बढ़ी आबादी ने किया विशाल जीवों का सफाया

करीबन दो हज़ार साल पहले मानव जितने बड़े लीमर और विशाल एलिफेंट-बर्ड मेडागास्कर में विचरते थे। इसके एक हज़ार साल बाद ये यहां से लगभग विलुप्त हो गए थे। अब एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि इस सामूहिक विलुप्ति का समय मेडागास्कर में मानव आबादी में उछाल के साथ मेल खाता है, जब मनुष्यों के दो छोटे समूह आपस में घुले-मिले और पूरे द्वीप पर फैल गए।

वर्ष 2007 में शोधकर्ताओं के एक दल ने मलागासी लोगों की वंशावली समझने के लिए मेडागास्कर आनुवंशिकी और नृवंशविज्ञान प्रोजेक्ट शुरू किया था। यद्यपि मेडागास्कर द्वीप अफ्रीका के पूर्वी तट से मात्र 425 किलोमीटर दूर स्थित है, लेकिन वहां बोली जीने वाली मलागासी भाषा 7000 किलोमीटर दूर तक हिंद महासागर क्षेत्र में बोली जाने वाली ऑस्ट्रोनेशियन भाषाओं के समान है। ऑस्ट्रोनेशियन भाषा समूह में मलय, सुडानी, जावानी तथा फिलिपिनो भाषाएं शामिल हैं। अलबत्ता, लंबे समय से यह एक रहस्य रहा है कि कौन लोग, कब और कैसे मेडागास्कर पहुंचे? और इन आगंतुकों ने कैसे बड़े पैमाने पर जीवों के विलुप्तिकरण को प्रभावित किया।

यह समझने के लिए मेडागास्कर आनुवंशिकी और नृवंशविज्ञान परियोजना के तहत शोधकर्ताओं ने 2007 से 2014 के बीच द्वीप के 257 गांवों से लोगों के लार के नमूने, संगीत, भाषा और अन्य समाज वैज्ञानिक डैटा एकत्र किया। 2017 में शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि आधुनिक मलागासी लोग पूर्वी अफ्रीका के बंटू-भाषी लोगों और दक्षिण-पूर्व एशिया में दक्षिणी बोर्नियो के ऑस्ट्रोनेशियन-भाषी लोगों से सबसे अधिक निकट से सम्बंधित हैं।

हालिया अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने लार का आनुवंशिक विश्लेषण किया और कंप्यूटर मॉडल की मदद से मलागासी वंशावली तैयार की और अनुमान लगाया कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी आबादी कैसे बदली।

शोधकर्ताओं ने पाया कि आधुनिक मलागासी आबादी सिर्फ चंद हज़ार एशियाई लोगों की वंशज है, जिन्होंने लगभग 2000 साल पहले अन्य समूहों के साथ घुलना-मिलना बंद कर दिया था।

हालांकि यह रहस्य तो अब भी है कि एशियाई लोग वास्तव में मेडागास्कर कब पहुंचे? लेकिन ये लोग 1000 साल पहले तक मेडागास्कर में फैल चुके थे। करंट बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि इस आगंतुक आबादी ने यहां की लगभग इतनी ही बड़ी अफ्रीकी आबादी के साथ घुलना-मिलना शुरू किया था, और लगभग 1000 साल पहले विशाल जीवों के विलुप्तिकरण के समय इनकी आबादी बढ़ने लगी थी।

पुरातात्विक प्रमाण बताते हैं कि मेडागास्कर की आबादी में विस्फोट के साथ लोगों की जीवनशैली भी बदली थी। पहले, मनुष्य वन्यजीवों के साथ रहते थे और शिकार वगैरह करते थे। लेकिन इस समय वे बड़ी बस्तियां बनाने लगे थे, धान उगाने लगे थे, और मवेशी चराने लगे थे।

इन सभी के आधार पर शोधकर्ताओं को लगता है कि जनसंख्या वृद्धि, जीवनशैली में परिवर्तन और गर्म व शुष्क जलवायु के मिले-जुले प्रभाव ने संभवतः विशाल जीवों का सफाया शुरू कर दिया था।

अन्य शोधकर्ता मानव आबादी में बढ़त और जीवों के विलुप्तिकरण के समय से तो सहमत हैं लेकिन उनका मानना है कि जीवों के विलुप्तिकरण में बदलती जलवायु की भूमिका इतनी अधिक नहीं रही। इसके अलावा वर्तमान आबादी के डैटा की मदद से इतिहास के बारे में कुछ कहने की अपनी सीमाएं हैं। यदि कब्रगाहों में से प्राचीन लोगों के डीएनए खोज कर उनका विश्लेषण किया जाता तो लोगों के मेडागस्कर पहुंचने और उनके स्थानीय लोगों से घुलने-मिलने के समय के बारे में कुछ पुख्ता तौर पर कहा जा सकता था।

बहरहाल, मेडागास्कर में विशाल जीवों के विलुप्तिकरण में मनुष्यों की भूमिका को समझना वर्तमान समय में ज़रूरी है, विशेष रूप से जब आज हाथी और गैंडे जैसे जीव खतरे में हैं। वास्तविक कारणों को जानकर हम इन जीवों के संरक्षण के बेहतर प्रयास कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अकेले रह गए शुक्राणु भटक जाते हैं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

क अध्ययन से पता चला है कि सांड के शुक्राणु तब अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ते हैं और निषेचन कर पाते हैं जब वे समूह में हों। यह जानकारी मनुष्यों में निषेचन को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। भौतिक विज्ञानी चिह-कुआन तुंग और सहकर्मियों ने फ्रंटियर्स इन सेल एंड डेवलपमेन्ट बायोलॉजी में बताया है कि कृत्रिम प्रजनन पथ में मादा के अंडे को निषेचित करने के लिए शुक्राणुओं के समूह अधिक सटीकता से आगे बढ़ते हैं बनिस्बत अकेले शुक्राणु के। ऐसा नहीं है कि मादा जननांग पथ में शुक्राणुओं के समूह तेज़तर गति से तैरते हों। लेकिन वे सही दिशा में सटीकता से आगे बढ़ते हैं।

र्दिष्ट स्थान पर पहुंचने के लिए दो बिंदुओं के बीच की सबसे छोटी दूरी एक सीधी रेखा होती है। पर वास्तव में अकेले शुक्राणु सीधी रेखा में न तैरकर घुमावदार रास्ता अपनाते हैं। किंतु, जब शुक्राणु दो या दो से अधिक के समूह में एकत्रित होते हैं, तो वे सीधे मार्ग पर तैरते हैं। समूह की सीधी चाल तभी फायदेमंद हो सकती है जब वे अंडाणु की ओर जा रहे हों। पूरी प्रक्रिया के अध्ययन हेतु शोधकर्ताओं ने एक प्रयोगात्मक सेटअप विकसित किया जिसमें बहते तरल पदार्थ का उपयोग किया गया था।

दरअसल, शुक्राणु गर्भाशय में पहुंचकर अंडवाहिनी से आ रहे अंडाणु की ओर जाते हैं। इस यात्रा के दौरान शुक्राणुओं को म्यूकस (श्लेष्मा) के प्रवाह के विरुद्ध तैरना और रास्ता बनाना होता है। तुंग और उनके सहयोगियों ने प्रयोगशाला में मादा जननांग की कृत्रिम संरचना वाला उपकरण बनाया। उपकरण एक उथला, संकीर्ण, 4-सेंटीमीटर लंबा चैनल था जो प्राकृतिक म्यूकस के समान एक गाढ़े तरल पदार्थ से भरा था जिसके बहाव को शोधकर्ता नियंत्रित कर सकते हैं।

शुक्राणु स्वाभाविक रूप से आगे ऊपर की ओर तैरने लगते हैं। अलबत्ता, प्रयोग में शुक्राणु के समूहों ने म्यूकस के प्रवाह में आगे बढ़ने में बेहतर प्रदर्शन किया। अकेले शुक्राणुओं के अन्य दिशाओं में भटक जाने की संभावना अधिक थी। कुछ अकेले शुक्राणु तेज़ तैरने के बावजूद, लक्ष्य से भटक गए।

जब शोधकर्ताओं ने अपने उपकरण में म्यूकस के प्रवाह को चालू किया, तो कई अकेले शुक्राणु बहाव के साथ बह गए। जबकि शुक्राणु समूहों की बहाव के साथ नीचे की ओर बहने की संभावना बहुत रही।

सांड के शुक्राणुओं पर किए गए इन प्रयोगों से वैज्ञानिकों को लगता है कि परिणाम मनुष्यों पर भी लागू होंगे। दोनों प्रजातियों के शुक्राणुओं के आकार समान होते हैं। तुंग कहते हैं, बहते तरल पदार्थ में शुक्राणु का अध्ययन उन समस्याओं पर प्रकाश डाल सकता है जो स्थिर तरल पदार्थों में नहीं दिखते। एक आशा यह है कि इससे मनुष्यों में बांझपन या निसंतानता के कारणों को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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केला: एक पौष्टिक फल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

क्षिण भारतीय पूजा और उत्सवों में केला एक अनिवार्य चीज़ है। लोग मंदिरों, शादी स्थलों और जश्नों के प्रवेश द्वारों को केले के पेड़ों से सजाते हैं, देवी-देवताओं को केला चढ़ाते हैं, और भोजन परोसने के लिए केले के पत्ते का उपयोग थाली की तरह करते हैं (तरल व्यंजनों तक के लिए कटोरी या चम्मच वगैरह का उपयोग नहीं करते)।

केले के पत्ते पर रसम भात खाना एक कला है। हालांकि इन दिनों किसी भी रेस्तरां में केले की ‘आधुनिक’ प्लेट (पत्तल) मिल सकती है, जिसमें सुविधा के लिए सूखे केले के पत्तों को आपस में सिल दिया जाता है।

एक पवित्र फल

विज्ञान लेखिका जे. मीनाक्षी बीबीसी में लिखती हैं कि केले का पेड़ प्रजनन और सम्पन्नता की दृष्टि से भगवान बृहस्पति के तुल्य माना जाता है। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है।

डॉ. के. टी. अचया ने अपनी पुस्तक इंडियन फूड: ए हिस्टॉरिकल कम्पैनियन में लगभग 400 ईसा पूर्व बौद्ध साहित्य में केले का उल्लेख बताया था। अपनी पुस्तक में अचया बताते हैं कि केला न्यू गिनी द्वीप से समुद्री मार्ग से होकर दक्षिण भारत पहुंचा था। कुछ लोगों का दावा है कि केले का पालतूकरण सबसे पहले न्यू गिनी में किया गया था।

कई किस्में

मीनाक्षीजी ने हैदराबाद से नागरकोइल की यात्रा के दौरान पाया कि यहां केले की लगभग 12-15 किस्में पाई जाती हैं। केले के पौधे पश्चिमी घाट से सटे गर्म और नम क्षेत्रों में उगते हैं।

तो फिर, पूरे भारत में केला कहां-कहां उगाया जाता है? केला मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय दक्षिणी तटीय इलाकों में – गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और बंगाल के कुछ हिस्सों तथा असम और अरुणाचल जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में उगाया जाता है।

वैसे, मध्य और उत्तरी क्षेत्र (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब) में भी केला उगाया जाता है, लेकिन यहां इसकी किस्मों में न तो इतनी विविधता होती है और न ही इतनी अधिक मात्रा में उगाया जाता है।

भारत हर साल लगभग 2.9 करोड़ टन केले का उत्पादन करता है। इसके बाद दूसरे नंबर पर चीन 1.1 करोड़ टन का उत्पादन करता है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का कहना है कि लगभग 135 देश केले का उत्पादन करते हैं, और केले के पौधे गर्म और नम परिस्थितियों में फलते-फूलते हैं। इस संदर्भ में दक्षिणपूर्वी एशियाई देश विशेष स्थान रखते हैं। इन देशों में केले की 300 से अधिक किस्में पाई जाती हैं, और कई किस्मों के पौधे देखने में भी सुंदर लगते हैं।

पोषण मूल्य

केले में ऐसा क्या है जिसने उन्हें स्वादिष्ट, पवित्र, औषधीय और पोषण के लिहाज़ से महत्वपूर्ण बनाया है? इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) की पुस्तक न्यूट्रीटिव वैल्यू ऑफ इंडियन फूड्स बताती है कि केले के 100 ग्राम खाने योग्य हिस्से में 10-20 मिलीग्राम कैल्शियम, 36 मिलीग्राम सोडियम, 34 मिलीग्राम मैग्नीशियम व 30-50 मिलीग्राम फॉस्फोरस होता है। ये सभी पोषक तत्व मिलकर केले को अत्यधिक पौष्टिक बनाते हैं।

डॉ. के. अशोक कुमार और उनके साथियों ने वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ फार्माकोग्नॉसी एंड फायटोकेमिस्ट्री में प्रकाशित अपने पर्चे में केले की किस्मों में पोषक तत्वों की मात्रा बताई थी। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत में मिलने वाले सभी फलों में केला सबसे सस्ता है। यह भारत के अधिकांश हिस्सों, यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में भी, पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है। और केला बाज़ार में मिलने वाले कई अन्य फलों जैसे आम, संतरा की तुलना में अधिक पौष्टिक होता है। अन्य अधिकांश फल मौसमी और महंगे होते हैं, और केले की तुलना में कम पौष्टिक होते हैं।

केले का सिर्फ फल उपयोगी नहीं है। इसका छिलका भी बायोचार के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके बायोचार का उपयोग उर्वरक के रूप में और बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। इसकी मदद से इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के भी प्रयास जारी हैं। (स्रोत फीचर्स)


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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि -4 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेखों में हमने एआई के विज्ञान और दर्शन के पक्ष पर बात रखी थी। आम तौर पर लोग वैज्ञानिक खोज के व्यावहारिक इस्तेमाल को टेक्नॉलॉजी कह देते हैं। दरअसल बहुत सारी वैज्ञानिक जांच और खोज पहले से मौजूद टेक्नॉलॉजी की मदद से ही मुमकिन हो पाती है। एआई भी ऐसा एक क्षेत्र है जिसमें विज्ञान और टेक्नॉलॉजी परस्पर गड्ड-मड्ड हैं। टेक्नॉलॉजी महज तकनीक या औज़ार नहीं होती, बल्कि एक सांगठनिक खाके के साथ ही यह वजूद में आती है। और जैसा किसी भी टेक्नॉलॉजी के साथ होता है, जब यह सही तरीके से काम नहीं करती है तो भयंकर हादसे तक हो जाते हैं। टेक्नॉलॉजी जिस सामाजिक या सियासी खाके के साथ जुड़ी होती है, उसके निहित स्वार्थ तय करते हैं कि इसका फायदा किसे मिलेगा और नुकसान किसे होगा। एआई कुछ अलग नहीं है।

एआई के कई व्यावहारिक उपयोगों में एक यह है कि किसी तस्वीर में से चीज़ों की पहचान जल्द से जल्द कैसे की जाए। खास तौर पर किसी शख्स की पहचान करना आज एआई का आम इस्तेमाल बन गया है। दुनिया भर में सरकारें इस तकनीक का इस्तेमाल करती हैं। हमारे मुल्क में भी दिल्ली, बेंगलुरु जैसे बड़े हवाई अड्डों पर शक्ल की पहचान के कैमरे लगे हुए हैं, जिनके ज़रिए आप की तस्वीर कंप्यूटर में कैद हो जाती है। फिलहाल यह स्वैच्छिक तौर पर हो रहा है।

यह महज फोटो खींचने या वीडियो बनाने वाली बात नहीं है, जो सीसीटीवी (closed-circuit television) से होता है। जैसे हर शख्स का खास डीएनए होता है, या हाथ और उंगलियों की खास लकीरें होती हैं, वैसे ही चेहरे की खास पहचान होती है। शक्ल में हाड़-मांस-चमड़े के उतार-चढ़ाव को आकड़ों में दर्ज कर लिया जाता है। इसे मशीन विज़न सिस्टम कहा जाता है। आम नागरिकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर अपने विरोधियों पर नज़र रखने के लिए सरकारें इस टेक्नॉलॉजी का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। अगर यह महज आतंकवादियों की पहचान करने तक सीमित होता, तो अच्छी बात होती। खतरनाक बात यह है कि अगर दर्ज सूचना में गलती रह जाए और इस वजह से किसी की गलत पहचान हो तो नतीजे भयंकर हो सकते हैं। इसकी एक मिसाल ड्रोन (चालक-रहित हवाई जहाज़) के जरिए बमबारी या मिसाइलें दागने का है।

सोचने पर लगता है कि शक्ल से पहचान के लिए इकट्ठा किए गए आंकड़ों में ज़्यादा कुछ तो होगा नहीं, आखिर आंखें, नाक, होंठ, यही तो हैं – या दाढ़ी-मूंछ है या नहीं, बस। पर असल में शक्ल में उतार-चढ़ाव की जटिलता कल्पना से भी ज़्यादा है। हम अक्सर किसी एक आदमी को देखकर किसी और के बारे में सोचने लगते हैं। कभी-कभी तो गलती से किसी को कोई और समझ बैठते हैं। यानी बात सिर्फ शक्ल को ज़हन में दर्ज करने की नहीं है, बाद में याददाश्त भी होनी चाहिए कि दर्ज की हुई पहचान किसकी थी। औसतन इंसान की शक्ल का फैलाव तकरीबन आधा फुट की भुजा के वर्ग के आकार का है, और साथ में तीसरा आयाम उतार-चढ़ाव का है। एक ग्राफ पेपर पर इसे दिखाया जा सकता है। अगर ग्राफ में सबसे छोटा वर्ग 1 वर्ग मि.मी. का है तो फैलाव को हम 150-150 यानी 22,500 वर्गों में बांट सकते हैं। हर छोटे वर्ग में रंगों की मदद से उतार-चढ़ाव दिखाया जा सकता है। अगर हम 16 रंगों का इस्तेमाल करें तो यह 22,500X16=3,60,000 आंकड़े हो गए। इसके बाद बात आती है चमड़े की बनावट या गठन की। हर बिंदु पर यह बदलती है। बढ़ती उम्र के साथ इसमें बदलाव आते हैं। लब्बोलुबाब यह कि शक्ल की पहचान जितना आसान मसला लगता है, उतना है नहीं। जितनी जटिलता होगी, उतने ही ज़्यादा आंकड़े होंगे और उनका हिसाब रख पाना उतना ही धीमा होगा। इसलिए शक्ल की पहचान में तकरीबन सही नतीजे पर पहुंचना हाल में ही मुमकिन हो पाया है। इसके लिए न्यूरल नेटवर्क और डीप लर्निंग का इस्तेमाल हो रहा है। इसे मुख्यत: चार चरणों में रखा जा सकता है – पहले चरण में शक्ल की तस्वीर लेकर उसे आंकड़ों में तबदील किया जाता है। जिस तरह हमारे दिमाग में किसी छवि को संजोए रखने के लिए उसे टुकड़ों में बांट कर अलग-अलग कोनों में जमा रखा जाता है, वैसे ही कंप्यूटर में भी छवि को अलग-अलग खासियतों में बांट कर दर्ज किया जाता है। दूसरे चरण में पूरी शक्ल को एक से दूसरी ओर तक ट्रैक करते हुए टुकड़ों में छोटे से छोटे हिस्से की तस्वीर ली जाती है। इसे पहले पूरी तस्वीर से दर्ज किए आंकड़ों के पूरक की तरह मान सकते हैं। तीसरे चरण में आंकड़ों को इस तरह बांटा जाता है (सेग्मेंटेशन – segmentation) ताकि बाद में उन्हें किसी मॉडल में शामिल करने में आसानी हो। मसलन अगर किसी कैनवस के हर हिस्से में अलग-अलग अनुपात में नीला और पीला रंग मिलाकर बिखेरा गया है, तो हमें अलग-अलग गहराई में बिखरे हरे रंग की तस्वीर दिखती है। हम इसे दो सूचियों में बांटकर आंकड़ों में दर्ज़ कर सकते हैं। एक सूची नीले रंग के और दूसरी पीले रंग के अनुपात को दर्ज़ करेगी। बाद में हम इसी अनुपात में दोनों रंग मिलाकर मूल तस्वीर फिर से बना सकते हैं। आखिरी चरण दर्ज आंकड़ों से मूल शक्ल को तैयार करने (रेस्टोरेशन – restoration) का है।

ऐसा लगता है कि शक्ल की पहचान इतना भी मुश्किल काम नहीं है। पर आज तक एआई के शोध में यह सबसे जटिल और चुनौतियों से भरी पहेलियों में से एक है। ऊपर बताए हर चरण में जटिलताएं हैं। मसलन ट्रैकिंग को ही लें। जब कैमरा ट्रैक कर रहा है, सांस लेने-छोड़ने जैसी कई वजहों से शक्ल में त्वचा का खिंचाव बदल सकता है। कैमरे में तस्वीर का बनना रोशनी पर निर्भर है। किस तरह का प्रकाश कहां से शक्ल पर पहुंच रहा है, उसमें कितना दूसरी चीज़ों से बिखर कर आ रहा है, ये बातें ली गई तस्वीर का मान तय करती हैं। इसलिए एक ही चीज़ पर दोहराई गई ट्रैकिंग में हर बार अलग आंकड़े दर्ज होते हैं। तीसरे और चौथे चरणों में आंकड़ों को संजोने और उनकी काट-छांट में कैसे नेटवर्क इस्तेमाल किए गए हैं, इससे आंकड़ों की प्रोसेसिंग पर असर पड़ता है। यानी मूल शक्ल को तैयार करने में गलत नतीजे मिलना मुमकिन है।

शक्ल की पहचान सिर्फ इंसान के लिए नहीं, बल्कि कई तरह के संदर्भों में अहम है। जैसे बिना ड्राइवर वाली गाड़ी के कैमरों में जो कुछ दर्ज होता रहता है, उसे पहले से दर्ज तस्वीरों के साथ तुलना कर हिसाब लगाया जाता है कि गाड़ी को आगे बढ़ाना है या नहीं, और यदि बढ़ाना है तो कितनी रफ्तार से और कैसी सावधानियों के साथ बढ़ाना है आदि। पश्चिमी मुल्कों में ऐसी गाड़ियों के टेस्ट-ड्राइव के दौरान एकाध हादसे हुए हैं, यानी मशीन द्वारा सामने आ रही चीजों की सही पहचान नहीं हो पाई थी।

कुदरती चीज़ों को कंप्यूटरों में दर्ज कर बाद में उसकी सही पहचान कर पाना इसलिए भी मुश्किल है कि कुदरत में बहुत सारी बातें संजोग से होती हैं। एक गाड़ी के सामने पड़ा हुआ छोटा बेजान पत्थर कभी अचानक उछल सकता है, क्योंकि कहीं और से कुछ आ टकराए या पत्थर के अंदर किसी छेद में कुछ फूट पड़े – ऐसी कई बातें अचानक घट सकती हैं, जिनका हिसाब पहले से नहीं रखा जा सकता है। इसलिए न्यूरल नेटवर्क की गणनाओं में संभाविता के आधार पर बदलाव किए जाते हैं। एआई के शोध में यह भी एक चुनौतियों भरा काम है, क्योंकि संजोग को गणना में शामिल करने का मतलब अक्सर यह होता है कि आंकड़ों के कई समूह इकट्ठे किए जाएं और उनका सांख्यिकी के कायदों (जैसे औसत मान आदि) का इस्तेमाल कर विश्लेषण किया जाए। इससे आंकड़ों की तादाद कई गुना बढ़ जाती है। दूसरे गणितीय तरीकों को भी अपनाया जाता है, पर ऐसी हर कोशिश नई चुनौतियां पेश करती है।

कोई भी टेक्नॉलॉजी संदर्भ-निरपेक्ष नहीं होती है। इसलिए हर टेक्नॉलॉजी के विकास में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की भागीदारी होनी चाहिए ताकि लोग अपने भले-बुरे का फैसला कर सकें और विकास को सही दिशा दे सकें। एआई के गलत इस्तेमाल से अक्सर बड़ी तबाही हुई है। शक्ल की पहचान से आम जनता को एक दायरे में बांधे रखना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाता है। आज जो जंग लड़ी जाती हैं, उनमें पहले की जंगों जैसी आमने-सामने की मुठभेड़ नहीं होती। आज धरती के एक छोर से उड़कर ड्रोन दूसरे छोर तक पहुंचते हैं। उनमें लगे कैमरों से तस्वीरें पल भर में वापस कंट्रोल-रूम तक भेजी जाती हैं, जहां फटाफट कंप्यूटरों में एआई द्वारा बमबारी का निशाना तय कर लिया जाता है और मिसाइल दाग दी जाती है। जाहिर है, मिसाइल चलाने वालों और टार्गेट के बीच न सिर्फ बहुत बड़ी भौगोलिक, बल्कि विशाल मनोवैज्ञानिक दूरी होती है। पिछले दशक में किसी ज़मीनी जंग में शामिल एक फौजी से भी ज़्यादा हत्याएं ड्रोन और मिसाइल चलाने वाले आभासी पायलटों ने की हैं। अक्सर इनमें फौजी टार्गेट की जगह आम नागरिक मारे जाते हैं। हाल में अफगानिस्तान में अमेरिकी ड्रोन द्वारा गलत निशाना तय होने की वजह से एक दर्जन से ज़्यादा आम नागरिक मारे गए थे। आम तौर पर ऐसे ड्रोन चलाने वाले भी घोर मानसिक तकलीफों से गुज़रते हैं। कई तो काम छोड़कर जंगलों में जा छिपते हैं, क्योंकि निर्दोष नागरिकों की, जिनमें अक्सर बच्चे भी होते हैं, हत्या का बोझ मनोवैज्ञानिक नासूर बनकर उन्हें ताज़िंदगी कचोटता है।

ऐसी तमाम बातें दुनिया भर में लोकतांत्रिक सोच रखने वाले लोगों को परेशान करती रही हैं। एआई की तड़क-भड़क और शोर मोहक है, पर इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। इस बारे में सचेत रहना हरेक नागरिक की ज़िम्मेदारी है। (स्रोत फीचर्स)

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जंतु बोलने लगे थे, जब कोई सुनने वाला न था

जीव जगत में बातूनी जीवों की बात करें तो मनुष्यों के अलावा तोता-मैना, डॉल्फिन का ख्याल उभरता है। कछुओं का ख्याल नहीं आता। लेकिन कछुए भी खट-खट, घुरघुराने और खिखियाने जैसी ध्वनि की मदद से संवाद करते हैं। और अब, कछुओं और अन्य शांत माने जाने वाले जानवरों की ‘आवाज़’ रिकॉर्ड करके वैज्ञानिकों ने पाया है कि भूमि पर विचरने वाले सभी कशेरुकी जीवों में आवाज़ विकसित होने का 40 करोड़ साल पुराना साझा इतिहास है।

ये नतीजे दर्शाते हैं कि जानवरों ने अपने विकास के दौरान बहुत पहले से ही आवाज़ निकालना शुरू कर दिया था – शायद तब से जब उनके कान ठीक तरह से विकसित भी नहीं हुए थे। और इससे लगता है कि कानों का विकास इन ध्वनियों को सुनने के लिए हुआ होगा।

कई साल पहले एरिज़ोना विश्वविद्यालय के वैकासिक पारिस्थितिकीविद जॉन वियन्स और उनके साथी झुओ चेन ने ध्वनि सम्बंधी (एकूस्टिक) संचार के विकास की शुरुआत पता करने का काम किया था – मूल रूप से उन ध्वनियों के बारे में जो जानवर फेफड़ों का उपयोग करके मुंह से निकालते हैं। वैज्ञानिक साहित्य खंगाल कर उन्होंने उस समय तक ज्ञात सभी ध्वनिक जानवरों का एक वंश वृक्ष तैयार किया था। उनका निष्कर्ष था कि इस तरह की ध्वनि निकालने की क्षमता कशेरुकी जीवों में 10 से 20 करोड़ वर्ष पूर्व कई बार स्वतंत्र रूप से उभरी थी।

लेकिन ज्यूरिख विश्वविद्यालय के वैकासिक जीवविज्ञानी गेब्रियल जोर्गेविच-कोहेन का ध्यान कछुए पर गया। हालांकि वियन्स और चेन ने पाया था कि कछुओं के 14 कुल में से केवल दो ही आवाज़ें निकालते हैं, लेकिन जोर्गेविच-कोहेन कछुओं के बारे में अधिक जानना चाह रहे थे। उन्होंने दो साल में 50 कछुआ प्रजातियों की ‘वाणि‌’ को रिकॉर्ड किया।

कछुओं की आवाज़ रिकॉर्ड करने के दौरान उन्हें तीन अन्य जीवों में भी ध्वनि के बारे में पता चला, जिनके बारे में माना जाता था कि वे आवाज़ नहीं निकालते: सिसीलियन नामक एक टांगविहीन उभयचर; तुआतारा नामक एक छिपकली जैसा सरीसृप; और लंगफिश, जिसे थलचर जानवरों का निकटतम जीवित रिश्तेदार माना जाता है।

53 कछुआ प्रजातियों में से मुट्ठी की साइज़ का दक्षिण अमेरिकी वुड कछुआ (राइनोक्लेमीस पंक्टुलेरिया) आवाज़ के लिहाज़ से सेलेब्रिटी साबित हुआ। इस कछुए ने 30 से अधिक आवाज़ें निकाली, जिसमें चरमराते दरवाज़े जैसी आवाज़ शामिल है जिसका उपयोग नर कछुए मादा को बुलाने/रिझाने के लिए करते हैं। सिर्फ युवा कछुओं में चीखने, रोने की आवाज़ें भी सुनी गईं। सामान्य तौर पर, कुछ ध्वनियां आक्रामक व्यवहार से सम्बंधित थीं (जैसे काटने की ध्वनि) जबकि अन्य ध्वनियां नए कछुओं (या जीवों) से मिलने पर अभिवादन जैसी प्रतीत हो रहा थीं। इनके साथ अक्सर सिर हिलाना भी देखा गया।

ध्वनि संचार पर मौजूदा डैटा में इस नए डैटा को जोड़ने पर लगभग 1800 प्रजातियों का एक व्यापक वैकासिक वृक्ष तैयार किया गया। नेचर कम्यूनिकेशंस में शोधकर्ता बताते हैं कि इस इस वैकासिक वृक्ष की प्रत्येक शाखा पर ऐसे जानवर मौजूद थे जो ध्वनियां निकालते थे। इससे लगता है कि ध्वनिक संचार तकरीबन 40 करोड़ साल पूर्व भूमि पर रहने वाले जानवरों और लंगफिश के साझा पूर्वज में सिर्फ एक बार विकसित हुआ था।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह काम मनुष्यों में संचार का विकास का पता लगाने में मदद कर सकता है। लेकिन ये निष्कर्ष बहस भी छेड़ सकते हैं। जैसे शोधकर्ताओं ने मान लिया है कि कई शांत प्रजातियों में सुनी गईं आवाज़ें अन्य जानवर सुनते हैं व उन पर प्रतिक्रिया देते हैं। लेकिन यह भी हो सकता है कि इन पर कोई ध्यान तक न देता हो।

शोधकर्ता इस दिशा में काम कर रहे हैं। वे रिकॉर्ड कर रहे हैं कि कैसे कछुए और अन्य शांत प्रजातियां इन ध्वनियों का उपयोग करती हैं। वे अन्य मछलियों की ध्वनियों के साथ भूमि पर पाए जाने वाले कशेरुकी जीवों और लंगफिश की आवाज़ की तुलना भी करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या ध्वनि विकास का वृक्ष और भी प्राचीन हो सकता है। क्या आवाज़ निकालने की हमारी क्षमता मछलियों के साथ साझा होती है? यदि हां, तो ध्वनिक संचार हमारे अनुमान से भी कहीं पहले विकसित हो गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भौंरे खेल-खिलवाड़ करते हैं

ब भी खेलकूद की बात आती है, हमें बच्चों का ख्याल आता है। लेकिन क्या खेल सिर्फ मनुष्य के बच्चे खेलते हैं? हाल का एक अध्ययन बताता है कि प्रयोगशाला में भौंरे लकड़ी की छोटी-छोटी गेंदों को सिर्फ मज़े के लिए इधर-उधर लुढ़काते हैं। इससे समझ में आता है कि भौंरों का संरक्षण और कृत्रिम छत्तों में उनके साथ अच्छा सलूक ज़रूरी है।

जानवरों में, खेल मस्तिष्क के विकास में मदद करता है: जैसे, लोमड़ी के बच्चों में लड़ने का खेल खेलना सामाजिक कौशल सीखने में मदद करता है, और शिकार आसपास न हो तो भी डॉल्फिन और व्हेल उछलते-कूदते रहते हैं और गोल-गोल घूमते हैं। 2006 में हुए एक अध्ययन ने बताया था कि युवा ततैया (पॉलिस्टस डोमिनुला) लड़ने का खेल खेलते हैं।

वर्तमान अध्ययन में क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के व्यवहार पारिस्थितिकीविद लार्स चिटका और उनके साथी देख रहे थे कि कैसे भौंरे (बॉम्बस टेरेस्ट्रिस) लकड़ी की गेंदों को खास जगह पर पहुंचाने का जटिल व्यवहार अपने साथियों से सीखते हैं। (यदि भौंरे गेंद को सही जगह पर पहुंचा देते थे, तो मीठे पेय का इनाम दिया जाता था।) इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने देखा कि कुछ भौंरे गेंदों को तब भी सरकाते रहे जब उन्हें कोई इनाम नहीं मिला। ऐसा लग रहा था कि भौंरों को गेंदों के पास लौटना, उनके साथ खेलना और उन्हें लुढ़कना अच्छा लग रहा था।

भौंरो के इस व्यवहार को तफसील से समझने के लिए दल की एक साथी समदी गालपायगे ने भौंरो के लिए एक सेटअप तैयार किया। एक-मंज़िला कमरे के एक छोर पर एक छत्ता था जिसके एकमात्र द्वार से बाहर निकलने पर रास्ते में क्रीड़ा कक्ष पड़ता था। कमरे के दूसरे छोर पर भौंरों के लिए पराग और मीठा पानी रखा गया था। क्रीड़ा कक्ष को दो भागों में बांटा गया था, हरेक भाग में भौंरों से थोड़ी बड़ी साइज़ की लकड़ी की गेंदें थी। गेंदें अपने आप नहीं लुढ़कती थीं, इसलिए भौंरो को उनके साथ खेलने के लिए तिकड़म भिड़ाना पड़ता था।

पहले प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने कक्ष के एक भाग में गेंदों को इस तरह रखा कि वे अचर रहें और दूसरे भाग की गेंदें लुढ़काने पर लुढ़क सकती थीं। भोजन तक पहुंचने के लिए भौंरो को इस क्रीडा कक्ष – और गेंदों के बीच – से होकर जाना पड़ता था। प्रयोग में देखा गया कि भौरों ने कक्ष के उस भाग से जाना ज़्यादा पसंद किया जहां गेंद लुढ़क सकती थीं – इस भाग में उन्होंने औसतन 50 प्रतिशत अधिक बार प्रवेश किया। लगता है कि भौंरो को मात्र गोल चीज़ें नहीं, बल्कि लुढ़कने वाली चीज़ें अच्छी लगती हैं।

प्रत्येक भौंरे ने गेंद कितनी बार लुढ़काई इसकी गणना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि कुछ ही भौंरो ने केवल एक या दो बार गेंद लुढ़काई, लेकिन बाकियों ने दिन में करीब 44 बार तक गेंदों को लुढ़काया था। बार-बार गेंद को लुढ़काना दर्शाता है कि उन्हें ऐसा करने में आनंद आ रहा था।

इस बात की पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने भौंरो के साथ एक नए सेट-अप में प्रयोग किया। पिछले डिज़ाइन की तरह इस छत्ते से निकल कर भोजन तक पहुंचने के लिए भी भौंरो को क्रीडा कक्ष से होकर गुज़रना पड़ता था। लेकिन इस प्रयोग में, पहले 20 मिनट के लिए क्रीडा कक्ष का रंग पीला रखा गया था और उसमें गेंदें रखी गई थीं। फिर इसकी जगह कक्ष को गेंद-रहित नीले रंग का कर दिया गया। पीले रंग का सम्बंध गेंदों के साथ जोड़ने के लिए शोधकर्ताओं ने छह बार बारी-बारी नीले-पीले रंग के कक्षों की अदला-बदली की। अंत में, शोधकर्ताओं ने गेंदें हटाकर भौंरो को पीले या नीले रंग का कक्ष चुनने का विकल्प दिया।

एनिमल विहेवियर में शोधकर्ता बताते हैं कि लगभग 30 प्रतिशत अधिक भौंरो ने पीले रंग का कक्ष चुना; संभवतः इसलिए कि उन्हें गेंद लुढ़काने में मज़ा आ रहा था। शोधकर्ताओं ने गेंद-युक्त और गेंद-रहित कक्षों के रंग पलटकर प्रयोग दोहराया, तो भी ऐसे ही परिणाम मिले।

अध्ययन से यह भी पता चला कि युवा भौंरो ने गेंद को अधिक लुढ़काया। पक्षियों और स्तनधारियों में भी युवा जंतु अधिक खेलते हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि खेलने से जीवों के विकासशील मस्तिष्क को लाभ मिलता होगा – जैसे, मांसपेशियों के समन्वय को मज़बूत करने में। भौंरो का मस्तिष्क भी जीवन के शुरुआती दिनों (भोजन के लिए छत्ते से बाहर निकलने के पहले के समय) में नए कनेक्शन बनाने में अधिक सक्षम होता है। तो अगला सवाल यह है कि क्या गेंद लुढ़काने से भौंरो की फूलों से मकरंद प्राप्त करने की क्षमता में सुधार होता है?

वैसे, इस अध्ययन पर कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि हो सकता हैं गेंदें भौंरो के छत्ते के रख-रखाव सम्बंधी व्यवहार को उकसा रही हों – जैसे, छत्ते से मृत भौंरों की लाशों और अन्य मलबे को हटाना। वाकई भौंरे खेलने का आनंद ले रहे हैं यह दर्शाने के लिए खेल के अधिक उदाहरण देखने से मदद मिलेगी।

और भले ही भौंरे प्रयोग में खेल रहे हों, लेकिन अध्ययन से यह स्पष्ट नहीं है कि वे प्राकृतिक परिस्थितियों में भी ऐसा करेंगे या नहीं। संभव है कि प्रयोगशाला में भौंरो के पास खेलने के अधिक मौके होते हैं क्योंकि यहां वे शिकारियों से सुरक्षित होते हैं और उन्हें भोजन इकट्ठा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जंगलों में कठिन प्रतिस्पर्धा होती है और वहां सिर्फ मनोरंजन के लिए खेलने-लुढ़काने के लिए वक्त मिलना मुश्किल है।

बहरहाल, यदि वे खेलते हैं, तो कीटों में नैतिक लिहाज़ से भी इसे देखना महत्वपूर्ण हो सकता है। जानवरों के चारे के लिए कीटों को पाला जा रहा है, और उनकी भलाई सुनिश्चित करने के कोई नियम नहीं हैं। औद्योगिक उद्देश्य से जब मधुमक्खियों को ट्रक में भरकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है तो वे तनावग्रस्त हो जाती हैं, और बीमारियों की चपेट में आने और कॉलोनी के ढहने की संभावना होती है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि उनके निष्कर्ष जंगली कीटों के लिए और अधिक सहानुभूति पैदा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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हरित ऊर्जा की ओर खाड़ी के देश

हाल ही में यूएन जलवायु परिवर्तन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) उन 26 देशों में से हैं जिन्होंने पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 सम्मेलन में लिए गए संकल्पों के अनुरूप अपने जलवायु लक्ष्यों को अपडेट किया है। मिस्र ने बिजली उत्पादन, परिवहन और तेल एवं गैस से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में और अधिक कटौती करने का वादा किया है। अलबत्ता, इस पर अमल अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता पर निर्भर है। इसी तरह यूएई ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 31 प्रतिशतत तक की कमी करने का संकल्प लिया है जो पूर्व में किए गए 23.5 प्रतिशत के वादे से काफी अधिक है। गौरतलब है कि इस वर्ष कॉप-27 तथा अगले वर्ष कॉप-28 इन्हीं दो देशों में आयोजित किए जाएंगे।

पिछले एक वर्ष में विभिन्न देशों के संकल्पों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2030 तक उत्सर्जन का स्तर वर्ष 2010 की तुलना में 10.6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। पिछले वर्ष की रिपोर्ट में यह अनुमान 13.7 प्रतिशत वृद्धि का था। लेकिन इतनी कमी भी सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं।

गौरतलब है कि पूर्व में सऊदी अरब ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों का निरंतर विरोध किया है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य तेल-समृद्ध देश भी इन प्रयासों को टालते रहे हैं। 1995 में सऊदी अरब के प्रतिनिधियों ने उस रिपोर्ट पर भी शंका ज़ाहिर की थी जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

लेकिन पिछले एक दशक में मध्य-पूर्व के देशों ने अक्षय प्रौद्योगिकियों को अपनाते हुए पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित किया है। सऊदी अरब और अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देश जलवायु परिवर्तन की वस्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तेल से होने वाली आमदनी पर निर्भर राष्ट्रों का यह कदम दर्शाता है कि भविष्य में जीवाश्म ईंधन की मांग में अनुमानित कमी के मद्देनज़र वे अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने तथा घरेलू ज़रूरतों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन को निर्यात हेतु बचाने की ओर बढ़ रहे हैं। मसलन, यूएई ने 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन करने का संकल्प लिया है।

खाड़ी के अन्य देशों में भी प्रयास चल रहे हैं। सऊदी अरब और उसके पड़ोसी बहरीन ने 2060 के लिए नेट-ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसी तरह गैस-समृद्ध कतर ने भी 2030 तक अपने उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती करने का संकल्प लिया है। इस्राइल और तुर्की ने भी 2050 के दशक के मध्य तक नेट-ज़ीरो हासिल करने की घोषणा की है। पिछले साल सऊदी अरब के नेतृत्व में मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव ने मध्य पूर्वी क्षेत्र में तेल और गैस उद्योग से कार्बन उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य घोषित किया है। यह उद्योग दुनिया में मीथेन के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है।

अक्षय ऊर्जा का उदय

वर्तमान में इस मामले में जानकारी काफी कम है कि ये देश जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को कैसे हासिल करेंगे। एक तथ्य यह है कि यूएई और सऊदी अरब दोनों ने कार्बन-न्यूट्रल शहरों के निर्माण या उनके विस्तार में भारी निवेश किया है।

न्यूयॉर्क स्थित ऊर्जा परामर्श कंपनी ब्लूमबर्ग के अनुसार, पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में नवीकरणीय ऊर्जा में सात गुना की वृद्धि हुई है। जो एक बड़ा परिवर्तन है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बिजली उत्पादन में अक्षय उर्जा का हिस्सा 28 प्रतिशत है जबकि इस क्षेत्र में मात्र 4 प्रतिशत है।

विशेषज्ञों के अनुसार निकट भविष्य में इस क्षेत्र के राष्ट्र जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मुख्य रूप से सौर, पवन और पनबिजली में निवेश करेंगे। आबू धाबी ऊर्जा विभाग के अनुसार वर्ष 2021 में कुल ऊर्जा में अक्षय और परमाणु ऊर्जा का हिस्सा 13 प्रतिशत था जो 2025 में 54 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने की संभावना है। दुनिया के सबसे बड़े सौर संयंत्रों में से एक (1650 मेगावॉट) मिस्र में है, वहीं इस वर्ष के अंत तक कतर 800-मेगावॉट सौर साइट खोलने की योजना बना रहा है। खाड़ी देशों में सौर विकिरण की भरपूर उपलब्धता के चलते यहां नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन की लागत काफी कम है। 

इसके साथ ही सऊदी अरब और यूएई हरित हाइड्रोजन उद्योग में निवेश करने की भी योजना बना रहे हैं।

भविष्य में मध्य पूर्व के राष्ट्रों की नज़र कार्बन-कैप्चर पर भी है। इसके अलावा, मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव में 50 अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य शामिल है। इस परियोजना से 20 करोड़ हैक्टर क्षेत्र को बहाल किया जाएगा। विशेषज्ञों के अनुसार 38 प्रतिशत तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन प्राकृतवासों की क्षति के कारण हुआ है।

जीवाश्म ईंधन में निवेश जारी

ये सारे प्रयास एक तरफ, लेकिन मध्य पूर्व के देश तेल और गैस की खोज में निवेश जारी रखे हुए हैं। गौरतलब है कि निर्यात किए गए उत्सर्जन को किसी देश के नेट-ज़ीरो लक्ष्य के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है। वैसे खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्थाएं आज तेल पर कम निर्भर हैं। विश्व बैंक के अनुसार, 2010 में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में जीडीपी का 22.1 प्रतिशत हिस्सा तेल से आता था जो 2020 तक 11.7 प्रतिशत रह गया। फिर भी यह आंकड़ा वैश्विक औसत (1 प्रतिशत) से काफी अधिक है।

गौरतलब है कि ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 के दौरान सऊदी अरब उन देशों में से था, जिन्होंने जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के सुझाव को कमज़ोर करने का प्रयास किया था। विशेषज्ञों की मानें तो भविष्य में जीवाश्म-ईंधन की खोज को रोकना एक महत्वपूर्ण प्रयास हो सकता है लेकिन अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के रास्ते पर बढ़ते हुए यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो तेल और गैस उत्पादन में कोई नया निवेश नहीं होना चाहिए।

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अभी जीवाश्म ईंधन उन देशों के लिए आवश्यक है जिनके पास ऊर्जा के नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है और इसके लिए तेल-निर्यातक राष्ट्रों को दंडित करना उचित नहीं है। फिर भी सऊदी अरब और अन्य मध्य पूर्वी राष्ट्रों की पर्यावरण रणनीति में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 3 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेख में हमने कंप्यूटर और इंसानी दिमाग में व्यावहारिक गुणों में एकरूपता (फंक्शनलिज़्म) का ज़िक्र किया था। एआई का आखिरी मकसद यह है कि एक दिन दिमाग के हरेक जैविक न्यूरॉन की जगह इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन (लॉजिक गेट से गुज़रते इलेक्ट्रॉन समूह) रख दिया जाएगा, जिससे इंसान की ही छवि में मशीन बन जाएगी। यह कल्पना बेमानी नहीं है। आखिर कंप्यूटेशन के नज़रिए से जैविक न्यूरॉन और इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन समकक्ष हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या एक-एक करके जैविक न्यूरॉन के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन को लगाने पर चेतना वैसी ही बनी रहेगी जैसी कि इंसान में होती है।

मशीन में ज्ञान रोपने के लिए इस बात पर विचार करना लाज़मी है कि ज्ञान क्या है, इसे कैसे पाते हैं, कैसे संजोते हैं, आदि। लिहाज़ा दार्शनिक चिंतन एआई का अहम हिस्सा है। दार्शनिक सवालों के जवाब हमेशा नहीं मिलते, पर इससे एआई विज्ञानी घबराते नहीं हैं। तर्क पर आधारित सोच का खाका कामयाबी की ओर ले जाता है। अब तक कई तरह की कामयाब मशीनें बन चुकी हैं – अजेय शतरंज खिलाड़ी; सामान्य समझ दिखलाते और आम सवालों का जवाब देते, चलते-फिरते, छोटे-मोटे काम करते रोबोट;  कैमरे से लिए गए फोटो में कैद कई सारी चीज़ों को विस्तार से समझ लेने (कंप्यूटर विज़न) वाले रोबोट, आदि। इन सभी में परिवेश की जानकारी लेते एजेंट हैं, जो जानकारी को संज्ञान के स्तर तक संजोते हैं और फिर इस आधार पर उचित कदम उठाते हैं। यानी एहसास कर पाने और कदम उठाने के बीच संज्ञान एक पुल की तरह है। एआई की तरक्की इसी पुल के लगातार मज़बूत होते जाने की कहानी है। बेशक यह तरक्की दायरे में बंधे सवालों पर ज़्यादा और बुनियादी सवालों पर कम केंद्रित है। मसलन मशीन की मदद से एक से दूसरी ज़बान में तर्जुमा कभी मशीन में शब्दकोश डालने जैसा आसान प्रोजेक्ट माना जाता था, पर बाद में समझ बनी कि यह बहुत मुश्किल काम है। मशीनों में डालने के लिए तमाम किस्म के तथ्यों को इकट्ठा करने पर भी काम हुआ, जिसे साइक (CYC – encyclopedia) प्रोजेक्ट कहते हैं।

तथ्यों की पर्याप्त जानकारी न हो तो मशीन की क्षमता इंसान के आसपास भी नहीं आ सकती। मसलन, मेडिकल तथ्यों से लैस कोई मशीन एक खटारा गाड़ी को बीमार मानकर दवाएं लेने को कह सकती है, जो इंसान कभी नहीं करेगा। इंसानी दिमाग दसियों हज़ारों सालों के जैविक और सांस्कृतिक विकास से बना है। जीवनकाल में वह लगातार सीखता रहता है, जिससे वह आसानी से किसी बात का प्रसंग समझ लेता है। यह सब मशीन में डाल पाना आसान नहीं है।

मुश्किल आसान करने के लिए कुछ आम तरीके अपनाए जाते हैं: जैसे काम को सरल टुकड़ों में बांटना। कई लोग मानते हैं कि दिमाग दरअसल कई छोटे-छोटे कंप्यूटरों का समूह है, जिनमें से कुछ खुदमुख्तार हैं। पिछली सदी के नौवें दशक में अमरीकी दार्शनिक जेरी फोदोर ने कहा था कि मानस खास कामों के लिए बने अलग-अलग टुकड़ों से मिलकर बना है। पर कौन-सा टुकड़ा कहां है, यह कहना मुश्किल है। हर टुकड़े पर आधारित मशीन बनाई जा सकती है। जैसे भाषा ज्ञान, गणित के सवाल, चित्रकला आदि अलग-अलग काम के लिए मॉडल रोबोट बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे सबको साथ रखकर एक से ज़्यादा काम कर सकने वाली मशीनें भी बनाई जा सकती हैं। साथ ही दिमाग के बारे में भी समझ बढ़ती चलेगी।

इंसान के दिमाग में तंत्रिकाओं का एक विशाल जाल-सा काम करता है, जिसमें एक से दूसरे न्यूरॉन के बीच तेज़ी से संवाद चलता रहता है। यह जैव-रासायनिक वजहों से हो रहे विद्युत के प्रवाह के ज़रिए होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने कनेक्शनिस्ट (connectionist) मॉडल बनाए हैं, जो गणनाओं के लिए प्रभावी साबित हुए हैं। ऐसे मॉडल को कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क (ANN – artificial neural network) कहा जाता है।

आम तौर पर कुदरत में सीधी लकीर पर चलने वाली यानी रैखिक या लीनियर घटनाएं नहीं होतीं; यानी किसी एक राशि (इनपुट) को किसी अनुपात में बढ़ाया जाए, तो कोई दूसरी राशि ठीक उसी अनुपात में घटे-बढ़े, ऐसा नहीं होता है। पर आसानी के लिए सीमित दायरे में रैखिक मॉडल बनाना आधुनिक विज्ञान की नींव रही है। इससे सर्वांगीण समझ नहीं बनती, पर कुदरत के बारे में बहुत सारी समझ ऐसे ही हमें मिली है।

अब चूंकि कंप्यूटर तेज़ी से गणनाएं कर लेते हैं, इसलिए रैखिक मॉडल की जगह कनेक्शनिस्ट मॉडल ले रहे हैं। इनपुट और आउटपुट कई राशियों के बीच सम्बंधों के अनगिनत समीकरण हो सकते हैं। अनुमान के आधार पर समीकरण तय करें तो सही आउटपुट नहीं मिलता। किंतु जिन घटनाओं के बारे में जानकारी पहले से है, उनकी गणना में असलियत से जो फर्क दिखता है, उसे वापस इनपुट में शामिल करके फिर से गणना की जाए तो पहले से बेहतर समीकरण मिलते हैं। इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराएं यानी हर बार जो फर्क दिखे, उसे इनपुट में डालते जाएं तो धीरे-धीरे सारे समीकरण सही हो जाएंगे।

जैसे, कल्पना करें कि आप सड़क पर चल रहे हैं और रास्ते में गड्ढा दिखता है। दिमाग इस बात को दर्ज करता है और राह बदलता है। एक नवजात बच्चा अपने सामने रखी किसी चीज़ की सही दूरी तय नहीं कर पाता तो वह उंगली से उसे छूने की कोशिश करता है। दो-चार कोशिशों के बाद वह सही दिशा में सही दूरी तक पहुंच जाता है। इसी तरह मशीन को भी सिखाया जाता है। इसे मशीन लर्निंग (ML – machine learning) कहा जाता है। सिर्फ बेहतर रोबोट बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि विज्ञान की कई पहेलियों को हल करने में एआई का आम इस्तेमाल इसी तरीके से हो रहा है और यह बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। इसकी मदद से नई दवाइयां बनाई गई हैं, कोरोना जैसी बीमारी के प्रसार के पैटर्न को समझा गया है और तमाम किस्म के सवाल हल किए गए हैं। बीमा कंपनियां और स्टॉक मार्केट इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।

एक तरीका यह भी है कि समीकरणों के एक समूह के बाद दूसरे और समीकरण समूहों को हल किया जाए – इन समूहों को परत (layer) कहते हैं। कई परतों वाले नेटवर्क को डीप लर्निंग (deep learning) कहा जाता है। नेटवर्क के विवरण के लिए एक्सॉन (axon – न्यूरॉन में बिजली के प्रवाह के पड़ाव) जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल होता है, जो तंत्रिका-विज्ञान से उधार लिए गए हैं। गौरतलब है कि जिस्म में न्यूरॉन बिजली के आवेग प्रवाहित करते हैं और मशीन में इनकी जगह गणना की राशियां होती हैं। पर बुनियादी तौर पर उनमें समानता है। जैविक न्यूरॉन एक सेकंड में हज़ार से ज़्यादा सिग्नल नहीं भेज सकते। इंसान के दिमाग की तुलना में कंप्यूटर करोड़ गुना ज़्यादा तेज़ी से गणना कर पाते हैं, फिर भी आज तक इंसान जैसी चेतना किसी मशीन में नहीं आ पाई है। इंसान का दिमाग पल भर में जटिल फैसले ले सकता है; गणनाओं में करोड़ गुना तेज़ होने के बावजूद कंप्यूटर वैसा नहीं कर पाते हैं। सड़क पर कोई परिचित मिले तो उसे पहचानने में हमें पल भर लगता है, जबकि कंप्यूटर जानकारी दर्ज करता हुआ अपनी गणनाओं में उलझा रहता है और इसमें कुछ पल लग सकते हैं। कुदरत में बहुत सारी गणनाएं समांतर चलती हैं। जब हम कुछ देखते-सुनते हैं तो एक साथ बहुत सारी बातें दिमाग में दर्ज हो रही होती हैं, भले ही सारी जानकारी हमारे काम की न हों। जो छवि दिमाग में बनती है, उस जानकारी को बांट कर अनगिनत कोनों में सर्वांगीण रूप से दर्ज किया जाता है। आधुनिक कंप्यूटर भी समांतर प्रोसेसिंग करते हैं। मोबाइल फोन तक में एक से ज़्यादा प्रोसेसर आने लगे हैं। ANN में, खास तौर से डीप लर्निंग में इस बात का भरपूर फायदा उठाया जाता है। पर इस दौड़ में अभी तक कुदरत आगे है। दूसरी बात यह कि कुदरत में कुछ भी ज़रा सी चोट लगने पर देर-सबेर अपने आप ठीक हो जाता है, पर मशीनों में यह क्षमता बहुत ही कम है।

आज कंप्यूटर जिस तरह के अर्द्धचालक (सेमी-कंडक्टर) सिलिकॉन के विज्ञान पर आधारित हैं, उसमें एक हद से आगे बढ़ना नामुमकिन है। मशहूर गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ का कहना है कि आगे बढ़ने के लिए क्वांटम गतिकी पर आधारित कंप्यूटेशन अपनाना होगा। आज इस्तेमाल होने वाले कंप्यूटरों को क्लासिकल कहा जाता है, हालांकि सेमी-कंडक्टर की भौतिकी में भी क्वांटम गतिकी का इस्तेमाल होता है। आज के माइक्रो-प्रोसेसर या चिप में ट्रांज़िस्टर इतने छोटे हो गए हैं कि वे कुछेक अणुओं के आकार तक पहुंच गए हैं। इससे आगे कंप्यूटरों की सूचना जमा करने की क्षमता या रफ्तार में ज़्यादा बढ़त मुमकिन न होगी। पिछले तीन दशकों से एक नई दिशा विकसित हुई है, जिसे क्वांटम कंप्यूटर कहते हैं। इसमें अणु-परमाणुओं के खास गुणों का इस्तेमाल होता है, जिन्हें क्लासिकल भौतिकी से कतई समझा नहीं जा सकता है।

पेनरोज़ का मत है कि हमें जिस्म और मानस को अलग-अलग करने की ज़रूरत नहीं है, पर चेतना के लिए जो एमर्जेंट या योगेतर गुण चाहिए वे क्वांटम गतिकी से ही मुमकिन होंगे। यानी आज के कंप्यूटरों का इस्तेमाल कर हम मशीन में इंटेलिजेंस नहीं ला सकते हैं। पेनरोज़ कुर्ट गॉडेल की मशहूर प्रमेय का सहारा लेते हैं, जिसके मुताबिक गणित के कुछ सच ऐसे हैं, जिन्हें गणनाओं के जरिए सिद्ध नहीं किया जा सकता। चूंकि कंप्यूटर से निकला हर नतीजा गणनाओं से आता है, इसलिए वे ऐसी हर बात नहीं कर सकते जो इंसान कर सकते हैं। यानी चेतना में गणना से अलग कुछ है, जिसकी खोज हमें करनी है। ये बातें शायद रहस्यवाद जैसी लग सकती हैं।

एआई अब आधी सदी की उम्र गुज़ार चुका है। समझ यह बनी है कि जिस तरह जिस्म के बिना सोचने वाला मानस नहीं होता, उसी तरह मशीन अपने आप में सोच नहीं सकती। पर इंसान की सोच पूरी तरह खुदमुख्तार नहीं होती है, वह एक बड़े परिवेश में ही फलती-फूलती है। सबक यह है कि इसी तरह मशीन को भी परिवेश में फलने-फूलने लायक बनाना होगा। जैविक विकास से मिली सीख के मुताबिक छोटी मशीनों के साथ ऐसे प्रयोग हो रहे हैं। कोशिश यह है कि छोटे स्तर पर मिली कामयाबी को धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर विकसित किया जाए। एआई विज्ञानी आज भी दर्प के साथ भविष्यवाणियां करते हैं, और वक्त के साथ गलत साबित होते रहते हैं। फिर भी एआई हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। रोबोट मशीनें और कंप्यूटर चालित हिसाब-किताब हर पल हमारे साथ हैं। शायद अगली पीढ़ियां ही जान पाएंगी कि रोबोट इंसान से ज़्यादा दानिशमंद होंगे या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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पहला निएंडरथल कुनबा खोजा गया

हाल ही में शोधकर्ताओं को दक्षिण साइबेरिया की चारजिस्काया गुफा में निएंडरथल परिवार के साक्ष्य मिले हैं। इस परिवार में एक पिता, उसकी किशोर बेटी और दो अन्य दूर के सम्बंधियों की पहचान की गई है। इसके साथ ही गुफा से 7 अन्य व्यक्तियों की भी पहचान की गई है जो एक अन्य कबीले के बताए गए हैं। इनमें से भी दो शायद कज़िन्स हैं। गौरतलब है कि निएंडरथल (होमो निएडरथलेंसिस) पुरामानव थे जो लगभग 40 हज़ार वर्ष पूर्व तक धरती पर विद्यमान थे। गुफा के नज़दीक के एक अन्य स्थल से दो और परिवारों की पहचान के साथ यह निएंडरथल प्रजाति का अब तक का सबसे बड़ा जीनोम भंडार है।

अल्ताई पहाड़ों की तलहट और चार्याश नदी के तट पर स्थित चारजिस्काया गुफा मशहूर डेनिसोवा गुफा से 100 किलोमीटर पश्चिम में है। वास्तव में डेनिसोवा गुफा एक पुरातात्विक खज़ाना है जिसमें मनुष्य, निएंडरथल और डेनिसोवा और कम से कम एक निएंडरथल-डेनिसोवा संकर के लोग 3 लाख वर्षों के अंतराल में अलग-अलग समय में साथ रहे हैं। अलबत्ता, चारजिस्काया में अब तक मात्र निएंडरथल अवशेष ही मिले हैं।

गौरतलब है कि 2020 में चारजिस्काया की एक निएंडरथल स्त्री के जीनोम अनुक्रम से पता चला था कि वह डेनिसोवा गुफा में रहने वाली आबादी से काफी अलग थी। गुफा में रहने वाले लोगों का अधिक गहराई से अध्ययन करने के लिए मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक लौरिट्स स्कोव और बेंजामिन पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने चारजिस्काया और इसके नज़दीक ओक्लाडनिकोव गुफा से 17 अन्य पुरा-मानव अवशेषों से डीएनए प्राप्त किए।

इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि चारजिस्काया के निवासी उनसे हज़ारों साल पहले डेनिसोवा गुफा में रहने वालों की अपेक्षा युरोप में रहने वाले निएंडरथल से ज़्यादा निकटता से सम्बंधित थे।

चारजिस्काया अवशेषों से प्राप्त जीनोम की तुलना करने पर स्कोव को काफी आश्चर्य हुआ। उन्होंने पाया कि एक वयस्क पुरुष और एक किशोरी का डीएनए 50 प्रतिशत एक-सा है। यह स्थिति तभी संभव है जब उनका सम्बंध भाई-बहन का हो या फिर पिता-पुत्री का। इस सम्बंध को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए की जांच की। माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए व्यक्ति को अपनी मां से मिलता है। इसका मतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए भाई-भाई, भाई-बहन, मां-बेटी में तो एक समान होगा लेकिन पिता और उसकी संतान में नहीं। इस तुलना से समझ में आया कि ये दोनों पिता-पुत्री थे।

इसके बाद और अधिक आनुवंशिक सामग्री की जांच करने पर शोधकर्ताओं को परिवार के अधिक सदस्यों का पता चला। उनको पिता में दो प्रकार के माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए प्राप्त हुए। इस विशेषता को हेटरोप्लाज़्मी कहा जाता है। यह विशेषता गुफा के दो अन्य व्यस्क पुरुषों में भी देखने को मिली जो संकेत देता है कि ये सब एक ही मातृ वंश से थे। गौरतलब है कि हेटरोप्लाज़्मी कुछ पीढ़ियों बाद गायब हो जाती है इसलिए यह कहना उचित होगा कि ये तीनों एक ही समय में उपस्थित रहे होंगे। टीम ने निएंडरथल परिवार के अन्य सदस्यों में एक पुरुष और एक महिला की भी पहचान की और लगता है कि ये संभवत: कज़िन्स थे।       

इतनी अधिक मात्रा में निएंडरथल जीनोम से शोधकर्ताओं को निएंडरथल जीवन के कई पहलुओं को देखने का मौका मिला। चारजिस्काया से प्राप्त निएंडरथल के जीनोम में डीएनए की मातृ और पितृ प्रतियों में विविधता काफी कम थी। इससे संकेत मिलता है कि प्रजनन में संलग्न वयस्कों की आबादी काफी छोटी थी। शोधकर्ताओं ने इसी तरह का पैटर्न पहाड़ी गोरिल्ला और अन्य संकटग्रस्त प्रजातियों में भी देखा है जो आम तौर पर छोटे समूहों में रहते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि Y-गुणसूत्र (जो नर से मिलता है) की तुलना में माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए (जो मादा से मिलता है) में विविधता बहुत अधिक थी। इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि विभिन्न निएंडरथल समुदायों से महिलाओं का निरंतर आना-जाना रहा था। टीम के मॉडल से पता चलता है कि आनुवंशिक विविधता का पैटर्न दर्शाता है कि समुदाय की आधे से ज़्यादा महिलाओं का जन्म कहीं और हुआ होगा।

स्पेन स्थित नेचुरल साइंस म्यूज़ियम के निर्देशक चार्ल्स लालुएज़ा फॉक्स का विचार है कि यह सामाजिक संरचना विभिन्न निएंडरथल आबादियों में आम रही होगी। एक दशक पूर्व उनकी टीम ने स्पेन की एक गुफा में 12 निएंडरथल के विश्लेषण में पाया था कि महिलाओं के माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए में पुरुषों की अपेक्षा अधिक विविधता थी जो दर्शाता है कि महिलाएं अक्सर अपने समुदायों को छोड़ दिया करती थीं।

चारजिस्काया गुफा में निएंडरथल अवशेषों के अलावा बाइसन और घोड़े के अवशेष भी मिले हैं। स्कोव के अनुसार यह स्थल इन जानवरों के मौसमी प्रवास के दौरान शिकार कैंप के रूप में काम करती थी। इस दौरान समुदायों को मेल-मिलाप के अवसर मिला करते होंगे।

अचरज की बात यह है कि जीवाश्म अवशेषों में मिले डीएनए के विश्लेषण से इतने गहरे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। और अभी इस गुफा का केवल एक-चौथाई से भी कम हिस्सा टटोला गया है। उम्मीद है कि भविष्य के अध्ययन हमारी समझ में और इजाफा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लीवर 100 वर्षों से भी अधिक जीवित रह सकता है

हाल ही में वैज्ञानिकों ने 1990 से लेकर 2022 के बीच प्रत्यारोपित 2,53,406 लीवर की उम्र का आकलन किया है। इस विश्लेषण के अनुसार 25 लीवर 100 से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहे हैं। इन लीवर्स को वैज्ञानिकों ने ‘शतायु लीवर’ का नाम दिया है। इनमें से 14 लीवर अभी भी प्राप्तकर्ताओं के शरीर में काम कर रहे हैं। सबसे उम्रदराज लीवर की उम्र 108 वर्ष है।

इस अध्ययन के प्रमुख और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के मेडिकल स्कूल में कार्यरत यश कड़ाकिया और उनकी टीम ने किसी लीवर की कुल आयु निकालने के लिए प्रत्यारोपण के पहले लीवर की उम्र (यानी प्रत्यारोपण के समय अंगदाता की आयु) और प्राप्तकर्ता में प्रत्यारोपण के बाद लीवर की उम्र को जोड़ा। प्रत्यारोपण सम्बंधी आंकड़े युनाइटेड नेटवर्क फॉर ऑर्गन शेयरिंग के अंग प्रत्यारोपण डैटाबेस से लिए गए थे।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 25 शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 84.7 वर्ष थी जबकि गैर-शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 38.5 वर्ष थी। प्रत्यारोपण के बाद सारे शतायु-लीवर कम से कम एक दशक तक जीवित रहे जबकि मात्र 60 प्रतिशत गैर-शतायु लीवर ही एक दशक बाद जीवित रहे। कड़ाकिया के अनुसार लीवर काफी लचीला अंग है और आज उम्रदराज दाताओं के लीवर प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। इसके मद्देनज़र प्रत्यारोपण के लिए अधिक लीवर उपलब्ध हो सकते हैं।

गौरतलब है कि अभी तक विशेषज्ञ प्रत्यारोपण के लिए बुज़ुर्ग दाताओं से लीवर लेने से बचते आए हैं, क्योंकि पुराने अंगों में शराब, मोटापा और संक्रमण से अधिक क्षतिचिन्ह जमा होने की संभावना होती है। लेकिन एक दिलचस्प बात यह देखी गई कि लीवर प्रत्यारोपण से मधुमेह और दाता संक्रमण जैसे दुष्प्रभाव अधिक पुराने यकृत पाने वाले लोगों में काफी कम थे।

भारत के स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय) की वेब साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 50,000 तक लीवर प्रत्यारोपण की आवश्यकता है लेकिन किए जा रहे हैं मात्र 1500। यदि उम्रदराज अंगदाताओं से परहेज न किया जाए तो प्रत्यारोपण की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अब और अधिक दाता अंग मिल सकते हैं।

वैसे, अभी तक लीवर के जीवित रहने की अवधि में भिन्नता के कारण स्पष्ट नहीं हैं। अधिक शोध से अंग उपलब्धता में विस्तार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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