सालों तक उपज देने वाली धान की किस्म

चीन के वैज्ञानिकों ने धान की एक ऐसी किस्म तैयार की है जो एक बार लगाने पर कई वर्षों तक उपज देती रहेगी। दूसरे शब्दों में, यह धान की एक बहुवर्षी किस्म है जबकि आम तौर पर धान हर साल नए सिरे से रोपना होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस किस्म के उपयोग से रोपाई में लगने वाली लागत और मेहनत दोनों कम हो जाएंगी और मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार होगा।

वैसे तो गेहूं, मक्का, ज्वार आदि के समान धान भी एकवर्षी पौधा है यानी एक बार फूल आने के बाद यह नष्ट हो जाता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने देखा कि इनमें एक अंतर भी है। जहां गेहूं, मक्का के वगैरह के पौधे एक बार फूलने के बाद पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं, वहीं धान काटने के बाद बचे ठूंठ पर फिर से कोपलें फूटती हैं और फिर से फूल भी लगते हैं। लेकिन दूसरी बार में उपज बहुत कम होती है।

वैज्ञानिकों ने धान की इसी मूल बहुवर्षी प्रवृत्ति का फायदा उठाकर नई किस्म तैयार की है। उन्होंने एशिया में उगाई जाने वाली धान का संकरण नाइजीरिया में पाई जाने वाली एक जंगली बहुवर्षी धान से करवाया। इससे जो संकर बीज तैयार हुए उन्हें सही मायने में बहुवर्षी बनाने में कई साल लगे और वर्ष 2018 में इस नई किस्म (पेरेनियल राइस 23, पीआर-23) को चीन में किसानों के उपयोग के लिए जारी कर दिया गया है।

यह पता करने के लिए कि पीआर-23 कितनी बार अच्छी उपज देगी, युनान विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक फेंगी ह्यू ने तीन स्थानों के किसानों के सहयोग से एक अध्ययन किया। इन किसानों ने कुछ ज़मीन पर नई किस्म का धान लगाया और पांच साल तक साल में दो बार इससे उपज प्राप्त करते रहे। साथ ही कुछ भूमि पर सामान्य धान भी लगाया गया था।

पहले चार वर्षों तक पीआर-23 की उपज 6.8 टन प्रति हैक्टर रही जो सामान्य एकवर्षी धान से थोड़ी अधिक थी। नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि पांचवे साल में अलबत्ता उपज कम होने लगी।

यह भी पता चला कि पीआर-23 उगाने से मिट्टी की गुणवत्ता में भी सामान्य धान की तुलना में सुधार आया। मिट्टी में जैविक कार्बन और नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ी और उसमें पानी को रोके रखने की क्षमता में भी सुधार हुआ। अब शोधकर्ता यह भी देखने का प्रयास कर रहे हैं कि पीआर-23 ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में कहां बैठता है क्योंकि धान के खेत मीथेन का एक प्रमुख स्रोत हैं, जो एक ग्रीनहाउस गैस है और वैश्विक तापमान वृद्धि में योगदान देती है।

पीआर-23 और वार्षिक धान की उत्पादन लागत की तुलना में पता चला कि पहले वर्ष के बाद पीआर-23 की उत्पादन लागत साधारण धान से आधी होती है। इसके चलते 2020 में पीआर-23 का रकबा बढ़कर 15,333 हैक्टर हो गया हाालंकि यह चीन के कुल धान रकबे (2.7 करोड़ हैक्टर) का अंश मात्र ही था। चीन सरकार भी इस किस्म को प्रोत्साहन दे रही है और उम्मीद की जा रही है कि यह किसानों के बीच लोकप्रिय साबित होगी। गौरतलब है कि यह नई किस्म जेनेटिक रूप से परिवर्तित उत्पाद नहीं है, बल्कि दो किस्मों के संकरण का नतीजा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियों के लिए टीका!

हाल ही में जॉर्जिया की एक बायोटेक कंपनी को मधुमक्खियों के लिए टीके की सशर्त स्वीकृति प्राप्त हुई है। इस टीके से वायरस और अन्य रोगजनकों को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी जो मधुमक्खियों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीटों के लिए विश्व का पहला टीका है।

डेलन एनिमल हेल्थ नामक कंपनी द्वारा विकसित टीका मधुमक्खियों को अमेरिकन फाउलब्रूड जैसे बैक्टीरिया से सुरक्षा प्रदान करता है। फिलहाल इस बैक्टीरिया से निपटने के लिए मधुमक्खियों की संक्रमित कॉलोनियों को जला दिया जाता है या एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया जाता है।

गौरतलब है कि विश्व भर में मधुमक्खियों के करोड़ों छत्ते हैं लेकिन अन्य जीवों के विपरीत उनके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं है। इस टीके की मदद से अब मधुमक्खियों की प्रतिरोध क्षमता में सुधार की संभावना है।

टीके की बात आते ही लगता है कि सिरिंज की मदद से रोगजनक का मृत/दुर्बलीकृत संस्करण मधुमक्खी के शरीर में इंजेक्ट किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है – वास्तव में यह टीका भोजन के रूप में दिया जाएगा। टीके को रॉयल जैली में मिला दिया जाएगा जो रानी मधुमक्खी को खिलाई जाती है। इसे निगलने पर यह टीका उनके अंडाशय में जमा हो जाएगा और नई पीढ़ी की इल्लियां प्रतिरक्षा के साथ पैदा होंगी।   

वैज्ञानिकों का मानना रहा है कि कीटों में एंटीबॉडी नहीं होती, इसलिए उनमें प्रतिरक्षा विकसित होना संभव नहीं है। एंटीबॉडी एक प्रकार के प्रोटीन होते हैं जिनकी मदद से कई जंतु बैक्टीरिया और वायरस को पहचानकर उनसे लड़ते हैं। अलबत्ता, एक बार यह समझ लेने के बाद कि कीट भी प्रतिरक्षा हासिल कर सकते हैं और अगली पीढ़ी को दे सकते हैं, वैज्ञानिकों ने इस दिशा में काम करना शुरू किया।

वर्ष 2015 में डेलाइल फ्राइटेक और उनके सहयोगियों ने उस विशिष्ट प्रोटीन की पहचान की जो संतानों में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा कर सकता है। यानी छत्ते की रानी मधुमक्खी की मदद से पूरे छत्ते की आबादी में प्रतिरक्षा विकसित की जा सकती है क्योंकि एक छत्ते में सारी संतानें एक ही रानी मधुमक्खी की होती हैं। वैज्ञानिकों का पहला लक्ष्य अमेरिकन फाउलब्रूड रोग था। इसके कारण मधुमक्खी के लार्वा भूरे होकर छत्ते में दुर्गंध उत्पन्न करने लगते हैं। यह मधुमक्खियों की कॉलोनियों को खत्म करने में भी सक्षम है।

यह टीका महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि खाद्य प्रणाली में मधुमक्खियां परागणकर्ता की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कई फसलों के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन कुछ समय से जलवायु परिवर्तन, कीटनाशकों, प्राकृतवासों के नष्ट होने और बीमारियों के कारण इनकी आबादी में कमी आई है। इस टीके को सशर्त अनुमोदन देने से कंपनियों को मधुमक्खियों के लिए टीके बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा। खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुछ कैनरी पक्षी खाने में माहिर होते हैं

कैनरी के लिए बीज खाना सीखना एक कठिन काम हो सकता है। लेकिन शोधकर्ताओं ने पिछले हफ्ते सम्पन्न हुई सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में बताया कि इनमें से कुछ पक्षी अपने साथी पक्षियों की तुलना में काष्ठ फलों की सख्त खोल को तोड़ने में चार गुना अधिक तेज़ होते हैं और उनके अंदर मौजूद पौष्टिक गरी तक पहुंच जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने 90 कैनरी पक्षियों का बाज़ार में मिलने वाले उनके भोजन या सन के बीज खाते हुए वीडियो बनाया। इन बीजों की साइज़ सेब के बीज औैर तिल के बीच थी, और इनकी खोल सख्त थी। इस सबमें पक्षियों के लिए सबसे कठिन काम था बीजों को चोंच में सही जगह पर सही तरीके से रखना ताकि चोंच बड़े करीने से इसे फोड़ सके – बीज की खोल फूटकर छिटक जाए और गरी चोंच में बनी रहे।

फुर्तीली कैनरियों को बीज को चोंच में सही स्थिति में रखने और इसे फोड़ने में 4 सेकंड या उससे भी कम समय लगा, और इनमें से कुछ कैनरी ने लगभग 80 प्रतिशत बार सफलतापूर्वक बीज फोड़ लिए। लेकिन अन्य कैनरियों को केवल 40 प्रतिशत बार ही सफलता मिली।

आप इस अध्ययन का वीडियो यहां देख सकते हैं:

https://www.science.org/content/article/some-canaries-are-superstar-seed-crackers-watch-their-tricks?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_

शोधकर्ताओं के अनुसार जल्दी खाना जीवित रहने का एक ज़रूरी कौशल है: कोई पक्षी भरपेट खाने में जितना अधिक समय लगाएगा, उतना ही अधिक समय तक वह खुले में रहेगा, और उतना ही अधिक उसे शिकारियों का खतरा होगा और उसके पास उतना ही कम समय प्रजनन और अपने बच्चों की देखभाल के लिए बचेगा। शोधकर्ताओं का कहना है कि सबसे कुशल पक्षी जानते थे कि उनकी चोंच में बीज कहां है।

अब, आगे के अध्ययन में शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या यह समझ सीखी गई है या उन्हें विरासत में मिली है। (स्रोत फीचर्स)

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वन सृजन व हरियाली बढ़ाने के सार्थक प्रयास – भारत डोगरा

ध्य प्रदेश के टीकमगढ़ ज़िले के मरखेड़ा गांव में हाल ही में नया वन तैयार करने का एक ऐसा प्रयास गांववासियों ने किया है जिसे देखने के लिए आसपास के क्षेत्रों से अनेक लोग यहां आ रहे हैं। यहां लगभग 36 स्थानीय प्रजातियों के 1800 पेड़ इस तरह सघनता से पास-पास लगाए गए हैं कि कम क्षेत्र में अधिक पेड़ पनप सकें व एक तरह का पेड़ दूसरी प्रजाति के वृक्ष का पूरक हो। वृक्ष लगाने से पहले भूमि को एक मीटर खोदा गया, इसमें भरपूर गोबर, पत्तियों व भूसे की खाद परतों में डाली गई, फिर मिट्टी की तह वापस बिछाई गई।

इससे पहले जल-संरक्षण का कार्य किया गया था, जिससे पानी की कमी नहीं हुई। सृजन संस्था द्वारा आरंभ किया गया यह कार्य सभी स्तरों पर गांववासियों की भागीदारी व परामर्श से हुआ, जिससे उनका उत्साह और बढ़ गया। गांववासियों ने बताया कि जिस तरह अपनी फसल की सिंचाई और रख-रखाव वे बहुत निष्ठा से करते हैं, वैसे ही उन्होंने इन पौधों की देखभाल की है।

परिणाम यह है कि 1800 में से एक भी पौधा नहीं सूखा व सभी के पनपने की दर इतनी अच्छी रही कि आठ-नौ महीने बाद 6 से 14 फीट ऊंचे पौधे ललहाते नज़र आने लगे। इसके साथ ही मोर, तोते आदि पक्षी भी यहां अधिक नज़र आने लगे।

इस तरह के वन-प्रयासों को तपोवन का नाम दिया गया है व इन्हें पहले टीकमगढ़ ज़िले में स्थापित करने के बाद कई अन्य ज़िलों में भी फैलाया जा रहा है। पर साथ ही इसमें कुछ सावधानियों को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है ताकि पेड़ों का घनत्व बहुत अधिक न हो जाए। पेड़ों की धरती के ऊपर की बढ़त के साथ उनकी जड़ों पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।

इस ‘तपोवन’ प्रयास की मुख्य विशेषता यह है कि यह पूरी तरह स्थानीय प्रजातियों पर ही आधारित है व बहुत जैव-विविधता को पनपाने वाला है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि पेड़ लगाने में बहुत मेहनत और निष्ठा से प्राकृतिक खाद का पोषण मिट्टी में दिया जाता है व इस आधार पर वृक्षों की बहुत स्वस्थ प्रगति प्राप्त हो रही है।

‘तपोवन’ वन पद्धति की सोच जापान के एक विख्यात वनस्पति वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी की सोच से जुड़ी हुई है व इसके भारत सहित अनेक देशों में बहुत सार्थक परिणाम प्राप्त हो चुके हैं। एक सघन वन व जैव विविधता भरपूर वन को अपेक्षाकृत कम समय में इस विधि द्वारा पनपाया जा सकता है। जलवायु बदलाव के इस दौर में हरियाली व वन बढ़ाने के बेहतर तौर-तरीकों के बारे में बहुत सोचा जा रहा है व इस संदर्भ में यह सोच बहुत सार्थक हो सकती है।

लगभग दो-तीन वर्षों में यह वन स्वयं पनपने लगता है, और इसे बाहरी सिंचाई आदि की आवश्यकता नहीं रह जाती है।

वैसे मियावाकी की इस सोच के अतिरिक्त कुछ अन्य तरह की सोच भी हरियाली को तेज़ी से बढ़ाने में सहायक है। इसमें एक सोच यह है कि जो स्थानीय प्राकृतिक वन अच्छी स्थिति में बचे हैं उनका गहन अध्ययन स्थानीय लोगों के सहयोग से किया जाए व इस आधार पर स्थानीय स्थितियों के अनुकूल जो सोच बने उसी का अनुकरण नए वनीकरण प्रयास में किया जाए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न स्थानीय परिस्थितियों (मिट्टी, जलवायु, वर्षा) आदि के अनुकूल प्रकृति जैसा वन स्वयं तैयार करती है, मनुष्य सृजित वन भी उसके अधिक से अधिक नज़दीक बने रहने का प्रयास करना चाहिए व इस तरह के मार्ग को अपनाते हुए अपने आप उस दिशा में बढ़ सकेंगे जहां वनीकरण प्रयास टिकाऊ तौर पर सफल होने की अधिक संभावना है।

इस तरह की विभिन्न सार्थक सोच के आधार पर प्रयोग करने चाहिए। ये प्रयास वनीकरण की हमारी समझ बढ़ाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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सौर जल अपघटन से हरित ऊर्जा

काफी लंबे समय से वैज्ञानिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए सूरज की ऊर्जा और पानी का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं; लगभग उसी तरह जैसे पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान करते हैं। सूर्य के प्रकाश का उपयोग करते हुए पानी के अणुओं को तोड़ने की वर्तमान तकनीक इतनी कार्यक्षम नहीं है कि इसे व्यवसायिक रूप से अपनाया जा सके। अलबत्ता, हालिया शोध से कुछ उम्मीद जगी है।

पूर्व में सूर्य की ऊर्जा से पानी के अणुओं को विभाजित करने के प्रयासों में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अणुओं के बंधन को तोड़ने के लिए ऊर्जावान फोटॉन की आवश्यकता होती है। इसके लिए कम तरंग लंबाई यानी अधिक ऊर्जावान (पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश के कम) फोटॉन यह काम कर सकते हैं। लेकिन सूर्य से जो रोशनी पृथ्वी तक पहुंचती है उसमें 50 प्रतिशत तो इन्फ्रारेड (अवरक्त) फोटॉन होते हैं जिनमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती। 

हालिया नई तकनीक में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के बंधन को तोड़ने के लिए दो रणनीतियां आज़माई गई हैं।

पहली तकनीक में प्रकाश-विद्युत-रासायनिक सेल (फोटोइलेक्ट्रोकेमिकल सेल, पीईसी) का उपयोग किया जाता है। यह उपकरण एक बैटरी के समान होता है। इसके दो इलेक्ट्रोड एक तरल इलेक्ट्रोलाइट में डूबे रहते हैं। इनमें से एक इलेक्ट्रोड एक छोटे सौर सेल की तरह काम करता हैं – सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करके उसकी ऊर्जा को विद्युत आवेश में बदल देता है। ये आवेश इलेक्ट्रोड पर उपस्थित उत्प्रेरकों को मिलते हैं और वे पानी के अणु विभाजित कर देते हैं। एक इलेक्ट्रोड पर हाइड्रोजन गैस और दूसरे पर ऑक्सीजन गैस उत्पन्न होती है।

सर्वोत्तम पीईसी सूर्य के प्रकाश की लगभग एक-चौथाई ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित करता है। लेकिन इसके लिए संक्षारक इलेक्ट्रोड की आवश्यकता होती है जो काफी तेज़ी से प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को नष्ट करता है।  

मोनोलिथिक फोटोकैटेलिटिक सेल नामक दूसरी रणनीति में बैटरी जैसा उपकरण उपयोग न करके प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को सीधे पानी में डुबाकर रखा जाता है। यह अर्धचालक सूर्य के प्रकाश का अवशोेषण करके विद्युत आवेश उत्पन्न करता है जो इसकी सतह पर उपस्थित उत्प्रेरक धातुओं को मिलता और वे पानी के अणु विभाजित कर देती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन पास-पास उत्पन्न होते हैं और फिर से जुड़कर पानी बना देते हैं।    

फोटोकैटेलिटिक सेल की दक्षता काफी कम है और सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का केवल 3 प्रतिशत ही हाइड्रोजन में परिवर्तित होता है। इसका एक समाधान अर्धचालकों के आकार को पारंपरिक सौर पैनलों के बराबर करना है। लेकिन पानी को विभाजित करने वाले अर्धचालक पारंपरिक सिलिकॉन सौर पैनलों की तुलना में काफी महंगे होते हैं जिसके कारण इनका उपयोग घाटे का सौदा है।

इस नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के रसायनज्ञ ज़ेटियन मी ने फोटोकैटेलिटिक उपकरण में एक बड़े-से लेंस का उपयोग किया। लेंस ने सूर्य के प्रकाश को एक छोटे-से क्षेत्र पर केंद्रित कर दिया जिससे पानी के अणुओं को तोड़ने वाले अर्धचालक के आकार और लागत को कम किया जा सका। मी ने एक परिवर्तन यह भी किया कि पानी के तापमान को 70 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया जिससे अधिकांश हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों को पुन: पानी में परिवर्तित होने से रोका जा सका।

मी द्वारा बनाया गया नवीनतम उपकरण न केवल पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश का उपयोग करता है बल्कि कम ऊर्जावान इन्फ्रारेड फोटोन के साथ भी काम करता है। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन परिवर्तनों की मदद से वैज्ञानिक सूर्य की 9.2 प्रतिशत ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित कर पाए।

मी के अनुसार पीईसी की तुलना में फोटोकैटेलिटिक सेल का डिज़ाइन काफी आसान है और बड़े पैमाने पर उत्पादन से इसकी लागत में और कमी आएगी। इसके अलावा नया सेटअप थोड़ी कम कुशलता से ही सही लेकिन समुद्री जल जैसे सस्ते संसाधन के साथ भी काम करता है। समुद्री जल को कार्बन-मुक्त ईंधन में परिवर्तित करना हरित ऊर्जा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान होगा। बहरहाल, इस तरह के उपकरण के व्यावसायिक उपयोग में कई समस्याएं आएंगी। जैसे एक समस्या तो यह होगी कि हाइड्रोजन व ऑक्सीजन गैसों को दूर-दूर कैसे रखा जाए क्योंकि अन्यथा उनकी अभिक्रिया क्रिया काफी विस्फोटक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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राजहंस कैसे कीचड़ से भोजन छान लेता है

गुलाबी पंखों और लंबे डग भरने वाले फ्लेमिंगो (राजहंस) अन्य मामलों में भी बाकियों से अलग हैं। वे कीचड़ में से छोटे-छोटे झींगों, कीड़े-मकोड़ों और अन्य जीवों को छानने (या चुनने) में इतने माहिर हैं कि वे कम भोजन वाले उन इलाकों, जिनमें नमक के मैदान, क्षारीय झीलें और गर्म पानी के झरने शामिल हैं, में भी जीवित रहते हैं, जहां से अधिकांश पक्षी पलायन कर जाते हैं।

पिछले हफ्ते सोसाइटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में फ्लेमिंगो की खानपान की आदतों पर प्रस्तुत एक नवीन अध्ययन में बताया गया कि इस सफलता का कारण तरल यांत्रिकी में उनकी महारत है। वे पानी की भौतिकी की मदद से भोजन मुंह तक पहुंचाते हैं।

जॉर्जिया युनिवर्सिटी के विक्टर ओर्टेगा-जिमेनेज़ और उनके साथियों ने नैशविले चिड़ियाघर में चिली फ्लेमिंगो के पानी में चलने और खाने के व्यवहार का अध्ययन परिष्कृत इमेजिंग तकनीकों और कंप्यूटर प्रोग्राम की मदद से किया। फिर अपने अनुमानों की जांच उन्होंने फ्लेमिंगो के सिर के त्रि-आयामी मॉडल पर की।

उन्होंने पाया कि फ्लेमिंगो चोंच को गोल-गोल घुमाकर पानी में भंवर पैदा करते हैं जिससे भोजन उनकी पहंुच में आ जाता है। उदाहरण के लिए, राजहंस पैर पटकते हैं और छोटे गोले में चारों ओर घूमते हैं जिससे कीचड़ ऊपर उछलता है। फिर वे अपनी चोंच को पेंदे से सटाते हैं और अपने मुंह को बार-बार खोलते-बंद करते हैं जैसे पटर-पटर बात कर रहे हों, फिर तालाब के पेंदे से जीभ सटाकर अपनी जीभ को अंदर-बाहर खींचते हुए सक्शन पैदा करते हैं। बीच-बीच में, वे अचानक अपना सिर उठाते हैं जिससे एक भंवर पैदा होता है, जो भोजन को ऊपर उनके मुंह की ओर उठाता है। और आखिर में, जैसे ही फ्लेमिंगो आगे बढ़ते हैं, वे अपनी चोंच से पानी की सतह को पीछे की ओर फेंकते हैं, जिससे पानी में भंवर बन जाता है जो भोजन को ठीक उनकी चोंच के सिरे पर ले आता है। और भोजन सीधे पेट में पहुंचने को तैयार होता है। (स्रोत फीचर्स)

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सोना निर्माण की प्रक्रिया काफी उग्र रही है

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वैज्ञानिक हीलियम से लेकर लोहे तक हल्के तत्वों (जिनके नाभिक में 2 से लेकर 26 प्रोटान होते हैं) के निर्माण के बारे में अच्छे से जानते हैं। यह पता है कि ये तत्व तारों के अंदर क्रमिक रूप से प्रोटॉन जुड़ने से बनते हैं। लेकिन सोना, प्लेटिनम, रैडॉन जैसे अधिक प्रोटान की संख्या (यानी परमाणु संख्या) वाले भारी तत्व कैसे बने इसके बारे में अब तक पूरी तरह से पता नहीं चल सका था क्योंकि ये उपरोक्त क्रमिक प्रक्रिया से नहीं बन सकते। एक हालिया रिपोर्ट ने इस दिशा में कुछ उम्मीद जगाई है।

वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इन दुर्लभ तत्वों के बनने के पीछे ब्रह्मांड की कोई भयंकर हिंसक या विनाशकारी घटना होगी – जैसे दो न्यू़ट्रॉन तारों की टक्कर। इसलिए वे लगातार ब्रह्मांड पर नज़रें टिकाए हुए थे।

ब्लैक होल के बाद न्यूट्रॉन तारे ही ब्रह्मांड के सबसे घने पदार्थ हैं। ये तब बनते हैं जब कोई भारी तारा मर जाता है और उसका कोर सिकुड़ने लगता है। अत्यधिक गुरुत्व बल परमाणुओं को अत्यधिक पास लाने लगता है, इससे प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन टूटकर न्यूट्रॉन बन जाते हैं। अंत में एक ऐसा पिंड बनता है जो लगभग पूरी तरह से न्यूट्रॉन से बना होता है। इसे न्यूट्रॉन तारा कहते हैं।

कुछ साल पहले वैज्ञानिकों को इसी तरह की घटना से गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता चला था, और उसी समय इस घटना से उत्पन्न प्रकाश भी देखा गया। उन्हें इस प्रकाश में इन भारी तत्वों के रासायनिक संकेत मिले हैं जो इस सिद्धांत के समर्थन में पहले साक्ष्य हैं कि भारी धातुओं का निर्माण दो न्यूट्रॉन तारों की टक्कर जैसी किसी उग्र घटना का परिणाम है।

जब दो न्यूट्रॉन तारे टकराते हैं तो यह भिड़ंत अत्यधिक ऊष्मा और दाब पैदा करती है। यह टक्कर बहुत सारे मुक्त न्यूट्रॉन को भी बाहर भी फेंक देती है – अंतरिक्ष के 1-1 घन सेंटीमीटर क्षेत्र में 1-1 ग्राम तक न्यूट्रॉन बिखर जाते हैं।

ये दुर्लभ स्थितियां तीव्र न्यूट्रॉन-ग्रहण प्रक्रिया (R-प्रोसेस) को शुरू करती हैं। प्रक्रिया एक लोहे जैसे किसी मूल नाभिक से शुरू होती है। सामान्यत: लोहे के नाभिक में 26 प्रोटॉन और लगभग 30 न्यूट्रॉन होते हैं। लेकिन जब R-प्रोसेस शुरू होती है तो मिलीसेकेंड के भीतर ही इसमें बहुत अधिक न्यूट्रॉन आ जाते हैं। न्यूट्रॉन की इतनी अधिक संख्या के कारण नया नाभिक बहुत अस्थिर हो जाता है, इसलिए कुछ न्यूट्रॉन प्रोटॉन में बदल जाते हैं। इस प्रक्रिया का परिणाम एक नया तत्व – सोना (परमाणु संख्या 79, प्लेटिनम (परमाणु संख्या 78) वगैरह – हो सकता है। ज़रा सोचिए, आपकी सोने या प्लेटिनम की अंगूठी, या कानों की बालियां ब्रह्मांड की किसी उग्र घटना की सौगात हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन रोमन इमारतों की मज़बूती का राज़

युरोप में आज भी प्राचीन रोमन इमारतें दिखाई देती हैं। 2000 से अधिक वर्ष पूर्व निर्मित हमाम, जल प्रणालियां और समुद्री दीवारें आज भी काफी मज़बूत हैं। इस मज़बूती और टिकाऊपन का कारण एक विशेष प्रकार की कॉन्क्रीट है जो आज के आधुनिक कॉन्क्रीट की तुलना में अधिक टिकाऊ साबित हुआ है। हाल ही में इस मज़बूती का राज़ खोजा गया है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि कॉन्क्रीट के साथ अनबुझे चूने का उपयोग करने से मिश्रण को सेल्फ-हीलिंग (स्वयं की मरम्मत) का गुण मिला होगा। प्राचीन रोमन कॉन्क्रीट का अध्ययन करने वाली भूवैज्ञानिक मैरी जैक्सन के अनुसार इससे आधुनिक कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

गौरतलब है कि कॉन्क्रीट का उपयोग रोमन साम्राज्य से भी पहले से किया जा रहा था लेकिन व्यापक स्तर पर इसका उपयोग सबसे पहले रोमन समुदाय ने किया था। 200 ईसा पूर्व तक उनकी अधिकांश निर्माण परियोजनाओं में कॉन्क्रीट का उपयोग किया जाने लगा था। रोमन कॉन्क्रीट मुख्य रूप से अनबुझे चूने, ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली गिट्टियों (टेफ्रा) और पानी से बनाया जाता था। इसके विपरीत आधुनिक कॉन्क्रीट पोर्टलैंड सीमेंट से बनता है जिसे आम तौर पर चूना पत्थर, मिट्टी, रेत, चॉक और अन्य पदार्थों के मिश्रण को पीसकर भट्टी में बनाया जाता है। इसके बावजूद यह 50 वर्षों में उखड़ने लगता है।  

पूर्व में भी वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट की मज़बूती को समझने के प्रयास किए हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि समुद्र के संपर्क में आने वाली संरचनाएं जब समुद्री जल से संपर्क में आती हैं तब कॉन्क्रीट के अवयवों और समुद्री पानी की प्रतिक्रिया नए और अधिक कठोर खनिज बनाती हैं।                        

इसकी और अधिक संभावनाओं को तलाशने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के रसायनज्ञ एडमिर मैसिक और उनके सहयोगियों ने रोम के नज़दीक 2000 वर्ष पुराने प्रिवरनम नामक पुरातात्विक स्थल की एक प्राचीन दीवार से ठोस नमूने एकत्रित किए। इसके बाद उन्होंने कंक्रीट में जमा हुए छोटे-छोटे कैल्शियम के ढेगलों पर ध्यान दिया जिन्हें लाइम लम्प्स कहा जाता है।

कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ये लम्प्स कॉन्क्रीट को ठीक से न मिलाने के कारण रह जाते होंगे। लेकिन मैसिक की टीम ने रोमन लोगों द्वारा कॉन्क्रीट में पानी मिलाने से पहले अनबूझा चूना उपयोग करने की संभावना पर विचार किया। गौरतलब है कि अनबूझा चूना चूना पत्थर को जलाकर तैयार किया जाता है। इसमें पानी मिलाने पर एक रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिसमें काफी मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस दौरान चूना पूरी तरह से नहीं घुल पाता और कॉन्क्रीट में चूने की गिठलियां बन जाती हैं। इसे और अच्छे से समझने के लिए वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट बनाया जो प्रिवरनम से एकत्रित नमूनों के एकदम समान था।         

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में टीम ने बताया है कि उन्होंने इस कॉन्क्रीट में छोटी-छोटी दरारें बनाईं – ठीक उसी तरह जैसे समय के साथ कॉन्क्रीट में दरारें पड़ जाती हैं। फिर उन्होंने इन दरारों में पानी डाला जिससे चूने की गिलठियां घुल गईं और सभी दरारें भर गईं। इस तरह कॉन्क्रीट की मज़बूती भी बनी रही। ।

आधुनिक कॉन्क्रीट 0.2 या 0.3 मिलीमीटर से बड़ी दरारों को ठीक नहीं करता है जबकि रोमन कॉन्क्रीट ने 0.6 मिलीमीटर तक की दरारों को ठीक तरह से भर दिया था।    

मैसिक को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में काफी मदद करेंगे। इसकी सामग्री न केवल वर्तमान कॉन्क्रीट से सस्ती है बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी काफी मदद कर सकती है। वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सीमेंट उत्पादन का हिस्सा 8 प्रतिशत है। इस तकनीक के उपयोग से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खीरे, खरबूज़े और लौकी-तुरैया – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दुनिया के सभी भागों के लोग एक वनस्पति कुल, कुकरबिटेसी, से बहुत करीब से जुड़े हैं। इस विविधता पूर्ण कुल में तरबूज़, खरबूज़, खीरा और कुम्हड़ा-कद्दू शामिल हैं। जिन कुकरबिट्स की खेती कम की जाती है उनमें करेला, कुम्हड़ा, चिचड़ा, लौकी, गिलकी और तुरई शामिल हैं।

कुकरबिट्स आम तौर पर रोएंदार बेलें होती हैं। इनमें नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं जो एक ही बेल पर या अलग-अलग बेलों पर लगे हो सकते हैं। इनके फल स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं, जो विधिध रंग, स्वाद और आकार में मिलते हैं। ये भारत की भू-जलवायु में अच्छी तरह पनपते हैं। इनकी बुवाई का मौसम आम तौर पर नवंबर से जनवरी तक होता है, और गर्मियों में इनके फल पक जाते हैं।

कुकरबिटेसी कुल में मीठे तरबूज़ से लेकर कड़वे करेले तक का स्वाद है और छोटे चिचोड़े से लेकर बड़े आकार का कद्दू तक है। यह विविधता उनके मोज़ेक-सरीखे गुणसूत्रों के अवयवों में फेरबदल का परिणाम है। इसलिए, एक ही जीनस (कुकुमिस) के सदस्य होने के बावजूद खीरे में सात गुणसूत्र होते हैं और खरबूजे में 12।

आलू के विपरीत, जो केवल 450 साल पहले पूरे विश्व में फैला, कुकुरबिट्स सहस्राब्दियों से दुनिया भर की खाद्य अर्थव्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। ये समुद्री लहरों पर सवार होकर किनारों पर पहुंचे और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढल गए। आधुनिक जीनोमिक तकनीकों की मदद से उनके मूल स्थान को पहचानने की आवश्यकता है।

खीरा भारत का स्वदेशी है। खीरा की जंगली प्रजातियां हिमालय की तलहटी में पाई जाती हैं। इन्हें रोमन लोग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व युरोप ले गए थे।

रेगिस्तानी खरबूज़े

राजस्थान के थार रेगिस्तान में स्थानीय लोग अल्प मानसून से जमा हुए पानी से तरबूज़-खरबूज़ की जंगली किस्में उगाते हैं। कम गूदे और ज़्यादा बीज वाले ये फल छोटे होते हैं, जिन्हें सब्ज़ियों के रूप में पकाया जाता है।

हालिया अध्ययनों ने यह स्थापित किया है कि भारत में आज हम तरबूज़-खरबूज़ की जो किस्में देखते हैं, वे पालतूकरण (खेती) करने की दो स्वतंत्र घटनाओं की उत्पाद हैं। इन्होंने जंगली प्रजातियों की कड़वाहट और खट्टापन खो दिया है, और इनके पत्ते, बीज और फल बड़े होते हैं। अफ्रीका में पाई जाने वाली खरबूज़ की प्रजातियों का स्वतंत्र रूप से पालतूकरण हुआ था, लेकिन अफ्रीकी खरबूज़ छोटा होता है और इसके स्वाद में थोड़ी कड़वाहट बरकरार है। तब कोई आश्चर्य नहीं कि पूरी दुनिया में उगाए जाने वाले तरबूज़-खरबूज़ भारतीय मूल के हैं।

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों के स्वाद में विविधता का असर करेले में दिखाई देता है। हाल ही में (800 साल पहले) थाईलैंड और पड़ोसी देशों में पाई जाने वाली करेले की देशी किस्में बड़ी, कम कड़वी और चिकनी और लगभग सफेद होती हैं। इसकी तुलना में, कंगूरेदार छिलके वाली भारतीय किस्में छोटी और अधिक कड़वी होती हैं, और काफी लंबे समय से उगाई जा रही हैं।

पोषण

करेला खनिज पदार्थों और विटामिन सी का समृद्ध स्रोत है। रोज़ाना 100 ग्राम करेले का सेवन औसत व्यक्ति के लिए आवश्यक विटामिन सी की पूरी (और आधे विटामिन ए) की आपूर्ति कर सकता है, जबकि इससे केवल 150 मिलीग्राम वसा ही मिलती है। सामान्य तौर पर, पोषण के मामले में कुकुरबिट्स वसा और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के ठीक उलट होते हैं। कुकुरबिट्स में लगभग 85-95 प्रतिशत पानी होता है, और ये कम कैलोरी देते हैं।

आहार में शामिल होने और औषधीय महत्व होने के अलावा, कुकुबिट्स के दिलचस्प उपयोग भी हैं। गिलकी जब पककर सूख जाती है तो त्वचा की देखभाल के लिए स्पंज की तरह उपयोग की जाती है। सूखी लौकी (तमिल में सुरक्कई) सरोद, सितार और तानपुरा जैसे वाद्य यंत्रों में गुंजन यंत्र की तरह उपयोग की जाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैरेबियन घोंघों का संरक्षण, मछुआरे की चिंतित

रानी घोंघा अपनी आकर्षक खोल (शंख) और स्वादिष्ट मांस के लिए प्रसिद्ध है। सदियों से इन्हें इनके मांस के लिए पकड़ा जा रहा है। इनके मांस की सबसे अधिक खपत संयुक्त राज्य अमेरिका में होती है। अमरीकी सरकार के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि इस आपूर्ति के लिए इनका अतिदोहन रानी घोंघो को विलुप्ति की ओर धकेल सकता है।

इस अध्ययन पर सार्वजनिक राय लेने के बाद अब इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इन कैरेबियाई प्रजातियों को संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत जोखिमग्रस्त जीवों की सूची में शामिल किया जाए या नहीं।

इस कदम का कई देशों के मछुआरे विरोध कर रहे हैं – उनकी चिंता है कि इस तरह सूचीबद्ध करने से यूएस को घोंघे का मांस निर्यात करना मुश्किल हो जाएगा, जो उनका सबसे बड़ा बाज़ार है।

अध्ययन पर अंतर-सरकारी संगठन, कैरेबियन रीजनल फिशरीज़ मैकेनिज़्म, की मत्स्य विज्ञानी मैरेन हेडली का कहना है कि हमें नहीं लगता है कि इस समय संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत इन प्रजातियों को सूचीबद्ध करना उचित है, या इनकी रक्षा के लिए यही सर्वोत्तम विकल्प है। प्रजातियों को जोखिमग्रस्त सूची में शामिल करने से पड़ने वाले संभावित आर्थिक प्रभाव का हवाला देते हुए उनका कहना है कि हमारा उद्देश्य मत्स्य-संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होना चाहिए।

ये घोंघे समूचे कैरबियाई सागर में समुद्री घास के झुरमुटों में रहते हैं। बहामास के तट पर पकड़े गए घोंघों की खोल का विशाल ढेर इनके अतिदोहन का गवाह है। ये तो गनीमत है कि इनमें से कुछ प्रजातियां अपनी कुछ खासियत की वजह से कभी-कभी शिकारी गोताखोरों से बच जाती हैं। कुछ घोंघे दुर्गम समुद्री इलाकों में या बहुत गहराई में रहने की वजह से सुरक्षित बच जाते हैं। वहीं वयोवृद्ध घोंघे, जो 35 सेंटीमीटर तक लंबे हो जाते है, उम्र के साथ उनकी खोल पर उगने वाले शैवाल या प्रवाल की वजह से शिकारियों से ओझल रहते हैं।

इनके अतिदोहन के कारण 1975 में फ्लोरिडा में घोंघे पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इनकी घटती आबादी के कारण अन्य देशों ने भी इस पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। और 1992 में वन्य जीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि (CITES) द्वारा घोंघों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित किया गया। घोंघे के निरंतर अतिदोहन से चिंतित CITES ने 2003 में होंडुरास, हैती और डोमिनिकन गणराज्य से घोंघे के आयात पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।

यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) द्वारा की गई समीक्षा के अनुसार, वर्तमान में हर जगह इनकी संख्या कम है, और शेष स्थानीय आबादी में जीन प्रवाह बनाए रखने के लिए लार्वा पर्याप्त रूप से नहीं फैल रहे हैं। हालांकि बहामास, जमैका और कुछ अन्य स्थानों में घोंघे अभी फल-फूल रहे हैं, लेकिन आने वाले सालों में होने वाला दोहन इन्हें विलुप्ति की ओर ले जा सकता है। इन्हें संकटग्रस्त की सूची में डालने से भविष्य में अन्य देशों में इनके आयात पर प्रतिबंध को उचित ठहराया जा सकेगा, और घोंघा पालन के बेहतर प्रबंधन की राह आसान हो जाएगी। 2018 में अमेरिका ने 3.3 करोड़ डॉलर के घोंघे का मांस का आयात किया था। इसलिए इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करना एक स्पष्ट संदेश देगा कि यह प्रजाति खतरे में है।

लेकिन इससे सभी सहमत नहीं है। प्यूर्टो रिको विश्वविद्यालय के मत्स्य जीवविज्ञानी रिचर्ड एपलडॉर्न का कहना है कि उन्हें घोंघों की स्थिति उतनी भयानक नहीं लगती। जैसे, उनका कहना है कि उपरोक्त अध्ययन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि घोंघे प्रजनन से पहले इकट्ठे होते हैं, इसलिए आबादी का फैलाव और घनत्व भ्रामक दिख सकता है। उनके अनुसार, घोंघे पकड़ने वाले समुदायों के ज्ञान को शामिल करने से बेहतर सर्वेक्षण हो सकता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि कुशल वैज्ञानिक घोंघे गिनने में भी माहिर हों।

कुछ देशों का कहना है कि वे घोंघों के शिकार का प्रबंधन करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बेलीज़ मत्स्य विभाग के मौरो गोंगोरा ने बताया कि उनके देश में 15,000 लोग घोंघों से लाभान्वित होते हैं, खासकर तटवर्ती छोटे गांवों के मछुआरे, और यहां की घोंघो की आबादी अच्छी तरह से प्रजनन कर रही है। चूंकि हम घोंघों के महत्व को पहचानते हैं इसलिए हम इनके बेहतर प्रबंधन के भरसक प्रयास कर रहे हैं।

लेकिन इस पर एनओएए का कहना है कि कई कैरेबियाई देशों में संरक्षण सम्बंधी नियम-कायदों की कमी है। इनकी आबादी में गिरावट को रोकने के लिए अधिक कदम उठाने की ज़रूरत है।

जमैका के मत्स्य पालन निदेशक स्टीफन स्मिकले का कहना है कि घोंघों के अवैध और अनियंत्रित शिकार से निपटने के लिए अमेरिकी सरकार के अधिक समर्थन की ज़रूरत है। इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करने से वित्तीय मदद को बढ़ावा मिल सकता है। और इससे त्वरित संरक्षण और आबादी सुधार प्राथमिकता बन जाएगी।

अधिक वित्तीय सहयोग से कृत्रिम परिवेश में अंडों को सेकर घोंघों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लेकिन ऐसा करना एक बहुत गंभीर घाव की महज़ मलहम-पट्टी करने जैसा होगा। प्राकृतिक प्रजनन के माध्यम से घोंघो की आबादी में सुधार करना ही एकमात्र स्थायी तरीका है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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