कठफोड़वा के मस्तिष्क की सुरक्षा का सवाल

ह तो सब जानते हैं कि कठफोड़वा ज़ोरदार प्रहार करके पेड़ों में कोटर बनाता है। इस प्रहार के दौरान उसका दिमाग महफूज़ कैसे रहता है?

लंबे समय से वैज्ञानिक मानते आए हैं कि पेड़ पर चोंच से प्रहार करते समय कठफोड़वा की खोपड़ी की स्पंजी हड्डी उसके मस्तिष्क की सुरक्षा करती है। इसी से प्रेरणा लेकर इंजीनियरों ने सुरक्षा हेलमेट और शॉक-एब्सॉर्बिंग इलेक्ट्रॉनिक उपकरण डिज़ाइन किए हैं। लेकिन हालिया विश्लेषण से पता चला है कि कठफोड़वा का ध्यान अपने मस्तिष्क की सुरक्षा के बजाय प्रहार की ताकत पर अधिक होता है।

चाहे भोजन की तलाश हो, पेड़ में घर बनाना हो या अपने साथियों को लुभाना, कठफोड़वा प्रति सेकंड लगभग 20 बार अपनी चोंच से प्रहार करता है। और फिर अपने रोज़मर्रा के काम पर निकल जाता है।

यदि फुटबॉल मैच के दौरान विपरीत दिशा से आ रहे दो प्रतिद्वंदी आपस में टकराते हैं, तो टक्कर के बाद शरीर और सिर तो स्थिर हो जाते हैं लेकिन मस्तिष्क आगे गति करता रहता है। सामने वाला भाग दबाव और पिछला भाग खिंचाव महसूस करता है जिसके कारण कभी-कभी मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचती है।

इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के बायोमेकेनिस्ट और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक सैम वान वासेनबर्ग बताते हैं कि कठफोड़वा मानव मस्तिष्काघात सीमा से तीन गुना अधिक त्वरण से चोंच मारने के बावजूद बिना किसी नुकसान के बच निकलता है। इस लचीलेपन ने पूर्व में शोधकर्ताओं को पक्षियों की रक्षा करने वाली विशेष संरचना की खोज करने के लिए प्रेरित किया था। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान था कि इसकी खोपड़ी की स्पंजी हड्डी एयरबैग के रूप में कार्य करती है जबकि कुछ अन्य के अनुसार इसकी लंबी जीभ मस्तिष्क के लिए सीटबेल्ट का काम करती है।  

वैन वासेनबर्ग और उनके सहयोगियों ने एक नया तरीका अपनाया। उन्होंने चोंच मारने वाले पक्षियों में प्रशामक प्रभाव का पता लगाने का प्रयास किया। इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन प्रजातियों के छह कठफोड़वों के 109 हाई-स्पीड विडियो रिकॉर्ड किए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लकड़ी पर प्रहार करते कठफोड़वा की चोंच और सिर के विशेष बिंदुओं को ट्रैक करते हुए वैज्ञानिकों ने पाया कि कठफोड़वे की खोपड़ी सख्त बनी रही यानी उसका सिर चोंच की तुलना में जल्दी स्थिर नहीं हुआ।       

रिकॉर्डिंग के आधार पर एक सिमुलेशन मॉडल भी तैयार किया गया। इस मॉडल में शॉक-एब्सॉर्बर जोड़ने के बाद एक बार फिर से परीक्षण किया गया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इन पक्षियों के मस्तिष्क की रक्षा करने में शॉक-एब्सार्बर की कोई भूमिका नहीं है। यदि सिर इस टकराव के प्रभाव को अवशोषित कर ले तो यह पक्षी इतना अधिक बल नहीं लगा पाएगा। यानी कठफोड़वा अपनी चोंच से कम गहराई तक लकड़ी खोद पाएगा। यानी शॉक एब्सॉर्बर हो तो उतनी ही लकड़ी खोदने के लिए उसे ज़्यादा ज़ोरदार प्रहार करना होगा। यह वैसा ही होगा जैसे दीवार पर कील ठोकना है और हथौड़े और कील के बीच तकिया रख दिया जाए।  

लेकिन सवाल तो यह है कि कठफोड़वा खुद को चोट लगने से कैसे बचाता है? इस अध्ययन के लेखक के अनुसार मस्तिष्क का आकार और अभिविन्यास उसकी रक्षा करते हैं। यहां तक कि सबसे मज़बूत प्रहार भी उसके मस्तिष्क पर बहुत कम प्रभाव डालता है। इसके अलावा, संभवत: कठफोड़वा में मस्तिष्क को होने वाली मामूली क्षति को रोकने और मरम्मत करने के लिए विशेष प्रणालियां होती हैं।    

अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पक्षी के भीतर शॉक-एब्सार्बर के विचार को खारिज नहीं किया है। फिर भी यह अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है जो कठफोड़वा को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y गुणसूत्र खो देने के खतरे

जैसे-जैसे पुरुषों की उम्र बढ़ती है उनके न केवल बाल झड़ते हैं, मांसपेशियां कमज़ोर होने लगती हैं बल्कि उनकी कोशिकाओं से Y गुणसूत्र नदारद होने लगते हैं। विदित हो कि स्त्रियों और पुरुषों में 22 जोड़ी गुणसूत्र तो एक जैसे होते हैं लेकिन तेइसवीं जोड़ी में पुरुषों में दो गुणसूत्र अलग-अलग होते हैं (X और Y) जबकि स्त्रियों में दोनों एक जैसे (X) होते हैं।

वैज्ञानिक बताते आए हैं कि Y गुणसूत्रों का ह्रास कुछ बीमारियों और समय-पूर्व मृत्यु का जोखिम पैदा करता है, लेकिन इस बात के प्रमाण परिस्थितिजन्य थे। अब, शोधकर्ताओं ने बताया है कि जब उन्होंने नर चूहों से Y गुणसूत्र हटाए तो ऐसे चूहों की मृत्यु अपेक्षाकृत जल्दी हुई; संभवतः Y गुणसूत्र की अनुपस्थिति के चलते उनके हृदय सख्त पड़ गए थे।

मर्दानगी का पर्याय माना जाने के बावजूद Y गुणसूत्र होता पिद्दी सा है। इसमें केवल 71 जीन्स होते हैं जो X गुणसूत्र के जीन्स का दसवां हिस्सा भी नहीं है। संभवत: यही कारण है कि जब कोशिका विभाजित होती है तो कभी-कभी Y गुणसूत्र अगली संतान कोशिका में हस्तांतरित नहीं होते।

शोधकर्ताओं ने रक्त के नमूनों के विश्लेषण में पाया है कि 70 वर्ष के लगभग 40 प्रतिशत पुरुषों और 93 वर्ष के लगभग 57 प्रतिशत पुरुषों की कुछ श्वेत रक्त कोशिकाओं से Y गुणसूत्र नदारद थे। कुछ वृद्ध पुरुषों में तो 80 प्रतिशत से अधिक श्वेत रक्त कोशिकाओं में Y गुणसूत्र नदारद पाए गए हैं।

कोशिकाएं Y गुणसूत्र के बिना भी जीवित रह सकती हैं और विभाजन कर सकती हैं। लेकिन जिन पुरुषों की कुछ कोशिकाओं में Y गुणसूत्र नहीं होता उनमें हृदय रोग, कैंसर, अल्ज़ाइमर और अन्य उम्र सम्बंधी बीमारियां होने की संभावना रहती है।

तो क्या Y गुणसूत्र हटाने से स्वास्थ्य को नुकसान होता है, यह जानने के लिए वर्जिनिया विश्वविद्यालय के केनेथ वाल्श और उनके साथियों ने 38 चूहों पर अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण किया। उन्होंने जीन-संपादन तकनीक की मदद से कुछ चूहों की अस्थि मज्जा की कोशिकाओं से Y गुणसूत्र हटा दिया, फिर इन परिवर्तित कोशिकाओं को ऐसे युवा नर चूहों में प्रत्यारोपित किया जिनकी अस्थि मज्जा पहले ही हटा दी गई थी। इस बदली से चूहों से Y गुणसूत्र पूरी तरह गायब नहीं हुए, लेकिन इससे 49-81 प्रतिशत श्वेत रक्त कोशिकाएं में Y गुणसूत्र विहीन हो गईं – यह प्रतिशत लगभग कई पुरुषों में Y गुणसूत्र के ह्रास के समकक्ष है। अध्ययन में नियंत्रण समूह (कंट्रोल) के 37 चूहों में भी अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण किया गया था लेकिन उनमें Y गुणसूत्र बरकरार रखे गए थे।

शोधकर्ताओं ने लगभग 2 साल तक दोनों समूहों के चूहों की निगरानी की। इस दौरान Y गुणसूत्र की कमी वाले चूहों के मरने की अधिक संभावना देखी गई – इन चूहों में से केवल 40 प्रतिशत ही प्रत्यारोपण के बाद 600 दिनों तक जीवित रहे जबकि नियंत्रण समूह के लगभग 60 प्रतिशत जीवित रहे।

Y गुणसूत्र गंवाने वाले चूहों के हृदय भी कमज़ोर थे। लगभग 15 महीनों के बाद उनके हृदय की संकुचन शक्ति तकरीबन 20 प्रतिशत कम हो गई थी। इसके अलावा, उनमें सख्त संयोजी ऊतक बनने लगे थे, जिसे फाइब्रोसिस कहते हैं। इसके चलते हृदय सख्त हो जाता है और उसकी रक्त पंप करने की क्षमता कम हो जाती है।

उपरोक्त अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के दौरान चूहों के हृदय की मांसपेशियों की कोशिकाओं से Y गुणसूत्र नहीं हटाए गए थे। अस्थि मज्जा में बनने वाली मैक्रोफेज नामक श्वेत रक्त कोशिकाएं हृदय में पहुंच जाती हैं। देखा गया कि हृदय में Y गुणसूत्र की कमी वाली मैक्रोफेज कोशिकाओं ने फाइब्रोसिस को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था।

कुछ ऐसा ही इंसानों में होता होगा। दल ने यू.के. बायोबैंक से 15,000 से अधिक पुरुषों के डीएनए और उनकी उत्तरजीविता की जानकारी ली। विश्लेषण में पाया कि जिन पुरुषों ने कम से कम 40 प्रतिशत श्वेत रक्त कोशिकाओं से Y गुणसूत्र गंवा दिए थे उनकी ऐसे पुरुषों की अपेक्षा रक्त परिसंचरण तंत्र तंत्र की बीमारियों से मरने की संभावना 31 प्रतिशत अधिक थी जिनकी कोशिकाओं में Y गुणसूत्र पर्याप्त रूप से मौजूद थे। मृत्यु के कारणों में हार्ट फेल सहित कई हृदय सम्बंधी तकलीफें पता चलीं।

वाल्श कहते हैं कि वैज्ञानिक लंबे समय से स्वास्थ्य पर Y गुणसूत्र के प्रभाव को नज़रअंदाज़ करते आए हैं क्योंकि इसमें बहुत कम जीन्स होते हैं लेकिन साक्ष्य बताते हैं कि इसे खोने से जीवन के कई वर्ष कम हो सकते हैं।

कुछ विशेषज्ञ चेताते हैं कि ये परिणाम इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं कि चूहों की मृत्यु फाइब्रोसिस से हुई है। Y गुणसूत्र अनुपस्थित होने पर भी फाइब्रोसिस काफी हल्का था। और तो और, ऐसे चूहों के हृदय की स्थिति इतनी भी कमज़ोर नहीं थी, और जानलेवा नहीं लगती। हो सकता है कि चूहे हृदय सम्बंधी किसी अन्य कारण से मर रहे हों। जो भी हो लेकिन Y गुणसूत्र का किसी न किसी तरह से हृदय पर प्रभाव दिखता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मोनार्क तितलियां संकटग्रस्त सूची में

हाल ही में वैज्ञानिकों ने नारंगी-काले पंखों वाली मोनार्क तितली की तेज़ी से घटती संख्या के मद्देनज़र संकटग्रस्त प्रजाति की सूची में डाल दिया है। अनुमान है कि उत्तरी अमेरिका में मोनार्क तितलियों की आबादी 10 वर्षों में 22-72 प्रतिशत के बीच घटी है।

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने पहली बार प्रवासी मोनार्क तितली को संकटग्रस्त प्रजातियों की ‘रेड लिस्ट’ में शामिल किया है और यह ‘विलुप्ति’ से बस दो कदम दूर है।

मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी के संरक्षण जीवविज्ञानी निक हद्दाद कहते हैं कि इनकी गिरावट की दर चिंतनीय है। कल्पना की जा सकती है कि जल्द ही यह तितली और भी बुरी स्थिति में होगी। पूर्वी यू.एस.ए. की मोनार्क तितलियों पर किए गए अध्ययन के आधार पर हद्दाद का अनुमान है कि 1990 के दशक के बाद से तितलियों की आबादी में 85 से 95 प्रतिशत तक की गिरावट आई है।

ज्ञात कीट प्रजातियों में उत्तरी अमेरिका की मोनार्क तितलियां सबसे लंबा प्रवास करती हैं। मध्य मेक्सिको में जाड़ा बिताने के बाद ये तितलियां उत्तर की ओर प्रवास करती हैं। हज़ारों किलोमीटर लंबे सफर में ये कई पीढ़ियां पैदा करती हैं। दक्षिणी कनाडा पहुंचने वाली संतानें गर्मियों के अंत में वापस मैक्सिको की यात्रा शुरू कर देती हैं।

मोनार्क तितलियों का एक छोटा समूह तटीय कैलिफोर्निया में जाड़ा बिताता है, फिर वसंत और गर्मियों में रॉकी माउंटेन्स के पश्चिम में कई राज्यों में फैल जाता है। इस आबादी में पूर्वी मोनार्क की तुलना में और भी अधिक गिरावट देखी गई है। हालांकि पिछले जाड़ों में इनकी संख्या में थोड़ी वृद्धि दिखी थी।

मध्य और दक्षिण अमेरिका की गैर-प्रवासी मोनार्क तितलियों को लुप्तप्राय की श्रेणि में शामिल नहीं किया है।

पश्चिमी तितलियों की निगरानी करने वाली और गैर-मुनाफा संस्था ज़ेर्सेस सोसाइटी की एम्मा पेल्टन का कहना है कि तितलियां उनके घटते आवास स्थलों और खरपतवार-नाशकों व कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में हैं।

इन तितलियों की इल्लियां मिल्कवीड के पौधे पर पलती हैं। ऐसे पौधे लगाकर इन तितलियों को बचाया जा सकता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका ने मोनार्क तितली को जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत अधिसूचित नहीं किया है, लेकिन कई पर्यावरण समूहों का मानना है कि इसे सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन मीथेन उत्सर्जन में और वृद्धि करेगा

FILE – A woman carries a bucket on her head as she wades through floodwaters in the village of Wang Chot, Old Fangak county, Jonglei state, South Sudan on Nov. 26, 2020. A petition to stop the revival of the 118-year-old Jonglei Canal project in South Sudan, started by one of the country’s top academics, is gaining traction in the country, with the waterway touted as a catastrophic environmental and social disaster for the country’s Sudd wetlands. (AP Photo/Maura Ajak, File)

रती को गर्म करने के मामले में मीथेन भी कार्बन डाईऑक्साइड से कुछ कम नहीं है। मीथेन पृथ्वी के बढ़ते तापमान में एक तिहाई वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है। वर्ष 2006 लेकर अब तक मीथेन उत्सर्जन में 7 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह काफी हैरानी की बात है कि महामारी के दौरान तेल और गैस उत्पादन में कमी के बावजूद पिछले दो वर्षों में यह वृद्धि सबसे अधिक देखने को मिली है। तो यह मीथेन कहां से आई?

शोधकर्ताओं का ख्याल है कि इसका स्रोत उष्णकटिबंधीय वेटलैंड्स (नमभूमि) के सूक्ष्मजीव हैं। और बुरी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में वृद्धि इसे बढ़ा रही है।

अधिकांश जलवायु वैज्ञानिक सहमत हैं कि 2006 के बाद मीथेन के स्तर में वृद्धि के लिए जीवाश्म ईंधन ज़िम्मेदार नहीं हैं। कारण? यह देखा गया है कि वायुमंडलीय मीथेन में कार्बन के हल्के आइसोटोप यानी कार्बन-12 की मात्रा काफी अधिक हो गई है। इसीलिए सूक्ष्मजीवों को इस मीथेन के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है। ये सूक्ष्मजीव उन रासायनिक  क्रियाओं को तरजीह देते हैं जिनमें कार्बन के हल्के समस्थानिक (कार्बन-12) का इस्तेमाल होता है और इस प्रकार से इनके द्वारा उत्पन्न मीथेन पहचानी जा सकती है।

हालांकि कार्बन के इस समस्थानिक के आधार पर यह नहीं बताया जा सकता कि ये सूक्ष्मजीव नमभूमि के हैं, भराव स्थलों के हैं या मवेशियों की आंत के। लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तेज़ जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए कई शोधकर्ताओं का मानना है कि इन क्षेत्रों में पशुपालन और भराव स्थल का मिला-जुला असर 2006 के बाद मीथेन में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मीथेन की मात्रा में तीव्र वृद्धि को देखते हुए शोधकर्ताओं को किसी अन्य स्रोत की भी आशंका थी। शोधकर्ताओं ने दक्षिण सूडान स्थित सड के दलदली क्षेत्र का का अध्ययन जापान के ग्रीनहाउस गैसेस ऑब्ज़रवेशन सेटेलाइट की मदद से किया जो मीथेन द्वारा अवशोषित अवरक्त प्रकाश की मात्रा का मापन करता है।

इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि सड क्षेत्र 2019 के बाद से मीथेन उत्सर्जन का हॉटस्पॉट बन गया है जो प्रति वर्ष 1.3 करोड़ टन अतिरिक्त मीथेन वातावरण में उड़ेल रहा है। यह मात्रा कुल वैश्विक मीथेन उत्सर्जन के 2 प्रतिशत से भी अधिक है।

इसके अलावा हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में भी इसी प्रकार के नतीजे सामने आए हैं। यदि इन परिणामों को अमेज़ॉन और उत्तर में स्थित जंगलों से होने वाले उत्सर्जन के साथ जोड़ा जाए तो मीथेन की मात्रा में अधिकांश अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या हो जाती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन मीथेन उत्सर्जन की गति को निर्धारित कर सकता है। पूर्व में शोधकर्ताओं ने 2010 से 2019 तक पूर्वी अफ्रीका के मीथेन उत्सर्जन को हिंद महासागर के तापमान पैटर्न से जोड़कर देखा था। ऐसा अनुमान है कि लगातार बढ़ते तापमान के चलते अधिक लंबी अवधियों तक, और अधिक वर्षा होगी। यदि ऐसा हुआ तो सड के क्षेत्र से अधिक मीथेन उत्सर्जन होगा जो वातावरण को अधिक गर्म करेगा और वर्षा में भी वृद्धि होगी। यह एक पॉज़िटिव फीडबैक लूप की तरह चलता रहेगा। एक बड़ी चुनौती इस फीडबैक लूप को नियंत्रित करना है।

शोधकर्ताओं ने पिछले दो वर्षों में मीथेन उत्सर्जन में उछाल की अन्य संभावित व्याख्याएं प्रस्तुत करने के प्रयास किए हैं। एक कारण यह लगता है कि वाहनों के कम चलने के कारण मीथेन का विनाश कम हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड कई सदियों तक वातावरण में बनी रहती है। इसके विपरीत मीथेन 12-13 वर्ष ही टिकती है जिस दौरान वातावरण में मौजूद हाइड्रॉक्सिल (OH) मूलक उसे हवा से हटा देते हैं। ये OH रेडिकल जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स से उत्पन्न होते हैं। महामारी के दौरान यातायात और उद्योगों में जीवाश्म ईंधन के कम उपयोग से नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा कम हुई, नतीजतन OH की कमी हुई और मीथेन को टिकने का मौका मिला। अलबत्ता, हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के मॉडल के अनुसार महामारी के दौरान OH में कमी का मीथेन पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा है।

गौरतलब है कि 2021 में 100 से अधिक देशों ने ग्लोबल मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर किए थे जिसका उद्देश्य 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करना था। कई वैज्ञानिकों ने तो हवा से मीथेन को हटाने का प्रस्ताव भी रखा है। लेकिन ये प्रयास वेटलैंड से निकलने वाले उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन को थामने में फफूंद की मदद

क्या यह संभव है मिट्टी में कुछ किस्म के कवक यानी फफूंद रोपकर पेड़ों को तेज़ी से वृद्धि करने में मदद दी जाए और फिर ये तेज़ी से वृद्धि करते पेड़ वातावरण से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर जलवायु परिवर्तन को धीमा करें? नवगठित सोसाइटी फॉर दी प्रोटेक्शन ऑफ अंडरग्राउंड नेटवर्क्स (SPUN) के शोधकर्ता इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश कर रहे हैं।

दरअसल SPUN के सह-संस्थापक व कवक विज्ञानी कॉलिन एवेरिल का यह प्रयास पूर्व में हुए एक अध्ययन से प्रेरित है। उस अध्यनन से पता चला था कि उचित कवक वनस्पतियों की वृद्धि को बढ़ा सकते हैं। जनवरी में इंटरनेशनल सोसायटी फॉर माइक्रोबियल इकॉलॉजी (ISME) के जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में एवरिल और उनके साथियों ने बताया था कि युरोप के विभिन्न जंगलों में वृक्षों की वृद्धि दर में तीन गुना तक अंतर हो सकता है और यह अंतर उनके साथ उगने वाली फफूंद पर निर्भर करता है।

लेकिन सवाल यह है कि कितनी मात्रा में कवक पौधों को सुपरचार्ज कर सकते हैं? कंपनियां लंबे समय से जड़-फफूंद (माइकोराइज़ा) बेचती रही हैं जिसे बागवान जड़ों पर लगा सकते हैं। लेकिन इस तरह के व्यावसायिक मिश्रण विशिष्ट पेड़ प्रजातियों या स्थानों के लिए नहीं बनाए जाते, और इस बात के प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं कि वे सचमुच वृद्धि में मदद करते हैं। वृद्धि के लिए ज़रूरी है कि उचित स्थान पर उचित जीव जोड़े जाएं।

युनाइटेड किंगडम में वेल्स में जारी वृक्षारोपण प्रयोग इसी परिकल्पना का परीक्षण कर रहा है। 2021 के वसंत में दक्षिण-पश्चिमी वेल्स के एक विरान चारागाह में एवेरिल ने एक वानिकी कंपनी की मदद से 11 हैक्टर के क्षेत्र में 25,000 पेड़ लगाए। इसमें उन्होंने यू.के. की इमारती लकड़ी के वृक्ष सिटका स्प्रूस और कुछ स्थानीय पतझड़ी वृक्ष रोपे। इसके बाद आधे नवांकुरों की जड़ों में जड़-फफूंद जोड़ी जो इसी तरह के पुराने जंगल से प्राप्त की गई थी, यह कवक पौधों की जड़ों से जुड़कर पौधों को पोषक तत्व प्राप्त करने में मदद करती है। शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि क्या कवक-युक्त पेड़ कवक-रहित पेड़ों की तुलना में तेज़ी से बढ़ते हैं और अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं। इसी तरह का एक परीक्षण मेक्सिको के युकाटन में चल रहा है, और आयरलैंड में भी इसी तरह के परीक्षण की तैयारी है।

अप्रैल में पेड़ों को मापने पर पता चला कि कवक-युक्त पौधे कवक-रहित पौधों की तुलना में तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हालांकि अभी यह अध्ययन जारी है और एक और वर्ष के अवलोकन के बाद आंकड़े प्रकाशित करने की योजना है। आगे ऐसे ही परीक्षण अन्य वृक्षों पर भी किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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मद्धिम संगीत से दर्द में राहत

र्ष 1960 में दंत चिकित्सकों के एक समूह ने एक दिलचस्प अध्ययन प्रकाशित किया था: जब उन्होंने ऑपरेशन के दौरान अपने मरीज़ों के लिए संगीत बजाया, तो मरीज़ों को दर्द का कम अहसास हुआ। कुछ मरीज़ों को तो नाइट्रस ऑक्साइड (लॉफिंग गैस) या लोकल निश्चेतक देने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। अब चूहों पर हुए एक अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि यह क्यों काम करता है।

दरअसल 1960 के उपरोक्त अध्ययन के बाद से कई वैज्ञानिक मोज़ार्ट से लेकर माइकल बोल्टन तक के संगीत का निश्चेतक प्रभाव जानने के लिए अध्ययन करते रहे हैं। एक अध्ययन में पाया गया था कि फाइब्रोमाएल्जिया के मरीज़ों को उनका पसंदीदा संगीत सुनते समय कम दर्द होता था।

संगीत दर्द में क्यों राहत देता है, इसे बेहतर समझने के लिए यू.एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल एंड क्रेनियोफेशियल रिसर्च के न्यूरोबायोलॉजिस्ट युआनयुआन लियू और उनके साथियों ने चूहों की ओर रुख किया। उन्होंने एक कमरे में कृन्तकों को दिन में 20 मिनट (कम से कम मनुष्यों के लिए) सुखद सिम्फोनिक संगीत – बाक का रेजॉइसेंस – 50 या 60 डेसिबल पर सुनाया, और पृष्ठभूमि का शोर 45 डेसिबल के आसपास था।

इन सत्रों के दौरान, शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजे में एक दर्दनाक रसायन प्रविष्ट किया। फिर, उन्होंने अलग-अलग तीव्रता से पतला तार पंजे पर चुभाया और कृन्तकों की प्रतिक्रिया देखी। शोधकर्ताओं का मानना था कि यदि वे छटपटाते, चाटते, या अपना पंजा वापस खींचते हैं तो वे दर्द महसूस कर रहे हैं।

अध्ययन में उन्होंने पाया कि केवल धीमी आवाज़ (50 डेसिबल) पर ध्वनि ने चूहों को सुन्न कर दिया था। जब शोधकर्ताओं ने उनके सूजे हुए पंजे को तार से चुभाया, तो चूहे छटपटाए नहीं। दूसरी ओर, तेज़ आवाज़ में चूहे अधिक संवेदनशील दिखे – उन्होंने सिर्फ एक तिहाई दबाव पर ही काफी तेज़ प्रतिक्रिया दी। ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया संगीत की अनुपस्थिति में भी देखी गई।

शोधकर्ताओं ने कर्कश संगीत (रेजॉइसेंस को अप्रिय ध्वनि में बदलकर) और मिश्रित शोर के साथ भी परीक्षण किया। साइंस पत्रिका में उन्होंने बताया है कि पृष्ठभूमि के शोर से थोड़ा तेज़ बजाने पर ये सभी ध्वनियां दर्द को दबा सकती हैं। लगता है कि ध्वनि की तीव्रता ही महत्वपूर्ण है।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के श्रवण कॉर्टेक्स (मस्तिष्क का ध्वनि प्रसंस्करण क्षेत्र) में लाल फ्लोरोसेंट रंग प्रविष्ट किया और फिर उपरोक्त अध्ययन दोहराया। उन्होंने पाया कि संवेदनाओं के प्रसंस्करण केंद्र थैलेमस के कुछ घने क्षेत्रों में अत्यधिक फ्लोरोसेंस है, जिससे लगता है कि इस क्षेत्र और श्रवण कॉर्टेक्स के बीच की कड़ियां दर्द को दबाने में भूमिका निभाती हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में छोटे इलेक्ट्रोड लगाए और पाया कि अपेक्षाकृत मद्धिम ध्वनियों ने श्रवण कॉर्टेक्स से निकलने वाले संकेतों को कम कर दिया था। जब श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच सम्बंध को अवरुद्ध किया गया, तो चूहों को कम दर्द महसूस हुआ।

कुल मिलाकर टीम ने पाया कि मंद आवाजें श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच संकेतों को बोथरा कर देती हैं, जिससे थैलेमस में दर्द प्रसंस्करण कम होता है। यह प्रभाव चूहों को संगीत सुनाना बंद करने के दो दिन बाद तक रहता है।

इस अध्ययन से कुछ सुराग तो मिले हैं लेकिन मनुष्यों पर अध्ययन की ज़रूरत है। लेकिन चूहों की तरह मानव मस्तिष्क में कुछ प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, इसलिए संगीत बजाकर एमआरआई से उनकी थैलेमस गतिविधि पर नज़र रखना होगी।

कई लोगों को शायद लगेगा कि दर्द से राहत पाने के लिए मोज़ार्ट का संगीत सुनना चाहिए लेकिन अध्ययन से स्पष्ट है कि मंद आवाज़ में कोई भी शोर दर्द से राहत दे सकता है।

बहरहाल, मनुष्यों को राहत मिले ना मिले, लेकिन ये तरीका प्रयोगों के दौरान कृन्तकों को होने वाले दर्द को कम करने का एक सस्ता और आसान तरीका हो सकता है। चूहों पर इस तरह के प्रयोग चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)

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नेपाल ने किफायती मौसम विज्ञान संस्थान खड़ा किया

हाल ही में नेपाल में सूखा अनुसंधान संस्थान शुरू हुआ है। काठमांडू इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंसेज़ के सेंटर फॉर वॉटर एंड एटमॉस्फेरिक रिसर्च की हेमू काफले ने इसे स्थापित करने में काफी योगदान दिया है।

नेपाल के काठमांडू इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंसेज़ द्वारा डिज़ाइन और विकसित किया गया यह मौसम विज्ञान स्टेशन कम लागत वाले स्टेशनों में शुमार है। इसका पहला मॉडल तीन साल पहले बना था। यहां तापमान, आर्द्रता, दबाव, हवा की गति और दिशा, और वर्षा को मापा जाता है।

काफले बताती हैं कि बचपन के दिनों में उन्होंने नेपाल के सूखे (नेपाली में खदेरी) के बारे में सुना था। लेकिन जब उन्होंने नेपाल में सूखे पर शोध करने की कोशिश की, तो पाया कि इस बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। नेपाली लोग बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन वे सूखे के बारे में बात नहीं करते। जबकि तथ्य यह है कि सूखा फसल उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है, खास कर असिंचित क्षेत्रों की बरसाती खेती को।

नेपाल में बहुत कम मौसम विज्ञान केंद्र थे। और चूंकि यहां का भूगोल काफी पर्वतीय है, तो लोग बाहर जाकर अपने उपकरणों को अंशांकित नहीं कर सकते हैं; इसलिए मौसम सम्बंधी पर्याप्त डैटा था ही नहीं। काफले ने नेपाल के बाहर (जापान के नागोया युनिवर्सिटी से) रिमोट सेंसिंग पर पीएच.डी. की थी। उनका विचार था कि उपग्रह डैटा का उपयोग करके मौसम सम्बंधी डैटा की पूर्ति कर सकते हैं और नेपाल के सूखे की संपूर्ण तस्वीर उकेर सकते हैं। लेकिन इसके लिए मॉडलिंग कंप्यूटर की ज़रूरत थी, और उनके तत्कालीन संस्थान ने यह सुविधा देने से इन्कार कर दिया था।

सिर्फ वे ही नहीं, नेपाल के बाहर के संस्थानों में अध्ययन करने वाले अन्य शोधकर्ता भी नेपाल की विशिष्ट समस्याओं पर शोध करना चाहते थे। आखिरकार 2015 में विदेशी अनुदान की मदद से अपना संस्थान स्थापित किया गया जो वन्यजीव संरक्षण, चरम जलवायु परिस्थितियों और पर्यावरण प्रदूषण में अनुसंधान को समर्थन देता है।

मौसम सम्बंधी अनुसंधान के लिए अपना कंप्यूटर मिला, और संस्थान ने नेपाल के साथ-साथ भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के भी कुछ हिस्सों के सूखों विश्लेषण किया। काफले आगे बताती हैं कि विकासशील देशों में स्थानीय स्तर पर बहुत सारा शोध कार्य करने की आवश्यकता है। आगे यह संस्थान युवाओं को भी प्रशिक्षित करना चाहता है ताकि नेपाल को विकासशील देश से विकसित देश की श्रेणि में लाने के लिए अच्छे वैज्ञानिक और दूरदर्शी लोग तैयार किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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व्यायाम दिमाग को जवान रख सकता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम

मानव मस्तिष्क 10 वर्ष की उम्र तक वयस्क आकार में तो पहुंच जाता है; लेकिन इसकी वायरिंग और इसकी क्षमताएं जीवन भर बदलती रहती हैं।

40 की उम्र के बाद मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। मस्तिष्क में से कम रक्त प्रवाहित होता है, और हारमोन्स तथा न्यूरोट्रांसमीटर्स के स्तर कम हो जाते हैं। वृद्धावस्था नए काम सीखने जैसे कुछ कार्यों को मंद कर देती है।

कुछ नया सीखने के लिए मस्तिष्क में नए तंत्रिका-कनेक्शन बनने ज़रूरी होते हैं; इस गुण को न्यूरोप्लास्टिसिटी (तंत्रिका-लचीलापन) कहते हैं। आपका मस्तिष्क एक नित परिवर्तनशील इकाई है जो नए अनुभवों के हिसाब से लगातार खुद को ढालता रहता है।

मस्तिष्क की कुछ संरचनाओं में अन्य की तुलना में अधिक लचीलापन होता है और इनमें अधिक नए कनेक्शन बनते-बिगड़ते रहते हैं। वृद्धावस्था इन संरचनाओं को तुलनात्मक रूप से में अधिक प्रभावित करती है। ऐसी ही एक संरचना है हिप्पोकैम्पस। हिप्पोकैम्पस हमारे दोनों कानों के बीच स्थित होता है। यह नई और स्थायी स्मृतियां बनाने और उन्हें सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस तरह से यह सीखने और तज़ुर्बे में भूमिका निभाता है। यह आपके आसपास के परिवेश का मानसिक चित्र भी बनाता है, जिससे आप अपने घर का रास्ता जान पाते हैं।

प्रयोगों से पता चला है कि वृद्ध चूहों के मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं के बीच कनेक्शन (सायनेप्स) कम थे और भूलभुलैया में से बाहर का रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन भी घटिया रहा। इससे संकेत मिलता है कि उनमें स्थान-विषयक सीखने/समझ की कमी होती है।

लंदन के टैक्सी ड्राइवरों के मस्तिष्क का एमआरआई करने पर पता चला है कि उनका हिप्पोकैम्पस बड़ा था – हिप्पोकैम्पस में शहर की सड़कों का नक्शा बस जाता है, और नए अनुभव होने पर यह ‘नक्शा’ आसानी से विस्तारित होता जाता है।

हालांकि, इस मामले में मनुष्यों पर हुए अध्ययनों में दिखे व्यक्ति-दर-व्यक्ति अंतर हैरान करने वाले हैं – कुछ “सुपर वृद्ध” स्मृति परीक्षणों में नौजवानों को मात दे सकते हैं।

दिमागी चोट

मस्तिष्क की रीवायरिंग और परिवर्तन क्षमता सदमे या स्ट्रोक से होने वाली मस्तिष्क क्षति के मामलों में देखी गई है। ऐसे हादसों में मस्तिष्क की कोशिकाएं बड़ी संख्या में मर जाती हैं, जिसके कारण कुछ क्षमताएं गुम हो जाती हैं। अलबत्ता, समय के साथ, मस्तिष्क खुद को फिर से तैयार करता है और खोई हुई क्षमताएं आंशिक या पूर्ण रूप से बहाल हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को दवाओं, स्टेम सेल थेरपी और मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप से गति दी जा सकती है।

हालांकि ज़रूरी नहीं कि हमेशा ऐसा हो लेकिन अक्सर उम्र बढ़ने पर संज्ञान क्षमता में कमी आती है। स्मृति के साथ-साथ कार्यकारी प्रणालियां भी गड़बड़ा सकती हैं – जैसे योजना बनाने की क्षमता और एक साथ दो या दो से अधिक काम करने की क्षमता।

ये परिवर्तन मस्तिष्क के अपने तंतु फिर से जोड़ने की क्षमता में कमी, तंत्रिका-लचीलेपन में कमी, का परिणाम हैं। लेकिन व्यवहार और जीवन शैली में बदलाव करके मस्तिष्क की नया सीखने की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है और इससे एक युवा मस्तिष्क की तरह कार्य करवाया जा सकता है।

मस्तिष्क को युवा बनाए रखने के लिए नियमित व्यायाम और अच्छा आहार उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि सीखने (नई भाषा या वाद्ययंत्र में महारत हासिल करने) की चाह रखना।

व्यायाम के लाभ

वृद्ध व्यक्तियों में व्यायाम हृदय रोग और उच्च रक्तचाप जैसे विकारों के जोखिम को कम करता है। इस तरह के विकार मनोभ्रंश (डिमेंशिया) के जोखिम को बढ़ाते हैं। अर्थात व्यायाम मनोभ्रंश और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के जोखिम को भी कम करता है।

नियमित व्यायाम आपको वज़न कम करने में मदद करता है; या कम से कम वज़न बढ़ना रुक जाता है, या कम किया हुआ वज़न दोबारा नहीं बढ़ता। व्यायाम से फेफड़े, पेट, बड़ी आंत (कोलन) और ब्लैडर के कैंसर की संभावना कम हो जाती है। व्यायाम करने वाले व्यक्तियों में चिंता और अवसाद से घिरने का खतरा भी कम होता है।

वृद्धों में व्यायाम का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इससे गिरने का और गिरने से पहुंचने वाली चोटों का जोखिम कम हो जाता है। एन-कैथरीन रोजे और उनके साथियों के एक अध्ययन (न्यूरोसाइकोलॉजिया, 2019) के अनुसार व्यायाम आपके खड़े रहते और चलते दोनों स्थितियों में शरीर विन्यास की स्थिरता को बढ़ाता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क संतुलन में गड़बड़ी होने पर त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए लगातार प्रशिक्षित होता रहता है।

सवाल है कि किस तरह का व्यायाम बेहतर है? 40-56 वर्ष के व्यक्तियों के साथ 6 महीने तक (स्ट्रेचिंग/तालबद्ध) प्रशिक्षण और एरोबिक स्थिरता प्रशिक्षण (घर पर साइकिल चलाना) के परिणामों की तुलना करने पर पाया गया कि दोनों तरह की गतिविधियों से सुस्त व्यक्तियों की स्मृति में सुधार दिखा। ये गतिविधियां बेशक हृदय-रक्तवाहिनी की हालत में भी सुधार करेंगी। अध्ययन में शामिल जिन प्रतिभागियों के हृदय-वाहिनी स्वास्थ्य में सबसे अधिक सुधार दिखा, उनकी याददाश्त में भी सबसे अच्छा सुधार दिखा। वापिस सुस्त हो जाना और फिटनेस में कमी स्मृति सम्बंधी लाभ को बेअसर कर देता है (हॉटिंग व रोडर, न्यूरोसाइंस विहेवियर रिव्यूस, 2013)।

संज्ञान प्रशिक्षण, यानी दिमागी कसरत, आपके मस्तिष्क को लचीला रहने में मदद करता है। संज्ञान प्रशिक्षण के साथ शारीरिक व्यायाम करने से वृद्धजनों की संज्ञान क्षमताओं में और भी अधिक सुधार होता है।

एक सवाल है कि कितना व्यायाम? अक्सर वृद्ध व्यक्तियों में स्वास्थ्य और संज्ञान सम्बंधी मूल्यांकन 10 मिनट की दैनिक सैर के पहले और बाद में किया जाता है; दैनिक सैर में थोड़ी जॉगिंग और थोड़ा टहलना शामिल है (जो हल्का पसीना पैदा करने के लिए पर्याप्त हो लेकिन थकाए नहीं)। 65 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सप्ताह में पांच या अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलने की सलाह देता है। (स्रोत फीचर्स)

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बूस्टर डोज़ का महत्व निजी नहीं, सार्वजनिक है – अरविंद सरदाना

रकार द्वारा बूस्टर डोज़ की घोषणा एक सही कदम है, परंतु इसे केवल 75 दिनों तक मुफ्त रखना समझ से परे है।

बूस्टर डोज़ की ज़रूरत क्यों

विशेषज्ञों का कहना है कि महामारी के टीके का असर 6 से 9 महीनों में कम हो जाता है; इसलिए सभी देश अपनी जनता को बूस्टर डोज़ लगवा रहे हैं। कई देशों ने यह काम पहले ही शुरू कर दिया था। यदि शरीर की महामारी से लड़ने की क्षमता को बरकरार रखना है तो बूस्टर की ज़रूरत होगी।

अब, चूंकि कोविड फिर से फैल रहा है, तो ज़रूरी हो जाता है कि बूस्टर डोज़ सभी को लगे। और यह काम महामारी का नया स्‍वरूप फैलने से पहले होना चाहिए। इसके अलावा, बूस्टर डोज़ केवल 75 दिन के लिए नहीं बल्कि सामान्य रूप से उपलब्ध होना चाहिए और इसका प्रचार होना चाहिए कि यह सभी को लगवाना है।

कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र बूस्टर डोज़ लगवाने गए, पर हमारे छोटे शहर में कहीं उपलब्ध नहीं था। इंदौर के एक अस्पताल में बमुश्किल मिला। यदि निजी तौर पर लोगों को बूस्टर डोज़ लगवाना पड़े, तो आप मान कर चलें कि 5 प्रतिशत से अधिक लोग इसे नहीं लगवा पाएंगे – यह खर्चीला भी है और दुर्लभ भी।

दुर्भाग्य यह है कि हम महामारी के टीके के सिद्धान्‍त को समझ नहीं रहे हैं। हम तभी सुरक्षित होंगे, जब सभी लोग सुरक्षित होंगे। महामारी के टीके द्वारा हमारा लक्ष्य है कि कम से कम 80 प्रतिशत लोगों का टीकाकरण हो जाए ताकि समाज में एक ‘कवच’ बन जाए और महामारी को फैलने का रास्ता ना मिले। इसे ‘हर्ड इम्युनिटी’ कहते हैं। अर्थात यह एक सार्वजनिक ज़रूरत है। इसे मात्र निजी सुरक्षा के उपाय के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। लोगों को निजी पहल पर निजी अस्पताल में जाकर टीका लगवाने को कहने से ऐसी धारणा बनती है कि टीका व्यक्ति की निजी सुरक्षा भर के लिए है। लोग इसे लेने की महत्ता को तभी समझेंगे जब टीका सभी के लिए मुफ्त व बिना शर्त उपलब्ध होगा। बूस्टर देने में और देरी नहीं करनी चाहिए। ‘निजी सुरक्षा’, ‘सीमित अवधि के लिए उपलब्‍ध’ जैसे संदेशों से गलत माहौल बना है। अब इसे सार्वजनिक मुहिम में बदलना चाहिए।

कुछ लोग सोचते हैं कि मुफ्त भी हो तों मैं क्यों लगवाऊं, महामारी हमारे इलाके में नहीं है। यहां सार्वजनिक संवाद की ज़रूरत है। हम तभी सुरक्षित हैं जब अधिक लोग इसे लगवाएंगे।

यह याद रखना चाहिए कि महामारी का फैलाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। नए-नए संस्करण निकलेंगे। ऐसे में, लगातार निगरानी और विज्ञान ही हमें महामारी से मुकाबला करने के रास्ते बता सकता है। दवा की अनुपस्थिति में मास्क, टीका और भीड़भाड़ से दूर रहना ही उपाय हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोयला उपयोग का अंत कैसे होगा?

लवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना अनिवार्य है। लेकिन कोयले से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है। इसका एक कारण वैश्विक रणनीतियों का राष्ट्रीय वास्तविकताओं के अनुकूल न होना है।

कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से प्राकृतिक गैस की तुलना में प्रति युनिट दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है। वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में बिजली उत्पादन में कोयला एक-तिहाई और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 26 प्रतिशत योगदान देता है। अधिकांश विश्लेषणों के अनुसार 2015 के पेरिस संधि के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 2030 तक कोयले का उपयोग 30-70 प्रतिशत तक कम करना होगा।

कोयले के उपयोग में कटौती को कई औद्योगिक देशों ने अपने राजनीतिक अजेंडा में शामिल किया है, जबकि अधिकांश कम और मध्यम आय वाले देश अभी भी इसे आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान ऊर्जा मांग में कमी के चलते 2019 से 2020 के बीच कोयले से बिजली उत्पादन में 4 प्रतिशत की कमी आई थी जो 2021 में 9 प्रतिशत बढ़ गई। कुछ अन्य घटनाओं ने भी बिजली उत्पादन में कोयले के उपयोग को बढ़ाया है। हालिया रूस-यूक्रेन युद्ध ने प्राकृतिक-गैस की आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है। जर्मनी सहित कई देशों ने कोयले के उपयोग को एक अंतरिम उपाय माना है। गैस की बढ़ती कीमतें एशिया में कोयले के उपयोग को बढ़ा सकती हैं।

फिलहाल दुनिया में 2429 कोयला आधारित बिजली संयंत्र (क्षमता>2000 गीगावाट) सक्रिय हैं। वर्ष 2017 से 2022 तक कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में 110 गीगावाट की वृद्धि हुई है। यदि मौजूदा और निर्माणाधीन संयंत्रों का संचालन आगामी 40 वर्षों तक जारी रहा तो तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री की सीमा में रखने के लिए उत्सर्जन को पटरी पर रखने के बजट का 60-70 प्रतिशत खर्च हो जाएगा। इस मुद्दे पर त्वरित कार्यवाही आवश्यक है। कोयले के उपयोग को तब तक कम नहीं किया जा सकता जब तक विश्व समुदाय अपने लक्ष्य राजनैतिक वास्तविकताओं के अनुरूप निर्धारित नहीं करता।

इस संदर्भ में शोधकर्ताओं ने 2018 से 2020 तक 15 प्रमुख देशों की केस स्टडी की जहां विश्व के 84 प्रतिशत कोयला संयंत्र और 83 प्रतिशत नए कोयला संयंत्र मौजूद हैं। प्रत्येक केस स्टडी के लिए शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं, विश्लेषकों, शिक्षाविदों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कई साक्षात्कार किए। इस आधार पर उन्होंने कोयला-आधारित संयंत्रों का संचालन करने या भविष्य में ऐसा करने वाली सभी अर्थव्यवस्थाओं का 4 श्रेणियों में वर्गीकरण किया:

1. फेज़-आउट देश जो चरणबद्ध तरीके से कोयले पर निर्भरता को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।

2. स्थापित कोयला उपयोगकर्ता

3. फेज़-इन देश जो वर्तमान में तो कोयले पर निर्भर नहीं है लेकिन काफी तेज़ी से नए कोयला संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं।

4. निर्यातोन्मुख देश

प्रत्येक श्रेणि की अपनी-अपनी राजनीतिक चुनौतियां हैं।

कोयले से निपटने के लिए कभी-कभी ऐसा माना जाता है कि उच्च कार्बन मूल्य या कोयले पर सब्सिडी हटाना प्रभावी हो सकता है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। मज़बूत कानूनी ढांचे और पूंजी की सुलभता वाली अर्थव्यवस्थाओं में तो इन परिस्थितियों में अक्षय ऊर्जा कोयले से टक्कर ले सकती है। लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में ऊर्जा की नई प्रणालियों को अपनाने के लिए वित्तीय और बौद्धिक पूंजी की कमी है। कई अन्य ऐसे मुद्दे भी हैं जो सब्सिडी में सुधार या उत्सर्जन शुल्क लागू करने के प्रयासों को कमज़ोर करते हैं।

जैसा कि पहले बताया गया है, चारों श्रेणियों की अपनी-अपनी चुनौतियां है और सभी में प्रभावी परिवर्तन के लिए कुछ विशिष्ट नीतिगत प्राथमिकताओं की ज़रूरत है। हर जगह एक-सी नीतियां काम नहीं करेंगी।

हालांकि चीन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वहां दुनिया की आधी मौजूदा अथवा प्रस्तावित कोयला क्षमता है लेकिन यदि कई अन्य फेज़-इन देश कोयले को अपनाते रहे तो जल्दी ही वे उत्सर्जन के मामले में चीन और भारत को पीछे छोड़ देंगे।

फेज़-आउट अर्थव्यवस्थाएं

कोयले को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चिली, जर्मनी, यू.के. और यू.एस.ए. शामिल हैं। फेज़-आउट श्रेणि में अधिकांश देश उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनके पास अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तथा ऊर्जा दक्षता बढ़ाने पर निवेश करने के लिए भरपूर वित्तीय, तकनीकी और संस्थागत क्षमताएं हैं। फिलहाल इन देशों में कोयला आधारित संयंत्रों की कुल क्षमता 360 गीगावाट है जो 2030 तक एक चौथाई हो जाना चाहिए।

लेकिन सवाल यह है कि ये देश इस स्तर पर कैसे पहुंच पाए हैं? यू.के. में युरोपियन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम में प्रचलित कार्बन मूल्य के अलावा बिजली और उद्योग क्षेत्रों में काफी प्रभावी ढंग से कार्बन लेवी को लागू किया गया। जर्मनी में एक उच्च स्तरीय आयोग ने कोयले के उपयोग को खत्म करने के लिए कोयला और बिजली कंपनियों को 42 अरब अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया ताकि वे 2038 तक चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को पूरी तरह खत्म कर सकें। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका में ड्रिल टेक्नॉलॉजी के चलते प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी के अलावा पवन और सौर उर्जा की लागत में भी तेज़ी से गिरावट हुई। इसका नतीजा यह रहा कि कोयला उद्योग को राजनीतिक समर्थन मिलने के बाद भी कोयले का उपयोग काफी तेज़ी से कम हुआ। वर्ष 2007 में सर्वाधिक उपयोग की तुलना में वर्तमान में कोयले का उपयोग लगभग आधा है। इसी तरह 2040 तक कोयला उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए चिली ने उच्च सौर क्षमता का फायदा उठाते हुए गैस और कोयले के अस्थिर आयात से स्वयं को सुरक्षित रखा।

यदि इन फेज़-आउट देशों में यह गिरावट जारी रही, तो भी 2030 तक 90 गीगावाट बिजली का उत्पादन कोयले से ही होगा। इससे होने वाला उत्सर्जन 7.5 करोड़ कारों के उत्सर्जन के बराबर होगा। इन परिवर्तनों में तेज़ी लाने से उत्सर्जन में कटौती होगी और नवाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए अनुसंधान और स्वच्छ उर्जा के प्रसार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की आवश्यकता होगी। इसके अलावा कोयले पर निर्भर देशों को आय के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराने होंगे। कोयले पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म करके उसे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों की ओर मोड़ना होगा।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को खत्म किया जा सकता है। जैसे, युरोपीय संघ में कार्बन-उत्सर्जन की बढ़ती कीमतों के चलते कोयले के उपयोग को खत्म करने की संभावना बुल्गारिया जैसे अन्य देशों में भी है जहां इसे लेकर कोई विशिष्ट योजना नहीं है। देशों की दृढ़ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं सरकारों की जवाबदेही को बढ़ा सकती हैं।

स्थापित उपयोगकर्ता

चीन, भारत और तुर्की जैसे स्थापित कोयला उपयोगकर्ता मध्यम आय वाले देश हैं जहां काफी विकास हुआ है और गरीबी में कमी आई है। इन देशों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि को पूरा करने के लिए कोयला आधारित संयंत्र लगाए गए जिनमें कम पूंजी की आवश्यकता होती है।

गौरतलब है कि इन देशों में सरकार ऊर्जा व बिजली बाज़ार पर नियंत्रण रखती हैं। ऐसे में यहां अक्षय उर्जा की घटती लागत का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। कोयले की पूरी शृंखला – खनन, परिवहन, बिजली उत्पादन और वित्त – पर अधिकांशत: राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों का वर्चस्व है। कुछ निहित स्वार्थ भी कोयले आधारित संयंत्रों को बढ़ावा देते हैं।

इनमें से कई देशों में कोयला अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। भारत में 1.5 करोड़ नौकरियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयले से जुड़ी हैं। इन देशों की नीतियों में कुछ ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जो निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार पर नज़र रखें, ऊर्जा क्षेत्र पर राज्य के नियंत्रण को कम करें और वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों के उपयोग को बढ़ावा दें। इन देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और श्रम बल को विकसित करने में निवेश करने की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण और आईटी सेवाओं को सहारा मिले।

इसके अलावा लौह, इस्पात और सीमेंट उत्पादन सहित ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण के समझौतों के चलते उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगिक देशों के बाज़ारों तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी जो हरित सामग्री खरीदने का दबाव बनाते हैं।     

फेज़-इन देश

पाकिस्तान और वियतनाम जैसे देश कोयला आधारित बिजली उत्पादन में काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है जबकि ऊर्जा की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। जैसे, वियतनाम में प्रति वर्ष ऊर्जा मांग में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है और भविष्य में 56 नए संयंत्र स्थापित करने की योजना है।

बिजली के किफायती दाम, सुरक्षा और विश्वसनीयता राजनीतिक अजेंडा में हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं। राज्य द्वारा नियंत्रित ऊर्जा की कीमतें बिजली कंपनियों को कर्ज़ में डुबा सकती हैं जिससे उनके पास कोयले के विकल्प आज़माने का मौका ही नहीं रहेगा। हालांकि फेज़-इन देशों में आम तौर पर कोयले से जुड़े निहित स्वार्थों की कमी होती है लेकिन फिर भी उन्हें अनुचित लाभ मिल सकता है।

वैसे, फेज़-इन राष्ट्रों के लिए अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए उच्च पूंजीगत लागत और निवेश करना काफी जोखिम भरा हो सकता है। अपर्याप्त विकसित बिजली ग्रिड में घटती-बढ़ती नवीकरणीय उर्जा को समायोजित करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ सकता है। इसलिए ऊर्जा प्रबंधक अक्षय ऊर्जा को लेकर शंकित रहते हैं। जैसे वियतनाम के पास अनिरंतर सौर व पवन आधारित ऊर्जा प्रणालियों के प्रबंधन क्षमता नहीं है। फिर भी वियतनाम 2019 में दक्षिण पूर्वी एशिया में सौर उर्जा का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस तरह के उदाहरणों से अन्य देश भी प्रेरित होते हैं। अलबत्ता, वियतनाम में वेन थी कान जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी इन कदमों के प्रतिरोध की ताकत दर्शाती हैं।

अंतर्राष्ट्रीय वित्त और आज़माइशी प्रोजेक्ट इन बाधाओं को कम कर सकते हैं। पिछले वर्ष नवंबर में एशियन डेवलपमेंट बैंक ने एशिया में कोयला संयंत्रों और खानों को खरीदने की योजना तैयार की थी। इस योजना को फिलिपींस में पायलट परियोजना की तरह शुरू किया गया था ताकि इन संयंत्रों और खानों को उनके अनुमानित अंत से पहले बंद किया जा सके। इस प्रकार की खरीदारी से ग्रिड क्षमता और भंडारण सहित अन्य विकल्पों में निवेश के लिए पूंजी हासिल होती है। यह ऊर्जा स्थानांतरण के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

कोयला निर्यातक

ऑस्ट्रेलिया, कोलंबिया, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका सहित निर्यातकों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं काफी विविध हैं। इनमें से ऑस्ट्रेलिया की प्रति व्यक्ति आय काफी अधिक है जबकि इंडोनेशिया की काफी कम है। दक्षिण अफ्रीका अपने द्वारा खनन किए गए कोयले के एक बड़े हिस्से की स्वयं खपत करता है जबकि कोलंबिया अधिकांश उत्पादित कोयले का निर्यात करता है।

इन सब देशों में एक समानता यह है कि ये सभी बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन करते हैं। इन देशों को कोयले से मिलने वाला राजस्व कुल जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा है। उदाहरण के लिए कोयला निर्यात इंडोनेशिया के सार्वजनिक बजट का लगभग 5 प्रतिशत है। ऐसा देखा गया है कि कोयला रॉयल्टी पर अत्यधिक निर्भरता के चलते कोयला खनन के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में काफी समय लगता है।           

कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए यहां कुछ विशिष्ट तरीके अपनाना होगा। कोयला आधारित रोज़गार से जुड़े लोगों को किसी अन्य आर्थिक गतिविधि में लगाना होगा। इस विषय में ऑस्ट्रेलिया में सौर ऊर्जा चालित हाइड्रोजन निर्यात अर्थव्यवस्था काफी भरोसेमंद लगती है। इंडोनेशिया जैसे अन्य देशों में विकल्पों की संभावना कम है लेकिन इसमें कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की फिटिंग जैसे श्रम-बहुल उद्योगों को शामिल किया जा सकता है।

इनमें से कई देशों के लिए कोयले पर आर्थिक निर्भरता का मतलब है कि यहां कार्बन के मूल्य निर्धारण और इसी तरह के उपायों की क्षमता सीमित है। उदाहरण के लिए इंडोनेशिया ने हाल ही में बहुत कम कार्बन मूल्य का निर्धारण किया लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण कोयले को इससे छूट दी गई। जुलाई में शुरू होने वाली उत्सर्जन-ट्रेडिंग योजना में कोयले को भी शामिल करना प्रस्तावित है लेकिन इस योजना में काफी खामियां हैं। पूर्व में जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी में सुधार के प्रयासों ने कभी-कभी हिंसक विरोध का रूप भी लिया है।

इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय प्रयास आवश्यक हैं। पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यू.के, यू.एस.ए, युरोपीय संघ, फ्रांस और जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका में डीकार्बनीकरण और स्वच्छ-उर्जा के लिए 8.5 अरब डॉलर उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। देखना यह है कि क्या यह पेशकश साकार रूप लेती है।

आगे का रास्ता

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हर श्रेणि के लिए महत्वपूर्ण है। कई देशों के लिए इसे अकेले कर पाना संभव नहीं है। जो अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का प्रयास कर रही हैं वे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से अपने संकल्पों को और मज़बूत कर सकती हैं और अन्य देशों को प्रौद्योगिकी, वित्त और क्षमता निर्माण के रूप में सहायता कर सकती हैं। फेज़-इन देशों को नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड क्षमता और भंडारण सुविधाओं के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। स्थापित कोयला उपयोगकर्ता स्टील और कांक्रीट जैसे ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण वाले समझौतों से सबसे बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादों के लिए बाज़ार तैयार कर सकते हैं। निर्यात पर निर्भर देशों को गैर-खनन गतिविधियों में स्थानांतरण के लिए सहायता प्रदान की जानी चाहिए।    

देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए सभी आवश्यक तत्व पहले से उपस्थित हैं। जी-7 और जी-20 जैसे महत्वपूर्ण कार्बन उत्सर्जक देश युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के साथ वार्ता में तेज़ी लाने में सहयोग कर सकते हैं। पूर्व में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो 100 अरब डॉलर के संकल्प लिए गए थे, उन्हें फेज़-आउट रणनीतियों पर लक्षित किया जाना चाहिए। वास्तव में कोयला छोड़कर स्वच्छ विकल्पों की ओर जाना संभव है लेकिन इसके लिए वैश्विक समुदाय को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नीतियों को परिभाषित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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