यदि आपको किसी ऊंची जगह पर छोटे, सफेद बीजाणुओं से घिरी मृत
मक्खी दिखे तो समझ जाइए कि यहां मौत का जाल बिछा हुआ है। ऐसी मक्खी पर एक फफूंद
(कवक) का हमला हुआ था जिसने मक्खी के मस्तिष्क पर काबू किया और मक्खी को किसी ऊंची
जगह पर जाकर बैठकर मरने को मजबूर किया ताकि फफूंद अपने बीजाणुओं को बिखराकर अधिक
से अधिक स्वस्थ मक्खियों को संक्रमित कर सके। इससे भी विचित्र बात यह है कि नर
मक्खियां उस फफूंद संक्रमित मृत मादा मक्खी के साथ संभोग करने की कोशिश भी करती
हैं।
अब,
एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि यह फफूंद हवा में एक
प्रेम-रस छोड़ती है जो मक्खियों को आकर्षित करके संक्रमण की संभावना बढ़ाता है।
पूर्व में कुछ शोधकर्ताओं ने नर घरेलू मक्खी को ऐसी मादा मक्खी के शव के साथ
संभोग की कोशिश करते हुए देखा था, जो एंटोमोफथोरा म्यूसके
नामक फफूंद के संक्रमण से मारी गईं थीं। लगता तो था कि इस तरह की कोशिश फफूंद को
फैलने में मदद करती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या फफूंद नर
मक्खियों को आकर्षित करने में कोई भूमिका निभाती है।
कोपेनहेगन युनिवर्सिटी के वैकासिक पारिस्थितिकीविद हेनरिक डी फाइन लिश्ट और
एंड्रियास नौनड्रप हैनसेन ने जांच की कि क्या यह आकर्षण लैंगिक है और क्या फफूंद
इसके लिए ज़िम्मेदार है।
इसके लिए उन्होंने मादा मक्खियों को फफूंद से संक्रमित किया और उनके मरने के
ठीक बाद उन्हें एक-एक करके पेट्री डिश में रखा। और हर बार उन्होंने पेट्री डिश में
एक स्वस्थ नर भी छोड़ा और देखा कि क्या नर मृत मादा के पास गया, कितनी देर मादा के नज़दीक रहा, और क्या उसने संभोग करने की
कोशिश की?
नियंत्रण के तौर पर उन्होंने एक अलग पेट्री डिश में
असंक्रमित मादाएं रखीं जिन्हें ठंड से मारा गया था।
बायोआर्काइव्स में प्रकाशन-पूर्व नतीजों के अनुसार नर
मक्खी ने स्वस्थ मादा की तुलना में संक्रमित मादा से संभोग करने की कोशिश पांच
गुना अधिक की। नर का साधारण-सा संपर्क भी उसे संक्रमित करने के लिए पर्याप्त होता
है हालांकि कभी-कभी ज़ोरदार संभोग बीजाणुओं का गुबार हवा में उड़ाता है।
इसके बाद,
एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने स्वस्थ नर मक्खी के सामने
दो मृत मादा मक्खी रखी – एक संक्रमित और दूसरी सामान्य। इस स्थिति में, नर ने अधिक बार संभोग की कोशिश की (बनिस्बत उस स्थिति के जब कोई मादा संक्रमित
नहीं थी) लेकिन वे संक्रमित और असंक्रमित मादा में फर्क नहीं कर पाए। इस आधार पर
नौनड्रप का अनुमान है कि फफूंद कोई रसायन छोड़ती है जो नर को संभोग के लिए उकसाता
है।
अब शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या नर फफूंद के बीजाणुओं की ओर आकर्षित होते
हैं?
इसके लिए उन्होंने चार नर मक्खियों को एक छोटे प्रकोष्ठ में
रखा। इस प्रकोष्ठ में दो अपारदर्शी पेट्री डिश थीं – एक में फफूंद के बीजाणुओं से
सना कागज़ था और दूसरी में नहीं। प्रत्येक पेट्री डिश के ढक्कन में मक्खी के अंदर
जाने के लिए एक छोटा सुराख था। 43 बार ऐसा हुआ कि चारों मक्खियां बीजाणु युक्त
पेट्री डिश में गईं, जबकि चारों मक्खियां बीजाणु रहित पेट्री
डिश में गई हों ऐसा मात्र 17 बार हुआ।
शोधकर्ताओं का अनुमान था कि नर मक्खी को फफूंद की तेज़ गंध आकर्षित करती है।
अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने मक्खी के एंटीना के सिरे पर एक
इलेक्ट्रोड लगाकर दर्शाया कि फफूंद की महक के झोके से मस्तिष्क में विद्युत प्रवाह
शुरू हो जाता है।
यह जानने के लिए कि फफूंद कौन से रसायन छोड़ते हैं, शोधकर्ताओं ने मृत मक्खियों से कई रसायनों पृथक किए। उन्होंने पाया कि स्वस्थ मक्खियों की तुलना में संक्रमित मक्खियों में कहीं अधिक रसायन मौजूद थे, और इनमें से कई रसायनों की उपस्थिति और प्रचुरता इस बात पर निर्भर करती थी कि मक्खी कितने समय से संक्रमित है। पूर्व में यह देखा जा चुका है कि इनमें से कुछ रसायन, जिन्हें मिथाइल-शाखित एल्केन्स कहा जाता है, नर घरेलू मक्खी को यौन-उत्तेजित करने में भूमिका निभाते हैं। लेकिन शोधकर्ता फफूंद के ऐसे आकर्षक रसायन की पहचान नहीं कर पाए हैं। यदि इन्हें प्रयोगशाला में बनाया जा सका तो ये घरेलू मक्खियों को फंसा कर मारने में उपयोगी हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9529/full/_20211029_on_pathogenic-fungus2.jpg
हाल ही में वैज्ञानिकों के एक संघ ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट ने
बताया है कि लॉकडाउन के चलते कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में आई गिरावट इस वर्ष के
अंत तक वापस अपने पुराने स्तर पर पहुंच सकती है। रिपोर्ट का अनुमान है कि जीवाश्म
ईंधन के जलने से कार्बन उत्सर्जन बढ़कर 36.4 अरब टन हो जाएगा जो पिछले वर्ष की
तुलना में 4.9 प्रतिशत अधिक है। चीन और भारत में कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठातीं तो यह
उत्सर्जन अगले वर्ष नए सिरे से बढ़ना शुरू हो जाएगा।
रिपोर्ट में भूमि-उपयोग में परिवर्तन – जैसे सड़कों के लिए जंगल कटाई या
चारागाह को जंगल में तबदील करना – की वजह से उत्सर्जन के नए अनुमान भी प्रस्तुत
किए गए हैं। हालांकि, जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में वृद्धि जारी
है लेकिन पिछले एक दशक में भूमि-उपयोग में परिवर्तन से उत्सर्जन में कमी के चलते
कुल उत्सर्जन थमा रहा है। अलबत्ता, विशेषज्ञों के अनुसार
भूमि-उपयोग के रुझानों में काफी अनिश्चितता बनी रहती है और कुछ भी तय करना जल्दबाज़ी
होगी।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक 2020 में लॉकडाउन के चलते जीवाश्म ईंधनों
से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी। एक अन्य संगठन
कार्बन मॉनीटर का अनुमान थोड़ी अधिक गिरावट का था।
वैज्ञानिकों को उत्सर्जन में वापिस कुछ हद तक वृद्धि की तो उम्मीद थी लेकिन यह
अटकल का मामला था कि कितनी और किस दर से यह वृद्धि होगी। खास तौर से सवाल यह था कि
लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाएं हरित ऊर्जा में कितना निवेश करेंगी।
इस विषय में कार्बन मॉनीटर के अनुसार लॉकडाउन खुलने के बाद से ऊर्जा की मांग
में वृद्धि को जीवाश्म ईंधनों से ही पूरा किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का ऐसा
अनुमान है कि आने वाले वर्ष में उत्सर्जन और बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति के ग्लासगो सम्मेलन (कॉप 26) में पहले ही
राष्ट्रीय,
कॉर्पोरेट और वैश्विक स्तर पर कई महत्वपूर्ण संकल्प लिए जा
चुके हैं। इस सम्मेलन में भारत सहित कई देशों ने एक समयावधि में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
का वादा किया है। सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है जो ग्रीनहाउस गैसों का प्रमुख स्रोत है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अंतर सरकारी पैनल का अनुमान है कि 2015
के पैरिस जलवायु समझौते में तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूरी
दुनिया को 2030 तक अपने उत्सर्जनों को लगभग आधा करना होगा ताकि वैश्विक तापमान में
वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके। लेकिन
यह लक्ष्य काफी कठिन लग रहा है। हालांकि, अक्षय-उर्जा तकनीकों का
उपयोग तो बढ़ रहा है लेकिन आशंका है कि बिजली की मांग को पूरा करने में प्रमुख रूप
से अक्षय ऊर्जा का उपयोग होने में लंबा समय लगेगा।
इस रिपोर्ट में ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक संयुक्त राज्य अमेरिका, युरोपीय संघ,
भारत और चीन के रुझानों का स्वतंत्र रूप से विश्लेषण करके
बताया गया है कि उत्सर्जन अपने महामारी-पूर्व स्तर पर लौट रहा है। अमेरिका और
युरोपीय संघ में जहां महामारी के पहले जीवाश्म-ईंधन का उपयोग कम होने लगा था वहां
2021 में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के तेज़ी से बढ़ने का अनुमान है लेकिन यह 2019
से 4 प्रतिशत नीचे है। भारत में इस वर्ष कार्बन उत्सर्जन में 12.6 प्रतिशत वृद्धि
की संभावना है। विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक चीन ने महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था
को बढ़ाने के लिए कोयले का पुन:उपयोग शुरू कर दिया।
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि इस वर्ष चीन द्वारा जीवाश्म-ईंधन उत्सर्जन चार
प्रतिशत बढ़कर 11.1 अरब टन हो जाएगा जो महामारी-पूर्व के स्तर से 5.5 प्रतिशत अधिक
है।
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक पहलू भी बताए गए हैं। इसमें 23 ऐसे देशों का ज़िक्र किया गया है जिनका उत्सर्जन कुल वैश्विक उत्सर्जन का लगभग एक-चौथाई है। ये वे देश हैं जिन्होंने महामारी के पूर्व एक दशक से अधिक के समय में अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साथ-साथ जीवाश्म-ईंधन जनित उत्सर्जन पर अंकुश लगाया है। देखा जाए तो आज हमारे पास तकनीक है और पता है कि क्या करना है। मुद्दा निर्णय लेने और उसके कार्यान्वयन का है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
आज हम ज्ञान उत्पन्न करने में लगे वैज्ञानिकों और इस ज्ञान
को लोगों तक पहुंचाकर संतुष्ट विज्ञान लेखकों के बीच बढ़ता विभाजन देख रहे हैं। हम
इस विभाजन को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि आज का विज्ञान इतना जटिल हो गया है कि
वैज्ञानिकों के पास इसे आम जनता तक पहुंचाने का न तो समय है और न ही इसके संप्रेषण
का कौशल है तथा दूसरी ओर, विज्ञान लेखकों के पास ज्ञान
उत्पत्ति के न तो कोई अवसर हैं और न ही आवश्यक कौशल। हालांकि, यह कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन मेरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक अपनी
ज़िम्मेदारी से बचने के लिए विज्ञान की कथित जटिलता का बहाना कर रहे हैं और इस
विभाजन को बेवजह बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं।
आदर्श रूप में, वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों के बीच किसी
प्रकार का विभाजन नहीं होना चाहिए। न तो वैज्ञानिकों को आम जनता के बीच विज्ञान के
संप्रेषण को पूरी तरह से विज्ञान लेखकों के भरोसे छोड़ना चाहिए और न ही विज्ञान
लेखक ज्ञान सृजन के कार्य को पूरी तरह से वैज्ञानिकों पर छोड़ सकते हैं। विज्ञान के
संप्रेषण का आनंद ज्ञान निर्माण का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए और ज्ञान
के सृजन का आनंद विज्ञान लेखन का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए। अपने कार्य
का पूरा आनंद प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रभावी संप्रेषक बनना चाहिए। हम
यह बदलाव कैसे ला सकते हैं?
सबसे पहले,
वैज्ञानिकों में अच्छे लेखन की इच्छा होनी चाहिए। हमें लेखन
शैली को प्रतिष्ठा का विषय बनाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि ऐसा आम तौर पर होता
नहीं है।
सी.पी. स्नो की पुस्तक दी टू कल्चर्स की भूमिका में कैंब्रिज
युनिवर्सिटी में इंटेलेक्चुअल हिस्ट्री एंड इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफेसर स्टीफन
कॉलिनी ने हमारी उलझन का बढ़िया वर्णन किया है:
“प्रायोगिक विज्ञान के कई
रूपों में लेखन वास्तव में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता है: यह अपने आप में
खोज की प्रक्रिया नहीं होता, जैसा कि मानविकी में
होता है,
बल्कि किसी घटना के बाद की रिपोर्ट होता है जिसको लिख डालना
कहते हैं। परिणामों की प्रस्तुति में सटीकता, स्पष्टता, किफायत तो यकीनन आवश्यक हैं
लेकिन अपने निष्कर्षों को बोधगम्य तरीके से व्यवस्थित करने को कई शोध वैज्ञानिक एक
बोझ मानते हैं…शैली के लालित्य को एक पेशेवर आदर्श के रूप में विकसित नहीं किया
जाता,
न महत्व दिया जाता है, हालांकि इक्का-दुक्का वैज्ञानिक इसे पसंद कर सकते हैं।”
मैं सहमत हूं। लेकिन हमें विज्ञान की दुनिया में ऐसे सुधार करना चाहिए ताकि
कॉलिनी का विवरण सही न रहे।
कैसे?
इस मामले में मेरे कुछ पसंदीदा विचार हैं। हमें सबसे पहले
तो भरपूर और अंधाधुंध तरीके से पढ़ना चाहिए। जब तक हम अच्छे-बुरे-भौंडे हर प्रकार
की रचनाएं नहीं पढ़ेंगे तब तक हम विवेकी पाठक और अच्छे लेखक नहीं बन सकते। हमें
कथा-साहित्य भी काफी मात्रा में पढ़ना चाहिए। कथेतर साहित्य की तुलना में
कथा-साहित्य बेहतर शैली प्रस्तुत करने के अलावा हमारी कल्पना करने की क्षमता को
विकसित करने में मदद करता है। विज्ञान में कल्पना का बहुत महत्व है; खासकर परिकल्पनाएं प्रस्तावित करने में, ख्याली
प्रयोगों में और अपने सिद्धांतों के निहितार्थों का अनुमान लगाने में। कल्पना तो
कौशल का एक महत्वपूर्ण घटक भी है जो नए-नए पाठकों की मानसिक दुनिया में प्रवेश
करने और जटिल वैज्ञानिक अवधारणाओं को समझने में उनकी मदद करने के लिए आवश्यक है।
अच्छा लेखन सीखने के लिए, हमें बेझिझक गाइडबुक्स का
भरपूर उपयोग करना चाहिए। हालांकि, हमारा उद्देश्य सिर्फ उनमें दी
गई सलाहों को पालन करना नहीं होना चाहिए। बल्कि हमें तो उन्हें पढ़कर, समझकर उनके उल्लंघन के प्रयोग करने चाहिए और नतीजे देखने चाहिए (ठीक वैसे ही
जैसे हम विज्ञान में कोई कंट्रोलशुदा प्रयोग करते हैं)।
लेखन के लिए अनगिनत गाइडबुक्स उपलब्ध हैं, लेकिन
यदि वास्तव में हमारा उद्देश्य उन्हें पढ़ना, समझना
और उल्लंघन का प्रयास करना है तो फिर कोई भी गाइडबुक उपयुक्त रहेगी। वैसे, मेरा सुझाव है कि शुरुआत स्ट्रंक और वाइट द्वारा लिखित दी एलीमेंट्स ऑफ
स्टाइल या फिर स्टीफन किंग द्वारा लिखित ऑन राइटिंग: ए मेमॉयर ऑफ दी
क्राफ्ट से करनी चाहिए। दोनों ही ‘पढ़ने और उल्लंघन’ के लिहाज़ से बढ़िया हैं।
लेकिन हमारे भीतर स्टीफन फ्राय का आत्मविश्वास भी ज़रूरी है जो कहते हैं कि
उन्होंने किंग की सलाह का पालन करने का प्रयास किया लेकिन “यह बिलकुल भी ठीक
नहीं है,
एक लेखक (यानी मैं) है और यदि लोगों को लगता है कि उसने
लेखन में अति कर दी है…. उसे अति आलंकारिक बनाया है, तो लगने दो, वे ऐसी किताब को पटक देंगे और
किसी और की किताब को उठा लेंगे।”
मेरी एक और ‘सलाह पुस्तक’ स्टीवन पिंकर की किताब दी सेंस ऑफ स्टाइल: दी
थिंकिंग पर्सन्स गाइड टू राइटिंग इन 21st सेंचुरी है। एक मनोवैज्ञानिक, भाषाविद
और शानदार लेखक होने के नाते, पिंकर ने न केवल लेखन पर सलाह
दी है बल्कि उस सलाह के पीछे का तर्क भी प्रस्तुत किया है, जिससे
सलाह की सकारण उपेक्षा का मार्ग भी खुला रहता है। वैज्ञानिकों को पिंकर के लेखन
दर्शन को आत्मसात करना चाहिए: ‘शैली से जीवन में सुंदरता पनपती है…किसी
साक्षर पाठक के लिए, एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है।‘
मुझे विशेष रूप से इतालवी हरफनमौला, उम्बर्टो इको द्वारा
लिखित हाउ टू राइट ए थीसिस (1997/2012) काफी पसंद आई। इको विशेष रूप से
उनके दार्शनिक उपन्यास दी नेम ऑफ दी रोज़ (1994) के लिए मशहूर हैं। पहली नज़र
में देखें तो इको की सलाह विशेष रूप से इंडेक्स कार्ड, नोटपैड
और इंटरलाइब्रेरी लोन के युग के मानविकी विज्ञान के छात्रों के लिए है। लेकिन मेरा
ऐसा मानना है कि इंटरनेट, वेब ऑफ साइंस और गूगल स्कॉलर
युग के प्राकृतिक वैज्ञानिकों को भी इसे पढ़ना चाहिए। ‘हाउ टू राइट ए थीसिस’
पर सलाह देने की आड़ में इको ने ‘शोध कैसे करें’ पर अधिक सलाह दी है।
हालांकि,
शैली और विषयवस्तु में से किसी एक को चुनना ज़रूरी नहीं है।
रिचर्ड डॉकिंस ने इस बात को अपनी हालिया पुस्तक बुक्स डू फर्निश ए लाइफ में
व्यक्त किया है। यह डॉकिंस की निहायत पठनीय पूर्व रचनाओं का संकलन है। आश्चर्यजनक
रूप से इसमें बड़ी संख्या में अन्य लोगों की पुस्तकों के लिए लिखी गई भूमिकाएं, प्रस्तावनाएं, उपसंहार और समीक्षाएं शामिल हैं। यह विधा
मुझे बहुत पसंद है क्योंकि यह उन सख्त नियमों से मुक्त है जो अक्सर अधिक तकनीकी
वैज्ञानिक लेखन पर लागू होते हैं। आम तौर पर ये नियम लेख की गुणवत्ता को अनावश्यक
रूप से कम करते हैं। इसलिए निबंध शैली के वैज्ञानिक लेखन को बेहतर बनाने का यह
बढ़िया तरीका हो सकता है, लेकिन बहुत कम देखने को मिलता
है।
दुर्भाग्य से, हम इस विधा की उपेक्षा इस गलत आधार पर करते
हैं कि यह किसी नए ज्ञान की द्योतक नहीं है। कई चयन एवं मूल्यांकन समितियों में
काम करते हुए मुझे इस बात ने काफी व्यथित किया है कि व्यक्ति का मूल्यांकन करते
समय इस विधा के सभी प्रकाशनों को दरकिनार कर दिया जाता है। और तो और, इसके साथ ही हम छात्रों के असाइनमेंट में निबंध प्रारूप की जगह बहु-विकल्पी
सवालों (MCQ)
को तरजीह देने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप, आज के छात्र किसी विषय पर उपलब्ध सारी जानकारी इकट्ठा करके एक निबंध तैयार
करने में बिलकुल भी आनंद नहीं लेते।
वैज्ञानिकों को लेखन के लिए अनुकरणीय उदाहरणों की ज़रूरत है। मेरी शिकायत रही
है कि वैज्ञानिक खराब लिखते हैं या पर्याप्त नहीं लिखते, लेकिन
सच्चाई यह है कि कई अनुकरणीय आदर्श मौजूद हैं। डॉकिंस की किताब दी ऑक्सफोर्ड
बुक ऑफ मॉडर्न साइंस राइटिंग (2008) ऐसे 394 उदाहरणों का एक प्रेरक संग्रह है
जिसमें मार्टिन रीस, फ्रांसिस क्रिक, फ्रेड
हॉयल,
जेरेड डायमंड, रैशेल कार्लसन, एडवर्ड ओ. विल्सन, फ्रीमैन डायसन, जे.बी.एस.
हाल्डेन,
जैकब ब्रोनोस्की, ओलिवर सैक्स, लेविस वोलपर्ट, कार्ल सेगन, जॉन
टायलर बोनर,
सिडनी ब्रेनर, जॉन मेनार्ड स्मिथ, डी’आर्ची थॉमसन, निको टिनबरगन, आर्थर
एडिंगटन,
पीटर मेडावर जैसे शानदार वैज्ञानिकों के आलेख शामिल हैं।
मेरे एक आदर्श हैं ज़्यां हेनरी फैबर (1823-1915)। फैबर एक फ्रांसीसी
कीटविज्ञानी,
प्रकृतिविद और एक उत्कृष्ट लेखक थे। उन्हें एक बेलेट्रिस्ट
(एक ऐसा व्यक्ति जो विशेष रूप से साहित्यिक और कलात्मक समालोचना पर निबंध लिखता है
जिनको मुख्य रूप से उनके सौंदर्यबोध के लिए रचा और पढ़ा जाता है), ‘विज्ञान कवि’ और ‘कीट विज्ञान का होमर’ कहा जाता है। जब मैं फैबर की रचना दी
बुक ऑफ इंसेक्ट्स को पढ़ता हूं, तब मेरे कानों में पिंकर के
शब्द गूंजने लगते हैं कि ‘…एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है‘ और
लगता है कि मुझमें लिखने की चाह पैदा हो जाती है।
विज्ञान की संस्कृति को बदलने की ज़रूरत है ताकि यह संभव हो सके कि वैज्ञानिक न
केवल उच्च गुणवत्ता के शोध में योगदान दें बल्कि साथ ही बेहतर संचार के लिए समय दे
सकें और उससे आनंद भी प्राप्त कर सकें। व्यापक गैर-तकनीकी पाठकों के लिए लिखने का
काम तकनीकी पेपर लिखने के कार्य से काफी पहले शुरू हो जाना चाहिए, तकनीकी पेपर लिखने के साथ-साथ निरंतर चलते रहना चाहिए और तकनीकी पेपर का लेखन
कार्य पूरा होने के बाद भी लंबे समय तक जारी रहना चाहिए। हम पाएंगे कि प्राकृतिक
विज्ञान में भी,
‘लेखन की प्रक्रिया के दौरान सबसे रचनात्मक सोच किया जा सकता
है।’ मेरा तो निश्चित रूप से यही अनुभव रहा है।
तो फिर पेशेवर विज्ञान लेखकों की क्या भूमिका होनी चाहिए? हमें यह भय नहीं पालना चाहिए कि यदि वैज्ञानिक अच्छा लिखेंगे और आम जनता के
लिए लिखने लगेंगे तो वे पेशेवर विज्ञान लेखकों को खदेड़ देंगे। विज्ञान लेखकों की
भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन मेरी इच्छा उनको भी
ज्ञान निर्माताओं के रूप में देखने की है। विज्ञान लेखकों का काम केवल रिपोर्टिंग
करने से कहीं ज़्यादा होना चाहिए। उनका काम वैज्ञानिकों की अस्पष्ट भाषा को
अंग्रेज़ी में या फिर किसी अन्य भाषा में अनुवाद करने से कहीं अधिक होना चाहिए।
यदि वैज्ञानिक जनता के बीच विज्ञान के संप्रेषण का काम अच्छे से करते हैं, तो विज्ञान लेखक अपने प्रयासों को नए ज्ञान के निर्माण पर केंद्रित कर सकते
हैं। देखा जाए तो विज्ञान लेखक पार्श्विक तुलना करने, विज्ञान
की प्रक्रिया को समझने तथा संभावित पूर्वाग्रहों और हितों के टकराव को समझने की
बेहतर स्थिति में होते हैं जिनको वैज्ञानिक, अंदरूनी
व्यक्ति होने के कारण, सही तरह से समझ नहीं सकते हैं। अत:
अस्त-व्यस्त गद्य में सुधार करने की अपेक्षा करने की बजाय, हमें
विज्ञान लेखकों को ज्ञान परिष्कारकों की भूमिका के तौर पर बढ़ावा देना चाहिए।
विज्ञान लेखकों को अपने लेखन में इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और विज्ञान की राजनीति को भी शामिल करना चाहिए। विज्ञान की संस्कृति में बदलाव लाना चाहिए ताकि विज्ञान लेखकों को प्रतिष्ठा मिल सके और उन्हें ज्ञान परिष्कारक के रूप में स्वीकार करके वैज्ञानिकों की श्रेणी में शुमार किया जाए। वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों, दोनों को प्रभावी ढंग से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन विज्ञान के कामकाज की प्रक्रिया को अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक बनाएंगे और विज्ञान की सीमाओं का भी विस्तार करेंगे। इसी परिवर्तन का एक हिस्सा यह भी होगा कि विज्ञान को एक जटिल और महंगी गतिविधि के रूप में पैकेजिंग से मुक्त करना है जिसमें केवल उच्च प्रशिक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही प्रवेश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइंस (25 अगस्त 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blog.writers.work/wp-content/uploads/2019/02/WW.FreelanceScience-01.png
ग्लासगो में आयोजित 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन
सम्मेलन (कॉप-26) के शुरुआती दिनों में विश्व भर के राजनेताओं द्वारा जलवायु
परिवर्तन से निपटने के लिए कई घोषणाएं की गईं। इन घोषणाओं में चरणबद्ध तरीके से
कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को वित्तीय सहायता बंद करने से लेकर वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाना तक शामिल थे। नेचर पत्रिका ने इस वार्ता में अब तक लिए गए
निर्णयों और संकल्पों पर शोधकर्ताओं के विचार जानने के प्रयास किए हैं।
मीथेन उत्सर्जन
वार्ता के पहले सप्ताह में मीथेन उत्सर्जन को रोकने के प्रयासों पर चर्चा हुई
जो कार्बन डाईऑक्साइड के बाद जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करती है। 100 से अधिक
देशों ने वर्ष 2030 तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करने का संकल्प
लिया।
वैसे,
वैज्ञानिकों का मानना है कि 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 50
प्रतिशत तक की कमी करने का संकल्प बेहतर होता। फिर भी, वे 30
प्रतिशत को भी एक अच्छी शुरुआत के रूप में देखते हैं। शोध से पता चला है कि उपलब्ध
तकनीकों का उपयोग करके मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने से वर्ष 2100 तक वैश्विक
तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की कमी आ सकती है।
गौरतलब है कि यूएस संसद में जलवायु के मुद्दे से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति
ने ग्लासगो सम्मलेन में तेल और गैस उद्योगों द्वारा मीथेन उत्सर्जन को रोकने के
लिए नए नियमों की घोषणा की है। यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी द्वारा प्रस्तावित
नियमों के मुताबिक कंपनियों को 2005 की तुलना में आने वाले दशक में मीथेन उत्सर्जन
में 74 प्रतिशत तक कमी करना होगी। ऐसा हुआ तो 2035 तक लगभग 3.7 करोड़ टन मीथेन
उत्सर्जन रोका जा सकेगा। यह अमेरिका में यात्री वाहनों और वाणिज्यिक विमानों से
होने वाले वार्षिक कार्बन उत्सर्जन के बराबर है।
भारत का नेट-ज़ीरो लक्ष्य
भारत की ओर से प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन की
घोषणा उत्साह का केंद्र रही। वैसे भारत द्वारा निर्धारित समय सीमा कई अन्य देशों
से दशकों बाद की है और घोषणा में यह भी स्पष्ट नहीं है कि भारत केवल कार्बन
डाईऑक्साइड उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए प्रतिबद्ध है या इसमें अन्य ग्रीनहाउस
गैसें भी शामिल हैं। फिर भी यह काफी महत्वपूर्ण घोषणा है और अमल किया जाए तो अच्छे
परिणाम मिल सकते हैं।
वैसे सालों बाद नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के संकल्पों को लेकर वैज्ञानिकों का मत है
इस तरह के दीर्घकालिक वादे करना तो आसान होता है लेकिन इन्हें पूरा करने के लिए
अल्पकालिक निर्णय लेना काफी कठिन होता है। लेकिन भारत के संकल्प में निकट-अवधि के
मापन योग्य लक्ष्य शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए भारत ने 2030 तक देश की बिजली
का 50 प्रतिशत अक्षय संसाधनों के माध्यम से प्रदान करने और कार्बन डाईऑक्साइड
उत्सर्जन को एक अरब टन कम करने का वादा किया है। फिर भी इन लक्ष्यों को परिभाषित
और उनके मापन की प्रकिया पर सवाल बना हुआ है।
कुछ मॉडल्स से ऐसे संकेत मिलते हैं कि यदि सभी देशों द्वारा नेट-ज़ीरो संकल्पों
को लागू किया जाए तो 50 प्रतिशत संभावना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस
या उससे कम तक सीमित किया जा सकता है।
जलवायु वित्त
वित्तीय क्षेत्र के 450 से अधिक संगठन जैसे बैंक, फंड
मेनेजर्स और बीमा कंपनियों ने 45 देशों में अपने नियंत्रण में 130 ट्रिलियन
अमेरिकी डॉलर के फंड को ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने का निर्णय लिया है जो 2050
तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि संस्थानों ने अभी तक इन
लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कोई अंतरिम लक्ष्य या समय सारणी प्रस्तुत नहीं की
है।
सरकारों ने स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश की भी घोषणा की है। यूके, पोलैंड,
दक्षिण कोरिया और वियतनाम सहित 40 देशों ने घोषणा की है
2030 तक (बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए) या 2040 तक (वैश्विक स्तर पर) कोयला बिजली
संयंत्रों को चरणबद्ध रूप से समाप्त किया जाएगा और नए कोयला आधारित बिजली
संयंत्रों के लिए सरकारी धन के उपयोग पर रोक लगाई जाएगी।
एक दिक्कत यह है कि ऐसी घोषणाओं को आम तौर पर सरकारों द्वारा अनदेखा कर दिया
जाता है। उदाहरण के लिए 2009 में निम्न और मध्यम आय वाले देशों को 2020 तक जलवायु
वित्त के तौर पर वार्षिक 100 अरब डॉलर देने के वचन को पूरा करने में सरकारें विफल
रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी 2 वर्ष का समय
और लगेगा और 70 प्रतिशत वित्त तो कर्ज़ के रूप में दिया जाएगा। ऐसे कर्ज़ों के
पीछे कई शर्तें छिपी रहती हैं।
निर्वनीकरण पर रोक
सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों को होने वाली क्षति और
भूमि-क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। ब्राज़ील, डेमोक्रेटिक
रिपब्लिक ऑफ कांगो और इंडोनेशिया (जहां दुनिया के 90 प्रतिशत जंगल हैं) ने भी इस
संकल्प पर हस्ताक्षर किए हैं। गौरतलब है कि ऐसे संकल्प पहली बार नहीं लिए गए हैं।
2014 में न्यूयॉर्क डिक्लेरेशन ऑफ फॉरेस्ट में लगभग 200 से अधिक देशों, कंपनियों,
देशज समूहों और अन्य गठबंधनों ने 2020 तक वनों की कटाई दर
को आधा करने और 2030 तक इसे पूरी तरह खत्म करने का आह्वान किया था। इसमें जैव
विविधता को होने वाली क्षति को धीमा करने और अंततः उसको उलटने के लिए संयुक्त
राष्ट्र का लंबे समय से चला आ रहा संकल्प भी शामिल है। लेकिन बिना किसी आधिकारिक
निगरानी के यह निरर्थक ही है। शोधकर्ताओं के अनुसार एक प्रवर्तन तंत्र के बिना इन
लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव है।
इसके अलावा, उच्च आय वाले देशों के एक समूह ने 2021 और 2025 के बीच वन संरक्षण के लिए 12 अरब डॉलर का सरकारी वित्त प्रदान करने का संकल्प लिया था लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया था कि यह धन राशि कैसे प्रदान की जाएगी। कनाडा, अमेरिका, यूके और युरोपीय संघ सहित कई देशों के संयुक्त वक्तव्य में बताया गया कि सरकारें “निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करेंगी” ताकि “बड़े स्तर पर बदलाव के लिए निजी स्रोतों से धन मिल सके।” ज़ाहिर है, वित्त मुख्य रूप से ऋण के रूप में दिया जाएगा। फिर भी, ये निर्णय काफी आशाजनक हैं। पिछले कुछ जलवायु सम्मेलनों और इस वर्ष ग्लासगो में प्रकृति और वनों पर काफी चर्चाएं हुई हैं। इससे पहले की बैठकों में जैव विविधता पर बात नहीं होती थी। संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता और जलवायु को अलग-अलग चुनौतियों के रूप में देखता था। इन विषयों पर चर्चा भविष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.dw.com/image/59812388_101.jpg
अक्षय उर्जा की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी वित्तीय बाधा जीवाश्म
ईंधनों को मिलने वाली सब्सिडी है। हर वर्ष, दुनिया
भर की सरकारें जीवाश्म ईंधनों की कीमत कम रखने के लिए लगभग 5 खरब डॉलर खर्च करती
हैं। यह नवीकरणीय उर्जा पर किए जाने वाले खर्च से तीन गुना अधिक है। इसे खत्म करने
के संकल्पों के बाद भी स्थिति बदली नहीं है।
वैसे,
इस तरह के परिवर्तन लाना असंभव नहीं है। जिनेवा स्थित एक शोध
समूह ग्लोबल सब्सिडीज़ इनिशिएटिव (जीएसआई) के अनुसार 2015 से 2020 के बीच लगभग 53
देशों ने अपनी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में सुधार किया है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी
(आईए) ने 2021 में जारी रिपोर्ट में कहा है कि नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिए
आने वाले वर्षों में सभी सरकारों को जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना होगा।
सब्सिडी के प्रकार
आम तौर पर जीवाश्म ईंधन पर दो प्रकार की सब्सिडी दी जाती हैं। पहली, उत्पादन सब्सिडी जिसमें कर में छूट से कोयला, तेल, या गैस की उत्पादन लागत में कमी होती है। यह पश्चिमी देशों में अधिक देखने को
मिलती हैं। आयल चेंज इंटरनेशनल, कनाडा के विश्लेषक ब्रॉनवेन
टकर के अनुसार यह सब्सिडी बुनियादी ढांचा स्थापित करने में उपयोगी होती है।
दूसरी उपभोग सब्सिडी होती हैं जो उपयोगकर्ताओं के लिए ईंधन के दामों में कमी
करती हैं। पेट्रोल पंपों पर दाम बाज़ार दर से कम रखे जाते हैं। यह सब्सिडी आम तौर
पर कम आय वाले देशों में अधिक देखने को मिलती है जहां लोग खाना पकाने के लिए
स्वच्छ ईंधन का खर्च नहीं उठा सकते हैं। मध्य पूर्व के देशों में इन सब्सिडीज़ को
लोगों को प्राकृतिक संसाधनों से लाभान्वित करने के रूप में देखा जाता है।
आईए और आर्गेनाईज़ेशन फॉर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का अनुमान
है कि विश्व के 90 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति करने वाली 52 उन्नत और उभरती
हुई अर्थव्यवस्थाओं ने 2017 से 2019 के बीच औसतन 555 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी
प्रदान की है। हालांकि, 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान कम
ईंधन खपत और गिरते दामों के कारण यह 345 अरब डॉलर रही।
लेकिन कई संगठन सब्सिडी का अनुमान लगाने की प्रक्रिया से असहमत हैं। एक बड़ी
जटिलता यह है कि जीवाश्म ईंधन के कुछ सार्वजनिक फंडिंग में सब्सिडी और गैर-सब्सिडी
दोनों के तत्व मौजूद हैं। फिर भी पिछले वर्ष नवंबर में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर
सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) ने सभी सार्वजनिक फंडिंग को ध्यान में रखते हुए
अनुमान लगाया है कि केवल G20 समूह के देशों ने 2017 से
2019 के बीच प्रति वर्ष 584 अरब डॉलर की सब्सिडी दी है जो ओईसीडी-आईए के विश्लेषण
से काफी अधिक है। इनमें सबसे बड़े सब्सिडी प्रदाताओं में चीन, रूस,
सऊदी अरब और भारत शामिल हैं।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि जीवाश्म ईंधनों की छिपी हुई लागत जैसे वायु
प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग पर उनके प्रभाव को अनदेखा करना भी एक प्रकार की
सब्सिडी है। पिछले माह जारी एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश ने इन सभी
को ध्यान में रखते हुए 2020 में कुल जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी की गणना 59 खरब डॉलर की
है जो वैश्विक जीडीपी का 9 प्रतिशत है।
सब्सिडी बंद करना कठिन क्यों?
एक बड़ी समस्या तो परिभाषा की है। G7 और G20
देशों ने अकार्यक्षम जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने का वादा तो किया है लेकिन
उन्होंने इस जुम्ले को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया है। कुछ देशों का तो दावा
है कि वे सब्सिडी देते ही नहीं हैं जिसे खत्म किया जाए। एक उदाहरण यूके का है जो
जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कुछ टैक्स को छोड़ देता है और सीधे अपने तेल और गैस
उद्योग का फंडिंग करता है।
इसके अलावा,
प्रत्येक राष्ट्र के पास जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी देने के
अपने कारण हैं जो अक्सर उनकी औद्योगिक नीतियों से जुड़े हैं। उत्पादन सब्सिडी को
हटाने में तीन मुख्य बाधाएं हैं। पहली, जीवाश्म ईंधन कंपनियां
राजनैतिक रूप से शक्तिशाली हैं। दूसरा, लोगों की नौकरी जाने का
खतरा। और तीसरा,
यह चिंता कि ऊर्जा की बढ़ती कीमतों से आर्थिक विकास में कमी
और मुद्रास्फीति में तेज़ी आ सकती है।
वैसे,
इन सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। जैसे जीवाश्म ईंधन
कंपनियों को धन न देकर उसका उपयोग उर्जा की बढ़ती कीमतों के प्रभावों की भरपाई के
लिए किया जा सकता है। जीएसआई के अनुसार फिलीपींस, इंडोनेशिया, घाना और मोरक्को ने सब्सिडी हटाने की क्षतिपूर्ति करने के लिए नगद हस्तांतरण
और शिक्षा निधि और गरीब परिवारों को स्वास्थ्य बीमा जैसी सहायता प्रदान की है।
इसके साथ ही सरकार को जीवाश्म ईंधन श्रमिकों को वैकल्पिक रोज़गार खोजने में मदद की
भी योजना बनाना चाहिए।
ऊर्जा सब्सिडी को हटाने के लिए राजनैतिक झिझक को दूर करने का एक तरीका यह है
कि समर्थन जारी रखा जाए किंतु उसे हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने से जोड़ दिया जाए।
जीवाश्म ईंधन उद्योगों को नवीकरणीय उर्जा के क्षेत्र में कदम रखना चाहिए। उदाहरण
के लिए,
डेनमार्क की ओर्स्टेड नामक एक सरकारी कंपनी जीवाश्म ईंधन से
विश्व की सबसे बड़ी नवीकरणीय उर्जा उत्पादक में परिवर्तित हुई है।
इसके अतिरिक्त, तेल की कम कीमतों के दौरान खपत सब्सिडीज़ को
हटाना एक अच्छा विचार है। आईआईएसडी के अनुसार, तेल का
आयात करने वाले देश भारत ने तेल की कम कीमतों का लाभ उठाते हुए 2014 से 2019 के
बीच तेल और गैस सब्सिडी काफी कम कर दी है।
तेल की कम कीमतों ने सऊदी अरब को अपने भारी सब्सिडी वाले घरेलू जीवाश्म ईंधन
और बिजली की कीमतों में वृद्धि करने में मदद की। इस देश ने 2016 से ईंधन की कीमतों
में धीरे-धीरे वृद्धि करके काफी तेज़ी से विकास किया है। इसने कम आय वाले परिवारों
को नगद मदद प्रदान करके मूल्य वृद्धि के प्रभावों को कुछ हद तक कम कर दिया है।
हालांकि,
कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र कुछ कदम वापिस ले लिए गए हैं।
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि जलवायु नीतियां कम आय वाले समुदायों को नुकसान न
पहुंचाएं। जब 2019 में इक्वेडोर ने तेज़ी से ईंधन कर में वृद्धि की तो नागरिकों के
व्यापक विरोध ने सरकार को पुन: सब्सिडी शुरू करने को मजबूर किया। जब भारत ने
एलपीजी गैस के लिए अपनी सब्सिडी को कम किया तो उम्मीद थी कि ग्रामीण आबादी को खाना
पकाने के लिए मुफ्त एलपीजी सिलिंडर देकर ऊंची कीमतों की भरपाई हो जाएगी।
जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव
आईआईएसडी की जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार, 32
देशों में खपत सब्सिडी को हटाने से वर्ष 2025 तक उनके ग्रीनहाउस उत्सर्जन में औसतन
6 प्रतिशत की कमी आएगी। यह वर्ष 2018 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट से भी मेल
खाती है जिसमें जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने से 2020 से 2030 तक
वैश्विक उत्सर्जन में 1 प्रतिशत से 11 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इसका सबसे बड़ा
प्रभाव मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में होगा। इस कमी की भरपाई नवीकरणीय उर्जा के
उपयोग को प्रोत्साहित करके की जा सकती है।
इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी (आईआरईएनए) की एक रिपोर्ट के अनुसार
ऊर्जा-क्षेत्र की 634 अरब डॉलर सब्सिडी में से लगभग 70 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन, 20 प्रतिशत अक्षय उर्जा, 6 प्रतिशत जैव ईंधन और 3
प्रतिशत परमाणु उर्जा के लिए है। इस प्रकार का असंतुलन पेरिस जलवायु लक्ष्यों को
प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।
आईआरईएनए ने अपनी रिपोर्ट में एक खाका भी पेश किया है कि 2050 तक वैश्विक
तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लिए वैश्विक उर्जा सब्सिडी
में किस तरह के परिवर्तन करना होंगे।
परिवर्तन की संभावनाएं
ग्लासगो,
यूके में नवंबर में होने वाले जलवायु शिखर सम्मलेन COP26 से पहले इतालवी राष्ट्रपति ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से
समाप्त करने का विचार रखा है। इसी तरह इस वर्ष जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति
बाइडेन ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में कटौती करने के कार्यकारी आदेश जारी किए हैं
जिनका अनुमोदन संसद द्वारा होने के बाद ही लागू होंगे। रूस अभी भी जीवाश्म ईंधन पर
निर्भर है इसलिए वह लगभग 2060 तक कार्बन तटस्थ होने की कोशिश करेगा।
कुछ जलवायु अधिवक्ताओं ने उत्सर्जन में कमी के नाम पर नई टेक्नॉलॉजी के लिए नई
सब्सिडी के खिलाफ चेतावनी दी है। उदाहरण के लिए, ‘ब्लू’
हाइड्रोजन के लिए सब्सिडी का विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। गौरतलब है कि ‘ब्लू’
हाइड्रोजन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोजन बनाई
जाती है और इसके उप-उत्पाद के रूप में उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड को एक जगह
संग्रहित कर दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार जीवाश्म ईंधन कंपनियां भारी-भरकम
सब्सिडी प्राप्त करने के लिए ऐसी परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं।
G20 और G7 शिखर सम्मलेन के दौरान, छोटे देशों के समूह काफी समय से सब्सिडी सुधार पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 2019 में कोस्टा रिका, फिजी, आइसलैंड, न्यूज़ीलैंड और नॉर्वे द्वारा शुरू की गई व्यापार और जलवायु परिवर्तन पर एक पहल का उद्देश्य जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना और सदस्य देशों के बीच पर्यावरणीय वस्तुओं के व्यापार की बाधाओं को दूर करना है। वैसे ये देश सब्सिडी देने वाले बड़े देश तो नहीं हैं लेकिन इनके द्वारा इस तरह के निर्णय अन्य देशों के लिए मिसाल कायम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.greenpeace.org/usa/wp-content/uploads/2021/02/GP0STPXHV_Medium_res.jpg
आश्चर्य की बात है कि लोगों के एक ही प्रोटीन की साइज़ में
अंतर हो सकता है – कुछ में छोटा तो कुछ में बड़ा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन
प्रोटीन को कोड करने वाले जीन में डीएनए शृंखला के कुछ खंडों का कई बार दोहराव हो
जाता है। इस दोहराव की संख्या हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकती है। डीएनए खंड का
प्रत्येक दोहराव प्रोटीन में अमीनो अम्ल की एक अतिरिक्त शृंखला जोड़ देता है। जीन
में दोहराव जितनी अधिक बार होगा प्रोटीन का आकार उतना ही बड़ा होगा।
शोधकर्ताओं के अनुसार, जीन के छोटे संस्करण द्वारा
निर्मित प्रोटीन में 1000 अमीनो अम्ल और जीन के लंबे संस्करण द्वारा निर्मित
प्रोटीन में 2000 अमीनो अम्ल तक हो सकते हैं। जीन में यह दोहराव वेरियेबल नंबर ऑफ
टेंडम रिपीट (वीएनटीआर) कहलाता है।
हाल ही में हुए वीएनटीआर के एक व्यापक विश्लेषण में पाया गया है कि ये दोहराव
व्यक्ति के कद और गंजेपन जैसे लक्षणों को काफी प्रभावित करते हैं। साइंस
पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार वीएनटीआर की मदद से ओझल आनुवंशिकता को
समझने में मदद मिलेगी: देखा गया है कि ज्ञात आनुवंशिक संस्करण मनुष्यों में
बीमारियों,
व्यवहार और अन्य शारीरिक लक्षणों (यानी फीनोटाइप) की व्याख्या
के लिए पर्याप्त नहीं होते।
वैसे तो आनुवंशिकीविद काफी समय से वीएनटीआर के संभावित प्रभावों के बारे में
जानते हैं लेकिन इनका अध्ययन करना तकनीकी कारणों से मुश्किल है। इसलिए ब्रॉड
इंस्टीट्यूट के आनुवंशिकीविद रोनेन मुकामेल और उनके साथियों ने उपलब्ध डीएनए
अनुक्रमण डैटा और सांख्यिकीय तकनीक की मदद से वीएनटीआर के आकार का अनुमान लगाया।
शोधकर्ताओं ने यूके बायोबैंक प्रोजेक्ट के चार लाख से अधिक प्रतिभागियों के
118 प्रोटीन को कोड करने वाले जीन्स में वीएनटीआर के प्रभाव का विश्लेषण किया।
उन्होंने इन वीएनटीआर की लंबाई और 786 विभिन्न फीनोटाइप के बीच सम्बंध देखा। यूके
बायोबैंक में बड़े पैमाने पर लोगों की विस्तृत आनुवंशिक और स्वास्थ्य जानकारी है।
शोधकर्ताओं को विश्लेषण में प्रोटीन के आकार और मनुष्यों के फीनोटाइप के बीच
मज़बूत सम्बंध दिखा। और कई मामलों में वीएनटीआर का प्रभाव किसी अन्य ज्ञात
आनुवंशिक परिवर्तन से अधिक मिला। कुल 19 फीनोटाइप और पांच विभिन्न वीएनटीआर के बीच
मज़बूत सम्बंध दिखा। वीएनटीआर के स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों में लिपोप्रोटीन(ए)
का उच्च स्तर (जो हृदय धमनी रोग का प्रमुख कारक है) और किडनी कार्यों से जुड़े कई
लक्षण शामिल हैं। यह कद से भी स्पष्ट रूप से जुड़ा दिखा। एग्रेकेन प्रोटीन को कोड
करने वाले ACAN जीन की भिन्न-भिन्न वीएनटीआर लंबाई के कारण लोगों की ऊंचाई में औसतन 3.2 सेमी
अंतर दिखा।
इस तरह की खोजें किसी व्यक्ति में रोग विकसित होने की संभावना के बारे में पता करने के आनुवंशिक परीक्षण के नए तरीके देती है। यह रोग निदान का एक नया तरीका हो सकता है जो लक्षण प्रकट होने से पूर्व संकेत दे सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
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यूं तो भूकंप को हमेशा तबाही से जोड़ा जाता है, लेकिन एक नवीन अध्ययन बताता है कि भूकंप, थोड़े
समय के लिए ही सही, जंगल बसाने में योगदान भी देते हैं।
जर्नल ऑफ जियोफिज़िकल रिसर्च बायोजियोसाइन्सेज़ में
प्रकाशित अध्ययन के अनुसार तीव्र भूकंप से पेड़ों की जड़ों के आसपास अधिक पानी
बहकर आने लगता है जो पेड़-पौधों को बढ़ने में मदद करता है। यह अल्पकालिक वृद्धि
पेड़ों की कोशिकाओं में अपने चिन्ह (प्रमाण) छोड़ जाती है, जिसकी
मदद से पूर्व में आए भूकंपों और उनके समय के बारे में बेहतर अनुमान लगाया जा सकता
है।
दरअसल,
पॉट्सडैम विश्वविद्यालय के जलविज्ञानी क्रिश्चियन मोहर
भूकंप और पेड़ों की वृद्धि के बीच सम्बंध पता लगाने नहीं गए थे। वे तो तटवर्ती
चिली की नदी घाटियों में तलछट स्थानांतरण का अध्ययन कर रहे थे। उनके अध्ययन का रुख
तब बदल गया जब वर्ष 2010 में चिली में 8.8 तीव्रता का भूकंप आया। भूकंप और साथ में
आई सुनामी इतनी भीषण थी कि इसने नदी घाटियों को झकझोर दिया था। तटीय चिली के कुछ
हिस्से तबाह हो गए, सैकड़ों लोगों की मौत हो गई और लाखों लोग
प्रभावित हुए।
जब भूकंप के बाद मोहर और उनका शोध दल एक नदी घाटी में वापस लौटा तो उन्होंने
पाया कि वहां की जल धाराएं पहले से तेज़ बह रही हैं। उनका अनुमान था कि भूकंप के
ज़ोरदार झटके के कारण मिट्टी ढीली पड़ गई थी, जिससे
भूजल धाराओं का घाटी की ओर बहने का रास्ता आसान हो गया। अर्थात परोक्ष रूप से
भूकंप की वजह से पहाड़ी के ऊपरी भाग में स्थित पेड़ों की कीमत पर घाटी के पेड़ों
को बढ़ने में मदद मिल सकती है।
क्या वास्तव में ऐसा हुआ है, यह जांचने के लिए मोहर और उनके
साथियों ने तटीय चिली के पास के घाटी तल और पहाड़ की चोटी पर लगे छह मॉन्टेरे पाइन
वृक्षों से ड्रिल करके लकड़ी के दो दर्जन नमूने (प्लग) निकाले। ये प्लग पेंसिल से
पतले लेकिन उससे दुगने लंबे थे। उन्होंने सूक्ष्मदर्शी से इन प्लग की पतली-पतली
कटानों का अध्ययन किया और देखा कि अधिक पानी मिलने पर पेड़ के वलयों (रिंग) के
भीतर कोशिकाओं के आकार में किस तरह के बदलाव हुए हैं।
इसके अलावा,
उन्होंने इन कोशिकाओं में भारी और हल्के कार्बन समस्थानिकों
के अनुपात में बदलाव का भी अध्ययन किया। प्रकाश संश्लेषण के दौरान पेड़ कार्बन-13
की तुलना में कार्बन-12 अधिक ग्रहण करते हैं। इसलिए कोशिकाओं में कार्बन के इन दो
समस्थानिकों के अनुपात में बदलाव से प्रकाश संश्लेषण में वृद्धि पता चल सकती है।
अध्ययन में उन्हें घाटी तल के पास के पेड़ों में भूकंप के बाद वृद्धि में
थोड़ी बढ़त दिखी,
जो कुछ हफ्तों से लेकर महीनों तक जारी रही – यह वृद्धि भारी
बारिश के कारण होने वाली वृद्धि जितनी ही थी। दूसरी ओर, जैसा कि
अनुमान था,
भूकंप के बाद चोटी पर लगे पेड़ों की वृद्धि धीमी पड़ गई थी।
अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक की मदद से भूकंप और उन अन्य घटनाओं को
पहचाना जा सकता है जो पेड़ों की अल्पकालिक वृद्धि का कारण बनते हैं। इस तरह की
वृद्धि केवल पेड़ों के वलयों की मोटाई के अध्ययन में पकड़ में नहीं आ पाती। चूंकि
पेड़ के वलय प्रत्येक वर्ष में पेड़ की औसत वृद्धि दर्शाते हैं, इसलिए सिर्फ इनके अध्ययन से भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट और
सुनामी जैसी घटनाओं के घटने का समय एक वर्ष की सटीकता तक ही पहचाना जा सकता है।
लेकिन,
कार्बन समस्थानिक डैटा और कोशिका के माप सम्बंधी डैटा को एक
साथ रखने पर शोधकर्ता चिली में आए भूकंप के समय को एक महीने की सटीकता के साथ
निर्धारित कर पाए।
यह तकनीक विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों और जलवायु पर लागू होती है या नहीं, यह जानने के लिए इसे विभिन्न जगहों पर दोहराना चाहिए। वैसे मोहर का अनुमान है कि यह विधि तुलनात्मक रूप से शुष्क क्षेत्रों में सबसे अच्छी तरह काम करेगी, जहां अतिरिक्त पानी के कारण वृद्धि अधिक होती है। वे कैलिफोर्निया की नापा घाटी में अध्ययन को दोहराने की योजना बना रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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इस वर्ष भी विज्ञान के सभी क्षेत्रों यानी भौतिकी, रसायन विज्ञान, और कार्यिकी/चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार
विजेता पुरुष ही रहे। नोबेल पुरस्कार के 121 वर्ष के इतिहास में सिर्फ 18 वर्षों
में ही ऐसा हुआ है जब किसी महिला को विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला हो। हाल ही
में नोबेल पुरस्कार देने वाली दो समितियों ने साइंस पत्रिका के साथ आंतरिक
संख्याओं को साझा किया है जो इस तरह की असमानता के पीछे के कारण उजागर करती है:
नोबेल पुरस्कार के लिए महिलाओं का कम नामांकन। हालांकि महिलाओं के नामांकन पिछले
कुछ वर्षों में दुगने हुए हैं लेकिन इनका प्रतिशत अभी भी काफी कम है।
कार्यिकी/चिकित्सा विज्ञान पुरस्कार के लिए नामांकित वैज्ञानिकों में महिलाएं
13 प्रतिशत और रसायन विज्ञान में मात्र 7-8 प्रतिशत थीं। इस मुद्दे पर युनिवर्सिटी
ऑफ विस्कॉन्सिन की आणविक जीवविज्ञानी और वैज्ञानिक समुदाय में जेंडर असमानता की
अध्येता जो हैण्डल्समैन इसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों की सामान्य समस्या के रूप में
देखती हैं। यदि कोई नामांकित ही नहीं है, तो उसका चयन कैसे करें।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष 2020 में विज्ञान के 8 नोबेल विजेताओं में से 3 महिलाएं
थीं। और तो और,
रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार सिर्फ दो महिलाओं को दिया
गया था। इसे देखते हुए सकारात्मक बदलाव की उम्मीद थी लेकिन इस बार के निर्णयों से
हालात पहले जैसे ही नज़र आ रहे हैं।
हाल के वर्षों में नोबेल विजेताओं के बीच जेंडर असमानता को दूर करने तथा यूएस
और युरोप के बाहर के लोगों और अश्वेत वैज्ञानिकों की कमी के मुद्दे पर काफी ज़ोर
दिया गया है। 2018 में, भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार
देने वाली रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ ने अधिक विविधता को प्रोत्साहित करने के
लिए नामांकन प्रक्रिया में बदलाव की घोषणा की थी। समितियों ने विश्व भर के अधिक से
अधिक महिलाओं और वैज्ञानिकों को नामांकित करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने
अपने निमंत्रण में कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को शामिल करने के लिए परिवर्तन किए
और वैज्ञानिकों को केवल एक नहीं बल्कि 3 खोजों को नामांकित करने की अनुमति दी गई।
कुछ इसी तरह के परिवर्तन चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था
कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने भी किए।
गौरतलब है कि नोबेल फाउंडेशन नियम के चलते समितियां नामांकन सम्बंधी सूचनाओं
को 50 वर्ष तक गुप्त रखती हैं। लेकिन समिति के सदस्यों ने इस बार साइंस पत्रिका के
साथ इस डैटा का सार साझा किया है। कार्यिकी/चिकित्सा के लिए कुल नामांकन वर्ष 2015
में 350 थे और इस वर्ष बढ़कर 874 हो गए। इसी दौरान महिलाओं के नामांकन भी 5
प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गए। रसायन विज्ञान में भी महिला नामांकन 2018 की
तुलना में दुगना हो गए हैं। हालांकि, भौतिकी समिति ने डैटा साझा
करने से मना कर दिया लेकिन यह बताया कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के प्रतिशत
में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है।
अलबत्ता,
कई वैज्ञानिक इस वृद्धि से संतुष्ट नहीं है जब तक कि
पुरस्कृत महिलाओं की संख्या में भी वृद्धि नहीं होती। नामांकनों की छंटाई करने वाली
समितियों के सदस्य भी इस वृद्धि से संतुष्ट नहीं है। चाल्मर्स युनिवर्सिटी ऑफ
टेक्नॉलॉजी की जैव-भौतिक रसायनज्ञ और रसायन विज्ञान समिति की सदस्य पेरनीला विटुंग
स्टैफशी के अनुसार नामांकित लोगों में से महिलाओं का प्रतिशत काफी कम है और इसमें
वृद्धि की आवश्यकता है।
विटुंग स्टैफशी का मानना यह भी है कि महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाने के लिए
समितियों को नोबेल-योग्य खोज की समझ को विस्तार देने की आवश्यकता है। हो सकता है
कि हम कुछ विषयों और उम्मीदवारों को देख न पाते हों क्योंकि हम इस बात को लेकर
संकीर्ण नज़रिया रखते हैं कि रसायन विज्ञान की महत्वपूर्ण खोज क्या है।
नोबेल पुरस्कार में महिलाओं के कम नामांकन के अलावा एक और समस्या है। पिछले 4
वर्षों में विज्ञान के नोबेल पुरस्कार चयन समितियों में अपेक्षाकृत कम महिलाएं रही
हैं। यह भी सत्य है कि अपने पूरे करियर में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण
पुरस्कार जीतने वाली महिलाओं की संख्या कम होती है। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है।
यह तो समस्या को देखने का एक निष्क्रिय ढंग है जबकि नोबेल समितियों को आगे आकर कुछ
करना चाहिए।
चयन समितियों के स्वरूप में परिवर्तन की आवश्यकता है। समितियों के सदस्य रॉयल
स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के सदस्यों और कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के प्रोफेसरों
में से चुने जाते हैं। इस वर्ष भौतिकी समिति में 7 पुरुष और 1 महिला, रसायन समिति में 6 पुरुष और 2 महिला और कार्यिकी/चिकित्सा समिति में सबसे अधिक
13 पुरुष और 5 महिलाएं थीं।
विटुंग स्टैफशी बताती हैं कि समिति में उनकी उपस्थिति से जेंडर सम्बंधी मुद्दों पर चर्चा संभव हुई है। समिति की एक महिला सदस्य बताती हैं कि हालांकि नोबेल पुरस्कार देते समय जेंडर पर नहीं बल्कि पूरा ध्यान सिर्फ विज्ञान पर होता है। फिर भी महिलाओं के लिए चयन प्रक्रिया और समारोहों में भाग लेना काफी महत्वपूर्ण होगा ताकि वे अन्य महिलाओं के लिए अनुकरणीय उदाहरण के रूप में नज़र आएं। अलबत्ता, सिर्फ नज़र आना पर्याप्त नहीं होगा। अधिक पारदर्शी नामांकन प्रक्रिया से प्रस्तावक अधिक महिलाओं को नामांकित कर सकेंगे। फिलहाल कोई नहीं जानता कि किसी का नामांकन कैसे किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9351/abs/_20211012_on_noblgender.jpg
प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से ऑक्सीजन उत्सर्जन की क्षमता के कारण पेड़ों को पृथ्वी के फेफड़े कहा जाता है। शहरी क्षेत्रों की वायु गुणवत्ता काफी खराब हो गई है जिसके मानव-जीवन पर भी प्रभाव पड़ रहे हैं। ऑक्सीजन स्पा या कृत्रिम ऑक्सीजन वातावरण को वायु प्रदूषण के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में, शहरी क्षेत्रों में वृक्षों के आवरण को बढ़ाने के समर्थन में आवाज़ें उठ रही हैं ताकि ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ सके। वायु प्रदूषकों को दूर करने के लिए वृक्षों की संख्या बढ़ाना तो तार्किक विचार है लेकिन अधिक वृक्ष लगाकर ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि करके वायु की गुणवत्ता में सुधार करने के विचार के अधिक विश्लेषण की आवश्यकता है। इस संदर्भ में एक सवाल यह उभरता है – विभिन्न वृक्ष प्रजातियों द्वारा कितनी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है और इसका मापन कैसे किया जाए? वायुमंडलीय शोधकर्ताओं के अनुसार वायुमंडल की ऑक्सीजन सांद्रता में काफी समय से कोई बदलाव नहीं आया है। इसके अलावा, स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र समुद्री और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र की तुलना में ऑक्सीजन का उत्पादन कम करते हैं। वैसे भी, शहरी पेड़ों या शहरी हरियाली के कई अन्य फायदे भी हैं, तो क्या हमें वास्तव में शहरी वृक्षों से ऑक्सीजन उत्पादन के बारे में चिंता करने की ज़रूरत है?
यह लेख मूलत: करंट साइंस (सितंबर 2021) में प्रकाशित हुआ था। सुरेश रमणन एस. केन्द्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान, झांसी तथा अन्य तीन लेखक केन्द्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।
वायु प्रदूषण, खराब वायु गुणवत्ता और कणीय
पदार्थ (पीएम2.5,
पीएम10) की उच्च सांद्रता कुछ ऐसे सामान्य जुम्ले हैं जो
अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। समाचार पत्रों में ऑक्सीजन बार, ऑक्सीजन सिलिंडर और ऑक्सीजन स्पा के बारे में भी लेख देखने को मिलते हैं। औद्योगिक
क्रांति और शहरीकरण ने वायु गुणवत्ता को खराब कर दिया है जिसका मनुष्यों पर भी
गंभीर प्रभाव हुआ है। वायु प्रदूषण की समस्या को लेकर कोई विवाद नहीं है। लेकिन
वायु प्रदूषण के विकल्प के रूप में ऑक्सीजन स्पा या कृत्रिम ऑक्सीजन वातावरण की
पेशकश पर बहस निरंतर जारी है। ऑक्सीजन स्पा के विचार पर अभी तक पेशेवर चिकित्सक
किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं। दूसरी ओर, पर्यावरणविद
वायु प्रदूषण से सम्बंधित समस्याओं के समाधान के रूप में अधिक से अधिक पेड़ लगाने
और शहरों में हरित आवरण बढ़ाने पर ज़ोर दे रहे हैं। वृक्षारोपण के समर्थक अक्सर इस
कथन का उपयोग करते हैं – “पेड़ हमें ऑक्सीजन देते हैं और हमें जीने के लिए ऑक्सीजन
ज़रूरी है।”
1970 के दशक में भी, वायुमंडलीय हवा में ऑक्सीजन की
कमी पर काफी अस्पष्टता थी। वॉलेस स्मिथ ब्रोकर का कहना है कि यदि सभी प्रकार के
जीवाश्म ईंधनों के भंडार को जला भी दिया जाए तब भी वायुमंडल में ऑक्सीजन के घटने
की कोई संभावना नहीं है। साथ ही, अपने लेख में उन्होंने यह भी
बताया है कि मानवजनित गतिविधियों के कारण जलीय पारिस्थितिक तंत्र में ऑक्सीजन (घुलित
ऑक्सीजन) की कमी होने की काफी संभावना है। वे कहते हैं, “ऐसे
सैकड़ों अन्य तरीके हैं जिनसे हम ऑक्सीजन आपूर्ति में मामूली-सा नुकसान करने से
पहले अपनी संतानों के भविष्य को खतरे में डाल सकते हैं।” वायुमंडल में ऑक्सीजन की
मात्रा 21 प्रतिशत है जिसमें अधिक बदलाव नहीं आया है। लगभग 2.5 अरब वर्ष पहले
स्थिति अलग थी;
उस समय का वातावरण ऑक्सीजन रहित था। भूवैज्ञानिकों और
वायुमंडलीय शोधकर्ताओं ने उस समय का अंदाज़ दिया है जब पृथ्वी के वायुमंडल में
ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हुई थी। इस घटना को ग्रेट ऑक्सीजनेशन इवेंट (महा-ऑक्सीकरण
घटना) का नाम दिया गया है। इस क्षेत्र में ज़्यादा स्पष्टता के लिए शोधकर्ता आज भी
काम कर रहे हैं।
ग्रेट ऑक्सीजनेशन इवेंट की समयावधि पर अनिश्चितता के बावजूद, वैज्ञानिकों के बीच इस बात पर सहमति है कि स्थलीय के साथ-साथ समुद्री स्वपोषी
जीवों से (प्रकाश संश्लेषण द्वारा) मुक्त ऑक्सीजन ने ग्रह पर जीवन को आकार दिया
है। एक पर्यावरण समर्थक की दलील है कि वायु प्रदूषण से निपटने का ज़्यादा प्रभावी
तरीका वृक्षारोपण है। कई अध्ययनों में इस बात का मापन करके साबित किया गया है कि
पेड़ सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), कण पदार्थों
(PM10) और ओज़ोन (O3) को हवा में से हटा सकते हैं। पेड़ों द्वारा कार्बन
डाईऑक्साइड (CO2) और अन्य गैसों को हटाना स्वाभाविक लग सकता है लेकिन पेड़ों की भी कुछ सीमाएं
होती हैं। इस संदर्भ में पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के बीच भिन्नता होती है।
वायु प्रदूषकों के विभिन्न स्तरों का पेड़ों की वृद्धि यानी चयापचय (प्रकाश
संश्लेषण और श्वसन दोनों) पर प्रभाव पड़ सकता है। यह अलग-अलग प्रजातियों की तनाव
सहन करने की क्षमता पर निर्भर करता है।
तकनीकी रूप से, वायु प्रदूषण वास्तव में हवा में अवांछनीय, हानिकारक गैसों और पदार्थों का जुड़ना है जो या तो प्राकृतिक रूप से या फिर
मानव-जनित गतिविधियों के माध्यम से आते हैं। शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता
कभी-कभी इतनी खराब हो जाती है जो श्वसन के लिए अनुपयुक्त होती है। जैसा कि पहले भी
बताया गया है कि वायुमंडलीय ऑक्सीजन की सांद्रता में तो कोई बदलाव नहीं आया है
लेकिन कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), SO2 और अन्य प्रदूषकों के शामिल
होने से यह अनुपयुक्त हो गई है। कुछ अध्ययनों में शहरी क्षेत्रों में ऑक्सीजन की
सांद्रता में कमी का उल्लेख हुआ है। हालांकि इस संदर्भ में काफी अनिश्चितता है, लेकिन वायु प्रदूषकों को दूर करने के लिए पेड़ों की संख्या में वृद्धि और
स्थानीय स्तर पर ऑक्सीजन की सांद्रता को बढ़ाकर वायु की गुणवत्ता में सुधार करना एक
तर्कसंगत विचार है। इससे एक सवाल उठता है: पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों द्वारा
कितनी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है और उसकी मात्रा कैसे नापी जाती है? यह सवाल शोध का विषय बना हुआ है।
प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन
प्रकाश संश्लेषण एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है जो पृथ्वी पर जीवन यापन के लिए
ऊर्जा प्रदान करती है। इस प्रक्रिया के दौरान, ऑक्सीजन
एक सह-उत्पाद के रूप में मुक्त होती है जिसने ग्रह के जैव विकास के इतिहास को ही
बदल दिया है। इसी प्रकार, पौधों में प्रकाशीय श्वसन की
प्रक्रिया उनकी वृद्धि और विकास को सुनिश्चित करती है। इसलिए प्रकाश संश्लेषण और
श्वसन ऐसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं हैं जिन्होंने शोधकर्ताओं को काफी उलझाया है।
विभिन्न स्वपोषी जीवों में प्रकाश संश्लेषण और श्वसन दर के मापन के प्रयास आज भी
पादप कार्यिकी में अनुसंधान का प्रमुख विषय है। पादप कार्यिकी अनुसंधान में यह
माना जाता है कि पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर गैस विनिमय की दर, यानी CO2 और O2 प्रवाह,
के बराबर होती है। अत: ओटो वारबर्ग जैसे शुरुआती शोधकर्ताओं
ने पौधों में प्रकाश संश्लेषण दर की मात्रा निर्धारित करने के लिए गैस विनिमय दर
के मापन का प्रयास किया था।
1937 में पृथक्कृत क्लोरोप्लास्ट से प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन मापन का प्रयास
किया गया था। इसी प्रकार के एक प्रयोग के माध्यम से, मेहलर
और ब्राउन ने ऑक्सीजन के समस्थानिक (18O2) का उपयोग करके यह साबित
किया था कि प्रकाश संश्लेषण के दौरान मुक्त ऑक्सीजन पानी के अणु के विभाजन से
प्राप्त होती है। 1980 के दशक में प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन मापन पर अन्य
महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से, ऑक्सीजन मापन का कार्य दो
स्थितियों में किया जाता है – एक जलीय (तरल माध्यम) में और दूसरा गैसीय माध्यम
में। मीठे पानी के अलावा समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में घुलित ऑक्सीजन मापन के लिए
भी काफी प्रभावी तरीके हैं। हालांकि, प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन
उत्सर्जन और मीठे पानी में घुलित ऑक्सीजन के बीच काफी अंतर होता है। कई शोधकर्ताओं
ने प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन के मापन के लिए कई विधियां और उपकरण विकसित किए हैं।
कई प्रयासों के बावजूद कुछ सवाल अनुत्तरित हैं। उदाहरण के लिए, जर्नल ऑफ प्लांट फिज़ियोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र पर
टिप्पणी में होलोवे फिलिप्स ने कहा था कि पिछले 20 वर्षों में सजीवों में in vivo (यानी स्वयं जीव के अंदर) ऑक्सीजन प्रवाह सम्बंधी अनुसंधानों में गिरावट आई है।
एक अन्य शोध कार्य में एकीकृत बायोसेंसर का उपयोग करके ऑक्सीजन की रियल-टाइम
इमेजिंग का भी प्रयास किया गया लेकिन यह अध्ययन पौधे से अलग की गई पत्तियों पर
किया गया था।
कुल मिलाकर,
ऐसा लगता है कि स्वपोषी जीवों द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन के
आकलन के लिए उपलब्ध विभिन्न तरीकों में से प्रत्येक के कुछ फायदे हैं तो कुछ
नुकसान भी हैं। इस विषय में 100 वर्षों से अधिक समय से चल रहे अनुसंधान के बाद भी
अनिश्चितता बनी हुई है। अर्थात शहरी पेड़ों के ऑक्सीजन उत्पादन के अनुमानों के बारे
में थोड़ा संदेह रखना ठीक है।
वृक्षों में ऑक्सीजन उत्पादन
ऐसे अध्ययन भी हुए हैं जो पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा (कभी-कभी तो
धन के रूप में) निर्धारित करते हैं। पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा
निर्धारित करने के लिए व्यापक रूप से दो तरीके अपनाए जाते हैं:
(i)
शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता (नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी या
एनपीपी) का मापन एक पोर्टेबल प्रकाश संश्लेषी यंत्र की मदद से किया जाता है। इसकी
मदद से यह पता चल जाता है कि पत्ती ने एक निश्चित समय में कितनी कार्बन डाईऑक्साइड
का अंगीकरण किया है। इसके आधार पर मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा (पत्ती के प्रति इकाई
क्षेत्रफल) की गणना की जाती है।
(ii) कार्बन के स्थिरीकरण के आधार
पर मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित करने के एक अनुभवजन्य समीकरण का उपयोग भी
किया जा सकता है।
दोनों ही तरीके श्वसन प्रक्रिया के दौरान ऑक्सीजन खपत को ध्यान में रखते हुए
एक पेड़ द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन की नेट मात्रा निर्धारित करते हैं। इन दोनों ही विधियों
में व्यापक अंतर है। पहली विधि में कुल ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा एक विशिष्ट
समयावधि की ज्ञात होती है क्योंकि उसका मापन पत्तियों की वास्तविक संख्या और
पत्तियों की अन्य विशेषताओं (जैसे वाष्पोत्सर्जन दर, रंध्री
प्रवाह,
अंत: कोशिकीय CO2 सांद्रता और अन्य
मापदंडों) पर निर्भर करता है। और दूसरी विधि पेड़ द्वारा उस समय तक उत्पादित कुल
ऑक्सीजन का मापन करती है क्योंकि यह अतीत में स्थिरीकृत कार्बन पर निर्भर है। इस
विधि में यह भी माना जाता है कि कार्बन स्थिरीकरण की उच्च मात्रा का मतलब यह है कि
कुल ऑक्सीजन उत्पादन भी अधिक है। इसके अलावा, अनुभवजन्य
पद्धति का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इसमें पेड़ की प्रकृति, उसकी
विकास दर,
वृक्ष की बनावट और पत्ती के क्षेत्रफल आदि का ध्यान नहीं
रखा जाता है। उदाहरण के तौर पर, अनुभवजन्य समीकरण के आधार पर
कैज़ोरीना जैसे तेज़ी से बढ़ने वाले पेड़ों का ऑक्सीजन उत्पादन भी अधिक होता है।
वास्तव में,
किसी पेड़ द्वारा अपने अब तक के जीवन काल में उत्सर्जित
ऑक्सीजन की बजाय ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता का अनुमान लगाना अधिक महत्व रखता है।
गंभीर मुद्दा: समय की ज़रूरत
प्रकाश संश्लेषण और प्रकाश श्वसन दर मापन के वैज्ञानिक प्रयास सदियों पुराने
हैं। शोधकर्ता सटीक और अचूक अनुमान लगाने के तरीकों पर काम कर रहे हैं। कुछ
अध्ययनों को छोड़कर पेड़ों से उत्सर्जित ऑक्सीजन या ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता अब तक
वैज्ञानिक सवाल नहीं रहा है। हालांकि, तरीकों पर सहमति के अभाव
के चलते,
ऑक्सीजन उत्सर्जन या उत्पादन के आधार पर पेड़ों के मूल्यांकन
को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। लेकिन इस विषय पर विशेष रूप से ध्यान देने की
ज़रूरत है क्योंकि कुछ वृक्ष प्रजातियों की उच्च ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता को लेकर
गलत सूचनाएं व्याप्त हैं।
खास तौर पर बंगाल फ्लाईओवर परियोजना से सम्बंधित मुकदमे को देखा जा सकता है।
स्थानीय प्रशासन ने पुलों के निर्माण के लिए 356 पेड़ों को काटने का प्रस्ताव रखा
था। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्सर्जित करने के आधार पर
पेड़ों के महत्व का विचार पेश किया। बाद में शीर्ष अदालत में इसी विचार के आधार पर
कृष्णा-गोदावरी सड़क परियोजना के लिए 2940 पेड़ों को काटने की अनुमति नहीं दी गई।
आम तौर पर,
पेड़ों की क्षतिपूर्ति उनकी इमारती लकड़ी और जैव-पदार्थ मान
के आधार पर की जाती है। इस मान को या तो वृद्धि समीकरणों या उपज तालिकाओं और
कभी-कभी वास्तविक जैव-पदार्थ मापन के आधार पर निर्धारित किया जाता है। भारतीय
संदर्भ में पेड़ों के कुल वर्तमान मूल्य का अनुमान लगाने से लिए अधिक व्यवस्थित
विधियों का उपयोग भी किया जा रहा है।
वास्तव में विवाद पेड़ों के मूल्यांकन की पद्धति का नहीं बल्कि ऑक्सीजन के
स्रोत के रूप में उनकी उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकन का है। देखा जाए तो शहरी
पेड़ों या शहरी हरियाली के कई अन्य लाभ भी हैं, तो
क्या हमें वास्तव में शहरी पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की चिंता करने की ज़रूरत
है?
इसके साथ ही, क्या पेड़ों द्वारा मुक्त
ऑक्सीजन वास्तव में हमारी सांस की हवा की गुणवत्ता में सुधार करती है? यह सवाल इसलिए उभरकर सामने आता है क्योंकि हमारे समक्ष ऐसे अध्ययन हैं जिनमें
यह बताया गया है कि शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता SO2, PM2.5 या PM10 जैसे प्रदूषकों के कारण खराब हुई है, लेकिन
इस बात का समर्थन करने के लिए पर्याप्त अध्ययन नहीं हैं कि शहरी क्षेत्रों में
ऑक्सीजन सांद्रता आसपास हरियाली वाले क्षेत्रों की तुलना में कम है।
इसी तरह, भारत में ऐसी मान्यता है कि कुछ वृक्षों जैसे बरगद (फायकस बेंगालेंसिस), पीपल (फायकस रिलीजिओसा), नीम (एज़ाडिरेक्टा इंडिका) आदि में उच्च ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता होती है। इस विषय में अधिक वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है ताकि शहरी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में कुछ वृक्ष प्रजातियों के प्रभुत्व को रोका जा सके। हाल ही में, शोधकर्ता शहरी क्षेत्रों की हरियाली और शहरी वनों का उपयोगिता मूल्य बढ़ाने के लिए पेड़ों में विविधता की हिमायत कर रहे हैं। इसके अलावा, शहरी क्षेत्रों में रोपण के लिए वृक्ष प्रजातियों को उनकी उपयोगिता के आधार पर प्राथमिकता देने का विचार कई परिस्थितियों में भ्रामक हो सकता है। क्योंकि ऐसा कोई भी चयन स्थान-विशिष्ट होना चाहिए न कि हर जगह के लिए एक-सा। अच्छा तो यह होगा कि शहरी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में स्थानीय वृक्ष प्रजातियां पहली पसंद हों, जब तक किसी प्रजाति का खास तौर से PM2.5 निवारण या ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता जैसे उपयोगिता मूल्यों के आधार पर सुव्यवस्थित मूल्यांकन न हो जाए। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइन्स (सितंबर 2021) में प्रकाशित हुआ था। सुरेश रमणन एस. केन्द्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान, झांसी तथा अन्य तीन लेखक केन्द्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://wiki.nurserylive.com/uploads/default/original/2X/3/3bb4636ee45a843ce874be470ed7d988530fa535.jpg
गर्म शहरी टापुओं का तापमान बढ़ाने में डामर की सड़कें भी
भूमिका निभाती हैं। हाल ही में एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी और फीनिक्स शहर द्वारा
किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि डामर की सड़क पर भूरे रंग की परावर्तक पुताई
करने से सड़क की सतह के औसत तापमान में 6 से 7 डिग्री सेल्सियस की कमी आती है, और सुबह के समय तापमान में औसतन 1 डिग्री सेल्सियस की गिरावट देखी गई।
गर्मी के दिनों में फीनिक्स शहर की सड़कें 82 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाती
हैं। सड़कों द्वारा अवशोषित यह ऊष्मा रात में वापस वातावरण में फैल जाती है, फलस्वरूप रात का तापमान बढ़ जाता है। और रात गर्म होने से सुबहें भी गर्म होती
है। इस तरह गर्मी का यह चक्र चलता ही रहता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि सड़कों को परावर्तक रंग से पोतने के बाद तापमान में
सबसे अधिक अंतर सड़क की सतह के पास पड़ा था और सबसे कम अंतर जमीन से 6 फीट ऊपर था।
फिर भी,
डामर की काली सड़कों की तुलना में परावर्तक से पुती सड़कों
के पास की जगह पर दिन-रात के तापमान में थोड़ी कमी तो आई थी।
लेकिन ऐसी पुताई सारी सतहों पर एक-सा असर नहीं डालतीं। एरिज़ोना की शहरी
जलवायु विज्ञानी और सहायक प्रोफेसर एरियन मिडल का कहना है कि तापमान मापने का
सार्थक तरीका विकिरण आधारित होगा अर्थात यह देखा जाए कि शरीर गर्मी का अनुभव कैसे
करता है।
जब शोधकर्ता ताप संवेदी यंत्रों से लैस एक छोटी गाड़ी लेकर परावर्तक सड़कों पर
चले तो पता चला कि सतह से परावर्तन के कारण दोपहर और दोपहर के बाद लोग सबसे अधिक
गर्मी महसूस करते हैं, लेकिन यह गर्मी कांक्रीट के फुटपाथों जैसी
ही थी। यानी सतह के तापमान में तो कमी होती है लेकिन व्यक्ति द्वारा महसूस की गई
गर्मी अधिक होती है।
फीनिक्स स्ट्रीट ट्रांसपोर्टेशन डिपार्टमेंट की प्रवक्ता हीदर मर्फी का कहना
है कि सड़कों को पोतने के बाद लोगों की प्रतिक्रिया प्राय: सकारात्मक रही। चकाचौंध
और दृश्यता के बारे में कुछ चिंता ज़रूर ज़ाहिर हुई लेकिन पता चला कि सड़क सूखने
के बाद यह दिक्कत भी जाती रही।
वैसे तो अभी और अध्ययन किए जाएंगे लेकिन अधिकारी चेताते हैं कि शहरी गर्मी से बचने के लिए सड़कों को रंगना कोई रामबाण उपाय नहीं है। इन सड़कों पर खड़े होंगे तो गर्मी तो लगेगी, छाया का सहारा तो लेना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.adsttc.com/media/images/5ae0/9314/f197/cccc/c100/0069/newsletter/white-streets-heat-climate-change-los-angeles-2.jpg?1524667152