प्राचीन यूनानी अक्षम बच्चों को नहीं मारते थे

गभग 100 ईस्वीं में यूनानी दार्शनिक प्लूटार्क ने अपनी जीवनी लाइफ ऑफ लायकर्गस में ज़िक्र किया था कि प्राचीन स्पार्टन लोग अपने नवजात शिशुओं को निरीक्षण के लिए समाज के बड़े-बुज़ुर्गों की एक परिषद को सौंप दिया करते थे। इस निरीक्षण के पश्चात चुस्त और तंदुरुस्त बच्चों को जीवित रखा जाता था जबकि कमज़ोर और विकलांग शिशुओं को मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। प्लूटार्क के अनुसार यूनानवासी अस्वस्थ व्यक्ति को न तो खुद उसके लिए और न ही समाज के लिए उचित मानते थे।

यूनानी समाज के बारे में प्लूटार्क की इस कहानी को लगभग 2000 वर्षों तक सही माना गया। यहां तक कि आधुनिक युग के विद्वान भी वर्तमान और प्राचीन समाज के बीच अंतर स्पष्ट करने के लिए पीढ़ियों तक छात्रों को यही पढ़ाते रहे। युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी की पुरातत्वविद लेस्ली बोमॉन्ट के अनुसार विद्वानों ने इस बात को जस का तस स्वीकार कर लिया। और तो और, इस धारणा का उपयोग आधुनिक अत्याचारों को उचित ठहराने के लिए भी किया जाता रहा है। नाज़ी ‘उत्कृष्ट प्रजननविदों’ ने यूनान का उदाहरण लेते हुए विकलांग लोगों की हत्या को उचित ठहराया।

लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य और साहित्यिक स्रोतों पर नज़र डालें तो प्लूटार्क की बात खालिस मिथक प्रतीत होती है। हो सकता है कि विकलांग शिशुओं को मरने के लिए छोड़ देने की घटनाएं कभी-कभार हुई होंगी लेकिन यह प्राचीन यूनानी संस्कृति का अंग नहीं था। इस विषय में कैलिफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में यूनानी सभ्यता का अध्ययन कर रही डेबी स्नीड ने हेस्पेरिया पत्रिका में अपना अध्ययन प्रकाशित किया है।

स्नीड के अनुसार आधुनिक समाज सहित कई समाजों में शिशु-हत्या होती है लेकिन अधिकांश समाज इसे निंदनीय मानते हैं। यूनानी समाज इस मामले में भिन्न नहीं था। स्नीड ध्यान दिलाती हैं कि प्लूटार्क अपनी जीवनी में उन घटनाओं के बारे में बता रहे हैं जो उनके जन्म से 700 वर्ष पहले हुई थीं। दूसरी ओर, उन्हीं की रचना में एक ऐसे स्पार्टन राजा का उल्लेख है जो नाटा था और पैरों से विकलांग था। उसकी पहचान एक अच्छे नेता के रूप में थी। 400 ईसा पूर्व के एक अज्ञात यूनानी डॉक्टर ने समकालीन चिकित्सकों को जन्मजात विकलांग वयस्कों की मदद करने के तरीके भी सुझाए थे। इनसे संकेत मिलता है कि यूनान में विकलांग या शारीरिक रूप से कमज़ोर बच्चे भी समाज के उत्पादक सदस्यों के रूप में वयस्कता तक जीवित रहते थे।       

इसके अलावा, कुछ पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि जन्म के समय गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित शिशुओं की जन्म के पहले हफ्ते अत्यधिक देखभाल की जाती थी। कुछ विशेषज्ञों को 1931 में एथेंस के एक कुएं से 400 शिशुओं के अवशेष मिले जिनका वर्ष 2018 में विश्लेषण करने पर पता चला कि अधिकांश अवशेष बहुत छोटे बच्चों के थे जो प्राचीन युग में उच्च शिशु मृत्यु दर का संकेत देते हैं न कि चुन-चुनकर शिशु हत्या का। इनमें से एक कंकाल गंभीर जानलेवा रोग हाइड्रोसेफली से पीड़ित 6 से 8 महीने के शिशु का था। यूनानी समाज ने ऐसे बच्चे की देखभाल की थी।

इसी दौरान, उत्खननकर्ताओं को यूनान की कब्रों से टोंटीदार सिरेमिक की बोतलें भी मिली हैं जिनकी टोंटियों पर बच्चों के दांत के निशान मिले हैं। स्नीड का दावा है कि इन बोतलों का उपयोग कटे हुए तालू या अन्य अक्षमता वाले शिशुओं को खिलाने के लिए किया जाता था। अर्थात विषम अंगों या अक्षमताओं के साथ पैदा हुए बच्चों का भी नियमित रूप से पालन पोषण किया जाता था और वे अक्सर वयस्कता तक जीवित भी रहते थे।

अलबत्ता, अन्य विद्वान इस दावे से असंतुष्ट हैं। जैसे, युनिवर्सिटी ऑफ मेनचेस्टर के क्लासिसिस्ट क्रिश्चियन लाएस के अनुसार शिशु-हत्या यूनान की आम प्रथा तो नहीं हो सकती लेकिन कई परिवार ऐसे बच्चों का पालन पोषण करने में सक्षम न होने के कारण उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया करते होंगे। इसके साथ ही यह भी संभव है कि सामाजिक असहजता और शर्म के कारण इस सामान्य प्रथा का उल्लेख न किया गया हो।

बोमोन्ट के अनुसार शिशु-हत्या के कोई साक्ष्य तो नहीं हैं लेकिन संभावना है कि ऐसे बच्चों को सार्वजनिक स्थान पर इस उम्मीद में छोड़ दिया जाता होगा कि कोई अन्य उनकी परवरिश करेगा।

स्नीड का मानना है कि विकलांगों के बारे में आधुनिक धारणाओं के आधार पर प्राचीन समाज के बारे में निष्कर्ष निकालना उचित नहीं कहा जा सकता। आज के दौर में विकलांगता का अवमूल्यन किया जाता है। लेकिन कई प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीन समय में लोगों ने विकलांग शिशुओं की देखभाल में समय और संसाधन दोनों लगाए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रजनन करते रोबोट!

कुछ वर्ष पहले युनिवर्सिटी ऑफ वर्मान्ट, टफ्ट्स युनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकली इंस्पायर्ड इंजीनियरिंग और हारवर्ड युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अफ्रीकी नाखूनी मेंढक (ज़ेनोपस लाविस) की स्टेम कोशिकाओं से एक मिलीमीटर का रोबोट तैयार किया था। इसे ज़ेनोबॉट नाम दिया गया। प्रयोगों से पता चला कि ये छोटे-छोटे पिंड चल-फिर सकते हैं, समूहों में काम कर सकते हैं और अपने घाव स्वयं ठीक भी कर सकते हैं।

अब वैज्ञानिकों ने इन ज़ेनोबॉट में प्रजनन का एक नया रूप खोजा है जो जंतुओं या पौधों के प्रजनन से बिल्कुल अलग है। वैज्ञानिक बताते हैं कि मेंढकों में प्रजनन करने का एक तरीका होता है जिसका वे सामान्य रूप से उपयोग करते हैं। लेकिन जब भ्रूण से कोशिकाओं को अलग कर दिया जाता है तब वे कोशिकाएं नए वातावरण में जीना सीख जाती हैं और प्रजनन का नया तरीका खोज लेती हैं। मूल ज़ेनोबोट मुक्त स्टेम कोशिकाओं के ढेर बना लेते हैं जो पूरा मेंढक बना सकते हैं।

दरअसल, स्टेम कोशिकाएं ऐसी अविभेदित कोशिकाएं होती हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में विकसित होने की क्षमता होती है। ज़ेनोबॉट्स बनाने के लिए शोधकर्ताओं ने मेंढक के भ्रूण से जीवित स्टेम कोशिकाओं को अलग करके इनक्यूबेट किया। आम तौर पर माना जाता है कि रोबोट धातु या सिरेमिक से बने होते हैं। लेकिन वास्तव में रोबोट का मतलब यह नहीं होता कि वह किस चीज़ से बना है बल्कि रोबोट वह है जो मनुष्यों की ओर से स्वयं काम कर दे।

अध्ययन में शामिल शोधकर्ता जोश बोंगार्ड के अनुसार यह एक तरह से तो रोबोट है लेकिन यह एक जीव भी है जो मेंढक की कोशिकाओं से बना है। बोंगार्ड बताते हैं कि ज़ेनोबॉट्स शुरुआत में गोलाकार थे और लगभग 3000 कोशिकाओं से बने थे और खुद की प्रतियां बनाने में सक्षम थे। लेकिन यह प्रक्रिया कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही हुई। ज़ेनोबॉट्स वास्तव में ‘काइनेटिक रेप्लिकेशन’ का उपयोग करते हैं जो आणविक स्तर देखा गया है लेकिन पूरी कोशिका या जीव के स्तर पर पहले नहीं देखा गया।             

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से विविध आकारों का अध्ययन किया ताकि ऐसे ज़ेनोबॉट्स बनाए जा सकें जो अपनी प्रतिलिपि बनाने में अधिक प्रभावी हों। सुपरकंप्यूटर ने C-आकार का सुझाव दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि यह C-आकार पेट्री डिश में छोटी-छोटी स्टेम कोशिकाओं को खोजकर उन्हें अपने मुंह के अंदर एकत्रित कर लेता था। कुछ ही दिनों में कोशिकाओं का ढेर नए ज़ेनोबॉट्स में परिवर्तित हो गया।

शोधकर्ताओं के अनुसार (PNAS जर्नल) आणविक जीवविज्ञान और कृत्रिम बुद्धि के इस संयोजन का उपयोग कई कार्यों में किया जा सकता है। इसमें महासागरों से सूक्ष्म-प्लास्टिक को एकत्रित करना, जड़ तंत्रों का निरीक्षण और पुनर्जनन चिकित्सा जैसे कार्य शामिल हैं।

इस तरह स्वयं की प्रतिलिपि निर्माण का शोध चिंता का विषय हो सकता है लेकिन शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि ये जीवित मशीनें प्रयोगशाला तक सीमित हैं और इन्हें आसानी से नष्ट किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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भारत ने ‘जनसंख्या बम’ को निष्क्रिय किया

1960 के दशक में भारत ने जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि का सामना किया था। उस समय प्रजनन दर लगभग छह बच्चे प्रति महिला थी। इसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को विस्तार दिया जिसमें पुरुषों और महिलाओं दोनों को नसबंदी के लिए नकद प्रोत्साहन की पेशकश की गई।

अगले 60 वर्षों तक भारत ने नसबंदी के साथ-साथ गर्भ-निरोधकों और बालिका-शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। अब स्वास्थ्य अधिकारियों का दावा है कि भारत ने अंतत: जनसंख्या विस्फोट पर नियंत्रण हासिल कर लिया है। हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि देश की प्रजनन दर पहली बार 2.1 संतान प्रति महिला के ‘प्रतिस्थापन स्तर’ से नीचे आ गई है। पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की निदेशक पूनम मुतरेजा के अनुसार भारत की महिलाएं अब कम बच्चे पैदा करने को उचित मान रही हैं।

हालांकि, जनसंख्या फिलहाल बढ़ती रहेगी क्योंकि पूर्व की उच्च प्रजनन दर के कारण भारत की दो-तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है और एक बड़ा समूह बच्चे पैदा करने की उम्र में पहुंच रहा है। लिहाज़ा, प्रतिस्थापन-दर पर भी जनसंख्या में वृद्धि जारी रहेगी और शायद अगले साल ही भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा।

फिर भी भारत की जनसंख्या लगभग 3 दशकों में घटने की संभावना है जिससे भारत बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे कई अन्य विकासशील देशों के रास्ते पर चल पड़ेगा। लेकिन प्रजनन दर में गिरावट के मामले में भारत चीन (1.7 बच्चे प्रति महिला) से काफी पीछे है।

विशेषज्ञों का मत है कि जन्म दर में गिरावट के संदर्भ में सरकारी परिवार नियोजन कार्यक्रम प्रमुख कारक रहा है। एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार 55 प्रतिशत दंपति आधुनिक गर्भ-निरोधकों का उपयोग करते हैं। इनमें से बीस प्रतिशत कंडोम और दस प्रतिशत गोलियों का उपयोग करते हैं। अलबत्ता, सभी गर्भनिरोधकों में से कम से कम दो-तिहाई तो महिला नसबंदी है।

भारत में नसबंदी कार्यक्रम का इतिहास काफी उबड़-खाबड़ रहा है। 1970 के दशक के मध्य में राज्यों को अनिवार्य नसबंदी शिविर संचालित करने के आदेश दिए गए थे। इस दौरान लगभग 1.9 करोड़ लोगों की नसबंदी की गई जिनमें से दो-तिहाई पुरुष थे। वर्तमान में सरकारी नसबंदी क्लीनिकों का ध्यान मुख्य रूप से महिला नसबंदी पर केंद्रित है। कुल गर्भ निरोधकों में से मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा पुरुष नसबंदी का होता है। आम तौर पर महिलाओं की नसबंदी औसतन 25 की उम्र के आसपास की जाती है जिनके पहले से बच्चे हैं। नसबंदी के लिए नकद प्रोत्साहन के अलावा जबरन नसबंदी की शिकायतें भी मिलती रहती हैं।                        

वैसे तो भारत में शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएं अधिक बच्चे पैदा करती हैं लेकिन दोनों ही समूहों की प्रजनन दर में लगातार कमी आई है। इसके साथ ही 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर घटकर 34 (प्रति 1000 जीवित जन्म) रह गई है जो 1960 में 241 थी। बच्चों के लंबी उम्र तक जीवित रह पाने के आश्वासन के चलते महिलाएं परिवार नियोजन को ज़्यादा स्वीकार करने लगी हैं।

छोटा परिवार रखने के लिए प्रोत्साहित करने में शिक्षा की भी बड़ी भूमिका रही है। 1960 के दशक में महिलाओं में निरक्षरता दर लगभग 90 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 35 प्रतिशत रह गई। इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर पापुलेशन साइंस की शोधकर्ता मिलन दास के विश्लेषण के अनुसार 2005 के बाद के दशक में बेहतर शिक्षा के कारण प्रजनन दर में 47 प्रतिशत की कमी आई है। मुतरेजा के अनुसार भारत की महिलाओं की आकांक्षाओं में भी बदलाव आया है। वे अब शादी और बच्चे पैदा करने की बजाय बेहतर नौकरी के अवसरों की तलाश कर रही हैं।     

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रजनन दर भी शिक्षा की भूमिका को दर्शाती है। केरल की साक्षरता दर सबसे अधिक है। केरल ने 1988 में ही प्रतिस्थापन प्रजनन दर हासिल कर ली थी। दूसरी ओर, राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के अनुसार बिहार जैसे सबसे कम साक्षर राज्य में 2039 तक प्रतिस्थापन प्रजनन दर प्राप्त करना मुश्किल होगा।

कुछ भारतीय राजनेता अभी भी जनसंख्या विस्फोट पर चर्चा कर रहे हैं और उत्तर प्रदेश में तो दो से अधिक बच्चे वाले परिवारों को सरकारी नौकरी या राज्य की कल्याण योजनाओं से वंचित रखने का प्रस्ताव है। आलोचकों के अनुसार इस तरह के बयान अक्सर देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए दिए जाते हैं। लेकिन 2015-16 के एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार हिंदू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के औसतन 0.5 प्रतिशत अधिक बच्चे हैं। स्पष्ट है कि प्रजनन सम्बंधी फैसलों में धर्म एक छोटा कारक है।

लेकिन भारत की प्रजनन दर कितनी कम हो सकती है? विशेषज्ञों के अनुसार कम प्रजनन दर वाले राज्यों की दर 1.6 से 1.9 बच्चे प्रति महिला पर स्थिर है। यदि देश में महिला सशक्तिकरण की नीतियों को जारी रखा जाए तो यह दर 1.4 या उससे नीचे जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र के 2019 के जनसंख्या अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या 2050 तक 1.64 अरब तक पहुंच कर इस सदी के अंत तक 1.45 अरब रह जाएगी। एक चिंता यह भी व्यक्त की गई है कि यदि प्रजनन दर में तेज़ी से गिरावट आती है तो अर्थव्यवस्था को नुकसान भी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्मी के झटके और शीत संवेदना – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन


प्रोटीन कामकाजी इकाई बन जाएं इसके लिए उन्हें एक सटीक त्रि-आयामी आकार में ढलना पड़ता है।   ऐसा न होने पर कई विकार उत्पन्न होते हैं। प्रोटीन का एक विशेष समूह प्रोटीन्स को सही ढंग से तह करने में मदद करता है। इन्हें शेपरॉन प्रोटीन कहते हैं।

डीएनए न्यूक्लियोटाइड्स की एक सीधी शृंखला है, जिसके कुछ हिस्सों का सटीक अनुलेखन संदेशवाहक आरएनए (mRNA) में किया जाता है। फिर आरएनए में निहित संदेश अमीनो अम्लों की एक शृंखला यानी प्रोटीन में बदले जाते हैं। प्रोटीन कामकाजी इकाई बन जाएं इसके लिए उन्हें एक सटीक त्रि-आयामी आकार में ढलना पड़ता है। और अक्सर इस आकार में ढलने के लिए प्रोटीन में तहें अपने आप नहीं बनती हैं। प्रोटीन का एक विशेष समूह इन्हें सही ढंग से तह करने में मदद करता है। इन्हें शेपरॉन (सहचर) प्रोटीन कहते हैं।

जीव विज्ञान में शेपरॉन

वैसे शेपरॉन का विचार विचित्र और पुरातनपंथी लग सकता है, लेकिन जैविक कार्यों में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नई प्रोटीन शृंखला को सही आकार देने के बाद शेपरॉन वहां से हट जाते हैं। या फिर नई शृंखला हटा दी जाती है। शेपरॉन के बिना नव-संश्लेषित प्रोटीन्स जल्द ही अघुलनशील उलझे गुच्छे बन जाते हैं, जो कोशिकीय प्रक्रियाओं में बाधा डालते हैं।

कई शेपरॉन ‘हीट शॉक’ प्रोटीन (या ऊष्मा-प्रघात प्रोटीन) की श्रेणी में आते हैं। जब भी किसी जीव को उच्च तापमान का झटका (हीट शॉक) लगता है तो उसके प्रोटीन अपना मूल आकार खोने लगते हैं। व्यवस्था को बहाल करने के लिए बड़ी संख्या में शेपरॉन बनते हैं।

शरीर में सामान्य कोशिकीय क्रियाओं के संचालन लिए भी शेपरॉन की आवश्यकता होती है।

प्रोटीन का गलत जगह या गलत तरीके से मुड़ना कई रोगों का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिए तंत्रिकाओं में अल्फा-सायन्यूक्लीन प्रोटीन पाया जाता है। यह गलत तह किया गया हो तो पार्किंसन रोग होता है। अल्ज़ाइमर के रोगियों के मस्तिष्क में एमिलॉयड बीटा-पेप्टाइड के गुच्छों से बने प्लाक होते हैं। एमिलॉयड तंतुओं का यह जमाव विषैला होता है जो व्यापक पैमाने पर तंत्रिकाओं का नाश करता है – यह एक ‘तंत्रिका-विघटन’ विकार है। आंख के लेंस के प्रोटीन (क्रिस्टेलिन) के गलत ढंग से तह हो जाने के कारण मोतियाबिंद होता है। आंखों के लेंस में अल्फा-क्रिस्टेलिन नामक प्रोटीन्स प्रचुर मात्रा में होते हैं जो स्वयं शेपरॉन के रूप में कार्य करते हैं – मानव अल्फा क्रिस्टेलिन में एक अकेला उत्परिवर्तन कतिपय जन्मजात मोतियाबिंद के लिए ज़िम्मेदार होता है।

आणविक तापमापी

मनुष्यों में प्रमुख शेपरॉन में HSP70, HSC70 और HSP90 शामिल हैं। इन नामों में जो संख्याएं हैं वे प्रोटीन की साइज़ (किलोडाल्टन में) दर्शाती हैं। सामान्य कोशिकाओं में पाए जाने वाले प्रोटीन्स में से 1-2 प्रतिशत प्रोटीन हीट शॉक प्रोटीन होते हैं। तनाव की स्थिति में इनकी संख्या तीन गुना तक बढ़ जाती है।

HSP70 तो ऊष्मा का संपर्क होने पर बनता है जबकि HSC70 हमेशा सामान्य कोशिकाओं में काफी मात्रा में मौजूद होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि HSC70 एक आणविक तापमापी की तरह काम करता है, जिसमें ठंडे (कम तापमान) को महसूस करने की क्षमता है। यह बात कुछ पेचीदा विकारों के अध्ययन से पता चली है। ऐसे विकारों का एक उदाहरण दुर्लभ फैमिलियल कोल्ड ऑटोइन्फ्लेमेटरी सिंड्रोम यानी खानदानी शीत आत्म-प्रतिरक्षा विकार (FCAS) है। इस समूह के विकारों के लक्षणों में त्वचा पर चकत्ते, जोड़ों में दर्द और बुखार शामिल हैं। ये लक्षण कुछ घंटों से लेकर कुछ हफ्तों तक बने रह सकते हैं। इनकी शुरुआत कम उम्र में हो जाती है, और ये ठंड के कारण या थकान जैसे तनाव के कारण शुरू होते हैं। इस विकार के भ्रामक लक्षणों के कारण इसका निदान मुश्किल होता है – पहली बार प्रकट होने के बाद पक्का निदान करने में दस-दस साल लग जाते हैं।

भारत में FCAS ग्रस्त पहला परिवार इस साल अगस्त में पहचाना गया था। बेंगलुरु स्थित एस्टर सीएमआई अस्पताल के सागर भट्टड़ और उनके सहयोगियों ने चार साल के एक लड़के, जिसे अक्सर जाड़ों में चकत्ते पड़ जाते थे, में FCAS के आनुवंशिक आधार का पता लगाया। पता चला है कि उसके दादा सहित परिवार के कई सदस्यों में यही दिक्कतें थी (इंडियन जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स, अगस्त 2021)।

ठंडा महसूस करने में HSC70 की भूमिका को लेकर सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के घनश्याम स्वरूप और उनके समूह ने आत्म-प्रतिरक्षा जनित शोथ (ऑटोइन्फ्लेमेशन) की स्थिति शुरू होने की एक रूपरेखा तैयार की है (FEBS जर्नल, सितंबर 2021)।

शीत संवेदना से सम्बंधित विकार उन प्रोटीन्स में उत्परिवर्तन के कारण होते हैं जो शोथ को नियंत्रित करते हैं। शरीर के सामान्य तापमान पर तो HSC70 इन उत्परिवर्तित प्रोटीनों को भी सही ढंग से तह होने के लिए तैयार कर लेता है, और इस तरह ये उत्परिवर्तित प्रोटीन भी सामान्य ढंग से कार्य करते रहते हैं। ठंड की स्थिति में, HSC70 अणु का आकार खुद थोड़ा बदल जाता है और शोथ के लिए ज़िम्मेदार उत्परिवर्तित अणुओं के साथ यह उतनी मुस्तैदी से निपट नहीं पाता। इस कारण दो घंटे के भीतर ही ठंड लगना, जोड़ों में दर्द और त्वचा पर लाल चकत्ते जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं।

कैंसर कोशिकाएं अंधाधुंध तरह से विभाजित होती हैं। कैंसर की ऐसी तनावपूर्ण स्थिति को बनाए रखने में हीट शॉक प्रोटीन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। कैंसर कोशिकाओं में हीट शॉक प्रोटीन की अधिकता रोग के बिगड़ने का संकेत होता है। कैंसर कोशिकाओं में ऐसे प्रोटीन्स, जो सामान्य रूप से ट्यूमर का दमन करते हैं, में उत्परिवर्तन इकट्ठे होते चले जाते हैं। इस मामले में HSP70 और HSP90 खलनायक की भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे उत्परिवर्तित प्रोटीन को तह करना जारी रखते हैं और ट्यूमर को बढ़ने का मौका देते हैं। प्रयोगशाला में, HSP90 के अवरोधकों ने कैंसर विरोधी एजेंटों के रूप में आशाजनक परिणाम दिए हैं। अलबत्ता, मनुष्यों पर उपयोग के लिए अब तक किसी भी अवरोधक को मंज़ूरी नहीं मिली है, क्योंकि प्रभावी होने के लिए इन रसायनों की जितनी अधिक मात्रा की ज़रूरत होती है वह मानव शरीर के हानिकारक है। (स्रोत फीचर्स)

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मैडागास्कर में मिली मेंढक की नई प्रजाति

मैडागास्कर जैव विविधता और खासकर उभयचरों की विविधता से समृद्ध देश है। लेकिन हाल के वर्षों में जो नई उभयचर प्रजातियां खोजी गई हैं उन्हें अप्रकट प्रजाति की क्षेणी में रखा जाता है क्योंकि ये दिखने में तो पहले से ज्ञात प्रजातियों से बहुत मिलती-जुलती होती हैं और इन्हें अलग प्रजाति मात्र डीएनए की तुलना के आधार पर माना गया है।

लेकिन हाल ही में लुसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के शोधकर्ता कार्ल हटर ने मैडागास्कर के एंडेसिबी-मैनटेडिया नेशनल पार्क में एक ऐसी मेंढक प्रजाति खोजी  है जो अन्य मेंढकों से एकदम अलग दिखती है। मेडागास्कर के वर्षा-वन के ऊंचे क्षेत्रों में पाया गया यह मेंढक आकार में बहुत छोटा है। इसकी त्वचा मस्सेदार और आंखें चटख लाल रंग की हैं।

देखा जाए तो इस नई मेंढक प्रजाति का मिलना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस इलाके को पहले ही काफी खंगाला जा चुका है। हटर और उनके सहयोगियों का सामना इस प्रजाति से पहली बार वर्ष 2015 में हुआ था। शोधकर्ताओं ने इस खोज को ज़ुओसिस्टेमेटिक्स एंड इवॉल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित किया है और इस नई प्रजाति की विशिष्ट त्वचा को देखते हुए इसे गेफायरोमेंटिस मारोकोरोको (मलागासी भाषा में ऊबड़-खाबड़) नाम दिया है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि यह उभयचर एक अनूठी ध्वनि भी निकालता है। दो से चार पल्स के बाद एक लंबी ध्वनि इतनी मंद होती है कि कुछ मीटर दूर तक ही सुना जा सकता है। चूंकि इस निशाचर मेंढक की रहस्यमय प्रकृति भारी बारिश के बाद बाहर आने पर ही दिखती है, इसलिए इसके वर्गीकरण के लिए पर्याप्त नमूने और रिकॉर्डिंग एकत्रित करने में कई साल लगेंगे।

शोधकर्ताओं को लगता है कि यह प्रजाति विलुप्त होने के जोखिम में है क्योंकि इसे जंगल के सिर्फ चार टुकड़ों में पाया गया है, और जहां यह पाया गया है वहां झूम खेती (स्लेश एंड बर्न) का खतरा रहता है। (स्रोत फीचर्स)

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ओमिक्रॉन से सम्बंधित चिंताजनक डैटा

मिक्रॉन संस्करण के उभार ने एक बार फिर चिंता बढ़ा दी है। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि ओमिक्रॉन ऐसे लोगों को संक्रमित करने की क्षमता रखता है जो पूर्व में वायरस के प्रभाव से उबर चुके हैं। अर्थात यह नया संस्करण प्रतिरक्षा तंत्र के कुछ हिस्सों को चकमा देने में सक्षम है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह संस्करण टीका-प्रेरित प्रतिरक्षा से भी बच सकता है।

दक्षिण अफ्रीका बड़े पैमाने पर कोविड-19 की तीन लहरों – मूल वायरस, बीटा संस्करण और डेल्टा संस्करण – का सामना कर चुका है। अध्ययनों से पता चलता है कि पूर्व-संक्रमण ने बीटा और डेल्टा के विरुद्ध अपूर्ण लेकिन महत्वपूर्ण सुरक्षा प्रदान की थी और उम्मीद थी कि दक्षिण अफ्रीका ने झुंड-प्रतिरक्षा विकसित कर ली होगी। लेकिन वैज्ञानिकों को डर है कि ओमिक्रॉन में ऐसे कई उत्परिवर्तन हैं जो प्रतिरक्षा को भेदने में सक्षम हैं।

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में 28 लाख पॉज़िटिव मामलों में से 35,670 पुन: संक्रमण के मामले थे। हालांकि, इस अध्ययन में न तो यह बताया गया है कि ओमिक्रॉन किस हद तक लोगों को बीमार करता है और न ही इसमें टीकाकृत लोगों की स्थिति पर कोई चर्चा की गई है। संभावना है कि पूर्व संक्रमण या टीकाकरण गंभीर बीमारी से कुछ हद तक बचा सकेगा।

दक्षिण अफ्रीका की महामारीविद जूलियट पुलियम और उनके सहयोगियों ने पाया कि प्रयोगशाला में बीटा संस्करण पूर्व में संक्रमित लोगों की प्रतिरक्षा से बच निकलने में सक्षम है। वे इस व्यवहार को वास्तविक परिस्थिति में समझना चाहते थे।

शोधकर्ताओं ने व्यापक डैटा का उपयोग करते हुए पुन:संक्रमण की संख्या का विश्लेषण किया। पुन:संक्रमण को प्रारंभिक संक्रमण के 90 दिनों से अधिक समय बाद पॉज़िटिव परीक्षण के रूप में परिभाषित किया गया। उन्होंने पाया कि पूर्व-संक्रमणों ने बीटा और डेल्टा लहरों के दौरान लोगों के संक्रमित होने के जोखिम को कम किया है। इस वर्ष अक्टूबर में जब संक्रमण दर काफी कम थी तब पुलियम ने कुछ विचित्र डैटा देखा। उन्होंने पाया कि पहली बार संक्रमण का जोखिम तो कम हो रहा है (संभवतः टीकाकरण में वृद्धि के कारण) लेकिन पुन: संक्रमण का जोखिम तेज़ी से बढ़ रहा है। ओमिक्रॉन की खोज ने कुछ हद तक इस गुत्थी को सुलझा दिया।

हालांकि इस बारे में काफी अनिश्चितताएं हैं लेकिन कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्व-संक्रमण डेल्टा की तुलना में ओमिक्रॉन के विरुद्ध सिर्फ आधी सुरक्षा देता है।

फिलहाल तो सभी की निगाहें दक्षिण अफ्रीका के अस्पतालों पर टिकी हैं जो एक बार फिर कोविड-19 रोगियों से भरने लगे हैं। इन्हीं स्थानों पर शोधकर्ताओं को कुछ सुराग मिलने की उम्मीद है जिससे यह पता चल सकेगा कि पूर्व के संक्रमण या टीकाकरण किस हद तक पुन:संक्रमण की संभावना व गंभीरता को कम करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड का आंख और कान पर प्रभाव

हामारी की शुरुआत से ही स्वाद और गंध संवेदना के ह्रास कोविड-19 के लक्षणों की तरह पहचाने जाने लगे थे। पता चला है कि दृष्टि और श्रवण संवेदनाएं भी प्रभावित हुई हैं। 10 प्रतिशत से अधिक मरीज़ों में आंख और कान सम्बंधी समस्याएं विकसित हुई हैं जो लंबे समय तक बनी रह सकती हैं।

बीमारी के चेतावनी संकेतों में बुखार, खांसी या स्वाद एवं गंध में बदलाव के साथ आंख में जलन, सुनने में दिक्कत या असंतुलन सम्बंधी समस्याओं को भी शामिल किया जाना चाहिए। ऐसा लगता है कि इस संक्रमण के चलते कई अनपेक्षित तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ ऊटा के भूपेंद्र पटेल के अनुसार नेत्र रोग विशेषज्ञ ली वेनलियांग को यह संक्रमण संभवत: एक अलक्षणी ग्लूकोमा रोगी से मिला था। महामारी की शुरुआती रिपोर्टों में कोविड के लक्षणों में आंखों का लाल होना भी शामिल था।

2003 के सार्स प्रकोप के दौरान भी सिंगापुर के शोधकर्ताओं ने संक्रमितों के आंसुओं में वायरस पाया था। टोरंटो में उन स्वास्थ्य कर्मियों में संक्रमण का जोखिम अधिक पाया गया जो आंखों के लिए सुरक्षा उपकरण का उपयोग नहीं करते थे।

महामारी के दौरान अधिकांश नेत्र चिकित्सकों ने अपने क्लीनिक बंद रखे थे। इसलिए शुरुआत में आंख सम्बंधी लक्षणों की अनदेखी हुई। कई अध्ययनों के अनुसार महामारी के पहले डेढ़ वर्ष में एकत्रित डैटा से पता चलता है कि कोविड से पीड़ित 11 प्रतिशत लोगों ने नेत्र सम्बंधी समस्याओं की शिकायत की है। इसमें आंख आना और आंखों की झिल्ली में सूजन सबसे आम लक्षण रहे। अन्य लक्षणों में आंखों का सूखना, लाल होना, खुजली, धुंधला दिखना, चुंधियाना और आंख में कुछ गिरने जैसी अनुभूति होना शामिल हैं।

अध्ययन से प्राप्त जानकारी के अनुसार कोविड से ग्रसित व्यक्ति आंसुओं के माध्यम से भी वायरस प्रसारित कर सकता है। वुहान से इटली आई एक 65 वर्षीय महिला में खांसी, गले में खराश और दोनों आंखों में नेत्र-शोथ के लक्षण पाए गए। हालांकि, अस्पताल में भर्ती होने के 20 दिन बाद नेत्र-शोथ की समस्या ठीक हो गई थी लेकिन 27वें दिन लिए गए आंखों के फोहे में वायरल आरएनए पाए गए थे। इटली में 2020 के वसंत में अस्पताल में भर्ती 91 में से 52 रोगियों में श्वसन फोहे के नेगेटिव परिणाम के बाद भी आंखों की सतह पर सार्स-कोव-2 पाए गए थे। बंदरों पर किए गए अध्ययनों से पता चला है कि वायरस आंखों के माध्यम से भी शरीर में प्रवेश कर सकता है।

आंखों की समस्याओं के अलावा सुनने और संतुलन बनाने में मुश्किल भी सार्स-कोव-2 संक्रमण का संकेत हो सकता है। युनिवर्सिटी ऑफ लेथब्रिज की ऑडियोलॉजिस्ट और संज्ञान तंत्रिका विज्ञानी ज़हरा जाफरी और उनके सहयोगियों ने अपने अध्ययन में 12 प्रतिशत कोविड रोगियों में चक्कर आने, 4.5 प्रतिशत रोगियों में कान बजने और 3 प्रतिशत में श्रवण संवेदना में क्षति पाई है।

कुल मिलाकर लगता है कि दृष्टि व श्रवण सम्बंधी लक्षणों को चेतावनी संकेतों में शामिल किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रासायनिक आबंध की मज़बूती

पाठ्य पुस्तकें बताती आई हैं कि रासायनिक बंधनों की मज़बूती उन्हें बनाने वाले परमाणुओं के बीच विद्युत-ऋणात्मकता पर निर्भर करती है – दो तत्वों के परमाणुओं के बीच विद्युत-ऋणात्मकता में अंतर जितना अधिक होगा उनके बीच रासायनिक बंधन उतना मज़बूत होगा। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुछ मामलों में परमाणु के आकार में अंतर भी बंधन की मज़बूती का निर्धारण करता है।

रैडबौड युनिवर्सिटी और व्रीजे युनिवर्सिटी के मैथियास बिकेलहॉप्ट बताते हैं कि विद्युत-ऋणात्मकता मॉडल का सबसे अनूठा अपवाद है कार्बन-हैलोजन बंधनों की शृंखला, जबकि इन्हीं बंधनों के आधार पर विद्युत-ऋणात्मकता मॉडल की व्याख्या की जाती है।

शोधकर्ताओं ने डेंसिटी फंक्शनल थ्योरी का उपयोग करते हुए आवर्त सारणी के आवर्त 2 और 3 और समूह 14 से 17 के तत्वों के बीच रासायनिक बंधनों का विश्लेषण किया। ये बंधन रसायनों में आम तौर पर पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने देखा कि दो परमाणुओं को पास लाने पर उनके बीच की बंधन ऊर्जा किस तरह बदलती है। इलेक्ट्रॉन और नाभिक जब एक-दूसरे के नज़दीक आते हैं तो वहां हो रहे ऊर्जा परिवर्तन के कई घटक होते हैं। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण करके देखा कि आबंध ऊर्जा में अलग-अलग अवयवों के तुलनात्मक प्रभाव क्या हैं। इससे उन्हें यह जानने में मदद मिली कि आवर्त और समूहों के हिसाब से ये अवयव और प्रभाव कैसे बदलते हैं।

शोधकर्ताओं ने देखा कि किसी आवर्त में आगे बढ़ने पर, उदाहरण के लिए कार्बन-कार्बन बंध से लेकर कार्बन-फ्लोरीन बंध तक, तत्वों के बीच विद्युत-ऋणात्मकता का अंतर बढ़ने पर आबंध मजबूत होते जाते हैं। लेकिन सारणी में समूह में ऊपर से नीचे जाने पर, उदाहरण के लिए कार्बन-फ्लोरीन से लेकर कार्बन-आयोडीन तक, परमाणु आकार का बढ़ने से आबंध कमज़ोर पड़ने लगते हैं।

किसी अणु की संरचना और अभिक्रियाशीलता रासायनिक आबंधों की स्थिरता और लंबाई पर निर्भर करती है। इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि आवर्त सारणी में भिन्न-भिन्न तत्वों के बीच संयोजनों के लिए ये मापदंड कैसे बदलते हैं। इससे वैज्ञानिकों को नए अणु, जैसे औषधीय यौगिकों और अन्य कामकाजी पदार्थों, के उत्पादन के लिए बेहतर तरीके विकसित करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अफवाह फैलाने में व्यक्तित्व की भूमिका

ज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं।

इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।

व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी  लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।

यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।

दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।

सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की, और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।         

दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट’ और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित’ टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट’ टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।

यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2020 – ए. डी. दिलीप कुमार और डी. नरसिम्हा रेड्डी

यह लेख मूलत: करंट साइंस पत्रिका (अगस्त 2021) में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है।

केंद्रीय मंत्रीमंडल ने फरवरी 2020 में नए कीटनाशक प्रबंधन विधेयक को मंज़ूरी दी। इस विधेयक में उद्योगों को विनियमित करने के प्रावधान तो हैं लेकिन इसमें ऐसे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया है जो कीटनाशकों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले जोखिमों को कम करने के लिहाज़ से अनिवार्य हैं। यह विधेयक पंजीकरण उपरांत जोखिम में कमी, कीटनाशक उपयोगकर्ताओं, समुदाय और पर्यावरण की सुरक्षा को संबोधित करने में विफल रहा है। ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण सुरक्षा के संदर्भ में इस विधेयक के परिणाम घटिया हो सकते हैं; इसलिए इसमें महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता है।

फरवरी 2020 में केंद्रीय मंत्रीमंडल द्वारा कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2020 (पीएमबी 2020) को मंज़ूरी दी गई। जून 2021 में, विधेयक को जांच के लिए कृषि मामलों की स्थायी समिति को भेजा गया। पारित होने पर यह नया अधिनियम कीटनाशक अधिनियम 1968 का स्थान लेगा। इस विधेयक में उद्योगों के नियमन के साथ-साथ कीटनाशक विषाक्तता की निगरानी और पीड़ितों को मुआवज़ा देने सम्बंधी प्रावधान हैं। लेकिन, इसमें ऐसे कई मुद्दों को संबोधित नहीं किया गया है जो प्रभावी कीटनाशक प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन मुद्दों पर यहां चर्चा की गई है।     

विधेयक (पीएमबी 2020) भारत में कीटनाशकों के उपयोग के परिदृश्य को संबोधित करने में विफल रहा है। केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति (सीआईबी और आरसी) द्वारा कीटनाशकों को फसल और कीट के किसी विशिष्ट संयोजन और/या लक्षित कीटों के लिए पंजीकृत और अनुमोदित किया जाता है। कीटनाशक अवशेष (रेसिड्यू) सम्बंधी मानक और अन्य नियम अनुमोदित उपयोग के आधार पर तैयार किए जाते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि राज्य कृषि विश्वविद्यालयों/विभागों, कमोडिटी बोर्डों और उद्योगों ने अनुमोदित उपयोग का ध्यान रखे बिना कीटनाशकों के उपयोग की सिफारिश की थी। किसान कीटनाशकों का उपयोग कई फसलों के लिए यह ध्यान दिए बगैर करते हैं कि अनुमोदित उपयोग क्या है। गैर-अनुमोदित कीटनाशकों के उपयोग की बात अवशेष की निगरानी में पता चली है। इसलिए, पीएमबी 2020 में होना यह चाहिए था कि कृषि वि.वि. और विभागों, कमोडिटी बोर्डों और पेस्टिसाइड लेबल के दावों द्वारा की गई सिफारिशों का तालमेल अनुमोदित उपयोग से स्थापित करने और अन्य उपयोगों को अवैध घोषित करने का प्रावधान हो।   

पीएमबी 2020 में ‘कीट नियंत्रण संचालक’ और ‘कार्यकर्ता’ की परिभाषा में देश के सबसे बड़े कीटनाशक उपयोगकर्ताओं, किसानों और कृषि श्रमिकों, को शामिल नहीं किया गया है। इसलिए विधेयक में आवश्यक रूप से यह निर्दिष्ट किया जाना चाहिए कि कौन लोग कृषि और अन्य कार्यों में कीटनाशकों का इस्तेमाल कर सकते हैं।    

कीटनाशक पंजीकरण की प्रक्रिया कीटनाशक के चयन का अवसर देती है। यह चयन उपयोग की परिस्थिति में प्रभाविता, मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण सुरक्षा सम्बंधी डैटा के मूल्यांकन के आधार पर किया जाता है। कीटनाशकों के जोखिम को कम करने के तीन महत्वपूर्ण सूत्र हैं: ‘कीटनाशकों पर निर्भरता कम करना’, ‘कम जोखिम वाले कीटनाशकों का चयन’, और ‘उचित ढंग से उपयोग सुनिश्चित करना’। अंतर्राष्ट्रीय कीटनाशक प्रबंधन आचार संहिता (इंटरनेशनल कोड ऑफ कंडक्ट ऑन पेस्टिसाइड मैनेजमेंट, आईसीसीपीएम) के अनुच्छेद 3.6 और 6.1.1 का पालन करते हुए, पंजीयन के लिए निर्णय लेने और अत्यधिक खतरनाक कीटनाशकों (जिनको अत्यधिक विषाक्त माना जाता है) वाले रसायनों को पंजीकृत न करने के लिए एफएओ टूलकिट अधिक फायदेमंद होगा। इससे भारत में कीटनाशक सम्बंधी जोखिमों में कमी लाई जा सकती है।   

वर्तमान में, भारत में 62 कीटनाशकों को ‘पंजीकृत माना गया’ है, जिनकी उपस्थिति कीटनाशक अधिनियम 1968 से भी पहले से है। इनमें से अधिकांश कीटनाशक मूल्यांकन प्रक्रिया से परे पंजीकृत माने जाते रहे हैं। विधेयक में ‘पंजीकृत माना गया’ (अनुच्छेद 23) के प्रावधान को बनाए रखना अनुचित है। अनिवार्य पंजीकरण की खोजबीन और मानक प्रोटोकॉल के साथ सभी कीटनाशकों की समीक्षा, विधेयक का हिस्सा होना चाहिए।

पीएमबी 2020 ने एक सलाहकारी भूमिका के साथ सेंट्रल पेस्टिसाइड बोर्ड (सीपीबी) के गठन का प्रस्ताव दिया है। इसके अतिरिक्त, सीपीबी को कीटनाशक पंजीकरण के मानदंडों को विकसित और अपडेट करने, पारदर्शी प्रक्रियाओं को तैयार करने, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य मानदंडों का अनुपालन करने और पंजीकरण के बाद के निगरानी करने का काम सौंपा जा सकता है। इस बोर्ड में मान्यता प्राप्त कृषि श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जा सकता है।

पीएमबी 2020 में पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) का उपयोग करने के महत्वपूर्ण प्रावधान गायब हैं जो कीटनाशक अधिनियम 1968 और पीएमबी 2017 के मसौदे में उपलब्ध थे। महाराष्ट्र में पीपीई के बिना कीटनाशकों का छिड़काव कीटनाशक विषाक्तता के कारणों में से एक माना गया है। उद्योग के माध्यम से आईसीसीपीएम के अनुच्छेद 3.6 का पालन करने वाले पीपीई के अनिवार्य रूप से उपयोग के पर्याप्त प्रावधान काफी उपयोगी हो सकते हैं। कीटनाशकों के उपयोग से अक्सर विषाक्तता हो जाती है। इस कारण से, एंटी-डॉट्स के साथ कीटनाशकों के पंजीकरण को प्रतिबंधित करना उचित होगा।     

कीटनाशकों का बहाव, छिड़काव क्षेत्र से परे लोगों में कीटनाशकों के संपर्क में आने के जोखिम और विषाक्तता को बढ़ा सकता है तथा पारिस्थितिकी तंत्र को भी दूषित कर सकता है। इससे बचने के लिए, पीएमबी 2020 को कुछ संवेदनशील क्षेत्र जैसे आंगनवाड़ी, स्कूल, स्वास्थ्य सेवा केंद्र, सामुदायिक सभाओं, आवास, आदि के लिए बफर ज़ोन घोषित करना चाहिए। कीटनाशक-मुक्त बफर ज़ोन की घोषणा करने की शक्ति राज्य सरकारों या स्थानीय इकाइयों को दी जानी चाहिए।

पीएमबी 2020 में कीटनाशकों के उपयोग के जोखिम को कम करने के प्रावधानों का अभाव है। कीटनाशकों के जीवन चक्र का प्रबंधन जैसे एक्सपायर्ड उत्पादों और खाली कीटनाशक कंटेनरों के उचित संग्रह और निपटान को पीएमबी 2020 में लाया जाना चाहिए। ऐसे प्रावधान भी अनिवार्य हैं जो पारस्थितिकी तंत्रों (वायु, जल निकायों, मिट्टी, जंगलों, आदि) के संदूषण को संबोधित करें और मनुष्यों तथा अन्य जीवों को भी इसके संपर्क में आने से भी रोकें। ‘प्रदूषक भुगतान करें’ के सिद्धांत का अनुपालन करने वाले प्रवधानों को कानून का हिस्सा होना चाहिए।       

 इसके अलावा, जवाबदेही और पारदर्शिता के प्रावधान मनुष्यों और पर्यावरण को कीटनाशकों के नुकसान से बचाने के उद्देश्य का हिस्सा हैं; इसलिए इसे विधेयक में लाया जाना चाहिए। इन प्रावधानों का उल्लंघन अन्य अपराधों और सज़ाओं के समान होना चाहिए। इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए, कुछ निर्धारित कार्यों के लिए प्रशिक्षित और जानकार कर्मचारियों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

पीएमबी 2020 के वर्तमान संस्करण में महत्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता है जिसके बिना भारत में कीटनाशक कानून मानव स्वस्थ्य, जीवों और पर्यावरण की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं होगा। एहतियाती सिद्धांतों की रोशनी में और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा आश्वस्त अधिकारों को सुनिश्चित करते हुए, देश में कीटनाशक कानून को कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित गैर-रासायनिक कृषि उत्पादन प्रणालियों को बढ़ावा देकर ज़हरीले रासायनिक कीट नियंत्रण उत्पादों पर निर्भरता में कमी की सुविधा प्रदान करनी चाहिए। संधारणीय कृषि, सुरक्षित खाद्य सामग्री उत्पादन और सुरक्षित कार्यस्थल के साथ-साथ प्रदूषण रहित वातावरण प्राप्त करने के लिए पीएमबी 2020 में महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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