विलुप्त होती प्रजातियों से मानव अस्तित्व पर संकट – मनीष श्रीवास्तव

विश्व विख्यात जर्नल नेचर के जीव विज्ञान विभाग के वरिष्ठ संपादक डॉ. हेनरी जी ने विलुप्तप्राय प्रजातियों के मुद्दे को हाल ही में पुन: उठाया है। उन्होंने यह दावा किया है कि दुनिया भर में 5400 स्तनधारी प्रजातियों में से लगभग 1000 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर आ गई हैं। गेंडा, बंदर और हाथी जैसे जीव सबसे तेज़ी से लुप्त होने वाली प्रजाति बनने की ओर बढ़ रहे हैं।

जैव विविधता का जिस तरह से ह्रास हुआ है उसका प्रतिकूल असर मानव पर भी पड़ा है। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा है कि अगर ईकोसिस्टम्स में इसी तरह असंतुलन की स्थिति रही तो पृथ्वी पर मानव सभ्यता का अंत भयावह होगा और अंतरिक्ष में उपग्रह कालोनियां बनाकर रहने का ही विकल्प बच जाएगा।

पर्यावरण के ईकोसिस्टम्स में आ रहे इस भयानक असंतुलन को पहली बार नहीं रेखांकित किया गया है। सालों से इस असंतुलन के प्रति जागरूकता लाने का क्रम चला आ रहा है। शायद इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा विश्व वन्य जीव दिवस (3 मार्च) के अवसर पर साल 2022 की थीम “पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के लिए प्रमुख प्रजातियों को बहाल करना” रखा गया है।

जीव-जंतुओं के लुप्त होने से पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन को गिद्ध के उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले बहुतायत में गिद्ध पाए जाते थे। इन्हें प्रकृति का दोस्त कहकर पुकारा जाता था, क्योंकि इनका भोजन मरे हुए पशु-पक्षियों का मांस होता है। यहां तक कि ये जानवरों की 90 प्रतिशत हड्डियों तक को हजम करने की क्षमता रखते हैं। किंतु अब ये लुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में आ गए हैं और आज इनके संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करने की ज़रूरत आन पड़ी है।

यही हाल प्राकृतिक वनस्पतियों का भी है। वैश्विक स्तर पर तीस हज़ार से भी ज़्यादा वनस्पतियां विलुप्ति की श्रेणी में आ चुकी हैं। भारत में पौधों की लगभग पैंतालीस हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें से लगभग 1300 से ज़्यादा विलुप्तप्राय हैं।

वैश्विक प्रयासों के साथ भारत ने जैव विविधता के संरक्षण में प्रतिबद्धता दर्शाई है। इस समय भारत में 7 प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल, 18 बायोस्फीयर रिज़र्व और 49 रामसर स्थल हैं, जहां विश्व स्तर पर लुप्त हो रही प्रजातियों का न सिर्फ संरक्षण हो रहा है, बल्कि उनकी संख्या में वृद्धि भी दर्ज की गई है।

संयुक्त राष्ट्र ने जैव विविधता के नष्ट होने के महत्वपूर्ण कारणों में शहरीकरण, प्राकृतिक आवास की कमी, प्राकृतिक संसाधनों का अतिशोषण, वैश्विक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को गिनाया है।

डॉ. हेनरी ने प्रजातियों की विलुप्ति का जो मुद्दा उठाया है, वह महत्वपूर्ण है। हमें सोचना होगा कि इस समस्या का समाधान मानव विकास का प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित कर निकाला जा सकता है या किसी और तरीके से। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टाइप-2 डायबिटीज़ महामारी से लड़ाई – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम

इंटरनेशनल डायबिटीज़ फाउंडेशन का अनुमान है कि दुनिया भर में 53.7 करोड़ लोग मधुमेह (डायबिटीज़) से पीड़ित हैं। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल की वेबसाइट के मुताबिक यूएस में 3.7 करोड़ से अधिक लोग (लगभग 10 प्रतिशत) डायबिटीज़ से पीड़ित हैं। डायबिटीज़ दो तरह की होती है – टाइप-1 और टाइप-2।

डायबिटीज़ के प्रकार

आम तौर पर टाइप-1 डायबिटीज़ आनुवंशिक होती है, और यह इंसुलिन लेकर आसानी से नियंत्रित की जा सकती है। इंसुलिन का इंजेक्शन रक्त में उपस्थित शर्करा का उपयोग करने में मदद करता है ताकि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा मिल सके। और शेष शर्करा को भविष्य में उपयोग के लिए यकृत (लीवर) और अन्य अंगों में संग्रहित कर लिया जाता है।

टाइप-2 डायबिटीज़ काफी हद तक जीवन शैली का परिणाम होती है। इसमें इंसुलिन इंजेक्शन लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और यह ग्रामीण आबादी की तुलना में शहरी लोगों में अधिक देखी जाती है। टाइप-2 डायबिटीज़ उम्र से सम्बंधित बीमारी है और यह अक्सर 45 वर्ष या उससे अधिक की उम्र में विकसित होती है।

वर्ष 2002 में जर्नल ऑफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित मद्रास डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन (MDRF) का अग्रणी शोध कार्य बताता है कि टाइप-2 डायबिटीज़, जिसमें हमेशा इंसुलिन लेने की आवश्यकता नहीं होती है, काफी हद तक जीवन शैली पर आधारित बीमारी है। और इसका प्रकोप ग्रामीण आबादी (2.4 प्रतिशत) की तुलना में शहरी आबादी (11.6 प्रतिशत) में अधिक है।

बीमारी का बोझ

MDRF का यह अध्ययन मुख्यत: दक्षिण भारत की आबादी पर आधारित था। लेकिन सादिकोट और उनके साथियों ने संपूर्ण भारत के 77 केंद्रों पर 18,000 लोगों पर अध्ययन किया है, जिसे उन्होंने डायबिटीज़ रिसर्च एंड क्लीनिकल प्रैक्टिस पत्रिका में प्रकाशित किया है। उनकी गणना के अनुसार भारत की कुल आबादी के 4.3 प्रतिशत लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं, (5.9 प्रतिशत शहरी और 2.7 प्रतिशत ग्रामीण)।

ICMR द्वारा वित्त पोषित एक अन्य अध्ययन का अनुमान है कि वर्तमान में पूरे भारत में लगभग 7.7 करोड़ लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं।

डायबिटीज़ से लड़ने के या इसे टालने के कुछ उपाय हैं। मुख्य भोजन में कार्बोहाइड्रेट का कम सेवन और उच्च फाइबर वाले आहार का सेवन करना उत्तम है। MDRF ऐसे ही एक उच्च फाइबर वाले चावल का विकल्प देता है। दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में मुख्य भोजन चावल है, जबकि उत्तर भारत में लोग मुख्यत: गेहूं खाते हैं।

गेहूं में अधिक फाइबर, अधिक प्रोटीन, कैल्शियम और खनिज होते हैं। और हम जो चावल खाते हैं वह ‘सफेद’ होता है या भूसी और चोकर रहित पॉलिश किया हुआ होता है। (याद करें कि महात्मा गांधी ने हमें पॉलिश किए हुए चावल को उपयोग न करने की सलाह दी थी)।

तो, चावल खाने वालों के लिए अपने दैनिक आहार में गेहूं, साथ ही उच्च प्रोटीन वाले अनाज, मक्का, गाजर, पत्तागोभी, दालें और सब्ज़ियां शामिल करना स्वास्थ्यप्रद होगा। मांसाहारी लोगों को अंडे, मछली और मांस से उच्च फाइबर और प्रोटीन मिल सकता है।

रोकथाम

क्या टाइप-2 डायबिटीज़ को होने से रोका जा सकता है? हारवर्ड युनिवर्सिटी का अध्ययन कहता है – बेशक।

बस, ज़रूरत है थोड़ा वज़न कम करने की, स्वास्थप्रद भोजन लेने की, भोजन में कुल कार्ब्स का सेवन कम करने की और नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम करने की। अधिक व्यायाम की जगह उचित व्यायाम करें। उच्च ऊर्जा खपत वाले व्यायाम करें, जैसे कि नियमित रूप से 10 मिनट की तेज़ चाल वाली सैर, और सांस सम्बंधी व्यायाम भी करें जैसे कि ध्यान में करते हैं।

हमारे फिज़ियोथेरपिस्ट और आयुर्वेदिक चिकित्सक भी श्वास सम्बंधी व्यायाम और नियमित कसरत करने की सलाह देते हैं।

वेबसाइट heathline.com ने 10 अलग-अलग व्यायाम बताए हैं जो उन लोगों के लिए उपयोगी होंगे जिनमें डायबिटीज़ होने की संभावना है या टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं, या वृद्ध हो रहे हैं।

इन 10 में से कुछ व्यायाम जिम जाए बिना आसानी से किए जा सकते हैं। पहला व्यायाम है सैर: सप्ताह में पांच बार, या उससे अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलें। कई डायबिटीज़ विशेषज्ञ सुझाते हैं कि तेज़-तेज़ चलना रोज़ाना घर पर भी किया जा सकता है।

दूसरा है साइकिल चलाना। पास के मैदान या पार्क में साइकिल चलाई जा सकती है। रोज़ाना 10 मिनट साइकिल चलाना बहुत फायदेमंद होता है। वैसे, साइकिल को स्टैंड पर खड़ा कर घर पर भी दस मिनट पैडल मारे जा सकते हैं।

तीसरा है भारोत्तोलन (वज़न उठाना)। यहां भी, आपका घर ही जिम हो सकता है। घर की भारी वस्तुएं (डॉक्टर की सलाह अनुसार 5 या 8-10 कि.ग्रा.)। जैसे पानी भरी बाल्टी या अन्य घरेलू सामान उठा सकते हैं। ऐसा रोज़ाना या एक दिन छोड़कर एक दिन करना लाभप्रद होगा।

उपरोक्त वेबसाइट ने तैराकी, कैलिस्थेनिक्स जैसे कई अन्य व्यायाम भी सूचीबद्ध किए हैं, लेकिन यहां हमने केवल उन व्यायाम की बात की है जिन्हें लोग घर पर या आसपास आसानी से कर सकते हैं।

योग

इन 10 अभ्यासों में योग का भी उल्लेख है, जो भारतीयों के लिए विशेष रुचि का है।

जर्नल ऑफ डायबिटीज़ रिसर्च में प्रकाशित नियंत्रित परीक्षणों की एक व्यवस्थित समीक्षा बताती है कि योग ऑक्सीकारक तनाव को कम कर सकता है, और मूड, नींद और जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है। यह टाइप-2 डायबिटीज़ वाले व्यस्कों में दवा के उपयोग को भी कम करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिला वैज्ञानिकों को उचित श्रेय नहीं मिलता

वैज्ञानिक शोध कार्य टीम द्वारा मिलकर किए जाते हैं। लेकिन हमेशा टीम के सभी लोगों को काम का बराबरी से या यथोचित श्रेय नहीं मिलता। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि करियर के समकक्ष पायदान पर खड़े वैज्ञानिकों में से महिलाओं को उनके समूह के शोधकार्य के लेखक होने का श्रेय मिलने की संभावना पुरुषों की तुलना में कम होती है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि महिलाओं के प्रति इस तरह की असमानताओं का असर वरिष्ठ महिला वैज्ञानिकों को करियर में बनाए रखने और युवा महिला वैज्ञानिकों को आकर्षित करने की दृष्टि से सकारात्मक नहीं होगा।

पूर्व अध्ययनों में पाया गया है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित के कई क्षेत्रों में महिलाएं अपनी मौजूदगी की अपेक्षा कम शोध पत्र लिखती हैं। लेकिन ऐसा क्यों है, अब तक यह पता लगाना चुनौतीपूर्ण रहा है – क्योंकि यह ठीक-ठीक पता लगाना मुश्किल था कि लेखकों की सूची में शामिल करने योग्य किन व्यक्तियों को छोड़ दिया जाता है। नए अध्ययन ने यूएस-स्थित लगभग 10,000 वैज्ञानिक अनुसंधान टीमों के विशिष्ट विस्तृत डैटा तैयार कर इस चुनौती को दूर कर दिया है। अध्ययन में वर्ष 2013 से 2016 तक इन 10,000 टीमों में शामिल रहे 1,28,859 शोधकर्ताओं और उनके द्वारा विभिन्न पत्रिकाओं में लिखे गए 39,426 शोध पत्रों से सम्बंधित डैटा इकट्ठा किया गया। इन आंकड़ों से शोधकर्ता यह पता करने में सक्षम रहे कि किन व्यक्तियों ने साथ काम किया और अंततः श्रेय किन्हें मिला। (अध्ययन में नामों के आधार पर लिंग का अनुमान लगाया गया है, इससे अध्ययन में आंकड़े थोड़ा ऊपर-नीचे होने की संभावना हो सकती है और इस तरीके से गैर-बाइनरी शोधकर्ताओं की पहचान करना मुश्किल है।)

अध्ययन की लेखक पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर ब्रिटा ग्लेनॉन बताती हैं कि अक्सर लेखकों की सूची में महिलाओं का नाम छोड़े जाने के किस्से सुनने को मिलते थे। “मैं कई महिला वैज्ञानिकों को जानती हूं जिन्होंने यह अनुभव किया है लेकिन मुझे इसका वास्तविक पैमाना नहीं पता था। वैसे हर कोई इसके बारे में जानता था लेकिन वे मानते थे कि ऐसा करने वाले वे नहीं, कोई और होंगे।”

ग्लेनॉन स्वीकार करती हैं कि यह अध्ययन हर उस कारक को नियंत्रित नहीं कर सका है जो यह निर्धारित करता है कि कौन लेखक का श्रेय पाने के योग्य है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि शोध टीमों में काम करने वाले कुछ पुरुषों ने आधिकारिक तौर पर संस्था में रिपोर्ट किए गए कामों के घंटों की तुलना में अधिक घंटे काम किया हो या समूह के काम में उनका बौद्धिक योगदान अधिक रहा हो।

हालांकि, वे यह भी ध्यान दिलाती हैं कि महिलाएं बताती हैं कि उन्हें जितना श्रेय मिलना चाहिए उससे कम मिलता है। नए अध्ययन के हिस्से के रूप में 2446 वैज्ञानिकों के साथ किए गए एक सर्वेक्षण में देखा गया कि पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं ने कहा कि उन्हें लेखक होने के श्रेय से बाहर रखा गया और उनके साथियों ने शोध में उनके योगदान को कम आंका था। और पिछले साल प्रकाशित 5575 शोधकर्ताओं पर हुए एक अध्ययन में बताया गया था कि पुरुषों की तुलना में ज़्यादा महिलाओं ने लेखक होने का श्रेय देने के फैसले को अनुचित माना।

ग्लेनॉन कहती हैं हर प्रयोगशाला में प्रमुख अन्वेषक स्वयं अपने नियम गढ़ता है और वही तय करता है कि लेखक का श्रेय किन्हें मिलेगा। इसलिए विभिन्न क्षेत्रों और प्रयोगशालाओं में एकरूपता नहीं दिखती। यह पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। जैसे, किसी ऐसे व्यक्ति को श्रेय मिल सकता है जो प्रयोगशाला में अधिक दिखाई देते हों। अत: फंडिंग एजेंसियों या संस्थानों को लेखक-सूची में शामिल करने के लिए स्पष्ट नियम निर्धारित करने चाहिए। लेखक का फैसला सिर्फ मुखिया पर नहीं छोड़ा जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नाक की सर्जरी: सुश्रुत का विवरण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दी फेमस इंडियन राइनोप्लास्टी, जेंटलमैन्स मैगज़ीन, लंदन, अक्टूबर 1794

नाक पर की जाने वाली शल्य क्रिया यानी सर्जरी को राइनोप्लास्टी कहते हैं। आजकल इसे ‘नोस जॉब’ के नाम से किया जाता है और आम तौर पर यह सौंदर्य सर्जरी के रूप में लोकप्रिय है – चेहरे की सुडौलता में सुधार। नाक के कामकाज में सुधार भी राइनोप्लास्टी का एक प्रमुख कारण है। इसके अलावा कुछ जन्मजात विकृतियों (जैसे कटा तालू) में भी इसकी मदद ली जाती है।

प्रति वर्ष की जाने वाली राइनोप्लास्टी के मामले में भारत का दुनिया में चौथा स्थान है (यहां ध्यान रखने की बात यह है कि इस प्रक्रिया की उपलब्धता का मतलब यह नहीं है कि विशेषज्ञता भी उसी मान में उपलब्ध है। नोस जॉब का परिणाम गलत-सही हो सकता है और कई जाने-माने सर्जन बताते हैं कि कई मरीज़ पुन: सर्जरी की तलाश में होते हैं)।

नाक हमारी शक्ल सूरत और पहचान का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। ‘नाक कट जाना’ जैसे मुहावरे नाक के महत्व को व्यक्त करते हैं, हालांकि यहां बात शारीरिक नाक कटने से नहीं बल्कि बदनामी से है। कई समाजों में नाक काटना अत्यंत सख्त सज़ा मानी जाती थी। इससे यह भी समझा जा सकता है कि क्यों नाक का पुनर्निर्माण काफी समय पहले से होने लगा होगा।

प्राचीन विधि

नाक के पुनर्निर्माण का पहला व्यवस्थित विवरण सुश्रुत संहिता में मिलता है। आधुनिक विद्वानों ने इस ग्रंथ का काल 7वीं या 6ठी सदी ईसा पूर्व निर्धारित किया है। इस ग्रंथ के प्रतिष्ठित लेखक इस तकनीक का अभ्यास गंगा किनारे किया करते थे। सुश्रुत के लेखन को प्राचीनतम चिकित्सा पाठ्य पुस्तक माना गया है।

संहिता में नई नाक के निर्माण के लिए त्वचा प्राप्त करने के दो स्थान बताए गए हैं – गाल या कपाल। इनसे प्राप्त त्वचा को नाक का आकार दिया जाता था। एक पत्ती चुनी जाती थी जो कटी हुई नाक के माप के लगभग बराबर हो। इसके बाद गाल से त्वचा के एक टुकड़े को काटा जाता था (हालांकि पूरी तरह काटकर अलग नहीं किया जाता था)। काटी गई त्वचा एक जगह से डंठल की तरह चेहरे से जुड़ी रहती थी ताकि रक्त संचार जारी रहे। इसके बाद नाक के बचे हुए ठूंठ के आसपास छुरी की मदद से ताज़ा घाव किए जाते थे।

गाल की कटी हुई त्वचा को एक पल्लू की तरह पलटकर इन ताज़ा घावों के ऊपर जमाया जाता था और उसे चेहरे पर सिल दिया जाता था। नाक को आकार देने के लिए अरंडी के ठूंठों को उस जगह जमाया जाता था जहां नथुने होने चाहिए। दारुहल्दी, मुलेठी और रक्तचंदन का चूर्ण बनाकर उसे उस जगह पर छिड़का जाता था। यह दर्दनिवारक और निश्चेतक का काम करता था। घावों को कपास से ढंक दिया जाता था और त्वचा के पूरी तरह जुड़ जाने तक कपास पर तिल का तेल लगाते रहते थे।  त्वचा के पूरी तरह जुड़ जाने पर गाल से उसे पूरी तरह काट दिया जाता था।

सुश्रुत ने इस तकनीक के आविष्कार के श्रेय का दावा नहीं किया था। उन्होंने इसे एक ‘प्राचीन पद्धति’ की संज्ञा दी थी। सुश्रुत संहिता को 8वीं सदी में अरबी में अनूदित किया गया था। कुंज लाल भीषागरत्न द्वारा किया एक बढ़िया अंग्रेज़ी अनुवाद 1907 में सामने आया था। गौरतलब है कि युरोप में 13वीं सदी तक राइनोप्लास्टी का कोई विवरण नहीं मिलता। लगभग इस समय ‘इंडियन चीक फ्लैप’ (गाल के पल्लू की भारतीय विधि) का उल्लेख मिलने लगता है।

अनभिज्ञता

ब्रिटिश लोग इस शल्य क्रिया से अनभिज्ञ थे, इस बात का प्रमाण 1816 में प्रकाशित यॉर्क के जोसेफ कार्प्यू की पुस्तक एन अकाउंट ऑफ टू सक्सेसफुल ऑपरेशन्स फॉर रिस्टोरिंग ए लॉस्ट नोस (कटी हुई नाक को बहाल करने के दो सफल ऑपरेशनों का विवरण) से मिलता है। कार्प्यू अपने देश में राइनोप्लास्टी के अग्रणि लोगों में से थे। इस पुस्तक में वे ईस्ट इंडिया कंपनी के दो ‘चिकित्सा महानुभावों’ के अवलोकनों का ज़िक्र करते हैं; इन दोनों ने 1792 में पुना के श्री कुमार द्वारा की गई सर्जरी को देखा था।

नाक से चोटिल व्यक्ति कोई कावसजी थे, जो बैलगाड़ी चलाते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों के लिए सामान लाने-ले जाने का काम करते थे। कावसजी की नाक टीपू सुल्तान की फौज के लोगों ने काट दी थी। श्री कुमार ने मोम के एक टुकड़े को सफाई से काट-छांटकर गुमशुदा नाक का आकार दिया था। फिर उसे सावधानीपूर्वक चपटा करके कावसजी के कपाल पर जमा दिया गया था। मोम के इस आकार से यह निर्धारित किया गया कि त्वचा को कहां से काटा जाएगा। काटा इस तरह गया था कि मध्य रेखा भौंहों के बीच रहे। कटी हुई चमड़ी के पल्लू को नीचे की ओर पलटाकर नाक के हिस्से पर जमाकर सिल दिया गया।

सूक्ष्मजीव रोधी क्रिया के लिए सर्जरी की जगह पर कत्था लगाया गया और कुछ दिनों तक घी में सना कपड़ा रखा गया। समय के साथ सिलने के निशान गायब हो गए। और तो और, कावसजी बगैर किसी असुविधा के छींक भी सकते थे और नाक छिनक भी सकते थे।

यह सर्जरी सुश्रुत द्वारा अपना ग्रंथ लिखे जाने के लगभग 2500 साल बाद हुई थी लेकिन तरीका लगभग अपरिवर्तित था।

यहां एक बात ध्यान देने की है। नाक के पुनर्निर्माण की यह तकनीक सही मायनों में नाक प्रत्यारोपण नहीं थी। त्वचा  प्रत्यारोपण यानी शरीर के एक हिस्से की त्वचा को दूसरे हिस्से पर या एक व्यक्ति की त्वचा को दूसरे व्यक्ति के शरीर पर उगाना एक ऐसी तकनीक है जिसे लेकर अभी और अध्ययन की ज़रूरत है। यह समझना होगा कि ऊतकों का तालमेल कैसे होता है और अस्वीकार की स्थिति क्यों बनती है। (स्रोत फीचर्स)

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जंगली मुर्गियां चिकन कैसे बनीं?

चिकन बिरयानी से लेकर खाओ-मन-गाई तक चिकन और चावल का संयोजन दुनिया भर में काफी प्रचलित है। लेकिन इन दोनों का सम्बंध सिर्फ साथ-साथ पकाने तक सीमित नहीं है। हाल ही में किए गए कुछ पुरातत्व अध्ययनों से पता चलता है कि चावल के बिना पालतू मुर्गियों का अस्तित्व भी संभव नहीं था।

इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि मुर्गियों का पालतूकरण वैज्ञानिकों के अनुमान से हज़ारों वर्ष बाद हुआ जब थाईलैंड या प्रायद्वीपीय दक्षिणपूर्वी एशिया में लाल जंगली फाउल के क्षेत्रों में मनुष्यों द्वारा चावल की खेती शुरू की गई। इस अध्ययन में और भी कई पहलू सामने आए हैं जिसने चिकन की उत्पत्ति से सम्बंधित कई मिथकों को ध्वस्त किया है।

चार्ल्स डार्विन के अनुसार मुर्गियों की उत्पत्ति का सम्बंध लाल जंगली फाउल से है क्योंकि ये दिखने में लगभग एक जैसे हैं। लेकिन डार्विन के इस प्रस्ताव को सही साबित करना मुश्किल है। देखा जाए तो जीवाश्म स्थलों में भारत से लेकर उत्तरी चीन तक जंगली फाउल की पांच किस्में और छोटी मुर्गियों की हड्डियां कम मिलती हैं।

गौरतलब है कि वर्ष 2020 में 863 जीवित मुर्गियों के जीनोम के अध्ययन से यह सबित हुआ है कि जंगली फाउल उप-प्रजाति (गैलस गैलसपेडिकस) आधुनिक मुर्गियों की पूर्वज है। चिकन का डीएनए इस उप-प्रजाति से सबसे अधिक मेल खाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुर्गियों के पालतूकरण की शुरुआत दक्षिणपूर्वी एशिया में हुई थी। शोधकर्ताओं ने उत्तरी चीन और पाकिस्तान में 8-11 हज़ार साले पुराने जीवाश्मों को चिकन के जीवाश्म बताया है। लेकिन आनुवंशिकविदों के अनुसार वर्तमान जीवित पक्षियों के आनुवंशिक विश्लेषण से पालतूकरण के समय के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता है। इसके अलावा शोधकर्ताओं को जीवाश्मित मुर्गियों से पर्याप्त डीएनए प्राप्त नहीं हुआ है जिससे पालतूकरण का सटीक समय बताया जा सके।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ म्युनिख के पुरा शारीरिकी विज्ञानी जोरिस पीटर्स और ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के पालतूकरण विशेषज्ञ ग्रेगर लार्सन ने विश्व भर के 600 से अधिक पुरातात्विक स्थलों से चिकन की हड्डियों और उससे सम्बंधित व्यापक अध्ययन के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय टीम गठित की। इसके अलावा, एक अन्य स्वतंत्र अध्ययन में उन्होंने पश्चिमी युरेशिया और उत्तरी अफ्रीका से प्राप्त चिकन जीवाश्मों की हड्डियों का काल-निर्धारण किया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार संभावित चिकन की सबसे पुरानी हड्डियां मध्य थाईलैंड के बान नॉन वाट क्षेत्र में पाई गईं जहां किसानों ने 3250 से 3650 वर्ष पूर्व चावल की खेती शुरू की थी। इन किसानों ने गैलस वंश के कई जीवों को विशिष्ट सामग्री (कब्र-सामग्री) के साथ दफन किया था जो इस बात के संकेत है कि ये कंकाल जंगली फाउल की बजाय पालतू मुर्गियों के थे। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जंगली फाउल चावल के दानों से आकर्षित हुए होंगे और खेतों के किनारे झुरमुट में अपने घोंसले बनाए होंगे और मनुष्यों की उपस्थिति के आदी हो गए होंगे ।

एशिया से मध्य पूर्व और अफ्रीका के क्षेत्रों में मुर्गियों की हड्डियों की उपस्थिति के साथ-साथ वैज्ञानिकों को चावल की शुष्क खेती, बाजरा और अन्य अनाजों के प्रसार का सम्बंध देखने को मिला। टीम ने पाया कि चिकन उत्तरी चीन और भारत में लगभग 3000 वर्ष पूर्व तथा मध्य पूर्व और उत्तर-पूर्वी अफ्रीका में लगभग 2800 पूर्व प्रकट हुए थे।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने पूर्व में चिकन के और अधिक समय पहले मिलने के अध्ययनों को त्रुटिपूर्ण बताया है। उनके अनुसार पिछले अध्ययनों में मिले जीवाश्म या तो चिकन के नहीं हैं या उनके पालतूकरण की तारीखों की गणना करने में कोई गलती हुई है।

युरोप में चिकन की उपस्थिति का पता लगाने के लिए टीम ने युरोप और एशिया में पूर्व में प्रस्तावित 23 मुर्गियों की हड्डियों का पुन: काल-निर्धारण किया। एंटिक्विटी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार युरोप में सबसे पहले चिकन 2800 वर्ष पूर्व इटली स्थित एट्रस्केन स्थल पर पाए गए थे। इस अध्ययन को कई ऐतिहासिक अभिलेखों का भी समर्थन प्राप्त है। जैसे ओल्ड टेस्टामेंट में चिकन का ज़िक्र नहीं है; ये न्यू टेस्टामेंट में प्रकट होते हैं।

चिकन को उत्तर में ब्रिटेन, स्कैंडेनेविया और आइसलैंड तक फैलने में 1000 वर्षों का समय लग गया। संभवत: उपोष्णकटिबंधीय पक्षियों को ठंडे इलाकों में रहने के लिए अनुकूलित होना पड़ा।   

वैसे, मनुष्यों ने पक्षियों को मुख्य रूप से भोजन के स्रोत के रूप में देखना काफी हाल में शुरू किया है। पहले इनका लेन-देन संपत्ति, पंखों, रंजकों, मूल्यवान वस्तुओं, कब्रों में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं आदि के रूप में किया जाता था। टीम के अनुसार शुरुआती चिकन आकार में काफी छोटे थे जिनको मांस का प्रमुख स्रोत नहीं माना जाता था। धीरे-धीरे वे साधारण भोजन का हिस्सा बन गए। (स्रोत फीचर्स)

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भारत का पहला तरल दर्पण टेलीस्कोप

हाल ही में भारत में एक अनोखा टेलीस्कोप तैयार किया गया है जिसमें ठोस दर्पण के बजाय घूर्णन करता तरल पारा उपयोग किया गया है। हालांकि इस तरह के टेलीस्कोप पहले भी बनाए जा चुके हैं लेकिन खगोल विज्ञान को समर्पित 4-मीटर चौड़ा इंटरनेशनल लिक्विड मिरर टेलीस्कोप (आईएलएमटी) पहली बार तैयार किया गया है। इसे हिमालय में 2450-मीटर ऊंचाई पर नैनीताल के समीप स्थित देवस्थल वेधशाला में स्थापित किया गया है।

गौरतलब है कि लगभग 15 करोड़ रुपए की लागत का यह टेलीस्कोप बेल्जियम, कनाडा और भारत द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। यह कांच वाले टेलीस्कोप की तुलना में बहुत सस्ता है। इसी टेलीस्कोप के नज़दीक बेल्जियम की एक कंपनी द्वारा 3.6 मीटर चौड़ा स्टीयरेबल देवस्थल ऑप्टिकल टेलीस्कोप (डीओटी) भी स्थापित किया गया है जिसकी लागत लगभग 140 करोड़ रुपए है। खगोलविदों के अनुसार तरल दर्पण चंद्रमा पर एक विशाल टेलीस्कोप स्थापित करने के लिए सबसे बेहतरीन तकनीक है जिससे दूरस्थ ब्रह्मांड को देखा जा सकेगा।        

इस प्रकार के टेलीस्कोप में एक कटोरे के आकार के उपकरण में पारे को घुमाया जाता है। इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण और अपकेंद्री बल का मिला-जुला असर तरल को एक पारंपरिक टेलीस्कोप दर्पण के समान आदर्श परावलय आकार में परिवर्तित कर देता है। इसमें कांच का दर्पण बनाने, उसकी सतह को घिसकर परावलय आकार देने और एल्युमिनियम की परावर्तक परत बनाने का खर्च भी नहीं होता है।

आईएलएमटी की कल्पना 1990 के दशक के अंत में की गई थी। हालांकि भारत में इस टेलीस्कोप के पुर्जे 2012 में लाए गए थे लेकिन निर्माण में काफी विलंब हुआ। इस दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके पास पर्याप्त पारा भी नहीं है। फिर कोविड-19 महामारी ने यात्रा करना मुश्किल कर दिया। आखिरकार इस वर्ष अप्रैल में टीम ने 50 लीटर पारे को सेट करके 3.5 मि.मी. परावलय परत का निर्माण किया।

सीधे ऊपर की ओर देखने पर यह घूमता आईना लगभग चंद्रमा जितने चौड़े आकाश का दर्शन कराएगा और पृथ्वी के घूर्णन के चलते सुबह से शाम तक पूरे आकाश पर बारीकी से नज़र रखी जा सकेगी। इसके द्वारा बनाई गई छवियां लंबी धारियों के रूप में दिखाई देंगी जिनके अलग-अलग पिक्सेल को जोड़कर एक लंबे एक्सपोज़र से प्राप्त छवि का निर्माण किया जा सकेगा।

यह टेलीस्कोप रात-दर-रात आकाश की एक ही पट्टी को दिखाएगा, ऐसे में कई रातों के एक्सपोज़र को एक साथ जोड़कर धुंधली वस्तुओं की स्पष्ट छवियां प्राप्त की जा सकती हैं।

वैकल्पिक रूप से, रात-दर-रात हो रहे परिवर्तनों को भी देखा जा सकता है। इसमें सुपरनोवा, क्वाज़र और दूरस्थ निहारिकाओं में उपस्थित ब्लैक होल वगैरह पर भी नज़र रखी जा सकेगी। हालांकि खगोल शास्त्रियों की अधिक रुचि गुरुत्वाकर्षण लेंस की खोज करना है जिसमें गुरुत्वाकर्षण के कारण एक या अनेक निहारिका समूह प्रकाश को विकृत कर देते हैं। आईएलएमटी की मदद से किसी खगोलीय वस्तु की चमक के आधार पर निहारिका-लेंसों के द्रव्यमान और ब्रह्मांड के फैलाव की दर पता लगाई जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार आईएलएमटी की आकाशीय पट्टी में 50 ऐसे गुरुत्व लेंस दिखाई दे सकते हैं।         

वैसे तो कई और पारंपरिक सर्वेक्षण टेलीस्कोप आकाश का अध्ययन कर रहे हैं लेकिन परिवर्तनों को देखने के लिए प्रत्येक रात एक ही पैच पर लौटना उनके लिए संभव नहीं है। ऐसे में डीओटी और आईएलएमटी की समन्वित शक्ति से किसी भी खगोलीय वस्तु की जांच करना अब मुश्किल नहीं है।

यदि आईएलएमटी तकनीक सफल होती है तो इसे और अधिक विकसित कर चंद्रमा पर स्थापित किया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार चंद्रमा पर पृथ्वी की तुलना में गुरुत्वाकर्षण बल कम है और वहां वातावरण भी नहीं है इसलिए भविष्य के टेलीस्कोप स्थापित करने के लिए वह उचित स्थान है।

गौरतलब है कि पृथ्वी पर कोरियोलिस प्रभाव के कारण 8 मीटर से बड़े दर्पणों में पारे की गति प्रभावित हो सकती है जबकि चंद्रमा के घूर्णन की गति कम होती है जिससे अधिक बड़े दर्पणों को स्थापित करने में कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन इतना वज़न चंद्रमा पर ले जाना मुश्किल है। और वहां रात के समय पारा जम जाएगा और दिन में वाष्पित होता रहेगा। लेकिन हलके पिघले हुए लवण का हिमांक बिंदु कम होता है जो चंद्रमा के वातावरण में भी काम कर सकता है। इसे चांदी के वर्क की मदद से परावर्तक बनाया जा सकता है।    

2000 के दशक में नासा और कैनेडियन स्पेस एजेंसी ने लूनर तरल दर्पण का अध्ययन शुरू किया था जो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका। लेकिन हाल ही में चंद्रमा में बढ़ती रुचि के चलते इस तकनीक पर फिर से अध्ययन किया जा सकता है। 2020 में 100-मीटर तरल दर्पण का प्रस्ताव रखा गया था जो चंद्रमा के किसी एक ध्रुव से आकाश के एक टुकड़े पर कई वर्षों तक नज़र रखेगा और निहारिकाओं के बारे में उपयोग जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बांध बाढ़ को बदतर बना सकते हैं

ई बांध बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं लेकिन हाल ही में हुए अध्ययन में पाया गया है कि कुछ तरह की नदियों पर बने बांध अधिक प्रलयंकारी बाढ़ ला सकते हैं। अध्ययन सुझाता है कि नदी प्रबंधकों को गाद वाली और रेतीली नदियों पर अपनी बाढ़ नियंत्रण रणनीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

बांधों के अपने कई फायदे हैं। ये अपेक्षाकृत स्वच्छ बिजली उत्पन्न कर सकते हैं, पानी का भंडारण करते हैं जिसका उपयोग खेती और अन्य कार्यों में किया जा सकता है और ये बाढ़ को रोक सकते हैं।

लेकिन बांधों के खामियाज़े भी हैं; जैसे लोगों का विस्थापन, मछलियों के प्रवास में बाधा और कई अन्य पारिस्थितिक नुकसान। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि बांध बाढ़ों को अधिक गंभीर बना सकते हैं।

बांध इंजीनियरों को उम्मीद थी कि पानी भंडारण के अलावा नदियों के बहाव को नियंत्रित करके बाढ़ के जोखिम को कम किया जा सकता है। चूंकि बांध गाद को रोक लेंगे और अपेक्षाकृत साफ पानी छोड़ेंगे जिससे नदी के तल में कटाव होगा और नदी गहरी हो जाएगी। इस कटाव से नदी अधिक पानी वहन कर सकेगी और बाढ़ का पानी नदी के किनारों पर फैलने से रुकेगा।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के भू-आकृति विज्ञानी हांगबो मा जानना चाहते थे कि बांध नदी की तलछटों को कैसे बदलते हैं – अध्ययन में आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए। बांध से छोड़ा गया पानी नदी के तल से महीन कणों को साथ बहा ले जाता है और बड़े कण नदी तल में छोड़ जाता है। इस तरह का क्षरण नदी तल में जलमग्न टीले बनाता है।

दरअसल मा और उनके साथी येलो नदी का अध्ययन कर रहे थे, जो तिब्बती पठार के पहाड़ों से शुरू होकर पूर्वी चीन सागर की ओर बहती है। जब वे नदी के एकदम निचले भाग के पेंदे का सोनार की मदद से स्कैन कर रहे थे तो वहां टीलों की अनुपस्थिति से काफी प्रभावित हुए। ऐसा नदी तल में गाद की उच्च मात्रा के कारण हुआ होगा। येलो नदी दुनिया की सबसे कीचड़ वाली नदी है जिसका नाम इसके प्रवाह में भारी मात्रा में गाद के कारण रखा गया है। महीन कण टीले नहीं बनने देते हैं।

लेकिन ज़ियाओलांगडी बांध के करीब नदी का पेंदा ऊबड़-खाबड़ मिला और वहां बड़े-बड़े टीले थे। इसने शोधकर्ताओं को आश्चर्य में डाल दिया कि एक ही नदी के पेंदे में इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है।

सवाल था कि क्या उबड़-खाबड़ और टीले से भरा नदी का पेंदा बाढ़ के पानी के प्रवाह को बाधित करेगा, जिससे पानी ऊपर चढ़ेगा और नदी उफान पर आ जाएगी और बाढ़ का पानी मैदान में फैल जाएगा। इस विचार को जांचने के लिए उनके दल ने नदी चैनल के आकार और अन्य कारकों के आधार पर गणना की। नेचर कम्यूनिकेशंस में प्रकाशित परिणाम बताते हैं कि नदी चैनल 3.4 मीटर गहरी होने के बावजूद, 1999 में बांध बनने से पहले की तुलना में अब बड़ी बाढ़ लगभग दुगनी भयंकर हो गई हैं।

वर्ष 1980 से 2015 तक बाढ़ के रिकॉर्ड जांचने पर वैज्ञानिकों ने पाया कि मध्यम और बड़ी बाढ़ों की भयावहता वास्तव में बढ़ गई थी। दूसरी ओर, इसी अवधि में आई छोटी बाढ़ों की भयावहता में कमी आई थी; संभवत: नदी की गहराई थोड़ी बढ़ने के कारण ऐसा हुआ होगा।

सौभाग्य से, बांध बनने के बाद से शायद ही कभी निचली येलो नदी में बड़ी बाढ़ आई हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जलवायु शुष्क हो गई है और जलाशय में अब भी अत्यधिक वर्षा से आने वाले प्रवाह को थामे रखने की पर्याप्त क्षमता है। लेकिन जलवायु मॉडल सुझाता है कि इस शताब्दी में येलो नदी बेसिन में वर्षा 30 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। और नदी जलाशय में तलछट जमा होना जारी है – और यह पहले से ही 75 प्रतिशत भरा है – बाढ़ के पानी को जमा करके रखने की बांध की क्षमता कम हो जाएगी।

टीम का अनुमान है कि नए बांध 80 प्रतिशत से अधिक निचली नदियों में आने वाली बड़ी बाढ़ की भयावहता बढ़ा देंगे। इसलिए हमें सोचना चाहिए कि न केवल येलो नदी के लिए बल्कि अन्य नदियों के लिए भी बाढ़ के जोखिम का आकलन कैसे किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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एक घोंघे में विचित्र लिंग निर्धारण

म तौर पर किसी भी प्रजाति में लिंग निर्धारण की एक ही विधि पाई जाती है – कुछ प्रजातियों में नर और मादा लिंग अलग-अलग होते हैं, कुछ में सारे जीव उभयलिंगी होते हैं जबकि कुछ प्रजातियों में जीव अपना लिंग बदल सकते हैं। उभयलिंगी होने का मतलब है कि प्रत्येक जीव नर और मादा दोनों भूमिकाएं निभा सकता है। लेकिन करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक हालिया शोध पत्र में ब्लैडर स्नेल में लिंग निर्धारण की जो विधि रिपोर्ट की गई है वह विविधता का एक नया आयाम दर्शाती है।

ब्लैडर स्नेल (Physa acuta) उभयलिंगी होते हैं। लेकिन सीएनआरएस, फ्रांस के शोधकर्ता पेट्रिस डेविड ने अपने अध्ययन के दौरान देखा कि इनमें से कुछ घोंघों में नर क्रिया पूरी तरह ठप हो गई थी जबकि सारे घोंघों का डीएनए एक जैसा था।

दरअसल डेविड और उनके साथी किसी अन्य वजह से घोंघों की आबादी में आणविक विविधता का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने पाया कि कुछ प्रजातियों में माइटोकॉण्ड्रिया में पाए जाने वाले डीएनए में बहुत अधिक विविधता है। माइटोकॉण्ड्रिया कोशिकाओं का एक उपांग होता है जो ऑक्सी-श्वसन में भूमिका निभाता है। गौरतलब है कि कोशिका के केंद्रक में उपस्थित डीएनए के अलावा माइटोकॉण्ड्रिया का अपना स्वतंत्र डीएनए होता है। माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए में फर्क के चलते फायसा एक्यूटा प्रजाति के कुछ सदस्य नर भूमिका निभाने में पूरी तरह असमर्थ थे।

केंद्रक के डीएनए की बजाय कोशिका द्रव्य में अन्यत्र उपस्थित डीएनए द्वारा लिंग निर्धारण को कोशिकाद्रव्य नर वंध्यता (सायटोप्लाज़्मिक मेल स्टेरिलिटी, सीएमए) कहते हैं और पौधों में इसकी खोज अट्ठारवीं सदी की शुरुआत में की जा चुकी थी। लेकिन जंतुओं में अब इसे पहली बार देखा गया है। और शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ऐसा माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए के दम पर होता है।

डेविड और उनके साथी ब्लैडर स्नेल के एक जीन (COI) की मदद से उनमें विविध जीनोटाइप का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने पाया कि इनमें से 15 प्रतिशत स्नेल में COI का एक भिन्न रूप पाया जाता है। इन घोंघों में उपस्थित जीन अन्य सदस्यों की अपेक्षा पूरा 26 प्रतिशत भिन्न था। इसे उन्होंने मायटोटाइप-डी कहा। टीम को लगा कि इतनी विविधता थोड़ी अचंभे की बात है और इसकी ज़रूर कोई भूमिका होगी।

शोधकर्ताओं ने मायटोटाइप-डी के सदस्यों का प्रजनन सामान्य घोंघों से करवाया, यह देखने के लिए कि क्या वे आपस में संतानोत्पत्ति कर सकते हैं। वैसे तो प्रजनन के दौरान उभयलिंगी जीव नर या मादा कोई भी भूमिका अपना सकते हैं लेकिन इस मामले में उन्होंने देखा कि कुछ मायटोटाइप-डी सदस्य नर भूमिका अपनाने में पूर्णत: अक्षम थे। वे दूसरे घोंघों पर चढ़ते नहीं थे, जबकि उन्हें अपने ऊपर आने देते थे। और तो और, इनमें शुक्राणु का उत्पादन बिलकुल भी नहीं होता था या सामान्य घोंघों की तुलना में बहुत कम होता था। यहां माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए में फर्क होने से नर वंध्यता पैदा हो रही है, जो जंतुओं में सायटोप्लाज़्मिक मेल स्टेरिलिटी का पहला उदाहरण है।

फिलहाल इसकी आणविक क्रियाविधि का खुलासा नहीं हुआ है, लेकिन शोधकर्ताओं को लगता है कि मायटोटाइप-डी में यह उत्परिवर्तन किसी तरह से नर भूमिका को बाधित कर देता है ताकि मादा कार्य के लिए ज़्यादा गुंजाइश बन सके। मज़ेदार बात यह है कि किसी जंतु में माइटोकॉण्ड्रिया और उसके जीन्स शुद्धत: मां का योगदान होते हैं। अर्थात ऐसे जीन्स का होना सदस्य को मात्र मादा के रूप में प्रजनन करने को तैयार करता है। यह तो केंद्रकीय जीन्स के साथ टकराव की स्थिति है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जंतुओं में इसकी और तलाश की जानी चाहिए। हो सकता है यह काफी आम हो और शोध व टेक्नॉलॉजी की दृष्टि से उपयोगी साबित हो। (स्रोत फीचर्स)

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कॉकरोच का नया करतब

नुसंधान बताता है कि कॉकरोचों ने मीठे के प्रति नफरत पैदा कर ली है और इसके चलते हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले कई कीटनाशक नुस्खे नाकाम साबित होने लगे हैं।

जब भी कोई नर कॉकरोच किसी मादा से संभोग करना चाहता है तो वह अपना पिछला भाग उसकी तरफ करके अपने पंख खोलता है और पंखों के नीचे छिपा मीठा भोजन उसे पेश कर देता है। यह भोजन एक रस होता है जिसे नर की टर्गल ग्रंथि स्रावित करती है। मादा जब इस भोजन को चट करने में व्यस्त होती है, उस दौरान नर उसे अपने एक शिश्न से पकड़े रखता है और दूसरे से अपने शुक्राणु उसके शरीर में पहुंचा देता है। इसमें लगभग 90 मिनट का समय लगता है।

लेकिन वर्ष 1993 में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पता लगाया था कि जर्मन कॉकरोच में ग्लूकोज़ नामक शर्करा के लिए कोई लगाव नहीं होता। यह थोड़ा अजीब था क्योंकि ग्लूकोज़ इन जंतुओं के लिए ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत है। तो सवाल उठा कि ऐसे कॉकरोच क्यों और कहां से पैदा हुए।

ऐसा लगता है कि हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मीठे पावडरों और द्रवों ने यह असर किया है। इन मीठे पदार्थों में विष मिलाकर कॉकरोच पर नियंत्रण के प्रयास होते हैं। मिठास से आकर्षित होकर कॉकरोच इसका सेवन करते हैं और मारे जाते हैं। लेकिन कुछ कॉकरोच कुदरती रूप से ग्लूकोज़ के प्रति इतने लालायित नहीं थे; वे जीवित रहे, संतानोत्पत्ति करते रहे और यह गुण अगली पीढ़ी को सौंपते रहे।

अब कहानी में नया मोड़ आया है। नॉर्थ कैरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय की कीट विज्ञानी आयको वाडा-कात्सुमाता ने कम्यूनिकेशंस बायोलॉजी में बताया है कि जो गुणधर्म मादा कॉकरोच को मीठे ज़हर से दूर रहने को उकसाता है, वही उसे सामान्य कॉकरोच नर के साथ संभोग करने से भी रोकता है।

कारण यह है कि कॉकरोच की लार नर के रस में उपस्थित जटिल शर्कराओं को तोड़कर उन्हें ग्लूकोज़ जैसी सरल शर्कराओं में बदल देती है। जैसे ही ग्लूकोज़ से नफरत करने वाली मादा कॉकरोच इस तोहफे का पहला निवाला लेती है, वह उसके मुंह में कड़वा हो जाता है और वह मैथुन से पहले ही भाग निकलती है।

आप शायद सोच रहे होंगे कि यह तो अच्छी बात है। कॉकरोच की आबादी स्वत: कम होती जाएगी। लेकिन ग्लूकोज़ से चिढ़ने वाले ये कॉकरोच प्रजनन का जुगाड़ जमा ही लेते हैं।

प्रयोगों के दौरान वाडा-कात्सुमाता ने देखा कि जंगली कॉकरोच के मुकाबले ग्लूकोज़ से दूर भागने वाले मादा कॉकरोच नर कॉकरोच से दूर रहना पसंद करते हैं। लेकिन साथ ही यह भी देखा गया कि ऐसे नर कॉकरोच अपने शुक्राणु कम समय में मादा को देने में माहिर हो गए हैं। और तो और, इन आबादियों में नर द्वारा मादा को पेश की जाने वाली पोषक सामग्री के रासायनिक संघटन में भी बदलाव आया है।

स्पष्ट है कि मनुष्य जंतुओं के विकास पर महत्वपूर्ण असर डालते हैं। और जंतु इस तरह के दबाव से निपटने की नई-नई रणनीतियां भी विकसित करते रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन का जंगली फफूंद पर असर

क्रोएशिया के कुछ हिस्सों में ट्रफल (खाने योग्य फफूंद) काफी महत्वपूर्ण हैं। इनकी कीमत लगभग 4,00,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है। ट्रफल उद्योग और इससे सम्बंधित पर्यटन रोज़गार प्रदान करता है, अतिरिक्त आय देता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है।

तीस साल पहले इस्त्रिया में वर्ष भर में होने वाली बारिश का पूर्वानुमान किया जा सकता था। लेकिन अब, जलवायु बदल गई है और सूखा भी पड़ने लगा है। ट्रफल्स को बढ़ने के लिए एक विशिष्ट मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। और अपेक्षाकृत गर्म जाड़ों के कारण जंगली सूअरों की आबादी बढ़ गई है, जो मिट्टी को नुकसान पहुंचाते हैं और ट्रफल खा जाते हैं। जिस कारण ट्रफल्स मिलना मुश्किल होता जा रहा है।

फफूंद वैज्ञानिक ज़ेल्को ज़्ग्रेबिक काले ट्रफल्स के प्लांटेशन की व्यवहार्यता का अध्ययन कर रहे हैं, जिसमें वे उनके बीजाणुओं को पेड़ों पर रोपने के विभिन्न तरीकों को आज़मा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने इस फफूंद के जीवन चक्र, पारिस्थितिकी और पूरे क्रोएशिया में कवक के भौगोलिक वितरण सम्बंधी डैटा और नमूने एकत्रित किए।

उनके अनुसार ट्रफल प्लांटेशन प्राकृतिक आवासों पर दबाव को कम कर सकता है। इसमें, मिट्टी में पानी की मात्रा नियंत्रित की जा सकती है, उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि विधियों का उपयोग किया जा सकता है और सूअरों को बाहर रखा जा सकता है।

वे मिट्टी में कवक की पहचान करने के लिए डीएनए बारकोडिंग का उपयोग कर रहे हैं ताकि संरक्षित क्षेत्रों में उनके बीजाणुओं और कवक-तंतुओं (मायसेलियम) की मदद से कवक की पहचान की जा सके। ज़्ग्रेबिक का कहना है कि प्रजातियों की संख्या अनुमान से कहीं अधिक है।

इसके अलावा, ट्रफल वाले इलाकों और ट्रफल-रहित इलाकों की तुलना करने से यह समझने में मदद मिल सकती है कि वे कुछ क्षेत्रों में क्यों पनपते हैं। इस काम से ब्रिजुनी नेशनल पार्क के एड्रियाटिक द्वीप जैसे स्थानों में जैव विविधता का महत्व भी स्पष्ट हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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