अफ्रीका के सबसे मशहूर पेड़ की उम्र निर्धारित की गई

मुख्य रूप से अफ्रीका में पाए जाने वाले अफ्रीकी बाओबाब या गोरखचिंच वृक्ष पृथ्वी पर पाए जाने वाले विचित्र वृक्षों में से हैं। इनका तना बोतल या किसी मर्तबान की तरह होता है – अंदर से खोखला। अब वैज्ञानिकों ने जिम्बाब्वे के विक्टोरिया फॉल्स स्थित प्रसिद्ध बाओबाब वृक्ष बिग ट्री की उम्र पता कर ली है।

बिग ट्री ज़मीन के ऊपर लगभग 25 मीटर ऊंचा है। इसमें पांच मुख्य तने, तीन युवा तने और एक जाली तना है, जो मिलकर इसे एक छल्ले जैसा आकार देते हैं। दरअसल, अन्य वृक्षों की तुलना में बाओबाब वृक्ष की उम्र पता करना थोड़ा पेचीदा काम है। सामान्यत: वृक्षों के वार्षिक वलयों की गिनती के आधार पर उनकी उम्र निर्धारित की जाती है। लेकिन बाओबाब के वृक्ष कुछ वर्ष तो कोई वलय नहीं बनाते और कुछ वर्ष एक से अधिक वलय बनाते हैं इसलिए सिर्फ वलय गिनकर इनकी उम्र पता नहीं लगती।

इसलिए शोधकर्ताओं ने रेडियोकार्बन डेटिंग विधि की ओर रुख किया। उन्होंने बिग ट्री से लिए गए नमूनों में कार्बन के दो समस्थानिकों का अनुपात पता किया। इनमें से एक समस्थानिक (कार्बन-14) अस्थिर होता है जबकि दूसरा (कार्बन-12) टिकाऊ होता है। विधि का आधार यह है कि वायुममडल में जो कार्बन डाईऑक्साइड पाई जाती है उसमें कार्बन-14 का एक निश्चित अनुपात होता है। इसी कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण में करते हैं। इसलिए जब तक वे जीवित हैं उनमें कार्बन-14 का वही स्तर मिलता है। मृत हो जाने पर कार्बन-14 का एक निश्चित गति से विघटन होता रहता है, इसलिए उसका अनुपात कम होता जाता है। तो कार्बन-14 और कार्बन-12 के अनुपात से बताया जा सकता है कि कोई ऊतक कब मृत हो गया था। पाया गया कि बाओबाब के तने तीन अलग-अलग समय के हैं: 1000-1100 वर्ष, 600-700 वर्ष, और 200-250 वर्ष पुराने। डेंड्रोक्रोनोलॉजिया में शोधकर्ता ने बताया है कि सबसे प्राचीन तना लगभग 1150 साल पुराना है।

बाओबाब की यह उम्र पूर्व में बाओबाब के आकार के आधार निर्धारित की गई उम्र से अधिक है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस वृक्ष की अपेक्षाकृत धीमी वृद्धि का कारण इस क्षेत्र में लगातार आने वाले तूफान हैं।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि रेडियोकार्बन तकनीक का उपयोग जटिल वृद्धि वाले पेड़ों की उम्र पता करने के लिए किया जा सकता है। इस तरह के वृक्षों की उम्र निर्धारित करना इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इससे पता चलता है कि इन्होंने अतीत में जलवायु परिवर्तन को किस तरह झेला है – हाल के वर्षों में संभवत: जलवायु परिवर्तन के चलते हर छह में से पांच विशाल अफ्रीकी बाओबाब की मृत्यु हुई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्रिप्टोकरेंसी और भारत की अर्थ व्यवस्था – 2 – सोमेश केलकर

यह लेख “क्या है बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी-1” (https://bit.ly/3EQACFn) का दूसरा भाग है। यदि आपने लेख का पहला भाग नहीं पढ़ा है और/या क्रिप्टोकरेंसी के काम करने की प्रणाली को नहीं समझते हैं तो आप पहला भाग ज़रूर पढ़ें।

हाल ही में, चीन सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी को अवैध घोषित करते हुए इसके क्रय-विक्रय, माइनिंग (खनन), मिंटिंग और व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। अमेरिका के कुछ नीति निर्माताओं ने भी क्रिप्टोकरेंसी की वैधता और खरेपन पर सवाल उठाया है। कई सीनेटरों ने तो इसे “असली पैसे का घटिया विकल्प” कहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और भारत सरकार ने भी क्रिप्टोकरेंसी के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने की ठान ली है। ऐसी अफवाह है कि निजी क्रिप्टोकरेंसी के विरुद्ध एक विधेयक पर काम किया जा रहा है और इस वर्ष के अंत तक इसे संसद में प्रस्तुत किया जाएगा। सवाल यह उठता है कि सरकारों और नीति निर्माताओं को क्रिप्टोकरेंसी इतनी नापसंद क्यों है? आइए इसके कारणों पर एक नज़र डालते हैं।

1. नियंत्रण खो देने का डर

सरकारों द्वारा क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करने का कारण क्रिप्टोकरेंसियों का दोहरा उद्देश्य है। क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग निवेश के साधन के साथ-साथ खरीद के साधन के रूप में भी किया जा सकता है। चूंकि इसे क्रय-विक्रय के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, सरकार के स्वामित्व वाले केंद्रीय बैंकों द्वारा जारी की गई अधिकारिक मुद्रा के साथ प्रतिस्पर्धा का खतरा है।

वास्तव में सरकारें नियंत्रण चाहती हैं और क्रिप्टोकरेंसियां इस नियंत्रण को चुनौती देती हैं। हमारी पारंपरिक मुद्रा प्रणाली में लेन-देन की वैधता प्रमाणित करने और सत्यापन पर बैंकों का एकाधिकार होता है जिससे सरकारों को यह पता करना आसान हो जाता है कि किसके पास कितनी धनराशि है जो कर-निर्धारण के लिए ज़रूरी है।

विकेंद्रीकरण से भी नियंत्रण में कमी आती है, अधिदिश्ट (यानी सरकारी आदेश से प्रचलित) मुद्रा से सरकारें आसानी से चीज़ों को नियंत्रण में रख सकती हैं। उदाहरण के लिए, सरकारें प्रचलित मुद्रा को नोटबंदी के माध्यम से समाप्त कर सकती हैं और नई मुद्रा छाप सकती हैं। अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए सरकारें मौद्रिक नीति में बदलाव भी कर सकती हैं। दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियां केंद्रीय प्राधिकरण को नियंत्रण की कोई गुंजाइश नहीं देतीं और इसलिए क्रिप्टोकरेंसियों को कानूनी वैधता मिलने से सरकारों के लिए मौद्रिक नीतियों का नियमन कर पाना संभव नहीं होगा।       

2. क्रिप्टो-अपराध की संभावना

क्रिप्टोकरेंसी का विकेंद्रीकृत स्वरूप इसका सबसे बड़ा गुण होने के साथ-साथ सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। एक ओर, जहां निजता एक मौलिक अधिकार है, वहीं दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियों से हासिल गुमनामी से लोगों को जासूसी, हत्या, ड्रग व्यापार, आतंकी फंडिंग, साइबर-अपराध जैसी गतिविधियों में लिप्त होने का मौका भी मिलता है। क्रिप्टोकरेंसियों की गुमनाम प्रकृति के चलते कानून का उल्लंघन करने वालों पर नकेल कसना काफी कठिन हो जाता है।

क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, धोखाधड़ी और अनाधिकृत लेनदेन की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं। ऐसे में प्रभावित लोगों को न्याय दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती है जबकि उसका इन मुद्राओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता।            

3. केंद्रीय बैंकों पर खतरा

एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें क्रिप्टोकरेंसी किसी देश की एकमात्र वैध मुद्रा बन जाती है। इस स्थिति में, मुद्रा की विकेंद्रीकृत प्रकृति के कारण, केंद्रीय बैंक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी क्योंकि तब किसी भी लेन-देन को मान्य या सत्यापित करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।

सरकारें केंद्रीय बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की मदद से देश के वित्त और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करती हैं। बिटकॉइन और अन्य विकेंद्रीकृत क्रिप्टोकरेंसियों की बढ़ती लोकप्रियता से विश्व भर के कई केंद्रीय बैंकों ने अपना व्यवसाय खो दिया है और सम्बंधित सरकारों को भी नुकसान हुआ है।  

4. अस्थिरता

एक और परिदृश्य की कल्पना कीजिए जब आप एक रबड़ खरीदने के लिए एक रुपया खर्च करते हैं और अगले ही दिन आपको पता चलता है कि यदि एक दिन इंतज़ार करते तो इसी एक रुपए से 10 ग्राम सोना खरीद सकते थे। अच्छी बात है कि रुपए की क्रय शक्ति में प्रतिदिन इतना उतार-चढ़ाव नहीं होता है।  

क्रिप्टोकरेंसी के अत्यधिक अस्थिर मूल्य की समस्या का यह एक उदाहरण है। इसी समस्या का दूसरा पहलू शायद नीति निर्माताओं के लिए और भी गंभीर है। क्रय शक्ति के आधार पर यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कोई व्यक्ति कितना अमीर या गरीब है। एक दिन आपके पास इतनी संपत्ति होगी जिससे आप अपना शेष जीवन आराम से व्यतीत कर सकते हैं और अगले ही दिन आपकी सारी संपत्ति एक माचिस की डिबिया के मूल्य के बराबर होगी। इस स्थिति में नीति निर्माताओं को मौद्रिक और कराधान नीतियों को लागू करना अत्यंत कठिन हो जाएगा।    

यदि रुपया क्रय शक्ति के मामले में इतना अस्थिर रहता है तो हमें एक ऐसी लचीली कराधान दर की आवश्यकता होगी जो हर घंटे परिवर्तित होती रहे।

क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार अपनी अस्थिर प्रकृति, उच्च जोखिम और उच्च लाभ के लिए जाना जाता है। इसी कारण क्रिप्टोकरेंसी को खरीद के साधन या मुद्रा के रूप में उपयोग करना कठिन हो जाता है। यह पारंपरिक कागज़ी मुद्रा की तुलना में काफी नई है तथा इसे उपयोग में लाए काफी समय भी नहीं हुआ है। ऐसे में मुद्रा के रूप में इसकी उपयोगिता भी कमज़ोर दिख रही है।        

5. मुद्रा आपूर्ति में धन का अभाव

क्रिप्टोकरेंसियां विकेंद्रीकृत होती हैं और इसलिए यह कोई भी नहीं जानता कि अधिदिश्ट मुद्रा के बदले क्रिप्टोकरेंसी खरीदने पर निवेशक के बैंक से पैसा जाता कहां है। क्रिप्टोकरेंसी को खरीदने वाला व्यक्ति दुनिया में कहीं का भी हो सकता है और बेचने वाला व्यक्ति भी दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है। इससे नीति निर्माताओं को काफी समस्या होती है।            

यदि आरबीआई अर्थव्यवस्था में प्रचलन के लिए 100 रुपए जारी करे और कोई निवेशक इनमें से 10 रुपए क्रिप्टोकरेंसी में निवेश कर दे तो अर्थ व्यवस्था में केवल 90 रुपए ही बचेंगे। क्रिप्टोकरेंसियां अर्थव्यवस्था में उपलब्ध धन राशि को कम कर सकती हैं और एक बार इन वित्तीय साधनों में निवेश होने पर कोई भी नीति निर्माता इस पैसे को ट्रैक नहीं कर सकता है। यह एक और समस्या है जिसके कारण नीति निर्माता क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करते हैं।        

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

अनुमान है कि 2021 तक, भारत में लगभग 1 करोड़ खुदरा क्रिप्टोकरेंसी निवेशक थे। और क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार में लगातार वृद्धि हो रही है।

भले ही भारतीय निवेशकों में क्रिप्टोकरेंसियों के प्रति उत्साह दिख रहा हो, लेकिन अवैध गतिविधियों के लिए उपयोग होने की आशंका के कारण लाखों निवेशक क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने से कतरा भी रहे हैं। अनियंत्रित प्रकृति के चलते क्रिप्टोकरेंसियों को गैर-कानूनी मुद्रा मान लिया जाता है।

आने वाले बजट सत्र में क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021 को प्रस्तुत करने की घोषणा ने निवेशकों के विश्वास को डगमगा दिया है। अनुमान है कि विधेयक क्रिप्टोकरेंसी के प्रतिकूल होगा।    

यदि भारत क्रिप्टोकरेंसी और ब्लॉकचेन तकनीक का ठीक से नियमन करना सीख जाए और क्रिप्टोकरेंसी से उत्पन्न आय पर कर लगाने की प्रणाली विकसित कर ले तो भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है। ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में भी अपनाया जा सकता है।

वित्त मंत्री के अनुसार सरकार की योजना क्रिप्टोकरेंसी के लिए नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाने की है। हालांकि, सरकार द्वारा ‘नपे-तुले’ दृष्टिकोण में अस्पष्टता से भारतीय क्रिप्टोकरेंसी निवेशकों और प्लेटफॉर्म्स के बीच पूर्ण प्रतिबंध का डर बना हुआ है।

इतिहास पर नज़र डालें तो इस प्रकार के प्रतिबंध अक्सर अप्रभावी रहे हैं। प्रतिबंध भविष्य में होने वाले नवाचारों को खत्म कर देगा। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए नियामक ढांचा आवश्यक नहीं है। यहां कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और नियामक जोखिमों पर चर्चा की गई है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं।     

1. सुपरिभाषित कानूनों का अभाव

किसी भी तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए अनिवार्य है कि मानकों का निर्धारण कर लिया जाए। क्योंकि डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर तकनीक (जिसे ब्लॉकचेन कहा जाता है) अभी भी विकसित हो रही है, दुनिया भर के नियामक और नीति निर्माता इस तरह की तकनीक के निहितार्थ का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका और जापान जैसे देश नियामक ढांचा विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई ढांचा सामने नहीं आया है।   

2. स्वामित्व और न्याय-क्षेत्र में अस्पष्टता

एक डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर तकनीक का मूल सिद्धांत यह है कि इसके नेटवर्क से जुड़े सभी लोगों के पास लेजर की एक प्रति होती है जिसके चलते लेजर का वास्तविक स्थान जानने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, ब्लॉकचेन पर किए गए लेनदेन पारंपरिक बैंकिंग की तुलना में उच्चतर गोपनीयता प्रदान करते हैं। हालांकि, यह एक अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इससे न्यायिक क्षेत्राधिकार का मुद्दा भी उठता है – यदि कोई इस विशेषता का लाभ उठाना चाहे तो निपटना मुश्किल होगा।

हो सकता है कि क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग करके किए गए विभिन्न लेनदेन ऐसे अलग-अलग कानूनी ढांचों के अंतर्गत आते हों जो एक दूसरे के विपरीत हों। जैसे मैं जापान में किसी के साथ लेनदेन करता हूं और वहां की सरकार और मेरी सरकार की नीतियां परस्पर विरोधी हों। इसी क्रम में एक और मुद्दा बहीखाते का कोई भौतिक स्थान न होना है जिसके कारण क्रिप्टोकरेंसियों का ‘मूल देश’ निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, चूंकि ब्लॉकचेंस राष्ट्र-पारी हो सकते हैं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय विवादों की स्थिति में सम्बंधित देशों के नीति निर्माताओं के लिए प्रासंगिक कानून और न्याय-क्षेत्र का निर्धारण करना एक बड़ा सिरदर्द हो सकता है। नीति-निर्माताओं के लिए एक कठिन काम होगा कि वे विभिन्न उपयोगकर्ताओं, विनिमयों और परियोजनाओं के बीच कानून को कैसे लागू करेंगे।    

3. अनिश्चित वर्गीकरण

जहां तक कराधान का सवाल है, विभिन्न देशों के बीच क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कोई स्पष्ट सहमति नहीं है कि यह है क्या। क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति, मुद्रा, कमोडिटी जैसी विभिन्न श्रेणियों में रखने पर विचार चल ही रहा है। 

अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार ऐसी संभावना है कि भारत सरकार क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति श्रेणी में रख सकती है। भारत सरकार की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिले हैं। यह केवल क्रिप्टोकरेंसी के कराधान के मुद्दे को और उलझाएगा।  

4. हवाला के मुद्दे

क्रिप्टोकरेंसी के विरोध का प्रमुख कारण यह रहा है कि इनका उपयोग धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग  और अन्य अपराधों के लिए किया जा सकता है। क्रिप्टोकरेंसियों का गुमनाम स्वरूप इनके दुरुपयोग की संभावना का प्रमुख कारण माना जाता है। क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग डीप-वेब की अवैध वेबसाइटों पर किया जाता है जहां अपराधी अवैध सामग्री (जैसे बंदूक, गोला-बारूद, विस्फोटक, ड्रग्स, रेडियोधर्मी पदार्थ) का लेनदेन कर सकते हैं या अवैध निगरानी, जासूसी और हत्या जैसी ‘सेवाएं’ खरीद सकते हैं।   

5. डैटा चोरी की संभावना

क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, किसी भी अन्य वित्तीय साधन के समान इसमें भी डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के जोखिम तो हैं ही। इनकी ब्लॉकचेन के कोड में खामियां रह जाएं तो अपराधी इसका फायदा उठा सकते हैं और गुमनामी के गुण के चलते ऐसे अपराधियों को ट्रैक करना काफी कठिन होगा।

कॉर्नेल युनिवर्सिटी के एक शोध में पिछले वर्ष एथेरियम (एक क्रिप्टोकरेंसी) के ब्लॉकचेन में एक गंभीर सुरक्षा खामी का पता चला था। इस शोध रिपोर्ट में बताया गया था कि यदि इस खामी का फायदा उठा लिया जाता तो एथेरियम उपयोगकर्ताओं और निवेशकों को 25 करोड़ डॉलर की चपत लग सकती थी। इसी तरह, क्रिप्टोकरेंसी वॉलेट निर्माता ‘लेजर’ के डैटा में सेंध के कारण 10 लाख ग्राहकों के नाम, पते और फोन नंबर सहित ईमेल भी उजागर हो गए थे। अभी यह देखना बाकी है कि मौजूदा डैटा प्रोटोकॉल की मदद से क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है या नहीं।      

6. निवेशकों की चिंताएं

युनाइटेड किंगडम, जापान, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों द्वारा बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसियों को वैध घोषित करने के बावजूद विभिन्न देशों के बीच लेनदेन की कानूनी वैधता का सवाल अभी भी बना हुआ है।

सोने और चांदी के मूल्यों के विपरीत, क्रिप्टोकरेंसी विशुद्ध रूप से एक काल्पनिक धन है जो बिना किसी केंद्रीकृत प्राधिकरण की आवश्यकता के गणित और अर्थशास्त्र पर काम करता है और किसी भी भौतिक संपत्ति द्वारा समर्थित नहीं है। केंद्रीकृत नियमों के अभाव में, निवेशकों के क्रिप्टोकरेंसी सम्बंधित विवादों को सुलझाने के तरीके का सवाल अभी भी अनुत्तरित है।    

भारत का रुख

लगभग 5 वर्षों से, भारत में क्रिप्टोकरेंसियों के विषय पर उहापोह जारी है। जब पता चला कि देश में क्रिप्टोकरेंसियों के माध्यम से धोखाधड़ी की जा रही हैं, तो अप्रैल 2018 में, आरबीआई ने बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को क्रिप्टोकरेंसी में लेनदेन करने से प्रतिबंधित कर दिया। इसके निम्नलिखित कारण बताए गए:  

1. क्रिप्टोकरेंसी की प्रकृति अत्यधिक अटकल-आधारित है जो उन्हें एक अत्यंत अस्थिर निवेश बनती है।

2. क्रिप्टोकरेंसी की गुमनाम प्रकृति इसे अवैध गतिविधियों, हवाला और कर चोरी के माध्यम के रूप में उपयोग करने के लिए उपयुक्त बनाती है।

3. क्रिप्टोकरेंसी माइनिंग बहुत अधिक ऊर्जा खाता है जो देश की ऊर्जा सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

4. आरबीआई अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसियों की आपूर्ति को नियंत्रित नहीं कर सकता है।  

आरबीआई द्वारा उठाए गए ये बिंदु वास्तव में उचित और सशक्त हैं। सरकार ने क्रिप्टकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास तो किया लेकिन फरवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसको प्रतिबंधित करने के बजाय विनियमित करने का सुझाव दिया। सुझाव में कहा गया कि क्रिप्टोकरेंसियों को माल और सेवाओं की खरीद के लिए भुगतान के वैध तरीके के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, ज़रूरत सिर्फ इतनी है कि आरबीआई इसका नियमन करे।

प्रतिबंध लगाने का शायद कोई फायदा न हो क्योंकि लोग इससे निपटने के तरीके खोज सकते हैं। लोग भारत के बाहर स्थित एक्सचेंजों के ज़रिए व्यापार कर सकते हैं जो आरबीआई को इस समीकरण से पूरी तरह बाहर कर देगा। भारत के कई स्टार्ट-अप्स ने ठीक वैसा ही किया है।

प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को नकारात्मक संदेश भेजेगा और निवेश के एक आकर्षक गंतव्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करेगा।

आखिरकार, मार्च 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को असंवैधानिक करार दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने एक कारण यह भी बताया कि भले ही भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन नहीं किया जा रहा है लेकिन वे निहित रूप से अवैध नहीं है।

विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत में क्रिप्टोकरेंसी में अनुमानित 10,000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से होने वाली आय का उचित कराधान सुनिश्चित करने के लिए सरकारी विनियमन पर काम किया जा रहा है। आरबीआई द्वारा खुद की क्रिप्टोकरेंसी शुरू करने की भी योजना है। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने एक बयान में कहा कि ‘सेंट्रल बैंक की डिजिटल करेंसी पर काम जारी है। आरबीआई की टीम इसके तकनीकी और प्रक्रियात्मक पक्षों पर काम कर रही है ताकि जनता के बीच इसकी शुरुआत हो सके।’   

कुछ ही दिनों पहले, नाइजीरिया के राष्ट्रपति मुहम्मद बुहारी ने गर्व के साथ यह घोषणा की कि ‘नाइजीरिया अफ्रीका का ऐसा पहला और विश्व के पहले देशों में से है जिसने अपने नागरिकों के लिए डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है।’ सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्रा ई-नाइरा को शुरू करने का उद्देश्य कागज़ी नाइरा को पूरी तरह से बदलने की बजाय उसे पूरक के तौर पर उपयोग करना है। इस तरह नाइजीरिया उन 7 देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने आधिकारिक तौर पर अपने केंद्रीय बैंक की डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है। एटलांटिक काउंसिल की सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी ट्रैकिंग वेबसाइट के अनुसार चीन जैसे 16 अन्य देश अभी भी इसके प्रायोगिक चरण में हैं।  

अन्य प्रमुख चिंताएं

नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बिटकॉइन और अन्य लोकप्रिय मुद्राएं पहले से कहीं आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन अभी भी मुट्ठीभर लोग ही अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार को नियंत्रित कर रहे हैं। इस अध्ययन में पता चला है कि फिलहाल शीर्ष 10,000 बिटकॉइन निवेशक सभी क्रिप्टोकरेंसियों के लगभग 33% बाज़ार को नियंत्रित करते हैं।  

यह भी पता चल पाया कि 2020 में शीर्ष 10,000 बिटकॉइन मालिकों के पास लगभग 85 लाख बिटकॉइन थे जबकि शीर्ष समूहों के पास इसी अवधि में लगभग 50 लाख बिटकॉइन थे। यह भी स्पष्ट हुआ कि इन शीर्ष 10,000 निवेशकों में से शीर्ष 1000 निवेशक लगभग 30 लाख बिटकॉइन के मालिक हैं।     

माइनिंग (यदि आप माइनिंग के बारे में नहीं जानते हैं या आपको 51% अटैक के बारे में कोई जानकारी नहीं है तो इस लेख का पहला भाग देखें) की ओर ध्यान दिया जाए तो चीज़ें और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं। ब्यूरो ने पाया कि शीर्ष 10% माइनर्स लगभग 90% माइनिंग कार्यों को नियंत्रित करते हैं और इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि लगभग आधे माइनिंग आउटपुट शीर्ष 0.1% माइनर्स के नियंत्रण में हैं। इस परिस्थिित से एक भयावह विचार सामने आता है: यदि किसी समूह के पास क्रिप्टोकरेंसी नेटवर्क की कम्प्यूटेशनल शक्ति के 51% से अधिक का स्वामित्व हो तो वे अधिकांश नेटवर्क को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं।      

डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021

अनुमान है कि ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ में सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों को प्रतिबंधित किया जाएगा और आरबीआई द्वारा संचालित‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा’ के लिए एक नियामक ढांचा तैयार किया जाएगा जो वर्तमान बैंकिंग प्रणाली के साथ काम करेगा। अभी के लिए हम सिर्फ इतना जानते हैं कि विधेयक को इस वर्ष के केंद्रीय बजट सत्र 2021-22 पेश किया गया था और फिर चर्चा और योजना पर काम किया जा रहा है।

ऐसी भी संभावना है कि सरकार द्वारा निवेशकों को ट्रेडिंग, माइनिंग और क्रिप्टोकरेंसी जारी करने के लिए 3 से 6 महीने लंबी निकासी अवधि प्रदान की जाएगी। एक उच्च-स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि सरकार को सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

आरबीआई का विचार 

आरबीआई ने कहा है कि उसकी टीम बाज़ार संरचना में सुधार के लिए डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर टेक्नॉलॉजी के संभावित अनुप्रयोगों की खोज कर रही है। केंद्रीय बैंक की वैध डिजिटल मुद्रा की शुरुआत पर भी विचार चल रहा है। लगता है कि सरकार भी आरबीआई की डिजिटल मुद्रा के पक्ष में है जो निजी क्रिप्टोकरेंसी से प्रतिस्पर्धा कर सके।

बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 80% केंद्रीय बैंकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने पहले से ही सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्राओं के संभावित लाभों को समाविष्ट करना या डिजिटल मुद्राओं के उपयोग की खोज शुरू कर दी है।

क्रिप्टोकरेंसी स्टार्ट-अप्स

वर्तमान में भारत में 200 से अधिक ब्लॉकचेन स्टार्ट-अप काम कर रहे हैं जिनमें से अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी स्पेस के डीलर हैं।

अप्रैल 2018 में आरबीआई ने सभी बैंकों को अधिसूचित किया कि वे भारत में क्रिप्टोकरेंसी से सम्बंधित सभी सौदों को प्रतिबंधित और रिपोर्ट करें। इन स्टार्ट-अप्स को अप्रैल 2019 में राहत मिली जब भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने आरबीआई और सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए क्रिप्टोकरेंसियों पर लगा प्रतिबंध हटा दिया।  लेकिन अनुमानित ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ के ज़रिए यदि निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाता है तो हालात बदल सकते हैं।  

निष्कर्ष

क्रिप्टोकरेंसियों के मामले में प्रतिबंध केवल सरकार, केंद्रीय बैंकों और कर एजेंसियों को उन लाभों को प्राप्त करने से वंचित कर देगा जो क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली की कमियों के बाद भी उन्हें प्राप्त हो सकते हैं। अर्थात प्रतिबंध लगाना तो खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा

इन मुद्राओं के नियमन की आवश्यकता है ताकि निवेशकों पर उचित रूप से कर लगाया जा सके और अन्य देशों के साथ चर्चा करके वैधता सम्बंधी मुद्दों को भी संबोधित किया जा सके। हम उन देशों की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन कर सकते हैं जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसी को एकीकृत किया है। प्रतिबंध तो आलस का द्योतक है। यह लगभग वैसा ही है जैसे हम मुद्रा पर इसलिए प्रतिबंध लगाना चाहते हैं क्योंकि इस प्रणाली को स्वीकार करने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता है ताकि क्रिप्टोकरेंसी टेक्नॉलॉजी अर्थ व्यवस्था की पूरक बन जाए।

क्रिप्टोकरेंसी के पीछे की तकनीक नई है और भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे फायदा भी हो सकता है। विशेष रूप से ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में शामिल करके काफी फायदा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या प्राचीन भारत में पालतू घोड़े थे? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में फ्रांस की पॉल सेबेटियर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा नेचर पत्रिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार, लुडोविक ऑर्लेन्डो और उनके समूह ने ऐसे क्षेत्रों से 2,000 से अधिक घोड़ों की हड्डियों और दांतों के प्राचीन नमूने एकत्रित किए है जहां पालतू घोड़ों की उत्पत्ति की संभावना है। पालतू घोड़ों की उत्पत्ति के संभावित क्षेत्र युरोप के दक्षिण-पश्चिमी कोने का आइबेरियन प्रायद्वीप, युरेशिया की सुदूर पश्चिमी सीमा, एनाटोलिया (आधुनिक समय का तुर्की), और पश्चिमी युरेशिया और मध्य एशिया के घास के मैदानों को माना जाता है। टोसिन थॉम्पसन ने नेचर पत्रिका के 28 अक्टूबर 2021 के अंक में एक टिप्पणी में लिखा है, डॉ. ऑर्लेन्डो के दल ने इन क्षेत्रों से प्राप्त लगभग 270 नमूनों के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम का विश्लेषण कर लिया है, और साथ में पुरातात्विक जानकारी भी एकत्र कर ली है। इसके अलावा उन्होंने रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से घोड़ों के इन नमूनों की उम्र निर्धारित कर ली है (रेडियोधर्मी कार्बन-14 एक निश्चित दर से विघटित होता है)। इन मिले-जुले आंकड़ों की मदद से वे यह तय कर पाए कि लगभग 4200 ईसा पूर्व तक कई अलग-अलग तरह के घोड़ों की आबादियां युरेशिया के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थी।

घोड़े के पदचिन्ह

इसी तरह के एक अन्य आनुवंशिक विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि आधुनिक पालतू डीएनए प्रोफाइल वाले घोड़े पश्चिमी युरेशियन स्टेपीज़, विशेष रूप से वोल्गा-डॉन नदी क्षेत्र में रहते थे।

लगभग 2200-2000 ईसा पूर्व आते-आते ये घोड़े बोहेमिया (वर्तमान के चेक गणराज्य और युक्रेन), और मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किर्जिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान, ईरान तथा अफगानिस्तान) और मंगोलिया में फैल गए थे। इन देशों के प्रजनक इन घोड़ों को उन देशों को बेचने के लिए तैयार करते थे जहां इनकी मांग थी। इन देशों में लगभग 3300 ईसा पूर्व तक घुड़सवारी लोकप्रिय हो गई थी, और सेनाओं का गठन इनके आधार पर किया जाने लगा था – जैसे, मेसोपोटामिया, ईरान, कुवैत और “फर्टाइल क्रिसेंट” या फिलिस्तीन की सेनाओं में। थॉम्पसन ध्यान दिलाते हैं कि पहला स्पोक युक्त पहिए वाला रथ 2000-1800 ईसा पूर्व के आसपास बना था।

भारतीय कहानी

अब सवाल है कि भारत में घोड़े कब आए, और वे देशी थे या विदेशी? क्या घोड़े भारत के मूल निवासी थे? इसका उत्तर तो ‘ना’ लगता है। “वर्ल्ड एटलस” के अनुसार, भारत के मूल निवासी जानवर सिर्फ एशियाई हाथी, हिम तेंदुआ, गैंडा, बंगाल टाइगर, रीछ, हिमालयी भेड़िया, गौर बाइसन, लाल पांडा, मगरमच्छ और मोर व राजहंस हैं। वेबसाइट थॉटको (ThoughtCo) ने अपने लेख एशिया में पैदा हुए 11 घरेलू जानवरों में मृग, नीलगिरि तहर, हाथी, लंगूर, मकाक बंदर, गैंडा, डॉल्फिन, गेरियल मगरमच्छ, तेंदुआ, भालू, बाघ, बस्टर्ड (उड़ने वाला सबसे भारी पक्षी), गिलहरी, कोबरा और मोर को सूचीबद्ध किया है। इस तरह इन स्रोतों से साफ झलकता है कि घोड़ा भारत का मूल निवासी नहीं है। यह भारत में देशों के बीच अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के माध्यम से आया होगा। भारतीयों ने अपने पड़ोसी देशों के साथ अपने हाथियों, बाघों, बंदरों, पक्षियों का व्यापार किया होगा और अपने उपयोग के लिए घोड़ों का आयात किया होगा।

तो, भारत को अपने घोड़े कब मिले? विकिपीडिया बताता है कि उत्तर हड़प्पा सभ्यता स्थलों (1900 से 1300 ईसा पूर्व) से घोड़ों से सम्बंधित अवशेष और वस्तुएं मिली हैं, और इनसे ऐसा नहीं लगता कि हड़प्पा सभ्यता में घोड़ों ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके थोड़े समय बाद वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में स्थिति अलग दिखती है। (घोड़े के लिए संस्कृत शब्द अश्व है, जिसका उल्लेख वेदों और हिंदू ग्रंथों में मिलता है)। ये मोटे तौर पर उत्तर-कांस्य युग के अंत के समय के है।

साहित्यिक बहस

इस संदर्भ में दो हालिया किताबें भी काफी उल्लेखनीय हैं – इनमें से एक पुस्तक टोनी जोसेफ की है जिसका शीर्षक है प्रारंभिक भारतीय : हमारे पूर्वजों की कहानी और हम कहां से आए (Early Indians: The Story of our Ancestors and Where We Came From) है, और दूसरी पुस्तक यशस्विनी चंद्रा की है जिसका शीर्षक है घोड़े की कहानी (The Tale of the Horse) है। दिसंबर 2018 में फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित डॉ. जोसेफ का हालिया लेख भारत में “आर्यो” के प्रवास के प्रमाण की पड़ताल करता है। यह बताता है कि भारत में पाए जाने वाले घोड़े ऊपर बताए गए “स्तानों” से ही आए हैं। इसके अलावा, दी प्रिंट के 17 जनवरी 2021 के अंक में प्रकाशित डॉ. चंद्रा का लेख बताता है कि भारतीय मूल के घोड़े 8000 ईसा पूर्व तक लुप्त हो चुके थे।

बहस का सबसे स्पष्ट विश्लेषण आईआईटी गांधीनगर के इतिहासकार मिशेल डैनिनो के एक लेख में मिलता है। उन्होंने जर्नल ऑफ हिस्ट्री एंड कल्चर (सितंबर 2006) में दी हॉर्स एंड आर्यन डिबेट शीर्षक के अपने शोध पत्र में और पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एंश्यंट इंडिया (2014) में लिखा है कि पुरावेत्ता सैंडोर बोकोनी ने घोड़ों के दांतों के नमूनों का अध्ययन किया था। ये नमूने हड़प्पा-पूर्व काल के बलूचिस्तान, इलाहाबाद (2265-1480 ईसा पूर्व)) और चंबल घाटी (2450-2000 ईसा पूर्व) से थे। इनके अलावा उन्होंने कालीबंगन से प्राप्त ऊपरी दाढ़ों का भी अध्ययन किया था। उनका निष्कर्ष था कि ये पालतू घोड़ों के अवशेष थे। प्रोफेसर डैनिनो के इन शोध पत्रों ने भारत में पालतू घोड़ों के लेकर किए जा रहे परस्पर विरोधी दावों को विराम दे दिया है और हमें उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। 

हड़प्पा के अवशेष

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जांचना दिलचस्प होगा कि क्या हड़प्पा स्थलों में घोड़ों के कोई अवशेष, हड्डियां, दांत या खोपड़ियां हैं जिनका डीएनए अनुक्रमण किया जा सके, जैसा कि ऑरलैंडो के समूह ने युरेशियन नमूनों के लिए किया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री से कम रखने का संकल्प

ग्लासगो में आयोजित जलवायु सम्मेलन में कई देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है। यदि यह सभी देश इन घोषणाओं पर अमल करते हैं तो 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के प्रमुख लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता है। एक नए विश्लेषण से पता चला है कि भारत, चीन और अन्य देशों की संशोधित प्रतिबद्धताएं इस सदी में तापमान की वृद्धि को 1.9 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकती हैं। लेकिन मेलबोर्न युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक माल्टे मायनसुआज़ेन को लगता है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए काफी काम करना होगा।

ब्रेकथ्रू इंस्टीट्यूट के जलवायु वैज्ञानिक ज़ेके हौसफादर के अनुसार जलवायु के नए अनुमान हालिया अनुमानों से नीचे नहीं हैं। अक्टूबर में जारी यू.एन. की रिपोर्ट में हालिया और पिछली प्रतिज्ञाओं को शामिल किया गया है जिसमें लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की अनुमानित वार्मिंग को ध्यान में रखते हुए कार्बन स्थिरीकरण के साथ उत्सर्जन को संतुलित करते हुए नेट-ज़ीरो प्राप्त करने की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया है। इसी तरह, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) की रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्तमान प्रतिबद्धताएं वार्मिंग को 1.8 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर देंगी। भारत और चीन की प्रतिबद्धताएं कुछ बड़े बदलाव कर सकती हैं।

मायनसुआज़ेन और उनके सहयोगियों ने सम्मेलन के शुरू होते ही राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत प्रतिज्ञाओं का संकलन किया। इनमें 2050 से 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया है। इनमें से कुछ लक्ष्य वित्तीय सहायता पर निर्भर हैं जबकि अन्य बिना किसी शर्त के निर्धारित किए गए हैं। इन उत्सर्जन अनुमानों को जलवायु मॉडल में डालने पर वार्मिंग के संभावित परिणाम पता चले हैं।

सम्मेलन के पहले की प्रतिज्ञाओं के आधार पर इस सदी की वार्मिंग 1.5-3.2 डिग्री सेल्सियस के बीच अनुमानित थी। लेकिन नई प्रतिज्ञाओं के आधार पर काफी संभावना 1.9 डिग्री सेल्सियस से कम वृद्धि की है। इन में भारत का 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने, चीन की नई जलवायु प्रतिज्ञाएं और 2030 तक उत्सर्जन को कम करने के लिए 11 अन्य राष्ट्रीय प्रतिज्ञाएं भी शामिल हैं।

इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एक जलवायु वैज्ञानिक जोएरी रोगेली के अनुसार यदि देश अपने वादों का पूरी तरह से पालन करते हैं तब भी तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने की काफी संभावना होगी क्योंकि कई मामलों में स्पष्टता की कमी है। उदाहरण के लिए भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया कि नेट-ज़ीरो की प्रतिबद्धता केवल कार्बन डाईऑक्साइड के लिए है या सभी ग्रीनहाउस गैसों पर लागू होती है।

इसके अलावा, कई घोषणाएं महज दिखावा भी हो सकती हैं। जैसे, ऑस्ट्रेलिया में जलवायु लक्ष्यों का दिखावा करने के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन के उपयोग में विस्तार किया जा रहा है। इसके अलावा, विकासशील देशों को कई योजनाओं हेतु वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। फिर भी प्रतिज्ञाएं एक महत्वपूर्ण सुधार की द्योतक हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या हम भय की स्थिति पैदा कर रहे हैं? – आर. उमाशंकर, के.एन. गणेशैया

रतपुर अभयारण्य के नाम से मशहूर कीलादू घाना राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर, राजस्थान के क्षेत्र में काम करने वाले पारिस्थितिकीविदों ने 1970 के दशक में स्थानीय निवासियों द्वारा मवेशियों को अनियंत्रित तरीके से चराने पर आपत्ति ज़ाहिर की थी। पारिस्थितिकीविदों का मानना था कि मवेशियों के चरने से अभयारण्य में जल राशियों के आसपास के क्षेत्र की घास से ढकी जगह भी नष्ट हो जाएगी। तब हज़ारों प्रवासी पक्षियों के लिए यह स्थान रहने योग्य नहीं रहेगा जिनके लिए यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध है। मवेशियों के चरने के विरुद्ध पर्यावरण कार्यकर्ताओं के निरंतर विरोध और पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वन प्रबंधकों की लगातार बयानबाज़ी ने राजस्थान सरकार को 1982 में मवेशियों के चरने पर औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाने पर मजबूर किया। सरकार के इस निर्णय को एक बड़ी सफलता के रूप में देखा गया जिसमें कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने मिलकर एक पर्यावरणीय मुद्दे पर काम किया। हालांकि, इससे पहले कि इस कामयाबी के जश्न का शोर थमता, चराई पर इस प्रतिबंध ने एक और अप्रत्याशित आपदा को जन्म दे दिया।

चराई पर प्रतिबंध लगने से उस क्षेत्र की घास इतनी लंबी हो गई कि प्रवासी पक्षियों को जल राशियों के किनारों पर उतरने और पोषण के लिए भोजन तलाश करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप, पारिस्थितिकीविदों की अपेक्षा के विपरीत, अभयारण्य में प्रवासी पक्षियों की संख्या निरंतर घटती गई। तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस मामले में विज्ञान असफल हुआ? शायद नहीं। जैसा कि माइकल लेविस ने कहा है (कंज़रवेशन सोसाइटी, 2003, 1, 1-21), भरतपुर अभयारण्य आपदा ‘अपर्याप्त रूप से जांचे-परखे सिद्धांतों पर आधारित मान्यताओं’ का मामला था। इसके अलावा, यह वैज्ञानिकों और वन प्रबंधकों के उतावलेपन का भी नतीजा था जो पर्याप्त तथ्य उपलब्ध न होने के बावजूद चेतावनी देने पर आमादा रहे।

वनों और जैव विविधता का ह्रास, प्रजातियों की विलुप्ति, जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, जेनेटिक पूल का क्षरण, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग जैसे मुद्दे विशेष रूप से मीडिया और कार्यकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञ समितियों द्वारा दिया गया कोई भी बयान यदि सही ढंग से और उपयुक्त डैटा के साथ व्यक्त नहीं किया जाता, तो पूरी संभावना होती है कि मीडिया इसे तोड़-मरोड़ कर और सनसनीखेज़ बनाकर पेश कर देगा। इस प्रक्रिया में, मूल संदेश का अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से विकृत कर दिया दिया जाता है या कोई सर्वथा नया संदेश ही बना दिया जाता है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण नेचर पत्रिका (2004, 427, 145-148) में जलवायु परिवर्तन पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर मानव-निर्मित आपदा की एक बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई तस्वीर में दिखा। इस रिपोर्ट में 1103 प्रजातियों के विश्लेषण के आधार पर दावा किया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अगले 50 वर्षों में इनमें से कुछ प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। लेकिन यूके के मीडिया ने इस चेतावनी को बहुत गलत तरीके से प्रस्तुत करते हुए बताया कि: ‘पूरे विश्व की एक-तिहाई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ या ‘2050 तक दस लाख प्रजातियां’ विलुप्त हो सकती हैं। इस गलत रिपोर्टिंग की उत्पत्ति पता लगाने के लिए की गई एक समीक्षा से पता चला कि समस्या वास्तव में वैज्ञानिकों द्वारा प्रेस को जारी की गई सामग्री में उपयोग की गई भाषा में थी। इस घटना से पता चलता है कि यदि किसी वैज्ञानिक दावे को जनता या मीडिया तक ठीक तरह से सूचित न किया जाए तो विज्ञान और वैज्ञानिकों की विश्वसनीयता दांव पर लग सकती है।

वैज्ञानिक और विशेष रूप से जैव विविधता, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन आदि के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिक अक्सर अपने निष्कर्षों के ग्रह के भविष्य और मनुष्यों के अस्तित्व पर निहितार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। उनके द्वारा दिए गए बयानों से लोगों में डर पैदा हो सकता है। वे ऐसा अनजाने में या जानबूझकर करते हैं ताकि नीति निर्माताओं और प्रशासन तंत्रो का ध्यान आकर्षित कर सकें और उन्हें तत्काल कार्रवाई के लिए प्रेरित कर सकें। लेकिन कई बार ऐसे बयानों की गुणवत्ता की जांच उस सख्ती से नहीं की जाती है जितनी विज्ञान की मांग होती है। यह अत्यंत आवश्यक है कि वैज्ञानिक सार्वजनिक बयानों पर गंभीरता से विचार करें ताकि उन पर सनसनी फैलाने का दोष न लगे। प्रजातियों के विलुप्त होने के दावे इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकते हैं।

1980 के दशक के बाद से, कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा हर दशक में हज़ारों प्रजातियों के विलुप्त होने सम्बंधी बयान आते रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध अमेरिकी जीवविज्ञानी ई. ओ. विल्सन ने जैव विविधता संरक्षण का आव्हान करते हुए कहा था: ‘मानव गतिविधियों के कारण प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया तेज़ी से जारी है, यदि ऐसा चलता रहा तो इस सदी के अंत तक आधी से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ (न्यू यॉर्क टाइम्स सन्डे रिव्यू, 4 मार्च 2018; https://eowilsonfoundation.org/the-8-millionspecies-wedont-know/)। मानवजनित गतिविधियों के कारण प्रजातियों के विलुप्त होने की ऐसी उच्च दर की बात विश्वभर के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी दोहराते रहे हैं ताकि जैव-विविधता संरक्षण के प्रयासों को गति मिल सके। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के संदर्भ में भारत में प्रकाशित हुए एक लेख में कहा गया था: ‘वर्ष 2000 के बाद से हमने विश्व स्तर पर 7 प्रतिशत अछूते वनों को खो दिया है, और हाल ही के आकलनों से संकेत मिलता है कि आने वाले दशकों में 10 लाख से अधिक प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। हमारा देश भी इन रुझानों का अपवाद नहीं है।’ (दी हिंदू, 5 जून 2021)। हालांकि प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में संभावित वृद्धि से इन्कार तो नहीं किया जा सकता है लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी उच्च दरों के दावों के समर्थन में शायद ही कोई डैटा उपलब्ध है। यदि वास्तव में प्रजातियां इतनी उच्च दर से विलुप्त हो रही हैं, तो पिछले कुछ दशकों के दौरान लाखों प्रजातियों को हमेशा के लिए विलुप्त हो जाना चाहिए था। और यदि इनमें से एक अंश को ही सूचीबद्ध किया जाए तो भी विलुप्त प्रजातियों की संख्या चंद हज़ार से अधिक तो होनी चाहिए थी। लेकिन हमारे पास विश्व भर की ऐसी एक हज़ार प्रजातियों की सूची भी नहीं है जिन्हें पिछले कुछ दशकों में निश्चित रूप से विलुप्त प्रजातियों की सूची में रखा जा सके। आईयूसीएन की रेड लिस्ट वेबसाइट (https://www.iucn.org/sites/dev/files/import/downloads/species_extinction_05_2007.pdf), के अनुसार ‘पिछले 500 वर्षों में मानव गतिविधियों ने 869 प्रजातियों को विलुप्त (या प्राकृतिक स्थिति में गायब) होने के लिए मजबूर किया है।‘ ज़ाहिर है, पिछले 50 वर्षों में यह संख्या बहुत ही कम रही होगी! यानी हमारे दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास डैटा ही नहीं है। यदि जनता के द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है, तो वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिकों के रूप में हम खुद को कहां पर खड़ा पाते हैं?   

यकीनन इस असहज स्थिति से बच निकलने का एक रास्ता तो हमेशा रहता है। कहा जा सकता है कि ‘जब हमारे पास इस बात की पूरी जानकारी नहीं है कि हमारे पास क्या है, तो हम यह कैसे बता सकते हैं कि हम क्या खो रहे हैं?’ चलिए इसे सही मान लेते हैं। लेकिन विलुप्त होने की दर इतनी अधिक बताई जा रही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान ‘ज्ञात और वर्णित प्रजातियों में से कुछ सैकड़ा को तो विलुप्त हो ही जाना चाहिए था।’ लेकिन तथ्य यह है कि जैव विविधता पर काम शुरू होने के पिछले चार दशकों के दौरान हमारे पास निश्चित रूप से विलुप्त हो चुकी 100 प्रजातियों की भी सत्यापित सूची नहीं है। हालांकि, मीडिया में अक्सर ऐसे सनसनीखेज़ दावे किए जाते रहे हैं कि आईयूसीएन के अनुसार, पिछले दशक में, 160 प्रजातियां विलुप्त हुई हैं, और इसके तुरंत बाद ही एक पुछल्ला जोड़ दिया जाता है: हालांकि ‘अधिकांश प्रजातियां काफी लंबे समय से विलुप्त हैं’ (https://www.lifegate.com/extinct-specieslist-decade-2010-2019)। दूसरे शब्दों में, विलुप्त प्रजातियों के दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास कोई डैटा भी मौजूद नहीं है, और यदि है भी तो जिन प्रजातियों को ‘संभवत: विलुप्त प्रजाति माना जा रहा था’ उनमें से कई प्रजातियों के बारे में पता चल रहा है कि वे अभी मौजूद या जीवित हैं!!

इसके अतिरिक्त, संरक्षण जीवविज्ञानियों द्वारा प्रजातियों को लाल सूची में डलवाकर डर का माहौल भी बनाया जाता है ताकि प्रजातियों के संरक्षण की ओर ध्यान आकर्षित किया जा सके। हालांकि इस कवायद के पीछे की भावना काफी प्रशंसनीय है लेकिन इसकी कार्य प्रणाली की जांच-परख आवश्यक है। प्रजातियों की लाल सूची तैयार करने का कार्य आईयूसीएन और कई अन्य एजेंसियों को सौंपा गया है जिन्होंने ऐसे कई मानदंड तैयार किए हैं जिनके आधार पर प्रजातियों को खतरे की विभिन्न श्रेणियों (जैसे विलुप्त, प्राकृतिक स्थिति में विलुप्त, लुप्तप्राय, जोखिमग्रस्त आदि) में वर्गीकृत किया जा सकता है (https://www.iucnredlist.org/resources/categories-and-criteria)। अलबत्ता, खतरे के आकलन के लिए आवश्यक डैटा प्राप्त करने के कष्टदायी कार्य के कारण सभी मानदंडों को पूरी तरह लागू नहीं किया जाता है। इस प्रकार, ठोस डैटा की अनुपस्थिति में, ‘एहतियाती सिद्धांत’ का सहारा लेते हुए, सख्त मानकों का पालन नहीं किया जाता और प्रजातियों को लाल सूची या अन्य श्रेणियों में व्यक्तिपरक मूल्यांकन के आधार पर सूचीबद्ध किया जाता है। कुछ वर्ष पहले, दक्षिण भारत के लाल-सूचिबद्ध औषधीय पौधों की प्रजातियों के डैटा का उपयोग करते हुए हमने यह जानने का प्रयास किया कि क्या ये पौधे वास्तव में लाल सूची से बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ (फैलाव में) हैं और कम प्रजनन करते हैं (करंट साइंस, 2005, 88, 258-265)। खोज के परिणाम आश्चर्यजनक थे: सांख्यिकीय दृष्टि से लाल-सूचीबद्ध प्रजातियां इस सूची के बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ नहीं हैं और न ही वे अपनी जनसंख्या संरचना में किसी प्रकार से कम हैं। हालांकि, औषधीय पौधों की प्रजातियों पर मंडराते खतरों को कम न आंकते हुए और यह मानते हुए कि संरक्षण प्रयासों के लिए आमतौर पर अत्यधिक मेहनत और धन की आवश्यकता होती है, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उन प्रजातियों की सूची तैयार करने में सावधानी बरती जा जाए जिन्हें ‘वास्तव में’ संरक्षण की आवश्यकता है?        

आइए अब हम ऐसे दावों के खतरों पर चर्चा करते हैं। ऐसे अपुष्ट दावों का इस्तेमाल नीति निर्माताओं और शासन तंत्र पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है ताकि वे जैव विविधता पर ध्यान दें। वे इसके लिए अपने लक्षित पाठकों/श्रोताओं के बीच भय की स्थिति (यह शब्द माइकल क्रेटन द्वारा जलवायु परिवर्तन सम्बंधी इसी नाम के एक उपन्यास से लिया गया है) बनाते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि चूंकि हमारे पास अपने दावे के समर्थन में ठोस डैटा नहीं है इसलिए भय की इस स्थिति का निर्वाह नहीं किया जा सकता! इस तरह की रणनीति उस उद्देश्य को ही परास्त कर सकती है जिसके लिए ये दावे किए (या रचे!!) जा रहे हैं। वास्तव में, एक असमर्थित और अस्थिर ‘भय की स्थिति’ बनाना लंबे समय में काफी खतरनाक है; और इस विषय में उन वैज्ञानिकों को गंभीर रूप से विचार-विमर्श करना चाहिए जो निर्वाह-योग्य भविष्य का ढोल आए दिन पीटते रहते हैं। ध्यान आकर्षित करने, धन जुटाने, नीति और शासन को प्रभावित करने के उत्साह में हम एक जवाबदेह मूल्यांकन और रिपोर्टिंग की परंपरा की बजाय जनता और मीडिया के बीच एक अस्थिर भय पैदा करने की जल्दबाज़ी में हैं। ऐसे समय में हम वैज्ञानिकों को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वैज्ञानिक समुदाय अपनी विश्वसनीयता ही खो दे। (स्रोत फीचर्स)

यह लेख पूर्व में करंट साइंस (अंक 121, क्रमांक 1, 10 जुलाई 2021) में प्रकाशित हुआ था।

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कृत्रिम बुद्धि करेगी चिम्पैंज़ी की करतूतों की निगरानी

श्चिम अफ्रीका के चिम्पैंज़ी ताड़ के फल से गिरी निकालने के लिए एक युक्ति इस्तेमाल करते हैं – फल को एक सपाट पत्थर पर रखकर दूसरे पत्थर का हथौड़े की तरह इस्तेमाल करते हुए फल पर मारते हैं, ताकि उसकी बाहरी सख्त खोल चटक जाए।

अब तक वैज्ञानिकों को चिम्पैंज़ी के इस औज़ार के बारे में अधिक जानने के लिए चिम्पैंजियों की घंटों लंबी रिकॉर्डिंग को निहारना पड़ता जिसमें हफ्तों लग जाते थे। अब इस काम में कृत्रिम बुद्धि मदद कर सकती है, जो चिम्पैंजि़यों के वीडियो फुटेज में से सही क्लिप को ढूंढ सकती है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की प्राइमेटोलॉजिस्ट सुज़ाना कार्वाल्हो और उनके साथियों ने चिम्पैंज़ी के दो व्यवहारों का अध्ययन किया: फल से गिरी निकालना और नगाड़ेबाज़ी (चिम्पैंज़ी द्वारा हाथों या पैरों से पेड़ की सहारा जड़ों को पीटना।) वैज्ञानिकों के अनुसार ये दोनों व्यवहार प्राइमेट्स में सीखने की प्रक्रिया और संवाद को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा इन हरकतों के दौरान आवाज़ भी उत्पन्न होती है, यानी शोधकर्ता दृश्य के साथ-साथ ध्वनि से भी कंप्यूटर मॉडल को प्रशिक्षित कर सकते हैं।

उक्त मॉडल को गिरी निकालने का व्यवहार समझाने के लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 40 घंटे की और ड्रमिंग के लिए लगभग 10 घंटे लंबी वीडियो रिकॉर्डिंग का इस्तेमाल किया। ड्रमिंग की क्लिप खास तौर से उग्र व्यवहार की थी जिसे “बट्रेस ड्रमिंग” कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अलग-अलग चिम्पैंज़ी-समूहों में ड्रमिंग का तरीका अलग-अलग हो सकता है।

पहले तो शोधकर्ताओं ने ऑडियो और वीडियो की कोडिंग के ज़रिए कंप्यूटर को प्रशिक्षित किया। वीडियो में जहां-जहां चिम्पैंज़ी थे उनके आसपास चौकोर दायरा खींचा और उनमें वे क्या गतिविधि कर रहे हैं उसे लिखा। इस तरह उन्होंने कंप्यूटर को सिखाया कि क्या देखना है और क्या अनदेखा करना है। कभी-कभी चिम्पैंज़ी नज़र नहीं आते थे। इसलिए शोधकर्ताओं ने ध्वनि से पहचानने के लिए भी प्रशिक्षित किया।

जब कंप्यूटर का प्रशिक्षण पूरा हो गया तो शोधकर्ताओं ने उसका परीक्षण किया। उन्होंने उसे दोनों व्यवहारों के ऐसे वीडियो दिखाए जो उसने पहले कभी नहीं देखे थे। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार कंप्यूटर ने गिरी निकालने के व्यवहार 77 प्रतिशत और नगाड़ेबाज़ी का व्यवहार 86 प्रतिशत बार सही-सही पहचाना।

शोधकर्ताओं ने इस कंप्यूटर के ज़रिए पता किया कि चिम्पैंज़ी गिरी निकालने और नगाड़ेबाज़ी जैसे व्यवहार में कितना वक्त बिताते हैं, और नर और मादा में कोई अंतर है क्या। उम्मीद है कि नए मॉडल को अन्य प्रजातियों और अन्य व्यवहारों की निगरानी के लिए भी प्रशिक्षित किया जा सकेगा। यह भी देखा जा सकता है कि कोई एक चिम्पैंज़ी कौशल कैसे विकसित करता है। फुटेज का विश्लेषण यह समझने में मदद कर सकता है कि जलवायु परिवर्तन और आवास की क्षति प्राइमेट्स के व्यवहार को कैसे प्रभावित कर रहे हैं। संभावनाएं तो अपार हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मच्छर वाहित रोगों से लड़ाई – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

च्छर वाहित बीमारियां हज़ारों वर्षों से अभिशाप रही हैं, इनकी वजह से कई सेनाएं परास्त हुईं और अर्थव्यवस्थाएं डगमगाई हैं। ऐसे में मलेरिया के लिए एक प्रभावी टीका आने की रिपोर्ट हमें राहत देती है। इस टीके के क्लीनिकल परीक्षण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और अन्य ने बुर्किना फासो में किए हैं।

पश्चिम अफ्रीकी देश बुर्किना फासो में मानसून के बाद लंबे समय तक गर्मी पड़ती है, और तब ही मच्छर बड़े झुंडों में निकलते हैं। R21 नामक टीके ने 77 प्रतिशत प्रभाविता दर्शाई है। यह टीका मलेरिया परजीवी, प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम, के सर्कमस्पोरोज़ाइट प्रोटीन (CSP) को लक्षित करता है। इस परजीवी की स्पोरोज़ाइट अवस्था CSP स्रावित करती है। मच्छर के काटने से CSP और स्पोरोज़ाइट्स मानव रक्तप्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं। CSP परजीवी को यकृत (लीवर) में ले जाता है जहां यह यकृत कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है, परिपक्व होता है और संख्या वृद्धि करता है। फिर, परिपक्व मेरोज़ाइट्स मुक्त होते हैं और मलेरिया के लक्षण दिखाई देने शुरू हो जाते हैं।

मलेरिया के टीके

हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने एक टीके, मॉस्क्यूरिक्स, को मंज़ूरी दी है। यह टीका यूके के ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके) ने लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के सहयोग से तैयार किया है। इस टीके का परीक्षण केन्या, मलावी और घाना के 8 लाख से अधिक बच्चों पर किया गया है। टीका लेने के पहले साल में इसकी प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक देखी गई है, लेकिन वक्त बीतने के साथ प्रभाविता कम होती गई। ग्लोबल वैक्सीन एलायंस (जीएवीआई) उन देशों के लिए टीके खरीदने की योजना बना रहा है जिन्होंने इसकी मांग की है।

हैदराबाद की भारत बायोटेक ने भारत में इस टीके को विकसित करने के लिए जीएसके के साथ अनुबंध किया है, जिसके लिए भुवनेश्वर में विशेष व्यवस्था होगी।

डेंगू से जंग

एक और तेज़ी से फैलने वाली बीमारी है डेंगू। यह एडीज़ एजिप्टी मच्छरों से फैलती है, जो ठहरे हुए पानी में पनपते हैं, जैसे टायर वगैरह में भरा पानी। डेंगू वायरस के चार सीरोटाइप पाए जाते हैं। सीरोटाइप टीका निर्माण को मुश्किल बनाते हैं, क्योंकि प्रत्येक सीरोटाइप के लिए अलग टीके की आवश्यकता होती है। सेनोफी पाश्चर द्वारा डेंगू के खिलाफ तैयार किया गया टीका, डेंगवैक्सिया, कई देशों में स्वीकृत है और वायरस के चारों सीरोटाइप के खिलाफ 42 प्रतिशत से 78 प्रतिशत तक कारगर है।

भारत में ज़ायडस कैडिला डेंगू के खिलाफ डीएनए आधारित एक टीका विकसित कर रही है। तिरुवनंतपुरम स्थित राजीव गांधी सेंटर फॉर बायोटेक्नॉलॉजी के डॉ. ईश्वरन श्रीकुमार ने चारों सीरोटाइप का एक साझा संस्करण तैयार किया है जो ज़ायडस कैडिला के डीएनए आधारित टीके की बुनियाद है। इस कार्य में कोविड-19 टीका विकसित करने के अनुभव का लाभ मिल रहा है।

डेंगू से लड़ने के अन्य नए तरीकों पर भी काम चल रहा है। इनमें से एक दिलचस्प तरीके में एक बैक्टीरिया, वॉल्बेचिया पाइपिएंटिस, का उपयोग किया जाता है। वॉल्बेचिया पाइपिएंटिस एक-कोशिकीय परजीवी है। यह परजीवी सामान्यत: कई कीटों में पाया जाता है, लेकिन यह डेंगू फैलाने वाले मच्छरों में नहीं होता। जब इस परजीवी को डेंगू फैलाने वाले मच्छरों की कोशिकाओं में प्रवेश कराया जाता है तो यह डेंगू, चिकनगुनिया, पीत ज्वर और ज़ीका का कारण बनने वाले अन्य परजीवियों से सफल प्रतिस्पर्धा करता है।

प्रयोगशाला में वॉल्बेचिया से ग्रस्त किए गए एडीज़ मच्छर उन इलाकों में छोड़े जाते हैं जहां यह बीमारी अधिक होती है। ये मच्छर फौरन ही स्थानीय एडीज़ मच्छरों में इस बैक्टीरिया को फैला देते हैं, और डेंगू के नए मामले कम होने लगते हैं। गादजाह मादा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जकार्ता में किए गए एक नियंत्रित अध्ययन में दिसंबर 2017 में शहर के 12 इलाकों में वॉल्बेचिया से संक्रमित एडीज़ मच्छर के अंडे रखे (9 अन्य इलाकों में नियंत्रण के तौर पर वॉल्बेचिया-रहित अंडे रखे गए)। मार्च 2020 में कोविड महामारी के कारण अध्ययन थम जाने तक नियंत्रण वाले 9 इलाकों की तुलना में 12 प्रायोगिक इलाकों में डेंगू के 77 प्रतिशत कम मामले दर्ज हुए थे। डेंगू के कारण अस्पताल में भर्ती होने वालों की संख्या में 86 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और बुखार की तीव्रता भी कम हुई थी।

रोकथाम

मच्छर वाहित बीमारियों का इलाज करने की बजाय उनसे बचाव का एक और तरीका यह है इनके अगले प्रकोप की सटीक भविष्यवाणी कर ली जाए। और उसके मुताबिक अपने स्वास्थ्य तंत्र और मच्छर नियंत्रण प्रणालियों का उपयोग किया जाए।

मच्छर और प्लास्मोडियम परजीवी दोनों को पनपने के लिए गर्म और नम मौसम की आवश्यकता होती है। NOAA-19 जैसे पर्यावरण उपग्रहों द्वारा लगातार एकत्रित किए गए डैटा का उपयोग करते हुए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च के वैज्ञानिकों ने ऐसे मॉडल तैयार किए हैं जो मासिक वर्षा डैटा और डेंगू और मलेरिया के वार्षिक राज्य-वार प्रकोप के डैटा को अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन के साथ जोड़ता है। अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन वैश्विक वायुमंडलीय प्रवाह को प्रभावित करता है। इस तरह, यह एक पूर्व-चेतावनी उपकरण है जो प्रकोप के शुरू होने, उसके फैलने और संभावित मामलों की संख्या का पूर्वानुमान लगाता है। इस तरह स्वास्थ्य अधिकारी प्रकोप के प्रभाव को कम करने के लिए कई हफ्तों पहले से ही एहतियाती उपाय शुरू कर सकते हैं। भारत में वर्तमान में यह जानकारी राज्य स्तर के लिए उपलब्ध है। अगला कदम ज़िला स्तर पर जानकारी उपलब्ध कराना होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कितना खाती है यह व्हेल?

ह तो अंदाज़ा था कि व्हेल जैसे विशाल प्राणी की भूख भी विशाल होगी। लेकिन कितनी विशाल? हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि बलीन व्हेल की खुराक अनुमान से तीन गुना अधिक है। इनके मुंह में कंघीनुमा छन्ना होता है, जिसे बलीन कहते हैं। यह समुद्र में तैरते हुए पानी के साथ अंदर आए अपने शिकार (छोटे-छोट क्रस्टेशियन जंतु और प्लवक) को छानकर ग्रहण करने में मदद करता है।

इस अध्ययन ने एक विरोधाभास को भी दूर कर दिया है। क्रस्टेशियन जंतुओं का जितनी मात्रा में ये व्हेल भक्षण करती हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यदि व्हेल न हों तो इन नन्हें जंतुओं की आबादी बढ़ेगी। लेकिन वास्तव में शिकार के चलते समुद्रों में व्हेल की संख्या में गिरावट के बाद क्रस्टेशियन की संख्या में भी तेज़ गिरावट देखी गई है।

शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ये व्हेल समुद्र में पोषक तत्वो का संवहन भी करती हैं: वे समुद्र के पेंदे से भोजन ग्रहण करती हैं और ऊपरी सतह पर आकर अपशिष्ट उत्सर्जित करती हैं, जिससे समंदर में पोषक तत्वों का चक्रण होता रहता है। यह क्रस्टेशियन्स के लिए पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत होता है। इसलिए व्हेल के जाने पर क्रस्टेशियन्स को पोषण मिलना भी बंद हो गया।

युनिवर्सिटी ऑफ हॉपकिंस मरीन स्टेशन के पारिस्थितिकीविद मैथ्यू सावोका यह पता लगाना चाहते थे कि व्हेल के पेट में कितना प्लास्टिक चला जाता है? लेकिन पहले उन्हें एक अधिक बुनियादी सवाल का जवाब पता लगाना पड़ा: व्हेल की कुल खुराक कितनी है? क्योंकि अब तक इस सम्बंध में मोटे-मोटे अनुमान ही लगाए गए थे।

सवोका और उनके दल ने ड्रोन, इको-साउंडिंग उपकरण और सक्शन कप ट्रैकिंग डिवाइस की मदद से 321 व्हेल पर नज़र रखी। नौ वर्ष (2010-19) चले इस अध्ययन में उन्होंने अटलांटिक, प्रशांत और दक्षिणी महासागर की सात व्हेल प्रजातियों का भोजन सम्बंधी डैटा जुटाया। पूरी प्रक्रिया काफी कठिन थी।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित निष्कर्षों के अनुसार बलीन व्हेल अनुमान से तीन गुना अधिक भोजन गटकती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तरी प्रशांत की ब्लू व्हेल एक दिन में औसतन 16 टन छोटे क्रस्टेशियंस खा जाती है – लगभग दो ट्रक भरकर। इसी प्रकार से, धनुषाकार सिर वाली व्हेल प्रतिदिन लगभग 6 टन जंतु-प्लवक खाती है। इस आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर व्हेल का शिकार शुरू होने से पहले दक्षिणी महासागर की बलीन व्हेल प्रति वर्ष लगभग 43 करोड़ टन क्रस्टेशियन्स खा जाती थीं।

अध्ययन में विशेष रूप से यह भी देखा गया कि व्हेल अनुमान से अधिक लौह जैसे पोषक तत्वों का उत्पादन और मिश्रण करती हैं। परिणामस्वरूप समुद्री खाद्य शृंखला की बुनियाद – प्रकाश संश्लेषक प्लवक – की संख्या में वृद्धि होती है। जिसका अर्थ है व्हेल के लिए अधिक क्रस्टेशियन्स और शिकार के लिए अधिक मछलियां उपलब्ध होना। इसके अलावा प्रकाश संश्लेषण अधिक होने से वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड भी अधिक अवशोषित होगी।

यह अध्ययन ध्यान दिलाता है कि व्हेल का शिकार महासागरों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से प्रभावित करता है और पारिस्थितिकी काफी पेचीदा मामला है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन कोश का सार्थक उपयोग – भारत डोगरा

लवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में आयोजित महासम्मेलन के साथ ही जलवायु परिवर्तन के लिए स्थापित कोश पर चर्चा बढ़ गई है। इस कोश की स्थापना वर्ष 2009 में कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन के महासम्मेलन में की गई थी। इस घोषणा के अनुसार विकासशील व निर्धन देशों की जलवायु सम्बंधी कार्रवाइयों में सहायता के लिए सम्पन्न देशों को 2020 तक 100 अरब डॉलर के जलवायु परिवर्तन कोश की स्थापना करनी थी।

इस कोश की वास्तविक प्रगति निराशाजनक रही है। इसके लिए उपलब्ध धनराशि इस समय भी 100 अरब डॉलर वार्षिक से कहीं कम है। इतना ही नहीं, जहां पूरी उम्मीद थी कि यह सहायता अनुदान के रूप में उपलब्ध होगी, वहां वास्तव में इस सहायता का मात्र लगभग 20 प्रतिशत ही अनुदान के रूप में उपलब्ध करवाया गया व शेष राशि तरह-तरह के कर्ज़ के रूप में दी गई। यह एक तरह से विश्वास तोड़ने वाली बात है। भला जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के उपाय को ब्याज पर दिए गए कर्ज़ से कैसे पाया जा सकेगा? आरोप तो यह भी है कि इसी कोश से धनी देशों की अपनी परियोजनाओं को भी धन दिया जा रहा है।

इस तरह यह कोश इस समय बुरी तरह भटक गया है। अब यह मांग ज़ोर पकड़ रही है कि इसे अपने मूल उद्देश्य के अनुरूप पटरी पर लाया जाए तथा विकासशील व निर्धन देशों के लिए 100 अरब डालर के वार्षिक अनुदान की व्यवस्था मूल उद्देश्य के अनुरूप की जाए।

इतना ही नहीं, अब इससे आगे यह मांग भी उठ रही है कि निकट भविष्य में 100 अरब डॉलर की अनुदान राशि में और वृद्धि भी की जाए। यह मांग अफ्रीका महाद्वीप के अनेक गणमान्य विशेषज्ञों व जलवायु परिवर्तन वार्ताकारों ने रखी है और स्पष्ट किया है कि अकेले उनके अपने महाद्वीप की ही ज़रूरत इससे कहीं अधिक है।

तुलना के लिए यह देखा जा सकता है कि विश्व के अरबपतियों की कुल संपदा 13,000 अरब डालर है। यदि इस पर मात्र 2 प्रतिशत टैक्स भी जलवायु परिवर्तन सम्बंधी कार्यों के लिए अलग से लगाया जाए तो इससे 260 अरब डॉलर उपलब्ध हो सकते हैं।

यदि विश्व के केवल 10 सबसे बड़े अरबपतियों की ही बात की जाए तो इनकी कुल संपदा 1153 अरब डॉलर है। इनमें से 4 सबसे बड़े अरबपति ऐसे हैं जिनकी संपदा 100-100 अरब डॉलर से अधिक है।

केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वर्ष में मात्र शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका व युरोपीय संघ में सिगरेट पर 1 वर्ष में 210 अरब डॉलर से अधिक खर्च होते हैं। इस तरह के अनाप-शनाप खर्च को देखते हुए जलवायु परिवर्तन के लिए यह कोई बड़ी मांग नहीं है। जिस समस्या को सबसे बड़ी वैश्विक समस्या माना जा रहा है उसके कोश के लिए 100 अरब डॉलर से कहीं अधिक की व्यवस्था की जानी चाहिए।

यदि इस धन की व्यवस्था अनुदान के रूप में सुनिश्चित हो जाती है तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने व जलवायु परिवर्तन के दौर में बढ़ने वाली आपदाओं व कठिनाइयों का सामना करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य हो सकते हैं। विशेषकर वनों की रक्षा, नए वृक्षारोपण, चारागाहों की हिफाज़त, मिट्टी व जल संरक्षण, प्राकृतिक खेती के क्षेत्र में ऐसे कार्य संभव हो सकते हैं। अक्षय ऊर्जा को सही ढंग से बढ़ावा दिया जा सकता है। किसानों की टिकाऊ आजीविका को अधिक मजबूत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, टिकाऊ आजीविका की रक्षा व जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के कार्य एक साथ बढ़ाए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने का संकल्प

हाल ही में आयोजित 26वें जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-26) में लगभग 200 देशों ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को जल्द से जल्द खत्म करने और कोयले के उपयोग को कम करने का अभूतपूर्व और ऐतिहासिक संकल्प लिया है। ग्लासगो में आयोजित 14 दिवसीय सम्मेलन में 196 देशों ने अगले वर्ष ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिए अधिक मज़बूत जलवायु योजनाएं तैयार करने की प्रतिबद्धता दिखाई है।

कॉप-26 में लिए गए संकल्पों के आधार पर अनुमान है कि इस सदी में वैश्विक तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा जबकि सम्मेलन से पहले 2.7 डिग्री सेल्सियस का अनुमान था। बहरहाल, 2.4 डिग्री की वृद्धि भी गंभीर जलवायु प्रभाव पैदा कर सकती है। यह पेरिस समझौते के तहत निर्धारित 1.5 डिग्री या 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य से अधिक ही है।

ऐसा माना जा रहा है कि 2022 के अंत में नई योजनाओं को प्रस्तुत करने का मतलब यह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य छोड़ा नहीं गया है। यह भी कहा जा रहा है कि उनमें यह बात भी शामिल की जानी चाहिए कि यदि सरकारें अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाती हैं तो वे जवाबदेह होंगी। कई देशों की वर्तमान योजनाएं अपर्याप्त हैं और उन्हें मज़बूत करने की आवश्यकता है।

26 वर्षों से चली आ रही जलवायु वार्ता में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोयला और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। गौरतलब है कि कोयला दहन ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारणों में से एक है और कोयला, तेल एवं गैस पर विश्व स्तर पर प्रति वर्ष 5.9 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी दी जाती है।

ग्लासगो क्लाइमेट संधि के अंतिम मसौदे में सभी देशों ने अक्षम सब्सिडीज़ को खत्म करने के प्रयासों में तेज़ी लाने के प्रति सहमति दिखाई। लेकिन अंतिम समय में भारत के हस्तक्षेप ने कोयले के उपयोग सम्बंधी निर्णय को कमज़ोर कर दिया और कोयले के उपयोग को “चरणबद्ध तरीके से खत्म” करने की बजाय “चरणबद्ध तरीके से कम” करने को ही मंज़ूरी मिली। इस निर्णय में “नियंत्रित” कोयले को शामिल किया गया यानी कोयले का ऐसा उपयोग जिसके साथ कार्बन को अवशोषित करके भंडारण की व्यवस्था हो।

सम्मेलन में लिए गए निर्णयों से जलवायु कार्यकर्ताओं को काफी निराशा हुई है। सम्मेलन में 2030 तक उत्सर्जनों को आधा करने का निर्णय लिया जाना था जो 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि को सीमित करने के लिए आवश्यक है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार एक ही सम्मेलन से अत्यधिक उम्मीद रखना उचित नहीं है। यह निर्णय पर्याप्त तो नहीं हैं लेकिन यह एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत में कुछ अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं। 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य काफी कमज़ोर डोरी से टंगा है लेकिन अच्छी बात है कि यह आज भी जीवित है।

एक अच्छी बात यह भी है कि कई देशों ने माना है कि उनकी योजनाएं संतोषप्रद नहीं हैं और वादा किया है कि वे अगले वर्ष अधिक बेहतर योजनाओं के साथ शामिल होंगे जिसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के लक्ष्य को ध्यान में रखा जाएगा।              

इस सम्मेलन में वित्त सम्बंधी पिछले संकल्पों की भी चर्चा रही। उच्च-आय वाले देशों द्वारा कम-आय वाले देशों को 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता के वादे को पूरा करने में अभी 2 वर्ष का समय और लगेगा। देशों ने इस विषय में खेद व्यक्त करते हुए बताया कि 2019 में 80 अरब डॉलर ही प्रदान किए गए हैं और उसमें से भी एक चौथाई राशि तो जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन बैठाने के लिए थी। अगले तीन वर्षों में एक नई योजना तैयार करने पर भी सहमति बनी है जिसमें 2025 के बाद जलवायु वित्त लक्ष्यों पर चर्चा की जाएगी।   

पिछले कई सम्मेलनों में उत्सर्जन में कटौती की चर्चा में अनदेखा किए गए अनुकूलन के मुद्दे को भी उठाया गया। इस बार, उच्च-आय वाले देशों ने 2025 तक अनुकूलन वित्त को दोगुना करते हुए प्रति वर्ष 40 अरब डॉलर करने का निर्णय लिया है और भविष्य की वार्ताओं में भी वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य पर काम करने के लिए भी सहमत हुए हैं।

सम्मेलन में 77 विकासशील देशों के एक समूह और चीन द्वारा “नुकसान और क्षतिपूर्ति” के मुद्दे के लिए वित्तीय सहायता की मांग के प्रस्ताव स्वीकृति नहीं मिल सकी। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो यह समुद्र के बढ़ते स्तर और इन्तहाई मौसम जैसे प्रभावों के लिए उच्च-आय वाले देशों से कम-आय वाले देशों को वित्तीय क्षतिपूर्ति के क्षेत्र में पहला कदम होता। फिर भी देशों ने जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान और क्षतिपूर्ति के लिए वित्त के विषय में चर्चा जारी रखने का वादा किया है।       

देशों ने पेरिस समझौते के महत्वपूर्ण तकनीकी नियमों पर भी स्पष्टीकरण किए हैं जो पहली वैश्विक जलवायु संधि के समय से अबूझ रहे हैं। ऐसा एक मुद्दा “वैश्विक कार्बन बाज़ार” का है। देशों के लिए नए कार्बन लक्ष्यों के लिए “सामान्य समय-सीमा” की समस्या को भी हल किया गया। उत्सर्जन में कटौती की रिपोर्टिंग में पारदर्शिता नियमों की समस्या को भी हल किया गया। 

इस सम्मेलन के शुरुआत में देशों ने वनों की कटाई को रोकने, कोयले के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को रोकने, तेल और गैस की नई परियोजनाओं को रोकने और शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन पर अंकुश लगाने के लिए स्वैच्छिक रूप से सौदे किए। सम्मेलन में भारत ने 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की घोषणा की। ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब सहित कई देशों नें भी नेट-ज़ीरो लक्ष्य को प्राप्त करने की घोषणा की है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान विश्व उत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत नेट-ज़ीरो लक्ष्य में शामिल हो गया है। अगला जलवायु सम्मेलन मिस्र में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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