धरती पर चुनौतियों, अंतरिक्ष में उपलब्धियों का वर्ष

चक्रेश जैन

गुज़रे साल 2024 में भारत के विज्ञान परिदृश्य पर गौर करें तो लगता है अंतरिक्ष विज्ञान (space science) में सफलताओं का विस्तार हुआ। साल 2024 की शुरुआत में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों ने आदित्य एल-1 को निर्धारित कक्षा में स्थापित कर बड़ी सफलता प्राप्त की। आदित्य एल-1 मिशन लैग्रेंजियन बिंदु एल-1 (Lagrangian Point L1) पर स्थित भारतीय सौर वेधशाला (solar observatory) है। 2 जुलाई को आदित्य एल-1 ने सूर्य और पृथ्वी के बीच के एल-1 बिंदु के चारों ओर परिक्रमा पूरी की। यह भारत का पहला मिशन है, जिसे सूर्य की गतिविधियों को समझने के लिए भेजा गया है।

जनवरी में इसरो ने एक्सपोसैट (XPoSat) को अंतरिक्ष में भेजा। इसका उद्देश्य ब्लैक होल (black hole) के रहस्यों पर से पर्दा हटाना है। जून के अंतिम सप्ताह में इसरो ने पुन: उपयोग में लाए जा सकने वाले प्रक्षेपण यान आरएलवी पुष्पक (Reusable Launch Vehicle – RLV) का लगातार तीसरी बार सफल परीक्षण किया। इस मिशन में अंतरिक्ष से लौटने वाले यान को तेज़ हवा के बीच उतारने का अभ्यास किया गया था। इससे आरएलवी के विकास के लिए ज़रूरी महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां प्राप्त करने में मदद मिली है।

नवंबर में इसरो ने पहली बार एक निजी कंपनी की सहायता से जीसैट एन-2 संचार उपग्रह (communication satellite) अंतरिक्ष में भेजा। यह आधुनिक संचार उपग्रह है, जिसका जीवनकाल 14 वर्ष है। इससे ब्रॉडबैंड सेवाओं (broadband services) का विस्तार होगा।

16 अगस्त को इसरो ने अर्थ ऑब्ज़र्वेशन सैटेलाइट-8 (Earth Observation Satellite – EOS-8) को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इससे छोटे उपग्रहों (small satellites) के व्यावसायिक प्रक्षेपण का मार्ग प्रशस्त हो गया।

इसरो ने लेह में देश का प्रथम एनालॉग अंतरिक्ष मिशन (analog space mission) शुरू किया है। यहां अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षण (astronaut training) दिया जाएगा। इसके साथ ही यहां चंद्रमा और मंगल ग्रह पर बेस स्टेशन स्थापित करने में आने वाली चुनौतियों का अध्ययन भी किया जाएगा।

वर्ष 2024 में मानव अभियान गगनयान मिशन (Gaganyaan Mission) की तैयारियां जारी रहीं। इसके लिए परीक्षणों की एक शृंखला तैयार की गई थी। अगस्त में एक्सिओम-4 मिशन (Axiom-4 Mission) के लिए चुने गए दो गगन यात्रियों शुभांशु शुक्ला और प्रशांत बालकृष्ण नायर ने अंतरिक्ष यात्रा के लिए अमेरिका में प्रारंभिक दौर का प्रशिक्षण पूरा किया। यह मिशन इसरो-नासा (ISRO-NASA) की संयुक्त उड़ान के तहत अगले वर्ष अप्रैल में अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना होगा।

मई में चेन्नई की अंतरिक्ष स्टार्ट-अप कंपनी अग्निकुल कॉसमॉस (Agnikul Cosmos) ने अपने प्रथम एक मंज़िला रॉकेट अग्निबाण सब-ऑर्बाइटल टेक्नॉलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर (Agnibaan Sub-orbital Technology Demonstrator) का सफल परीक्षण किया। इसे स्वदेशी तकनीकी विकास (indigenous technology development) की दिशा में बड़ी सफलता कहा जा सकता है। इसके पहले 2022 में निजी अंतरिक्ष स्टार्ट-अप कंपनी स्काइरूट (Skyroot) ने अपना प्रथम सब-ऑर्बाइटल रॉकेट अंतरिक्ष में भेजा था। अग्निबाण रॉकेट में अनेक विशेषताएं हैं। इसमें थ्री-डी प्रिटेंड सेमी-क्रायोजेनिक इंजन (3D-printed semi-cryogenic engine), मॉड्यूलर डिज़ाइन, कम लागत और स्वदेशी प्रौद्योगिकी प्रमुख हैं।

इसी साल के अंत में इसरो ने प्रोबा-3 (Proba-3) को सफलतापूर्वक तैनात किया। प्रोबा-3 युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency – ESA) का महत्वपूर्ण कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया है। ये दोनों एक-दूसरे से बराबर दूरी बनाए रखेंगे और सूर्य के बाहरी वातावरण का अध्ययन करेंगे।

इस वर्ष पहली बार 23 अगस्त को प्रथम राष्ट्रीय अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाया गया, जो 2023 में भारत के चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) के चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने की याद में मनाया गया। इस उत्सव की थीम थी: ‘चंद्रमा का स्पर्श करते हुए जीवन का स्पर्श: भारत की अंतरिक्ष गाथा’ (Touching the Moon, Touching Lives: India’s Space Saga)।
अंतरिक्ष विज़न 2047 (Space Vision 2047) के अनुसार, 2035 तक चंद्रमा पर भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (Indian Lunar Space Station) की स्थापना और 2040 तक भारतीय अंतरिक्ष यात्री (Indian Astronaut) को चंद्रमा पर उतारना शामिल है।

साल 2024 में भारतीय मूल की अंतरिक्ष वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स विज्ञान जगत की खबरों की सुर्खियों में बनी रहीं। सुनीता विलियम्स(Sunita williams) 5 जून को लगभग एक सप्ताह के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (international space station) पर पहुंची थीं, लेकिन स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान में तकनीकी समस्या आने के कारण अभी तक पृथ्वी पर वापस नहीं लौटी हैं। उनकी वापसी अगले साल फरवरी में होगी। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन का कंमाडर बनने और लंबा समय अंतरिक्ष में बिता कर मनुष्य की सेहत पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों के अध्ययन को समृद्ध किया है। भारत सरकार ने 2008 में सुनीता विलियम्स को पद्मभूषण(Padma Bhushan) से सम्मानित किया था।

सुपरकंप्यूटर ‘परम रुद्र’ (Supercomputer ‘Param Rudra’)
26 सितंबर को देश में ही विकसित तीन परम रुद्र सुपर कंप्यूटर (supercomputers) राष्ट्र को समर्पित किए गए। इनका विकास नेशनल सुपरकंप्यूटिंग मिशन (National Supercomputing Mission) के तहत किया गया है। ये सुपरकंप्यूटिंग (supercomputing) के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे ले जाएंगे। मिशन 2015 में शुरू किया गया था। तीन सुपर कंप्यूटरों के विकास पर 130 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इन्हें वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) के लिए नई दिल्ली, कोलकाता और पुणे में स्थापित किया जाएगा। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सलरेटर सेंटर (Inter University Accelerator Centre) में पदार्थ विज्ञान (material science) और परमाणु भौतिकी (nuclear physics) जैसे क्षेत्रों में शोध के लिए; पुणे में विशाल मीटर रेडियो टेलीस्कोप (Giant Metrewave Radio Telescope), फास्ट रेडियो बर्स्ट (fast radio bursts) और अन्य खगोलीय घटनाओं (astronomical events) के अध्ययन के लिए; और कोलकाता स्थित सत्येन्द्रनाथ बोस केंद्र (Satyendra Nath Bose Centre) में भौतिक विज्ञान (physical sciences), ब्रह्मांड (cosmology) और पृथ्वी विज्ञान (earth sciences) जैसे क्षेत्रों में उन्नत शोधकार्यों के लिए।

पहली अंडरवाटर मेट्रो लाइन (First Underwater Metro Line)
इस वर्ष मार्च में कोलकाता में देश की पहली अंडरवाटर मेट्रो लाइन (underwater metro line) का शुभारंभ हुआ। इसी के साथ हुगली नदी (Hooghly River) में सुरंग बनाने और मेट्रो ट्रेन (metro train) चलाने का 105 वर्ष पुराना सपना साकार हो गया। मेट्रो ट्रेन ज़मीन से 33 मीटर नीचे और हुगली नदी के तल से 13 मीटर नीचे बने ट्रेक पर दौड़ रही है। इसके लिए हावड़ा से लेकर महाकरण स्टेशन (Mahakaran Station) तक 520 मीटर लंबी सुरंग बनाई गई है। मेट्रो इस सुरंग को 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 45 सेकंड में पार करती है।

मौसम विभाग के 150 साल (Indian Meteorological Department 150 years)
1875 में स्थापित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (Indian Meteorological Department – IMD) के 150 वर्ष 2025 में पूरे हो रहे हैं। 2024 में विभाग ने राष्ट्र सेवा के 150वें वर्ष का उत्सव मनाया। यह देश का सबसे पुराना वैज्ञानिक विभाग (scientific department) है।
बीते वर्षों में मौसम विज्ञान विभाग (meteorological services) की सेवाओं का विस्तार हुआ है। मानसून पूर्वानुमानों (monsoon forecasting) से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान (space science) और कृषि (agriculture) से लेकर पर्यटन (tourism) तथा पर्यावरण (environment) से लेकर परिवहन (transportation) में इसकी सेवाओं का उपयोग हो रहा है। विभाग ने किसानों को पंचायत मौसम सुविधा (Panchayat Weather Services) उपलब्ध कराई है।

बायो ई-3 नीति (Bio E3 Policy)
इसी वर्ष भारत की जैव अर्थव्यवस्था (bioeconomy) को मंज़ूरी दी गई, जिसे संक्षेप में बायो-ई3 नीति (Bio E3 Policy) कहा जाता है। नीति में अर्थव्यवस्था (economy), रोज़गार (employment) और पर्यावरणीय प्रतिबद्धता (environmental commitment) को बढ़ावा देने का वादा किया गया है। बायो ई-3 नीति को जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने की सोच के साथ तैयार किया गया है। यह नीति विभिन्न क्षेत्रों में उद्यमिता (entrepreneurship) को प्रोत्साहित करती है।

योजनाएं
इसी वर्ष 5 जनवरी को केंद्र सरकार ने 4797 करोड़ रुपए की ‘पृथ्वी विज्ञान योजना’ (Earth Sciences Scheme) को मंज़ूरी प्रदान की। योजना का उद्देश्य भू-प्रणाली और परिवर्तन के महत्वपूर्ण संकेतों (Key Indicators) को रिकॉर्ड करने के लिए वायुमंडल (Atmosphere), समुद्र (Ocean), भू-मंडल (Lithosphere), हिम मंडल (Cryosphere) और पृथ्वी के ठोस हिस्से का दीर्घकालिक अवलोकन करना है। साथ ही मौसम, समुद्र और जलवायु खतरों (Climate Hazards) को समझने और अनुमान लगाने तथा जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विज्ञान को समझने के लिए मॉडलिंग प्रणालियों का विकास भी सम्मिलित है।

गुज़रे साल 11-13 सितंबर के दौरान ग्रेटर नोएडा में ‘सेमीकंडक्टर भविष्य को आकार देना’ (Shaping the Future of Semiconductors) विषय पर सेमिनार आयोजित किया गया, जिसका उद्देश्य देश में ही सेमीकंडक्टर उद्योग (Semiconductor Industry) को प्रोत्साहन देना था। सरकार द्वारा देश में ही सेमीकंडक्टर चिप (Chip Manufacturing) बनाने के लिए गुजरात के साणंद और धोलेरा तथा असम के मोरीगांव में संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं। वर्ष 2025 में उत्पादन शुरू होने की उम्मीद है।

भारतीय सेमीकंडक्टर मिशन (Indian Semiconductor Mission) की घोषणा 2021 में की गई थी। हमारे देश में सेमीकंडक्टर चिप निर्माण की प्रयोगशाला चंडीगढ़ में है। दुनिया में सेमीकंडक्टर चिप बनाने वाले पांच देश हैं, जिनमें ताइवान (Taiwan) की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है। मोबाइल से लेकर मिसाइलों तक में सेमीकंडक्टर चिप हमारे रोज़मर्रा के जीवन (Everyday Life) का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं।

नई प्रजाति की खोज (Discovery of New Species)
अरुणाचल प्रदेश की सियांग घाटी (Siang Valley) में चींटी की एक नई प्रजाति मिली है। यह जगह जैव विविधता केंद्र (Biodiversity Hotspot) के रूप में विख्यात है। नई प्रजाति को पैरापैराट्रेचिना नीला (Paraparatrechina neela) नाम दिया गया है।
विज्ञान पत्रिका ज़ुओकीस (Scientific Journal Zookeys) ने बताया है कि चींटी की नई प्रजाति लाल अथवा भूरी चींटियों जैसी नहीं है। इस छोटी चींटी की लंबाई दो मिलीमीटर से भी कम है और इसका शरीर धातुई नीले रंग का है। अनुसंधानकर्ता चींटी के नीले रंग (Blue Coloration) को लेकर उत्साहित हैं और इसके कारण की खोज में हैं।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने पश्चिम हिमालय में सांप की एक नई प्रजाति की खोजी है। इसका नाम एंगइकुलस डिकेप्रियोई (Anguiculus dicaprioi) रखा गया है। एंगइकुलस लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है छोटा सांप। यह सांप कोलुब्रिडे परिवार का सदस्य है जो पृथ्वी पर सांपों का सबसे बड़ा कुल है। इसमें 1938 प्रजातियां सम्मिलित हैं।

इसी वर्ष भारत अपने यहां के सभी जीव-जंतुओं की सूची बनाने वाला पहला देश बन गया है। इस सूची में लगभग एक लाख प्रजातियां शामिल हैं। यह सूची वर्गीकरण विज्ञानियों, संरक्षण प्रबंधकों, शिक्षाविदों, शोधार्थियों और नीति निर्माताओं के लिए एक अमूल्य संदर्भ ग्रंथ है। इस सूची में विलुप्तप्राय जीवों को भी शामिल किया गया है।

सम्मान व समारोह (Awards and Celebrations)

पहली बार नव-स्थापित राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार (National Science Awards) प्रदान किए गए। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों की स्थापना 2023 में की गई थी। चार श्रेणियों में दिए जाने वाले इन पुरस्कारों के लिए 33 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। प्रथम विज्ञान रत्न सम्मान विख्यात जैव रसायनविद प्रोफेसर जी. पद्मनाभन को दिया गया। 13 वैज्ञानिकों को विज्ञानश्री से सम्मानित किया गया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में असाधारण योगदान के लिए 18 वैज्ञानिकों को युवा शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया। इसरो की चंद्रयान-3 की टीम को विज्ञान टीम पुरस्कार से नवाज़ा गया।

इस वर्ष वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की प्रयोगशालाओं के तीन वैज्ञानिकों को राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरडिसिप्लीनरी साइंस एंड टेक्नॉलॉजी (एनआईआईएसटी), तिरुवनंतपुरम के निदेशक डॉ. आनंदरामकृष्णन और नेशनल बॉटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनबीआरआई), लखनऊ के प्रोफेसर सैय्यद वजीह अहमद नकवी को विज्ञानश्री से पुरस्कृत किया गया है। नेशनल मैटलर्जिकल लैबोरेटरी (एनएमएल), जमशेदपुर के डॉ. अभिलाष को विज्ञान युवा शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से नवाज़ा गया है।

इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।

इसी वर्ष विज्ञान लोकप्रियकरण की अंग्रेज़ी पत्रिका साइंस रिपोर्टर के प्रकाशन के साठ वर्ष पूरे हुए। इसका पहला अंक 1964 में प्रकाशित हुआ था।

जिन्हें हमने खो दिया (Remembering Those We Lost)
वर्ष 2024 में हमने भारतीय विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। 25 अक्टूबर को पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics) की अध्येता प्रोफेसर रोहिणी गोडबोले का निधन हो गया। उन्होंने महिलाओं में विज्ञान शिक्षा के प्रसार में सक्रिय योगदान दिया। उन्हें पद्मश्री सहित कई सम्मान मिले हैं।

इसी वर्ष 27 जनवरी को देश में ही विकसित गर्भ निरोधक गोली ‘सहेली’ के जनक और सीएसआईआर की लखनऊ स्थित प्रयोगशाला सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीडीआरआई) के पूर्व निदेशक डॉ. नित्यानन्द का देहांत हो गया।

15 अगस्त को अग्नि मिसाइल के जनक डॉ. रामनारायण अग्रवाल नहीं रहे। पहली स्वदेशी क्लॉट बस्टर ड्रग के विकास में अहम भूमिका निभा चुके डॉ.गिरीश साहनी का इस वर्ष 19 अगस्त को निधन हो गया।

बीते वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में कई नई सफलताएं देखने को मिलीं, वहीँ दूसरी ओर पृथ्वी पर  जलवायु परिवर्तन (climate change), प्रदूषण (pollution), और जैव विविधता ह्रास (biodiversity loss) जैसी चिंताओं की लकीर भी लंबी होती चली गई। साल 2024 में जीएम खाद्य फसलों (GM food crops) के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें इन फसलों को भारत के लिए अवांछित (undesirable for India) बताया गया। प्रस्ताव में जीएम फसलों को लेकर व्यापक विचार-विमर्श (wider discussions) की मांग की गई। बीटी कपास (BT cotton) की मंजूरी के अलावा अन्य जीएम फसल को स्वीकृति नहीं मिली है। विदा हो चुके वर्ष में भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन (Indian Science Congress Association) का जनवरी में होने वाला वार्षिक सम्मेलन स्थगित हो गया। यह विज्ञान कांग्रेस के 100 वर्षों के इतिहास में पहली बार हुआ है। साल 2021 और 2022 में कोविड महामारी के कारण यह सम्मेलन नहीं हुआ था। हालांकि, साल 2023 में इसका आयोजन हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री इसमें ऑनलाइन (online) शामिल हुए थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन का सालाना आयोजन विज्ञान जगत की महत्वपूर्ण घटनाओं में शामिल है, जिसके शुभारंभ कार्यक्रम में अभी तक प्रधानमंत्री सम्मिलित होते रहे हैं। सम्मेलन में मुख्य विषय पर विचार मंथन के बाद की गई सिफारिशों का उपयोग सरकार की विज्ञान नीति तैयार करने में किया जाता है। विज्ञान जगत के समीक्षकों के अनुसार अब इस आयोजन से देश के नामचीन वैज्ञानिकों ने दूरी बना ली है और यह आयोजन विश्वविद्यालयों और कॉलेज शिक्षकों का मंच बन कर रह गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक इंजीनियरिंग से टमाटर को मीठा बनाया

बेजिंग स्थित चाइनीज़ एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चर साइन्सेज़ के जिंज़े झांग और साथियों द्वारा नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक टमाटर में जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि उनमें शर्करा (Glucose और Fructose) की मात्रा 30 प्रतिशत तक अधिक हो गई है। इन शर्कराओं की मात्रा बढ़ने से टमाटर ज़्यादा मीठे हो गए हैं। और तो और, इनका आकार (Size), वज़न (Weight) वगैरह भी फिलहाल उपलब्ध टमाटरों जैसा ही है।

गौरतलब है कि दुनिया भर में करीब 19 करोड़ टन टमाटर का उत्पादन होता है और यह कई व्यंजनों (Recipes), चटनियों (Chutneys), सॉस (Sauces) वगैरह का प्रमुख घटक है। टमाटर को सदियों पहले पालतू (Domesticated) बनाया गया था और लगातार चयन का परिणाम है कि आज हमें जो टमाटर मिलते हैं वे अपने मूल कुदरती पूर्वजों (Wild Ancestors) की तुलना में कई गुना बड़े होते हैं। लेकिन साइज़ बढ़ने के साथ उनमें शर्करा की मात्रा कम होती जाती है। झांग की टीम इसी चीज़ का अध्ययन कर रही थी। वे यही जानना चाहते थे कि फलों में शर्कराओं का संश्लेषण (Sugar Synthesis) कैसे होता है और उन्हें भंडारित (Storage) कैसे किया जाता है। यह समझने के लिए झांग की टीम ने वर्तमान में उगाए जाने वाले टमाटर (Cultivated Tomatoes) (Solanum lycopersicum) के जीनोम (Genome) की तुलना अधिक मीठे टमाटर किस्मों से की। उन्होंने पाया कि मिठास का बिंदु दो जीन्स (Genes) में हैं। ये दो जीन्स ऐसे प्रोटीन (Proteins) का निर्माण करते हैं जो उस एंज़ाइम (Enzyme) को नष्ट करते हैं जो शर्करा उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार होता है। यानी ये शर्करा का उत्पादन रोकते हैं।

बस, फिर क्या था। शोधकर्ताओं ने जीन संपादन (Gene Editing) की क्रिस्पर-कास 9 (CRISPR-Cas9) नामक तकनीक का उपयोग करके इन दो जीन्स को निष्क्रिय कर दिया। नतीजतन जो पौधे विकसित हुए उन पर लगने वाले टमाटर कहीं अधिक मीठे थे।

इस अध्ययन का प्रत्यक्ष परिणाम तो टमाटर को मीठा करेगा लेकिन इसके कुछ व्यापक निहितार्थ (Implications) भी हैं। ये दो जीन्स कई पादप प्रजातियों (Plant Species) में पाए जाते हैं। यदि शर्करा निर्माण की यह क्रियाविधि विभिन्न फलों (Fruits) में काम करती है, तो ज़ाहिर है कि इस अध्ययन के निष्कर्षों का इस्तेमाल अन्यत्र भी संभव होगा। वैसे भी यह अध्ययन हमें यह समझने की दिशा में आगे ले जाएगा कि फलों में शर्करा का संश्लेषण कैसे होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्भावस्था में अतिरिक्त रक्त की आपूर्ति – अर्पिता व्यास

र्भावस्था में बढ़ते बच्चे और आंवल को पोषण देने के लिए अतिरिक्त रक्त की आवश्यकता होती है। महिलाओं में 9 महीने के गर्भकाल के अंत में करीब 20 प्रतिशत अतिरिक्त लाल रक्त कोशिकाओं की आवश्यकता होती है। यह वृद्धि कुछ हद तक हार्मोन्स के नियंत्रण में होती है लेकिन शोधकर्ता अभी तक निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते थे कि स्तनधारियों में खून में यह वृद्धि ठीक-ठीक कैसे होती है।

हाल ही में इसके लिए एक नई व्याख्या सामने आई है। जिसमें ट्रांसपोज़ॉन के सक्रिय होने का सम्बंध लाल रक्त कोशिकाओं के बनने से देखा गया है।

ट्रांसपोज़ॉन को जंपिंग जीन भी कहते हैं। ये डीएनए के ऐसे खंड होते हैं जो जीनोम में एक जगह से कटकर दूसरी जगह चिपक जाते हैं। मानव जीनोम का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा ऐसे ही जंपिंग जीन से बना होता है। पहले माना जाता था कि ये कोई काम नहीं करते हैं; बस खुद की कॉपी बना-बनाकर डीएनए में अन्यत्र चिपकते रहते हैं। कभी-कभार ये उछल कर किसी अन्य जीन में चिपक जाते हैं और उत्परिवर्तन का कारण बनते हैं।

साइंस में प्रकाशित नई व्याख्या के मुताबिक गर्भावस्था के दौरान जीनोम में पड़े कुछ सुप्त ट्रांसपोज़ॉन्स सक्रिय हो जाते हैं जिसकी वजह से मां के शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप रक्त कोशिकाएं बनने लगती हैं। चूहों और मनुष्यों में स्टेम कोशिकाओं के जीनोम के अध्ययन से इस बात का पता चला है।

वैसे तो स्तनधारियों में ज़्यादातर ट्रांसपोज़ॉन्स उद्विकास के दौरान निष्क्रिय हो गए हैं, लेकिन अनुसंधानों से स्पष्ट हुआ है कि ये अन्य जीन्स की अभिव्यक्ति के नियमन तथा नई जेनेटिक विविधता पैदा करने में और संभवत: भ्रूण के विकास में भी भूमिका निभाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय साउथवेस्टर्न मेडिकल सेंटर के चिल्ड्रन्स मेडिकल सेंटर रिसर्च इंस्टीट्यूट के स्टेम सेल जीव विज्ञानी सीन मॉरीसन और उनके साथी पहले यह दर्शा चुके थे कि गर्भावस्था में एस्ट्रोजन नामक हार्मोन की मात्रा में वृद्धि होती है जो स्प्लीन (तिल्ली) की स्टेम कोशिकाओं को विभाजित होकर लाल रक्त कोशिकाएं बनाने को प्रेरित करता है। इसी काम को आगे बढ़ाते हुए मॉरीसन की छात्रा जूलिया फान गर्भवती और सामान्य मादा चूहों में स्टेम सेल्स की जीन अभिव्यक्ति की तुलना कर रही थी।

अपने विश्लेषण में उन्होंने ट्रांसपोज़ॉन्स की गतिविधि को खारिज नहीं किया जो सामान्य तौर पर किया जाता है। उन्होंने पाया कि स्प्लीन की रक्त-निर्माता स्टेम कोशिकाओं में कुछ खास किस्म के जंपिंग जीन (रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स) काफी सक्रिय हो गए थे, और अस्थि मज्जा में कुछ कम सक्रिय हुए थे। तो सवाल था कि क्या इन रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स की सक्रियता की रक्त निर्माण में कुछ भूमिका है?

टीम ने पाया कि रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स की इस बाढ़ के  प्रतिक्रियास्वरूप स्टेम कोशिकाएं ऐसे प्रोटीन्स बना रही थीं जो वायरस-रोधी प्रतिरक्षा में प्रमुख रूप से शामिल होते हैं – ये प्रोटीन्स फिर इन कोशिकाओं के विभाजित होने तथा कुछ मामलों में लाल रक्त कोशिकाएं बनाने को प्रेरित कर रहे थे। कुछ चूहों में उन्होंने ये प्रतिरक्षा जीन्स ठप कर दिए थे या उन्हें वह एंज़ाइम बनाने से रोक दिया था जिसका उपयोग रिट्रोट्रांसपोज़ॉन्स अपनी नकल बनाकर चिपकने के लिए करते हैं। इन चूहों में रक्त निर्माण में बढ़ोतरी देखने को नहीं मिली।

मनुष्यों में भी देखा गया कि गर्भवती महिलाओं की स्टेम कोशिकाओं में रिट्रोट्रांसपोज़ॉन सक्रियता थी जबकि गैर-गर्भवती स्त्रियों में नहीं। जब इन गर्भवती महिलाओं को रीवर्स ट्रांसक्रिप्प्टेस रोधी एंज़ाइम से उपचारित किया गया, तब उन महिलाओं में रक्त की कमी (एनीमिया) हो गई। यदि इन निष्कर्षों की पुष्टि होती है तो ये शरीर में रक्त निर्माण की एक नई क्रियाविधि को उजागर करेंगे और शायद कुछ एनीमिया पीड़ित लोगों के लिए मददगार साबित हों।

यह समझना अभी बाकी है कि गर्भावस्था में रेट्रोट्रांसपोज़ॉन्स क्यों व कैसे सक्रिय हो जाते हैं। क्या ये गर्भधारण करते ही सक्रिय हो जाते हैं या बाद में सक्रिय होते हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि रेट्रोट्रांसपोज़ॉन्स गर्भावस्था से प्रेरित होते हैं या फिर एस्ट्रोजन के बढ़ने से। कई शोधकर्ताओं का मानना है कि यह एक आश्चर्यजनक बात है कि स्तनधारियों में यह प्रक्रिया रेट्रोट्रांसपोज़ॉन्स की गतिविधि पर निर्भर करती है, जो कोशिकाओं में उत्परिवर्तन का कारण बनता है। मॉरीसन का अनुमान है कि शरीर किसी तरह इन वायरसनुमा जीन अनुक्रमों को जीनोम में जुड़ने से रोकता है या मात्र स्टेम कोशिकाओं में सक्रिय होने देता है। बहरहाल, क्रियाविधि कुछ भी हो, रेट्रोट्रांसपोज़ॉन की क्रिया को अनदेखा नहीं करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अथाह महासागर में ये जीव सूंघकर घर लौटते हैं – स्निग्धा दास

नाब, आप तो सूंघकर लज़ीज़ भोजन या किसी खुशबूदार या बदबूदार चीज़ का बखूबी पता लगा लेते होंगे पर कोई आपसे सूंघकर घर तक पहुंचने की बात कर दे तो? यह तो नामुमकिन ही लगेगा, भला कोई अपने घर तक सूंघकर कैसे पहुंच सकता है?

लेकिन कुछ ऐसे जीव हैं जो यह कर पाते हैं। हाल ही में एक और ऐसे ही जीव का पता चला है जो समुद्र की गहराइयों में अपने घर का पता सूंघकर लगा लेते हैं!

महासागर विशाल है और अगर आप एक ऐसे जीव हैं जो महज 1 मिलीमीटर लंबा है, तो वहां खो जाना आसान है। हालांकि, माईसिड्स नामक छोटे झींगा जैसे क्रस्टेशियन्स गहरे पानी में खोह, जो उनका घर होती है, का रास्ता अपनी सूंघने की क्षमता से ढूंढ सकते हैं। यह खोज उन समुद्री जीवों की सूची में एक और जीव जोड़ती है, जो रासायनिक संकेतों का उपयोग करके रास्ता खोजते हैं। इन जीवों में सैल्मन मछली भी शामिल है।

एंडोम मरीन स्टेशन के समुद्री पारिस्थितिकीविद और अध्ययन के लेखक थेरी पेरेज़ कहते हैं, “चौंकाने वाली बात यह थी कि हमने एक सच्चा घर वापसी व्यवहार देखा, माईसिड्स अपनी खोह का पता लगा सकते हैं, लेकिन हर किसी खोह का नहीं – बल्कि वह खोह जहां वे पैदा हुए थे।”

प्रत्येक रात भूमध्य सागर के कुछ हिस्सों में, लाखों माईसिड्स (Hemimysis margalefi) दैनिक प्रवास करते हैं। सूर्यास्त के समय, वे अपने गृह-खोहों को छोड़कर खुले समुद्र में भोजन की तलाश में निकल जाते हैं। शिकारियों से बचने के लिए, वे दिन उगने से पहले खोहों में लौट आते हैं। पिछले शोधों से यह पता चला था कि जब माईसिड्स अपनी खोहों को छोड़ते हैं, तो वे प्रकाश की मदद से मार्ग-निर्धारण करते हैं। लेकिन अंधेरे में ये जीव अपने घर का रास्ता कैसे ढूंढते होंगे?

पेरेज़ और उनके सहयोगियों का विचार था कि जैसे सैल्मन, रासायनिक संकेतों का अनुसरण करके उन नदियों तक पहुंचते हैं जहां वे पैदा हुए थे, वैसे ही माईसिड्स भी अपनी सूंघने की क्षमता का उपयोग करके अंधकार में अपना रास्ता खोजते होंगे।

इस विचार को परखने के लिए, शोधकर्ताओं ने फ्रांस के मार्सेल के पास दक्षिणी तट में पानी के नीचे की दो खोहों से माईसिड्स इकट्ठा किए। फिर, प्रयोगशाला में उन्होंने इनमें से एक-एक जंतु को छोटे Y-आकार के पात्र में रखा। कभी-कभी, Y की एक भुजा माईसिड्स के गृह-खोह से लिए गए समुद्री पानी की ओर जाती थी, जबकि दूसरी भुजा किसी अन्य खोह या स्थान से लिए गए समुद्री पानी की ओर। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि दोनों ही भुजाएं गृह-खोह के पानी की ओर नहीं जाती थी। शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन मरीन साइंस जर्नल में बताया है कि माईसिड्स अपनी गृह-खोह का पानी ताड़ लेते थे और उसी में रहना पसंद करते थे।

अपने अध्ययन के दूसरे भाग में, शोधकर्ताओं ने दिखाया कि प्रत्येक खोह से लिया गया पानी अपनी अलग रासायनिक पहचान रखता था, जो शायद माईसिड्स का मार्गदर्शन करता है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में प्रत्येक खोह को उसकी अनूठी ‘गंध’ किस चीज़ से मिलती है। शोधकर्ताओं का मत है कि शायद खोहों में रहने वाले स्पंज द्वारा छोड़े गए यौगिकों की इसमें कुछ भूमिका हो सकती है।

एक समुद्री पारिस्थितिकीविद फर्नांडो काल्डेरोन गुटिरेज़ का मत है कि “अध्ययन बहुत अच्छी तरह से किया गया है, और बहुत सरल है, जो इस अध्ययन की एक खूबसूरती है।” उनका कहना है कि इसी तरह के प्रयोगों से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि क्या अन्य जीव भी रास्ता खोजने के लिए गंध पर निर्भर हैं?

दूसरी ओर, पेरेज़ को कई खतरों का अंदेशा है। जैसे समुद्री प्रदूषण में वृद्धि और कुछ स्पंज प्रजातियों का खोहों से लुप्त होना वगैरह। ये अंततः समुद्र के रासायनिक परिदृश्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। तब, पेरेज़ को डर है कि, माईसिड्स ‘अथाह समुद्र के अंधकार में खो जाएंगे और अपने घर ढूंढने में असमर्थ हो जाएंगे।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तेज़ आवाज़ और आपके कान

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दीवाली का त्यौहार गुज़रे करीब एक महीना हो गया है। हमारे सभी त्यौहार हमें खुशी-उल्लास देते हैं, लेकिन हमारा दीपों का यह त्यौहार साथ में बहुत ज़्यादा शोर भी देता है। सल्फर डाईऑक्साइड जैसे हानिकारक उत्सर्जन को कम करने और पटाखे फोड़ने पर होने वाले शोर को कम करने के लिए ग्रीन पटाखों का इस्तेमाल करने की लगातार अपील की जाती है। इन्हें सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत निर्देशों, जैसे लड़ियों वाले पटाखों के निर्माण और बिक्री पर प्रतिबंध, के ज़रिए अनिवार्य किया है। लेकिन हर साल इस त्यौहार के मौसम में पटाखों की तेज़ आवाज़ें गूंजती रहती हैं।

लोगों की चिंता पटाखों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण पर केंद्रित रहती है, लेकिन उतनी ही चिंता की बात यह है कि बहुत तेज़ आवाज़ या धमाके हमारी सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचा सकते हैं। पटाखों से इतर, साल भर होने वाले शोर या ध्वनि प्रदूषण पर अन्य तरह के प्रदूषण की तुलना में कम ध्यान दिया जाता है। ऐसा लगता है कि शोर को हमारे आसपास के पर्यावरण के हिस्से के रूप में अधिक आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, खासकर तब जब यह शोर आप स्वयं पैदा कर रहे हों।

ध्वनि तरंगों के माध्यम से आगे बढ़ती है। इन तरंगों में ऊर्जा होती है। जितनी अधिक ऊर्जा होगी, उतनी ही ज़्यादा तीव्र तरंग होगी और उतनी ही तेज़ आवाज़ होगी। ध्वनि की तीव्रता मापने के लिए डेसिबल (डीबी) पैमाने का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक लघुगणकीय पैमाना है, इसलिए जब ध्वनि स्तर 10 डेसिबल बढ़ता है तो इसका मतलब होता है कि ध्वनि की तीव्रता दस गुना बढ़ गई है। डीबी पैमाने पर, मानव श्रवणशक्ति की शुरुआत 0 डीबी पर सेट की गई है। एक फुसफुसाहट की ध्वनि की माप इस पैमाने पर 30 डेसिबल आती है, और सामान्य बातचीत की ध्वनि की माप 60 डेसिबल।

तेज़ धमाके के साथ फूटने वाले पटाखे की ध्वनि तीव्रता, 10 फीट दूर मापने पर, 140 डेसिबल आती है। यह तीव्रता कान के कॉक्लिया (आंतरिक कान में एक सर्पिलाकार रचना जो ध्वनि तरंगों को विद्युत संकेतों में बदलती है) में मौजूद रोम कोशिकाओं को आसानी से नुकसान पहुंचा सकती है। कॉक्लिया कान के परदे के माध्यम से कंपन प्राप्त करता है और फिर रोम कोशिकाएं उन्हें तंत्रिका संकेतों में बदल देती हैं। इन रोम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचने से वे ध्वनि के प्रति कम संवेदनशील हो जाती हैं। नतीजतन, रोम कोशिका द्वारा प्रतिक्रिया करने और तंत्रिका संकेतों को मस्तिष्क तक भेजने के लिए तेज़ या ऊंची आवाज़ की आवश्यकता होती है। रोम कोशिकाएं मध्यम आवाज़ के असर के बाद कुछ हद तक ठीक हो सकती हैं। लेकिन हमारी त्वचा कोशिकाओं के विपरीत, ये कोशिकाएं पुनर्जनन में असमर्थ हैं। इसलिए बार-बार होने वाले आघातों से उबरना इन कोशिकाओं के लिए मुश्किल हो सकता है। नतीजतन, लगातार तेज़ शोरगुल के कारण सुनने की क्षमता घट सकती है।

छोटे बच्चों के संवेदनशील कानों के लिए तेज़ आवाज़ें एक गंभीर खतरा हैं, क्योंकि सुनने की क्षमता में मामूली कमी भी उनकी सीखने की क्षमता को कम कर सकती है। शोर के अत्यधिक संपर्क के कारण होने वाला ध्वनि आघात अक्सर कान बजने (टिनिटस) की समस्या पैदा करता है, जिसमें कहीं कुछ आवाज़ न होने पर भी आपको कानों में सीटी बजने सी आवाज़ सुनाई देती रहती है। यह ‘सीटी की आवाज़’ क्षतिग्रस्त रोम कोशिकाओं की असामान्य विद्युत गतिविधि का संकेत है। आम तौर पर, यह आवाज़ कम हो जाती है, लेकिन लंबे समय तक लगातार शोर-शराबे के संपर्क में रहने से यह आपके जीवन का स्थायी लक्षण बन सकती है। बेशक, टिनिटस बुज़ुर्गों को भी हो सकता है, जो उम्र से सम्बंधित क्षति के कारण पैदा होता है।

लंबे समय तक मध्यम-तीव्रता वाली आवाज़ों (शोरगुल) के संपर्क में रहने से भी सुनने की क्षमता ठीक वैसे ही कम हो सकती है, जैसे तेज़ आवाज़ें सुनने से होती है। भारतीय शहरों की सड़कों पर यातायात का शोर एक दिन में 60 से 102 डेसिबल तक मापा गया है। साल 2008 में इंडियन जर्नल ऑफ ऑक्यूपेशनल एंड एनवायरनमेंटल मेडिसिन में हैदराबाद शहर के यातायात पुलिसकर्मियों पर किया गया एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था। अध्ययन में पांच साल की सेवा के बाद सभी ट्रैफिक पुलिसकर्मियों में सुनने की क्षमता में कमी पाई गई थी, ऐसे ही नतीजे सुब्रतो नंदी और सारंग धात्रक को भारत में व्यावसायिक शोर पर किए गए सर्वेक्षण में मिले थे।

इयरप्लग जैसे निवारक उपाय सुनने की क्षमता में कमी के जोखिम को कम करने में मदद करते हैं। निर्माण उद्योग जैसे कुछ पेशों में ज़रूरत के अनुसार इयरप्लग अपनाए जा रहे हैं, लेकिन इसे और अधिक व्यापक बनाने की ज़रूरत है। शायद, ग्रीन पटाखों के चलन में आने के पहले ही, त्यौहार की रातों में इयरप्लग पहनना एक आम दृश्य बन जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया में दवा प्रतिरोध की समस्या

फ्रीका में मलेरिया से गंभीर रूप से पीड़ित बच्चों में इलाज के लिए उपयोग की जाने वाली एक मुख्य दवा, आर्टेमिसिनिन, के प्रतिरोध का पता चला है। यह खोज चिंताजनक है क्योंकि दुनिया में मलेरिया से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत अफ्रीका में होती हैं, और इनमें भी सबसे अधिक प्रभावित बच्चे होते हैं।

गौरतलब है कि आर्टेमिसिनिन मलेरिया के इलाज में अहम है। हल्के मामलों में इसे एक अन्य दवा के साथ दिया जाता है, जिसे आर्टेमिसिनिन-आधारित संयोजन उपचार (ACTs) कहा जाता है। गंभीर मामलों में, आर्टेसुनेट (तेज़ी से असर करने वाली आर्टेमिसिनिन) को शिराओं में इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाता है, और इसके बाद ACT दिया जाता है। यह उपचार खासकर बच्चों के लिए जीवनरक्षक है।

लेकिन युगांडा के जिन्जा में किए गए एक अध्ययन में गंभीर मलेरिया से पीड़ित 10 प्रतिशत बच्चों में आर्टेमिसिनिन के प्रति आंशिक प्रतिरोध का पता चला है। इसका मतलब है कि यह दवा मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम फैल्सिपेरम) को उम्मीद से अधिक समय में खत्म करती है।

6 महीने से 12 साल की आयु के गंभीर मलेरिया से पीड़ित 100 बच्चों पर किए गए अध्ययन में 11 बच्चों में आर्टेमिसिनिन के प्रति आंशिक प्रतिरोध देखा गया। वहीं 10 बच्चों में इलाज पूरा होने के बाद दोबारा संक्रमण हुआ, जिससे सहयोगी दवा लुमेफैंट्रिन की प्रभाविता पर सवाल खड़े होते हैं।

जेनेटिक विश्लेषण से पता चला कि परजीवी में कुछ विशेष म्यूटेशन आर्टेमिसिनिन के धीमे प्रभाव के लिए ज़िम्मेदार हैं। हालांकि, कुछ मामलों में संक्रमण के दोबारा होने से लुमेफैंट्रिन के प्रति प्रतिरोध की संभावना भी नज़र आई, जिसके लिए अधिक गहराई से जांच की ज़रूरत है।

आर्टेमिसिनिन के आंशिक प्रतिरोध का मामला 2000 के दशक में दक्षिण-पूर्व एशिया में पता चला था, और तभी से यह वैश्विक चिंता का विषय बना हुआ है। हालांकि अध्ययन में शामिल सभी बच्चे ठीक हो गए, लेकिन परजीवी को खत्म करने में देरी गंभीर मामलों में मृत्यु दर बढ़ा सकती है। विशेषज्ञों को डर है कि अफ्रीका, जहां मलेरिया सबसे अधिक है, में बढ़ता यह प्रतिरोध वैश्विक मलेरिया नियंत्रण प्रयासों को बाधित कर सकता है और दशकों की मेहनत पर पानी फेर सकता है।

तो आगे क्या किया जाए?

1. अधिक शोध: इन निष्कर्षों की पुष्टि और संयोजक दवा प्रतिरोध की भूमिका को समझने के लिए अधिक शोध आवश्यक हैं।

2. उपचार दिशा-निर्देशों को अद्यतन करना: यदि प्रतिरोध फैलता है तो वैकल्पिक उपचार या नई दवाओं के संयोजन की ज़रूरत होगी। 3. मज़बूत निगरानी: प्रतिरोध के पैटर्न को ट्रैक करने और त्वरित कार्रवाई के लिए उचित निगरानी की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कुपोषण प्रबंधन का एक नया आयाम

दुनिया भर में लगभग साढ़े चार करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से एक-तिहाई भारत में रहते हैं। सरकारें तथा कई संस्थाएं इस समस्या से जूझने के प्रयास में लगे हैं। फिलहाल, किया यह जाता है कि कुपोषित बच्चों को विशेष खुराक दी जाती है जिसमें दूध पावडर, मूंगफली का चूरा, मक्खन, तेल और शकर का मिश्रण होता है। इस तैयारशुदा मिश्रण के सेवन से कुपोषित बच्चों का वज़न तो बढ़ता है लेकिन उनमें दीर्घावधि अभाव के खतरे बने रहते हैं। इनमें कद न बढ़ना, प्रतिरक्षा तंत्र की कमज़ोरी तथा तंत्रिका तंत्र के विकास में बाधाएं शामिल हैं।

एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि कुपोषित बच्चों के आहार में ऐसा भोजन शामिल किया जाए जो उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को समृद्ध कर सके तो इससे बहुत लाभ मिल सकता है।

इस अध्ययन की प्रेरणा दरअसल वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) विशेषज्ञ जेफ्री गॉर्डन तथा बांग्लादेश स्थित अंतर्राष्ट्रीय अतिसार रोग केंद्र के निदेशक व बालपन कुपोषण के विशेषज्ञ तहमीद अहमद के प्रयोगों से मिली थी। करीब 10 साल पहले गॉर्डन और तहमीद ने दर्शाया था कि भोजन की अत्यधिक कमी का असर शिशुओं की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार के समुचित विकास पर भी होता है। ऐसे कुपोषित बच्चों में वे बैक्टीरिया तो पाए जाते हैं, जो नवजात शिशुओं में होते हैं लेकिन वे ऐसे बैक्टीरिया हासिल नहीं कर पाते हैं जो सामान्य बड़े बच्चों में होते हैं। इसके बाद इन शोधकर्ताओं ने इसके परिणामों का अध्ययन किया।

यह देखा गया कि ‘कीटाणु-रहित’ चूहों को कुपोषित बच्चों की आंतों से प्राप्त माइक्रोबायोम दिया गया तो इन चूहों की मांसपेशियों और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का विकास उन चूहों की अपेक्षा कम हुआ जिन्हें स्वस्थ बच्चों का माइक्रोबायोम दिया गया था। कीटाणु-रहित चूहों की आंतों में कोई भी सूक्ष्मजीव नहीं होते हैं। निष्कर्ष यह था कि माइक्रोबायोम शायद कुपोषण के प्रभावों को कम कर सकता है।

गॉर्डन-अहमद की टीम ने ऐसे खाद्य पदार्थों की पहचान की जो आंतों में सामान्य सूक्ष्मजीव संसार के सामान्य विकास में मदद करते हैं और बांग्लादेश में आसानी से उपलब्ध हैं – जैसे चना, केला, सोयाबीन व मूंगफली का आटा। झुग्गियों में रहने वाले 118 मध्यम स्तर के कुपोषित बच्चों (उम्र 12-18 माह) पर इन पूरक पदार्थों का परीक्षण किया गया। दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित इस अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया है कि इन बच्चों को तीन माह तक यह उपचार दिया गया और फिर एक महीने बाद जांच की गई। पता चला कि सामान्य पूरक आहार की बजाय नया पूरक आहार लेने वाले बच्चों में वज़न अधिक तेज़ी से बढ़ा और इसका लाभदायक प्रभाव उनके खून के 700 प्रोटीन्स पर देखा गया जबकि सामान्य पूरक आहार वाले बच्चों में ऐसा असर मात्र 82 प्रोटीन्स पर हुआ था। दो साल बाद फिर से की गई जांच में कई अन्य लाभ भी नज़र आए।

अब साइंस ट्रांसलेशन मेडिसिन में जो अध्ययन प्रकाशित हुआ है उसमें गंभीर रूप से कुपोषित 12-18 माह के 124 बच्चों को शामिल किया गया था। पहले तो उन्हें भोजन दिया गया और किसी भी संक्रमण या दस्त के लिए इलाज किया गया ताकि वे गंभीर स्तर से मध्यम स्तर के कुपोषित की श्रेणी में आ जाएं। इसके बाद तीन माह तक आधे बच्चों को मानक पूरक आहार दिया गया जबकि बाकी आधे बच्चों को सूक्ष्मजीव संसार उन्मुखी आहार दिया गया। पता चला दूसरे समूह के बच्चों का वज़न अपेक्षाकृत तेज़ी से बढ़ा और उनके खून में ऐसे प्रोटीन्स की सांद्रता भी अधिक थी जो कंकाल, मांसपेशियों और मस्तिष्क के विकास को बढ़ावा देते हैं।

अब, शोधकर्ता यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि यह उपचार काम कैसे करता है। जैसे उपचार के दौरान लिए गए मल के नमूनों में डीएनए व आरएनए का विश्लेषण करके वे बच्चों की आंतों में सूक्ष्मजीव संसार के परिवर्तनों को समझ पाएंगे। पिछले वर्ष नेचर में प्रकाशित एक पर्चे में उन्होंने बताया था कि 75 सूक्ष्मजीवी प्रजातियों की संख्या में भरपूर वृद्धि हुई थी। इनमें एक बैक्टीरिया प्रेवोटेला कोप्री था जो ऐसे जीन्स को सक्रिय कर देता है जो पूरक आहार के कार्बोहायड्रेट के पाचन में मदद करते हैं। आगे के अध्ययनों में भी प्रेवोटेला कोप्री की भूमिका की पुष्टि हुई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने एक ऐसा परीक्षण शुरू किया है जिसमें विभिन्न परिस्थितियों में इस तरीके का असर परखा जाएगा। साल 2025 में पूरे होने वाले इस परीक्षण में बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान, माली और तंज़ानिया देश के 6360 बच्चों को शामिल किया जाएगा।

उम्मीद है कि इस परीक्षण के नतीजों के आधार पर कुपोषण प्रबंधन में वर्तमान आहार की बजाय माइक्रोबायोम-उन्मुखी आहार को शामिल करने का मार्ग प्रशस्त होगा। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य का इतना लंबा बचपन कब शुरू हुआ?

धिकतर जीव-जंतुओं के बच्चे जन्म के कुछ ही समय की देखभाल और प्रशिक्षण के बाद परिपक्व हो जाते हैं और स्वंतत्र रूप से भोजन वगैरह तलाशने और जीवनयापन करने लगते हैं। लेकिन मनुष्य के बच्चों को माता-पिता की देखभाल की काफी सालों तक ज़रूरत पड़ती है और उन्हें स्वतंत्र रूप से हर काम करने में सक्षम होने में (या यूं कहें कि बड़ा या वयस्क होने में) काफी साल लगते हैं। तुलना की जाए तो वयस्कता तक पहुंचने में मनुष्य के बच्चों को चिम्पैंज़ियों के बच्चों की तुलना में लगभग दुगुना समय लगता है।

मानवविज्ञानी बताते हैं कि संभवत: हमारा लंबा बचपन और किशोरावस्था की शुरुआत या तो हमें तुलनात्मक रूप से बड़ा मस्तिष्क विकसित करने के लिए अधिक समय और ऊर्जा की मोहलत देने के लिए हुई होगी, या जीवन की जटिल सामाजिक अंतःक्रियाओं और वातावरण के अनुकूल होने के कौशल सीखने के लिए। लेकिन वैज्ञानिकों के सामने यह अहम सवाल हमेशा से रहा है कि हमारे पूर्वजों (होमो जीनस) में लंबे बचपन की शुरुआत आखिर हुई कब?

इस सवाल के जवाब तक पहुंचने के लिए वैज्ञानिक अक्सर दांत, खासकर दाढ़, का अध्ययन करते हैं। दांतों का अध्ययन इसलिए क्योंकि प्राचीन दांत या दाढ़ अक्सर खोपड़ी के साथ अश्मीभूत अवस्था में मिल जाते हैं, समय के साथ नष्ट नहीं होते, और सबसे बढ़कर कि उनमें पेड़ के वलयों जैसी वृद्धि रेखाएं बनती हैं। ये रेखाएं दांतों पर डेंटाइन परत चढ़ने के कारण बनती है, जो आधुनिक मनुष्यों में हर 8 दिन में चढ़ जाती है। फिर, मनुष्यों और अन्य प्राइमेट्स की दांतों की वृद्धि की दर भी मस्तिष्क और शरीर के विकास से जुड़ी है।

ज्यूरिख युनिवर्सिटी के पुरामानवविज्ञानी क्रिस्टोफ ज़ोलिकोफर, मारिका पॉन्स डी लियोन और उनका दल भी यह जानना चाहता था कि लंबा बचपन होने की शुरुआत कब हुई। इसके लिए उन्होंने 2001 में जॉर्जिया के डमेनीसी में खुदाई में प्राप्त बच्चे की जबड़े सहित खोपड़ी और दांतों का अध्ययन किया। यह खोपड़ी करीब 17.7 लाख साल पुरानी थी और होमो जीनस के सदस्य की थी। अश्मीभूत दांतों में वृद्धि रेखाओं को देखने के लिए उन्होंने सिंक्रोट्रॉन की मदद से उच्च-विभेदन वाली एक्स-रे छवियां प्राप्त कीं और रेखाओं की गणना की। रेखाओं की गिनती से पता चला कि मृत्यु के समय उसकी उम्र लगभग साढ़े ग्यारह साल रही होगी।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने दांत पर गहरी तनाव रेखाओं का अध्ययन किया। ये तनाव रेखाएं किसी बीमारी या आहार में कमी के चलते सभी दांतों पर आ जाती हैं। इन रेखाओं का अध्ययन करके उन्होंने देखा कि विभिन्न दांत कैसे बने और उभरे। फिर उन्होंने इसका एक मॉडल वीडियो बना कर देखा कि जन्म से लेकर मृत्यु तक हर 6 महीने के अंतराल पर इस प्राचीन बच्चे के दांत कैसे बढ़े।

अंत में, शोधकर्ताओं ने डमेनीसी मनुष्य के दांतों के वृद्धि पथ की तुलना आधुनिक मनुष्यों, चिम्पैंज़ी और अन्य वानरों के दांतों की वृद्धि से की। देखा गया कि डमेनीसी बच्चे के जीवन के शुरुआती 5 वर्षों तक दाढ़ धीरे-धीरे विकसित हुई, जिससे दूध के दांत लंबे समय तक बने रहे – यह चिम्पैंज़ी की बजाय आधुनिक मनुष्य के दांत आने की तरह अधिक था। फिर, 6 से 11 वर्ष की आयु में, डमेनीसी बच्चे के दांत चिम्पैंज़ी की तरह अधिक तेज़ी से विकसित हुए और उभरे।

नेचर में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि डमेनीसी बच्चे के शुरुआती सालों में धीमी गति से विकास का यह सबसे पुराना ज्ञात उदाहरण है, और धीमी वृद्धि के पिछले साक्ष्यों से करीब पांच लाख साल पहले का है। और संभवत: यह हमारे धीमे विकास की ओर पहला कदम भी हो सकता है।

डमेनीसी के निवासियों के मस्तिष्क चिम्पैंज़ियों से बस थोड़े से ही बड़े थे। इस आधार पर लेखकों का कहना है कि मस्तिष्क बड़ा होने के पहले ही हमारे पूर्वजों में दांतों का विकास धीमा हो गया था, संभवत: इसलिए कि औज़ारों के उपयोग, मांस खाने और सामाजिक संरचना में बदलाव ने बच्चों का लंबे समय तक वयस्कों पर निर्भर रहना संभव बनाया।

हालांकि, ये नतीजे सिर्फ एक बच्चे के दांत के विश्लेषण पर आधारित हैं, और चूंकि हर प्राइमेट की वृद्धि करने की गति अलग होती है इसलिए अधिक डैटा ही इन नतीजों की पुष्टि कर सकता है या इन्हें खारिज कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे प्राचीन वर्णमाला मिली

कुछ वर्ष पूर्व सीरिया की एक कब्र से मिट्टी की बेलनाकार कृतियां मिली थी, और अब विश्लेषण से निष्कर्ष निकला है कि उन पर 4400 साल पुरानी वर्णमाला के अक्षर अंकित हैं। और ये संभवत: अब तक की ज्ञात सबसे प्राचीन वर्णमाला के अक्षर हैं।      

दरअसल, 2004 में अलेप्पो के पास उम्म अल-मर्रा में हुई खुदाई में 10 प्राचीन कब्रों का पता चला था। इनमें से एक कब्र से प्रारंभिक कांस्य युग (2600-2150 ईसा पूर्व) के मानव अवशेष और अन्य वस्तुएं निकली थीं। इन वस्तुओं में सोने के आभूषण, चांदी के बर्तन, हाथी-दांत की कंघी और मिट्टी के बर्तन आदि थे। और साथ में चार मिट्टी के बेलन भी थे। हर बेलन लगभग एक उंगली की साइज़ का था – एक सेंटीमीटर मोटा और 4.7 सेंटीमीटर लंबा और इनमें लंबाई में एक सुराख भी था। बेलनों पर आठ अलग-अलग प्रतीक चिन्ह उकेरे हुए थे।

हालिया अध्ययन में जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय के पुरातत्वविज्ञानी ग्लेन श्वार्ट्ज़ ने इन मृदालेखों का विश्लेषण करके बताया है कि ये प्रतीक a, i, k, l, n, s और y के समान ध्वनियों के संकेत हैं। हालांकि ये प्रतीक अक्षर किसी ज्ञात भाषा से मेल नहीं खाते हैं और न ही उनके समान हैं, लेकिन शोधकर्ताओं ने इन्हें डिकोड करने के लिए इनकी तुलना पश्चिमी सेमिटिक भाषाओं (हिब्रू, अरामेक और अरबी के प्राचीन और आधुनिक रूप) में इस्तेमाल किए जाने वाले अक्षरों से की। विश्लेषण से ऐसा लगता है कि मृदालेखों में जो संकेताक्षर खुदे हुए हैं वे या तो व्यक्तियों के नाम हैं या कब्र में दफन वस्तुओं के नाम हैं। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ ओवरसीज़ रिसर्च की वार्षिक बैठक में श्वार्ट्ज़ ने बताया कि यदि ये अक्षर प्रतीक नाम या वस्तुओं के लेबल हैं तो यह समाज में बढ़ते प्रशासनिक कामों के लिए लेखन की ज़रूरत की ओर इशारा करते हैं।

बेलनों पर कुल 11 बार प्रतीक दिखाई देते हैं, जिनमें कुछ प्रतीकों का दोहराव भी है – यह इस बात का प्रमाण है कि ये प्रतीक किसी वर्णमाला के अक्षर हैं, न कि किसी शब्द के लिए चित्र के रूप में निरूपण। चार बेलनों में से दो बेलन में एक ही क्रम दिखाई देता है, जो उनके अखंडित सिरों पर एक ही प्रतीकाक्षर से समाप्त होता है। श्वार्ट्ज का कहना है कि प्रतीकों का क्रम जितना लंबा होगा, उतनी ही अधिक संभावना है कि वे चित्र निरूपण की बजाय अक्षर प्रतीक होंगे।

चूंकि दो अक्षर मिस्र की कीलाक्षरी से मिलते-जुलते पाए गए हैं, इसलिए ऐसे सवाल भी उठते हैं कि क्या बेलन के निर्माता मिस्र की कीलाक्षरी से प्रभावित थे, या उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनी एक वर्णमाला विकसित की थी। उम्मीद है कि भविष्य के अध्ययन प्रतीकों के अर्थ को उजागर कर सकेंगे और इस गुत्थी को सुलझाने में मदद करेंगे कि पहली वर्णमाला कब विकसित हुई थी। (स्रोत फीचर्स)

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पुरुष प्रधान माहौल में एक महिला वैज्ञानिक

बिमला बूटी

ज जब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो यह समझना काफी मुश्किल लगता है कि मैंने भौतिकी को अपने करियर के रूप में क्यों चुना था, क्योंकि तब तक मेरे परिवार में किसी ने भी शुद्ध विज्ञान की पढ़ाई नहीं की थी।

भारत के विभाजन के समय जब हम लाहौर से दिल्ली आए, तो मुझे एक सरकारी स्कूल में दाखिला मिला, लेकिन वहां विज्ञान का विकल्प नहीं था। इसलिए मैंने हाई स्कूल में कला को चुना जबकि गणित मेरा पसंदीदा विषय था। मेरे पिता पंजाब विश्वविद्यालय से गणित में स्वर्ण पदक विजेता थे, लेकिन बाद में उन्होंने वकालत को चुना। चूंकि मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, न कि हायर सेकेंडरी की, इसलिए बी.एससी. (ऑनर्स) में दाखिला लेने से पहले मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साल का कोर्स करना पड़ा। इस समय मैंने जीव विज्ञान की बजाय भौतिकी, रसायन और गणित को चुना। कारण सीधा-सा था कि मुझे मेंढक काटने से डर लगता था शायद इसलिए कि मैं शाकाहारी थी। मेरे डॉक्टर जीजा ने मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए राज़ी करने का प्रयास किया लेकिन पिताजी ने मुझे अपनी पसंद का करियर चुनने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे रसायन शास्त्र पसंद नहीं था, लेकिन भौतिकी अच्छा लगता था, शायद इसलिए कि मुझे एप्लाइड (अनुप्रयुक्त) गणित में दिलचस्पी थी। मैंने इंजीनियरिंग करने के बारे में भी विचार किया, लेकिन इसके लिए मुझे दिल्ली से बाहर जाना पड़ता, जो मुझे और मेरे परिवार को पसंद नहीं था। शायद यही कारण था कि मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी (ऑनर्स) को चुना।

दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एससी. (ऑनर्स) और भौतिकी में एम.एससी. करने के बाद, मैं पीएच.डी. के लिए शिकागो विश्वविद्यालय चली गई। यहां मुझे नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर एस. चंद्रशेखर के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। मेरे शुरुआती जीवन में मेरे पिता ने मुझे जिस तरह से प्रेरित किया था, उसी तरह मेरे गुरू चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर को उनके विद्यार्थी, सहयोगी और मित्र ‘चंद्रा’ कहकर बुलाते थे) का भी मेरे पेशेवर जीवन पर गहरा असर पड़ा। आत्मनिर्भरता, मुश्किलों का सामना करने का आत्मविश्वास और अन्याय के समक्ष न झुकने जैसे गुण मुझमें बचपन से रोप दिए गए थे, जो चंद्रा के साथ जुड़ने के बाद और भी मज़बूत हो गए। मैं हमेशा बेधड़क होकर अपनी बात कहती थी, जो मेरे कई वरिष्ठ सहयोगियों को पसंद नहीं था। इस कारण और लैंगिक भेदभाव के चलते मुझे पेशेवर स्तर पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है।

अपने पेशे की खातिर मैंने शुरू से ही शादी न करने का फैसला किया था। मैंने यह फैसला इसलिए लिया था क्योंकि मुझे अपने काम के साथ पूरी तरह न्याय करने और हर काम को मेहनत से पूरा करने की आदत थी। शादी करने पर न तो मैं अपने परिवार और न ही अपने पेशे से पूरा न्याय कर पाती। अविवाहित रहकर मैं अपने पेशेवर दायित्वों पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर सकती थी। 

प्रो. चंद्रशेखर ने विविध क्षेत्रों में काम किया था। वे एक क्षेत्र में गहराई से काम करते, उस पर एक किताब लिखते, और फिर किसी नए क्षेत्र में चले जाते। जब मैंने उनके साथ काम करना शुरू किया, तब उनकी रुचि मैग्नेटो-हाइड्रोडायनेमिक्स और प्लाज़्मा भौतिकी में थी। मैंने प्लाज़्मा भौतिकी में विशेषज्ञता हासिल की थी। अपनी थीसिस के लिए मैंने रिलेटिविस्टिक प्लाज़्मा पर काम किया। काम करने का ममेरा तरीका यह रहा है कि पहले एक सामान्य मॉडल तैयार करती हूं और फिर उसे अंतरिक्ष, खगोल भौतिकी और प्रयोगशाला प्लाज़्मा से जुड़े रुचि के मुद्दों पर लागू करती हूं। मैंने गैर-रैखिक (nonlinear) डायनेमिक्स तकनीकों का उपयोग करके कई अवलोकनों की व्याख्या गैर-रैखिक, अशांत (turbulent) और बेतरतीब (chaotic) प्लाज़्मा प्रक्रियाओं के रूप में की है।

शिकागो से पीएच.डी. करने के बाद, मैं भारत लौटी और दो साल तक अपने पुराने संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया। इसके बाद मैंने अमेरिका वापस जाने का फैसला किया, जहां मुझे नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में रेसिडेंट रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम करने का मौका मिला। वहां मैं सैद्धांतिक विभाग से जुड़ी, जिसका नेतृत्व प्रतिभाशाली प्लाज़्मा भौतिकविद टी. जी. नॉर्थरॉप कर रहे थे। वहां का जीवन शिकागो के मेरे छात्र जीवन से बिल्कुल अलग था, लेकिन वहां बिताया गया दो से अधिक वर्षों का समय बहुत ही फलदायी और आनंददायक रहा।

इसके बाद, मैंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), दिल्ली के भौतिकी विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में काम किया। इसी दौरान, चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर) को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेहरू स्मृति व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। व्याख्यान के बाद श्रीमती गांधी ने चंद्रा के सम्मान में रात्रिभोज का आयोजन किया था, और चंद्रा की छात्र के रूप में मुझे भी इसमें आमंत्रित किया गया। इस समारोह में विक्रम साराभाई, डी. एस. कोठारी और भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) के अध्यक्ष जैसे विशिष्ट व्यक्ति मौजूद थे, और मैं उनके बीच एक नगण्य उपस्थिति थी। वहीं पहली बार मेरी मुलाकात प्रो. साराभाई से हुई। उन्होंने उसी वक्त मुझे भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (PRL), जिसके वे निदेशक थे, में काम करने के लिए आमंत्रित किया। इस तरह मैं PRL से जुड़ी और वहां 23 साल तक एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर, सीनियर प्रोफेसर और डीन के रूप में काम किया।

PRL का शोध वातावरण IIT और दिल्ली विश्वविद्यालय से बहुत अलग था। साराभाई ऊंच-नीच के पदानुक्रम में विश्वास नहीं रखते थे और उन्होंने वैज्ञानिकों को पूरी आज़ादी और ज़िम्मेदारियां दी थीं। हमने PRL में सैद्धांतिक और प्रायोगिक दोनों स्तरों पर प्लाज़्मा भौतिकी का एक सशक्त समूह स्थापित किया। मैंने भारत में प्लाज़्मा साइंस सोसायटी की स्थापना की, जिसका पंजीकृत कार्यालय आज भी PRL में है। मुझे गर्व है कि मेरे सभी विद्यार्थी, जो भारत और अमेरिका में बस गए हैं, पेशेवर रूप से और अन्यथा बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।

PRL में काम करते हुए मुझे NASA के अन्य केंद्रों, जैसे कैलिफोर्निया स्थित एम्स रिसर्च सेंटर और जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (JPL) में अपेक्षाकृत लंबे समय तक काम करने का और दौरे करने का अवसर मिला। इसके अलावा, 1986 से 1987 तक मैंने लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भी काम किया। 1985 से 2003 के दौरान, इटली के ट्रीएस्ट स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर थ्योरिटिकल फिजिक्स (ICTP) में प्लाज़्मा भौतिकी के निदेशक के रूप में मुझे कई विकासशील और विकसित देशों के वैज्ञानिकों के साथ काम करने का मौका मिला। मुझे हर दूसरे साल वहां विकासशील देशों के प्रतिभागियों के लिए प्लाज़्मा भौतिकी अध्ययन शाला के आयोजन में काफी समय देना पड़ता था। लेकिन मुझे लगता है कि यह मेहनत सार्थक थी, क्योंकि इन अध्ययन शालाओं के प्रतिभागियों को प्रमुख प्लाज़्मा भौतिकविदों का मार्गदर्शन मिलता था जो वहां व्याख्यान देने के लिए आते थे।

मैं काफी सौभाग्यशाली रही कि मुझे 1990 में इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (INSA), नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS), अमेरिकन फिज़िकल सोसाइटी (APS), और दी एकेडमी ऑफ साइंसेज ऑफ दी डेवलपिंग वर्ल्ड (TWAS)  की फेलो चुना गया। उस समय TWAS में कुछ ही भारतीय फेलो थे। मैं TWAS की पहली भारतीय महिला फेलो और INSA की पहली महिला भौतिक विज्ञानी फेलो बनी। मैंने ‘सौभाग्यशाली’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि किसी भी सम्मानजनक पुरस्कार या साइंस अकादमी की फेलोशिप के लिए नामांकित होना पड़ता है, और पुरुष-प्रधान क्षेत्र में एक महिला वैज्ञानिक के लिए भटनागर पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए नामांकित होना लगभग असंभव था। लैंगिक भेदभाव का एक प्रसंग 1980 के दशक के मध्य में PRL के निदेशक के चयन के समय भी स्पष्ट था। मुझे अक्सर अपने पुरुष सहकर्मियों की ईर्ष्या का सामना करना पड़ा।

यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह सच है कि किसी वैज्ञानिक के कार्य की सराहना अपने देश से ज़्यादा विदेशों में होती है। भारत में विज्ञान जगत में लैंगिक भेदभाव के बावजूद मुझे 1977 में विक्रम साराभाई पुरस्कार (ग्रह विज्ञान), 1993 में जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी व्याख्याता पुरस्कार, 1994 में वेणु बप्पू अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार (खगोल भौतिकी), और 1996 में शिकागो विश्वविद्यालय का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार मिला।

PRL से सेवानिवृत्त होने के बाद, मैंने चार साल फिर से कैलिफोर्निया की जेट प्रपल्शन लैब में बिताए। इसके बाद मैंने दिल्ली में रहकर अपना शोध कार्य जारी रखा और साथ ही 2003 में स्थापित ‘बूटी फाउंडेशन’ (www.butifoundation.org) के माध्यम से सामाजिक कार्य किया। मुझे इस बात का बहुत संतोष है कि फाउंडेशन बहुत अच्छी प्रगति कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।