भस्म हो रहे उपग्रह प्रदूषण पैदा कर रहे हैं

हाल ही में स्पेसएक्स कंपनी (SpaceX Company) का फाल्कन रॉकेट (Falcon Rocket) अंतरिक्ष में पर्याप्त ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका था। तब 11 जुलाई के दिन इसके द्वारा छोड़े गए 20 स्टारलिंक उपग्रह (Starlink Satellites) यहां-वहां बिखर गए और दो दिन बाद ही वे पृथ्वी के वायुमंडल (Earth’s Atmosphere) में गिरकर भस्म हो गए।

यह तो चलो, दुर्घटना का मामला हो गया लेकिन इस तरह से उपग्रहों को उनकी कक्षा से बाहर करना उनसे निजात पाने का एक नियमित तरीका है ताकि वे अंतरिक्ष में भटकते हुए वहां मलबे (Space Debris) में इज़ाफा न करें। अब आज की स्थिति पर नज़र डालते हैं – कई अंतरिक्ष कंपनियां (Space Companies) हज़ारों उपग्रह कक्षा में स्थापित करने की योजना बना रही हैं। चिंता का विषय यह है कि जब ये उपग्रह बड़ी संख्या में अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे तो क्या होगा।

हाल के अनुसंधान से पता चला है कि ऐसे उपग्रहों से निकले धात्विक कण और गैसें हमारे वायुमंडल के समताप मंडल (Stratosphere) में वर्षों तक बने रह सकते हैं और शायद ओज़ोन (Ozone) के क्षय का कारण बन सकते हैं।

अभी तक उपग्रहों को ठिकाने लगाना कोई चिंता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसे उपग्रहों की तादाद बहुत कम थी। प्रति वर्ष करीबन सौ उपग्रहों को उनकी कक्षा से बेदखल किया जाता था। समतापमंडल (Stratosphere) काफी विशाल है – यह धरती से 10 किलोमीटर से लेकर 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैला है। लेकिन जब स्पेसएक्स कंपनी ने स्टारलिंक उपग्रहों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करके उन्हें अंतरिक्ष में भेजना शुरू किया, तो चिंता की स्थिति बनी। आज 6 हज़ार से भी ज़्यादा स्टारलिंक उपग्रह कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं। कुल कामकाजी उपग्रहों (Operational Satellites) की संख्या तो लगभग 10,000 है। और तो और, स्पेसएक्स ने 30,000 और उपग्रह प्रक्षेपण (Satellite Launch) की अनुमति मांगी है। अन्य भी कहां पीछे रहने वाले हैं। अमेज़ॉन (Amazon) 3200 उपग्रहों के पुंज पर काम कर रहा है जबकि चीन इस अगस्त में 12,000 उपग्रह प्रक्षेपित करेगा। एक अनुमान के मुताबिक जल्दी ही उपग्रह-संचालकों (Satellite Operators) को प्रति वर्ष 10,000 उपग्रहों को ठिकाने लगाना होगा।

एक तुलनात्मक अध्ययन में लिओनार्ड शूल्ज़ और उनके साथियों ने बताया है कि फिलहाल ऐसे उपग्रहों को नष्ट करने पर जो पदार्थ पैदा होता है वह पृथ्वी पर होने वाली कुदरती उल्कापात (Meteor Showers) का मात्र 3 प्रतिशत होता है। लेकिन भविष्य में जब 75,000 उपग्रह कक्षाओं में होंगे तो यह पदार्थ उल्कापात की तुलना में 40 प्रतिशत तक हो जाएगा। एक तथ्य यह भी है कि उल्काओं की अपेक्षा उपग्रह बड़े होते हैं और धीमी गति से जलते हैं। तो उनके द्वारा जनित कणीय पदार्थ कहीं ज़्यादा होगा।

उपग्रह जब वायुमंडल में वापसी करते हैं, तो जो असर समताप मंडल पर होता है, उसकी एक झलक यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) की रसायन प्रयोगशाला के डैनियल मर्फी तथा उनके साथियों ने पेश की है। नासा (NASA) के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया है कि समताप मंडल में गंधकाअम्ल (Sulfuric Acid) की महीन बूंदें तैर रही हैं जिनमें 20 अलग-अलग तत्व मौजूद हैं जो शायद उपग्रहों और रॉकेटों से आए हैं।

चिंता का मसला एल्यूमिनियम (Aluminum) है जो उपग्रहों में प्रयुक्त सबसे आम धातु होती है। यदि यह एल्यूमिनियम ऑक्साइड (Aluminum Oxide) या हायड्रॉक्साइड के रूप में तबदील हो जाए, तो यह हाइड्रोजन क्लोराइड (Hydrogen Chloride) से क्रिया करके एल्यूमिनियम क्लोराइड (Aluminum Chloride) बनाएगा। सूर्य के प्रकाश (Sunlight) के कारण एल्यूमिनियम क्लोराइड आसानी से टूटकर क्लोरीन (Chlorine) उत्पन्न कर सकता है जो ओज़ोन के लिए घातक होगी। इसके अलावा, धात्विक एयरोसॉल (Metallic Aerosols) समतापमंडल के बादलों पर आवेश पैदा कर सकते हैं जो क्लोरीन को मुक्त करके ओज़ोन को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

फिलहाल कई अन्य अनजाने असर भी सामने आ रहे हैं। जैसे उपग्रह के पुन:प्रवेश (Re-entry) पर एल्यूमिनियम के जलने की अनुकृति प्रयोगों का निष्कर्ष है कि 250 ग्राम के किसी उपग्रह के चलने पर 30 किलोग्राम एल्यूमिनियम ऑक्साइड नैनो कण (Nano Particles) पैदा होंगे। वर्ष 2022 में 2000 उपग्रहों को कक्षा से अलग किया गया था जिनमें एल्यूमिनियम ऑक्साइड का वज़न 17 टन था। इसी आधार पर देखें तो जब अंतरिक्ष में उपग्रहों के महा-नक्षत्र होंगे तो इसकी मात्रा प्रति वर्ष 360 टन आंकी जा सकती है।

उपग्रहों की बढ़ती संख्या की वजह से कई पर्यावरणीय असर (Environmental Impact) हो सकते हैं। इसके मद्देनज़र विचार करने की ज़रूरत है। जैसे इस बात पर विचार हो सकता है कि उपग्रह किन पदार्थों से बनाए जाएं या यह भी सोचा जा सकता है कि क्या कक्षा में सर्विसिंग (Satellite Servicing) या मरम्मत करके या ईंधन की व्यवस्था करके उपग्रहों का जीवनकाल बढ़ाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नासा उवाच – मंगल पर जीवन के चिंह मिले हैं

नासा (NASA) ने घोषणा की है कि उसके परसेवरेंस रोवर (Perseverance Rover) द्वारा मंगल ग्रह (Mars) पर खोजी गई एक चट्टान पर ऐसे चिंह मिले हैं जो इस बात के प्रमाण हो सकते हैं कि मंगल पर अतीत में कभी सूक्ष्मजीवी जीवन (Microbial Life) रहा होगा। नासा के मुताबिक यह चट्टान इस बात का स्पष्ट प्रमाण देती है कि कभी यहां पानी (Water), कार्बनिक पदार्थ (Organic Matter) थे और ऐसी अभिक्रियाएं हुई थीं जो ऊर्जा का स्रोत हो सकती हैं।

लेकिन…जी हां लेकिन। इस निष्कर्ष को लेकर कई अगर-मगर हैं और सभी वैज्ञानिक इससे सहमत नहीं हैं। कइयों का तो कहना है कि मंगल की खोजबीन (Mars Exploration) के इतिहास में ऐसे कई ‘रोमांचक’ क्षण आए और गए हैं। ऐसी सबसे मशहूर चट्टान एलन हिल्स 84001 (Allan Hills 84001) रही है। यह दरअसल अंटार्कटिका में खोजी गई एक उल्का (Meteorite) थी। 1996 में साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि इसमें बैक्टीरिया के नैनो-जीवाश्म (Nano-Fossils) मौजूद थे। अलबत्ता, आज अधिकांश शोधकर्ता मानते हैं कि इस पर मिली ‘जीवाश्मनुमा’ रचनाएं जीवन के बगैर भी बन सकती हैं। इसी प्रकार का शोरगुल तब भी मचा था जब मार्स रोवर (Mars Rover) ने गेल क्रेटर (Gale Crater) में तमाम किस्म के कार्बनिक अणु (Organic Molecules) खोज निकाले थे। मार्स रोवर पर एक रासायनिक प्रयोगशाला भी थी।

लेकिन परसेवरेंस पर ऐसी कोई प्रयोगशाला नहीं है। वह जो भी चट्टानी नमूने (Rock Samples) खोदता है उन्हें एक कैप्सूल में भरकर जमा करता रहता है, जिन्हें बाद में मार्स सैम्पल रिटर्न मिशन (Mars Sample Return Mission) द्वारा पृथ्वी पर भेजा जाएगा। फिलहाल वह मिशन टल गया है। तो बगैर प्रयोगशाला के, महज़ चेयावा फॉल्स (Jezero Crater) से खोदी गई चट्टान के अवलोकनों के आधार पर सारा हो-हल्ला है। माना जा रहा है कि इस स्थान पर कभी कोई नदी (River) बहती थी। उसके साथ आई गाद ही अश्मीभूत हो गई है। इस चट्टान में कैल्शियम सल्फेट (Calcium Sulfate) से बनी शिराओं के बीच-बीच में चकत्ते हैं जैसे तेंदुओं की खाल पर होते हैं। नासा से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि ये चकत्ते ऐसी रासायानिक अभिक्रियाओं के संकेत हैं जो धरती पर सूक्ष्मजीवों को ऊर्जा मुहैया कराती हैं।

रोवर पर लगे स्कैनर से चट्टान में कार्बनिक यौगिकों (Organic Compounds) की उपस्थिति का भी पता चला है। यह तो सही है कि ऐसे कार्बन यौगिक (Carbon Compounds) जीवन की अनिवार्य निर्माण इकाइयां होते हैं लेकिन ये गैर-जैविक प्रक्रियाओं से भी बन सकते हैं। सबसे रहस्यमयी तो तेंदुआ चकत्ते हैं – इन मिलीमीटर साइज़ के चकत्तों में फॉस्फोरस (Phosphorus) व लौह (Iron) पाए गए हैं। पृथ्वी पर ऐसे चकत्ते तब बनते हैं जब कार्बनिक पदार्थ जंग लगे लोहे से क्रिया करते हैं। यह क्रिया सूक्ष्मजीवों को ऊर्जा प्रदान कर सकती है। लेकिन इस तथ्य की अन्य व्याख्याएं भी हैं। जैसे चट्टान में पाए गए खनिज यह भी दर्शाते हैं कि यह ज्वालामुखी के लावा (Volcanic Lava) से बनी हैं और लावा का उच्च तापमान किसी जीवन को पनपने नहीं देगा।

बहरहाल, परसेवरेंस अब तक 22 चट्टानें इकट्ठी कर चुका है। इनमें से कई में ऐसे पदार्थ मिले हैं जो पृथ्वी पर सूक्ष्मजीवों को सहारा दे सकते हैं। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ये नमूने पृथ्वी पर पहुंच पाएंगे क्योंकि यह काम बहुत महंगा (Expensive) है। कुछ लोगों का तो कहना है कि यह सारा हो-हल्ला फंडिंग (Funding) जारी रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंकड़ों की गोपनीयता और सटीकता का संतुलन

सोमेश केलकर

यूएस में जनगणना हर 10 वर्ष में होती है। इसमें नागरिकों को यह आश्वासन दिया जाता है कि उनसे सम्बंधित आंकड़े गोपनीय (confidential) रहेंगे। लेकिन यह आश्वासन रस्सी पर चलने जैसा होता है – जितनी सशक्त प्रायवेसी (privacy) होगी, आंकड़ों की सटीकता (accuracy) उतनी ही कम होती जाएगी।

इनके बीच संतुलन बनाना विवाद का विषय बन गया है। आंकड़ों को अनाम बनाए रखने के लिए जिस तकनीक का उपयोग प्रस्तावित है, वह है डिफरेंशियल प्रायवेसी (differential privacy)  और इसी के समर्थकों और विरोधियों के बीच विवाद चल रहा है। विरोधियों का मत है कि डिफरेंशियल प्रायवेसी जैसी तकनीक से महत्वपूर्ण आंकड़ों की विश्वसनीयता (reliability) प्रभावित हो सकती है। तो पहले यह देखते हैं कि डिफरेंशियल प्रायवेसी क्या है और कैसे काम करती है। इसे समझने के लिए हम टेक कंपनियों (tech companies) का उदाहरण लेंगे। ये कंपनियां अपने मकसद से उपयोगकर्ताओं की जानकारी एकत्रित करने के लिए मशहूर हैं।

आजकल ये कंपनियां अपने उत्पादों और सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए हमसे मिली जानकारी का अधिकाधिक उपयोग कर रही हैं। कंपनी के दृष्टिकोण से देखें तो यह काफी मददगार होता है। लेकिन उपभोक्ता की नज़र से देखें तो यह खतरनाक हो सकता है। उपभोक्ता का वैसे भी इस बात पर कोई नियंत्रण नहीं होता कि किस तरह की जानकारी जुटाई जा रही है। समस्या तब आएगी जब इन कंपनियों पर कोई सायबर हमला (cyber attack) सफल हो जाए और सारी संग्रहित सूचनाएं लीक हो जाएं। हाल ही में सोनी कंपनी के साथ ऐसा हो चुका है।

अर्थात उपभोक्ताओं और कंपनियों के बीच हितों का टकराव है। हितों के इसी टकराव के चलते डिफरेंशियल प्रायवेसी तकनीक का विकास हुआ है। डिफरेंशियल प्रायवेसी के चलते यह संभव हुआ है कि कंपनियां सूचनाएं एकत्रित करती रहें और उपभोक्ता की प्रायवेसी का उल्लंघन भी न हो। आप सोच रहे होंगे कि इतना सब तामझाम करने की बजाय हम सारे आंकड़ों को अनाम (anonymize) बनाकर काम क्यों नहीं चला सकते।

आंकड़ों के अनामीकरण का उपयोग उद्योगों में किया जाता रहा है, और यह सोचना सही है कि हम उपयोगकर्ताओं के आंकड़ों को पूरी तरह अनामीकृत कर सकते हैं। इसके लिए करना यह होगा कि हर आंकड़े में से व्यक्ति की पहचान करने वाले चिन्हों (आइडेंटिफायर्स) को हटा दिया जाए। आइडेंटिफायर सूचना के वे अंश होते हैं जिनकी मदद से यह पहचाना जा सकता है कि वह सूचना किस व्यक्ति-विशेष की है। अलबत्ता, आंकड़ा अनामीकरण की अपनी समस्याएं हैं।

एक बड़ी समस्या यह है कि अनामीकरण की प्रक्रिया कंपनी के सर्वर (servers) पर की जाती है और यह कहना मुश्किल है कि इन सर्वर्स पर कितना भरोसा करें। और फिर यह मुद्दा भी है कि अनामीकरण में कम-ज़्यादा का क्या अर्थ होता है।

वर्ष 2006 में नेटफ्लिक्स (Netflix) ने नेटफ्लिक्स प्राइज़ नामक एक पुरस्कार की शुरुआत की थी। इस पुरस्कार के लिए विभिन्न टीम्स को एक एल्गोरिद्म (algorithm) का निर्माण करना था जो यह भविष्यवाणी कर सके कि कोई व्यक्ति किसी फिल्म की क्या रेंटिंग करेगा। इसमें मदद के लिए नेटफ्लिक्स ने एक डैटासेट उपलब्ध कराया था जिसमें 1700 फिल्मों के 10 करोड़ रेंटिंग्स दिए गए थे। ये रेटिंग्स 4,80,000 उपयोगकर्ताओं से प्राप्त हुए थे।

नेटफ्लिक्स ने आंकड़ा अनामीकरण की उपरोक्त प्रक्रिया की मदद ली थी। इसके तहत हर आंकड़े में से उपयोगकर्ता का नाम हटा दिया गया था और कुछ रेंटिंग की जगह झूठे रेंटिंग्स डाल दिए गए थे। लगता तो है कि आंकड़े काफी अनामीकृत हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। टेक्सास विश्वविद्यालय के दो कंप्यूटर वैज्ञानिकों – अरविंद नारायणन और विताली श्मतिकोव ने एक शोध पत्र में दावा किया था कि उन्होंने उपरोक्त ‘अनामीकृत’ आंकड़ों को इंटरनेट मूवी डैटाबेस (IMDb) के साधारण आंकड़ों के साथ जोड़कर देखा तो वे एक-एक व्यक्ति को पहचान पाए थे। IMDb डैटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।

इस तरह के हमले को लिंकेज अटैक (linkage attack) कहते हैं और यहां तथाकथित अनामीकृत आंकड़ों को गैर-अनामीकृत आंकड़ों के साथ जोड़कर व्यक्ति की पहचान उजागर की जा सकती है।

ऐसा ही एक अन्य उदाहरण है जो ज़्यादा परेशान करने वाला है। यह उदाहरण है गवर्नर विलियम वेल्ड का। 1990 के दशक में अमेरिका सरकार के समूह बीमा आयोग ने तय किया कि वह सरकारी कर्मचारियों के अस्पताल जाने से सम्बंधित आंकड़े सार्वजनिक कर देगा। आयोग ने आंकड़ों को अनामीकृत करने के लिए उनमें से व्यक्ति के नाम, पते तथा अन्य पहचान चिन्ह हटा दिए थे।

एक कंप्यूटर वैज्ञानिक नातन्या स्वीनी (Natanya Sweeney) ने यह दर्शाने का निर्णय लिया कि अनामीकरण की इस प्रक्रिया को उलटना कितना आसान है। उन्होंने उपरोक्त प्रकाशित स्वास्थ्य रिकॉर्ड को वोटर रजिस्ट्रेशन रिकॉर्ड (voter registration records)  के साथ जोड़कर देखा। उन्होंने पाया कि इस डैटा में मात्र एक व्यक्ति ऐसा था जिसके निवास का ज़िप कोड, जिसका जेंडर और जिसकी जन्म तिथि गवर्नर से मेल खाते थे। इस तरह गवर्नर वेल्ड का स्वास्थ्य रिकॉर्ड सार्वजनिक रूप से उजागर हो गया था।

अपने अगले शोध पत्र में स्वीनी ने दावा किया कि 87 प्रतिशत अमरीकियों को मात्र तीन जानकारियों के आधार पर पहचाना जा सकता है: ज़िप कोड, जन्म तिथि और जेंडर।

स्पष्ट है कि आंकड़ा अनामीकरण उतना अनामीकारक नहीं है, जितना हम सोचते हैं। और यहीं डिफरेंशियल प्रायवेसी का प्रवेश होता है। डिफरेंशियल प्रायवेसी का एक फायदा यह बताया जाता है कि इसकी मदद से उपरोक्त किस्म के सायबर हमलों को नाकाम किया जा सकता है। इसे समझने के लिए हम एक अजीबोगरीब उदाहरण का सहारा लेंगे। जैसे, यह पता करना है कि कितने लोग नाक में उंगली डालते रहते हैं।

हम एक सर्वेक्षण करते हैं जिसमें मात्र एक सवाल पूछा गया है:

“क्या आप अपनी नाक में उंगली डालते हैं?

क –       हां

ख –       नहीं।”

इस सवाल के जो भी उत्तर मिलेंगे, उन्हें हम एक सर्वर पर संग्रहित कर लेंगे। लेकिन इसमें हम वास्तविक उत्तर को रिकॉर्ड करने की बजाय उसमें कुछ शोरगुल (नॉइज़) जोड़ देंगे।

मान लीजिए, सर्वेक्षण के एक उत्तरदाता अनीष का जवाब है ‘हां’। यहां डिफरेंशियल प्रायवेसी का एल्गोरिद्म यह है कि एक सिक्का उछाला जाएगा। यदि सिक्का चित गिरता है तो यह एल्गोरिद्म अनीष का वास्तविक जवाब सर्वर को भेज देगा। लेकिन यदि पट आता है तो सिक्का फिर से उछाला जाएगा। इस बार यदि चित आता है तो उत्तर के रूप में ‘नहीं’ भेजा जाएगा और पट आने पर वास्तविक उत्तर सर्वर में जाएगा।

ध्यान रखें कि डिफरेंशियल प्रायवेसी का एल्गोरिद्म चित-पट पर आधारित नहीं बल्कि कहीं अधिक जटिल हो सकता है। कुल मिलाकर एल्गोरिद्म आंकड़ों में नॉइज़ जोड़ने का काम करता है।

सर्वर पर जो आंकड़े आते हैं उनमें यह नॉइज़ शामिल होता है और इसलिए हम एक-एक व्यक्ति की सूचना प्राप्त नहीं कर सकते। हो सकता है कि अनीष का जवाब ‘हां’ रहा हो लेकिन रिकॉर्ड में वह ‘नहीं’ लिखा जाएगा। दरअसल लगभग 25 प्रतिशत संभावना है कि हमारा व्यक्तिगत आंकड़ा गलत होगा। यानी आप किसी व्यक्ति के जवाब को लेकर यकीनी तौर पर कुछ नहीं कह सकते और इस वजह से आप व्यक्तियों को लेकर फैसले नहीं सुना सकते। यह बात खास तौर पर अवैध या प्रतिबंधित गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण है।

चूंकि आपको पता होता है कि नॉइज़ किस तरह से शामिल किया गया है और कैसे आंकड़ों में वितरित है, तो आप इसकी भरपाई करके काफी सटीकता से यह पता लगा सकते हैं कि किसी आबादी में कितने लोग नाक में उंगली डालते हैं, हालांकि एक-एक व्यक्ति के बारे में कुछ नहीं कह पाएंगे।

हमने अपने उदाहरण को सरल रखने के लिए सिक्का उछालने वाला एल्गोरिद्म लिया था, लेकिन वास्तव में डिफरेंशियल प्रायवेसी के एल्गोरिद्म में लाप्लेस वितरण का उपयोग किया जाता है। इस एल्गोरिद्म की मदद से आंकड़ों को एक बड़े परास में फैला दिया जाता है जिससे अनामीकरण में वृद्धि होती है।

डिफरेंशियल प्रायवेसी के इस संक्षिप्त परिचय के आधार पर हम समझ सकते हैं कि इस तकनीक की खूबी यह है कि यह व्यक्तिगत सूचना की प्रायवेसी सुनिश्चित करती है जबकि उस डैटासेट के समग्र परिणामों पर कोई असर नहीं डालती। अर्थात चाहे डिफरेंशियल प्रायवेसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाए या न किया जाए, अंतिम परिणाम समान रहेगा।

लेकिन इसके साथ दिक्कत यह है कि इसका क्रियांवयन बहुत पेचीदा होता है और इसे आंकड़ों के विशाल भंडार पर ही लागू किया सकता है। तभी आंकड़ों की सटीकता से समझौता किए बगैर इसका उपयोग किया जा सकता है।

इसकी एक और कमज़ोरी यह है कि कतिपय संवेदनशील मामलों में आंकड़ों की सटीकता तो महत्वपूर्ण होती ही है, साथ में उन आंकड़ों से जुड़े नैतिक मूल्य भी महत्वपूर्ण होते हैं। जैसे, मतदाता आंकड़ों में नॉइज़ जोड़ना स्वीकार्य नहीं हो सकता, हालांकि अंतिम परिणाम शायद एक से हों। ऐसे मामलों में डिफरेंशियल प्रायवेसी शायद सर्वोत्तम विधि न हो। अब देखते हैं कि यूएस जनगणना के संदर्भ मे गोपनीयता बनाम सटीकता की बहस क्या है।

यूएस जनगणना

हर दशक में की जाने वाली जनगणना के दौरान नागरिकों को आश्वस्त किया जाता है कि उनके द्वारा दिए गए जवाब गोपनीय रहेंगे अर्थात कोई नहीं जान पाएगा किसी व्यक्ति-विशेष ने क्या जवाब दिए थे। लेकिन यूएस सेंसस ब्यूरो के इस आश्वासन में एक अगर-मगर जुड़ा है। बहुत सशक्त गोपनीयता आंकड़ों की सटीकता को कम कर सकती है। यह मुद्दा खास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि सरकार ने 2020 की जनगणना में गोपनीयता-सुरक्षा की नई विधि शामिल की। इसकी वजह से जनांकिकीविदों के बीच यह चिंता फैली कि इसकी वजह से डैटा में घटियापन बढ़ेगा। जनगणना से प्राप्त डैटा अकादमिक अनुसंधान, संसदीय क्षेत्रों के निर्धारण और संघीय बजट के आवंटन की दृष्टि से महत्व रखता है। पुरानी विधि बनाम नई विधि के बीच बहस चलती रही, जब तक कि साइन्स एडवांसेस नामक शोध पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित न हो गया। इस अध्ययन ने उपरोक्त चिंताओं के संदर्भ में स्वतंत्र आंकड़े प्रस्तुत किए। विशेषज्ञों का मत है कि इस पर्चे के निष्कर्ष 2030 की यूएस जनगणना में संशोधन करके मताधिकार सम्बंधी कानूनी मुद्दों को प्रभावित करेंगे।

जनगणना के आंकड़े शोधकर्ताओं और सरकार दोनों को देश में हो रहे जनांनिक परिवर्तनों को समझने में मदद करते हैं। ये आंकड़े सरकार को स्वास्थ्य, पोषण, आवास तथा इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी चीज़ों को लेकर नियोजन में भी मदद करते हैं। यूएस जनगणना का प्रमुख संवैधानिक कारण यह है कि इसके आधार पर यूएस संसद में प्रांतवार सीटों का आवंटन किया जाता है। इसके लिए ज़रूरी होता है कि आपके पास सबसे छोटी मतदान इकाई तक के आंकड़े उपलब्ध हों ताकि वोटिंग राइट्स एक्ट, 1965 का समुचित क्रियांवयन हो सके।

जनांकिकीविद काफी समय से आंकड़ों की सटीकता और गोपनीयता के बीच संतुलन के महत्व को जानते आए हैं। उन्होंने 1990, 2000 और 2010 में इस्तेमाल की गई विधि के कारण उत्पन्न विकृतियों से तालमेल बनाना सीख लिया था। इन तीनों जनगणनाओं में जिस विधि का सहारा लिया गया था उसे अदला-बदली (swapping) कहते हैं।

साइन्स में एक लेख प्रकाशित हुआ है: “यूएस में गोपनीयता के नाम पर जनगणना के आंकड़ों को पर्दे में रखने का एक नया तरीका आया है। यह सटीकता को कैसे प्रभावित करेगा?” इसमें अलग-अलग जनगणना ब्लॉक्स के बाशिंदों के उम्र, नस्ल, जनजातीयता और पारिवारिक गुणधर्मों सम्बंधी जवाबों की परस्पर अदला-बदली की जाएगी ताकि उनकी गोपनीयता बनी रहे। ऐसे ब्लॉक्स की संख्या लगभग 1.1 करोड़ है और प्रत्येक की औसत आबादी 23 व्यक्ति है। इसके बाद इनके आंकड़ों को ज़्यादा बड़े क्षेत्र के डैटा के रूप में समेकित कर दिया जाएगा। शोधकर्ताओं का मत है कि ऐसी अदला-बदली उन व्यक्तियों को निशाना बनाती है, जिनके जनांकिक लक्षण निराले हैं और इनकी पहचान ज़्यादा आसानी से की जा सकती है। वैसे सेंसस ब्यूरो ने यह नहीं बताया है कि उसने इस विधि का उपयोग कितनी अधिक बार किया है।

2020 की जनगणना के संदर्भ में अधिकारियों ने माना कि अदला-बदली गोपनीयता सुनिश्चित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं है। अधिकारियों को लगता था कि कोई ज़िद्दी हैकर सेंसस के आंकड़ों को अन्य सार्वजनिक सूचनाओं के साथ जोड़कर व्यक्तियों की पहचान कर सकता है। जिसे हम पहले ही लिंकेज अटैक के रूप में परिभाषित कर चुके हैं।

लिहाज़ा, सेंसस ब्यूरो ने पूर्ण गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए अदला-बदली के स्थान पर डिफरेंशियल प्रायवेसी को अपनाया है। इस तरीके में आंकड़ों में सांख्यिकीय नॉइज़ जोड़ दिया जाता है; अधिक संवेदनशील आंकड़ों में अधिक नॉइज़ डाला जाता है।

डिफरेंशियल प्रायवेसी का आंकड़ों की गुणवत्ता पर क्या असर होगा? इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं के एक समूह ने सेंसस ब्यूरो से निवेदन किया कि वह 2020 की जनगणना की नॉइज़युक्त मापन फाइल जारी कर दे। इस फाइल में मूल आंकड़ों पर डिफरेंशियल प्रायवेसी एल्गोरिद्म लागू करने के बाद के आंकड़े होते हैं।

काफी जद्दोजहद के बाद ब्यूरो ने 2010 की वह फाइल उपलब्ध करवाई जिसमें अदला-बदली का इस्तेमाल किया गया था और साथ ही वह फाइल दी जिसमें प्रायोगिक तौर पर 2010 के आंकड़ों पर डिफरेंशियल प्रायवेसी लागू की गई थी।

इन फाइलों का विश्लेषण करके हारवर्ड, न्यूयॉर्क और येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ता यह तुलना कर पाए कि इन दो तरीकों का आंकड़ों की सटीकता पर क्या असर होता है। अध्ययन का नतीजा था कि डिफरेंशियल प्रायवेसी और अदला-बदली दोनों ही बड़ी आबादी (जैसे समूचे प्रांत) के संदर्भ में आंकड़ों की सटीकता बनाए रखने में बराबर कारगर हैं। लेकिन सेंसस ब्लॉक जैसी छोटी भौगोलिक इकाइयों के मामले में डिफरेंशियल प्रायवेसी ज़्यादा त्रुटियों को जन्म देती है। ये त्रुटियां खास तौर से हिस्पेनिक तथा बहु-नस्लीय आबादियों के लिए ज़्यादा होती हैं। कई बार तो त्रुटि का परिमाण किसी समूह की कुल आबादी से भी अधिक होता है। जैसे, तीन हिस्पेनिक बाशिंदों वाले ब्लॉक में डिफरेंशियल प्रायवेसी द्वारा शामिल किए गए शोर की वजह से हो सकता है कि बाशिंदों की संख्या शून्य हो जाए या छ: हो जाए।

एक मायने में अदला-बदली और डिफरेंशियल प्रायवेसी के बीच का अंतर दरअसल ब्लॉक स्तर पर नज़र आने लगता है। यह अंतर इन दो विधियों के एक मूल अंतर में निहित है। अदला-बदली के अंतर्गत किसी भी ब्लॉक की कुल और मतदान उम्र की आबादी को वैसा ही रखा जाता है। अर्थात यदि किसी ब्लॉक की जनसंख्या 23 है, तो अदला-बदली के बाद भी 23 ही रहेगी। इसके विपरीत डिफरेंशियल प्रायवेसी में ऐसी कोई गारंटी नहीं होती। इसमें जोड़ा गया नॉइज़ कुल जनसंख्या में भी परिवर्तन कर सकता है और कभी-कभी तो असंभव से आंकड़े निकल सकते हैं – जैसे बाशिंदों की ऋणात्मक संख्या या बगैर वयस्क के रह रहे बच्चे, या किसी ब्लॉक में मकान की अनुपस्थिति।

इस तरह की विसंगतियों से बचने के लिए सेंसस अधिकारी आंकड़े जारी करने से पहले इन विचित्र स्थितियों को समायोजित करते हैं। अलबत्ता, सुधार की यह प्रक्रिया नई विकृतियां पैदा कर सकती है।

बहरहाल, डिफरेंशियल प्रायवेसी बेतरतीब नॉइज़ जोड़कर बेहतर नतीजे देती है, खास तौर से इसलिए कि इस नॉइज़ के सांख्यिकीय गुणधर्म सुस्पष्ट होते हैं। इसके चलते विकृतियों को संभालना अपेक्षाकृत आसान होता है जबकि अदला-बदली विधि में विकृतियां बहुत बेतरतीब होती हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि यदि ऋणात्मक आंकड़ों को शून्य में तबदील कर दिया जाता है तो यह एक बड़ा नुकसान है।

यूएस सेंसस ब्यूरो 2030 की जनगणना की तैयारी कर रहा है। ऐसे में उपरोक्त निष्कर्ष डैटा की सटीकता और प्रायवेसी सुरक्षा की विधियों पर विचार-विमर्श की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं। एक तरीका यह हो सकता है कि सेंसस ब्यूरो थोड़े कम विस्तृत आंकड़े जारी करे। इसमें अनावश्यक रूप से सांख्यिकीय त्रुटियां जोड़ना नहीं पड़ेगा। लेकिन डैटा की बारीकियां सीमित करने से शोधकर्ताओं के लिए जनांकिक परिवर्तनों का विश्लेषण करना मुश्किल होगा और नीतिगत निर्णय प्रक्रिया भी बाधित होगी।

एक महत्वपूर्ण असर यह होगा कि विभिन्न सर्वेक्षण कार्य बाधित होंगे। किसी भी आबादी के प्रतिनिधिमूलक नमूने चुनने के लिए विस्तृत आंकड़े एक अनिवार्यता होती है। इन्हीं के आधार पर तय होता है कि क्या कोई नमूना समूची आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। और ऐसे अध्ययनों के दम पर सार्वजनिक नीतियों, आर्थिक नियोजन, सामाजिक कार्यक्रमों वगैरह का मार्गदर्शन होता है।

तो हमारे सामने डैटा की प्रायवेसी सुनिश्चित करने और सटीकता अक्षुण्ण रखने के बीच संतुलन बनाने की चुनौती है। उपरोक्त कारणों से इनके बीच संतुलन काफी महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल ग्रह का ‘पृथ्वीकरण’

ज़ुबैर सिद्दिकी

मंगल ग्रह को पृथ्वीनुमा बनाने का विचार टेराफॉर्मिंग (Terraforming) यानी सर्द, बंजर ग्रह को मनुष्यों के रहने योग्य (habitable) बनाना लंबे समय से विज्ञान कथाओं का प्रिय विषय रहा है। और नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य पहले की तुलना में अधिक सुलभता से प्राप्त किया जा सकता है। साइन्स एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, मंगल के वायुमंडल (Mars atmosphere) में छोटे कण इंजेक्ट करने से ग्रह काफी गर्म हो सकता है, जिससे यह मानव निवास के लिए उपयुक्त हो जाएगा।

अध्ययन से पता चलता है कि हर साल मंगल के वायुमंडल में विशेष रूप से तैयार किए गए लगभग 20 लाख टन कणों को प्रविष्ट कराकर ग्रह का तापमान कुछ ही महीनों में 10 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ाया जा सकता है। यह तापमान वृद्धि मंगल पर तरल पानी (liquid water on Mars) की उपस्थिति के लिए पर्याप्त है, जो ग्रह को रहने योग्य बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

मंगल वर्तमान में एक ठंडा और दुर्गम स्थान है, जिसका औसत तापमान ऋण 62 डिग्री सेल्सियस के आसपास है। इसका पतला वायुमंडल और सूरज की कमज़ोर रोशनी के कारण पानी का तरल रूप में रहना असंभव है, जबकि यह जीवन (life on Mars) के लिए अनिवार्य है। वैसे, मंगल पर अरबों वर्ष पहले बहता हुआ पानी था, लेकिन आज जो कुछ बचा है वह ज़्यादातर ध्रुवीय बर्फ के रूप में है या सतह के नीचे जम गया है।

मंगल ग्रह को गर्म करने का विचार पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) को बढ़ावा देने वाली प्रक्रिया के समान है – वहां एक कृत्रिम ग्रीनहाउस प्रभाव (greenhouse effect) उत्पन्न किया जा सकता है। वैज्ञानिक ऐसे पदार्थों की खोज कर रहे हैं जिन्हें मंगल के वायुमंडल में छोड़कर गर्मी को ठीक वैसे ही कैद किया जा सके जैसे पृथ्वी पर कार्बन डाईऑक्साइड और जल वाष्प करते हैं।

पिछले सुझावों में इस प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) या सिलिका एरोजेल का उपयोग करने का विचार शामिल था। हालांकि, इसके लिए पृथ्वी से बड़ी मात्रा में सामग्री ले जाने की आवश्यकता होगी, जो वर्तमान तकनीक के साथ व्यावहारिक नहीं है।

नए अध्ययन में मंगल ग्रह पर पहले से ही प्रचुर मात्रा में मौजूद पदार्थों से बने कणों का उपयोग करने का प्रस्ताव है। इसमें विशेष रूप से मंगल ग्रह की धूल में पाए जाने वाले लोहे और एल्यूमीनियम के यौगिक हैं। नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के पीएच.डी. छात्र समानेह अंसारी के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने छोटी छड़ों के आकार के कण तैयार किए हैं जो मंगल ग्रह की धूल के कणों से लगभग दुगनी साइज़ के हैं। इन कणों को मंगल ग्रह पर ही बनाकर वायुमंडल में छोड़ा जा सकता है जहां ये ग्रह की सतह की गर्मी को सोखने और उसे वापस मंगल की सतह पर पहुंचाने में मददगार हो सकते हैं। गौरतलब है कि सारे विचारों को कंप्यूटर अनुकृतियों (computer simulations) के आधार पर जांचा गया है।

कंप्यूटर सिमुलेशन से पता चलता है कि यह विधि मंगल को लगभग 10 डिग्री सेल्सियस तक गर्म कर सकती है, जबकि इसके लिए अन्य प्रस्तावित विधियों की तुलना में बहुत कम सामग्री की आवश्यकता होगी। 20 लाख टन कणों की तुलना में इस तरीके में कहीं कम सामग्री लगेगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह सामग्री मंगल पर ही विद्यमान है।

हालांकि, मंगल का तापमान बढ़ाना इसे रहने योग्य बनाने की दिशा में मात्र एक कदम है। जहां पृथ्वी के वायुमंडल में 21 प्रतिशत ऑक्सीजन है वहीं लाल ग्रह के वायुमंडल में मात्र 0.1 प्रतिशत है। और तो और, मंगल पर वायुमंडलीय दबाव इतना कम है कि मानव रक्त उबलने लगे। इसके अतिरिक्त, मंगल पर हानिकारक पराबैंगनी विकिरण (ultraviolet radiation) से बचाने के लिए ओज़ोन परत का अभाव है, और इसकी मिट्टी फसल उगाने के लिए बहुत अधिक नमकीन या ज़हरीली भी है।

इन चुनौतियों के बावजूद, शोध दल प्रयोगशाला में अपने प्रस्तावित कणों का परीक्षण जारी रखने और ग्रीनहाउस प्रभाव को बढ़ाने के लिए अन्य संभावित सामग्रियों और आकृतियों का पता लगाने की योजना बना रहे हैं।

मंगल पर बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग करना फिलहाल दूर की कौड़ी है, लेकिन यह शोध हमें यह समझने के करीब लाता है कि मंगल को मानवता के लिए एक संभावित नया घर (new home for humanity) बनाने के लिए क्या करना पड़ सकता है। अध्ययन के सह लेखक युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर एडविन काइट कहते हैं कि यह कार्य न केवल मंगल ग्रह के बारे में हमारे ज्ञान को बढ़ाता है, बल्कि पृथ्वी के जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन करने के महत्व को भी रेखांकित करता है ताकि अन्यत्र इन्हें बनाने की कल्पना की जा सके। और शायद ऐसे अध्ययन हमें पृथ्वी को जीवन के विभिन्न रूपों के लिए ज़्यादा अनुकूल बनाने में भी मददगार साबित हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वसायुक्त आहार कैंसर को बढ़ावा दे सकता है

ज़ुबैर सिद्दिकी

हाल ही के शोध में उच्च वसा आहार (high-fat diet), आंत के बैक्टीरिया (gut bacteria) और स्तन कैंसर (breast cancer) के बीच सम्बंध का पता चला है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences) में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार वसायुक्त आहार से पनपने वाला डीसल्फोविब्रियो नामक आंत का बैक्टीरिया, प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) को कमज़ोर करके ट्यूमर (tumor) के विकास में मदद करता है।

चीन के सुन यट-सेन मेमोरियल अस्पताल में स्तन कैंसर सर्जन एरवेई सोंग के नेतृत्व में किए गए अध्ययन में यह पता लगाने का प्रयास किया गया कि ये बैक्टीरिया कैंसर की रफ्तार (cancer progression) को कैसे प्रभावित करता है। शोधकर्ताओं की रुचि विशेष रूप से इस बात में थी कि उच्च बॉडी मास इंडेक्स (high BMI) वाले लोगों में स्तन कैंसर के उपचार के बाद जीवित रहने की दर कम क्यों होती है।

टीम ने स्तन कैंसर ग्रस्त 61 रोगियों के ऊतक और मल के नमूनों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि 24 से अधिक BMI वाली महिलाओं में, 24 से कम BMI वाली महिलाओं की तुलना में डीसल्फोविब्रियो की संख्या अधिक थी।

आगे के प्रयोग चूहों पर किए गए। शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों को उच्च वसा आहार दिया जिसके बाद इन चूहों की आंतों में डीसल्फोविब्रियो अधिक मात्रा में पाए गए। बैक्टीरिया में इस वृद्धि के साथ एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिका – MDSC – का भी उच्च स्तर मिला। अस्थि मज्जा में बनने वाली ये कोशिकाएं प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर करती हैं, जिसके चलते ट्यूमर अनियंत्रित रूप से बढ़ सकता है।

उच्च वसा आहार वाले चूहों के रक्त में अमीनो एसिड ल्यूसीन का स्तर भी अधिक पाया गया। ल्यूसीन का निर्माण डीसल्फोविब्रियो तथा आंत के अन्य बैक्टीरिया करते हैं। जब चूहों का उपचार डीसल्फोविब्रियो को खत्म करने वाले एंटीबायोटिक्स (antibiotics) से किया गया, तो ल्यूसीन और MDSC दोनों का स्तर सामान्य हो गया – यह बैक्टीरिया, ल्यूसीन और कमज़ोर प्रतिरक्षा के बीच सम्बंध का संकेत था।

स्तन कैंसर रोगियों के रक्त के विश्लेषण से पता चला कि उच्च BMI वाले लोगों में ल्यूसीन और MDSC दोनों का स्तर अधिक था। इन रोगियों की जीवित रहने की दर भी कम थी।

इस खोज से पता चलता है कि उच्च वसा वाले आहार से लाभान्वित होकर डीसल्फोविब्रियो बैक्टीरिया शरीर की प्रतिरक्षा को कमज़ोर करके कैंसर के विकास में योगदान दे सकते हैं। कई वैज्ञानिक इसे कैंसर अनुसंधान (cancer research) में एक नई दिशा के रूप में देखते हैं। अलबत्ता, आंत की सूक्ष्मजीव जगत संरचना आहार पर निर्भर करती है, इसलिए यह पता करना होगा कि क्या ये निष्कर्ष सार्वभौमिक रूप से लागू होते हैं।

यह अध्ययन आहार, आंत के बैक्टीरिया और कैंसर के बीच जटिल परस्पर क्रिया को उजागर करता है और सुझाता है कि हमारे सूक्ष्मजीव संसार में फेरबदल कैंसर चिकित्सा का हिस्सा बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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मंगल पर ग्रह प्रवेश की तैयारी

डॉ. पीयूष गोयल

मंगल ग्रह पर मानव को बसाने की तैयारी में नासा के वैज्ञानिकों ने 25 जून, 2023 को अपने पहले ‘क्रू हेल्थ परफॉरमेंस एक्स्प्लोरेशन एनालॉग’ (CHPEA) मिशन की शुरुआत की थी। ह्यूस्टन स्थित जॉनसन स्पेस केंद्र पर लगभग एक वर्ष (378 दिनों) तक मंगल ग्रह जैसे वातावरण वाले घर (मार्स ड्यून अल्फा) में मंगल पर निवास की संभावनाओं की तलाश के इस एनालॉग मिशन का पहला चरण 6 जुलाई, 2024 को पूरा हुआ है। इस मिशन की शृंखला में अगले दो मिशन 2025 और 2026 में निर्धारित हैं।

कृत्रिम परिस्थितियों में जीवन

CHPEA मिशन के पहले चरण में चार लोगों के एक दल ने 378 दिनों के लिए इस आवास में अलग-थलग रहकर अंतरिक्ष यात्रियों की तरह समय बिताया। 1700 वर्ग फीट की सीमित जगह में 3-डी मुद्रित (प्रिंटेड) मार्स ड्यून अल्फा में निजी कमरे, रसोई, चिकित्सा कक्ष, व्यायाम और कार्य करने का स्थान तथा लाल मिट्टी में खेती क्षेत्र, बाथरूम आदि उपलब्ध हैं।

यथासंभव मंगल जैसी परिस्थिति में दल के सदस्यों ने शारीरिक और मानसिक चुनौतियों से जूझना, संसाधन की सीमाएं, तनहाई, विलंबित संचार, उपकरणों की विफलता, सिम्युलेटेड स्पेसवॉक, रोबोट संचालन, आवास के रखरखाव, व्यक्तिगत स्वच्छता, व्यायाम और खेती से सम्बंधित कार्य किए। इनके लिए तैयारशुदा भोजन ठीक वैसा ही था, जैसा कि अंतरिक्ष यात्री अपने अंतरिक्ष प्रवास के दौरान खाते हैं। चार सदस्यों के दल में मिशन का नेतृत्व करने वाली कनाडाई जीव वैज्ञानिक केली हेस्टन, संरचनात्मक इंजीनियर और मिशन के फ्लाइट इंजीनियर रॉस ब्रॉकवेल, आपातकालीन स्वास्थ्य चिकित्सक नाथन जोंस और मिशन की विज्ञान अधिकारी एंका सेलारियू शामिल थीं। एकत्र किए गए डैटा से भविष्य के मिशन की योजना के लिए जानकारी मिलेगी, जिसमें वाहन डिज़ाइन, संसाधन आवंटन और लंबी अवधि की अंतरिक्ष यात्रा के जोखिम का मूल्यांकन इत्यादि शामिल है।

मंगल पर जीवन

मंगल पर जीवन के साक्ष्य की वैज्ञानिक खोज 1894 में मंगल ग्रह के वायुमंडल के स्पेक्ट्रोस्कोपिक विश्लेषण के साथ शुरू हुई थी। यह खोज आज भी दूरबीनों और वहां तैनात जांच उपकरणों के माध्यम से जारी है। अमेरिकी खगोलशास्त्री विलियम वालेस कैंपबेल ने बताया था कि मंगल के वायुमंडल में पानी और ऑक्सीजन नहीं हैं। ब्रिटिश प्रकृतिवादी अल्फ्रेड रसेल वालेस ने भी 1907 में अपनी पुस्तक इज़ मार्स हैबिटेबल? में मंगल को पूरी तरह से निर्जन बताया था। अलबत्ता पर्सिवल लोवेल ने मार्स एंड इट्स कैनाल्स में कहा था कि मंगल पर नज़र आने वाली धारियां नहरें हैं और इन्हें वहां एक बुद्धिमान सभ्यता ने खेती के प्रयोजन से निर्मित किया था। फिलहाल मंगल की सतह पर मिट्टी और चट्टानों में पानी, रसायनिक जैव चिंहों और वायुमंडल में बायोमार्कर गैसों पर अध्ययन जारी है। मंगल ग्रह पृथ्वी से निकटता और समानता रखता है, परंतु वहां जीवन के संकेत नहीं हैं।

मंगल पर पानी

प्रारंभिक अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने 1950 के दशक में मंगल पर विभिन्न प्रकार के जीवन रूपों की व्यवहार्यता, पर्यावरणीय स्थितियों को निर्धारित करने और उनकी अनुकृति बनाने के लिए पात्रों (‘मार्स जार’ या ‘मार्स सिमुलेशन चैम्बर’) का उपयोग किया था। इसका विवरण ह्यूबर्टस स्ट्रगहोल्ड ने प्रस्तुत किया है। जोशुआ लेडरबर्ग और कार्ल सैगन ने इसे लोकप्रिय किया।

जून 2000 में मंगल की सतह पर तरल पानी के बहने के सबूत बाढ़ जैसी नालियों के रूप में खोजे गए, जिसे 2006 में मार्स ग्लोबल सर्वेयर द्वारा ली गई तस्वीरों ने पुष्ट किया। इससे निष्कर्ष यह निकला कि मंगल की सतह पर कभी-कभी पानी रहा है।

मार्च 2015 में नासा द्वारा क्यूरियोसिटी रोवर पर लगे उपकरणों की मदद से सतह की तलछट को गर्म करके नाइट्रेट का पता चला। नाइट्रेट में नाइट्रोजन ऑक्सीकृत रूप में है, जिसका जीवों द्वारा उपयोग किया जा सकता है। जीवन के लिए आवश्यक रासायनिक पोषक पदार्थों में से एक फॉस्फेट मंगल ग्रह पर आसानी से उपलब्ध है। नवम्बर 2016 में नासा ने मंगल ग्रह के युटोपिया प्लैनिटिया क्षेत्र में बड़ी मात्रा में भूमिगत बर्फ का पता लगाया था, जिसमें पानी की मात्रा लेक सुपीरियर के बराबर होने का अनुमान है। इसी प्रकार सैंड स्टोन (बालुई पत्थर) की ऑर्बाइटल स्पेक्ट्रोमेट्री से प्राप्त डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि अतीत में ग्रह पर मौजूद पानी में पृथ्वी जैसे अधिकांश जीवन को सहारा देने के हिसाब से बहुत अधिक लवणीयता रही होगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि ठंडा और जीवनहीन सा दिखने वाला मंगल ग्रह कभी गर्म, जलयुक्त और रहने के लायक रहा होगा। अनुमान है कि जज़ीरो क्रेटर पर कभी पानी हुआ करता था। 

आज सभी अंतरिक्ष एजेंसियों के प्रमुख उद्देश्य हैं: मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना की तलाश; मंगल की जलवायु और भूविज्ञान का विश्लेषण, बसने की संभावना, टैफोनोमी (जीवाश्म-निर्माण का अध्ययन) और कार्बनिक यौगिकों के सबूतों की तलाश।

नासा ने मंगल की सतह पर पानी के अस्तित्व की पुष्टि के लिए स्पिरिट और ऑपर्च्युनिटी रोवर्स जून और जुलाई 2003 में प्रक्षेपित किए थे। स्पिरिट अभियान मई 2011 और ऑपर्च्युनिटी फरवरी 2019 तक सक्रिय रहे।

जून 2018 में नासा ने घोषणा की कि क्यूरियोसिटी रोवर ने तीन अरब वर्ष पुरानी तलछटी चट्टानों में कार्बनिक अणुओं की खोज की है। इसी समय मंगल पर मीथेन के स्तर में मौसमी बदलाव का पता लगाया गया। तदुपरांत मंगल पर पानी की पुष्टि, जीवन के संकेत और ग्रह के भूविज्ञान की जांच के लिए परसेवरेंस मार्स रोवर को 10 वर्ष के लिए मंगल पर भेजा गया।

खगोल जीववैज्ञानिक मानते हैं कि जीवनक्षम वातावरण खोजने के लिए मंगल की सतह पर पहुंचना आवश्यक है। लेकिन आज तक किसी ने भी मंगल की सतह पर ताप, दाब, वायुमंडलीय संरचना, विकिर्णन, आर्द्रता, ऑक्सीकरण जैसी स्थितियों पर विचार नहीं किया है। प्रयोगशाला सिमुलेशन दर्शाते हैं कि कई घातक कारक एक साथ मौजूद हों तो जीवित रहने की दर तेज़ी से गिरती है। मंगल ग्रह पर मनुष्य कैसे रह पाएंगे, मार्स ड्यून अल्फा परीक्षण इसी को लेकर किया गया है।

मार्स ड्यून अल्फा में दल के सदस्यों ने मंगल पर जीवन जीने की कई चुनौतियों का सामना किया। साथ ही उन्होंने इसमें नए वर्ष का जश्न और छुट्टियां भी मनाई, उनका मासिक चेकअप भी होता रहा, उन्होंने सब्ज़ियां भी उगाई, मार्सवॉक किया और अत्यधिक तनाव में अपने काम को पूरा किया।

आर्टेमिस कार्यक्रम के तहत नासा मनुष्यों को चंद्रमा पर पुन: भेजने की योजना बना रहा है, ताकि वे वहां लंबे समय तक रहना सीख सकें तथा 2030 के दशक के अंत तक मंगल ग्रह की यात्रा की तैयारी में मदद मिल सके। (स्रोत फीचर्स)

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जल संकट: प्रकृति का प्रकोप या मानव की महत्वाकांक्षा

देवेश शांडिल्य

विगत गर्मियों में बैंगलोर शहर सुर्खियों में रहा, कारण था जल संकट। अब, जहां-तहां से बाढ़ की खबरें आ रही हैं। यह बात विचारणीय है कि यह सूखे और बाढ़ का चक्र विगत कुछ वर्षों से काफी तेज़ी से घूम रहा है।

इस घटनाक्रम पर विचार करने पर शायद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सब प्रकृति का प्रकोप है। लॉकडाउन के दौरान जब मानव गतिविधियां सीमित हो गई थीं और मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कम हो गया था, तब हवा की गुणवत्ता, जो AQI द्वारा प्रदर्शित होती, में काफी सुधार देखा गया था। स्वच्छ जल की स्रोत, नदियों की TDS (जल में घुलित अशुद्धियों) की रीडिंग भी सुधर गई थी। प्रदूषण पर नियंत्रण लगते ही मानव को शुद्ध वायु और शुद्ध जल प्राप्त होने लगे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि नदियों को माता कहकर पूजने वाले ही उनके सबसे बड़े अपराधी हैं। आज हमें उनको पूजने से ज़्यादा उनको समझने की ज़रूरत है।

अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते मानव ने शहरों का डामरीकरण करना, कॉन्क्रीट के जंगल खड़े करना, हर तरफ सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इससे एक तरफ तो मानव सभ्यता काफी उन्नत हुई, हमने सुख के साधन बटोरे और यातायात को सुगम और सुलभ बनाया। वहीं दूसरी ओर, इनके कारण जो बरसात का जल मिट्टी के माध्यम से धरती में जाना था, वही अब सीमेंट और डामर की सड़कों से होता हुआ नालों के माध्यम से नदियों में जाता है। एक तरफ तो ऐसा अचानक जल भराव और साथ में उचित ड्रेनेज की कमी के कारण बाढ़ का रूप लेकर तबाही फैलाता है। वहीं दूसरी ओर, पानी के तुरंत बह जाने से और धरती में न समाने से भूजलस्तर में कमी के चलते सूखे के हालत बनते हैं।

तो क्या हम विकास और विकास-जनित विनाश के बीच कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकते जिससे संपूर्ण मानवता विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए संभावित विनाश से बच सके?

दरअसल, ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें ध्यान में रख कर योजनाएं बनाई जाएं और परियोजनाओं का क्रियान्वन किया जाए तो समाज के सभी वर्गों को ही नहीं, पर्यावरण को भी लाभ पहुंचेगा। अमीर उद्योगपति से लेकर गरीब गड़रिये तक तथा शहरी नागरिक से लेकर जंगल के जानवर तक लाभान्वित होंगे। अत: हमें योजना बनाते वक्त यह विचार करना चाहिए कि उसके क्रियान्वयन से किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं और कौन–कौन से लक्ष्य बिना अतिरिक्त व्यय और व्यवधान के प्राप्त हो सकते हैं।

ऐसे कई मॉडल उपलब्ध हैं। मसलन एक प्रयास बॉरो पिट्स (Borrow pits) का है। इसके तहत हाईवे बनाने के लिए सामग्री आसपास से ली जाती है और उसके कारण बने गड्ढे का उपयोग तालाब के रूप में किया जाता है। ये शिकागो और ओहायो में हाईवे के किनारे बनाए जाते हैं जिनमें मछली पालन आदि कार्य होते हैं।

भारत में भी नेशनल रोड एंड हाईवे डेवलपमेन्ट अथॉरिटी द्वारा अमृत सरोवर के नाम से यह काम किया जा रहा है। आगे हम एक ऐसे ही मॉडल की चर्चा करेंगे।

जब हम कोई निर्माण कार्य करते हैं जैसे सड़क, पुल या रेल की पटरी बिछाना आदि, तो उसमें हमें कई बार मिट्टी का भराव करना पड़ता है। इस मिट्टी का खनन अगर अनुशासित तरीके से किया जाए तो इसी खुदाई से आसपास के गांवों, तहसील या जंगल की शासकीय ज़मीन पर तालाबों का निर्माण हो सकता है। निर्माण कार्य के लिए मिट्टी भी उपलब्ध हो जाएगी और बिना किसी अतिरिक्त व्यय के तालाब भी तैयार हो जाएगा। यह अगर जंगल में बना तो वन्य प्राणियों को गर्मी के दिनों में पानी उपलब्‍ध कराएगा। तालाब शहरों के आसपास बनें तो वहां के भूजलस्तर में सुधार आएगा। गांव के आसपास बनने पर भूजलस्तर के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी क्योंकि गांव में जल केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मछली पालन तथा तालाब आधारित खेती (जैसे सिंघाड़ा, कमल) आदि आर्थिक गतिविधियों का भी आधार होता है। अर्थात ये तालाब न केवल राज्य की आय बल्कि व्यक्तिगत आय और भोजन सम्बंधित समस्या भी हल कर सकेगी।

जल की एक बूंद तो ऐसी पूंजी है जिसे कमाया नहीं जा सकता। ऐसे में इसका संरक्षण ही इसका निर्माण है।

उदाहरण के लिए यदि एक सड़क का निर्माण होता है, जिसकी लंबाई 100 मीटर, चौड़ाई 4 मीटर है तथा 16 सेंटीमीटर की गहराई तक पुरनी के लिए एक ही स्थान से मिट्टी खोदें, तोे वहां 64,000 लीटर क्षमता का गड्ढा या तालाब तैयार हो जाएगा।

एक गाय या भैंस साधारणत: 80-100 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करती है। तो हमारे पास 2 गाय अथवा 2 भैंस के लिए कम से कम 320 दिन का पानी हो गया। एक बकरी अथवा भेड़ लगभग 10 लीटर पानी उपयोग करती है तो यह 20 जानवरों के लिए 320 दिन का पानी होगा।

2010 के बाद से भारत में सड़क निर्माण की गति तेज़ हो गई है। 2014-15 में यह औसतन लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन और 2018-19 में 30 किलोमीटर प्रतिदिन थी। देश का लक्ष्य प्रतिदिन 40 किलोमीटर राजमार्ग बनाना है। जिनकी चौड़ाई 12 मीटर रहेगी। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम जल संग्रहण की कितनी क्षमता विकसित कर सकते थे या आज भी कर सकते हैं। और यह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट ही नहीं अपितु घर बनाते समय नींव में भरी जाने वाली मिट्टी के साथ भी छोटे पैमाने पर कर सकते हैं।

अत: केवल सड़क निर्माण के कार्य को थोड़े से अलग ढंग से करके सरकार सड़कों के माध्यम से न केवल उद्योगपतियों को मूलभूत अधोसंरचना उपलब्‍ध कराएगी, अपितु इसमें गांव की अर्थव्यवस्था का लाभांश भी सुनिश्चित करेगी। और इस तरह यह मानव सभ्यता से लेकर वन्य जीवन को लाभान्वित करेगा और सह-अस्तित्व का नया अध्याय आरम्भ होगा। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में आमदनी और दौलत की विषमता

अरविंद सरदाना

भारत में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) पर हाल ही की चर्चित रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले और चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। ‘राईज़ ऑफ दी बिलियोनेयर राज’ (Rise of the Billionaire Raj) शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में सन 1922 से 2023 तक भारत में आय और दौलत की विषमता के बारे यह बताया गया है कि “वर्तमान भारत में विषमता (inequality) अंग्रेज़ों और राजा-महाराजाओं के ज़माने से भी अधिक है।” यह रिपोर्ट नितिन कुमार भारती (Nitin Kumar Bharti) एवं सहयोगियों द्वारा तैयार की गई है और विस्तृत आंकड़ों के आधार पर भारत में पिछले 100 वर्षों में लोगों की आर्थिक दशा उजागर करती है। 

विषमता के क्या मायने हैं? 

रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि हमारी विकास की योजनाएं (development plans) 10 प्रतिशत अमीरों (rich) को और अमीर कर रही हैं, जबकि बीच के लोगों को विकास का लाभ (benefits of development) नहीं मिल रहा है। बाकी 50 प्रतिशत लोगों को मुफ्त खाने (free food) का सहारा देना उनकी बेबसी की हालत दर्शाता है। विकास का यह दौर जिसमें बेरोज़गारी (unemployment), गरीबी (poverty) और बेबसी (helplessness) का मिश्रण बनता है, समाज में विकराल स्थिति (critical situation) पैदा करता है। यह स्थिति समाज में क्लेश (discord) और घृणा (hatred) को बढ़ा रही है और उम्मीद एवं भाईचारे (hope and brotherhood) को नष्ट कर रही है। 

Text Box: रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
भारत में आज़ादी के बाद 1980 तक विषमता घट रही थी, इसके बाद यह फिर बढ़ना शुरू हुई।
सन 2000 के बाद विषमता बढ़ने की गति बढ़ गई और 2015 के बाद और अधिक तीव्र हो गई।। 
आज के भारत को अरबपति (यूएस डॉलर के हिसाब से) राज इसलिए कहा है गया क्योंकि भारत में जहां वर्ष 1991 में एक अरबपति व्यक्ति था, 2011 में 52 हो गए थे और 2022 में 162 थे। 
2022-23 में भारत के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल आय का 23% और देश की कुल दौलत का 40 प्रतिशत हिस्सा था। यह विषमता राजा-महाराजा के समय से भी अधिक है। 
भारत में जिन्हें ‘मिडिल क्लास’ कहते हैं, वे वास्तव में शीर्ष के 10 प्रतिशत लोग हैं। इनकी आय 1950 में देश की कुल आय का 40 प्रतिशत थी, जो वर्ष 1980 में घट कर 30 प्रतिशत रह गई थी, आज यह 60 प्रतिशत है। वर्तमान में बीच के 40 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा 27 प्रतिशत है, और बाकी 50 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा केवल 13 प्रतिशत है।
भारत में विषमता इसलिए भी बढ़ी है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स (corporate tax) में बहुत छूट दी गई है। ऐसा करने के पीछे यह सोच रही है कि कंपनियां (companies) अपने बढ़े हुए मुनाफे (increased profits) से और अधिक निवेश करेंगी। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। फायदा सिर्फ कंपनियों के शेयर धारकों (shareholders) को हुआ। इससे अमीर और अमीर हो गए। इस संदर्भ में उस दौरान कई अर्थशास्त्रियों (economists) ने कहा था कि मूल समस्या बाज़ार में मांग की कमी (market demand) है। यदि मांग कमज़ोर है और कंपनियां ज़्यादा निवेश (more investment) कर भी देती हैं तो वे अपना उत्पादन (production) खपाएंगी कहां? यानी स्पष्ट है कि मांग बढ़ाने पर ही आर्थिक गतिविधियां (economic activities) पटरी पर आ सकती हैं। नोटबंदी (demonetization) और जीएसटी (GST) को बेतुके ढंग से लागू करने और उसके पश्चात कोरोना (coronavirus) के कारण हमारी अर्थव्यवस्था (economy) बहुत कमज़ोर हो गई थी। 

हाल ही में ब्रिटेन की लेबर पार्टी (UK Labour Party) ने एक बहुत चर्चित वीडियो जारी करके समझाया है कि सरकार के लिए अरबपतियों (billionaires) को फायदा देने से बेहतर है आम जनता के लिए खर्च करना। इस धन को जनता आगे खर्च करती है और बाज़ारों में मांग (demand in markets) बढ़ती है। (इस वीडियो को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं – [https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/](https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/)) 

हमारी सरकार का आर्थिक नज़रिया (economic perspective) अधूरा भी है। जीडीपी (GDP) बढ़ाना ज़रूरी है, लेकिन यदि इसकी व्याख्या ठीक से न की जाए, तो यह अधूरा लक्ष्य (incomplete goal) ही है। कई मुल्कों के इतिहास (history of countries) को खंगालने से यह पता चलता है कि जीडीपी बढ़ने से सरकार के खजाने में इज़ाफा (increase in government revenue) होता है। इन पैसों को यदि लोगों की शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health), एवं रोज़गार (employment) के लिए खर्च किया जाए तो कुछ वर्षों बाद लोगों की क्षमताएं (capabilities) बढ़ती हैं, और रोज़गार से आय (income) भी बढ़ती है। जब व्यापक स्तर पर ऐसा होने लगता है तो समाज में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) घटने लगती है। केवल जीडीपी बढ़ाना और लोगों के लिए खर्च करने के तर्क (arguments) को भूल जाना, विषमता को और बढ़ाता है। भारत में ऐसा ही हुआ है और इसी कारण आज विषमता अंग्रेज़ों के राज (British Raj) से भी अधिक है। 

अधिक विषमता (inequality) समाज के ताने-बाने को नष्ट करती है। जिन के पास दौलत (wealth) है यह उनके लिए भी घातक सिद्ध होती है तथा इससे विश्वास (trust) टूटता है। इसके कुछ संकेत हम भारत में देख रहे हैं – 40 प्रतिशत संपत्ति (property) के मालिक 1 प्रतिशत लोग अपनी दौलत का कुछ हिस्सा विदेशों में निवेश (foreign investments) कर रहे हैं। 

इसी संदर्भ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो शोधकर्ताओं (researchers) ने विकसित देशों के अनुभवों (experiences of developed countries) के प्रमाण के साथ एक पुस्तक प्रकाशित की है –  **दी स्पिरिट लेवल: व्हाय मोर इक्वल सोसायटीज़ आलमोस्ट आल्वेज़ डू बेटर** (The Spirit Level: Why More Equal Societies Almost Always Do Better) (लेखक रिचर्ड विलकिन्सन और केट पिकेट) (authors Richard Wilkinson and Kate Pickett)। यह पुस्तक ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह भ्रम बना हुआ है कि विषमता को दूर करना यानी एक से ले कर दूसरे को देना। विषमता को एक सीमा में रखना सब के लिए अच्छा सिद्ध होता है, जिन के पास है उनके लिए भी! 

हमारे लिए ज़रूरी कदम 

नितिन भारती और उनके सहयोगियों ने अपनी रपट में कुछ सुझाव (suggestions) भी रखे हैं। उनका कहना है कि अरबपति (billionaires) और बहुत अमीर करोड़पति (wealthy millionaires) पर विशेष टैक्स (special tax) लगना चाहिए। भारत में संपत्ति कर (property tax) एक समय था, पर उसे हटा दिया गया है। उसे नए स्वरुप (new form) में लागू करना चाहिए। इन कदमों से सरकार को जो आय प्राप्त हो उसे शिक्षा (education) और स्वास्थ्य (health) पर खर्च करना चाहिए। इन मुद्दों पर बहस हो सकती है पर मुख्य बात है कि हमें अपनी विकास योजनाओं (development plans) की पूर्ण समीक्षा (thorough review) करनी होगी। खासकर रोज़गार (employment) के क्षेत्र में यह समझना होगा कि लघु उद्योग (small industries) और छोटे कारोबार (small businesses) में अधिक लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना (employment opportunities) बनती है और इसे विशेष प्रोत्साहन देना ज़रूरी है। यह असंगठित क्षेत्र (informal sector) का हिस्सा है। संगठित क्षेत्र (formal sector) वह है जो भारी मशीन (heavy machinery), उच्च तकनीकी कौशल (technical skills) और पूंजी (capital) पर आधारित होता है। यह उत्पादन की प्रक्रिया (production process) को तो मज़बूत करता है पर बहुत लोगों को रोज़गार (employment) नहीं देता। यहां यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health) एवं भोजन (food) की बुनियादी ज़रूरतों और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के ढांचों (infrastructure) को मज़बूत किए बिना हम रोजगार (employment) के नए मौके एवं कौशल-संपन्न लोग (skilled individuals) नहीं बना पाएंगे। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खून का विकल्प

डॉ. सुशील जोशी

चोट लगने पर यदि बहुत खून बह जाए तो व्यक्ति के शरीर को ज़रूरी ऑक्सीजन (oxygen) व पोषण मिलने में दिक्कत आती है। और खून (blood) मिलना हर जगह आसान नहीं होता। ऐसे में कई बार खतरे की स्थिति बन जाती है। एक समय था जब बहुत अधिक रक्तस्राव तो जैसे मौत का ऐलान ही होता था। रक्ताधान (blood transfusion) किया जाता था लेकिन यह धुर में लट्ठ जैसा होता था। रक्त समूहों (blood groups) के बारे में कोई भनक तक नहीं थी। यदि गलत समूह का खून चढ़ जाए तो जानलेवा हो सकता था। आज भी खून बह जाने की वजह से दुनिया भर में हर साल करीब 20 लाख लोग जान से हाथ धो बैठते हैं। दान दिए गए खून की शेल्फ लाइफ (shelf life) मात्र 42 दिन होती है और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध भी नहीं होता। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए खून के विकल्पों (blood substitutes) की खोज कम से कम दो सदियों से चल रही है। और एक उपयुक्त विकल्प की ज़रूरत आज भी बरकरार है। पिछले वर्ष बाल्टीमोर की एक प्रयोगशाला में एक सफेद खरगोश ने आशा की किरण दिखाई है। 

इस खरगोश के शरीर से कुछ खून निकाल दिया गया था और फिर एक कैथेटर (catheter) के माध्यम से एक रक्त-विकल्प उसकी कैरोटिड धमनी में पहुंचाया जा रहा था। इस कृत्रिम रक्त-विकल्प का नाम है एरिथ्रोमर (ErythroMer)। इसका विकास मैरीलैंड विश्वविद्यालय स्कूल ऑफ मेडिसिन (University of Maryland School of Medicine) के चिकित्सक-शोधकर्ता एलन डॉक्टर द्वारा किया गया है। एरिथ्रोमर को ‘पुनर्चक्रित’ मानव हीमोग्लोबीन (recycled human hemoglobin) से बनाया गया है। हीमोग्लोबीन लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में पाया जाने वाला वह प्रोटीन होता है जो ऑक्सीजन को फेफड़ों से लेकर पूरे शरीर में पहुंचाता है। इस ‘पुनर्चक्रित’ हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली के आवरण में लपेटकर एक कोशिका का रूप दिया गया है। प्रयोग में लग रहा था कि रक्ताधान (सही मायनों में एरिथ्रोमराधान) काम कर रहा है। खरगोश की हृदय गति, रक्तचाप (blood pressure) वगैरह ठीक-ठाक ही लग रहे थे। 

एरिथ्रोमर व उससे पहले विकसित किए गए ऐसे पदार्थों को हीमोग्लोबिनाइज़्ड ऑक्सीजन वाहक (Hemoglobinized Oxygen Carrier – HBOC) कहते हैं। इन्हें कृत्रिम खून (artificial blood) भी कह सकते हैं। ऐसे विकल्प खास तौर से ऐसे मामलों में उपयोगी होंगे जहां ताज़ा खून मिलना मुश्किल होता है – जैसे युद्धक्षेत्र में या देहातों में। 

एरिथ्रोमर तत्काल देकर अस्पताल (hospital) पहुंचने तक मरीज़ को ऑक्सीजन मिलती रह सकती है। यह फ्रीज़ करके सुखाया गया पावडर होता है जिसे वर्षों तक इस्तेमाल किया जा सकता है। मरीज़ को देते समय इसे सैलाइन (saline) में घोलकर तैयार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके उपयोग में रक्त समूह (blood group) जैसी कोई अड़चन नहीं होगी क्योंकि इसकी झिल्ली पर कोई सतही प्रोटीन नहीं होते जो रक्त समूह का निर्धारण करते हैं। 

वैसे तो ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) लाल रक्त कोशिकाओं का विकल्प (alternative) विकसित करने के प्रयास दशकों से चल रहे हैं। इस संदर्भ में लग रहा है कि एरिथ्रोमर शायद प्राकृतिक लाल रक्त कोशिकाओं की तुलना में ज़्यादा टिकाऊ और लचीला होगा। हालांकि, एरिथ्रोमर अभी जंतु-परीक्षण (animal trials) के चरण में ही है लेकिन यह एकमात्र ऐसा प्रयास है जिसमें हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली में कैद करके वास्तविक खून का रूप देने की कोशिश की गई है। दूसरी ओर, जापान में एक प्रतिस्पर्धी उत्पाद (competitive product) का परीक्षण मनुष्यों (human trials) में किया जा चुका है और वह सुरक्षित ही लग रहा है। 

मात्र 2 दशक पहले पूर्ववर्ती HBOC संस्करणों को एक तरफ रख दिया गया था क्योंकि परीक्षण में शामिल व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद किए गए अन्य प्रयासों के परिणाम भी बहुत बेहतर नहीं रहे थे। आज तक के सबसे उन्नत HBOC वे रहे हैं जिन्हें दक्षिण अफ्रीका और रूस में मंज़ूरी मिली थी लेकिन उनमें भी साइड इफेक्ट (side effects) के मुद्दे थे। 

खून की अनुकृति (blood replica) बनाने में मुश्किलात के कई कारण हैं। अव्वल तो खून स्वतंत्र अणुओं (molecules) और कोशिकाओं का एक जटिल मिश्रण (complex mixture) होता है। खून में आधा हिस्सा तो प्लाज़्मा (plasma) होता है, जो पानी, प्रोटीन्स (proteins) और लवणों से बना एक हल्का पीला तरल (fluid) होता है। शेष रक्त कोशिकाओं से बना होता है। इनमें मुख्यत: प्लेटलेट्स (platelets), सफेद रक्त कोशिकाएं (white blood cells) और लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) होती हैं। प्लेटलेट्स किसी घाव या खरोंच के स्थान पर खून का थक्का बनाने में भूमिका निभाते हैं और सफेद रक्त कोशिकाएं संक्रमणों (infections) के विरुद्ध लड़ने में कारगर होती हैं। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में हीमोग्लोबिन होता है जो ऑक्सीजन का परिवहन करता है। शरीर में सर्वाधिक संख्या लाल रक्त कोशिकाएं की ही होती है। आम तौर पर ये बीच में पिचकी हुई डिस्क (disc-shaped) के आकार की होती हैं। अस्थि मज्जा (bone marrow) में इनका निरंतर उत्पादन होता है – लगभग 20 लाख कोशिका प्रति सेकंड। किसी भी समय खून में करीब 30 खरब लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) रक्त वाहिनियों (blood vessels) में दौड़ती रहती हैं। इन रक्त वाहिनियों की कुल लंबाई 20,000 कि.मी. (kilometers) तक हो सकती है। 

वास्तविक चुनौती यह है कि लाल रक्त कोशिकाओं की ऑक्सीजन परिवहन क्षमता (oxygen transport capacity) की नकल तैयार की जाए। लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नामक प्रोटीन (protein) का अणु यह काम करता है। एक-एक रक्त कोशिका में हीमोग्लोबिन के 26 करोड़ अणु (molecules) पाए जाते हैं। इसके प्रत्येक अणु में हीम के घटकों के केंद्र में एक लौह परमाणु (iron atom) होता है। यही हीम संकुल ऑक्सीजन (oxygen) को पकड़ता है। 

शुरुआत में रक्त विकल्पों के निर्माण में कोशिश यह की गई थी कि हीमोग्लोबिन के स्थान पर एक अन्य ऑक्सीजन वाहक परफ्लोरोकार्बन (Perfluorocarbon) अणु को रखा जाए। इसका उपयोग रेफ्रिजरेंट्स (refrigerants) और अग्नि-शामकों में बहुतायत में किया जाता था। 1989 में ऐसे एक विकल्प को तो यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन (U.S. Food and Drug Administration – FDA) ने शल्य क्रियाओं (surgery) के दौरान उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी थी। लेकिन कतिपय कारणों से इसे वापिस ले लिया गया। 

तो बच गए HBOC। लाल रक्त कोशिका (red blood cell) के अंदर हीमोग्लोबिन प्रोटीन्स (proteins) चार-चार के समूहों में जुड़े रहते हैं। शुरुआती HBOC में कोशिश यह थी कि इस चौकड़ी संरचना (tetramer structure) की नकल की जाए और झिल्ली को छोड़ दिया जाए। 

लेकिन हीमोग्लोबिन (hemoglobin) अजीब अणु होता है – ऊतकों और रक्त वाहिनियों (blood vessels) के लिए विषैला (toxic) होता है। एक कारण तो यह है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन (oxygen) लेकर चलता है जो गलत जगह पहुंच जाए तो घातक हो सकती है। लिहाज़ा हीमोग्लोबिन को रक्त प्रवाह (bloodstream) में छुट्टा नहीं छोड़ा जा सकता। पिछली सदी में जिन मरीज़ों को आवरणरहित हीमोग्लोबिन (unencapsulated hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प (blood substitute) दिए गए थे, उनमें उच्च रक्तचाप (high blood pressure), उच्च चयापचय दर (high metabolism rate) और तेज़ नब्ज़ (rapid pulse) जैसे असर देखे गए हैं। कुछ मामलों में हार्ट अटैक (heart attack) और गुर्दा नाकामी (kidney failure) जैसे दुष्प्रभाव (side effects) भी प्रकट हुए। माना जाता है कि ऐसा रक्त वाहिनियों के सिकुड़ने (vasoconstriction) की वजह से हुआ था जो स्वतंत्र हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) ने पैदा किया था। 

आवरण रहित HBOC का सबसे सफल उदाहरण हीमोप्योर (Hemopure) रहा है। 1990 के दशक में इसे गाय से प्राप्त लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की मदद से तैयार किया गया था। पहले इन कोशिकाओं में से हीमोग्लोबिन (hemoglobin) निकाला जाता था और उसे रोगजनकों (pathogens) से मुक्त किया जाता था। फिर चार-चार हीमोग्लोबिन की चौकड़ियां बनाई जाती थीं। इसका अधिकांश उपयोग ऑपरेशन उपरांत एनीमिया (anemia) के उपचार हेतु किया गया था। 

लेकिन 2008 में जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of the American Medical Association – JAMA) में प्रकाशित एक मेटा-विश्लेषण का निष्कर्ष था कि ये सारे HBOC निहित रूप से हृदय (heart) के लिए विषैले (toxic) थे और इनसे उपचारित मरीज़ों की मृत्यु दर (mortality rate) सामान्य रक्ताधान (blood transfusion) प्राप्त करने वाले मरीज़ों से 30 प्रतिशत ज़्यादा थी। इस विश्लेषण के प्रकाशन के बाद सारे परीक्षण (trials) बंद कर दिए गए। 

हालांकि नया रक्त विकल्प एरिथ्रोमर जंतु-परीक्षण के दौर में ही है लेकिन डॉक्टर को यकीन है कि यह शुद्ध हीमोग्लोबिन उत्पादों के विषैलेपन की समस्या से निपट पाएगा और प्रकृति की बेहतर अनुकृति (better replica) साबित होगा क्योंकि इसमें हीमोग्लोबिन को ठीक उस तरह आवरण में बंद किया गया है जैसा लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में होता है। 

वैसे डॉक्टर रक्त का विकल्प (blood substitute) बनाने के लिए काम कर भी नहीं रहे थे। वे तो हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) नामक गैस के परस्पर सम्बंध (interaction) का अध्ययन कर रहे थे। नाइट्रिक ऑक्साइड वह गैस है जो रक्त वाहिनियों (blood vessels) का अस्तर खून में छोड़ता रहता है। नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) की उपस्थिति में रक्त वाहिनियां फैल (dilate) जाती हैं और इसकी अनुपस्थिति में सिकुड़ (constrict) जाती हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) इस गैस के स्तर (levels) को नियंत्रित करती हैं क्योंकि ऑक्सीजन (oxygen) के समान नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ सकती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) और आसपास के ऊतकों (tissues) के बीच ऑक्सीजन (oxygen) के लेन-देन के आधार पर कोशिकाएं नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को ग्रहण कर सकती हैं या बाहर कर सकती हैं। 

अब यदि कोई व्यक्ति ज़ोरदार कसरत कर रहा हो, तो पहले तो उसकी मांसपेशियों में ऑक्सीजन की खपत बढ़ती है। वहां ऊतकों की बढ़ी हुई सक्रियता का निर्वाह करने के लिए रक्त प्रवाह बढ़ता है और सक्रियता कम हो जाने पर रक्त प्रवाह सामान्य हो जाता है। जब लाल रक्त कोशिकाएं सक्रिय मांसपेशियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति करती हैं, तब वे नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी छोड़ती हैं। यह छोड़ी गई नाइट्रिक ऑक्साइड उस क्षेत्र की रक्त वाहिनियों को फैला देती है जिससे उस क्षेत्र में रक्त प्रवाह (blood flow) बढ़ जाता है। कसरत पूरी हो जाने पर लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) भारी मात्रा में ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त करना बंद कर देती हैं। इसके चलते नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) वापिस कोशिकाओं में पहुंचकर हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ने लगती है और रक्त वाहिनियां सिकुड़ जाती हैं। 

मुक्त हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प विषैले (toxic) हो सकते हैं। इसलिए कुछ वैज्ञानिक इस ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) को एक झिल्ली (membrane) में कैद कर रहे हैं, किसी लघु कोशिका (microcell) के समान। एरिथ्रोमर की झिल्ली को इस तरह बनाया गया है कि वह रक्त वाहिनियों (blood vessels) में सुगमता से बह सके और हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को न जकड़ सके। नाइट्रिक ऑक्साइड ही तो वाहिनियों को खुला रखती है। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) के समान ही एरिथ्रोमर भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और ऑक्सीजन के बीच स्नेह के नियमन (affinity regulation) हेतु 2,3-DPG (2,3-Diphosphoglycerate) नामक एक अणु का उपयोग करता है। फेफड़ों (lungs) में 2,3-DPG का अणु एक संश्लेषित अम्लीयता संवेदी अणु (synthesized acidity sensor molecule) KC1003 से जुड़ जाता है। यह अणु एरिथ्रोमर की झिल्ली (membrane) में होता है। इनके बीच बने बंधन (bond) का परिणाम होता है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। जब यह ऊतकों में पहुंचता है तो वहां पर्यावरण ज़्यादा अम्लीय (acidic) होता है। इस स्थिति में 2,3-DPG मुक्त (released) हो जाता है और हीमोग्लोबिन से जुड़ जाता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त होने लगती है। 

सच तो यह है कि कोई भी कृत्रिम उत्पाद (artificial product) रक्त (blood) का स्थान नहीं ले सकता। ये थोड़े समय के लिए मरीज़ की मदद कर सकते हैं; अंतत: तो व्यक्ति की अस्थि मज्जा (bone marrow) को अपना काम शुरू करना होगा। बहरहाल, आज हम इतना तो जानते हैं कि इन उत्पादों के साइड प्रभावों (side effects) को संभाल सकें।(स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चमगादड़ों में श्रवण क्षमता बुढ़ापे में बरकरार रहती है

ज़ुबैर सिद्दिकी

मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारी प्राणियों में उम्र बढ़ने के साथ सुनने की क्षमता (hearing ability) क्षीण पड़ जाती है। लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ (big brown bats) (एप्टेसिकस फ्यूस्कस) इस मामले में अपवाद हैं। बायोआर्काइव (bioRxiv) में प्रकाशित हालिया शोध से पता चलता है कि ये चमगादड़ जीवन भर अपनी सुनने की क्षमता बनाए रखते हैं। इसका कारण संभवत: इकोलोकेशन (echolocation) (प्रतिध्वनि की मदद से स्थान निर्धारण) पर उनकी निर्भरता है। यह शोध मनुष्यों में श्रवण क्षमता के ह्रास (hearing loss) के उपचार में मदद कर सकता है। 

गौरतलब है कि चमगादड़ों में दो उल्लेखनीय गुण होते हैं: एक है इकोलोकेशन, जो वस्तुओं से टकराकर वापस आईं ध्वनि तरंगों के माध्यम से मार्ग निर्धारण (navigation) करने और शिकार (hunting) करने में मदद करता है। और दूसरा, वे अपने आकार के हिसाब से असाधारण रूप से लंबा जीते हैं। अधिकांश छोटे स्तनधारियों का जीवनकाल (lifespan) छोटा होता है, लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ 19 साल तक जीवित रह सकते हैं, जो लगभग बराबर डील-डौल के चूहों से पांच गुना अधिक है। 

इसी गुण के कारण वैज्ञानिक बुढ़ाने (aging) और सुनने की क्षमता की तुलना के लिए इन्हें शक्तिशाली मॉडल-जंतु (model organisms) के तौर पर देख रहे हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ों की श्रवण प्रणाली (auditory system) मूलत: अन्य स्तनधारियों के समान ही होती है। 

बड़े-भूरे चमगादड़ों की उम्र के साथ सुनने की क्षमता का पता लगाने के लिए जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) की शोधकर्ता ग्रेस कैपशॉ (Grace Capshaw) और उनकी टीम ने 23 जंगली चमगादड़ों को युवा और बूढ़े समूहों में विभाजित किया, जिसमें छह साल की उम्र को विभाजन रेखा के रूप में इस्तेमाल किया गया। अध्ययन में अधिकतम संभव उम्र के करीब वाले चमगादड़ शामिल नहीं थे। चमगादड़ों की उम्र जेनेटिक विधि (genetic method) से निर्धारित की गई और श्रवण परीक्षण (hearing tests) लगभग वैसे ही किए गए जैसे मानव शिशुओं (human infants) पर किए जाते हैं। चमगादड़ों के सिर पर लगे इलेक्ट्रोड्स (electrodes) से विभिन्न ध्वनियों के जवाब में श्रवण तंत्रिका द्वारा उत्पन्न विद्युत संकेतों को मापा। 

परिणामों से पता चला कि युवा और बूढ़े दोनों चमगादड़ सबसे धीमी ध्वनियों (low-frequency sounds) को समान रूप से अच्छी तरह से सुन सकते हैं, विशेष रूप से उन आवृत्तियों को जो वे इकोलोकेशन और संवाद में उपयोग करते हैं। मनुष्यों में अक्सर आंतरिक कान (कॉक्लिया) में रोम कोशिकाओं की मृत्यु के कारण सुनने की क्षमता क्षीण पड़ जाती है, जबकि इस अध्ययन में पाया गया कि सबसे बूढ़े चमगादड़ों में भी रोम कोशिकाएं और कॉक्लिया (cochlea) सलामत थे। 

लेकिन सभी चमगादड़ प्रजातियां इतनी सौभाग्यशाली नहीं हैं। मसलन, मिस्र के रूसेटस एजिप्टियाकस (Rousettus aegyptiacus) चमगादड़ उम्र के साथ सुनने की क्षमता खो देते हैं। संभवत: इसका कारण यह है कि वे शिकार के लिए ध्वनि की अपेक्षा देखने (vision) पर अधिक निर्भर होते हैं। 

बहरहाल, इन चमगादड़ों की असाधारण श्रवण क्षमता को पूरी तरह समझने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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