पाकिस्तान में सदी की सबसे भीषण बाढ़

स वर्ष पाकिस्तान सदी की सबसे भीषण बाढ़ का सामना कर रहा है। देश का एक-तिहाई हिस्सा जलमग्न हो गया है। बाढ़ ने लगभग 3.3 करोड़ लोगों को विस्थापित किया और 1200 से अधिक लोग मारे गए। कई ऐतिहासिक इमारतों को भी काफी नुकसान पहुंचा है।

शोधकर्ताओं के अनुसार इस तबाही की शुरुआत इस वर्ष भीषण ग्रीष्म लहर से हुई। अप्रैल और मई माह के दौरान कई स्थानों पर काफी लंबे समय तक तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा। जैकबाबाद शहर में तो तापमान 51 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक रहा। पाकिस्तान के कुछ स्थान विश्व के सबसे गर्म स्थानों में रहे।

गर्म हवा अधिक नमी धारण कर सकती है। लिहाज़ा गर्म मौसम को देखते हुए कई मौसम विज्ञानियों ने इस वर्ष की शुरुआत में ही जुलाई से सितंबर के बीच देश में सामान्य से अधिक वर्षा होने की चेतवानी दी थी।

जलवायु वैज्ञानिक अतहर हुसैन के अनुसार भीषण गर्मी से हिमनदों के पिघलने से सिंधु की सहायक नदियों में जल-प्रवाह बढ़ा जो अंततः सिंधु नदी में पहुंचा। सिंधु नदी पाकिस्तान की सबसे बड़ी नदी है जो देश के उत्तरी क्षेत्र से शुरू होकर दक्षिण तक बहती है। इस नदी से कई शहरों और कृषि की ज़रूरतें पूरी होती हैं। जुलाई माह में हिमाच्छादित क्षेत्रों का दौरा करने पर सिंधु की सहायक हुनज़ा नदी में भारी प्रवाह और कीचड़ भरा पानी देखा गया। कीचड़ वाला पानी इस बात का संकेत था कि हिमनद काफी तेज़ी से पिघल रहे हैं और तेज़ी से बहता पानी अपने साथ तलछट लेकर बह रहा है। इसके अलावा कई झीलों की बर्फीली मेड़ें फूट गईं और उनका पानी सिंधु में पहुंचा।

ग्रीष्म लहर के साथ ही एक और बात हुई – अरब सागर में कम दबाव का सिस्टम बना जिसकी वजह से जून की शुरुआत में ही पाकिस्तान के तटीय प्रांतों में भारी बारिश हुई। इस तरह का सिस्टम बनना काफी असामान्य था। इस वर्ष पाकिस्तान के अधिकांश क्षेत्रों में सामान्य से तीन गुना और दक्षिण पाकिस्तान स्थित सिंध और बलूचिस्तान में औसत से पांच गुना वर्षा हुई। एक बार ज़मीन पर आने के बाद इस पानी को जाने के लिए कोई जगह नहीं थी, सो इसने तबाही मचा दी।

कुछ मौसम एजेंसियों ने ला-नीना जलवायु घटना की भी भविष्यवाणी की थी जिसका सम्बंध भारत और पाकिस्तान में भारी मानसून से देखा गया है। संभवत: ला-नीना प्रभाव इस वर्ष के अंत तक जारी रहेगा।

शायद मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग ने भी वर्षा को तेज़ किया होगा। इस संदर्भ में 1986 से 2015 के बीच पाकिस्तान के तापमान में 0.3 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है जो वैश्विक औसत से अधिक है।

तबाही को बढ़ाने में कमज़ोर चेतावनी प्रणाली, खराब आपदा प्रबंधन, राजनीतिक अस्थिरता और बेतरतीब शहरी विकास सहित अन्य कारकों की भी भूमिका रही है। जल निकासी और जल भंडारण के बुनियादी ढांचे की कमी के साथ-साथ बाढ़ संभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की बड़ी संख्या भी एक गंभीर समस्या के रूप में उभरी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांद पर दोबारा उतरने की कवायद – प्रदीप

आर्टेमिस मिशन के ज़रिए नासा इंसानों को एक बार फिर चांद पर उतारने की योजना बना रहा है। हाल ही में अपोलो-11 चंद्र लैंडिंग की 53वीं वर्षगांठ के अवसर पर नासा के एक्सप्लोरेशन सिस्टम डेवलपमेंट मिशन निदेशालय के सह-प्रशासक जिम फ्री ने बताया है कि आर्टेमिस-I मेगा मून रॉकेट जल्द ही लांच किया जा सकता है। आर्टेमिस-I एक मानव रहित मिशन होगा। यह मिशन आर्टेमिस कार्यक्रम के प्रारंभिक परीक्षण के तौर पर चांद पर जाएगा और फिर वापस धरती पर लौट आएगा। आर्टेमिस मिशन के ज़रिए नासा 2025 तक इंसानों को एक बार फिर चांद पर उतारने के अपने लक्ष्य को पूरा करना चाहता है। इस मिशन के तहत एक महिला भी चांद पर जाएगी, जो चांद पर जाने वाली विश्व की पहली महिला बनेगी।

आर्टेमिस मिशन अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत करेगा। नासा का कहना है कि भले ही यह मिशन चांद से शुरू होगा पर यह निकट भविष्य के मंगल अभियानों के लिए भी वरदान सिद्ध होगा क्योंकि चांद पर जाना, मंगल पर पहुंचने से पहले आने वाला एक बेहद अहम पड़ाव है। दरअसल, नासा चांद को मंगल पर जाने के लिए एक लांच पैड की तरह इस्तेमाल करना चाहता है।

रणनीतिक और सामरिक महत्व के चलते चांद पर जाने की होड़ एक नए सिरे से शुरू हो चुकी है। जो भी देश चांद पर सबसे पहले कब्जा करेगा उसका अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दबदबा बढ़ेगा। चंद्रमा की दुर्लभ खनिज संपदा, खासकर हीलियम-3, ने भी इसे सबका चहेता बना दिया है। अमेरिका के अलावा रूस, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत भी 2022-23 में अपने चंद्र अन्वेषण यान भेजने वाले हैं। यही नहीं, कई निजी कंपनियां चांद पर सामान व उपकरण पहुंचाने और प्रयोगों को गति देने के उद्देश्य से सरकारी अंतरिक्ष एजेंसियों के ठेके हासिल करने की कतार में खड़ी हैं।

भारत के चंद्रयान-2 मिशन के विफल होने के बाद, भारत 2023 की पहली तिमाही में चंद्रयान-3 मिशन के तहत दोबारा लैंडर और रोवर चांद पर भेजने की योजना बना रहा है। चंद्रयान-2 मिशन के सबक के आधार पर चंद्रयान-3 मिशन की तैयारी की गई है। चंद्रयान-2 के दौरान लांच किए गए ऑर्बाइटर का उपयोग भी किया जाएगा।

चांद पर जाने की तैयारी में विभिन्न देशों की सरकारी और निजी स्पेस एजेंसियां पूरे दमखम के साथ जुटी हैं। दक्षिणी कोरिया अगले महीने अपना पहला ‘कोरिया पाथफाइंडर ल्यूनर ऑर्बाइटर मिशन’ भेजेगा। यह ऑर्बाइटर चंद्रमा की भौगोलिक और रासायनिक संरचना का अध्ययन करेगा। इसी साल रूस भी अपने लैंडर लूना-25 को चांद की सतह पर उतारने की तैयारियों में जुटा हुआ है। गौरतलब है कि पिछले 45 वर्षों में यह चांद की ओर रूस का पहला मिशन होगा। इनके अलावा जापान भी अगले साल अप्रैल में चांद पर अपना स्मार्ट लैंडर उतारने की तैयारी कर रहा है। दुनिया भर के देशों में चांद को लेकर एक होड़-सी लगी दिखती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत की खोज में जंतुओं ने समंदर लांघा था – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्मों में नाचते, गाते, शरारत करते लीमर ज़रूर दिखेंगे। ये सिर्फ मैडागास्कर द्वीप पर ही पाए जाते हैं जो प्रकृतिविदों के लिए हमेशा से दिलचस्प जंतुओं का आवास स्थल रहा है।

मैडागास्कर में पाए जाने वाले कई जंतुओं का सम्बंध दूरस्थ भारत (दूरी 3800 कि.मी.) में पाए जाने वाले वंशों से दिखता है, बनिस्बत अफ्रीका के जंतुओं से जबकि अफ्रीका यहां से महज 413 कि.मी. दूर है। यह प्रकृतिविदों के लिए एक ‘अबूझ पहेली’ रही है।

प्राणि वैज्ञानिक फिलिप स्क्लेटर हैरान थे कि लीमर और सम्बंधित जंतु व उनके जीवाश्म मैडागास्कर और भारत में तो पाए जाते हैं लेकिन मैडागास्कर के निकट स्थित अफ्रीका या मध्य पूर्व में अनुपस्थित हैं। 1860 के दशक में उन्होंने प्रस्तावित किया था कि किसी समय भारत और मैडागास्कर के बीच एक बड़ा द्वीप या महाद्वीप मौजूद रहा होगा, जो दोनों स्थानों के बीच सेतु का कार्य करता था। समय के साथ यह द्वीप डूब गया। इस प्रस्तावित जलमग्न द्वीप को उन्होंने लेमुरिया नाम दिया था।

स्क्लेटर की इस परिकल्पना ने हेलेना ब्लावात्स्की जैसे तांत्रिकों को आकर्षित किया, जिनका यह मानना था कि यही वह स्थान होना चाहिए जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई थी।

देवनेया पवनर जैसे तमिल धार्मिक पुनरुत्थानवादियों ने भी इस विचार को अपनाया और इसे एक तमिल सभ्यता की संज्ञा दी। साहित्य और पांडियन दंतकथाओं में यह समुद्र में जलगग्न सभ्यता के रूप में वर्णित है। वे इस जलमग्न महाद्वीप को कुमारी कंदम कहते थे।

महाद्वीपों का खिसकना

स्क्लेटर के विचारों ने तब समर्थन खो दिया जब एक अन्य ‘हैरतअंगेज़’ सिद्धांत – महाद्वीपीय खिसकाव या विस्थापन – ने स्वीकृति प्राप्त करना शुरू किया। प्लेट टेक्टोनिक्स नामक इस सिद्धांत के अनुसार बड़ी-बड़ी प्लेट्स – जिन पर हम खड़े हुए हैं (या चलते-फिरते हैं, रहते हैं) – पिघली हुई भूमिगत चट्टानों पर तैरती हैं और एक-दूसरे के सापेक्ष ये प्रति वर्ष 2-15 से.मी. खिसकती हैं। तकरीबन 16.5 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना नामक विशाल भूखंड दो हिस्सों में बंट गया था – इसके एक टुकड़े में वर्तमान के अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका थे और दूसरे टुकड़े में भारत, मैडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका थे।

फिर लगभग 11.5 करोड़ साल पूर्व मैडागास्कर और भारत एक साथ इससे टूटकर अलग हो गए थे। लगभग 8.8 करोड़ साल पहले, भारत उत्तर की ओर बढ़ने लगा और इसने रास्ते में कुछ छोटे-छोटे भू-भाग (द्वीप) छोड़ दिए जिससे सेशेल्स बना। यह टूटा हुआ हिस्सा लगभग 5 करोड़ साल पहले युरेशियन भू-भाग से टकराया जिससे हिमालय और दक्षिण एशिया बने।

लगभग 11.5 करोड़ साल पहले डायनासौर का राज था। इस समय तक कई जीव रूपों का विकास भी नहीं हुआ था। भारत और मैडागास्कर में पाए जाने वाले डायनासौर के जीवाश्म काफी एक जैसे हैं, और ये अफ्रीका और एशिया में पाई जाने वाली डायनासौर प्रजातियों के समान नहीं हैं जो गोंडवाना के टूटने का समर्थन करता है। भारत और मैडागास्कर दोनों जगहों पर लैप्लेटोसॉरस मेडागास्करेन्सिस के अवशेष पाए गए हैं।

आणविक घड़ियां

आणविक घड़ी एक शक्तिशाली तकनीक है जिसका उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि जैव विकास के दौरान कोई दो जीव एक-दूसरे से कब अलग हुए थे। यह तकनीक इस अवलोकन पर आधारित है कि आरएनए या प्रोटीन अणु की शृंखला में वैकासिक परिवर्तन काफी निश्चित दर पर होते हैं। जैसे दो जीवों के हीमोग्लोबिन जैसे प्रोटीन में अमीनो एसिड में अंतर आपको यह बता सकता है कि उनके पूर्वज कितने वर्ष पहले अलग हो गए थे। आणविक घड़ियां अन्य साक्ष्यों (जैसे जीवाश्म रिकॉर्ड) से काफी मेल खाती हैं।

दक्षिण भारत और श्रीलंका में मीठे पानी और खारे पानी की मछलियों के सिक्लिड परिवार के केवल दो वंश हैं – एट्रोप्लस (जो केरल की एक खाद्य मछली है, जहां इसे पल्लती कहा जाता है) और स्यूडेट्रोप्लस। आणविक तुलना से पता चलता है कि एट्रोप्लस के निकटतम सम्बंधी मैडागास्कर में पाए जाते हैं, और इनके साझा पूर्वज 16 करोड़ वर्ष पहले अफ्रीकी सिक्लिड्स से अलग हो गए थे। चौथे तरह के सिक्लिड दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं, इस प्रकार ये गोंडवाना के छिन्न-भिन्न होने का समर्थन करते हैं।

एशिया, मैडागास्कर और अफ्रीका में जीवों के वितरण में भारत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। गोंडवाना के जीव भारत से निकलकर फैले। कुछ अन्य जीव यहां आकर बस गए। उदाहरण के लिए, मीठे पानी के एशियाई केंकड़े (जेकार्सिन्यूसिडी कुल)अब समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाते हैं लेकिन उनके सबसे हालिया साझा पूर्वज भारत में विकसित हुए थे। सूग्लोसिडे नामक मेंढक कुल सिर्फ भारत और सेशेल्स में पाया जाता है।

गढ़वाल के एचएनबी विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय और जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने गुजरात की वस्तान लिग्नाइट खदान से प्राप्त जीवाश्म में प्रारंभिक भारतीय स्तनधारी – चमगादड़ की एक प्रजाति, और प्रारंभिक युप्राइमेट – एक आदिम लीमर की पहचान की है। ये लगभग 5.3 करोड़ वर्ष पूर्व के जीवाश्म हैं, जो भारत-युरेशियन प्लेट्स के टकराने (या उससे ठीक पहले) का समय है।

लीमर्स के बारे में क्या? मैडागास्कर बहुत बड़ा द्वीप है, यहां विविध तरह की जलवायु परिस्थितियां हैं। साक्ष्य बताते हैं कि अफ्रीका से समुद्र पार करके एक पूर्वज प्राइमेट यहां आया था। कोई बंदर, वानर या बड़े शिकारी इसे पार नहीं कर सके थे, इसलिए यहां दर्जनों लीमर प्रजातियां फली-फूलीं।

भारत में लोरिस पाए जाते हैं, जो लीमर के निकटतम सम्बंधी हैं। ये शर्मीले, बड़ी और आकर्षक आंखों वाले निशाचर वनवासी हैं। माना जाता है कि ये भी समुद्री रास्ते से अफ्रीका से यहां की यात्रा में जीवित बच गए। सुस्त लोरिस ज़्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों में पाए जाते हैं, और छरहरे लोरिस कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के सीमावर्ती क्षेत्र में पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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साल भर सूखा रहे तो क्या होगा?

दुनिया के कई हिस्से भयानक सूखे की मार झेल रहे हैं। और सूखे की परिस्थितियों में वनस्पतियों की प्रतिक्रिया जानने को लेकर किया गया हालिया अध्ययन बताता है कि सूखे की स्थिति जलवायु परिवर्तन को और बुरी तरह प्रभावित सकती है।

साल भर सूखे की हालत रहे तो वनस्पतियों की वृद्धि 80 प्रतिशत तक कम हो सकती है, जिसके चलते इनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता बहुत कम हो जाएगी। और घास के मैदानों में पौधों की कुल वृद्धि 36 प्रतिशत तक कम हो सकती है। वैसे लगभग 20 प्रतिशत अध्ययन क्षेत्रों की वनस्पति सूखे के बावजूद फलती-फूलती रही।

दरअसल तीन पारिस्थितिकीविद जानना चाहते थे कि शुष्क मौसम पौधों की उत्पादकता को कैसे प्रभावित करता है, खास कर घास के मैदानों और झाड़ियों वाले स्थानों पर क्योंकि ज़मीन के 40 प्रतिशत हिस्से पर तो यही हैं। इसके लिए उन्होंने एक प्रयोग – अंतर्राष्ट्रीय सूखा प्रयोग (आईडीई) – डिज़ाइन किया, जिसमें उन्होंने 139 अध्ययन स्थलों पर कृत्रिम सूखा पैदा किया और वनस्पतियों की वृद्धि को मापा। इनमें से कुछ अध्ययन स्थल ईरान और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में थे। अधिकतर अध्ययन क्षेत्र झाड़ी और घास के मैदानों में थे, जहां वर्षा को कृत्रिम रूप से रोकना आसान था।

इसके लिए उन्होंने 1 वर्ग मीटर के क्षेत्र को प्लास्टिक की शीट से ढंक कर वर्षा को अवरुद्ध किया; कितनी वृष्टि की ज़रूरत है, उसके अनुसार उन्होंने प्लास्टिक शीट के बीच जगह छोड़ी। औसतन वहां होने वाली सामान्य से आधे से भी कम वर्षा मिली। कंट्रोल के तौर पर हर अध्ययन स्थल एक वर्ग मीटर के क्षेत्र को खुला छोड़ा गया।

प्रत्येक स्थल पर दोनों भूखंडों में पौधों के प्रकार और संख्या का हिसाब रखा। एक साल तक सूखे की स्थिति बनाए रखने के बाद शोधकर्ताओं ने फिर से पौधों का सर्वेक्षण किया, दोनों तरह के भूखंडों के पौधों को काटा, सुखाया और तौला।

100 अध्ययन स्थल से प्राप्त परिणामों में देखा गया कि कुछ क्षेत्रों के छोटी घास के मैदानों को कृत्रिम सूखे से भारी क्षति पहुंची थी। पानी की कमी वाले क्षेत्र में पौधों की उत्पादकता में 88 प्रतिशत की कमी देखी गई।

इसके विपरीत, जर्मनी के एक समशीतोष्ण घास के मैदान में कृत्रिम सूखे से कोई खास फर्क नहीं पड़ा था (जर्मनी के अध्ययन स्थलों की जलवायु नम होती है और कम गंभीर सूखा पड़ता है)। कुल मिलाकर नम जलवायु वाले पौधों का प्रदर्शन बेहतर रहा, और झाड़ी वाले भूखंडों ने घास वाले भूखंडों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया। घास वाले भूखंडों की उत्पादकता में औसतन 36 प्रतिशत की कमी देखी गई — यह पूर्व अध्ययनों में देखी गई कमी से लगभग दुगनी है।

कई शोधकर्ता इस प्रयोग को चार या उससे अधिक वर्षों तक जारी रखना चाहते हैं। यह अतिरिक्त डैटा जलवायु मॉडल के अनुमानों को बेहतर करने में मदद कर सकता है, जो यह बता सकते हैं कि सूखा पड़ने पर झाड़ी और घास के मैदान कितनी कम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करेंगे। ये नतीजे पारिस्थितिकीविदों को यह अनुमान लगाने में भी मदद कर सकते हैं कि सूखे के दौरान कौन से पारिस्थितिक तंत्र सबसे अधिक जोखिम में होंगे। कम वनस्पति का मतलब होगा उन्हें खाने वाले वाले जानवरों के लिए कम भोजन, और इससे चलते इनके शिकारियों के लिए कम भोजन। कई पारिस्थितिक तंत्रों का स्वास्थ्य और उनकी जैव विविधता पौधों के उत्पादन पर निर्भर करती है। (स्रोत फीचर्स)

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सौर मंडल से बाहर के ग्रह में कार्बन डाईऑक्साइड

जेम्स वेब दूरबीन की मदद से सौर मंडल से बाहर के एक ग्रह के वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड के साक्ष्य मिले हैं। शनि के आकार का यह ग्रह पृथ्वी से 700 प्रकाश वर्ष दूर है। यह पहली बार है कि किसी बाह्य ग्रह में इस गैस के साक्ष्य मिले हैं। किसी ग्रह पर कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से उस ग्रह की उत्पत्ति के महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। खगोलविदों का विश्वास है कि जल्द ही जेम्स वेब दूरबीन से मीथेन और अमोनिया जैसी गैसों की पहचान भी की जा सकेगी जो किसी ग्रह पर जीवन की उपस्थिति का अंदाज़ देंगी।

वेब दूरबीन अवरक्त तरंगों के प्रति संवेदनशील है जिन्हें पृथ्वी का वायुमंडल अवरुद्ध करता है। जब कोई ग्रह कक्षा में चक्कर लगाते हुए अपने तारे के सामने से गुज़रता है तो तारे का प्रकाश ग्रह के वायुमंडल से होकर गुज़रता है। वायुमंडल से गुज़रने के दौरान प्रकाश में जो परिवर्तन होते हैं वे ग्रह के वायुमंडल के संघटन का सुराग देते हैं क्योंकि वायुमंडल में उपस्थित गैसें विभिन्न तरंग लंबाई के प्रकाश का अवशोषण करती हैं। हमारी रुचि की अधिकांश गैसें अवरक्त प्रकाश का अवशोषण करती हैं।          

हालिया अध्ययन के लिए खगोलविदों ने वैस्प-39बी नामक गैसीय गर्म विशाल ग्रह को चुना जो हर 4 दिनों में अपने तारे की परिक्रमा करता है। इस ग्रह के अवशोषण स्पेक्ट्रम में वेब टीम ने कार्बन डाईऑक्साइड गैस की यकीनी उपस्थिति देखी। वैसे इसी डैटा से कार्बन डाईऑक्साइड के अलावा एक और गैस का पता चला है लेकिन अभी तक टीम ने इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। जल्द ही परिणाम नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए जाएंगे जिसमें इस ग्रह पर उपस्थित सभी रसायनों की जानकारी होगी।   

किसी भी ग्रह पर कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से उस ग्रह की ‘धात्विकता’ का पता चलता है। ‘धात्विकता’ का अर्थ है कि किसी ग्रह पर हाइड्रोजन व हीलियम तथा अन्य तत्वों का अनुपात क्या है। गौरतलब है कि बिग बैंग के बाद ब्रह्मांड में हाइड्रोजन और हीलियम का निर्माण हुआ था। आगे चलकर इन दो तत्वों से अधिक भारी तत्वों का निर्माण तारों में हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार भारी तत्वों ने विशाल ग्रहों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब किसी नए तारे के इर्द-गिर्द सामग्री के डिस्क से ग्रह का निर्माण होता है तब भारी तत्व ठोस पत्थरों और चट्टानों को जोड़कर कोर का निर्माण करते हैं जो अंततः अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण से गैसों को अपनी ओर खींचते हैं और एक विशाल ग्रह का रूप ले लेते हैं।         

वैस्प-39बी से मिले कार्बन डाईऑक्साइड के साक्ष्यों से वेब टीम का अनुमान है कि इस ग्रह की धात्विकता लगभग शनि ग्रह के समान है। उम्मीद है कि वेब दूरबीन कई आश्चर्यजनक परिणाम देगी। शायद हमें कोई ऐसा ग्रह मिल जाए जो जीवन के योग्य हो। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन कांसा उत्पादन के नुस्खे की नई व्याख्या

1976 में की गई खुदाई में शांग राजवंश के एक चीनी सेनापति फू हाओ के तीन हज़ार साल पुराने मकबरे से 1.5 टन से अधिक कांसा निकला था। खुदाई में प्राप्त वस्तुओं की तादाद से पता चलता है कि तत्कालीन चीन में कांस्य उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था। और दिलचस्प बात यह रही है कि कांसे की कई पुरातात्विक वस्तुओं में काफी मात्रा में सीसा (लेड) पाया गया है। यह एक रहस्य रहा है कि कांसे में इतना सीसा क्यों है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने 2300 साल पुराने एक ग्रंथ में वर्णित कांस्य वस्तुएं बनाने के नुस्खे को नए ढंग से समझने की कोशिश की है। उनका निष्कर्ष है कि चीन के प्राचीन ढलाईघरों में कांसे की वस्तुएं बनाने के लिए पहले से तैयार मिश्र धातुओं का उपयोग किया जाता था। इससे पता चलता है कि – चीन का कांस्य उद्योग अनुमान से अधिक जटिल था।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद और अध्ययन के लेखक मार्क पोलार्ड बताते हैं कि किसी समय चीन प्रति वर्ष सैकड़ों टन कांसे का उत्पादन करता था।

वैसे दशकों से पुरातत्वविद काओगोंग जी नामक प्राचीन ग्रंथ को समझने की कोशिश करते आए हैं। काओगोंग जी 2500 साल पुराना एक तकनीकी विश्वकोश सरीखा ग्रंथ है। इसमें गाड़ी बनाने, वाद्ययंत्र बनाने से लेकर शहर बनाने तक के निर्देश-नियम दिए गए हैं। इसमें कांसे की वस्तुओं जैसे कुल्हाड़ी, तलवार और अनुष्ठानों में उपयोग होने वाले पात्रों को ढालने की भी छह विधियां बताई गई हैं। ये तरीके दो प्रमुख पदार्थों पर आधारित हैं: शिन और शाय। पूर्व विश्लेषणों में वैज्ञानिकों ने बताया था कि शिन और शाय कांसे के घटक (तांबा और टिन) हैं। लेकिन फिर भारी मात्रा में सीसा कहां से आया?

तो वास्तव में शिन और शाय क्या होंगे, इसे बेहतर समझने के लिए शोधकर्ताओं ने प्राचीन कांस्य सिक्कों के रासायनिक विश्लेषणों को फिर से देखा। उनके अनुसार इनमें से अधिकांश सिक्के संभवत: दो खास मिश्र धातुओं को मिलाकर बनाए गए थे – पहली तांबा, टिन व सीसा की मिश्र धातु, और दूसरी तांबा व सीसा की मिश्र धातु।

एंटीक्विटी में प्रकाशित में नतीजों के अनुसार शिन और शाय तांबा और टिन नहीं इन दो मिश्र धातुओं के द्योतक हैं। ऐसा लगता है कि मिश्र धातुओं की सिल्लियां किसी अन्य जगह तैयार होती थीं, फिर इन्हें ढलाईघर पहुंचाया जाता था। इन सिल्लियों का उपयोग प्राचीन चीन में धातुओं के उत्पादन, परिवहन और आपूर्ति के जटिल नेटवर्क का अंदाज़ा देता है। संभवत: यह नेटवर्क अनुमान से कहीं बड़ा था।

कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि इस बात के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं कि शिन और शाय शुद्ध तांबा और टिन नहीं बल्कि पहले से तैयार मिश्र धातु हैं। हो सकता है कि काओगोंग जी वास्तविक निर्माताओं द्वारा नहीं, बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा लिखा गया था। तो हो सकता है कि उन्होंने प्रमुख सामग्री – तांबा और टिन – का ही उल्लेख किया हो, अन्य का नहीं।

बहरहाल कांस्य वस्तुओं के निर्माण की तकनीक से उनसे जुड़ी सभ्यताओं को समझने में मदद मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

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कमाल का संसार कुकुरमुत्तों का – डॉ. ओ. पी. जोशी

रसात के दिनों में सड़ी-गली वस्तुओं पर पैदा होकर जल्द ही गायब होने वाले सुंदर, नाज़ुक एवं रंग-बिरंगे कुकुरमुत्ते हमेशा ही ध्यान आकर्षित करते हैं। प्राचीन समय में मनुष्य इस दुविधा में था कि ये पौधे हैं या फिर जंतु। अलबत्ता, प्रसिद्ध वैज्ञानिक थियोफ्रेस्टस (371–287 ईसा पूर्व) का मत था कि ये एक प्रकार की वनस्पति हैं।

कुकुरमुत्ते मृतोपजीवी (सेप्रोफाइट) हैं, जो सड़े गले पदार्थों से भोजन प्राप्त करते है। जीवजगत के आधुनिक वर्गीकरण में इन्हें कवक (फंजाई) समुदाय में रखा गया है। अंग्रेज़ी में इन्हें मशरूम तथा हिंदी में कई नामों से जाना जाता है, जैसे खुंभ, खुंभी, गुच्छी, धींगरी तथा भींगरी। इनकी ज़्यादातर प्रजातियां छतरी समान होने के कारण इन्हें छत्रक भी कहा जाता है। इनका ऊपर का छतरी समान भाग (पायलियस) एक ठंडल समान रचना (स्टेप) से जुड़ा रहता है। इस रचना के ज़मीन से सटे भाग से जड़ों के समान धागे जैसी रचनाएं (माइसीलियम) निकलकर पोषक पदार्थों का अवशोषण करती हैं। छतरी समान रचना में कई छोटे-छोटे खांचे (गिल्स) होते हैं जहां बीजाणु (स्पोर्स) बनते हैं। इनका प्रसार धागेनुमा रचना एवं बीजाणु दोनों से होता है। कुछ कुकुरमुत्ते पूरी तरह भूमिगत होते हैं जिन्हें ट्रफल कहा जाता है।

कुकुरमुत्तों का वर्णन कई देशों के प्राचीन साहित्य में मिलता है। बेबीलोन, यूनान एवं रोम सभ्यता के पुराने धार्मिक ग्रंथों में इनके विविध उपयोगों का ज़िक्र है। चीन की पुरानी पुस्तकों में इनको उगाने की विधि बताई गई है। हमारे देश के प्राचीन ग्रंथ चरक संहिता में इन्हें तीन प्रकार का बताया गया है – खाने योग्य, विषैले एवं औषधीय। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि प्राचीन काल में प्रचलित सोमरस भी एमेनिटा मस्केरिया नामक कुकुरमुत्ते से बनाया जाता था जो फ्लाय-एगेरिक के नाम से मशहूर है।

प्राचीन युरोप एवं रोम की मान्यता के अनुसार कुकुरमुत्ते बादलों में कड़कती बिजली के कारण धरती पर पैदा होते है। मेक्सिको में प्राचीन समय में इन्हें दैवी शक्ति मानकर पूजा की जाती थी। यूनानवासी एक समय मूर्ख लोगों को कुकुरमुत्ता कहते थे। प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने 19वीं सदी में दक्षिण अमेरिका के एक द्वीप पर वहां के निवासियों को मांस-मछली के साथ कुकुरमुत्ते एवं स्ट्रॉबेरी खाते देखा था। इन कुकुरमुत्तों को बाद में सायटेरिया डार्विनाई कहा गया। जूलियस सीज़र के समय एक ताकत देने वाला कुकुरमुत्ता (एगेरिकस प्रजाति) सैनिकों को खिलाया जाता था।

कुकुरमुत्तों को उगाने या खेती करने का इतिहास भी काफी पुराना है। चीन एवं जापान के लोग लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व पेड़ों के तनों के टुकड़ों पर अपनी पसंद के कुकुरमुत्ते उगाते थे। 17वीं सदी में पेरिस के निर्माण के लिए खोदी गई चूना पत्थर की बेकार पड़ी खदानों में घोड़े की लीद पर फ्रांसीसियों ने इनकी खेती की। यहां से इनकी खेती का चलन पूरे युरोप, अमेरिका एवं अन्य देशों में फैला। वर्तमान में इनकी खेती में कम्पोस्ट खाद एवं भूसी का उपयोग किया जाता है। यदि गर्मियों में ठंडक तथा जाड़ों गर्म रखने की व्यवस्था हो तो कुकुरमुत्तों की खेती वर्ष भर की जा सकती है। हमारे देश में इनकी खेती 1962 में प्रारम्भ हुई।

कुछ प्रजातियों के कुकुरमुत्तों का आकार छतरी से भिन्न भी होता है – जैसे अंडाकार (पोडेक्सिस एवं क्लेवेरिया), सीप समान (प्लूटियस), कुप्पी (फनल) के समान (क्लाइटोसाइब) एवं चिड़ियों के घोसले में रखे अंडों के समान (साएथस)। कुछ कुकुरमुत्ते (प्लूरोटस तथा आर्मेलेरिया प्रजातियां) रात में जंगलों में ऐसे चमकते हैं मानों छोटे-छोटे बिजली के बल्ब लगे हों।

कुकुरमुत्ते खाद्य तथा चिकित्सा के क्षेत्र में काफी उपयोगी पाए गए हैं। वैसे तो दुनिया भर में कई प्रकार के कुकुरमुत्ते उगाए एवं खाए जाते हैं परंतु तीन प्रमुख हैं – बटन खुंभी (एगेरिकस प्रजातियां), धान पुआल खुंभी (वॉल्वेरिया प्रजातियां) एवं ढोंगरी (प्लूरोटस प्रजातियां)।

पोषण वैज्ञानिकों के मुताबिक 100 ग्राम ताज़े कुकुरमुत्ते में औसतन 5 ग्राम ऐसा प्रोटीन होता है जो शरीर में पूरी तरह पच जाता है। इसके अलावा कार्बोहायड्रेट, विटामिन्स, वसा, रेशे एवं खनिज पदार्थ भी पाए जाते हैं। वसा एवं कार्बोहायड्रेट की मात्रा कम होने से मोटापा के प्रति चिंतित लोगों में कुकुरमुत्तों के खाद्य पदार्थ काफी लोकप्रिय हैं। मधुमेह एवं हृदय रोगियों के लिए भी इनका भोजन आदर्श बताया गया है। जलवायु बदलाव से भविष्य में खाद्यान्न पैदावार में कमी की संभावना के मद्देनज़र भोजन में कुकुरमुत्तों के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी ये काफी उपयोगी पाए गए हैं। होम्योपैथी की कई दवाइयों में एगेरिक का उपयोग किया जाता है। लायकोपरडॉन का उपयोग ड्रेसिंग के लिए मुलायम पट्टियां बनाने में किया जाता है। कई प्रजातियों से क्रमश: हृदय रोग एवं रक्तचाप नियंत्रण की दवाई बनाने के प्रयास जारी हैं। अमेरिका तथा जापान के राष्ट्रीय कैंसर शोध संस्थाओं ने ग्रिफोला-फानड्रोसा तथा एक अन्य प्रजाति में कैंसर-रोधी गुणों की खोज की है। यह संभावना भी व्यक्त की गई है कि गेनोडर्मा से एड्स, कैंसर एवं मधुमेह का उपचार संभव है। त्रिसुर (केरल) के अमाला कैंसर शोध संस्थान ने पाया कि गेनोडर्मा से बनाई दवा कीमोथेरेपी के साइड प्रभावों को कम कर देती है। उत्तर कोरिया के वैज्ञानिकों ने कुकुरमुत्तों की कुछ प्रजातियों से एक ऐसा पेय पदार्थ तैयार किया है जिसका सेवन खिलाड़ियों की थकावट को दूर कर तरोताज़ा बना देता है। पेनसिल्वेनिया स्टेट विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने ऐसा पेय तैयार किया है जिसका सेवन लोगों को अवसाद से उबारकर स्फूर्ति प्रदान करता है। सोलन स्थित राष्ट्रीय मशरूम अनुसंधान केन्द्र में इसे सफलता पूर्वक उगाया गया है।

कुकुरमुत्तों का सेवन नशे के लिए किए जाने के भी प्रमाण मिले हैं। मेक्सिको के लोग एमेनिटा को खाकर आनंद की अनुभूति करते थे। एक अन्य कुकुरमुत्ते में मौजूद एल्केलाइड भी नशा पैदा करता है। कुकुरमुत्तों को देखकर, छूकर, सूंघकर या रंग देखकर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि ये विषैले हैं या विषहीन। एक मान्यता है कि रंगीन विशेषकर बैंगनी कुकुरमुत्ते विषैले होते हैं। दूध का फटना भी विषैले कुकुरमुत्तों की एक पहचान बताई गई है।

और तो और, डिज़ाइनर व वास्तुकार फिलिप रॉस ने इनकी मायसीलियम से मज़बूत ईंट का निर्माण किया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की प्रासंगिकता पर सवाल – डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कुछ करता ही नहीं है, तो क्यों ना उसे समाप्त कर दिया जाए। मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं अजीत कुमार की खंडपीठ कर रही है।

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने न्यायालय को बताया कि कानपुर के चमड़ा उद्योग और गजरौला के शक्कर कारखाने की गंदगी शोधित हुए बिना गंगा नदी में गिर रही है; इस कारण सीसा, पोटेशियम व कई रेडियोसक्रिय पदार्थ गंगा नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। गंगा के प्रदूषण को लेकर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है वह आंखों में धूल झोंकने वाली है; जब जांच करानी होती है तब साफ पानी मिलाकर सैंपल भेज कर अच्छी रिपोर्ट तैयार करा ली जाती है जबकि गंदा पानी सीधे गंगा में गिरता रहता है।

सुनवाई के दौरान न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से पूछा कि आपकी भूमिका क्या है, कैसी निगरानी कर रहे हैं, आपके पास इस सम्बंध में कितनी शिकायतें पहुंची है और कितने पर कार्रवाई की गई है? बोर्ड के अधिवक्ता इस पर ठीक से जवाब नहीं दे पाए तो न्यायालय ने कहा कि जब आप ठीक से निगरानी नहीं कर रहे हो और कुछ कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों न बोर्ड को बंद कर दिया जाए?

प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए देश में कई नियम-कानून और विशिष्ट एजेंसियां कार्य कर रही हैं। प्रदूषण नियंत्रण की सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी एवं कर्मचारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि कई बार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष के अभाव में प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को उनके विभागीय दायित्व के अतिरिक्त प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया जाता हैं। ऐसी स्थिति में कई अधिकारी बोर्ड के लिए समय ही नहीं निकाल पाते हैं। कभी-कभी राज्य बोर्ड में संचालक मंडल के सदस्यों की नियुक्ति लंबे समय तक टलती रहती है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि दूसरे निगम-मंडलों की तुलना में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्रियाकलापों पर शासन और समाज स्तर पर ज़्यादा चर्चा नहीं हो पाती है।

पिछले दिनों एक सर्वेक्षण से पता चला था कि राज्य बोर्ड में कार्यरत अधिकांश कर्मचारियों को प्रदूषण नियंत्रण के ज़रूरी मानकों के इतिहास और उनके उद्देश्यों की जानकारी नहीं थी। संसदीय समिति की वर्ष 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में विभिन्न राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में 77 प्रतिशत अध्यक्ष एवं 55 प्रतिशत सदस्य-सचिव अपने पदों पर कार्य करने की योग्यता नहीं रखते थे।

प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाए गए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बढ़ते प्रदूषण को रोकने में असफल रहे हैं। बोर्डों के गठन के बाद से औद्योगिक और नगरीय प्रदूषण के साथ ही कस्बाई प्रदूषण के आंकड़ों का ग्राफ निरंतर बढ़ता जा रहा है। इधर बोर्ड के अधिकारियों का ज़्यादातर प्रयास यह रहता है कि कारखाने में कुछ हो ना हो, कागज़ों पर प्रदूषण नियंत्रण में रहे। बोर्ड के पास भारी-भरकम अमला है, जिसमें कानून के हथियारों से लैस उच्च अधिकारी हैं; क्षेत्रीय अधिकारियों की फौज के साथ ही बड़ी संख्या में वैज्ञानिक हैं। प्रदूषण नियंत्रण में इन सबका कितना उपयोग हो रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार आवश्यक है कि बोर्ड को उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करनी है या देश के जनसामान्य को प्रदूषण मुक्त वातावरण उपलब्ध करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है।

कहा जाता है कि कुछ बोर्ड में औद्योगिक प्रदूषण की नियमित जांच का हाल यह है कि उद्योग में अफसरों के पहुंचने के पूर्व उनका प्रवास कार्यक्रम पहुंच जाता है। प्राय: ऐसे अवसर पर उद्योग में सब कुछ ठीक-ठाक पाया जाता है। प्राय: बोर्ड के अधिकारी उद्योग के रेस्ट हाउस या किसी होटल या रिसोर्ट में बैठकर जांच रिपोर्ट पूर्ण कर लेते हैं।

लगभग साढ़े तीन दशक पहले मेरे गृह नगर के प्रमुख पेयजल स्रोत को प्रदूषित करने वाले एक रसायन उद्योग के विरुद्ध लंबे समय तक अभियान चलाने का मुझे अवसर मिला था। अनेक स्तरों पर प्रतिकार का कोई ठोस प्रतिसाद नहीं मिला तो हमें सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा, जहां जनहित याचिका के माध्यम से जनता की व्यथा को अभिव्यक्ति दी और उसमें न्याय मिला। करीब पांच साल चले इस अभियान में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष और चंद अधिकारियों को छोड़ दें तो बोर्ड की तकनीकी राय हमेशा उद्योग के पक्ष में रहती थी।

अक्सर कहा जाता है कि जब देश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य नियामक संस्थाएं नहीं थी, तब देश का पर्यावरण समृद्ध था, नदियां स्वच्छ थीं तथा वन और वन्य प्राणी भी सुरक्षित थे। आज प्रदूषण की ऐसी गंभीर स्थिति क्यों बनी? इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए किसी की तो ज़िम्मेदारी होगी। कई वर्षों के बाद यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी देश के पर्यावरण के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बोर्ड की कार्यपद्धति और क्रियाकलापों में हर स्तर पर पारदर्शिता लाई जाए। इसके लिए सरकार, जन प्रतिनिधि, पर्यावरण संगठन और जनसामान्य को सक्रियता से ठोस पहल करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चबा-चबाकर खाइए और कैलोरी जलाइए

ब कैलोरी बर्न करने की बात आती है तो लोगों का ध्यान सरपट सैर, साइकिल चलाना या ऐसे ही व्यायामों की ओर जाता है, चबाने का तो विचार तक नहीं आता। अब, एक नवीन अध्ययन बताता है कि दिन भर में हमारे द्वारा खर्च की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 3 प्रतिशत ऊर्जा तो चबाने की क्रिया में खर्च होती है। कुछ सख्त या रेशेदार चीज़ चबाएं तो थोड़ी और अधिक ऊर्जा खर्च होगी। हालांकि यह ऊर्जा चलने या पाचन में खर्च होने वाली ऊर्जा से बहुत कम है, लेकिन अनुमान है कि इसकी भूमिका हमारे पूर्वजों के चेहरे को नया आकार देने में रही।

ऐसा माना जाता रहा है कि हमारे जबड़ों की साइज़ और दांतों का आकार चबाने को अधिक कुशल बनाने के लिए विकसित हुआ था। जैसे-जैसे हमारे होमिनिड पूर्वज आसानी से चबाने वाले भोजन का सेवन करने लगे और भोजन को काटने-पीसने और पकाने लगे तो जबड़ों और दांतों का आकार भी छोटा होता गया। लेकिन यह जाने बिना कि हम दिनभर में चबाने में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, यह बता पाना मुश्किल है कि क्या वाकई ऊर्जा की बचत ने इन परिवर्तनों में भूमिका निभाई थी।

यह जानने के लिए मैनचेस्टर विश्वविद्यालय की जैविक मानव विज्ञानी एडम वैन केस्टरेन और उनके दल ने 21 प्रतिभागियों द्वारा खर्च की गई ऑक्सीजन और उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा का मापन किया। इसके लिए प्रतिभागियों को एक हेलमेट जैसा यंत्र पहनाया गया था। फिर उन्हें 15 मिनट तक चबाने के लिए चुइंगम दी। यह चुइंगम स्वादहीन, गंधहीन और कैलोरी-रहित थी। ऐसा करना ज़रूरी था अन्यथा पाचन तंत्र सक्रिय होकर  ऊर्जा की खपत करने लगता।

चबाते समय प्रतिभागियों द्वारा प्रश्वासित वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ा हुआ पाया गया। यह दर्शाता है कि चबाने पर शरीर ने अधिक कार्य किया। जब चुइंगम नर्म थी तब प्रतिभागियों का चयापचय औसतन 10 प्रतिशत बढ़ा। सख्त चुइंगम के साथ चयापचय में 15 प्रतिशत तक वृद्धि देखी गई। यह प्रतिभागियों द्वारा दिन भर में खर्च की गई कुल ऊर्जा का 1 प्रतिशत से भी कम है लेकिन मापन-योग्य है। ये नतीजे साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे पता चलता है कि खाना पकाना और औज़ारों का इस्तेमाल शुरू होने से पहले आदिम मनुष्य चबाने में बहुत अधिक समय बिताते होंगे। यदि प्राचीन मनुष्य दिन भर में वर्तमान गोरिल्ला और ओरांगुटान जितना भी चबाते होंगे तो शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वे दिन भर में खर्च हुई कुल ऊर्जा का कम से कम 2.5 प्रतिशत चबाने में खर्च करते होंगे।

ये नतीजे इस विचार का समर्थन करते हैं कि चबाने में सुगमता आने से वैकासिक लाभ मिला। चबाने में लगने वाली ऊर्जा की बचत का उपयोग आराम, मरम्मत और वृद्धि जैसी अन्य चीज़ों पर हुआ होगा।

चबाने में मनुष्यों द्वारा खर्च होने वाली ऊर्जा गणना से अन्य होमिनिड्स के विकास के बारे में भी एक झलक मिल सकती है। मसलन 20 लाख से 40 लाख साल पूर्व रहने वाले ऑस्ट्रेलोपिथेकस के दांत आधुनिक मनुष्यों की तुलना में चार गुना बड़े थे और उनके जबड़े विशाल थे। वे चबाने में अधिक ऊर्जा लगाते होंगे।

अन्य शोधकर्ता इस बात से सहमत नहीं है कि सिर्फ ऊर्जा की बचत ने जबड़ों और दांत के विकास का रुख बदला। इसमें अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अन्य कारकों की हो सकती है, जैसे ऐसे आकार के जबड़े विकसित होना जो दांतों के टूटने या घिसने की संभावना कम करते हों। प्राकृतिक चयन में संभवत: ऊर्जा दक्षता की तुलना में दांतों की सलामती को अधिक तरजीह मिली होगी, क्योंकि दांतों के बिना भोजन खाना मुश्किल है, और ऊर्जा मिलना भी। (स्रोत फीचर्स)

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परमाणु युद्ध हुआ तो अकाल पड़ेगा

युद्धों के दौरान परमाणु हमले के खतरे ने सभी देशों में भय और चिंता की स्थिति पैदा कर दी है, क्योंकि परमाणु हमले के विनाशकारी प्रभावों से सभी वाकिफ हैं। अब, परमाणु सर्दियों पर अब तक का सबसे व्यापक मॉडल कहता है कि परमाणु युद्ध वैश्विक जलवायु को इतनी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है कि इसके चलते अरबों लोग भूखे मर जाएंगे। वैसे यह मॉडल एकदम सटीक भविष्यवाणी तो नहीं करता लेकिन परमाणु युद्ध के खतरों को रेखांकित करने के अलावा अन्य आपदाओं के लिए तैयारियों का खाका पेश करता है।

यह तो विदित है कि भीषण विस्फोट वायुमंडल में इतनी धूल, राख और कालिख उड़ा सकते हैं कि पृथ्वी की जलवायु प्रभावित हो सकती है। 1815 में माउंट तंबोरा के ऐतिहासिक ज्वालामुखी विस्फोट से निकली राख ने पूरी पृथ्वी को ढंक दिया था, जिसने धरती तक पर्याप्त धूप नहीं आने दी। नतीजतन एक साल जाड़े का मौसम बना रहा था। परिणामस्वरूप दुनिया भर में बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद हुई थीं और अकाल पड़ा था।

दशकों से वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि परमाणु हमले भी इसी तरह के हालात पैदा कर सकते हैं। भीषण परमाणु विस्फोट से लगी आग वायुमंडल में लाखों टन कालिख छोड़ेगी, जो सूर्य के प्रकाश को रोकेगी जिसके वैश्विक पर्यावरणीय प्रभाव दिखेंगे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही परमाणु युद्ध के जलवायु सम्बंधी प्रभाव को लेकर चिंताएं उभरने लगी थीं और इस पर अध्ययन शुरू हुए।

परमाणु सर्दियों पर अध्ययन के लिए रटजर्स विश्वविद्यालय के एलन रोबॉक और कोलेरैडो विश्वविद्यालय के ब्रायन टून ने विभिन्न विषयों के वैज्ञानिकों की एक टीम जुटाई। परमाणु सर्दी के मॉडलिंग के लिए उन्होंने उसी जलवायु मॉडल को आधार बनाया जिससे ग्लोबल वार्मिंग के अनुमान लगाए जाते हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल में वैश्विक खाद्य उत्पादन के मॉडल को शामिल किया। उन्होंने इसमें परमाणु युद्ध के 6 परिदृश्य बनाए, और इसमें खेती के साथ-साथ मत्स्य पालन को भी शामिल किया ताकि विस्तृत प्रभाव पता चल सके।

शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि विभिन्न परमाणु हमलों से 50 लाख टन से 1.5 करोड़ टन के बीच कालिख वायुमंडल में पहुंचेगी। फिर उन्होंने इसे सूर्य के प्रकाश, तापमान और वर्षा मॉडल पर लागू किया, और इसके परिणामों को खेती और मत्स्य उत्पादन मॉडल में डाला। शोधकर्ताओं ने मक्का, चावल, सोयाबीन, गेहूं उत्पादन और मत्स्य उत्पादन में संभावित कमी के आधार पर कुल कैलोरी क्षति का अनुमान लगाया। इसके आधार पर उन्होंने गणना की कि कितने लोग भूखे रहेंगे। शोधकर्ताओं ने माना था कि ऐसी स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार ठप हो जाएगा और देशों के अंदर उपलब्ध संसाधनों का अच्छा-से-अच्छा वितरण होगा।

फूड नेचर में शोधकर्ता बताते हैं कि यदि संयुक्त राज्य अमेरिका, उसके सहयोगी देश और रूस के बीच परमाणु युद्ध होता है तो उसके कुछ साल बाद वैश्विक औसत कैलोरी उत्पादन में लगभग 90 प्रतिशत की कमी आएगी – इस अकाल से लगभग 5 अरब लोग मारे जाएंगे। यदि भारत-पाकिस्तान के बीच भयंकर युद्ध की स्थिति बनी तो कैलोरी उत्पादन 50 प्रतिशत कम हो जाएगा जिससे 2 अरब लोगों की मौत हो सकती है। शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल में आपातकाल के लिए खाद्य-बचत रणनीतियों के प्रभाव को भी जोड़कर देखा (जैसे चारा और घरेलू कचरे को भोजन में परिवर्तित करना) और पाया कि बड़े युद्ध की स्थिति में ये प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान होंगे।

कुछ शोधकर्ता इन अनुमानों की व्याख्या करने में सावधानी बरतने का आग्रह करते हैं क्योंकि काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि इस तरह की वैश्विक तबाही पर मानव समाज किस तरह प्रतिक्रिया देगा।

देखा जाए तो मॉडल में सुधार की गुंजाइश है। लेकिन शोधकर्ताओं का उद्देश्य तबाही के सटीक अनुमान प्रस्तुत करने की बजाय जोखिम के स्तर को सामने लाना था।

इन भयावह स्थिति की संभावनाओं ने लोगों को इससे निपटने के तरीके तलाशने के लिए प्रेरित किया है। उदाहरण के लिए समुद्री शैवाल जैसे खाद्य को बढ़ाना, कागज कारखानों को शकर उत्पादन के लिए ढालना, बैक्टीरिया की मदद से प्राकृतिक गैस को प्रोटीन में परिवर्तित करना और परिवर्तित जलवायु के हिसाब से फसलों को स्थानांतरित करना। ऐसे तरीके भोजन की उपलब्धता में नाटकीय वृद्धि कर सकते हैं। भूखे मरने से अच्छा है बेस्वाद खाना। और इस तरह के ख्याली अभ्यास मनुष्य को परमाणु युद्ध से उपजी आपदा के लिए ही नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन और अन्य आपदाओं के लिए भी तैयार कर सकते हैं।

बहरहाल, सबसे बेहतर उपाय तो यही होगा कि किसी भी कीमत पर परमाणु युद्ध टाले जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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