हिमशैल (आइसबर्ग) से पीने का पानी

स्वालबर्डी ब्रांड अपने बोतलबंद ठंडे पानी का स्वाद “मुंह में बर्फ (स्नो) के एहसास” जैसा बताता है, जो उत्तरी ध्रुव से 1000 किलोमीटर दूर के एक हिमशैल को पिघलाकर तैयार किया जाता है। इसे नॉर्वे के स्वालबर्ड द्वीपसमूह के एक छोटे से महानगर लॉन्गइयरब्येन में बोतलबंद किया जाता है। स्वालबर्डी का बोतलबंद पानी लंदन, सिडनी, फ्लोरिडा और मकाऊ में समृद्ध स्थानों पर पहुंचाया जाता है। ‘आर्कटिक को बचाने के लिए आर्कटिक का स्वाद चखें’ यह बात बोलती इसकी वेबसाइट अपने पानी में कार्बन उदासीनता का बखान करती है, और 750 मिलीलीटर की पानी बोतल 107 डॉलर (8836 रुपए) में ऑनलाइन बेचती है।

इस कीमत का पानी दुनिया के अधिकांश लोगों की पहुंच से बहुत दूर है। इनमें वे भी शामिल हैं जिनके पास सुरक्षित और साफ पेयजल का अभाव है। कानून, संस्कृति और मानविकी के विशेषज्ञ मैथ्यू बर्कहोल्ड अपनी पुस्तक चेज़िंग आइसबर्ग्स में लिखते हैं कि क्या दुनिया की प्यास को हिमशैल और हिम-टोपियों में कैद विश्व के दो-तिहाई मीठे-साफ पानी से बुझाना संभव है?

कुछ लोग पहले से ही इस काम में लगे हुए हैं – न सिर्फ स्वालबर्डी जैसी कंपनियां जो विलासी प्यास बुझाने का काम रही हैं, बल्कि वहां भी जहां साफ पानी की कमी है। बर्कहोल्ड ने न्यूफाउंडलैंड के ‘आइसबर्ग काउबॉय’ एड कीन से साक्षात्कार किया, जो बर्फीले समुद्र से हिमशिलाओं को लाते हैं और सौंदर्य प्रसाधन कंपनियों और शराब निर्माता कंपनियों को इसका पानी बेचते हैं। गौरतलब है कि ग्रीनलैंड के सबसे उत्तरी शहर कानाक में सार्वजनिक जल आपूर्ति हिमशिला के पिघले हुए पानी को फिल्टर और उपचारित करके की जाती है।

यह विचार कहां से आया? एक अनुमान है कि अंटार्कटिका से हर साल करीब 2300 घन किलोमीटर बर्फ टूटकर अलग होती है। 2022 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार आर्कटिक और अंटार्कटिक से हर साल 1,00,000 से अधिक हिमशिलाएं पिघलकर समुद्र में पहुंचती हैं। लगभग 11.3 करोड़ टन का एक हिमशैल अंटार्कटिका से दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन तक खींचकर लाने से एक वर्ष के लिए इस शहर की 20 प्रतिशत पानी की आपूर्ति हो सकती है। तो फिर क्यों न यही किया जाए?

बर्कहोल्ड लिखते हैं कि इस किताब को लिखने के लिए मैंने दर्जनों वैज्ञानिकों से बात की है। और वे सभी हिमशैल से पेयजल लेने के बारे में संशय में है। पुरापाषाण विज्ञानी एलेन मोस्ले-थॉम्पसन ने अंटार्कटिका से हिमशैल निकाल लाने के नौ अभियानों और ग्रीनलैंड में छह अभियानों का नेतृत्व किया है। लेकिन फिर भी वे इस कार्य को लेकर संशय में हैं।

केप टाउन योजना बनाने वाले निक स्लोन थोड़े कम आशंकित लगते हैं। उनकी हिमनद विशेषज्ञों, इंजीनियरों और समुद्र विज्ञानियों की टीम सर्वश्रेष्ठ हिमशैल को खोजने के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करेगी। फिर हिमशैल को एक विशाल जाल से पकड़ कर टगबोट द्वारा शक्तिशाली अंटार्कटिक परिध्रुवीय धारा तक खींचकर लाएगी, और वहां से इसे उत्तर की ओर बहती हुई बेंगुएला धारा में ले जाएगी।

स्लोन का अनुमान है कि इसमें तकरीबन 10 करोड़ डॉलर की लागत आएगी। इसके अलावा अतिरिक्त 5 करोड़ डॉलर की लागत बर्फ को पिघलाने में और मीठे पानी को ज़मीन तक भेजने में आएगी, बशर्ते हिमशैल समुद्र में न तो पिघले और न ही रास्ता भटके। लेकिन केप टाउन के अधिकारी इस काम के लिए कम उत्साही दिखे।

स्लोन की इस योजना पर अभी तक अमल नहीं हुआ है। इस बीच, बर्लिन की एक कंपनी पोलवाटर लगभग एक दशक से इसी तरह की योजना – जमे हुए मीठे पानी को अफ्रीका और कैरिबियन के पश्चिमी तट पर रहने वाले सख्त ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की योजना पर काम कर रही है। वे भी उम्दा हिमशैलों का पता उपग्रह डैटा की मदद से लगाएंगे। लेकिन इनका पता लगने के बाद उनकी योजना पिघले हुए पानी को आसानी से परिवहनीय विशाल बैग में भरने की है।

फिर संयुक्त अरब अमीरात का आइसबर्ग प्रोजेक्ट है, जो आविष्कारक अब्दुल्ला अलशेही का सपना है: हिमशैल को अंटार्कटिक से फुजैराह तट पर लाना। प्रचार सामग्री में पेंगुइन और ध्रुवीय भालू – दोनों अलग-अलग ध्रुव के जीव – हिमशैल पर उदास खड़े दिखाई देते हैं। अलशेही का कहना है खारे समुद्री पानी को लवणमुक्त करके मीठे पानी में बदलने की तुलना में हिमशैलों को यहां लाना सस्ता होगा।

लवणमुक्ति से हर साल वैश्विक स्तर पर कम से कम 35 ट्रिलियन लीटर पेयजल प्राप्त किया जाता है। बर्कहोल्ड बताते हैं कि यह कई जगहों पर अत्यधिक महंगा है। यह ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर करता है, और इसके द्वारा निकला अतिरिक्त लवण वापस समुद्र में ही डाला जाता है जो समुद्र को प्रदूषित करता है। लेकिन वे ऐसे विकल्पों की ज़्यादा बात नहीं करते जो संभवत: हिमशैल खींचकर लाने की तुलना में बेहतर हैं, जैसे अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण (रीयसाकलिंग) या फसल सिंचाई के लिए खारे पानी की आपूर्ति। वे पानी के अन्य स्रोतों, जैसे कोहरे से पानी के दोहन पर कोई आंकड़े नहीं देते। इन स्रोतों का उपयोग चिली, मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका के दूरस्थ समुदायों द्वारा किया जाता है। और न ही वे पानी की बर्बादी को कम करने या पानी के उपयोग को अधिक कार्यकुशल बनाने के बारे में बात करते हैं।

बर्कहोल्ड का अनुमान है कि यदि हिमशैल से पानी का दोहन सफल हो जाता है, तो पानी के प्यासे बड़े-बड़े उद्यमी अपनी मुनाफा-कमाऊ सोच के साथ यहां आएंगे। हिमशैल के दोहन या उपयोग को लेकर नियम-कानून बहुत कम है: कुछ राष्ट्रीय कानून हिमशैल के उपयोग पर बात करते हैं, लेकिन ऐसा कोई अंतर्राष्ट्रीय नियम या समझौता नहीं है जो यह स्पष्ट करता हो कि कौन मीठे पानी के इस स्रोत का किस तरह इस्तेमाल कर सकता है या बेच सकता है।

यदि इनका निष्पक्ष रूप से उपयोग किया जाना है, तो हमें यह तय करना होगा कि न्यायसंगत तरीके से हिमशैलों का उपयोग कौन, कैसे और कितना कर सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-023-00510-6/d41586-023-00510-6_24031116.jpg?as=webp

पुरातात्विक अपराध विज्ञान

गभग 5000 साल पहले स्पेन के टैरागोना की एक गुफा में किसी ने चुपके से एक वृद्ध व्यक्ति के सिर पर पीछे से एक भोथरे हथियार से वार किया था, संभवतः उसकी मृत्यु वहीं हो गई थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में ऐसे कई हमले दर्ज हैं, फिर भी शोधकर्ताओं को यह पता करने में मशक्कत करनी पड़ती है कि वास्तव में क्या हुआ था। अब एक नए अध्ययन की बदौलत शोधकर्ता यह सब जानने के बहुत करीब पहुंच गए हैं।

नवीन अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनेक नकली खोपड़ियां पर अलग-अलग हथियारों से वार किया और उनका अवलोकन किया। शुरुआत उन्होंने पुराने समय के दो औज़ारों, कुल्हाड़ी और बसूला, से की। बसूला हथौड़ा और कुल्हाड़ी का मिला-जुला सा औज़ार है। दोनों नवपाषाण युग (10,000 से 4500 ईसा पूर्व तक) के लोकप्रिय औज़ार थे, इसी समय मानव संपर्क बढ़ा था और हिंसा भी। शोधकर्ताओं ने पॉलीयुरेथेन और रबर ‘त्वचा’ से कृत्रिम खोपड़ी बनाई और मस्तिष्क के नरम ऊतक के एहसास के लिए उसमें जिलेटिन से भर दिया। फिर, उन पर जानलेवा वार करने के काम को अंजाम दिया!

जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित इस रिपोर्ट के खूनी परिणाम दर्शाते हैं कि दोनों हथियारों ने अलग-अलग तरह के फ्रैक्चर पैटर्न दिए। उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी के वार ने बसूले की तुलना में अधिक सममित, अंडाकार फ्रैक्चर बनाया। फ्रैक्चर ने हमलावर और पीड़ित के बीच डील-डौल के अंतर के भी संकेत दिए; उदाहरण के लिए ‘मस्तिष्क’ तक भेदने वाला वार संकेत देता है कि हमलावर कद में मृतक से ऊंचा था। तो इससे लगता है कि वैज्ञानिकों ने इस प्राचीन स्पेनिश व्यक्ति की मृत्यु के रहस्य को सुलझा लिया है: ऐसा लगता है कि उसे किसी बसूले से मारा गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.news18.com/ibnlive/uploads/2023/02/news18-17-10-16768852783×2.png?im=Resize,width=360,aspect=fit,type=normal?im=Resize,width=320,aspect=fit,type=normal

शोधपत्र में जालसाज़ी, फिर भी वापसी से इन्कार

प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।

डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।

उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।

जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।

ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।

इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।

बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)

प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।

इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”

सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।

जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।

डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।

समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adh1493/full/_20230210_on_fish.jpg

शरीर की सारी वसा एक-सी नहीं होती

मारे शरीर में वसा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ शरीर के विकास के लिए भी आवश्यक हैं। लेकिन शरीर में वसा की अतिरिक्त मात्रा से स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है और उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग जैसी बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। भारत में औसतन 40 प्रतिशत लोग मोटापे की समस्या से परेशान हैं। इससे निपटने के लिए सबसे अच्छा सुझाव तो नियमित रूप से व्यायाम और शारीरिक परिश्रम करना है लेकिन ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। इस विषय में कई तरह के शोध किए गए हैं लेकिन अभी तक कोई ऐसा नुस्खा नहीं मिला जिससे आसानी से शरीर की वसा को नियंत्रित किया जा सके।

हाल के वर्षों में एक अंतर्राष्ट्रीय शोध दल ने शरीर में उपस्थित अत्यधिक वसा से निपटने का तरीका खोज निकाला है। गौरतलब है कि हमारे शरीर में मुख्य रूप से दो प्रकार की वसा होती है: ब्राउन फैट और व्हाइट फैट। ब्राउन फैट चयापचय, मोटापे और मधुमेह को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और दीर्घायु को संभव बनाती है। दूसरी ओर, व्हाइट फैट चयापचय की दृष्टि से अकार्यशील होता है। इसकी ऊर्जा का अधिक उपयोग नहीं किया जाता है, और यह शरीर में जमा होता रहता है और कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनता है।

तो यह एक महत्वपूर्ण सवाल रहा है कि शरीर में ब्राउन फैट को कैसे बढ़ाया व सक्रिय किया जाए। साथ ही यह भी एक मुद्दा रहा है कि क्या व्हाइट फैट को ब्राउन में तबदील करना संभव है।

क्यूबैक स्थित शेरब्रुक युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में शरीर में उपस्थित ब्राउन फैट को सक्रिय करने का प्रयास किया गया है। वास्तव में ब्राउन फैट ठंड या कुछ रासायनिक संकेतों के प्रत्युत्तर में सक्रिय होकर शरीर में गर्मी उत्पन्न करता है।

मनुष्यों के शरीर में ब्राउन फैट की मात्रा काफी कम होती है। वैज्ञानिकों का प्रयास रहा है कि किसी अन्य तरीके से ब्राउन फैट को सक्रिय किया जा सके या व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित किया जा सके ताकि चयापचय में सुधार हो।

ब्राउन फैट नवजात शिशुओं की गर्दन और कंधों में पाया जाता है। यह काफी मात्रा में कैलोरी जलाता है और शरीर को गर्म रखने का काम करता है। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह कम होने लगता है और 6 वर्ष की आयु तक यह कुल फैट के 5 प्रतिशत से भी कम हो जाता है। इसके बाद हमारे शरीर में केवल निष्क्रिय व्हाइट फैट बनता है।

इस व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में बदलने और स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया। उन्होंने व्हाइट फैट की कोशिकाओं को लेकर उन्हें बहुसक्षम (प्लूरिपोटेंट) स्थिति में परिवर्तित किया और फिर कुछ एपीजेनेटिक स्विच के साथ छेड़छाड़ की तो वे ब्राउन फैट कोशिकाओं में परिवर्तित हो गई।

इसके बाद उन्होंने ब्राउन फैट कोशिकाओं को कल्चर किया और एक अन्य जीन को सक्रिय करके कोशिका की सतह पर ऐसे प्रोटीन की संरचना को परिवर्तित कर दिया जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। ऐसा करने से ब्राउन फैट को भेड़ों में इंजेक्ट करने पर उनके शरीर ने इसे अस्वीकार नहीं किया।

इस ब्राउन फैट को एक मोटी भेड़ में डाला गया। जैसी कि उम्मीद थी अधिक मात्रा में ब्राउन फैट वाली भेड़ दुबली हो गई और उसमें चयापचय सिंड्रोम तथा मधुमेह भी खत्म हो गया।

इस संदर्भ में, डॉ. शिन्या यामानाका द्वारा वयस्क कोशिकाओं को उनकी मूल भ्रूण अवस्था में लाने का काम महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके लिए उन्होंने चार प्रकार के जीन को सक्रिय किया था जिन्हें यामानाका कारक कहा जाता है। ये कारक एक तरह से स्विच का काम करते हैं। भ्रूणीय अवस्था में आने के बाद ये कोशिकाएं ब्राउन फैट, व्हाइट फैट, हृदय. लीवर या गुर्दे वगैरह की कोशिकाएं बनाने में सक्षम हो जाती हैं।

ब्राउन फैट को उपयोग करने में एक बड़ी समस्या रही है कि ब्राउन फैट द्वारा किए जाने वाले कार्यों को व्हाइट फैट में प्रोग्राम किया जाए। यह अब संभव हो गया है। डेलावेयर स्थित एक समूह ने एक मान्य उपचार के माध्यम से कुछ महिलाओं में निष्क्रिय ब्राउन फैट को सक्रिय किया तथा व्हाइट फैट को ब्राउन में भी परिवर्तित किया। इसकी मदद से व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित करने की तकनीकें विकसित की जा सकेंगी। यह ब्राउन फैट आपके वज़न को कम करने के साथ मधुमेह, हृदय रोग, कैंसर, अस्थि रोग और डिमेंशिया के जोखिम को भी कम करेगा।

यह तकनीक जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। गौरतलब है कि 1974 से मधुमेह, अस्थिरोग और कैंसर जैसे बीमारियों के लिए व्हाइट फैट का बढ़ता स्तर सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा थकान और ताकत की कमी जैसे बुढ़ापे के लक्षणों के पीछे का कारण भी शरीर की अतिरिक्त वसा है। वसा के बढ़ने से जीवन प्रत्याशा में भी कमी आई है। यदि वैज्ञानिक मनुष्यों में व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित करने का रास्ता खोज निकालते हैं तो इससे कई बीमारियों के जोखिम में कमी आ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.springernature.com/lw685/springer-static/image/chp%3A10.1007%2F164_2018_118/MediaObjects/441472_1_En_118_Fig3_HTML.png

धरती को ठंडा रखने के लिए धूल का शामियाना

कुछ खगोल भौतिकविदों ने प्लॉस क्लाइमेट में पृथ्वी को ठंडा रखने के लिए सुझाव दिया है कि चंद्रमा से धूल का गुबार बिखेरा जाए ताकि सूर्य के प्रकाश को कुछ हद तक पृथ्वी तक पहुंचने से रोक जा सके।

शोधकर्ताओं की टीम ने एक ऐसा मॉडल तैयार किया है जिसमें अंतरिक्ष में बिखेरी गई धूल से पृथ्वी तक पहुंचने वाली धूप के प्रभाव को 1 से 2 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। टीम के मुताबिक इसका सबसे सस्ता और प्रभावी तरीका चंद्रमा से धूल के गुबार प्रक्षेपित करना है जो एक शामियाना सा बना देगी। इस विचार को कार्यान्वित करने के लिए जटिल इंजीनियरिंग की आवश्यकता होगी।

वैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की और भी रणनीतियां हैं जिनको निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है लेकिन कई शोधकर्ता इस विचार को एक बैक-अप के रूप में देखते हैं। कुछ जलवायु वैज्ञानिक ऐसे विचारों को वास्तविक समाधान से भटकाने वाला मानते हैं।  

सूर्य के प्रकाश को रोकने के लिए किसी पर्दे के उपयोग का प्रस्ताव पहली बार नहीं आया है। लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के जेम्स अर्ली ने वर्ष 1989 में सूर्य और पृथ्वी के बीच 2000 किलोमीटर चौड़ी कांच की ढाल स्थापित करने का और 2006 में खगोलशास्त्री रॉजर एंजेल ने धूप को रोकने के लिए खरबों छोटे अंतरिक्ष यानों से छाते जैसी ढाल तैयार करने का विचार रखा था। इसके अलावा पिछले वर्ष एमआईटी शोधकर्ताओं के समूह ने बुलबुलों का बेड़ा तैनात करने का विचार रखा था।

लेकिन इन सभी विचारों से जुड़े असंख्य मुद्दे हैं। जैसे सामग्री की आवश्यकता एवं अंतरिक्ष में खतरनाक और अपरिवर्तनीय निर्माण। उदाहरण के लिए  सूर्य की रोशनी के प्रभाव को कम करने के लिए 10 अरब किलोग्राम से अधिक धूल की आवश्यकता होगी। अलबत्ता, नए प्रस्ताव के प्रवर्तक अंतरिक्ष में धूल फैलाकर सूर्य के प्रकाश को रोकने के विचार को काफी प्रभावी मानते हैं। टीम के मॉडल के मुताबिक चंद्रमा की धूल इसके लिए सबसे उपयुक्त है। इसमें सबसे बड़ी समस्या 10 अरब कि.ग्रा. धूल को एकत्रित करना है जिसको बार-बार फैलाना होगा। इस सामग्री को सही स्थान पर पहुंचाना भी होगा। टीम ने धूल को प्रक्षेपित करने के विभिन्न तरीकों को कंप्यूटर पर आज़माया है।       

वर्तमान सौर इंजीनियरिंग तकनीक से हटकर कई वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अन्य तरीकों का भी सुझाव दिया है। एक विचार समताप मंडल में गैस और एयरोसोल भरने का है। ऐसा करने से अंतरिक्ष में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादल तैयार किए जा सकते हैं। लेकिन इस तकनीक को विकसित करने में अभी समय लगेगा और ज़ाहिर है कि इसको अपनाने में कई चुनौतियां भी होंगी। इसमें एक बड़ी समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सहमति बनाना होगी जिसको सभी राष्ट्र, वैज्ञानिक समुदाय और संगठन स्वीकार करें। इस बीच यह विचार करना आवश्यक लगता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के पारंपरिक उपायों पर गंभीरता से अमल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://wp-assets.futurism.com/2023/02/scientists-plan-mount-cannons-moon-fight-climate-change.jpg
https://img.huffingtonpost.com/asset/5baeb1eb240000310054ff05.jpeg?ops=scalefit_720_noupscale

डोडो की वापसी के प्रयास

त्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार के चलते मॉरीशस द्वीप पर पाए जाने वाले डोडो पक्षी पूरी तरह विलुप्त हो गए थे। अब, कोलोसल बायोसाइंस नामक बायोटेक कंपनी ने डोडो पक्षी को वापस अस्तित्व में ले आने की महत्वाकांक्षी घोषणा की है। इस काम के लिए उन्हें 22.5 करोड़ डॉलर की धनराशि मिली है। कोलोसल बायोसाइंस की यह योजना जीनोम संपादन तकनीक, स्टेम-कोशिका जैविकी और पशुपालन की तकनीकों में परिष्कार पर निर्भर करती है।

लेकिन इसमें कितनी सफलता हासिल होगी यह निश्चित नहीं है और कई वैज्ञानिकों को लगता है कि निकट भविष्य में तो यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

डोडो की महत्वाकांक्षी वापसी का सफर उसके निकटतम जीवित सम्बंधी, चमकीले पंखों वाले निकोबार कबूतर (कैलोएनस निकोबारिका) से शुरू होगा। पहले निकोबार कबूतर से उनकी विशिष्ट आद्य जनन कोशिका यानी प्रायमोर्डियल जर्म सेल (PGC) को अलग किया जाएगा और उन्हें प्रयोगशाला में संवर्धित किया जाएगा। PGC वे अविभेदित स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो शुक्राणु और अंडाणु बनाने का काम करती हैं। फिर, CRISPR जैसी जीन संपादन तकनीकों की मदद से PGC में डीएनए अनुक्रम को संपादित किया जाएगा और इसे डोडो के डीएनए अनुक्रम की तरह बना लिया जाएगा। इन जीन-संपादित जनन कोशिकाओं को फिर एक सरोगेट पक्षी प्रजाति के भ्रूण में डाला जाएगा।

इससे ऐसा शिमेरिक (मिश्र) जीव बनने की उम्मीद है जो डोडो के समान अंडाणु व शुक्राणु बनाएगा। और इन अंडाणुओं और शुक्राणुओं के निषेचन से संभवत: डोडो (रैफस क्यूकुलैटस) जैसा कुछ पैदा हो जाएगा।

लेकिन यह प्रक्रिया जितनी सहज दिखती है वास्तव में उतनी है नहीं। सबसे पहले तो शोधकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियों का पता लगाना होगा जिसमें निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाएं प्रयोगशाला में अच्छी तरह पनप सकें। हालांकि चूज़ों के साथ इसी तरह का काम किया जा चुका है लेकिन अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के लिए उपयुक्त परिस्थितियां पहचानने में समय लगेगा।

इसके बाद एक बड़ी चुनौती होगी निकोबार कबूतरों और डोडो के डीएनए के बीच अंतरों को पहचानना। डोडो और निकोबार कबूतर के साझा पूर्वज लगभग 3 करोड़ से 5 करोड़ साल पहले पाए जाते थे। इन दोनों पक्षियों के जीनोम की तुलना करके उन अधिकांश डीएनए परिवर्तनों की पहचान की जा सकती है जिन्होंने उनके बीच अंतर पैदा किया था। डोडो परियोजना की सलाहकार बेथ शेपिरो की टीम ने डोडो के जीनोम का अनुक्रमण कर लिया है, लेकिन अभी ये परिणाम प्रकाशित नहीं हुए हैं।

डीएनए अनुक्रम में सटीक अंतर पता करने के लिए डोडो का उच्च गुणवत्ता का जीनोम उपलब्ध होना महत्वपूर्ण होगा। दरअसल प्राचीन जीवों के जीनोम छिन्न-भिन्न हालत में मिलते हैं और इनका विश्लेषण करके डीएनए के छोटे-छोटे खंडों का अनुक्रमण किया जाता है और फिर उन्हें एक साथ जोड़ कर पूरा जीनोम तैयार किया जाता है। ज़ाहिर है, इस तरह तैयार जीनोम की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं होती और इनमें कई कमियां और त्रुटियां रह जाती हैं।

इसलिए दोनों पक्षियों के बीच डीएनए के हरेक अंतर का पता लगाना संभव नहीं लगता। पूर्व में किए गए रैटस मैक्लेरी और रैटस नॉर्वेजिकस नामक दो चूहा प्रजातियों के जीनोम की तुलना के परिणामों के आधार पर लगता है कि डोडो जीनोम में गैप (अधूरी जानकारी) उन डीएनए क्षेत्रों में अधिक मिलेगी जिनमें डोडो और निकोबर कबूतर के अलग होने के बाद सबसे अधिक परिवर्तन हुए थे।

अब यदि शोधकर्ता जीनोम में हर बारीक अंतर पता भी कर लेते हैं तो निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाओं में ऐसे हज़ारों परिवर्तनों शामिल करना आसान काम नहीं होगा। बटेर के जीनोम में सिर्फ एक आनुवंशिक परिवर्तन करने में शोधकर्ताओं को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

एक सुझाव है कि डीएनए परिवर्तन सिर्फ उन खंडों तक सीमित रखा जाए जो प्रोटीन का निर्माण करवाते हैं। इससे ज़रूरी संपादनों की संख्या थोड़ी कम की जा सकती है।

एक और बड़ी समस्या है इतना बड़ा पक्षी, जैसे एमू (ड्रोमाईस नोवेहोलैंडिया), खोजना जो डोडो जैसे अंडे को संभाल सके। डोडो के अंडे निकोबार कबूतर के अंडे से बहुत बड़े होते हैं। इसलिए निकोबार के अंडों में डोडो की वृद्धि नहीं की जा सकती। मुर्गियों के भ्रूण अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के प्रति काफी ग्रहणशील होते हैं। पूर्व में शिमेरिक मुर्गियां तैयार की गई हैं जो बटेर के शुक्राणु पैदा कर सकती हैं, लेकिन अंडाणु बनाने में अब तक सफलता नहीं मिली है। इस लिहाज़ से लगता है कि जनन कोशिकाओं को एक पक्षी से दूसरे में स्थानांतरित करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा, खास तौर से तब जब इन जनन कोशिकाओं में जीन संपादन के ज़रिए व्यापक परिवर्तन कर दिए गए हों।

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इतने प्रयास क्या वास्तविक डोडो जैसा कुछ दे पाएंगे? बहरहाल, कोलोसल बायोसाइंस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इन बाधाओं को स्वीकार करते हैं, और कहते हैं कि डोडो बने या न बने लेकिन इस काम से अन्य पक्षियों के संरक्षण के प्रयासों में मदद मिलेगी। ये प्रयास पक्षी संरक्षण के लिए कई नई प्रौद्योगिकियां देंगे। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि येन केन प्रकारेण डोडो बन भी जाए तो डोडो के शिकारी तो आज भी मौजूद हैं। तो खतरा तो मंडराएगा ही। इसलिए यदि इतना पैसा उपलब्ध है तो उसे अन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के प्रयास में लगाया जाना बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2023/02/Bringing-back-the-dodo-20230201.jpg

गर्माती दुनिया में ठंडक का इंतज़ाम

रती का तापमान बढ़ने के साथ कई जीवों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मधुमक्खियां भी इनमें शुमार हैं। एक ओर तो कीटनाशकों का बेइंतहा इस्तेमाल, प्राकृतवासों का विनाश, प्रकाश प्रदूषण तथा परजीवियों ने मिलकर वैसे ही उनकी आबादी को प्रतिकूल प्रभावित किया है और साथ में तापमान बढ़ने की वजह से मुश्किलें बढ़ी हैं। ज़ाहिर है मधुमक्खियों की मुश्किलें उन तक सीमित नहीं रहेंगी। इनमें से कुछ हमारी फसलों तथा आर्थिक महत्व के अन्य पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बॉयोलॉजी की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत एक अध्ययन में बताया गया है कि तापमान में वृद्धि के चलते कुछ मधुमक्खियां जल्दी-जल्दी मगर उथली सांसें लेने लगी हैं। अध्ययन भौरों की कुछ प्रजातियों पर किया गया था।

वैसे तो पहले के अध्ययनों में पता चला था कि यूएस की भौरों की लगभग 45 प्रजातियां मुश्किलों से घिरी हैं लेकिन लगता है कि ज़्यादा दिक्कतें वे प्रजातियां भुगत रही हैं जिनकी जीभ लंबी होती है। आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय के एरिक रिडेल और उनके साथी यही समझने का प्रयास कर रहे थे कि क्यों जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा असर कुछ ही प्रजातियों पर हो रहा है। उन्होंने बॉम्बस ऑरिकोमस प्रजाति की मधुमक्खियों पर प्रयोग किए। इस प्रजाति की मधुमक्खियों की आबादी सबसे तेज़ी से घट रही है। तुलना के लिए बॉम्बस इम्पेशिएन्स प्रजाति को लिया गया था। शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों की रानी मधुमक्खियों को तब एकत्र कर लिया जब वे अपनी शीतनिद्रा से निकलकर नए छत्तों का निर्माण करने वाली थीं। इन्हें प्रयोगशाला में प्राकृतिक आवास जैसी परिस्थितियों में रखा गया।

फिर तापमान के प्रति रानियों की प्रतिक्रिया को देखने के लिए उन्हें कांच की नलियों में रखकर 18 डिग्री और 30 डिग्री सेल्सियस पर परखा गया। इस तरह से रिडेल और उनके साथियों ने यह जांच की कि बढ़ते तापमान का इन मधुमक्खियों की शरीर क्रिया पर क्या असर होगा।

18 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तो दोनों ही प्रजातियों की रानियों ने प्रति घंटे लगभग एक बार सांस ली। लेकिन जब तापमान बढ़ाया गया तो दोनों में श्वसन में परिवर्तन देखा गया। जहां बॉम्बस इम्पेशिएन्स हर 10 मिनट में एक बार सांस लेने लेगी वहीं बॉम्बस ऑरिकोमस में सांस की गति 10 गुना अधिक तेज़ हो गई। श्वसन दर बढ़ने के साथ उनके शरीर से पानी की हानि भी अधिक हुई।

इस परिस्थिति में 3 दिन रखे जाने पर 25 प्रतिशत बॉम्बस इम्पेशिएन्स जबकि 50 प्रतिशत बॉम्बस ऑरिकोमस मारी गईं। कुछ प्रजातियों की बढ़ी हुई श्वसन दर से कुछ हद तक इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों कुछ मधुमक्खियों की आबादी तेज़ी से घट रही है और जलवायु परिवर्तन के साथ इसमें और भी तेज़ी आ सकती है।

अन्य प्रजातियों पर तापमान का असर परखने के लिए शोधकर्ता यह अध्ययन सात अन्य प्रजातियों पर भी करने को तैयार हैं। मानना है कि घटती आबादी वाली सारी मधुमक्खियां तापमान बढ़ने पर ज़्यादा रफ्तार से श्वसन करती होंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cff2.earth.com/uploads/2020/04/28140342/shutterstock_440779777-1024×638.jpg

यूएसए में बंदूक हिंसा और बंदूक नियंत्रण नीतियां

यूएसए में बंदूक सम्बंधी हिंसा का स्तर काफी अधिक है। वहां बंदूक नियंत्रण की नीतियों के कई अध्ययन भी हुए हैं। हाल ही में ऐसे 150 अध्ययनों के विश्लेषण का निष्कर्ष है कि बच्चों को बंदूक जैसे आग्नेयास्त्रों से दूर रखना बंदूकी हिंसा की रोकथाम में काफी कारगर है जबकि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए छिपाकर हथियार रखने की अनुमति देना हिंसा को बढ़ावा देता है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यूएस में निजी मिल्कियत में बंदूकों की संख्या 26.5 करोड़ से 39.3 करोड़ के बीच है। और हर साल 45,000 से ज़्यादा अमरीकी लोग बंदूक द्वारा जानबूझकर या गैर-इरादतन हिंसा के कारण जान गंवाते हैं। इनमें से लगभग आधे मामले खुदकुशी के होते हैं। इस हिंसा के पैटर्न को समझने के लिए 18 अलग-अलग क्षेत्रों की बंदूक नियंत्रण नीति पर किए गए 152 अध्ययनों की समीक्षा की गई और विभिन्न नीतियों के परिणामों को देखा गया – जैसे घाव तथा मृत्यु, मास शूटिंग, और बंदूक का सुरक्षा के लिए उपयोग वगैरह।

यूएस के कुछ प्रांतों में नीति है – स्टैण्ड-योर-ग्राउण्ड। इसका मतलब होता है कि यदि किसी को पर्याप्त यकीन है कि उसे कतिपय अपराध के खिलाफ स्वयं की रक्षा करना ज़रूरी है, तो वह जानलेवा शक्ति का उपयोग कर सकता है। अध्ययन में पाया गया कि यह नीति बंदूकी हत्याओं की उच्च दर से मेल खाती है। छिपाकर आग्नेयास्त्र रखने की अनुमति देने वाले कानून भी बंदूक-सम्बंधी हिंसा में वृद्धि से जुड़े पाए गए।

ये निष्कर्ष 2020 की रैण्ड कॉर्पोरेशन की रिपोर्ट से काफी अलग हैं जिसका निष्कर्ष था कि छिपाकर रखे जाने वाले हथियार सम्बंधी कानूनों और मौतों के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है। रैण्ड के व्यवहार-वैज्ञानिक एण्ड्र्यू मोरेल का मत है कि यह निष्कर्ष कानून व नीति निर्माताओं के लिए चुनौती भी है क्योंकि जिन प्रांतों में प्रतिबंधात्मक कानूनों को अदालतों में असंवैधानिक करार दिया गया था वहां आग्नेयास्त्र से होने वाली हत्याओं और कुल हत्याओं में वृद्धि होने की आशंका है। या ये प्रांत हथियार लेकर घूमने सम्बंधी इन समस्याओं का कोई और उपाय निकालेंगे। जैसे ये प्रांत कुछ बंदूक-मुक्त क्षेत्र घोषित कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं को इस बात के प्रमाण मिले हैं कि बच्चों की आग्नेयास्त्रों तक पहुंच रोकने वाले कानून – जिन्हें सेफ स्टोरेज कानून भी कहा जाता है – युवाओं में बंदूकों से होने वाली क्षति को कम करते हैं। इन कानूनों के तहत यह शर्त होती है कि बंदूकों को तालों में बंद करके, या गोलियां निकालकर, और गोलियों से अलग रखा जाए। ऐसे कानूनों से युवा लोगों में खुदकुशी व हत्याएं कम होती हैं।

यह निष्कर्ष खास तौर से युवाओं में खुदकुशी की घटनाएं रोकने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है क्योंकि खुदकुशी के अधिकांश मामलों में बंदूक का उपयोग देखा गया है। कारण यह बताया जाता है कि खुदकुशी करने का आवेग क्षणिक होता है और उस समय यदि बंदूक आसपास न हो तो बात टल सकती है। अन्यथा व्यक्ति को दूसरा मौका नहीं मिलता।

अलबत्ता, रिपोर्ट इस बारे में कोई निश्चयात्मक दावा नहीं करती कि मास शूटिंग और कानून का कोई सम्बंध है। लेकिन इस अध्ययन से एक बात साफ हुई है कि बंदूक की उपलब्धता और सुगमता का सम्बंध हिंसा से है। रैण्ड कॉर्पोरेशन इस हिंसा के अन्य पहलुओं पर भी अध्ययन करना चाहता है ताकि बंदूक संस्कृति पर लगाम लगाई जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg6097/abs/_20230110_0n_rand_gun_study_gun_safety.jpg

मस्तिष्क में मातृभाषा की खास हैसियत है

धिकांश लोग अपने जीवन में एक या दो भाषाएं सीख लेते हैं। लेकिन कई लोग 5 से अधिक भाषाएं बोल लेते हैं। ये लोग बहुभाषी या पॉलीग्लॉट कहलाते हैं। और जो 10 से अधिक भाषाएं बोलते हैं ऐसे दुर्लभ लोगों को हायपरपॉलीग्लॉट कहते हैं। वाशिंगटन डी. सी. में रहने वाले वॉग स्मिथ एक हायपरपॉलीग्लॉट हैं जो 24 भाषाएं बोल लेते हैं।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऐसे ही बहुभाषियों के मस्तिष्क में झांका और देखा कि उनके मस्तिष्क का भाषा-सम्बंधी क्षेत्र अलग-अलग भाषाओं के सुनने पर कैसी प्रतिक्रिया देता है। देखा गया कि परिचित भाषाओं ने अपरिचित भाषाओं की तुलना में सशक्त प्रतिक्रिया दी, लेकिन अपवाद के रूप में देखा गया कि मातृभाषा को सुनने पर मस्तिष्क में अपेक्षाकृत कम हलचल दिखी। इससे शोधकर्ताओं को लगता है कि वे भाषाएं मस्तिष्क में कुछ विशिष्ट स्थान रखती हैं जिन्हें हम बचपन में सीख लेते हैं।

दरअसल उम्दा भाषा कौशल वाले लोगों (पॉलीग्लॉट्स) के मस्तिष्क में क्या हो रहा होता है इसे समझने पर बहुत ही कम अध्ययन हुए हैं। इसका एक कारण यह भी है कि दुनिया भर में पॉलीग्लॉट्स की संख्या बहुत ही कम है; महज एक प्रतिशत। तो शोध के लिए प्रतिभागी मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पॉलीग्लॉट्स पर अध्ययन मनुष्यों के ‘भाषा तंत्र’ को समझने में मदद कर सकता है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के संज्ञान तंत्रिकाविज्ञानी ईव फेडोरेंको और उनका दल यह जानना चाहता था कि मस्तिष्क पांच से अधिक भाषाओं को कैसे प्रोसेस करता है। इसके लिए उन्होंने 25 पॉलीग्लॉट्स के मस्तिष्क का स्कैन किया, जिनमें से 16 हायपरपॉलीग्लॉट्स थे और एक प्रतिभागी तो ऐसा था जो 50 से अधिक भाषाएं बोल सकता था। मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क को चित्रित करने के लिए उन्होंने fMRI तकनीक का उपयोग किया, जो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को मापती है।

जब प्रतिभागी fMRI मशीन के अंदर थे तो उन्हें आठ अलग-अलग भाषाओं में 16-16 सेकंड लंबी रिकॉर्डिंग सुनाई गईं। हर रिकॉर्डिंग या तो बाइबल या फिर ऐलिसेज़ एडवेंचर्स इन वंडरलैंड के गद्यांश के क्रमश: 25 और 46 भाषाओं में अनुवाद की रिकॉर्डिंग थी। प्रतिभागियों के लिए रिकॉर्डिंग का चुनाव बेतरतीब तरीके से किया गया था। आठ भाषाओं की रिकॉर्डिंग में से एक उनकी मातृभाषा में थी, तीन उन भाषाओं में थीं जो उन्होंने अपेक्षाकृत देर से सीखी थीं, और चार अपरिचित भाषाओं में थीं। दो अपरिचित भाषाएं ऐसी थीं जो उनकी परिचित भाषा की निकट सम्बंधी थी जैसे इतालवी मातृभाषा के लोगों को स्पेनिश सुनाई गई। और अन्य दो अपरिचित भाषाएं उनकी परिचित भाषाओं से कोई सम्बंध नहीं रखती थीं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी भी भाषा के लिए मस्तिष्क में रक्त हमेशा एक-जैसे क्षेत्रों की ओर प्रवाहित हुआ। अर्थात सभी भाषाओं के लिए मस्तिष्क ने अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही बुनियादी नेटवर्क का उपयोग किया, जो एकभाषी व्यक्ति द्वारा ध्वनि को सुनकर उसे प्रोसेस करने में किया जाता है।

इसके अलावा, प्रतिभागी कितनी अच्छी तरह भाषा को जानते थे उस आधार पर मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क की गतिविधि में उतार-चढ़ाव आया। भाषा जितनी अधिक परिचित थी, प्रतिक्रिया उतनी ही अधिक सशक्त थी। मस्तिष्क की गतिविधि विशेष रूप से तब बढ़ गई जब प्रतिभागियों ने उन अपरिचित भाषाओं को सुना जो उनकी भली-भांति परिचित भाषा से मिलती-जुलती थीं। ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि मस्तिष्क ने भाषाओं की बीच समानता के आधार पर अर्थ समझने के लिए अतिरिक्त काम किया होगा।

एक अपवाद भी मिला: अपनी मातृभाषा सुनने पर प्रतिभागियों का भाषा नेटवर्क अन्य परिचित भाषाओं की तुलना में शांत दिखा; ऐसा तब भी दिखा जब प्रतिभागी अन्य परिचित भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखते थे। बायोआर्काइव्स नामक प्रीप्रिंट में शोधकर्ता बताते हैं कि इससे लगता है कि शुरुआती जीवन (बचपन) में सीखी गई भाषाओं को प्रोसेस करने में मस्तिष्क को कम मेहनत करनी पड़ती है।

यह देखा गया है कि किसी कार्य में महारत हासिल होने पर उसे करने में दिमाग को कम मशक्कत करनी पड़ती है। तो संभावना है कि भाषा के मामले में भी ऐसा हो। इस बात की भी संभावना दिखती है कि कम उम्र में सीखने पर संज्ञानात्मक दक्षता चरम तक पहुंच सकती है। चूंकि ये परिणाम विशुद्ध रूप से वर्णनात्मक हैं, इसलिए निष्कर्ष अभी भी अस्थायी हैं।

हालांकि कई पॉलीग्लॉट्स और हायपरपॉलीग्लॉट्स भाषा सीखने में किसी विशेष प्रतिभा के धनी होने से इन्कार करते हैं। लेकिन फिर भी शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि पॉलीग्लॉट्स कैसे इतनी भाषाएं सीख लेते हैं, जो अन्य लोगों को मुश्किल लगता है। क्या यह जन्मजात है, या सिर्फ दिलचस्पी या मौका मिलने की बात है। भाषा सीखने की क्रिया को समझने से स्ट्रोक या मस्तिष्क क्षति के बाद लोगों को फिर से भाषा सीखने में बेहतर मदद दी जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adh0055/abs/_20230202_on_polyglots.jpg

स्वस्थ भविष्य के लिए मोटा अनाज-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइंस न्यूज़ में एक प्रशिक्षु एना गिब्स ने 9 मई 2022 के अंक में लिखा था, “आप जलवायु परिवर्तन को मानें या न मानें, लेकिन यह भविष्य में हमारे खान-पान को बदल देगा।” मनुष्य जितनी कैलोरी का उपभोग करते हैं, उसमें से आधा हिस्सा मक्का, चावल और गेहूं से आता है। हम अपनी 80 फीसदी पोषण सम्बंधी ज़रूरतों के लिए 13 फसलों पर निर्भर हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली अनियमित वर्षा और चरम मौसम की वजह से इनका उत्पादन घटेगा। हमारी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सख्तजान प्रजातियों को विकसित करने की ज़रूरत है, और यही वजह है कि मोटे अनाज (मिलेट्स) महत्व प्राप्त कर रहे हैं।

मोटे अनाज गर्म क्षेत्रों में अनुपजाऊ मिट्टी में उगाए जाते हैं और छोटे दानों वाली भरपूर उपज देते हैं, जिनका उपयोग आटा बनाने में किया जाता है। मोटे अनाज के कुछ उदाहरण हैं बाजरा, ज्वार, रागी। कम उगाए जाने वाले कुछ मोटे अनाज हैं तिनई (कंगनी), समा या समई और सांवा, जिनका उपयोग ब्रेड, रस्क (टोस्ट) और बिस्किट बनाने में किया जाता है।

अग्रणी उत्पादक

मोटे अनाज 10,000 से अधिक वर्षों से एशिया और अफ्रीका के लोगों के मुख्य आहार रहे हैं। ये जलवायु को लेकर लचीले हैं; बहुत कम पानी और गर्म, शुष्क परिस्थिति में अच्छी तरह से पनपते हैं। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार भारत सालाना लगभग 1.2 करोड़ मीट्रिक टन मोटे अनाजों का उत्पादन करता है। HelgiLibrary  के अनुसार, इनके उत्पादन में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, इसके बाद चीन और नाइजर का स्थान है।

खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 2023 को मोटे अनाज का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, भारत के कृषि मंत्रालय ने मोटे अनाज के उपयोग पर केंद्रित योजनाओं और गतिविधियों की एक शृंखला तैयार की है, विशेषकर आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में। मंत्रालय पंजाब, केरल और तमिलनाडु में ‘सही खाओ मेलों’ के आयोजन की भी योजना बना रहा है। चेन्नई स्थित एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए बहुत सक्रिय रहा है।

यह सही है कि हममें से अधिकांश लोग गेहूं और चावल को मुख्य भोजन के रूप में खाते हैं, लेकिन ये मोटे अनाज के बराबर पौष्टिक नहीं होते हैं। इसलिए उन्हें ‘पोषक-अनाज’ नहीं कहा जाता है। मोटे अनाज में उल्लेखनीय मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी, और कई धात्विक आयन होते हैं जो चावल जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों में नहीं होते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि इन लाभों को प्राप्त करने के लिए मोटे अनाज हमारे दैनिक भोजन में शामिल किए जाएं।

मोटे अनाज का अर्थशास्त्र

बैंगलुरु स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान की प्रोफेसर और एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन की प्रमुख मधुरा स्वामिनाथन ने 31 जनवरी, 2023 को दी हिंदू में प्रकाशित अपने लेख में इस विषय के अर्थशास्त्र की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है। वे बताती हैं कि अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में वितरित किए जाने वाले चावल और गेहूं के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से की जगह मोटा अनाज दिया जाए, तो इससे मध्याह्न भोजन से स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य को बहुत लाभ होगा। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ाना और कृषि भूमि में गिरावट को पलटना संभव तो है लेकिन आसान नहीं होगा और इसके लिए बहुस्तरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। भारत सरकार, और कर्नाटक और ओडिशा राज्यों ने मोटा अनाज मिशन शुरू किया है, जो स्वागत योग्य कदम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://pristineorganics.com/wp-content/uploads/2019/06/03-1-1-1.jpg