विकलांग अधिकार आंदोलन: समान अवसर, पूर्ण भागीदारी – सुबोध जोशी

विकलांगता की बात आते ही दो तस्वीरें सामने आती हैं। पहली है यूएसए, अन्य विकसित पश्चिमी देशों और जापान जैसे गैर-पश्चिमी विकसित देशों की तस्वीर, जहां विकलांगजन को अवसर, सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त है, जिनका उपयोग करते हुए वे गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने में समर्थ हैं। दूसरी तस्वीर है भारत सहित विकासशील और पिछड़े देशों की, जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न पहलों के बावजूद विकलांगजन घोर दुर्दशापूर्ण जीवन जीने को अभिशप्त हैं।

विकलांगजन के हितों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1981 को विश्व विकलांगजन वर्ष घोषित किया गया था और 1983 से 1992 के दशक को संयुक्त राष्ट्र विकलांगजन दशक। संयुक्त राष्ट्र की ही पहल पर 1992 से 3 दिसंबर प्रति वर्ष विश्व विकलांगजन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। उसकी इन पहलों से पहले भी दुनिया के विकसित देशों में, विशेष रूप से यूएसए में, विकलांगजन के लिए उल्लेखनीय कार्य किया जा रहा था क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वहां डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट काफी ज़ोर पकड़ चुका था। डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट का खासा असर रहा और इससे इतना दबाव बना कि संयुक्त राष्ट्र संघ और दुनिया भर के देशों की सरकारों को सबसे उपेक्षित वर्ग यानी विकलांग वर्ग के लिए पहल करने पर मजबूर होना पड़ा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट इसलिए अधिक प्रभावशाली हुआ क्योंकि इसमें बड़ी संख्या में वे सैनिक शामिल थे जो विश्व युद्ध में विकलांग हो गए थे। चूंकि वे युद्ध के नायक थे और जनता उनके साथ थी इसलिए उनकी बातों या मांगों को नज़रअंदाज़ करना सरकार और संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए आसान नहीं था। इसके बावजूद परिणाम सामने आने में दो-तीन दशकों का वक्त लगा और ‘समान अवसर एवं पूर्ण भागीदारी’ पर आधारित कानून और नीतियां सामने आने लगी। ‘समान अवसर एवं पूर्ण भागीदारी’ विकलांगजन का ऐसा अधिकार है जो पूरी तरह इस बात पर निर्भर है कि किसी देश का संपूर्ण तंत्र, सरकार, संस्थाएं और गैर-विकलांग समुदाय विकलांगजन के प्रति अपना दायित्व किस प्रकार निभाते हैं।

भारत की ही मिसाल ले लीजिए जहां संविधान के निर्माताओं को यह एहसास तक नहीं हुआ कि उनसे विकलांग वर्ग की पूर्ण उपेक्षा हो रही है। भारत में विकलांगजन के लिए कानून बनाने का अधिकार केंद्रीय सूची या समवर्ती सूची में न रखते हुए उन्होंने यह काम पूरी तरह राज्यों पर छोड़ दिया। संवेदनशीलता की कमी का नतीजा यह हुआ कि राज्यों द्वारा आधी सदी बीत जाने तक कोई प्रभावी कानून बनाए जाने की जानकारी नहीं है। विकलांगता सम्बंधी अंतर्राष्ट्रीय संधियों या घोषणा पत्रों पर हस्ताक्षर करने के बाद ही संविधान के विशेष प्रावधान का उपयोग करते हुए विकलांगजन के लिए 1995 और 2016 के केंद्रीय कानून लाए गए। लेकिन फिर भी विकलांगजन के लिए कानून बनाने का मुद्दा केंद्रीय या समवर्ती सूची में नहीं जोड़ा गया।

डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट एक अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलन रहा है और इस पर निगाह डालना उचित होगा। यूएसए और अन्य विकसित देशों में यह विशेष रूप से प्रभावी रहा है और इसी का नतीजा है कि भारत सहित विकासशील और पिछड़े देशों में भी विकलांगजन के अधिकारों और कल्याण की बात हो रही है। डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट एक विश्वव्यापी सामाजिक आंदोलन है लेकिन मुख्य रूप से यह यूएसए में जन्मा और पनपा और फिर दुनिया भर में फैल गया। इसका मुख्य लक्ष्य विकलांगजन को जबरन दरकिनार करने के विरुद्ध लड़ाई लड़ना है।

विकलांगजन के अधिकारों के लिए लड़ाई यूएसए में 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में शुरू हो चुकी थी और इसने धीरे-धीरे आकार लिया। लुई ब्रेल और उनके बाद हेलेन केलर ने इस दिशा में व्यक्तिगत तौर पर उल्लेखनीय कार्य किया। धीरे-धीरे स्थानीय और राज्य स्तरीय संगठन अस्तित्व में आए और पहला राष्ट्रीय संगठन – दी नेशनल एसोसिएशन ऑफ दी डेफ (बधिरों के राष्ट्रीय संगठन) – 1880 में स्थापित किया गया। 1930 के दशक में दी सोशल सिक्योरिटी एक्ट (सामाजिक सुरक्षा कानून) में दृष्टिबाधितों और विकलांग बच्चों की सहायता के लिए राज्यों को धनराशि उपलब्ध कराई गई। 1940 के दशक में नेशनल मेंटल हेल्थ एक्ट (राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कानून) के तहत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ स्थापित करने की बात कही गई थी और विकलांगजन के अधिकारों के लिए दी अमेरिकन फेडरेशन ऑफ दी फिज़िकली हैंडीकैप्ड (शारीरिक रूप से विकलांगजन संगठन) प्रथम बहु-विकलांगता संगठन के रूप में उभरा।

1950 के दशक में ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के फलस्वरूप डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट ने गति पकड़ी और 1964 के दी सिविल राइट्स एक्ट (नागरिक अधिकार कानून) से इस आंदोलन को नई दिशा मिली। 1970 के दशक में यह मांग भी उठी कि 1972 के रिहैबिलिटेशन एक्ट (पुनर्वास कानून) में विकलांगजन के नागरिक अधिकार शामिल किए जाएं। 1973 में पारित रिहैबिलिटेशन एक्ट में यह मांग पूरी की गई। इस तरह इतिहास में पहली बार विकलांगजन के नागरिक अधिकार कानूनन संरक्षित किए गए। तत्पश्चात सभी विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा तक पहुंच समान रूप से सुनिश्चित करने के लिए 1975 में दी एजुकेशन फॉर ऑल चिल्ड्रन एक्ट पारित हुआ  (बाद में इसे इंडिविजुअल्स विथ डिसेबिलिटिज़ एजुकेशन एक्ट कहा गया)। एक कदम और आगे बढ़ते हुए 1980 के दशक में यह मांग रखी गई कि अलग-अलग कानूनों/हिस्सों में बंटे हुए प्रावधानों को एकल कानून का रूप दिया जाए। 1990 में अमेरिकंस विद डिसेबिलिटिज़ एक्ट पारित किया गया जिसका उद्देश्य विकलांगता के आधार पर भेदभाव को रोकना है।

भारत के संदर्भ में देखें तो विकलांगजन के अधिकारों को लेकर आंदोलन इतना मज़बूत नहीं रहा है और उनके लिए कानून भी आंदोलन के परिणामस्वरूप और कानून-निर्माताओं की स्वयं की सोच और संवेदनशीलता के कारण नहीं बने। दुर्भाग्यवश बहुत से अन्य देशों की तरह भारत में भी विकलांगजन को अनुपयोगी, अनुत्पादक और बोझ समझा जाता है। भारत में विकलांगजन के अधिकारों के लिए पहला कानून एशिया-प्रशांत क्षेत्र में विकलांगजनों की समानता और पूर्ण भागीदारी की घोषणा के आधार पर बना – नि:शक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995। इसका स्थान लेने वाला अगला कानून विकलांगजन के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की संधि (सं.रा. विकलांगजन अधिकार संधि – UNCRPD) के आधार पर दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 के रूप में सामने आया। ये दोनों कानून अंतर्राष्ट्रीय संधि या घोषणा पत्र के पालन के लिए संविधान के अनुच्छेद 253 का उपयोग करते हुए बनाए गए थे। इन दोनों के बीच ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मेंटल रिटार्डेशन और मल्टीपल डिसेबिलिटी से प्रभावित व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय न्यास अधिनियम 1999 पारित किया गया।

भारत में डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट की शुरुआत 1970 के दशक से मानी जा सकती है लेकिन आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति और संगठन बिखरे हुए थे। उनकी आवाज़ मज़बूत नहीं थी और कमोबेश यही स्थिति आज भी कायम है। 1986 में रिहैबिलिटेशन काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना एक रजिस्टर्ड सोसाइटी के रूप में की गई और एक कानून के ज़रिए 1993 में इसे वैधानिक निकाय का दर्जा दिया गया। लेकिन विकलांगजन के कल्याण और पुनर्वास के लिए तब तक भी कानून का अभाव था। इस बीच मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 पारित किया गया, जिसका स्थान मेंटल हेल्थ एक्ट 2017 ने लिया। विकलांगजन के प्रति संवेदनशीलता की कमी इस सच्चाई से भी समझी जा सकती है कि स्वतंत्र भारत में उन्हें शुरू से एक श्रेणी के रूप में राष्ट्रीय जनगणना से बाहर रखा गया। अत्यधिक दबाव पड़ने पर 2001 की जनगणना में उन्हें अलग स्थान दिया गया। तब तक सैंपल सर्वे के माध्यम से उनकी संख्या का अनुमान लगाया जाता रहा।

भारत में 2006 में विकलांगता सम्बंधी राष्ट्रीय नीति लागू की गई। अगली कड़ी के रूप में 2011 में तैयार किए गए विकलांगजन अधिकार विधेयक का उद्देश्य राष्ट्र संघ संधि के तहत भारत के दायित्वों को कानून का रूप देना था। इसे अमली जामा पहनाते हुए दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 पारित किया गया। इसमें पूर्ववर्ती कानून में शामिल 7 विकलांगताओं के स्थान पर 21 विकलांगताएं शामिल की गईं।

एक मत यह भी है कि भारत में डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। कुछ व्यक्तियों और संगठनों द्वारा विकलांगजन के लिए अच्छे प्रयास ज़रूर किए जा रहे हैं, लेकिन वे विकलांगजन की वास्तविक आबादी के मान से बहुत ही कम हैं। ग्रामीण इलाके और छोटे कस्बे सेवाओं से पूरी तरह वंचित हैं।

पुनः अमेरिका की बात करें तो पुराने समय में लुई ब्रेल और हेलेन केलर ने जिस जुझारूपन का परिचय दिया, उसी राह पर वहां के आधुनिक समय के कुछ विकलांग भी चल रहे हैं। वे न सिर्फ डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट को नए संदर्भों में आगे बढ़ा रहे हैं बल्कि विकलांगजन का जीवन आसान और बेहतर बनाने के उल्लेखनीय प्रयास भी कर रहे हैं। इनमें एसिड हमले में अपनी दृष्टि गंवा चुके युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के छात्र रह चुके जोशुआ मिली हैं जो मैकआर्थर ‘जीनियस ग्रांट’ विजेता हैं और अमेज़न जैसी कंपनी में एडाप्टिव टेक्नॉलॉजी विकसित करते हैं ताकि दृष्टिबाधिता और अन्य विकलांगताओं से प्रभावित व्यक्तियों के लिए उपभोक्ता उपकरण उपयोग में लाना सुगम हो जाए। इसका नतीजा यह हुआ कि विकलांग-अनुकूल उत्पाद उपलब्ध कराने की उम्मीद अब व्यापक स्तर पर सभी उद्योगों से की जाने लगी है। यहीं के एक और छात्र मार्क सटन की कहानी भी इसी तरह प्रेरणादायक है। अपनी दृष्टिबाधिता के कारण उन्हें कंप्यूटर साइंस और वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई में घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ा, लेकिन वे आज एप्पल कंपनी में कार्य करते हुए सॉफ्टवेयर में ऐसे बदलाव लाने और ऐसे समाधान खोजने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं जिनसे दृष्टिबाधितों के लिए कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसे उपकरण वापरना सुगम हो जाए। इन प्रेरक प्रसंगों का परिणाम यह हुआ कि युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के छात्रों का एक नेटवर्क बन गया। इस नेटवर्क के सदस्य अपने-अपने क्षेत्र में अग्रणि रहे हैं और डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट को आगे बढ़ा रहे हैं।

बर्कले ही वह स्थान है जहां डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट की शुरुआत हुई थी। नेशनल फेडरेशन ऑफ दी ब्लाइंड का जन्म भी बर्कले में ही हुआ और नागरिक अधिकार कानून तथा ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन के मुकदमे के लिए आधार भी बर्कले में कानून के एक प्रोफेसर के विश्लेषण से प्राप्त हुआ। संभव है संयुक्त राष्ट्र संघ की पहलों और संयुक्त राष्ट्र संधि के लिए आधार भी अमेरिका और उसके जैसे संवेदनशील और अग्रणि देशों द्वारा विकलांगजन के लिए किए गए कार्यों से मिला हो।

इससे यह बात समझ आती है कि भारत में विकलांगजन को अपने अधिकार तब ही मिलेंगे जब वे और उनके परिजन एकजुट होकर अपनी आवाज़ उठाकर दबाव बनाने में कामयाब होंगे। गौरतलब है कि भारतीय संविधान में संशोधन की भी ज़रूरत है ताकि अंतर्राष्ट्रीय संधियों/घोषणा पत्रों के बगैर भी केंद्रीय स्तर पर विकलांगजन के लिए स्वप्रेरित राष्ट्रीय कानून बनाने का मार्ग खुल जाए। संपूर्ण तंत्र, सरकार, संस्थाओं और गैर-विकलांग समुदाय को विकलांगजन की विशेष आवश्यकताओं के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाना होगा। ऐसी कल्याणकारी योजनाएं बनानी होंगी जो विकलांगजन के लिए वास्तव में लाभकारी हों और उनका पैमाना बढ़ती लागत के साथ बढ़ना चाहिए। राष्ट्र संघ संधि और कानून में काफी कुछ लिखा है, लेकिन संवेदनशीलता और ईमानदारी से क्रियान्वयन होने पर ही उसका लाभ मिलना संभव है। अशिक्षा और गरीबी का उन्मूलन होना चाहिए क्योंकि दोनों एक-दूसरे के कारण और परिणाम हैं। शिक्षित विकलांगजन अधिक जागरूक होकर अधिक प्रभावी ढंग से अपनी आवाज़ उठाने में सक्षम होंगे और शिक्षित समाज विकलांगजन के प्रति अपना दायित्व बेहतर ढंग से समझकर संवेदनशीलता के साथ निभा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कम बीफ खाने से जंगल बच सकते हैं

हाल ही में हुए एक मॉडलिंग अध्ययन का निष्कर्ष है कि अगले 30 वर्षों में सिर्फ 20 प्रतिशत बीफ की जगह मांस के विकल्प का उपयोग करने से वनों की कटाई और इससे जुड़े कार्बन उत्सर्जन को आधा किया जा सकता है। ये नतीजे नेचर पत्रिका प्रकाशित हुए हैं।

बीफ के लिए मवेशियों को पालना वनों की कटाई का प्रमुख कारण है। मवेशी मीथेन उत्सर्जन का भी प्रमुख स्रोत हैं। अध्ययन का निष्कर्ष है कि बीफ के बदले मांस के विकल्प अपनाने से खाद्य उत्पादन के कारण होने वाला उत्सर्जन कुछ कम हो सकता है, लेकिन यह कोई रामबाण इलाज नहीं है।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि बीफ की जगह गैर-मांस विकल्प ‘मायकोप्रोटीन’ अपनाने से पर्यावरण पर लाभकारी प्रभाव पड़ सकते हैं। मायकोप्रोटीन मिट्टी में पाई जाने वाली फफूंद के किण्वन से बनाया जाता है। 1980 के दशक में यू.के. में यह क्वार्न ब्रांड नाम से बिकना शुरू हुआ और अब यह कई देशों में आसानी से उपलब्ध है।

यह अध्ययन बीफ की जगह मायकोप्रोटीन अपनाने से पर्यावरणीय प्रभावों का अनुमान लगाता है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक गणितीय मॉडल का इस्तेमाल किया, जिसमें 2020 से 2050 के बीच जनसंख्या वृद्धि, आय और मवेशियों की मांग में वृद्धि को शामिल किया गया। यदि सब कुछ आज जैसा ही चलता रहा, तो बीफ की खपत में वैश्विक वृद्धि से चराई के लिए चारागाह और मवेशियों के आहार उत्पादन के लिए कृषि भूमि में विस्तार की आवश्यकता होगी। इससे वनों की कटाई की वार्षिक दर दुगनी हो जाएगी। मीथेन उत्सर्जन और कृषि कार्यों के लिए जल उपयोग भी बढ़ जाएगा।

दूसरी ओर, यदि वर्ष 2050 तक 20 प्रतिशत बीफ की जगह मायकोप्रोटीन लें तो मीथेन उत्सर्जन में 11 प्रतिशत कमी आएगी और साल भर में होने वाली वनों की कटाई और उससे सम्बंधित उत्सर्जन आधा रह जाएगा। बीफ की खपत का आधा हिस्सा मायकोप्रोटीन से बदलने पर वनों की कटाई में 80 प्रतिशत की कमी और 80 प्रतिशत तक बदलने से 90 प्रतिशत तक की कमी आएगी।

वैसे बीफ की जगह मांस विकल्प अपनाने से जल उपयोग में मामूली बदलाव ही दिखेंगे क्योंकि जो पानी मवेशियों के आहार उगाने में लगता था अब अन्य फसल उगाने में लगेगा।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसे अध्ययन खाद्य उत्पादन के बेहतर तरीके पता करने में मददगार हो सकते हैं लेकिन यह भी हो सकता है कि मायकोप्रोटीन उत्पादन में अधिक बिजली लगे, इसलिए अतिरिक्त बिजली उत्पादन के पर्यावरणीय प्रभावों पर भी विचार करना होगा। इसके अलावा बीफ की जगह मायकोप्रोटीन अपनाने का मतलब है कि पशुपालन से मिलने वाले सह-उत्पाद (चमड़ा और दूध) भी वैकल्पिक तरीकों से प्राप्त करना होंगे। ये वैकल्पिक तरीके भी पर्यावरण पर प्रभाव डालेंगे।

सुझाव है कि बीफ को मांस के अन्य विकल्प जैसे प्रयोगशाला में बनाए गए मांस या वनस्पति-आधारित विकल्प से बदलने पर पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ओज़ोन का ह्रास करने वाला रसायन बढ़ रहा है

हाल की एक रिपोर्ट में स्तब्ध कर देने वाले नतीजे सामने आए हैं। वर्ष 2012 से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले रसायन HCFC-141b के स्तर में वृद्धि देखी गई है जबकि इसका घोषित उत्पादन कम हुआ है।

ये नतीजे पूर्व में उपयोग किए गए इस तरह के रसायनों से छुटकारा पाने की चुनौतियों को रेखांकित करते हैं: भले ही इन रसायनों का उत्पादन थम गया हो लेकिन उपकरणों में ये दशकों तक टिके रह सकते हैं। नतीजे यह भी दर्शाते हैं कि कैसे विभिन्न महाद्वीपों में लगे सेंसर्स के असमान वितरण से उत्सर्जन के स्रोतों को पहचानने में कठिनाई होती है।

HCFC-141b का उपयोग मुख्यत: रेफ्रिजरेटर वगैरह में फोम इन्सुलेशन बनाने में किया जाता था। फ्लोरोकार्बन रसायन ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं। 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत इन रसायनों के उपयोग को धीरे-धीरे बंद करने के प्रयास शुरू किए गए थे। 2000 के दशक की शुरुआत से ओज़ोन को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों में लगातार कमी आई, और ध्रुवों के ऊपर बना ओज़ोन ‘छिद्र’ भरने लगा।

फिर 2018 में पता चला कि प्रतिबंधित रसायन CFC-11 का स्तर वर्ष 2012 से बढ़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय पैनल का मत था कि यह वृद्धि संभवत: CFC-11 के अवैध उत्पादन के कारण है। अवैध उत्पादन का कारण शायद यह है कि तब CFC-11 के विकल्प HCFC-141b, जो  ओज़ोन को कम नुकसान पहुंचाता है, की आपूर्ति बहुत कम थी। 2019 में एक बार फिर CFC-11 का स्तर गिरने लगा।

चूंकि 2030 तक HCFC-141b के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध के प्रयास 2013 में शुरू हो गए थे, इसलिए अब तक HCFC-141b के उत्पादन में भी गिरावट दिखनी चाहिए थी। अब HCFC-141b की जगह ऐसे रसायनों का उपयोग किया जा रहा है जो ओज़ोन परत को नुकसान नहीं पहुंचाते।

लेकिन वायुमण्डल में तो HCFC-141b का स्तर बढ़ रहा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह वृद्धि 2017 से 2021 के बीच हुई है। एटमॉस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिज़िक्स में ऑनलाइन प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2017 से 2020 तक HCFC-141b की मात्रा में कुल 3000 टन की वृद्धि हुई है।

नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रशन के स्टीफन मोंट्ज़्का का कहना है कि HCFC-141b में वृद्धि उत्तरी गोलार्ध में कहीं से हो रही है।

एक संभावना यह है कि HCFC-141b का अवैध उत्पादन न हो रहा हो और कबाड़ हो चुके उपकरणों के फोम के विघटन से HCFC-141b निकल रही हो।

दुनिया के विभिन्न इलाकों में वायु सेंसर्स के असमान वितरण के कारण उत्सर्जन का वास्तविक स्रोत पकड़ में नहीं आ रहा है। इस वजह से भारत, रूस, मध्य-पूर्व, अधिकांश अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की स्थिति को लेकर वैज्ञानिक अनभिज्ञ हैं। उम्मीद है कि आने वाले सालों में चीज़ें ज़्यादा स्पष्ट होंगी। CFC-11 में वृद्धि के बाद से युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित पहल के तहत अधिक सेंसर लगाए जा रहे हैं और सेंसर के असमान वितरण को कम किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भीषण गर्मी की चपेट में उत्तरी भारत

मानव गतिविधियों की वजह से हो रहे ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो या अन्यथा, फिलहाल मुद्दा यह है कि उत्तरी भारत औसतन 45 डिग्री सेल्सियस के दैनिक तापमान के साथ भीषण गर्मी की चपेट में है।

ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के वैश्विक पैटर्न में परिवर्तन आएगा और भारत को और अधिक भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार ग्रीष्म लहर (लू) उस स्थिति को कहते हैं जब किसी दिन का तापमान लंबे समय के औसत तापमान से 4.5 से 6.4 डिग्री अधिक होता है (या मैदानी क्षेत्रों में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक और तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो)।

उदाहरण के लिए, दिल्ली में 1981 से 2010 के दौरान मई का औसत उच्च तापमान 39.5 डिग्री सेल्सियस रहा करता था लेकिन वर्तमान में 28 अप्रैल से प्रतिदिन का तापमान 44 डिग्री सेल्सियस है (औसत अधिकतम तापमान से 4.5 डिग्री सेल्सियस अधिक)। ये महज आंकड़े नहीं हैं बल्कि इनका सम्बंध मानव शरीर, जन स्वास्थ्य और जलवायु संकट के इस दौर में शासन व्यवस्था से जुड़ा है।

इस संदर्भ में वेट-बल्ब तापमान महत्वपूर्ण है। वेट-बल्ब तापमान वह न्यूनतम तापमान है जो कोई वस्तु गर्म वातावरण में हासिल कर सकती है जब साथ-साथ उसे पानी के वाष्पन से ठंडा किया जा रहा हो। जब आसपास का वातावरण गर्म हो और वस्तु की सतह से पानी वाष्पित हो रहा हो तो उनके बीच एक साम्य स्थापित होता है और वस्तु के तापमान में कमी आती है। अपनी त्वचा का उदाहरण लीजिए। किसी गर्म दिन में जब आपकी त्वचा की सतह से पसीना वाष्पीकृत होता है तब आपकी त्वचा कम-से-कम जितने तापमान तक ठंडी हो सकती है उसे वेट-बल्ब तापमान कहा जाता है। यह तापमान सिर्फ साधारण तापमापी से नापा गया तापमान नहीं बल्कि वाष्पन की वजह से आई या आ सकने वाली गिरावट को दर्शाता है।

यहां एक बात ध्यान देने योग्य है। किसी सतह से पानी का वाष्पन सिर्फ तापमान पर निर्भर नहीं करता बल्कि आसपास की हवा में मौजूद नमी की मात्रा पर भी निर्भर करता है। यदि आसपास की हवा बहुत अधिक नम है, तो सतह से पानी का वाष्पन कम होगा और उस वस्तु के तापमान में उतनी कमी नहीं आ पाएगी जितनी शुष्क हवा में आती।

मौसम का अध्ययन करने वाले एक संस्थान मेटियोलॉजिक्स के अनुसार 26 अप्रैल 2022 को सुबह साढ़े आठ बजे दक्षिण दिल्ली का वेट-बल्ब तापमान लगभग 19.5 डिग्री सेल्सियस था जो 29 अप्रैल को बढ़कर 22 डिग्री सेल्सियस हो गया। ये दोनों ही तापमान फिलहाल सुरक्षित सीमा में हैं। लेकिन 32 डिग्री सेल्सियस के वेट-बल्ब तापमान में थोड़ी देर भी बाहर रहना हानिकारक हो सकता है। वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो, तो पर्याप्त पानी पीने और कोई शारीरिक कार्य किए बगैर भी कुछ घंटे बाहर छाया में गुज़ारना तक जानलेवा हो सकता है।

एशिया के मौसम मानचित्र में दिखेगा कि वेट-बल्ब तापमान भूमध्य रेखा की ओर जाने पर काफी तेज़ी से बढ़ता है और साथ ही भारत के पश्चिमी तट की तुलना में पूर्वी तट पर अधिक होता है। यह मुख्य रूप से नमी के कारण होता है। वातावरण में जितनी अधिक नमी होगी, उतना ही कम पसीना वाष्पित हो पाएगा और शरीर भी उतना ही कम ठंडा हो पाएगा। इसलिए किसी क्षेत्र में मात्र हवा का तापमान जानना पर्याप्त नहीं होता बल्कि आर्द्रता और वेट-बल्ब की रीडिंग भी महत्वपूर्ण है।

2020 में कोलंबिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि पृथ्वी की सतह के कई हिस्सों में गर्मी और आर्द्रता के कारण स्थिति जानलेवा बन चुकी है जबकि पहले ऐसा माना जा रहा था कि यह स्थिति सदी के अंत में आएगी। शोधकर्ताओं द्वारा 1979 से 2017 तक एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार पूर्वी तटवर्ती और उत्तर-पश्चिमी भारत पर सबसे अधिक वेट-बल्ब तापमान होने की संभावना है।

ज़्यादा व्यापक स्तर पर देखें तो मध्य अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व, उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी भारत तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ हिस्सों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस की सीमा तक 2010 में ही पहुंच चुका है।     

ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ तापमान में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि समुद्र स्तर में भी वृद्धि हो रही है। इन दोनों समस्याओं के चलते भारत के कई क्षेत्र रहने योग्य नही रह जाएंगे। कब और कौन-से क्षेत्र निर्जन होंगे यह कई कारकों पर निर्भर करता है।   

गौरतलब है कि भारत के प्रभावित क्षेत्र में कई ऐसे राज्य शामिल हैं जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर और अपर्याप्त है, तथा चिकित्सा कर्मियों की कमी है। इन राज्यों की आय भी बहुत कम है और अधिकांश निवासी बाहरी काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर हैं और बहुत कम सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। इन गर्म हवाओं के दौरान बाहर काम करना उनके लिए काफी जोखिम भरा होगा। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जलवायु परिवर्तन में जिस समूह का समसे कम योगदान हैं उसे इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।      

इस समस्या के समाधान के लिए ‘हीट एक्शन प्लान’ तैयार किया गया है जिसको सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में अपनाया गया था। तब से लेकर अब तक 30-40 शहर इस योजना को अपना चुके हैं जिसमें जागरूकता अभियान, चेतावनी प्रणाली और शीतलन व्यवस्था की स्थापना तथा कमज़ोर वर्गों में गर्मी के जोखिम को कम करने के प्रयास किए गए हैं। देखा जाए तो गर्मी के शहरी टापू जैसे प्रभाव के कारण शहरी क्षेत्रों की गर्म हवाएं और भी घातक हो गई हैं। ये प्रयास सराहनीय हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। गर्म हवाओं की बात करते हुए आर्द्रता को शामिल करना अनिवार्य है क्योंकि वह वेट-बल्ब तापमान में वृद्धि करती है।  

फिलहाल, आईपीसीसी के अनुसार भारत में वेट-बल्ब तापमान शायद ही 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर रहा है लेकिन इसमें जल्द ही परिवर्तन की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे दूर स्थित मंदाकिनी की खोज – प्रदीप

ब्रह्मांड की गुत्थियों को सुलझाने में जुटे खगोल शास्त्रियों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने हाल ही में अब तक की सबसे दूर स्थित मंदाकिनी को खोजने का दावा किया है। धरती से तकरीबन 13.5 अरब प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित इस मंदाकिनी को खोजकर्ताओं ने एचडी1 नाम दिया है। यह अब तक खोजी गई सबसे दूर स्थित मंदाकिनी जीएन-ज़ेड11 से भी 10 करोड़ प्रकाश वर्ष ज़्यादा दूर है। इस खोज के नतीजे दी एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल में प्रकाशित किए गए हैं।

इस मंदाकिनी से हम तक पहुंचने वाला प्रकाश तब निकला था जब ब्रह्मांड महज 30 करोड़ साल पुराना था। यह 13.8 अरब वर्ष पहले हुए बिग बैंग के बाद अस्तित्व में आने वाली शुरुआती मंदाकिनियों में से एक है जो ब्रह्मांड की उत्पत्ति व विकास को लेकर हमारी मौजूदा समझ को भी बदल सकती है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक एचडी1 मंदाकिनी इतनी पुरानी और दूर है कि इसमें सिर्फ धूल और गैस के गुबार ही दिखाई देते हैं। शुरुआती ब्रह्मांड में चारों ओर धूल और गैस ही बिखरी हुई थी। बिग बैंग के कुछ करोड़ सालों के बाद ही ब्रह्मांड की शुरुआती मंदाकिनियां बनी थीं। ये मंदाकिनियां आकार-प्रकार में हमारी मंदाकिनी (आकाशगंगा) से हज़ारों गुना ज़्यादा विशाल थीं। इन शुरुआती मंदाकिनियों का मूल काम आज की मंदाकिनियों के निर्माण का था। इसलिए आज ब्रह्मांड में मौजूद समस्त मंदाकिनियां इन्हीं शुरुआती मंदाकिनियों से बनी हुई हैं और हमारी आकाशगंगा भी संभवत: इन्हीं से बनी हुई हो।

हारवर्ड एंड स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिज़िक्स के वरिष्ठ खगोल-भौतिकविद फैबियो पैकूची के मुताबिक एचडी1 पराबैंगनी प्रकाश में बेहद चमकीली दिखाई देती है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां कुछ ऊर्जावान प्रक्रियाएं हो रही हैं या फिर अरबों साल पहले हो चुकी हैं।

शुरू में खगोलशास्त्रियों को लगा कि एचडी1 बेहद अधिक रफ्तार से तारों का निर्माण कर रही स्टारबर्स्ट मंदाकिनी है। गणना करने पर पता चला कि एचडी1 हर साल 100 से ज़्यादा तारों का निर्माण कर रही थी। यह सामान्य स्टारबर्स्ट मंदाकिनियों की तुलना में भी 10 गुना अधिक है। तब खगोल शास्त्रियों की टीम को संदेह हुआ कि एचडी1 रोज़ाना सामान्य रूप से तारों का निर्माण नहीं कर रही है। एचडी1 से हम तक आने वाला प्रकाश भी दुविधा में डालने वाला है।

खगोल शास्त्रियों की टीम ने इस खोज को लेकर दो संभावनाएं प्रस्तुत की हैं। पहला यह कि संभवत: एचडी1 आश्चर्यजनक दर से तारों का निर्माण कर रही है और हो सकता है कि ये ब्रह्मांड के उन शुरुआती तारों में से हो, जिन्हें अब तक नहीं देखा गया था। दूसरा यह कि एचडी1 के अंदर सूर्य के द्रव्यमान का लगभग 10 करोड़ गुना बड़ा अतिविशाल ब्लैक होल हो सकता है। लेकिन, अगर इस मंदाकिनी में ब्लैक होल हुआ तो यह ब्रह्मांड के उन मॉडल्स के लिए चुनौती वाली जानकारी होगी जो ब्लैक होल के निर्माण और विकास की व्याख्या करते हैं। क्योंकि उनकी व्याख्या के उलट इस अतिविशाल ब्लैक होल का निर्माण व विकास ब्रह्मांड के विकास के इतिहास में बहुत ही जल्दी हो गया होगा। बिग बैंग के तुरंत बाद इतने विशाल ब्लैक होल का बनना ब्रह्मांड सम्बंधी हमारे वर्तमान मॉडल के लिए एक चुनौती है।

हालांकि अगर हम यह मान लें कि एचडी1 ब्रह्मांड में बनने वाले शुरुआती तारों या ‘पॉपुलेशन 3’ के वर्ग का है तो इसके गुणों को ज़्यादा आसानी से समझाया जा सकता है। ब्रह्मांड में बनने वाले तारों की पहली आबादी वर्तमान तारों की तुलना में अधिक विशाल, अधिक चमकदार और गर्म थी। वास्तव में पॉपुलेशन 3 के तारे सामान्य तारों की तुलना में अधिक प्रकाश उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। हो सकता है कि इसी वजह से एचडी1 पराबैंगनी प्रकाश में ज़्यादा तेज़ी से चमक रही हो।

पैकूची के अनुसार इतनी दूर स्थित स्रोत की प्रकृति के सवालों का सही जवाब देना चुनौतीपूर्ण काम है। यहां तक कि अत्यधिक चमकीले पिंड क्वासर्स का प्रकाश भी इतनी लंबी यात्रा के बाद इतना धुंधला हो जाता है कि हमारी शक्तिशाली दूरबीनों को भी उस पकड़ने में बहुत कठिनाई होती है। शुरुआती ब्रह्मांड के पिंडों की पड़ताल करना बहुत ही मुश्किल काम है।

एचडी1 को सुबारू दूरबीन, विस्टा दूरबीन, यूके इन्फ्रारेड दूरबीन और स्पिट्ज़र अंतरिक्ष दूरबीन का इस्‍तेमाल करके लगभग 1200 घंटे के अवलोकनों के बाद खोजा गया। खगोल शास्त्रियों का कहना है कि सात लाख खगोलीय पिंडों के बीच में एचडी1 की खोज करना बहुत चुनौतीपूर्ण काम था। जेम्स वेब अंतरिक्ष दूरबीन का इस्तेमाल करते हुए खगोलशास्त्रियों की टीम जल्दी ही एक बार फिर से धरती से दूरी की पुष्टि करने के लिए एचडी1 का अवलोकन करेगी। अगर मौजूदा गणना सही साबित होती है, तो एचडी1 अब तक रिकॉर्ड की गई सबसे दूर स्थित और सबसे पुरानी मंदाकिनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गाजर घास के लाभकारी नवाचारी उपयोग – डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

पिछले दिनों इंदौर के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने में सफलता प्राप्त की है। 

इंदौर के महाराजा रणजीत सिंह कॉलेज ऑफ प्रोफेशनल साइंसेज़ के बायोसाइंस विभाग के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने जुलाई 2020 में गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने की कार्ययोजना पर काम शुरू किया था। इस कार्य में उन्हें भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान इंदौर की प्राध्यापक अपूर्वा दास और शोधार्थी शाश्वत निगम का भी सहयोग मिला। गाजर घास के रेशों से बायोप्लास्टिक बनाया गया, जो सामान्य प्लास्टिक जैसा ही मज़बूत हैं। डॉ. पाटीदार के अनुसार पर्यावरण पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और 45 दिनों में यह 80 प्रतिशत तक नष्ट भी हो जाएगा। बाज़ार में वर्तमान में उपलब्ध बायोप्लास्टिक से इसका मूल्य भी कम होगा।  

बरसात का मौसम शुरू होते ही गाजर जैसी पत्तियों वाली एक वनस्पति काफी तेज़ी से फैलने लगती है। सम्पूर्ण संसार में पांव पसारने वाला कम्पोज़िटी कुल का यह सदस्य वनस्पति विज्ञान में पार्थेनियम हिस्ट्रोफोरस के नाम से जाना जाता है और वास्तव में घास नहीं है। इसकी बीस प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं। यह वर्तमान में विश्व के सात सर्वाधिक हानिकारक पौधों में से एक है, जो मानव, कृषि एवं पालतू जानवरों के स्वास्थ्य के साथ-साथ सम्पूर्ण पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक है।

कहा जाता है कि अर्जेन्टीना, ब्राज़ील, मेक्सिको एवं अमरीका में बहुतायत से पाए जाने वाले इस पौधे का भारत में 1950 के पूर्व कोई अस्तित्व नहीं था। ऐसा माना जाता है कि इस ‘घास’ के बीज 1950 में पी.एल.480 योजना के तहत अमरीकी संकर गेहूं के साथ भारत आए। आज यह ‘घास’ देश में लगभग सभी क्षेत्रों में फैलती जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, म.प्र. एवं महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण कृषि उत्पादक राज्यों के विशाल क्षेत्र में यह ‘घास’ फैल चुकी है।

तीन से चार फुट तक लंबी इस गाजर घास का तना धारदार तथा पत्तियां बड़ी और कटावदार होती है। इस पर फूल जल्दी आ जाते हैं तथा 6 से 8 महीने तक रहते हैं। इसके छोटे-छोटे सफेद फूल होते हैं, जिनके अंदर काले रंग के वज़न में हल्के बीज होते हैं। इसकी पत्तियों के काले छोटे-छोटे रोमों में पाया जाने वाला रासायनिक पदार्थ पार्थेनिन मनुष्यों में एलर्जी का मुख्य कारण है। दमा, खांसी, बुखार व त्वचा के रोगों का कारण भी मुख्य रूप से यही पदार्थ है। गाजर घास के परागकण का सांस की बीमारी से भी सम्बंध हैं।

पशुओं के लिए भी यह घास अत्यन्त हानिकारक है। इसकी हरियाली के प्रति लालायित होकर खाने के लिए पशु इसके करीब तो आते हैं, लेकिन इसकी तीव्र गंध से निराश होकर लौट जाते हैं।

गाजर घास के पौधों में प्रजनन क्षमता अत्यधिक होती है। जब यह एक स्थान पर जम जाती है, तो अपने आस-पास किसी अन्य पौधे को विकसित नहीं होने देती है। वनस्पति जगत में यह ‘घास’ एक शोषक के रूप में उभर रही है। गाजर घास के परागकण वायु को दूषित करते हैं तथा जड़ो से स्रावित रासायनिक पदार्थ इक्यूडेर मिट्टी को दूषित करता है। भूमि-प्रदूषण फैलाने वाला यह पौधा स्वयं तो मिट्टी को बांधता नहीं है, दूसरा इसकी उपस्थिति में अन्य प्रजाति के पौधे भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

गाजर घास का उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के निर्माण में किया जाता है। इसकी लुगदी से विभिन्न प्रकार के कागज़ तैयार किए जाते हैं। बायोगैस उत्पादन में भी इसको गोबर के साथ मिलाया जाता है। पलवार के रूप में इसका ज़मीन पर आवरण बनाकर प्रयोग करने से दूसरे खरपतवार की वृद्धि में कमी आती है, साथ ही मिट्टी में अपरदन एवं पोषक तत्व खत्म होने को भी नियंत्रित किया जा सकता है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जैव-रसायन  विभाग के डॉ. के. पांडे ने इस पर अध्ययन के बाद बताया कि गाजर घास में औषधीय गुण भी हैं। इससे बनी दवाइयां बैक्टीरिया और वायरस से होने वाले विभिन्न रोगों के इलाज में कारगर हो सकती हैं।

पिछले वर्षों में गाजर घास का एक अन्य उपयोग वैज्ञानिकों ने खोजा है जिससे अब गाजर घास का उपयोग खेती के लिए विशिष्ट कम्पोस्ट खाद निर्माण में किया जा रहा है। इससे एक ओर, गाजर घास का उपयोग हो सकेगा वहीं दूसरी ओर किसानों को प्राकृतिक

पोषक तत्व (प्रतिशत में)गाजर घास खादकेंचुआ खादगोबर खाद
नाइट्रोजन1.051.610.45
फॉस्फोरस10.840.680.30
पोटेशियम1.111.310.54
कैल्शियम0.900.650.59
मैग्नीशियम0.550.430.28

और सस्ती खाद उपलब्ध हो सकेगी। उदयपुर के सहायक प्राध्यापक डॉ. सतीश कुमार आमेटा ने गाजर घास से विशिष्ट कम्पोस्ट खाद का निर्माण किया है। इस तकनीक से बनी खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम की मात्रा साधारण खाद से तीन गुना अधिक होती है, जो कृषि के लिए एक वरदान है। मेवाड़ युनिवर्सिटी गंगरार चित्तौड़गढ़ में कार्यरत डॉ. आमेटा के अनुसार इस नवाचार से गाजर घास के उन्मूलन में सहायता मिलेगी और किसानों को जैविक खाद की प्राप्ति सुगम हो सकेगी।

जैविक खाद बनाने की इस तकनीक में व्यर्थ कार्बनिक पदार्थों, जैसे गोबर, सूखी पत्तियां, फसलों के अवशेष, राख, लकड़ी का बुरादा आदि का एक भाग एवं चार भाग गाजर घास को मिलाकर बड़ी टंकी या टांके में भरा जाता है। इसके चारों ओर छेद किए जाते हैं, ताकि हवा का प्रवाह समुचित बना रहे और गाजर घास का खाद के रूप में अपघटन शीघ्रता से हो सके। इसमें रॉक फॉस्फेट एवं ट्राइकोडर्मा कवक का उपयोग करके खाद में पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। निरंतर पानी का छिडकाव कर एवं मिश्रण को निश्चित अंतराल में पलट कर हवा उपलब्ध कराने पर मात्र 2 महीने में जैविक खाद का निर्माण किया जा सकता है।

गाजर घास से बनी कम्पोस्ट में मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा गोबर खाद से दुगनी होती है। गाजर घास की खाद, केंचुआ खाद और गोबर खाद की तुलना तालिका में देखें। स्पष्ट है कि तत्वों की मात्रा गाजर घास से बने खाद में अधिक होती है। गाजर घास कम्पोस्ट एक ऐसी जैविक खाद है, जिसके उपयोग से फसलों, मनुष्यों व पशुओं पर कोई भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से वायरल प्रकोपों में वृद्धि की संभावना

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से अगले 50 वर्षों में स्तनधारी जीवों के बीच वायरस संचरण के 15,000 से अधिक नए मामले सामने आ सकते हैं। ऐसा अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग से वन्यजीवों के प्राकृतवासों में परिवर्तन होगा जिससे रोगजनकों की अदला-बदली करने में सक्षम प्रजातियों के आपस में संपर्क की संभावना बढ़ेगी और वायरस संचरण के मामलों में वृद्धि होगी। इस अध्ययन से यह भी देखा जा सकेगा कि कोई वायरस विभिन्न प्रजातियों के बीच संभवतः कितनी बार छलांग लगा सकता है।

गौरतलब है कि कोविड-19 महामारी की शुरुआत एक कोरोनावायरस के किसी जंगली जीव से मनुष्यों में प्रवेश के साथ हुई थी। प्रजातियों के बीच ऐसे संक्रमणों को ज़ुओनॉटिक संचरण कहते हैं। यदि प्रजातियों के बीच संपर्क बढ़ता है तो ऐसे ज़ुओनॉटिक संचरणों में भी वृद्धि होगी जो मनुष्यों व पशुओं के स्वास्थ्य के लिए खतरा होगा। ऐसे में सरकारों और स्वास्थ्य संगठनों को रोगजनकों की निगरानी और स्वास्थ्य-सेवा के बुनियादी ढांचे में सुधार करना ज़रूरी है।

अध्ययन का अनुमान है कि नए वायरस के संचरण की संभावना सबसे अधिक तब होगी जब बढ़ते तापमान के कारण जीवों का प्रवास ठंडे क्षेत्रों की ओर होगा और वे स्थानीय जीवों के संपर्क में आएंगे। यह संभावना ऊंचाई वाले क्षेत्रों और विभिन्न प्रजातियों से समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्रों में सबसे अधिक होगी। ऐसे क्षेत्र विशेष रूप से अफ्रीका और एशिया में पाए जाते हैं जिनमें मुख्य रूप से सहेल, भारत और इंडोनेशिया जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्र शामिल हैं। कुछ जलवायु विशेषज्ञों का मत है कि यदि पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा तो प्रजातियों के बीच प्रथम संपर्क की घटनाएं वर्ष 2070 तक दुगनी हो जाएंगी। ऐसे क्षेत्र वायरस संक्रमण के हॉटस्पॉट बन जाएंगे।

इस अध्ययन के लिए जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी के रोग विशेषज्ञ ग्रेगोरी अल्बेरी और उनके सहयोगियों ने एक मॉडल विकसित किया और लगभग 5 वर्षों तक कई अनुकृतियों के साथ परीक्षण किए। जलवायु-परिवर्तन के विभिन्न परिदृश्यों में वायरस संचरण और प्रजाति-वितरण के मॉडल्स को जोड़कर देखा। प्रजाति-वितरण मॉडल की मदद से यह बताया जा सकता है कि पृथ्वी के गर्म होने की स्थिति में स्तनधारी जीव किस क्षेत्र में प्रवास कर सकते हैं। दूसरी ओर, वायरस-संचरण मॉडल से यह देखा जा सकता कि प्रथम संपर्क होने पर प्रजातियों के बीच वायरस के छलांग लगाने की क्या संभावना होगी।

गौरतलब है कि इस तरह के पूर्वानुमान लगाने के लिए कभी-कभी अवास्तविक अनुमानों को शामिल करना होता है। जैसे एक अनुमान यह भी लगाना पड़ा कि जलवायु परिवर्तन के चलते प्रजातियां कितनी दूर तक फैल सकती हैं। लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि स्तनधारी जीव अपने मूल आवास के साथ कितना अनुकूलित हो जाएंगे या उन्हें भौगोलिक बाधाएं पार करने में कितनी मुश्किल होगी। ये दोनों बातें प्रवास को प्रभावित करेंगी।

इस अध्ययन में चमगादड़ों पर विशेष ध्यान दिया गया। चमगादड़ वायरसों के भंडार के रूप में जाने जाते हैं और कुल स्तनधारियों में लगभग 20 प्रतिशत चमगादड़ हैं। इसके अलावा चमगादड़ उड़ने में भी सक्षम होते हैं इसलिए उन्हें प्रवास में कम बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

हालांकि कई विशेषज्ञों ने इस अध्ययन की सराहना की है लेकिन साथ ही उन्होंने इसके आधार पर मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों का निष्कर्ष निकालने को लेकर चेतावनी भी दी है। स्तनधारी जीवों से मनुष्यों में वायरस की छलांग थोड़ा पेचीदा मसला है क्योंकि यह एक जटिल पारिस्थितिकी और सामाजिक-आर्थिक वातावरण में होता है। इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवा में सुधार या किसी वजह से वायरस द्वारा मनुष्यों के संक्रमित न कर पाना जैसे कारक मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जोखिम को कम कर सकते हैं। फिर भी शोधकर्ता इस विषय में जल्द से जल्द ठोस कार्रवाई के पक्ष में हैं। देखा जाए तो पृथ्वी पहले से ही पूर्व-औद्योगिक तापमान से 1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुकी है जिसके नतीजे में विभिन्न प्रजाति के जीवों में प्रवास और रोगाणुओं की अदला-बदली जारी है। सुझाव है कि खासकर दक्षिण पूर्वी एशिया के जंगली जीवों और ज़ुओनॉटिक रोगों की निगरानी की प्रक्रिया को तेज़ करना चाहिए। स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार लाना भी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स) 

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रसायन विज्ञान शिक्षा में बदलाव ज़रूरी

दियों से रसायनज्ञ प्रकृति प्रदत्त चीज़ों से लाभदायक उत्पाद बनाते आए हैं। दूसरी ओर, कार्बन उत्सर्जन और प्लास्टिक प्रदूषण से उपजा पर्यावरण संकट भी रसायन विज्ञान की ही देन है। अब ज़रूरत है कि रसायनज्ञ इन समस्याओं से निपटने के लिए अपने काम करने के तरीकों में बदलाव करें। साथ ही रसायन विज्ञान के शिक्षण के तरीकों में भी बदलाव की ज़रूरत है ताकि पर्यावरण अनुकूल तरीकों से काम करने  का माहौल बने। यह किया तो जा रहा है, लेकिन पर्याप्त तेज़ी से नहीं।

हाल ही में दक्षिण कोरिया के उल्सान इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के रसायनज्ञ बार्टोज़ ग्रिज़ीबोव्स्की और उनके साथियों ने नेचर पत्रिका में एक ऐसे ही प्रयास का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने अपशिष्ट पदार्थों से उपयोगी उत्पाद बनाने के लिए कृत्रिम बुद्धि का उपयोग किया है। इस प्रयास के तहत कृत्रिम बुद्धि को औषधि निर्माण और कृषि में प्रयुक्त लगभग 300 ज्ञात रसायनों की अभिक्रिया का प्रशिक्षण दिया गया। यह काम हरित रसायन विज्ञान (ग्रीन केमिस्ट्री) अभियान का नवीनतम योगदान है।

1990 के दशक में शुरू हुए हरित रसायन विज्ञान अभियान में पर्यावरण अनुकूल तरीकों पर ज़ोर है। जैसे अभिक्रिया करवाने में पर्यावरण-स्नेही विलायकों का उपयोग, अभिक्रियाओं को कम ऊर्जा से करवाने के तरीके खोजना वगैरह। तब से काफी प्रगति हुई है। उदाहरण के तौर पर, प्लास्टिक पुर्नचक्रण (रीसायक्लिंग) के तरीकों में काफी सुधार हुआ है और ऐसे उत्प्रेरक विकसित किए गए हैं जो विघटित न होने वाले पदार्थों को भी छोटे उपयोगी अणुओं में तोड़ सकते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि पर वार्ता के चलते इन प्रयासों को और बढ़ावा मिलने की उम्मीद है।

लेकिन इस तरह के प्रयासों और अनुसंधानों में तेज़ी लाने के लिए स्कूलों और विश्वविद्यालयों के स्तर पर रसायन विज्ञान की शिक्षा में बदलाव करने की आवश्यकता है ताकि छात्र यह सीख सकें कि किस तरह दवाइयों और उर्वरक जैसे रसायन सुरक्षित और टिकाऊ ढंग से बनाए जाएं।

वैसे कुछ विश्वविद्यालयों ने अपने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में पर्यावरण हितैषी, हरित या टिकाऊ रसायन विज्ञान शामिल किया है। और स्कूलों और स्नातक स्तर के रसायन विज्ञान पाठ्यक्रमों में जलवायु परिवर्तन का रसायन विज्ञान, और रसायन विज्ञान का स्वास्थ्य, पर्यावरण और समाज पर प्रभाव जैसे विषय शामिल किए जा रहे हैं। लेकिन विद्यार्थियों को ऐसे पर्यावरण हितैषी उत्पाद विकसित करने के लिए ज्ञान और कौशल से लैस करना एक बड़ी चुनौती है। कई देशों के स्कूलों में आज भी दशकों पुराने पाठ्यक्रम चल रहे हैं।

रसायन विज्ञान शिक्षा पर अध्ययन करने वाले शोधकर्ता इस बात की वकालत करते हैं कि इसका पाठ्यक्रम समेकित दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए जो विद्यार्थियों को रासायनिक यौगिकों या घटक तत्वों के परस्पर सम्बंध भी सिखाए और रसायन विज्ञान के व्यापक प्रभावों को मापना भी सिखाए। जैसे अर्थव्यवस्था और समाज पर, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर रसायन विज्ञान के विविध प्रभाव।

रसायन शास्त्र पाठ्यक्रम के कुछ केंद्रीय हिस्सों पर पुनर्विचार की भी ज़रूरत है। उदाहरण के लिए कार्बनिक रसायन विज्ञान। जर्नल ऑफ केमिकल एजुकेशन में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि वर्तमान कार्बनिक रसायन विज्ञान पाठ्यक्रम मुख्यत: जीवाश्म स्रोतों से कार्बन यौगिकों के रूपांतरण पर केंद्रित है। ऐसे कई यौगिकों को रीसायकल करना और उनका पुन: उपयोग करना मुश्किल होता है। इसके अलावा, इसमें उपयोग किए जाने वाले अभिकर्मक खतरनाक हो सकते हैं। शोध पत्र में सुझाव दिया गया है कि विद्यार्थियों को सजीवों द्वारा उत्पादित यौगिकों के रसायन विज्ञान (जैव रसायन) का अध्ययन करना चाहिए। साथ ही ऐसे यौगिकों के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए जिन्हें रीसायकल करना आसान हो। ऐसा करने से विद्यार्थी ऐसे उत्पाद बनाने के लिए तैयार होंगे जो जैव-विघटनशील हों, या जिन्हें आसानी से छोटे, पुन:उपयोग करने लायक अणुओं में तोड़ा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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ऊर्जा क्षेत्र में कोयले की भूमिका और पर्यावरण – मारिया चिरायिल, अशोक श्रीनिवास, श्रीपाद धर्माधिकारी

कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से होने वाले गंभीर प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के बावजूद, सरकार द्वारा अधिसूचित मानक काफी हद तक कागज़ों तक ही सीमित हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत कभी सख्त उत्सर्जन नियंत्रण व्यवस्था के तहत काम कर पाएगा?

प्राचीन बिजली उत्पादन के लिए स्वच्छ ईंधन के बढ़ते उपयोग से भारतीय ऊर्जा क्षेत्र में कोयले की भूमिका पर बहस छिड़ गई है। हालिया वर्षों में आर्थिक और नीतिगत परिवर्तनों के चलते बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ी है। नतीजतन, कोयले की हिस्सेदारी धीरे-धीरे घटने की उम्मीद तो है लेकिन आने वाले कुछ समय तक कोयले के कुल उपयोग में वृद्धि होती रहेगी। इसके साथ ही ताप बिजली घरों से प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम भी बरकरार रहेंगे।

भारत के बिजली उत्पादक इलाकों में तो प्रदूषण स्तर में निरंतर वृद्धि होती रही है। यह देखा गया है कि कोरबा और सिंगरौली जैसे इलाकों में ताप बिजली घर ज़्यादा हैं, वहां प्रदूषण स्तर भी ज़्यादा है। ताप बिजली घरों के उत्सर्जन और सम्बंधित समस्याओं को नियंत्रित करने के लिए उत्सर्जन मानकों का निर्धारण अनिवार्य है। यह ताप बिजली घरों (थर्मल पॉवर प्लांट, टीपीपी) के निकट रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने के लिए ज़रूरी है। 

वर्ष 2015 तक, टीपीपी के लिए उत्सर्जन मानक केवल कणीय पदार्थ यानी पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के उत्सर्जन तक ही सीमित थे। फिर 7 दिसंबर 2015 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा पर्यावरण संरक्षण (संशोधन) नियम, 2015 के तहत इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। इस संशोधित नियमावली में ताप बिजली घरों में पीएम के लिए कड़े मानक निर्धारित करने के अलावा सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), नाइट्रस ऑक्साइड्स (NOx), पारा (Hg) उत्सर्जन और पानी की खपत को लेकर भी नए मानक निर्धारित किए गए और 1 जनवरी 2017 के बाद स्थापित सभी टीपीपी के लिए शून्य अपशिष्ट जल निकासी भी अनिवार्य कर दी गई। भारतीय कोयले में आम तौर पर सल्फर की मात्रा कम होती है, इसलिए SO2 उत्सर्जन के मानकों की ज़रूरत पर कुछ मतभेद रहे। हालांकि, शोध से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार SO2 से द्वितीयक पीएम का निर्माण होता है जो पीएम प्रदूषण में प्रमुख योगदान देता है। अत: SO2 उत्सर्जन पर अंकुश लगाना भी आवश्यक है। इन नियमों को सभी टीपीपी संयंत्रों पर दो साल के भीतर यानी दिसंबर 2017 तक लागू करना अनिवार्य किया गया था। इस अधिसूचना को जारी हुए 6 वर्ष बीत चुके हैं और अब इसकी ज़मीनी हकीकत की समीक्षा लाज़मी है।

पर्यावरणीय मानक ऊर्जा क्षेत्र को कैसे प्रभावित करते हैं?

अक्सर देखा गया है कि टीपीपी के लिए निर्धारित किए गए उत्सर्जन मानकों पर चर्चाओं में इस बात पर कोई चर्चा नहीं होती कि इनके अनुपालन के लिए क्या ठोस कदम उठाने होंगे। पहली बात तो यह कि निर्धारित मानकों के अनुसार टीपीपी संयंत्रों को नए प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) स्थापित करना होगा या पुराने उपकरणों में सुधार करने होंगे। इन उपकरणों का प्रकार संयंत्र के आकार, स्थान और आयु के साथ-साथ प्रयुक्त कोयले जैसे कई कारकों पर निर्भर करता है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार के उत्सर्जन के लिए अलग-अलग पीसीई तकनीक का उपयोग करना होता है। लेकिन जब भी पीसीई की बात आती है तो सभी मानकों और उनके अनुपालन की जांच को निकासी गैस के डीसल्फराइज़ेशन (एफजीडी) का पर्याय मान लिया जाता जाता है। एफजीडी सभी पीसीई में सबसे महंगा और जटिल उपकरण है।

इसके अलावा, पीसीई को पूरी क्षमता से संचालित होने में भी काफी समय लगता है। उदाहरण के लिए, एफडीजी उपकरण को स्थापित करने के लिए दो वर्ष से अधिक और संयंत्र से जोड़ने के लिए दो से तीन महीने के समय की आवश्यकता होती है। यदि इसमें नियोजन और समय-चक्र का ध्यान न रखा जाए तो कई टीपीपी एक ही समय पर बंद करने पड़ सकते हैं और बिजली आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।

पीसीई के लिए पूंजीगत व्यय और संचालन लागत की आवश्यकता भी होती है जिसका असर उत्पादन लागत और शुल्क पर भी पड़ता है। ऐसे टीपीपी जिनके शुल्क ‘लागत-धन-मुनाफा’ के तहत निर्धारित किए गए हैं, उनके शुल्क में बदलाव की ज़िम्मेदारी सम्बंधित विद्युत नियामक आयोग (राज्य या केंद्र) पर आती है। दूसरी ओर, जिन टीपीपी के शुल्क प्रतियोगी बोली के माध्यम से निर्धारित किए गए हैं उनके शुल्क में बदलाव बिजली खरीद अनुबंध (पीपीए) की शर्तों के अनुसार किया जाता है। कानून में उक्त परिवर्तन बिजली अधिनियम, 2003 की धारा 62 और धारा 63 के तहत शुल्क निर्धारण के बाद हुआ है, जिसके चलते पर्यावरणीय मानकों के अनुपालन के लिए अतिरिक्त खर्च भी होते हैं। कानून में इस तरह के बदलाव के चलते शुल्क में होने वाली वृद्धि को उपभोगताओं पर डाला जा सकता है। उपभोक्ताओं और पूरे बिजली क्षेत्र पर प्रभाव के अंदेशे के बावजूद अभी तक अतिरिक्त व्यय और शुल्क को लेकर पर्याप्त स्पष्टता नहीं है।

इसके अलावा, संशोधित पर्यावरण मानकों का व्यापक स्तर पर सुचारु और समयबद्ध अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए बिजली क्षेत्र के हितधारकों और संस्थानों द्वारा सही समय पर कार्रवाई करना भी ज़रूरी होता है। उदाहरण के लिए, बिजली मंत्रालय (एमओपी) को समय रहते कानूनी बदलाव की घोषणा कर देनी चाहिए थी, बिजली नियामकों को समय पर क्षेत्र-व्यापी ढांचा तैयार कर लेना चाहिए था और केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) को भी आवश्यक बेंचमार्क अध्ययन पूरे कर लेने चाहिए थे। वैसे हाल में इनमें से कुछ मोर्चों पर कार्य होते नज़र आ रहे हैं लेकिन ये काफी सीमित हैं और बहुत विलम्ब से हुए हैं।

दरअसल, एमओपी ने संशोधित पर्यावरण मानकों को कानूनी मान्यता 2018 में (अनुपालन की समय सीमा खत्म होने एक वर्ष बाद) दी थी। नियामक दिशानिर्देशों की कमी के कारण मुकदमेबाज़ी चली और देरी होती रही। इसके अलावा क्षेत्र के कई किरदारों ने भी निष्क्रियता या प्रतिकूल कार्रवाई दर्शाई। इसके अतिरिक्त, कई पर्यावरणीय मानकों को कमज़ोर किया गया और अनुपालन की समय सीमा को कई बार आगे बढ़ाया गया।

अधिसूचना के छह साल बाद

2021 के संशोधन से पहले टीपीपी को परिचालन जारी रखने के लिए 2019 (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र स्थित संयंत्र) या 2022 (अन्यत्र स्थित संयंत्र) तक पर्यावरण मानकों का पालन करना अनिवार्य था। ये मानक संयंत्रों की उम्र के आधार पर तय किए गए थे – 2004 से पूर्व, 2004 से 2016 के बीच और 2016 के बाद स्थापित संयंत्रों के लिए अलग अलग मानक निर्धारित किए गए थे। पर्याप्त बिजली आपूर्ति और समय सीमा को ध्यान में रखते हुए सीईए द्वारा एक समय-विभेदित क्रियांवयन योजना प्रस्तुत की गई। पीसीई क्रियांवयन की प्रगति को लेकर सीईए एक रिपोर्ट भी प्रकाशित करता है। यदि सब कुछ ठीक-ठाक चलता तो दिसंबर 2021 तक अधिकांश संयंत्रों में एफजीडी लग चुके होते। लेकिन, अफसोस, ऐसा नहीं हुआ।

सीईए देश की 209 गीगावॉट ताप क्षमता में से कुल 167 गीगावॉट क्षमता के संयंत्रों में एफजीडी की स्थिति की निगरानी करता है। अक्टूबर 2021 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग आधी इकाइयों में एफजीडी स्थापित करने की समय सीमा निकल चुकी थी। इनमें से 40 प्रतिशत इकाइयां फिलहाल स्वीकृति के चरण में हैं जबकि 38 प्रतिशत के लिए निविदा आमंत्रण के नोटिस जारी किए गए हैं। चूंकि अधिकांश इकाइयों में एफजीडी स्थापित करने की प्रक्रिया अभी भी निर्माण-पूर्व चरण में है, और एफजीडी स्थापित करने में 36 महीनों का समय और लग सकता है, इसलिए 2017 की समय सीमा को 5 वर्ष बढ़ाकर 2022 कर दिया गया था। लेकिन वर्तमान स्थिति को देखते हुए 2022 तक भी एफजीडी स्थापना की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।

निगरानीशुदा 118 गीगावॉट क्षमता में ऐसी इकाइयां भी शामिल हैं जहां 2021 दिसंबर तक एफजीडी स्थापित करने का लक्ष्य था। इनमें से केवल 2 प्रतिशत में ही एफजीडी स्थापित किए गए हैं जबकि 38 प्रतिशत में जनवरी 2020 के बाद से कोई प्रगति देखने को नहीं मिली है। यह 2017 से पहले स्थापित संयंत्रों की बात है। अपेक्षा थी कि 2017 के बाद स्थापित संयंत्रों में संचालन शुरू होने की तारीख से ही एफजीडी/पीसीई स्थापित हो जाएंगे। अलबत्ता, 2017 के बाद स्थापित ओडिशा स्थित डार्लीपल्ली टीपीपी, राजस्थान स्थित सूरतगढ़ टीपीपी और तेलंगाना स्थित भद्राद्री टीपीपी बिना किसी पीसीई के बिजली उत्पादन कर रहे हैं। यह मानकों का उल्लंघन माना जा सकता है।       

2021 के संशोधन के बाद वैसे तो इन समय सीमाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। अब टीपीपी को आसपास की आबादी और प्रदूषण के स्तर तथा संयंत्र की सेवानिवृत्ति की नियत तारीख के आधार पर तीन श्रेणियों – ए, बी और सी – में वर्गीकृत किया गया है। इस संशोधन में पर्यावरण क्षतिपूर्ति नामक एक दण्ड भी शामिल किया गया है जिसका भुगतान टीपीपी द्वारा किया जाएगा। यह दण्ड मानकों के उल्लंघन की अवधि के आधार पर 0.05 रुपए से 0.20 रुपए प्रति युनिट विद्युत होगा। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने यह तो स्पष्ट किया है कि इस दण्ड की वसूली उपभोक्ताओं से नहीं की जा सकती लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या यह एक रोकथाम के उपाय के रूप में काम करेगा। उल्लंघन की स्थिति में भी उत्पादकों को स्थिर लागत तो मिलती ही रहेगी जिससे वे ब्याज अदायगी करते रहेंगे और इक्विटी पर लाभ प्राप्त करते रहेंगे। तकनीकी रूप से, टीपीपी जब तक जुर्माने का भुगतान करते रहेंगे तब तक वे बिना पीसीई के अपना काम करना जारी रख सकेंगे। आपूर्ति में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए वितरण कंपनियां भी इनसे बिजली खरीद जारी रख सकती हैं। यदि बड़े पैमाने पर उल्लंघन की स्थिति आई, तो चिंता का विषय होगा क्योंकि ऐसी सभी इकाइयों को बंद करना तो संभव नहीं होगा।            

टीपीपी को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करने के लिए अप्रैल 2021 में एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था जो बार-बार समय सीमाओं के उल्लंघन करती रही और अभी तक हमारे सामने टीपीपी की श्रेणी के बारे कोई अधिकारिक जानकारी नहीं है। लिहाज़ा टीपीपी को अनुपालन की समय-सीमा और दण्ड की जानकारी न होने का एक बहुत सुविधाजनक बहाना मिल गया है। देखा जाए तो वर्तमान स्थापित क्षमता का लगभग 23 गीगावॉट ए श्रेणी में आता है जिस पर सबसे अधिक दण्ड है। बी श्रेणी में भी लगभग 23 गीगावॉट है और शेष 163 गीगावॉट सी श्रेणी में है जिन पर सबसे कम दण्ड है। यानी अधिकांश पीसीई-रहित संयंत्र सबसे कम दण्ड की श्रेणी में आते हैं, इसलिए अधिकांश संयंत्रों के लिए जुर्माना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।    

जवाबदेह कौन?

मानकों के उल्लंघन पर की जाने वाली आवश्यक कार्रवाई और पर्यावरणीय मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी को एक से दूसरे किरदार के बीच उछाला जाता रहा है। मानकों को अधिसूचित करने (या न करने) से ऐसा लगता है कि इन्हें लागू करने के लिए ज़िम्मेदार बिलकुल भी गंभीर नहीं हैं। 

जैसे, एमओपी और सीईए ने खुद होकर कार्रवाई करने से अक्सर कन्नी काटी है। लागत और प्रौद्योगिकी की बेंचमार्किंग, मानकों का जल्दी अनुपालन करने वाली इकाइयों की समस्याओं और तालमेल के लिए आवश्यक संयंत्र-बंदी जैसे मुद्दों को सही समय पर संबोधित नहीं किया गया। फरवरी 2019 में सीईए ने मोटे तौर पर एफजीडी की मोटी-मोटी लागत के बेंचमार्किंग का काम किया और फरवरी 2020 में जाकर केवल एफजीडी के लिए प्रौद्योगिकी चयन की जानकारी प्रस्तुत की। यहां तक कि एमओपी द्वारा सीईआरसी को पीसीई से सम्बंधित लागतों को पारित करने की अनुमति मई 2018, यानी दिसंबर 2017 की प्रारंभिक समय सीमा समाप्त होने के बाद दी गई। और तो और, 2021 का संशोधन और समय सीमा आगे बढ़ाने का मामला जनवरी 2021 में संयंत्र के स्थान विशिष्ट उत्सर्जन मानकों पर सीईए के पेपर से प्रभावित था। सीईए ने सल्फर डाईऑक्साइड उत्सर्जन मानकों की समीक्षा जून 2021 में की और इन मानकों का अनुपालन करने के लिए 10 से 15 वर्ष की समय-सीमा पर अड़ा रहा। तर्क यह दिया गया कि SO2 के निम्न स्तर वाले क्षेत्रों के संयंत्रों के लिए सख्त समय सीमा निर्धारित करने की ज़रूरत नहीं है। हालांकि, इस स्पष्टीकरण में यह ध्यान नहीं रखा गया कि सल्फर डाईऑक्साइड उत्सर्जन द्वितीयक पीएम का निर्माण करता है। सीईए का यह मत और साथ में विलम्ब से लिए जाने वाले निर्णय और मानकों में ढील देने का आग्रह एजेंसियों की गंभीरता पर सवाल खड़े करता है।       

अनुपालन में उत्पादकों ने काफी देरी की है। जब दिसंबर 2017 की प्रारंभिक समय सीमा प्रभावी थी तब उत्पादक सम्बंधित एसआरसी के साथ एफजीडी स्थापना के शुरुआती कार्यों को टालते रहे। उदाहरण के लिए, ललितपुर पॉवर जनरेशन कंपनी और नाभा पॉवर ने अपने एसईआरसी के समक्ष याचिकाएं नवंबर 2017 और जनवरी 2018 में जाकर दायर कीं। दूसरी समय सीमा के मामले में भी यही तरीका जारी रहा और समय सीमाएं गुज़रती रहीं। दरअसल संशोधित समय सीमा के अनुसार दिसंबर 2019 तक 16 गीगावॉट में एफजीडी स्थापित हो जाना चाहिए थे जो केवल 1 गीगावॉट में ही हो पाया है। इसके अलावा नवनिर्मित टीपीपी को शुरुआत से ही पीसीई के साथ संचालित होना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ और 2016 के बाद स्थापित संयंत्र बिना पीसीई के चलते रहे।         

हालांकि आपूर्ति में कमी और लागत में अस्पष्टता जैसे कारकों से इन मानकों पर अमल थोड़ा मुश्किल रहा होगा लेकिन नियामकों के ढुलमुल रवैये ने भी हालात बिगाड़े। हालांकि मानकों का सम्बंध पर्यावरण से है लेकिन बिजली क्षेत्र पर भी इनका काफी प्रभाव पड़ता है। केंद्रीय और राज्य नियामकों को चाहिए था कि वे शट-डाउन के दौरान राजस्व की हानि, क्रियांवयन के पूंजीगत और परिचालन खर्च, और उपभोक्ताओं के लिए आपूर्ति और शुल्क पर प्रभाव जैसी चुनौतियों का पूर्वानुमान करके उन्हें संबोधित करते। हालांकि, 2015 के संशोधन को 2018 में जाकर कानूनी मान्यता दी गई लेकिन इसमें समुचित नियामक ढांचे के साथ स्पष्ट दिशानिर्देश शामिल नहीं थे। नियामक अनिश्चितता के चलते 2015 का संशोधन मुकदमेबाज़ी और अन्य समस्याओं में उलझा रहा और इस कारण देरी होती रही। यहां तक कि प्रारंभिक सिद्धांतत: मंज़ूरियां भी 2019 में सीईआरसी टैरिफ नियमों के साथ ही दी गईं। केंद्रीय स्तर पर स्पष्टता के कुछ प्रयास किए गए। इनमें 2019 में किया गया संशोधन और टैरिफ नियमों में बदलाव, और अतिरिक्त लागतों के टैरिफ प्रभावों और क्षतिपूर्ति को संबोधित करने वाला आदेश हैं। ये बदलाव सकारात्मक हैं लेकिन 2015 के संशोधन के पूरे पांच वर्ष बाद देखने को मिले। इनमें अभी भी जल्दी अनुपालन करने वालों को कोई प्रोत्साहन नहीं हैं। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि पीसीई लागत की वसूली की अनुमति पीसीई की स्थापना के बाद ही दे दी जाए या फिर पर्यावरणीय मानकों को पूरा करने के बाद दी जाए। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि 2021 संशोधन का कोई नियामिकीय प्रभाव पड़ेगा या नहीं।          

एमओईएफसीसी द्वारा 2015 का संशोधन सही दिशा में एक कदम था जो कई अध्ययनों, विशेषज्ञों और सार्वजनिक परामर्शों पर आधारित था। यह अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ भी मेल खाता था। लेकिन इसके बाद से ही कई हितधारकों ने इसको कमज़ोर करने और विलम्ब से लागू करने का प्रस्ताव दिया जिसे एमओएफसीसी ने चुपचाप स्वीकार भी कर लिया। एमओएफसीसी ने सर्वोच्च्य न्यायालय में अपने हलफनामे में बिजली मंत्रालय की अलग-अलग समय पर क्रियांवयन योजना प्रस्तुत की और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए 2019 तथा बाकी राज्यों के लिए 2022 की नई समय सीमा को स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद, 2021 में नए संशोधन और नई समय सीमा का निर्धारण किया गया। यह सर्वोच्च्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हलफनामे का उल्लंघन था। जहां तक नियमों के अनुपालन की बात है, राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करवाने के लिए ज़िम्मेदार हैं जो इसे निभाने में ढील बरतते रहे। उदाहरण के तौर पर, 1 जनवरी 2017 के बाद शुरू किए गए संयंत्रों को नए मानदंडों का पालन करना था लेकिन उन्होंने आज तक पीसीई स्थापित नहीं किए हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड्स द्वारा एकत्रित उत्सर्जन सम्बंधी डैटा अभी तक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। इससे यह पता लगाना भी मुश्किल हो गया है कौन-से संयंत्र मानकों का पालन कर रहे हैं।

पर्यावरणीय मानकों के प्रति अस्पष्टता और सम्बंधित लोगों की लापरवाही 2021 के संशोधन में भी देखी जा सकती है। ऐसे में नई समय सीमा के उल्लंघन की भी काफी संभावना है। 

भावी चुनौतियां

पर्यावरण संरक्षण (संशोधन) नियम, 2015 के छह वर्ष बाद संस्थागत प्रक्रियाओं और वास्तविक क्रियांवयन दोनों में बहुत कम प्रगति हुई है। सीमित कार्रवाइयां, 2021 के संशोधन में नज़र आ रहा पुन:निर्धारण, मानकों को और अधिक कमज़ोर करने और समय सीमा को एक दशक पीछे धकेलने के प्रयासों को देखते हुए लगता है कि इन मानकों के क्रियांवयन और टीपीपी के आसपास गंभीर प्रदूषण की समस्या को संबोधित करने के प्रति गंभीरता नहीं है। नियामकों द्वारा पीसीई की स्थापना पर ध्यान न देना संदेह को और बढ़ाता है। दरअसल, उत्सर्जन नियंत्रण मात्र उपकरण स्थापित करने से नहीं होगा बल्कि तभी संभव है जब प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों का उचित उपयोग किया जाए। 

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कोयला संयंत्रों को लेकर गंभीर प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के बावजूद क्या भारत सख्त उत्सर्जन नियंत्रण व्यवस्था को अपना पाएगा? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.adanipower.com/-/media/Project/Power/OperationalPowerPlants/mundra/Bannner/mundra_banner1.jpg?la=en&hash=BB05EB99B343E9C097B8891087F053BD

ज्ञान क्रांति की दहलीज पर टूटते पूर्वाग्रह – माधव गाडगिल

मेरा जन्म सलीम अली की शानदार सचित्र पुस्तक बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स के प्रकाशित होने के एक साल बाद 1942 में हुआ था। मेरे पिता, डी. आर. गाडगिल, सलीम अली के मित्र और उत्साही पक्षी-निरीक्षक थे। अपनी पढ़ाई पूरी करने से पहले ही मैंने सलीम अली की किताब के चित्रों से अपने चारों ओर के पक्षियों की समृद्ध विविधता को पहचानना सीख लिया था। 14 साल की उम्र में मैं सलीम अली से मिला और उनके ज्ञान, विनोदबुद्धि और व्यक्तित्व से मोहित होकर उन्हें अपने गुरु के रूप में अपनाया और एक फील्ड इकॉलॉजिस्ट बन गया। वे मुझसे 46 साल बड़े थे, और हम अगले 30 वर्षों तक लगातार संपर्क में रहे। मैंने उनके कई अध्ययनों, अनुसंधानों में भाग लिया और मुझे उनके साथ पक्षियों के रैनबसेरों पर संयुक्त रूप से एक शोध निबंध लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कई बार वनकर्मी मुझ पर गुस्सा हो जाते थे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि मैं उनके वनों के कुप्रबंधन और स्थानीय लोगों के उत्पीड़न को देखूं। ऐसे मौकों पर सलीम अली जी ने ही मेरी मदद की।

लेकिन किसी वजह से वे भारत के आम लोगों से पूरी तरह से कट गए थे और यह मानने लगे थे कि प्रकृति के सभी तरह के विनाश के लिए यही अज्ञानी, अविवेकी जनता ज़िम्मेदार है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये लोग कभी सुशिक्षित बनेंगे और अपने आसपास के प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित करने आगे आएंगे ताकि इसके अच्छे प्रबंधन में उनकी हिस्सेदारी हो। मैं हमेशा इस बात से परेशान रहता था कि मेरे गुरु ने इस तरह के पूर्वाग्रहों को पनाह दी।

पिताजी का जीवन भर का जुनून सहकारिता आंदोलन था और उन्होंने सहकारी बैंकिंग और सहकारी चीनी कारखानों को बढ़ावा देने का प्रयास किया। इसलिए मैं लोगों को सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो गया और भारत के जैव विविधता अधिनियम, 2002 के एक प्रमुख प्रावधान के रूप में जैव विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना के प्रस्ताव का बीड़ा उठाया और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 को पारित करने के अभियान में भाग लिया। एफआरए के महत्वपूर्ण सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्रावधान के तहत ग्राम सभाओं को गैर-काष्ठ वन संसाधनों के स्वामित्व और प्रबंधन अधिकार सौंपे गए हैं। और 2009 में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले की मेंढा (लेखा) और मारडा सीएफआर सौंपे जाने वाली देश की पहली ग्राम सभाएं बन गईं।

प्रबंधन अधिकारों के तहत एक प्रबंधन योजना तैयार करना महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है जिसे मात्रात्मक बनाने की आवश्यकता होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली की शर्मनाक स्थिति से बाधित स्थानीय लोग अपने दम पर यह काम संभाल नहीं सकते हैं। इसलिए, मेरे कंप्यूटर वैज्ञानिक मित्र विजय एदलाबदकर और मैंने स्वेच्छा से मेंढा में स्थानीय बेयरफुट पारिस्थितिकीविदों के एक कैडर के साथ एक प्रबंधन योजना तैयार करने में मदद की।

ज़मीनी स्तर पर ऐसी क्षमता का निर्माण करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने गांधी जयंती (2018) से सामुदायिक वन अधिकार-धारक ग्राम सभाओं के नामांकित व्यक्तियों के लिए 5 महीने के प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन शुरू किया। विजय और मैं मेंढा के क्षेत्र में आयोजित इस कार्यक्रम से जुड़े थे। इसमें प्रशिक्षु प्रकृति के अपने अनुभव के खजाने के साथ उपस्थित थे और उन्होंने उत्साहपूर्वक मैदानी कार्य किया। वे स्मार्टफोन को संभालने और जीपीएस सुविधा का उपयोग करके गांव की सीमा जैसी भौगोलिक जानकारी अभिलिखित करने में माहिर हो गए। हमने उनकी ग्राम सभाओं के लिए सीएफआर योजनाओं और जैव विविधता रजिस्टरों को अंतिम रूप देने के लिए उनके साथ काम करना जारी रखा है।

उन सभी प्रशिक्षित युवाओं के पास स्मार्टफोन थे और उन्होंने एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया था। लघु वनोपज देने वाली प्रजातियों के वैज्ञानिक नाम सीएफआर योजनाओं के लिए एक महत्वपूर्ण ज़रूरत है| प्रशिक्षण के दौरान वे व्यापक संचार के लिए वैज्ञानिक नामों के महत्व को लेकर जागरूक हो गए थे। वे गूगल सर्च के आदी हो गए थे, बाज़ारों की जानकारी के लिए इंटरनेट की खोज करने लगे थे, और विकिपीडिया लेखों का अध्ययन कर रहे थे।

वे लगातार व्हाट्सएप ग्रुप पर स्थानीय पौधों और जानवरों की तस्वीरें डाल रहे थे। हालांकि अधिकांश से परिचित हूं, लेकिन मैं टैक्सॉनॉमी का विशेषज्ञ तो हूं नहीं और जब विशेषज्ञों ने मदद करने से इन्कार कर दिया तो चौंकने की बारी मेरी थी।

फिर एक दिन समूह के एक सदस्य सदुरम मडावी ने कई तस्वीरों के वैज्ञानिक नाम पोस्ट करना शुरू कर दिया। जांच करने पर मैंने पाया कि वह हमेशा सही नाम बता रहा था। उसने हमें बताया कि उसने दो बहुत ही महत्वपूर्ण ऐप्स खोजे हैं: गूगल इमेज और गूगल लेंस। ऐप्स का उपयोग करने पर ये अपलोड की गई तस्वीरों को गूगल के जीवित वास्तविक प्राणियों की एक अरब से अधिक छवियों के विशाल डैटाबेस से जांचते हैं, और तुरंत एक या अधिक संभावित अंग्रेज़ी और वैज्ञानिक नाम बताते हैं। इस तरह, आदिवासी युवा अनायास विशेष ज्ञान पर एकाधिकार प्राप्त विशेषज्ञों के चंगुल से मुक्त हो जाते हैं और सक्षम रूप से अपनी सीएफआर प्रबंधन योजना और जैव विविधता रजिस्टर तैयार कर सकते हैं।

सदुराम बहुत बुद्धिमान है लेकिन खराब शालेय शिक्षा के कारण 10वीं कक्षा की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया है। आधुनिक ज्ञान के युग में ये बाधाएं तेज़ी से लुप्त होती जा रही हैं। उन्होंने अपने गांव में एक दुर्लभ ऑर्किड की खोज की, जो उसकी ज्ञात सीमा से काफी बाहर है। उन्होंने इसे जिओडोरम लैक्सीफ्लोरम के रूप में पहचाना और गढ़चिरोली में कुछ वनस्पति शास्त्रियों के साथ मिलकर वैज्ञानिक पत्रिका जर्नल ऑफ थ्रेटन्ड टैक्सा में एक शोध निबंध प्रकाशित किया। इससे सदुराम एक वैज्ञानिक समुदाय का सदस्य बन गया। मेरे गुरु सलीम अली एक अमीर, प्रतिष्ठित परिवार से थे लेकिन गणित से चिढ़ के कारण उपाधि प्राप्त करने में असफल रहे थे। फिर भी उन्हें भारत के अग्रणी पक्षी विज्ञानी के रूप में पहचाना जाता है। अत्यधिक वंचित पृष्ठभूमि से आने वाला सदुराम भी प्रथम श्रेणी के वनस्पति शास्त्री के रूप में विकसित होने का माद्दा रखता है। तो, मेरे शिष्य मेरे गुरु के पूर्वाग्रहों का मुकाबला कर रहे हैं! इस बात की पूरी उम्मीद है कि उभरते हुए ज्ञान युग में हम एक ऐसे समतामूलक समाज की ओर तेज़ी से आगे बढ़ेंगे, जिसमें सभी लोगों की पहुंच भाषा की बाधाओं से मुक्त होकर समस्त मानवीय ज्ञान तक होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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