गिबन छोटे शरीर और लंबी बाहों वाले, पेड़ों पर छलांग लगाने वाले कपि हैं जो उत्तरपूर्वी भारत, पूर्वी बांग्लादेश और दक्षिणपूर्वी चीन से लेकर इण्डोनेशिया के कई द्वीपों में पाए जाते हैं। लेकिन इनके उद्विकास की कहानी को समझना वैज्ञानिकों के लिए मुश्किल रहा है। अब, दक्षिण-पश्चिमी चीन के एक गांव के पास मिले एक जीवाश्म से बात कुछ पकड़ में आई है। इस जीवाश्म में ऊपरी जबड़े का हिस्सा और सात अलग-अलग दांत हैं। इससे इस पूर्व निष्कर्ष की पुष्टि हुई है कि सबसे पहले ज्ञात गिबन लगभग 70 से 80 लाख साल पहले इस इलाके में रहते थे।
चीन के कुनमिंग नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम ऑफ ज़ुऑलॉजी के पुरा-मानवविज्ञानी ज़्युपिंग जी और उनके साथियों का कहना है कि यह जीवाश्म और इस क्षेत्र व इसके पास के क्षेत्र से मिले 14 दांत युआनमोपिथेकस शाओयुआन नामक एक प्राचीन हाइलोबैटिड प्रजाति के हैं। हाइलोबैटिड्स कपियों का एक कुल है जिसमें वर्तमान गिबन्स की लगभग 20 प्रजातियां और पूर्वोत्तर भारत से इण्डोनेशिया तक के उष्णकटिबंधीय जंगलों में पाए जाने वाले सियामांग गिबन शामिल हैं।
2006 में वाई. शाओयुआन के बारे में पता चलने के बाद जी और उनके दल का मानना था कि यह एक प्राचीन गिबन है। लेकिन इसकी पुष्टि के लिए अतिरिक्त जीवाश्मों की आवश्यकता थी।
लगभग एक दशक पूर्व एक स्थानीय निवासी को वाई. शाओयुआन का ऊपरी जबड़े का हिस्सा मिला था। इस जबड़े में चार दांत और दाढ़ का कुछ हिस्सा था। इसकी मदद से शोधकर्ता यह समझ सके थे कि यह एक शिशु गिबन का जबड़ा है जो 2 वर्ष की उम्र के पूर्व ही मर गया था।
आधुनिक कपियों और प्राचीन प्राइमेट्स के जीवाश्मों की तुलना करने पर पाया गया कि वाई. शाओयुआन सबसे प्राचीन ज्ञात गिबन है। ये नतीजे दो साल पूर्व की एक रिपोर्ट को झुठलाते हैं जो कहती है कि उत्तरी भारत में हाइलोबैडिट कुल की लगभग 1.3 करोड़ वर्ष पुरानी दाढ़ मिली थी। शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में मिला जीवाश्म कैपी रगनेगेरेंसिस प्रजाति का है जो दक्षिण एशियाई प्राइमेट्स के विलुप्त हो चुके समूह का है, और वह वर्तमान कपियों का करीबी सम्बंधी नहीं था।
वर्तमान प्राइमेट्स के पूर्व में किए गए डीएनए विश्लेषण से पता चलता है कि हाइलोबैटिड्स अफ्रीका में अन्य कपियों से लगभग 2.2 करोड़ से 1.7 करोड़ वर्ष पूर्व अलग हो गए थे। लेकिन यह अभी एक रहस्य ही है गिबन के पूर्वज युरेशिया कब पहुंचे। एशिया में वाई. शाओयुआन के साक्ष्य मिलने और अफ्रीका या उसके आसपास के क्षेत्रों में हाइलोबैडिट्स की उत्पत्ति के बीच लगभग एक करोड़ वर्ष का अंतर है।
आनुवंशिक साक्ष्य यह भी इंगित करते हैं कि वर्तमान गिबन प्रजातियों के साझा पूर्वज लगभग 80 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर रहते थे, इसी समय वाई. शाओयुआन भी पृथ्वी पर निवास करते थे। तो हो सकता है कि इसके बाद के सभी गिबन्स के पूर्वज वाई. शाओयुआन हों, या यह भी हो सकता है कि आधुनिक गिबन के पूर्वज और वाई. शाओयुआन निकट सम्बंधी हों।
जर्नल ऑफ ह्यूमन इवॉल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि दांत की चबाने वाली सतह पर बने उभार और गढ्डों के निशान और दांतों व जबड़े की अन्य विशेषताएं काफी हद तक वर्तमान गिबन की तरह हैं। इसके अलावा वाई. शाओयुआन के अश्मीभूत दांत की कुछ विशेषताएं आधुनिक गिबन के दांतों की विशेषताओं की पूर्ववर्ती लगती हैं।
दाढ़ के आकार के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वाई. शाओयुआन का वज़न लगभग छह किलोग्राम था, यह भी आधुनिक गिबन्स के समान है। इनके दाढ़ की संरचना इंगित करती है कि यह भी वर्तमान गिबन की तरह मुख्यत: फल खाता था।
बहरहाल के. रगनेगेरेंसिस के विकास की कहानी अभी अस्पष्ट ही है क्योंकि इसका केवल एक ही दांत मिला है, जिसके आधार पर पुख्ता तौर पर कुछ कहना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/f/fd/Lar_Gibbon_%2846946767992%29.jpg/1200px-Lar_Gibbon_%2846946767992%29.jpg?20190226065856
केकड़ों से लेकर इल्लियों तक कई सारे जीव अपने शिकारियों से बचने के लिए छद्मावरण (या छलावरण) की रणनीति अपनाते हैं। अब, एक नवीन अध्ययन में पाया गया है कि शिकारियों से इस लुका-छिपी में कुछ छद्मावरण अधिक प्रभावी होते हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ कैंपिनास के व्यवहार और संवेदना पारिस्थितिकीविद जोआओ विटोर डी अलकैंतारा वियाना विभिन्न छद्मावरण रणनीतियों की तुलना करना चाह रहे थे। लेकिन इस विषय पर बहुत साहित्य उपलब्ध नहीं था। इसलिए उन्होंने और उनके दल ने वर्ष 1900 से लेकर जुलाई 2022 तक इस विषय पर प्रकाशित वैज्ञानिक शोधपत्रों को तलाशा। शोधकर्ताओं ने इनमें से 84 ऐसे अध्ययनों को चुना जिनमें कम से कम एक छद्मावरण रणनीति की बात की गई थी और यह देखा गया था कि शिकारी को छद्मावरणधारी शिकार को खोजने में कितना समय लगा, या छद्मावरणधारी शिकार पर शिकारियों ने कितनी बार हमला किया। टीम ने अपना विश्लेषण उन अध्ययनों तक सीमित रखा जिनमें छद्मावरणधारी शिकार की तुलना गैर-छद्मावरणधारी शिकार से की गई थी। ऐसे गैर-छद्मावरणधारी शिकार कृत्रिम थे।
इसके बाद, शोधकर्ताओं ने शिकार और शिकारियों के प्रकार और विभिन्न तरह की छद्मावरण रणनीतियों के आधार पर समूह बनाए। मसलन, किसी शिकार जीव के शरीर का रंग या पैटर्न पृष्ठभूमि से मेल खाए, या वह किसी ऐसी चीज़ जैसा नज़र आए जिसमें शिकारी की कोई रुचि न हो (जैसे किसी टहनी, या पत्ते, पक्षी की बीट या किसी मकड़ी की छोड़ी हुई त्वचा जैसा दिखना)। इस दूसरी रणनीति को स्वांग रचना कहा जाता है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में शोधकर्ता बताते हैं कि छद्मावरण आम तौर पर शिकारियों के लिए अपने शिकार को ढूंढना मुश्किल बना देता है। इससे शिकारी द्वारा शिकार को ढूंढने में लगा समय लगभग 62 प्रतिशत तक बढ़ जाता है, और शिकारी द्वारा हमले की संभावना 27 प्रतिशत तक कम हो जाती है।
लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि शिकार कैसा है। उदाहरण के लिए, छद्मावरण से इल्लियों को उनके पंखों वाले वयस्क रूप (तितली या पतंगा) की तुलना में अधिक लाभ मिलता है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि पतंगे और तितलियां उड़ सकती हैं और उनके पास अपने शिकारी से बचने के अन्य अनुकूलन हैं।
ब्रिमस्टोन मॉथ का टहनी जैसा दिखता कैटरपिलर
स्वांग रचने की रणनीति शिकार के शिकारी से बच निकलने में विशेष प्रभावी दिखी, इस रणनीति की मदद से शिकारी द्वारा शिकार खोजने के समय में लगभग 300 प्रतिशत की वृद्धि दिखी। इसका एक उम्दा उदाहरण है ब्रिमस्टोन मॉथ (ओपिस्टोग्रैप्टिस ल्यूटोलाटा) का कैटरपिलर, जो टहनी जैसा दिखता है। इस कैटरपिलर और मुर्गियों पर हुए एक अध्ययन में पता चला था कि यदि किसी मुर्गी का सामना हाल ही में किसी टहनी से हुआ हो तो उसे स्वांगधारी कैटरपिलर को ढूंढने में ज़्यादा समय लगता है।
लेकिन अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि इस पर बारीकी से पड़ताल की ज़रूरत है कि स्वांग सबसे प्रभावी रणनीति है। यदि वास्तव में यही बात है तो अन्य अड़चनों – जैसे आकार, सरकने या चलने की ज़रूरत – की जांच करके देखना दिलचस्प होगा क्योंकि सभी जीवों में यह रणनीति विकसित नहीं होती। शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वांग रचने की रणनीति विकसित होने की संभावना उन जीवों में अधिक है जहां शिकार जीव और जिसकी उसे नकल करना है दोनों का आकार बराबर हो। यह रणनीति हमेशा कारगर नहीं होगी।
एक दिक्कत यह है कि विभिन्न अध्ययनों में नियंत्रण के तौर पर लिए गए गैर-छद्मावरणधारी जीव बहुत अलग-अलग तरह के थे। इसलिए उन पर शिकारियों की प्रतिक्रिया कम-ज़्यादा हो सकती है। इसके अलावा, अध्ययन में अधिकतर डैटा उत्तरी गोलार्ध के अध्ययनों से था। दक्षिणी गोलार्ध के जीवों की छद्मावरण रणनीतियों की समझ के बिना हमारी समझ अधूरी है।
फिलहाल शोधकर्ता इसी अध्ययन को एक अलग तरह से करना चाहते हैं – वे देखना चाहते हैं यदि शिकारी छद्मावरण करें तो उन्हें कितना फायदा होता है। (स्रोत फीचर्स)
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कई भोज्य पदार्थों को हम बंद आंखों से सूंघ कर भी पहचान जाते हैं। हमारे शरीर से भी लगातार नाना प्रकार की गंध निकलती हैं। जब मादा मच्छर किसी मनुष्य की तलाश में होती है तो वह मनुष्य के शरीर से निकलने वाली गंध के एक अनोखे मिश्रण को सूंघती हैं। गंध मच्छरों के स्पर्शक (एंटीना) में उपस्थित ग्राहियों को उत्तेजित करती है और मच्छर हमें अंधेरे में भी खोज लेते हैं। यदि मच्छरों में गंध के ग्राही ही न रहें तो क्या मच्छर इंसानों की गंध को नहीं सूंघ पाएंगे? तब क्या हमें मच्छरों और उनसे होने वाले रोगों से निजात मिल पाएगी?
हाल ही में वैज्ञानिकों ने मच्छरों पर ऐसे ही कुछ प्रयोग किए। उन्होंने मच्छरों के जीनोम (डीएनए) में से गंध संवेदी ग्राहियों के लिए ज़िम्मेदार पूरे जीन समूह को ही निकाल दिया। किंतु अनुमान के विपरीत पाया गया कि गंध संवेदी ग्राहियों के अभाव के बावजूद मच्छर हमें ढूंढकर काटने का तरीका ढूंढ लेते हैं। मानव शरीर की गर्मी भी उन्हें आकर्षित करती है।
अधिकांश जंतुओं के घ्राण (गंध संवेदना) तंत्र की एक तंत्रिका कोशिका केवल एक प्रकार की गंध का पता लगा सकती हैं। लेकिन एडीज एजिप्टी मच्छरों की केवल एक तंत्रिका कोशिका भी अनेक गंधों का पता लगा सकती है। इसका मतलब है कि यदि मच्छर की कोई तंत्रिका कोशिका मनुष्य-गंध का पता लगाने की क्षमता खो देती है, तब भी मच्छर मानव की अन्य गंधों को पहचानने की क्षमता से उन्हें खोज सकते हैं। हाल ही में शोधकर्ताओं के एक दल ने 18 अगस्त को सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि यदि मच्छर में मानव गंध का पता लगाने वाले कुछ जीन काम करना बंद भी कर दें तो भी मच्छर हमें सूंघ सकते हैं। अतः ज़रूरत हमें किसी ऐसी गंध की है जिसे मच्छर सूंघना पसंद नहीं करते हैं।
प्रभावी विकर्षक (रेपलेंट) मच्छरों को डेंगू और ज़ीका जैसे रोग पैदा करने वाले विषाणुओं को प्रसारित करने से रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण उपाय है। किसी भी अन्य जंतु की तुलना में मच्छर इंसानी मौतों के लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार हैं। जितना बेहतर हम मच्छरों को समझेंगे उतना ही बेहतर उनसे बचने के उपाय खोज सकेंगे।
मच्छर जैसे कीट अपने स्पर्शक और मुखांगों से सूंघते हैं। वे अपनी घ्राण तंत्रिका की कोशिकाओं में स्थित तीन प्रकार के सेंसर का उपयोग करके सांस से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड तथा अन्य रसायनों से मनुष्य का पता लगा लेते हैं।
पूर्व के शोधकर्ताओं ने सोचा था कि मच्छर के गंध ग्राही को अवरुद्ध करने से उनके मस्तिष्क को भेजे जाने वाले गंध संदेश बाधित हो जाएंगे और मच्छर मानव को गंध से नहीं खोज पाएंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ग्राही से वंचित मच्छर फिर भी लोगों को सूंघ सकते हैं और काटते हैं।
यह जानने के लिए रॉकफेलर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एडीज़ इजिप्टी नामक मच्छर की तंत्रिका कोशिकाओं में फ्लोरोसेंट लेबल जोड़े ताकि गंध को पहचानने की क्रियाविधि को समझा जा सके। हैरान करने वाली बात यह थी कि एक-एक घ्राण तंत्रिका कोशिका में कई प्रकार के सेंसर होते हैं और वे संवेदी केंद्रों के समान कार्य कर रहे थे।
वैज्ञानिकों ने मनुष्यों में पाए जाने वाले तथा मच्छरों को आकर्षित करने वाले विभिन्न रसायनों (ऑक्टेनॉल, ट्राइथाइल अमीन) के उपयोग से तंत्रिका कोशिका में विद्युत संकेत उत्पन्न किए जो एक-दूसरे से भिन्न थे।
यह स्पष्ट नहीं है कि लोगों की गंध का पता लगाने के लिए क्यों मच्छर अतिरिक्त तरीकों का उपयोग करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति की गंध दूसरे से अलग होती है। शायद इसलिए मानव की गंध को भांपने के लिए मच्छरों में यह तरीका विकसित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
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कोई पारिस्थितिक आवास यानी निशे पर्यावरणीय परिस्थितियों का उपयुक्त समूह होता है जिसमें कोई जंतु या पौधा फलता-फूलता है। एक पारिस्थितिक तंत्र के भीतर कई प्रकार के पारिस्थितिक आवास हो सकते हैं। जैव विविधता ऐसे ही आवासों का परिणाम है जिनमें वही प्रजातियां बसती हैं जो एकदम उनके अनुकूल हैं। उदाहरण के लिए, मरुस्थलीय पौधे शुष्क पारिस्थितिक आवास के लिए अनुकूल होते हैं क्योंकि उनमें अपनी पत्तियों में पानी जमा करके रखने की क्षमता होती है।
जब दुनिया की जलवायु बदलती है, तो मौजूदा प्रजातियों की अपने जैव-भौगोलिक आवासों में टिके रहने की क्षमता बदल सकती है। इस बात का कृषि पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि हो सकता है कि सदियों से उम्दा परिणाम देने वाले तरीके और फसलें बदली परिस्थितियों के लिए उपयुक्त न रहें।
इस तरह के परिवर्तनों से कई चीज़ें बदलती हैं। जैसे, भोजन और पोषक तत्वों की उपलब्धता, शिकारियों और प्रतिस्पर्धी प्रजातियों की उपस्थिति वगैरह। अजैविक कारक भी पारिस्थितिक आवास को प्रभावित करते हैं। इनमें तापमान, उपलब्ध प्रकाश की मात्रा, मिट्टी की नमी आदि शामिल हैं।
मॉडलिंग
पारिस्थितिकी विज्ञानी ऐसी जानकारी का उपयोग संरक्षण प्रयासों के साथ-साथ भावी विकास के लिए करते हैं। अलबत्ता, संभव है कि पारिस्थितिक मापदंड आर्थिक वास्तविकताओं के साथ पूरी तरह मेल न खाएं। इन दो नज़रियों यानी पारिस्थितिकी और अर्थशास्त्र को जोड़ने के लिए, पारिस्थितिक आवास मॉडलिंग का उपयोग बदलते पारिस्थितिक परिदृश्यों के संदर्भ में आर्थिक व्यवहार्यता की जांच के लिए किया जा सकता है।
पारिस्थितिक आवास मॉडलिंग नई संभावनाओं की पहचान करने का एक साधन है – किसी मौजूदा प्राकृतवास के लिए संभावित नए निवासियों की पहचान के लिए, या ऐसे नए भौगोलिक स्थानों की तलाश के लिए जो वांछनीय वनस्पतियों के विकास के लिए उपयुक्त हों। मॉडलिंग में कंप्यूटर एल्गोरिदम की मदद से पर्यावरणीय डैटा की तुलना की जाती है और इस बारे में पूर्वानुमान लगाए जाते हैं कि किसी दिए गए पारिस्थितिक आवास के लिए आदर्श क्या होगा।
भौगोलिक रूप से दूर-दूर स्थित दो स्थानों की तुलना कीजिए। जैसे कर्नाटक के कूर्ग का मदिकेरी क्षेत्र और सिक्किम का गंगटोक। दोनों पहाड़ी इलाके हैं। मदिकेरी समुद्र तल से 1200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और गंगटोक 1600 मीटर की ऊंचाई पर। सालाना औसत वर्षा क्रमशः 321 से.मी. और 349 से.मी. होती है। शाम 5:30 बजे इन दो स्थानों की औसत सापेक्षिक आर्द्रता क्रमशः 76 प्रतिशत और 83 प्रतिशत रहती है। इन दोनों क्षेत्रों में कई और समानताएं भी हैं।
क्या, कहां उगाएं
अमित कुमार और उनके साथियों द्वारा साइंटिफिक रिपोर्ट्स में हाल ही में प्रकाशित पेपर में दर्शाया गया है कि भारत के भौगोलिक और कृषि अर्थशास्त्र के संदर्भ में पारिस्थितिक आवास मॉडलिंग का उपयोग किस तरह किया जा सकता है। पालमपुर स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण उत्पाद केसर पर विचार करने के लिए मॉडलिंग रणनीतियों का इस्तेमाल किया है।
केसर का पौधा (क्रोकस सैटाइवस) भूमिगत तनों के माध्यम से लगाया जाता है जिन्हें घनकंद कहते हैं। माना जाता है कि यह यूनानी मूल का पौधा है, और भूमध्यसागरीय जलवायु परिस्थितियों में सबसे बेहतर फलता-फूलता है। वर्तमान में, ईरान विश्व के लगभग 90 प्रतिशत केसर का उत्पादन करता है। केसर के पौधे के फूल में चटख लाल रंग की तीन वर्तिकाएं होती हैं, जिन्हें परिपक्व होने पर तोड़ (चुन) लिया जाता है। व्यावसायिक केसर बनाने के लिए इन्हें सावधानीपूर्वक सुखाया जाता है। खाने में स्वाद बढ़ाने के अलावा केसर के और भी कई उपयोग हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रंथों में तंत्रिका तंत्र के विकारों से निपटने के लिए इसके उपयोग की सलाह दी गई है। और, हाल ही में टोथ व उनके साथियों द्वारा किए गए क्लीनिकल परीक्षणों में पता चला है कि हर दिन 30 मिलीग्राम केसर का सेवन अवसाद-रोधी का काम करता है (प्लांटा मेडिका, 2019)। इसके कुछ रासायनिक घटकों में कैंसर-रोधी गुण भी पाए गए हैं।
भारत विश्व का 5 प्रतिशत केसर उत्पादन करता है। ऐतिहासिक रूप से, दुनिया के कुछ सबसे बेशकीमती केसर काश्मीर की प्राचीन झीलों के पेंदे में उगाए जाते थे। जम्मू-काश्मीर केसर की खेती के लिए कई तरह से अनुकूल है – समशीतोष्ण जलवायु, उच्च पीएच (6.3-8.3) वाली शुष्क मिट्टी, गर्मियों में (जब फूल खिलते हैं) लगभग 25 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान व मिट्टी में पोषक तत्वों की अच्छी उपलब्धता।
अधिक डैटा का उपयोग
अधिक डैटा के लिए भारतीय शोधकर्ताओं ने विश्व स्तर पर उपलब्ध सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग किया है। जम्मू-काश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में केसर की खेती वाले क्षेत्रों की तुलना दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केसर की खेती करने वाले 449 स्थानों से की गई जो ग्लोबल बायोडायवर्सिटी इफॉर्मेशन फेसिलिटी में दर्ज हैं। पर्यावरण सम्बंधी डैटा WorldClim पोर्टल से लिया गया, जो धूप से लेकर हवा की गति समेत 103 कारकों का डैटा उपलब्ध कराता है। भू-आकृति सम्बंधी डैटा (जैसे ढलान, रुख और ऊंचाई) स्पेस शटल रडार टोपोग्राफी मिशन के डिजिटल एलिवेशन मॉडल से लिया गया। इनके विश्लेषण के आधार पर भारत में केसर उगाने के लिए संभावित उपयुक्त क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है।
अध्ययन में कुल 4200 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र केसर की खेती के लिए उपयुक्त पाया गया, जो जम्मू-काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी सिक्किम, इम्फाल, मणिपुर और तमिलनाडु के उडगमंडलम में है। इनमें से कुछ जगहों पर दो मौसमों में परीक्षण के तौर पर केसर उगाने पर तकरीबन राष्ट्रीय औसत उपज (प्रति हैक्टर 2.6 किलोग्राम) के बराबर केसर उत्पादन हुआ। तो क्या इन नए क्षेत्रों में केसर नियमित रूप से उगाई जा सकेगी? आर्थिक दृष्टि से तो जवाब हां ही होगा। (स्रोत फीचर्स)
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पूर्वी बोर्नियो के घने जंगल में स्थित लियांग टेबो नामक गुफा की खुदाई में मिले लगभग 31,000 साल पुराने कंकाल ने शोधकर्ताओं को थोड़ा हैरत में डाल दिया था। हैरानी की वजह थी कि यह पूरा का पूरा कंकाल साबु त था लेकिन इसका सिर्फ बाएं पैर का निचला हिस्सा गायब था। पड़ताल करने पर शोधकर्ताओं ने इसे शल्य क्रिया द्वारा किया गया अंग-विच्छेद पाया। यह 31,000 साल पहले तब किया गया था जब आधुनिक समय के समान शल्य चिकित्सा उपकरण, एंटीबायोटिक या दर्द निवारक दवाएं नहीं थीं। इससे पता चलता है कि उस समय के दक्षिण पूर्वी एशिया में रहने वाले शिकारी-संग्रहकर्ता चिकित्सा विशेषज्ञता के तो धनी थे ही उनमें अपने साथियों के प्रति हमदर्दी भी हुआ करती थी।
ईस्ट कालीमंतन कल्चरल हेरिटेज प्रिज़र्वेशन सेंटर की पुरातत्वविद एंडिका आरिफ द्राजत प्रियत्नो और उनके साथियों ने 2020 में गुफा के फर्श की खुदाई करना शुरू किया तो उन्हें एक मानव कंकाल मिला। इसे पारंपरिक रीति से दफन किया गया था जिसमें दाएं घुटने को मोड़कर सीने से सटा दिया जाता है और बाईं टांग को सीधा रखा जाता है। उसके सिर और हाथ के ऊपर पत्थर इस तरह रखे थे जैसे कि वे कब्र की निशानी हों। कंकाल का लिंग तो निर्धारित नहीं किया जा सका लेकिन जिस समय उसकी मृत्यु हुई थी उस समय उसकी उम्र लगभग 20 वर्ष रही होगी। उसके सिर के पास थोड़ी-सी गेरू मिट्टी भी दफन थी। इससे लगता है कि गुफा की दीवारों पर बने भित्ति चित्र उसी कबीले के लोगों ने बनाए होंगे।
कंकाल को पूरी तरह निकालने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि कंकाल में सिर्फ बाएं पैर की पिंडली से नीचे का हिस्सा गायब था, लेकिन बाकी कंकाल साबुत था। पिंडली में दो हड्डियां होती हैं और उस कंकाल में ये दोनों नीचे की ओर जुड़ी हुई थीं। और टांग सपाट तरीके से कटी हुई थी। ऐसा नहीं लगता था कि वह हिस्सा कुचला गया था या चकनाचूर हो गया था – अर्थात पैर का वह हिस्सा कोई चट्टान गिरने या किसी जानवर के काटने से नहीं कटा था बल्कि किसी धारदार औज़ार से सफाई से काटा गया था। दूसरे शब्दों में इस हिस्से की सर्जरी की गई थी।
कब्र के ठीक ऊपर और नीचे की तलछट परतों में चारकोल की रेडियोकार्बन डेटिंग से पता चला कि यह कब्र लगभग 31,000 साल पुरानी है। एक अन्य तकनीक – इलेक्ट्रॉन स्पिन रेज़ोनेंस डेटिंग – से कंकाल का काल निर्धारण करने पर वह भी इतने ही पुराने होने की पुष्टि करता है।
इन साक्ष्यों के आधार पर नेचर में शोधकर्ता बताते हैं कि सफल अंग-विच्छेद का यह अब तक का सबसे प्राचीन मामला है। इसके पहले, वर्तमान फ्रांस में शल्य-क्रिया द्वारा अंग-विच्छेद (कंधे के नीचे की बांह काटने) का लगभग 7000 साल पूर्व का मामला मिला था।
शोधकर्ता यह तो ठीक-ठीक नहीं बता सके हैं कि वास्तव में अंग काटने की ज़रूरत क्यों पड़ी थी – किसी बीमारी या संक्रमण की वजह से या अचानक किसी तेज़ आघात की वजह से। लेकिन पिंडली की हड्डियों के जुड़े होने की दशा के आधार पर उनका कहना है कि शल्य-क्रिया के बाद वह मनुष्य 6 से 9 साल और जीवित रहा होगा/होगी। जिस क्षेत्र में यह कंकाल पाया गया है वह उष्णकटिबंधीय क्षेत्र है; घाव या चोट पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है, बिना एंटीसेप्टिक के उसे नियंत्रित करना मुश्किल है। शोधकर्ताओं का कहना है ऐसे वातावरण में सफल शल्य क्रिया का मतलब है कि उन लोगों के पास शल्य-क्रिया और उसके उपरांत आने वाली समस्याओं से निपटने का ज्ञान था। और, बोर्नियो की समृद्ध जैव विविधता में चिकित्सकीय गुणों वाली वनस्पतियां भरपूर हैं। वे लोग इस क्षेत्र में हजारों सालों से रहते आए थे, तो संभावना है कि वे स्थानीय पौधों के औषधीय गुणों से परिचित रहे होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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तिब्बत के पठारों की ऊंचाई पर अधिकतर लोगों को सांस लेने में दिक्कत होती है, सिरदर्द होता है, लेकिन भारी भरकम याक वहां दौड़ भी लगा ले तो उसे कोई परेशानी नहीं होती। अब, शोधकर्ताओं ने याक में एक ऐसी नई कोशिका खोजी है जो इन बैलनुमा प्राणियों को ठंडी और कम ऑक्सीजन वाली जगहों पर भी इतना फुर्तीला रहने में मदद करती है।
काफी समय से वैज्ञानिक यह तो जानते हैं कि याक, कुछ मनुष्यों और कुत्तों में कुछ ऐसे आनुवंशिक अनुकूलन होते हैं जो उन्हें बहुत अधिक ऊंचाई पर मज़े से जीवित रहने में मदद करते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में बताया गया है कि याक के फेफड़ों में कुछ विशेष कोशिकाएं भी होती हैं जो उन्हें अधिक ऊंचाई पर अतिरिक्त फुर्ती देती हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने याक के डीएनए की तुलना उनके उन करीबी सम्बंधी मवेशियों के डीएनए से की जो कम ऑक्सीजन वाले स्थानों के लिए अनुकूलित नहीं थे। तुलना में उन्हें डीएनए के ऐसे हिस्से मिले जहां से उद्विकास के दौरान ये प्राणि अलग-अलग राह पर निकल गए थे। ये अंतर किसी जीन के कार्य में ऐसे फेरबदल की ओर इशारा करते हैं जिसने याक को उसके अल्प-ऑक्सीजन पर्यावरण के अनुकूल होने में मदद की।
जब शोधकर्ताओं ने याक के फेफड़ों की प्रत्येक कोशिका में जीन के कार्य का अध्ययन किया तो उन्हें रक्त वाहिनियों के अस्तर में एक बिल्कुल ही अलग तरह की कोशिका मिली। फेफड़ों की अन्य कोशिकाओं से तुलना करने पर देखा गया कि इन कोशिकाओं में दो परिवर्तित जीन बहुत अधिक सक्रिय थे। शोधकर्ताओं को लगता है कि याक के फेफड़ों की ये कोशिकाएं उनकी रक्त वाहिनियों को मज़बूत और अधिक तंतुमय बनाती है, जो हवा में अपेक्षाकृत कम ऑक्सीजन में भी सांस लेने को सुगम बनाता है।
शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की विशिष्ट कोशिकाएं ऊंचाई पर पाए जाने वाले एंटीलोप और हिरणों में भी पाई जाएंगी। लेकिन ये कोशिकाएं मनुष्यों में मिलना संभव नहीं है; क्योंकि याक, एंटीलोप और हिरण लाखों वर्षों से अत्यधिक ऊंचाई पर रह रहे हैं और वहीं विकसित हुए हैं, जबकि मनुष्य तो महज़ 30,000 वर्षों की छोटी-सी अवधि से वहां रह रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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यह तो पता रहा है कि स्तनधारियों का मस्तिष्क हमेशा पूरी तरह जागृत या सुप्त नहीं होता है। जैसे, हो सकता है कि डॉल्फिन का आधा मस्तिष्क सो रहा हो जबकि बाकी आधा जागा हो। नींद से वंचित चूहों में कुछ तंत्रिकाएं सुप्त हो सकती हैं जबकि वे जागे होते हैं। मनुष्यों में इस तथाकथित ‘स्थानीय नींद’ का अध्ययन करना मुश्किल रहा है, क्योंकि अन्य स्तनधारियों की तरह मनुष्यों में इसके अध्ययन के लिए घुसपैठी तरीकों का उपयोग नहीं किया जा सकता।
अब PNAS में प्रकाशित एक अध्ययन ने इसे आसान कर दिया है। इसमें शोधकर्ताओं ने दो अलग-अलग तकनीकों का एक साथ उपयोग करके मानव मस्तिष्क संकेतों को देखा और स्थानीय स्तर पर तंत्रिकाओं के जागने या सोने की स्थिति पता की। इस तरह वे पहचान सके कि मस्तिष्क के कौन से क्षेत्र सबसे पहले सो जाते हैं और कौन से सबसे पहले जाग जाते हैं।
वैसे, मनुष्यों में नींद का अध्ययन इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राफी (ईईजी) से किया जाता है। ईईजी तीव्र परिवर्तनों को मापने का अच्छा साधन है, लेकिन स्थान विशेष का सूक्ष्मता से अध्ययन करने में यह अच्छे परिणाम नहीं दे पाता। इसलिए कार्डिफ युनिवर्सिटी की चेन सोंग और उनके साथियों ने ईईजी के साथ fMRI (फंक्शनल मैग्नेटिक रेज़ोनेन्स इमेजिंग) का उपयोग किया। fMRI में तंत्रिकाओं की गतिविधि को रक्त प्रवाह के आधार पर नापा जाता है। fMRI छोटे और तीव्र परिवर्तनों को तो नहीं पकड़ पाता लेकिन मस्तिष्क की स्थानीय गतिविधियों को बारीकी से अलग-अलग देखने में मदद कर सकता है। शोधकर्ताओं ने देखा कि क्या ईईजी में दिखने वाले नींद के तंत्रिका संकेत fMRI से प्राप्त पैटर्न से मेल खाते हैं?
शोधकर्ताओं ने 36 लोगों की मस्तिष्क गतिविधि का विश्लेषण किया। इन्हें एक घंटे के लिए fMRI स्कैनर के अंदर ईईजी कैप पहनाकर सुलाया गया था। इस अवलोकन की तुलना ईईजी डैटा के साथ करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि नींद के विशिष्ट विद्युतीय पैटर्न fMRI से प्राप्त पैटर्न से मेल खाते हैं।
यह भी देखा गया कि पूरे मस्तिष्क में अलग-अलग स्थान और समय पर रक्त प्रवाह के अलग-अलग पैटर्न थे, जिससे लगता है कि कुछ हिस्से दूसरे हिस्सों की तुलना में पहले नींद में चले जाते हैं। उदाहरण के लिए, सबसे पहले थैलेमस वाले हिस्से में नींद से जुड़े रक्त प्रवाह पैटर्न दिखे। यह ईईजी डैटा के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों से मेल खाता है कि सोने की प्रक्रिया में थैलेमस वाला हिस्सा अन्य हिस्सों की तुलना में पहले सोता है।
प्रतिभागियों के जागने के दौरान मस्तिष्क की गतिविधि के अलग पैटर्न मिले। मसलन, संभवत: कॉर्टेक्स का अग्रभाग सबसे पहले जागता है। यह पूर्व निष्कर्षों से भिन्न है जो मूलत: जंतु अध्ययनों और सैद्धांतिक आधार पर निकाले गए थे। वैसे, सोंग स्वीकारती हैं कि fMRI स्कैनर के अंदर सोना अस्वाभाविक है और संभव है कि लोगों को बहुत हल्की नींद लगी हो जिसके कारण ऐसे अवलोकन मिले हैं। बहरहाल, नींद सम्बंधी विकारों पर हमारी समझ बनाने में fMRI तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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गत 26 जुलाई को जेम्स लवलॉक का 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया। एक स्वतंत्र वैज्ञानिक और पर्यावरणविद के रूप में लवलॉक ने मानव जाति के वैश्विक प्रभाव पर हमारी समझ और धरती से अन्यत्र जीवन की खोज को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। लेखन और भाषण में उत्कृष्ट क्षमताओं के चलते वे हरित आंदोलन के नायकों में से रहे जबकि वे इसके कट्टर आलोचक भी थे। वे आजीवन नए-नए विचार प्रस्तुत करते रहे। उन्हें मुख्यत: विवादास्पद गेइया परिकल्पना के लिए जाना जाता है।
लवलॉक ने 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं पर अध्ययन किए। इन अध्ययनों में मुख्य रूप से औद्योगिक प्रदूषकों का जीवजगत में प्रसार, ओज़ोन परत का ह्रास, और वैश्विक तापमान वृद्धि से होने वाले संभावित खतरे शामिल हैं। उन्होंने परमाणु उर्जा और रासायनिक उद्योगों की पैरवी भी की। उनकी चेतावनियां अक्सर विनाश का नज़ारा दिखाती थीं। बढ़ते वैश्विक तापमान पर चिंता जताते हुए लवलॉक ने कहा था कि हम काफी तेज़ी से 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व की गर्म अवस्था में पहुंच सकते हैं और यदि ऐसा हुआ तो हम और हमारे अधिकांश वंशज मारे जाएंगे।
26 जुलाई, 1919 को हर्टफोर्डशायर में जन्मे लवलॉक की परवरिश ब्रिक्सटन (दक्षिण लंदन) में हुई। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान एक सार्वजनिक पुस्तकालय ने उनमें विज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा किया और उन्हें इतना प्रभावित किया कि स्कूल में पढ़ाए जाने वाले विज्ञान के पाठ उन्हें नीरस लगने लगे। पुस्तकालय में उन्होंने खगोल विज्ञान, प्राकृतिक इतिहास, जीव विज्ञान, भौतिकी और रसायन विज्ञान की जानकारियां हासिल कीं। लवलॉक ने अपने इस ज्ञान को व्यावहारिक रूप भी दिया। उन्होंने अपने स्कूल के दिनों में एक पवन-गति सूचक तैयार किया था जिसका इस्तेमाल वे ट्रेन यात्रा के दौरान किया करते थे।
कमज़ोर आर्थिक स्थिति के चलते पढ़ाई के लिए वे एक कंपनी में तकनीशियन का काम करते थे और शाम को बी.एससी. की पढ़ाई के लिए कक्षाओं में जाते थे। 1940 में उन्होंने मिल हिल स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल रिसर्च (एनआईएमआर) में काम करना शुरू किया और 20 अगले वर्ष तक यहीं काम करते रहे।
एनआईएमआर में काम करते हुए उन्होंने बायोमेडिकल साइंस में पीएच.डी. हासिल की और इलेक्ट्रॉन कैप्चर डिटेक्टर का आविष्कार किया। यह एक माचिस की डिबिया के आकार का उपकरण था जो विषैले रसायनों का पता लगाने और उनका मापन करने में सक्षम था।
लवलॉक के कार्य में एक बड़ा परिवर्तन 1961 में आया जब उन्होंने एनआईएमआर छोड़कर नासा के लिए काम करना शुरू किया। नासा में उन्हें मानव रहित अंतरिक्ष यान ‘सर्वेयर सीरीज़’ के प्रयोगों को डिज़ाइन करने के लिए आमंत्रित किया गया था ताकि मनुष्य के चंद्रमा पर उतरने से पूर्व चंद्रमा की सतह की जांच की जा सके। इस परियोजना के बाद लवलॉक ने मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश के लिए जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) में अंतरग्रही खोजी टीम के साथ काम करना शुरू किया। इस परियोजना में काम करते हुए उन्होंने पाया कि मंगल ग्रह के जैविक पहलुओं पर अध्ययन करने के लिए विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों की ओर से बहुत कम सुझाव आए थे।
लवलॉक का विचार था कि इसका कारण आणविक जीव विज्ञान और जेनेटिक उद्विकास के प्रति वह जुनून है जो फ्रांसिस क्रिक और जेम्स वाटसन द्वारा डीएनए की रचना की खोज के बाद पैदा हुआ था। वे काफी निराश थे कि जीव विज्ञान में अनुसंधान का फोकस व्यापक तस्वीर की बजाय छोटे-छोटे हिस्सों पर हो गया है – जीवन का अध्ययन सम्पूर्ण जीव की बजाय अणुओं और परमाणुओं के अध्ययन पर अधिक केंद्रित है।
मंगल ग्रह पर जीवन के संकेतों को समझने के लिए लवलॉक के प्रयोग काफी अलग ढंग से डिज़ाइन किए गए थे जिनमें अलग-अलग घटकों की बजाय संपूर्ण जीव पर ध्यान देना निहित था। गेइया परिकल्पना को स्थापित करने में यह दृष्टिकोण काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ।
शुरुआत में नासा ने धरती से परे जीवन का पता लगाने के लिए पृथ्वी के पड़ोसी ग्रह शुक्र और मंगल को चुना था। इन दोनों ग्रहों के वायुमंडल के रासायनिक संघटन के आधार पर लवलॉक का अनुमान था कि दोनों ही जीवन-रहित होंगे।
फिर थोड़ा विचार करने के बाद वे यह सोचने लगे कि किसी बाहरी बुद्धिमान जीव को पृथ्वी कैसी दिखेगी। अपने सहयोगी डियान हिचकॉक के साथ वार्तालाप में उन्होंने यह समझने का प्रयास किया कि पृथ्वी, मंगल और शुक्र ग्रह के वातावरण में इतना अंतर क्यों है। इस विषय पर काम करते हुए विवादास्पद गेइया परिकल्पना का जन्म हुआ।
नया नज़रिया
तथ्य यह है कि मंगल और शुक्र के वायुमंडलों में 95% कार्बन डाईऑक्साइड और कम मात्रा में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और अन्य गैसें हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी के वायुमंडल में 77% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन और मामूली मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड व अन्य गैसें हैं। यह समझना ज़रूरी है कि अन्य ग्रहों की तुलना में पृथ्वी इतनी अलग और अद्वितीय क्यों है।
एक विचारणीय बात यह भी है कि पिछले 3.5 अरब वर्षों में सूर्य की ऊर्जा में 30 प्रतिशत की वृद्धि होने के बाद भी पृथ्वी का तापमान स्थिर कैसे बना हुआ है। भौतिकी के अनुसार इस तापमान पर तो हमारे ग्रह की सतह को उबल जाना चाहिए था लेकिन पृथ्वी काफी ठंडी बनी हुई है।
इसका एकमात्र स्पष्टीकरण पृथ्वी का स्व-नियमन तंत्र है जिसने संतुलन बनाए रखने का एक तरीका खोज निकाला है और यहां रहने वाले जीवों ने इसके वातावरण को स्थिर बनाए रखने में योगदान दिया है। लवलॉक के अनुसार पृथ्वी का वायुमंडल जीवित और सांस लेने वाले जीवों के कारण गैसों में लगातार होते परिवर्तन को संतुलित रखे हुए हैं जबकि मंगल ग्रह का वातावरण अचर है।
यही गेइया परिकल्पना है जिसे लवलॉक ने 1960 के दशक में प्रस्तावित किया था और 1970 के दशक में अमेरिकी जीव विज्ञानी लिन मार्गुलिस के साथ विकसित किया था। इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी केवल एक चट्टान का टुकड़ा नहीं है बल्कि पौधों और जीवों की लाखों प्रजातियों की मेज़बानी करती है जो खुद को इस पर्यावरण के अनुकूल कर पाए हैं। गेइया के अनुसार इन अनगिनत प्रजातियों ने न सिर्फ जद्दोजहद के ज़रिए खुद को अनुकूलित किया बल्कि एक ऐसा वातावरण बनाए रखने में भी सहयोग किया जिससे पृथ्वी पर जीवन को कायम रखा जा सके। सह-विकास इस स्व-नियमन का एक उदाहरण है। लवलॉक का यह सिद्धांत रिचर्ड डॉकिंस जैसे कई विद्वानों को रास नहीं आता था। वे इस सिद्धांत को चार्ल्स डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे।
लवलॉक के सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी के इस नियामक तंत्र की शुरुआत तब हुई जब प्राचीन महासागरों में शुरुआती जीवन ने वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करना शुरू किया। कई अरब वर्षों तक जारी इस प्रक्रिया से पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड में कमी होती गई और वातावरण ऑक्सीजन पर निर्भर जीवों के पक्ष में होता गया। लवलॉक और उनके सहयोगियों का मत था कि पृथ्वी के जैव-मंडल को एक स्व-विकास और स्व-नियमन करने वाला तंत्र माना जा सकता है जो स्वयं के लाभ के लिए वायुमंडल, पानी और चट्टानों में परिवर्तन करता है।
गेइया परिकल्पना के उदाहरण के रूप में लवलॉक ने डेज़ीवर्ल्ड मॉडल विकसित किया। डेज़ीवर्ल्ड में काले और सफेद डेज़ी फूलों का एक खेत है। यदि तापमान में वृद्धि होती है तो सफेद फूल की तुलना में काले फूल अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं और मुरझा जाते हैं जबकि सफेद डेज़ी अच्छे से पनपते हैं। अंततः सफेद डेज़ी अधिक गर्मी को अंतरिक्ष में परावर्तित करते हैं और ग्रह को फिर से ठंडा करते हैं ताकि काले डेज़ी एक बार फिर से पनप सकें।
गेइया सिद्धांत ने हरित आंदोलन को काफी प्रभावित किया लेकिन लवलॉक कभी भी पूर्ण रूप से पर्यावरणवाद के समर्थक नहीं रहे। यहां तक कि कई पर्यावरणविदों के विपरीत वे हमेशा परमाणु ऊर्जा के समर्थक रहे। गेइया परिकल्पना को वैज्ञानिक समुदाय में मान्यता मिलने में काफी समय लगा। 1988 में सैन डिएगो में आयोजित अमेरिकन जियोफिज़िकल यूनियन की एक बैठक में गेइया के साक्ष्यों पर प्रमुख जीव विज्ञानियों, भौतिकविदों और जलवायु विज्ञानियों को विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया गया। अंतत: वर्ष 2001 में 1000 से अधिक वैज्ञानिकों ने यह माना कि हमारा ग्रह भौतिक, रासायनिक, जैविक और मानव घटकों से युक्त एकीकृत स्व-नियमन तंत्र के रूप में व्यवहार करता है। हालांकि, इसकी बारीकियों पर चर्चा अभी भी बाकी थी लेकिन इस सिद्धांत को मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया गया था।
गेइया सिद्धांत से हटकर लवलॉक ने अपने शुरुआती कार्यकाल में कई नई-नई तकनीकों का भी आविष्कार किया। उन्होंने कोशिका ऊतकों और यहां तक कि हैमस्टर जैसे पूरे जीव को फ्रीज़ करने और उसे पुन: जीवित करने की तकनीक भी विकसित की। 1954 में उन्होंने सिर्फ मज़े के लिए मैग्नेट्रान से निकले माइक्रोवेव विकिरण से आलू पकाया।
उन्होंने लियो मैककर्न और जोन ग्रीनवुड जैसे अभिनेताओं के साथ भी हाथ आज़माया।
लवलॉक ने ऐसे असाधारण संवेदी उपकरण बनाए जो गैसों में मानव निर्मित रसायनों की छोटी से छोटी मात्रा का पता लगा सकते थे। जब इन उपकरणों का उपयोग वायुमंडल के रासायनिक संघटन के अध्ययन में किया गया तो क्लोरोफ्लोरोकार्बन की उपस्थिति उजागर हुई जो ओज़ोन के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार है। इसी तरह उन्होंने सभी प्राणियों के ऊतकों से लेकर युरोप एवं अमेरिका में स्त्रियों के दूध में कीटनाशकों की उपस्थिति का खुलासा किया। लंदन स्थित विज्ञान संग्रहालय के निदेशक रहते हुए उन्होंने एक ऐसी तकनीक का प्रस्ताव दिया जिसके द्वारा महासागरों में शैवाल के विकास के लिए योजना तैयार की जा सकती है, वायुमंडल से अतिरिक्त कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है और साथ ही सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादलों के निर्माण को बढ़ावा दिया जा सकता है ताकि वैश्विक तापमान को कम किया जा सके।
उन्होंने 40 पेटेंट दायर किए, 200 से अधिक शोध पत्र लिखे और गेइया सिद्धांत पर कई किताबें लिखीं। उन्हें कई वैज्ञानिक पदकों से सम्मानित किया गया और ब्रिटिश एवं अन्य विश्वविद्यालयों से कई अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार और मानद डॉक्टरेट से नवाज़ा गया। (स्रोत फीचर्स)
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पिछली एक सदी में मानव जीव विज्ञान पर हमारी समझ काफी बढ़ी है। अलबत्ता, सपनों को समझने में प्रगति काफी धीमी रही है। सपनों की जैविक प्रणाली हमारे लिए अस्पष्ट सी है; एकमात्र निश्चित बात यह है कि अधिकांश मनुष्य सपने देखते हैं।
नींद की जो अवस्था यादगार सपने देखने से जुड़ी है, उसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद कहा जाता है। इस चरण में व्यक्ति की आंखें तेज़ी से हरकत करती रहती हैं। नींद के इस चरण में जाग जाएं, तो लोग अक्सर बताते हैं कि वे इस वक्त सपना देख रहे थे। शोधकर्ताओं के लिए REM एक पहेली है क्योंकि इसे मापना मुश्किल है।
साइंस में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट इस महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित करती है: सपने में जो कुछ घटता है क्या REM का उससे कुछ सम्बंध है? क्या आंखों की गति में सपने के बारे में कोई जानकारी होती है जिसका विश्लेषण करके अर्थ निकाला जा सके?
लेकिन उस सवाल में जाने से पहले सपनों के अर्थ निर्धारण पर कुछ बात कर ली जाए। बीसवीं सदी की शुरुआत में सिग्मंड फ्रॉयड के सिद्धांत हावी थे, जो सपनों में दिखने वाली छवियों के प्रतीकात्मक अर्थ निकालने पर केंद्रित थे। 1952 में REM नींद की खोज हुई और इसने सपनों को मनोविश्लेषण से अलग दिशा में आगे बढ़ाया।
REM नींद में मस्तिष्क उतना ही सक्रिय पाया गया जितना कि पूरी तरह से जागृत अवस्था में होता है। लेकिन शरीर निष्क्रिय था, सो रहा था। REM नींद सभी स्तनधारियों और पक्षियों में देखी गई है। मिशेल जौवे ने दर्शाया है कि बिल्ली के ब्रेन स्टेम में क्षति पहुंचाने से वह स्वप्नावस्था की शारीरिक गतिहीनता से मुक्त हो जाती है। सपने में तो वह बिल्ली अन्य बिल्लियों के साथ आवाज़ें निकालते हुए लड़ती-भिड़ती है, लेकिन जागने पर लड़ना बंद कर देती है।
मस्तिष्क तरंगों की रिकॉर्डिंग (ईईजी) से इस बारे में नई समझ मिली है। इन रिकॉर्डिंग ने बताया है कि REM नींद और जागृत अवस्था के बीच बहुत कम अंतर है। एक दिलचस्प प्रयोग में तंत्रिका वैज्ञानिक मैथ्यू विल्सन ने भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हुए एक जागृत चूहे के मस्तिष्क की गतिविधि को रिकॉर्ड किया। कुछ ही समय बाद जब चूहा REM नींद में था तब उन्हें उसके मस्तिष्क में उसी तरह की मस्तिष्क तंरगें दिखीं – तो क्या वह सपने में भी भूलभुलैया से निकलने का रास्ता खोज रहा था?
सपनों का डैटाबेस
सपनों का अध्ययन करने का एक अन्य तरीका रहा सपनों का वृहत डैटाबेस संकलित करना। सपनों के संग्राहक केल्विन हॉल ने 50,000 सपनों के विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश सपने सरिएलिस्ट (असंगत-यथार्थवादी) पेंटिंग जैसे नहीं होते, और उनका काफी हद तक पूर्वानुमान किया जा सकता है। हो सकता है कि सपने देखते समय बच्चे मुस्कराएं क्योंकि बच्चों के सपनों में जानवरों को देखने की अधिक संभावना होती है, लेकिन वयस्कों के सपने बहुत सुखद नहीं होते और अक्सर उनमें चिंता के क्षण होते हैं।
हम महत्वपूर्ण चीज़ों के बारे में चिंतित होते हैं; ऐसी चीज़ें जिन्हें सुलझाना है। फ्रांसिस क्रिक और ग्रेम मिचिसन द्वारा प्रस्तावित एक सिद्धांत के अनुसार सपने देखना घर की साफ-सफाई-व्यवस्थित करने जैसा काम है – दिन भर की घटनाओं की छंटाई। छंटाई करते समय कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं (चिंता के संभावित स्रोत) को यादों के रूप में सहेजा जाता है, और बाकी को रद्दी मानकर छोड़ दिया जाता है।
क्या चलते हुए सपनों से कुछ आउटपुट मिल सकता है जिसे रिकॉर्ड किया जा सके? जवाब परस्पर विरोधी हैं। कुछ अध्ययनों से संकेत मिलते हैं कि आंखों की गति या दिशा या आवृत्ति सपने में दोहराई गई मानसिक प्रक्रिया से मेल खाती है। इलेक्ट्रोऑक्युलोग्राफ की मदद से सोते हुए प्रतिभागियों की आंखों की गतिविधियों को रिकॉर्ड किया गया, जिसमें यह दर्ज किया गया कि आंखों की गति मुख्य रूप से या तो खड़ी (ऊपर-नीचे) या आड़ी (दाएं-बाएं) होती है। जिन प्रतिभागियों ने बताया कि वे अपने सपने में ऊपर की ओर देख रहे थे उनकी आंखों की गति ऊपर-नीचे वाली देखी गई। दूसरी ओर, अन्य अध्ययनों ने REM का श्रेय मस्तिष्क की बेतरतीब गतिविधियों को दिया है।
अभ्यास रणनीतियां
जागते समय आंखों की गति आवश्यक है। खुले मैदान में चूहा अक्सर अपनी आंखों को ऊपर की ओर घुमाता है, और आसमान से शिकारी पक्षियों के खतरे को भांपता है। पैदल चलने वाले लोग आने-जाने वाली गाड़ियों को देखने के लिए दाएं-बाएं देखते हैं। इन दोनों स्थितियों में आंखें उसी दिशा में घूमती हैं जिसमें सिर घूमता है। मस्तिष्क निगरानी रखता है कि आपका सिर किस दिशा की ओर है। इसके लिए वह हेड डायरेक्शन (HD) तंत्रिका कोशिकाओं का उपयोग करता है। चूहों की हेड डायरेक्शन कोशिका में इलेक्ट्रोड लगाकर यह दर्शाया गया है कि जब सिर गति कर रहा होता है तो ये कोशिकाएं सक्रिय होती हैं।
मैसिमो स्कैनज़िएनी ने सोते हुए चूहों में REM और HD कोशिका गतिविधि दोनों को रिकॉर्ड किया। उल्लेखनीय रूप से, उन्होंने दिखाया कि REM नींद में चूहों की आंखों की गति दिन में आसमान पर नज़र रखने के समान ऊपर-नीचे थी। HD कोशिकाओं ने भी इसी गति के संकेत दिए, हालांकि सोते समय सिर नहीं हिल रहे थे। ऐसा लगता है कि सपना किसी शिकारी पक्षी से बचने के बारे में था। क्या इन अध्ययनों का उपयोग मनुष्यों के लाभ के लिए किया जा सकता है? जिन लोगों ने अचानक, तीव्र आघात का अनुभव किया हो वे पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) से पीड़ित होते हैं। कोई सैनिक जो अपने पीछे हथगोला फटने से दहल गया हो, भले ही उस विस्फोट से वह चोटिल न हुआ हो, उसे बार-बार ऐसे ही बुरे सपने आ सकते हैं और वर्षों तक चिंता सता सकती है। वह हर रात सपने में क्या ‘देखता’ है, इसकी बेहतर समझ उसे इससे उबारने की बेहतर रणनीतियां दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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हर वर्ष विश्व की 20 प्रतिशत फसलों को कीट चट कर जाते हैं। आम तौर पर इन फसलों की रक्षा के लिए कीटनाशकों का और कीटों के व्यवहार को प्रभावित करने वाले रसायनों (फेरोमोन्स) का उपयोग किया जाता है। फेरोमोन्स कीटों को भ्रमित करते हैं और वे प्रजनन साथी खोज नहीं पाते। लेकिन महंगे होने के कारण इनका ज़्यादा उपयोग नहीं होता। अब शोधकर्ताओं ने सस्ता फेरोमोन बना लिया है।
विश्व भर में प्रति वर्ष 4 लाख टन से अधिक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। ये कीटनाशक खेतिहर मज़दूरों को नुकसान तो पहुंचाते ही हैं साथ ही परागणकर्ताओं और अन्य वन्यजीवों के लिए भी हानिकारक हैं। इसके अलावा कीटों में कीटनाशकों के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित होने पर किसानों को इनका अधिक उपयोग करना पड़ रहा है। तो फेरोमोन एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
मादा कीट नर को आकर्षित करने के लिए फेरोमोन्स का स्राव करती हैं। यदि विशिष्ट कीटों को आकर्षित करने वाले कृत्रिम फेरोमोन का उपयोग किया जाए तो नर चकमा खा जाएंगे और प्रजनन को रोका जा सकता है। तब मादा अनिषेचित अंडे देगी जिनमें से भुक्खड़ इल्लियां पैदा नहीं होंगी।
वैसे तो कीटों द्वारा उत्पन्न फेरोमोन कई यौगिकों का मिश्रण होता है। किसी प्रजाति विशेष के कीटों को आकर्षित करने के लिए कृत्रिम फेरोमोन में यौगिकों का सही मिश्रण होना चाहिए। लेकिन संभोग की प्रक्रिया को रोकने के लिए एक मोटा-मोटा मिश्रण चलेगा क्योंकि कई प्रजातियां एक से यौगिकों का इस्तेमाल करती हैं। फिर भी इस तरह का मिश्रण बनाना कोई आसान काम नहीं है। 1 किलोग्राम कृत्रिम फेरोमोन बनाने के लिए लगभग 1000 डॉलर (80 हज़ार रुपए) से 3500 डॉलर (2.7 लाख रुपए) तक का खर्च आता है। इसे खेतों में प्रसारित करने के लिए 3200 से 32,000 रुपए प्रति हैक्टर और लगते हैं तथा कुशल श्रमिकों की ज़रूरत होती है। इन्हीं कारणों से कृत्रिम फेरोमोन का उपयोग अपेक्षाकृत अधिक मुनाफा देने वाली फसलों में किया जाता है।
लुंड युनिवर्सिटी के केमिकल इकोलॉजिस्ट क्रिस्टर लोफस्टेड और उनके सहयोगी पिछले एक दशक से फेरोमोन संश्लेषण के आवश्यक रसायन बनाने के लिए पौधों को संशोधित कर रहे हैं। उन्होंने अपने अध्ययन के लिए कैमेलीना नामक पौधे को चुना है जिसके बीजों में भरपूर मात्रा में वसीय अम्ल होते हैं। ये वसीय अम्ल पौधों में फेरोमोन निर्माण के कच्चे माल के प्रमुख घटक हैं।
शोधकर्ताओं ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से नैवल ऑरेंजवर्म का जीन कैमेलीना में जोड़ा। इसे जोड़ने पर कैमेलीना के बीज में (ज़ेड)-11-हेक्साडेकेनोइक अम्ल का उत्पादन होने लगता है। कीटों में यह वसीय अम्ल फेरोमोन का पूर्ववर्ती होता है। उन पौधों को चुना गया जो अम्ल का सबसे अधिक मात्रा में उत्पादन करते थे।
तीन पीढ़ियों बाद इन बीजों में फेरोमोन के उत्पादन के लिए पर्याप्त (ज़ेड)-11-हेक्साडेकेनोइक अम्ल था। इसकी मदद से शोधकर्ताओं ने एक तरल फेरोमोन मिश्रण तैयार किया जो डायमंडबैक पतंगे (प्लूटेला ज़ाइलोस्टेला) नामक कीट को आकर्षित करता था।
वर्ष 2017 में टीम ने चीन में इस फेरोमोन मिश्रण का परीक्षण किया। नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह अन्य उपलब्ध कृत्रिम फेरोमोन के बराबर कारगर रहा। ब्राज़ील में किए गए एक अन्य परीक्षण में इस फेरोमोन ने कॉटन बोलवर्म (हेलिकोवर्पा अर्मिगेरा) के संभोग पैटर्न में ठीक उसी तरह का परिवर्तन किया जैसा महंगा कृत्रिम फेरोमोन करता है।
इस शोध में शामिल कंपनी आईएससीए ने इस रसायन की कीमत 70-125 डॉलर (5600-10,000 रुपए) के बीच रखी है जो लगभग कीटनाशकों के बराबर है। एक समस्या यह है कि यह तरीका बड़े खेतों में ही लाभदायक साबित होता है। विकासशील देशों में खेत छोटे-छोटे होते हैं। इसके लिए अलग रणनीति की ज़रूरत होगी। बहरहाल, अन्य कीटों के लिए भी फेरोमोन्स निर्माण के प्रयास जारी है। (स्रोत फीचर्स)
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