शोधकर्ता कैंसर कोशिकाओं की निशानदेही करने के तरीके ईजाद करने में लगे हैं। कैंसर के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय या शुरू करने वाली दवाइयां इसमें काफी प्रभावी हो सकती हैं, लेकिन वे उन ट्यूमर पर सबसे अच्छा काम करती हैं जिनमें सबसे अधिक उत्परिवर्तन होते हैं। इसी तथ्य के आधार पर कैंसर उपचार का एक विवादास्पद समाधान सामने आया है: कीमोथेरेपी की मदद से जानबूझकर ट्यूमर में और उत्परिवर्तन कराए जाएं और इस तरह ट्यूमर को प्रतिरक्षा प्रणाली के हमले के प्रति अधिक संवेदी बनाया जाए।
पूर्व में प्रयोगशाला अध्ययनों और छोटे स्तर पर किए गए क्लीनिकल परीक्षणों में देखा गया है कि यह रणनीति मददगार हो सकती है। लेकिन कुछ कैंसर शोधकर्ता ऐसे सोद्देश्य उत्परिवर्तन करवाने को लेकर आशंकित हैं। उनका कहना है कि जानवरों पर हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसा करने से फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है।
देखा गया है कि कुछ दवाइयां (चेकपॉइंट अवरोधक) उस आणविक अवरोधक को हटा देती हैं जो टी कोशिका (एक किस्म की प्रतिरक्षा कोशिका) को ट्यूमर पर हमला करने से रोकते हैं। ये दवाइयां धूम्रपान की वजह से हुए फेफड़ों के कैंसर और मेलेनोमा (एक तरह का त्वचा कैंसर) जैसे कैंसर पर सबसे अच्छी तरह काम करती हैं। ये कैंसर पराबैंगनी प्रकाश के प्रभाव से पैदा होने वाले उत्परिवर्तनों को संचित करते रहते हैं। इनमें से कई जेनेटिक परिवर्तन कोशिकाओं को नव-एंटीजन बनाने को उकसाते हैं (नव-एंटीजन ट्यूमर कोशिकाओं पर नए प्रोटीन चिन्ह होते हैं) जो टी कोशिकाओं को ट्यूमर कोशिका को पहचानने में मदद करते हैं।
कैंसर कोशिकाओं को अधिक नव-एंटीजन बनाने को मजबूर करने से इम्यूनोथेरेपी में मदद मिल सकती है, इस विचार की जड़ें ऐसे ट्यूमर के अध्ययन में है जिनमें डीएनए की मरम्मत करने वाले तंत्रों में गड़बड़ी होती है। देखा गया कि ये कैंसर कोशिकाएं कई उत्परिवर्तन जमा करती जाती हैं। वर्ष 2015 में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (अब मेमोरियल स्लोअन केटरिंग कैंसर सेंटर में हैं) के लुइस डियाज़ ने बताया था कि चेकपॉइंट औषधियां ऐसे कई ट्यूमर्स पर काफी कारगर हैं जिनमें ‘बेमेल’ डीएनए मरम्मत तंत्र में गड़बड़ी होती है।
ट्यूरिनो विश्वविद्यालय के कैंसर आनुवंशिकीविद अल्बर्टो बार्डेली और साथियों ने ट्यूमर-ग्रस्त चूहों में मरम्मत करने वाले जीन को निष्क्रिय करके देखा। नेचर (2017) में उन्होंने बताया था कि इस जीन को निष्क्रिय करने से कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में ज़्यादा त्रुटियां होने लगीं और चेकपॉइंट अवरोधकों की प्रभाविता में वृद्धि हुई।
उसके बाद मनुष्यों पर हुए दो और परीक्षणों में इसी तरह के प्रभाव देखे गए। एक अध्ययन में आंत के कैंसर पर काम किया गया। इसमें बहुत कम उत्परिवर्तन होते हैं, और इसलिए यह चेकपॉइंट अवरोधक दवाओं के प्रति संवेदी नहीं होता। इस तरह के कैंसर से पीड़ित 33 लोगों को कीमोथेरेपी की मानक औषधि टेमोज़ोलोमाइड दी गई। यह दवा विकृत या परिवर्तित जीन की मरम्मत नहीं होने देती। पाया गया कि सिर्फ कीमोथेरेपी करने से आठ लोगों का ट्यूमर कम हो गया था, लेकिन कीमोथेरेपी के बाद अन्य सात लोगों का ट्यूमर चेकपॉइंट अवरोधक दिए जाने के बाद कम हुआ। शोधकर्ताओं ने जर्नल ऑफ क्लीनिकल ओन्कोलॉजी में बताया था कि सभी लोगों में ट्यूमर की वृद्धि औसतन 7 महीने तक रुकी रही।
एक अन्य अध्ययन में देखा गया कि 16 में से 14 रोगियों और चार अन्य रोगियों, जिनके ट्यूमर की बायोप्सी का विश्लेषण किया गया था, में टेमोज़ोलोमाइड ने उत्परिवर्तन को प्रेरित किया था।
डियाज़ की दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्या ट्यूमर में कोई खास उत्परिवर्तन करवाने से और भी बेहतर असर होता है। खास तौर से उनकी टीम की दिलचस्पी ऐसे उत्परिवर्तन में थी जो किसी कोशिका प्रोटीन निर्माण मशीनरी द्वारा मैसेंजर आरएनए (mRNA) के पढ़ने/समझने में बदलाव कर दे। इस तरह का उत्परिवर्तन सम्बंधित प्रोटीन के कई अमीनो एसिड्स को बदल सकता है, जो उसे प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए और अधिक पराया बना देता है।
डियाज़ और उनके साथियों ने कैंसर कोशिकाओं पर टेमोज़ोलोमाइड के साथ एक अन्य कीमोथेरेपी दवा सिसप्लैटिन का परीक्षण किया और पाया कि दोनों में से एक ही दवा देने की तुलना में इन दोनों दवाओं के मिले-जुले उपयोग ने हज़ार गुना अधिक उत्परिवर्तन किए। जब इन दोनों दवाओं के संयोजन से उपचारित कैंसर कोशिकाओं को चूहों में प्रविष्ट कराया गया तो चेकपाइंट दवा देने के बाद परिणामी ट्यूमर गायब हो गया।
शोधकर्ता अब आंत के मेटास्टेटिक ट्यूमर से पीड़ित लोगों को चेकपॉइंट दवा देने के पहले टेमोज़ोलोमाइड और सिसप्लैटिन का मिश्रण दे रहे हैं। पहले 10 रोगियों में से दो रोगियों के रक्त में ट्यूमर कोशिका द्वारा स्रावित डीएनए में अपेक्षाकृत अधिक उत्पर्वतन दिखे और ट्यूमर बढ़ना बंद हो गया। नतीजे शुरुआती हैं लेकिन परिणाम आशाजनक लगते हैं।
फिर भी, जोखिम तो हो ही सकता है: कीमोथेरेपी दवाएं रोगी की स्वस्थ कोशिकाओं में भी उत्परिवर्तन पैदा कर सकती हैं। वैसे शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दवा से उपचारित करने के बाद चूहों में ऐसा नहीं हुआ।
कुछ शोधकर्ताओं को चिंता है कि यह तरीका उल्टा भी पड़ सकता है। उनका कहना है कि विविध कोशिकाओं से बने ट्यूमर की तुलना में एकदम एक-समान या चंद हू-ब-हू कोशिकाओं (क्लोन) से बने ट्यूमर चेकपॉइंट अवरोधक दवाओं के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया देते हैं। डर है कि अधिक उत्परिवर्तन ट्यूमर में नए क्लोन बनाएंगे और टी कोशिकाओं के प्रभाव को कम कर देंगे। 2019 में हुए एक अध्ययन में देखा गया था कि चूहों के मेलेनोमा ट्यूमर में अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश की मदद से उत्परिवर्तन करने पर कैंसर कोशिकाओं की विविधता में वृद्धि ने चेकपॉइंट अवरोधकों की प्रतिक्रिया में बाधा उत्पन्न की थी।
इस पर बार्डली का कहना है कि अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश से हुए उत्परिवर्तन टेमोज़ोलोमाइड से हुए उत्परिवर्तन की तुलना में प्रतिरक्षा तंत्र को कम उकसाते हैं। और शोधकर्ताओं का तर्क है कि दो औषधियों का मिश्रण देने से नव-एंटीजन की संख्या काफी अधिक होगी जो ट्यूमर की आनुवंशिक विविधता के असर को कम कर देगी।
बहरहाल, बार्डली और डियाज़ की तैयारी कैंसर औषधि निर्माण की है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.abq6135/abs/_20220418_on_sciencesource_ss21241831.jpg
हाल ही जिनेटिक रूप से परिवर्तित (जिरूप) मच्छरों को खुले में छोड़ने के परिणाम प्रकाशित हुए हैं। उद्देश्य इन मच्छरों की मदद से वायरस-वाहक जंगली मच्छरों की आबादी को कम करना है। प्रारंभिक परिणाम तो सकारात्मक हैं लेकिन व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है।
प्रयोग फ्लोरिडा के दक्षिणी हिस्से के उष्णकटिबंधीय द्वीपों पर किया गया। इन मच्छरों को तैयार करने वाली कंपनी ऑक्सीटेक द्वारा सात महीनों के दौरान लगभग 50 लाख जिरूप एडीज़ एजिप्टी मच्छर इन स्थलों पर छोड़े गए और लगातार निगरानी की गई। ऑक्सीटेक ने 6 अप्रैल को आयोजित एक वेबिनार में ये परिणाम साझा किए हैं लेकिन अभी तक कोई डैटा प्रकाशित नहीं किया है।
गौरतलब है कि जंगली एडीज़ एजिप्टी मच्छर चिकनगुनिया, डेंगू, ज़ीका और पीतज्वर जैसे वायरसों का वाहक है। इसलिए वैज्ञानिक उनकी आबादी को कम करने के तरीकों की तलाश में हैं। ऑक्सीटेक द्वारा तैयार किए गए नर मच्छरों में एक ऐसा जीन डाला गया है जो उनकी मादा संतानों के लिए घातक होता है। इन्हें खुले में छोड़ने पर ये आम मादा मच्छरों के साथ संभोग करेंगे और नतीजे में पैदा होने वाली मादा संतानें प्रजनन करने से पहले ही मर जाएंगी। नर संतानों में यह जीन रहेगा और वे आने वाली लगभग आधी पीढ़ी में इसे पहुंचा देंगे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह जीन मादा मच्छरों की जान लेता रहेगा। यह तो हुई सिद्धांत की बात।
इस सैद्धांतिक योजना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने जिरूप मच्छरों के अंडों को कुछ बक्सों में रखा और उनके आसपास कुछ ट्रैप्स तैयार किए जो 400 मीटर से अधिक दायरे को कवर करते थे। कुछ ट्रैप्स मुख्य रूप से अंडे देने की जगह के रूप में काम करते थे और अन्य वयस्क मच्छरों को पकड़ने में मदद करते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि बक्सों में पैदा होकर निकलने वाले नर मच्छर, जो काटते नहीं हैं, चारों ओर एक हैक्टर के क्षेत्र में फैल गए जो जंगली एडीज़ एजिप्टी की सामान्य सीमा है।
इसके बाद इन नर मच्छरों ने उस क्षेत्र की जंगली आबादी के साथ संभोग किया और मादा मच्छरों ने इन ट्रैप्स के अलावा गमलों, कूड़ेदानों और सॉफ्ट-ड्रिंक के कैन में भी अंडे दिए।
शोधकर्ताओं द्वारा इन ट्रैप्स से 22,000 से अधिक अंडे एकत्रित किए गए और उनसे निकलने वाली संतानों का अध्ययन किया गया। वे सभी मादा मच्छर वयस्क होने से पहले ही मर गई जिनमें घातक जीन था। इसके अलावा, यह घातक जीन जंगली आबादी में दो से तीन महीने यानी मच्छरों की लगभग तीन पीढ़ियों तक बने रहने के बाद स्वत: गायब हो गया। टीम ने यह भी पाया कि मच्छरों को छोड़ने के स्थान से 400 मीटर से अधिक दूर घातक जीन युक्त कोई मच्छर नहीं मिला।
फिलहाल ऑक्सीटेक कंपनी इस अध्ययन को और अधिक विस्तृत करने की योजना बना रही है। इसके लिए राज्य नियामकों से अनुमोदन की आवश्यकता होगी। कैलिफोर्निया के विसालिया क्षेत्र में भी इस तरह का अध्ययन करने की योजना बनाई जा रही है।
ये अध्ययन इस बात का आकलन नहीं कर पाएंगे कि यह विधि एडीज़ एजिप्टी द्वारा संचारित वायरस को किस हद तक कम करती है। जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का भी आकलन नहीं हो सकेगा क्योंकि जिस क्षेत्र में अध्ययन किया गया है वहां एडीज़-संचारित वायरल संक्रमण काफी कम है। इसके लिए कंपनी को किसी दूसरे क्षेत्र में नियंत्रित परीक्षण करना होगा। वैसे ज़रूरी नहीं कि एडीज़ एजिप्टी की आबादी को कम करके बीमारी के प्रकोप को रोका जा सकेगा। फ्लोरिडा के इस क्षेत्र में एडीज़ एजिप्टी की आबादी मच्छरों की आबादी का मात्र 4 प्रतिशत है जबकि 80 प्रतिशत ऐसी प्रजातियां हैं जो रोग वाहक तो नहीं हैं लेकिन अधिक परेशान करती हैं।
गौरतलब है कि 2017 में भी एडीज़ एजिप्टी मच्छरों की आबादी को कम करने के लिए नर मच्छरों को एक बैक्टीरिया से संक्रमित किया गया था। प्रयोगशाला में तैयार किए गए इन नर मच्छरों से संभोग करने पर मादा मच्छरों के अंडों से लार्वा नहीं निकलते। ऑक्सीटेक ने इसी काम के लिए जिनेटिक परिवर्तन का सहारा लिया है। प्रयोग के वास्तविक असर तो काफी अध्ययनों के बाद ही स्पष्ट होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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यह बात आम तौर मानी जाती है कि हरकारे कबूतर (होमिंग पिजन) एक बार जिस रास्ते को अपनाते हैं, उसे याद रखते हैं। अब एक अध्ययन ने दर्शाया है कि ये कबूतर अपना रास्ता 4 साल बाद भी नहीं भूलते।
देखा जाए तो मनुष्यों से इतर जंतुओं में याददाश्त का परीक्षण करना टेढ़ी खीर है। और यह पता करना तो और भी मुश्किल है कि कोई जंतु किसी जानकारी को याददाश्त में दर्ज करने के कितने समय बाद उसका उपयोग कर सकता है। प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित शोध पत्र में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्राणि विज्ञानी डोरा बायरो और उनके साथियों ने घरेलू होमिंग पिजन्स के इस तरह के अध्ययन की जानकारी देते हुए बताया है कि याददाश्त दर्ज करने और पुन:उपयोग करने के बीच 4 साल तक अंतराल हो सकता है।
बायरो और उनके साथियों ने इसके लिए 2016 में किए गए एक प्रयोग के आंकड़ों की मदद ली। 2016 के प्रयोग में इन कबूतरों को रास्ते सिखाए गए थे। इन कबूतरों ने ये रास्ते या तो अकेले उड़ते हुए सीखे थे या साथियों के साथ। कभी-कभी साथी ऐसे होते थे जिन्हें रास्ता पता होता था या कभी-कभी साथी भी अनभिज्ञ होते थे। तो इन कबूतरों ने अपनी अटारी से लेकर करीब 6.8 किलोमीटर दूर स्थित एक खेत तक का अपना रास्ता 2016 में स्थापित किया था।
2019 और 2020 में बायरो की टीम ने इन कबूतरों का अध्ययन किया। इनकी पीठ पर जीपीएस उपकरण लगा दिए गए और इन्हें उसी खेत से छोड़ दिया गया। कुछ कबूतर अपने कुछ लैंडमार्क्स को चूके ज़रूर लेकिन अधिकांश ने इस यात्रा में लगभग ठीक वही रास्ता पकड़ा, जो उन्होंने 2016 में इस्तेमाल किया था। और तो और, 3-4 साल के इस अंतराल में ये कबूतर उस स्थल पर दोबारा गए भी नहीं थे।
शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कबूतर ने 2016 में वह रास्ता अकेले उड़कर तय किया था या झुंड में। लेकिन 2016 के प्रयोग में शामिल कबूतरों का प्रदर्शन अन्य ऐसे कबूतरों से बेहतर रहा जो 2016 की उड़ान में शरीक नहीं थे।
कई शोधकर्ताओं का मानना है कि यह अध्ययन संज्ञान के मामले में मानव-केंद्रित नज़रिए को थोड़ा शिथिल करने में मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)
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बीते दिनों गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में आसमान से आग के गोले गिरते दिखाई दिए थे। कई जगह पर ठोस रूप में इन्हें धरती पर गिरते हुए भी देखा गया। इस तरह की आसमानी घटनाओं के संदर्भ में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अंतरिक्ष का कचरा या मलबा हो सकता है। अगर यह मलबा ज़्यादा बड़े आकार का होता और किसी आवासीय क्षेत्र में गिरता तो जानमाल को भी भारी नुकसान पहुंचा सकता था।
दरअसल अंतरिक्ष में एकत्रित हो रहा मलबा भविष्य में धरती पर रह रहे लोगों के साथ-साथ यहां सक्रिय तमाम उपग्रहों, अंतरिक्ष यात्रियों और अंतरिक्ष स्टेशनों के लिए भी बेहद घातक साबित हो सकता है। इतना ही नहीं, इससे हमारी संचार व्यवस्था के भी प्रभावित होने की आशंका पैदा हो सकती है। ऐसे में जिस तरह से आज आधुनिक तकनीक आधारित तमाम गैजेट्स हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गए हैं, उससे अलग तरह के नुकसान की आशंका भी हो सकती है।
यदि हम अंतरिक्ष में मौजूद तमाम मानव जनित पदार्थों की बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक छोटे-बड़े मिलाकर लगभग 17 करोड़ पुराने रॉकेट और बेकार हो चुके उपग्रहों के टुकड़े आठ किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। आपस में टक्कर होने से ये और भी छोटे टुकड़ों में बंट रहे हैं जिससे इनकी संख्या में दिनों-दिन बढ़ोतरी हो रही है।
ब्रिटिश खगोल विज्ञानी रिचर्ड क्राउटडर के अनुसार इस सम्बंध में सबसे बड़ी समस्या यह है कि पृथ्वी से लगभग 36 हज़ार किलोमीटर ऊपर की भू-स्थैतिक कक्षा में अंतरिक्ष कचरे के जमघट और आपसी टक्कर के परिणामस्वरूप दुनिया की संचार व्यवस्था भी चौपट हो सकती है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंतरिक्ष में आठ किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चक्कर काट रहे सिक्के के आकार की किसी वस्तु से किसी दूसरे सिक्के के आकार वाली वस्तु की टकराहट होती है तो उससे वैसा ही प्रभाव होगा जैसा धरती पर लगभग सौ किलोमीटर की रफ्तार से चल रही दो बसों की टक्कर से होता है। अंतरिक्ष में तैरते कचरे से टकराने पर अंतरिक्ष यान और सक्रिय उपग्रह नष्ट हो सकते हैं। इसके साथ ही, धरती पर इंटरनेट, जीपीएस, टेलीविज़न प्रसारण जैसी अनेक आवश्यक सेवाएं भी बाधित हो सकती हैं।
अंतरिक्ष में मानवीय दखल का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं है। महज छह दशक पहले ही पहली बार इंसान ने अंतरिक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज थी। उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 1957 में तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा अंतरिक्ष में भेजे गए पहले मानव निर्मित सेटेलाइट स्पुतनिक-1 के बाद से हज़ारों रॉकेट, सेटेलाइट, स्पेस प्रोब और टेलीस्कोप अंतरिक्ष में भेजे गए हैं। लिहाज़ा समय के साथ अंतरिक्ष में कचरा बढने की रफ्तार भी बढ़ती गई। यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे पृथ्वी के कई पहाड़ों पर अत्यधिक पर्वतारोहण की वजह से तरह-तरह के कूड़े-करकट के अंबार लगे हैं। अंतरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में कबाड़ की एक चादर फैल गई है। एक अनुमान के अनुसार पिछले 25 वर्षों में अंतरिक्ष में कचरे की मात्रा दुगनी से भी ज़्यादा हो गई है।
अंतरिक्ष का कचरा मानव जाति और इस पृथ्वी के समस्त जीव जगत के लिए घातक है। अगर ये अनियंत्रित लाखों डिग्री सेल्सियस ताप पर दहकते टुकड़े घनी बस्तियों पर गिरते हैं तो जानमाल की बड़ी हानि हो सकती है। वर्ष 2001 में कोलंबिया स्पेस शटल की दुर्घटना में भारतीय मूल की कल्पना चावला समेत सात अन्य अंतरिक्ष यात्रियों की जानें चली गई थीं। इस दुर्घटना के अलग-अलग कारण बताए जाते हैं, लेकिन कुछ रिपोर्टों में यह आशंका जताई गई थी कि अंतरिक्ष में भटकते एक टुकड़े से टकराने की वजह से यह भीषण त्रासदी हुई थी।
जिस तरह से सभी देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को अंजाम दे रहे हैं, उसके चलते तो अंतरिक्ष में भीड़ और भी बढ़ेगी और इससे दुर्घटनाओं की आशंका भी बढ़ेगी। तो फिर इस समस्या का समाधान क्या है? इसके जवाब में वैज्ञानिक कहते हैं कि अंतरिक्ष से कचरे को एकत्रित करके वापस धरती पर लाना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। दूसरे शब्दों में, अंतरिक्ष में भी धरती की ही तरह स्वच्छता अभियान चलाने की आवश्यकता है। परंतु यह काम इतना आसान भी नहीं है। ऐसे में सभी देश यदि चाहें तो कम से कम इतना तो अवश्य किया जा सकता है कि जो भी देश अंतरिक्ष में जितना कचरा पैदा कर रहा है, वह उसे वापस लाने का खर्च वहन करे। इससे अंतरिक्ष में पैदा होने वाले कचरे पर लगाम लगाई जा सकती है हालांकि इस काम की तकनीकी समस्याएं फिर भी रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.esa.int/var/esa/storage/images/esa_multimedia/videos/2019/02/distribution_of_space_debris_in_orbit_around_earth/19223416-1-eng-GB/Distribution_of_space_debris_in_orbit_around_Earth_pillars.jpg
एक दिन एक परिचित से मिलने जाना हुआ। मैंने देखा कि उनके गेट के पास लाल रंग के तरल से भरी एक बोतल रखी हुई है। नज़र थोड़ा बाईं ओर गई तो देखा कि हर घर के बाहर लाल पानी की बोतल रखी है। मैंने उत्सुकतावश पूछा कि बोतल में क्या है और क्यों रखी है? उन्होंने आत्मविश्वास के साथ बताया कि ये बोतल कुत्तों को भगाने का एक चमत्कारी उपाय है। उनका और उनकी तरह कई अन्य का मानना है कि इस बोतल को देखकर कुत्ते डर जाते हैं और इस वजह से घरों के बाहर गंदा (मल त्याग) नहीं करते।
अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रंगों से भरी बोतलें घरों के बाहर देखी जा सकती हैं। कहीं जामुनी, कहीं नीली, तो कहीं लाल बोतलें घरों और दुकानों के बाहर देखी जा सकती हैं। इन बोतलों को देखकर मन में सवाल उठता है कि इन बोतलों में आखिर भरा क्या जाता है? इस चलन के शुरुआती दौर में जब लोगों से पूछा गया कि इसमें क्या भरा है तो उनका कहना था कि एक केमिकल बाज़ार में आया है। कुछेक लोगों ने लाल रंग के लिए घर पर ही महावर या आल्ता पानी में घोलकर पारदर्शी बोतल में भरकर रख दिया था।
आखिर लोग इतने यकीन से कैसे कह रहे हैं कि कुत्ते लाल रंग की बोतल देखकर उस जगह को गंदा नहीं करते। इसलिए मैंने इस मसले को समझने के लिए कई तरह से जांच-पड़ताल की और प्रयोग किए।
प्रयोग – 1
जिन लोगों के घरों के बाहर ये बोतल रखी थी, उनसे पूछने पर पता चला कि कॉलोनी की किराना दुकान में एक टेबलेट मिलती है। टेबलेट दिखने में तो हरे रंग की होती है, लेकिन जब इसको पानी में डालते हैं तो ये धीरे-धीरे पानी को लाल कर देती है। कुछ लोगों का कहना है की ये टेबलेट महावर, या जिसे आल्ता कहते हैं उसकी है। मेरी टोली के बच्चों ने इस टेबलेट को देखा और कहा दीदी ये आल्ते की टेबलेट तो बिलकुल नहीं हो सकती, ये टेबलेट होली के पक्के रंग की लगती है!
पहला काम किया कि बोतल में लाल रंग बनाकर अपने घर के बाहर रख ही दिया।
प्रयोग – 2
हमने अपने और अपने घर के आसपास के घरों के बाहर कुछ अलग-अलग रंगों – लाल, हरे, बैंगनी, नीले और पीले – के वाटर कलर से पोती गई एक-एक बोतल रख दी। अलग-अलग रंगों से प्रयोग करने का मकसद सिर्फ यह जानना था कि कुत्ते इन अलग-अलग रंगों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देते हैं।
प्रयोग 1 और 2 के दौरान हमने जो अवलोकन किए उसमें देखा गया कि कुत्ते इन रंगों वाली बोतलों के पास आकर बैठ रहे थे। उन्हें रंग भरी या रंगों से पोती गई बोतलों से कोई फर्क नहीं पड़ा था।
दूसरा, कुछ लोगों के घर के सामने एक नहीं बल्कि कई सारी बोतलें रखी थीं, जिन्हें देखकर लगा कि कुत्ते यहां इसलिए भी नहीं फटकते होंगे क्योंकि उनकी जगह तो ढेरों बोतलों ने घेर रखी थी। और घर मालिकों को लग रहा था कि कुत्ते रंगों भरी इन चमत्कारी बोतलों से डरकर भाग रहे हैं।
प्रयोग – 3
अलग-अलग रंगों के प्रति कुत्तों की प्रतिक्रिया देखने के लिए सिर्फ बोतल से काम नहीं चलने वाला था। तो मैंने और बच्चों की टोली ने विचार किया कि हमें कुत्तों के खाने की चीज़ों को रंग करके देखना होगा।
हम पालतू जानवरों की दुकान (पेट शॉप) में गए और कुत्ते के लिए कैल्शियम से बनी हड्डियां लेकर आए। सफेद वाली हड्डियों को अलग-अलग खाद्य रंगों से रंग दिया। एक हड्डी को सफेद ही रहने दिया। इन हड्डियों को एक-एक करके हमारी गली के कुत्तों को खाने को दिया।
पहले सफेद हड्डी खिलाई जिसको कुत्ता एक पल में चट कर गया। थोड़ी-थोड़ी देर बाद लाल, हरी, नीली और फिर पीली हड्डियां खिलाई। हमने देखा किसी भी रंगीन हड्डी को कुत्ते वैसे ही खा रहे थे जैसे बिना रंग की हुई हड्डी को खाया था। फर्क सिर्फ इतना था कि रंगीन हड्डियों को खाने में उन्हें थोड़ा समय लगा।
एक वजह जो हमने सोची वह यह थी कि शायद जिन हड्डियों को रंगा गया था उनकी गंध की वजह से कुत्ते इन हड्डियों को खाने में थोड़ा ज़्यादा समय ले रहे हैं। कई कुत्तों के अवलोकनों में यही देखने को मिला।
यहां यह देखना लाज़मी होगा कि कुत्ते दुनिया को किन रंगों में देखते हैं।
आंख के पिछले हिस्से में रेटिना नामक पर्दे में दो प्रकार की संवेदी कोशिकाएं होती हैं, जो प्रकाश और रंग को भांपने का काम करती हैं। ये संवेदी कोशिकाएं दो प्रकार की होती हैं – छड़ और शंकु (रॉड्स और कोन्स)। इन संवेदी कोशिकाओं की संख्या लाखों में होती है। विभिन्न प्रजातियों में विभिन्न प्रकार की प्रकाश संवेदी कोशिकाएं होती हैं। प्रकाश को भांपने वाली संवेदी कोशिकाओं को छड़ (रॉड) कहा जाता है। रंग को पहचानने वाली संवेदी कोशिकाओं को शंकु (कोन) कहा जाता है। दरअसल, जैसा इनका आकार है वैसा ही इनका नाम है। शंकु संवेदियों की दो विशेषताएं होती हैं: रंग और बारीक विवरण को भांपना। जब प्रकाश छड़़ या शंकु कोशिकाओं से टकराता है, तो वे सक्रिय हो जाती हैं और मस्तिष्क को संकेत भेजती हैं।
सामान्यतः मनुष्य त्रिवर्णी (ट्राइक्रोमेटिक) होते हैं। अर्थात मनुष्य में तीन प्रकार के शंकु होते हैं। दूसरी ओर कुत्तों की दृष्टि द्विवर्णी (डाइक्रोमेटिक) होती है – उनकी आंख में दो प्रकार के शंकु होते हैं। इसका मतलब है कि मनुष्य में हरे, नीले व लाल और इनके मिश्रण से बने अनेक रंगों को देखने की क्षमता होती है, जबकि कुत्तों में दो (पीले और नीले) रंगों की पहचान करने की क्षमता होती है।
कुत्ते की नज़र से दुनिया
पशु चिकित्सकों का मानना था कि कुत्ते केवल काले और सफेद रंग को ही देख सकते हैं। यह भी कहा जाता है कि कुत्ते वर्णांध होते हैं। लेकिन असल बात यह है कि कुत्तों के पास वास्तव में कुछ रंग की दृष्टि तो है। लेकिन उन्हें हरे, लाल और कभी-कभी नीले रंग में भी अंतर समझ में नहीं आता है।
अक्सर कलर ब्लाइंडनेस (वर्णांधता) के बारे में माना जाता है कि वह व्यक्ति सिर्फ काला और सफेद ही देख पाता है। असल में वर्णांधता का मतलब है कि आंखें सामान्य रूप में रंगों को नहीं देख पातीं। इसे कलर डेफिशिएंसी भी कहा जाता है। वर्णांधता का मुख्य कारण आम तौर पर आंखों के भीतर शंकु के उत्पादन में दोष होता है। मनुष्यों में कलर ब्लाइंडनेस का कारण तीन रंग संवेदी कोशिकाओं (शंकु) में से एक का सही ढंग से काम न करना है। इस प्रकार की वर्णांधता को द्विवर्णिता (डाइक्रोमेसी) के नाम से जानते हैं।
कुत्तों की दृष्टि द्विवर्णी होती है। अगर हम सरल तरीके से यह समझना चाहते हैं कि कुत्ते दुनिया को कैसे देखते होंगे तो हम एक वर्णांध मनुष्य की दृष्टि की तुलना एक सामान्य कुत्ते की दृष्टि से कर सकते हैं। वर्णांध मनुष्य और एक सामान्य कुत्ते दोनों की ही आंखों में दो प्रकार के शंकु पाए जाते हैं। इस आधार पर हम कुत्तों को कलरब्लाइंड कहते हैं – यह कोई विकार नहीं है बल्कि कुत्तों की आंख सामान्य रूप से ऐसी ही होती है।
चूंकि कुत्ते की आंखों में नीले और पीले रंग के शंकु ही होते हैं, इसलिए वे रंगों के लगभग 10,000 विभिन्न संयोजन देख सकते हैं। दूसरी ओर मनुष्य के लाल, हरे और नीले शंकु मिलकर रंगों की एक करोड़ छटाएं देख सकते हैं।
खास बात यह है कि कुत्ते लाल व हरे रंगों को नहीं देख पाते। लाल और हरे रंग शायद कुत्ते को भूरे की अलग-अलग छटा जैसे दिखते हैं। वे गुलाबी, बैंगनी और नारंगी जैसे रंगों को भी नहीं देख सकते हैं।
यदि आप देखना चाहें कि आपकी कोई तस्वीर कुत्ते की आंखों से कैसी दिखती होगी तो निम्नलिखित वेबसाइट्स पर जाएं:
आंखों में रंग संवेदी शंकु प्रकाश की तरंग लंबाई को तंत्रिका संकेतों में बदल देते हैं। ये संकेत दिमाग में पंहुचते हैं जहां उस वस्तु व उसके रंग की सही मायनों में तस्वीर बनती है। ज़ाहिर है कि जिन जंतुओं में शंकु कोशिकाएं नहीं होती उन्हें रंग नहीं दिखाई देते। कुत्तों के पास केवल 20 प्रतिशत प्रकाश-संवेदी शंकु कोशिकाएं होती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ बारी के मार्सले सिंसिंशी ने कुत्तों के प्रशिक्षकों को सलाह दी है कि कुत्तों को घास में प्रशिक्षण देते समय लाल कपड़े पहनने से बचें। इससे उन्हें घास व प्रशिक्षक में अंतर करने में परेशानी होती है। वहीं, शोधकर्ताओं ने मालिकों को सलाह दी है कि यदि कुत्ते को घास के मैदान में फ्रिस्बी या बॉल खेलाने ले जा रहे हैं तो कोशिश करें कि खिलौने नीले रंग के हों न कि लाल रंग के।
अब इससे यह तो तय बात है कि रंगीन बोतलों से कुत्तों के डरने या भागने का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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केले के सूखे छिलकों में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है। हाइड्रोजन से बिजली बनाकर इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में किया जा सकता है…
साल 1985 की एक विज्ञान फंतासी फिल्म बैक टू दी फ्यूचर में, एक अतिउत्साही आविष्कारक अपनी कार को प्लूटोनियम से चलने वाली टाइम मशीन में बदल लेता है, और अतीत और भविष्य की यात्रा करता है। अपनी इस कार में बैठकर वह वर्ष 2015 में पहुंचता है और अपनी गाड़ी के इंजन को इस तरह अपडेट कर लेता है कि किसी भी तरह का पदार्थ भरने पर वह ऊर्जा पैदा कर सके – यहां तक कि ‘टैंक’ में एक-दो गाजर ठूंसने पर भी।
खैर, 2015 बीत गया है और इस तरह की किसी भी ईंधन से चलने वाली (फ्यूज़न) गाड़ियों की संभावना अभी भी साकार होती नज़र नहीं आ रही है। अलबत्ता, हमने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (जैसे गाजर या संभवत: केले के छिलकों) से स्वच्छ ऊर्जा पैदा करने के नए और बेहतर तरीकों की उम्मीद नहीं छोड़ी है।
वास्तव में केमिकल साइंस में इस वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लॉज़ेन स्थित स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के एक शोध दल ने केले से ऊर्जा प्राप्त करने में सफलता हासिल कर ली है।
उन्होंने केले के छिलके, संतरे के छिलके, नारियल की नट्टी जैसे जैव-पदार्थों के विघटन के लिए ज़ीनॉन लैंप के प्रकाश का उपयोग किया है।
लेकिन इस नवाचारी तरीके पर बात करने से पहले थोड़ी बात इस पर कर लेते हैं कि ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन इतनी आकर्षक क्यों है। अत्यधिक ऊर्जा को बहुत कम जगह में भंडारित करके रखना एक मुख्य आवश्यकता है, और हाइड्रोजन की ऊर्जा भंडारण क्षमता बहुत अच्छी है। ईंधन को उनके ऊर्जा मूल्य (जिसे ताप मूल्य भी कहा जाता है) के हिसाब से श्रेणीबद्ध करने में निर्णायक तत्व कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन होते हैं। हाइड्रोजन का ऊर्जा मूल्य कार्बन से सात गुना अधिक है।
लकड़ी को जलाने पर, ऊष्मा उत्पन्न करने वाली अभिक्रिया में, कार्बन और हाइड्रोजन ऑक्सीकृत हो जाते हैं, और अंतिम उत्पाद कार्बन डाईऑक्साइड और पानी होते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है।
हाइड्रोजन जलाने पर हमें केवल पानी और ऊष्मा मिलती है। हाइड्रोजन से ऊर्जा प्राप्त करने का एक बेहतर तरीका होगा इससे बिजली बनाना। इसके लिए एक प्रोटॉन एक्सचेंज मेम्ब्रेन ईंधन सेल का उपयोग किया जाता है। इस सेल में किसी धातु उत्प्रेरक की उपस्थिति में हाइड्रोजन के अणुओं को प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन में तोड़ा जाता है, और इलेक्ट्रॉन विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं।
वाहनों में
कुछ जगहों पर अब इस तरह के ईंधन सेल कुछ छोटे यात्री वाहनों को चलाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं। इलेक्ट्रिक कारों के विपरीत, हाइड्रोजन चालित कारों में ईंधन भरने में महज पांच मिनट लगते हैं। व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हाइड्रोजन चालित कारों के ईंधन टैंक में 5-6 किलोग्राम संपीड़ित हाइड्रोजन भरी जा सकती है। और प्रत्येक किलोग्राम हाइड्रोजन से गाड़ी लगभग 100 किलोमीटर चलती है (और नौ लीटर पानी उत्सर्जित होता है, ज़्यादातर भाप के रूप में)।
ईंधन के रूप में हाइड्रोजन की सीमित लोकप्रियता उसके उत्पादन और वितरण सम्बंधी अड़चनों के कारण है। वैसे, रसोई गैस की तुलना में हाइड्रोजन का प्रबंधन अधिक सुरक्षित है।
औद्योगिक पैमाने पर हाइड्रोजन का उपयोग उर्वरक उत्पादन हेतु अमोनिया बनाने में किया जाता है। विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक हाइड्रोजन का उत्पादन तो जीवाश्म ईंधन से होता है। इसी कारण ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों की तलाश जारी है जो पर्यावरण को क्षति न पहुंचाते हों। जैव-पदार्थ (बायोमास) में वनस्पति और पशु अपशिष्ट शामिल हैं। जैव-पदार्थ हाइड्रोजन और कार्बन दोनों का एक समृद्ध स्रोत है – केले के सूखे छिलके में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है, और 33 प्रतिशत कार्बन होता है। जलवायु परिवर्तन रोकथाम सम्बंधी सारे प्रोटोकॉल्स का एक प्रमुख लक्ष्य है कि जितना संभव हो सके उतना कार्बन भंडारित कर लिया जाए – इसे गैस न बनने दिया जाए।
स्विस शोध दल ने जैव-पदार्थ (केले) से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ताप-अपघटन (पायरोलिसिस) का उपयोग किया; इसमें निष्क्रिय (ऑक्सीजन-रहित) परिस्थिति में थोड़े-थोड़े समय के लिए तीव्र ताप देकर कार्बनिक पदार्थ का विघटन किया जाता है।
ज़ीनॉन लैंप के विकिरण से अत्यधिक ऊष्मा पैदा होती है – सिर्फ 15 मिलीसेकंड के लिए दिया गया विकिरण पदार्थ को 600 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने के लिए पर्याप्त होता है। इतनी ऊष्मा एक किलोग्राम केले के छिलके के पाउडर को विघटित कर सकती है – और इससे 100 लीटर हाइड्रोजन गैस मुक्त होती है।
इतने कम समय के लिए मुक्त प्रकाश-ऊष्मा ऊर्जा से 330 ग्राम बायोचार (बायो चारकोल) भी पैदा होता है। यह एक ठोस अपशिष्ट है जिसमें कार्बन होता है।
दूसरी ओर यदि जैव-पदार्थ को जलाया जाए तो कार्बन ऑक्सीकृत होकर कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाईऑक्साइड के रूप पर्यावरण में चला जाता है। पायरोलिसिस यह सुनिश्चित करता है कि कार्बन ठोस रूप में बचा रहे।
बायोचार के लाभ
कार्बन को ठोस रूप में सुरक्षित रखने के अलावा बायोचार के कृषि में कई उपयोग हैं। चावल की भूसी जैसे कृषि अपशिष्ट जैव-पदार्थ का एक प्रमुख स्रोत हैं। और इनसे बनने वाले बायोचार में काफी खनिज तत्व होते हैं। इसे मिट्टी में डालने से पौधों को पोषक तत्व मिलते हैं।
2019 में एनल्स ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार बायोचार की छिद्रमय प्रकृति के चलते यह प्रदूषित मिट्टी के विषाक्त पदार्थों को सोखकर विषाक्तता कम करता है।
जैव-पदार्थ, चाहे वह केले के छिलके का हो, पेड़ की छाल का हो या पोल्ट्री खाद का हो, के इस तरह के उपयोग से वायु की गुणवत्ता में सुधार होता है और कृषि उत्पाद बेहतर होते हैं – और वाहनों में इसका उपयोग उन्हें उत्सर्जन मुक्त बनाता है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले कुछ सालों में अमेरिका ने हाइवे के किनारे लगे इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड पर उस सड़क पर हुई सड़क दुर्घटनाओं में मौतों की संख्या दर्शाना शुरू किया था ताकि लोग इन आकड़ों से सबक लेकर सुरक्षित तरीके से गाड़ी चलाएं और सड़क हादसे कम हों। लेकिन एक नया विश्लेषण बताता है कि हाइवे पर ऐसे संकेतों से दुर्घटनाएं कम होने की बजाय बढ़ सकती हैं।
इसके पीछे सोच यह थी कि वाहन चालकों का ध्यान इन दुर्घटनाओं की तरफ आकर्षित होगा जो उन्हें जोखिम भरी ड्राइविंग न करने के लिए प्रेरित करेगा। टेक्सास प्रांत में 2012 से लगातार वर्ष भर में सड़क हादसों में हुई मौतों को दर्शाया जा रहा है। लेकिन इसके असर का कभी बारीकी से अध्ययन नहीं किया गया था।
इन चेतावनियों का असर जानने के लिए मिनेसोटा युनिवर्सिटी के बिहेवियरल इकॉनॉमिस्ट जोशुआ मैडसन और युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के परिवहन अर्थशास्त्री जोनाथन हॉल ने मिलकर अध्ययन किया।
हाइवे पर सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु के आंकड़े दर्शाने की प्रत्येक राज्य की नीति अलग है। कई राज्य दिन के केवल सुरक्षित समय ही ये आंकड़े दिखाते हैं, भीड़-भाड़ के समय नहीं जब अन्य ट्रैफिक संदेश दिखाए जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने अपना अध्ययन टेक्सास पर केंद्रित किया, जहां राजमार्गों पर लगे 880 साइन बोर्ड्स पर हर महीने लगातार एक सप्ताह के लिए ये आंकड़ें प्रदर्शित किए जाते हैं। शोधकर्ताओं ने 2010 से 2017 के बीच प्रभावित सड़कों पर हुई सभी सड़क दुर्घटनाओं का डैटा इकट्ठा किया। उन्होंने बोर्ड पर मृत्यु के आंकड़े दर्शाए जाने वाले हफ्ते में हुई दुर्घटनाओं की तुलना बाकी महीने में हुई दुर्घटनाओं की संख्या से की। तुलना करते समय उन्होंने ध्यान रखा हफ्ते के समान दिन (जैसे मंगलवार) और समान घंटे में होने वाली दुर्घटनाओं के बीच तुलना की जाए। उन्होंने तुलना में मौसम और छुट्टियों जैसे कारकों को भी नियंत्रित किया, जो अपने आप में दुर्घटनाओं की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में 8,44,939 दुर्घटनाओं का विश्लेषण करने पर पता चला है कि जिस दौरान सड़क मौतों की संख्या प्रदर्शित की गई उस दौरान साइन बोर्ड से 10 किलोमीटर आगे तक के मार्ग पर होने वाली दुर्घटनाओं में 1.35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। शोधकर्ताओं का मत है कि वाहन चलाते समय मौत के आंकड़े दिखने पर वाहन चालक का ध्यान बहुत अधिक विचलित होता है, नतीजतन दुर्घटना होती है।
अन्य शोधकर्ताओं को लगता है कि अधिक मृत्यु संख्या के प्रदर्शन के समय अधिक हादसों की बात ठीक नहीं लगती, क्योंकि वाहन चालक वास्तव में मौतों की संख्या के आधार पर अलग-अलग तरह से सोचते नहीं होंगे। सड़क हादसों में वृद्धि के कारण जानने के लिए और शोध की ज़रूरत है। बहरहाल, यह अध्ययन इतना तो बताता ही है कि चेतावनी संदेश सड़क हादसों में कमी लाने में कारगर नहीं हैं। यह पता लगाने की ज़रूरत है कि किस तरह के संदेश सुरक्षित ड्राइविंग को प्रेरित करेंगे, ताकि दुर्घटनाओं को रोका जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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हाल में, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा तैयार स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट-2022 रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2005 से 2021 के दौरान देश में 579 बाघ, और 2015 से 2021 के बीच 696 हाथी मारे गए। 2016 और 2021 में सर्वाधिक बाघ (50-50) और 2015 तथा 2018 में सर्वाधिक हाथी (113-115) मौत का शिकार हुए। इसी तरह 2005 से 2021 के दौरान 2639 तेंदुए भी काल का ग्रास बने। स्पष्ट है कि पिछले कुछ सालों में वन्य जीवों के प्रति अपराध बढ़े हैं। लिहाजा, सरकारों को बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाने और वन्य जीवों के संरक्षण व संवर्धन की कोशिशों में इज़ाफा करना होगा और गैर-सरकारी संगठनों को साथ लेकर ठोस पहल करनी होगी। वन्य जीव संरक्षण से सम्बंद्ध योजनाओं का बजट बढ़ाने की भी आवश्यकता है। अन्यथा वन्य जीवों की आबादी और मौतों का संतुलन गड़बड़ाने में ज़्यादा देरी नहीं लगेगी।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के मुताबिक भारत में 2021 में कुल 126 बाघों की मौत हुई, जो एक दशक में सबसे ज़्यादा है। इनमें से 60 बाघ संरक्षित क्षेत्रों के बाहर शिकारियों, दुर्घटनाओं और मानव-पशु संघर्ष के शिकार हुए हैं। हकीकत यही है कि पिछले कुछ सालों में मानव और पशु संघर्ष बड़े स्तर पर बढ़ा है। इसी के चलते वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए विशेषज्ञों ने कठोर संरक्षण प्रयासों, विशेष रूप से वन रिज़र्व जैसे स्थानों को और अधिक सुरक्षित बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। पिछले एक दशक से यह अनुभव किया गया है कि जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिक विकास और अनियंत्रित शहरीकरण के कारण वन्य जीवों का क्षेत्र सिमट रहा है। परिणामस्वरूप आसपास रहने वाले लोग वन्य जीवों की चपेट में आ रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के मैंग्रोव जंगलों के तेज़ी से घटने पर चिंता जताते हुए कहा गया था कि हालात पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वर्ष 2070 तक सुंदरबन में वन्य जीवों के रहने लायक जंगल नहीं बचेगा। पश्चिमी बंगाल के मैंग्रोव वन बाघों के निवास के तौर पर सबसे अनुकूल माने जाते हैं। इस इलाके में भोजन की तलाश में बाघ अक्सर जंगल से बाहर निकलकर नज़दीकी बस्तियों में पहुंच जाते हैं और अपनी जान बचाने के लिए लोग कई बार इन जानवरों को मार देते हैं। चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में सरकार ने वन क्षेत्रों में परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन से जुड़ी मंज़ूरी की प्रक्रिया को आसान कर दिया है, जिसके कारण वन क्षेत्रों के निकट औद्योगिक गतिविधियों में वृद्धि हुई है।
हमें यह समझना होगा कि पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाए रखने के लिए वन्य जीव बेहद महत्वपूर्ण हैं। वन्य जीव पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं। हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि किसी एक प्रजाति पर आने वाला संकट मानव समेत अन्य प्रजातियों में भी असंतुलन की स्थिति पैदा कर देता है। लिहाजा, वन्य-जीवों का संरक्षण और संवर्धन बेहद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)
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प्राचीन यूनानी लोग पौधों के रंजक इंडिगो (नील) को इंडिकॉन नाम से बुलाते थे, जिसका मतलब होता है भारतीय। रोमन इसे ही इंडिकम कहते थे, जो बदलते-बदलते अंग्रेजी में इंडिगो हो गया। इस रंजक का अत्यधिक महत्व था – शाही परिवार से लेकर सेना के कपड़ों को रंगने (जैसे नेवी ब्लू) तक में इसका उपयोग होता था। यह रंजक पौधों के ऊष्णकटिबंधीय जीनस इंडिगोफेरा से मिलता था, इस वंश के कुछ पौधे मूलत: भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाते थे।
इन पौधों की पत्तियों में 0.5 प्रतिशत तक इंडिकैन होता है जो ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर नीला पदार्थ इंडिगोटिन बनाता है। इसकी बट्टियां (केक) भारत से व्यापार की प्रमुख वस्तु थी। मध्य पूर्व के समुद्र को पार करके अरब व्यापारी नील को रेगिस्तान के पार भूमध्यसागरीय क्षेत्र और युरोप में लेकर गए। यहां यह एक बेशकीमती वस्तु थी। इसका उपयोग रेशम की रंगाई में, चित्रों और भित्ति चित्रों में और सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता था।
युरोप से भारत के बीच समुद्री मार्ग बनने के बाद नील निर्यात में तेज़ी से वृद्धि हुई, क्योंकि यह आम लोगों के कपड़े (सूती कपड़े) को रंगने वाले चंद विश्वसनीय रंगों में से एक रंग था।
सुरंजी नाम का रंजक भारतीय शहतूत (मोरिंडा टिन्क्टोरिया, हिंदी में आल; तमिल में मंजनट्टी या मंजनुन्नई) से प्राप्त होता है। सुरंजी से सूती कपड़ों को चटख पीला-लाल रंग, या चॉकलेटी रंग, या यहां तक कि काला रंग दिया जाता है, यह इस पर निर्भर करता है कि ‘फिक्सिंग’ किस तरीके से किया जा रहा है।
मंजिष्ठा (रूबिया कॉर्डिफोलिया, हिंदी में मंजीठा; तमिल में मंडिट्टा) की जड़ें परप्यूरिन नामक एक लाल रंजक देती हैं। यह वर्ष 1869 में प्रयोगशाला में संश्लेषित पहला रंजक था – एलिज़रीन।
कुसुम (कार्थमस टिन्क्टोरियस, तमिल में कुसुम्बा) के बीजों का उपयोग तेल निकालने में किया जाता है और इसी वजह से वर्तमान में भारत इसका प्रमुख उत्पादक है। लेकिन अतीत में यह कार्थामाइन और कार्थामाइडिन का स्रोत हुआ करता था, जो सूती कपड़े को लाल रंग और रेशम को एक विशिष्ट नारंगी-लाल रंग प्रदान करते हैं।
रंगाई के लिए कृत्रिम एनिलीन रंजकों के उपयोग में आने के पहले इस पौधे के 160 टन से भी अधिक सूखे फूल प्रति वर्ष भारत से निर्यात किए जाते थे।
जींस का रंग
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, रसायन विज्ञान में त्वरित प्रगति ने नील के संश्लेषण के सस्ते तरीकों को जन्म दिया। अधिकांश उपयोगों में वनस्पति रंजक के स्थान पर कृत्रिम रंजक का इस्तेमाल किया जाने लगा। एक साधारण नीले जींस में 3-5 ग्राम कृत्रिम नील होती है। हर साल 40,000 टन से अधिक नील का उत्पादन होता है।
कृत्रिम रंजकों के उपयोग से पर्यावरण पर काफी प्रभाव पड़ता है, और वस्त्रों की रंगाई जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। अधिकांश कृत्रिम रंग पेट्रो-रसायनों से बने होते हैं।
नील अपने आप में विषैला नहीं है, लेकिन यह पानी में अघुलनशील है और इसे घोलने और कपड़ों पर चढ़ाने के लिए अत्यधिक क्षारीय सोडियम या पोटेशियम हायड्रॉक्साइड घोल की ज़रूरत पड़ती है।
एक जीन पतलून को सिर्फ रंगने भर के लिए 100 लीटर से अधिक पानी लगता है, और लगभग 15 प्रतिशत रंजक और उसके साथ क्षार प्रदूषक के रूप में जल स्रोतों में चला जाता है। जागो, जींस पहनने वालों!
अलबत्ता, प्राकृतिक वनस्पति रंगों का उपयोग पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। नील की खेती जारी है। प्राकृतिक रंगों का पर्यावरण पर प्रभाव कृत्रिम रंजकों की तुलना में बहुत कम है। सामान्य रूप से उपलब्ध अन्य जड़ी-बूटियों, झाड़ियों और पेड़ों से मिलने वाले प्राकृतिक रंगों के उपयोग के लिए बेहतर-से-बेहतर तकनीकों और तरीकों की खोज जारी है।
इस संदर्भ में डॉ. पद्मा श्री वंकर (पूर्व में आईआईटी कानपुर में कार्यरत), उनके साथियों और अन्य भारतीय समूहों का काम उल्लेखनीय है। उन्होंने मिलकर कई पौधों से रंग प्राप्त करने और उनसे रंगाई के तरीकों का पता लगाया है और कभी-कभी सफलतापूर्वक पुन: निर्मित भी किया है।
ये पौधे हैं: (1) नेपाल बारबेरी (महोनिया नैपालेंसिस, हिंदी में दारुहल्दी; तमिल में मुल्लुमंजनती): अरुणाचल प्रदेश की अपतानी जनजाति ने लंबे समय तक इस पौधे का उपयोग अपनी बुनी हुई चीज़ों को रंगने के लिए किया है। (2) वाइल्ड कैना (कैना इंडिका, हिंदी में सर्वजया; तमिल में कलवाझाई): इस सजावटी पौधे के फूल सुर्ख लाल होते हैं, इससे अल्कोहल-घुलनशील डाई बनती है जो सूती कपड़े पर आसानी से और तेज़ी से चढ़ती है। (3) पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा): पलाश मूलत: हमारे उपमहाद्वीप का पौधा है। इसमें आकर्षक फूल लगते हैं, जिनसे पारंपरिक तौर पर होली के लिए रंग बनाया जाता है। धूप में सुखाई गई पंखुड़ियां रंगों से भरपूर होती हैं, जिन्हें पानी में डालकर रंग प्राप्त किया जा सकता है।
पर्यावरण लागत
इन प्रयासों के साथ-साथ बायोटेक्नोलॉजिस्ट रासायनिक तरीकों की पर्यावरणीय कीमत को बायपास करना चाहते हैं। एक बैक्टीरिया को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके इंडिकैन (नील का पूर्ववर्ती) बनाने के लिए तैयार करके इस अवधारणा को परखा गया है।
वर्ष 2018 में नेचर केमिकल बायोलॉजी में टेमी एम ह्सू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित पेपर बताता है कि गीले डेनिम की सतह पर इंडिकैन को एंज़ाइम रंजक में बदल देते हैं जिसके चलते कई ज़हरीले अपशिष्ट समाप्त हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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गगनचुम्बी इमारतों, बांधों, पुलों तथा गाड़ियों के निर्माण में सीमेंट और स्टील बहुत ही आवश्यक घटक हैं। लेकिन ये दोनों उद्योग पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। सीमेंट के उत्पादन में प्रति वर्ष 2.3 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जबकि लोहा और स्टील उत्पादन प्रति वर्ष 2.6 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। ये वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का क्रमश: 6.5 प्रतिशत और 7.0 प्रतिशत हैं।
इसका एक कारण तो यह है कि हम इन पदार्थों का उपयोग भारी मात्रा में करते हैं। देखा जाए तो स्वच्छ पानी के बाद कांक्रीट सबसे अधिक उपयोग होने वाला पदार्थ है। इसके अलावा, इनके उत्पादन की विधियां भी कार्बन आधारित हैं। इनमें जिन रासायनिक अभिक्रियाओं का उपयोग होता है उनमें कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है। और तो और, निर्माण प्रक्रिया के लिए ज़रूरी उच्च तापमान हासिल करने के लिए जीवाश्म ईंधनों का दहन कार्बन डाईऑक्साइड का एक बड़ा स्रोत होता है।
ऐसे में सीमेंट और स्टील के उत्पादन एवं उपयोग के स्वच्छ तरीके खोजने की तत्काल आवश्यकता है। औद्योगिक मांग और ऊर्जा कीमतों में वृद्धि के बावजूद हमारे लिए 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है। यदि कम उत्सर्जन वाले भारी उद्योगों को फलते-फूलते देखना है तो इंफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नॉलॉजी का हस्तांतरण और वित्तीय जोखिम कम करने के उपाय ज़रूरी होंगे।
नेचर के मार्च 2022 के अंक में प्रकाशित एक पर्चे में इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के पौल फेनेल और जस्टिन ड्राइवर, साइमन फ्रेसर विश्वविद्यालय, कनाडा के क्रिस्टोफर बेटैल और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, यूएसए के स्टीवन डेविस ने इस संदर्भ में कई सुझाव प्रस्तुत किए हैं जो स्टील को कार्बन उदासीन और सीमेंट को कार्बन सोख्ता बनाने में भूमिका निभा सकते हैं। प्रस्तुत है उनके पर्चे का सार।
1. नवीनतम तकनीकें
सभी उत्पादन संयंत्रों को सर्वोत्तम उपलब्ध तकनीक से सुसज्जित करना आवश्यक है। औद्योगिक संयंत्रों के तापरोधन में सुधार से 26 प्रतिशत ऊर्जा बचाई जा सकती है। बेहतर बॉयलर का उपयोग करके ऊर्जा खपत 10 प्रतिशत तक कम की जा सकती है। इसके साथ ही ऊष्मा विनिमय का उपयोग करने से शोधन प्रक्रिया की बिजली खपत को 25 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। अलबत्ता, एक समय के बाद किसी भी संयंत्र में सुधार करके ऊर्जा बचत की संभावना कम होती जाती है। वर्तमान के सबसे कुशल सीमेंट संयंत्र उन्नत प्रौद्योगिकियों को अपनाकर मात्र 0.04 प्रतिशत ऊर्जा की बचत कर पाएंगे। यानी कुछ और करने की ज़रूरत है।
2. कम उपयोग
एक ही काम के लिए कम मात्रा में स्टील और सीमेंट का उपयोग किया जा सकता है। फिलहाल दुनिया में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 530 किलोग्राम सीमेंट और 240 किलोग्राम स्टील का उत्पादन हो रहा है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईए) के अनुसार यदि भवन निर्माण संहिता और आर्किटेक्ट्स, इंजीनियर्स तथा ठेकेदारों के प्रशिक्षण में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए जाएं, तो सीमेंट की मांग को 26 प्रतिशत और स्टील की मांग को 24 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। कई भवन निर्माण संहिताएं सुरक्षा के लिए ज़रूरत से ज़्यादा डिज़ाइन का सहारा लेती हैं। यदि आधुनिक सामग्रियों और बढ़िया कंप्यूटर मॉडलिंग का उपयोग करके डिज़ाइन तैयार की जाए तो कम से कम संसाधनों से काम चल सकता है। इसके अलावा, कम कार्बन पदचिन्ह वाली वैकल्पिक सामग्री का भी उपयोग किया जा सकता है। जैसे वाहनों में स्टील के स्थान पर एल्युमीनियम। इसके लिए काम करने के पुराने तरीकों को बदलना होगा।
3. तकनीकी नवाचार
पारंपरिक स्टील उत्पादन में कार्बन की महत्वपूर्ण भूमिका है। ब्लास्ट फर्नेस (वात भट्टी) में ईंधन के रूप में कोक (एक किस्म का कोयला) का उपयोग किया जाता है जिसमें लौह खनिज को 2300 डिग्री सेल्सियस तापमान पर धात्विक लोहे में परिवर्तित किया जाता है। कोक के जलने पर कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है जो अयस्क को लोहे और कार्बन डाईऑक्साइड में बदल देती है। इसके बाद लोहे को कोयला-भट्टी या कभी-कभी विदुयत भट्टी में परिष्कृत कर स्टील प्राप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्रति टन स्टील 1800 किलोग्राम से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होती है।
वैसे, अयस्क से लोहा प्राप्त करने के लिए अन्य पदार्थों का उपयोग भी किया जा सकता है। गौरतलब है कि विश्व का लगभग 5 प्रतिशत स्टील डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (डीआरआई) प्रक्रियाओं से बनाया जाता है जिनमें कोक की आवश्यकता नहीं होती है। इसके लिए आम तौर पर हाइड्रोजन और कार्बन मोनोऑक्साइड (मीथेन अथवा कोयले से प्राप्त) का उपयोग किया जाता है। इसके साथ-साथ यदि विद्युत भट्टी के लिए नवीकरणीय बिजली का उपयोग किया जाए तो ऐसे स्टील संयंत्र कोक आधारित संयंत्र की तुलना में 61 प्रतिशत कम कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करते हैं।
और तो और, डीआरआई के लिए केवल हाइड्रोजन का उपयोग किया जाए तो उत्सर्जन को 50 किलोग्राम प्रति टन स्टील या उससे कम किया जा सकता है। कुछ कंपनियां इस तरह के संयंत्र आज़मा रही हैं।
इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसके लिए भारी मात्रा में हाइड्रोजन की आवश्यकता होती है। समस्त स्टील का उत्पादन इस तरीके से करने के लिए वैश्विक हाइड्रोजन उत्पादन को वर्तमान 6 करोड़ टन से बढ़ाकर से 13.5 करोड़ टन प्रति वर्ष करना होगा। वर्तमान में सबसे सस्ती हाइड्रोजन प्राकृतिक गैस से प्राप्त होती है जिससे कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। इसका एक हरित विकल्प विद्युत-अपघटन की मदद से पानी से हाइड्रोजन प्राप्त करने का है लेकिन वह 2.5 गुना महंगा है। संयंत्रों की संख्या बढ़ेगी तो लागत कम हो सकती है।
अन्य विकल्प भी आज़माए जा सकते हैं। वर्ष 2004 में 15 युरोपीय देशों की 48 कंपनियों और संगठनों के एक संघ ने विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन किया। टाटा स्टील ने 2010 में नीदरलैंड में एक उन्नत स्टील उत्पादन प्रक्रिया वाला पायलट संयंत्र तैयार किया था, जो है तो कोयला आधारित लेकिन इसमें कार्बन को आसानी से थामा जा सकता है। फिलहाल हरित हाइड्रोजन की गिरती कीमत से टाटा हाइड्रोजन आधारित डीआरआई को अपनाने पर विचार कर रहा है। हाइड्रोजन का एक अच्छा विकल्प विद्युत-विच्छेदन के माध्यम से लोहा प्राप्त करने का है और इस पर काम चल रहा है।
4. नए प्रकार का सीमेंट
साधारण पोर्टलैंड सीमेंट का उत्पादन चूना पत्थर के कैल्सीनेशन से शुरू होता है। इस प्रकिया में चूना पत्थर को 850 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर गर्म करने पर वह चूना और कार्बन डाईऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है। चूने को रेत और मिट्टी के साथ मिलाकर 1450 डिग्री सेल्सियस तक भट्टी में पकाने पर क्लिंकर बनता है। जिसमें कुछ अन्य पदार्थ मिलाकर सीमेंट बनाया जाता हैं। लगभग 60 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कैल्सीनेशन के दौरान होता है। शेष उत्सर्जन ईंधन के दहन से होता है। कुल मिलाकर, एक औसत संयंत्र में प्रति टन सीमेंट 800 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। उन्नत संयंत्र में यह मात्र 600 किलोग्राम होता है।
गौरतलब है कि चूना पत्थर के बिना भी सीमेंट बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए मैग्नीशियम ऑक्सीक्लोराइड सीमेंट (सॉरेल) 1867 से मौजूद रहा है लेकिन पानी के प्रति कम सहनशीलता के कारण इसका व्यावसायीकरण नहीं हो पाया है। फिलहाल सीमेंट के कई प्रकारों को परखा जा रहा है। निर्माण में इनका उपयोग करने के लिए भवन निर्माण कोड, डिज़ाइन और तौर तरीकों को बदलना होगा, जिसमें समय लगेगा।
एक विकल्प क्लिंकर के स्थान पर कोई अन्य टिकाऊ सामग्री हो सकती है। यह सामग्री वात भट्टी का अपशिष्ट (स्लैग) और कोयला बिजलीघरों की राख हो सकती है। लेकिन जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीकों से खत्म करने पर इन सामग्रियों की प्राप्ति मुश्किल हो जाएगी। फिलहाल, शोधकर्ता अन्य विकल्प खोजने के प्रयास कर रहे हैं जिनमें लोहे और स्टील के रीसायकल संयंत्रों का स्लैग शामिल है।
एक और उदाहरण लाइमस्टोन कैलसाइन्ड क्ले सीमेंट (एलसी3) है। इसका जल्द ही व्यावसायीकरण संभव है। एक विकल्प यह है कि क्लिंकर की जगह अन्य सस्टेनेबल पदार्थों का उपयोग किया जाए। कई कंपनियों ने अपनी नेट-ज़ीरो रणनीतियों में एलसी3 को शामिल किया है।
5. ईंधन में बदलाव
यह विचार लुभावना लगता है कि स्टील के लिए, कोयले और कोक की जगह लकड़ी के कोयले या अन्य जैव-पदार्थों का उपयोग किया जाए। लेकिन इसमें कई चुनौतियां हैं। ऊर्जा के लिए जैव-पदार्थों में वृद्धि का कृषि भूमि की ज़रूरत के साथ टकराव होगा और सारे जैव-पदार्थ का उत्पादन निर्वहनीय नहीं होता। कोक की तुलना में लकड़ी का कोयला वात भट्टी के लिए उपयुक्त नहीं होता है। लिहाज़ा स्टील प्रसंस्करण के ‘तकनीकी नवाचार’ शीर्षक में दिए गए सुझावों पर अमल ही शायद बेहतर होगा।
वैसे सीमेंट के लिए नगर पालिका का ठोस अपशिष्ट वैकल्पिक ईंधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है। भट्टी का ऊंचा तापमान ज़हरीले पदार्थों को नष्ट कर सकता है और राख को क्लिंकर में शामिल किया जा सकता है। युनाइटेड किंगडम स्थित मेक्सिकन कंपनी सीमेक्स एनर्जी के सीमेंट संयंत्रों की 57 प्रतिशत ऊर्जा इन वैकल्पिक ईंधनों से प्राप्त होती है जबकि यूके आधारित कंपनी हैनसन 52 प्रतिशत वैकल्पिक ईंधन की खपत करता है। इस रणनीति को उपयुक्त नियम-कानून बनाकर राष्ट्र स्तर पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
6. कार्बन कैप्चर
सीसीएस तकनीक यानी कार्बन डाईऑक्साइड को कैद करके भंडारित करने की तकनीक सीमेंट और स्टील संयंत्रों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अनिवार्य होगी। सीसीएस का उपयोग कई देशों में किया जा रहा है। नॉर्वे की सरकारी कंपनी एक्विनार 1990 के दशक से सीसीएस परियोजना के तहत प्रति वर्ष 10 लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड को धरती में दफन कर रही है। लेकिन इस तकनीक का पर्याप्त उपयोग नहीं किया गया है। अब तक वैश्विक उत्सर्जन का केवल 0.1 प्रतिशत ही कैप्चर करके भूमिगत किया गया है। कुछेक चुनिंदा संयंत्र सीसीएस का परीक्षण कर रहे हैं। फिलहाल आबू धाबी में एक आधुनिक डीआरआई स्टील संयंत्र 2016 से सीसीएस का उपयोग कर रहा है। सीसीएस को बढ़ाने की ज़रूरत है।
इसमें गैस को संपीड़ित और संग्रहित करने की लागत को कम करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड 99.9 प्रतिशत से अधिक शुद्ध होना अनिवार्य है। एक सामान्य स्टील और सीमेंट संयंत्र की चिमनी से 30 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड और बाकी नाइट्रोजन और भाप निकलती है। एक विकल्प है कि ईंधन को ऑक्सीजन और रीसायकल गैसों के मिश्रण में जलाया जाए ताकि अपेक्षाकृत शुद्ध कार्बन डाईऑक्साइड प्राप्त हो। यह काफी मुश्किल है क्योंकि इसके लिए घूमती-तपती भट्टी को सील करना ज़रूरी होता है।
कैल्सिनेशन प्रक्रिया से कार्बन डाईऑक्साइड को अलग करने का एक अन्य तरीका चूना पत्थर को परोक्ष ढंग से गर्म करना है (जैसे दीवार के ज़रिए) ताकि चूना पत्थर से निकलने वाली गैस और ईंधन दहन का उत्सर्जन अलग-अलग रहें। चूना पत्थर से निकलने वाला उत्सर्जन काफी शुद्ध होता है जिससे सीसीएस की लागत में कमी आती है। बेल्जियम और जर्मनी में LEILAC1 और 2 परियोजनाएं इसका परीक्षण कर रही हैं। LEILAC2 20 प्रतिशत (लगभग एक लाख टन प्रति वर्ष) उत्सर्जन को कैप्चर कर रही है।
इसके अलावा भारी उद्योगों को समूहों में बनाने से हाइड्रोजन उत्पादन के लिए ऊष्मा, सामग्री और बुनियादी ढांचे और कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण और निपटान साझा हो सकता है। ऐसे क्लस्टर यूके, डेनमार्क, नीदरलैंड और नॉर्वे में तैयार हो रहे हैं।
7. कॉन्क्रीट में कार्बन संग्रहण
कॉन्क्रीट तैयार करने के लिए सीमेंट में पानी के साथ रेत और गिट्टी मिलाई जाती हैं। इसमें पानी कुछ रासायनिक अभिक्रियाएं शुरू करता है जो सामग्री को सख्त बना देती हैं, जोड़ देती हैं। इसमें कार्बन डाईऑक्साइड मिलाने से सीमेंट की मज़बूती बढ़ती है। वज़न के हिसाब से 1.3 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड कठोरता को लगभग 10 प्रतिशत तक बढ़ा देती है। ऐसा करने से निर्माण के लिए सीमेंट की ज़रूरत कम हो जाती है और कुल उत्सर्जन में 5 प्रतिशत तक की कमी आती है।
कॉन्क्रीट में कार्बन कैप्चर अनुसंधान का सक्रिय क्षेत्र है। कनाडा स्थित कार्बनक्योर जैसी कंपनियां बड़े पैमाने पर कार्बन डाईऑक्साइड को कॉन्क्रीट में इंजेक्ट कर रही हैं। उन्होंने अब तक दो लाख टन कार्बनक्योर कॉन्क्रीट बेचा किया है जिससे डाईऑक्साइड उत्सर्जन में 1,32,000 टन की कमी आई है।
सीमेंट और कॉन्क्रीट दोनों हवा से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं जो कैल्शियम आधारित पदार्थों को वापिस चूना पत्थर में परिवर्तित कर देती है। सिद्धांतत: इस प्रक्रिया से सीमेंट निर्माण के दौरान उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग आधा हिस्सा फिर से अवशोषित किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए कॉन्क्रीट के कणों को पीसकर महीन बनाना होगा ताकि कार्बन डाईऑक्साइड अच्छे से फैल सके। यह प्रक्रिया काफी महंगी है और इसके लिए ऊर्जा की भी ज़रूरत होती है। वैसे इसमें कितनी कार्बन डाईऑक्साइड सोखी जाएगी यह काफी अनिश्चित होता है और इसलिए इसे यूएन जलवायु परिवर्तन कार्यों की सूची में स्थान नहीं मिला है।
8. स्टील का पुनर्चक्रण
इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस (ईएएफ) का उपयोग करके स्टील का पुनर्चक्रण किया जा सकता है। वर्तमान में स्टील उत्पादन का एक चौथाई भाग पुनर्चक्रित स्क्रैप से प्राप्त होता है। वैश्विक स्तर पर 2050 तक पुनर्चक्रित स्टील का उत्पादन दुगना होने की संभावना है। इससे कार्बन उत्सर्जन आज की तुलना में 20-25 प्रतिशत तक कम किया जा सकेगा।
स्टील का लगातार पुनर्चक्रण वर्तमान में संभव नहीं है। ऐसा करने से उसमें अवांछनीय यौगिक, विशेषकर तांबा, इकट्ठा होने लगते हैं। स्क्रैप की बेहतर छंटाई करके और उत्पादों को नया रूप देकर इस प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है।
9. सब्सिडी
उपरोक्त आठ बिंदुओं का प्रभाव काफी विशाल हो सकता है। लेकिन कम कार्बन उत्सर्जन वाले भारी उद्योगों को बड़े पैमाने पर शामिल करने के लिए आर्थिक बाधाओं का सामना करना होगा। स्टील के लिए हाइड्रोजन आधारित डीआरआई संयंत्रों और सीमेंट के लिए सीसीएस सुविधाएं पायलट से लेकर शुरुआती व्यावसायिक चरणों तक मौजूद हैं। इनको बढ़ाना काफी महंगा और जोखिम भरा है। कम कार्बन वाले उत्पादों को प्रतिस्पर्धा में नुकसान होता है। अधिकांश निर्माण कार्य विकासशील देशों में हो रहा है। अत: उनके साथ टेक्नॉलॉजी साझा करने और वित्तीय जोखिमों को कम करने की प्रणालियां लागू करने की आवश्यकता है। जीवाश्म ईंधन को जैव-पदार्थों या हाइड्रोजन से बदलने या सीसीएस के लिए युरोपीन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) के तहत कदम उठाना एक अच्छा विचार है। लेकिन शायद सरकार की ओर से सब्सिडी ज़्यादा प्रभावी हो सकती है। सीसीएस के साथ पूर्ण कार्बन-मुक्ति से पोर्टलैंड सीमेंट की लागत दुगनी होने की उम्मीद है। शून्य-उत्सर्जन स्टील की लागत सामान्य स्टील की तुलना में 20-40 प्रतिशत अधिक होने की संभावना है। इस सबकी क्षतिपूर्ति के लिए सब्सिडी ज़रूरी होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-022-00758-4/d41586-022-00758-4_20224532.jpg