धरती को गर्म करने के मामले में मीथेन भी कार्बन डाईऑक्साइड से कुछ कम नहीं है। मीथेन पृथ्वी के बढ़ते तापमान में एक तिहाई वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है। वर्ष 2006 लेकर अब तक मीथेन उत्सर्जन में 7 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह काफी हैरानी की बात है कि महामारी के दौरान तेल और गैस उत्पादन में कमी के बावजूद पिछले दो वर्षों में यह वृद्धि सबसे अधिक देखने को मिली है। तो यह मीथेन कहां से आई?
शोधकर्ताओं का ख्याल है कि इसका स्रोत उष्णकटिबंधीय वेटलैंड्स (नमभूमि) के सूक्ष्मजीव हैं। और बुरी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में वृद्धि इसे बढ़ा रही है।
अधिकांश जलवायु वैज्ञानिक सहमत हैं कि 2006 के बाद मीथेन के स्तर में वृद्धि के लिए जीवाश्म ईंधन ज़िम्मेदार नहीं हैं। कारण? यह देखा गया है कि वायुमंडलीय मीथेन में कार्बन के हल्के आइसोटोप यानी कार्बन-12 की मात्रा काफी अधिक हो गई है। इसीलिए सूक्ष्मजीवों को इस मीथेन के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है। ये सूक्ष्मजीव उन रासायनिक क्रियाओं को तरजीह देते हैं जिनमें कार्बन के हल्के समस्थानिक (कार्बन-12) का इस्तेमाल होता है और इस प्रकार से इनके द्वारा उत्पन्न मीथेन पहचानी जा सकती है।
हालांकि कार्बन के इस समस्थानिक के आधार पर यह नहीं बताया जा सकता कि ये सूक्ष्मजीव नमभूमि के हैं, भराव स्थलों के हैं या मवेशियों की आंत के। लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तेज़ जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए कई शोधकर्ताओं का मानना है कि इन क्षेत्रों में पशुपालन और भराव स्थल का मिला-जुला असर 2006 के बाद मीथेन में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मीथेन की मात्रा में तीव्र वृद्धि को देखते हुए शोधकर्ताओं को किसी अन्य स्रोत की भी आशंका थी। शोधकर्ताओं ने दक्षिण सूडान स्थित सड के दलदली क्षेत्र का का अध्ययन जापान के ग्रीनहाउस गैसेस ऑब्ज़रवेशन सेटेलाइट की मदद से किया जो मीथेन द्वारा अवशोषित अवरक्त प्रकाश की मात्रा का मापन करता है।
इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि सड क्षेत्र 2019 के बाद से मीथेन उत्सर्जन का हॉटस्पॉट बन गया है जो प्रति वर्ष 1.3 करोड़ टन अतिरिक्त मीथेन वातावरण में उड़ेल रहा है। यह मात्रा कुल वैश्विक मीथेन उत्सर्जन के 2 प्रतिशत से भी अधिक है।
इसके अलावा हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में भी इसी प्रकार के नतीजे सामने आए हैं। यदि इन परिणामों को अमेज़ॉन और उत्तर में स्थित जंगलों से होने वाले उत्सर्जन के साथ जोड़ा जाए तो मीथेन की मात्रा में अधिकांश अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या हो जाती है।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन मीथेन उत्सर्जन की गति को निर्धारित कर सकता है। पूर्व में शोधकर्ताओं ने 2010 से 2019 तक पूर्वी अफ्रीका के मीथेन उत्सर्जन को हिंद महासागर के तापमान पैटर्न से जोड़कर देखा था। ऐसा अनुमान है कि लगातार बढ़ते तापमान के चलते अधिक लंबी अवधियों तक, और अधिक वर्षा होगी। यदि ऐसा हुआ तो सड के क्षेत्र से अधिक मीथेन उत्सर्जन होगा जो वातावरण को अधिक गर्म करेगा और वर्षा में भी वृद्धि होगी। यह एक पॉज़िटिव फीडबैक लूप की तरह चलता रहेगा। एक बड़ी चुनौती इस फीडबैक लूप को नियंत्रित करना है।
शोधकर्ताओं ने पिछले दो वर्षों में मीथेन उत्सर्जन में उछाल की अन्य संभावित व्याख्याएं प्रस्तुत करने के प्रयास किए हैं। एक कारण यह लगता है कि वाहनों के कम चलने के कारण मीथेन का विनाश कम हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड कई सदियों तक वातावरण में बनी रहती है। इसके विपरीत मीथेन 12-13 वर्ष ही टिकती है जिस दौरान वातावरण में मौजूद हाइड्रॉक्सिल (OH) मूलक उसे हवा से हटा देते हैं। ये OH रेडिकल जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स से उत्पन्न होते हैं। महामारी के दौरान यातायात और उद्योगों में जीवाश्म ईंधन के कम उपयोग से नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा कम हुई, नतीजतन OH की कमी हुई और मीथेन को टिकने का मौका मिला। अलबत्ता, हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के मॉडल के अनुसार महामारी के दौरान OH में कमी का मीथेन पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा है।
गौरतलब है कि 2021 में 100 से अधिक देशों ने ग्लोबल मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर किए थे जिसका उद्देश्य 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करना था। कई वैज्ञानिकों ने तो हवा से मीथेन को हटाने का प्रस्ताव भी रखा है। लेकिन ये प्रयास वेटलैंड से निकलने वाले उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)
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क्या यह संभव है मिट्टी में कुछ किस्म के कवक यानी फफूंद रोपकर पेड़ों को तेज़ी से वृद्धि करने में मदद दी जाए और फिर ये तेज़ी से वृद्धि करते पेड़ वातावरण से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर जलवायु परिवर्तन को धीमा करें? नवगठित सोसाइटी फॉर दी प्रोटेक्शन ऑफ अंडरग्राउंड नेटवर्क्स (SPUN) के शोधकर्ता इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश कर रहे हैं।
दरअसल SPUN के सह-संस्थापक व कवक विज्ञानी कॉलिन एवेरिल का यह प्रयास पूर्व में हुए एक अध्ययन से प्रेरित है। उस अध्यनन से पता चला था कि उचित कवक वनस्पतियों की वृद्धि को बढ़ा सकते हैं। जनवरी में इंटरनेशनल सोसायटी फॉर माइक्रोबियल इकॉलॉजी (ISME) के जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में एवरिल और उनके साथियों ने बताया था कि युरोप के विभिन्न जंगलों में वृक्षों की वृद्धि दर में तीन गुना तक अंतर हो सकता है और यह अंतर उनके साथ उगने वाली फफूंद पर निर्भर करता है।
लेकिन सवाल यह है कि कितनी मात्रा में कवक पौधों को सुपरचार्ज कर सकते हैं? कंपनियां लंबे समय से जड़-फफूंद (माइकोराइज़ा) बेचती रही हैं जिसे बागवान जड़ों पर लगा सकते हैं। लेकिन इस तरह के व्यावसायिक मिश्रण विशिष्ट पेड़ प्रजातियों या स्थानों के लिए नहीं बनाए जाते, और इस बात के प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं कि वे सचमुच वृद्धि में मदद करते हैं। वृद्धि के लिए ज़रूरी है कि उचित स्थान पर उचित जीव जोड़े जाएं।
युनाइटेड किंगडम में वेल्स में जारी वृक्षारोपण प्रयोग इसी परिकल्पना का परीक्षण कर रहा है। 2021 के वसंत में दक्षिण-पश्चिमी वेल्स के एक विरान चारागाह में एवेरिल ने एक वानिकी कंपनी की मदद से 11 हैक्टर के क्षेत्र में 25,000 पेड़ लगाए। इसमें उन्होंने यू.के. की इमारती लकड़ी के वृक्ष सिटका स्प्रूस और कुछ स्थानीय पतझड़ी वृक्ष रोपे। इसके बाद आधे नवांकुरों की जड़ों में जड़-फफूंद जोड़ी जो इसी तरह के पुराने जंगल से प्राप्त की गई थी, यह कवक पौधों की जड़ों से जुड़कर पौधों को पोषक तत्व प्राप्त करने में मदद करती है। शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि क्या कवक-युक्त पेड़ कवक-रहित पेड़ों की तुलना में तेज़ी से बढ़ते हैं और अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं। इसी तरह का एक परीक्षण मेक्सिको के युकाटन में चल रहा है, और आयरलैंड में भी इसी तरह के परीक्षण की तैयारी है।
अप्रैल में पेड़ों को मापने पर पता चला कि कवक-युक्त पौधे कवक-रहित पौधों की तुलना में तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हालांकि अभी यह अध्ययन जारी है और एक और वर्ष के अवलोकन के बाद आंकड़े प्रकाशित करने की योजना है। आगे ऐसे ही परीक्षण अन्य वृक्षों पर भी किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.weforum.org/editor/3vVYAQ2lKu-RvcnMr8XZdzQIwa-rEo-rCDG1PMHy0MM.PNG
वर्ष 1960 में दंत चिकित्सकों के एक समूह ने एक दिलचस्प अध्ययन प्रकाशित किया था: जब उन्होंने ऑपरेशन के दौरान अपने मरीज़ों के लिए संगीत बजाया, तो मरीज़ों को दर्द का कम अहसास हुआ। कुछ मरीज़ों को तो नाइट्रस ऑक्साइड (लॉफिंग गैस) या लोकल निश्चेतक देने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। अब चूहों पर हुए एक अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि यह क्यों काम करता है।
दरअसल 1960 के उपरोक्त अध्ययन के बाद से कई वैज्ञानिक मोज़ार्ट से लेकर माइकल बोल्टन तक के संगीत का निश्चेतक प्रभाव जानने के लिए अध्ययन करते रहे हैं। एक अध्ययन में पाया गया था कि फाइब्रोमाएल्जिया के मरीज़ों को उनका पसंदीदा संगीत सुनते समय कम दर्द होता था।
संगीत दर्द में क्यों राहत देता है, इसे बेहतर समझने के लिए यू.एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल एंड क्रेनियोफेशियल रिसर्च के न्यूरोबायोलॉजिस्ट युआनयुआन लियू और उनके साथियों ने चूहों की ओर रुख किया। उन्होंने एक कमरे में कृन्तकों को दिन में 20 मिनट (कम से कम मनुष्यों के लिए) सुखद सिम्फोनिक संगीत – बाक का रेजॉइसेंस – 50 या 60 डेसिबल पर सुनाया, और पृष्ठभूमि का शोर 45 डेसिबल के आसपास था।
इन सत्रों के दौरान, शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजे में एक दर्दनाक रसायन प्रविष्ट किया। फिर, उन्होंने अलग-अलग तीव्रता से पतला तार पंजे पर चुभाया और कृन्तकों की प्रतिक्रिया देखी। शोधकर्ताओं का मानना था कि यदि वे छटपटाते, चाटते, या अपना पंजा वापस खींचते हैं तो वे दर्द महसूस कर रहे हैं।
अध्ययन में उन्होंने पाया कि केवल धीमी आवाज़ (50 डेसिबल) पर ध्वनि ने चूहों को सुन्न कर दिया था। जब शोधकर्ताओं ने उनके सूजे हुए पंजे को तार से चुभाया, तो चूहे छटपटाए नहीं। दूसरी ओर, तेज़ आवाज़ में चूहे अधिक संवेदनशील दिखे – उन्होंने सिर्फ एक तिहाई दबाव पर ही काफी तेज़ प्रतिक्रिया दी। ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया संगीत की अनुपस्थिति में भी देखी गई।
शोधकर्ताओं ने कर्कश संगीत (रेजॉइसेंस को अप्रिय ध्वनि में बदलकर) और मिश्रित शोर के साथ भी परीक्षण किया। साइंस पत्रिका में उन्होंने बताया है कि पृष्ठभूमि के शोर से थोड़ा तेज़ बजाने पर ये सभी ध्वनियां दर्द को दबा सकती हैं। लगता है कि ध्वनि की तीव्रता ही महत्वपूर्ण है।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के श्रवण कॉर्टेक्स (मस्तिष्क का ध्वनि प्रसंस्करण क्षेत्र) में लाल फ्लोरोसेंट रंग प्रविष्ट किया और फिर उपरोक्त अध्ययन दोहराया। उन्होंने पाया कि संवेदनाओं के प्रसंस्करण केंद्र थैलेमस के कुछ घने क्षेत्रों में अत्यधिक फ्लोरोसेंस है, जिससे लगता है कि इस क्षेत्र और श्रवण कॉर्टेक्स के बीच की कड़ियां दर्द को दबाने में भूमिका निभाती हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में छोटे इलेक्ट्रोड लगाए और पाया कि अपेक्षाकृत मद्धिम ध्वनियों ने श्रवण कॉर्टेक्स से निकलने वाले संकेतों को कम कर दिया था। जब श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच सम्बंध को अवरुद्ध किया गया, तो चूहों को कम दर्द महसूस हुआ।
कुल मिलाकर टीम ने पाया कि मंद आवाजें श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच संकेतों को बोथरा कर देती हैं, जिससे थैलेमस में दर्द प्रसंस्करण कम होता है। यह प्रभाव चूहों को संगीत सुनाना बंद करने के दो दिन बाद तक रहता है।
इस अध्ययन से कुछ सुराग तो मिले हैं लेकिन मनुष्यों पर अध्ययन की ज़रूरत है। लेकिन चूहों की तरह मानव मस्तिष्क में कुछ प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, इसलिए संगीत बजाकर एमआरआई से उनकी थैलेमस गतिविधि पर नज़र रखना होगी।
कई लोगों को शायद लगेगा कि दर्द से राहत पाने के लिए मोज़ार्ट का संगीत सुनना चाहिए लेकिन अध्ययन से स्पष्ट है कि मंद आवाज़ में कोई भी शोर दर्द से राहत दे सकता है।
बहरहाल, मनुष्यों को राहत मिले ना मिले, लेकिन ये तरीका प्रयोगों के दौरान कृन्तकों को होने वाले दर्द को कम करने का एक सस्ता और आसान तरीका हो सकता है। चूहों पर इस तरह के प्रयोग चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में नेपाल में सूखा अनुसंधान संस्थान शुरू हुआ है। काठमांडू इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंसेज़ के सेंटर फॉर वॉटर एंड एटमॉस्फेरिक रिसर्च की हेमू काफले ने इसे स्थापित करने में काफी योगदान दिया है।
नेपाल के काठमांडू इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंसेज़ द्वारा डिज़ाइन और विकसित किया गया यह मौसम विज्ञान स्टेशन कम लागत वाले स्टेशनों में शुमार है। इसका पहला मॉडल तीन साल पहले बना था। यहां तापमान, आर्द्रता, दबाव, हवा की गति और दिशा, और वर्षा को मापा जाता है।
काफले बताती हैं कि बचपन के दिनों में उन्होंने नेपाल के सूखे (नेपाली में खदेरी) के बारे में सुना था। लेकिन जब उन्होंने नेपाल में सूखे पर शोध करने की कोशिश की, तो पाया कि इस बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। नेपाली लोग बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन वे सूखे के बारे में बात नहीं करते। जबकि तथ्य यह है कि सूखा फसल उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है, खास कर असिंचित क्षेत्रों की बरसाती खेती को।
नेपाल में बहुत कम मौसम विज्ञान केंद्र थे। और चूंकि यहां का भूगोल काफी पर्वतीय है, तो लोग बाहर जाकर अपने उपकरणों को अंशांकित नहीं कर सकते हैं; इसलिए मौसम सम्बंधी पर्याप्त डैटा था ही नहीं। काफले ने नेपाल के बाहर (जापान के नागोया युनिवर्सिटी से) रिमोट सेंसिंग पर पीएच.डी. की थी। उनका विचार था कि उपग्रह डैटा का उपयोग करके मौसम सम्बंधी डैटा की पूर्ति कर सकते हैं और नेपाल के सूखे की संपूर्ण तस्वीर उकेर सकते हैं। लेकिन इसके लिए मॉडलिंग कंप्यूटर की ज़रूरत थी, और उनके तत्कालीन संस्थान ने यह सुविधा देने से इन्कार कर दिया था।
सिर्फ वे ही नहीं, नेपाल के बाहर के संस्थानों में अध्ययन करने वाले अन्य शोधकर्ता भी नेपाल की विशिष्ट समस्याओं पर शोध करना चाहते थे। आखिरकार 2015 में विदेशी अनुदान की मदद से अपना संस्थान स्थापित किया गया जो वन्यजीव संरक्षण, चरम जलवायु परिस्थितियों और पर्यावरण प्रदूषण में अनुसंधान को समर्थन देता है।
मौसम सम्बंधी अनुसंधान के लिए अपना कंप्यूटर मिला, और संस्थान ने नेपाल के साथ-साथ भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के भी कुछ हिस्सों के सूखों विश्लेषण किया। काफले आगे बताती हैं कि विकासशील देशों में स्थानीय स्तर पर बहुत सारा शोध कार्य करने की आवश्यकता है। आगे यह संस्थान युवाओं को भी प्रशिक्षित करना चाहता है ताकि नेपाल को विकासशील देश से विकसित देश की श्रेणि में लाने के लिए अच्छे वैज्ञानिक और दूरदर्शी लोग तैयार किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)
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मानव मस्तिष्क 10 वर्ष की उम्र तक वयस्क आकार में तो पहुंच जाता है; लेकिन इसकी वायरिंग और इसकी क्षमताएं जीवन भर बदलती रहती हैं।
40 की उम्र के बाद मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। मस्तिष्क में से कम रक्त प्रवाहित होता है, और हारमोन्स तथा न्यूरोट्रांसमीटर्स के स्तर कम हो जाते हैं। वृद्धावस्था नए काम सीखने जैसे कुछ कार्यों को मंद कर देती है।
कुछ नया सीखने के लिए मस्तिष्क में नए तंत्रिका-कनेक्शन बनने ज़रूरी होते हैं; इस गुण को न्यूरोप्लास्टिसिटी (तंत्रिका-लचीलापन) कहते हैं। आपका मस्तिष्क एक नित परिवर्तनशील इकाई है जो नए अनुभवों के हिसाब से लगातार खुद को ढालता रहता है।
मस्तिष्क की कुछ संरचनाओं में अन्य की तुलना में अधिक लचीलापन होता है और इनमें अधिक नए कनेक्शन बनते-बिगड़ते रहते हैं। वृद्धावस्था इन संरचनाओं को तुलनात्मक रूप से में अधिक प्रभावित करती है। ऐसी ही एक संरचना है हिप्पोकैम्पस। हिप्पोकैम्पस हमारे दोनों कानों के बीच स्थित होता है। यह नई और स्थायी स्मृतियां बनाने और उन्हें सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस तरह से यह सीखने और तज़ुर्बे में भूमिका निभाता है। यह आपके आसपास के परिवेश का मानसिक चित्र भी बनाता है, जिससे आप अपने घर का रास्ता जान पाते हैं।
प्रयोगों से पता चला है कि वृद्ध चूहों के मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं के बीच कनेक्शन (सायनेप्स) कम थे और भूलभुलैया में से बाहर का रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन भी घटिया रहा। इससे संकेत मिलता है कि उनमें स्थान-विषयक सीखने/समझ की कमी होती है।
लंदन के टैक्सी ड्राइवरों के मस्तिष्क का एमआरआई करने पर पता चला है कि उनका हिप्पोकैम्पस बड़ा था – हिप्पोकैम्पस में शहर की सड़कों का नक्शा बस जाता है, और नए अनुभव होने पर यह ‘नक्शा’ आसानी से विस्तारित होता जाता है।
हालांकि, इस मामले में मनुष्यों पर हुए अध्ययनों में दिखे व्यक्ति-दर-व्यक्ति अंतर हैरान करने वाले हैं – कुछ “सुपर वृद्ध” स्मृति परीक्षणों में नौजवानों को मात दे सकते हैं।
दिमागी चोट
मस्तिष्क की रीवायरिंग और परिवर्तन क्षमता सदमे या स्ट्रोक से होने वाली मस्तिष्क क्षति के मामलों में देखी गई है। ऐसे हादसों में मस्तिष्क की कोशिकाएं बड़ी संख्या में मर जाती हैं, जिसके कारण कुछ क्षमताएं गुम हो जाती हैं। अलबत्ता, समय के साथ, मस्तिष्क खुद को फिर से तैयार करता है और खोई हुई क्षमताएं आंशिक या पूर्ण रूप से बहाल हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को दवाओं, स्टेम सेल थेरपी और मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप से गति दी जा सकती है।
हालांकि ज़रूरी नहीं कि हमेशा ऐसा हो लेकिन अक्सर उम्र बढ़ने पर संज्ञान क्षमता में कमी आती है। स्मृति के साथ-साथ कार्यकारी प्रणालियां भी गड़बड़ा सकती हैं – जैसे योजना बनाने की क्षमता और एक साथ दो या दो से अधिक काम करने की क्षमता।
ये परिवर्तन मस्तिष्क के अपने तंतु फिर से जोड़ने की क्षमता में कमी, तंत्रिका-लचीलेपन में कमी, का परिणाम हैं। लेकिन व्यवहार और जीवन शैली में बदलाव करके मस्तिष्क की नया सीखने की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है और इससे एक युवा मस्तिष्क की तरह कार्य करवाया जा सकता है।
मस्तिष्क को युवा बनाए रखने के लिए नियमित व्यायाम और अच्छा आहार उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि सीखने (नई भाषा या वाद्ययंत्र में महारत हासिल करने) की चाह रखना।
व्यायाम के लाभ
वृद्ध व्यक्तियों में व्यायाम हृदय रोग और उच्च रक्तचाप जैसे विकारों के जोखिम को कम करता है। इस तरह के विकार मनोभ्रंश (डिमेंशिया) के जोखिम को बढ़ाते हैं। अर्थात व्यायाम मनोभ्रंश और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के जोखिम को भी कम करता है।
नियमित व्यायाम आपको वज़न कम करने में मदद करता है; या कम से कम वज़न बढ़ना रुक जाता है, या कम किया हुआ वज़न दोबारा नहीं बढ़ता। व्यायाम से फेफड़े, पेट, बड़ी आंत (कोलन) और ब्लैडर के कैंसर की संभावना कम हो जाती है। व्यायाम करने वाले व्यक्तियों में चिंता और अवसाद से घिरने का खतरा भी कम होता है।
वृद्धों में व्यायाम का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इससे गिरने का और गिरने से पहुंचने वाली चोटों का जोखिम कम हो जाता है। एन-कैथरीन रोजे और उनके साथियों के एक अध्ययन (न्यूरोसाइकोलॉजिया, 2019) के अनुसार व्यायाम आपके खड़े रहते और चलते दोनों स्थितियों में शरीर विन्यास की स्थिरता को बढ़ाता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क संतुलन में गड़बड़ी होने पर त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए लगातार प्रशिक्षित होता रहता है।
सवाल है कि किस तरह का व्यायाम बेहतर है? 40-56 वर्ष के व्यक्तियों के साथ 6 महीने तक (स्ट्रेचिंग/तालबद्ध) प्रशिक्षण और एरोबिक स्थिरता प्रशिक्षण (घर पर साइकिल चलाना) के परिणामों की तुलना करने पर पाया गया कि दोनों तरह की गतिविधियों से सुस्त व्यक्तियों की स्मृति में सुधार दिखा। ये गतिविधियां बेशक हृदय-रक्तवाहिनी की हालत में भी सुधार करेंगी। अध्ययन में शामिल जिन प्रतिभागियों के हृदय-वाहिनी स्वास्थ्य में सबसे अधिक सुधार दिखा, उनकी याददाश्त में भी सबसे अच्छा सुधार दिखा। वापिस सुस्त हो जाना और फिटनेस में कमी स्मृति सम्बंधी लाभ को बेअसर कर देता है (हॉटिंग व रोडर, न्यूरोसाइंस विहेवियर रिव्यूस, 2013)।
संज्ञान प्रशिक्षण, यानी दिमागी कसरत, आपके मस्तिष्क को लचीला रहने में मदद करता है। संज्ञान प्रशिक्षण के साथ शारीरिक व्यायाम करने से वृद्धजनों की संज्ञान क्षमताओं में और भी अधिक सुधार होता है।
एक सवाल है कि कितना व्यायाम? अक्सर वृद्ध व्यक्तियों में स्वास्थ्य और संज्ञान सम्बंधी मूल्यांकन 10 मिनट की दैनिक सैर के पहले और बाद में किया जाता है; दैनिक सैर में थोड़ी जॉगिंग और थोड़ा टहलना शामिल है (जो हल्का पसीना पैदा करने के लिए पर्याप्त हो लेकिन थकाए नहीं)। 65 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सप्ताह में पांच या अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलने की सलाह देता है। (स्रोत फीचर्स)
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सरकार द्वारा बूस्टर डोज़ की घोषणा एक सही कदम है, परंतु इसे केवल 75 दिनों तक मुफ्त रखना समझ से परे है।
बूस्टर डोज़ की ज़रूरत क्यों
विशेषज्ञों का कहना है कि महामारी के टीके का असर 6 से 9 महीनों में कम हो जाता है; इसलिए सभी देश अपनी जनता को बूस्टर डोज़ लगवा रहे हैं। कई देशों ने यह काम पहले ही शुरू कर दिया था। यदि शरीर की महामारी से लड़ने की क्षमता को बरकरार रखना है तो बूस्टर की ज़रूरत होगी।
अब, चूंकि कोविड फिर से फैल रहा है, तो ज़रूरी हो जाता है कि बूस्टर डोज़ सभी को लगे। और यह काम महामारी का नया स्वरूप फैलने से पहले होना चाहिए। इसके अलावा, बूस्टर डोज़ केवल 75 दिन के लिए नहीं बल्कि सामान्य रूप से उपलब्ध होना चाहिए और इसका प्रचार होना चाहिए कि यह सभी को लगवाना है।
कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र बूस्टर डोज़ लगवाने गए, पर हमारे छोटे शहर में कहीं उपलब्ध नहीं था। इंदौर के एक अस्पताल में बमुश्किल मिला। यदि निजी तौर पर लोगों को बूस्टर डोज़ लगवाना पड़े, तो आप मान कर चलें कि 5 प्रतिशत से अधिक लोग इसे नहीं लगवा पाएंगे – यह खर्चीला भी है और दुर्लभ भी।
दुर्भाग्य यह है कि हम महामारी के टीके के सिद्धान्त को समझ नहीं रहे हैं। हम तभी सुरक्षित होंगे, जब सभी लोग सुरक्षित होंगे। महामारी के टीके द्वारा हमारा लक्ष्य है कि कम से कम 80 प्रतिशत लोगों का टीकाकरण हो जाए ताकि समाज में एक ‘कवच’ बन जाए और महामारी को फैलने का रास्ता ना मिले। इसे ‘हर्ड इम्युनिटी’ कहते हैं। अर्थात यह एक सार्वजनिक ज़रूरत है। इसे मात्र निजी सुरक्षा के उपाय के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। लोगों को निजी पहल पर निजी अस्पताल में जाकर टीका लगवाने को कहने से ऐसी धारणा बनती है कि टीका व्यक्ति की निजी सुरक्षा भर के लिए है। लोग इसे लेने की महत्ता को तभी समझेंगे जब टीका सभी के लिए मुफ्त व बिना शर्त उपलब्ध होगा। बूस्टर देने में और देरी नहीं करनी चाहिए। ‘निजी सुरक्षा’, ‘सीमित अवधि के लिए उपलब्ध’ जैसे संदेशों से गलत माहौल बना है। अब इसे सार्वजनिक मुहिम में बदलना चाहिए।
कुछ लोग सोचते हैं कि मुफ्त भी हो तों मैं क्यों लगवाऊं, महामारी हमारे इलाके में नहीं है। यहां सार्वजनिक संवाद की ज़रूरत है। हम तभी सुरक्षित हैं जब अधिक लोग इसे लगवाएंगे।
यह याद रखना चाहिए कि महामारी का फैलाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। नए-नए संस्करण निकलेंगे। ऐसे में, लगातार निगरानी और विज्ञान ही हमें महामारी से मुकाबला करने के रास्ते बता सकता है। दवा की अनुपस्थिति में मास्क, टीका और भीड़भाड़ से दूर रहना ही उपाय हैं। (स्रोत फीचर्स)
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जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना अनिवार्य है। लेकिन कोयले से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है। इसका एक कारण वैश्विक रणनीतियों का राष्ट्रीय वास्तविकताओं के अनुकूल न होना है।
कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से प्राकृतिक गैस की तुलना में प्रति युनिट दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है। वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में बिजली उत्पादन में कोयला एक-तिहाई और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 26 प्रतिशत योगदान देता है। अधिकांश विश्लेषणों के अनुसार 2015 के पेरिस संधि के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 2030 तक कोयले का उपयोग 30-70 प्रतिशत तक कम करना होगा।
कोयले के उपयोग में कटौती को कई औद्योगिक देशों ने अपने राजनीतिक अजेंडा में शामिल किया है, जबकि अधिकांश कम और मध्यम आय वाले देश अभी भी इसे आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान ऊर्जा मांग में कमी के चलते 2019 से 2020 के बीच कोयले से बिजली उत्पादन में 4 प्रतिशत की कमी आई थी जो 2021 में 9 प्रतिशत बढ़ गई। कुछ अन्य घटनाओं ने भी बिजली उत्पादन में कोयले के उपयोग को बढ़ाया है। हालिया रूस-यूक्रेन युद्ध ने प्राकृतिक-गैस की आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है। जर्मनी सहित कई देशों ने कोयले के उपयोग को एक अंतरिम उपाय माना है। गैस की बढ़ती कीमतें एशिया में कोयले के उपयोग को बढ़ा सकती हैं।
फिलहाल दुनिया में 2429 कोयला आधारित बिजली संयंत्र (क्षमता>2000 गीगावाट) सक्रिय हैं। वर्ष 2017 से 2022 तक कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में 110 गीगावाट की वृद्धि हुई है। यदि मौजूदा और निर्माणाधीन संयंत्रों का संचालन आगामी 40 वर्षों तक जारी रहा तो तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री की सीमा में रखने के लिए उत्सर्जन को पटरी पर रखने के बजट का 60-70 प्रतिशत खर्च हो जाएगा। इस मुद्दे पर त्वरित कार्यवाही आवश्यक है। कोयले के उपयोग को तब तक कम नहीं किया जा सकता जब तक विश्व समुदाय अपने लक्ष्य राजनैतिक वास्तविकताओं के अनुरूप निर्धारित नहीं करता।
इस संदर्भ में शोधकर्ताओं ने 2018 से 2020 तक 15 प्रमुख देशों की केस स्टडी की जहां विश्व के 84 प्रतिशत कोयला संयंत्र और 83 प्रतिशत नए कोयला संयंत्र मौजूद हैं। प्रत्येक केस स्टडी के लिए शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं, विश्लेषकों, शिक्षाविदों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कई साक्षात्कार किए। इस आधार पर उन्होंने कोयला-आधारित संयंत्रों का संचालन करने या भविष्य में ऐसा करने वाली सभी अर्थव्यवस्थाओं का 4 श्रेणियों में वर्गीकरण किया:
1. फेज़-आउट देश जो चरणबद्ध तरीके से कोयले पर निर्भरता को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।
2. स्थापित कोयला उपयोगकर्ता
3. फेज़-इन देश जो वर्तमान में तो कोयले पर निर्भर नहीं है लेकिन काफी तेज़ी से नए कोयला संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं।
4. निर्यातोन्मुख देश
प्रत्येक श्रेणि की अपनी-अपनी राजनीतिक चुनौतियां हैं।
कोयले से निपटने के लिए कभी-कभी ऐसा माना जाता है कि उच्च कार्बन मूल्य या कोयले पर सब्सिडी हटाना प्रभावी हो सकता है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। मज़बूत कानूनी ढांचे और पूंजी की सुलभता वाली अर्थव्यवस्थाओं में तो इन परिस्थितियों में अक्षय ऊर्जा कोयले से टक्कर ले सकती है। लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में ऊर्जा की नई प्रणालियों को अपनाने के लिए वित्तीय और बौद्धिक पूंजी की कमी है। कई अन्य ऐसे मुद्दे भी हैं जो सब्सिडी में सुधार या उत्सर्जन शुल्क लागू करने के प्रयासों को कमज़ोर करते हैं।
जैसा कि पहले बताया गया है, चारों श्रेणियों की अपनी-अपनी चुनौतियां है और सभी में प्रभावी परिवर्तन के लिए कुछ विशिष्ट नीतिगत प्राथमिकताओं की ज़रूरत है। हर जगह एक-सी नीतियां काम नहीं करेंगी।
हालांकि चीन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वहां दुनिया की आधी मौजूदा अथवा प्रस्तावित कोयला क्षमता है लेकिन यदि कई अन्य फेज़-इन देश कोयले को अपनाते रहे तो जल्दी ही वे उत्सर्जन के मामले में चीन और भारत को पीछे छोड़ देंगे।
फेज़-आउट अर्थव्यवस्थाएं
कोयले को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चिली, जर्मनी, यू.के. और यू.एस.ए. शामिल हैं। फेज़-आउट श्रेणि में अधिकांश देश उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनके पास अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तथा ऊर्जा दक्षता बढ़ाने पर निवेश करने के लिए भरपूर वित्तीय, तकनीकी और संस्थागत क्षमताएं हैं। फिलहाल इन देशों में कोयला आधारित संयंत्रों की कुल क्षमता 360 गीगावाट है जो 2030 तक एक चौथाई हो जाना चाहिए।
लेकिन सवाल यह है कि ये देश इस स्तर पर कैसे पहुंच पाए हैं? यू.के. में युरोपियन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम में प्रचलित कार्बन मूल्य के अलावा बिजली और उद्योग क्षेत्रों में काफी प्रभावी ढंग से कार्बन लेवी को लागू किया गया। जर्मनी में एक उच्च स्तरीय आयोग ने कोयले के उपयोग को खत्म करने के लिए कोयला और बिजली कंपनियों को 42 अरब अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया ताकि वे 2038 तक चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को पूरी तरह खत्म कर सकें। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका में ड्रिल टेक्नॉलॉजी के चलते प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी के अलावा पवन और सौर उर्जा की लागत में भी तेज़ी से गिरावट हुई। इसका नतीजा यह रहा कि कोयला उद्योग को राजनीतिक समर्थन मिलने के बाद भी कोयले का उपयोग काफी तेज़ी से कम हुआ। वर्ष 2007 में सर्वाधिक उपयोग की तुलना में वर्तमान में कोयले का उपयोग लगभग आधा है। इसी तरह 2040 तक कोयला उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए चिली ने उच्च सौर क्षमता का फायदा उठाते हुए गैस और कोयले के अस्थिर आयात से स्वयं को सुरक्षित रखा।
यदि इन फेज़-आउट देशों में यह गिरावट जारी रही, तो भी 2030 तक 90 गीगावाट बिजली का उत्पादन कोयले से ही होगा। इससे होने वाला उत्सर्जन 7.5 करोड़ कारों के उत्सर्जन के बराबर होगा। इन परिवर्तनों में तेज़ी लाने से उत्सर्जन में कटौती होगी और नवाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए अनुसंधान और स्वच्छ उर्जा के प्रसार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की आवश्यकता होगी। इसके अलावा कोयले पर निर्भर देशों को आय के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराने होंगे। कोयले पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म करके उसे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों की ओर मोड़ना होगा।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को खत्म किया जा सकता है। जैसे, युरोपीय संघ में कार्बन-उत्सर्जन की बढ़ती कीमतों के चलते कोयले के उपयोग को खत्म करने की संभावना बुल्गारिया जैसे अन्य देशों में भी है जहां इसे लेकर कोई विशिष्ट योजना नहीं है। देशों की दृढ़ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं सरकारों की जवाबदेही को बढ़ा सकती हैं।
स्थापित उपयोगकर्ता
चीन, भारत और तुर्की जैसे स्थापित कोयला उपयोगकर्ता मध्यम आय वाले देश हैं जहां काफी विकास हुआ है और गरीबी में कमी आई है। इन देशों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि को पूरा करने के लिए कोयला आधारित संयंत्र लगाए गए जिनमें कम पूंजी की आवश्यकता होती है।
गौरतलब है कि इन देशों में सरकार ऊर्जा व बिजली बाज़ार पर नियंत्रण रखती हैं। ऐसे में यहां अक्षय उर्जा की घटती लागत का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। कोयले की पूरी शृंखला – खनन, परिवहन, बिजली उत्पादन और वित्त – पर अधिकांशत: राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों का वर्चस्व है। कुछ निहित स्वार्थ भी कोयले आधारित संयंत्रों को बढ़ावा देते हैं।
इनमें से कई देशों में कोयला अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। भारत में 1.5 करोड़ नौकरियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयले से जुड़ी हैं। इन देशों की नीतियों में कुछ ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जो निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार पर नज़र रखें, ऊर्जा क्षेत्र पर राज्य के नियंत्रण को कम करें और वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों के उपयोग को बढ़ावा दें। इन देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और श्रम बल को विकसित करने में निवेश करने की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण और आईटी सेवाओं को सहारा मिले।
इसके अलावा लौह, इस्पात और सीमेंट उत्पादन सहित ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण के समझौतों के चलते उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगिक देशों के बाज़ारों तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी जो हरित सामग्री खरीदने का दबाव बनाते हैं।
फेज़-इन देश
पाकिस्तान और वियतनाम जैसे देश कोयला आधारित बिजली उत्पादन में काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है जबकि ऊर्जा की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। जैसे, वियतनाम में प्रति वर्ष ऊर्जा मांग में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है और भविष्य में 56 नए संयंत्र स्थापित करने की योजना है।
बिजली के किफायती दाम, सुरक्षा और विश्वसनीयता राजनीतिक अजेंडा में हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं। राज्य द्वारा नियंत्रित ऊर्जा की कीमतें बिजली कंपनियों को कर्ज़ में डुबा सकती हैं जिससे उनके पास कोयले के विकल्प आज़माने का मौका ही नहीं रहेगा। हालांकि फेज़-इन देशों में आम तौर पर कोयले से जुड़े निहित स्वार्थों की कमी होती है लेकिन फिर भी उन्हें अनुचित लाभ मिल सकता है।
वैसे, फेज़-इन राष्ट्रों के लिए अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए उच्च पूंजीगत लागत और निवेश करना काफी जोखिम भरा हो सकता है। अपर्याप्त विकसित बिजली ग्रिड में घटती-बढ़ती नवीकरणीय उर्जा को समायोजित करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ सकता है। इसलिए ऊर्जा प्रबंधक अक्षय ऊर्जा को लेकर शंकित रहते हैं। जैसे वियतनाम के पास अनिरंतर सौर व पवन आधारित ऊर्जा प्रणालियों के प्रबंधन क्षमता नहीं है। फिर भी वियतनाम 2019 में दक्षिण पूर्वी एशिया में सौर उर्जा का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस तरह के उदाहरणों से अन्य देश भी प्रेरित होते हैं। अलबत्ता, वियतनाम में वेन थी कान जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी इन कदमों के प्रतिरोध की ताकत दर्शाती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय वित्त और आज़माइशी प्रोजेक्ट इन बाधाओं को कम कर सकते हैं। पिछले वर्ष नवंबर में एशियन डेवलपमेंट बैंक ने एशिया में कोयला संयंत्रों और खानों को खरीदने की योजना तैयार की थी। इस योजना को फिलिपींस में पायलट परियोजना की तरह शुरू किया गया था ताकि इन संयंत्रों और खानों को उनके अनुमानित अंत से पहले बंद किया जा सके। इस प्रकार की खरीदारी से ग्रिड क्षमता और भंडारण सहित अन्य विकल्पों में निवेश के लिए पूंजी हासिल होती है। यह ऊर्जा स्थानांतरण के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।
कोयला निर्यातक
ऑस्ट्रेलिया, कोलंबिया, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका सहित निर्यातकों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं काफी विविध हैं। इनमें से ऑस्ट्रेलिया की प्रति व्यक्ति आय काफी अधिक है जबकि इंडोनेशिया की काफी कम है। दक्षिण अफ्रीका अपने द्वारा खनन किए गए कोयले के एक बड़े हिस्से की स्वयं खपत करता है जबकि कोलंबिया अधिकांश उत्पादित कोयले का निर्यात करता है।
इन सब देशों में एक समानता यह है कि ये सभी बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन करते हैं। इन देशों को कोयले से मिलने वाला राजस्व कुल जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा है। उदाहरण के लिए कोयला निर्यात इंडोनेशिया के सार्वजनिक बजट का लगभग 5 प्रतिशत है। ऐसा देखा गया है कि कोयला रॉयल्टी पर अत्यधिक निर्भरता के चलते कोयला खनन के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में काफी समय लगता है।
कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए यहां कुछ विशिष्ट तरीके अपनाना होगा। कोयला आधारित रोज़गार से जुड़े लोगों को किसी अन्य आर्थिक गतिविधि में लगाना होगा। इस विषय में ऑस्ट्रेलिया में सौर ऊर्जा चालित हाइड्रोजन निर्यात अर्थव्यवस्था काफी भरोसेमंद लगती है। इंडोनेशिया जैसे अन्य देशों में विकल्पों की संभावना कम है लेकिन इसमें कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की फिटिंग जैसे श्रम-बहुल उद्योगों को शामिल किया जा सकता है।
इनमें से कई देशों के लिए कोयले पर आर्थिक निर्भरता का मतलब है कि यहां कार्बन के मूल्य निर्धारण और इसी तरह के उपायों की क्षमता सीमित है। उदाहरण के लिए इंडोनेशिया ने हाल ही में बहुत कम कार्बन मूल्य का निर्धारण किया लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण कोयले को इससे छूट दी गई। जुलाई में शुरू होने वाली उत्सर्जन-ट्रेडिंग योजना में कोयले को भी शामिल करना प्रस्तावित है लेकिन इस योजना में काफी खामियां हैं। पूर्व में जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी में सुधार के प्रयासों ने कभी-कभी हिंसक विरोध का रूप भी लिया है।
इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय प्रयास आवश्यक हैं। पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यू.के, यू.एस.ए, युरोपीय संघ, फ्रांस और जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका में डीकार्बनीकरण और स्वच्छ-उर्जा के लिए 8.5 अरब डॉलर उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। देखना यह है कि क्या यह पेशकश साकार रूप लेती है।
आगे का रास्ता
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हर श्रेणि के लिए महत्वपूर्ण है। कई देशों के लिए इसे अकेले कर पाना संभव नहीं है। जो अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का प्रयास कर रही हैं वे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से अपने संकल्पों को और मज़बूत कर सकती हैं और अन्य देशों को प्रौद्योगिकी, वित्त और क्षमता निर्माण के रूप में सहायता कर सकती हैं। फेज़-इन देशों को नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड क्षमता और भंडारण सुविधाओं के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। स्थापित कोयला उपयोगकर्ता स्टील और कांक्रीट जैसे ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण वाले समझौतों से सबसे बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादों के लिए बाज़ार तैयार कर सकते हैं। निर्यात पर निर्भर देशों को गैर-खनन गतिविधियों में स्थानांतरण के लिए सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए सभी आवश्यक तत्व पहले से उपस्थित हैं। जी-7 और जी-20 जैसे महत्वपूर्ण कार्बन उत्सर्जक देश युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के साथ वार्ता में तेज़ी लाने में सहयोग कर सकते हैं। पूर्व में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो 100 अरब डॉलर के संकल्प लिए गए थे, उन्हें फेज़-आउट रणनीतियों पर लक्षित किया जाना चाहिए। वास्तव में कोयला छोड़कर स्वच्छ विकल्पों की ओर जाना संभव है लेकिन इसके लिए वैश्विक समुदाय को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नीतियों को परिभाषित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-022-01828-3/d41586-022-01828-3_23214676.jpg
बारिश के मौसम में तरह-तरह के सांप दिखाई देते हैं। करैत, कोबरा, वाइपर, वुल्फ स्नेक, चेकर्ड कीलबैक और सैंड बोआ आदि घरों के समीप, खेत-खलिहानों और बाग-बगीचों में अक्सर दिख जाते हैं। इन्हीं दिनों में नम जगहों पर एक बेहद छोटे और पतले आकार का केंचुए जैसा अत्यन्त चमकीला जीव भी बहुत तेज़ी से ज़मीन और फर्श पर रेंगता दिखता है। दरअसल, यह केंचुआ नहीं बल्कि एक सांप है। इसे अंधा सांप कहते हैं। अंधा सांप दुनिया का सबसे छोटा सांप है। इसे तेलिया सांप के नाम से भी जाना जाता है।
इसे अंधा सांप क्यों कहते हैं? दरअसल इस सांप की आंखों की बनावट ऐसी होती है कि यह केवल उजाले और अंधेरे में फर्क कर सकता है। वैसे भी सांपों की दृष्टि क्षमता बेहद कमज़ोर होती है और अंधा सांप तो इस मामले में और भी ज़्यादा कमज़ोर होता है। अंधे सांप की आंखें दो काले बिन्दुओं की तरह दिखाई देती हैं। इन्हीं सब कारणों के चलते इन सांपों को अंधा सांप कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे ब्लाइंड स्नेक या वार्म स्नेक के नाम से भी जाना जाता है।
दुनिया भर में अंधे सांपों की लगभग 250 प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत में 15 से भी ज़्यादा प्रजातियां रिकॉर्ड की गई हैं, जिनमें ब्राह्मणी ब्लाइंड स्नेक सबसे आम है। अंधे सांप मुख्यतः नमीयुक्त जगहों, भूमिगत स्थानों और सड़े-गले पत्तों के ढेर के नीचे पाए जाते हैं। ये सांप तापमान के उतार-चढ़ाव के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। भौगोलिक विविधता एवं जलवायु के अनुसार अंधे सांपों का रंग कत्थई, काला और हल्का लाल होता है। मैंने अपने ग्रामीण क्षेत्रों में अंधे सांपों का अवलोकन करते हुए पाया कि ये प्रायः संध्याकाल अथवा गोधूलि बेला में ही ज़्यादा सक्रिय होते हैं।
बारिश का मौसम आते ही अंधे सांपों की सक्रियता बढ़ जाती है। वर्षा काल में गीली ज़मीन और फर्श पर बेहद तेज़ी से रेंगते इन खूबसूरत एवं विषहीन सांपों को देखकर अधिकांश लोग भ्रमवश इन्हें कोबरा और करैत जैसे विषैले सांपों का बच्चा समझ लेते हैं। अंधे सांपों के बारे में उचित जानकारी ना होने तथा इन्हें कोबरा और करैत का बच्चा समझने के चलते लोग इन्हें जान से मार देते हैं।
अंधे सांप का मुख्य आहार चींटियों तथा दीमकों जैसे कीटों के लार्वा हैं। वहीं, कई पक्षी और मेंढक आदि प्राणी अपने भोजन हेतु इन अंधे सांपों पर निर्भर हैं।
आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में भी हमारे समाज में सांपों के विषय में लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं है। लोगों के बीच इन अंधे सांपों के प्रति फैले भ्रम के चलते पता नहीं कितने अंधे सांप मारे जाते हैं। चींटी एवं दीमकों की आबादी को नियंत्रित कर ये हमारे पर्यावरण तथा खाद्य-शृंखला के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं। आज ज़रूरत है इन सांपों के संरक्षण की और यह तभी संभव है जब हम इनके विषय में ज़्यादा जानें, अवलोकन करें तथा इनके पर्यावरणीय महत्व को समझें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/6/6d/Davidraju_Worm_Snake.jpg/1024px-Davidraju_Worm_Snake.jpg
हम अपनी कोरी आंखों से जितने भी ग्रहों, तारों एवं तारासमूहों को देख सकते हैं, वे सभी एक अत्यंत विराट योजना के सदस्य हैं, जो आकाश में उत्तर से दक्षिण तक फैला हुई नदी के समान प्रवहमान प्रतीत होती है। यह ‘आकाशगंगा’ है। हमारा सूर्य और उसका परिवार यानी सौरमंडल जिस निहारिका के सदस्य हैं उसका नाम आकाशगंगा है।
आकाशगंगा में 100 अरब से भी ज़्यादा तारे हैं। हमारा सूर्य आकाशगंगा के केंद्र से लगभग 27,000 प्रकाश वर्ष दूर एक किनारे पर स्थित है। इसलिए पृथ्वी से देखने पर आकाशगंगा तारों के एक सघन पट्टे के रूप में दिखाई देती है। चूंकि हम आकाशगंगा के भीतर ही स्थित हैं, इसलिए हम इसकी आकृति का सटीक अनुमान नहीं लगा पाए हैं। हम आकाशगंगा के 90 प्रतिशत हिस्से को नहीं देख सकते। इसके बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वह ब्रह्मांड की हज़ारों अन्य निहारिकाओं की संरचना के अध्ययन और अप्रत्यक्ष खगोलीय प्रेक्षणों पर आधारित है।
हाल ही में युरोपीय स्पेस एजेंसी ने गेइया मिशन के अंतर्गत आकाशगंगा का अब तक का सबसे बड़ा और सबसे सटीक त्रि-आयामी नक्शा जारी किया है। यह नक्शा खगोल विज्ञानियों को आकाशगंगा के अरबों तारों, ग्रहों, क्षुद्रग्रहों, उल्काओं आदि की सटीक स्थिति तो बताएगा ही, साथ ही इससे इन खगोलीय पिंडों की आगे की गति को भी ट्रैक करने में मदद मिलेगी। यह हमें हमारी निहारिका के अतीत के बारे में बता सकता है; जैसे कि कौन से तारे अन्य निहारिकाओं से आए होंगे और अतीत में हमारी अपनी निहारिका (आकाशगंगा) में विलीन हो गए होंगे। गेइया मिशन ने आकाशगंगा में कम से कम दो अरब खगोलीय पिंडों की पहचान की है और आकाशगंगा के बाहर लगभग 29 लाख नई निहारिकाओं की शिनाख्त की है। इसकी मदद से खगोल विज्ञानी लगभग 3.30 करोड़ तारों की गति निर्धारित कर पाए हैं और यह पता लगा पाए हैं कि वे हमारे सौरमंडल के नज़दीक आ रहे हैं या उससे दूर भाग रहे हैं। इसके अलावा 1,56,000 क्षुद्र ग्रहों की सटीक कक्षाएं भी निर्धारित की गई हैं।
विज्ञानियों ने आकाशगंगा को सर्पिल निहारिका (स्पाइरल गैलेक्सी) की श्रेणी में रखा है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकों और विज्ञान की लोकप्रिय पुस्तकों में आकाशगंगा को एक सपाट तश्तरीनुमा सर्पिल संरचना के रूप में दिखाया जाता है। लेकिन गेइया मिशन के नए थ्री-डी नक्शे ने इसके समतल या सपाट होने सम्बंधी धारणा को चुनौती दी है। नए डैटा के मुताबिक आकाशगंगा ऊपर और नीचे के घुमावदार किनारों के साथ काफी विकृत है। सपाट तश्तरीनुमा आकृति बनाने की बजाय आकाशगंगा के तारे एक ऐसी तश्तरी बनाते हैं जो किनारों पर मुड़ जाती है, कुछ-कुछ अंग्रेजी के अक्षर ‘एस’ (S) की तरह।
गेइया मिशन के अंतर्गत प्राप्त डैटा को खगोल विज्ञानी बेहद सटीक मान रहे हैं क्योंकि गेइया टेलीस्कोप को अब तक की सबसे व्यापक कवरेज रेंज हासिल है। इतनी रेंज किसी भी टेलीस्कोप के पास नहीं है। यह आकाशगंगा को दिक् और वेग के छह आयामों में खंगालने में सक्षम है। तारों की स्थिति, गति और तेजस्विता को मापने के अलावा, गेइया ने अन्य पिंडों की एक विशाल शृंखला पर डैटा इकट्ठा किया है। गेइया के डैटा के बिना सभी तारे एक जैसी टिमटिमाती रोशनी भर हैं, इसके डैटा की बदौलत यह पता चलता है कि इनमें कितनी विविधता है। (स्रोत फीचर्स)
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देश-दुनिया में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर के मद्देनज़र यह माना जाता रहा है कि इलेक्ट्रिक वाहन वायु प्रदूषण में न के बराबर योगदान देते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि एक अध्ययन में पता चला है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को दौड़ाकर भी हम अपने देश में सिर्फ 20 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कम कर पाएंगे, क्योंकि देश में 70 फीसदी बिजली कोयले से बनाई जा रही है। शोध बताता है कि इलेक्ट्रिक कारों को हम जितना ईको-फ्रेंडली समझते हैं, दरअसल ये उतनी हैं नहीं।
सोसायटी ऑफ रेयर अर्थ के मुताबिक एक इलेक्ट्रिक कार बैटरी बनाने में इस्तेमाल होने वाले 57 कि.ग्रा. कच्चे माल (8 कि.ग्रा. लीथियम, 35 कि.ग्रा. निकल, 14 कि.ग्रा. कोबाल्ट) को ज़मीन से निकालने में 4275 कि.ग्रा. एसिड कचरा व 57 कि.ग्रा. रेडियोसक्रिय अवशेष पैदा होता है। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया में हुआ शोध कहता है कि 3300 टन लीथियम कचरे में से 2 फीसदी ही रिसायकिल हो पाता है, 98 फीसदी प्रदूषण फैलाता है। शोध में यह भी पाया गया कि लीथियम को ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला हो जाता है।
लीथियम दुनिया की सबसे हल्की धातु है। यह बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉन छोड़ती है। इसी कारण इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी में इसका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। हरित ईंधन कहकर लीथियम का महिमामंडन हो रहा है, पर इसे ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। लीथियम की 98.3 फीसदी बैटरियां इस्तेमाल के बाद गड्ढों में गाड़ दी जाती हैं। पानी के संपर्क में आने से इसका रिएक्शन होता है और आग लग जाती है। बता दें कि अमेरिका के पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के एक गड्ढे में जून 2017 से दिसंबर 2020 तक इन बैटरियों से आग लगने की 124 घटनाएं हुईं, जो वाकई चिंताजनक है। ऐसे में यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को जितना इको-फ्रेंडली समझते आ रहे हैं, उतने हैं नहीं।
इसके अलावा, विद्युत वाहन बनाने में 9 टन कार्बन निकलता है, जबकि पेट्रोल में यह 5.6 टन है। विद्युत वाहन में 13,500 लीटर पानी लगता है, जबकि पेट्रोल कार में यह करीब 4 हज़ार लीटर है। यदि विद्युत वाहन को कोयले से बनी बिजली से चार्ज करें, तो डेढ़ लाख कि.मी. चलने पर पेट्रोल कार के मुकाबले 20 फीसदी ही कम कार्बन निकलेगा।
आज दुनिया का हर देश कोयले से बिजली उत्पादन कर इलेक्ट्रिक वाहन चलाकर कार्बन उत्सर्जन कम करने का ख्वाब देख रहा है तो स्वाभाविक तौर पर यह ख्वाब अधूरा रहने वाला है। इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग उसी देश में बेहतर है जहां बिजली का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से ज़्यादा किया जाता हो।
भारत में 70 फीसदी बिजली कोयले से ही बन रही है। ऐसे में भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग फायदेमंद नहीं है। उल्लेखनीय है कि पेट्रोल कार प्रति कि.मी. 125 ग्राम और कोयले से तैयार बिजली से चार्ज होने वाली इलेक्ट्रिक कार प्रति कि.मी. 91 ग्राम कार्बन पैदा करती है। इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के मुताबिक युरोप में विद्युत वाहन 69 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं क्योंकि यहां लगभग 60 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनती है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि दुनिया भर की सभी दो सौ करोड़ कारें विद्युत में बदल दें तो बेहिसाब एसिड कचरा निकलेगा, जिसे निपटाने के साधन ही नहीं हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या सभी पेट्रोल-डीज़ल कारों को विद्युत कारों में बदलने से प्रदूषण समस्या का हल हो जाएगा?
एमआईटी एनर्जी इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया में करीब दो सौ करोड़ वाहन हैं। इनमें से एक करोड़ ही इलेक्ट्रिक वाहन हैं। अगर सभी को विद्युत वाहनों में बदला जाए, तो उन्हें बनाने में जो एसिड कचरा निकलेगा, उसके निस्तारण के पर्याप्त साधन ही नहीं हैं। ऐसे में पब्लिक ट्रांसपोर्ट बढ़ाकर और निजी कारें घटाकर ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
भारत में रजिस्टर्ड इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या 10 लाख 76 हज़ार 420 है। और वर्ष 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की यह इंडस्ट्री 150 अरब डॉलर यानी साढ़े ग्यारह लाख करोड़ रुपए की हो जाएगी। यानी आज की तुलना में यह इंडस्ट्री 90 गुना बड़ी हो जाएगी। आज इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल के पीछे कई सारे फायदे प्रत्यक्ष रूप से दिख रहे हैं। इसके साथ-साथ हमें अप्रत्यक्ष नुकसान के प्रति चेतने की आवश्यकता है। प्रदूषण से आज़ादी दिलाने में इन ई-वाहनों के योगदान को नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन इनके निर्माण के दौरान निकलने वाला ज़हरीला कचरा बड़ी चुनौती है। इसके साथ-साथ बड़ी चुनौती हमारे देश के सामने नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने भी नवीकरणीय ऊर्जा और विद्युत वाहनों को लेकर लक्ष्य तय किए हैं। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक 70 फीसदी व्यावसायिक कारें, 30 फीसदी निजी कारें, 40 फीसदी दो-पहिया और 80 फीसदी तिपहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक में तबदील करना है। वहीं, 2030 तक 44.7 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनाएंगे, जो अभी 21.26 फीसदी है। फिलहाल देश में बिजली की आपूर्ति में कोयले का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में हमारे देश में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पर्याप्त बिजली बनाई जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://mediacloud.theweek.com/image/upload/v1644342520/electric%20pollution.jpg