है।

इस अनिश्चय की स्थिति में महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना ज़रूरी है। उनके विचारों में मूलत: सादगी को बहुत महत्त्व दिया गया है, अत: ये विचार हमें जलवायु बदलाव तथा अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान की ओर भी ले जाते हैं।

जानी-मानी बात है कि जलवायु बदलाव के संकट को समय रहते नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना बहुत ज़रूरी है। यह अपने में सही बात है, पर इसके साथ एक अधिक व्यापक सच्चाई है कि केवल तकनीकी उपायों से ही पर्यावरण का संकट हल नहीं हो सकता है।

यदि कुछ तकनीकी उपाय अपना लिए जाएं, जीवाश्म र्इंधन को कम कर नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक अपनाया जाए तो यह अपने आप में बहुत अच्छा व ज़रूरी बदलाव होगा। पर यदि साथ में सादगी व समता के सिद्धांत को न अपनाया गया, विलासिता व विषमता को बढ़ाया गया, छीना-छपटी व उपभोगवाद को बढ़ाया गया, तो आज नहीं तो कल, किसी न किसी रूप में पर्यावरण समस्या बहुत गंभीर रूप ले लेगी।

महात्मा गांधी के समय में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत तो नहीं महसूस की जा रही थी, पर उन्होंने उस समय ही पर्यावरण की समस्या का मर्म पकड़ लिया था जब उन्होंने कहा था कि धरती के पास सबकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन हैं, पर लालच को पूरा करने के लिए नहीं।

उन्होंने अन्याय व विषमता के विरुद्ध लड़ते हुए विकल्प के रूप में ऐसे सब्ज़बाग नहीं दिखाए कि सफलता मिलने पर तुम भी मौज-मस्ती से रहना। उन्होंने मौज-मस्ती और विलासिता को नहीं, मेहनत और सादगी को प्रतिष्ठित किया। सभी लोग मेहनत करें और इसके आधार पर किसी को कष्ट पहुंचाए बिना अपनी सभी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें व मिल-जुल कर रहें, सार्थक जीवन का यह बहुत सीधा-सरल रूप उन्होंने प्रस्तुत किया।

दूसरी ओर, आज अंतहीन आर्थिक विकास की ही बात हो रही है जबकि विषमता व विलासिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। विकास के इस मॉडल में कुछ लोगों के विलासितपूर्ण जीवन के लिए दूसरों के संसाधन छिनते हैं व पर्यावरण का संकट विकट होता है। इसके बावजूद इस मॉडल पर ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ने को महत्व मिल रहा है। इस कारण विषमता बढ़ रही है, अभाव बढ़ रहे हैं, असंतोष बढ़ रहा है और हिंसा व युद्ध के बुनियादी कारण बढ़ रहे हैं।

जबकि गांधी की सोच में अहिंसा, सादगी, समता, पर्यावरण की रक्षा का बेहद सार्थक मिलन है। अत: धरती पर आज जब जीवन के अस्तित्व मात्र का संकट मौजूद है, मौजूदा विकास मॉडल के विकल्प तलाशने में महात्मा गांधी के जीवन व विचार से बहुत सहायता व प्रेरणा मिल सकती है।

जलवायु बदलाव व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए जाएं। पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे ही खतरे हैं, गंभीर समस्याएं हैं। साथ में परमाणु बिजली उत्पादन के साथ परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर परमाणु बिजली के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना उचित नहीं है।

इसी तरह कुछ लोग पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बांध बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। लेकिन बांध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याएं पहले ही सामने आ चुकी हैं। कृत्रिम जलाशयों में बहुत मीथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जो कि एक ग्रीनहाऊस गैस है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर बांध निर्माण में तेज़ी लाना किसी तरह उचित नहीं है।

जलवायु बदलाव के नियंत्रण को प्राय: एक तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके। यह सच है कि तकनीकी बदलाव ज़रूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा केवल इन तक सीमित नहीं है।

जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी है, व इसके साथ जीवन-मूल्यों में बदलाव ज़रूरी है। उपभोगवाद का विरोध ज़रूरी है, विलासिता, नशे, युद्ध व हथियारों की दौड़ व होड़ का विरोध बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण पर अधिक बोझ डाले बिना सबकी ज़रूरतें पूरी करनी है तो न्याय व साझेदारी की सोच ज़रूरी है।

अत: जलवायु बदलाव नियंत्रण का सामाजिक पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। आज विश्व के अनेक बड़े मंचों से बार-बार कहा जा रहा है कि जलवायु बदलाव को समय रहते नियंत्रण करना बहुत ज़रूरी है, पर क्या मात्र कह देने से या आह्वान करने से समस्या हल हो जाएगी। वास्तव में लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएंगे जब आम लोगों में, युवाओं व छात्रों में, किसानों व मज़दूरों के बीच न्यायसंगत व असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षों तक धैर्य से, निरंतरता व प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। तकनीकी पक्ष के साथ सामाजिक पक्ष को समुचित महत्व देना बहुत ज़रूरी है।

एक अन्य सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक विकास व संवृद्धि के दायरे में जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान हो सकता है? मौजूदा विकास की गंभीर विसंगतियां और विकृतियां ऐसी ही बनी रहीं तो क्या जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं नियंत्रित हो सकेंगी? इस प्रश्न का उत्तर है ‘नहीं’। वजह यह है कि मौजूदा विकास की राह में बहुत विषमता और अन्याय व प्रकृति का निर्मम दोहन है।

पहले यह कहा जाता था कि संसाधन सीमित है उनका सही वितरण करो। पर अब तो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की सीमा है। इस सीमा के अंदर ही हमें सब लोगों की ज़रूरतों को टिकाऊ आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता व अपव्यय को दूर करना, समता व न्याय को ध्यान में रखना, भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है।

सही व विस्तृत योजना बनाना इस कारण और ज़रूरी हो गया है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हुए सब लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को न्यायसंगत व टिकाऊ ढंग से पूरा करना है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है जिसके लिए बहुत रचनात्मक समाधान ढूंढने होंगे। जैसे, युद्ध व हथियारों की होड़ को समाप्त किया जाए या न्यूनतम किया जाए, बहुत बरबादीपूर्ण उत्पादन व उपभोग को समाप्त किया जाए या बहुत नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने से इन सभी प्रक्रियाओं में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शिशु बहुत अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं

ह तो सभी अविभावक जानते हैं कि बच्चे ऊर्जा से भरे होते हैं। अब एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मानव के पूरे जीवन काल के दौरान खर्च होने वाली ऊर्जा की दर की गणना की है। निष्कर्ष यह है कि 9 से 15 महीने की उम्र के शिशु वयस्कों की तुलना में एक दिन में 50 प्रतिशत अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं। ऊर्जा खपत की दर को शरीर के डील-डौल के हिसाब से समायोजित किया गया था। यह भी पता चला कि किशोरों और गर्भवती महिलाओं की तुलना में भी शिशु अधिक तेज़ी से ऊर्जा खर्च और उपयोग करते हैं। यह संभवत: उनके ऊर्जा के लिहाज़ से महंगे मस्तिष्क और अंगों की ज़रूरत पूरी करता है।

लेकिन बच्चे भी जल्दी थक (या चुक) जाते हैं। यदि उन्हें ज़रूरत के हिसाब से कैलोरी न मिले तो उनकी उच्च चयापचय दर उनकी वृद्धि को बाधित करती है और उन्हें बीमारियों के प्रति संवेदनशील बनाती है। इसके अलावा वयस्कों की तुलना में शिशुओं की कोशिकाएं औषधियों को भी अधिक तेज़ी से पचा डालती हैं। जिसका अर्थ है कि उन्हें बार-बार खुराक देने की ज़रूरत हो सकती है। वहीं दूसरी ओर, 60 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति युवाओं की तुलना में प्रतिदिन कम ऊर्जा खर्च करते हैं। यानी उन्हें कम भोजन की या औषधियों की कम खुराक की आवश्यकता हो सकती है। 90 से ऊपर के लोग मध्यम आयु के लोगों की अपेक्षा 26 प्रतिशत कम ऊर्जा का उपयोग करते हैं।

हम अपने पूरे जीवन में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, इस बारे में वैज्ञानिक बहुत कम जानते हैं। क्योंकि यह पता करने का दोहरे चिंहाकित पानी (डबली लेबल्ड वाटर) वाला तरीका काफी मंहगा है। इस तरीके में प्रतिभागियों को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के विशिष्ट समस्थानिक युक्त ‘भारी’ पानी एक हफ्ते या उससे अधिक समय तक पिलाया जाता है। इस दौरान हर 24 घंटे के अंतराल में उनके मूत्र, रक्त और लार में इन ‘समस्थानिकों’ की मात्रा को मापकर पता लगाया जाता है कि एक दिन में किसी व्यक्ति ने औसतन कितनी ऊर्जा खर्च की।

हालिया अध्ययन में ड्यूक युनिवर्सिटी के वैकासिक जीव विज्ञानी हरमन पोंटज़र और उनके साथियों ने 29 देशों में 6421 लोगों पर हुए दोहरे चिंहाकित पानी अध्ययनों के परिणामों का एक डैटाबेस तैयार किया। ये अध्ययन 8 दिन की उम्र के शिशु से लेकर 95 साल के व्यक्तियों पर किए गए थे। फिर उन्होंने इस डैटा से प्रत्येक व्यक्ति के लिए दैनिक चयापचय दर की गणना की, और फिर इसे शरीर के आकार व द्रव्यमान और अंग के आकार के हिसाब से समायोजित किया। अंगों के महीन ऊतक वसा ऊतकों की तुलना में अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं, और वयस्कों की तुलना में बच्चों के अंगों का द्रव्यमान उनके बाकी शरीर के द्रव्यमान की तुलना में अधिक होता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि जन्म के समय तो शिशुओं की चयापचय दर उनकी माताओं की चयापचय दर के समान होती है। लेकिन 9 से 15 महीने के बीच शिशुओं की कोशिकाओं में बदलाव होते हैं जिनके चलते वे तेज़ी से ऊर्जा खर्च करने लगती हैं।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार पांच वर्ष की आयु तक बच्चों की चयापचय दर उच्च रहती है, फिर 20 वर्ष की आयु तक इसमें धीरे-धीरे कमी आती है और फिर यह स्थिर हो जाती है। यह स्थिर दर 60 वर्ष की आयु तक बनी रहती है और इसके बाद फिर से यह घटने लगती है। देखा गया कि 90 से अधिक उम्र के व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 26 प्रतिशत कम ऊर्जा उपयोग करते हैं।

यह तो जानी-मानी बात है कि गर्भवती महिलाएं अधिक कैलोरी खर्च करती हैं। लेकिन अध्ययन में पाया गया कि गर्भवती महिलाओं की चयापचय दर अन्य वयस्कों से अधिक नहीं होती। गर्भवती महिलाएं अधिक ऊर्जा और कैलोरी खपाती हैं क्योंकि उनके शरीर का आकार बढ़ जाता है। इसी तरह बढ़ते किशोरों की भी चयापचय दर नहीं बढ़ती, जबकि ऐसा लगता था कि बच्चे किशोरावस्था में अधिक कैलोरी खर्च करते हैं। 30-40 की उम्र में लोग अक्सर सुस्ती महसूस करते हैं; और रजोनिवृत्ति के समय तो महिलाओं को और अधिक सुस्ती लगती है। लेकिन इस समय भी चयापचय दर नहीं बदलती। हारमोन्स में परिवर्तन, तनाव, बीमारी, वृद्धि और गतिविधि के स्तर में बदलाव भूख, ऊर्जा और शरीर के वज़न को प्रभावित करते हैं।

शोधकर्ता है बताते हैं कि शिशुओं में चयापचय दर अधिक होती है क्योंकि संभवत: उनके मस्तिष्क, अन्य अंग या प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में बहुत अधिक ऊर्जा खर्च होती है। और वृद्ध लोगों में यह कम हो जाती है क्योंकि उनके अंग सिकुड़ जाते हैं और उनके मस्तिष्क का ग्रे मैटर कम होने लगता है।

बच्चों का बढ़ता दिमाग बहुत ऊर्जा खपाता है। इस तर्क को मजबूती 2014 में हुआ एक अन्य अध्ययन देता है, जिसमें पाया गया था कि छोटे बच्चों में पूरे शरीर द्वारा उपयोग की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 43 प्रतिशत ऊर्जा का उपभोग मस्तिष्क करता है।

यह अध्ययन सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है: इस तरह के आंकड़ों से यह पता लगाया जा सकता है कि शिशुओं, गर्भवती महिलाओं और वृद्ध जनों को कितनी कैलोरी की ज़रूरत है, और उन्हें दवा की कितनी खुराकें दी जाएं। इसके अलावा, हो सकता है कि कुपोषित बच्चों को हमारे पूर्वानुमान की तुलना में अधिक भोजन की आवश्यकता हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिला चिकित्सा शोधकर्ताओं को कम मान्यता

हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि महिला शोधकर्ताओं द्वारा शीर्ष चिकित्सा जर्नल्स में प्रकाशित किए गए काम को पुरुष शोधकर्ता द्वारा प्रकाशित किए गए उसी गुणवत्ता के काम की तुलना में काफी कम उल्लेख मिलते हैं।

JAMA नेटवर्क ओपन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे शीर्ष चिकित्सा पत्रिकाओं में वर्ष 2015 और 2018 के बीच प्रकाशित 5,500 से अधिक शोधपत्रों के उल्लेख डैटा के विश्लेषण के आधार पर निकाले गए हैं। ‘उल्लेख’ से आशय है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य शोधपत्रों में किया गया।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि अन्य विषयों में पुरुष लेखकों के आलेखों को महिला लेखकों के आलेखों की तुलना में अधिक उल्लेख मिलते हैं। कुछ लोगों का तर्क रहा है कि इसका कारण है कि पुरुष शोधकर्ताओं का काम अधिक गुणवत्तापूर्ण और अधिक प्रभावी होता है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय की पाउला चटर्जी इसे परखना चाहती थीं। उन्होंने देखा था कि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बावजूद भी महिलाओं के काम को पुरुषों के समतुल्य काम की तुलना में कम उल्लेख मिले थे। इसलिए चटर्जी और उनके साथियों ने 6 जर्नल्स में प्रकाशित 5554 लेखों का विश्लेषण किया – एनल्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन, ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन-इंटर्नल मेडिसिन और दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन। उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस की मदद से प्रत्येक शोधपत्र के प्रथम और वरिष्ठ लेखकों के लिंग की पहचान की। उन्होंने पाया कि इन शोधपत्रों में सिर्फ 36 प्रतिशत प्रथम लेखक महिला और 26 प्रतिशत वरिष्ठ लेखक महिला थीं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक शोधपत्र को मिले उल्लेखों की संख्या का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि जिन शोधपत्रों की प्रथम लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को पुरुष प्रथम लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक तिहाई कम उल्लेख मिले थे; जिन शोधपत्रों की वरिष्ठ लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को पुरुष वरिष्ठ लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक-चौथाई कम उल्लेख मिले थे। और तो और, जिन शोधपत्रों में प्राथमिक और वरिष्ठ दोनों लेखक महिलाए थीं, उन्हें दोनों लेखक पुरुष वाले शोधपत्रों की तुलना में आधे ही उल्लेख मिले थे।

ये निष्कर्ष महिला शोधकर्ताओं की करियर प्रगति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। माना जाता है कि किसी शोधपत्र को जितने अधिक उल्लेख मिलते हैं वह उतना ही महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय और वित्तदाता अक्सर शोध के लिए वित्त या अनुदान देते समय, या नियुक्ति और प्रमोशन के समय भी उल्लेखों को महत्व देते हैं।

चटर्जी को लगता है कि ये पूर्वाग्रह इरादतन हैं। और इस असमानता का सबसे संभावित कारण है कि चिकित्सा क्षेत्र में पुरुष और महिलाएं असमान रूप से नज़र आते हैं। जैसे, वैज्ञानिक और चिकित्सा सम्मेलनों में वक्ता के तौर पर पुरुष शोधकर्ताओं को समकक्ष महिला शोधकर्ताओं की तुलना में अधिक आमंत्रित जाता है। सोशल मीडिया पर पुरुष शोधकर्ता समकक्ष महिला शोधकर्ता की तुलना में खुद के काम को अधिक बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, महिला शोधकर्ताओं का पुरुषों की तुलना में पेशेवर सामाजिक नेटवर्क छोटा होता है। नतीजतन, जब उल्लेख की बारी आती है तो पुरुष लेखकों काम याद रहने या सामने आने की संभावना बढ़ जाती है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें और भी कई कारक भूमिका निभाते हैं। जैसे, महिलाओं की तुलना में पुरुष शोधकर्ता स्वयं के शोधपत्रों का हवाला अधिक देते हैं। 2019 में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि पुरुष लेखक अपने काम के लिए ‘नवीन’ और ‘आशाजनक’ जैसे विशेषणों का उपयोग ज़्यादा करते हैं, जिससे अन्य शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेख संभावना बढ़ जाती है।

इसके अलावा, अदृश्य पूर्वाग्रह की भी भूमिका है। जैसे, लोग महिला वक्ता को सुनने के लिए कम जाते हैं, या उनके काम को कमतर महत्व देते हैं। जिसका मतलब है कि वे अपना शोधपत्र तैयार करते समय महिलाओं के काम को याद नहीं करते। इसके अलावा, पत्रिकाएं और संस्थान भी महिला लेखकों के काम को बढ़ावा देने के लिए उतने संसाधन नहीं लगाते। एक शोध में पाया गया था कि चिकित्सा संगठनों के न्यूज़लेटर्स में महिला वैज्ञानिकों के काम का उल्लेख कम किया जाता है या उन्हें कम मान्यता दी जाती है। इसी कारण महिलाएं इन क्षेत्रों में कम दिखती हैं।

अगर महिलाओं के उच्च गुणवत्ता वाले काम का ज़िक्र कम किया जाता है, तो यह लैंगिक असमानता को आगे बढ़ाता है। जिनके काम को बढ़ावा मिलेगा, वे अपने क्षेत्र के अग्रणी बनेंगे यानी उनके काम को अन्य की तुलना में अधिक उद्धृत किया जाएगा और यह दुष्चक्र ऐसे ही चलता रहेगा।

इस स्थिति से उबरने के लिए चिकित्सा संगठनों द्वारा सम्मेलनों में महिला वक्ताओं को आमंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा फंडिंग एजेंसियां यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि स्त्री रोग जैसे जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय रूप से महिला शोधकर्ता अधिक हैं उनमें उतना ही वित्त मिले जितना पुरुषों की अधिकता वाले क्षेत्रों में मिलता है।

खुशी की बात है कि चिकित्सा प्रकाशन में लैंगिक अंतर कम हो रहा है। 1994-2014 के दरम्यान चिकित्सा पत्रिकाओं में महिला प्रमुख शोध पत्रों का प्रतिशत 27 से बढ़कर 37 हो गया। सम्मेलनों में भी महिला वक्ता अधिक दिखने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खाद्य वस्तुओं का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन – सोमेश केलकर

भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने देश में पैकेज्ड खाद्य तेल, दूध और अनाज के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन की योजना बनाई है। फोर्टिफिकेशन यानी किसी खाद्य पदार्थ में अतिरिक्त पोषक तत्व मिलाना – सामान्यत: ऐसे पोषक तत्व जो उस खाद्य में अनुपस्थित होते हैं। केंद्र सरकार ने फोर्टिफिकेशन को पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के लिए किफायती और वहनीय प्रणाली माना है। खाद्य तेल, अनाज और दूध की पहुंच भारत के 99 प्रतिशत घरों तक है। FSSAI का उद्देश्य उपरोक्त खाद्य पदार्थों को अनिवार्य रूप से फोर्टिफाय करना है ताकि अधिक से अधिक लोगों तक आवश्यक पौष्टिक तत्व पहुंच सकें। इन उत्पादों की पहचान आसान बनाने के लिए एक लोगो भी जारी किया जाएगा। कहा जा रहा है कि इस रणनीति से कुपोषण पर अंकुश लगेगा और दैनिक ज़रूरत (आरडीए) भी पूरी होगी।

गौरतलब है कि पिछले निर्णयों में किसी भी कंपनी को अपने उत्पादों को फोर्टिफाय करने के लिए बाध्य नहीं किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक लगभग 47 प्रतिशत शोधित (रिफाइंड) पैकेज्ड तेल फोर्टिफाइड हैं। इस रणनीति को लागू करने के लिए विभिन्न हितधारकों के साथ विचार-विमर्श चल रहा है।

पैकेज्ड खाद्य तेल

FSSAI का दावा है कि खाद्य तेल को फोर्टिफाय करने की तकनीक आसानी से उपलब्ध है। इसके अलावा, FSSAI मुख्यालय के पास इस बारे में सहायता प्रदान करने के लिए एक समर्पित टीम भी है। टाटा और ग्लोबल अलायन्स फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (GAIN) जैसे कई संगठनों ने तो पहले से ही खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन के लिए कार्यक्रम विकसित कर लिए हैं।

FSSAI का यह भी दावा है कि भारत में आहार के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के स्रोत सीमित हैं और भारतीय नागरिक अपने दैनिक आहार में विविधता लाकर भी विटामिन डी की आवश्यकता को पूरा करने में असमर्थ हैं। इसके अलावा, भारत में विटामिन ए की कमी भी काफी व्यापक है। इसलिए तेल का फोर्टिफिकेशन आवश्यक है। भारत के दो राज्यों, राजस्थान और हरियाणा, ने पहले ही तेल का फोर्टिफिकेशन अनिवार्य कर दिया है।

GAIN की रिपोर्ट बताती है कि भारत की

– 80 प्रतिशत जनसंख्या दैनिक ज़रूरत का 50 प्रतिशत से कम का उपभोग करती है।

– 50-90 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन डी की कमी से पीड़ित है।

– 61.8 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन ए की गैर-लाक्षणिक कमी झेलती है।

खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन का प्रस्ताव कई अन्य देशों में अपनाया जा चुका है। मोरक्को, तंज़ानिया, मोज़ांबिक, बोलीविया और नाइजीरिया सहित 27 देशों में फोर्टिफाइड पैकेज्ड खाद्य तेल अनिवार्य है।

दूध व दुग्ध उत्पाद

दूसरे चरण में FSSAI अनिवार्य दुग्ध फोर्टिफिकेशन की योजना बना रहा है। इस योजना के तहत विभिन्न दुग्ध सहकारी समितियों (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड, अमूल, मदर डेयरी आदि) को फोर्टिफाइड दूध बेचना होगा। फिलहाल अमेरिका, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, फिनलैंड, स्वीडन, थाईलैंड, कोस्टा रिका और मलेशिया सहित 14 देशों में फोर्टिफाइड दूध अनिवार्य किया गया है।

विटामिन ए और डी

विटामिन ए और विटामिन डी दोनों ही मानव शरीर के लिए अनिवार्य हैं। इसलिए खाद्य तेल और दूध का फोर्टिफिकेशन पूरी जनसंख्या के लिए फायदेमंद होगा। पूर्व में, FSSAI ने इसके लिए मानक और दिशानिर्देश जारी किए थे और फोर्टिफाइड उत्पादों की आसानी से पहचान के लिए लोगो भी जारी किया था।

कई नामी-गिरामी कंपनियां खाद्य (दूध, तेल और अनाज) फोर्टिफिकेशन तकनीकों को अपनाने और लागू करने के लिए उत्सुक हैं। केंद्र सरकार भी मध्यान्ह भोजन योजना के माध्यम से फोर्टिफिकेशन के लिए सहायता प्रदान करती है। FSSAI चावल, गेहूं और नमक जैसे प्रमुख खाद्यों के फोर्टिफिकेशन पर भी विचार कर रहा है।

FSSAI का तर्क

FSSAI की निदेशक इनोशी शर्मा के अनुसार, नए FSSAI नियमों के बाद खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में पोषक मिलाए जा सकेंगे जिससे दैनिक अनुशंसित मात्रा के 20-50 प्रतिशत के बीच पूर्ति हो सकेगी। यह अनिवार्यता खाद्य तेल, दूध, चावल और अन्य अनाजों के क्षेत्र में काम करने वाली सभी खाद्य एवं पेय कंपनियों पर लागू होगी।

फूड नेविगेटर एशिया ने इनोशी शर्मा से संपर्क करके इस फोर्टिफिकेशन नीति के बारे में उनके विचार तथा संभावित विरोध को लेकर चर्चा की थी। इनोशी शर्मा का कहना था कि कई बड़े निर्माता तो पहले से ही फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर रहे हैं; रह जाती हैं छोटी कंपनियां। तो ज़्यादा विरोध की संभावना नहीं है।

उन्होंने यह भी बताया कि वैसे भी FSSAI के पास साझेदारों का एक विस्तृत नेटवर्क और पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध हैं जिससे इन परिवर्तनों को अपनाने वाली कंपनियों की सहायता की जा सके। इस निर्णय में उपभोक्ताओं का समर्थन हासिल करने और सप्लाय चेन पर इसके प्रभाव के बारे में शर्मा का कहना है कि सप्लाय चेन को आसान बनाना महत्वपूर्ण होगा। निर्माता, वितरक और खुदरा विक्रेता फोर्टिफाइड उत्पादों को बाज़ार में उतारेंगे तो उपभोक्ताओं को तैयार करना करना आसान होगा। उपभोक्ता को जागरूक करना एक मुख्य कार्य होगा।

फोर्टिफिकेशन के लिए +F

इनोशी शर्मा का यह भी कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से प्रदान किए जाने वाले चावल, गेहूं और नमक पर पहले से ही फोर्टिफिकेशन अनिवार्य किया हुआ है। खुले बाज़ार के लिए इसे लागू नहीं किया गया है। जब उनसे अनाजों के फोर्टिफिकेशन से किसानों पर पड़ने वाले प्रभाव और भविष्य में कृषि क्षेत्र में FSSAI की योजना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वर्ष 2018 से इन नियमों को सार्वजनिक प्रणालियों में अनिवार्य कर दिया गया है। आने वाले समय में भी सरकार किसानों तथा उत्पादकों से चावल और गेहूं की खरीद करेगी और पिसाई एवं प्रसंस्करण के दौरान इनको फोर्टिफाय किया जाएगा।

हालांकि इस आदेश को खुले बाज़ार में अनिवार्य नहीं किया गया है लेकिन कुछ फोर्टिफाइड उत्पाद पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं। शर्मा के अनुसार इस विषय में बड़े निर्माताओं को तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ बड़े चावल मिल-मालिकों से संपर्क किया गया है और गेहूं मिल के मालिकों से भी चर्चा की जाएगी।

FSSAI के द्वारा एक ‘+F’ नामक ब्रांड लेबल भी शुरू करने की योजना है जिससे उपभोक्ताओं को फोर्टिफाइड उत्पादों की जानकारी मिल सकेगी और वे ऐसे खाद्य पदार्थों को अपने आहार में शामिल कर सकेंगे। FSSAI अपनी वेबसाइट पर ऐसे उत्पादों के नाम प्रकाशित कर उनकी सहायता करेगा।

देश में फोर्टिफिकेशन की आवश्यकता और आहार विविधिकरण के माध्यम से पोषण को सुदृढ़ बनाने के सवाल पर इनोशी शर्मा का मानना है कि देश की वर्तमान परिस्थितियों में खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन काफी महत्वपूर्ण है। पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि भारत की एक बड़ी आबादी, विशेष रूप से महिलाओं और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों, में खून की कमी है। यानी वे लौह न्यूनता से तो पीड़ित हैं ही, साथ ही विटामिन की कमी भी निरंतर बढ़ती जा रही है।

उनका कहना है कि पश्चिमी देशों के कई खाद्य पदार्थ फोर्टिफाइड होते हैं इसलिए वहां ऐसी समस्याएं कम होती हैं। भारत में ऐसे खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और उन तक पहुंच के साथ-साथ उपभोक्ता की पसंद का मुद्दा भी काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए चावल, गेहूं जैसे खाद्यान्नों को फोर्टिफाय करने पर ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि इनके माध्यम से आवश्यक पोषक तत्व आसानी से लोगों तक पहुंचाए जा सकते हैं।

सवाल भी हैं

अब तक की चर्चा से प्रतीत होता है कि भारत में कुपोषण की समस्या से लड़ने के लिए खाद्य पदार्थों का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन ही एकमात्र उपाय है। लेकिन मामला उतना भी आसान नहीं है जितना इसको बताया जा रहा है। खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन से सम्बंधित कई मूलभूत समस्याएं हैं जिनको FSSAI अनदेखा कर रहा है। इसके साथ ही खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन कई कंपनियों के लिए भारी मुनाफा कमाने का भी ज़रिया है। ऐसा पहले भी देखा गया है – नमक में आयोडीन मिलाने को अनिवार्य करने पर नमक की कीमतों में भारी वृद्धि हुई थी। फोर्टिफिकेशन तकनीकों को प्राप्त और लागू करने में सक्षम बड़ी कंपनियों के पक्ष में लिया गया यह निर्णय शंका पैदा करता है कि जन कल्याण की आड़ में एक बड़ा खेल खेला जा रहा है। 

खाद्य तेलों और चावल के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन पर विभिन्न खाद्य सुरक्षा कार्यकर्ताओं ने FSSAI को पत्र लिखा था जिसमें आम लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका के बारे में कई चिंताएं प्रस्तुत की गई थी। पत्र में निम्नलिखित चिंताओं पर चर्चा की गई थी:

– भारत में संतुलित आहार के अभाव में एक या दो कृत्रिम खनिज पदार्थों का फोर्टिफिकेशन करना खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना सकता है जिससे कुपोषित आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, आयरन फोर्टिफिकेशन से कुपोषित बच्चों की आंत में सूजन हो सकती है।

– FSSAI द्वारा कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए पिछले पत्र में बताया गया था कि प्रमुख खाद्यान्नों में जोड़े गए सूक्ष्म पोषक तत्वों को 30-50 प्रतिशत दैनिक अनुशंसित ज़रूरत (आरडीए) प्रदान करने के हिसाब से समायोजित किया गया है। इसके जवाब में कार्यकर्ताओं का कहना है कि अल्पपोषित आबादी पर लागू करने के लिए आरडीए प्रणाली की कुछ सीमाएं हैं। आरडीए की गणना तभी की जाती है जब अन्य सभी पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी हो रही हो। ऐसे में, प्रोटीन व कैलोरी की कमी से पीड़ित आबादी के लिए आरडीए लागू नहीं किया जा सकता है।

– कुपोषित जनसंख्या में सिर्फ एक विशेष पोषक तत्व की कमी नहीं होती बल्कि कई पोषक तत्वों की मिली-जुली कमी होती है। इसलिए सूक्ष्म पोषक तत्वों को शामिल करने के लिए आरडीए का हवाला देते हुए अनिवार्य फोर्टिफिकेशन का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक स्थूल पोषक तत्वों की कमी को ध्यान में नहीं रखा गया हो। उदाहरण के लिए – हीमोग्लोबिन संश्लेषण के लिए न केवल आयरन बल्कि अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन्स और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व (जैसे विटामिन ए, सी, ई, बी2, बी6, बी12, फोलेट, मैग्नीशियम, सेलेनियम, ज़िंक आदि) की आवश्यकता होती है।

– इन कार्यकर्ताओं द्वारा फोर्टिफिकेशन की प्रभाविता से सम्बंधित एक और तर्क दिया गया है। उन्होंने आईसीएमआर, एम्स और स्वास्थ्य मंत्रालय के विशेषज्ञों द्वारा वर्ष 2021 में जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित एक अध्ययन का हवाला दिया है। इसमें चावल खाने वाले देशों में किए गए व्यापक विश्लेषण से पता चला है फोर्टिफिकेशन से जनसंख्या में उस विशिष्ट न्यूनता में कोई विशेष अंतर देखने को नहीं मिला है।

– पत्र में कार्यकर्ताओं ने भारत में उच्च स्तर की कार्बोहायड्रेट खपत की ओर ध्यान आकर्षित किया है जो मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग जैसी बीमारियों से सम्बंधित है। ऐसे में अनाजों का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन एक गलत निर्णय सिद्ध हो सकता है क्योंकि यह पोषक तत्वों से भरपूर अनाजों पर अधिक निर्भरता पैदा करेगा।

कुपोषण से सम्बंधित रिपोर्ट देखें तो अक्सर विरोधाभासी निष्कर्ष मिलते हैं। इसलिए विटामिन और खनिज तत्वों की अल्पता के बारे में एक आम सहमति का अभाव है। यह तो स्पष्ट है कि भारत के विभिन्न राज्यों में विटामिन और खनिज पदार्थों की कमी की स्थिति अलग-अलग है, इसलिए इससे निपटने के लिए देश भर में एकरूप प्रणाली की बजाय अधिक विविधतापूर्ण और स्थानीय समाधानों की ज़रूरत है। FSSAI के निरूपण से पता चलता है कि वह अवसरवादी ढंग से विरोधाभासी साक्ष्यों का उपयोग कर रहा है ताकि कुपोषण के मुद्दे को समग्रता से सम्बोधित करने की बजाय कृषि-कारोबार से निकले टुकड़ा-टुकड़ा समाधानों की आड़ ले सके।        

स्थानीय अर्थव्यवस्था और आजीविका

खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन से कृषि व्यवसाय के अंतर्गत अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले छोटे किसानों और कम आय वाले उपभोक्ताओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

आम तौर पर किसानों के पास अपनी उपज को फोर्टिफाय करने के लिए आवश्यक साधन और तकनीकें नहीं होती है। ऐसे में किसान और भारतीय खाद्य निर्माता तो आवश्यक वस्तुओं के लिए कच्चा माल प्रदान करेंगे जबकि सूक्ष्म-पोषक तत्व और प्रौद्योगिकी तथा फोर्टिफिकेशन के साधन अंतर्राष्ट्रीय बिज़नेस द्वारा प्रदान किए जाएंगे। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया में सूक्ष्म पोषक तत्वों या अंतिम उत्पाद के मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए न तो मूल्य-नियंत्रण तंत्र की कोई चर्चा की गई है और न ही छोटे भारतीय उत्पादकों द्वारा मंडियों के बाहर अपना माल बेचने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया गया है।

एक और समस्या है जिस पर FSSAI ने विचार नहीं किया है। इस आदेश से सूक्ष्म पोषक तत्वों के आपूर्तिकर्ताओं को सामूहिक रूप से कीमतों में वृद्धि करने के लिए अनौपचारिक उत्पादक संघ (कार्टल) बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा जिससे उपभोक्ताओं को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। ऐसे कार्टल बने तो फोर्टिफिकेशन का उद्देश्य विफल हो जाएगा। जिन देशों में इस तरह के नियम लाए गए हैं, वहां इस तरह के व्यवहार देखे जा चुके हैं और कुछ देशों में तो अनुचित बाज़ार प्रथाओं के लिए कंपनियों पर भारी जुर्माना भी लगाया गया है। FSSAI को कोई भी आदेश जारी करने से पूर्व वस्तुओं के मूल्य विनियमन के सवाल पर गंभीरता से विचार करना होगा। फोर्टिफिकेशन से बाज़ार में औपचारिक खिलाड़ियों की हिस्सेदारी में वृद्धि हो सकती है और अनौपचारिक लोगों की हिस्सेदारी में कमी आ सकती है।

कार्यकर्ताओं ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि पंजाब और हरियाणा के राइस मिलर्स एसोसिएशन्स मार्च 2021 से ही चावल के फोर्टिफिकेशन के नए मानदंडों का विरोध कर रहे हैं और एफसीआई को इन मानदंडों में ढील देने के लिए मजबूर करने में कामयाब भी रहे हैं।

अध्ययनों की दिक्कतें

FSSAI ने फोर्टिफिकेशन को एक अच्छा विचार बताने के लिए जिस अध्ययन का हवाला दिया है, वह नेस्ले न्यूट्रीशन इंस्टिट्यूट द्वारा वित्तपोषित है और ग्लोबल अलायन्स फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (गैन) के सदस्यों द्वारा लिखा गया है। यह काफी चिंताजनक है। इन दोनों संस्थाओं के निहित स्वार्थ किसी से छिपे नहीं हैं।

इस विषय में अधिक स्वतंत्र अध्ययनों की तत्काल आवश्यकता है। 

फोर्टिफिकेशन ज़रूरी है?

ऐसा प्रतीत होता है कि FSSAI अनिवार्य फोर्टिफिकेशन को किफायती और कुपोषण से लड़ने के उपाय के रूप में धकेल रहा है लेकिन यह काफी दिलचस्प है कि FSSAI उतना ही प्रयास आहार विविधिकरण के लिए नहीं कर रहा है। इसका कारण यह है कि आहार विविधिकरण से बड़ी कंपनियों को लाभ मिलने की बहुत कम संभावना है।

वास्तव में आहार विविधिकरण फोर्टिफिकेशन की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि फोर्टिफिकेशन अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करने का एक कृत्रिम तरीका है जबकि आहार विविधिकरण से शरीर को प्राकृतिक तरीकों से पोषण प्राप्त करने की अनुमति मिलती है। लेकिन, FSSAI का ‘ईट राइट इंडिया’ अभियान आहार विविधिकरण की बजाय फोर्टिफिकेशन पर अधिक ज़ोर देता लग रहा है।

एक सत्य तो यह भी है कि फोर्टिफिकेशन से अपरिवर्तनीय और हानिकारक परिणाम हो सकते हैं फिर भी हम अधिक लागतक्षम विकल्प की तलाश नहीं कर पा रहे हैं। FSSAI का दावा है कि फोर्टिफिकेशन एक लागतक्षम उपाय है लेकिन वास्तव में इसके दीर्घकालिक स्थायी प्रभाव होंगे जिनमें कॉर्पोरेट शक्ति में वृद्धि भी शामिल है।

फोर्टिफिकेशन का एक और चिंताजनक दीर्घकालिक प्रभाव यह भी है इसकी वजह से पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर निर्भरता बढ़ेगी और स्थानीय खाद्य पदार्थों, उनकी उत्पादन प्रणाली और खानपान की प्रथाओं से ध्यान हटेगा। पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर बड़े और विविध समुदायों की निर्भरता का मतलब कॉर्पोरेट खिलाड़ियों के लिए आय का एक बड़ा स्रोत है जिनकी कीमतों में वृद्धि करने में वे संकोच नहीं करेंगे। यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या सरकार अल्पता की समस्या के समाधान के बाद फोर्टिफिकेशन और उसके परिणामों को उलटने में सक्षम होगी। क्या सरकार अनाजों पर इस कृत्रिम निर्भरता को पलट पाएगी?

निष्कर्ष और समाधान

यह तो स्पष्ट है कि फोर्टिफिकेशन वास्तव में बड़ी कंपनियों को लाभान्वित करने की एक योजना है जो वर्तमान पारंपरिक कृषि व्यवसाय की कम कीमतों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं। फोर्टिफिकेशन के आदेश का मुख्य उद्देश्य वास्तव में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मौके प्रदान करना है।

भारत में कुपोषण से लड़ने के बहुत सारे समाधान हैं जिनमें आहार का स्थानीयकरण पोषण प्रदान करने के हिसाब से पहला सबसे महत्वपूर्ण कदम होना चाहिए। देश भर में एकरूप अनाज को बढ़ावा देने की बजाय, विभिन्न क्षेत्रों में भोजन की ऐसी उपयुक्त किस्मों को बढ़ावा दिया जाए तो अधिक प्रभावी होगा जो प्राकृतिक रूप से विटामिन और खाद्य खनिजों से भरपूर होते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे पास आयरन से भरपूर (20-300 पीपीएम) चावल की 68 देसी किस्में हैं, ऐसे में पॉलिश किए गए चावलों को फोर्टिफाय करने की बजाय देसी किस्मों को बढ़ावा देना बेहतर होगा।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर पशु खाद्य पदार्थ जैसे अंडे, मांस, डेयरी, मछली और यहां तक कि कीड़े हैं जिनको भारत के कई भागों में भोजन के तौर पर खाया जाता है। इन्हें बढ़ावा देने की बजाय सरकार फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा दे रही है जो स्पष्ट रूप से कॉर्पोरेट-हितैषी है।

एक अन्य उपाय के तहत पॉलिशिंग, प्रसंस्करण और परिष्करण को कम करके, विशेष रूप से चावल और तेल में, पोषण तत्वों में वृद्धि की जा सकती है। सरकार को फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा देने की बजाय इन उपायों के प्रति भेदभाव रहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

सरकार को ऐसा रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्थानीय खाद्य प्रणालियों जैसे पशु खाद्य स्रोत, दालों, बाजरा, सब्ज़ियों, फलियों आदि में निवेश को बढ़ावा मिले और स्थानीय खाद्य उत्पादन के साथ-साथ स्थानीय आजीविका में भी सुधार हो सके। इसकी बजाय प्रस्तावित नीति विरोधाभासी साक्ष्यों और हितों के टकराव में विश्वास रखती है। ऐसी नीतियां पोषण की समस्या को सिर्फ कुछ कृत्रिम तत्व जोड़कर विराम दे देती हैं जबकि ज़रूरत समग्रता से पोषण पर विचार करने की है और फोर्टिफिकेशन इसका उपाय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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