असली यानी जैविक पिता का सवाल

डॉ. सुशील जोशी

पको कैसा लगेगा यदि अचानक आपको पता चले कि आप जिस व्यक्ति को अपना पिता मानते आए हैं, वह जैविक रूप से आपका पिता (biological father) नहीं है। छोटे समय की बात छोड़िए, लेकिन यदि आपको अपनी कई पीढ़ियों की वंशावली में यह देखने को मिले कि उसमें किसी पीढ़ी में किसी संतान का पिता वह नहीं था, जिसे सामाजिक या कानूनी रूप (family history, genetic ancestry) से पिता माना गया था। इसी के साथ यह बात भी जुड़ जाती है कि कोई भाई-भाई, बहन-बहन या भाई-बहन (siblings DNA test) वास्तव में सहोदर हैं या नहीं।

पितृत्व (जैविक तथा सामाजिक) का यह सवाल कई संस्कृतियों-समाजों में बहुत अहमियत रखता है। तो बेल्जियम स्थित केयू ल्यूवेन विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी मार्टेन लारमूसौ (Maarten Larmuseau) ने इस विषय की जांच-पड़ताल करने का विचार किया। सवाल था: कितने मामलों में महिला उन पुरुषों के साथ बच्चे पैदा करती हैं, जिनकी वे संगिनी (infidelity, paternity) नहीं हैं?

अधिकांश समाजों में सहोदर सम्बंध काफी हद तक सामाजिक रूप (kinship, social) से निर्मित होते हैं। इनमें दत्तक संतान या सौतेले परिवार भी शामिल होते हैं। लेकिन जैविक पिता के सवाल सहस्राब्दियों से परिवारों को तहस-नहस करते रहे हैं और सांस्कृतिक चिंताओं का कारण बनते रहे हैं। पारिवारिक-सामाजिक मुद्दों के अलावा बच्चे के जैविक पिता के बारे में जानना कभी-कभी अपराध विज्ञान (forensic science) या चिकित्सा (medical science) दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

यह संभव है कि किसी बच्चे के पिता को लेकर संशय महिला द्वारा इरादतन किसी अन्य पुरुष से सम्बंध का परिणाम हो, लेकिन इस संदर्भ में यौन हिंसा अथवा दबाव के तहत यौन सम्बंधों को भी नकारा नहीं जा सकता। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि कानूनी पिता को मालूम होता है कि वह जैविक पिता नहीं है। ऐसे सारे प्रकरणों के लिए लारमूसौ जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वह है दम्पती-इतर पितृत्व (extra-pair paternity)। इसमें वे दत्तक अथवा विवाहेतर जन्मों को शामिल नहीं करते हैं, जहां पिता की जैविक पहचान ज्ञात होती है। उन्होंने यह जानने के लिए एक तकनीक विकसित की है कि दम्पती-इतर पितृत्व कितना सामान्य है।

सामाजिक रूप से संवेदनशील होने के कारण आम तौर पर जीव वैज्ञानिक मनुष्यों के संदर्भ में इस विषय को टाल देते हैं, हालांकि पशु-पक्षियों में यह अनुसंधान का एक प्रमुख विषय रहा है।

तो लारमूसौ ने क्या विधि अपनाई थी दम्पती-इतर पितृत्व के आकलन के लिए? इस खोजबीन का एक मज़ेदार अध्याय मशहूर पाश्चात्य संगीतकार बीथोवन से जुड़ गया था।

दरअसल, पीएचडी छात्र के रूप में लारमूसौ ने बाल्टिक और भूमध्यसागर में पाई जाने वाली एक मछली प्रजाति पर शोध किया था – सैण्ड गोबी (Pomatoschistus minutus)। गोबी के नर संतानोत्पत्ति में काफी योगदान देते हैं – वे घोंसला बनाते हैं और निषेचित अंडों की देखभाल करते हैं। दूसरी ओर, मादा तो अंडे देकर निकल जाती है। हां, यह ज़रूर है कि नर गोबी कभी-कभार अन्य नरों द्वारा बनाए गए घोसलों में घुसकर अंडों को निषेचित करके नौ-दो-ग्यारह हो जाता है। नतीजतन उस घोंसले का निर्माता नर किसी अन्य की संतानों की परवरिश करता है। इसके चलते सैण्ड गोबी दम्पती-इतर पितृत्व के अध्ययन के लिए उम्दा जंतु माना जाता है।

एक अपराध विज्ञान प्रयोगशाला में काम करते हुए लारमूसौ के मन में विचार आया कि मनुष्यों में इसी तरह का व्यवहार हो तो उसके चलते डीएनए विश्लेषण की मदद से लाशों की पहचान तथा अपराधों के अन्वेषण में मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। लेकिन उस विषय में बात करना बहुत कठिन था। पशु-पक्षियों के बारे में तो दम्पती-इतर पितृत्व को लेकर काफी साहित्य उपलब्ध है, लेकिन इन्सानों के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते।

प्रामाणिक आंकड़ों के अभाव में वैज्ञानिक अटकलों का सहारा लेते थे। जैसे जीव वैज्ञानिक जेरेड डायमंड ने अपनी पुस्तक दी थर्ड चिम्पैंज़ी: दी इवॉल्यूशन एंड फ्यूचर ऑफ ह्युमैन एनिमल में दावा किया था कि इन्सानों में सामाजिक रूप से मान्य सम्बंधों के बाहर यौन सम्बंध लगभग 5 से 30 प्रतिशत होते हैं। इसी प्रकार से, रीडिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक मार्क पेजल ने कहा था कि जन्म के समय मानव शिशुओं के बीच भेद करने में मुश्किल जैव विकास के दौरान विकसित हुई है ताकि उनकी वास्तविक वल्दियत उजागर न हो।  

अंतत: एक आम सहमति उभरी जो मूलत: जेनेटिक पितृत्व निर्धारण के शुरुआती प्रयासों पर आधारित थी। दी लैंसेट में प्रकाशित एक लेख में सैली मैकिन्टायर और एनी सूमैन ने बताया था कि लगभग 10 प्रतिशत बच्चे विवाहेतर सम्बंधों के परिणाम होते हैं। हालांकि इस आंकड़े के सत्यापन अथवा खंडन के लिए ठोस आंकड़े नहीं थे लेकिन पत्रकार और शोधकर्ता इसे बार-बार दोहराते रहे और यह स्थापित ‘तथ्य’ बन गया।

लेकिन यदि 10 प्रतिशत विवाहेतर संतानों का आंकड़ा सही है, तो कई वंशावलियां बेकार हो जाएंगी। रोचक बात यह रही कि स्वयं लारमूसौ के पर-काका अपने परिवार का इतिहास जानने को उत्सुक थे लेकिन 10 प्रतिशत की बात सुनकर उनका उत्साह जाता रहा था। अलबत्ता, लारमूसौ लगे रहे। पहले उन्होंने अपने ही परिवार का इतिहास खंगाला। अंतत: उन्होंने अपनी सोलह से अधिक पीढ़ियों के हज़ारों पूर्वजों का एक चार्ट बना लिया। वे सोचने लगे कि कहीं जेरेड डायमंड और अन्य शोधकर्ता सही तो नहीं हैं? और इनमें से कितने सामाजिक व कानूनी पूर्वज उनके जैविक पूर्वज भी हैं।

इस संदर्भ में मौजूदा प्रमाण विवादास्पद हैं। पितृत्व जांच पर आधारित अनुमान पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, क्योंकि जो लोग पैसा खर्च करके ऐसे परीक्षण करवाते हैं, उनके मन में पहले से ही दम्पती-इतर संतान होने की शंका रहती है। अस्थि मज्जा दानदाताओं के सैम्पल्स तथा अन्य स्रोतों से पता चलता था कि आधुनिक आबादियों में दम्पती-इतर संतानोत्पत्ति की दर कम है, लेकिन वह शायद यौन-सम्बंधों को लेकर व्यवहार में परिवर्तन की वजह से नहीं बल्कि आधुनिक गर्भनिरोधकों की उपलब्धता के कारण भी हो सकता है। और सड़क चलते लोगों से उनके यौन व्यवहार के बारे में पूछना ‘आ बैल सींग मार’ जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। यानी वर्तमान का अध्ययन करना कठिन है और लारमुसौ ने अतीत का रुख किया।

उन्होंने 2009 में स्थानीय स्तर पर 1400 के दशक से शुरू करके वंशावलियां एकत्रित कीं। इसमें उन्हें बेल्जियन व डच वंशावली तथा विरासत को लेकर उत्साहित लोगों की मदद मिली। फिर उन्होंने स्वतंत्र रूप से इन वंशावलियों का सत्यापन किया। जब शौकिया लोगों के पास जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने जनगणना के आर्काइव्स को खंगाला और फ्लेमिश व डच गिरजाघरों में विवाह तथा बप्तिज़्मा के रिकॉर्डों को खंगाला।

पुराने दस्तावेज़ों से शुरू करके लारमूसौ ने आज जीवित ऐसे हज़ारों पुरुषों को ढूंढ निकाला जो वंशावली रिकॉर्ड के मुताबिक अपने पिता की ओर से दूर के रिश्तेदार होना चाहिए। अगला कदम यह था कि उनके डीएनए प्राप्त करके इस अधिकारिक विरासत की जांच की जाए।

इसके लिए ज़रूरी था कि उन व्यक्तियों से संपर्क हो पाए। इस काम में स्थानीय इतिहास समितियों ने उनकी मदद की। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि लारमूसौ ने उन व्यक्तियों को फोन कर दिया या सीधे उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया। साथ में वे डीएनए सैम्पल लेने के लिए ज़रूरी सामान और सम्मति पत्र भी लेकर पहुंचे। कभी-कभी तो गांव में एक ही सरनेम वाले व्यक्तियों से कहा कि वे अपने डीएनए परीक्षण करवा लें। एक ही सरनेम से वे मानकर चले थे कि वे सारे व्यक्ति पिता की ओर से पारिवारिक सम्बंधी होंगे। एक साल में उन्होंने 300 परिवारों से संपर्क किया और पुरुषों को बता दिया कि वे उनके पूर्वजों में दम्पती-इतर सम्बंधों की तलाश कर रहे हैं। यदि थोड़ी भी हिचक दिखी तो उस परिवार को अध्ययन में शामिल नहीं किया।

मुंह से लिए गए स्वाब में वाय गुणसूत्र मिला। गौरतलब है कि वाय गुणसूत्र पिता से पुत्र को मिलता है। और यह प्रक्रिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। एक पीढ़ी से अगली को हस्तांतरित होते समय इस वाय गुणसूत्र में कोई परिवर्तन नहीं आता। नतीजतन, यदि दो व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जिनके वाय गुणसूत्र मेल खाते हैं तो उनका कोई दादा, पर-दादा, पर-पर-दादा एक ही होगा, भले ही उन दोनों व्यक्तियों को इसकी भनक तक न लगी हो।

लेकिन इसका उलट भी होता था। किन्हीं दो व्यक्तियों की वंशावली तो बताती थी कि उनमें वाय गुणसूत्र का मिलान होना चाहिए लेकिन होता नहीं था। यदि वाय गुणसूत्र मेल नहीं खाते थे, तो इसका मतलब है कि बीच में कभी तो कोई ‘अन्य’ पुरुष शामिल था। लारमूसौ के लिए यह इस बात का प्रमाण होता था कि उस वंशवृक्ष में कम से कम एक मामला दम्पती-इतर पितृत्व का रहा होगा। फिर उन्होंने सांख्यिकीय मॉडल की मदद से यह निर्धारण करने का प्रयास किया कि यह घटना कितनी पीढ़ियों पूर्व हुई होगी। 2013 में एक प्रारंभिक अनुमान प्रकाशित करने के बाद भी वे आंकड़े एकत्रित करते रहे। 2019 में उन्होंने करंट बायोलॉजी (current biology) में एक शोध पत्र प्रकाशित किया। यह शोधपत्र दूर के रिश्तेदार 513 पुरुष जोड़ियों के वाय गुणसूत्र (chromosome, DNA) की जांच पर आधारित था। इसमें लारमूसौ ने अनुमान व्यक्त किया था कि बेल्जियम और नेदरलैंड में पिछले 500 वर्षों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर लगभग 1.5 प्रतिशत रही।

युरोप में अन्यत्र किए गए अध्ययनों के आधार पर लारमूसौ और अन्य शोधकर्ताओं ने लगभग ऐसे ही नतीजे प्राप्त किए हैं: मध्य युगीन युरोप में किसी बच्चे के रिकॉर्डेड पिता जेनेटिक पिता न हों, इसकी संभावना 1 प्रतिशत या उससे भी कम (medieval records) है।

अब बात लौटती है मशहूर संगीतज्ञ लुडविग बीथोवन (1770-1827) (Beethoven) पर। एक सेलेब्रिटी होने के नाते यह प्रकरण काफी सनसनीखेज था। अलबत्ता, लारमूसौ और उनके शौकिया वंशावलीविद साथी वाल्टर स्लूइट्स का मकसद थोड़ा अलग था (celebrity, heritage)। जो बीथोवन जीवित थे, उनके वाय गुणसूत्र का मिलान मशहूर संगीतकार लुडविग बीथोवन के संरक्षित रखे बालों से मिले डीएनए से करके देखना। बालों का यह गुच्छा लुडविग बीथोवन के मित्रों ने स्मृति के रूप में सहेजकर रखा था।

2019 में शोधकर्ताओं ने वर्नर बीथोवन और उनके कुछ दूर के रिश्तेदारों से संपर्क करके पूछा कि क्या वे अपना डीएनए देंगे। इसके चार साल बाद लारमूसौ ने वर्नर तथा चार अन्य जीवित बीथोवन्स को नतीजे सुनाए: मशहूर संगीतकार (लुडविग बीथोवन) का वाय गुणसूत्र चार जीवित बीथोवन के किसी साझा पूर्वज से नहीं आया था, बल्कि किसी अज्ञात पुरुष से आया था। हो सकता है कि यह विषमता लुडविग के जन्म से पहले किसी पीढ़ी में विवाहेतर सम्बंध का परिणाम थी। वर्नर बीथोवन का तो दिल ही टूट गया – सबसे मशहूर बीथोवन तो बीथोवन ही नहीं था!

इसी खोजबीन से एक और मज़ेदार व आश्चर्यजनक बात पता चली थी – जब मातृवंश का विश्लेषण माइटोकॉण्ड्रिया के आधार पर किया गया तो लुडविग बीथोवन का जेनेटिक सम्बंध जेम्स वॉटसन के साथ दिखा; वही जेम्स वॉटसन जिन्हें डीएनए की संरचना का खुलासा करने के लिए संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिला था। गौरतलब है कि सारी संतानों को माइटोकॉण्ड्रिया मां से मिलता है, और इसमें पिता का कोई योगदान नहीं होता।

लेकिन ज़रूरी नहीं है कि लुडविग के पितृत्व में यह पेंच इरादतन बेवफाई या दगाबाज़ी का नतीजा हो। मसलन, साहित्य में इस बात का ज़िक्र कई मर्तबा आता है कि वंध्या पुरुष संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाने को प्रोत्साहित करते हैं। कुछ मामले यौन हिंसा अथवा दबाव के कारण भी हो सकते हैं।

इसके रूबरू गैर-युरोपीय समाजों के आंकड़ों में जैविक पितृत्व और सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति ज़्यादा जुनून नज़र आता है। जैसे 2012 में मिशिगन विश्वविद्यालय के वैकासिक मानव वैज्ञानिक बेवरली स्ट्रासमैन ने माली के डोगन समाज में दम्पती-इतर पितृत्व का विश्लेषण किया था। पारंपरिक डोगन धर्म के अनुयायियों में गर्भनिरोध अपनाना बहुत कम होता है और परिणामस्वरूप महिलाएं अधिकांश समय या तो गर्भवती होती हैं या स्तनपान कराती होती हैं। बीच-बीच में जो छोटा-सा अंतराल होता है, जब महिलाएं माहवारी से होती हैं, उस दौरान वे घर के बाहर एक झोंप़ड़ी में रहती हैं। माहवारी झोंपड़ी (menstrual hut) में जाने का मतलब होता है कि वह जल्दी ही गर्भवती हो सकेगी। इस प्रथा के चलते पिता की पहचान छिपाना मुश्किल होता है और दम्पती-इतर पितृत्व की दर कम हो जाती है।

स्ट्रासमैन के मुताबिक इस तरह से स्त्री की यौनिकता की निगरानी और उस पर नियंत्रण कई समाजों (gender norms) में देखा जाता है। यह इस सोच का परिणाम है कि पुरुष पालनहार है (male parenting) और वह क्यों किसी अन्य के बच्चों की परवरिश करे। वाय गुणसूत्र डैटा के आधार पर स्ट्रासमैन का अनुमान है कि डोगन समुदाय (African statistics) में दम्पती-इतर पितृत्व की दर करीब 2 प्रतिशत है। वैसे डोगन-ईसाई माहवारी झोंपड़ी प्रथा का पालन नहीं करते उनमें यह दर पारंपरिक धर्मावलंबियों से लगभग दुगनी है।

ऐसा भी नहीं है कि जैविक पितृत्व का जुनून पूरे विश्व में एक समान हो। दक्षिण अमरीकी कबीलों (जैसे यानोमामी) में धारणा है कि एक ही महिला के साथ यौन सम्बंध बनाकर कई पुरुष बच्चों के पितृत्व में योगदान दे सकते हैं। नेपाल के न्यिम्बा समुदाय में एक महिला के एकाधिक पति हो सकते हैं। ये सभी उस महिला के बच्चों के पिता की भूमिका निभाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पत्नी की बेवफाई की धारणा को मान्यता नहीं दी जाती है।

इसका सबसे अच्छा दस्तावेज़ीकरण नामीबिया के हिम्बा समुदाय का हुआ है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजेल्स की ब्रुक स्केल्ज़ा यह देखकर चकित रह गई थीं कि हिम्बा गांवों में महिलाएं विवाहेतर साथियों द्वारा पैदा बच्चों के बारे में कितना खुलकर बात करती हैं। चकित होकर स्केल्ज़ा ने हिम्बा समुदाय में पितृत्व जांच का फैसला किया; पता चला कि इस समुदाय में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 48 प्रतिशत है। और तो और, पिताओं को प्राय: पता होता था कि वे उनमें से किन बच्चों के जैविक पिता है लेकिन वे स्वयं को अपनी पत्नी के सारे बच्चों का कानूनी व सामाजिक पिता ही मानते थे। बेवफाई या धोखाधड़ी जैसी कोई बात नहीं है।

दम्पती-इतर पितृत्व की दर पर सामाजिक हालात का असर पड़ता है। इतिहासकारों के साथ काम करके, लारमूसौ ने बेल्जियम और नेदरलैंड्स में इन दरों का सम्बंध आमदनी, धर्म, सामाजिक वर्ग जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों के अलावा पिछले 500 वर्षों में हुए शहरीकरण से भी करके देखा। पाया गया कि दम्पती-इतर पितृत्व की दर में सबसे ज़्यादा वृद्धि उन्नीसवीं सदी में हुई थी, जब पूरे युरोप में शहर विकसित हो रहे थे और लोग कारखानों में नौकरी के लिए गांव छोड़-छोड़कर शहरों में बस रहे थे। लारमूसौ का अनुमान है कि बेल्जियम व नेदरलैंड्स के शहरों में दम्पती-इतर पितृत्व की दर 6 गुना बढ़कर 6 प्रतिशत हो गई थी। गांवों में तो हर स्त्री-पुरुष संपर्क पर निगाह होती है, जिसके चलते पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के पिता होने की संभावना बहुत कम होती है। 

लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि दम्पती-इतर पितृत्व दर में वृद्धि का कारण यह था कि शहरों में महिलाओं को विवाहेतर साथी ढूंढने की ज़्यादा छूट मिल गई थी। लारमूसौ का मत है कि इसे ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हिंसा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, जो सामाजिक उथल-पुथल के दौरान बढ़ रहे थे।

युरोप में भी सौतेले बच्चों, दत्तक संतानों की देखभाल करना वगैरह फैसले सोच-समझकर लिए जाते हैं और वे ऐसे बच्चों पर संसाधन निवेश करने को तैयार होते हैं, जो जैविक रूप से उनसे सम्बंधित नहीं हैं। तो कई वैज्ञानिकों का मत है कि गोबी मछली तथा अन्य जंतुओं की तरह मनुष्यों पर वही सिद्धांत लागू करना उचित नहीं होगा।

एक तथ्य यह है कि दुनिया भर में लोग अपनी वंशावली की छानबीन करने और दस्तावेज़ीकरण पर सालाना 5 अरब डॉलर खर्च करते हैं। लारमूसौ के मुताबिक बेल्जियम में 10 में से 7 लोगों की रुचि अपने पारिवारिक इतिहास में है। और तो और, वहां की सरकार भी ऐसे कामों के लिए फंड देती है।

किस्से में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लारमूसौ ने वाय गुणसूत्र को छोड़कर माइटोकॉण्ड्रिया पर ध्यान केंद्रित किया। माइटोकॉण्ड्रिया के मिलान से मातृ-पूर्वज का वंशवृक्ष बनाया जा सकता है। दरअसल, माइटोकॉण्ड्रिया विश्लेषण की मदद से यह पता लगाने की कोशिश थी कि अज्ञात पिता होने की वजह यह तो नहीं कि दो मांओं के बीच बच्चों की अदला-बदली हो गई है। यानी यदि मातृ-वंश में कोई गड़बड़ी नज़र आती है, तो यह पता चल जाएगा पितृ-वंश में दिख रही गड़बड़ी दम्पती-इतर पितृत्व का मामला नहीं है।

लेकिन मातृवंश का निर्धारण आसान काम नहीं है – शादी के बाद प्राय: महिलाओं के सरनेम बदल जाते हैं और महिलाएं मायका छोड़कर ससुराल चली जाती हैं। इस पृष्ठभूमि में लारमूसौ ने वर्ष 2020 में वालंटियर्स को आव्हान किया और हज़ारों लोग आगे आए। महामारी के दौरान कई लोगों ने डिजिटल पैरिश जन्म व विवाह पंजीयन, नोटरी दस्तावेज़ों और संपत्ति के कागज़ातों के आधार पर अपनी मातृ-वंशावलियों का निर्माण किया। वाय गुणसूत्र के काम की तर्ज़ पर लारमूसौ और साथियों ने दूर-दूर की रिश्तेदार महिलाओं, जिनके साझा मातृ-पूर्वज होने चाहिए थे, के डीएनए सैम्पल लिए और देखा कि क्या उनकी कानूनी वंशावली जैविक वंशावली से मेल खाती है।

सैकड़ों लोगों की वंशावलियों की तुलना जब उनके माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए से की गई तो कोई आश्चर्यजनक बात सामने नहीं आई। इससे लारमूसौ को यकीन हो गया कि पिता-आधारित वंशावलियों में जो दिक्कतें थी वे दम्पती-इतर पितृत्व की वजह से ही थीं, शिशुओं की अदला-बदली या गुपचुप दत्तक लेने के कारण नहीं।

इन अध्ययनों से जो निष्कर्ष मिले हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व (history research) तो है ही, लेकिन अन्य कई प्रकरणों में भी ये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। जैसे किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के मृतकों की पहचान के लिए डीएनए विश्लेषण का सहारा (disaster analysis) लिया जाता है। इसी प्रकार से दुर्लभ बीमारियों, जेनेटिक परामर्श और खानदानी रोगों के संदर्भ में भी सटीक वंशावली काम आती हैं (disease counseling)। लेकिन यदि दम्पती-इतर पितृत्व की दर 30 प्रतिशत या 10 प्रतिशत भी हो तो ये सारी कवायदें फिज़ूल साबित होंगी। यह सुखद समाचार है कि अधिकांश समाजों में यह दर 1 प्रतिशत से कम है। लेकिन संख्या के रूप में देखें तो यह काफी बड़ी संख्या है – दुनिया की आबादी 8 अरब मानें तो दम्पती-इतर संतानों की संख्या 8 करोड़ होगी। बताते हैं कि हर वर्ष करीब 3 करोड़ लोग घर बैठे डीएनए परीक्षण करवाते हैं। लारमूसौ कहेंगे कि इनमें से करीब 3 लाख लोग परिणाम देखकर भौंचक्के रह गए होंगे। हालांकि हो सकता है कि जो  गड़बड़ी नज़र आ रही है वह सैकड़ों साल पहले हुई हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुनर्जनन के दौरान अंग की मूल आकृति का निर्माण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चाहे सुंदर दिखने के लिए या सफाई और सहूलियत के लिए हम कभी-कभी नाखून काटते हैं (nail growth), लेकिन थोड़े दिनों बाद ही वे वापस बढ़ जाते हैं। किरेटिन नामक प्रोटीन (keratin protein) से बने नाखून हमें क्षति से सुरक्षित रखते हैं। यदि किसी नवजात शिशु की उंगली के ऊपरी पोर वाला हिस्सा (जोड़ के पहले तक की किसी जगह से) (finger regeneration) कट या टूट जाता है तो उंगली अपनी मूल आकृति में पुन: बन जाती है।

वर्ष 2013 में नेचर पत्रिका में मकोतो टेकिओ और उनके साथियों ने बताया था कि नाखूनों की तली में स्टेम कोशिकाएं (stem cells) होती हैं, जो न सिर्फ निरंतर सख्त और किरेटिनयुक्त नाखून बनाने वाली कोशिकाओं में बदलती रहती हैं, बल्कि वे ऐसे संकेत भी भेजती हैं जो उंगली के पुनर्जनन (finger healing) को गति देते हैं। गौरतलब है कि स्टेम कोशिकाएं कई प्रकार की कोशिकाओं में तब्दील और विकसित (cell regeneration) हो सकती हैं। ये कोशिकाएं Wnt संकेत मार्ग को सक्रिय करती हैं; यह प्रक्रिया पुनर्जनन के लिए आवश्यक तंत्रिकाओं को आकर्षित करती है।

छिपकली हमारे घरों में एक अनचाहा मेहमान है। हम अक्सर इसे मारने की कोशिश करते हैं, लेकिन अक्सर हाथ केवल इसकी पूंछ ही आती है। भगोड़ी छिपकली (lizard tail regeneration) अपनी पूंछ छोड़कर भाग निकलती है और उसे फिर से बना लेती है, ठीक नवजात शिशु की घायल उंगली की तरह।

इस प्रक्रिया की आणविक जैविकी का सार एलिज़ाबेथ हचिन्स और उनके साथियों ने 2014 में प्लॉसवन पत्रिका में प्रस्तुत किया था। इस प्रक्रिया को अंजाम देने में 300 से अधिक जीन शामिल होते हैं। और इस दौरान घाव को भरने और पूंछ वापस उगाने के लिए कई विकासात्मक और घाव-प्रतिक्रिया पथ सक्रिय होते हैं।

हालांकि जंतुओं और वनस्पतियों दोनों में घाव की मरम्मत सम्बंधी शोध पारंपरिक रूप से जीन-नियंत्रित क्रियापथों पर केंद्रित रहा है। लेकिन हालिया शोध विकासात्मक पादप विज्ञान (plant regeneration) में भौतिक संकेतों की महत्वपूर्ण भूमिका (mechanical signals in biology) पर प्रकाश डालता हैं। भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं शोध संस्थान (IISER, पुणे) की मेबेल मारिया मैथ्यू और कालिका प्रसाद ने हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित अपने एक अध्ययन में विकास और पुनर्जनन पर एक कम अध्ययन किए गए लेकिन महत्वपूर्ण कारक पर प्रकाश डाला है: कोशिकीय ज्यामिति(cell geometry)।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में देखा की कि कैसे शंक्वाकार आकृति का मूलाग्र कट जाने के बाद पुन: अपने आकार में पनप जाता है। उन्होंने पाया कि मौजूदा कोशिकाओं ने अपनी ज्यामिति को बदलकर नई बनी कोशिकाओं की कतार को एक तिरछे, झुके पथ पर संरेखित किया। अंतत: कोशिकाओं की इन तिरछी पंक्तियों ने जड़ की शंक्वाकार आकृति का पुनर्निर्माण किया। तकनीकी शब्दों में, इस प्रक्रिया को आकृति-जनन (morphogenesis process) कहा जाता है। आकृति-जनन वह जैविक प्रक्रिया (biological development) है जो किसी जीव को उसका आकार और संरचना विकसित करने में मदद करती है। इसमें कोशिकाओं की समन्वित वृद्धि, विभाजन, विभेदन और व्यवस्थापन शामिल होता है जिससे ऊतक, अंग और यहां तक कि एक संपूर्ण जीव का निर्माण होता है।

मूलाग्र पुनर्जनन की प्रणाली का अध्ययन सरसों परिवार के एरेबिडोप्सिस थैलिआना (Arabidopsis thaliana) पौधे पर किया गया था। इसमें यह समझा गया था कि कोशिका ज्यामिति में परिवर्तन आकृति-जनन में कैसे योगदान देते हैं और उसे सुगम बनाते हैं।

उन्नत सूक्ष्मदर्शी और उपकरणों (advanced microscopy) की मदद से टीम ने देखा कि जड़ों की सामान्य घनाकार कोशिकाओं की आकृति बदलकर समचतुर्भुज (rhomboid) हो गई। फिर ये परिवर्तित कोशिकाएं विकर्ण रेखा पर विभाजित हुईं जिससे त्रिकोणीय प्रिज़्म आकृति की कोशिकाएं बनीं। विकर्ण रेखा से विभाजन ने आस-पड़ोस की कोशिकाओं की वृद्धि (cell division) को एक तिरछे पथ पर मोड़ा, जिन्होंने मिलकर कटा हुआ पतला सिरा फिर से बनाया।

गणितीय और भौतिक विश्लेषण करने पर पता चला कि इन बदलावों के पीछे जो वास्तविक बल काम करता है वह है आंतरिक यांत्रिक तनाव (mechanical stress)। यह एक प्रकार का तनाव है जो कोशिकाओं को आकार बदलने और निर्धारित रूप से विभाजित होने (cell growth patterns) के लिए उकसाता है।

आकृति-जनन को समझने में जहां लंबे समय से स्टेम कोशिकाएं (stem cell research) और जेनेटिक क्रियापथ (genetic studies)  अध्ययन का केंद्र रहे हैं, वहां यह अध्ययन एक अनदेखे महत्वपूर्ण पहलू पर प्रकाश डालता है: कोशिकाएं तनाव में अपनी आकृति को कैसे ढालती हैं। यह दर्शाता है कि कोशिका की आकृति और ज्यामिति ऊतक पुनर्जनन (tissue regeneration) के दौरान आकृति-जनन में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।

ये निष्कर्ष अन्य जैविक प्रणालियों पर भी लागू हो सकते हैं। ये जीवन को आकार देने में  भौतिक संकेतों, विशेष रूप से कोशिकीय ज्यामिति की भूमिका दर्शाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती पर जीवन का पहला कदम

गभग 40 करोड़ साल पूर्व सबसे पहले कशेरुकी (vertebrates) जीव समुद्र (ancient ocean) में रहते थे। उस समय मछलियां ही समुद्र की सबसे बड़ी जीव थीं, लेकिन उनमें ज़मीन पर चलने के लिए मज़बूत टांगें (strong limbs) विकसित नहीं हुई थीं। वैज्ञानिकों का मानना था कि विकास की प्रक्रिया में काफी समय लगा जिसके बाद मछलियां ज़मीन पर आईं। लेकिन पोलैंड में हुई एक खोज से पता चला है कि कुछ मछलियों ने हमारी सोच से कहीं पहले ही ज़मीन पर जीने की कोशिश की थी।

2021 में वैज्ञानिकों को पोलैंड स्थित होली क्रॉस पर्वतों में अजीब से जीवाश्म (fossil evidence) निशान मिले। ये पत्थर कभी समुद्र तट (ancient seashore) का हिस्सा थे। इनमें 240 से ज़्यादा गड्ढे और खरोंचें मिलीं। जांच से पता चला कि ये निशान शायद मछलियों के ज़मीन या बहुत उथले पानी (shallow water habitat)  पर रेंगते हुए बने थे। ये जीवाश्म 41 से 39.3 करोड़ साल पुराने हैं — यानी पहले मिले सबूतों से करीब 1 करोड़ साल पहले।

ये निशान आज की लंगफिश (lungfish evolution) से बहुत मिलते-जुलते हैं। लंगफिश ऐसी मछली है जो हवा में सांस ले सकती है और अपने मीनपक्षों (पंखों) का इस्तेमाल करके ज़मीन पर रेंग सकती है। माना जाता है कि लंगफिश थलचर चौपाया जीवों (early tetrapods) के शुरुआती पूर्वजों की करीबी रिश्तेदार है। चलने के लिए यह मछली अपना मुंह ज़मीन पर टिकाकर लीवर की तरह दबाती है और फिर मीनपक्ष और पूंछ की मदद से शरीर को आगे खींचती है। यही अजीब तरीका पोलैंड में मिले जीवाश्मों के निशानों से मेल खाता है।

अध्ययन के मुख्य लेखक और पोलिश जियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक पिओत्र श्रेक बताते हैं कि ऐसा तभी संभव था जब वे पूरी तरह पानी के उछाल (buoyancy) पर निर्भर नहीं रह गई हों।

वैज्ञानिकों की टीम ने इन जीवाश्मों के निशानों को बारीकी से समझने के लिए 3-डी स्कैनिंग (3D fossil scanning) की। फिर उन्होंने इनकी तुलना आज की पश्चिम अफ्रीकी लंगफिश (Protopterus annectens) द्वारा बनाए गए निशानों (trace fossils) से की। नतीजा यह रहा कि नाक, पंख, पूंछ और शरीर के हिस्सों से बने दबाव के निशान लगभग वैसे ही मिले। इससे साफ हुआ कि प्राचीन समय की कुछ मछलियां लंगफिश जैसी ही रही होंगी।

एक और दिलचस्प बात यह सामने आई: वैज्ञानिकों को ‘हैंडेडनेस’ यानी शरीर के एक ओर की वरीयता (lateral preference) के सबूत भी मिले। 240 निशानों में से 36 में सिर झुकाने के संकेत थे, जिनमें से 35 बाईं ओर झुके थे। इसका मतलब यह हो सकता है कि वे मछलियां ज़्यादातर बाईं ओर झुककर चलती थीं (movement patterns), ठीक वैसे ही जैसे इंसानों में कोई दाएं या बाएं हाथ का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। यह जानवरों में ‘हैंडेडनेस’ का अब तक का सबसे पुराना (ancient behavior) प्रमाण हो सकता है।

अलबत्ता, एक तर्क यह है कि आज की लंगफिश 40 करोड़ साल पुरानी मछलियों से बहुत अलग हैं, इसलिए सीधे-सीधे तुलना मुश्किल है। चीन और ऑस्ट्रेलिया (fossil discoveries) में मिले ऐसे ही जीवाश्मों पर अधिक शोध इन निष्कर्षों की पुष्टि करने में सहायक हो सकते हैं। बहरहाल, यह खोज हमें याद दिलाती है कि विकास (evolution process) कभी सीधी रेखा में नहीं होता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भरपेट संतुलित भोजन कई बीमारियों के लिए टीके से कम नहीं

डॉ. अनुराग भार्गव

हाल ही में डॉ. अनुराग भार्गव ने PLOS Global Public Health के एक आलेख में पर्याप्त संतुलित पोषण और संक्रामक गैरसंक्रामक रोगों से बचाव के इतिहास पर विचार करते हुए बताया है कि भरपेट संतुलित आहार को टीके की संज्ञा देना उचित ही है। प्रस्तुत है उनके उपरोक्त आलेख का रूपांतरित सार।

यह तो जानी-मानी बात है कि जीवित रहने, स्वास्थ्य और बीमारियों के बचाव के लिए पोषण अनिवार्य है। 1970 के दशक में यह तक कहा गया था कि निमोनिया जैसे सांस सम्बंधी रोगों, दस्त (डायरिया) व अन्य आम संक्रमणों (infections) के विरुद्ध पर्याप्त भोजन ही सबसे कारगर टीका है। यह देखा जा चुका था कि कुपोषण की हालत में पूरक पोषण से संक्रमणों के प्रकोप में कमी आती है। हाल ही में झारखंड में एक परीक्षण किया गया था – रैशन्स (RATIONS) यानी रिड्यूसिंग एक्टिवेशन ऑफ ट्यूबरकुलोसिस थ्रू इम्प्रूवमेंट ऑफ न्यूट्रिशनल स्टेटस (अर्थात पोषण की स्थिति में सुधार के ज़रिए सक्रिय टीबी में कमी)। इस परीक्षण ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि पूरक पोषण परिवारों में टीबी (TB) प्रकोप को 50 प्रतिशत तक कम करता और कुपोषित मरीज़ों में मृत्यु दर को भी 35-50 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

टीका भी तो यही करता है कि व्यक्ति को किसी संक्रमण से लड़ने या बीमारी से बचने में मदद करता है और इस लिहाज़ से पोषण की भूमिका टीके की अवधारणा का विस्तार ही है।

1970 के दशक में पोषण विशेषज्ञ और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में पोषण निदेशक रहे डॉ. मॉइज़ेस बेहर ने अपने एक लेख में कहा था, एक ओर तो “टीकाकरण या पर्यावरण में सुधार जैसे विशिष्ट उपायों द्वारा संक्रामक रोगों (infectious diseases)  पर नियंत्रण से समुदाय की पोषण की स्थिति बेहतर होती है। दूसरी ओर, पर्याप्त भोजन संक्रामक रोगों के ज़्यादा गंभीर प्रभावों से सुरक्षा देता है; उन रोगों के संदर्भ में भी जिनके लिए हमारे पास सटीक या आसान उपाय उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल तो समुचित भोजन ही दस्त, श्वसन तथा अन्य आम संक्रमणों के विरुद्ध सबसे कारगर ‘टीका’ (vaccine) है।”

यह बात रैशन्स परीक्षण में प्रत्यक्ष रूप में सामने आई ही है, लेकिन इसके कई ऐतिहासिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं। ये प्रमाण हमें बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए कुछ ‘कुदरती प्रयोगों’ से मिले हैं।

कुछ अनायास प्रयोग

यू.के. में 1918 में टीबी मरीज़ों की देखभाल और पुनर्वास (rehabilitation) के लिए पैपवर्थ विलेज सेटलमेंट स्थापित किया गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि मात्र सेनेटोरियम उपचार पर्याप्त नहीं है, बल्कि टीबी (tuberculosis) के मरीज़ों के लिए रोज़गार व सामुदायिक जीवन जैसे सहारे की भी ज़रूरत होती है। यहां रह रहे सक्रिय टीबी ग्रस्त मरीज़ों के संपर्क में आए परिवारों में टीबी के प्रकोप में जो 84 प्रतिशत की कमी आई थी, उसके लिए समुचित पोषण को मुख्य कारण माना गया था। आश्चर्य की बात यह थी कि उस दौरान टीबी संक्रमण के कुल प्रसार में कोई कमी नहीं आई थी मगर पोषण ने संक्रमण (infection) को बीमारी में परिवर्तित होने से बचा लिया था।

जर्मनी के युद्धबंदी शिविरों (prison camps) में ब्रिटेन तथा रूस के युद्धबंदी सैनिक (POW – पीओडब्ल्यू) एक जैसे हालात में रह रहे थे। देखा गया कि ऐसे एक शिविर में मात्र 1.2 प्रतिशत ब्रिटिश सैनिकों में ही टीबी विकसित हुई थी जबकि 15 प्रतिशत रूसी सैनिक टीबी से ग्रस्त हुए। यानी रूसी सैनिकों के मुकाबले ब्रिटिश सैनिकों में टीबी का प्रकोप 92 प्रतिशत कम रहा। इसका कारण इस तथ्य से जोड़कर देखा गया था कि रेड क्रॉस (red cross) द्वारा दिया जाने वाला अतिरिक्त पोषण पार्सल (1000 किलोकैलोरी तथा 30 ग्राम प्रोटीन) मात्र ब्रिटिश सैनिकों को मिलता था।

ऐसे ही एक अन्य युद्धबंदी शिविर में एक ब्रिटिश डॉक्टर आर्किबाल्ड कोक्रेन ने पाया था कि टीबी का प्रकोप रूसियों में 6 प्रतिशत, फ्रांसिसियों में 0.5 प्रतिशत और ब्रिटिश सैनिकों में शून्य प्रतिशत था। गौरतलब है कि फ्रांसिसियों को भी 1944 के बाद अतिरिक्त फूड पैकेट मिलना बंद हो गया था।

युद्धबंदी शिविरों में किए गए इन अवलोकनों के अलावा आम आबादी के आंकड़े भी यही कहानी कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015-2023 के दरम्यान दुनिया भर में टीबी (global TB cases) के प्रकोप में 8.3 प्रतिशत तथा टीबी मृत्यु दर में 23 प्रतिशत की कमी आई है। सवाल यह उठता है कि रासायनिक उपचार और (टीबी के लिए) बीसीजी टीका (BCG vaccine) आने से पहले के दौर में टीबी के प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों की क्या स्थिति थी।

पहली बात तो यह है कि यू.के. जैसे जिन देशों में आज टीबी का बोझ कम है, वहां भी अतीत में टीबी का प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों का आंकड़ा काफी अधिक था। एक अनुमान के मुताबिक 1851 में यू.के. में श्वसन सम्बंधी टीबी (respiratory TB) से प्रति लाख आबादी में 268 मौतें होती थी। और तो और, वहां हर चार में से 1 मौत टीबी के कारण होती थी। गौर करने वाली बात यह है कि यू.के. में टीबी प्रकोप और मृत्यु में गिरावट रासायनिक उपचार (drug treatement of TB) और टीकाकरण जैसे उपाय लागू होने से पहले हो गई थी। 1891 में टीबी से होने वाली मौतों में 50 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी और यह मात्र 139 प्रति लाख रह गई थी।

यू.के. में 1913 में टीबी का प्रकोप प्रति एक लाख आबादी में 300 था और मृत्यु दर प्रति लाख आबादी में 100 थी और 1940 में यह इसकी 50 प्रतिशत रह गई थी। गौरतलब है कि टीबी के लिए रासायनिक उपचार 1947 में उपलब्ध हुआ था। रासायनिक उपचार शुरू होने से पहले यू.के. में टीबी प्रकोप 3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से कम हो रहा था और उपचार उपलब्ध होने के बाद गिरावट की दर 10 प्रतिशत वार्षिक हो गई थी।

1962 में थॉमस मैककिओन का महत्वपूर्ण पर्चा प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने 1850 से 1950 की अवधि में यू.के. में टीबी सम्बंधी मौतों में गिरावट के विभिन्न कारकों का विश्लेषण किया था। उनका निष्कर्ष था कि टीबी प्रकोप में गिरावट का प्रमुख कारक जीवन स्तर (living standards) में सुधार, खासकर पोषण में सुधार रहा था। 1850 के दशक के बाद यू.के. में कामगारों की आमदनी में सुधार हुआ था। यह देखा गया था कि आमदनी में सुधार और श्वसन सम्बंधी टीबी से मृत्यु दर में गिरावट लगभग एक ही दर पर हुए थे। मैककिओन का सुझाव था कि बेहतर पोषण (improved nutrition) से व्यक्तियों में रोग के विरुद्ध प्रतिरोध पैदा होता है और यह मृत्यु दर में गिरावट का कारण बनता है। इसके पक्ष में उन्होंने कुछ परोक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे।

वैसे नोबेल विजेता रॉबर्ट फोगेल ने 1850 से 1950 के बीच यू.के. में कैलोरी के उपभोग में वृद्धि (increase in calorie intake) के प्रत्यक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे। इसी सम्बंध में एक और प्रमाण यह था कि 1870 से 1970 के बीच ब्रिटेन समेत युरोपीय लोगों के कद में औसतन 11 से.मी. (यानी प्रति दशक 1 से.मी.) की वृद्धि हुई थी। कद को किसी भी आबादी के पोषण व जीवन स्तर का एक सूचकांक माना जाता है।

इस बात के और भी प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं कि यू.के. में टीबी के प्रकोप व मृत्यु दर में कमी का सम्बंध पोषण में सुधार से रहा है।

पोषण, संक्रमण और प्रतिरक्षा

1968 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक मोनोग्राफ (monograph) में पोषण व संक्रमण के बीच दो-तरफा सम्बंध की समीक्षा की गई थी। मोनोग्राफ में स्पष्ट किया गया था कि पोषण की स्थिति टीबी समेत कई संक्रमणों (infections) की आवृत्ति, गंभीरता और मृत्यु दर पर असर डालती है और संक्रमण अपने तईं पोषण की स्थिति को बदतर करते हैं। इस परस्पर क्रिया के अनुकूली प्रतिरक्षा सम्बंधी क्रियामार्गों का खुलासा 1960 व 1970 के दशकों में हुआ। इसके बाद यह भी दर्शाया गया था कि कुपोषण (malnutrition) का प्रतिकूल असर शारीरिक अवरोधों, जन्मजात प्रतिरक्षा तथा अनुकूली प्रतिरक्षा के कई पहलुओं पर होता है। यह भी पता चला था कि टी-कोशिकाओं और मैक्रोफेज (macrophage) द्वारा प्रदत्त सुरक्षा टीबी से बचाव में महत्वपूर्ण होती है और कुपोषण टी-कोशिकाओं (T-cells) के कामकाज को कमज़ोर करता है।

टीबी की बीमारी होने के लिए संक्रमण ज़रूरी होता है लेकिन मात्र संक्रमण हो जाए तो टीबी नहीं होती – संक्रमण के बाद मात्र 10 प्रतिशत लोग ही सक्रिय टीबी की हालत में पहुंचते हैं। इसका मतलब है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र 90 प्रतिशत संक्रमणों को बीमारी तक पहुंचने से रोक लेता है। अर्थात सक्रिय टीबी के विकास का कुछ न कुछ सम्बंध तो प्रतिरक्षा तंत्र के कामकाज में गड़बड़ी से है।

यूएस सर्जन जनरल का मत है कि प्रतिरक्षा तंत्र की अर्जित कमज़ोरी (जिसे ठीक किया जा सकता है) का प्रमुख कारण कुपोषण है। जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (John Hopkins University) के डॉ. विलियम बाइसेल ने इसे न्यूट्रिशनली एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी (N-AIDS) यानी ‘कुपोषण की वजह से अर्जित प्रतिरक्षा अभाव’ की संज्ञा दी है। यह N-AIDS दुनिया भर में टीबी के बोझ का प्रमुख कारण है।

2022 में दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 49 लाख बच्चों की मौत हुई थी (यानी रोज़ाना 13,000 से अधिक) और इनमें से आधी मौतें कुपोषण और संक्रमण के जानलेवा गठबंधन का परिणाम थीं।

1959 से 1964 के बीच ग्वाटेमाला (guatemala) में एक प्रयोग हुआ था। यहां एक गांव में चिकित्सा सुविधा या स्वच्छता व्यवस्था में कोई सुधार न करते हुए मात्र पूरक पोषण (supplementary nutrition) दिया गया था। इस गांव में संक्रमणों का प्रकोप काफी कम हुआ, बनिस्बत उस गांव के जहां उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधाएं और साफ-सफाई व्यवस्था उपलब्ध कराई गई थी। गांवों के बीच अंतर उल्लेखनीय था – चार वर्षों की अवधि में पूरक पोषण प्राप्त करने वाले गांव में प्रति बच्चा 6.6 अस्वस्थताएं हुईं जबकि दूसरे गांव में 18.7 अस्वस्थता प्रति बच्चा।

भ्रूणावस्था का कुपोषण

शुरुआती जीवन में कुपोषण के सेहत पर असर नवजात शिशु (newborn) में, शैशवावस्था में, स्कूल-पूर्व उम्र में और जीवन भर देखे जाते हैं। मां का कुपोषण भ्रूण के कुपोषण में दिखता है जो जन्म के समय कम वज़न के रूप में सामने आता है। भ्रूणावस्था में कुपोषण का सम्बंध आगे चलकर गैर-संक्रामक रोगों (जैसे मोटापे(obesity), मधुमेह(diabetes), उच्च रक्तचाप(hypertension), हृदय रोगों (heart diseases) तथा गुर्दों के जीर्ण रोगों) (NCDs) से देखा गया है।

निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-income countries) में गैर-संक्रामक रोगों का प्रकोप तेज़ी से बढ़ रहा है। इन देशों में जन्म के समय कम वज़न आम बात है। पिछले 30 वर्षों में अनुसंधान से प्रमाणित हुआ है कि उच्च रक्तचाप, डायबिटीज़, गुर्दा रोग जैसी बीमारियों की उत्पत्ति का सम्बंध विकसित होते भ्रूण को मिलने वाले पोषण में कमी से हो सकता है। यह इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों भारत के निम्न आय वर्ग में भी ये रोग काफी व्याप्त हैं। वैसे इसका सम्बंध अस्वस्थ भोजन तथा सुस्त जीवनशैली से भी हो सकता है। अस्वस्थ भोजन का सम्बंध प्राय: खाद्यान्न असुरक्षा (food security) से देखा जाता है। पर्याप्त संतुलित भोजन के अभाव में प्रोसेस्ड भोजन (processed food) का उपभोग बढ़ता है जिसमें अत्यधिक शर्करा, संतृप्त वसाएं, सोडियम होते हैं लेकिन पोषक तत्वों का अभाव होता है। भारत में इसका असर डायबिटीज़ (जल्दी शुरू होने वाले) के बढ़ते प्रकोप में दिख रहा है। भ्रूणावस्था में कुपोषण के बाद यदि बढ़ती उम्र में अधिक ऊर्जा का सेवन किया जाए या प्रोटीन व कैलोरी का अभाव रहे तो डायबिटीज़ का जोखिम बढ़ सकता है।

जन्म के समय कम वज़न (low birth weight) का परिणाम शरीर की वृद्धि कम होने और संज्ञान के विलंबित विकास के रूप में सामने आ सकता है। लिहाज़ा, बच्चों को सबसे पहला टीका तो गर्भावस्था के दौरान महिला को पर्याप्त संतुलित आहार (balanced diet) के रूप में होगा।

जन स्वास्थ्य पर पोषण के असर का प्रथम प्रमाण तो ग्रेट ब्रिटेन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपनाई गई युद्धकालीन खाद्य नीति थी। इस नीति ने सारे नागरिकों के लिए, उनकी आमदनी की परवाह न करते हुए, ज़रूरी खुराक सुनिश्चित की थी। लोगों की खुराक में दूध और सब्ज़ियों के सेवन में क्रमश: 28 प्रतिशत और 34 प्रतिशत वृद्धि देखी गई जबकि मांस की खपत में 21 प्रतिशत की कमी आई। परिणाम यह रहा कि “शिशुओं, नवजात बच्चों और माताओं की मृत्यु दर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई और एनीमिया का प्रकोप कम हुआ, स्कूली बच्चों की विकास दर तथा दांतों की सेहत बेहतर हुई, और आम आबादी का पोषण स्तर युद्ध-पूर्व की स्थिति से बेहतर हो गया।”

पर्याप्त संतुलित भोजन: एक कारगर टीका

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि पर्याप्त संतुलित भोजन बीमारियों की रोकथाम (disease prevention) में अहम भूमिका निभाता है। एक मायने में यह टीके (vaccine alternative) का काम करता है। पर्याप्त संतुलित भोजन उसे कह सकते हैं जो व्यक्ति की उम्र, वज़न, काम के अनुसार पर्याप्त ऊर्जा व प्रोटीन प्रदान करे और विविध अनाजों, दालों, फलों, सब्ज़ियों, स्वस्थ वसाओं, मेवों, जंतु स्रोतों से प्राप्त भोजन (दूध, पोल्ट्री, मछली) की दृष्टि से संतुलित हो (balanced diet)। यह टीबी पैदा करने वाले एसिड-फास्ट बैसिली के विरुद्ध एक टीके की क्षमता रखता है। इसकी कई खूबियां इसे एक अनोखा टीका बनाती हैं।

पर्याप्त संतुलित भोजन रोग की रोकथाम का उपाय भी है और रोग हो जाने पर मुत्यु से बचाव का तरीका भी है। यह टीबी उपचार के दौरान कुपोषण सम्बंधी जोखिमों से बचाव कर सकता है। ये जोखिम काफी होते हैं। जैसे, रैशन्स परीक्षण में देखा गया था कि शुरुआत में लगभग आधे टीबी मरीज़ काफी कम वज़न वाले थे और अगले दो महीनों में उनका वज़न औसतन 5 प्रतिशत बढ़ा और मृत्यु का खतरा 60 प्रतिशत कम हुआ। इसके विपरीत जिन टीबी मरीज़ों को पोषण का सहारा नहीं दिया गया था, उनका वज़न पहले दो महीनों में या तो स्थिर रहा या कम होता गया। और मृत्यु का जोखिम पांच गुना अधिक रहा।

एक व्यवस्थित समीक्षा में यह भी देखा गया कि कम वज़न (underweight) का सम्बंध उपचार-उपरांत मृत्यु से भी है। कम वज़न वाले मरीज़ों में यह 14.8 प्रतिशत रही जबकि अन्य मरीज़ों में मात्र 5.6 प्रतिशत। जिन मरीज़ों का वज़न शुरुआत में कम था और परीक्षण के दौरान उनका वज़न पर्याप्त नहीं बढ़ा, उनमें टीबी (TB relapse) के फिर से सिर उठाने का ज़ोखिम लगभग दुगना रहा।

पर्याप्त संतुलित आहार टीके की खूबियां

  1. पर्याप्त संतुलित आहार (suffecient balanced diet) टीबी मरीज़ों के लिए रोकथाम और इलाज दोनों भूमिकाएं निभा सकता है – तत्काल व दीर्घावधि दोनों तरह के प्रतिकूल परिणामों के लिहाज़ से। यह बीमारी के रोकथाम (disease prevention) में तो कारगर है ही, साथ ही यह मृत्यु की रोकथाम तथा बीमारी के वापिस सिर उठाने से रोकथाम में भी कारगर है।
  2. पर्याप्त संतुलित आहार एक ऐसा टीका है जिसे मुंह से लिया जा सकता है और कोल्ड चेन (cold chain) वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं होती। वैसे तो मां का दूध पहला संतुलित आहार टीका है जिसके लाभदायक असर जाने-माने हैं।
  3. पर्याप्त संतुलित आहार एक बहुआयामी (पोलीवैलेंट – polyvalent) टीका है यानी यह व्यक्ति के प्रतिरक्षा तंत्र को कई संक्रामक रोगों के खिलाफ मज़बूती देता है। और यह मज़बूती आने वाली पीढ़ियों को भी मिल जाती है। और यह कई गैर-संक्रामक रोगों की भी रोकथाम का काम करता है। कुपोषण की स्थिति में कई संक्रमण बार-बार होते हैं और गंभीर हो जाते हैं। संतुलित आहार इसे कम करता है।
  4. यह बच्चों, बुज़ुर्गों, गर्भवती तथा दूध पिलाती माताओं सबके लिए समान रूप से उपयोगी है। और यह सामान्य स्वास्थ्य को भी बेहतर करता है।
  5. पर्याप्त संतुलित आहार टीका खेतों में उगाकर आसानी से वितरित किया जा सकता है। इसके उत्पादन के लिए किसी उच्च टेक्नॉलॉजी की ज़रूरत नहीं होती और न किसी डॉक्टर की ज़रूरत होती है जो इसे लिखे।
  6. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें पेटेंट(patent), बौद्धिक संपदा अधिकार (intellectual property rights – IPR) वगैरह जैसे झंझट भी नहीं होते। वैसे भी भोजन के अधिकार को मानव अधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र तथा आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि में मान्य किया गया है।
  7. पर्याप्त संतुलित आहार टीके में अनुपालन की गारंटी होती है क्योंकि यह प्राप्तकर्ता को प्रसन्नता का एहसास देता है।
  8. पर्याप्त संतुलित आहार टीके के असर आने वाली पीढ़ियों (future generation) पर भी होते हैं। किसी व्यक्ति को मिलने वाला भोजन कई पीढ़ियों को प्रभावित करता है। कम वज़न वाली स्त्री के बच्चे भी कम वज़नी होने का खतरा होता है और उनके बच्चे भी कम वज़न के होने की संभावना ज़्यादा होती है।
  9. पर्याप्त संतुलित आहार स्वास्थ्य में सुधार लाने के अलावा संज्ञान क्षमता व उत्पादकता को भी बढ़ाता है। ग्वाटेमाला (guatemala) में किए गए अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती बचपन में दिए गए पूरक पोषण से बच्चों के शैक्षिक परिणामों (educational outcomes) में सुधार आया और आगे चलकर उनकी आर्थिक उत्पादकता भी बेहतर रही।
  10. पर्याप्त संतुलित आहार टीबी (TB) एवं अन्य रोगों के खिलाफ उपलब्ध टीकों के असर को बढ़ा सकता है। एक समुचित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया काफी हद तक ज़रूरी पोषक पदार्थों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। लिहाज़ा, व्यक्ति में पोषण की स्थिति टीकों के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया को प्रभावित करती है।

कुल मिलाकर, पर्याप्त संतुलित आहार को एक ऐसा टीका कहना अनुचित न होगा जो कारगर है, उपाचारात्मक है, रोकथाम करता है, मुंह से दिया जा सकता है, सुरक्षित है, वृद्धि को बढ़ावा देता है, और प्रसन्नता देता है, जिसका उपयोग अन्य टीकों के साथ सहकारी के रूप में किया जा सकता है, जिसे पेटेंट वगैरह झंझट के बिना खेतों में उगाया जा सकता और सीधे उपभोक्ता को दिया जा सकता है। कुछ लोगों को शायद यह बात अतिरंजित लगे लेकिन निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-medium income countries) में आबादी में व्याप्त कुपोषण – जो टीबी प्रकोप का एक प्रमुख चालक है – को नज़रअंदाज़ करना हमें कभी टीबी मुक्त दुनिया की ओर नहीं ले जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग पर विवादित रिपोर्ट से मचा हंगामा

हाल ही में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (Department of Energy, USA) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से बड़ी बहस छिड़ गई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से होने वाला आर्थिक नुकसान पूर्व मान्यता की अपेक्षा कम होगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि यह रिपोर्ट जलवायु विज्ञान (climate science) को गलत तरीके से पेश कर रही है और इसका मकसद अमेरिकी सरकार को 2009 के उस अहम फैसले को रद्द करने में मदद करना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) को जन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था।

गौरतलब है कि बराक ओबामा (Barack Obama) के कार्यकाल में पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (Environmental Protection Agency – EPA) ने ठोस सबूतों के आधार पर निष्कर्ष दिया था कि कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) जैसी ग्रीनहाउस गैसें इंसानों और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, और इसी के आधार पर वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन पर नियंत्रण के नियम बने थे। लेकिन अब सरकार इस फैसले को पलटने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रंप (Donald Trump)  जलवायु परिवर्तन को शिगूफा (climate change hoax) करार दे चुके हैं।

यह रिपोर्ट ऊर्जा सचिव क्रिस राइट (Chris Wright) ने पांच व्यक्तियों से तैयार करवाई है। इनमें वायुमंडलीय वैज्ञानिक जॉन क्रिस्टी, जलवायु वैज्ञानिक जूडिथ करी, भौतिक विज्ञानी स्टीवन कूनिन, अर्थशास्त्री रॉस मैक्किट्रिक व मौसम वैज्ञानिक रॉय स्पेंसर शामिल हैं।

रिपोर्ट के लेखकों ने कहा है कि वे तथ्यों पर आधारित खुली और पारदर्शी चर्चा (scientific debate) के लिए तैयार है, और अगर गंभीर वैज्ञानिक सुझाव मिलते हैं तो रिपोर्ट में बदलाव किया जाएगा। एजेंसी ने इस दस्तावेज़ को जनता और विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा (public review) के लिए 2 सितंबर तक खुला रखा है।

लेकिन कई वैज्ञानिक नाराज़ हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय (University of Arizona)  की महासागर विज्ञानी जोएलेन रसेल का मानना है कि यह रिपोर्ट विज्ञान को आगे बढ़ाने की बजाय दबा रही है। फिलहाल कई शोधकर्ता रिपोर्ट के हर दावे का एक तथ्यात्मक जवाब (scientific rebuttal) तैयार कर रहे हैं। इस मामले में टेक्सास स्थित ए एंड एम युनिवर्सिटी के एंड्रयू डेस्लर सुप्रीम कोर्ट तक जाने को तैयार हैं। कुछ वैज्ञानिक बताते हैं कि वर्तमान जलवायु खतरे (climate risks) के सबूत पहले से कहीं अधिक मज़बूत हैं। ऐसे में इस तरह की रिपोर्ट दुर्भाग्यपूर्ण है।

यदि ट्रंप प्रशासन जोखिम सम्बंधी निष्कर्ष को रद्द करने में सफल हो जाता है, तो पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने का अधिकार समाप्त हो सकता है। इससे जलवायु प्रदूषण व परिवर्तन (climate pollution & change) पर कानूनी कार्रवाई मुश्किल हो जाएगी, और वैश्विक तापमान वृद्धि (global temperature rise) का प्रभाव और अधिक बदतर हो जाएगा। जलवायु वैज्ञानिकों (climate scientists) के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक रिपोर्ट की नहीं है बल्कि दशकों के शोध परिणामों की रक्षा, विज्ञान पर भरोसा बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने की है कि सार्वजनिक नीतियां ठोस सबूतों पर आधारित हों, न कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ पर। (स्रोत फीचर्स)

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क्या लीथियम याददाश्त बचाने में मददगार है?

लीथियम धातु (Lithium metal) का उपयोग फोन और लैपटॉप की बैटरियों में किया जाता है। लेकिन चिकित्सा, खासकर मानसिक स्वास्थ्य (mental health) सम्बंधी चिकित्सा, में भी लीथियम का उपयोग होता है। इसका उपयोग मूडवर्धक के तौर पर सॉफ्ट ड्रिंक तथा बाइपोलर डिसऑर्डर (bipolar disorder) में मूड स्विंग नियंत्रित करने के लिए किया जाता रहा है। और अब नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार लीथियम याददाश्त और दिमाग की सेहत के लिए भी अहम हो सकता है।

इस अध्ययन में हारवर्ड (Harvard University) के न्यूरोसाइंटिस्ट ब्रूस यैंकनर और उनकी टीम ने मृत्यु के पश्चात सैकड़ों बुज़ुर्गों के मस्तिष्क का अध्ययन किया। इनमें से कुछ को अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) था, कुछ में हल्की स्मृतिभ्रंश (mild dementia) की समस्या थी, और बाकी पूरी तरह स्वस्थ थे। उन्होंने पाया कि अल्ज़ाइमर और मामूली संज्ञानात्मक समस्या (cognitive impairment) वाले लोगों के मस्तिष्क में लीथियम का स्तर स्वस्थ लोगों की तुलना में कम था। और तो और, ऐसे लोगों में जो लीथियम था वह भी ज़्यादातर अल्ज़ाइमर से जुड़े एमिलॉइड प्लाक (amyloid plaques) के बीच फंसा था जिससे दिमाग के सामान्य कार्य के लिए और भी कम लीथियम बचा था।

मस्तिष्क में लीथियम का कम स्तर मिलना सिर्फ पहला कदम था। इसके बाद टीम ने जांचा कि क्या लीथियम का स्तर बढ़ाने से मदद मिल सकती है। उन्होंने लीथियम ओरोटेट (Lithium orotate) नामक यौगिक को उन चूहों पर आज़माया जिन्हें आनुवंशिक रूप से अल्ज़ाइमर जैसे लक्षण विकसित करने के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि बाइपोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा (bipolar disorder treatment) में लीथियम के एक अन्य लवण लीथियम कार्बोनेट (Lithium carbonate) का इस्तेमाल किया जाता है।

उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पीने के पानी में थोड़ी मात्रा में लीथियम ओरोटेट दिया गया, उनमें एमिलॉइड प्लाक्स (amyloid plaques) या टाउ (tau protein) नहीं बना। यहां तक कि जिन वृद्ध चूहों की याददाश्त कमज़ोर हो चुकी थी, वे फिर से चीज़ों को पहचानने और भूल-भुलैया में रास्ता ढूंढने लगे। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि इतनी कम मात्रा में लीथियम देने से किडनी (kidney health) या थायरॉयड (thyroid) को वह नुकसान नहीं हुआ जो कभी-कभी लीथियम कार्बोनेट से हो जाता है। दूसरी ओर, जिन चूहों को लीथियम की कमी वाला आहार दिया गया, उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई और उनके मस्तिष्क में और अधिक प्लाक्स बनने लगे।

गौरतलब है कि लीथियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों, समुद्री पानी, कुछ सब्ज़ियों (जैसे पत्ता गोभी और टमाटर) और कुछ क्षेत्रों के पीने के पानी में पाया जाता है। फिर भी विशेषज्ञ इस खोज (scientific discovery) को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं और एंटी-एमिलॉइड दवाओं (anti-amyloid drugs) में हालिया प्रगति के बावजूद, इसे एक प्रभावी उपचार (effective treatment) के रूप में देखते हैं।

हालांकि ये नतीजे उम्मीद जगाने वाले हैं, लेकिन महज़ इन नतीजों के आधार पर लीथियम सप्लीमेंट (lithium supplements) न लेने लगें। एक तो अभी यह अध्ययन बस चूहों पर हुआ है, दूसरा डॉक्टर की सलाह के बिना इसे न लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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संक्रमण सुप्त कैंसर कोशिकाओं को जगा सकते हैं

चूहों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार कोविड-19 (covid-19 infection) और फ्लू (flu infection) जैसे संक्रमण ‘सुप्त’ कैंसर कोशिकाओं को सक्रिय कर सकते हैं। नेचर (Nature journal study) में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, ऐसे संक्रमण कुछ मरीज़ों में कैंसर से मौत का खतरा (cancer risk) लगभग दुगना कर सकते हैं।

दरअसल, कैंसर के इलाज (cancer treatment) में मुख्य ट्यूमर हटा देने के बाद भी कुछ कैंसर कोशिकाएं अस्थिमज्जा या फेफड़ों जैसी जगहों में छिपी रह सकती हैं। इन्हें सुप्त कैंसर कोशिकाएं (dormant cancer cells) कहते हैं, जो सालों तक निष्क्रिय रहती हैं लेकिन मौका मिलने पर मेटास्टेसिस (cancer metastasis) यानी कैंसर फैलने की वजह बन सकती हैं।

लेकिन इनके जागने का कारण क्या है? पूर्व अध्ययनों में पाया गया था कि धूम्रपान (smoking risk), उम्र बढ़ना (aging factor) या कुछ बीमारियों से होने वाला जीर्ण शोथ इसका कारण हो सकते हैं। लेकिन कोलोराडो युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन (Colorado University School of Medicine) के जेम्स डीग्रेगरी और उनकी टीम को लगा कि शायद सांस के संक्रमण (respiratory infection) से होने वाले गंभीर शोथ का भी इसमें हाथ हो सकता है।

इसे परखने के लिए उन्होंने चूहों को इस तरह तैयार किया कि उनमें स्तन कैंसर ट्यूमर बनें और फेफड़ों में सुप्त कैंसर कोशिकाएं मौजूद रहें। फिर इन चूहों को या तो SARS-CoV-2 (कोविड-19 वायरस) या इन्फ्लुएंज़ा (फ्लू) वायरस (Influenza virus)  से संक्रमित किया। नतीजे चौंकाने वाले थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि संक्रमण के कुछ ही दिनों में सोई हुई कैंसर कोशिकाएं तेज़ी से बढ़ने लगीं और फेफड़ों में मेटास्टेटिक घाव (metastatic lesions) बनने लगे। इसका कारण सिर्फ वायरस नहीं, बल्कि इंटरल्यूकिन-6 (IL-6 -immune molecule) नाम का एक प्रतिरक्षा अणु था, जो संक्रमण से लड़ने में अहम भूमिका निभाता है।

जब वैज्ञानिकों ने ऐसे चूहों पर प्रयोग किया जिनमें IL-6 नहीं था, तो कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि काफी धीमी रही। इससे साबित हुआ कि IL-6 इस प्रक्रिया का मुख्य कारक है। एक और चौंकाने वाली बात यह निकली कि हेल्पर T कोशिकाएं (Helper T cells), जो आम तौर पर बीमारियों से बचाव करती हैं, वे इन कैंसर कोशिकाओं को प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system protection) के हमले से बचा रही थीं।

इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों ने यूके बायोबैंक का डैटा (UK Biobank data) देखा और पाया कि जिन लोगों को कोविड-19 हुआ था, उनमें कैंसर से मरने का खतरा (cancer mortality risk) उन लोगों की तुलना में लगभग दुगना था जिन्हें कोविड नहीं हुआ। इसके अलावा यह खतरा संक्रमण के बाद (post-infection risk) शुरुआती कुछ महीनों में सबसे ज़्यादा था।

वैसे तो ये निष्कर्ष शुरुआती (initial research) हैं और अभी और अधिक अनुसंधान की ज़रूरत है। लेकिन चीज़ें और स्पष्ट होने तक संक्रमण (infection prevention) से एहतियात बरतना ही बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनावश्यक गर्भाशय निकालने के विरुद्ध अभियान ज़रूरी

भारत डोगरा

दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) ने अपने एक निर्णय में निर्देश दिए थे कि बिना चिकित्सीय आवश्यकता के गर्भाशय हटा देने का ऑपरेशन (हिस्टरेक्टोमी – hysterectomy surgery) करने की हानिकारक प्रवृत्ति को रोकना चाहिए एवं इसकी रोकथाम के लिए केंद्र, राज्य, ज़िला एवं क्षेत्रीय स्तर पर व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए।

चिकित्सा विज्ञान (medical science) में यह मान्य है कि कुछ गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के चलते गर्भाशय को ऑपरेशन कर हटाया जा सकता है। परंतु यदि ये स्वास्थ्य समस्याएं दवाइयों या अन्य इलाज से ठीक हो जाएं तो बेहतर है, क्योंकि गर्भाशय हटा देने से कई अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। अत: गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन अंतिम विकल्प (last resort) होना चाहिए।

दूसरी ओर, हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि चिकित्सीय आवश्यकता न होने पर भी गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन (uterus removal surgery) किए जा रहे हैं। कई बार ऐसे ऑपरेशन अतिरिक्त धन अर्जन या मुनाफे के लिए किए जाते हैं। यह भी देखा गया कि कुछ बीमा योजनाओं (health insurance schemes) के अंतर्गत ऐसे बहुत से ऑपरेशन कर दिए गए जिनकी चिकित्सीय आवश्यकता नहीं थी।

वर्ष 2010 के आसपास ऐसी प्रवृत्तियां अनेक स्थानों पर दिखाई दीं। इसमें दौसा (राजस्थान) में बड़े स्तर पर होने वाले ऐसे ऑपरेशनों पर गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। ऐसी शिकायतों की जांच की गई व इसके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श (national discussion) भी हुआ। इसी दौरान डॉ. नरेन्द्र गुप्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशनों की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने की अपील (public interest litigation) की।

इस अपील का दायरा वैसे तो राष्ट्रीय स्तर का था, किंतु इसमें राजस्थान, बिहार व छत्तीसगढ़ राज्यों का उल्लेख विशेष तौर पर था। अत: सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों को नोटिस (legal notice) जारी किए तथा वहां के अधिकारियों ने जांच आरंभ की। इस जांच के आधार पर बिहार की सरकार ने पाया कि इस तरह की हानिकारक प्रवृत्ति अनेक स्थानों पर मौजूद है। वर्ष 2022 में स्वास्थ्य मंत्रालय (Ministry of Health) ने इस सम्बंध में दिशानिर्देश जारी किए ताकि इस चिंताजनक प्रवृत्ति पर रोक लग सके।

वर्ष 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इन दिशानिर्देशों को और स्पष्ट रूप से अपने आदेश (court order) में जारी किया। दुर्भाग्यवश, इसके बाद भी इन दिशानिर्देशों को सही भावना में कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी अनावश्यक रूप से गर्भाशय हटाने के गंभीर समाचार मिल रहे हैं।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र से गन्ने की कटाई में लगी महिला मज़दूरों (female laborers) के गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन किए जाने के जो समाचार मिले हैं, वे विशेष तौर पर चिंताजनक हैं।

अब समय आ गया है कि इस गंभीर विषय (serious issue) पर अधिक सक्रियता दिखाई जाए व इस समस्या को कम करने के जो दिशानिर्देश पहले ही जारी हो चुके हैं, उन्हें कारगर ढंग से लागू किया जाए।

इस समस्या का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि अनुचित ढंग के गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन (unnecessary hysterectomy) अधिकतम निर्धन व कम शिक्षित महिलाओं (poor and uneducated women) के हो रहे हैं। उनकी कम जानकारी (lack of awareness) का लाभ उठाकर या उन्हें गलत जानकारी देते हुए यह ऑपरेशन कर दिया जाता है। फिर वर्षों तक महिलाएं इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं (health complications) को झेलती रहती हैं। मेहनतकश महिलाओं (working women) को दैनिक जीवन में वैसे भी स्वास्थ्य समस्याएं अधिक होती हैं, गर्भाशय हटाए जाने से ये और बढ़ जाती हैं।

अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन को रोकना महिला स्वास्थ्य (women’s health) के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होर्मुज़ जलडमरूमध्य का महत्त्व

डॉ. इरफ़ान ह्यूमन

होर्मुज़ जलडमरूमध्य (जलसंधि) (Strait of Hormuz) हाल के दिनों में चर्चा में है क्योंकि यह वैश्विक तेल व्यापार (global oil trade) का एक महत्वपूर्ण मार्ग है, जिससे दुनिया का लगभग 20-25 प्रतिशत तेल और एक तिहाई एलएनजी (Liquified Natural Gas) आपूर्ति होकर गुज़रती है। यह फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी को जोड़ता है।

हाल के भू-राजनीतिक तनावों (geopolitical tensions), खासकर ईरान और इस्राइल-अमेरिका (Iran-Israel–US) के बीच बढ़ते संघर्ष के कारण, इस जलडमरूमध्य की रणनीतिक स्थिति ने इसे सुर्खियों में ला दिया है। बीते दिनों अमेरिका और इस्राइल द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों (nuclear sites) पर हवाई हमले किए गए, जिसके जवाब में ईरान ने होर्मुज़ जलडमरूमध्य को बंद करने की धमकी दी है, जिससे वैश्विक तेल आपूर्ति(global oil supply) पर संकट मंडरा सकता है। इस बीच होर्मुज़ जलडमरूमध्य में एक बड़ा तेल टैंकर (oil tanker) जलने की घटना सामने आई है, जिसने अफरा-तफरी मचा दी है। अमेरिका और इस्राइल के बीच हुए युद्धविराम के बावजूद, इस क्षेत्र में तनाव बना हुआ है जिससे जलडमरूमध्य और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है।

भौगोलिक स्थिति और संरचना

होर्मुज़ जलडमरूमध्य ईरान के दक्षिणी तट और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) व ओमान के उत्तरी तटों के बीच स्थित है। इसकी चौड़ाई सबसे संकीर्ण स्थान पर लगभग 33 किलोमीटर है, और गहराई 30 से 90 मीटर तक है। यह गहराई बड़े तेल टैंकरों (super tankers) के लिए पर्याप्त है, जिससे यह व्यापारिक मार्ग (shipping route) के रूप में महत्वपूर्ण है। हालांकि यह जलडमरूमध्य ऊबड़-खाबड़ है। इसमें कई स्थानों पर चट्टानें और उथले क्षेत्र हैं, जो नौवहन (marine navigation) को दुष्कर बनाते हैं।

यह क्षेत्र पेट्रोलियम (petroleum reserves) और प्राकृतिक गैस (natural gas reserves) के भंडारों से भरपूर है। समुद्र तल की भूगर्भीय परतों में हाइड्रोकार्बन (hydrocarbons) भंडार मौजूद हैं।

होर्मुज़ का जलविज्ञान

होर्मुज़ जलडमरूमध्य की उच्च लवणीयता (high salinity) इसके जल प्रवाह (water circulation) और घनत्व को प्रभावित करती है, जो समुद्री धाराओं और नौवहन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

यहां ज्वार-भाटा का असर कम रहता है, लेकिन तेज़ धाराएं नौवहन को प्रभावित कर सकती हैं। यहां का ज्वार प्रतिदिन दो बार चढ़ता है, जिससे जहाज़ों की आवाजाही और समुद्री जीवन प्रभावित होता है। ज्वार की ऊंचाई आम तौर पर 1-2 मीटर होती है।

फारस की खाड़ी से ओमान की खाड़ी की ओर एक सतही धारा बहती है, जो खाड़ी के गर्म और खारे पानी को बाहर ले जाती है। इसके विपरीत, गहराई पर ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से फारस की खाड़ी की ओर बहता है।

इसकी लवणीयता की बात करें तो होर्मुज़ जलडमरूमध्य में सतही पानी की लवणीयता सामान्यत: 40-42 पीपीटी के बीच रहती है, जो समुद्री जीवन को चुनौतीपूर्ण बना देता है। पीपीटी लवणीयता नापने की एक इकाई है जो लगभग ग्राम प्रति लीटर के बराबर होती है। यह क्षेत्र ‘अतिलवणीय’ क्षेत्र कहलाता है। यह समुद्र की औसत लवणीयता (लगभग 35 पीपीटी) से काफी अधिक है। इसका कारण फारस की खाड़ी में उच्च वाष्पीकरण दर और (नदियों आदि से) कम मीठे पानी की आपूर्ति है। वहीं, गहरे पानी में लवणीयता थोड़ी कम हो सकती है (लगभग 38-39 पीपीटी), क्योंकि यहां ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से प्रवेश करता है। साथ ही, जलडमरूमध्य के बाहर, ओमान की खाड़ी और अरब सागर की ओर जाने पर लवणीयता कम होकर लगभग 36 पीपीटी तक पहुंच जाती है, क्योंकि यह क्षेत्र खुले समुद्र से जुड़ा है और यहां वाष्पीकरण का प्रभाव कम होता है।

लवणीयता को प्रभावित करने वाले कारकों की बात करें तो इसमें पहला है उच्च वाष्पीकरण। होर्मुज़ जलडमरूमध्य और फारस की खाड़ी में गर्म और शुष्क जलवायु के कारण वाष्पीकरण की दर बहुत अधिक है। इस क्षेत्र में वर्षा नगण्य होती है, जिससे पानी में लवण की सांद्रता बढ़ती है। इसका दूसरा कारक है कम मीठा पानी। फारस की खाड़ी में दजला और फरात के संगम से बनी शट्ट-अल-अरब जैसी कुछ नदियां ही मीठा पानी लाती हैं, लेकिन यह लवणीयता को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी

उच्च लवणीयता वाले होर्मुज़ जलडमरूमध्य में मूंगा चट्टानें (coral reefs), मछलियां (marine fish) और अन्य समुद्री जीव (डॉल्फिन, समुद्री कछुए) और प्लवक पाए जाते हैं। उच्च लवणीयता और गर्म पानी के लिए अनुकूलित प्रजातियां ही यहां जीवित रह पाती हैं। लेकिन प्रदूषण और भारी नौवहन से इन जीवों पर असर पड़ रहा है।

होर्मुज़ जलडमरूमध्य में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेल रिसाव है। होर्मुज़ जलडमरूमध्य दुनिया के सबसे व्यस्त तेल शिपिंग मार्गों में से एक है, जहां से प्रतिदिन लाखों बैरल तेल गुज़रता है। टैंकरों में आग या तेल रिसाव जैसी घटनाएं समुद्री पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। तेल प्रदूषण मूंगा चट्टानों, मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिए घातक है।

यहां की मौसमी हवाएं भी नौवहन को प्रभावित करती हैं, जिससे तेल रिसाव का जोखिम बढ़ जाता है, दूसरी चुनौती है औद्योगिक अपशिष्ट। फारस की खाड़ी के आसपास के देशों से औद्योगिक (industrial waste) और नगरीय अपशिष्ट जलडमरूमध्य में आते हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता बिगड़ती है। साथ ही प्लास्टिक (plastic pollution) और माइक्रोप्लास्टिक (micro plastic) भी एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। समुद्री कचरे, विशेष रूप से प्लास्टिक, का बढ़ता स्तर जलडमरूमध्य के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है।

जलवायु और मौसम का प्रभाव

होर्मुज़ जलडमरूमध्य का पर्यावरण जलवायु और मौसमी कारकों से भी प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन (climate change)  के कारण जलडमरूमध्य के सतही पानी का तापमान (sea surface temperature) बढ़ रहा है, जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है। चूंकि मूंगे उच्च तापमान सहन नहीं कर पाते इसलिए गर्म पानी मूंगा चट्टानों को नुकसान पहुंचा रहा है। गर्मी के प्रति संवेदनशील मछलियां और अन्य जीव या तो मर रहे हैं या क्षेत्र छोड़ रहे हैं, जिससे मछली पालन प्रभावित हो रहा है।

उच्च वाष्पीकरण के अलावा यहां की शमाल (उत्तर-पश्चिमी) हवाएं और धूल भरी आंधियां पानी की सतह पर धूल की परत जमा देती हैं, जो सूर्य प्रकाश को अवरुद्ध कर प्लवक की वृद्धि को प्रभावित करती हैं।

मानवीय गतिविधियों का प्रभाव भी यहां के पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। भारी तेल टैंकर और जहाज़ों की आवाजाही से समुद्री ध्वनि प्रदूषण (underwater noise pollution) बढ़ रहा है, जो डॉल्फिन (dolphins) और व्हेल (whales) जैसी प्रजातियों के लिए हानिकारक है। भू-राजनीतिक तनावों के कारण सैन्य अभ्यास और जहाज़ों की मौजूदगी भी पर्यावरण पर दबाव डालती है। फारस की खाड़ी के देशों में डीसेलिनेशन संयंत्रों से निकलने वाला अति-खारा पानी जलडमरूमध्य में छोड़ा जाता है, जो लवणीयता को और बढ़ाता है और पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित करता है।

जलवायु परिवर्तन से दीर्घकालिक जोखिम के चलते समुद्र जलस्तर बढ़ रहा है, जो जलडमरूमध्य के तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों, जैसे मैंग्रोव और दलदली क्षेत्रों, को खतरे में डाल सकता है।

वैसे यहां पर्यावरण संरक्षण के प्रयास भी चल रहे हैं। कुछ तटीय क्षेत्रों में समुद्री संरक्षण क्षेत्र स्थापित किए गए हैं, लेकिन जलडमरूमध्य का अधिकांश हिस्सा इन क्षेत्रों से बाहर है। तेल रिसाव और प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए क्षेत्रीय संगठन काम कर रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित है। वहीं भू-राजनीतिक तनाव और आर्थिक हित पर्यावरण संरक्षण को मुश्किल बनाते हैं।

उपग्रह विज्ञान और निगरानी

इस क्षेत्र में समुद्री गतिविधियों की निगरानी (maritime monitoring) जीआईएस (GIS – Geographic Information System) और रिमोट सेंसिंग तकनीकों के माध्यम से की जाती है। रिमोट सेंसिंग (remote sensing) डैटा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ट्रैक करने में मदद करता है। समुद्री रास्तों की सुरक्षा और जलवायु अध्ययन के लिए भी उपग्रह डैटा उपयोगी होता है। ये कृत्रिम उपग्रह मल्टी-स्पेक्ट्रल सेंसर का उपयोग करके पानी की गर्मी और लवणीयता में बदलाव का विश्लेषण करते हैं। वहीं, सेंटिनल-1 (Sentinel-1) और सेंटिनल-2 (Sentinel-2) जैसे उपग्रह तेल रिसाव पर नज़र रखते हैं और रिसाव के दायरे और प्रभाव का आकलन करते हैं।

उपग्रह डैटा (satellite data)  से प्लवक घनत्व (plankton density) और पानी में क्लोरोफिल स्तर (chlorophyll level) की निगरानी भी होती है, जो प्रदूषण और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का संकेतक है। इसके अलावा, धूल भरी आंधियों, नौवहन जोखिम, अवैध गतिविधियों, भू-राजनीतिक और सुरक्षा निगरानी के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करके पर्यावरण का अध्ययन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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मछुआरा बिल्ली की खोज में

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत में जगंली (wild) बिल्ली परिवार (wild cat family) की 15 प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन ज़्यादा ध्यान अमूमन बड़ी बिल्ली प्रजातियों जैसे शेर, बाघ पर दिया जाता है। लोगों को छोटी जंगली बिल्लियों, जैसे स्याहगोश (कैरकाल, caracal), रोहित-द्वीपी बिल्ली (rusty spotted cat), मछुआरा बिल्ली (fishing cat) आदि के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। ये छोटी और गुमनाम बिल्लियां भी उचित पहचान की हकदार हैं, क्योंकि ये अपने से कहीं ज़्यादा बड़े और बढ़ते खतरों से भरी दुनिया में विचरण कर रही हैं।

भारत की आर्द्रभूमियां (wetlands) मछुआरा बिल्लियों (Prionailurus viverrinus) के घर हैं। देश में इनके कई नाम हैं: बनबिरल, खुप्या बाघ, माचा बाघा वगैरह। यह पश्चिम बंगाल की राज्य पशु है और इसे बघरोल या मेचो बिराल कहा जाता है।

ये बिल्लियां आकार में घरेलू बिल्ली (domestic cat) से दुगनी होती हैं, वज़न 7 से 12 किलोग्राम होता है, और इनके भूरे-भूरे रंग के बालों पर काले चित्ते (black spots) होते हैं। अपने अधिकार-क्षेत्र (इलाके) में यह बिल्ली अक्सर शीर्ष शिकारी (apex predator) होती है, यानी कोई अन्य प्राणी इनका शिकार नहीं करता। आर्द्रभूमियां जीवंत पारिस्थितिक तंत्र होती हैं, नदी के बाढ़ क्षेत्र या मैंग्रोव (mangroves) और दलदल (swamps) जहां ये पाई जाती है।

मछुआरा बिल्ली में हुए कुछ असामान्य अनुकूलन (adaptations) उन्हें नम परिवेश में जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। आंशिक रूप से जालीदार पंजे (webbed paws), घना जलरोधी आवरण (फर – waterproof fur) और पानी में पूरी तरह डूबे होने पर भी तैरने की क्षमता इसकी जलीय प्रवृत्ति बताती है। उभरे हुए पंजे, जिन्हें पूरी तरह से अंदर नहीं खींचा जा सकता, बिल्ली को फिसलन भरी मिट्टी (slippery mud) में पकड़ बनाने और मछलियों को पकड़ने में मदद करते हैं। बिल्लियों का आहार मुख्य रूप से मछली है, हालांकि कृंतक (rodents), मुर्गियां (chickens) और अन्य छोटे जानवर खाने से भी ये परहेज़ नहीं करती हैं।

शिकार (hunting) की फिराक में मछुआरा बिल्ली का आधा समय जलस्रोत (water source) के किनारे खड़े, बैठे या दुबके हुए बीतता है। इसके शिकार करने का बमुश्किल 5 प्रतिशत समय ही पानी के अंदर बीतता है। उथले पानी में बिल्ली धीरे-धीरे चलती रहती है, अपने पंजों से मछली को उचकाती है और फिर उसे मुंह से पकड़ लेती है।

मछुआरा बिल्लियों को फैलाव (distribution) काफी बिखरा हुआ है: हिमालय का तराई क्षेत्र (Terai region), पश्चिमी भारत के कुछ दलदली क्षेत्र (marshes), सुंदरवन (Sundarbans), पूर्वी तट (east coast) और श्रीलंका (Sri Lanka)।

इन निशाचर (nocturnal), छुपी रुस्तम (elusive) बिल्ली की बिखरी हुई आबादी पर नज़र रखने के लिए वन्यजीव सर्वेक्षणकर्ता जलस्रोतों के नज़दीक कैमरा ट्रैप लगाते हैं। फिशिंग कैट प्रोजेक्ट (Fishing Cat Project) की तियासा आद्या और उनके सहयोगियों के एक नेटवर्क (fishingcat.org) द्वारा चिल्का झील (Chilika Lake) में विस्तृत गिनती की गई है, जहां मछलियां बहुतायत में हैं और मनुष्यों के साथ उनका टकराव सीमित है। उनके परिणामों का विस्तार करने पर ऐसा अनुमान है कि मछुआरा बिल्लियों की संख्या झील के 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में करीबन 750 है।

यह आशाजनक संख्या सुंदरबन में बिल्लियों की तेज़ी से घटती संख्या के विपरीत है। इस साल की शुरुआत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) (Keoladeo National Park, Bharatpur) में मछुआरा बिल्ली देखी गई है, इसके दिखने के पहले तक ऐसा माना जाता था कि मछुआरा बिल्लियां राजस्थान (Rajasthan) में विलुप्त हो चुकी हैं।

यह गिरावट मुख्यत: उनके प्राकृतवास (habitat) में कमी के कारण है। ऐसा अनुमान है कि पिछले चार दशकों में भारत की 30-40 प्रतिशत आर्द्रभूमियां खत्म हो गई हैं या बहुत अधिक सिमट गई हैं। इसलिए, आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना मछुआरा बिल्लियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्यों के अतिक्रमण (human encroachment) ने भी मछुआरा बिल्लियों और उनके प्राकृतवास को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। कई लोग उन्हें मछलियों और मुर्गियों के शिकारी के रूप में देखते हैं, नतीजतन मनुष्य अपने पालतुओं के शिकार का बदला इन्हें मारकर लेते हैं। मनुष्यों द्वारा बदले की भावना से की गई हत्याओं (retaliatory killings) की एक बड़ी संख्या दर्ज है। समुदाय-आधारित संरक्षण (community-based conservation) कार्यक्रम इस शत्रुभाव को कम करने में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।

इस वर्ष, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) ने आंध्र प्रदेश में कोरिंगा वन्यजीव अभयारण्य (Coringa Wildlife Sanctuary) में गोदावरी नदी के मुहाने (Godavari river delta) पर मछुआरा बिल्लियों की निगरानी के लिए एक परियोजना शुरू की है। बिल्लियों में जीआईएस तकनीक (GIS technology) से लैस जीपीएस कॉलर (GPS collar) लगाकर उनका स्थान सम्बंधी सटीक डैटा एकत्र किया जाएगा। कॉलर से प्राप्त सतत डैटा उनके पसंदीदा आवासों, उनकी गतिविधियों और मानव बस्तियों के संपर्क में आने के स्थानों के बारे में जानकारी देगा। ये सभी जानकारियां मछुआरा बिल्लियों की के संरक्षण व आबादी बढ़ाने की रणनीतियां बनाने में उपयोगी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

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