1.5 डिग्री की तापमान वृद्धि की सीमा लांघी गई

र्ष 2024 में पृथ्वी का औसत तापमान (global average temperature) पहली बार उद्योग-पूर्व स्तर (1850-1900 के औसत) के मुकाबले 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच गया। यह जलवायु (climate change) में एक बड़े बदलाव को दर्शाता है और संकेत देता है कि अस्थायी रूप से ही सही लेकिन हम पेरिस समझौते (Paris Agreement) द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर रहने में असफल रहे हैं। हालांकि यह केवल एक वर्ष की बात है, फिर भी वैज्ञानिक चिंतित हैं कि वैश्विक तापमान (global warming)  पहले से अधिक तेज़ी से बढ़ सकता है।

गौरतलब है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य (1.5°C temperature goal) 2015 में लगभग 200 देशों द्वारा तय किया गया था, ताकि जलवायु परिवर्तन (climate change effects) के प्रभावों, जैसे कि गंभीर मौसमी घटनाओं, समुद्र स्तर में वृद्धि (sea level rise) और जैव विविधता की हानि को रोका जा सके। कई अंतर्राष्ट्रीय जलवायु संगठनों द्वारा एकत्रित डैटा के अनुसार, 2024 में वैश्विक औसत तापमान उद्योग-पूर्व समय से 1.55 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह न सिर्फ एक महत्वपूर्ण सीमा का उल्लंघन है, बल्कि वृद्धि की प्रवृत्ति को भी दर्शाता है।

वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि पिछले दो वर्षों में तापमान में हुई वृद्धि एक अस्थायी उतार-चढ़ाव (temporary fluctuations) है या जलवायु प्रणाली में किसी गंभीर प्रवृत्ति का संकेत। बहरहाल, इतना तो साफ है कि दुनिया तेज़ी से खतरनाक स्थिति की ओर बढ़ रही है। 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का पार होना तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता पर ज़ोर देता है।

जलवायु विशेषज्ञों (climate experts)  का मानना है कि तापमान वृद्धि को धीमा करने के लिए तुरंत कदम उठाना ज़रूरी है। सौर और पवन ऊर्जा (solar and wind energy) जैसे नवीकरणीय स्रोतों के विकास के बावजूद जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) से होने वाला उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है जो तापमान वृद्धि का मुख्य कारण है। हालांकि नवीकरणीय ऊर्जा का प्रसार हो रहा है, लेकिन पिछले वर्ष में कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) ने एक नया रिकॉर्ड बनाया है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस (UN Secretary-General António Guterres) के अनुसार एक वर्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का पार होना चिंता का विषय है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल करना अब असंभव हो गया है। उन्होंने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर नए प्रयासों (global climate action) की मांग की है और कहा है कि विश्व नेताओं को कदम उठाने होंगे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य दरअसल एक राजनीतिक मापदंड (political benchmark) है, न कि ऐसा बिंदु जहां जलवायु परिवर्तन बेकाबू हो जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, इसके प्रभाव (climate change impacts)  अधिक गंभीर और अपरिवर्तनीय होते जाएंगे। वर्तमान में पृथ्वी का तापमान औद्योगिक युग से पहले के स्तर से 1.3 डिग्री सेल्सियस अधिक है। यह सुनने में मामूली लग सकता है, लेकिन इसके असर नज़र आने लगे हैं; जैसे प्रचंड तूफान(severe storms), जंगल की भीषण आग(wildfires) और समुद्र का बढ़ता जल स्तर (rising sea levels) वगैरह। इसके अलावा, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases)  के कारण कैद अधिकांश गर्मी महासागरों, ज़मीन और बर्फ द्वारा सोख ली जाती है। इसके प्रभाव तब भी महसूस होते हैं जब तापमान धीरे-धीरे बढ़ता है।

इसके चलते, अधिक इन्तहाई मौसम(extreme weather conditions), पारिस्थितिकी तंत्र में क्षति (ecosystem damage) और समुद्र स्तर बढ़ने से विस्थापन जैसी समस्याएं झेलना पड़ सकती हैं, विशेष रूप से निचले द्वीपों और तटीय इलाकों के रहवासियों को। कहने का मतलब है कि तापमान में हर छोटा बदलाव भी मायने रखता है।

वैज्ञानिक अपनी ओर से, निरंतर तापमान वृद्धि पर लगाम कसने के प्रयास कर रहे हैं लेकिन समय तेज़ी से निकल रहा है। फिर भी, उम्मीद अभी बाकी है। समय की मांग है कि सरकारों और जनता (governments and citizens) दोनों की ओर से कार्रवाई की जाए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नींद में मस्तिष्क खुद की सफाई करता है

क्या आपने कभी सोचा है कि सोते समय आपके मस्तिष्क (brain) में क्या होता है? एक हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों (scientists) ने पाया है कि नींद के दौरान मस्तिष्क में ऐसी साफ-सफाई शुरू हो जाती है जो हमारे जागते समय एकत्रित हुए रासायनिक कचरे (chemical waste) को निकाल बाहर करती है।

गौरतलब है कि शरीर के अन्य हिस्सों से अवांछित पदार्थों को बाहर निकालने के लिए लसिका वाहिकाएं (lymphatic vessels) होती हैं लेकिन ये वाहिकाएं मस्तिष्क में नहीं होती हैं। 2012 में पाया गया था कि इस काम के लिए मस्तिष्क ‘ग्लिम्फेटिक सिस्टम’ (glymphatic system) पर निर्भर होता है – यह सिस्टम रक्त वाहिकाओं के आसपास छोटे-छोटे स्थानों से सेरेब्रोस्पाइनल तरल (cerebrospinal fluid) को बहाकर हानिकारक अणुओं को साफ करती है। गहरी (गैर-REM) (deep sleep)  नींद के दौरान, जब ऊतकों में नवीनीकरण की प्रक्रिया चलती है तब यह सफाई प्रक्रिया और तेज़ हो जाती है। वैज्ञानिक एक प्रभावी ग्लिम्फेटिक प्रवाह को बेहतर दिमागी स्वास्थ्य से जोड़ कर देखते हैं। अवलोकनों से यह बात भी सामने आई है कि इस प्रक्रिया में कोई रुकावट होने पर अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s) जैसी तंत्रिका-विघटन बीमारियां हो सकती हैं।

सेल पत्रिका (Cell journal) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि नॉरएपिनेफ्रिन, जो एड्रिनेलिन जैसा एक रसायन है, इस प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाता है। यह तंत्रिका-संप्रेषक अणु (neurotransmitter molecule) रक्त वाहिकाओं को सिकुड़ने और फैलने के लिए उकसाता है, जिससे पंपिंग क्रिया (pumping action) बनती है। 

जांच के लिए वैज्ञानिकों ने चूहों में इलेक्ट्रोड्स और फाइबर ऑप्टिक उपकरण (fiber optic tools)  लगाए ताकि वे नैसर्गिक नींद (natural sleep)  के दौरान मस्तिष्क की गतिविधि, रक्त प्रवाह और रसायनों के स्तर को ट्रैक कर सकें। उन्होंने देखा कि गहरी नींद के दौरान नॉरएपिनेफ्रिन का स्तर हर 50 सेकंड में चरम पर पहुंचता है। यह चरम स्तर रक्त वाहिकाओं के संकुचन के साथ मेल खाता है, जिससे सेरेब्रोस्पाइनल तरल मस्तिष्क में गहराई तक जाता है।

जब शोधकर्ताओं ने नॉरएपिनेफ्रिन के उतार-चढ़ाव को कृत्रिम रूप से बढ़ाया तो उन्होंने पाया कि इससे सेरेब्रोस्पाइनल तरल (flow of cerebrospinal fluid)  की गति भी बढ़ गई, जिससे मस्तिष्क की सफाई प्रणाली और बेहतर हुई।

अध्ययन में एक दिलचस्प बात पता लगी कि नींद की एक आम दवा ज़ोलपिडेम (या ऐम्बियन) इस सफाई प्रक्रिया को बाधित कर सकती है। चूहों पर किए गए परीक्षणों में यह देखा गया है कि ज़ोलपिडेम रक्त वाहिकाओं के लयबद्ध आकुंचन (rhythmic contraction) को कम करती है, जिससे सेरेब्रोस्पाइनल तरल की गति में रुकावट (disruption in fluid flow) आती है। शोधकर्ताओं का मत है कि  मस्तिष्क स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों को समझने के लिए मानव परीक्षणों की आवश्यकता पर है।  

इस खोज से पता चलता है कि मस्तिष्क स्वास्थ्य (sleep health) बनाए रखने में नींद कितनी महत्वपूर्ण है और नींद की दवाएं मस्तिष्क की सफाई प्रक्रिया (brain cleaning process)  को कैसे प्रभावित करती हैं। उम्मीद है इन प्रक्रियाओं को समझकर नींद सम्बंधी विकारों के लिए बेहतर इलाज और तंत्रिका-विघटन बीमारियों (neurodegenerative diseases)  के लिए बेहतर रोकथाम रणनीतियां (prevention strategies) विकसित की जा सकेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रैटलस्नेक एक-दूसरे के शल्क से पानी पीते हैं

वैज्ञानिक यह तो जानते हैं कि सूखे इलाकों (arid regions) में प्यास बुझाने के लिए रैटलस्नेक (rattlesnake) अक्सर बारिश होने पर अपने शरीर की कुंडली बनाते हैं और अपने शल्कों पर इकट्ठा हुई पानी (की बूंदें) पी लेते हैं। अब, करंट ज़ुऑलॉजी (Current Zoology) में प्रकाशित एक नया अध्ययन बताता है कि न सिर्फ वे अपने शरीर पर टपके पानी से प्यास बुझाते हैं बल्कि आसपास मौजूद अपने साथियों की त्वचा से भी पानी पीते हैं।

ये नतीजे शोधकर्ताओं ने कोलेराडो (Colorado) में सौ प्रेयरी रैटलस्नेक (Crotalus viridis) के अध्ययन के आधार पर दिए हैं। इस इलाके में वसंत से लेकर पतझड़ की शुरुआत तक हर महीने में केवल 2 मिलीमीटर बारिश होती है, इसी दौरान ये सरीसृप (reptiles) सबसे अधिक सक्रिय होते हैं। अपने अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने बगीचे में पानी देने वाले स्प्रेयर की मदद से ऐसी ही बारिश की स्थिति बनाई और इस बारिश में रेटलस्नैक की प्रतिक्रिया रिकॉर्ड की। पाया गया कि प्यास के मारे लगभग आधे रैटलस्नैक ने नकली बारिश (simulated rainfall) का पानी पिया।

देखा गया कि उन्होंने तीन अनूठे तरीकों (unique methods) से पानी पिया। कुछ सांप एक जगह इकट्ठे हुए और उन्होंने एक-दूसरे के शरीर पर एकत्रित पानी पिया(water collected on each other’s bodies); इनमें कुछ सांपों ने बारी-बारी से एक-दूसरे के सिर पर जमा पानी पिया और गर्भवती मादाओं (pregnant females) के एक समूह ने एक-दूसरे के तर शरीर से पानी की बूंदें पीं। कुछ सांपों ने अपनी शरीर की टेढ़े कटोरे (bowl-like coil) जैसी कुंडली बनाई, इस कुंडली का झुकाव उनके सिर की ओर था जिससे उनके कुंडलित शरीर में जमा पानी बहकर उनके मुंह तक आ रहा था। कुछ सांपों ने अपने मुंह तक बहकर आता पानी पीया, हालांकि यह स्पष्ट नहीं था कि उन्होंने कितनी बूंदें गुटकीं। शोधकर्ताओं ने देखा कि सांपों ने पानी पीने के लिए जिस तरीके का सर्वाधिक इस्तेमाल किया था वह था अपने आसपास के साथियों के शरीर से पानी पीना। आगे के अध्ययनों (future studies) में शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या ये तरीके वास्तव में एक-दूसरे की मदद (mutual aid) के तरीके हैं, खासकर गर्भवती मादाओं की मदद के लिए। (स्रोत फीचर्स)

रैटल स्नैक का वीडियों यहां देखें – https://www.science.org/content/article/watch-thirsty-rattlesnakes-drink-scales-other-snakes?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5471795

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कार्बन-कार्बन एकल इलेक्ट्रॉन बंध देखा गया

अंजु दास मानिकपुरी

मारे आसपास की चीज़ें परमाणुओं से बनी होती हैं, लेकिन ये परमाणु अलग-अलग नहीं तैरते रहते हैं। वे आम तौर पर दूसरे परमाणुओं (Atoms) (या परमाणुओं के समूहों) के साथ जुड़ जाया करते हैं। उदाहरण के लिए, परमाणु मज़बूत बंधनों से जुड़े हो सकते हैं और अणुओं (Molecules) या क्रिस्टल (Crystals) में व्यवस्थित हो सकते हैं या वे दूसरे परमाणुओं के साथ, जिनसे वे टकराते हैं, अस्थायी, कमज़ोर बंधन बना सकते हैं । अणुओं को एक साथ रखने वाले मज़बूत बंधन और अस्थायी कनेक्शन (Temporary Connections) बनाने वाले कमज़ोर बंधन दोनों ही हमारे जीवन के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं।

आखिर रासायनिक बंधन (Chemical Bonding)  क्यों बनते हैं? दरअसल परमाणु सबसे स्थिर (सबसे कम ऊर्जा) अवस्था तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। कई परमाणु इसलिए स्थिर होते हैं क्योंकि उनके इलेक्ट्रॉन विन्यास (Electron Configuration) में सबसे बाहरी खोल इलेक्ट्रॉनों से परिपूर्ण होते हैं (अधिकांश परमाणुओं के संदर्भ में यह स्थिति वह होती है जब सबसे बाहरी खोल में 8 इलेक्ट्रॉन हों, या कुछ मामलों में 2 इलेक्ट्रॉन से भी काम चल जाता है।) यदि परमाणुओं में यह व्यवस्था नहीं है, तो उनमें अन्य परमाणुओं से बंध बनाकर यह स्थिति प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है। ऐसा अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन (Electrons) प्राप्त करके, गंवाकर या साझा करके किया जाता है। परमाणुओं के बीच बंध मूलत: उनके बीच उपस्थित इलेक्ट्रॉन के प्रति नाभिकों के आकर्षण का परिणाम होते हैं। इस लिहाज़ से बंध तीन प्रकार के हो सकते हैं।

आयनिक बंधन (Ionic Bonding) में परमाणु इलेक्ट्रान को पूरी तरह से प्राप्त करके या गंवाकर आयन बनता है। जब इलेक्ट्रॉन प्राप्त किया जाता है तो ऋणायन (Anion)  बनता है और इलेक्ट्रॉन गंवाने के परिणामस्वरूप धनायन (Cation)  बनता है। आयनिक बंधन इन्हीं विपरीत आवेशों वाले आयनों के बीच आकर्षण होता है। उदाहरण के लिए, धन-आवेशित सोडियम आयन और ऋण-आवेशित क्लोराइड आयन एक दूसरे को आकर्षित करके सोडियम क्लोराइड (Sodium Chloride)  या टेबल सॉल्ट (Table Salt) बनाते हैं।

सहसंयोजी बंध (Covalent Bonding) में परमाणु इलेक्ट्रॉनों को पूरी तरह से प्राप्त करने या खोने की बजाय साझा करते हैं। इसलिए अणुओं में सहसंयोजी बंधों की संख्या इस बात पर निर्भर करेगी कि किन्हीं दो परमाणुओं के बीच कितने इलेक्ट्रॉन साझा किए जा रहे हैं। यदि वे तीन-तीन इलेक्ट्रॉन साझा करते हैं तो वह तिहरा (ट्रिपल) बंध बनेगा, जैसे कि नाइट्रोजन के अणु (Nitrogen Molecule) में होता है। यदि दो इलेक्ट्रॉन साझा हो रहे हों तो दोहरा (डबल) बंध बनेगा, उदाहरण के तौर पर ऑक्सीजन का अणु देखा जा सकता है। इसी तरह से 1-1 इलेक्ट्रॉन साझा हो रहे हों तो यह एकल (सिंगल) बंध बनाएगा। जैसे हाइड्रोजन में। ऐसे बंध अलग-अलग किस्म के परमाणुओं के बीच भी बन सकते हैं। जैसे नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के बीच या हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के बीच। वैसे नोबेल विजेता रसायनज्ञ लायनस पौलिंग (Linus Pauling) ने 1931 में सुझाया था कि सहबंध मात्र 1 इलेक्ट्रॉन की साझेदारी से भी बन सकते हैं। तब से कई ऐसे 1 इलेक्ट्रॉन की साझेदारी वाले सह-बंध देखे जा चुके हैं।

इन दो के अलावा एक तीसरे किस्म का बंध भी बनता है – उप-सहसंयोजी बंध। लेकिन यहां हम सहसंयोजी बंधों पर ध्यान देंगे।

रसायनज्ञ जानते हैं कि परमाणु विभिन्न तरीकों से आपस में जुड़ा करते हैं और जुड़ाव की प्रकृति का रसायन समझने के लिए रसायनज्ञ सतत अध्ययन करते रहते हैं। इसके लिए रसायनज्ञ नए अणुओं का संश्लेषण भी करते हैं और प्रकृति में मौजूद अणुओं के क्रिस्टल को भी अपने अध्ययन में शामिल करते हैं। हर तरह की परिस्थिति में इन अणुओं की बनावट और इनमें परमाणुओं की जमावट का लगातार अध्ययन करते हुए यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर रासायनिक बंध क्या है (यानी कौन-सी शक्ति परमाणुओं को आपस में बांधती है) और इसकी प्रकृति क्या है?

इस सतत अध्ययन का नतीजा एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध है। आम तौर पर सहबंध के मामले में यह मान्यता रही है कि बंध में शामिल दोनों परमाणु कम से कम एक-एक इलेक्ट्रॉन साझा करेंगे। यानी कुल कम से कम दो इलेक्ट्रॉन साझा होंगे। लेकिन फिर 1998 में, सीएनआरएस के वाय. कैनेक की टीम ने दो फॉस्फोरस परमाणुओं के बीच एक एकल-इलेक्ट्रॉन बंध देखा। यह बंध एक बेंज़ीन अणु में दो फॉस्फोरस परमाणुओं के बीच देखा गया था। इस बंध में दोनों परमाणुओं के बीच एक ही इलेक्ट्रॉन साझा हुआ था। अलबत्ता, यह बंध दुर्बल स्वभाव का था। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के शोधकर्ता मार्क एटिएन मोरेट के शोध समूह ने 2013 में तांबे और बोरॉन के बीच ऐसा ही एकल इलेक्ट्रॉन बंध पाया था।

लेकिन अब तक दो कार्बन परमाणुओं के बीच ऐसा एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध नहीं देखा गया था। रसायनज्ञों ने इन सभी अणुओं का अध्ययन करते हुए पाया कि ये असामान्य बंध परमाणुओं के बीच थोड़े समय के लिए ही बन सकते हैं जो रासायानिक अभिक्रियाओं के दौरान मध्यवर्ती संरचनाओं में बनते हैं। ये बंध अस्थिर होने के कारण आसानी से टूट जाएंगे इसलिए इन अस्थिर बंधों को देखने के लिए, ऐसे बंध वाले यौगिक को स्थिर करना होगा। हाल तक कार्बन परमाणुओं के बीच ऐसे एकल इलेक्ट्रॉन बंध नहीं देखे जा सके थे।

कार्बन के विशिष्ट गुणों के चलते कार्बन रसायन विज्ञान की अपनी शाखा है जिसे कार्बनिक रसायन कहा जाता है और कार्बन के यौगिक जीवन के आधार भी हैं। कार्बन गुणों में विशेष है। कार्बन में यह क्षमता है कि वह केवल अपने ही परमाणुओं की लंबी-लंबी शृंखलाएं बना सकता है। कार्बन के एक दर्जन या उससे ज़्यादा एलोट्रोप (अपररूप) होते हैं जिनमें कार्बन परमाणुओं की जमावट के कारण एकदम अलग-अलग गुण पाए जाते हैं। इनमें ग्रेफाइट, ग्रेफीन, हीरा, एस्बेस्टॉस और बकीबॉल शामिल हैं।

और अब, कार्बन की उपलब्धियों में एक और उपलब्धि जुड़ गई है – एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध बनाने की क्षमता। जापान के होक्काइडो विश्वविद्यालय के चार वैज्ञानिकों की शोध टीम हेक्साफिनाइलएथेन के एक व्युत्पन्न के बारे में अध्ययन कर रही है। वे इस बाबत शोध कर रहे थे कि जब हेक्साफिनाइलएथेन का ऑक्सीकरण आयोडीन की उपस्थिति में किया जाता है तो क्या होता है। 25 सितंबर 2024 के दिन इस टीम को ऐसा अवलोकन करने को मिला जो वास्तव में 93 साल पहले नोबेल पुरस्कार विजेता लायनस पॉलिंग द्वारा सुझाया गया था। इस तरह वैज्ञानिकों ने दो कार्बन परमाणुओं के बीच एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध के एक सदी पुराने सपने को साकार किया है।

इस शोध टीम को हेक्साफिनाइलएथेन के एक व्युत्पन्न यौगिक में कार्बन परमाणुओं के बीच एक स्थिर एकल-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध मिला। एकल बंध के बारे में बेहतर तरीके से जानने के लिए जरूरी था कि एक ऐसा यौगिक बनाया जाए जो एकल बंध को स्थिर कर सके। इसे प्राप्त करने के लिए, शोध टीम द्वारा हेक्साफिनाइलएथेन के ऐसे व्युत्पन्न अणु का चुनाव किया गया जिसमें दो कार्बन परमाणुओं के बीच एक बहुत लम्बा युग्मित-इलेक्ट्रॉन वाला सहसंयोजी बंध था। उन्होंने आयोडीन का उपयोग करके हेक्साफिनाइलएथेन के व्युत्पन्न को ऑक्सीकृत किया जिससे एक बैंगनी रंग का क्रिस्टल मिला। एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी की मदद से जांच करने पर उन्होंने देखा कि दो कार्बन परमाणु एक एकल-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध के कारण काफी करीब आ गए थे। रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी ने एकल इलेक्ट्रॉन कार्बन-कार्बन बंध की उपस्थिति की पुष्टि की। दरअसल क्रिस्टल के अणु का केंद्रीय कार्बन-कार्बन बंध खिंच जाने से यह एक इलेक्ट्रॉन खोने के लिए अतिसंवेदनशील हो जाता है और इस तरह एकल-इलेक्ट्रॉन बंध बनता है।

टोक्यो विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ ताकुया शिमाजिरी, जो कार्बन बॉन्डिंग शोध टीम का हिस्सा थे, कहते हैं, “सहसंयोजी  बंध रसायन विज्ञान में सबसे महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक है, और नए प्रकार के रासायनिक बंधनों की खोज आशाजनक है।”

1931 में, रसायनज्ञ लायनस पॉलिंग ने जर्नल ऑफ दी अमेरिकन केमिकल सोसाइटी (Journal of the American Chemical Society)  में कार्बन परमाणुओं की एक जोड़ी के बीच एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी (single-electron covalent bond) की संभावना के बारे में लिखा था। पॉलिंग का सुझाव था कि एकल-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध मौजूद हो सकते हैं, लेकिन वे सामान्य दो-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंधनों (two-electron covalent bonds) की तुलना में कमज़ोर होंगे।

मुझे उपरोक्त पर्चा खोजकर 1931 में लायनस पॉलिंग द्वारा दिए गए सुझाव को फिर से पढ़ने का मन कर रहा है। आखिर ऐसे कौन से अवलोकन थे जिसके कारण पॉलिंग के मन में यह विचार आया। मैं इस कोशिश में आगे बढ़ रही हूं। अगर आपको इस विषयवस्तु से सम्बंधित कुछ पाठ्य सामग्री मिले तो मुझे ज़रूर भेजिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिलाओं, चींटी जैसे काम करो, पुरुषों जैसे व्यवहार करो लेकिन महिला बनी रहो!

सुलभा के. कुलकर्णी

क महिला के लिए वैज्ञानिक बनने का मतलब है एक चुनौतीपूर्ण जीवन शैली को अपनाना! सफलता के लिए हर क्षेत्र – पेशेवर (professional), व्यक्तिगत (personal) या सामाजिक (social) – में उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। यहां तक कि मात्र एक वैज्ञानिक माने जाने के लिए उसे अपने पुरुष सहकर्मियों से कहीं ज़्यादा काम करना पड़ता है। और एक पुरुष प्रधान समाज में इतना भर पर्याप्त नहीं होता। वास्तव, उसे चींटी की तरह काम करना पड़ता है, पुरुष की तरह व्यवहार करना पड़ता है और महिला बने रहना पड़ता है! एक महिला में बहुत अधिक आंतरिक शक्ति होती है, लेकिन उसे पहचानने की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, एक महिला वैज्ञानिक (woman scientist) को अपने पति, बच्चों और रिश्तेदारों से निरंतर समर्थन और बेहतर समझ की आवश्यकता होती है। एक वैज्ञानिक के रूप में उसे पूरी तरह से शोध में तल्लीन होना पड़ता है। यह चौबीस घंटे का काम है! मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि मुझे बिना ना-नुकर के यह सब मिला।

आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो कह सकती हूं कि सीखने की मेरी इच्छा और दृढ़ता के कारण मैं अपने करियर (career) में चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकी, जिसके बीज बचपन में ही मेरे अंदर बो दिए गए थे। मुझे मुश्किल समस्याओं से जूझना पसंद था और उन्हें हल करने के लिए कड़ी मेहनत करना मुझे अच्छा लगता था।

वाई (महाराष्ट्र) के जिस स्कूल में मैं पढ़ी थी वह अच्छा स्कूल था लेकिन वहां भाषा और सामाजिक विज्ञान (social sciences) पर अधिक ज़ोर दिया जाता था। भौतिक विज्ञानों (physical sciences) को उबाऊ और नीरस तरीके से पढ़ाया जाता था, लेकिन मेरा गणित (mathematics)  के प्रति प्रेम पनप गया (श्री डब्ल्यू. एल. बापट और श्री पी. के. गुणे जैसे शिक्षकों का धन्यवाद, जिन्होंने मुझे प्रेरित किया।) इसलिए, मैंने आगे गणित की पढ़ाई करने के लिए पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया। उसके बाद, मैंने भौतिकी विषय को चुना क्योंकि इसमें गणित का पर्याप्त दखल होता है।

आगे विज्ञान (science) की पढ़ाई करने की असली प्रेरणा एम. आर. भिड़े (पुणे विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के तत्कालीन प्रमुख) से मिली, जिन्होंने हमें ‘स्वयं विज्ञान करने’ को प्रेरित किया। उस समय उच्च शिक्षा (higher education) और खासकर भौतिकी में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। आश्चर्य की बात यह है कि वहां मात्र एक महिला शिक्षक थी, जो हमें शोध करने से निरुत्साहित किया करती थीं!

अपने पीएचडी (Ph.D.)  कार्य के हिस्से के रूप में मैंने एक स्वचालित स्कैनिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (X-ray spectrometer) डिज़ाइन और उसका निर्माण किया था। 1972 में हमारे यहां ऐसा करना आसान नहीं था! मैंने एक डिस्माउंटेबल एक्स-रे ट्यूब, उसके लिए एक उच्च वोल्टेज बिजली की आपूर्ति और स्कैनिंग स्पेक्ट्रोमीटर के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स की व्यवस्था जमाई, और इसमें सर्किट बोर्ड को पेंट करने से लेकर डिज़ाइन उकेरने और विभिन्न पुर्ज़ों और इकाइयों को जोड़ने तक का काम किया! वर्तमान संदर्भ में शायद यह कोई बड़ी बात न लगे। लेकिन एक्स-रे जनरेटर को सचमुच काम करते हुए देखना और स्पेक्ट्रोमीटर को एक्स-रे की बारीक संरचना को रिकॉर्ड करते हुए देखना (जिस तरह से किताबों में बताया गया था) मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था। इससे मुझे इससे मुझे भविष्य में कुछ अत्यंत जटिल और अत्याधुनिक उपकरणों (advanced instruments) पर काम करने का हौसला मिला।

प्रो. भिड़े और मेरे शोध पर्यवेक्षक प्रो. ए. एस. निगवेकर ने मुझे जर्मनी (Germany) में पोस्ट डॉक्टरेट (postdoc) करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह एक ऐसा अवसर था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरे पति नहीं चाहते थे कि मैं लंबे समय के लिए इतनी दूर जाऊं लेकिन सतह विज्ञान (surface science) के एक नए, उभरते क्षेत्र में प्रवेश करने की अपनी प्रबल इच्छा का वास्ता देकर किसी तरह मैंने उन्हें मना लिया। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पोस्टडॉक का अनुभव हमारे अपने विभाग में एक नई प्रयोगशाला स्थापित करने में मेरी मदद करेगा।

1977 में म्यूनिख की टेक्निकल युनिवर्सिटी (Technical University of Munich) में प्रो. मेंज़ेल की प्रयोगशाला में, लगभग 25 छात्रों और पोस्टडॉक के एक बड़े समूह में एक भी महिला छात्र (female student), शिक्षक या पोस्टडॉक नहीं थी। यहां तक कि आज भी, बहुत कम महिलाएं हैं जो विज्ञान के क्षेत्र में काम करती हैं और उनमें से भी बहुत कम ही हैं जो सर्वोच्च पदों (leadership roles) तक पहुंच पाती हैं।

1978 में मैं एक फैकल्टी सदस्य के रूप में पुणे विश्वविद्यालय में लौटी। सतह विज्ञान (सर्फेस साइंस) प्रयोगशाला स्थापित करने में मैंने अपना काफी समय लगाया। यह आसान नहीं था। तब ईमेल और यहां तक कि फैक्स जैसी सुविधाएं न होने के चलते संवाद करना काफी मुश्किल था। यह मेरे करियर का सबसे महत्वपूर्ण दौर था और प्रयोगशाला शुरू करने में अप्रत्याशित रूप से लम्बा समय लग गया। अंततः हमने अपने शोधकार्यों का प्रकाशन उच्च प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं (international journals) में शुरू किया।

उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, कभी-कभी सब ठीक चलता है, तो कभी-कभी आपके प्रयासों के बावजूद कुछ भी काम नहीं करता है। लेकिन आपको कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।

मेरे विभाग का माहौल अच्छा रहा है। हर जगह की तरह यहां भी ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता जैसी चीज़ें रहीं, लेकिन वे मेरी प्रगति में कभी बाधा नहीं बनी! प्रो. भिड़े द्वारा स्थापित प्रगतिशील माहौल अब भी कायम है। और इस माहौल ने कई छात्राओं को विभाग में शामिल होने और शोध के लिए मेरे समूह में शामिल होने के लिए आकर्षित किया है। मैंने उन्हें विज्ञान में करियर बनाने के लिए भी प्रोत्साहित किया है।

विज्ञान की रचनात्मकता और चुनौती ने मुझे हमेशा रोमांचित किया है। मुझे तसल्ली है कि मैं सतह और पदार्थ विज्ञान की एक सुसज्जित प्रयोगशाला कम लागत में बना सकी हूं। जो लोग मुझे अच्छी तरह से नहीं जानते, वे सोचते होंगे कि मैं यह कैसे कर सकती हूं! क्या मेरा कोई परिवार नहीं है? वास्तव में एक महिला को अपने परिवार को पर्याप्त समय देना पड़ता है, खासकर, जब उसके बच्चे छोटे हों। लेकिन अगर वह काम की योजना ठीक से बनाती है, तो मुझे लगता है कि उसके पास हर चीज़ के लिए पर्याप्त समय होता है।

मेरे शोध करियर में हमेशा सब कुछ अच्छा नहीं रहा। ऐसे भी कई मौके आए जब मुझे चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियां दी गईं और मैंने उन्हें सफलतापूर्वक पूरा किया, लेकिन पुरस्कारों के समय पुरुष सहकर्मियों को प्राथमिकता दी गई! मैं सोचती हूं कि क्या यह एक महिला वैज्ञानिक होने की कीमत थी! कहावत है ना, “यही विधि का विधान था (यानी जो हुआ उसे स्वीकार लो, भले ही कुछ बुरा हुआ हो)।” आदर्श रूप से, विज्ञान में जेंडर जैसी कोई चीज़ नहीं होनी चाहिए और मैंने उस भावना के साथ ही काम करने की पूरी कोशिश की है।

अपने अनुभव से, मैं कह सकती हूं कि महिलाएं कुशलतापूर्वक और रचनात्मक रूप से काम कर सकती हैं। न सिर्फ वे पुरुषों के बराबर अच्छा काम कर सकती हैं बल्कि पुरुषों से भी बेहतर कर सकती हैं। अगर महिलाओं को कम अवसर दिए जाते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। अगर एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है। उन्हें काम करते रहना चाहिए क्योंकि सही दिशा में लगातार मेहनत करने से ही पुरस्कार और संतुष्टि मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

सुलभा के. कुलकर्णी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम बुद्धि की मदद से प्राचीन शिल्पों का जीर्णोद्धार

आमोद कारखानिस

म जगह-जगह पर कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस – AI) के इस्तेमाल के बारे में सुनते रहते हैं। आम लोगों के लिए एआई का मतलब अधिकतर रोबोट होता है। लेकिन ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम्स (computer programs) का उपयोग बहुत अलग-अलग क्षेत्रों में किया जाता है जो खुद सीखते हैं और सीख-सीखकर खुद को बेहतर बनाते जाते हैं।

हाल ही में मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया में हुए 32वें एसोसिएशन फॉर कंप्यूटिंग मशीनरी (ACM) इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन मल्टीमीडिया में प्रस्तुत एक पेपर में इसी तरह के एक नए उपयोग के बारे बताया गया था। कंबोडिया स्थित बोरोबुदुर चण्डी काफी प्रसिद्ध और पूजनीय बौद्ध विहार है। (इंडोनेशिया की जावा भाषा में बौद्ध मंदिरों को चण्डी कहा जाता है।) 1900 में इस चण्डी के संरक्षण (restoration) के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम शुरू किया गया था। इस संरक्षण कार्य के दौरान मंदिर के आधार पर ऐसी कई फर्शियां मिलीं जिन पर (संभवत:) बुद्ध के जीवन या जातक कथाओं के दृश्यों की नक्काशी (carvings) थी। इन फर्शियों के ऊपर पड़े मलबे को हटाकर साफ किया गया। लेकिन सुरक्षा कारणों से लगा कि ऊपरी भवन को सहारा देने के लिए एक नई दीवार बना दी जाए। नई दीवार के पीछे एक बार फिर ये फर्शियां छिप गईं। लेकिन दीवार बनाने के पहले सभी नक्काशियों का दस्तावेज़ीकरण (documentation) कर लिया गया था और उनकी बहुत सारी तस्वीरें खींची गई थीं।

सौ साल से अधिक का समय बीतने के बाद अब इन नक्काशियों की स्थिति क्या होगी कोई नहीं जानता। इसलिए यह ख्याल आया कि उपलब्ध तस्वीरों के आधार पर फर्शियों पर उन नक्काशियों को फिर से बनाना (reconstruction) चाहिए। लेकिन किसी शिल्पकार (sculptor) के लिए इतनी बड़ी संख्या में इतने बारीक विवरणों से तराशी करना बहुत भारी काम है। तो क्या इस काम में कंप्यूटर (computers)  मदद कर सकते हैं? क्या तस्वीरों से 3डी फर्शियां बनाना संभव है?

आजकल ड्राइंग सॉफ्टवेयर (drawing software)  में सामान्यत: दो आयामी तस्वीर से कोई आउटलाइन बनाने की क्षमता होती है। यह काम सॉफ्टवेयर द्वारा इस बात को मानकर किया जाता है कि तस्वीर में जब भी अचानक रंग बदलेगा (या गाढ़ा या गहरा रंग आएगा) तो उसके लिए एक आउटलाइन बना दी जाएगी। लेकिन नक्काशी में गहराई कैसे तय की जाए?

ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों में तो हम रंग का गाढ़ापन या गहरापन (डार्क) (darkness) देखकर दूरी या गहराई का अनुमान लगाते हैं। जो जगहें गाढ़े रंग की हैं वे अधिक गहराई में या नीचे की ओर हैं; और जो जगहें ऊपर की ओर हैं वहां अधिक रोशनी पड़ रही होगी और इसलिए वे अधिक उजली होंगी। इन नियमों के आधार पर काम करने वाले मौजूदा सॉफ्टवेयर ने चण्डी की फर्शियों की त्रि-आयामी रचना तो बना दी थीं, लेकिन इनमें फर्शियों की बारीक नक्काशियों या विवरणों (जैसे चेहरे पर आंखें और नाक) का अभाव था।

इसे बेहतर करने के लिए यह सुझाव दिया गया कि एक ऐसे एल्गोरिदम (algorithm) का उपयोग किया जाए जो उजले रंग से गहरे रंग में परिवर्तन की दर को ‘भांप’ सके। यह कुछ हद तक कंटूर मानचित्र (contour map) जैसा था, जिसका उपयोग भूगोलवेत्ता (geographers) करते हैं। यदि तीखी ढलान है तो कंटूर रेखाएं पास-पास आ जाएंगी। समाधान की ओर यह एक और कदम था लेकिन एक समस्या अब भी बनी हुई थी – चेहरे की हल्की गोलाइयों और सूक्ष्म विवरण को बनाने की। इसके समाधान के लिए शोधकर्ताओं ने यह देखना-समझना शुरू किया कि हम मनुष्य इसे कैसे समझते हैं। उदाहरण के लिए हो सकता है कि एक गोल चेहरे में और चेहरे की विशेषताओं के उजलेपन (या रंग) में बहुत अधिक अंतर न हो, लेकिन क्योंकि हम जानते हैं कि यह एक मूर्ति है इसलिए हम वे बारीकियां भांप लेते हैं।

कंप्यूटर के पास इस ज्ञान का अभाव होता है और वह केवल नियम से चल रहा होता है। यहीं से एआई का काम शुरू होता है। जापान के रित्सुमीकन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सातोशी तनाका की टीम ने कंप्यूटर को हल्की गोलाई को ‘समझने’ और उजलेपन में मामूली फर्क भी पहचानने के लायक बनाने के लिए न्यूरल नेटवर्क (neural network) का उपयोग किया। हाल ही में प्रकाशित शोधपत्र में इसके बारे में जानकारी और परिणाम दिए गए हैं।

यह एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण उपलब्धि है। हमारे पास कई ऐतिहासिक स्थलों (historical sites) की कई ऐसी पुरानी मूर्तियों या नक्काशियों की तस्वीरें होतीं है जो अब मौसम और समय की मार के कारण जीर्ण-शीर्ण हो चुकी हैं। इस तकनीक (technology)  की मदद से उन्हें पुर्नर्निमित कर सकने की आशा जगी है। हालांकि, फिलहाल इस सॉफ्टवेयर तकनीक का परीक्षण केवल नक्काशियों (उकेरन) को पुनर्निर्मित करने के लिए किया गया है, लेकिन भविष्य में इसका इस्तेमाल अन्य तरह से तराशी गई मूर्तियों या शिल्पों के जीर्णोद्धार के लिए भी किया जा सकेगा – उन्हें कम से कम उस अवस्था तक में तो लाया जा सकेगा जब उनकी तस्वीर ली गई थी।

अगला पड़ाव है जीर्ण-शीर्ण मूर्तियों के जीर्णोद्धार में मदद के लिए एआई की सीखने की क्षमता को बढ़ाना। इसमें ज़रूरत होगी इंडोलॉजी (Indology)  और आइकनोग्राफी (iconography) के मानवीय ज्ञान को कंप्यूटर तकनीकों के साथ जोड़ने की – यानी भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं, ग्रन्थों, इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी और प्रतीकों के अर्थ समझने के ज्ञान को कंप्यूटर तकनीकों से जोड़ने की। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीन संपादन कैंची का उपयोग

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब आप कोई दस्तावेज़, पत्र या लेख संपादित करते हैं तो आप उसके अर्थ को अधिक स्पष्ट बनाने के लिए शब्दों और वाक्यों में कुछ बदलाव करते हैं। जीन संपादन (Gene Editing) में, विशिष्ट एंज़ाइम (enzymes) की मदद से डीएनए (DNA) को एक निश्चित स्थान से काट कर डीएनए का अनुक्रम बदला जाता है, इससे किसी जीन (gene) में कोई आनुवंशिक जानकारी  हटाने, जोड़ने या बदलने में मदद मिलती है। यह प्रक्रिया किसी वाक्य में गलत हिज्जे (spelling) ठीक करने या किसी शब्द को अधिक उपयुक्त शब्द से बदलने के समान है। जीवों में, ऐसे संशोधन सीधे डीएनए में अंकित आनुवंशिक निर्देशों (genetic instructions) को बदल देते हैं।

पूर्व में, जब हमें किसी वांछित कार्य के लिए डीएनए में अंकित संदेश को बदलना होता था तो हमें दो एंज़ाइमों की ज़रूरत पड़ती थी – एक डीएनए को एक विशिष्ट (या वांछित) स्थान से काटकर हटाने के लिए, और दूसरा वांछित आनुवंशिक परिवर्तन (genetic modification) जोड़ने के लिए। हालांकि यह द्वि-एंज़ाइम आधारित तरीका कारगर था, लेकिन इसमें मेहनत बहुत लगती थी।

एक खोज (Discovery of CRISPR-Cas9)

फिर, अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) की डॉ. जेनिफर डाउडना (Dr. Jennifer Doudna) और जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय (Humboldt University) की इमैनुएल शॉपान्टिए (Emmanuelle Charpentier)  ने ये दोनों काम (काटना और जोड़ना) करने वाली जीन संपादन विधि, CRISRP-Cas9, विकसित की। यह एक ऐसी विधि है जो मनुष्यों, रोगाणुओं और पौधों के जीनोम को संपादित कर सकती है। CRISPR का फुल फॉर्म है क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पर्स्ड शॉर्ट पैलिंड्रोमिक रिपीट्स (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats) और Cas9 से तात्पर्य है क्रिस्पर-एसोसिएटेड प्रोटीन-9 जो विशिष्ट स्थान पर डीएनए को काटता है जिससे वहां एक रिक्त स्थान बन जाता है, जिसे नए डीएनए खंड से भरा जा सकता है। डाउडना और शॉपान्टिए द्वारा 2012 में की गई इस खोज के लिए उन्हें 2020 में साझा रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

वैसे, साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (Southern California University) के प्रो. फेंग झेंग ने भी एक पेपर में CRISPR-Cas9 प्रणाली की मदद से जीनोम इंजीनियरिंग (genome engineering) के बारे में बताया था लेकिन नोबेल समिति ने उन्हें नोबेल के तीसरे साझेदार वैज्ञानिक के रूप में शामिल नहीं किया। इसके बाद उन्होंने साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय छोड़ दिया, इस कार्य का पेटेंट हासिल किया और बोस्टन चले गए। इसका पेटेंट अब ब्रॉड इंस्टीट्यूट (एमआईटी और हारवर्ड विश्वविद्यालय का संयुक्त उपक्रम) (Broad Institute – MIT and Harvard)  के स्वामित्व में है। यह संस्थान विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए CRISPR-Cas9 विधि का उपयोग करता है; जैसे कैंसर के लिए माउस मॉडल का विकास, कैंसर की दवाओं को निष्प्रभावी बनाने वाले जीन्स की पहचान, प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells)  में संशोधन। यही ब्रॉड इंस्टीट्यूट अन्य वैज्ञानिकों को इस तकनीक का प्रशिक्षण भी प्रदान करता है।

पौधों में जीन संपादन (Gene Editing in Plants)

CRISPR-Cas9 पेटेंट तकनीक का उपयोग कृषि वैज्ञानिक और वनस्पति शोधकर्ता भी पौधों में जीनोम इंजीनियरिंग के लिए करते हैं। जर्मनी के कार्लस्रुहे बॉटेनिकल इंस्टीट्यूट (Karlsruhe Botanical Institute) के डॉ. होल्गर पुख्ता (Dr. Holger Puchta) के समूह ने कई ऐसे शोधपत्र प्रकाशित किए हैं, जो मुख्यत: बताते हैं कि पौधों के जीनोम को लक्षित करने के लिए Cas9, Cas12 और Cas13 का उपयोग कैसे किया जाए। हाल ही में, CRISPR-Cas9 की मदद से दो जीन्स को ‘निष्क्रिय’ कर, वज़न में कमी लाए बगैर टमाटर में मिठास बढ़ाई गई है। अवश्य ही अन्य पौधों और फलों पर भी इसी प्रकार के अध्ययन हो रहे होंगे।

बहरहाल, डॉ. अनुराग चौरसिया ने हाल ही में एक रिपोर्ट (‘How CRISPR patent issues block Indian farmers from accessing biotech benefits – क्रिस्पर पेटेंट की समस्या कैसे भारतीय किसानों को बायोटेक लाभ लेने से रोक रही है)’ में बताया है कि IPO ने डबलिन के ईआरएस जीनोमिक्स (ERS Genomics)  को एक लोकल पेटेंट दिया है। लोकल पेटेंट भारतीय शोधकर्ताओं को CRISPR-Cas9 का उपयोग करने की अनुमति तो देता है लेकिन केवल अकादमिक या शोध सम्बंधी उद्देश्यों के लिए, इसके द्वारा हासिल किसी भी वैज्ञानिक उपलब्धि का व्यावसायीकरण नहीं किया जा सकता। तो, हमारे किसान (farmers) अभी भी ‘पुराने ज़माने’ के हिसाब से ही चल रहे हैं।

दृष्टिबाधितों में (Gene Editing for Vision Impairments)

नेत्र विकारों (vision disorders) से पीड़ित लोगों के लिए हैदराबाद स्थित एलवी प्रसाद नेत्र संस्थान (L.V. Prasad Eye Institute) के वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (IGIB) के एक समूह के साथ मिलकर जीन संपादन की एक विधि की मदद से रोगी-विशिष्ट स्टेम कोशिकाओं (patient-specific stem cells) में वंशानुगत उत्परिवर्तन को ठीक किया है। उनके ये परिणाम नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल (Nature Communications Journal)  के जून, 2024 के अंक में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन में उत्परिवर्तन-संशोधित इन स्टेम कोशिकाओं से रेटिना कोशिकाएं बनाने में सफलता मिली है, जिनमें लुप्त प्रोटीन की पुनः अभिव्यक्ति देखी गई है। इन परिणामों से कुछ वंशानुगत नेत्र विकारों के लिए स्व-कोशिका चिकित्सा विकसित करने की संभावना खुल गई है। शरीर के अन्य तरह के ऊतकों और कोशिकाओं को प्रभावित करने वाली अन्य बीमारियों के समाधान के लिए भी इसी तरह के तरीके अपनाए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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घटते बादलों से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा

पिछले दो दशकों में पृथ्वी के सौर ऊर्जा संतुलन (Earth’s solar energy balance)  में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखी गई है: ग्रह पर जितनी ऊर्जा आ रही है, उससे कम बाहर जा रही है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (greenhouse gas emissions) इसका एक प्रमुख कारण है लेकिन वैज्ञानिक इस असंतुलन को पूरी तरह समझने के लिए काफी समय से प्रयास करते आए हैं। बर्फ के पिघलने की वजह से उनके नीचे की गर्मी सोखने वाली सतहों (heat-absorbing surfaces)  के बढ़ने और वायुमंडलीय प्रदूषण (atmospheric pollution) के घटने ने भी इसमें योगदान दिया है।

हाल ही में इसमें एक संभावित कड़ी सामने आई है: घटते बादल (declining clouds)। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज़ (NASA Goddard Institute for Space Studies) के जॉर्ज सेलियोडिस के नेतृत्व में हुए शोध में पाया गया है कि पिछले 20 वर्षों में परावर्तक बादलों (reflective clouds) की मात्रा में कमी आई है, जिससे पृथ्वी की सतह पर सूर्य की किरणें अधिक पहुंच रही हैं। सेलियोडिस को पूरा यकीन है कि नासा के टेरा उपग्रह (NASA Terra satellite)  द्वारा दर्ज की गई इस मामूली लेकिन उल्लेखनीय कमी ने वैश्विक तापमान में अधिक वृद्धि की है।

गौरतलब है कि बादल सूर्य की किरणों को अंतरिक्ष में परावर्तित करके पृथ्वी के तापमान (Earth’s temperature) को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये बादल मुख्य रूप से भूमध्य रेखा के आसपास और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों (mid-latitude regions)  में बनते हैं, जहां तूफानी प्रणालियां (storm systems) हावी रहती हैं।

पिछले 35 वर्षों में उपग्रह तस्वीरों (satellite imagery) से पता चला है कि भूमध्य रेखा के आसपास के बादल के पट्टे (cloud belts) सिकुड़ रहे हैं और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में तूफान के मार्ग ध्रुवों की ओर खिसक रहे हैं – बादलों की मात्रा में हर दशक में 1.5 प्रतिशत की कमी हो रही है। यह कमी भले ही मामूली दिखती है लेकिन इसका संचयी प्रभाव (cumulative impact)  बहुत गंभीर है और यह जलवायु परिवर्तन (climate change) को और तेज़ करने वाले चक्रों को जन्म दे सकता है।

सेलियोडिस के अनुसार, परावर्तनीयता (reflectivity) में 80 प्रतिशत बदलाव बादलों के संकुचन (cloud contraction) के कारण है, न कि बादलों की प्रकृति कम परावर्तक होने की वजह से।

वैसे, यही जलवायु मॉडल (climate model) कुछ अन्य संकेत भी देता है। जैसे ग्लोबल वार्मिंग से, खासकर प्रशांत महासागर के ऊपर बड़े पैमाने पर वायु संचरण (air circulation) कमज़ोर हो सकता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में पूर्वी प्रशांत ठंडा हुआ है जिसके चलते हवाएं अस्थायी रूप से बलवती हुई हैं। इन विविध पैटर्न (weather patterns) के चलते स्थिति का विश्लेषण मुश्किल हुआ है।

बादलों के घटने से जलवायु परिवर्तन में तेज़ी (accelerated climate change) आने का खतरा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो इससे एक दुष्चक्र शुरू हो सकता है: उच्च तापमान (high temperatures) के कारण बादल आवरण कम होगा जिससे गर्मी और अधिक बढ़ेगी।

हालांकि घटते बादल परस्पर सम्बंधित कई कारणों का केवल एक हिस्सा है। उत्तरी गोलार्ध में प्रदूषण में कमी की भी एक भूमिका हो सकती है। अलबत्ता, संदेश साफ है: पृथ्वी के बादल और उनकी भूमिका में बदलाव हो रहे हैं, जिसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

ये परिणाम एक चेतावनी देते हैं। बादलों के घटने के कारणों की व्याख्या और समाधान, वैश्विक तापमान (global temperature impact) पर उनके प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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वृक्ष मेंढकों की दिलचस्प छलांग

चाइनीज़ ग्लाइडिंग वृक्ष मेंढक (Polypedates dennysi) (Chinese Gliding Tree Frog) चीन और दक्षिण पूर्व एशिया (South East Asia forests) के नम जंगलों में पाए जाते हैं। करीब 10 से.मी. के ये मेंढक इन जंगलों में झूलती शाखों और तनों (tree branches and trunks) पर छलांग लगाते रहते हैं। इनकी यही छलांग वैज्ञानिकों को इनका अध्ययन करने के लिए आकर्षित करती है। दरअसल, जिन जंगलों में ये मेंढक रहते हैं वहां की ज़मीन गीली, दलदली (swampy ground) है। छलांग लगाते वक्त यदि दूरी, ऊंचाई, शाख की चौड़ाई वगैरह का अंदाज़ा ज़रा भी चूका तो ये सीधा कीचड़ में समाएंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं है: जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल ज़ुऑलॉजी पार्ट : इकॉलॉजिकल एंड इंटीग्रेटिव फिज़ियोलॉजी  (Journal of Experimental Zoology Part A: Ecological and Integrative Physiology) में प्रकाशित एक अध्ययन का कहना है कि उनमें खड़ी शाखाओं और तनों को पकड़ने के लिए कुछ लचीले तरीके विकसित हुए हैं।

वृक्ष मेंढकों की छलांग का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं (researchers) ने प्रयोगशाला में सेटअप (laboratory setup) जमाया। उन्होंने अलग-अलग व्यास के खंभे जमाए – फेविस्टिक से लेकर टॉयलेट पेपर रोल तक। फिर इन खंभों पर पांच मेंढकों की सैकड़ों छलांगों को वीडियो रिकॉर्ड (video recordings) किया।

पाया गया कि मेंढकों ने इस बात का अंदाज़ा लेने के लिए कुछ सेकंड लगाए कि खंभे का व्यास कितना है और वे कितनी दूरी पर हैं, फिर इसके हिसाब से उन्होंने अपनी छलांग लगाने का तरीका (jumping technique) तय किया। मुख्यत: दो तरीकों से छलांग लगाई। एक तरीके में वे अपने लक्ष्य (यानी शाख) के पास से गुज़रते हुए उससे ज़रा-सा आगे निकल जाते हैं और फिर गुज़रने के एकदम अंतिम क्षण में अपने चिपचिपे, गद्देदार हाथ या पैर (sticky padded hands and feet) से उसे पकड़ लेते हैं, और उसके सहारे खंभे से लिपट जाते हैं। दूसरे तरीके में वे शाख पर पेट के बल उतरते हैं और उससे लिपट जाते हैं।

मोटे खंभों (thicker poles) के लिए मेंढकों ने खंभों से आगे निकलकर, उसे हाथ बढ़ाकर पकड़ने का तरीका अपनाया। लेकिन जैसे-जैसे खंभे संकरे (narrower poles) होते गए, मेंढकों ने लैंडिंग की चूक से बचने के लिए पैरों और पेट के बल लैंड करने का तरीका अपनाया। शोधकर्ताओं का कहना है कि मेंढकों ने छलांग लगाने के लिए क्या पोज़ीशन ली है (jumping posture), इसे देखकर बताया जा सकता है कि वे शाख को पकड़ने के लिए हाथ या पैर से शाख थामेंगे या पेट का सहारा लेंगे।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि खड़ी शाखाओं (vertical branches) पर लैंड करने से मेंढकों के शरीर पर कम ठेस लगती है, इस बात का पता उन्हें खंभों के नीचे लगे बल संवेदी (force sensors) से चला। इस नतीजे से वैज्ञानिकों को एक नया सवाल सता रहा है: आडी और खड़ी दोनों तरह की शाख मौजूद हों तो ये मेंढक क्या खड़ी शाखों पर उतरना पसंद करेंगे या आड़ी शाख (horizontal branches) पर? (स्रोत फीचर्स) छलांग का वीडियो यहां देखें – https://www.science.org/content/article/watch-these-tree-frogs-make-some-most-dramatic-landings-nature?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5471795 

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Photo Credit : https://www.science.org/content/article/watch-these-tree-frogs-make-some-most-dramatic-landings-nature?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5471795

निजी अस्पताल: दरों का मानकीकरण और रोगियों के अधिकार

गायत्री शर्मा

भारत की बड़ी आबादी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य सम्बंधी खर्च रोगियों को खुद वहन करना पड़ता है, जिससे हर साल लाखों लोग गरीबी में धकेल दिए जाते हैं। चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन और विनियमन) अधिनियम, 2010 और इसके तहत 2012 में बने नियम निजी स्वास्थ्य सेवाओं की दरों (private healthcare costs) को नियंत्रित करने का ढांचा प्रदान करते हैं, लेकिन यह अब तक प्रभावी रूप से लागू नहीं हो सका है।

102 डॉक्टरों, स्वास्थ्य पेशेवरों और जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों ने भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की लागत (healthcare expenses in India) को नियंत्रित करने और रोगियों के अधिकारों (patients’ rights) को लागू करने की मांग की है। फोरम फॉर इक्विटी इन हेल्थ (Forum for Equity in Health) द्वारा समर्थित विशेषज्ञों की इस अपील में स्वास्थ्य सेवाओं की उचित, पारदर्शी और मानकीकृत दरें (standardized healthcare rates) तय करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है ताकि रोगियों पर आर्थिक बोझ कम किया जा सके।

यह अपील जन स्वास्थ्य अभियान (Jan Swasthya Abhiyan) द्वारा सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) में दायर एक जनहित याचिका का समर्थन करती है, जिसमें केंद्र सरकार से 2012 के चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम के नियम 9 के तहत निजी स्वास्थ्य सेवाओं की दरों को विनियमित (regulate healthcare pricing) करने की मांग की गई है। इस कानूनी बहस में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने मौजूदा नियमों को लागू करने की मांग की है, जिसका व्यावसायिक निजी स्वास्थ्य सेवा समूहों (private healthcare groups)  द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा है।

कार्रवाई के इस आव्हान से एक कड़वी सच्चाई सामने आती है: सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की कमी के कारण देश की बड़ी आबादी को निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर होना पड़ता है। निजी अस्पतालों में अत्यधिक और मनमाने शुल्क के कारण कई परिवार आर्थिक संकट में फंस जाते हैं और गरीबी में धकेल दिए जाते हैं।

इस अपील पर हस्ताक्षर करने वाले लोग भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र के विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा (primary, secondary, tertiary care) संस्थानों के डॉक्टर, छोटे निजी क्लीनिक (small private clinics), बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल (corporate hospitals), चैरिटेबल ट्रस्ट (charitable trusts) द्वारा संचालित अस्पताल और ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन शामिल हैं। हस्ताक्षरकर्ताओं में युवा पेशेवर, मध्यम अनुभव वाले विशेषज्ञ और दशकों के अनुभव वाले वरिष्ठ विशेषज्ञ शामिल हैं। यह सामूहिक आवाज़ दर्शाती है कि भारत के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में असमानताओं और विनियमन की कमी को दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है।

दरों का मानकीकरण

चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन और विनियमन) अधिनियम, 2010 और इसके तहत 2012 में बने नियम निजी स्वास्थ्य सेवाओं को नियंत्रित करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। लेकिन, (standardization of healthcare rates), न्यूनतम मानकों (minimum standards), और पारदर्शिता (transparency)  जैसे प्रमुख पहलू अभी तक पूरी तरह लागू नहीं हो पाए हैं। यह स्थिति निजी अस्पतालों में अधिक शुल्क वसूलने की व्यापक प्रवृत्ति के बावजूद है, जो कोविड महामारी के दौरान उजागर हुई थी।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि दरों का मानकीकरण तकनीकी रूप से संभव है और इसे पहले ही सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम (CGHS) और आयुष्मान भारत (Ayushman Bharat) –प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना जैसी योजनाओं में सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका है।

मसलन, CGHS देश भर में 1850 से अधिक चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए समान दरें तय करता है, जिससे लाखों सरकारी कर्मचारी और पेंशनभोगी लाभान्वित होते हैं। इसी तरह, आयुष्मान भारत के तहत 28,000 से अधिक अस्पताल सूचीबद्ध हैं, जो लगभग 2000 प्रक्रियाओं के लिए निश्चित दरों पर इलाज करते हैं। इन योजनाओं और जापान जैसे देशों की समान दर व्यवस्था से प्रेरणा लेते हुए, विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा ढांचा न सिर्फ संभव है बल्कि मनमाने और अत्यधिक शुल्क से मरीज़ों को बचाने के लिए आवश्यक भी है।

अनैतिक प्रथाएं और असमानता

इस अपील में निजी स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त अनैतिक प्रथाओं (unethical practices in healthcare) , जैसे अधिक शुल्क वसूली (overbilling), रेफरल के लिए कमीशन (referral commissions) और मनमानी बिलिंग की समस्याओं को उजागर किया गया है। ये प्रथाएं रोगियों पर अतिरिक्त बोझ डालती हैं और ईमानदार चिकित्सकों के प्रयासों को कमज़ोर करती हैं। दरों के मानकीकरण से इन समस्याओं को दूर करके एक अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इससे ईमानदार निजी चिकित्सकों को बराबरी से प्रतिस्पर्धा का मौका मिलेगा और रोगियों पर वित्तीय बोझ भी कम होगा। मुख्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए उचित दर सुनिश्चित करके, इस क्षेत्र में अत्यधिक मुनाफाखोरी को रोका जा सकता है और रोगियों और चिकित्सकों के बीच विश्वास को मज़बूत किया जा सकता है।

आगे का रास्ता

फोरम फॉर इक्विटी इन हेल्थ और अन्य हस्ताक्षरकर्ता निम्नलिखित उपायों का सुझाव देते हैं:

1. रोगियों के अधिकारों का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन और क्रियांवयन (patients’ rights charter): सभी चिकित्सा संस्थानों में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी रोगियों के अधिकारों का चार्टर स्थानीय भाषाओं में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाना चाहिए।

2. पारदर्शी मूल्य निर्धारण (transparent pricing): स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को प्रमुख प्रक्रियाओं के लिए दरें अनिवार्य रूप से प्रदर्शित करनी चाहिए, ताकि रोगियों को सोच-समझकर निर्णय लेने में मदद मिल सके।

3. मुख्य प्रक्रियाओं की मानकीकृत लागत: प्रमुख चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए निश्चित दरें होनी चाहिए, ताकि अत्यधिक शुल्क वसूली को रोका जा सके। इसमें अतिरिक्त सुविधाओं या विशेष आवश्यकताओं के लिए लचीलापन रखा जा सकता है।

4. शिकायत निवारण प्रणाली (grievance redressal system): रोगियों की समस्याओं का तुरंत समाधान करने के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।

5. छोटे और गैरमुनाफा संस्थानों का समर्थन: मानकीकरण प्रक्रिया को छोटे क्लीनिक्स, चैरिटेबल अस्पतालों और गैर-मुनाफा संगठनों के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए लागू किया जाना चाहिए।

देश भर के हस्ताक्षरकर्ताओं ने फिर से यह ज़ाहिर किया है कि स्वास्थ्य सेवा को एक सामाजिक कार्य के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि मुनाफा कमाने की वस्तु के रूप में। वे एक मज़बूत सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं जिसे निजी क्षेत्र पर प्रभावी नियम लागू करके बल मिले। यह अपील इस बात पर भी ज़ोर देती है कि स्वास्थ्य का संवैधानिक अधिकार तभी पूरा हो सकता है, जब निरंकुश निजी स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं द्वारा उत्पन्न वित्तीय असमानताओं को हल किया जाए।

इस अपील का संदेश स्पष्ट है: स्वास्थ्य सेवा एक मौलिक अधिकार है, न कि कोई विशेषाधिकार। इसे साकार करने के लिए नीति निर्माताओं, न्यायपालिका, और समाज को निजी स्वास्थ्य सेवा लागतों को नियंत्रित करने, रोगियों के अधिकार चार्टर को लागू करने और सरकारी स्वास्थ्य अधोसंरचना को मज़बूत करने के लिए निर्णायक कदम उठाने होंगे।

अपील में यह भी कहा गया है: “समय आ गया है कि हम सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को मज़बूत करें, निजी स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं को नियंत्रित करें, और सुनिश्चित करें कि हर भारतीय को किफायती, समान और नैतिक चिकित्सा सेवा प्राप्त हो।”

मानकीकृत दरों को लागू करके और मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा करके ही देश एक न्यायपूर्ण, समान और सुलभ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की ओर बढ़ सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/standardized-rates-and-enforcement-of-patients-rights-in-indian-private-hospitals