वायु गुणवत्ता के नए दिशानिर्देश

र साल लगभग 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण मारे जाते हैं। इनमें से अधिकांश वे लोग हैं जो निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं। वायु प्रदूषण के कारण क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज़ (सीओपीडी), हृदय रोग, फेफड़े के कैंसर, निमोनिया और स्ट्रोक का जोखिम रहता है। गत 22 सितंबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वायु गुणवत्ता के लिए नए वैश्विक दिशानिर्देश जारी किए। इनमें प्रमुख प्रदूषकों की सांद्रता के नए स्तर के साथ-साथ अंतरिम तौर पर कुछ नए प्रदूषकों के स्तर भी सुझाए हैं। इसके अलावा, कुछ तरह के कणीय पदार्थ (जैसे ब्लैक कार्बन) के नियंत्रण के लिए भी अच्छे कामकाज की अनुशंसाएं जारी की हैं क्योंकि इनके मानक तय करने के लिए फिलहाल पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं।

डब्ल्यूएचओ ने पिछले वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश 2005 में जारी किए थे। तब से, वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रमाणों में काफी वृद्धि हुई है। दिशानिर्देश विकसित करने वाले समूह के एक सदस्य माइकल ब्रावर के मुताबिक पूर्व में दिशानिर्देश उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी युरोप में हुए अध्ययनों से प्राप्त डैटा पर बहुत अधिक निर्भर थे और इन्हें पूरी दुनिया के लिए लागू किया गया था लेकिन अब हमारे पास निम्न और मध्यम आय वाले क्षेत्रों का भी काफी डैटा है। इसके अलावा, आज वायु प्रदूषकों के स्तर और रुझानों को मापने और उनके जोखिम का आकलन करने के बेहतर तरीके हैं, और वैश्विक स्तर पर कुछ वायु प्रदूषकों के आबादी से संपर्क के बारे में बेहतर जानकारी है। अध्ययनों में पता चला है कि वायु प्रदूषण का बहुत कम स्तर भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

2021 के दिशानिर्देशों में लगभग हर प्रदूषक के लिए 2005 में जारी किए गए स्वीकार्य स्तर से बहुत कम स्तर की सिफारिश की गई है। वर्तमान सिफारिश में, 2.5 माइक्रोमीटर व्यास (पीएम2.5) के या उससे छोटे कणीय पदार्थ के लिए औसत वार्षिक सीमा पिछली सीमा से आधी कर दी गई है। पीएम2.5 के कण र्इंधन जलने के कारण उत्पन्न होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक होते हैं। ये कण न सिर्फ फेफड़ों में भीतर तक जाते हैं बल्कि रक्तप्रवाह में भी प्रवेश कर सकते हैं।

नए दिशानिर्देशों में ज़हरीली गैस नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का स्तर भी पिछले स्तर से 75 प्रतिशत तक कम कर दिया गया है। ओज़ोन के लिए ग्रीष्मकालीन माध्य सांद्रता का स्तर भी जारी किया गया है। कार्बन मोनोऑक्साइड, पीएम10 और सल्फर डाईऑक्साइड के लिए संशोधित दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं।

डब्ल्यूएचओ का कहना है कि यदि नए दिशानिर्देशों को विश्व स्तर पर हासिल कर लिया जाता है तो पीएम2.5 के संपर्क में आने के कारण होने वाली मौतों की संख्या लगभग 80 प्रतिशत कम हो जाएगी। लेकिन दिल्ली अभी दूर है। वर्तमान में, विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी वर्ष 2005 में पीएम2.5 के लिए जारी किए गए स्तर से भी अधिक स्तर के संपर्क में है।

वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश वास्तव में सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए एक साधन (टूल) है। डब्ल्यूएचओ का देशों से आग्रह है कि इस साधन का उपयोग कर देश वायु प्रदूषण को कम करने वाली नीतियां तैयार करें/लागू करें। इसके अलावा, डब्ल्यूएचओ का आग्रह है कि सदस्य देश वायु गुणवत्ता निगरानी प्रणाली स्थापित करें, वायु गुणवत्ता सम्बंधी डैटा तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करें और डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों को कानूनी मानकों का रूप दें।

बर्मिंघम विश्वविद्यालय में पर्यावरण स्वास्थ्य के प्रोफेसर रॉय हैरिसन का कहना है कि दिशानिर्देश बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन इन्हें हासिल करना बेहद चुनौतीपूर्ण है, और इसकी संभावना बहुत कम है कि कई देश कई दशकों तक इन्हें हासिल कर पाएंगे। हालांकि कोविड-19 के दौरान के अनुभव से हम जानते हैं कि मोटर वाहनों की गतिविधि कम करने से वायु गुणवत्ता पर नाटकीय प्रभाव पड़ सकता है। वैश्विक स्तर पर यातायात में बहुत अधिक कमी होने की उम्मीद करना अवास्तविक है लेकिन वायु गुणवत्ता को कम करने के प्रयास में सड़क वाहनों का विद्युतीकरण किया जा सकता है।

हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुझाए गए नए स्तर से भी कम स्तर पर प्रदूषकों की उपस्थिति स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है। महत्वपूर्ण यह है हर साल जितना हो सके इस प्रदूषण से संपर्क को कम करने की दिशा में प्रयास किए जाएं, ताकि आबादी को स्वास्थ्य सम्बंधी उल्लेखनीय लाभ मिल सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फिलकॉक्सिया माइनेन्सिस: शिकारी भूमिगत पत्तियां – डॉ. किशोर पवार

चार्ल्स डार्विन ने 1875 में मांसाहारी पौधों पर एक किताब लिखी थी। तब से अब तक तकरीबन 10 कुलों में लगभग 20 मांसाहारी वंश (जीनस) पहचाने जा चुके हैं।

तो, कुछ पौधे मांसाहारी क्यों होते हैं? इस संदर्भ में लाभ और लागत की गणना के आधार पर एक मॉडल विकसित किया गया है। इसके अनुसार मांसाहारिता भली-भांति प्रकाशित, पोषक तत्वों की कमी और साल के कम से कुछ समय नम आवासों में ही पाई जाएगी। यहां नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम और अन्य पोषक तत्व अकशेरुकी जंतुओं के शिकार और पाचन से प्राप्त किए जाएंगे।

इस मॉडल में तेज़ प्रकाश की उपस्थिति और नमी की परिस्थितियों को इसलिए शामिल किया गया है क्योंकि मांसाहार अपनाने पर प्रकाश संश्लेषण गंवाने की जो लागत होगी उसकी भरपाई सूखे और छायादार स्थानों में होने की संभावना कम है। हाल ही में इस मॉडल को प्रकाश, नमी और सड़ते-गलते कार्बनिक पदार्थ (लिटर) के द्वारा पोषक तत्वों की उपलब्धता के बीच संतुलन के रूप में भी आगे बढ़ाया गया है। यह मॉडल  प्रकाश और नमी के काफी अलग-अलग आवासों में मांसाहारिता पाए जाने की व्याख्या करता है। अब आते हैं नए खोजे गए मांसाहारी पौधे फिलकॉक्सिया प्रजातियों पर।

फिलकॉक्सिया वंश में 3 प्रजातियां हैं और तीनों मात्र केंद्रीय ब्रााज़ील के सराडो बायोम के कैंपोस रूपेस्टरिस में ही मिलती हैं। यह परिसर जैव विविधता से सम्पन्न है और भली-भांति प्रकाशित  है और यहां चट्टानी मुंडेरें हैं। यहां पर हल्की सफेद रेत भी पाई जाती है और वर्षा मौसमी होती है।

लागत लाभ मॉडल के अनुसार ये परिस्थितियां मांसाहारिता के विकास के लिए अनुकूल हैं। एक अन्य मांसाहारी वंश जेनलीसिया भी यहां आम तौर पर पाया जाता है, जहां रेत पर पानी रिसता रहता है। हमारे देश में पचमढ़ी में भी ड्रॉसेरा और स्थलीय यूट्रीकुलेरिया जैसी  कीट भक्षी प्रजातियां ऐसे ही आवासों में सफेद रेत और रिसते पानी में उगते देखी जाती हैं।

फिलकॉक्सिया का मांसाहार

फिलकॉक्सिया में कई असामान्य लक्षण हैं। मसलन एक मायकोराइज़ा विहीन अल्पविकसित जड़ तंत्र, चम्मच के आकार की पत्तियां जो वृद्धि काल में मध्य शिरा पर अंदर की ओर मुड़ी होती हैं। गौरतलब है कि मायकोराइज़ा पेड़-पौधों की जड़ों और फफूंद का मेलजोल है और यह पौधों की वृद्धि में काफी सहायक होता है। फिलकॉक्सिया की पत्तियों की ऊपरी सतह पर चिपचिपा पदार्थ छोड़ने वाली ग्रंथियां होती हैं और पत्ती रहित पुष्पक्रम (स्केपोस) पाया जाता है। इसमें एक अनोखा लक्षण और पाया जाता है – वह है इसकी कई छोटी-छोटी पत्तियां जो 0.5 से 1.5 मिलीमीटर चौड़ी होती हैं और सफेद रेत के नीचे घुसी हुई पाई जाती हैं। इन पत्तियों पर उपस्थित ग्रंथियां एक चिपचिपा पदार्थ छोड़ती हैं जो रेत के कणों को इन पत्तियों की ऊपरी सतह पर कसकर बांधे रखता है।

क्या वाकई मांसाहारी है?

इस पौधे की खोज के बाद यह सवाल उठा कि क्या इसे मांसाहारी पौधा माना जाए।  किसी भी पौधे को मांसाहारी मानने के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी सतह पर लगे मृत जंतुओं से पोषक पदार्थ अवशोषित करने में समर्थ हो। उसमें कुछ अन्य प्राथमिक लक्षण  भी होना चाहिए – जैसे शिकार को आकर्षित करने का सक्रिय तरीका, शिकार को पकड़ने की युक्ति और उसका पाचन करने की क्षमता। इस संदर्भ में  फिलकॉक्सिया जहां उगता है उस जगह का पोषण-अभाव से ग्रस्त होने के अलावा हरबेरियम और वास्तविक परिस्थितियों से प्राप्त पौधों की पत्तियों पर निमेटोड कृमि पाए जाने ने इस परिकल्पना को जन्म दिया कि यह एक मांसाहारी पौधा है। कहा गया कि यह पौधा निमेटोड और अन्य कृमियों को अपनी पत्तियों पर उपस्थित ग्रंथियों से पकड़ता है और शिकार किए गए कृमियों का पाचन करके पोषक पदार्थों को अवशोषित करता है।

इस परिकल्पना का परीक्षण करने हेतु साओ पॉलो के कैगो जी. परेरा और उनके साथियों ने फिलकॉक्सिया की एक प्रजाति फिलकॉक्सिया निमेन्सिस को चुना और कीट को पचाने और उससे प्राप्त पोषक पदार्थों का अवशोषण करने की क्षमता का परीक्षण किया।

यह पता करने के लिए उन्होंने पत्तियों को ऐसे कृमि दिए जिनमें नाइट्रोजन के एक समस्थानिक (ग़्15) का समावेश किया गया था। परीक्षण से पता चला कि मात्र 24 घंटों के अंदर पत्तियों में 5 प्रतिशत नाइट्रोजन कृमि से आई थी। 48 घंटे बाद तो 15 प्रतिशत नाइट्रोजन कृमि से प्राप्त थी। इससे स्पष्ट होता है कि कृमियों के प्राकृतिक विघटन से मुक्त नाइट्रोजन का अवशोषण नहीं किया गया था बल्कि पत्तियों द्वारा कृमियों को पचाकर उनके पोषक पदार्थों का अवशोषण किया गया था। और वह भी अन्य मांसाहारी पौधों की तुलना में अधिक तेज़ी से।

ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक अधिकांश मांसाहारी पौधों की पत्तियों पर उपस्थित रुाावी ग्रंथियों पर फॉस्फेटेज़ एंज़ाइम की सक्रियता अधिक पाई जाती है। शोध दल ने पाया कि फिलकॉक्सिया की पत्तियों पर फॉस्फेटेज़ सक्रियता अधिक थी जिससे पता चलता है कि कृमियों का पाचन किया गया है ना कि सूक्ष्म जीवों द्वारा उनका विघटन होने से पोषक पदार्थ पत्तियों में पहुंचे हैं। साथ ही पत्तियों पर पाए गए सभी कृमि मृत थे जो इस बात का प्रमाण है कि वे न तो यहां से भोजन पा रहे थे, और ना ही प्रजनन कर रहे थे।

आम तौर पर माना जाता है कि पौधों द्वारा शिकार कर पोषक पदार्थ हासिल करना सबसे किफायती तरीका नहीं है। यह इस बात से भी साबित होता है कि फूलधारी पौधों में मात्र 0.2 प्रतिशत मांसाहारी हैं। अलबत्ता, ऐसा लगता है कि यह वास्तविक संख्या से बहुत कम आंका गया है क्योंकि कुछ संभावित प्रजातियों (जैसे जीरेनियम,  डिप्सेकस, पेटुनिया और पोटेंटिला) पर  कुछ प्रारंभिक परीक्षण ही हुए हैं। कुछ अन्य मामलों में मांसाहारिता छुपी हुई हो सकती है क्योंकि वे शायद सूक्ष्म जीवों का शिकार करते हों, उन तक पहुंचना मुश्किल होता है, या कोई ऐसी विधि हो सकती है जो हमें नज़र नहीं आती। फिलकॉक्सिया में मांसाहार की खोज इतनी देरी से होने के ऐसे ही कारण हो सकते हैं। लिहाज़ा हो सकता है कि हमारे आसपास और भी कई हत्यारे पौधे हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और जीवाश्म ईंधन

हाल ही में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हम धरती के बढ़ते तापमान को थामना चाहते हैं तो हमें अपने जीवाश्म ईंधन के 90 प्रतिशत आर्थिक रूप से व्यावहारिक भंडार को अछूता छोड़ देना पड़ेगा। जलवायु सम्बंधी पैरिस संधि में कहा गया है कि धरती का तापमान औद्योगिक-पूर्व ज़माने से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। और इस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2100 से पूर्व दुनिया में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 580 गिगाटन से ज़्यादा नहीं हो सकता। यदि इसे मानें तो, युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के पर्यावरण व ऊर्जा अर्थ शास्त्री डैन वेलस्बी ने गणना की है कि हमें 89 प्रतिशत कोयला, 58 प्रतिशत तेल और 59 प्रतिशत गैस भंडारों को हाथ लगाने की सोचना भी नहीं चाहिए। और तो और, उनके मुताबिक ये सीमाएं और कठोर बनानी पड़ सकती हैं। 

दरअसल, यह नया अध्ययन 2015 में विकसित एक मॉडल को विस्तार देता है। वह मॉडल धरती के औसत तापमान को उद्योग-पूर्व काल से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक होने से रोकने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाया गया था। लेकिन वेलस्बी का मत है कि 2 डिग्री की वृद्धि बहुत अधिक साबित होगी।

वेलस्बी के मॉडल में सारे प्राथमिक ऊर्जा स्रोतों को ध्यान में रखा गया है – जीवाश्म ईंधन, जैव-पदार्थ, परमाणु तथा नवीकरणीय ऊर्जा। मॉडल में मांग, आर्थिक कारकों, संसाधनों के भौगोलिक वितरण और उत्सर्जन जैसी सभी बातों को शामिल किया गया है और देखा गया है कि समय के साथ इनमें क्या परिवर्तन आएंगे। मॉडल में ऋणात्मक उत्सर्जन टेक्नॉलॉजी (यानी वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने) पर भी ध्यान दिया गया है।

वेलस्बी के मॉडल के मुताबिक वर्ष 2050 तक तेल व गैस उत्पादन प्रति वर्ष 3 प्रतिशत कम होते जाना चाहिए। वैसे इस संदर्भ में क्षेत्रीय अंतर भी देखे जा सकते हैं। इसका मतलब होगा कि अधिकतम जीवाश्म ईंधन उत्पादन इसी दशक में आ जाएगा।

मॉडल में वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की रणनीतियों पर भी विचार किया गया है। ऐसी टेक्नॉलॉजी से आशय है कि पहले आप वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ें और फिर उसे हटाने के उपाय करें। लेकिन कई वैज्ञानिकों के अनुसार यह जोखिमभरा हो सकता है। उनके मुताबिक इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम समस्या को थोड़ा आगे सरका रहे हैं। क्योंकि उत्सर्जन तो बदस्तूर जारी रहेगा। (स्रोत फीचर्स) 

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गिद्धों पर नया खतरा

कुछ वर्षों पहले गिद्धों पर एक संकट आया था और गिद्धों की आबादी तेज़ी से घटी थी। 1990 के दशक में यह एक सामान्य अवलोकन था कि भारत में करोड़ों गिद्ध थे। इनके चलते जानवरों के शव तत्काल ठिकाने लग जाते थे। फिर अचानक गिद्धों की आबादी घटने लगी और काफी शोध के बाद पता चला था कि इसका कारण डिक्लोफेनेक नामक एक दवा थी। यह दवा पशुओं को दर्द निवारक के तौर पर दी जाती थी और इसके अवशेष इन पशुओं में जमा हो जाते थे। पशुओं के शव खाने पर डिक्लोफेनेक गिद्धों के शरीर में पहुंच जाती थी और उनके गुर्दों को नष्ट कर देती थी।

इस समस्या के मद्देनज़र भारत में 2006 में डिक्लोफेनेक के पशुओं में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कई देशों ने भारत का अनुसरण किया था। इससे परिस्थिति में थोड़ा ठहराव तो आया लेकिन नुकसान तो हो ही चुका था – देश के लगभग 90 प्रतिशत गिद्ध मारे जा चुके थे। अब दो ताज़ा अध्ययनों ने एक नए खतरे की ओर इशारा किया है। इन अध्ययनों का निष्कर्ष है कि गिद्धों की मौत निमेसुलाइड खाने से भी हो सकती है। निमेसुलाइड भी एक लोकप्रिय दर्द निवारक दवा है।

पर्यावरण समूह अब कोशिश कर रहे हैं कि सराकर निमेसुलाइड के पशुओं में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के उप निदेशक विभु प्रकाश के अनुसार निमेसुलाइड का घातक प्रभाव चिंताजनक है। चिंता की बात यह भी है कि कई सारी दर्द निवारक दवाइयां गिद्धों के लिए जानलेवा पाई गई हैं। जैसे एसिक्लोफेनेक और कीटोप्रोफेन जैसी दवाइयां घातक साबित हो चुकी हैं और कई देशों में प्रतिबंधित हैं। लेकिन ज़्यादा चिंताजनक बात यह है कि ये प्रतिबंध सिर्फ पशुओं में इनके उपयोग पर लगाए गए हैं और बाज़ार में दवाइयां मिलती रहती हैं।

निमेसुलाइड के विरुद्ध कार्रवाई की मांग सबसे पहले 2016 में उठी थी जब कई गिद्धों के शवों में यह दवा पाई गई थी। यह चिंता तब गहरा गई जब सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री के सुब्रामण्यन मुरलीधरन की रिपोर्ट एन्वायरमेंटल साइन्स एंड पॉल्यूशन रिपोट्स में प्रकाशित हुई।

अब पर्यावरणविद अन्य दर्द निवारक दवाइयों की पैरवी कर रहे हैं। एक है टॉलफेनेमिक एसिड जो पशुओं में उपयोग की जाती है और एक रिपोर्ट के अनुसार यह गिद्धों के लिए सुरक्षित है। इसी प्रकार से, मेलोक्सीकैन भी सुरक्षित पाई गई है। (स्रोत फीचर्स)

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बढ़ रही है जुड़वा बच्चों की संख्या

क नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि पूरी दुनिया में जुड़वा बच्चों की संख्या बढ़ रही है। 1980 के दशक से शुरू करें तो जुड़वा बच्चों की संख्या 30 प्रतिशत बढ़ी है। जहां 1980 से 1985 के बीच 1000 प्रसवों में जुड़वा प्रसव 9 होते थे वहीं 2010 से 2015 के बीच की अवधि में हर 1000 प्रसवों में 12 जुड़वा प्रसव थे।

अध्ययन में यह भी बताया गया है कि सिर्फ प्रतिशत ही नहीं, जुड़वा प्रसवों की कुल संख्या भी बढ़ी है। 1980 के दशक के प्रारंभ में 11 लाख जुड़वा प्रसव हुए थे और 2010 के दशक की शुरुआत में ये बढ़कर 16 लाख हो गए – यानी जुड़वा प्रसवों में 42 प्रतिशत का इजाफा हुआ।

इसके कारणों पर विचार करते हुए अध्ययन में इसका प्रमुख कारण चिकित्सकीय सहायता प्राप्त प्रजनन को बताया गया है। इसके अंतर्गत इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (जिसे बोलचाल में टेस्ट ट्यूब बेबी कहते हैं) भी शामिल है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब निषेचन शरीर से बाहर करवाया जाता है और भ्रूण को गर्भाशय में पहुंचाया जाता है तो एक से अधिक भ्रूण पहुंचने की संभावना अधिक होती है। हालांकि अब शायद इसमें कमी आने लगेगी क्योंकि चिकित्सक अब एकाधिक भ्रूण प्रत्यारोपित करने से बचने लगे हैं।

जुड़वा प्रसव की संख्या में वृद्धि का एक कारण शायद यह भी है कि अब महिलाएं अधिक उम्र में बच्चे पैदा करने लगी हैं और बढ़ती उम्र के साथ जुड़वा गर्भ की संभावना बढ़ती है। इस अध्ययन के एक शोधकर्ता ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के समाज विज्ञानी क्रिस्टियान मोंडेन का कहना है कि इस समय दुनिया में जुड़वा बच्चों की संख्या शायद पिछले पचास सालों में सर्वाधिक है। उनके मुताबिक यह तथ्य इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि जुड़वा प्रसव के दौरान शिशु की मृत्यु की संभावना ज़्यादा होती है और मां के लिए प्रसव में पेचीदगियां पैदा होने की संभावना भी एकल प्रसव की अपेक्षा अधिक होती है। (स्रोत फीचर्स)

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दूध पीकर घुड़सवार चरवाहे युरोप पहुंचे

पांच हज़ार से अधिक वर्ष पहले आज यमनाया के रूप में पहचाने जाने वाले खानाबदोश वर्तमान रूस और यूक्रेन के घास के मैदानों से भारी बैल गाड़ियों में बाहर निकल पड़े थे। कुछ ही शताब्दियों में वे पूरे युरेशिया में फैल गए, और मंगोलिया से लेकर हंगरी तक की आबादी में अपने आनुवंशिक हस्ताक्षर छोड़ दिए। अब, 50 से अधिक कांस्य युगीन कंकालों के दांतों पर अश्मीभूत प्लाक बताता है कि संभवत: उनका विस्तार दूध के दम पर संभव हुआ था।

शोधकर्ताओं का काफी समय से यह अंदाज़ा था कि बग्घियों, डेयरी और घुड़सवारी के मेल ने यमनाया लोगों के लिए अधिक घुमक्कड़ जीवन संभव बनाया था। लेकिन शोधकर्ताओं के इस विचार का समर्थन करने वाले कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं थे, सिवाय कुछ दफन बग्घियों और मिट्टी के बर्तनों के।

यमनाया के फैलाव की सफलता का कारण जानने के लिए यूएसए, युरोप और रूस के शोधकर्ताओं ने दांतों के प्लाक में फंसकर सुरक्षित रह गए दूध प्रोटीन की जांच की। प्लाक के ये नमूने वर्तमान रूस के घास के मैदानों में 4600 ईसा पूर्व से 1700 ईसा पूर्व तक रहे लोगों के थे। शोधकर्ताओं ने कैस्पियन सागर के उत्तरी क्षेत्र के दो दर्जन से अधिक खुदाई स्थलों से प्राप्त 56 कंकालों की जांच की। संरक्षित प्रोटीन को प्लाक से अलग किया और फिर मास स्पेक्ट्रोमेट्री नामक तकनीक से हरेक प्रोटीन की पहचान की।

3300 ईसा पूर्व से पहले, वोल्गा और डॉन नदियों के किनारे रहने वाले लोगों के दांतों के प्लाक में दूध के कोई प्रोटीन नहीं थे। पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि इसकी बजाय ये यमनाया-पूर्व समूह मीठे पानी की मछली, जंगली शिकार, और कभी-कभार पालतू गाय, भेड़, या बकरी का मांस खाते थे।

फिर, लगभग 3300 ईसा पूर्व के बाद के प्लाक नमूनों में गाय, भेड़ और बकरी के दूध के प्रोटीन प्रचुर मात्रा में मिले। यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि इस समय के ये लोग डेयरी उत्पादों का सेवन करते थे। कुछेक नमूनों में घोड़े के दूध की भी बहुत थोड़ी मात्रा मिली। ज्यूरिख इंस्टीट्यूट ऑफ इवॉल्यूशनरी मेडिसिन के जैव-आणविक पुरातत्वविद शेवन विल्किन कहते हैं कि कभी-कभी इन जानवरों को खाने की बजाय इन जानवरों को सदैव दोहना, यह एक सांस्कृतिक बदलाव है।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित निष्कर्षों के अनुसार ये प्रोटीन संकेत देते हैं कि शिकारी-संग्रहकर्ताओं के तेज़ी से खानाबदोश चरवाहों में बदलने और महज़ 300 सालों में पूरे युरेशिया में फैल जाने में मुख्य भूमिका डेयरी और पशुपालन अपनाने की है। देखा जाए तो घोड़ों, मवेशियों और बकरियों ने घास को रोटी, कपड़ा और मकान में बदल दिया।

लेकिन यह सिर्फ डेयरी के कारण संभव नहीं हुआ; लगभग इसी समय बग्घियों की शुरुआत ने पानी लाना और जानवरों को दूर के चारागहों में चराने के लिए ले जाना संभव बनाया। पालतू घोड़ों ने नए यमनाया खानाबदोशों को जानवरों के बड़े-बड़े झुंडों का प्रबंधन करने में सक्षम बनाया होगा।

बहरहाल, एक रहस्य अब भी बना हुआ है। प्राचीन डीएनए के विश्लेषण बताते हैं कि यमनाया लोग लैक्टोज़ पचा नहीं पाते थे। यह संभव है कि आधुनिक मंगोलियाई लोगों की तरह यमनाया लोग भी किण्वित डेयरी उत्पाद जैसे दही या चीज़ का सेवन करते हों, जिनमें कोई लैक्टोज़ नहीं होता है। चाहे वे किसी भी रूप में वे डेयरी उत्पादों के सेवन करते हों लेकिन इतना साफ है कि इसके बगैर वे इतनी तेज़ी से, इतनी दूर तक नहीं फैल सकते थे। (स्रोत फीचर्स)

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सार्स जैसे वायरस बार-बार आते हैं

पिछले दो दशकों में वैश्विक स्तर पर मात्र दो नए कोरोनावायरस उभरे हैं: सार्स-कोव (2003 में सार्स) और दूसरा सार्स-कोव-2 (कोविड-19)। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शायद ये चमगादड़ों से छलकने वाले ऐसे ही वायरसों की एक तुच्छ बानगी भर हैं। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि हर वर्ष लगभग 4 लाख लोग सार्स सम्बंधी कोरोनावायरस से प्रभावित होते हैं जो किसी बड़ी बीमारी का रूप नहीं लेते हैं। इस परिणाम को लेकर काफी अगर-मगर हैं लेकिन इसे एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए क्योंकि इससे पता चलता है कि जंतु-जनित संक्रमण काफी आम हो सकते हैं।        

अध्ययन में इकोहेल्थ अलायन्स के पीटर डज़ाक और एनयूएस मेडिकल कॉलेज, सिंगापुर के शोधकर्ता लिन्फा वांग और अन्य ने सार्स सम्बंधी कोरोनावायरस की वाहक 23 चमगादड़ प्रजातियों के आवासों का एक विस्तृत नक्शा तैयार किया। फिर उन्होंने इस मानचित्र पर उन स्थानों को चिंहित किया जहां मनुष्य भी बसे हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि लगभग 50 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां भविष्य में कोरोनावायरस चमगादड़ों से छलककर मनुष्यों में आ सकते हैं। 

इस नक्शे की मदद से सार्स या कोविड वायरस के उभरने की संभावना देखकर भावी प्रकोप को रोकने के उपाय किए जा सकते हैं। और तो और, इसकी मदद से वायरस की उत्पत्ति के स्रोत का भी पता लगाने में मदद मिल सकती है।

शोधकर्ता एक कदम और आगे गए। कोविड-19 उभरने से पहले किए गए कुछ सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई थी कि दक्षिण एशिया के कुछ लोगों में सार्स-सम्बंधित कोरोनावायरस की एंटीबॉडीज़ मौजूद थीं। लोगों के चमगादड़ों के संपर्क में आने की संभावना और रक्त में एंटीबॉडी कितने समय तक बनी रहती हैं, इनके मिले-जुले विश्लेषण के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि हर वर्ष लगभग 4 लाख लोग सार्सनुमा वायरस से संक्रमित होते हैं।

डज़ाक के अनुसार चमगादड़ों से हमारा संपर्क कल्पना से कहीं अधिक है। गुफाओं के आसपास रहने का मतलब है कि आप वायरस के निरंतर संपर्क में हैं। लोग गुआनो खाद निकालते हैं, चमगादड़ों का शिकार करते हैं और उनको खाते हैं। वैसे इस अध्ययन में  वन्यजीव व्यापार और अन्य जीवों के ज़रिए चमगादड़ से मनुष्यों में वायरस के प्रवेश करने की संभावना पर तो चर्चा ही नहीं की गई है।

वैसे इन नतीजों पर शंकाएं भी व्यक्त की गई हैं। एक आपत्ति तो यह है कि इस अध्ययन के परिणामों की वि·ासनीयता की रेंज बहुत अधिक है: 1 से लेकर 3.5 करोड़ अदृश्य संक्रमण प्रति वर्ष। इसके अलावा, एंटीबॉडी से प्राप्त डैटा चंद हज़ार लोगों का था और इसमें फाल्स पॉज़िटिव भी हो सकते हैं। 

कई संक्रमण इसलिए पता नहीं चलते क्योंकि वे अल्प-कालिक होते हैं और आगे नहीं फैलते। शायद ये वायरस व्यक्ति से व्यक्ति में संचरण के लिए पर्याप्त कोशिकाओं को संक्रमित नहीं कर पाते हों या ये मनुष्यों की प्रतिरक्षा को मात देने में सक्षम न हों। ये थोड़े-से लोगों को ही संक्रमित कर पाते हैं।  

एक कारण यह भी हो सकता है कि इन वायरसों से होने वाली बीमारियां पहचानी न गई हों। वैसे भी हल्के-मध्यम लक्षणों के चलते लोग शायद ही  अस्पताल जाएं। फिर भी यह अध्ययन भविष्य में वायरस के फैलने के जोखिमों को चिंहित करने की दिशा में छोटा मगर अच्छा प्रयास है। इस अध्ययन से एक बात तो साफ है कि जीवों से मनुष्यों में वायरस के छलकने-फैलने की घटनाएं जितनी मानी जाती थीं उससे कहीं अधिक होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विष्ठा प्रत्यारोपण से चूहों का दिल जवान होता है

ह तो जानी-मानी बात है कि बुढ़ापे के साथ दिमाग धीमा होने लगता है, आप भूलने लगते हैं और नए हुनर सीखने में परेशानी महसूस करते हैं। लेकिन अब चूहों पर किए गए प्रयोगों ने उम्मीद की एक धुंधली सी किरण दिखाई है। इस शोध ने दर्शाया है कि युवा चूहे के आमत के बैक्टीरिया (मल के रूप में) बूढ़े चूहों को देने पर बुढ़ाते दिमाग के कुछ लक्षण पलटे जा सकते हैं।

वैज्ञानिकों का मत है कि हमारी आंत में बसने वाले बैक्टीरिया हमारे मूड से लेकर आम तंदुरुस्ती तक हर चीज़ को प्रभावित करते हैं। और आंतों का यह सूक्ष्मजीव संसार उम्र के साथ बदलता रहता है। लेकिन इसका असर भलीभांति परखा नहीं गया था।

इसी असर को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने 3-4 माह के चूहों की विष्ठा के नमूने लिए (3-4 माह चूहों की जवानी होती है) और इन्हें 20 माह उम्र के चूहों में प्रत्यारोपित कर दिया (20 माह के चूहे वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आते हैं)। तुलना के लिए कुछ चूहों को उनकी ही उम्र के चूहों की विष्ठा दी गई थी (यानी युवाओं को युवाओं की तथा बूढ़ों को बूढ़ों की)।

शोधकर्ताओं ने सबसे पहले तो यह देखा कि युवा चूहों का सूक्ष्मजीव संसार पाने वाले बूढ़े चूहों का सूक्ष्मजीव संसार युवाओं के समान हो गया था। उदाहरण के लिए युवाओं की आंत में बहुतायत से पाए जाने वाले एंटरोकॉकस बैक्टीरिया बूढ़ो में भी प्रचुर हो गए।

और तो और, दिमाग पर भी असर देखा गया। दिमाग का हिप्पोकैम्पस नामक हिस्सा सीखने तथा याददाश्त से सम्बंधित होता है। युवा विष्ठा पाने के बाद बूढ़े चूहों में भी यह हिस्सा भौतिक व रासायनिक रूप से युवा चूहों जैसा हो गया। यह भी देखा गया कि युवा विष्ठा पाए बूढ़े चूहे भूलभुलैया वाली पहेलियां सुलझाने में भी बेहतर हो गए और भूलभुलैया के रास्तों को याद रखने में भी निपुण साबित हुए। युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क के तंत्रिका वैज्ञानिक जॉन क्रायन और उनके साथियों द्वारा नेचर एजिंग नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित परिणामों के मुताबिक हमउम्र चूहों की विष्ठा के ऐसे कोई असर नहीं हुए।

शोधकर्ताओं ने बताया है कि कुछ चीज़ें नहीं बदलीं। जैसे इस उपचार के बाद बूढ़े चूहे ज़्यादा मिलनसार नहीं हुए थे। आंतों के कई बैक्टीरिया वैसे के वैसे बने रहे। वैसे अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इस टीम ने अभी प्रामाणिक रूप से यह नहीं दर्शाया है कि आंतों का सूक्ष्मजीव संसार किस हद तक बदला और क्या स्थायी रूप से बदल गया। वैसे क्रायन ने चेताया है अभी तुरंत मनुष्यों पर छलांग लगाने का वक्त नहीं आया है क्योंकि ऐसे अन्य अध्ययनों के परिणाम मिश्रित रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सार्स-कोव-2 की प्रयोगशाला-उत्पत्ति की पड़ताल

कोविड-19 वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की संभावना पर चर्चा जारी है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो इसे ‘चीनी वायरस’ तक कहा। दूसरी ओर, कई शोधकर्ताओं ने दी लैसेंट के माध्यम से प्रयोगशाला उत्पत्ति के सिद्धांत को खारिज कर दिया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के संयुक्त मिशन की रिपोर्ट में भी वायरस के प्रयोगशाला जनित होने के सिद्धांत को ‘असंभाव्य’ बताया गया था।  

फिर इस वर्ष के वसंत तक कुछ बदलाव देखने को मिले और ऐसा लगने लगा कि वायरस की प्रयोगशाला उत्पत्ति की परिकल्पना को सस्ते में खारिज कर दिया गया था। एक नोबेल पुरस्कार विजेता ने वैज्ञानिकों और मुख्यधारा के मीडिया पर ‘पर्याप्त साक्ष्य’ की अनदेखी करने का आरोप लगाया। डब्ल्यूएचओ के प्रमुख ने भी संयुक्त मिशन के निष्कर्षों पर शंका ज़ाहिर की और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुफिया समुदाय को वायरस के प्रयोगशाला से निकलने की संभावना का पुनर्मूल्यांकन करने का आदेश दिया। इसके साथ ही वायरोलॉजी और इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी के जाने-माने विशेषज्ञों सहित 18 वैज्ञानिकों ने साइंस में प्रकाशित एक पत्र के माध्यम से ‘प्रयोगशाला उत्पत्ति’ का अधिक संतुलित मूल्यांकन करने का आह्वान किया। अलबत्ता, बाइडेन द्वारा गठित खुफिया समुदाय भी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका और फिलहाल वायरस उत्पत्ति प्राकृतिक स्रोत से ही नज़र आ रही है।

यह तो ज़ाहिर है कि इन सवालों की छानबीन के लिए साक्ष्य हेतु चीन का सहयोग ज़रूरी है लेकिन चीन की ओर से संयुक्त मिशन के दौरान उचित सहयोग नहीं मिल सका है। चीनी अधिकारियों ने वुहान की प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट से भी इन्कार किया है। बढ़ते दबाव के चलते चीन ने संयुक्त मिशन द्वारा सुझाए गए अध्ययनों पर रोक लगा दी है जिनसे अलग-अलग प्रजातियों के बीच वायरस के संचरण का पता लगाया जा सकता था। अलबत्ता, मौजूदा साक्ष्य, महामारी के शुरुआती पैटर्न, सार्स-कोव-2 की जेनेटिक बनावट और वुहान पशु बाज़ार पर हालिया शोध पत्र के आधार पर कई वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वायरस भी अन्य रोगजनकों के समान प्राकृतिक तौर पर जीवों से मनुष्यों में आया है।

युनिवर्सिटी ऑफ एरिज़ोना के इवॉल्यूशनरी जीव विज्ञानी माइकल वोरोबे इन साक्ष्यों के आधार पर प्रयोगशाला उत्पत्ति की बात से दूर हटे हैं। वोरोबे एचआईवी और 1918 के फ्लू की उत्पत्ति पर महत्वपूर्ण कार्य कर चुके हैं और उन्होंने उपरोक्त पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उनका तथा एक अन्य हस्ताक्षरकर्ता फ्रेड हचिन्सन कैंसर रिसर्च सेंटर के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम का कहना है इस बहस ने राजनैतिक तनाव बढ़ाने का काम किया है और इसके चलते चीन से जानकारी प्राप्त करना मुश्किल हो गया है।      

देखा जाए तो प्रयोगशाला से उत्पत्ति की मूल परिकल्पना निकटता पर आधारित है – नया कोरोनावायरस एक ऐसे शहर में पाया गया जहां वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (डब्ल्यूआईवी) स्थित है। डब्ल्यूआईवी और दो अन्य छोटी प्रयोगशालाओं में काफी समय से चमगादड़ कोरोनावायरस पर अध्ययन किए जा रहे हैं। संभावना यह जताई गई है कि प्रयोगशाला के कुछ कर्मचारी दुर्घटनावश संक्रमित हुए और अन्य लोगों को भी संक्रमित किया। गौरतलब है कि प्रयोगशाला आधारित दुर्घटनाएं कोई नई बात नहीं है; सार्स का वैश्विक प्रकोप खत्म होने के बाद शोधकर्ता इससे 6 बार संक्रमित हुए हैं।          

ऐसा ज़रूरी नहीं कि शोधकर्ता का सार्स-कोव-2 से संक्रमण वुहान में हुआ हो। ब्रॉड इंस्टीट्यूट की शोधकर्ता और उपरोक्त पत्र की हस्ताक्षरकर्ता एलीना चैन ने 2018 के एक अध्ययन का हवाला दिया है जिसमें 218 लोगों के रक्त के नमूने लिए गए थे जो शहर से 1000 किलोमीटर दूर ऐसी गुफाओं के पास रहते थे जिनमें बड़ी संख्या में चमगादड़ पाए जाते हैं। इनमें से 6 लोगों में एंटीबॉडी की उपस्थिति से कोरोनावायरस संक्रमण की संभावना दिखी थी। यह कोरोनावायरस सार्स-कोव और सार्स-कोव-2 से काफी निकटता से सम्बंधित है। चैन के अनुसार वुहान के शोधकर्ता अक्सर वहां आते-जाते थे और यह वायरस संक्रमित लोगों से उनमें प्रवेश कर गया होगा।

हालांकि, डब्ल्यूआईवी की प्रमुख चमगादड़ कोरोनावायरस वैज्ञानिक शी ज़ेंगली ने कोविड-19 का प्रकोप शुरू होने के समय प्रयोगशाला में किसी के बीमार होने की बात से इन्कार किया है। दूसरी ओर, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट ने 2019 की शरद ऋतु में डब्ल्यूआईवी में शोधकर्ताओं के बीमार होने की आशंका जताई थी। दी वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार एक अज्ञात यूएस इंटेलिजेंस रिपोर्ट में यह ज़ाहिर किया गया है कि नवंबर 2019 में डब्ल्यूआईवी के तीन शोधकर्ताओं ने अस्पताल में इलाज चाहा था। हालांकि रिपोर्ट में बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं है और कई लोगों का कहना है चीन के अस्पताल सभी बीमारियों का इलाज करते हैं।

टूलेन युनिवर्सिटी के वायरोलॉजिस्ट रोबेरी गैरी वुहान के कर्मचारी के संक्रमित होने और शहर में वायरस के फैलाने की घटना को असंभव मानते हैं। जैसा कि डब्ल्यूआईवी का अध्ययन बताता है कि गुफाओं के पास रहने वाले लोगों में संक्रमण आम बात है। तो सवाल यह है कि यह वायरस कुछ शोधकर्ताओं को ही क्यों निशाना बनाएगा। हो सकता है कि इस वायरस ने भी मनुष्यों में प्रवेश करने से पहले किसी अन्य जीव में प्रवेश किया हो। फिर भी यह सवाल है कि इसने सबसे पहले प्रयोगशाला के कर्मचारी को कैसे संक्रमित किया? गैरी का यह भी कहना है कि डैटा से यह भी पता चला है कि कोविड-19 के शुरुआती मामलों का सम्बंध वुहान के विभिन्न बाज़ारों से था। इससे लगता है कि वायरस ने संक्रमित जीवों और पशु व्यापारियों के माध्यम से शहर में प्रवेश किया था।

लेकिन उपरोक्त पत्र के एक हस्ताक्षरकर्ता स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी के डेविड रेलमन के मुताबिक कोविड-19 के शुरुआती डैटा की बहुत कमी है जिसके कारण कोई स्पष्ट चित्र नहीं उभर पा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार वायरस का लीक होना तभी संभव है जब जीवित वायरस को कल्चर किया जा रहा हो जो काफी मुश्किल काम है। शी के मुताबिक उनकी प्रयोगशाला में 2000 से अधिक चमगादड़ के विभिन्न नमूने हैं जिनमें से पिछले 15 वर्षों में केवल तीन वायरसों को अलग करके विकसित किया गया है और तीनों ही सार्स-कोव-2 से सम्बंधित नहीं हैं। कुछ लोगों ने शी पर सरकार के दबाव की बात कही है लेकिन चीन के बाहर के तमाम वैज्ञानिक शी की सत्यनिष्ठा पर पूरा भरोसा करते हैं।

महामारी के स्रोत सम्बंधी सारी अटकलें 6 व्यक्तियों पर केंद्रित है जिन्हें वर्ष 2012 में मोजियांग स्थित तांबे की खदान में चमगादड़ों का मल साफ करने के बाद गंभीर श्वसन रोग हुआ था। इनमें से तीन की तो मृत्यु हो गई थी। प्रयोगशाला से वायरस निकलने के सिद्धांत का समर्थन करने वालों का मानना है कि ये लोग कोरोनावायरस से संक्रमित हुए थे। उनका मानना है कि यह वायरस या तो सार्स-कोव-2 था या बाद में इसे आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करके सार्स-कोव-2 को तैयार किया गया है। वास्तव में जब खदान के कर्मचारी बीमार हुए थे तब शी और उनके सहयोगियों ने विभिन्न समय पर चमगादड़ों के नमूने एकत्रित किए थे। उन्होंने इन नमूनों में नौ नए प्रकार के सार्स-सम्बंधित वायरस का पता लगाया था।

शी बताती हैं कि खदान में काम करने वाले कर्मचारियों के रक्त परीक्षण में कोरोनावायरस या एंटीबॉडी के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं। इस विश्लेषण में काम करने वाले आणविक जीवविज्ञानी लिन्फा वैंग के मुताबिक खदान में मिले सार्स-कोव-2 से सम्बंधित साक्ष्यों को दबाने की बात बेतुकी है क्योंकि वे तो यह सिद्ध करना चाहते थे कि यह बीमारी कोरोनावायरस के कारण हुई थी और यदि ऐसा पता चलता तो वे इसे तुरंत प्रकाशित करते। कई अन्य वैज्ञानिकों ने भी वैंग का समर्थन किया है लेकिन उनका मानना है कि अधिक पारदर्शिता से मामले को सुलझाया जा सकता है।

प्रयोगशाला उत्पत्ति के सबसे इन्तहाई तर्क के अनुसार सार्स-कोव-2 डब्ल्यूआईवी में जानबूझकर तैयार किया गया है। ऐसे में न सिर्फ चीन की निंदा होगी बल्कि वायरोलॉजी के क्षेत्र को भी गंभीर नुकसान होगा। पिछले एक दशक में ‘गेन-ऑफ-फंक्शन’ (जीओएफ) सम्बंधी शोध के वैज्ञानिक महत्व पर तीखी चर्चा हुई है। गेन-ऑफ-फंक्शन शोध में ऐसे रोगजनकों का निर्माण किया जाता है जो मनुष्यों में अधिक संक्रामक होते हैं। कुछ जीओएफ अध्ययन भविष्य में आने वाले खतरों की पहचान करने और उनको खत्म करने में मदद करते हैं लेकिन आलोचकों का मत है कि इसके फायदे नए रोगजनकों को बनाने और निकल भागने के जोखिम की तुलना में बहुत कम हैं।

पूर्व में शी ने कोरोनावायरस को विकसित करने में कठिनाइयों के कारण कुछ शिमेरिक (मिश्रित) वायरस तैयार किए थे। डब्ल्यूआईवी में विकसित इन मिश्रित वायरसों में ऐसे चमगादड़ कोरोनावायरस की जेनेटिक सामग्री का उपयोग किया गया जिसे प्रयोगशाला में कल्चर किया जा सकता था और नए कोरोनावायरस के स्पाइक प्रोटीन जीन्स जोड़े गए थे। वैज्ञानिक इसे जीओएफ शोध नहीं मानते। शी का कहना है कि उनकी टीम द्वारा तैयार किया गया वायरस किसी भी प्रकार से मूल वायरस से अधिक खतरनाक होने की आशंका नहीं थी। अलबत्ता, प्रयोगशाला-उत्पत्ति के समर्थकों का कहना है कि हो सकता है कि सार्स-कोव-2 शी द्वारा तैयार किया गया कोई मिश्रित वायरस ही हो। वे यह भी कहते हैं कि उसी समय प्रयोगशाला में जैव सुरक्षा सम्बंधी ढील भी दी गई थी। हालांकि शी इस बात पर ज़ोर देती हैं कि उन्होंने अपना काम चीनी नियमों के अनुसार किया है और किसी तरह की सुरक्षा ढील नहीं दी गई थी।

हालांकि अभी तक कोई भी ऐसा वायरस नहीं मिला है जो इसको तैयार करने की प्रारंभिक सामग्री के रूप में उपयोग किया जा सके। कुछ लोग मोजियांग खदान में मिले वायरस RaTG13 को सार्स-कोव-2 के मुख्य आधार के रूप में देखते हैं लेकिन सेल में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार दोनों के बीच 1100 क्षार का अंतर है और ये अंतर पूरे आरएनए में बिखरे हुए हैं।

इस विषय में वायरोलॉजिस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता डेविड बाल्टीमोर द्वारा सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार करने सम्बंधी साक्ष्य भी गैर-तार्किक हैं। उनका कहना था कि वायरस के स्पाइक पर एक क्लीवेज साइट होती है जहां फ्यूरिन नामक मानव एंज़ाइम प्रोटीन को तोड़ता है और सार्स-कोव-2 को कोशिकाओं को प्रवेश करने में मदद करता है। प्रयोगशाला उत्पत्ति के समर्थकों का मत है कि यह क्लीवेज साइट प्रयोगशाला में जोड़ी गई है। लेकिन यह आगे चलकर गलत साबित हुआ। गौरतलब है कि इस जीनस के कई सदस्यों में फ्यूरिन क्लीवेज साइट कुदरती रूप से मौजूद होती हैं और कई बार विकसित हुई हैं। यह बात सामने आने के बाद बाल्टीमोर ने अपना बयान वापिस ले लिया है।

प्रयोगशाला-उत्पत्ति के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि वायरस को प्रयोगशाला में आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करने की बजाय हो सकता है कि किसी वायरस को प्रयोगशाला में बार-बार संवर्धित किया गया होगा ताकि हर बार होने वाले उत्परिवर्तन इकट्ठे होते जाएं। लेकिन इसके लिए भी सार्स-कोव-2 के किसी निकट सम्बंधी से शुरुआत करनी होगी। इस तरह का कोई प्रारंभिक वायरस किसी प्रयोगशाला में उपस्थित नहीं है। दरअसल अमेरिकी खुफिया समुदाय भी सार्स-कोव-2 के मानव-निर्मित होने के सुझाव को खारिज कर चुका है। उसकी रिपोर्ट में भी कहा गया कि इस वायरस को आनुवंशिक रूप से तैयार नहीं किया गया है।  

हुआनन सीफूड बाज़ार में अचानक से निमोनिया के मामलों में वृद्धि के बाद 31 दिसंबर 2019 को आधिकारिक रूप से महामारी की घोषणा की गई थी। हालांकि डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट ने हुआनन व अन्य बाज़ारों पर काफी ध्यान दिया लेकिन अस्पष्टता बनी रही क्योंकि कई मामलों का किसी भी बाज़ार से कोई सम्बंध नहीं था।

लेकिन डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया था कि वैज्ञानिकों ने वुहान बाज़ार के फर्श, दीवारों और अन्य सतहों से कई नमूने एकत्रित किए थे जिससे पता चला था कि बाज़ार वायरसों से भरा हुआ था। वैंग बताते हैं कि पर्यावरण के नमूनों से कोरोनावायरस को अलग करना एक मुश्किल कार्य है। इसके अतिरिक्त इस रिपोर्ट में कुछ बड़ी त्रुटियां भी हैं। जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि शुरुआती मामलों के सम्बंध में हुआनन और अन्य बाज़ार में 2019 में जीवित स्तनधारी बेचे जाने की सत्यापित रिपोर्ट नहीं मिली है। लेकिन चाइना वेस्ट नार्मल युनिवर्सिटी के ज़ाउ-ज़ाओ-मिन और उनके साथियों ने जून में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें इस तथ्य को चुनौती दी गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार मई 2017 से नवंबर 2019 के बीच हुआनन और वुहान के तीन बाज़ारों की 17 दुकानों में 38 प्रजाति के लगभग 50,000 जीवित जीव बेचे गए थे।

गौरतलब है कि मांस की बजाय जीवित जीवों से श्वसन सम्बंधी वायरस के फैलने की अधिक संभावना होती है। इन जीवों में ऐसे जीव थे जो प्राकृतिक रूप से इस वायरस के वाहक होते हैं और प्रयोगशाला में इनको सार्स-कोव-2 से संक्रमित भी किया जा चुका है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं कि डब्ल्यूएचओ के संयुक्त मिशन में शामिल चीनी सदस्यों ने बाज़ार में जीवित स्तनधारियों के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं दी।   

हो सकता है कि जीवों से मनुष्यों में जाने-आने की प्रक्रिया के दौरान वायरस लगातार नए मेज़बान के अनुसार ढलता गया। यह प्रक्रिया काफी समय तक चलती रही होगी जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया और बीमारी का गंभीर रूप लेने के बाद यह उभरकर सामने आया। यह भी संभव है कि वायरस ने पहले किसी किसान को दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्र में संक्रमित किया होगा और वहां से यह वुहान बाज़ार में प्रवेश कर गया। कुछ वैज्ञानिकों ने फर उद्योग की ओर भी ध्यान दिलाया है जहां मनुष्य रैकून डॉग और लोमड़ियों के संपर्क में आते हैं।

हालांकि कुछ भी स्पष्ट रूप से कहने के लिए वैज्ञानिक मनुष्यों में कोविड के शुरुआती मामलों के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं और डब्ल्यूआईवी से चमगादड़ कोरोनावायरस का जीनोम अनुक्रम हासिल करना चाहते हैं जिसको चीन ने वेबसाइट हैक होने का कारण बताकर सितंबर 2019 में इंटरनेट से हटा लिया था। यदि यह डैटा प्राप्त हो जाता है तो काफी जानकारी प्राप्त हो सकती है। चीन की ओर से भी यह दावा किया जा रहा है कि यह वायरस फ्रोज़न फूड के माध्यम से किसी अन्य देश से चीन में आया है और जिसका इल्ज़ाम झूठे प्रचार के माध्यम से अमेरिका द्वारा चीन पर लगाया जा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार चीन हर संभव प्रयास कर रहा है जिससे यह साबित किया जा सके कि इस महामारी की शुरुआत चीन के बाहर से हुई है। इस संदर्भ में अन्य स्थानों पर किए गए अध्ययनों से काफी चुनौतीपूर्ण परिणाम सामने आए हैं। पड़ोसी देशों के चमगादड़ों में कोरोनावायरस मिला है जिससे सार्स-कोव-2 के उत्पन्न होने के जैव विकास मार्ग को देखने का सुराग मिलता है। दक्षिण-एशिया के जंगली पैंगोलिन से अधिक साक्ष्य मिलने की सभावना है। बहरहाल, उत्पत्ति को लेकर कई परिकल्पनाएं हैं लेकिन फिलहाल प्राकृतिक उत्पत्ति ही सबसे संभावित व्याख्या है।  (स्रोत फीचर्स)

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दीर्घ कोविड: बड़े पैमाने के अध्ययन की ज़रूरत

ई लोगों में कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई हफ्तों या महीनों तक थकान, याददाश्त की समस्या और सिरदर्द जैसे लक्षण बने रहते हैं। ऐसा क्यों होता और इसका उपचार क्या है यह पूरी तरह पता करने के लिए बड़े पैमाने पर अध्ययन की ज़रूरत है। और हाल ही में यूएस के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) ने ऐसे ही एक अध्ययन के लिए लगभग 47 करोड़ डॉलर के अनुदान की घोषणा की है। इस अध्ययन में कोविड-19 के संक्रमण उपरांत प्रभावों – जिसे दीर्घ कोविड कहते हैं – के कारण पता लगाने के अलावा उपचार और रोकथाम के उपाय पता  लगाए जाएंगे। यह अध्ययन सार्स-कोव-2 के संक्रमण से नए पीड़ित और पूर्व में इसका संक्रमण झेल चुके 40,000 वयस्कों और बच्चों पर किया जाएगा।

दीर्घ कोविड को सार्स-कोव-2 के विलंबित लक्षण भी कहते हैं। इसमें दर्द, थकान, याद रखने में परेशानी, नींद की समस्या, सिरदर्द, सांस लेने में तकलीफ, बुखार, पुरानी खांसी, अवसाद और दुÏश्चता जैसे लक्षण हो सकते हैं जो प्रारंभिक संक्रमण के चार सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं। कभी-कभी ये लक्षण इतने गंभीर होते हैं कि व्यक्ति काम नहीं कर पाता, उसे रोज़मर्रा के काम करने में भी मुश्किल होती है।

यूएस रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्रों (सीडीसी) का अनुमान है कि कोविड-19 के 10 से 30 प्रतिशत रोगियों में दीर्घ कोविड विकसित होता है। यह संभवत: वायरस के शरीर में छिप कर बैठे भंडार के कारण, अनियंत्रित प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण, या संक्रमण से उपजी किसी चयापचय समस्या के कारण होता है। लेकिन वास्तव में यह होता क्यों है, इसका सटीक और स्पष्ट कारण अब तक पता नहीं है।

एनआईएच ने फरवरी में दीर्घ कोविड अनुसंधान कार्यक्रम की अपनी प्रारंभिक योजना की रूपरेखा तैयार की थी। अब इसे रिसर्चिंग कोविड टू एनहान्स रिकवरी (RECOVER) इनिशिएटिव का रूप दिया गया है जिसके लिए न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय को 47 करोड़ का अनुदान मिला है। विश्वविद्यालय 35 संस्थानों के 100 से अधिक शोधकर्ताओं को शामिल करेगा जो एक साझे प्रोटोकॉल के तहत संक्रमितों को अध्ययन में शामिल करेंगे।

अक्टूबर से शुरू होने वाले इस कार्यक्रम का लक्ष्य 12 महीने में सभी 50 राज्यों की विविध आबादी से 30 से 40 हज़ार प्रतिभागियों को शामिल करना है। इसमें कुछ लोग जो दीर्घ कोविड से गुज़र रहे हैं, उन पर अध्ययन किया जाएगा लेकिन इसमें शामिल अधिकांश लोग कोविड-19 संक्रमित होंगे यानी वे लोग होंगे जो हाल ही में कोविड-19 से बीमार हुए हैं। अध्ययन में अस्पताल में भर्ती मरीजों के अलावा मामूली कोविड-19 से पीड़ित लोग भी शामिल होंगे – क्योंकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या शुरुआत में अधिक गंभीर संक्रमण दीर्घ कोविड की ओर ले जाता है?

इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड की मदद से और प्रतिभागियों को पहनने योग्य उपकरण देकर उनकी हृदय गति, नींद वगैरह की निगरानी की जाएगी। इस तरह यह अध्ययन उन लोगों के स्वास्थ्य की तुलना करेगा जो जल्दी ही ठीक हो जाते हैं और जिनके लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके आधार पर दीर्घ कोविड का जोखिम पैदा करने वाले कारकों और जैविक संकेतों का पता लगाया जाएगा। शोधकर्ता यह भी पता लगाएंगे कि क्या कोविड-19 का टीका लेने से दीर्घ कोविड के लक्षण कम होते हैं?

अध्ययन में लगभग आधे प्रतिभागी बच्चे होंगे और नवजात शिशु भी होंगे। भले ही आम तौर पर बच्चों में कोविड-19 के हल्के या कोई भी लक्षण नहीं होते हैं लेकिन यह चिंता उभरी है कि क्या उनमें विलंबित लक्षण पैदा होंगे। एक कारण यह भी है कि इस समय जितने बच्चे पीड़ित हैं, पूरी महामारी के दौरान इतने नहीं थे।

हालांकि यह अध्ययन दीर्घ कोविड के लिए नए उपचारों का परीक्षण नहीं करेगा। लेकिन शोधकर्ता उन प्रोटीन या आणविक प्रक्रियाओं की पहचान करेंगे जो दीर्घ कोविड में भूमिका निभाते हैं और मौजूदा औषधियों द्वारा इन्हें अवरुद्ध करने की संभावना जांचेंगे।

हालांकि इस अध्ययन के तरीके से इस क्षेत्र की एक प्रमुख कार्यकर्ता निराश हैं क्योंकि यह प्रयास बड़े पैमाने पर उन लोगों को अध्ययन में शामिल करेगा जिनमें अब तक दीर्घ कोविड विकसित नहीं हुआ है चूंकि वे हाल ही में संक्रमित हुए हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोग टीके ले चुके हैं। दरअसल इसमें उन लाखों लोगों को शामिल किया जाना चाहिए जो वर्तमान में इससे पीड़ित हैं। सर्वाइवर कोर की संस्थापक डायना बेरेंट का कहना है कि एनआईएच का यह अध्ययन छलावा है। इससे हम किसी नतीजे तक नहीं पहुंचेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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