वैश्विक आपदाओं से सुरक्षा के लिए लाखों किस्म के बीजों को नॉर्वे स्थित स्वालबर्ड ग्लोबल सीड वॉल्ट (Svalbard Global Seed Vault) में रखा गया है। इसे डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) (कयामत की तिज़ोरी) कहा जाता है। इस तिज़ोरी को 100 देशों ने मिलकर स्वालबर्ड में इसलिए स्थापित किया था ताकि इसमें रखे गए बीज व अन्य जैविक सामग्री जलवायु परिवर्तन (climate change) से सुरक्षित रहे और भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके। फिलहाल यहां 8 लाख 60 हज़ार बीज व अन्य सामग्री रखी गई है।
लेकिन 2017 में आर्कटिक ग्रीष्म लहर के कारण पर्माफ्रॉस्ट (permafrost) (बर्फ का स्थायी आवरण) पिघलने से वॉल्ट में पानी भर गया। इस घटना से संरक्षित बीजों को तो कोई हानि नहीं हुई लेकिन इसने स्मिथसोनियन नेशनल ज़ू एंड कंज़र्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट (Smithsonian National Zoo and Conservation Biology Institute) की जीवविज्ञानी मैरी हेगडॉर्न को चिंता में डाल दिया। वे न सिर्फ बीज बल्कि जंतु कोशिकाओं को सहेजने के लिए एक अधिक सुरक्षित स्थान पर विचार करने लगीं – एक ऐसा स्थान जो जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक संघर्षों (global conflicts) से मुक्त हो। और उन्हें लगा कि चंद्रमा (moon) से बेहतर कोई स्थान नहीं है।
बायोसाइंस (Bioscience) में हाल ही में प्रकाशित एक लेख में, हेगडॉर्न और दस अन्य विशेषज्ञों ने चंद्रमा पर डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) के लिए एक योजना का प्रस्ताव दिया है। इस योजना में चंद्रमा के ऐसे स्थान पर जैविक सामग्री (biological material) सहेजने की कल्पना है जहां हमेशा छाया बनी रहती हो, जहां का तापमान तरल नाइट्रोजन (liquid nitrogen) जितना ठंडा हो तथा परिरक्षण के लिए एक निष्क्रिय व स्थिर वातावरण मौजूद हो।
चंद्रमा पर तिज़ोरी बनाने का विचार हवाई स्थित कोरल रीफ (coral reef) के शीत संरक्षण (cryo-preservation) के दौरान आया जब तरल नाइट्रोजन की आपूर्ति में रुकावट के कारण बायोरिपॉज़िटरी (biorepository) नष्ट हो गई। इसके अलावा तूफान कैटरीना जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने एक विश्वसनीय बैकअप स्टोरेज (backup storage) की आवश्यकता दर्शाई। अत्यधिक ठंडा और पर्यावरणीय खतरे कम होने के कारण चंद्रमा एक आदर्श स्थान प्रतीत होता है।
हालांकि यह अवधारणा दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन ऐसे नमूनों को सहेजने के तरीके पहले से उपलब्ध हैं। इसकी मुख्य चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि रोबोट (robots) या अंतरिक्ष यात्री (astronauts) चंद्रमा के कठिन वातावरण में काम कर पाएं।
चंद्रमा पर तिज़ोरी कई उद्देश्यों की पूर्ति कर सकती है। अंतरिक्ष मिशनों (space missions) के लिए, यह पौधे उगाने के एक संसाधन के रूप में कार्य कर सकती है, जो मंगल ग्रह (Mars) पर टेराफॉर्मिंग (terraforming) जैसे भविष्य के अंतरिक्ष प्रयासों के लिए आवश्यक है। यह क्षेत्रीय आपदाओं (regional disasters) से सुरक्षित रखते हुए पृथ्वी की जैव विविधता के एक आनुवंशिक संग्रह के रूप में भी कार्य कर सकती है।
लेकिन यह स्पष्ट रहे कि वैश्विक सर्वनाश (global apocalypse) की स्थिति में यह भंडार उपयोगी संसाधन साबित नहीं होगा। यह तो भीषण तूफान या खाद्य शृंखला के महत्वपूर्ण घटकों को खतरे में डालने वाली बीमारियों जैसी स्थानीय आपदाओं से बचाव के लिए है।
हेगडॉर्न ने यह भी स्पष्ट किया है कि चंद्रमा पर जैव विविधता परिरक्षण (biodiversity preservation) को पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) की रक्षा/बहाली के विकल्प के तौर पर नहीं देखना चाहिए बल्कि इन प्रयासों के पूरक के तौर पर देखना चाहिए।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण चुनौती प्रबंधन की होगी। पहले से ही चंद्रमा के संसाधनों के लिए होड़ कर रहे देशों के साथ, तिज़ोरी के प्रबंधन पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international agreement) जटिलताओं से भरा होगा।
वर्तमान में टीम का प्रयास अंतरिक्ष यात्रा के दौरान कोशिकाओं को विकिरण (radiation) से बचाने पर केंद्रित है। वे नई हल्की सामग्रियों का परीक्षण करने और इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता जुटाने की योजना बना रहे हैं।
बहरहाल, चंद्रमा पर कयामत की तिज़ोरी (Doomsday Vault) का निर्माण एक महत्वाकांक्षी परियोजना है जो अत्याधुनिक विज्ञान (cutting-edge science) को दूरदर्शी सोच के साथ जोड़ती है। आज कदम उठाकर, हेगडॉर्न और उनकी टीम पृथ्वी की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था बनाने की उम्मीद करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि भविष्य की पीढ़ियां अधिक लचीलेपन और उम्मीद के साथ चुनौतियों का सामना कर सकें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://icepeople.net/wordpress/wp-content/uploads/2021/03/moonvault.jpg
पानी की कमी (Water Scarcity) दुनिया की प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं (Environmental Issues) में से एक है। दुनिया की अधिकांश आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां पानी सीमित है या अत्यधिक प्रदूषित (Water Pollution) है। जल प्रदूषण (Water Contamination) स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है।
नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) में प्रकाशित एक अध्ययन ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि पानी की कमी पर शोध प्रमुखत: पानी की मात्रा पर केंद्रित होते हैं, जबकि पानी की गुणवत्ता (Water Quality) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों (Surface Water Sources) का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है।
प्रदूषित (Polluted) होने के साथ ही जल स्रोत तेज़ी से अपनी ऑक्सीजन खो रहे हैं। इनमें नदियां (Rivers), झरने, झीलें (Lakes), तालाब, और महासागर (Oceans) भी शामिल हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, जब पानी में ऑक्सीजन का स्तर गिरता है, तो यह प्रजातियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है और पूरे खाद्य जाल (Food Chain) को बदल सकता है।
सेंट्रल वॉटर कमीशन (Central Water Commission) और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (Central Ground Water Board) के पुनर्गठन की कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कई प्रायद्वीपीय नदियों में मानसून (Monsoon) में तो पानी होता है, लेकिन मानसून के बाद इनके सूख जाने का संकट बना रहता है। देश के ज़्यादातर हिस्सों में भूजल (Groundwater) का स्तर बहुत नीचे चला गया है, जिसके कारण कई जगहों पर भूमिगत जल में फ्लोराइड (Fluoride), आर्सेनिक (Arsenic), आयरन (Iron), मरक्यूरी (Mercury) और यहां तक कि युरेनियम (Uranium) भी मौजूद है।
दुनिया भर में लगभग 1.1 अरब लोगों के पास पानी की पहुंच (Water Access) नहीं है, और कुल 2.7 अरब लोगों को साल के कम से कम एक महीने पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। अपर्याप्त स्वच्छता (Inadequate Sanitation) भी 2.4 अरब लोगों के लिए एक समस्या है – वे हैजा (Cholera) और टाइफाइड (Typhoid) जैसी बीमारियों और अन्य जल जनित बीमारियों (Waterborne Diseases) के संपर्क में हैं। हर साल बीस लाख लोग, जिनमें ज़्यादातर बच्चे शामिल हैं, सिर्फ डायरिया (Diarrhea) से मरते हैं।
बेंगलुरु (Bengaluru) जैसे बड़े शहर जल संकट (Water Crisis) से जूझ रहे हैं, जहां इस साल टैंकरों से पानी पहुंचाना पड़ा। दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को रोज़मर्रा के कामों के लिए भी पानी की किल्लत झेलनी पड़ती है। राजस्थान के कुछ सूखे इलाकों में तो हालात और भी खराब रहते हैं।
भारत, दुनिया में सबसे ज़्यादा भूजल का इस्तेमाल (Groundwater Usage) करने वाला देश है। प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भूजल स्रोत विभिन्न मानव गतिविधियों के कारण भी प्रदूषित होते हैं। और यदि एक बार भूजल प्रदूषित हो गया, तो उसे उपचारित (Treated) करने में अनेक वर्ष लग सकते हैं या उसका उपचार किया जाना संभव नहीं होता है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जाए। भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषण (Pollution) के खतरे से बचाकर ही उनका संरक्षण (Conservation) किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) दुनिया भर में मौसम और बारिश के पैटर्न को बदल रहा है, जिससे कुछ इलाकों में बारिश में कमी और सूखा (Drought) पड़ रहा है और कुछ इलाकों में बाढ़ (Flooding) आ रही है। जल संरक्षण (Water Conservation) की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी कभी बाढ़, तो कभी सूखे का सामना करना पड़ सकता है। यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें, तो बाढ़ पर नियंत्रण के साथ ही सूखे से निपटने में भी बहुत हद तक कामयाब हो सकेंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि संचित वर्षा जल (Rainwater Harvesting) से भूजल स्तर भी बढ़ जाएगा और जल संकट से बचाव होगा। साथ ही स्वच्छ पेयजल (Clean Drinking Water) की उपलब्धता की स्थिति भी बेहतर हो जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2007 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 15 अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस (World Malaria Day) घोषित किया था; उद्देश्य था मलेरिया की रोकथाम (Malaria Prevention) और नियंत्रण (Control) के लिए निरंतर निवेश और निरंतर राजनीतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता पर ज़ोर देना। मॉस्किटोपिया: दी प्लेस ऑफ पेस्ट्स इन ए हेल्दी वर्ल्ड नामक पुस्तक में कहा गया है कि अंटार्कटिका को छोड़कर हर महाद्वीप पर मच्छरों की 3500 से अधिक प्रजातियां (Mosquito Species) पाई जाती हैं। दुनिया में मच्छरों की कुल आबादी में से 12 प्रतिशत से अधिक भारत में है। वर्ष 2015 में जर्नल ऑफ मॉस्किटो रिसर्च (Journal of Mosquito Research) में प्रकाशित एक अध्ययन में बी. के. त्यागी और उनके साथियों ने बताया था कि भारत में मच्छर की 63 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें एनॉफिलीज़ (Anopheles) सबसे प्रमुख है। सर रोनाल्ड रॉस (Sir Ronald Ross) ने हैदराबाद में मलेरिया से पीड़ित मानव रोगी पर पड़ताल करके बताया था कि किस तरह एनॉफिलीज़ मच्छर के काटने से मलेरिया (Malaria Transmission) फैलता है। इसी काम के लिए सर रोनाल्ड रॉस को 1902 में कार्यिकी/चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Medicine) दिया गया था।
भारत सरकार के राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण केंद्र (National Vector Borne Disease Control Programme) ने बताया है कि मच्छरों के काटने से मलेरिया, डेंगू (Dengue), फाइलेरिया (Filariasis), जापानी दिमागी बुखार (Japanese Encephalitis), और चिकनगुनिया (Chikungunya) जैसी बीमारियां फैलती हैं। केंद्र ने दवाओं और टीकों के माध्यम से इन बीमारियों को नियंत्रित करने (Disease Control) और उनसे निपटने के तरीके भी बताए हैं।
भारत में मच्छर अत्यधिक जल-जमाव (Waterlogging) वाले क्षेत्रों, जैसे ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में सबसे अधिक पाए जाते हैं। हालांकि, पुणे, दिल्ली, चेन्नई, और कोलकाता में भी भारी बारिश और पानी के अकुशल प्रबंधन के कारण मच्छरों की आबादी में काफी वृद्धि (Mosquito Population Increase) देखी गई है।
मच्छर खेतों, बाड़ों, गमलों, नालियों, पक्षियों के लिए रखे गए पानी के बर्तनों, टायरों और कूड़ेदान जैसी चीज़ों या जगहों पर भरे थमे हुए पानी में पनपते हैं। इनकी समय-समय पर सफाई (Regular Cleaning) करने से मच्छरों की वृद्धि कम करने में मदद मिलेगी। दी हेल्दी टैलबोट (The Healthy Talbot) वेबसाइट मच्छरों से छुटकारा पाने के कई सरल उपाय (Mosquito Repellents) बताती है। इनमें से कुछ उपाय शहरों और कस्बों में उपयोगी हो सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग (जहां चावल/गेहूं की खेती होती है और इस कारण पानी भरा रहता है) कपूर (Camphor) और तुलसी (Basil Leaves) की पत्तियों का उपयोग कर सकते हैं; इन दोनों चीज़ों का उपयोग लोग घरों में पूजा-पाठ में करते हैं। सिट्रोनेला पौधे (Citronella Plant) से प्राप्त तेल मच्छरों को दूर रखने में प्रभावी है। इसी से मच्छर भगाने वाली ओडोमॉस (Odomos) बनाई जाती है जो बाज़ार में सस्ती कीमतों पर उपलब्ध है; यह क्रीम के रूप में और चिपकू पट्टी के रूप में उपलब्ध है।
व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किया जाने वाला कीट-भगाऊ एन,एन-डायइथाइल-मेटा-टॉल्यूमाइड (DEET) द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सैनिकों की सुरक्षा के लिए विकसित किया गया था। DEET की रासायनिक संरचना (Chemical Composition) में एक मामूली बदलाव ने इस औषधि को अधिक कारगर (Effective Insect Repellent) बना दिया। बलसारा होम प्रोडक्ट्स के इस स्वदेशी उत्पाद का अध्ययन एक दशक पहले मित्तल और उनके साथियों द्वारा किया गया था (इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च, 2011), जो आज चिपचिप-मुक्त एडवासंस्ड ओडोमॉस (Advanced Odomos) के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है। ऐसे और भी अणु (New Molecules) खोजने की ज़रूरत है। उम्मीद है कि कार्बनिक रसायनज्ञ और जैव-रसायनज्ञ (Organic and Biochemists) ऐसे नए अणु संश्लेषित करेंगे जो और भी कार्यकुशल होंगे।
वर्ष 2021 में, WHO ने ग्लैक्सो-स्मिथ-क्लाइन (GSK) और PATH द्वारा निर्मित ‘मॉस्कियूरिक्स (Mosquirix)’ नामक मलेरिया के टीके की चार खुराक शिशुओं को देने की सिफारिश की थी, और इसे अफ्रीका के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर उपयोग की अनुमति दी थी। इसका इस्तेमाल दुनिया के किसी और हिस्से में अब तक नहीं किया गया है। भारत में दो बायोटेक फर्म ने मलेरिया के टीकों के निर्माण और आपूर्ति के लिए काम शुरू कर दिया है। भारत बायोटेक (Bharat Biotech), जो पहले से ही मलेरिया से जुड़े कुछ टीकों पर काम कर रही है, ने मॉस्कियूरिक्स की लंबे समय तक आपूर्ति के लिए GSK-PATH के साथ इसकी प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए करार किया है। उम्मीद है कि 2026 तक भारत के लोगों के लिए इसका निर्माण और आपूर्ति शुरू हो जाएगी। 2021 में, WHO ने R21/मैट्रिक्स (R21/Matrix) टीके की भी सिफारिश की थी। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी (Oxford University) के साथ मिलकर सीरम इंस्टीट्यूट (Serum Institute) ने R21/मैट्रिक्स टीके का उत्पादन किया है; इसी जुलाई में पश्चिमी अफ्रीका के कोट डी आइवरी (Côte d’Ivoire) में इस टीके को देने की शुरुआत की गई है, इस तरह यह देश R21/मैट्रिक्स का उपयोग करने वाला पहला देश बन गया है। हमें उम्मीद है कि जल्द ही भारतीयों को भी यह टीका मिलेगा, संभवत: 2026 के विश्व मलेरिया दिवस तक। (स्रोत फीचर्स)
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भारत में बड़ी संख्या में लोग अधेड़ उम्र से ही घुटने के दर्द (Knee Pain) जैसी समस्याओं से जूझते हैं। कुछ मामलों में तो लोग ठीक से चल भी नहीं पाते या चलते-चलते अक्सर गिर जाते हैं। दरअसल, यह अस्थिछिद्रता (Osteoporosis) नामक स्थिति है जिसमें हड्डियों का घनत्व (Bone Density) कम हो जाता है और वे भुरभरी हो जाती हैं। हल्की-सी टक्कर से उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। एक बड़ी समस्या यह है कि इस स्थिति पर तब तक किसी का ध्यान नहीं जाता जब तक कोई गंभीर चोट न लग जाए। यह दुनिया भर में 50 से ज़्यादा उम्र की लगभग एक तिहाई महिलाओं और 20 प्रतिशत पुरुषों को प्रभावित करती है। संभव है कि भारत के तकरीबन 6 करोड़ लोग अस्थिछिद्रता से पीड़ित हैं, लेकिन इसके सटीक आंकड़े जुटाना काफी मुश्किल है।
अस्थिछिद्रता के कई कारण होते हैं – जैसे हार्मोनल परिवर्तन (Hormonal Changes), व्यायाम की कमी (Lack of Exercise), मादक पदार्थों का सेवन (Substance Abuse) और धूम्रपान (Smoking)। लेकिन भारत में एक और कारक इसमें योगदान दे रहा है: वायु प्रदूषण (Air Pollution)।
अध्ययनों से पता चलता है कि उच्च प्रदूषण स्तर (High Pollution Levels) वाले क्षेत्रों में अस्थिछिद्रता का प्रकोप अधिक है। भारतीय शहर और गांव अपनी प्रदूषित हवा (Polluted Air) के लिए कुख्यात हैं, इसलिए शोधकर्ता धुंध (Smog) और भंगुर हड्डियों (Brittle Bones) के बीच जैविक सम्बंधों की जांच कर रहे हैं।
ऑस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis) शब्द 1830 के दशक में फ्रांसीसी रोगविज्ञानी जीन लोबस्टीन ने दिया था। तब से, वैज्ञानिकों ने हड्डियों की क्षति (Bone Damage) की प्रक्रिया और कई जोखिम कारकों (Risk Factors) की पहचान की है। 2007 में, नॉर्वे में किए गए एक अध्ययन ने पहली बार वायु प्रदूषण और हड्डियों के घनत्व में कमी (Bone Density Loss) के बीच सम्बंध का संकेत दिया था। इसके बाद विभिन्न देशों में किए गए शोध ने भी इस सम्बंध को प्रमाणित किया है।
2017 में इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन के डिडियर प्राडा और उनकी टीम ने उत्तर-पूर्वी यूएस के 65 वर्ष से अधिक उम्र के 92 लाख व्यक्तियों के डैटा विश्लेषण में पाया कि महीन कण पदार्थ (PM 2.5) और ब्लैक कार्बन के अधिक संपर्क (Exposure to Black Carbon) में रहने से हड्डियों के फ्रैक्चर (Bone Fractures) और अस्थिछिद्रता की दर में वृद्धि हुई। इसके बाद 2020 में किए गए शोध ने रजोनिवृत्त महिलाओं (Postmenopausal Women) में अस्थिछिद्रता के कारकों की फेहरिस्त में एक अन्य प्रमुख प्रदूषक, नाइट्रोजन ऑक्साइड (Nitrogen Oxides), को जोड़ा।
यूके में, लगभग साढ़े चार लाख लोगों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि अधिक प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वालों में फ्रैक्चर का जोखिम (Fracture Risk) 15 प्रतिशत अधिक था। इसी तरह, दक्षिण भारत के एक अध्ययन में पाया गया कि अधिक प्रदूषित गांवों (Polluted Villages) के निवासियों की हड्डियों में खनिज और हड्डियों का घनत्व काफी कम था।
चीन में भी वायु प्रदूषण (Air Pollution in China) और अस्थिछिद्रता के बीच सम्बंध देखा गया है। शैंडोंग प्रांत में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि थोड़े समय के लिए भी यातायात से सम्बंधित प्रदूषकों (Traffic-Related Pollutants) के संपर्क में आने से अस्थिछिद्रता जनित फ्रैक्चर (Osteoporosis-Induced Fractures) का खतरा बढ़ता है। एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रामीण निवासियों को भी इसी तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ता है।
फिलहाल, शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि प्रदूषक किस तरह से हड्डियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसमें एक प्रत्यक्ष कारक ज़मीन के निकट पाई जाने वाली ओज़ोन (Ground-Level Ozone) है, जो प्रदूषण के कारण पैदा होती है। यह विटामिन डी (Vitamin D) के उत्पादन के लिए आवश्यक पराबैंगनी प्रकाश को कम कर सकती है, जो हड्डियों के विकास (Bone Development) के लिए आवश्यक है। कोशिकीय स्तर पर, प्रदूषक से मुक्त मूलक (Free Radicals) बनते हैं जो डीएनए और प्रोटीन को नुकसान पहुंचाते हैं, सूजन (Inflammation) को बढ़ाते हैं और अस्थि ऊतकों के नवीनीकरण (Bone Tissue Renewal) में बाधा डालते हैं।
ये निष्कर्ष भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं, जहां 1998 से 2021 तक कणीय वायु प्रदूषण (Particulate Air Pollution) लगभग 68 प्रतिशत बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels) और कृषि अवशेषों (Agricultural Residue Burning) को जलाने के साथ-साथ चूल्हों पर खाना पकाने से समस्या बढ़ जाती है। आज भी कई भारतीय महिलाएं पारंपरिक चूल्हे (Traditional Stove Cooking) पर खाना बनाती हैं, जिससे उनकी हड्डियों की हालत खस्ता हो सकती है।
प्रदूषण और अस्थिछिद्रता के बीच इस सम्बंध से प्रदूषण कम करने (Pollution Control) के लिए प्रभावी कार्रवाई की आवश्यकता स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त, अस्थिछिद्रता के निदान (Osteoporosis Diagnosis) को बेहतर करना ज़रूरी है। अस्थि घनत्व की जांच (Bone Density Test) के लिए ज़रूरी DEXA स्कैनरों की भारी कमी है, जो महंगे हैं और मात्र बड़े शहरों में उपलब्ध हैं। समय पर समस्या का पता चलने से हड्डियों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। फिलहाल अस्थिछिद्रता से पीड़ित बहुत से लोग बिना निदान और इलाज (Osteoporosis Treatment) के तकलीफ झेलते हैं, जो वायु प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारकों (Environmental Factors) से और भी बढ़ जाती है। (स्रोत फीचर्स)
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शोधकर्ता लंबे समय से प्लेसिबो प्रभाव (Placebo) से हैरान हैं। प्लेसिबो का मतलब है कि किसी मरीज़ को दवा के नाम पर कोई गोली दी जाए (Placebo Pill) और इससे मरीज़ को तकलीफ से राहत महसूस हो। सवाल यह रहा है कि किसी औषधि के बिना भी राहत कैसे मिलती है। हाल ही में चूहों पर हुए एक अध्ययन (Research on Mice) से इस घटना के पीछे मस्तिष्क तंत्र सम्बंधित नई जानकारी प्राप्त हुई है।
नेचर पत्रिका (Nature Journal) में प्रकाशित एक अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने चूहों में दर्द-राहत (Pain Management) को समझने के लिए मस्तिष्क की गतिविधि को समझने का प्रयास किया है, जिससे मानव प्लेसिबो प्रभाव (Human Placebo Effect) को भी समझने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क के सेरिबेलम (Cerebellum) और ब्रेनस्टेम (Brainstem) नामक हिस्से, जिन्हें आम तौर पर शारीरिक गतियों (Motor Coordination) से जुड़ा माना जाता है, दर्द के अनुभव और राहत में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हारवर्ड विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी क्लिफर्ड वूल्फ के अनुसार इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि प्लेसिबो प्रभाव एक वास्तविक परिघटना है।
पूर्व में मनुष्यों पर किए गए इमेजिंग अध्ययनों से पता चला है कि प्लेसिबो-आधारित दर्द निवारण ब्रेनस्टेम और एंटीरियर सिंगुलेट कॉर्टेक्स (Anterior Cingulate Cortex) में तंत्रिका-सक्रियता से सम्बंधित है। इस पर अधिक जांच करते हुए चैपल हिल स्थित उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय के तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक ग्रेगरी शेरर और उनकी टीम ने चूहों में दर्द निवारण के लिए प्लेसिबो जैसा प्रभाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से एक प्रयोग विकसित किया।
उन्होंने कुछ चूहों को इस तरह तैयार किया कि वे प्लेसिबोनुमा दर्द निवारण की अपेक्षा (Pain Relief Expectation) करने लगें। उन चूहों को सिखाया गया कि तपते गर्म फर्श वाले प्रकोष्ठ से हल्के गर्म फर्श वाले प्रकोष्ठ में जाने से राहत मिलती है। इसके बाद प्रयोग में दोनों फर्शों को अत्यधिक गर्म (Extreme Heat) रखा गया। इसके बावजूद चूहों ने जब उस कक्ष में प्रवेश किया जो पहले ठंडा (Cold Room) रखा गया था, तो उन्होंने दर्द-सम्बंधी व्यवहार कम दर्शाया जबकि अब उसका फर्श भी दर्दनाक स्तर तक गर्म था।
लाइव-इमेजिंग टूल (Live-Imaging Tool) का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने प्रयोग के दौरान सक्रिय तंत्रिकाओं की पहचान की। इसमें एक प्रमुख क्षेत्र पोंटाइन न्यूक्लियस (Pontine Nucleus) का पता चला जो ब्रेनस्टेम का एक हिस्सा है और पूर्व में दर्द से सम्बंधित नहीं माना जाता था। Pn सेरेब्रल कॉर्टेक्स को सेरेबेलम से जोड़ता है। इन तंत्रिकाओं की गतिविधि को अवरुद्ध करने से चूहों ने गर्म फर्श पर दर्द से राहत पाने की कोशिश का व्यवहार ज़्यादा जल्दी दर्शाया – जैसे पंजा चाटना और पैर को फर्श से दूर करना। इससे पता चलता है कि वे दर्द में वृद्धि का अनुभव कर रहे थे। दूसरी ओर, सक्रिय Pn न्यूरॉन्स वाले चूहों ने ऐसा व्यवहार देरी से दर्शाया था।
Pn तंत्रिकाओं के आगे विश्लेषण से पता चला कि 65 प्रतिशत तंत्रिका कोशिकाओं में ओपियोइड ग्राही (Opioid Receptors) थे, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से बनने वाले दर्द निवारकों (Endogenous Painkillers) और शक्तिशाली दर्द दवाओं (Strong Analgesics) पर प्रतिक्रिया करते हैं। ये तंत्रिका कोशिकाएं सेरिबेलम के तीन हिस्सों में फैली हुई होती हैं। यह दर्द से राहत की अपेक्षा (Placebo Effect) में इस क्षेत्र की एक नई भूमिका दर्शाती हैं।
इस खोज से दर्द के उपचार (Pain Therapy) को समझने और विकसित करने के तरीके में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। वूल्फ का सुझाव है कि यह अध्ययन प्लेसिबो गोलियों पर निर्भर हुए बिना, शरीर के अपने दर्द नियंत्रण तंत्र (Pain Control Mechanisms) को अधिक मज़बूती से सक्रिय करने के तरीके खोजने में मदद कर सकता है।
इस शोध से यह समझने में भी मदद मिल सकती है कि संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive Behavioral Therapy) और ट्रांसक्रैनियल चुंबकीय उद्दीपन (Transcranial Magnetic Stimulation) जैसे कुछ दर्द उपचार (Pain Treatment Methods) क्यों प्रभावी हैं। इन मस्तिष्क परिपथों को समझने से अधिक लक्षित और प्रभावी दर्द निवारण विधियां तैयार की जा सकती हैं।
हालांकि, एक सवाल अभी भी बना हुआ है कि कौन सी चीज़ प्लेसिबो प्रभाव को शुरू करती है और यह व्यक्ति-दर-व्यक्ति (Person-to-Person) अलग-अलग क्यों है। वूल्फ ने इसे समझने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)
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संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) के अनुसार हमारा ग्रह (पृथ्वी) तिहरे संकट से घिरा है – जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता का ह्रास और प्रदूषण। अब ज़रूरत है कि इन परस्पर जुड़ी चुनौतियों को संबोधित किया जाए ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां इस जीवनक्षम ग्रह पर जी सकें। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा संकट है जिस पर विश्व स्तर पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। इस संकट से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) में 195 सदस्य देशों द्वारा एक वैश्विक बाध्यकारी संधि (पेरिस संधि) अपनाई गई है। इसका लक्ष्य है औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखना।
जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में वनों की एक महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। जंगल वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर कार्बन सिंक के रूप में कार्य कर सकते हैं और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने में मदद करते हैं जिससे जलवायु परिवर्तन की दर धीमी पड़ती है। पेरिस समझौते के अनुच्छेद-5 में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण रोकने का महत्व स्पष्ट किया गया है; वन नहीं रहेंगे तो उनमें संचित कार्बन मुक्त हो जाएगा और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में योगदान देगा।
वर्तमान में, विश्व की कुल भूमि का 31 प्रतिशत हिस्सा वनों से आच्छादित है। इन वनों में थलीय-वनस्पतियों और थलचर जीव-जंतुओं, दोनों की समृद्ध जैव विविधता है। ये वन 80 प्रतिशत उभयचर, 75 प्रतिशत पक्षी और 68 प्रतिशत स्तनधारी प्रजातियों का घर हैं, और कहने की ज़रूरत नहीं कि ये 5,00,000 थलीय-वनस्पति प्रजातियों के घर भी हैं। वन मनुष्यों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं – वन 8.6 करोड़ हरित रोज़गार प्रदान करके आजीविका के साधन बढ़ाते हैं। वन 88 करोड़ लोगों, अधिकांश महिलाओं, के लिए जलाऊ लकड़ी के साथ-साथ कई अन्य गैर-काष्ठ वन उपज भी मुहैया कराते हैं। दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोग भोजन के लिए वन-स्रोतों पर निर्भर हैं।
प्राचीन काल से ही वनों ने मानव जीवन, आजीविका और खुशहाली को बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन उनके बेतहाशा उपयोग और दोहन से निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण दोनों हुए हैं। पिछले 10,000 वर्षों में हम पृथ्वी के एक तिहाई वन गंवा चुके हैं। इसमें से आधे वन तो सिर्फ पिछली शताब्दी में ही उजाड़े गए हैं। आज भी वनों का सफाया करने का प्रमुख कारण खेती के लिए ज़मीन बनाना है; हाल ही में तेल के लिए ताड़ और सोयाबीन जैसी वाणिज्यिक फसलें उगाने के लिए वनों को काटा गया है। पशु पालन और शहरीकरण के कारण भूमि आवरण में आए बदलाव भी वनों की कटाई के कारण हैं। 1980 के दशक में वनों की कटाई अपने चरम पर थी। लेकिन गनीमत है कि वैश्विक प्रयासों के चलते वनों की कटाई की गति मंद पड़ी है – हालांकि यह पूरी तरह रुकी नहीं है और आज भी कम से कम 1 करोड़ हैक्टर वन हर साल कट रहे हैं।
इनमें अधिकांश उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों के समृद्ध जैव-विविधता वाले वन हैं। लेकिन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में वनों की भूमिका को पहचानने के बाद तो वनों की कटाई को रोकना तत्काल रूप से आवश्यक हो गया है।
वन वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन ने मई 2024 में ‘अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन: रुझान, खामियों और नवीन तरीकों की एक समीक्षा’ (International forest governance: A critical review of trends, drawbacks and new approaches) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन के अंतर्गत कानून, नीतियां और संस्थागत ढांचे (बाध्यकारी और स्वैच्छिक दोनों) शामिल हैं जो वैश्विक वनों का प्रशासन मुख्यत: संरक्षण और टिकाऊ प्रबंधन के उद्देश्य से करते हैं। उपरोक्त आकलन रिपोर्ट में 2010 के बाद के दशक में जिन रुझानों पर प्रकाश डाला गया है उनमें से एक है वन प्रशासन विमर्श का ‘जलवायुकरण’। रिपोर्ट के अनुसार इसने वन संरक्षण के लिए बाज़ार-चालित और तकनीकी प्रक्रियाओं को बढ़ावा दिया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके कारण वनों के आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक महत्व पर कम ध्यान या महत्व दिया जा रहा है।
वनों की कटाई से निपटने के लिए बाज़ार-आधारित विधियों में से एक का उदाहरण लेते हैं: Reducing Emissions from Deforestation and Forest Degradation in Developing Countries (REDD+) अर्थात विकासशील देशों में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण के कारण होने वाला उत्सर्जन कम करना। इसका विशिष्ट उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को थामना है। जो विकासशील देश निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को थामने के साथ-साथ वनों के सतत प्रबंधन के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें REDD+ के तहत इसके बदले भुगतान किया जाएगा। वन संरक्षित हो जाएंगे, और संरक्षण करने वाले देशों को विकास सम्बंधी गतिविधियों के लिए धन मिलेगा – यानी सबकी जीत (या आम के आम, गुठलियों के दाम)। खासकर पेरिस समझौते के बाद से, REDD+ को जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती से लड़ने में एक महत्वपूर्ण किरदार के रूप में देखा जा रहा है।
REDD+ पहली बार 2007 में प्रस्तावित किया गया था। तब से REDD+ के फायदे और इसके प्रतिकूल प्रभावों पर विभिन्न मत रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि REDD+ निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकने में अप्रभावी है। दूसरी ओर, कुछ लोगों का तर्क है कि REDD+ की सफलता सीमित इसलिए दिखती है क्योंकि इसे संपूर्ण राष्ट्र स्तर पर नहीं, बल्कि परियोजना-आधारित तरीके से लागू किया जा रहा है। चूंकि REDD+ एक वित्तीय प्रोत्साहन/प्रलोभन है, इसलिए इसकी आलोचना में एक तर्क यह दिया जाता है कि इससे मिलने वाला वित्तीय प्रोत्साहन वनों के अन्य अधिक मुनाफादायक इस्तेमाल का मुकाबला नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में तेल के लिए ताड़ बागानों और इमारती लकड़ी के बागानों के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई होती है। इन बागानों से इतना मुनाफा मिलता है कि REDD+ जैसी प्रणाली यहां काम नहीं करेगी।
बाज़ार-आधारित व्यवस्था के रूप में REDD+ पर विवाद का एक प्रमुख कारण देशज समुदायों पर इसका प्रभाव रहा है – विशेष रूप से सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में। एक तरफ तो REDD+ को इस तरह देखा जाता है कि यह देशज समुदायों को वित्तीय लाभ देगा जिससे वे अपनी विकास सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकेंगे। दुनिया भर के देशज समुदायों ने एक खुले पत्र में REDD+ के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया था। देशज लोगों और संगठनों के वक्तव्यों में कहा गया है कि इससे मिली वित्तीय मदद ने उन्हें टिकाऊ वन प्रबंधन और संरक्षण करने में मदद के अलावा स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल जैसी सुविधाएं स्थापित करने में भी मदद की है। लेकिन साथ ही, देशज समुदायों को जंगलों तक पहुंच और उन पर अपने अधिकार गंवाने का भी डर है। और तो और, उन्हें वहां से विस्थापित कर दिए जाने का डर भी है। उनकी आजीविका और निर्वाह काष्ठ और गैर-काष्ठ दोनों तरह के वन उत्पाद के निष्कर्षण पर निर्भर है। लेकिन REDD+ द्वारा लागू नियम इन समुदायों (की आजीविका) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। यह आशंका व्यक्त की गई है कि देशों के अंदर भी REDD+ से होने वाले लाभ, विशेषकर वित्तीय लाभ, अंततः कुछ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चले जाएंगे।
REDD+ जैसी बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था से असमान सत्ता संतुलन के बारे में भी चिंताएं उठती हैं। ग्लोबल नॉर्थ के विकसित देश, जो कार्बन के मुख्य उत्सर्जक और जलवायु परिवर्तन के प्रमुख योगदानकर्ता भी हैं, अपने अधिक धन के बल पर वन उपयोग की ऐसी शर्तें लागू कर सकते हैं जो विकासशील ग्लोबल साउथ के देशों और समुदायों के लिए हानिकारक होंगी। ग्लोबल साउथ के देशों के विभिन्न समूहों के लिए सत्ता का असमान वितरण व इसके प्रभाव भी चिंता का विषय हैं – अधिक राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक सामर्थ्य वाले देश ऐसी बाज़ार-केंद्रित व्यवस्था का फायदा उठा सकते हैं।
भारत उन शीर्ष दस देशों में से एक है जहां सबसे अधिक वन क्षेत्र है। भारत की वन स्थिति रिपोर्ट (State of Forest Report) 2021 के अनुसार, देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.71 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। इन वनों में अत्यंत समृद्ध जैव विविधता पनपती है, जिसमें कई ऐसी प्रजातियां हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती हैं यानी ये एंडेमिक हैं। भारत के वन 7.2 अरब टन कार्बन को भंडारित किए हुए हैं, और सरकार जलवायु परिवर्तन को कम करने में इन वनों के महत्व को स्वीकार करती है। भारत ने REDD से जुड़ी वार्ताओं में भाग लिया है और UNFCCC को राष्ट्रीय REDD+ रणनीति सौंपी भी है।
भारत के जंगल आदिवासियों के घर हैं, जो वनों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। इसके अलावा वनों की सीमाओं पर बसे कई गांव और ग्रामीण आबादी भी पूरी तरह या आंशिक रूप से वनों पर निर्भर हैं। इनकी संख्या कोई मामूली नहीं है – 30 करोड़ की आबादी वाले ऐसे 1,73,000 गांव अपनी ज़रूरतों के लिए वनों पर निर्भर हैं। यहां बसे समुदाय देश के सबसे गरीब समुदायों में से हैं और अक्सर उनकी आय का एकमात्र स्रोत वन उपज होती है। वन और वन उपज पर यह सामुदायिक निर्भरता REDD+ के उद्देश्य के आड़े आती है, जो निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकना चाहता है। इसलिए, जब वनों के ह्रास को रोकने के लिए REDD+ जैसी बाज़ार-आधारित व्यवस्था की बात होती है तो भारत की चिंताएं बाकी दुनिया की चिंताओं से भिन्न नहीं हैं – न्याय, समता और ऐसे उपायों की प्रभावशीलता की चिंताएं।
बेशक, जलवायु परिवर्तन से निपटने में वन महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वनों की रक्षा करने या वनों की कटाई को रोकने का एकमात्र कारण यही नहीं बन सकता। वनों से मिलने वाली अमूल्य पारिस्थितिक सेवाएं, वनों में पाई जाने वाली समृद्ध जैव विविधता, वनों पर निर्भर लाखों लोगों की आजीविका और निर्वहन भी वनों की रक्षा करने के लिए उतना ही महत्वपूर्ण कारण है। वन प्रशासन के जलवायुकरण और बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था का एक ही लक्ष्य है (वनों का संरक्षण), लेकिन यह एकल-लक्ष्य-उन्मुखी वन प्रशासन भारत या दुनिया भर के वनों और उस पर निर्भर समुदायों दोनों के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन को इस पहलू से अवगत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.ctfassets.net/mrbo2ykgx5lt/31154/07ed036c21fae9c8608765ed0397389f/forests-and-global-change-proforestation.jpg
क्रेफिश (झिंगा मछली) के नाम में मछली है लेकिन ये जंतु मछली नहीं होते बल्कि केंकड़े, लॉबस्टर वगैरह जैसे क्रस्टेशियन वर्ग के जंतु हैं। क्रेफिश की लगभग 700 प्रजातियां ज्ञात हैं। ये भूमिगत बिलों में रहते हैं और सिर्फ रात के अंधेरे में ही ज़मीन पर आते हैं। लेकिन इनके रंग चटख होते हैं – गहरे नीले, नारंगी, बैंगनी-जामुनी और लाल। जैव विकास की दृष्टि से यह एक पहेली रही है। अंधेरे में जब इन रंगों को कोई देख नहीं सकता तो इनका विकास ही क्यों हुआ?
हाल ही में प्रोसीडिंग्सऑफदीरॉयलसोसायटीबी में प्रकाशित शोध पत्र में वेस्ट लिबर्टी युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद ज़ेकरी ग्राहम और उनके सहयोगियों ने इस संदर्भ में एक परिकल्पना सुझाई है। उनकी परिकल्पना है कि इन भूमिगत क्रेफिशों की रंग-बिरंगी छटाएं किसी खास मकसद से विकसित नहीं हुई हैं, बल्कि ये महज संयोग का परिणाम हैं।
वैकासिक जीव वैज्ञानिक आम तौर पर मानते हैं कि चटख रंगों वाले जंतुओं का विकास किसी कारण से होता है। जैसे पक्षी अपने रंगों से अपनी फिटनेस का प्रदर्शन करते हैं, जबकि कुछ ज़हरीले मेंढक शिकारियों को दूर रखने के लिए चमकीले रंगों और पैटर्न का सहारा लेते हैं।
ग्राहम की टीम यही समझने को उत्सुक थी कि क्या यह बात क्रेफिश पर लागू होती है। कुछ क्रेफिश तो अधिकांश समय नदियों के खुले पानी में मटरगश्ती करते बिताते हैं जबकि कुछ हैं जो कीचड़ में बिल बनाकर रहते हैं और रात में बाहर निकलते हैं। तो क्या उनकी आवास की पसंद ने उनके रंगों को संजोया होगा?
शोधकर्ताओं ने दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, युरोप और उत्तरी अमेरिका की 400 क्रेफिश प्रजातियों के मौजूदा आंकड़े देखे और इन्हें रंग व प्राकृतवास के आधार पर वर्गीकृत किया। फिर उन्होंने यह देखा कि वर्तमान प्रजातियां और उनके पूर्वज किसी तरह परस्पर सम्बंधित हैं – यानी उनका एक वंशवृक्ष तैयार किया।
पता चला कि नीले, नारंगी, जामुनी और लाल चटख रंगत वाले क्रेफिश तो भूमिगत बिलों के वासी हैं जबकि पानी में रहने वाले क्रेफिश प्राय: भूरे, कत्थई और अन्य फीके रंगों के थे। तो बिल में रहने वाले क्रेफिश में ऐसे रंग क्यों विकसित हुए होंगे जबकि उन्हें अंधेरे में बसर करना है – रंगों के दम पर वे न तो साथियों को आकर्षित कर सकते हैं और शिकारियों से तो वे अपने बिलों में महफूज़ ही हैं।
क्या यह संभव है कि इनके पूर्वजों में बेतरतीब ढंग से यह रंगीनियत पैदा हो गई थी और फिर इसे बदलने का कोई कारण न रहा हो। एक तथ्य यह है कि भूमिगत क्रेफिश अपने बिलों में ही अपने सम्बंधियों के साथ प्रजनन करते हैं। इसका मतलब यह होगा उनमें कोई लक्षण कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेगा।
शोध के दौरान एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि पिछले 26 करोड़ वर्षों में क्रेफिश के चटख रंगों का विकास 50 मर्तबा स्वतंत्र रूप से हुआ है। इसका मतलब है कि कई फीके रंग वाले क्रेफिश में किसी समय नीला या नारंगी या लाल होने की क्षमता पैदा हो गई होगी। ग्राहम का कहना है कि हर मौजूदा लक्षण अनुकूलनकारी हो, यह ज़रूरी नहीं है। कई लक्षण उपस्थित रहते हैं जबकि उनका कोई ज़ाहिर उपयोग नहीं होता। यह भी संभव है कि कई लक्षण सिर्फ इसलिए बन जाते है और बने रहते हैं कि उनकी वजह से जंतु को कोई नुकसान भी नहीं होता। जब कोई दीदावर नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है आप कैसी पोशाक पहने हैं। कहने का मतलब कि भूमिगत क्रेफिशों में रंगों पर कोई चयनात्मक दबाव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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यह तो सर्वज्ञात है कि स्तनधारी मादाओं के अंडाशय में जीवन भर के लिए सारे अंडाणु भ्रूणावस्था में ही निर्मित हो जाते हैं और फिर एक-एक या अधिक संख्या में विकसित होकर बाहर निकलते रहते हैं। जैसे, 20 सप्ताह के स्त्री भ्रूण में तकरीबन 60-70 लाख अंडाणु होते हैं। समय बीतने के साथ अधिकांश की मृत्यु हो जाती है लेकिन लगभग 3 लाख अंडाणु स्त्री के रजस्वला होने यानी यौवनारंभ (प्यूबर्टी) तक जीवित रहते हैं। और तो और, रजोनिवृत्ति (लगभग 50 वर्ष की आयु) तक भी 1000 अंडाणु मौजूद होते हैं। तो यह चमत्कार कैसे होता है?
आम तौर पर कोई भी कोशिका अपने प्रोटीन्स को काफी जल्दी-जल्दी तोड़ती है, प्राय: चंद दिनों में। लेकिन कुछ प्रोटीन्स का विघटन इतनी जल्दी नहीं होता। मनुष्यों में आंखों के लेंस में, उपास्थि जोड़ों में, मस्तिष्क में और माइटोकॉण्ड्रिया में ऐसे प्रोटीन पाए गए हैं जो दशकों तक टिके रहते हैं। वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि अंडाशय में भी ऐसे प्रोटीन पाए जाते हैं, लेकिन यह पता नहीं था कि ये कितने आम तौर पर पाए जाते हैं। प्रोटीन्स के कई कार्यों में से एक कार्य कोशिका की रक्षा करना भी है।
ऐसे ही दीर्घजीवी प्रोटीन्स का पता लगाने के लिए दो अनुसंधान समूहों ने अद्भुत रणनीति अपनाई। गौरतलब है कि उन्होंने सारे प्रयोग चूहों पर किए थे। इसलिए सारे नतीजों को चूहों की उम्र के हिसाब से देखना होगा। देखना यह था कि कतिपय प्रोटीन की उम्र कितनी होती है।
दोनों समूहों ने मादा चूहों को ऐसा भोजन खिलाया जिसमें कार्बन या नाइट्रोजन के भारी समस्थानिक थे। चूंकि उनके भोजन में इन तत्वों के भारी समस्थानिक थे, तो जो प्रोटीन उनके शरीर में बने उनमें भी यही भारी समस्थानिक थे। और उनके गर्भाशय में पल रही संतानों में भी। यानी आगे चलकर इन प्रोटीन्स को पहचाना जा सकता था।
जन्म होते ही इन संतानों को सामान्य कार्बन तथा नाइट्रोजन वाला भोजन देना शुरू कर दिया। तो स्थिति यह थी कि इन संतानों ने जो प्रोटीन भोजन-परिवर्तन से पूर्व बनाए थे उनमें भारी समस्थानिक होना चाहिए और परिवर्तन के बाद बने प्रोटीन्स में सामान्य समस्थानिक। इस आधार पर शोधकर्ता यह पता लगा सकते थे कि शरीर में पाए गए किसी प्रोटीन की उम्र कितनी है।
मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर मल्टीडिसिप्लिनरी साइन्सेज़ की मेलिना शू के नेतृत्व में काम कर रहे समूह ने 8 सप्ताह आयु के चूहों के अंडाणुओं का विश्लेषण किया। गौरतलब है कि 8 सप्ताह की आयु चूहों के हिसाब से प्रजनन का शिखर होता है। विश्लेषण से पता चला कि इन अंडाणु कोशिकाओं में तकरीबन 10 प्रतिशत प्रोटीन उस समय बने थे जब ये मादा चूहे अपनी मां के गर्भाशय में थे। ये नतीजे नेचर सेल बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
जब उन्होंने लगभग 15 माह आयु के चूहों के साथ यह प्रयोग दोहराया तो गणितीय मॉडल विश्लेषण से पता चला कि 10 प्रतिशत से अधिक प्रोटीन्स का अर्ध-जीवन काल 100 दिन से अधिक है। अर्ध-जीवन काल यानी उतने समय में उनमें से आधे अणु विघटित हो जाएंगे। ध्यान रहे कि 100 दिन मतलब चूहे की आयु का 13 प्रतिशत होता है।
पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय की एवा बोम्बा-वार्कज़ैक के नेतृत्व में एक अन्य समूह को भी ऐसे ही नतीजे प्राप्त हुए, जो उन्होंने ईलाइफ नामक पत्रिका में प्रकाशित किए हैं। 7 माह के चूहों के अंडाणुओं में प्रोटीन के विश्लेषण से पता चला कि इनमें से कम से कम 5 प्रतिशत का संश्लेषण जन्म से पहले या तत्काल बाद हुआ था। 11 माह की उम्र तक टिकाऊ प्रोटीन्स में से 10 प्रतिशत शेष थे।
ऐसा लगता है कि ये दीर्घजीवी प्रोटीन अंडाणुओं की हिफाज़त करते हैं और साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि इन प्रोटीन के क्रमिक विघटन के साथ अंडाशय में अंडाणुओं की संख्या घटती जाती है और एक समय के बाद मादा प्रजननक्षम नहीं रह जाती। इसी को रजोनिवृत्ति या मेनोपॉज़ कहते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में नासा ने 3800 करोड़ रुपए के वाइपर मिशन (वोलेटाइल्स इन्वेस्टिगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर) को रद्द कर दिया है। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ का मानचित्र तैयार करना और कुछ क्षेत्रों में बर्फ में ड्रिल करना था। मिशन को रद्द करने का कारण बजट की कमी, रोवर और उसके लैंडर के निर्माण में देरी व इसके चलते रोवर की बढ़ती लागत, और अतिरिक्त परीक्षण व्यय बताए गए हैं।
गौरतलब है कि वाइपर मिशन नासा के व्यावसायिक लूनर पेलोड सर्विसेज़ (सीएलपीएस) कार्यक्रम का हिस्सा था, जो चंद्रमा पर वैज्ञानिक उपकरण भेजने के लिए निजी एयरोस्पेस कंपनियों के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा था। इसके लिए 3640 करोड़ रुपए का आवंटन हुआ था और 2023 में प्रक्षेपित करने की योजना थी। वाइपर को एक कंपनी एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी के ग्रिफिन यान की मदद से भेजा जाना था। उद्देश्य चंद्रमा की बर्फ में दबी रासायनिक जानकारी को उजागर करने व सौर मंडल की उत्पत्ति को समझने के अलावा भविष्य के चंद्रमा मिशनों के लिए संसाधनों की व्यवस्था के लिए चंद्रमा के ठंडे, अंधेरे क्षेत्रों से बर्फ का नमूना प्राप्त करना था।
अलबत्ता, निर्माण में देरी ने प्रक्षेपण को 2025 के अंत तक धकेल दिया, जिससे मिशन की लागत करीब 1500 करोड़ रुपए तक बढ़ गई। लागत में वृद्धि की आंतरिक समीक्षा के बाद मिशन को रद्द कर दिया गया।
एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि 50 वर्षों के अंतराल के बाद पहले अमेरिकी चंद्रमा लैंडर वाइपर का निर्माण एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी नामक कंपनी को करना था। इस कंपनी का पेरेग्रीन अंतरिक्ष यान प्रोपेलर लीक होने के कारण अनियंत्रित हो गया था और चंद्रमा की धरती तक पहुंचने में विफल रहा था। इससे वाइपर को सुरक्षित रूप से चांद पर पहुंचाने की एस्ट्रोबोटिक की क्षमता पर संदेह पैदा हुआ।
इन असफलताओं के बावजूद, एस्ट्रोबोटिक अगले साल अपने ग्रिफिन चंद्रमा लैंडर को लॉन्च करने की तैयारी कर रहा है और वह कोशिश कर रहा है कि उसे चंद्रमा पर पहुंचाने हेतु अन्य उपकरण मिल जाएं। इसके लिए वह अन्य अन्वेषकों से प्रस्ताव आमंत्रित कर रहा है।
गौरतलब है कि मिशन रद्द करने की घोषणा ऐसे समय पर हुई जब वाइपर ने अंतरिक्ष की कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए परीक्षण शुरू ही किया था। फिलहाल, नासा भविष्य के मिशनों के लिए रोवर या उसके पुर्ज़ों का उपयोग करने में रुचि रखने वाले भागीदारों की तलाश में है। यदि कोई उपयुक्त प्रस्ताव प्राप्त नहीं होता है तो रोवर को खोलकर उसके पुर्ज़ों का फिर से इस्तेमाल किया जाएगा। हालांकि, कई विशेषज्ञ रोवर को नष्ट करने के बजाय इसे सहेजने का सुझाव देते हैं।
वाइपर मिशन के रद्द होने के बावजूद, नासा चंद्रमा पर पानी और बर्फ की खोज के लिए प्रतिबद्ध है। पोलर रिसोर्सेज़ आइस माइनिंग एक्सपेरीमेंट-1 (प्राइम-1) को इस साल के अंत में इंट्यूटिव मशीन द्वारा निर्मित एक व्यावसायिक लैंडर पर चंद्रमा मिशन के लिए निर्धारित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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गिद्धों को अक्सर मृत जीव-जंतुओं के भक्षण के लिए जाना जाता है। इस तरह ये हमारे पारिस्थितिक तंत्र को साफ रखते हैं और बीमारियों के प्रसार को कम करके मानव जीवन की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस संदर्भ में अमेरिकनइकॉनॉमिकएसोसिएशन जर्नल में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि 1990 के दशक के दौरान भारत में गिद्धों के लगभग विलुप्त होने से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पैदा हुआ जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2000 से 2005 के बीच लगभग पांच लाख अतिरिक्त मौतें हुईं।
1990 के दशक में, पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनेक दवा के व्यापक उपयोग के कारण भारतीय गिद्ध की आबादी में गिरावट आई। इस दवा का इस्तेमाल मवेशियों में दर्द, शोथ व अन्य तकलीफों के लिए काफी मात्रा में किया गया था। इन पशुओं के शवों को खाने वाले गिद्धों के लिए यह घातक साबित हुई। इससे गिद्धों की बड़ी आबादी के गुर्दे खराब हो गए और एक दशक में गिद्धों की आबादी 5 करोड़ से घटकर मात्र कुछ हज़ार रह गई।
गौरतलब है कि गिद्ध शवों का कुशलतापूर्वक सफाया करते हैं, जिसकी वजह से जंगली कुत्तों और चूहों जैसे जीवों को भोजन कम मिल पाता है और उनकी आबादी नियंत्रण में रहती है। ये जीव रेबीज़ जैसे रोगाणुओं को मानव आबादी तक पहुंचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, गिद्धों की अनुपस्थिति में किसान अक्सर मृत पशुओं को नदी-नालों में फेंक देते हैं, जिससे पानी दूषित होता है तथा और अधिक बीमारियां फैलती हैं।
वार्विक विश्वविद्यालय के पर्यावरण अर्थशास्त्री अनंत सुदर्शन ने गिद्धों की अनुपस्थिति के परिणामों का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि गिद्धों की अनुपस्थिति में चमड़े के कारखानों और शहर की सीमाओं के बाहर शवों का ढेर लग गया था जिसका भक्षण जंगली (फीरल) कुत्ते व अन्य रोगवाहक जीव कर रहे थे। भारत सरकार ने चमड़ा कारखानों को शवों के निपटान के लिए रसायनों के उपयोग का निर्देश दिया लेकिन इन रसायनों से जलमार्ग प्रदूषित हो गए।
सुदर्शन और शिकागो विश्वविद्यालय के पर्यावरण अर्थशास्त्री इयाल फ्रैंक ने गिद्धों की संख्या में कमी के कारण मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को मापने के लिए एक विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने भारत के 600 से अधिक ज़िलों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के साथ गिद्धों के आवासों के मानचित्रों को जोड़कर देखा। इस विश्लेषण में उन्होंने पानी की गुणवत्ता, मौसम और अस्पतालों की उपलब्धता जैसे कारकों का ध्यान रखा।
उन्होंने पाया कि 1994 से पहले, जिन ज़िलों में कभी गिद्धों की बड़ी आबादी हुआ करती थी, वहां मानव मृत्यु दर औसतन प्रति 1000 लोगों पर लगभग 0.9 थी जबकि 2005 के अंत तक इस मृत्यु दर में 4.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यानी हर साल लगभग एक लाख अतिरिक्त मौतें हुईं। वहीं, जिन ज़िलों में पहले भी गिद्धों की आबादी बहुत ज़्यादा नहीं थी, वहां मृत्यु दर में कोई बदलाव नहीं देखा गया। इन अतिरिक्त मौतों की आर्थिक लागत की गणना भारतीय समाज द्वारा जीवन को बचाने के महत्व के आधार पर की गई थी। पूर्व सांख्यिकीय अध्ययनों के अनुसार यह प्रति व्यक्ति 5.5 करोड़ रुपए है। इस हिसाब से वर्ष 2000 से 2005 तक गिद्धों के न होने से कुल आर्थिक क्षति प्रति वर्ष लगभग 6000 अरब रुपए थी।
यह अध्ययन जन स्वास्थ्य में गिद्धों की महत्वपूर्ण भूमिका और उनकी आबादी में गिरावट के गंभीर परिणामों पर प्रकाश डालता है। 2006 में भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफेनेक पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद गिद्धों की आबादी पूरी तरह बहाल होने की संभावना नहीं है। ये परिणाम भविष्य में इसी तरह के संकटों को रोकने के लिए सक्रिय संरक्षण उपायों की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। साथ ही इस तरह के आकलन मानव स्वास्थ्य पर ज्ञात प्रभावों वाली अन्य प्रजातियों के संरक्षण के बारे में सोचने को भी प्रेरित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/article.37322/full/2000090131.gif