पांच साल के लिए शुरू किए गए MethaneSAT मिशन को अभी 15 महीने ही हुए थे कि अचानक 20 जून को धरती से इसका संपर्क टूट गया। इस उपग्रह को धरती पर हो रहे मीथेन (methane emissions) उत्सर्जन का पता लगाने के लिए बनाया गया था, लेकिन अब इसके खामोश हो जाने से जलवायु (climate monitoring) पर नज़र रखने की वैश्विक कोशिशों को एक बड़ा झटका लगा है। इस उपग्रह को एनवायरनमेंटल डिफेंस फंड (EDF) नामक गैर-मुनाफा संस्था (non-profit organization) ने 754 करोड़ रुपए की लागत से तैयार किया था।
गौरतलब है कि मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) है, जिसका तापमान बढ़ाने वाला असर पिछले 20 वर्षों में बराबर मात्रा की कार्बन डाईऑक्साइड से 80 गुना अधिक पाया गया है। आम तौर पर मीथेन उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत दलदली क्षेत्र हैं, लेकिन सबसे अधिक उत्सर्जन तेल और गैस की रिसती पाइपलाइनों (leaking oil and gas pipelines) से होता है। इन रिसन को रोकना ग्लोबल वॉर्मिंग (global warming) को धीमा करने का तेज़ और सस्ता तरीका माना जाता है, और MethaneSAT इन्हीं रिसावों को पहचानने के लिए अंतरिक्ष में भेजा गया था।
आम तौर पर मौजूदा उपग्रह या तो बहुत बड़े इलाके पर मोटी-मोटी नज़र रखते हैं, या फिर केवल बड़े और स्पष्ट गैस रिसाव (major gas leaks) को पकड़ पाते हैं। लेकिन MethaneSAT समस्त तेल और गैस फील्ड को इतनी बारीकी (अच्छे रिज़ॉल्यूशन – high resolution imaging) से स्कैन करने में सक्षम था कि वह बहुत छोटे उत्सर्जन (minor methane leaks) को भी पकड़ सकता था। यह 2 पार्ट प्रति बिलियन जितनी कम मीथेन सांद्रता को भी भांप सकता था।
इस उपग्रह की एक और खास बात यह थी कि यह सरकारी या निजी कंपनी की बजाय एक गैर-मुनाफा संस्था (NGO) (EDF) द्वारा संचालित किया जा रहा था। वैज्ञानिकों ने इसे जनहित में अंतरिक्ष विज्ञान (space-based climate tracking) का एक नया मॉडल बताया था। हालांकि यह उपग्रह कम समय में बंद हो गया लेकिन इसके पहले वर्ष के डैटा (satellite data analysis) का विश्लेषण अभी जारी है और इससे नए उत्सर्जन सामने आने की संभावना है, जिन पर पहले ध्यान नहीं गया था।
सबसे अहम बात यह है कि MethaneSAT से मिले डैटा को समझने के लिए विकसित उपकरण और एल्गोरिद्म (AI-based detection tools) भविष्य के मिशनों में काम आ सकते हैं। जैसे कि जापान का नया उपग्रह GOSAT-GW, जिसे हाल ही में लॉन्च किया गया है, इन तकनीकों का फायदा उठा सकता है। इसी तरह, कार्बन मैपर (Carbon Mapper satellite) जैसी संस्थाएं भी मीथेन पर निगरानी (methane surveillance) के काम को आगे बढ़ा रही हैं, हालांकि उनके उपग्रहों में MethaneSAT जैसी बड़ी रेंज की क्षमता नहीं है।
फिलहाल EDF टीम थोड़ा समय लेकर दोबारा ऐसा मिशन शुरू करने की योजना पर विचार कर रही है। बहरहाल, MethaneSAT एक प्रेरणा का स्रोत (inspirational satellite mission) है और उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचनाएं अब भी अंतरिक्ष से जलवायु निगरानी (space climate observation) के भविष्य को दिशा दे सकती है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://c.files.bbci.co.uk/f998/live/56ea7ff0-581d-11f0-960d-e9f1088a89fe.jpg
एक दो-चाबुकी (डायनोफ्लेजिलेट) जीव है सिथारिस्टिसरेजियस (Citharistes regius)। डायनोफ्लेजिलेट एककोशिकीय जीव होते हैं जो प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करके अपना भोजन खुद बना सकते हैं। ये दो चाबुकनुमा तंतुओं से लैस होते हैं जो उन्हें चलने-फिरने में मदद करते हैं।
रोचक बात यह है कि त्सुकुबा विश्वविद्यालय के ताकरुप नाकायामा और उनके साथियों ने इस एककोशिकीय जीव के अंदर एक विचित्र परजीवी (parasite discovery) खोजा है। इसे सुकुमार्चियम नाम दिया है और अभी यह सिर्फ अपने जीनोम (genome sequencing) के आधार पर पहचाना गया है।
तो, जीनोम के विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह एक परजीवी है जो अपने एककोशिकीय मेज़बान (host cell) को कुछ नहीं देता। सुकुमार्चियम में कुल मिलाकर 189 प्रोटीन बनाने वाले 189 जीन्स हैं। ये सभी सिर्फ एक काम पर केंद्रित हैं – अपने जीनोम की प्रतिलिपि बनाना (genetic replication)। इस काम को अंजाम देने के लिए बाकी सारी सामग्री यह अपने मेज़बान से लूटता है। और विचित्रताएं अभी बाकी हैं…
जैसे, इस सूक्ष्मजीव की जेनेटिक शृंखला का कुछ हिस्सा ऐसा है जैसे यह एक आर्किया जीव (archaea) हो। आर्किया बैक्टीरिया की अपेक्षा हमारे जैसे जटिल जीवों (complex life forms) की तरह अधिक होते हैं। लेकिन सुकुमार्चियम की जीवन शैली वायरस के काफी मिलती-जुलती है और लगता है कि यह वायरस और एक-कोशिकीय जीवों के बीच की कड़ी (virus evolution link) है।
दरअसल, सुकुमार्चियम की खोज संयोग से ही हुई थी। शोधकर्ता सिथारिस्टिसरेजियस के अंदर उपस्थित समस्त डीएनए का अनुक्रमण (DNA sequencing) करने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि यह तो पता ही था कि इसके अंदर सायनोबैक्टीरिया (cyanobacteria) पलते हैं। जब विश्लेषण किया तो स्वयं सिथारिस्टिसरेजियस और अपेक्षित बैक्टीरिया परजीवी के अलावा उन्हें डीएनए का अजीब-सा वृत्त मिला। इसमें मात्र 2 लाख 38 हज़ार क्षार जोड़ियां थीं, जिसकी लंबाई ई. कोली बैक्टीरिया के डीएनए (E. coli DNA) की मात्र 5 प्रतिशत थी। पहले लगा कि शायद यह प्रयोग के दौरान मिलावट का परिणाम होगा लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी जब वह बना रहा तो उन्हें मानना पड़ा कि यह एक नया जीव (new organism) है जो सिथारिस्टिसरेजियस के अंदर रहता है।
सुकुमार्चियम के पास चयापचय (metabolism) के लिए कोई जीन नहीं है, यानी यह शायद अमीनो एसिड (amino acids), प्रोटीन या न्यूक्लियोटाइड जैसे कोई अनिवार्य अणु नहीं बना पाता है। दरअसल, किसी वायरस की तरह यह अपनी प्रतिलिपि बनाने के अलावा बाकी हर काम के लिए मेज़बान पर आश्रित (host-dependent parasite) है।
तो क्या यह जीव वायरस बनने की राह पर है (virus evolution theory)? वायरस की उत्पत्ति के बारे में दो धारणाएं प्रचलित हैं। पहली, ये बैक्टीरिया वगैरह जैसे संपूर्ण कोशिका थे और धीरे-धीरे इनमें से रचनाएं व उनके बनने के लिए ज़िम्मेदार जीन्स कम होते गए और अंतत: सिर्फ वह हिस्सा बचा जो स्वयं की प्रतिलिपि बनाने में कारगर है। दूसरी, ये जीवों के विकास की शुरुआती अवस्था (primitive life form) हैं और धीरे-धीरे विभिन्न घटक जुड़ते जाएंगे। सुकुमार्चियम इस मार्ग पर कहीं है मगर किस दिशा में जा रहा है, स्पष्ट नहीं है। जब तक स्वतंत्र जीव नहीं मिलता तब तक कुछ कह नहीं सकते। (स्रोत फीचर्स)
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सौर ऊर्जा (solar energy) से चलने वाले समुद्री घोंघों (sea slugs) की कोशिकाओं में विशेष भंडार गृह होते हैं, जहां वे शैवालों से चुराए गए क्लोरोप्लास्ट जमा करके रखते हैं। इन भंडार गृहों का रासायनिक परिवेश ऐसा होता है कि चोरी के इस माल (क्लोरोप्लास्ट) को जीवित व कामकाजी हालत में रखा जा सकता है ताकि सूर्य का प्रकाश मिलने पर यह पोषण का संश्लेषण कर सके। शोधकर्ताओं ने इस भंडार गृह को क्लोरोप्लास्ट रेफ्रिजरेटर (chloroplast refrigerator) की संज्ञा दी है। मज़ेदार बात यह है कि सामान्य स्थिति में यहां भंडारित क्लोरोप्लास्ट प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए स्लग को भोजन उपलब्ध कराता है, वहीं आपात स्थिति में स्लग इसे पचाकर भी आहार प्राप्त कर लेते हैं।
यह बात दशकों से पता रही है कि समुद्री घोंघों की कई प्रजातियां जिस शैवाल (algae) का भक्षण करती हैं, उनके क्लोरोप्लास्ट को जमा करके रख लेती हैं। इस चोरी को क्लेप्टोप्लास्टी (kleptoplasty) कहते हैं। लेकिन स्लग कोशिका के अंदर तो मात्र क्लोरोप्लास्ट जमा होता है, शैवाल की पूरी कोशिका नहीं। वैज्ञानिक यह नहीं जानते थे कि पूरी शैवाल कोशिका के सहारे के बगैर क्लोरोप्लास्ट जीवित व कामकाजी कैसे बना रहता है।
हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के निकोलस बेलोनो व साथियों द्वारा सेल (Cell journal) में प्रकाशित शोध पत्र में इसी सवाल पर विचार किया गया है। बेलोनो की टीम ने स्वयं घोंघे की कोशिकाओं द्वारा हाल ही में बनाए गए प्रोटीन्स की निशानदेही कर दी। पता चला कि अधिकांश प्रोटीन्स का निर्माण मूल शैवाल द्वारा नहीं बल्कि स्वयं घोंघे द्वारा किया गया था। मतलब हुआ कि घोंघे ने क्लोरोप्लास्ट को सहेजकर रखा था और वह प्रकाश संश्लेषण कर पा रहा था।
क्लोरोप्लास्ट को सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चला कि उसे घोंघे की आंत में एक खास प्रकोष्ठ में रखा गया था। प्रत्येक प्रकोष्ठ एक ऐसी झिल्ली से घिरा था जो ठीक वैसी पाई गई जैसी एक अन्य कोशिकांग फैगोसोम (phagosome) के आसपास पाई जाती है। फैगोसोम का काम यह होता है कि वह एक अन्य कोशिकांग लायसोसोम (lysosome) से जुड़ जाता है और अनावश्यक कोशिकांगों को पचाने का काम करता है। शोधकर्ताओं ने इस संरचना को क्लेप्टोसोम (kleptosome) नाम दिया है। (स्रोत फीचर्स)
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ऊंचे पहाड़ों पर विचरने वाले जंतुओं(high altitude animals), जैसे लामा, भेड़ों वगैरह में गंध को पकड़ने वाले ग्राही (olfactory receptors) काफी कम संख्या में पाए जाते हैं और मस्तिष्क का गंध से सम्बंधित क्षेत्र (ऑल्फेक्टरी लोब – olfactory lobe) भी छोटा होता है। यह खुलासा करंटबायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध में हुआ है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस अनुकूलन से उन्हें ऊंचे पहाड़ों की ठंडी, सूखी हवा में रहने में मदद मिलती होगी।
कैन्सास विश्वविद्यालय (University of Kansas) की एली ग्राहम यह समझना चाह रही थीं कि जानवर ऊंचाइयों जैसे इंतहाई पर्यावरण के साथ तालमेल कैसे बनाते हैं। उन्होंने स्तनधारियों की जेनेटिक जानकारी जुटाई और अपने दल के साथ मिलकर देखा कि ऊंचे पहाड़ों पर रहने वाले तथा समुद्र सतह के नज़दीक रहने वाले जानवरों के बीच क्या अंतर हैं।
सबसे बड़ा अंतर था कि ऊंचाई पर रहने वाले जंतुओं में गंध संवेदना से जुड़े जीन्स (olfactory genes) की संख्या बहुत कम थी।
थोड़ा और गहराई में उतरे तो पता चला कि 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर रहने वाले जानवरों में गंध संवेदना से सम्बंधित जीन्स उन जानवरों से 23 प्रतिशत कम थे जो इससे कम ऊंचाई के निवासी थे।
फिर, उन्होंने पूर्व में संग्रहित उस जानकारी पर गौर किया जो कई स्तनधारी जीवों की खोपड़ियों की नपाई (cranial measurement study) से प्राप्त हुई थी। पता चला कि पर्वतीय जीवों का ऑल्फेक्टरी बल्ब (घ्राण बल्ब) (olfactory bulb size) निचले इलाकों के निवासी जीवों की तुलना में औसतन 18 प्रतिशत छोटा होता है। और तो और, किसी प्राणी का रहवास जितनी ऊंचाई पर होता है, उसमें उतने ही कम गंध संवेदना से जुड़े जीन्स और गंध ग्राही पाए जाते हैं।
तो क्या ऊंचाई के साथ गंध संवेदना का ह्रास एक अनुकूलन (adaptive trait loss) है? इसके कई कारण हो सकते हैं कि ऊंचाई के साथ जंतुओं को गंध संवेदना की ज़रूरत कम पड़े। एक तो यह हो सकता है कि ऊंचे स्थानों पर हवा अपेक्षाकृत अधिक ठंडी और कम नमीदार (cold and dry air conditions) होती है। ऐसी हवा में गंध पदार्थों के अणु कम होते हैं और गंध के अणु ज़्यादा दूर तक नहीं पहुंच पाते। इसी के साथ ऐसी हवा नाक बंद होने व श्वास मार्ग में सूजन का सबब भी हो सकती है।
अनुमान है कि इस कारण ऊंचे स्थानों पर रहने वाले जंतुओं को गंध की बारीक संवेदना की ज़रूरत ही नहीं होगी। तो ग्राहम का अनुमान है कि गंध संवेदी ग्राही की बजाय ऐसे जीव अपने संसाधन अन्य संवेदनाओं (जैसे स्वाद और दृष्टि – alternate senses like vision and taste) में निवेश करेंगे।
उन्होंने यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या ये निष्कर्ष मनुष्यों पर भी सही बैठते हैं। इसके लिए उन्होंने मनुष्यों के दो समूहों के बीच जेनेटिक अंतरों पर गौर किया – एक, तिब्बती लोग जो 4500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई के बाशिंदे हैं और दूसरा, कम ऊंचाइयों पर रहने वाले चीन के हान (Tibetan vs Han people genetic study) लोग। लेकिन इनके बीच कोई अंतर नहीं मिला।
यह आश्चर्यजनक था क्योंकि ड्रेसडेन विश्वविद्यालय के थॉमस हमेल ने एक प्रयोग (controlled environment experiment) में देखा था कि जब मनुष्यों को एक ऐसे कक्ष में बैठाया गया जिसका पर्यावरण ऊंचे स्थानों जैसा था तो उन्हें गंध ताड़ने में मुश्किल हुई बनिस्बत उनके जिन्हें कम ऊंचे पर्यावरण कक्ष में बैठाया था। इसकी व्याख्या नहीं हो पाई है।(स्रोतफीचर्स)
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डिजिटल दौर (digital age) में जन स्वास्थ्य एजेंसियों (public health agencies) के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। उन्हें अब सिर्फ बीमारियों के प्रसार (disease outbreaks) से ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर फैल रही भ्रामक जानकारियों (health misinformation) और व्यक्तिगत हमलों से भी निपटना पड़ रहा है। एक हालिया अध्ययन बताता है कि यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) जैसी स्वास्थ्य संस्थाओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई नकारात्मक टिप्पणियां लोगों के भरोसे (public trust)को तोड़ रही हैं, उनमें गुस्सा (public anger) बढ़ा रही हैं।
हाल ही में CDC ने टेक्सास और न्यू मेक्सिको में खसरे के प्रकोप (measles outbreak) को लेकर एक चेतावनी ट्विट की थी, जिसमें यात्रियों को टीका लगवाने (vaccination) की सलाह दी गई थी। कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन कई लोगों ने इस पर शक जताया, साज़िश के आरोप (conspiracy theories)लगाए और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का इल्ज़ाम तक लगाया। ऐसी तीखी प्रतिक्रियाएं अब आम हो रही हैं।
इसका असर समझने के लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी (Stanford University) के शोधकर्ताओं ने 6800 अमरीकियों पर अध्ययन किया। प्रतिभागियों को एक काल्पनिक सोशल मीडिया पोस्ट दिखाई, जिसमें CDC जैसी संस्था ने एक दुविधामयी स्वास्थ्य सलाह दी थी – जैसे सबको स्लीप एप्निया की जांच (sleep apnea screening) करवाने की सलाह। इसके बाद उन्हें आलोचनात्मक टिप्पणियां (critical comments) दिखाईं, जो असली ऑनलाइन टिप्पणियों की तरह बनाई गई थीं।
इन आलोचनात्मक टिप्पणियों की प्रकृति अलग-अलग थी – कुछ में सलाह से सिर्फ असहमति जताई थी, तो कुछ में संस्था की क्षमता (competence) पर या ईमानदारी (integrity) पर सवाल उठाया था, जैसे राजनीतिक हित या छुपे हुए इरादे होना।
अध्ययन के नतीजे चौंकाने वाले थे। महज़ एक नकारात्मक टिप्पणी (negative comment) – भले ही हल्की-फुल्की ही क्यों न हो – भी लोगों का भरोसा कम कर देती है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान वे टिप्पणियां करती हैं जो संस्था की सच्चाई (credibility) और नैतिकता (ethics) पर हमला करती हैं। ऐसी टिप्पणियां न सिर्फ भरोसा घटाती हैं, बल्कि लोगों में गुस्सा पैदा करती हैं और उन्हें उसे साझा करने, भावनात्मक प्रतिक्रिया देने या जवाब देने के लिए उकसाती हैं।
दिलचस्प बात यह रही कि यह असर राजनीतिक सोच (political orientation) पर निर्भर नहीं था – चाहे व्यक्ति रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, संस्था की ईमानदारी पर हमला देखकर दोनों ने समान प्रतिक्रिया दी। इससे पता चलता है कि भरोसे में कमी सिर्फ राजनीति का मसला नहीं, बल्कि इंसानों की सामान्य प्रवृत्ति है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हर तरह की आलोचना का असर एक जैसा नहीं होता – किस तरह की आलोचना (type of criticism) की जाती है, इससे बहुत फर्क पड़ता है।
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक (political analyst) जेम्स ड्रकमैन का कहना है कि गुस्से जैसी भावनाओं (anger perception) को सर्वेक्षण के ज़रिए मापना मुश्किल है – जो बात एक व्यक्ति को गुस्से जैसी लगे, वह दूसरे को चिंता जैसी लग सकती है। फिर भी, इस अध्ययन में जो पैटर्न सामने आया है, वह चिंता की बात (cause for concern) है।
स्वास्थ्य एजेंसी की तरफ से सफाई देने (official clarification) पर भी लोगों का भरोसा पहले जैसा नहीं लौटा। शोधकर्ता एवं मनोरोग विशेषज्ञ जोनाथन ली का मानना है कि इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोग तुरंत सही बात सुनने के लिए तैयार नहीं होते – उन्हें पहले थोड़ा शांत होने (cool-down time) के लिए समय की ज़रूरत होती है।
इस अध्ययन से यह बात साफ होती है कि पारदर्शिता (transparency) यानी ईमानदारी बहुत ज़रूरी है। सलाह है कि स्वास्थ्य एजेंसियों को यह स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए कि उन्हें हर सवाल का जवाब नहीं पता। खासकर महामारी (pandemic) जैसी तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में यह ईमानदारी भरोसा बढ़ा सकती है। (स्रोतफीचर्स)
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अत्यंत ऊर्जावान पराबैंगनी प्रकाश (यूवी-सी) (UV-C radiaton) इतना घातक होता है कि लगभग सारी कोशिकाओं को मार डालता है। इसी वजह से इसका इस्तेमाल अस्पतालों में विसंक्रमण (hospital disinfection) के लिए किया जाता है। लेकिन हाल ही में एस्ट्रोबायोलॉजी (Astrobiology) में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक जीव इतना सख्तजान है कि वह यूवी-सी को भी झेल जाता है।
यूवी-सी से बच निकलने वाला यह जीव एक लाइकेन (lichen) है। लाइकेन दरअसल मिश्रित जीव होते हैं और एक फफूंद (fungus) तथा एक शैवाल (algae) से मिलकर बनते हैं। लगता है कि इस मिश्र-जीव ने यूवी-सी का तोड़ निकाल लिया है।
डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Desert Research Institute) के खगोलजीव वैज्ञानिक (astrobiologist) हेनरी सन ने फील्ड वर्क के दौरान देखा था कि मोजावे के गर्म रेगिस्तान (Mojave desert) में एक लगभग काला-सा लाइकेन फल-फूल रहा था। सन ने अनुमान लगाया कि शायद इसका काला रंग (dark pigmentation), जो हरे पर हावी हो गया था, ही इसके रेगिस्तान में ज़िंदा रहने का राज़ है। इस लाइकेन क्लेवेसिडियमलेसिन्यूलेटम (Clavascidium lacinulatum) के नमूने प्रयोगशाला में लाकर अपने एक छात्र तेजिंदर सिंह को उसके अध्ययन में लगा दिया।
तेजिंदर सिंह ने पहले तो लाइकेन को सुखा दिया। इसके बाद उन्होंने लाइकेन को एक यूवी लैम्प (UV lamp) के नीचे रखा और उस पर विकिरण की बौछार की। लाइकेन ठीक-ठाक ही रहा। तब सिंह ने उस पर अत्यंत शक्तिशाली यूवी-सी बरसाया (लगभग उतना जितना मंगल पर उम्मीद की जा सकती है) (extreme UV-C exposure)। ऐसा ही यूवी-सी परीक्षण पृथ्वी पर पाए जाने वाले सर्वाधिक विकिरण रोधी बैक्टीरिया (डाईइनोकॉकसरेडियोड्यूरेन्स, Deinococcus radiodurans) (radiation-resistant bacteria)पर किया तो वह एक मिनट के अंदर मर गया था। यह मानकर चला जा रहा था कि लाइकेन कुछ घंटे या अधिक से अधिक कुछ दिन जी पाएगा। लेकिन तीन महीने तक परीक्षण करने के बाद जब वह नमूना निकाला गया तो उसमें मौजूद आधी से ज़्यादा शैवाल कोशिकाओं (algal cells) में से अंकुर फूटे और 2 सप्ताह में वहां बढ़िया हरी-भरी बस्ती तैयार हो गई। यानी इतने अत्याचार के बाद भी शैवाल में प्रजनन क्षमता (reproductive viability) मौजूद थी।
दिलचस्प बात थी कि यह प्रयोग सिर्फ लाइकेन के साबुत नमूने (intact lichen samples) पर ही सफल रहा। यही प्रयोग जब फफूंद के बगैर शैवाल कोशिकाओं की एक मोटी परत पर किया गया तो वे चंद मिनटों में मर गई। अर्थात ऊपरी परत की कोशिकाएं अन्य कोशिकाओं को मात्र विकिरण से सुरक्षा (radiation shielding) नहीं दे रही थीं।
लाइकेन की इस जीजिविषा (survivability) का कारण जानने के लिए सन की टीम ने रसायनज्ञों की मदद से लाइकेन में यूवी-अवशोषक पदार्थों (UV-absorbing compounds) की पहचान की। ये रसायन लाइकेन को यूवी से सुरक्षा देते हैं। लेकिन एक सवाल बना रहा कि ये रसायन इस लाइकेन में बनना ही क्यों शुरू हुए। सवाल इसलिए था क्योंकि पृथ्वी की ओज़ोन परत (ozone layer) करीब 50 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई मानी जाती है। यानी लाइकेन्स के उद्भव (lichen evolution)से काफी पहले ओज़ोन परत अस्तित्व में आ चुकी थी और पृथ्वी पर यूवी का आपतन बहुत कम रह गया था। तो यूवी से सुरक्षा की यह व्यवस्था क्यों बनी होगी?
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि लाइकेन्स में यह व्यवस्था खुद को स्वयं पृथ्वी के वातावरण से सुरक्षित रखने के लिए बनी होगी क्योंकि एक समय पर वनस्पतियों के फैलाव की वजह से वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी थी। ऑक्सीजन सजीवों के लिए अनिवार्य तो है लेकिन यह ऐसे क्रियाशील अणु (reactive molecules) पैदा कर सकती है जो डीएनए को नुकसान (DNA damage) पहुंचाते हैं।
इसी प्रयोग में एक और रोचक बात पता चली। ये सुरक्षात्मक रसायन (protective chemicals) लाइकेन के अंदरुनी भाग में नहीं बल्कि उसकी ऊपरी सतह (outer surface)पर जमा हो जाते हैं, ठीक सनस्क्रीन (natural sunscreen) की तरह। कई शोधकर्ता लाइकेन की इस खूबी के उपयोग की बात कर रहे हैं। अलबत्ता, मनुष्य के लिए उपयोगी हो न हो, लाइकेन के लिए तो यह सुरक्षा व्यवस्था (UV defense) उपयोगी है ही। (स्रोतफीचर्स)
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हम अक्सर सुनते हैं कि जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण लू, बाढ़, जंगलों में आग और समुद्र स्तर बढ़ (sea level rise) रहे हैं। लेकिन अब इसका एक और चौंकाने वाला असर पता चला है – आल्प्स पर्वतों (Alps mountains) में ग्लेशियरों (glaciers) के पिघलने से भूकंप (earthquake) का खतरा बढ़ सकता है।
ऐसी घटना फ्रांस के मॉन्ट ब्लांक (Mont Blanc) इलाके के एक ऊंचे बर्फ से ढंके पर्वत ग्रांड जोरासेस में घटी है। 2015 में जब इस क्षेत्र में भीषण गर्मी पड़ी तो भारी मात्रा में बर्फ पिघली। इसके तुरंत बाद पहाड़ के नीचे छोटे-छोटे भूकंप (micro earthquakes) महसूस किए गए। कोई नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे छोटे-छोटे भूकंप कभी-कभी बड़े भूकंप की चेतावनी भी होते हैं।
लेकिन बर्फ के पिघलने (ice melt)से भूकंप कैसे आ सकते हैं? जब ग्लेशियर पिघलते हैं तो पानी चट्टानों की दरारों से गहराई तक चला जाता है। वहां यह पानी चट्टानों पर दबाव बनाता है और ज़मीन के अंदर जो फॉल्ट लाइनें (fault lines) होती हैं, उनकी पकड़ कमज़ोर कर देता है। इन फॉल्ट लाइनों के फिसलने से ऊर्जा निकलती है जो भूकंप का कारण बनती है।
ऐसा नहीं है कि यह प्रक्रिया सिर्फ आल्प्स में होती है। वैज्ञानिकों ने ताइवान (Taiwan) जैसे इलाकों में भी देखा है कि बारिश के हिसाब से भूकंप की संख्या बदलती है। इसी तरह, जहां फ्रैंकिंग (तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया) (fracking) या जियोथर्मल ऊर्जा (geothermal energy) के लिए ज़मीन के भीतर दबाव के साथ पानी डाला जाता है, वहां भी छोटे भूकंप आ सकते हैं।
ETH ज्यूरिख (ETH Zurich) के वैज्ञानिकों द्वारा मॉन्ट ब्लांक इलाके में छोटे भूकंप को मापने वाले यंत्रों की मदद से 2006 से अब तक दर्ज 12,000 से ज़्यादा छोटे-छोटे भूकंपों के विश्लेषण से पता चला है कि 2015 की गर्मी के बाद इन भूकंपों की संख्या बढ़ी थी। यही पैटर्न अगले साल की ग्रीष्म लहरों (heat waves) के बाद भी दिखे।
दिलचस्प बात यह है कि सतह के पास वाले छोटे भूकंप गर्मी के लगभग एक साल बाद बढ़े, जबकि गहराई (लगभग 7 कि.मी.) में आने वाले भूकंप दो साल बाद बढ़े। इसका कारण यह हो सकता है कि पानी को गहराई तक पहुंचने में समय लगता है।
भूकंप सम्बंधी ऐसे अनुभव पहले भी हुए हैं। 1960 के दशक में जब मॉन्ट ब्लांक टनल (Mont Blanc tunnel) बनाई जा रही थी तो पहाड़ों के भीतर से अचानक तेज़ी से बहता हुआ बिलकुल ताज़ा पानी मिला। यह पानी इतना ताज़ा था कि उसमें अभी तक चट्टानों के खनिज (minerals) भी नहीं घुल पाए थे।
हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों ने इन निष्कर्षों पर थोड़ी सावधानी बरतने की बात कही है। वैज्ञानिक फिलिप वर्नांट (Philippe Vernant) का कहना है कि वैसे तो आंकड़े काफी मज़बूत हैं लेकिन यह भी मुमकिन है कि मॉन्ट ब्लांक सुरंग बनाने के प्रभाव देर से सामने आ रहे हों। इसलिए ज़रूरी है कि इस तरह की घटनाओं पर लंबे समय तक अध्ययन (long-term monitoring) किए जाएं ताकि पता चल सके कि ऐसा पैटर्न केवल आल्प्स में है या दुनिया के अन्य पहाड़ी इलाकों (mountain regions) में भी है।
अभी तक तो आल्प्स में आए इन भूकंपों से मॉन्ट ब्लांक सुरंग या आस-पास के शहरों को कोई खतरा नहीं है। इस क्षेत्र की इमारतें रिक्टर पैमाने (Richter scale) पर 6 स्तर के भूकंप झेलने लायक बनाई गई हैं। लेकिन स्थिति हिमालय (Himalayas) जैसे इलाकों में ज़्यादा गंभीर हो सकती है, जहां ग्लेशियर बहुत तेज़ी से पिघल रहे हैं (rapid glacier melting) और जहां बड़े और खतरनाक भूकंप आने की आशंका भी ज़्यादा है।
जलवायु परिवर्तन बढ़ता जा रहा है (climate crisis) और यह अध्ययन हमें याद दिलाता है कि हमारी धरती पहले से ही एक नाज़ुक हालत में है; ग्लेशियर पिघलने (melting glaciers) जैसे छोटे बदलाव भी इसे और अस्थिर कर सकते हैं। (स्रोतफीचर्स)
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शार्क पिछले 40 करोड़ सालों से अस्तित्व में हैं। वे कई बड़े-बड़े संकटों से बची रही हैं और खुद को कई तरह की सुरक्षा क्षमताओं से लैस किया है। अब एक हालिया शोध से खुलासा हुआ है कि उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) में पैंक्रियास (अग्न्याशय) (pancreas) की भी अहम भूमिका है।
गौरतलब है कि इंसानों में पैंक्रियास का काम पाचन में मदद करना और रक्त शर्करा (blood sugar) नियंत्रित करना होता है, लेकिन दीजर्नलऑफइम्युनोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि नर्स शार्क (Ginglymostoma cirratum) इस अंग का इस्तेमाल एंटीबॉडी (antibodies) बनाने और विशेष प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को प्रशिक्षित करने के लिए करती है। आम तौर पर यह काम मनुष्यों में तिल्ली और लसिका ग्रंथियों जैसे अंगों में किया जाता है।
मैरीलैंड युनिवर्सिटी के शोधकर्ता थॉमस हिल और हेलेन डूली को शार्क के पैंक्रियास में ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं मिली हैं जो आम तौर पर शरीर के मुख्य प्रतिरक्षा अंगों (primary immune organs) में पाई जाती हैं। शार्क के पैंक्रियास न सिर्फ बी-कोशिकाओं का निर्माण करते हैं बल्कि श्वेत रक्त कोशिकाओं (white blood cells) को सूक्ष्मजीवी हमलों (microbial attacks) से लड़ने के लिए तैयार भी करते हैं।
शार्क में पैंक्रियास की प्रतिरक्षा भूमिका को परखने के लिए वैज्ञानिकों ने एक शार्क के शरीर में बाहरी संक्रामक डाले, और दूसरी शार्क को कोविड-19 टीका (COVID-19 vaccine) लगाया। कुछ हफ्तों बाद, शार्क के पैंक्रियास में उपरोक्त रोगजनक-विशिष्ट एंटीबॉडी मिलीं, जिससे साबित हुआ कि यह अंग सिर्फ साथ नहीं देता, बल्कि सीधे लड़ाई में शामिल होता है।
यह खोज इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शार्क में इंसानों के समान लसिका ग्रंथियां (lymph nodes) नहीं होती हैं, जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र का ज़रूरी हिस्सा होती हैं। इसका मतलब है कि समय के साथ उद्विकास ने शरीर के दूसरे अंगों को नए कामों के लिए ढाल लिया है, खासकर उन जीवों में जिनकी शरीर संरचना मनुष्यों से अलग है।
यह अध्ययन एक बड़ा सवाल उठाता है – क्या हमारे शरीर के दूसरे अंगों और अन्य जीवों में भी ऐसे गुप्त प्रतिरक्षा तंत्र (hidden immune functions) हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि मनुष्यों का पैंक्रियास भी प्राचीन काल से कुछ प्रतिरक्षा भूमिकाएं निभाता आया हो? यह समझ शायद यह भी बता सके कि यह अंग सूजन (inflammatory diseases) जैसी बीमारियों (जैसे पैंक्रियाटाइटिस) (pancreatitis) के प्रति इतना संवेदनशील क्यों होता है।
बहरहाल, इस पर अभी अधिक अध्ययन (research) की ज़रूरत है। यह देखना चाहिए कि क्या शार्क में पैंक्रियास हमेशा प्रतिरक्षा के लिए तैनात रहता है? क्योंकि मनुष्यों में कभी-कभी गैर-प्रतिरक्षी अंग (non-immune organs) में भी प्रतिरक्षा कोशिकाएं मिलती हैं, खासकर पैंक्रियास में। साथ ही हमें देखना चाहिए कि शरीर के कौन-कौन से हिस्से प्रतिरक्षा प्रक्रिया (immune response) में योगदान करते हैं। शायद हम प्रतिरक्षा प्रणाली के कई हिस्सों को अब तक नज़रअंदाज़ करते रहे हैं क्योंकि हमें लगा था कि हम सब कुछ जान चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में एक नया रक्त समूह (new blood group) खोजा गया है। अब तक कुल 47 रक्त समूह (blood types) ज्ञात थे और यह 48वां रक्त समूह इतना दुर्लभ (rare blood group) है कि फिलहाल दुनिया में मात्र एक इंसान में पाया गया है।
दरअसल, फ्रांस में एक महिला के लिए उपयुक्त रक्तदाता (blood donor) खोजने के लिए सामान्य रक्त परीक्षण (blood test) किया जा रहा था। लेकिन महिला की रक्त प्लाज़्मा हरेक संभावित दानदाता के रक्त के विरुद्ध प्रतिक्रिया दे रही थी। और तो और, उसके सगे भाई-बहनों का रक्त भी मैच नहीं किया। यानी उसके लिए कोई दानदाता खोजना नामुमकिन हो गया था।
आम तौर पर हम जानते हैं कि रक्त समूह चार होते हैं – ए, बी, एबी तथा ओ (A, B, AB, O blood groups) । साथ ही इनमें आरएच धनात्मक और आरएच ऋणात्मक (Rh positive, Rh negative) हो सकते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि ये रक्त समूह दर्जनों रक्त समूह प्रणालियों में से मात्र दो का प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्य रक्त वर्गीकरण प्रणालियों (blood classification systems) का असर भी खून लेने-देने पर होता है। रक्त समूह वर्गीकरण की तमाम प्रणालियों में लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की सतह पर पाई जाने वाली शर्कराओं और प्रोटीन में बारीक अंतरों को आधार बनाया गया है। इसके आधार पर विभिन्न व्यक्तियों में रक्त का लेन-देन संभव या असंभव होता है।
फ्रांस के ग्वाडेलूप में खोजे गए इस रक्त समूह को ‘ग्वाडा ऋणात्मक’ (Gwada negative) नाम दिया गया है। इसकी गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने आधुनिक संपूर्ण एक्सोम अनुक्रमण (whole exome sequencing) नामक तकनीक की मदद ली। इस तकनीक में मनुष्यों में पाए जाने 20,000 से ज़्यादा जीन्स (human genes) की जांच की जाती है। इस विश्लेषण से पता चला कि उस महिला के एक जीन PIGZ में उत्परिवर्तन (gene mutation) हुआ है।
यह जीन एक ऐसा एंज़ाइम बनाता है जो कोशिका झिल्ली के एक महत्वपूर्ण अणु पर एक खास शर्करा को जोड़ता है। वह शर्करा न हो तो लाल रक्त कोशिकाओं पर एक अणु की रचना बदल जाती है। इस परिवर्तन की वजह से एक नया एंटीजन बन जाता है। विशिष्ट एंटीजन की उपस्थिति ही रक्त समूह का निर्धारण करती है – इस मामले में एक सर्वथा नया वर्गीकरण उभरा है – ग्वाडा धनात्मक (जब एंटीजन उपस्थित हो) (Gwada positive) और ग्वाडा ऋणात्मक (जब एंटीजन नदारद हो।
जीन संपादन की तकनीक (gene editing) से शोधकर्ताओं ने जब वह उत्परिवर्तन प्रयोगशाला में भी किया, तो पता चला कि सारे दानदाताओं का रक्त ग्वाडा धनात्मक था जबकि वह महिला दुनिया की एकमात्र महिला थी जिसका रक्त ग्वाडा ऋणात्मक था।
रक्त समूह के बारे में मान्यता है कि वे मात्र खून के लेन-देन को प्रभावित करते हैं। लेकिन इस मामले में देखा गया है कि वह महिला थोड़ी बौद्धिक विकलांगता (intellectual disability) से पीड़ित है, प्रसव के दौरान दो बच्चे गंवा चुकी है। वैज्ञानिकों को लगता है कि ये उसके उत्परिवर्तन से सम्बंधित हो सकते हैं।
बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि इस महिला के लिए खून की व्यवस्था (blood availability) कैसे की जाए। वैसे कई वैज्ञानिक प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से लाल रक्त कोशिकाएं विकसित करने पर काम कर रहे हैं जिन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) के उपरांत ग्वाडा ऋणात्मक जैसे दुर्लभ प्रकरणों (lab-grown blood cells for rare blood types) में इस्तेमाल किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
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कुछ ही महीने पहले पुणे में एक बहुत दुखद घटना घटी। एक गर्भवती महिला, जिसे पहले से ही गंभीर स्थिति में माना गया था और जो समय से पहले जुड़वां बच्चों को जन्म देने वाली थी, उसे पुणे के जाने-माने दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल लाया गया। लेकिन इलाज (emergency treatment) शुरू करने के लिए अस्पताल ने 10 लाख रुपए एडवांस जमा करने की मांग की।
परिवार ने इलाज के लिए गुहार लगाई और भरोसा दिलाया कि थोड़ी देर में पैसों का इंतज़ाम हो जाएगा, लेकिन अस्पताल (private hospital) ने पैसे के बिना इलाज शुरू करने से मना कर दिया। इससे कीमती समय बर्बाद हुआ और महिला को दूसरे अस्पताल ले जाना पड़ा। वहां उसने जुड़वां लड़कियों को जन्म तो दिया, लेकिन उसकी खुद की जान नहीं बच सकी।
बेवजहदेरी
जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जब मातृत्व मृत्यु रोकने की बात होती है, तो अक्सर ‘थ्री डिले मॉडल’ (तीन देरियों) (three delay model) का ज़िक्र होता है। इस मॉडल से यह समझने में मदद मिलती है कि इलाज में किस-किस स्तर पर होने वाली देरी मां की जान ले सकती है।
सबसे पहली देरी होती है घर में – जब परिवार यह तय करने में समय लगाता है कि इलाज करवाना (medical attention) है या नहीं। दूसरी देरी होती है अस्पताल तक पहुंचने में – जब रास्ते की दूरी, खराब सड़कें या परिवहन की समस्या आड़े आती है। तीसरी देरी तब होती है जब मरीज़ अस्पताल पहुंच तो जाता है, लेकिन वहां स्टाफ की कमी, ज़रूरी साधनों के अभाव या तंत्र की लापरवाही के कारण समय पर इलाज (initial emergency care) नहीं मिल पाता।
हालांकि यह मॉडल आम तौर पर गर्भवती महिलाओं (maternal health) के इलाज के संदर्भ में लागू किया जाता है, लेकिन इसे हर उस आपात स्थिति पर लागू किया जा सकता है जहां समय पर इलाज (urgent care) न मिलने से मरीज़ की जान जा सकती है।
हमारे देश में तीसरे प्रकार की देरी से होने वाली मौतें ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं, जहां न तो अस्पताल होते हैं और न ही स्टाफ। लेकिन यह मामला एक चौंकाने वाला शहरी उदाहरण है, जहां देरी का कारण सुविधाओं की कमी नहीं, बल्कि निजी अस्पतालों की कॉर्पोरेट सख्ती था।
यह जानते हुए भी कि महिला की हालत बेहद गंभीर थी, अस्पताल ने सिर्फ पैसों की वजह से इलाज करने से मना कर दिया। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम इस बात को सामने लाएं कि जो बड़े निजी अस्पताल (corporate hospital) सरकारी छूट और सुविधाएं लेते हैं, वे आपात स्थिति (emergency situation) में ज़रूरतमंद मरीज़ों के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। कैसे कई बार वित्तीय हित मरीज़ की देखभाल और सुरक्षा से ज़्यादा अहम हो जाते हैं।
मेरानिजीअनुभव
उपरोक्त खबर को पढ़ने के बाद मुझे भी अपना एक हालिया अनुभव साझा करने की ज़रूरत महसूस हो रही है, जो यह दिखाता है कि निजी अस्पतालों में नीतियों (hospital policies) में बदलाव और जवाबदेही कितनी ज़रूरी है।
मेरी पत्नी को एक्टोपिक प्रेग्नेंसी (ectopic pregnancy) (जिसमें गर्भधारण गर्भाशय की बजाय किसी अन्य स्थान पर हो जाता है और यह एक गंभीर मेडिकल इमरजेंसी होती है) की स्थिति में तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। हमारे पास स्वास्थ्य बीमा (health insurance) था, इसलिए कैशलेस (cashless facility) इलाज की सुविधा उपलब्ध थी। मैंने सारे ज़रूरी दस्तावेज़ तुरंत जमा कर दिए। बताया गया कि बीमा क्लेम (insurance claim) की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मंज़ूरी में लगभग तीन घंटे लगेंगे। लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि जब तक 25,000 रुपए एडवांस (advance payment) में नहीं दिए जाते, सर्जरी (surgery) शुरू नहीं होगी।
मेरे लिए पैसा देना मुश्किल नहीं था, फिर भी मैंने पूछा कि जब कैशलेस सुविधा है तो क्या पैसे मिलने के लिए तीन घंटे का इंतज़ार नहीं किया जा सकता? जवाब मिला कि सर्जरी तभी शुरू होगी जब कैशलेस क्लेम मंज़ूर हो जाएगा। मैंने बार-बार समझाया कि यह इमरजेंसी है, लेकिन बिलिंग विभाग (billing department) ने कोई नरमी नहीं (denial) दिखाई। आखिरकार मैंने एडवांस राशि दी, सर्जरी हुई और जैसा अनुमान था, क्लेम भी मंज़ूर हो गया। पत्नी की छुट्टी के बाद जमा की गई राशि लौटा दी गई। लेकिन इस अनुभव ने मेरे ज़ेहन में कई सवाल छोड़ दिए।
यदि उस समय मेरे पास 25,000 रुपए न होते तो क्या मेरी पत्नी की सर्जरी (operation) टल जाती, जबकि मैंने कैशलेस इलाज के लिए सारे ज़रूरी दस्तावेज़ जमा कर दिए थे? और यदि देरी से उनकी सेहत को नुकसान होता, तो उसका ज़िम्मेदार कौन होता?
आपात स्थिति में इन प्रक्रियाओं की बजाय अस्पताल इलाज को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? जब मरीज़ को सर्जरी या गंभीर इलाज की ज़रूरत है और वह 2–3 दिन अस्पताल में रहने वाला है, और 25,000 रुपए की एडवांस राशि बहुत बड़ी नहीं है, खासकर तब जब अस्पताल कैशलेस सुविधा वाला है और बीमा से पैसा मिलने ही वाला है। फिर भी इलाज शुरू करने से पहले इतनी बेरहमी से एडवांस की मांग क्यों? इलाज में देरी जान ले सकती है। क्या ऐसी स्थिति में इंसानियत और सहयोग की भावना ज़रूरी नहीं है?
आपात समय में मरीज़ के परिवारजन घबराए होते हैं और कभी-कभी आर्थिक स्थिति भी कमज़ोर होती है। ऐसे मौके पर क्या अस्पताल को थोड़ी नरमी नहीं दिखानी चाहिए? मरीज़ की जान से जुड़ी स्थिति में अस्पताल इतनी कठोर नीति क्यों अपनाते हैं? और आखिर किसने निजी अस्पतालों को यह हक दिया कि वे मरीज़ की जान को इस तरह जोखिम में डालें?
वैसे कैशलेस क्लेम को मंज़ूरी मिल गई थी, और जो पैसे मैंने एडवांस में दिए थे, वो पैसे मुझे तुरंत नहीं मिले थे। यहां मुझसे एक ग्राहक के तौर पर उम्मीद की गई थी कि मैं अस्पताल की आंतरिक प्रक्रिया के साथ सहयोग करूं। लेकिन क्या अस्पतालों द्वारा एडवांस राशि तुरंत जमा करवाने के नियम में ढील नही दी जानी चाहिए, खासकर इमर्जेंसी की स्थिति में? क्या मरीज़ (patients) के परिजनों की यह उम्मीद (expectation) गलत है कि ऐसी स्थिति में अस्पताल थोड़ा लचीलापन (flexibility) दिखाए?
यहां साफ तौर पर असंतुलन है; जहां मरीज़ से तो उम्मीद की जाती है कि वह अस्पताल की प्रक्रियाओं का सम्मान करे, लेकिन अस्पताल मरीज़ की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर देता है।
बेशक, अस्पताल यह तर्क दे सकते हैं कि कहीं मरीज़ बिना बिल चुकाए भाग न जाए। लेकिन फिर भी, खास तौर पर आपात स्थिति में, अस्पताल को सबसे पहले इलाज को प्राथमिकता देनी चाहिए और वित्तीय औपचारिकताओं को थोड़ी देर के लिए मुल्तवी कर देना चाहिए।
टुकड़ा–टुकड़ासुधार
गर्भवती महिला की मौत के बाद हुए विरोध के चलते, अब पुणे के दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल ने यह फैसला लिया है कि इमरजेंसी में आने वाले मरीज़ों से अब एडवांस जमा करने की मांग नहीं की जाएगी और इलाज को प्राथमिकता दी जाएगी।
इसके अलावा, मुख्यमंत्री ने भी घोषणा की है कि ऐसे हादसे दोबारा न हों, इसके लिए वे कुछ ठोस कदम उठाएंगे। पुणे महानगरपालिका (PMC) ने भी अपने अधिकार क्षेत्र के सभी निजी अस्पतालों (private hospitals), नर्सिंग होम्स और मेडिकल संस्थानों को एक पत्र जारी करके उन्हें बॉम्बे नर्सिंग होम्स रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1949 और महाराष्ट्र सरकार की 14 जनवरी 2021 की अधिसूचना के नियमों का पालन करने की कानूनी ज़िम्मेदारी याद दिलाई।
भारत में मातृ मृत्यु (maternal mortality) को रोकना एक प्रमुख जन स्वास्थ्य (public health) मुद्दा है। इसी वजह से यह घटना सुर्खियों में आई और राजनीतिक व प्रशासनिक प्रतिक्रिया भी तेज़ हुई। लेकिन मुमकिन है कि गर्भावस्था से इतर इमरजेंसी (medical emergencies) मामलों में भी निजी अस्पतालों का रवैया ऐसा ही लापरवाह रहता हो।
कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान कई घटनाओं से यह पता चला कि मरीज़ों को समय पर इमरजेंसी इलाज नहीं मिला, खासकर निजी अस्पतालों की नीतियों और सीमाओं के कारण।
हालांकि यह बताने के लिए कोई ठोस मेडिकल आंकड़े नहीं हैं कि कितने मरीज़ों को सिर्फ एडवांस जमा न कर पाने की वजह से इलाज से वंचित किया गया, लेकिन अखबारों में बार-बार ऐसी खबरें छपती रही हैं, जिससे साफ है कि यह समस्या देश के कई हिस्सों में देखी जा रही है। ऐसे ही कुछ और मामले हैं – जैसे पुणे में एक मरीज़ को दिल का दौरा पड़ने के बाद भी इलाज नहीं मिला और उत्तर प्रदेश में एक मरीज़ को चार अस्पतालों ने इलाज देने से मना कर दिया, जिससे उसकी रास्ते में ही मौत हो गई।
कानूनीव्यवस्थाहैलेकिनअमलनहीं
इमरजेंसी इलाज केवल एक स्वास्थ्य ज़रूरत नहीं, बल्कि मरीज़ का संवैधानिक अधिकार (constitutional right) भी है। यदि निजी अस्पताल संवेदनशीलता और सहानुभूति (compassion) नहीं दिखाते, तो सरकार को सख्त नीतियां और कानूनी कदम उठाने चाहिए ताकि ऐसे अस्पतालों में भी इमरजेंसी इलाज सुनिश्चित हो सके।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि हर सरकारी और निजी अस्पताल की ज़िम्मेदारी है कि वह घायल या इमरजेंसी मरीज़ को ज़रूरी प्राथमिक इलाज दे। यह इलाज बिना किसी एडवांस (advance payment) या भुगतान की मांग के शुरू होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इमरजेंसी इलाज पाना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।
इसके अलावा, क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट 2010 के तहत भी इमरजेंसी सेवा (emergency services) देना अनिवार्य है। नेशनल मेडिकल कमीशन द्वारा जारी किए गए मेडिकल एथिक्स कोड 2002 (संशोधित 2016) के अनुसार भी डॉक्टरों को इमरजेंसी में मरीज़ का इलाज (patient care) करना अनिवार्य है।
कई राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी नीतियां (state policies) बनाई हैं। असम सरकार ने यह अनिवार्य किया है कि सभी निजी अस्पतालों को किसी भी इमरजेंसी की स्थिति में पहले 24 घंटे तक मरीज़ को मुफ्त इलाज (free treatment) देना होगा। यह सुविधा असम पब्लिक हेल्थ बिल, 2010 का हिस्सा है, जिसे राज्य विधानसभा ने पारित किया था और यह देश में एक अहम कानून माना जाता है। इसी तरह कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में भी अच्छी पहल की गई है – यहां कम से कम सड़क दुर्घटनाओं (road accidents) के मामलों में निजी अस्पतालों को निशुल्क इमरजेंसी इलाज (emergency care) देना होता है।
लेकिन दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल का हालिया मामला और प्रेस में रिपोर्ट (news reports) हुए कई दूसरे मामले यह दिखाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस (legal guidelines) और क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट (clinical establishments act) का पालन बहुत जगहों पर नहीं हो रहा है।
आंकड़े, रिपोर्टिंगऔरसुधार
आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि भारत में निजी अस्पतालों द्वारा किसी भी कारण से इमरजेंसी इलाज से इन्कार (denial of emergency care) किए जाने से जुड़े आंकड़े (data) एकत्र करने की एक व्यवस्था बनाई जाए। इसके लिए कई स्तरों पर प्रयास जरूरी होंगे – जैसे सख्त नियम (strict regulations), सामुदायिक रिपोर्टिंग (community reporting) और निगरानी व्यवस्था (monitoring systems)।
इस तरह की रिपोर्टिंग का एक अच्छा उदाहरण क्रोएशिया (Croatia) में देखा गया है; जहां मरीज़ को यदि इमरजेंसी इलाज से वंचित किया गया हो तो वे इसकी शिकायत (complaint) स्वास्थ्य मंत्रालय को कर सकते हैं। 2017 से 2018 के बीच वहां 289 शिकायतें दर्ज हुईं, जो सेकंडरी और टर्शियरी हेल्थकेयर (secondary and tertiary healthcare) संस्थानों में गंभीर समस्याओं की ओर इशारा करती हैं।
इस तरह का डैटा हमें यह समझने में मदद करता है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में इलाज से इन्कार (denial of care) किस वजह से होता है और इससे भविष्य में नीति (future policy) और सुधारों के लिए ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।
साथ ही, सभी स्वास्थ्यकर्मियों (healthcare workers), चाहे वे डॉक्टर हों या गैर-चिकित्सा कर्मचारी जैसे रिसेप्शनिस्ट, बिलिंग स्टाफ, और सिक्योरिटी गार्ड, को इमरजेंसी इलाज से जुड़ी कानूनी और नैतिक ज़िम्मेदारियों (legal obligations) की ट्रेनिंग (training) अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए, ताकि प्रशासनिक अड़चनों (administrative hurdles) के कारण होने वाली देरी को रोका जा सके।
ऐसे अस्पताल जो इमरजेंसी इलाज के नियमों व दिशानिर्देशों (guidelines) का उल्लंघन करते हैं, उन्हें सख्त सज़ा (penalties) देने का प्रावधान होना चाहिए। सज़ा में जुर्माना, लाइसेंस निलंबन (license suspension), और सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं (public health schemes) से बाहर करना शामिल हो सकता है।
इसके साथ ही, एक तत्काल शिकायत निवारण प्रणाली (grievance redressal) होनी चाहिए, जैसे 24×7 टोल-फ्री हेल्पलाइन और राज्य-स्तरीय ऑनलाइन पोर्टल, जहां मरीज़ या उनके परिजन इमरजेंसी में इलाज से इन्कार या देरी की शिकायत (file complaints) तुरंत कर सकें। इस प्रणाली को ज़िला स्तर पर एक सक्षम मेडिकल अधिकारी (district medical officer) के माध्यम से चलाया जाना चाहिए, जिसे जांच करने और त्वरित कार्रवाई (rapid response) करने का अधिकार हो।
इन सभी प्रयासों से नियमों के पालन की आदत, जनता का भरोसा, और सभी के लिए इमरजेंसी इलाज की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकती है।
इंसानियत (humanity) के नाते, संकट (crisis) में फंसे हर व्यक्ति को सहारा मिलना चाहिए। हर अस्पताल – सरकारी निजी या चैरिटेबल – में हर हाल में इमरजेंसी इलाज (emergency access) तक पहुंच हर व्यक्ति का अधिकार बनना चाहिए। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://nivarana.org/article/life-death-and-deposits-rethinking-emergency-care-in-private-hospitals