मुफ्त बिजली की बड़ी कीमत – श्रीकुमार नालूर और एन्न जोसे

हालिया चुनावों में मुफ्त बिजली का मुद्दा काफी चर्चा में रहा। विभिन्न राजनीतिक दलों ने मुफ्त बिजली की एक से बढ़कर एक योजनाओं का वादा किया। घरेलू उपयोग के लिए 300 युनिट प्रति माह मुफ्त बिजली से लेकर कृषि क्षेत्र के लिए मुफ्त बिजली और लंबित बिलों को माफ करने के वादे किए गए। यहां हम विभिन्न दलों द्वारा किए गए वादों की तुलना करने के बजाय इनसे होने वाले लाभ और हानि पर चर्चा कर रहे हैं।

कृषि क्षेत्र के लिए मुफ्त बिजली: पहले ही एक समस्या है

घरेलू उपभोक्ताओं को एक निर्धारित खपत सीमा के भीतर मुफ्त बिजली प्रदाय के मुद्दे पर जाने से पहले हम कृषि क्षेत्र में बिजली सब्सिडी पर चर्चा करेंगे। सब्सिडी के दम पर अधिकांश राज्यों में कृषि उपयोग के लिए बिजली शुल्क 1 रुपए/युनिट से भी कम है जबकि पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में यह बिलकुल मुफ्त है। हालांकि यह खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका के नज़रिए से महत्वपूर्ण है लेकिन मुफ्त बिजली के कई प्रतिकूल प्रभाव भी हैं। इसके कारण बिजली और पानी का अकुशल उपयोग और वितरण कंपनियों की लापरवाही के कारण बार-बार बिजली गुल और मोटर जलने की समस्या तो होती ही है, राज्य सरकारों पर लगातार अत्यधिक सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता रहता है। देश के लगभग तीन चौथाई कृषि कनेक्शन बिना मीटर के हैं जिसके चलते वितरण कंपनियां खपत के अनुमानों को अक्सर बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करती हैं ताकि सब्सिडी की मांग बढ़ा सकें और वितरण घाटे को कम करके बता सकें। गौरतलब है कि मीटरिंग करने के प्रयासों को हमेशा विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि ऐसा मान लिया जाता है कि यह शुल्क वसूलने की दिशा में पहला कदम है। पिछले 15 वर्षों का अनुभव बताता है कि एक बार मुफ्त बिजली देने के बाद इसे देने के निर्णय को रद्द करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और सामान्यत: अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को शामिल करने के लिए इस सुविधा को जारी ही रखा जाता है। स्वेच्छा से सब्सिडी छोड़ने (ऑप्ट-आउट विकल्प) की योजनाओं द्वारा सब्सिडी खत्म करने के काफी प्रयास किए गए हैं लेकिन कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। मुफ्त बिजली के प्रावधान और मीटरिंग के मुद्दे मिलकर प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के कार्यान्वयन को मुश्किल बना देते हैं। इन सभी चुनौतियों के मद्देनज़र कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति एक जटिल समस्या बन गई है। इसमें शामिल सभी लोग, वे चाहे किसान हों या वितरण कंपनियां या फिर सरकारें, सभी काफी निराश हैं और उनका एक-दूसरे पर से भरोसा उठ गया है।

घरेलू उपयोग के लिए मुफ्त बिजली की समस्या

बिजली आपूर्ति की बढ़ती लागत को देखते हुए छोटे उपभोक्ताओं को रियायती दरों पर बिजली प्रदान करना आवश्यक है। वर्तमान लागत लगभग 7-8 रुपए प्रति युनिट है (सालाना 6 प्रतिशत बढ़ रही है), जो कम आय वाले परिवारों के लिए वहन कर पाना संभव नहीं है। आर्थिक मंदी और महामारी ने तो स्थिति को बदतर बना दिया है। लेकिन देखा जाए तो कम आय वाले घरों में प्रकाश उपकरण, पंखे, मोबाइल चार्जिंग और टीवी जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए 50 युनिट प्रति माह की आवश्यकता होती है जो रेफ्रिजरेटर होने पर बढ़कर 100 युनिट प्रति माह तक हो जाती है। ऐसे उपभोक्ताओं के लिए कम शुल्क योजना (जैसे आपूर्ति की लागत का आधा) को उचित ठहराया जा सकता है। यदि एयर-कंडीशनर जैसे उच्च खपत वाले उपकरण हों तो मासिक खपत 200 से 300 युनिट होती है। दिल्ली और पंजाब में तो प्रति माह 200 युनिट बिजली मुफ्त में प्रदान की ही जा रही है।

गौरतलब है कि दिल्ली में मुफ्त बिजली प्रदान करने के कारण राज्य की कुल सब्सिडी बढ़कर लगभग 2820 करोड़ रुपए प्रति वर्ष हो गई है। यह राज्य सरकार के कुल खर्च का 11 प्रतिशत है। इसी तरह, पंजाब में कुछ परिवारों को मुफ्त बिजली दी जाती है व यहां कुल सब्सिडी का 18 प्रतिशत हिस्सा मुफ्त बिजली के लिए निर्धारित किया गया है। तमिलनाडु की कुल सब्सिडी में से लगभग आधी आवासीय बिजली आपूर्ति के लिए निर्धारित की गई है जबकि उत्तर प्रदेश में यह लगभग 90 प्रतिशत है।

यदि मुफ्त बिजली प्राप्त करने वाले आवासीय उपभोक्ताओं की संख्या और खपत सीमा में वृद्धि होती है तो यकीनन राज्य सरकारों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा। घरों में मीटरिंग और बिलिंग के मुद्दे तो पहले से ही हैं। मुफ्त बिजली के साथ ये समस्याएं और बढ़ सकती हैं क्योंकि संभावना है कि वितरण कंपनियां कम राजस्व वाले उपभोक्ताओं की समस्याओं पर कम ध्यान देंगी। छतों पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाना और ऊर्जा दक्षता बढ़ाना अच्छे पर्यावरण अनुकूल विकल्प हो सकते हैं लेकिन उच्च आय वाले परिवारों को मुफ्त बिजली मिली तो वे इन विकल्पों का उपयोग शायद न करें। लगता है कि कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति की जानी-पहचानी त्रासदी अब यहां भी देखने को मिलेगी जिसमें अंतत: सबसे अधिक नुकसान गरीब उपभोक्ताओं और आम लोगों का ही होगा।

मुफ्त बिजली: एक अल्पकालिक राहत

जीवन स्तर में सुधार और उत्पादक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए अच्छी बिजली आपूर्ति और सेवा आवश्यक है। इसके लिए ज़रूरी है कि वितरण कंपनियां वित्तीय रूप से सुदृढ़ हों तथा सभी उपभोक्ताओं (विशेष रूप से छोटे और ग्रामीण) के लिए गुणवत्तापूर्ण सेवा सम्बंधी जवाबदेही के उपाय मौजूद हों। मुफ्त या कम शुल्क वाली बिजली अधिक से अधिक एक अल्पकालिक राहत है जो उन लोगों को प्रदान की जानी चाहिए जिनको इसकी सख्त ज़रूरत है। जिस सरकार को लोगों के दीर्घकालिक हितों की चिंता है उसे मुफ्त बिजली लाभार्थियों की संख्या को सीमित करने के प्रयास करने चाहिए। कुछ विचार इसमें सहायक हो सकते हैं।

आवासीय उपभोक्ताओं को बिल में प्रति माह 200 रुपए की फिक्स्ड छूट प्रदान की जानी चाहिए। बड़े उपभोक्ताओं की तुलना में छोटे उपभोक्ताओं पर इसका प्रभाव काफी महत्वपूर्ण होगा। चूंकि छूट को खपत से अलग कर दिया जाएगा, इसलिए वितरण कंपनियों को खपत को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का कोई लालच नहीं रहेगा। इस तरह की छूट घरेलू उद्योगों को भी दी जा सकती है जो अधिकांश राज्यों में बड़े व्यावसायिक उपभोक्ताओं के बराबर उच्च शुल्क चुका रहे हैं। इसके साथ ही ऊर्जा कुशल पंखे या रेफ्रिजरेटर अपनाने के लिए अतिरिक्त छूट दी जा सकती है और इनकी लागत को कम करने के लिए राज्य स्तरीय थोक खरीद कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।

छोटे उपभोक्ताओं और वितरण कंपनियों के बीच आपसी अविश्वास के माहौल को बदलना होगा। इसके लिए मामलों का तुरंत समाधान और एकमुश्त निपटान होना चाहिए। यदि कोई बिल पिछले बिलों की तुलना में तीन गुना से अधिक है तो वितरण कंपनियों को शिकायत की प्रतीक्षा किए बिना समाधान करना चाहिए।

दुर्भाग्य से घरों में मुफ्त बिजली जैसे वादे चुनावों पर हावी हो जाते हैं। लेकिन क्या यह सचमुच गरीबों के हित में है क्योंकि इन वादों को पूरा करने से बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता बिगड़ती है और बिजली क्षेत्र की वित्तीय हालत और डांवाडोल हो जाती है। इसकी कीमत अंतत: हितग्राहियों को ही चुकानी पड़ेगी। हम उम्मीद करते हैं कि आम जनता ऐसे वादों पर सवाल उठाएगी जिनको निभाना संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्रीष्म लहर के जोखिम के प्रबंधन के पहलू – ज़ुबैर सिद्दिकी

मानव जनित जलवायु परिवर्तन ने ग्रीष्म लहर, दावानल और अचानक बाढ़ जैसी घटनाओं की संभावना को बढ़ाया है और इन्हें अधिक गंभीर बनाया है। इसका जन स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा है लेकिन इसे कम करके आंका गया है। अधिकांश देश इन आपदाओं से निपटने के लिए अग्रिम योजना बनाने, अनुकूलन के उपाय करने और साक्ष्य-आधारित जानकारी का उपयोग करके अपने लोगों की हिफाज़त मुकम्मल करने में नाकाम रहे हैं।

इस वर्ष भारत, पाकिस्तान, यूएसए, चीन और युरोप ने घातक ग्रीष्म लहर का सामना किया जिसने न सिर्फ ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचाया बल्कि आपातकालीन सेवा को गंभीर रूप से प्रभावित किया। इस ग्रीष्म लहर से मरने वालों की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में काफी अधिक रही। इसके अलावा कई लोगों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ा है।

अत्यधिक गर्मी से हीटस्ट्रोक यानी लू की संभावना तो जानी-मानी है। लेकिन वास्तव में गर्मी से होने वाली कई मौतें हृदय सम्बंधी दिक्कतों के कारण भी होती हैं।

होता यह है कि त्वचा को ठंडा रखने के लिए हृदय को ज़्यादा काम करना होता है ताकि त्वचा तक ज़्यादा खून पहुंचे और ठंडक पैदा हो। लेकिन साथ ही रक्तचाप को एक सीमा में रखना होता है। इसके लिए हृदय को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है, चाहे शरीर का अंदरुनी तापमान बहुत अधिक न हो।

इसके अलावा तापमान के बढ़ने से सांस एवं गुर्दे की बीमारी, दुश्चिंता और हिंसक व्यवहार में वृद्धि होती है और साथ ही मृत शिशु जन्म, समयपूर्व प्रसव और जन्म के समय कम वज़न जैसी समस्याओं का जोखिम भी बढ़ता है। दावानल पर किए गए शोध अध्ययनों ने तो अत्यधिक गर्मी का सम्बंध बाल मृत्यु दर, श्वसन रोग और कैंसर जैसी समस्याओं में वृद्धि से दर्शाया है। इन हालिया अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि अभी तक गर्मी के करण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को काफी कम करके आंका गया है।

निम्न और मध्यम आय वाले कई देश अपर्याप्त वैश्विक सहयोग और वित्तीय क्षमता के चलते इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। लेकिन कई अन्य देश पर्याप्त एवं स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद वैश्विक कार्यक्रमों को समर्थन देने या अनुकूलन के उपाय अपनाने में विफल रहे हैं। सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन के तथ्य से इन्कार या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने और अपर्याप्त राजनैतिक इच्छाशक्ति ने जनता को वैज्ञानिक जानकारियों से मिल सकने वाले लाभों से वंचित रखा है। राजनेताओं ने भी स्वास्थ्य जोखिमों को कम करके बताया है। इसके अलावा कई नामचीन संगठनों और मीडिया घरानों ने भी गुणवत्तापूर्ण जानकारी देने की बजाय अवैज्ञानिक तथ्यों को प्रसारित किया। यह जानकारी लोगों को गर्मी से जूझने में मदद कर सकती थी।

वर्ष 2021 में दी लैंसेट में ऊष्मा-अनुकूलन से सम्बंधित लेखों की एक शृंखला प्रकाशित की गई थी। इन लेखों में गर्मी से होने वाली तकलीफ और हृदय पर पड़ने दबाव को कम करने के कई साक्ष्य-आधारित उपायों पर चर्चा की गई है। इसके लिए पानी में डुबकी लगाना, कपड़ों को भिगोना या पैरों को पानी में डालकर रखना और पंखों के उपयोग को शीतलन की प्रमुख रणनीतियों में शामिल किया गया था। वैसे ठंडा पानी पीकर भी हीटस्ट्रोक के जोखिम को कम किया जा सकता है लेकिन इससे शरीर के तापमान पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। ज़रूरत इस बात की है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता एवं संस्थाएं लोगों को ग्रीष्म लहर के खतरों और इससे बचाव के बारे में शिक्षित करें।

कई अध्ययनों ने अश्वेत और गरीब लोगों पर ग्रीष्म लहरों के असामान्य रूप से अधिक प्रभाव को दर्शाया है। हालात ऐसे हैं कि अत्यधिक गर्मी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोगों के पास खुद को बचाने के साधन भी नहीं हैं। विशेष रूप से, खुले आसमान के नीचे काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। उन पर उच्च तापमान और खुले में काम करने का जोखिम निरंतर बढ़ता जा रहा है। इन श्रमिकों के लिए शीतलन व्यवस्थाओं तक पहुंच भी काफी दुर्गम है। इन परिस्थितियों में श्रमिकों की आजीविका को सुरक्षित करते हुए वैधानिक परिवर्तन करने की तत्काल आवश्यकता है।

कई वैश्विक फंडर्स जलवायु से सम्बंधित शोध अध्ययनों को प्राथमिकता दे रहे हैं। लेकिन इन अध्ययनों के आधार पर नीतिगत एवं सार्थक परिवर्तन के लिए आवश्यक राजनैतिक संवाद का अभाव स्पष्ट है।

वर्ष 2022 में ग्रीष्म लहर और दावानल के पूर्वानुमानों के बाद भी पर्याप्त योजनाएं तैयार नहीं की गईं। 28 जुलाई के दिन एक संकल्प पारित करके संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण तक पहुंच को सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषित किया है। इस निर्णय के बाद जनता को नीति निर्माताओं से समुचित कार्रवाई की मांग करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य: चुनौतियां और अवसर – प्रतिका गुप्ता

देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस अवसर पर प्रतिष्ठित स्वास्थ्य पत्रिका दी लैंसेट के संपादकीय में भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के पुनर्गठन पर दी लैंसेट नागरिक आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा हुई है और विक्रम पटेल की टिप्पणी प्रकाशित की गई है। विक्रम पटेल पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया सहित कई स्वास्थ्य संस्थाओं से सम्बद्ध रहे हैं और हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डिपार्टमेंट ऑफ ग्लोबल हेल्थ एंड सोशल मेडिसिन में प्रोफेसर हैं।

संपादकीय कहता है कि यद्यपि भारत में स्वतंत्रता के बाद शिशु मृत्यु दर जैसे कई स्वास्थ्य संकेतकों में पर्याप्त सुधार दिखा है लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में प्रगति नाकाफी रही है। इस मामले में राज्यों और क्षेत्रों की स्थिति भी काफी अलग-अलग है। वर्तमान प्रधान मंत्री का दृष्टिकोण है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत एक बड़ी भूमिका निभाए, और वह अधिक कुशल, प्रतिस्पर्धी और लचीला बने। 2020 में राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने कहा था कि यदि देश खुद को ‘आत्मनिर्भर’ बना लेता है तो 21वीं सदी भारत की हो सकती है।

लेकिन इन महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत को अपने नागरिकों की स्वास्थ्य और विकास सम्बंधी ज़रूरतों पर ध्यान देना होगा। करोड़ों भारतीय अब भी गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं। सुर्खियां बटोरने वाली नीतियों के बावजूद राज्य व उसके नेतागण बड़ी संख्या में अपने नागरिकों तक नहीं पहुंच सके हैं।

कोविड-19 ने भारत की कई क्षमताओं और कमज़ोरियों को उजागर किया। कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित होने वाले देशों में भारत एक था। इतने बड़े पैमाने पर फैली महामारी का प्रबंधन करने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली बिल्कुल तैयार नहीं थी और आवश्यक सुविधाओं/उपकरणों का अभाव था। महामारी के कारण सामान्य टीकाकरण, पोषण कार्यक्रम और गैर-संचारी रोगों की निगरानी जैसी स्वास्थ्य सेवाओं में आए व्यवधान के बाद अब बहाली योजनाओं की तत्काल आवश्यकता है।

देखा जाए तो भारत का कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम सफल रहा है और साथ-साथ डिजिटल प्रौद्योगिकी और टेलीमेडिसिन का विकास भी हुआ है जिसके चलते देश के कई इलाकों में स्वास्थ्य सुविधा पहुंचाने और निगरानी करने में मदद मिली है। सरकार अब स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे को विस्तार देने पर ध्यान दे रही है।

2018 के बाद से 1,20,000 से अधिक स्वास्थ्य और वेलनेस केंद्र खोले गए हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं देते हैं। साल के अंत तक 1,50,000 केंद्र और तैयार हो जाएंगे। अलबत्ता समय ही बताएगा कि क्या ये केंद्र वाकई स्वास्थ्य में सुधार कर पाएंगे। सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इन केंद्रों में स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता मौजूद हों। 2014 से 2022 के बीच चिकित्सा में स्नातक पदों में 75 प्रतिशत और स्नातकोत्तर पदों में 93 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन यह सुनिश्चित करने में समय लगेगा कि चिकित्सा केंद्रों में पर्याप्त पेशेवर कामकाजी चिकित्सक उपलब्ध हों। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त गैर-चिकित्सक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं को प्रशिक्षित करना भी ज़रूरी है।

भारत में लिंग-भेद अब भी स्वास्थ्य और विकास में एक बड़ी बाधा है। लड़कियों (महिलाओं) के जीवित रहने में दिक्कतें और लैंगिक भेदभाव बरकरार है। कुपोषण और एनीमिया बहुत अधिक हैं और पूरक आहार कार्यक्रमों के बावजूद स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है और श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में काफी गिरावट आई है। घरेलू हिंसा, बाल विवाह और स्कूल ड्रॉपआउट जैसे क्षेत्रों में जो तरक्की हुई थी वह महामारी के कारण पलट गई है।

आंकड़े बताते हैं कि बढ़ते एकल परिवार वाले समाज में खासी संख्या में बुज़ुर्ग महिलाओं – खास कर विधवा और अकेली महिलाओं – के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। इन लैंगिक पूर्वाग्रहों को पलटने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत मानदंडों में व्यापक बदलाव की ज़रूरत होगी। महिलाओं की स्वायत्तता को बेहतर बनाने के लिए बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाना महत्वपूर्ण है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, पानी और स्वच्छता के साथ-साथ श्रम और रोज़गार जैसे क्षेत्र शामिल हों। लेकिन ऐसे राजनैतिक माहौल में कुछ भी नहीं बदलने वाला, जो इस अंतर को स्वीकार तक नहीं करता, इसे पाटने के लिए काम करने की बात तो छोड़ ही दें।

वर्ष 2023 के दौरान भारत शायद दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। युवा आबादी बढ़ने से जनांकिक लाभ मिला है, लेकिन अब प्रजनन दर थम रही है। नतीजतन, भारत के पास परिस्थिति से लाभ उठाने का सीमित समय है। और लाभ उठाने के लिए अपने लोगों के स्वास्थ्य और खुशहाली में निवेश की आवश्यकता होती है। मात्र राष्ट्रवादी आव्हानों से और ऐसी लुभावनी स्वास्थ्य देखभाल नीतियों से काम नहीं चलेगा जिनमें जवाबदेही का अभाव हो। सरकार को सभी नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल के अधिकार की रक्षा करनी होगी। सरकार को स्वास्थ्य में उपचार से रोकथाम के उपायों की ओर बढ़ना चाहिए। सिविल सोसायटी की भूमिका को अंगीकार करने की ज़रूरत है। युवाओं में निवेश करना चाहिए ताकि वे अर्थव्यवस्था और समाज में पूर्ण भागीदारी कर सकें। ज़रूरतमंदों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। सरकार को स्वास्थ्य के सामाजिक, राजनीतिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक निर्धारकों को संबोधित करना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय – लिंग, जाति, वर्ग, धर्म या क्षेत्र से स्वतंत्र – राज्य के समर्थन से सक्षम नहीं बनता और अपनी पूरी संभावनाओं को साकार नहीं करता, तब तक वैश्विक शक्ति बनने की उम्मीद एक मरीचिका ही रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्रों में परागण

भूमि पर तो परागण का काम मधुमक्खियां और पक्षी करते हैं। लेकिन समुद्र के अंदर परागण की यह महत्वपूर्ण क्रिया कौन सम्पन्न करता है? आम तौर पर समुद्र में पौधों में परागण जीवों की मदद के बगैर होता है। नर और मादा पौधे अपने शुक्राणु और अंडाणु पानी में छोड़ देते हैं और पानी की हिलोरों से अंडाणु और शुक्राणु संयोग से मिल जाते हैं।

अपवादस्वरूप, पूर्व में छोटे जलीय कृमि और क्रस्टेशियन को समुद्री घास के परागणकर्ता के रूप में पहचाना गया था। और अब एक नया परागणकर्ता मिला है: लाल शैवाल के बीच तैरने वाला लगभग 4 से.मी. लंबा क्रस्टेशियन जिसे आइसोपॉड कहते हैं। लाल शैवाल के शुक्राणु आइसोपॉड के शरीर पर चिपक जाते हैं। यह जब भोजन के लिए किसी अन्य पौधे पर जाता है तो निषेचन भी हो जाता है।

दरअसल फ्रांस की राष्ट्रीय शोध एजेंसी में मिरियम वेलेरो युरोप में लहरों के पानी से बने पोखरों में पनपने वाली लाल शैवाल ग्रेसिलेरिया ग्रैसिलिस की आनुवंशिकी का अध्ययन कर रही हैं। ग्रेसिलेरिया में मादा शैवाल अपने अंडाणु पानी में नहीं छोड़ती, बल्कि उन्हें कीप के आकार के तंतुओं के अंदर रखती है। और नर शुक्राणु किसी तरह उन तक पहुंचते हैं जबकि शुक्राणुओं में तैरने में सहायक पूंछ भी नहीं पाई जाती।

वेलेरो ने देखा कि शैवाल पर अक्सर आइसोपोड्स (इडोटिया बाल्थिका) रेंगते रहते हैं। उनका अनुमान था कि ये ही लाल शैवाल का परागण करते होंगे। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर आइसोपॉड के शरीर पर शुक्राणु चिपके भी दिखे।

अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने अपरागित मादा शैवाल लीं और इन्हें पानी से भरी टंकियों में नर शैवाल के साथ रखा। फिर कुछ टंकियों में आइसोपॉड छोड़े। पाया गया कि आइसोपॉड्स वाले लाल शैवाल प्रजनन में लगभग 20 गुना अधिक सफल रहे। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

वेलेरो का अनुमान है कि इससे दोनों को ही लाभ पहुंचता होगा। अधिकांश इडोटिया रंग में लाल शैवाल जैसे होते हैं। तो आइसोपोड्स को शिकारियों से छिपने में मदद मिलती होगी। दूसरी ओर आइसोपॉड्स शैवाल पर उगने वाले एक-कोशिकीय शैवाल को खाते हैं। देखा गया है कि आइसोपॉड्स द्वारा ऐसे एक-कोशिकीय शैवाल के भक्षण से लाल शैवाल स्वच्छ रहती है और तेज़ी से वृद्धि करती है।

लेकिन सवाल है कि समुद्र में जीवों द्वारा परागण इतना दुर्लभ क्यों है? संभवत: यह पानी की भौतिकी के कारण है – पानी हवा से बहुत अधिक सघन है। ज़ाहिर है, मकरंद से जो ऊर्जा मिलेगी, वह एक फूल से दूसरे फूल तक यात्रा करने में लगने वाली ऊर्जा से अधिक नहीं होगी।

अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि उक्त अध्ययन सिर्फ यह बताता है कि आइसोपोड प्रयोगशाला में शैवाल को परागित कर सकते हैं; इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति में भी वे इसे इतनी ही कुशलता से कर पाते हैं। हो सकता है शैवाल के शुक्राणु को फैलाने में लहरें ही अधिक प्रभावी हों। (स्रोत फीचर्स)

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जीवों में तापमान नियंत्रण काफी देर से अस्तित्व में आया

नियततापी (एंडोथर्म) जीव उन्हें कहते हैं जो अपने शरीर का तापमान आंतरिक प्रक्रियाओं के द्वारा नियंत्रित करते हैं। यह स्तनधारियों, पक्षियों के अलावा कुछ विलुप्त डायनासौर की खासियत है। इस तरह तापमान का नियमन करने के लिए उन्हें अधिक ऊर्जा लगती है, लेकिन यह विशेषता उन्हें जाड़ों और रात के समय भी सक्रिय रहने में मदद करती है। इसके विपरीत, एक्सोथर्मिक (बाह्यतापीय) जीव ऐसा नहीं कर सकते; इनके शरीर का तापमान वातावरण के तापमान के अनुसार बदलता रहता है। जीवाश्म विज्ञानी इस बात से तो सहमत हैं कि प्रारंभिक कशेरुकी जीव बाह्यतापीय थे। लेकिन संशय इस बात पर है कि जीवों में तापमान नियमन की क्षमता कब विकसित हुई।

आम तौर पर देखा गया है कि नियततापी जीवों में हड्डियां तेज़ी से बढ़ती हैं और उनके शरीर पर बाल या पिच्छ (फेदर) पाए जाते हैं। इसलिए नियततापिता का निर्धारण करने के लिए जीव वैज्ञानिक इन्हीं गुणधर्मों का अध्ययन करते आए हैं। लेकिन ये गुणधर्म नियततापिता के सटीक संकेतक नहीं हैं और संभवत: इनका प्रादुर्भाव अन्य कारणों से हुआ था।

अब शोधकर्ताओं के एक दल ने इसी काम के लिए एक सर्वथा नई विधि का उपयोग किया है। यह है आंतरिक कान में पाई जाने वाली अर्धवृत्ताकार नलिकाएं (सेमीसर्कुलर कैनाल्स)। ये तीन नलिकाएं होती हैं जो जीव को अपनी स्थिति भांपने तथा संतुलन बनाए रखने में मदद करती हैं। जीवाश्म वैज्ञानिक इनकी मदद से प्राचीन जीवों में विचरण के पैटर्न का अनुमान लगाते आए हैं।

नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीवाश्म विज्ञानी रोमन डेविड के दल ने इनकी मदद से नियततापिता के निर्धारण का प्रयास किया है। जीवाश्म नमूनों के अध्ययन के दौरान डेविड का ध्यान अर्धवृत्ताकार नलिकाओं की साइज़ और संरचना में विविधता  पर पड़ा। खास तौर से उनका ध्यान इस बात पर गया कि शरीर के आकार के हिसाब से अन्य कशेरुकियों की तुलना में स्तनधारियों की अर्धवृत्ताकार नलिकाएं छोटी होती हैं। जैसे, व्हेल (एक स्तनधारी) आकार में व्हेल-शार्क (एक मछली) से बड़ी होती है लेकिन अर्धवृत्ताकार नलिकाओं के मामले में व्हेल-शार्क बाज़ी मार लेती है। दरअसल जीव जगत में सबसे बड़ी अर्धवृत्ताकार नलिकाएं व्हेल-शार्क की होती हैं।

इसके अलावा उनका ध्यान नलिकाओं के अंदर भरे तरल (एंडोलिम्फ) पर भी गया। एंडोलिम्फ का गाढ़ापन तापमान के साथ बदलता है। जैसे तेल गरम होने पर पतला और ठंडा होने पर गाढ़ा हो जाता है। डेविड का अनुमान था कि एंडोलिम्फ के गाढ़ेपन और अर्धवृत्ताकार नलिका के आकार के बीच कोई सम्बंध है, और दोनों नियततापिता का संकेत दे सकते हैं।

इस परिकल्पना को जांचने के लिए डेविड और उनकी टीम ने अल्पाका, टर्की और छिपकली समेत 277 जीवित प्रजातियों की कान की अर्धवृत्ताकार नलिकाओं का अध्ययन किया। देखा गया कि नियततापी जीवों का एंडोलिम्फ पतला था और उनकी अर्धवृत्ताकार नलिकाएं छोटी और पतली थी। दूसरी ओर, बाह्यतापीय जीवों का एंडोलिम्फ गाढ़ा था और अर्धवृत्ताकार नलिकाएं बड़ी और मोटी थी।

नियततापिता कब विकसित हुई यह जानने के लिए उन्होंने इस जानकारी को जीवाश्मित नमूनों पर लागू किया। चूंकि ये नलिकाएं नरम ऊतकों से बनी होती हैं, इसलिए अक्सर ये जीवाश्मित नहीं हो पाती; लेकिन ये जिस खोखली हड्डी के अंदर होती हैं वे जीवाश्मित हो जाती हैं। और इन खोखली हड्डियों की मदद से नलिकाओं के आकार-आकृति का अनुमान लगाया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने 64 विलुप्त प्रजातियों की जांच की। इनमें स्तनधारी, 23 करोड़ वर्ष पूर्व के स्तनधारी-समान पूर्वज और उसके भी पूर्व के गैर-स्तनधारी पूर्वज शामिल थे।

नेचर में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ट्राएसिक काल के अंत में, लगभग 23 करोड़ वर्ष पूर्व, छोटी और पतली अर्धवृत्ताकार नलिकाओं वाले जीव अस्तित्व में आए थे, इसी समय गैर-स्तनधारी पूर्वज से स्तनधारी-समान पूर्वज विकसित हुए थे। और यह परिवर्तन अपेक्षाकृत रूप से अचानक, 10 लाख से भी कम वर्षों में, हुआ था। अर्थात यदि छोटी व पतली अर्धवृत्ताकार नलिकाओं को नियततापिता का लक्षण माना जाए तो यह सबसे पहले स्तनधारी जीवों में लगभग 23 करोड़ वर्ष नज़र आई होगी। यह पूर्व में लगाए गए अनुमान से 2 करोड़ वर्ष बाद का समय है। वैसे एक बात पर ध्यान देना ज़रूरी है – यह नहीं कहा जा रहा है कि अर्धवृत्ताकार नलिकाएं नियततापिता या तापमान नियंत्रण में कोई भूमिका निभाती हैं। आशय सिर्फ यह है कि ये पतली-छोटी नलिकाएं और नियततापिता साथ-साथ प्रकट होते हैं और छोटी नलिकाओं को नियततापी जीवों का द्योतक माना जा सकता है।

अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक क्रमिक विकास की बजाय ऐसे अचानक परिवर्तन की बात को साबित करने के लिए अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। बहरहाल नियततापिता के भावी अध्ययनों में अर्धवृत्ताकर नलिका का अध्ययन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री ज्वालामुखी विस्फोट से पानी पहुंचा वायुमंडल में

नवरी में दक्षिणी प्रशांत महासागर में टोंगा द्वीप के नज़दीक समुद्र के नीचे स्थित टोंगा-हुंगा हाआपाई ज्वालामुखी में ज़ोरदार विस्फोट हुआ। इस विस्फोट ने दक्षिण प्रशांत क्षेत्र को हिलाकर रख दिया था, दुनिया भर में सुनामी की तरंगें दौड़ गईं। यह अब तक का सबसे शक्तिशाली विस्फोट था जिसका मलबा वायुमंडल में लगभग 50 किलोमीटर से अधिक ऊंचाई तक गया था।

एक नया अध्ययन बताता है कि विस्फोट से निकलने वाली राख और गैसों के साथ अरबों किलोग्राम पानी भी वायुमंडल में गया है। यह संभवतः वर्षों तक वायुमंडल में बना रहकर ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाएगा और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करेगा।

यह अध्ययन नासा के ऑरा सैटेलाइट में लगे माइक्रोवेव लिम्ब साउंडर (MLS) उपकरण की मदद से संभव हुआ है। MLS पृथ्वी के वायुमंडल में लगभग 100 किलोमीटर तक की ऊंचाई पर मौजूद विभिन्न यौगिकों को मापता है। वैज्ञानिकों की विशेष रुचि विस्फोट से वायुमंडल में पहुंचे सल्फर डाईऑक्साइड और पानी में थी, क्योंकि ये जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं। MLS के आंकड़ों की मदद से शोधकर्ता ज्वालामुखी का गुबार, इसमें पानी की मात्रा, और गुबार की वृद्धि को देख पाए।

जियोफिज़िकल रिसर्च लेटर्स में नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के लुइस मिलन के दल ने बताया है कि इस गुबार ने पृथ्वी के समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में लगभग 146 अरब किलोग्राम पानी फेंका है। समताप मंडल समुद्र सतह से कई किलोमीटर ऊपर होता है और प्राय: शुष्क रहता है। पानी इतना था कि इससे तकरीबन 58,000 ओलंपिक स्विमिंग पूल भरे जा सकते हैं, और यह समताप मंडल में मौजूद संपूर्ण नमी का लगभग 10 प्रतिशत है।

शोधकर्ता बताते हैं कि अन्य ज्वालामुखी विस्फोट भी वायुमंडल में पानी फेंकते हैं, लेकिन इस विस्फोट ने अभूतपूर्व मात्रा में पानी फेंका है। यह पानी समताप मंडल में संभवत: पांच वर्ष या उससे अधिक समय तक रहेगा।

बड़े ज्वालामुखी विस्फोट अक्सर जलवायु को ठंडा करते हैं, क्योंकि इनमें निकलने वाली सल्फर डाईऑक्साइड वायुमंडल में जाकर ऐसे यौगिक बनाती है जो सूरज से आने वाली ऊष्मा को परावर्तित करते हैं। लेकिन साथ में इतनी अधिक जलवाष्प वायुमंडल में पहुंची है तो प्रभाव अलग हो सकता है। पानी एक ग्रीनहाउस गैस की तरह काम करेगा और पृथ्वी पर गर्मी बढ़ाएगा। विस्फोट से छाई सल्फर डाईऑक्साइड तो जल्दी ही समाप्त हो जाएगी, जबकि पानी 5 वर्ष या उससे भी अधिक समय तक वायुमंडल में टिका रहेगा।

अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु पर विस्फोट के वास्तविक प्रभावों का आकलन करने में समय लगेगा। संभव है कि वायुमंडल में गया यह पानी अन्य रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करके ओज़ोन परत को भी नुकसान पहुंचाए, और मौसम के पैटर्न को नियंत्रित करने वाली पवन धाराओं के प्रवाह को भी बदल दे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियों को दर्द होता है

धुमक्खियों के डंक से बचने के लिए हम कई बार उन्हें मारने-भगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या ऐसा करने पर उनको दर्द महसूस होता है? जब हमारे शरीर पर कहीं चोट लगती है तो शरीर की तंत्रिका कोशिकाएं हमारे मस्तिष्क को संदेश भेजती हैं जिससे हमारा मस्तिष्क हमें दर्द का एहसास कराता है। कीटों में इस तरह का कोई जटिल तंत्र नहीं है जिससे उनको दर्द का एहसास हो सके। लेकिन एक हालिया अध्ययन से मधुमक्खियों और अन्य कीटों में भावनाओं के प्रति चेतना के साक्ष्य मिले हैं।

पूर्व में किए गए अध्ययन बताते हैं कि मधुमक्खियां और भौंरे काफी बुद्धिमान एवं चतुर प्राणी हैं। वे शून्य की अवधारणा को समझते हैं, सरल हिसाब-किताब कर सकते हैं और अलग-अलग मनुष्यों (और शायद मधुमक्खियों) के बीच अंतर भी कर सकते हैं।

ये प्राणी भोजन की तलाश के मामले में आम तौर पर काफी आशावादी होते हैं लेकिन किसी शिकारी मकड़ी के जाल में ज़रा भी फंसने पर ये परेशान हो जाते हैं। यहां तक कि बच निकलने के बाद भी कई दिनों तक उनका व्यवहार बदला-बदला रहता है और वे फूलों के पास जाने से डरते हैं। क्वींस मैरी युनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख लार्स चिटका के अनुसार मधुमक्खियां भी भावनात्मक अवस्था का अनुभव करती हैं।

मधुमक्खियों में दर्द संवेदना का पता लगाने के लिए चिटका ने जाना-माना तरीका अपनाया – लाभ-हानि के बीच संतुलन का तरीका। जैसे दांतों को लंबे समय तक स्वस्थ रखने के लिए लोग दंत चिकित्सक की ड्रिल के दर्द को सहन करने को तैयार हो जाते हैं। इसी तरह हर्मिट केंकड़े बिजली के ज़ोरदार झटकों से बचने के लिए अपनी पसंदीदा खोल को त्याग देते हैं लेकिन तभी जब झटका ज़ोरदार हो।

इसी तरीके को आधार बनाकर चिटका और उनके सहयोगियों ने 41 भवरों (बॉम्बस टेरेस्ट्रिस) को 40 प्रतिशत चीनी के घोल वाले दो फीडर और कम चीनी वाले दो फीडर का विकल्प दिया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इन फीडरों को गुलाबी और पीले हीटिंग पैड पर रखा। शुरुआत में तो सभी हीटिंग पैड्स को सामान्य तापमान पर रखा गया और मधुमक्खियों को अपना पसंदीदा फीडर चुनने का मौका दिया गया। अपेक्षा के अनुरूप सभी मधुमक्खियों ने अधिक चीनी वाले फीडर को चुना।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने अधिक चीनी वाले फीडरों के नीचे वाले पीले पैड्स को 55 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जबकि गुलाबी पैड्स को सामान्य तापमान पर ही रखा। यानी पीले पैड्स पर उतरना किसी गर्म तवे को छूने जैसा था लेकिन इसके बदले अधिक मीठा शरबत भी मिल रहा था। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब चीनी से भरपूर गर्म फीडर और कम चीनी वाले ठंडे फीडरों के बीच विकल्प दिया गया तो मधुमक्खियों ने गर्म और अधिक मात्रा में चीनी वाले फीडर को ही चुना।

चीनी की मात्रा बढ़ा दिए जाने पर मधुमक्खियां और अधिक दर्द सहने को तैयार थीं। इससे लगता है कि अधिक चीनी उनके लिए एक बड़ा प्रलोभन था। फिर जब वैज्ञानिकों ने गर्म और ठंडे दोनों पैड्स वाले फीडरों में समान मात्रा में चीनी वाला शरबत रखा तो मधुमक्खियों ने पीले पैड्स पर जाने से परहेज़ किया, जिसके गर्म होने की आशंका थी। इससे स्पष्ट होता है कि वे पूर्व अनुभवों को याद रखती हैं और उनके आधार पर निर्णय भी करती हैं।

अध्ययन दर्शाता है कि क्रस्टेशियंस के अलावा कीटों और मकड़ियों में भी इस तरह की संवेदना होती है। इस अध्ययन को मानव उपभोग के लिए कीटों की खेती में बढ़ती रुचि और शोध अध्ययनों में कीटों की खैरियत के मामले में काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि मधुमक्खियां भी वैसा ही दर्द महसूस करती हैं जैसा मनुष्य करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह अध्ययन इस क्षमता का कोई औपचारिक प्रमाण प्रदान नहीं करता है। दरअसल, कीटों में दर्द संवेदना का पता लगाना थोड़ा मुश्किल काम है। पूर्व में हुए अध्ययन फल मक्खियों के तंत्रिका तंत्र में जीर्ण दर्द के अनुभव के संकेत देते हैं लेकिन कीटों में दर्द सम्बंधी तंत्रिका तंत्र होने को लेकर संदेह है।     

कुल जीवों में से कम से कम 60 प्रतिशत कीट हैं। ऐसे में इन्हें अनदेखा करना उचित नहीं है। आधुनिक विज्ञान मूलत: मानव-केंद्रित है जो अकशेरुकी जीवों को अनदेखा करता आया है। उम्मीद है कि इस अध्ययन से रवैया बदलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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ऊर्जा दक्षता के लिए नीतिगत परिवर्तन की आवश्यकता – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

भारत के ऊर्जा संरक्षण अधिनियम को 20 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरक्षण को संभव बनाना था। इसके तहत ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) को केंद्रीय एजेंसी के रूप में स्थापित किया गया था। तब से कुछ कार्यक्रम और नियम लागू किए गए हैं। इनमें से कई कार्यक्रम सफल रहे हैं लेकिन ऊर्जा दक्षता की सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है।

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि भारत में ऊर्जा दक्षता उपायों को अपनाने से वर्ष 2040 तक ऊर्जा की मांग को 30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। बॉटम-अप एनर्जी मॉडलिंग पर आधारित हमारे अपने विश्लेषण से पता चलता है कि उपकरणों के उपयोग में कुछ मामूली परिवर्तन से 2030 तक आवासीय बिजली की मांग को 25 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।

इस बचत से भारत में जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ उपभोक्ताओं के बिजली बिल को कम किया जा सकता है और ऊर्जा सुरक्षा सुदृढ़ की जा सकती है। इससे नवीकरणीय ऊर्जा को भी बढ़ावा मिल सकता है।

लेकिन भारत में ऊर्जा परिवर्तन सम्बंधी नीतिगत चर्चाओं में ऊर्जा दक्षता का विषय अभी तक हाशिए पर ही रहा है। यहां तक कि ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के कुछ प्रावधानों को तो अभी तक लागू भी नहीं किया गया है। वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनज़र इस अधिनियम में आमूल परिवर्तनों की आवश्यकता है लेकिन इसमें अभी तक मामूली कामकाजी संशोधन ही किए गए हैं। धन की भी कमी रही है। वर्ष 2021-22 में विद्युत मंत्रालय, भारत सरकार के लिए निर्धारित 15,000 करोड़ के वार्षिक बजट में से केवल 200 करोड़ रुपए ऊर्जा दक्षता योजनाओं के लिए आवंटित किए गए। तुलना के लिए देखें कि नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) का वार्षिक बजट 5000 करोड़ रुपए है। तो सवाल है कि भारत के ऊर्जा दक्षता के प्रयासों में किस प्रकार की बाधाएं हैं और इनसे कैसे निपटा जा सकता है?

बाज़ार में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों के मार्ग में कई बाधाएं होती हैं: जैसे शुरुआती ऊंची लागत, जागरूकता की कमी, उद्योग स्तर पर उन्नयन के लिए सीमित वित्तीय विकल्प वगैरह। इन बाधाओं को दूर करने के लिए ऊर्जा दक्षता के क्षेत्र में कई नीतिगत हस्तक्षेप किए गए हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित ही रहा है। इसके मुख्यत: चार कारण रहे हैं।

पहला, बहुत कम संसाधन होने के बावजूद बीईई बहुत सारे काम करने के प्रयास करता रहा। इसके कारण प्रमुख कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन बाधित होते रहे और कई पायलट स्तर कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर नहीं ले जाया जा सका। उदाहरण के लिए, बीईई का एक प्रमुख कार्यक्रम मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम है जिसके तहत उपकरणों के लिए न्यूनतम ऊर्जा दक्षता मानक और तुलनात्मक ऊर्जा प्रदर्शन निर्धारित किए जाते हैं। इसमें 28 उपकरणों को शामिल किया गया है। इसके साथ ही एक बाज़ार-आधारित व्यवस्था है – प्रदर्शन, उपलब्धि और खरीद-फरोख्त (पीएटी) योजना जिसके तहत उद्योग अपने ऊर्जा बचत प्रमाण पत्रों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं। इसके तहत 13 क्षेत्रों के 1073 उपभोक्ताओं को शामिल किया गया है। इन योजनाओं में मानकों के निर्धारण, उनके नियमित रूप से संशोधन और अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण आंतरिक तकनीकी विशेषज्ञता, बाज़ार की स्थिति की निगरानी और प्रत्येक क्षेत्र/उपकरण की जांच की आवश्यकता होती है। ऐसे में सीमित संसाधनों के कारण इन कार्यक्रमों में कम-महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारण, मानकों के संशोधन में विलंब और परीक्षण प्रक्रियाओं के कमज़ोर क्रियांवयन जैसी कई दिक्कतें आती हैं जिससे उनकी प्रभाविता कम हो जाती है।

दूसरा, अघोषित रूप से यह माना गया कि बाज़ार में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों की ओर परिवर्तन के लिए थोक खरीद एक जादू की छड़ी है जिसमें प्रत्यक्ष वित्तीय प्रलोभन की आवश्यकता भी नहीं होती। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज़ लिमिटेड (ईईएसएल) ने इस मॉडल का बहुत अच्छी तरह से उपयोग करते हुए अत्यधिक ऊर्जाक्षम एलईडी लाइटिंग के माध्यम से बाज़ार को तेज़ी से परिवर्तित किया। हालांकि, यह मॉडल अन्य उपकरणों के लिए वैसी ही सफलता हासिल नहीं कर पाया। लेकिन अभी भी ऊर्जा कुशल उपकरणों के लिए कोई वित्तीय प्रोत्साहन कार्यक्रम नहीं है और न ही इनके लिए कर में कोई रियायत दी गई है। इसके साथ ही बीईई के अति कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत निर्माण की बढ़ती लागतों की पूर्ति के लिए निर्माताओं को समयबद्ध वित्तीय प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव पिछले पांच वर्षों से धूल खा रहा है। जबकि इसी दौरान इलेक्ट्रिक वाहनों और सोलर रूफटॉप पैनलों को केंद्र सरकार के साथ-साथ कुछ राज्य सरकारों से भी सब्सिडी प्राप्त हो रही है। ऊर्जा दक्षता योजनाओं के सम्बंध में राज्य और स्थानीय सरकारों की भागीदारी काफी कम रही है।

तीसरा, ऊर्जा दक्षता परियोजनाओं का संचालन करने वाली ऊर्जा सेवा कंपनियों (ईएससीओ) के लिए बाज़ार अभी भी प्रारंभिक चरण में है। वर्तमान में बीईई द्वारा केवल 150 ईएससीओ को सूचीबद्ध किया गया है और वर्तमान में 1.5 लाख करोड़ बाज़ार के केवल 5 प्रतिशत भाग का ही दोहन हो पाया है। हालांकि, बीईई ने क्षमता निर्माण, आंशिक जोखिम गारंटी योजना जैसे कई कदम उठाए लेकिन ये सभी प्रयास छोटे स्तर पर किए गए जिनका कोई संचयी प्रभाव देखने को नहीं मिला। ईईएसएल को एक सुपर ईएससीओ के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव था ताकि एक मज़बूत ऊर्जा सेवा बाज़ार विकसित करने के लिए अनुकूल माहौल बन सके, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।

चौथा, ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने में ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं की भूमिका न्यूनतम रही है। बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की आमदनी उनकी बिक्री से जुड़ी है, जिसके चलते, ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों को लागू करने का कोई प्रलोभन नहीं है। इसके अलावा, अक्षय ऊर्जा की अनिवार्य खरीद सम्बंधी कोई नियामक आदेश भी जारी नहीं किया गया है। ऐसे में भले ही सभी राज्यों ने मांग पक्ष प्रबंधन (डीएसएम) नियम अधिसूचित किए हों और कई बिजली वितरण कंपनियों ने भी मांग पक्ष प्रबंधन प्रकोष्ठ स्थापित कर दिए हों, लेकिन कार्यक्रमों पर होने वाला कुल खर्च और इसके नतीजे में होने वाली बचत डिस्कॉम की वार्षिक बिक्री का एक छोटा अंश भर है।

आगे बढ़ते हुए, भारत को तत्काल प्रभाव से ऊर्जा दक्षता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। शुरुआत के तौर पर, क्षेत्रवार महत्वाकांक्षी ऊर्जा दक्षता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। लक्ष्य उपयोगी होते हैं, जिससे नीतिगत कार्यवाही के साथ-साथ सभी स्तरों पर निवेश को प्रोत्साहन मिल सकता है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में समय-समय पर लक्ष्य में संशोधन इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन ऊर्जा दक्षता के लाभ सौर पैनल की तरह नज़र नहीं आते। इसलिए ज़रूरी है कि सभी लक्ष्य स्पष्ट तरीके और पर्याप्त डैटा के आधार पर मापन योग्य हों। ज़ाहिर है, केवल लक्ष्य निर्धारित करने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक केंद्रीय एजेंसी के तौर पर बीईई की भूमिका मज़बूत करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही बीईई के बजट आवंटन में वृद्धि की भी आवश्यकता है। बीईई इस राशि का उपयोग क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित करने के लिए कर सकता है ताकि अपने विभिन्न कार्यक्रमों के लिए राज्य सरकारों और एजेंसियों के साथ बेहतर समन्वय बना सके। इसके अलावा बीईई लंबे समय से लंबित कार्यक्रमों, जैसे एसईईपी का संचालन भी शुरू कर पाएगा और कई अन्य परियोजनाओं को बड़े पैमाने पर ले जा पाएगा।

इसके साथ ही जागरूकता बढ़ाने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। कई सर्वेक्षणों से पता चला है कि बीईई के प्रयासों के बावजूद स्टार लेबल्स की जागरूकता सीमित ही है; खास तौर से छोटे उपकरणों को लेकर और ग्रामीण क्षेत्रों में। अंत में, अनुपालन सुनिश्चित करने और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए बीईई इस धन का उपयोग अपने परीक्षण तंत्र को मज़बूत करने के लिए भी कर सकता है।

बीईई से आगे जाकर, ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं द्वारा ऊर्जा दक्षता को संभव बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए अभिनव व्यवसाय और नियामक मॉडल की आवश्यकता होगी। नीतिगत संकेतों, बजटीय आवंटन में वृद्धि और अनुदान के साथ-साथ सस्ते वित्तपोषण के रूप में वित्तीय सहायता कमज़ोर ईएससीओ उद्योग को बढ़ावा दे सकता है। इसका गुणात्मक प्रभाव ठीक उसी तरह होगा जैसा इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय ऊर्जा में देखा जा रहा है।

ऊर्जा संरक्षण अधिनियम उपरोक्त सुझावों को शामिल करने का अच्छा स्थान हो सकता है। यदि अधिनियम में तत्काल कोई परिवर्तन नहीं किए गए तो हम ऊर्जा दक्षता का सिर्फ दिखावा करते रहेंगे और भारत में उपलब्ध ऊर्जा के सबसे स्वच्छ और सस्ते स्रोत को बर्बाद करते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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‘गीले कचरे’ से वेस्टलैंड का कायाकल्प – सुबोध जोशी

जिस तेज़ी से औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से भूमि को बेकार बनाया जा रहा है वह चिंता का विषय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में भूमि एक सीमित संसाधन है यानी भूमि बढ़ाई नहीं जा सकती। सीमित होते हुए भी भूमि को वेस्टलैंड बनने देना या बेकार पड़े रहने देना गंभीर लापरवाही है।

वर्ष 2004 में आधिकारिक तौर पर हमारे देश के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत से अधिक (करीब 6.3 करोड़ हैक्टर) क्षेत्र वेस्टलैंड के रूप चिंहित किया गया था। संभव है अब यह आंकड़ा बढ़ गया हो। वेस्टलैंड पर न तो खेती हो सकती है और न ही प्राकृतिक रूप से जंगल और वन्य जीव पनप पाते हैं। और न ही कोई अन्य उपयोगी कार्य हो पाता।

वेस्टलैंड अनेक कारणों से अस्तित्व में आती है। जिसमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों कारण शामिल हैं। उदाहरण के लिए बंजर भूमि, खनन उद्योग के कारण जंगलों का विनाश एवं परित्यक्त उबड़-खाबड़ खदानें, अकुशल या अनुचित ढंग से सिंचाई, अत्यधिक कृषि, जलभराव, खारा जल, मरुस्थल और रेत के टीलों का स्थान परिवर्तन, पर्वतीय ढलान, घाटियां, चारागाह का अत्यधिक उपयोग एवं विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, औद्योगिक कचरे एवं मल निकासी का जमाव, मिट्टी का क्षरण, जंगलों का विनाश वगैरह।

तो सवाल है कि क्या वेस्टलैंड को उपजाऊ बनाया जा सकता है? इसका जवाब मध्य अमेरिका में कैरेबियाई क्षेत्र के एक देश कोस्टा रिका में हुए एक बहुत ही आसान किंतु अनोखे ‘प्रयोग’ के नतीजे में देखा जा सकता है। वास्तव में यह बीच में छोड़ दिया गया एक अधूरा प्रयोग था। इसके बावजूद लगभग दो दशकों बाद प्रयोग स्थल का दृश्य पूर्णतः बदल चुका था।

दरअसल वर्ष 1997 में दो शोधकर्ताओं के मन में एक विचार उपजा और उन्होंने एक जूस कंपनी से संपर्क कर उसके सामने एक प्रायोगिक परियोजना का प्रस्ताव रखा। इसके तहत एक नेशनल पार्क से सटे क्षेत्र की बेकार पड़ी भूमि पर कंपनी को संतरे के अनुपयोगी छिलके फेंकने थे और वह भी बिना किसी लागत के। कंपनी इस बंजर भूमि पर 12,000 टन बेकार छिलके डालने के लिए सहर्ष तैयार हो गई। उसने वहां 1000 ट्रक संतरे के छिलके डाल भी दिए। जल्द ही इसके नतीजे दिखाई देने लगे। संतरे के छिलके छः माह में काली मिट्टी में बदलने लगे। बंजर भूमि उपजाऊ बनने लगी। वहां जीवन पनपने लगा।

इस बीच एक प्रतियोगी जूस कंपनी ने आपत्ति उठाते हुए अदालत में मुकदमा दायर कर दिया – कहना था कि छिलके डालकर वह कंपनी पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है। अदालत ने इस तर्क को स्वीकर करके जो फैसला सुनाया उसके कारण यह प्रायोगिक परियोजना बीच में ही रोकनी पड़ी। इसके बाद वहां और छिलके नहीं डाले जा सके। अगले 15 साल डाले जा चुके छिलके और यह स्थान एक भूले-बिसरे स्थान के रूप में पड़ा रहा।

फिर 2013 में जब एक अन्य शोधकर्ता अपने किसी अन्य शोध के सिलसिले में कोस्टा रिका गए तब उन्होंने इस स्थल के मूल्यांकन का भी निर्णय लिया। घोर आश्चर्य! वे दो बार वहां गए लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें वहां वेस्टलैंड जैसी कोई चीज़ नहीं मिली। कभी बंजर रहा वह भू-क्षेत्र घने जंगल में तबदील हो चुका था और उसे पहचान पाना असंभव था।

इसके बाद, आसपास के क्षेत्र और उस नव-विकसित वन क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चला कि उस नव-विकसित वन क्षेत्र की मिट्टी कहीं अधिक समृद्ध थी और वृक्षों का बायोमास भी अधिक था। इतना ही नहीं, वहां वृक्षों की प्रजातियां भी अधिक थी। गुणवत्ता का यह अंतर एक ही उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि वहां अंजीर के एक पेड़ का घेरा इतना बड़ा था कि तीन व्यक्ति मिलकर हाथ से उसे बमुश्किल घेर पाते थे। और इतना सब कुछ जैविक कचरे की बदौलत सिर्फ 15-20 सालों में अपने आप हुआ था!

सोचने वाली बात है कि जब यह अधूरा प्रयास ही इतना कुछ कर गया तो यदि नियोजित ढंग से किया जाए तो अगले 25 सालों में कितनी वेस्टलैंड को सुधार कर प्रकृति, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि को सेहतमंद बनाए रखने की दिशा में कार्य किया जा सकता है। जैविक कचरा (जिसे गीला कचरा कहते हैं) एक बेकार चीज़ न रहकर उपयोगी संसाधन हो जाएगा, विशाल मात्रा में उसका सतत निपटान संभव हो जाएगा, मिट्टी उपजाऊ होगी और वेस्टलैंड का सतत सुधार होता जाएगा। प्राकृतिक रूप से बेहतर गुणवत्तापूर्ण, जैव-विविधता समृद्ध घने जंगल पनपने लगेंगे। वन्य जीव भी ऐसी जगह पनप ही जाएंगे। वायु की गुणवत्ता सुधरना और वातावरण का तापमान घटना लाज़मी है। घने जंगल वर्षा को आकर्षित करेंगे। भू-जल भंडार और भूमि की सतह पर जल स्रोत समृद्ध होंगे। कुल मिलाकर पर्यावरण समृद्ध होगा।

चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहां बड़े पैमाने पर अनाजों, दालों, सब्ज़ियों और फलों की पैदावार और खपत होती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए घरों, खेतों, उद्योगों आदि से गीला कचरा प्रतिदिन भारी मात्रा में निकलता है जिसका इस्तेमाल वेस्टलैंड पुनरुत्थान में किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों कुछ जानवर स्वजाति भक्षी बन जाते हैं?

किसी को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि कैलिफोर्निया में कपास के खेतों को माहू (एफिड्स) के हमले से बचाने का एक प्रयास स्वजातिभक्षण विस्फोट का रूप ले लेगा। दरअसल हरे रंग के भुक्खड़ छोटे माहू पौधों से रस चूसकर उन पर फफूंदयुक्त अपशिष्ट और घातक विषाणु छोड़ जाते हैं। इससे फसल तबाह हो जाती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानी जे रोसेनहाइम की टीम ने कपास की फसल को इनके प्रकोप से बचाने के लिए उन पर स्थानीय माहू छोड़े जिन्हें बिग आइड एफिड्स कहते हैं।

कुछ समय के लिए तो सब ठीक-ठाक चला, हरे माहू पर नियंत्रण भी हुआ। लेकिन फिर, जैसे ही पौधों पर जगह कम पड़ने लगी तब कुछ अप्रत्याशित घटा: बिग आइड माहुओं ने हरे माहुओं पर हमला करना बंद कर दिया और एक-दूसरे का शिकार करने लगे, यहां तक कि वे अपने ही अंडों को भी खा गए।

इकॉलॉजी में प्रकाशित अपनी समीक्षा में शोधकर्ता बताते हैं कि जीव जगत में, एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर सैलेमेण्डर तक में, स्वजाति भक्षण यानी अपने जैसे जीवों का भक्षण देखा जाता है। लेकिन यह इतना भी आम नहीं है; शोधकर्ताओं ने इसका कारण भी स्पष्ट किया है।

पहला तो स्वजाति भक्षण जोखिम भरा है। यदि किसी जानवर के पास पैने पंजे और दांत हैं, तो ज़ाहिर है कि उसके बंधुओं और साथियों के पास भी पैने पंजे और दांत होंगे। उदाहरण के लिए, मादा मेंटिस संभोग के दौरान अपने से छोटे कद-काठी के नर का सरकलम करने के लिए कुख्यात है, लेकिन कभी-कभी प्रतिस्पर्धा समान कद-काठी वाली अन्य मादा के साथ हो जाती है। जब एक मादा दूसरी की टांग को चबा डालती है तो दूसरी किसी भी तरह अपनी प्रतिद्वंद्वी मादा को मार डालती है।

रोगों की दृष्टि से भी स्वजाति भक्षण जोखिम पूर्ण लगता है। कई रोगजनक मेजबान विशिष्ट होते हैं, इसलिए यदि कोई स्वजाति भक्षी अपने किसी संक्रमित साथी को खाता है तो उस साथी का संक्रमण मिलने की भी संभावना होती है। कुछ मानव समुदायों या समूहों को इसके कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है कुरु नामक दुर्लभ और घातक मस्तिष्क रोग का प्रसार। इसने 1950 के दशक में न्यू गिनी के फोर लोगों को तबाह कर दिया था। कुरु रोग समुदाय के एक अंत्येष्टि अनुष्ठान के माध्यम से पूरे फोर समुदाय में फैला था। इसमें मृतक का परिवार मृतक का मांस (मस्तिष्क सहित) पका कर खाते हैं। जब फोर समुदाय ने इस अनुष्ठान को बंद कर दिया तो उनमें कुरु का प्रसार रुक गया था।

अंत में स्वजाति भक्षण किसी जीन को हस्तांतरित करने का सबसे बुरा तरीका है। जैव विकास के दृष्टिकोण से अंतिम चीज़ है अपनी संतान को खाना। यही एक कारण है कि बड़ी आंखों वाले एफिड अपनी संतानों को खाकर अपनी आबादी को सीमित रखते हैं। यदि वे संख्या में बहुत अधिक हो जाते हैं – जैसा कि एफिड प्रयोग के मामले में हुआ – तो सभी जगह उनके अंडे होते हैं। और चूंकि वे अपने अंडों को नहीं पहचान पाते तो वे स्वयं के अंडे भी खा जाते हैं।

हालांकि स्वजातिभक्षण कोई वांछनीय चीज़ नहीं है, लेकिन कुछ परिस्थितियां इस जोखिम पूर्ण व्यवहार को उपयुक्त बना देती हैं। यदि कोई जीव भूख से मरने वाला है तो अपने किसी सगे या वारिस को खाकर वह अपना अस्तित्व तो बचा ही रहा है। देखा गया है कि भूख कभी-कभी सैलेमेण्डर के लार्वा को अपने साथी को कुतरने या खाने के लिए उकसाती है।

अपनी समीक्षा में शोधकर्ता बताते हैं कि विशिष्ट हार्मोन – अकशेरुकियों में ऑक्टोपामाइन और कशेरुकी जीवों में एपिनेफ्रिन – स्वजाति भक्षण में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार हैं। जैसे-जैसे प्रजाति की आबादी अधिक होने लगती है और भोजन मिलना मुश्किल हो जाता है तो इन हार्मोन की मात्रा बढ़ने लगती है। और भूख से त्रस्त जीव जो भी सामने आता है उसे झपटने लगते हैं।

अध्ययन यह भी बताता है कि कैसे कुछ परिस्थितियां कुछ युवा उभयचरों जैसे टाइगर सेलेमैण्डर और कुदाल जैसे पैर वाले मेंढक को महास्वजातिभक्षी बना देते हैं। जब किसी तालाब में बहुत सारे लार्वा होते हैं तो कुछ टैडपोल स्वजातिभक्षी रूप धारण कर लेते हैं। इनमें जबड़े बड़े हो जाते हैं और नकली दांत निकल आते हैं। इसी तरह का स्वजाति भक्षण घुन, मछली और यहां तक कि फल मक्खियों में भी पनपता है। फल मक्खियों में तो ऐसे जीव अपने साथियों की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक दांतों से लैस हो जाते हैं।

अन्य जीव जैसे खूंखार केन टोड इसका विपरीत तरीका अपनाते हैं। यदि भूखे स्वजाति भक्षी केन टोड आसपास होते हैं तो अन्य टैडपोल का विकास तेज़ हो जाता है और वे इतने बड़े हो जाते हैं कि उन्हें निगलना असंभव हो जाता है।

रोसेनहाइम के मुताबिक स्वजाति भक्षण का परिणाम सकारात्मक होता है: इसके चलते कम संख्या वाली, स्वस्थ आबादी विकसित होती है। इसी कारण वे इसे बर्बर कहने से कतराते हैं। उनके मुताबिक मनुष्यों की बात हो तो अच्छी नहीं लगती लेकिन प्रकृति में संतुलन लाने में स्वजातिभक्षण का काफी योगदान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ade0210/abs/_20220719_on_cannibalism_praying_mantis.jpg