प्राचीन रोमन इमारतों की मज़बूती का राज़

युरोप में आज भी प्राचीन रोमन इमारतें दिखाई देती हैं। 2000 से अधिक वर्ष पूर्व निर्मित हमाम, जल प्रणालियां और समुद्री दीवारें आज भी काफी मज़बूत हैं। इस मज़बूती और टिकाऊपन का कारण एक विशेष प्रकार की कॉन्क्रीट है जो आज के आधुनिक कॉन्क्रीट की तुलना में अधिक टिकाऊ साबित हुआ है। हाल ही में इस मज़बूती का राज़ खोजा गया है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि कॉन्क्रीट के साथ अनबुझे चूने का उपयोग करने से मिश्रण को सेल्फ-हीलिंग (स्वयं की मरम्मत) का गुण मिला होगा। प्राचीन रोमन कॉन्क्रीट का अध्ययन करने वाली भूवैज्ञानिक मैरी जैक्सन के अनुसार इससे आधुनिक कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

गौरतलब है कि कॉन्क्रीट का उपयोग रोमन साम्राज्य से भी पहले से किया जा रहा था लेकिन व्यापक स्तर पर इसका उपयोग सबसे पहले रोमन समुदाय ने किया था। 200 ईसा पूर्व तक उनकी अधिकांश निर्माण परियोजनाओं में कॉन्क्रीट का उपयोग किया जाने लगा था। रोमन कॉन्क्रीट मुख्य रूप से अनबुझे चूने, ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली गिट्टियों (टेफ्रा) और पानी से बनाया जाता था। इसके विपरीत आधुनिक कॉन्क्रीट पोर्टलैंड सीमेंट से बनता है जिसे आम तौर पर चूना पत्थर, मिट्टी, रेत, चॉक और अन्य पदार्थों के मिश्रण को पीसकर भट्टी में बनाया जाता है। इसके बावजूद यह 50 वर्षों में उखड़ने लगता है।  

पूर्व में भी वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट की मज़बूती को समझने के प्रयास किए हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि समुद्र के संपर्क में आने वाली संरचनाएं जब समुद्री जल से संपर्क में आती हैं तब कॉन्क्रीट के अवयवों और समुद्री पानी की प्रतिक्रिया नए और अधिक कठोर खनिज बनाती हैं।                        

इसकी और अधिक संभावनाओं को तलाशने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के रसायनज्ञ एडमिर मैसिक और उनके सहयोगियों ने रोम के नज़दीक 2000 वर्ष पुराने प्रिवरनम नामक पुरातात्विक स्थल की एक प्राचीन दीवार से ठोस नमूने एकत्रित किए। इसके बाद उन्होंने कंक्रीट में जमा हुए छोटे-छोटे कैल्शियम के ढेगलों पर ध्यान दिया जिन्हें लाइम लम्प्स कहा जाता है।

कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ये लम्प्स कॉन्क्रीट को ठीक से न मिलाने के कारण रह जाते होंगे। लेकिन मैसिक की टीम ने रोमन लोगों द्वारा कॉन्क्रीट में पानी मिलाने से पहले अनबूझा चूना उपयोग करने की संभावना पर विचार किया। गौरतलब है कि अनबूझा चूना चूना पत्थर को जलाकर तैयार किया जाता है। इसमें पानी मिलाने पर एक रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिसमें काफी मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस दौरान चूना पूरी तरह से नहीं घुल पाता और कॉन्क्रीट में चूने की गिठलियां बन जाती हैं। इसे और अच्छे से समझने के लिए वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट बनाया जो प्रिवरनम से एकत्रित नमूनों के एकदम समान था।         

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में टीम ने बताया है कि उन्होंने इस कॉन्क्रीट में छोटी-छोटी दरारें बनाईं – ठीक उसी तरह जैसे समय के साथ कॉन्क्रीट में दरारें पड़ जाती हैं। फिर उन्होंने इन दरारों में पानी डाला जिससे चूने की गिलठियां घुल गईं और सभी दरारें भर गईं। इस तरह कॉन्क्रीट की मज़बूती भी बनी रही। ।

आधुनिक कॉन्क्रीट 0.2 या 0.3 मिलीमीटर से बड़ी दरारों को ठीक नहीं करता है जबकि रोमन कॉन्क्रीट ने 0.6 मिलीमीटर तक की दरारों को ठीक तरह से भर दिया था।    

मैसिक को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में काफी मदद करेंगे। इसकी सामग्री न केवल वर्तमान कॉन्क्रीट से सस्ती है बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी काफी मदद कर सकती है। वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सीमेंट उत्पादन का हिस्सा 8 प्रतिशत है। इस तकनीक के उपयोग से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खीरे, खरबूज़े और लौकी-तुरैया – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दुनिया के सभी भागों के लोग एक वनस्पति कुल, कुकरबिटेसी, से बहुत करीब से जुड़े हैं। इस विविधता पूर्ण कुल में तरबूज़, खरबूज़, खीरा और कुम्हड़ा-कद्दू शामिल हैं। जिन कुकरबिट्स की खेती कम की जाती है उनमें करेला, कुम्हड़ा, चिचड़ा, लौकी, गिलकी और तुरई शामिल हैं।

कुकरबिट्स आम तौर पर रोएंदार बेलें होती हैं। इनमें नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं जो एक ही बेल पर या अलग-अलग बेलों पर लगे हो सकते हैं। इनके फल स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं, जो विधिध रंग, स्वाद और आकार में मिलते हैं। ये भारत की भू-जलवायु में अच्छी तरह पनपते हैं। इनकी बुवाई का मौसम आम तौर पर नवंबर से जनवरी तक होता है, और गर्मियों में इनके फल पक जाते हैं।

कुकरबिटेसी कुल में मीठे तरबूज़ से लेकर कड़वे करेले तक का स्वाद है और छोटे चिचोड़े से लेकर बड़े आकार का कद्दू तक है। यह विविधता उनके मोज़ेक-सरीखे गुणसूत्रों के अवयवों में फेरबदल का परिणाम है। इसलिए, एक ही जीनस (कुकुमिस) के सदस्य होने के बावजूद खीरे में सात गुणसूत्र होते हैं और खरबूजे में 12।

आलू के विपरीत, जो केवल 450 साल पहले पूरे विश्व में फैला, कुकुरबिट्स सहस्राब्दियों से दुनिया भर की खाद्य अर्थव्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। ये समुद्री लहरों पर सवार होकर किनारों पर पहुंचे और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढल गए। आधुनिक जीनोमिक तकनीकों की मदद से उनके मूल स्थान को पहचानने की आवश्यकता है।

खीरा भारत का स्वदेशी है। खीरा की जंगली प्रजातियां हिमालय की तलहटी में पाई जाती हैं। इन्हें रोमन लोग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व युरोप ले गए थे।

रेगिस्तानी खरबूज़े

राजस्थान के थार रेगिस्तान में स्थानीय लोग अल्प मानसून से जमा हुए पानी से तरबूज़-खरबूज़ की जंगली किस्में उगाते हैं। कम गूदे और ज़्यादा बीज वाले ये फल छोटे होते हैं, जिन्हें सब्ज़ियों के रूप में पकाया जाता है।

हालिया अध्ययनों ने यह स्थापित किया है कि भारत में आज हम तरबूज़-खरबूज़ की जो किस्में देखते हैं, वे पालतूकरण (खेती) करने की दो स्वतंत्र घटनाओं की उत्पाद हैं। इन्होंने जंगली प्रजातियों की कड़वाहट और खट्टापन खो दिया है, और इनके पत्ते, बीज और फल बड़े होते हैं। अफ्रीका में पाई जाने वाली खरबूज़ की प्रजातियों का स्वतंत्र रूप से पालतूकरण हुआ था, लेकिन अफ्रीकी खरबूज़ छोटा होता है और इसके स्वाद में थोड़ी कड़वाहट बरकरार है। तब कोई आश्चर्य नहीं कि पूरी दुनिया में उगाए जाने वाले तरबूज़-खरबूज़ भारतीय मूल के हैं।

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों के स्वाद में विविधता का असर करेले में दिखाई देता है। हाल ही में (800 साल पहले) थाईलैंड और पड़ोसी देशों में पाई जाने वाली करेले की देशी किस्में बड़ी, कम कड़वी और चिकनी और लगभग सफेद होती हैं। इसकी तुलना में, कंगूरेदार छिलके वाली भारतीय किस्में छोटी और अधिक कड़वी होती हैं, और काफी लंबे समय से उगाई जा रही हैं।

पोषण

करेला खनिज पदार्थों और विटामिन सी का समृद्ध स्रोत है। रोज़ाना 100 ग्राम करेले का सेवन औसत व्यक्ति के लिए आवश्यक विटामिन सी की पूरी (और आधे विटामिन ए) की आपूर्ति कर सकता है, जबकि इससे केवल 150 मिलीग्राम वसा ही मिलती है। सामान्य तौर पर, पोषण के मामले में कुकुरबिट्स वसा और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के ठीक उलट होते हैं। कुकुरबिट्स में लगभग 85-95 प्रतिशत पानी होता है, और ये कम कैलोरी देते हैं।

आहार में शामिल होने और औषधीय महत्व होने के अलावा, कुकुबिट्स के दिलचस्प उपयोग भी हैं। गिलकी जब पककर सूख जाती है तो त्वचा की देखभाल के लिए स्पंज की तरह उपयोग की जाती है। सूखी लौकी (तमिल में सुरक्कई) सरोद, सितार और तानपुरा जैसे वाद्य यंत्रों में गुंजन यंत्र की तरह उपयोग की जाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैरेबियन घोंघों का संरक्षण, मछुआरे की चिंतित

रानी घोंघा अपनी आकर्षक खोल (शंख) और स्वादिष्ट मांस के लिए प्रसिद्ध है। सदियों से इन्हें इनके मांस के लिए पकड़ा जा रहा है। इनके मांस की सबसे अधिक खपत संयुक्त राज्य अमेरिका में होती है। अमरीकी सरकार के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि इस आपूर्ति के लिए इनका अतिदोहन रानी घोंघो को विलुप्ति की ओर धकेल सकता है।

इस अध्ययन पर सार्वजनिक राय लेने के बाद अब इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इन कैरेबियाई प्रजातियों को संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत जोखिमग्रस्त जीवों की सूची में शामिल किया जाए या नहीं।

इस कदम का कई देशों के मछुआरे विरोध कर रहे हैं – उनकी चिंता है कि इस तरह सूचीबद्ध करने से यूएस को घोंघे का मांस निर्यात करना मुश्किल हो जाएगा, जो उनका सबसे बड़ा बाज़ार है।

अध्ययन पर अंतर-सरकारी संगठन, कैरेबियन रीजनल फिशरीज़ मैकेनिज़्म, की मत्स्य विज्ञानी मैरेन हेडली का कहना है कि हमें नहीं लगता है कि इस समय संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत इन प्रजातियों को सूचीबद्ध करना उचित है, या इनकी रक्षा के लिए यही सर्वोत्तम विकल्प है। प्रजातियों को जोखिमग्रस्त सूची में शामिल करने से पड़ने वाले संभावित आर्थिक प्रभाव का हवाला देते हुए उनका कहना है कि हमारा उद्देश्य मत्स्य-संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होना चाहिए।

ये घोंघे समूचे कैरबियाई सागर में समुद्री घास के झुरमुटों में रहते हैं। बहामास के तट पर पकड़े गए घोंघों की खोल का विशाल ढेर इनके अतिदोहन का गवाह है। ये तो गनीमत है कि इनमें से कुछ प्रजातियां अपनी कुछ खासियत की वजह से कभी-कभी शिकारी गोताखोरों से बच जाती हैं। कुछ घोंघे दुर्गम समुद्री इलाकों में या बहुत गहराई में रहने की वजह से सुरक्षित बच जाते हैं। वहीं वयोवृद्ध घोंघे, जो 35 सेंटीमीटर तक लंबे हो जाते है, उम्र के साथ उनकी खोल पर उगने वाले शैवाल या प्रवाल की वजह से शिकारियों से ओझल रहते हैं।

इनके अतिदोहन के कारण 1975 में फ्लोरिडा में घोंघे पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इनकी घटती आबादी के कारण अन्य देशों ने भी इस पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। और 1992 में वन्य जीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि (CITES) द्वारा घोंघों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित किया गया। घोंघे के निरंतर अतिदोहन से चिंतित CITES ने 2003 में होंडुरास, हैती और डोमिनिकन गणराज्य से घोंघे के आयात पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।

यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) द्वारा की गई समीक्षा के अनुसार, वर्तमान में हर जगह इनकी संख्या कम है, और शेष स्थानीय आबादी में जीन प्रवाह बनाए रखने के लिए लार्वा पर्याप्त रूप से नहीं फैल रहे हैं। हालांकि बहामास, जमैका और कुछ अन्य स्थानों में घोंघे अभी फल-फूल रहे हैं, लेकिन आने वाले सालों में होने वाला दोहन इन्हें विलुप्ति की ओर ले जा सकता है। इन्हें संकटग्रस्त की सूची में डालने से भविष्य में अन्य देशों में इनके आयात पर प्रतिबंध को उचित ठहराया जा सकेगा, और घोंघा पालन के बेहतर प्रबंधन की राह आसान हो जाएगी। 2018 में अमेरिका ने 3.3 करोड़ डॉलर के घोंघे का मांस का आयात किया था। इसलिए इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करना एक स्पष्ट संदेश देगा कि यह प्रजाति खतरे में है।

लेकिन इससे सभी सहमत नहीं है। प्यूर्टो रिको विश्वविद्यालय के मत्स्य जीवविज्ञानी रिचर्ड एपलडॉर्न का कहना है कि उन्हें घोंघों की स्थिति उतनी भयानक नहीं लगती। जैसे, उनका कहना है कि उपरोक्त अध्ययन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि घोंघे प्रजनन से पहले इकट्ठे होते हैं, इसलिए आबादी का फैलाव और घनत्व भ्रामक दिख सकता है। उनके अनुसार, घोंघे पकड़ने वाले समुदायों के ज्ञान को शामिल करने से बेहतर सर्वेक्षण हो सकता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि कुशल वैज्ञानिक घोंघे गिनने में भी माहिर हों।

कुछ देशों का कहना है कि वे घोंघों के शिकार का प्रबंधन करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बेलीज़ मत्स्य विभाग के मौरो गोंगोरा ने बताया कि उनके देश में 15,000 लोग घोंघों से लाभान्वित होते हैं, खासकर तटवर्ती छोटे गांवों के मछुआरे, और यहां की घोंघो की आबादी अच्छी तरह से प्रजनन कर रही है। चूंकि हम घोंघों के महत्व को पहचानते हैं इसलिए हम इनके बेहतर प्रबंधन के भरसक प्रयास कर रहे हैं।

लेकिन इस पर एनओएए का कहना है कि कई कैरेबियाई देशों में संरक्षण सम्बंधी नियम-कायदों की कमी है। इनकी आबादी में गिरावट को रोकने के लिए अधिक कदम उठाने की ज़रूरत है।

जमैका के मत्स्य पालन निदेशक स्टीफन स्मिकले का कहना है कि घोंघों के अवैध और अनियंत्रित शिकार से निपटने के लिए अमेरिकी सरकार के अधिक समर्थन की ज़रूरत है। इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करने से वित्तीय मदद को बढ़ावा मिल सकता है। और इससे त्वरित संरक्षण और आबादी सुधार प्राथमिकता बन जाएगी।

अधिक वित्तीय सहयोग से कृत्रिम परिवेश में अंडों को सेकर घोंघों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लेकिन ऐसा करना एक बहुत गंभीर घाव की महज़ मलहम-पट्टी करने जैसा होगा। प्राकृतिक प्रजनन के माध्यम से घोंघो की आबादी में सुधार करना ही एकमात्र स्थायी तरीका है। (स्रोत फीचर्स)

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मंगल भूकंप संवेदी लैंडर को अलविदा

मेरिकी स्पेस एजेंसी नासा से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनसाइट मिशन का अंत हो गया है। यह मार्स लैंडर चार वर्षों से अधिक समय तक मंगल ग्रह पर होने वाले भूकंपों (मंगल-कंपों) की जानकारी देता रहा जिससे ग्रह की आंतरिक संरचना को समझने में काफी मदद मिली। लैंडर से आखिरी बार 15 दिसंबर, 2022 को संपर्क हुआ। दो बार संपर्क का प्रयास करने के बाद एजेंसी का ऐसा मानना है कि लैंडर की बैटरी खत्म हो गई होगी और धूल से ढंके सौर-पैनल बिजली पैदा नहीं कर पा रहे होंगे।     

83 करोड़ डॉलर की लागत वाले इस मिशन का उद्देश्य मंगल के छोटे मंगलकंपों की कंपन तरंगों को रिकॉर्ड करना था। ये तरंगें ग्रह की गहराई में सीमाओं से टकराकर लैंडर पर स्थित कंपनमापी तक पहुंचती हैं। शोधकर्ताओं ने इन तरंगों के आगमन के समय में अंतर का उपयोग करते हुए ग्रह की आंतरिक तस्वीर तैयार करने की कोशिश की है।

टीम ने पाया कि मंगल ग्रह एक पतली पर्पटी, एक ठंडे मेंटल और एक बड़े कोर से निर्मित है। ग्रह के कोर में एक पिघली हुई बाहरी परत भी है।  

वैसे इस मिशन में कुछ दिक्कतें भी रहीं। लैंडर में उपस्थित हीट प्रोब ग्रह की लौंदेदार मिट्टी में घुसकर अपना बिल नहीं बना पाया। लेकिन अपने पूरे जीवनकाल में लैंडर ने क्षुद्रग्रह की टक्करों सहित 1319 मंगलकंपों का पता लगाया। पिछले वर्ष मई में इसने 4.7 तीव्रता वाले सबसे विशाल मंगलकंप का पता लगाया जिसने मंगल की ऊपरी सतह को 10 घंटों तक कंपाया। 

इस ज़ोरदार मंगलकंप के ठीक बाद इस मिशन ने अंत की तैयारी शुरू कर दी। बैटरी की शक्ति को बचाने के लिए लैंडर के विभिन्न हिस्सों को बंद करते हुए केवल कंपनमापी को चालू रखा गया ताकि वह लंबे समय तक चलता रहे। मिशन का अंत तो हो गया लेकिन इसने मंगल ग्रह का अंदरूनी नक्शा बनाने में बहुत मदद की है। (स्रोत फीचर्स)

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मंगल ग्रह पर कभी चुंबकीय क्षेत्र था

वैज्ञानिकों के अनुसार एक समय ऐसा भी था जब मंगल ग्रह वर्तमान स्थिति से बिलकुल अलग था। घाटियों से निकलती हुई नदियां और झीलें मौजूद थीं और विशेष रूप से चुंबकीय क्षेत्र ने अंतरिक्ष विकिरण से ग्रह को सुरक्षित रखा था। कुछ प्रमुख सिद्धांतों के अनुसार ग्रह के आंतरिक भाग के ठंडे होकर ठोस बनने के कारण चुंबकीय क्षेत्र खत्म हो गया जिससे ग्रह का वातावरण असुरक्षित हो गया और नमी और गर्मी का युग समाप्त हो गया। अलबत्ता, वैज्ञानिकों के बीच इस घटना के समय को लेकर मतभेद हैं।

हाल ही में मंगल ग्रह के सुप्रसिद्ध उल्कापिंड ALH84001, जो यह उल्का पिंड 1984 में अंटार्कटिका के एलन हिल्स नामक स्थान पर मिला था, का नए प्रकार के क्वांटम सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन करने पर इस बात के साक्ष्य मिले हैं कि ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र 3.9 अरब वर्ष पूर्व तक मौजूद था। यह समय वर्तमान के सबसे स्वीकार्य समय से करोड़ों वर्ष पहले का है। मंगल ग्रह से पृथ्वी तक पहुंचने वाले इस छोटे से उल्कापिंड की मदद से मंगल पर जीवन के संकेतों का पता लगाया जा सकता है। इसके अलावा यह अध्ययन पृथ्वी के समान मंगल के चुंबकीय ध्रुवों के पलटने के विचार का भी समर्थन करता है। इसकी मदद से ग्रह के बाहरी कोर में तरल डायनमो की जानकारी मिल सकती है जो एक समय में चुंबकीय क्षेत्र को ऊर्जा प्रदान करता था।         

वास्तव में जब लौह-युक्त खनिज पिघली हुई चट्टानों से क्रिस्टलीकृत होते हैं तो उन क्रिस्टल के चुंबकीय क्षेत्र ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र की लाइन में जम जाते हैं। और ये मूल चुंबकीय क्षेत्र की दिशा की छाप के रूप में संरक्षित हो जाते हैं। इसके बाद कोई चट्टान ग्रह के किसी स्थान पर टकराई तो वहां के कुछ हिस्से गर्म होकर पिघलते हैं और एक नया चुंबकीय क्षेत्र बन जाता है।  

गौरतलब है कि मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाले ऑर्बाइटर्स ने मंगल की सतह पर चुंबकीय अवशेषों की पहचान की है। लेकिन मंगल पर क्षुद्रग्रहों की टक्कर से बनने वाले सबसे प्राचीन गड्ढों – हेलास, अर्जायर और इसिडिस क्रेटर्स – में चुंबकीय चट्टानें नहीं मिली हैं।

अधिकांश शोधकर्ताओं का मत है कि लगभग 4.1 अरब वर्ष पूर्व इन क्रेटर्स के बनने तक चुंबकीय डायनमो कमज़ोर हो गया होगा जिसके कारण इसका प्रभाव देखने को नहीं मिला है। फिर भी ऑर्बाइटर्स को मंगल ग्रह के कुछ अन्य हिस्सों, जो उक्त क्रेटर्स से कई लाख वर्षों बाद के हैं, के लावा में चुंबकीय निशान प्राप्त हुए। इससे यह स्पष्ट होता है कि चुंबकीय क्षेत्र काफी समय बाद भी मौजूद रहा था।

इसी संदर्भ में हारवर्ड युनिवर्सिटी की सारा स्टील ने उल्कापिंड एलन हिल्स 84001 का अध्ययन करने का विचार किया। 1990 के दशक में इस उल्कापिंड के बारे में दावा किया गया था कि इसमें बैक्टीरिया के जीवाश्म मौजूद हैं। हालांकि इस दावे को खारिज कर दिया गया था और इसके चलते 2 किलोग्राम की यह चट्टान काफी बदनाम हो गई थी। बहरहाल, यह उल्कापिंड 4.1 अरब वर्ष पुराना है इसलिए मंगल के उस समय के इतिहास का अध्ययन करने के लिए यह उपयुक्त नमूना है।       

चुंबकीय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए स्टील और हारवर्ड प्लेनेटरी वैज्ञानिक रॉजर फू ने क्वांटम डायमंड माइक्रोस्कोप से एलन हिल्स के 0.6 ग्राम के टुकड़े के तीन पतले स्लाइस की इमेजिंग की। यह माइक्रोस्कोप हीरे में उपस्थित परमाणु स्तर की अशुद्धियों पर निर्भर करता है जो चुंबकीय क्षेत्र में मामूली परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील होती हैं। इस उच्च क्षमता वाले माइक्रोस्कोप से नमूने में तीन अलग-अलग स्थानों पर आयरन-सल्फाइड के साक्ष्य प्राप्त हुए। इनमें से दो स्थान अलग-अलग दिशाओं में शक्तिशाली रूप से चुंबकित थे जबकि एक में उल्लेखनीय चुंबकीय चिंह का अभाव था।

स्टील और फू का कहना है कि इन तीन स्थानों का चुंबकत्व तीन अलग-अलग घटनाओं से उत्पन्न हुआ जिनकी समयरेखा 4 अरब, 3.9 अरब और 1.1 अरब वर्ष पहले की पाई गई हैं। फू के अनुसार दो अत्यधिक चुंबकीय स्थान इस ओर संकेत देते हैं कि पूरे ग्रह पर चुंबकीय क्षेत्र 3.9 अरब वर्ष पहले तक उपस्थित रहा होगा। यह चुंबकीय क्षेत्र काफी शक्तिशाली रहा होगा: लगभग 17 माइक्रोटेस्ला जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का लगभग एक-तिहाई है। कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह चुंबकीय क्षेत्र हानिकारक कॉस्मिक किरणों से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त था। इसके अलावा यह मंगल के वायुमंडल को सौर हवाओं से भी सुरक्षा प्रदान करता था। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक इस निष्कर्ष के विरुद्ध चेता रहे हैं। जैसे युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्लेनेटरी वैज्ञानिक रॉब लिलिस के अनुसार हो सकता है कि इस चुंबकीय क्षेत्र ने सौर हवाओं के प्रवाह को ध्रुवों की ओर बढ़ा दिया हो जिससे वायुमंडल को अधिक तेज़ी से नुकसान पहुंचा होगा।    

उल्कापिंडों से प्राप्त खनिजों में ग्रह की आंतरिक गतिविधियों के साक्ष्य भी उपस्थित रहते हैं। नमूनों में उपस्थित दो चुंबकीय क्षेत्र लगभग विपरीत दिशा में हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि मंगल पर चुंबकीय उत्तर-दक्षिण ध्रुवों की अदला-बदली हुई थी, जैसा पृथ्वी पर कई लाख वर्षों में होता रहता है। कंप्यूटर सिमुलेशन से पता चलता है कि किसी ग्रह के तरल डायनमो में परिवर्तन बाहरी कोर में संवहन धाराओं की कुछ विशेष परिस्थितियों में ही होता है। इसके आधार पर मंगल ग्रह की आंतरिक स्थिति को समझने और समय-सीमाएं निर्धारित करने में भी मदद मिलेगी। ध्रुवों के पलटने के आधार पर यह भी समझने में मदद मिलेगी कि कई प्राचीन क्रेटर्स में चुंबकीय चिंह अनुपस्थित क्यों है। (स्रोत फीचर्स)

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चाइनीज़ मांझा

न दिनों आसमान में परिंदों के अलावा पंतगें भी उड़ती नज़र आती हैं। कुछ जगहों पर तो मकर संक्रांति पर खास पतंगबाज़ी होती है। लेकिन पंतगबाज़ी के इस मौसम के साथ नायलोन मांझे से होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें भी आ रही हैं। इसे बोलचाल में चायना मांझा भी कहते हैं, हालांकि इसका चीन से कोई सम्बंध नहीं है। इससे होने वाली दुर्घटनाओं के मद्देनज़र वर्ष 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसके नियमानुसार “नायलोन, प्लास्टिक या किसी भी अन्य सिंथेटिक सामग्री से बने पतंग के मांझे, जिसमें चाइनीज़ या चीनी मांझा के नाम से मिलने वाला मांझा भी शामिल है, तथा कांच, धातु या किसी अन्य धारदार सामग्री का लेप करके तेज़ किए गए पतंग उड़ाने की डोर की बिक्री, उत्पादन, भंडारण, आपूर्ति, आयात और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।” पतंगबाज़ी की अनुमति केवल सूती धागे से होगी, जो धागे को तेज़ करने वाली किसी भी धारदार, धातु की या कांच की सामग्री या चिपकने वाली सामाग्री से मुक्त हो।

लेकिन फिर भी लोगों के बीच चाइनीज़ मांझा लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी कम कीमत है। यह कपास के मांझे से एक तिहाई सस्ता और कई गुना अधिक मज़बूत होता है (जो पंतग कटने से बचा देता है)।

चाइनीज़ मांझा पॉलीमर को पिघलाकर एकल-तंतु तार के रूप में बनाया जाता है। एकल-तंतु तार घातक होते हैं और इन्हें तोड़ना काफी मुश्किल होता है। धागे में पैनापन लाने के लिए इस पर कांच का लेप चढ़ाया जाता है। यदि तनी हुई स्थिति में हो तो इस तरह तैयार धारदार मांझा मनुष्यों और जानवरों को घायल कर सकता है और किया भी है।

वैसे, चाइनीज़ मांझा नाम सुनकर लगता है कि यह चीन से मंगाया जाता होगा। लेकिन वास्तव में चाइनीज़ मांझा स्वदेशी उत्पाद है। चाइनीज़ मांझा उत्तरप्रदेश के बरेली और उसके आसपास के गांवों और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बनाया जाता है, जहां से इसे अधिकतर ऑनलाइन बेचा जाता है।

लेकिन इसके उपयोग से कई हादसों की खबरें आई हैं। इसलिए, कानून हो या न हो, सुरक्षित सूती मांझे का उपयोग करें, खुद सुरक्षित रहें, दूसरों को सुरक्षित रखें। इस मामले में कानून से ज़्यादा जागरूकता ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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जीएम फसल व खाद्य हानिकारक क्यों हैं? – भारत डोगरा

न दिनों सरसों की जीएम फसल पर निर्णय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इससे पहले भी कभी बैंगन, कभी सरसों तो कभी कपास की जीएम फसलों पर तीखे विवाद होते रहे हैं। विशेषकर जीएम खाद्य फसलों का विरोध विश्व में बड़े स्तर पर हुआ है। विश्व स्तर पर देखें तो जीएम फसल व खाद्य काफी विवादों में घिरे रहे हैं और बहुत से देशों ने इन्हें प्रतिबंधित भी किया हुआ है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही प्रजाति की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेंहू की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। इन्हें संकर किस्में कहते हैं।

परंतु जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी असम्बंधित पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।

जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।

इस पैनल में शामिल विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत, ऐसे पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी (खतरों की) उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होगी, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जीएम फसलों को अब दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और घातक दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी मरम्मत नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।

विवाद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह बन रहा है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे उन्हें दबाया गया है। प्राय: जीएम फसलों के समर्थकों द्वारा यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। लेकिन हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई थी तथा इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों सम्बंधी चेतावनियों को दबाया गया था।

इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की जेनेटिक रुले। कई प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में स्मिथ ने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य व औषधि प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ व वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वे वर्षों से जीएम उत्पादों से सम्बंधित विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे और इसके लिए ज़रूरी अनुसंधान करवाने की ज़रूरत बताते रहे थे। यह काफी देर बाद पता चला कि जीएम उत्पादों पर इस तरह की जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्राय: दबा देती थी।

जब वर्ष 1992 में खाद्य व औषधि प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44,000 पृष्ठों में फैली नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के विरुद्ध होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेज़ों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेज़ों से यह भी पता चला कि खाद्य व औषधि प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए।

इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला था कि विकसित किए जा रहे एक जीएम आलू की किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई थी। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।

ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने का उल्लेख है तथा जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

जीएम फसलों के अनेक खतरों के बढ़ते उदाहरणों को देखते हुए इन फसलों के समर्थक बस एक बात पर अड़ जाते हैं कि इनसे उत्पादकता बढ़ेगी। जीएम फसलों का सबसे अधिक प्रसार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है और यहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के एक विस्तृत अध्ययन ने बता दिया है कि जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने में कोई सफलता नहीं मिली है। इसी तरह भारत में बीटी कॉटन फसलों के कुछ अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। बीटी कॉटन का कीटनाशक उपयोग कम करने का दावा ज़मीनी अनुभव से मेल नहीं खाता है।

कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूज़ीलैंड) के इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. जैक हनीमैन ने लिखा है कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती हैं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती है, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। भारत में जीएम फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पी. वी. सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्र प्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली। सैकड़ों भेड़ें बीटी कॉटन खेतों में चरने के बाद मर गईं। लेकिन बीज का केंद्रीकरण करके ऐसी स्थिति बना दी गई है जिसमें ऐसा संकरित बीज बाज़ार में मिलना कठिन हो गया है जो जेनेटिक इंजीनियरिंग से न बना हो।

जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेज़ी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के कई देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जेनेटिक इंजीनियरिंग के असर से मुक्त हों। यदि हमारे यहां जीएम फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाज़ार हमसे छिन जाएंगे।

कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र लगभग छ-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथों में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

इस षड्यंत्र के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जैव प्रौद्योगिकी के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव (अब नहीं रहे) को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। पुष्प भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे थे।

ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी थी कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उन्होंने इस चेतावनी में आगे कहा था कि इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है।

हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 शोध पत्रों ने मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा था कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने हितों का टकराव स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया गया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण लाया जा सकता है। किंतु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।

कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनकी परस्पर निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलग-थलग नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीवों में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाएगा, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए व अप्रत्याशित परिणाम होने की संभावना है।

इतना ही नहीं, जीन समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध होता है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अन्य जीवों में भी इन जीन्स के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे ऐसे खतरों की आशंका और बढ़ जाती है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।

अत: जीएम फसलों, विशेषकर खाद्य फसलों व उनसे प्राप्त खाद्यों, का प्रवेश उचित नहीं है; इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निएंडरथल पके खाने के शौकीन थे

गर आप सोचते हैं कि निएंडरथल मानव कच्चा मांस और फल-बेरियां ही खाते थे, तो हालिया अध्ययन आपको फिर से सोचने को मजबूर कर सकता है। उत्तरी इराक की एक गुफा में विश्व के सबसे प्राचीन पके हुए भोजन के जले हुए अवशेष मिले हैं, जिनके विश्लेषण से लगता है कि निएंडरथल मानव खाने के शौकीन थे।

लीवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के सांस्कृतिक जीवाश्म विज्ञानी क्रिस हंट का कहना है कि ये नतीजे निएंडरथल मानवों में खाना पकाने के जटिल कार्य और खाद्य संस्कृति का पहला ठोस संकेत हैं।

दरअसल शोधकर्ता बगदाद से आठ सौ किलोमीटर उत्तर में निएंडरथल खुदाई स्थल की एक गुफा शनिदार गुफा की खुदाई कर रहे थे। खुदाई में उन्हें गुफा में बने एक चूल्हे में जले हुए भोजन के अवशेष मिले, जो अब तक पाए गए पके भोजन के अवशेष में से सबसे प्राचीन (लगभग 70,000 साल पुराने) थे।

शोधकर्ताओं ने पास की गुफाओं से इकट्ठा किए गए बीजों से इन व्यंजनों में से एक व्यंजन को प्रयोगशाला में बनाने की कोशिश की। यह रोटी जैसी, पिज़्ज़ा के बेस सरीखी चपटी थी जो वास्तव में बहुत स्वादिष्ट थी।

टीम ने दक्षिणी यूनान में फ्रैंचथी गुफा, जिनमें लगभग 12,000 साल पहले आधुनिक मनुष्य रहते थे, से मिले प्राचीन जले हुए भोजन के अवशेषों का भी स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से विश्लेषण किया।

दोनों जानकारियों को साथ में देखने से पता चलता है कि पाषाणयुगीन आहार में विविधता थी और प्रागैतिहासिक पाक कला काफी जटिल थी, जिसमें खाना पकाने के लिए कई चरण की तैयारियां शामिल होती थीं।

शोधकर्ताओं को पहली बार दोनों स्थलों पर निएंडरथल और शुरुआती आधुनिक मनुष्यों (होमो सेपिएन्स) द्वारा दाल भिगोने और दलहन दलने के साक्ष्य मिले हैं।

शोधकर्ताओं को भोजन में अलग-अलग तरह के बीजों को मिलाकर बनाने के प्रमाण भी मिले हैं। उनका कहना है कि ये लोग कुछ खास पौधों के ज़ायके को प्राथमिकता देते थे।

एंटीक्विटी में प्रकाशित यह शोध बताता है कि शुरुआती आधुनिक मनुष्य और निएंडरथल दोनों ही मांस के अलावा वनस्पतियां भी खाते थे। जंगली फलों और घास को अक्सर मसूर की दाल और जंगली सरसों के साथ पकाया जाता था। और चूंकि निएंडरथल लोगों के पास बर्तन नहीं थे इसलिए अनुमान है कि वे बीजों को किसी जानवर की खाल में बांधकर भिगोते होंगे।

हालांकि, ऐसा लगता है कि आधुनिक रसोइयों के विपरीत निएंडरथल बीजों का बाहरी आवरण नहीं हटाते थे। छिलका हटाने से कड़वापन खत्म हो जाता है। लगता है कि वे कड़वेपन को कम तो करना चाहते थे लेकिन दालों के प्राकृतिक स्वाद को खत्म भी नहीं करना चाहते थे।

अनुमान है कि वे स्थानीय पत्थरों की मदद से बीजों को कूटते या दलते होंगे इसलिए दालों में थोड़ी किरकिरी आ जाती होगी। और शायद इसलिए निएंडरथल मनुयों के दांत इतनी खराब स्थिति में थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नर ततैया भी डंक मारते हैं

क जापानी कीटविज्ञानी मिसाकी त्सूजी को जब एक नर ततैया ने डंक मारा तो वे हैरान रह गईं। क्योंकि माना जाता है कि सिर्फ मादा ततैया और मधुमक्खियां ही दर्दनाक डंक मार सकती हैं। दरअसल वे जिस अंग से डंक मारती हैं वह अंडे देने के अंग (ओविपॉज़िटर) का परिवर्तित रूप होता है। इसलिए आम तौर पर माना जाता है कि नर डंक नहीं मार सकते।

इस अनुभव के बाद जिस ततैया, एंटरहाइंचियम गिबिफ्रॉन्स, ने डंक मारा था त्सूजी ने उसका बारीकी से अवलोकन किया। करंट बायोलॉजी में वे बताती हैं कि ततैया ने डंक मारने के लिए अपने नुकीले, दो कांटों वाले जननांग का उपयोग किया था।

यह जानने के लिए कि क्या नर ततैया के छद्म डंक उन्हें उनके शिकारियों से बचाते हैं, शोधकर्ताओं ने ए. गिबिफ्रॉन्स नर ततैया को उनके शिकारी (वृक्ष मेंढक) के साथ रखा। जब-जब मेंढक ने ततैया पर हमला किया ततैया ने अपने पैने शिश्न से पलटवार किया। नतीजतन मेंढक ने लगभग एक तिहाई दफा ततैया को बाहर थूक दिया। तुलना के तौर पर जिन नर ततैया के छद्म डंक हटा दिए गए थे वे मेंढक का भोजन बन गए थे।

जीव जगत में ऐसा पहली बार देखा गया है जब नर जननांग द्वारा रक्षात्मक भूमिका निभाई जा रही हो। शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की रणनीति अन्य ततैया में भी पाई जाती होगी। शोधकर्ता आगे इसी का अध्ययन की तैयारी में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उपेक्षित कॉफी फिर उगाई जा सकती है

हाल ही में बरपे सूखे ने दुनिया के सबसे लोकप्रिय कॉफी बीज कॉफी अरेबिका की कीमत को दुगना कर दिया है। बढ़ता वैश्विक तापमान जल्द ही कई प्लांटेशन के लिए उनके मनचाहे पौधे उगाना अव्यावहारिक बना सकता है। इसलिए अफ्रीका के कॉफी उत्पादकों ने लंबे समय से विस्मृत कॉफी की एक किस्म, कॉफी लिबरिका, को फिर से लगाना शुरू कर दिया है।

क्यू स्थित रॉयल बॉटेनिक गार्डन के वनस्पतिशास्त्रियों ने नेचर प्लांट्स पत्रिका में बताया है कि 1870 के दशक में सी. लिबरिका को बड़े पैमाने पर उगाया जाता था। लेकिन इसके कठोर आवरण वाले बड़े फल प्रोसेस करना कठिन था। इनकी तुलना में अन्य किस्मों के छोटे फलों को प्रोसेस करना आसान था। 20वीं सदी आते-आते सी. लिबरिका उगाना बंद हो गया था।

हाल के वर्षों में युगांडा के किसान सी. लिबरिका (लोकप्रिय नाम एक्सेल्सा) उप-प्रजाति की खेती अधिक करने लगे हैं। एक्सेल्सा बीमारियों और मुरझाने की प्रतिरोधी है। इस दमदार और मीठी कॉफी की वृद्धि के लिए बहुत ठंड भी ज़रूरी नहीं होती।

तो शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस तरह एक्सेल्सा और अन्य कम उगाई जाने वाली कॉफी किस्में गर्म हो रही पृथ्वी पर गर्मागर्म कॉफी के प्याले भरने में मदद करती रह सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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