भारत में निर्मित कोवैक्सीन के निर्यात पर रोक

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने भारत में विकसित कोवैक्सीन टीके के निर्माण को लेकर चिंताएं व्यक्त की हैं। मार्च में किए गए निरीक्षण में डबल्यूएचओ को भारत बायोटेक की टीका उत्पादन सुविधा में कुछ समस्याएं देखने को मिली थीं। विस्तार से कोई जानकारी तो नहीं मिली है लेकिन डबल्यूएचओ के अनुसार भारत बायोटेक कोवैक्सीन के निर्यात पर अस्थायी रोक लगाकर सुधारात्मक कार्य योजना तैयार करने को राज़ी हो गया है।

इस निर्णय के बाद यूनिसेफ के माध्यम से अन्य देशों को मिलने वाले टीकों की आपूर्ति में कमी आने की संभावना है। अन्य देशों को भी अन्य उत्पादों का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है। भारत बायोटेक का कहना है कि रख-रखाव और उत्पादन सुविधाओं में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। कंपनी के प्रवक्ता के अनुसार भारत में टीके की बिक्री जारी रहेगी। कुछ वैज्ञानिकों ने भारत की दवा नियामक एजेंसी केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं।  

कोवैक्सीन टीका निष्क्रिय वायरस से तैयार किया गया है। टीके के तीसरे चरण के परीक्षण से पहले ही जनवरी 2021 में सीडीएससीओ ने कोवैक्सीन को आपात उपयोग की अनुमति दी थी। इसके चलते कमज़ोर नियामक मानकों का आरोप भी लगा था। जुलाई 2021 में तीसरे चरण के परीक्षण से पता चला कि कोवैक्सीन की प्रभाविता अन्य टीकों के लगभग बराबर (77.8 प्रतिशत) थी।   

इससे पहले मार्च 2021 में ब्राज़ीलियन हेल्थ रेगुलेटरी एजेंसी ने कोवैक्सीन के निर्माण में अच्छी उत्पादन प्रथाओं (जीएमपी) यानी उत्पादन इकाई में सुरक्षा, प्रभाविता और गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक नियमों के पालन में ढिलाई देखी थी। इसके चलते टीके में जीवित वायरस के होने की संभावना बढ़ जाती है। ब्राज़ील ने अस्थायी रूप से टीके का आयात निलंबित कर दिया था और जुलाई 2021 में इस सौदे को पूरी तरह खत्म कर दिया गया।         

बाद में भारत बायोटेक ने इन कमियों को दूर किया और नवंबर 2021 डबल्यूएचओ द्वारा इसे आपात उपयोग की सूची में शामिल किया गया। इस सूची का उद्देश्य कम और मध्यम आय वाले देशों को टीका उपलब्ध कराना और सदस्य देशों को टीकों का चुनाव करने में मदद करना है। अब एक बार फिर जीएमपी सम्बंधित कमियां देखने को मिली हैं। सूची में शामिल होने के बाद कंपनी ने अपनी निर्माण प्रक्रिया में बदलाव किया था और इस बात की सूचना सीडीएससीओ और डबल्यूएचओ को नहीं दी थी, जो अनिवार्य है।

एम-आरएनए टीकों के विपरीत इन टीकों को कम तापमान पर रखने की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए गरीब देशों के लिए इनका उपयोग काफी आसान है।          

उपरोक्त विसंगतियां दर्शाती है कि डब्ल्यूएचओ और सीडीसीएसओ के मानक अलग-अलग है। उक्त विसंगतियों को दूर करना ज़रूरी है। इससे टीका लेने में झिझक कम होगी और यह भारतीय उद्योग की विश्वसनीयता और लोगों के स्वास्थ्य दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://english.cdn.zeenews.com/sites/default/files/2021/06/09/942470-covaxine.jpg

कुकुरमुत्तों का संवाद

हां-वहां उग रहे कुकुरमुत्तों (मशरूम) को देखकर ऐसा लगता है कि वे भी कहीं आपस में बात करते होंगे। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चलता है कि वे ‘बातूनी’ हो सकते हैं।

मशरूम दरअसल एक प्रकार की फफूंद हैं। इनके द्वारा एक-दूसरे को भेजे जाने वाले विद्युत संकेतों के गणितीय विश्लेषण में ऐसे पैटर्न पहचाने गए हैं जो मानव भाषा से आश्चर्यजनक संरचनात्मक समानता दर्शाते हैं।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि फफूंद अपनी लंबी, भूमिगत तंतुनुमा रचनाओं (कवकतंतु या हाइफे) के माध्यम से विद्युत संकेतों का संचालन करते हैं – ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यों में तंत्रिका कोशिकाएं सूचना प्रसारित करती हैं।

यहां तक देखा गया है कि जब लकड़ी पचाने वाली फफूंद के कवकतंतु किसी लकड़ी के टुकड़े के संपर्क में आते हैं तो इन संकेतों के प्रेषण की दर बढ़ जाती है। इससे लगता है कि फफूंद इस विद्युत ‘भाषा’ का उपयोग भोजन उपलब्ध होने या क्षति पहुंचने की जानकारी अपने अन्य हिस्सों के साथ या कवकतंतुओं के माध्यम से जुड़ी वनस्पतियों के साथ साझा करने के लिए करती हैं।

लेकिन क्या ये विद्युत गतिविधियां मानव भाषा से कुछ समानता रखती हैं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ दी वेस्ट ऑफ इंग्लैंड के प्रोफेसर एंड्रयू एडमात्ज़की ने फफूंद की चार प्रजातियों – एनोकी, स्प्लिट गिल, घोस्ट और कैटरपिलर फफूंद द्वारा बहुत कम समय के लिए उत्पन्न विद्युत आवेगों के पैटर्न का विश्लेषण किया।

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विद्युत आवेग अक्सर समूहों में होते हैं, और ऐसा लगता है कि 50 ‘शब्दों’ का ककहरा हो। और इन कवक ‘शब्दों’ की लंबाई मानव भाषा से काफी मेल खाती है। सड़ती-गलती लकड़ी पर पनपने वाली फफूंद स्प्लिट गिल उपरोक्त चार में से सबसे जटिल ‘वाक्य’ बनाती हैं।

इन विद्युत गतिविधियों का सबसे संभावित कारण फफूंद द्वारा अपने समूह को जोड़े रखना लगता है – जैसे भेड़िए करते हैं। या यह भी हो सकता है कि इनकी भूमिका कवकजाल के अन्य हिस्सों को भोजन या खतरों के बारे में आगाह करने की है। एक संभावना यह भी हो सकती है कि फफूंद कुछ भी न कहते हों बल्कि यह हो सकता है कि कवकजाल के सिरे विद्युत आवेशित होते हैं, इसलिए जब आवेशित सिरे इलेक्ट्रोड्स से संपर्क में आते होंगे तो विभवांतर में तीक्ष्ण वृद्धि हो जाती होगी।

बहरहाल इन विद्युत संकेतो का कुछ भी मतलब हो लेकिन ये बेतरतीब या रैंडम नहीं लगते। फिर भी, इन संकेतों को भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए और अधिक प्रमाणों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/49d39f74035f02a33b2453ea33bea48f57b9bc9b/0_62_4288_2573/master/4288.jpg?width=620&quality=45&auto=format&fit=max&dpr=2&s=85d3be78c12881326fe356b6be79ba6e

3000 साल पुरानी पतलून इंजीनियरिंग का चमत्कार है

हाल ही में एक विशेषज्ञ बुनकर की मदद से पुरातत्वविदों ने दुनिया की सबसे पुरानी (लगभग तीन हज़ार साल पुरानी) पतलून की डिज़ाइन के रहस्यों को उजागर किया है। प्राचीन बुनकरों ने कई तकनीकों की मदद से घोड़े पर बैठकर लड़ने के लिए इस पतलून को तैयार किया था – पतलून इस तरह डिज़ाइन की गई थी कि यह कुछ जगहों पर लचीली थी और कुछ जगहों पर चुस्त/मज़बूत।

यह ऊनी पतलून पश्चिमी चीन में 1000 और 1200 ईसा पूर्व के बीच दफनाए गए एक व्यक्ति (जिसे अब टर्फन मैन कहते हैं) की थी, जो उसे दफनाते वक्त पहनाई गई थी। उसने ऊन की बुनी हुई पतलून के साथ पोंचों पहना था जिसे कमर के चारों ओर बेल्ट से बांध रखा था, टखने तक ऊंचे जूते पहने थे, और उसने सीपियों और कांसे की चकतियों से सजा एक ऊनी शिरस्त्राण पहना था।

पतलून का मूल डिज़ाइन आजकल के पतलून जैसा ही था। कब्र में व्यक्ति के साथ प्राप्त अन्य वस्तुओं से लगता है कि वह घुड़सवार योद्धा था।

दरअसल घुड़सवारों के लिए इस तरह की पतलून की ज़रूरत थी जो इतनी लचीली हो कि घोड़े पर बैठने के लिए पैर घुमाते वक्त कपड़ा न तो फटे और न ही तंग हो। साथ ही घुटनों पर अतिरिक्त मज़बूती की आवश्यकता थी। यह कुछ हद तक पदार्थ-विज्ञान की समस्या थी कि कपड़ा कहां लोचदार चाहिए और कहां मज़बूत और ऐसा कपड़ा कैसे बनाया जाए जो दोनों आवश्यकताओं को पूरा करे?

लगभग 3000 साल पहले चीन के बुनकरों ने सोचा कि पूरे कपड़े को एक ही तरह के ऊन/धागे से बुनते हुए विभिन्न बुनाई तकनीकों का उपयोग करना चाहिए।

जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की पुरातत्वविद मेयके वैगनर और उनके साथियों ने इस प्राचीन ऊनी पतलून का बारीकी से अध्ययन किया। बुनाई तकनीकों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक आधुनिक बुनकर से प्राचीन पतलून की प्रतिकृति बनवाई गई।

उन्होंने पाया कि अधिकांश पतलून को ट्विल तकनीक से बुना गया था जो आजकल की जींस में देखा जा सकता है। इस तरीके से बुनने में कपड़े में उभरी हुई धारियां तिरछे में समानांतर चलती है, और कपड़ा अधिक गसा और खिंचने वाला बनता है। खिंचाव से कपड़ा फटने की गुंज़ाइश को और कम करने के लिए पतलून के कमर वाले हिस्से को बीच में थोड़ा चौड़ा बनाया गया था।

लेकिन सिर्फ लचीलापन ही नहीं चाहिए था। घुटनों वाले हिस्से में मज़बूती देने के लिए एक अलग बुनाई पद्धति (टेपेस्ट्री) का उपयोग किया गया था। इस तकनीक से कपड़ा कम लचीला लेकिन मोटा और मज़बूत बनता है। कमरबंद के लिए तीसरे तरह की बुनाई तकनीक उपयोग की गई थी ताकि घुड़सवारी के दौरान कोई वार्डरोब समस्या पैदा न हो।

और सबसे बड़ी बात तो यह है पतलून के ये सभी हिस्से एक साथ ही बुने गए थे, कपड़े में इनके बीच सिलाई या जोड़ का कोई निशान नहीं मिला।

टर्फन पतलून बेहद कामकाजी होने के साथ सुंदर भी बनाई गई थी। जांघ वाले हिस्से की बुनाई में बुनकरों ने सफेद रंग पर भूरे रंग की धारियां बनाने के लिए अलग-अलग रंगों के धागों का बारी-बारी उपयोग किया था। टखनों और पिण्डलियों वाले हिस्सों को ज़िगज़ैग धारियों से सजाया था। इस देखकर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि टर्फनमैन संस्कृति का मेसोपोटामिया के लोगों के साथ कुछ वास्ता रहा होगा।

पतलून के अन्य पहलू आधुनिक कज़ाकस्तान से लेकर पूर्वी एशिया तक के लोगों से संपर्क के संकेत देते हैं। घुटनों पर टेढ़े में बनीं इंटरलॉकिंग टी-आकृतियों का पैटर्न चीन में 3300 साल पुराने एक स्थल से मिले कांसे के पात्रों पर बनी डिज़ाइन और पश्चिमी साइबेरिया में 3800 से 3000 साल पुराने स्थल से मिले मिट्टी के बर्तनों पर बनी डिज़ाइन से मेल खाते हैं। पतलून और ये पात्र लगभग एक ही समय के हैं लेकिन ये एक जगह पर नहीं बल्कि एक-दूसरे से लगभग 3,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे।

पतलून के घुटनों को मज़बूती देने वाली टेपेस्ट्री बुनाई सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी एशिया में विकसित की गई थी। ट्विल तकनीक संभवतः उत्तर-पश्चिमी एशिया में विकसित हुई थी।

दूसरे शब्दों में, पतलून का आविष्कार में हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित संस्कृतियों की विभिन्न बुनाई तकनीकों का मेल है। भौगोलिक परिस्थितियों और खानाबदोशी के कारण यांगहाई, जहां टर्फनमैन को दफनाया गया था, के बुनकरों को इतनी दूर स्थित संस्कृतियों से संपर्क का अवसर मिला होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/i/pix/2014/06/23/article-0-1F0F880E00000578-272_636x382.jpg
https://cdn.arstechnica.net/wp-content/uploads/2022/04/twill-and-twining.jpg

भयावह है वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव – सुदर्शन सोलंकी

93 प्रतिशत भारतीय ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां वायु प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से अधिक है। यह निष्कर्ष अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट द्वारा जारी वार्षिक स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट में शामिल किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार इसके परिणामस्वरूप भारत में औसत आयु लगभग 1.5 वर्ष कम हो गई है।

ऐटमॉस्फेरिक एन्वॉयरमेंट में प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि ब्लैक कार्बन की वजह से समय से पहले मृत्यु हो सकती है। यही नहीं, ब्लैक कार्बन का इंसान के स्वास्थ्य पर अनुमान से कहीं ज़्यादा बुरा असर पड़ता है।

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार, एचएसबीसी बैंक के स्वामित्व व हिस्सेदारी वाली कंपनियों द्वारा निर्मित और नियोजित नए कोयला संयंत्रों से होने वाले वायु प्रदूषण से प्रति वर्ष अनुमानित 18,700 मौतें होंगी। अर्थात इन संयंत्रों से प्रतिदिन 51 लोगों की मौत होने की संभावना होगी। इन कोयला संयंत्रों के कारण प्रति वर्ष भारत में अनुमानित 8300, चीन में 4200, बांग्लादेश में 1200, इंडोनेशिया में 1100, वियतनाम में 580 और पाकिस्तान में 450 मौंतें हो सकती हैं।

एक मनुष्य दिन भर में औसतन 20 हज़ार बार सांस लेता है और इस दौरान औसतन 8000 लीटर वायु अंदर-बाहर करता है। यदि वायु अशुद्ध है या उसमें प्रदूषक तत्वों का समावेश है तो वह सांस के साथ शरीर में पहुंचकर विभिन्न प्रकार से शरीर को प्रभावित करती है और अनेक भयंकर रोगों का कारण बन जाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल 70 लाख लोगों की मृत्यु प्रदूषित हवा के कारण होती है। हेल्‍थ इफेक्‍ट इंस्टीट्यूट के मुताबिक 2015 में भारत में 10 लाख से ज़्यादा असामयिक मौतों का कारण वायु प्रदूषण था। 2019 में वायु प्रदूषण के चलते 18 फीसद मृत्‍यु हुई। इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में वायु-प्रदूषण की वजह से भारत में 16.7 लाख मौतें हुई हैं। अब भी भारत के कई राज्यों में प्रदूषण की समस्या साल भर बनी रहती है।

कणीय पदार्थों (पार्टिकुलेट मैटर, पीएम) से होने वाला वायु-प्रदूषण मुख्यतः जीवाश्म ईंधन के जलने का परिणाम होता है। इसे दुनिया भर में वायु प्रदूषण का सबसे घातक रूप माना जाता है, जो सिगरेट पीने से भी ज़्यादा खतरनाक है।

इतना ही नहीं, वायु प्रदूषण का वनस्पति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जैसे अम्लीय वर्षा, धूम-कोहरा, ओज़ोन, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड इत्यादि पेड़-पौधों को प्रभावित करते हैं। वायु प्रदूषण के कारण पौधों को प्रकाश कम मिलता है जिसके कारण उनकी प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है। अधिक वायु प्रदूषण के क्षेत्र में पौधे परिपक्व नहीं हो पाते, कलियां मुरझा जाती हैं तथा फल भी पूर्ण विकसित नहीं हो पाते।

डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के टॉप 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के हैं। डब्ल्यूएचओ ने अपनी इस रिपोर्ट में कहा है कि इन शहरों में 2.5 माइक्रोमीटर से छोटे कण (पीएम 2.5) की सालाना सघनता सबसे ज़्यादा है। पीएम 2.5 प्रदूषण में शामिल सूक्ष्म तत्व हैं जिन्हें मानव शरीर के लिए सबसे खतरनाक माना जाता है। आइक्‍यू एयर की रिपार्ट के अनुसार वर्ष 2020 में पूरे विश्‍व में सबसे खराब वायु गुणवत्‍ता वाले देशों की सूची में भारत तीसरे नंबर पर था। वहीं हाल में दिल्ली में प्रदूषक पीएम 2.5 का सूचकांक 462 था, जो 50 से भी कम होना चाहिए। ब्रिटेन की राजधानी लंदन में पीएम 2.5 का स्तर 17, बर्लिन में 20, न्यूयार्क में 38  और बीजिंग में 59 है।

डालबर्ग एडवाइज़र के साथ क्लीन एयर फंड और कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने मिलकर काम किया और बताया कि वायु प्रदूषण पर तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता है क्योंकि इसकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था पर काफी प्रभाव पड़ रहा है और स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। डालबर्ग का अनुमान है कि भारत के दिहाड़ी मज़दूर वायु प्रदूषण की वजह से सेहत खराब होने के कारण जो अवकाश लेते हैं उसकी वजह से राजस्‍व में 6 अरब अमरीकी डॉलर का नुकसान होता है। वायु प्रदूषण की वजह से दिहाड़ी मज़दूरों के कार्य करने की क्षमता के साथ उनकी सोचने-समझने की शक्ति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण उनकी श्रम शक्ति भी कम होती है जिससे राजस्‍व 24 अरब डॉलर तक कम हो रहा है।

वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए केन्द्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वायु प्रदूषण सम्बंधी विभिन्न अधिनियम, नियम और अधिसूचनाएं जारी की गई हैं, किंतु विभिन्न शोधों से पता चलता है कि इन सबके बावजूद भी वायु प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में सफलता नहीं मिल पा रही है। प्रदूषण के स्तर में स्थायी कमी लाने के लिए पराली जलाने पर नियंत्रण के साथ ही वाहनों, उद्योग, बिजली संयंत्रों इत्यादि से होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कार्य योजना बनाने और उनके सही से क्रियान्वयन की आवश्यकता है अन्यथा इसके परिणाम भयावह होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.goldenclasses.com/wp-content/uploads/2020/05/images-8.jpeg

मछलियां जोड़ना-घटाना सीख सकती हैं

म धारणा है कि मछलियां जोड़ना-घटाना कैसे करेंगी, क्योंकि उनके पास हमारी तरह जोड़ने-घटाने के साधन (यानी उंगलियां) नहीं हैं। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि वे कम से कम छोटी संख्याओं के साथ ऐसा कर सकती हैं।

मछलियों में जोड़ने-घटाने की क्षमता जांचने के लिए बॉन विश्वविद्यालय की प्राणी विज्ञानी वेरा श्यूसल और उनके साथियों ने हड्डियों वाली सिक्लिड्स (स्यूडोट्रॉफियस ज़ेब्रा) और उपास्थि वाली स्टिंग रे (पोटामोट्रीगॉन मोटरो) को चुना।

प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने एक टैंक में प्रत्येक मछली को 5 तक वर्ग, वृत्त और त्रिभुज की छवियां दिखाईं जो सभी या तो नीले रंग की थीं या पीले रंग की। मछली को इन आकृतियों की संख्या और रंग याद करने के लिए 5 सेकंड का समय दिया गया। फिर टैंक का द्वार खोला गया, जिसमें मछलियों को दो दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था: एक दरवाज़ा वह था जिसमें पहले दिखाई गई आकृतियों से एक अधिक थी जबकि दूसरे दरवाज़े में एक आकृति कम थी।

नियम सरल थे: यदि पहले दिखाई गई आकृतियां नीले रंग की थीं, तो एक अतिरिक्त आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था; और यदि आकृतियां पीले रंग की थीं, तो एक कम आकृति वाला दरवाज़ा चुनना था। सही दरवाज़ा चुनने पर मछलियों को इनाम स्वरूप भोजन मिलता था।

आठ सिक्लिड में से छह और आठ स्टिंग रे में से सिर्फ चार ने सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा किया। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जितनी भी मछलियां परीक्षण के चरण से गुज़रीं उनके प्रदर्शन की व्याख्या मात्र संयोग कहकर नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, परीक्षण में जब मछलियों को तीन नीली आकृतियां दिखाई गईं तो स्टिंग रे और सिक्लिड ने क्रमशः 96 प्रतिशत और 82 प्रतिशत सटीकता से चार आकृति वाला दरवाज़ा चुना। देखा गया कि दोनों प्रजातियों की मछलियों के लिए जोड़ की तुलना में घटाना थोड़ा अधिक कठिन था; बच्चों को भी जोड़ने की अपेक्षा घटाने में कठिनाई होती है।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि मछलियां सिर्फ पैटर्न याद नहीं रख रहीं हैं, शोधकर्ताओं ने अगले परीक्षणों में आकृतियों की संख्या और साइज़ बदल दिए। उदाहरण के लिए एक परीक्षण में, तीन नीली आकृतियां दिखाने पर मछलियों को चार या पांच आकृतियों वाले दरवाज़ों में से एक दरवाज़े को चुनना था – यानी उनके सामने ‘एक जोड़ने’ और ‘एक घटाने’ के विकल्प के अलावा ‘एक जोड़ने’ और ‘दो जोड़ने’ के विकल्प भी थे। देखा गया कि मछलियों ने सिर्फ यह नहीं किया बड़ी संख्या को चुन लें, बल्कि हर बार उन्होंने ‘एक जोड़ने’ वाले निर्देश का पालन किया – यानी मछलियां वांछित सम्बंध समझती हैं।

पहले देखा गया था कि मछलियां छोटी-बड़ी संख्या/मात्रा में अंतर कर पाती हैं। लेकिन यह अध्ययन उससे एक कदम आगे जाता है। सिक्लिड्स और उपास्थि वाली स्टिंग रे विकास में 40 करोड़ वर्ष पहले पृथक हो गई थीं। यानी यह क्षमता उससे पहले विकसित हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.abq3183/abs/_20220331_on_zebrafish.jpg

एक मकबरे के रहस्य की गंध

दो प्राचीन मिस्रवासियों को दफनाने के 3400 से अधिक वर्षों के बाद, उनके साथ दफनाए गए भोजन भरे मर्तबानों से अब तक मीठी गंध आ रही थी। हाल ही में रसायनज्ञों और पुरातत्ववेत्ताओं के दल ने इन गंधों का विश्लेषण करके पता लगाने की कोशिश की है कि इनमें क्या रखा गया था। यह अध्ययन गंध के पुरातत्व के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है।

1906 में लक्सर के निकट दायर अल-मदीना कब्रिस्तान से खा और मेरिट के साबुत मकबरे खोदे गए थे। ‘मुकद्दम’ या वास्तुकार रहे खा और उनकी पत्नी मेरिट का मकबरा मिस्र का अब तक का सबसे पूर्ण गैर-शाही प्राचीन मकबरा है, जो बताता है कि मृत्यु के बाद उच्च वर्ग के लोगों के साथ क्या किया जाता था। इस मकबरे में अद्भुत चीज़ों का संग्रह है। यहां तक कि मकबरे में खा के लिनेन के अंत:वस्त्र भी हैं, जिन पर उसके नाम की कढ़ाई की गई है।

लेकिन खुदाई के समय मकबरे की खोज करने वाले पुरातत्वविदों ने ममियों को खोलने या उनके साथ दफन सीलबंद सुराही, मर्तबान और जग को खोलने से खुद को रोके रखा, यहां तक कि इन्हें इटली के मिस्री संग्रहालय में रखे जाने के बाद भी इनका अध्ययन नहीं किया। इनमें से कई पात्रों में क्या रखा था/है यह अब भी रहस्य है। हालांकि इनमें क्या होगा इसके कुछ संकेत मिलते हैं। एक मत है कि इनमें से कुछ पात्रों में फलों की महक थी।

महक के विश्लेषण के लिए युनिवर्सिटी ऑफ पीसा की रसायनज्ञ इलारिया डिगानो और उनके साथियों ने सीलबंद मर्तबान और प्राचीन भोजन के अवशेष लगी कड़छी सहित विभिन्न वस्तुओं को प्लास्टिक की थैलियों में बंद करके रखा ताकि इनमें से निकलने वाले वाष्पशील अणुओं को इकट्ठा किया जा सके। प्राप्त नमूनों का मास स्पेक्ट्रोमेट्री अध्ययन करने पर एल्डिहाइड और लंबी शृंखला वाले हाइड्रोकार्बन मिले, जो इनमें मधुमक्खी के छत्ते का मोम होने का संकेत देते हैं; ट्राइमेथिलअमीन मिला जो सूखी मछली की उपस्थिति दर्शाता है; और फलों में आम तौर पर मौजूद अन्य एल्डिहाइड मिले। इन नतीजों को मकबरे से मिली सामग्रियों के पुन:विश्लेषण करने की एक बड़ी परियोजना में शामिल किया जाएगा, जिससे खा और मेरिट के काल में (तुतनखामुन के तख्तनशीं होने से लगभग 70 साल पहले) गैर-शाही लोगों को दफनाने के रीति-रिवाजों की एक अधिक व्यापक तस्वीर मिलेगी।

वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि सुगंधित यौगिकों ने प्राचीन मिस्र के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। वर्ष 2014 में, शोधकर्ताओं ने 6300 और 5000 साल पुरानी लिनेन की पट्टियों से वाष्पशील अणु प्राप्त किए थे। इन पट्टियों का उपयोग मिस्र के कुछ सबसे प्राचीन ज्ञात कब्रिस्तानों के शवों को लपेटने के लिए किया गया था। इन अणुओं से जीवाणुरोधी गुणों वाले लेप की उपस्थिति की पुष्टि हुई थी, अर्थात मिस्र के लोग अनुमान से लगभग 1500 साल पहले से ममीकरण का प्रयोग कर रहे थे।

लेकिन अब भी पुरातत्व में गंध विश्लेषण पर इतना काम नहीं हो रहा है। पुरावेत्ताओं द्वारा वाष्पशील अणुओं/यौगिकों को यह मानकर नज़रअंदाज़ किया जाता है कि ये तो उड़ गए होंगे। लेकिन प्राचीन मिस्रवासियों को अच्छे से समझने के लिए गंध की दुनिया में उतरना होगा। उदाहरण के लिए, यही देखें कि सुगंधित रेज़िन (राल) से प्राप्त सुगंधित धूप/अगरबत्ती प्राचीन मिस्रवासियों के लिए अहम थी। उनके धार्मिक अनुष्ठानों और अंतिम संस्कार की कुछ रस्मों में धूप/अगरबत्ती अवश्य होती थी। चूंकि मिस्र में राल पैदा करने वाले पेड़ नहीं उगते थे, इसलिए सुंगधित राल प्राप्त करने के लिए वे लंबी दूरी तय करते होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-022-00903-z/d41586-022-00903-z_20270360.jpg

कोविड से मधुमेह के जोखिम में वृद्धि

हाल ही में दो लाख लोगों पर किए गए एक व्यापक अध्ययन से पता चला है कि सार्स-कोव-2 से संक्रमित लोगों में मधुमेह का जोखिम काफी बढ़ जाता है। दी लैंसेट डायबिटीज़ एंड एंडोक्रायनोलॉजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार मधुमेह का जोखिम कोविड-19 से संक्रमित होने के कई महीनों बाद विकसित हो सकता है।

मिसौरी स्थित सेंट लुइस हेल्थकेयर सिस्टम के वेटरन्स अफेयर्स (वीए) के शोधकर्ता ज़ियाद अल-अली और उनके सहयोगी यान ज़ी ने 1,80,000 से अधिक ऐसे लोगों के मेडिकल रिकॉर्ड का अध्ययन किया जो कोविड-19 से पीड़ित होने के बाद कम से कम एक महीने से अधिक समय तक जीवित रहे थे। इसके बाद उन्होंने इन रिकॉर्ड्स की तुलना दो समूहों (तुलना समूहों) से की जिनमें प्रत्येक समूह में सार्स-कोव-2 से असंक्रमित लगभग 40-40 लाख लोग शामिल थे। ये वे लोग थे जिन्होंने या तो महामारी के पहले या फिर महामारी के दौरान बुज़ुर्ग स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का उपयोग किया था। इस नए विश्लेषण के अनुसार तुलना समूह के वृद्ध लोगों की तुलना में संक्रमित लोगों में एक वर्ष बाद तक मधुमेह विकसित होने की संभावना लगभग 40 प्रतिशत अधिक थी। लगभग सभी मामलों में टाइप-2 मधुमेह पाया गया जिसमें शरीर या तो इंसुलिन के प्रति संवेदी नहीं रहता या पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं कर पाता।

जिन लोगों में संक्रमण हल्का था और पूर्व में मधुमेह का कोई जोखिम नहीं था उनमें भी मधुमेह विकसित होने की संभावना बढ़ गई थी लेकिन रोग की बढ़ती गंभीरता के साथ मधुमेह विकसित होने की संभावना भी अधिक होती है। अस्पताल या आईसीयू में भर्ती लोगों में तो मधुमेह का जोखिम तीन गुना अधिक पाया गया। मोटापे और टाइप-2 मधुमेह के जोखिम वाले लोगों में संक्रमण के बाद मधुमेह विकसित होने का जोखिम दुगने से अधिक हो गया।

देखा जाए तो कोविड-19 से पीड़ित लोगों की बड़ी संख्या (विश्व में 48 करोड़) के चलते मधुमेह के जोखिम में मामूली-सी वृद्धि से भी मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या में भारी वृद्धि हो सकती है।

वैसे ज़रूरी नहीं कि ये निष्कर्ष अन्य समूहों पर भी लागू हों। जैसे, युनिवर्सिटी ऑफ वोलोन्गोंग (ऑस्ट्रेलिया) के महामारी विज्ञानी गीडियोन मेयेरोविट्ज़-काट्ज़ के अनुसार इस अध्ययन में शामिल किए गए अमरीकियों में अधिकांश वृद्ध, श्वेत पुरुष थे जिनका रक्तचाप अधिक था और वज़न भी अधिक था जिसके कारण उनमें मधुमेह का खतरा भी अधिक था।

फिलहाल यह पक्का नहीं कहा जा सकता कि मधुमेह के बढ़े हुए जोखिम का कारण सार्स-कोव-2 संक्रमण ही है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार कोविड-19 से उबरने वाले लोगों में मधुमेह में वृद्धि के अन्य कारक भी हो सकते हैं। जैसे, संभव है कि जब तक लोगों ने कोविड-19 के लिए स्वास्थ्य सेवा की मांग न की हो तब तक उनमें मधुमेह की उपस्थिति का पता ही न चला हो।

गौरतलब है कि महामारी की शुरुआत में ही शोधकर्ताओं ने युवाओं और बच्चों की रिपोर्टों के आधार पर बताया था कि अन्य वायरसों की तरह सार्स-कोव-2 भी पैंक्रियाज़ की इंसुलिन का उत्पादन करने वाली कोशिकाओं को क्षति पहुंचा सकता है। जो टाइप-1 मधुमेह का कारण बनता है। अध्ययनों में ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं जो यह साबित कर सके कि सार्स-कोव-2 युवाओं और बच्चों में टाइप-1 मधुमेह में वृद्धि का कारण बन रहा है। वैसे एक प्रयोगशाला अध्ययन ने सार्स-कोव-2 द्वारा इंसुलिन उत्पादन करने वाली पैंक्रियाज़ कोशिकाओं को नष्ट करने के विचार को भी चुनौती दी है।

एक सवाल यह है कि क्या कोविड-19 से ग्रसित लोगों में एक वर्ष के बाद भी चयापचय सम्बंधी परिवर्तन बने रहेंगे। विशेषज्ञों का मत है कि मधुमेह के शुरू होने के रुझानों का और अधिक अध्ययन ज़रूरी है ताकि यह समझा जा सके कि ऐसा किन कारणों से हो रहा है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://inteng-storage.s3.amazonaws.com/img/iea/jg6P5Pvgwx/sizes/diabetes-risk_md.jpg

गंधबिलाव का क्लोन अपनी प्रजाति को बचाएगा

म्मीद है कि इस वर्ष कोलोरेडो स्थित नेशनल ब्लैक-फुटेड फेरेट कंज़र्वेशन सेंटर द्वारा विकसित काले पैरों वाले गंधबिलाव का एकमात्र क्लोन प्रजनन करके अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा लेगा।

काले पैरों वाला गंधबिलाव (मुस्टेला निग्रिप्स) आधा मीटर लंबे और छरहरे शरीर वाला शिकारी जानवर है, जिसके शिकार प्रैरी (घास के मैदान) के कुत्ते हुआ करते थे। लेकिन 1970 के दशक तक पशुपालकों, किसानों और अन्य लोगों द्वारा प्रैरी कुत्तों की कॉलोनियों को बड़े पैमाने पर तहस-नहस करने के कारण गंधबिलाव की आबादी खतरे में पड़ गई। तब ज्ञात गंधबिलाव की अंतिम कॉलोनी के भी लुप्त हो जाने पर कुछ जीव विज्ञानियों ने मान लिया था कि यह प्रजाति विलुप्त हो गई है। लेकिन 1981 के अंत में तकरीबन 100 गंधबिलाव मिले। लेकिन कुछ ही वर्षों में वे भी संकट में पड़ गए और मात्र कुछ दर्जन गंधबिलाव ही बचे रह गए। फिर 1985 में, संरक्षित माहौल में प्रजनन कराने की पहल की गई। इसके लिए 18 गंधबिलावों को संरक्षित स्थलों पर रखा गया लेकिन प्रजनन के लिए केवल सात ही गंघबिलाव बच सके। इससे उनमें अंतःप्रजनन का खतरा पैदा गया।

कुछ समय पहले संरक्षण के लिहाज़ से ही गंधबिलाव का क्लोन तैयार किया गया था। 14 महीने का यह क्लोन गंधबिलाव एक मादा है जिसे एलिज़ाबेथ एन नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों की योजना इस वसंत में एलिज़ाबेथ एन के प्रजनन की है।

हालांकि एलिज़ाबेथ एन भी शत-प्रतिशत काले पैरों वाली गंघबिलाव नहीं है। दरअसल जिस तरीके (कायिक कोशिका नाभिक स्थानांतरण) से एलिज़ाबेथ एन को विकसित किया गया है उसमें एक पालतू गंघबिलाव का उपयोग सरोगेट मां के रूप में किया गया था। इस प्रक्रिया में क्लोन संतानों में मां (पालतू गंघबिलाव) का माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए आ जाता है। पालतू गंधबिलाव से आए इस जीन को हटाने के लिए वैज्ञानिकों की योजना (यदि क्लोन से सफल प्रजनन हो सका तो) एलिज़ाबेथ एन की नर संतान और काले पैरों वाली मादा गंघबिलाव के प्रजनन की है।

बहरहाल, यदि एलिज़ाबेथ एन क्लोन का प्रजनन सफल रहता है तो यह अन्य जोखिमग्रस्त जानवरों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर देगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह प्रक्रिया बहुत मंहगी है, इसमें नैतिक समस्याएं हैं और इसका उपयोग सीमित है। इसके अलावा यह जानवरों के प्राकृतवासों के विनाश सम्बंधी मुद्दे से भी ध्यान हटा सकता है, जो वास्तव में जंतु विलुप्ति का एक प्रमुख कारण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ada0073/full/_20220114_nf_elizabethann.jpg

कैंसर वैज्ञानिक डॉ. कमल रणदिवे – नवनीत कुमार गुप्ता

बायोमेडिकल शोधकर्ता के रूप में मशहूर डॉ. कमल जयसिंह रणदिवे को कैंसर पर शोध के लिए जाना जाता है। उन्होंने कैंसर और वायरसों के सम्बंधों का अध्ययन किया था। 8 नवंबर 1917 को पुणे में जन्मीं कमल रणदिवे आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

उनके पिता दिनेश दत्तात्रेय समर्थ पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रोफेसर थे और चाहते थे कि घर के सभी बच्चों, खासकर बेटियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले। कमल ने हर परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। कमल के पिता चाहते थे कि वे चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करे और उनकी शादी किसी डॉक्टर से हो। लेकिन कमल की जीव विज्ञान के प्रति अधिक रुचि थी। माता शांताबाई भी हमेशा उनको प्रोत्साहित करती थीं।

कमल ने फर्ग्यूसन कॉलेज से जीव विज्ञान में बीएससी डिस्टिंक्शन के साथ पूरी की। पुणे के कृषि कॉलेज से स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1939 में गणितज्ञ जे. टी. रणदिवे से विवाह किया। जे. टी. रणदिवे ने उनकी पोस्ट ग्रोजुएशन की पढ़ाई में बहुत मदद की थी। उच्च अध्ययन के लिए वे विदेश भी गईं। उन्हें बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यूएसए में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में फेलोशिप मिली थी।

फेलोशिप के बाद, वे मुंबई और भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (आईसीआरसी) लौट आईं, जहां उन्होंने देश की पहली टिशू कल्चर लैब की स्थापना की। 1949 में, आईसीआरसी में एक शोधकर्ता के रूप में काम करते हुए, उन्होंने कोशिका विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। बाद में आईसीआरसी की निदेशक और कैंसर के लिए एनिमल मॉडलिंग की अग्रणी के तौर पर डॉ. रणदिवे ने कई शोध किए। उन्होंने कार्सिनोजेनेसिस, सेल बायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी में नई शोध इकाइयों की स्थापना में अहम भूमिका निभाई।

डॉ. रणदिवे की शोध उपलब्धियों में जानवरों के माध्यम से कैंसर की पैथोफिज़ियोलॉजी पर शोध शामिल है, जिससे ल्यूकेमिया, स्तन कैंसर और ग्रसनी कैंसर जैसी बीमारियों के कारणों को जानने का प्रयास किया। उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि कैंसर, हार्मोन और ट्यूमर वायरस के बीच सम्बंध स्थापित करना था। स्तन कैंसर और जेनेटिक्स के बीच सम्बंध का प्रस्ताव रखने वाली वे पहली वैज्ञानिक थीं। कुष्ठ जैसी असाध्य मानी जाने वाली बीमारी का टीका भी डॉ. रणदिवे के शोध की बदौलत ही संभव हुआ।

उनका मानना था कि जो वैज्ञानिक पोस्ट-डॉक्टरल कार्य के लिए विदेश जाते हैं, उन्हें भारत लौटकर अपने क्षेत्र से सम्बंधित प्रयोगशालाओं में अनुसंधान के नए आयामों का विकास करना चाहिए। उनके प्रयासों से उनके कई साथी भारत लौटे, जिससे आईसीआरसी कैंसर अनुसंधान का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया।

डॉ. रणदिवे भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ (IWSA) की प्रमुख संस्थापक सदस्य भी थीं। भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ विज्ञान में महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और चाइल्डकेयर सम्बंधी सुविधाओं के लिए प्रयासरत संस्थान है। वर्ष 2011 में गूगल ने उनके 104वें जन्मदिन के अवसर पर उन पर डूडल बनाया था। 1982 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। अपने उल्लेखनीय कैंसर अनुसंधान के अलावा, रणदिवे को विज्ञान और शिक्षा के माध्यम से अधिक समतामूलक समाज बनाने के लिए समर्पण के लिए जाना जाता है। 11 अप्रैल 2001 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके पति जे. टी. रणदिवे ने मृत्यु तक उनके कार्यों में उनका सहयोग किया। उन दोनों का जीवन शोध कार्यों में एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने वाला रहा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2021/11/Capture-2.jpg

नदियों में बढ़ता प्रदूषण – सुदर्शन सोलंकी

विश्व के अधिकांश भागों में पीने का पानी और घरेलू उपयोग के लिए पानी नदियों से मिलता है। एशिया में गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कावेरी, नर्मदा, सिंघु, यांगत्सी नदियां, अफ्रीका में नील, नाइजर, कांगो, जम्बेजी नदियां, उत्तरी अमेरिका में हडसन, मिसिसिपी, डेलावेयर, मैकेंज़ी नदियां, दक्षिणी अमेरिका में अमेज़न नदी, युरोप में वोल्गा, टेम्स एवं ऑस्ट्रेलिया में मरे व डार्लिंग विश्व की प्रमुख नदियां हैं।

नदियां न केवल लोगों की प्यास बुझाती हैं, बल्कि आजीविका का उत्तम साधन भी होती हैं। उद्योगों और सिंचाई हेतु जल प्रमुख रूप से नदियों से लिया जाता है। नदियां न सिर्फ जल की पूर्ति करती हैं बल्कि घरेलू एवं औद्योगिक गंदे व अवशिष्ट पानी को भी अपने साथ बहाकर ले जाती हैं। नदियों पर बांध बनाकर बिजली प्राप्त की जाती है। नदियों से मत्स्य पालन जैसे कई लाभ हो रहे हैं। नदियों से पर्यटन उद्योग को भी बढ़ावा मिलता है। नदियां धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक के अलावा स्वास्थ्य, कृषि, व्यापार, पर्यटन, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यावरण जैसे कई क्षेत्रों से सम्बंध रखती है। पारिस्थितिक तंत्र और भूजल स्तर को बनाए रखने में भी नदियां अहम योगदान देती हैं।

हमारे देश में आज शायद ही ऐसी कोई नदी हो जो प्रदूषण से मुक्त हो। नदियों में प्रदूषण के कारण जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव हो रहा है। नदियों पर न केवल प्रदूषण का बल्कि इसके मार्ग में बदलाव, बालू खनन, खत्म होती जैव विविधता और जलग्रहण क्षेत्र के खत्म होने का भी असर हो रहा है। नदियों के अलावा अन्य खुले जलाशय जैसे झील, तालाब आदि में अतिक्रमण हुआ है। कई नदियां और सतही जल स्रोत सीवेज और कूड़े का डंपिंग ग्राउंड बन गए हैं।

हाल ही में नदियों में विभिन्न प्रकार की दवाइयों का प्रदूषण पाया गया है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दवा उद्योग विश्व की लगभग हर नदी के पानी को प्रदूषित कर रहा है। भारत में यमुना व कृष्णा सहित देश की विभिन्न नदियों में इस तरह का प्रदूषण पाया गया है। विभिन्न सरकारी परियोजनाओं के बाद भी गंगा व अन्य नदियों में प्रदूषण को लेकर कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिला है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है। सीपीसीबी की एक रिपोर्ट के अनुसार “देश की 323 नदियों के 351 हिस्से प्रदूषित हैं।” 17 प्रतिशत जल राशियां गंभीर रूप से प्रदूषित हैं। उत्तराखंड से गंगा सागर तक करीब 2500 किलोमीटर की यात्रा तय करने वाली गंगा 50 स्थानों पर प्रदूषित है।

सीपीसीबी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 36 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में से 31 में नदियों का प्रवाह प्रदूषित है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 53 प्रदूषित प्रवाह हैं। इसके बाद असम, मध्यप्रदेश, केरल, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, गोवा, उत्तराखंड, मिज़ोरम, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर, तेलंगाना, मेघालय, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, तमिलनाडु, नगालैंड, बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, सिक्किम, पंजाब, राजस्थान, पुडुचेरी, हरियाणा और दिल्ली हैं।

सीपीसीबी की एक रिपोर्ट में प्रदूषण के लिए घरेलू सीवरेज, साफ-सफाई की अपर्याप्त सुविधाएं, खराब सेप्टेज प्रबंधन और गंदा पानी तथा साफ-सफाई के लिए नीतियों की गैर-मौजूदगी को ज़िम्मेदार माना गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://im.indiatimes.in/media/content/2019/Jul/water_pollution_1563272220_725x725.jpg