चंद्रमा की सतह छोटे-बड़े हज़ारों गड्ढों (क्रेटर) से अटी पड़ी है, जो क्षुदग्रहों की टक्कर के कारण बने हैं। पृथ्वी पर हुई उल्कापिंड की ज़ोरदार टक्कर तो विख्यात है, जिसके कारण किसी समय पृथ्वी पर राज करने वाले डायनासौर पृथ्वी से खत्म हो गए थे। अब, साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि लाखों साल पहले चंद्रमा और पृथ्वी पर उल्कापिंडों की बौछार लगभग एक समय पर हुई थी। यह शोध खगोलविदों को आंतरिक सौर मंडल को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकता है और यह अनुमान लगाने में मदद कर सकता है कि भविष्य में विनाशकारी टक्कर लगभग कब होगी?
ऑस्ट्रेलिया की कर्टिन युनिवर्सिटी के स्पेस साइंस एंड टेक्नॉलॉजी सेंटर के शोधकर्ता चीन के चांग’ई-5 चंद्र मिशन द्वारा पृथ्वी पर लाई गई चंद्रमा की मिट्टी में मिले सूक्ष्म कांच के मनकों का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
उन्होंने विभिन्न तकनीकों और सांख्यिकीय मॉडलिंग और भूगर्भीय सर्वेक्षणों के आधार पर यह भी अनुमान लगाया कि चंद्रमा पर कांच के ये सूक्ष्म मनके कैसे बने और कब। उन्होंने पाया कि ये मनके उल्का पिंडों की टक्कर के कारण उत्पन्न हुई तीव्र गर्मी और दबाव के कारण बने थे। तो यदि शोधकर्ता यह पता कर लेते हैं कि इन मनकों की उम्र क्या है तो इससे चंद्रमा पर हुई उल्का पिंडों की बौछार का समय भी निर्धारित किया जा सकता है।
जब ऐसा किया गया तो पता चला कि चंद्रमा और पृथ्वी पर क्षुद्रग्रहों के टकराने का समय और आवृत्ति लगभग एक समान है। चंद्रमा पर पाए गए कुछ मनके लगभग 6.6 करोड़ साल पहले बने थे, यानी चंद्रमा की सतह पर टक्कर 6.6 करोड़ वर्ष पहले हुई थी। और लगभग इसी समय डायनासौर को खत्म कर देने वाला उल्कापिंड, चिक्सुलब इंपेक्टर, मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप के पास पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भीषण थी कि इसके कारण पृथ्वी का लगभग तीन-चौथाई जीवन खत्म हो गया था।
करीब 70,000 कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से टकराए 10 कि.मी. चौड़े इस उल्कापिंड ने पृथ्वी में 150 कि.मी. चौड़ा और 19 कि.मी. गहरा गड्ढा बना दिया था। टक्कर से उपजी भूकंपनीयता के अलावा पृथ्वी पर धूल का गुबार छा गया था जिसने सूर्य का प्रकाश रोक दिया था। फलस्वरूप जीवन के विकास ने नया मोड़ लिया था।
टीम अब चांग’ई-5 द्वारा लाई गई मिट्टी के नमूनों की तुलना चंद्रमा से लाई गई मिट्टी के अन्य नमूनों और चंद्रमा की सतह पर बने गड्ढों की उम्र के साथ करना चाहती है ताकि चंद्रमा पर हुई अन्य टक्करों के बारे में समझ सकें, और इसकी मदद से पृथ्वी पर होने वाली क्षुद्रग्रह टक्कर से जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझ सकें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/AU7QNUVSmZozKUWjWzyux-970-80.jpg.webp
कोविड-19 महामारी के कारण भारत और विश्व भर की अर्थव्यवस्थाओं को काफी मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। अब दो वर्ष बीत जाने के बाद परिस्थितियों में काफी सुधार आ चुका है। अर्थव्यवस्थाएं एक बार फिर सामान्य होती नज़र रही हैं।
अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण हेतु एक ऐसी दुनिया के निर्माण के संकल्प लिए गए जो कार्बन-उत्सर्जन को लेकर जागरूक होगी। कई देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और हरित ऊर्जा का उपयोग करने के भी संकल्प लिए। ऐसे में यह देखना लाज़मी है कि इस आर्थिक मंदी के बाद जलवायु परिवर्तन के सम्बंध में किए गए वादों को पूरा करने में सरकारों का प्रदर्शन कैसा रहा है।
आर्थिक प्रोत्साहन का विश्लेषण
आर्थिक प्रोत्साहन का एक सरल उदाहरण बैंकों के संदर्भ में लिया जा सकता है जिसमें बैंकों की चल निधि को बहाल करने के लिए सरकार बेलआउट पैकेज की घोषणा करती है ताकि उन्हें वापस सामान्य स्थिति में लाया जा सके। इस योजना के तहत अर्थव्यवस्था में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों के माध्यम से धन का आवंटन किया जाता है। कोविड-19 महामारी के बाद विश्व भर की सरकारों ने आर्थिक प्रोत्साहन के माध्यम से अपनी कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए। इन प्रयासों को समझने के लिए एक लेख काफी महत्वपूर्ण है – ‘जी-20 देशों द्वारा 14 खरब डॉलर का प्रोत्साहन उत्सर्जन सम्बंधी वायदों के खिलाफ है’ (‘G-20’s US $14 trillion economic stimulus – reneges on emissions pledges’)। विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (जी-20) ने आर्थिक प्रोत्साहन के लिए 14 खरब डॉलर का आवंटन किया। यह काफी दिलचस्प है कि इस राशि का केवल 6% (लगभग 860 अरब अमेरिकी डॉलर) ऐसे क्षेत्रों के लिए है जो उत्सर्जन में कटौती करने में मददगार हो सकते हैं। जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहन, ऊर्जा कुशल इमारतों का निर्माण और नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापना।
इसके विपरीत, आर्थिक प्रोत्साहन का 3 प्रतिशत कोयला जैसे उद्योगों को सब्सिडी देने के लिए आवंटित किया गया है जो उत्सर्जन में वृद्धि करते हैं। वैसे, ऐसा करना नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण से उचित हो सकता है क्योंकि आर्थिक मंदी के बावजूद ऊर्जा की मांग को पूरा करना ज़रूरी है जिसे कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन जैसे स्थापित ऊर्जा उद्योगों से ही पूरा किया जा सकता है। यह कदम पर्यावरण की दृष्टि से विवादास्पद दिखेगा लेकिन नीति निर्माता के दृष्टिकोण से नवीकरणीय उद्योग जैसे नए क्षेत्रों में निवेश करने की बजाय जांचे-परखे उद्योगों में निवेश करना बेहतर है।
देखा जाए तो वर्तमान महामारी के दौरान जो निवेश हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हुआ है वह पिछली महामारी की तुलना में आनुपातिक रूप से काफी कम है। उदाहरण के लिए वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान वैश्विक आर्थिक प्रोत्साहन का 16% उत्सर्जन में कटौती के लिए आवंटित किया गया था। यदि कोविड-19 आर्थिक मंदी के मद्देनज़र उत्सर्जन के लिए कटौती हेतु उसी अनुपात में धन आवंटित किया जाता तो यह आंकड़ा 2.2 खरब डॉलर होता। यह वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने के लिए आवंटित राशि से दुगनी से भी अधिक है। यह स्थिति तब है जब हालिया ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में विश्व भर के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बड़े-बड़े वादे किए थे।
हाल ही में आयोजित ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का संकल्प लिया गया था। इसके लिए 2020-24 के बीच 7 खरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी। लेकिन इस वर्ष की शुरुआत तक विश्व की सभी सरकारों द्वारा इस राशि का केवल नौवां भाग ही खर्च किया गया है।
जिस तरह से वर्तमान आर्थिक प्रोत्साहन पैकेजों का निर्धारण किया गया है उससे सरकारें अर्थव्यवस्था को कुशलतापूर्वक पुनर्जीवित करने में तो विफल रही ही हैं, साथ ही वे अर्थव्यवस्थाओं को कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर ले जाने में भी असफल रही हैं। पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में बुनियादी ढांचे, परिवहन और कुशल एवं स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में दीर्घकालिक निवेश ज़रूरी है। लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश करना शायद नीति निर्माताओं की प्राथमिकता में नहीं है।
पिछले कुछ समय में अक्षय ऊर्जा उद्योग काफी आकर्षक बना है, ऐसे में आर्थिक प्रोत्साहन का उद्देश्य इस क्षेत्र को सब्सिडी और अन्य प्रकार के प्रोत्साहन के माध्यम से आगे बढ़ाने का होना चाहिए। यह रोज़गार के लिहाज़ से भी काफी अच्छा विचार है। लेकिन इसके बावजूद अक्षय ऊर्जा उद्योगों को बहुत कम प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
प्रोत्साहन योजनाओं का अध्ययन
उपरोक्त अध्ययन में मुख्य रूप से जी-20 देशों को शामिल किया गया है। गौरतलब है कि ये अर्थव्यवस्थाएं 80 प्रतिशत वैश्विक उत्सर्जन और लगभग 85 प्रतिशत वैश्विक आर्थिक गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस अध्ययन में विशेष रूप से यह देखने का प्रयास किया गया है कि सरकारों द्वारा निर्धारित की गई नीतियों से उत्सर्जन में वृद्धि हुई है या कमी हुई है या फिर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। इसके अलावा नीतियों को अल्पकालिक या दीर्घकालिक आधार पर भी परखा गया है।
पवन चक्कियों के निर्माण और इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग को उत्सर्जन कम करने वाली नीतियों के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी ओर, पेट्रोल पर टैक्स कम करने जैसी नीतियों को उत्सर्जन में वृद्धि के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। फ्रंटलाइन श्रमिकों के वेतन में वृद्धि, जानवरों के लिए मुफ्त चिकित्सा सुविधा और सेवानिवृत्त सैनिकों को मुफ्त मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने जैसी नीतियां उत्सर्जन पर कोई प्रभाव नहीं डालेंगी।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष
आर्थिक प्रोत्साहन के लिए निर्धारित 14 खरब डॉलर में से 1 खरब डॉलर से भी कम राशि रिकवरी कार्यक्रमों के लिए आवंटित की गई है। इसमें से भी केवल 27 प्रतिशत राशि का आवंटन ऐसे क्षेत्रों के लिए किया गया है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं।
आवंटित राशि का 72 प्रतिशत हिस्सा उत्सर्जन पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है क्योंकि उत्सर्जन को कम करने में उनकी प्रभाविता काफी हद तक उपभोक्ता की मांग और उनके व्यवहार जैसे अस्थिर और परिवर्तनशील कारकों पर निर्भर करती है।
एक प्रतिशत से थोड़ी अधिक राशि (10.6 अरब डॉलर) अनुसंधान एवं विकास लिए आवंटित की गई है जिससे उत्सर्जन पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं।
रिकवरी फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा (91% तक) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है। जैसा कि महामारी के दौरान अपेक्षित था, रिकवरी फंडिंग का अधिकांश हिस्सा कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली को वित्तपोषित करने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए आवंटित किया गया है।
कुल मिलाकर महामारी के बाद जिस तरह से विकास और पुनर्निर्माण कार्य हुआ है उसमें शायद ही कोई बदलाव आया है। यह तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है महामारी के बाद सिर्फ पुनर्निर्माण और रिकवरी कार्य को प्राथमिकता दी गई है जबकि यह देखा जाना चाहिए था कि ये कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक न हों और लंबे समय तक टिकाऊ रहें।
टिकाऊ पुनर्निर्माण प्रयासों में कुछ देशों ने अन्य की तुलना में काफी बेहतर प्रयास किए हैं। उदाहरण के तौर पर उत्सर्जन नियंत्रण के मामले में युरोपीय संघ और दक्षिण कोरिया ने अन्य देशों की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। जहां सभी जी-20 देशों द्वारा उत्सर्जन कम करने पर आवंटित राशि केवल 6 प्रतिशत है वहीं इन देशों ने अपने कोविड-19 वित्तीय प्रोत्साहन की 30 प्रतिशत से अधिक राशि उत्सर्जन को कम करने के उपायों के लिए आवंटित की है। इसी तरह ब्राज़ील, जर्मनी और इटली ने आर्थिक प्रोत्साहन की 20-20 प्रतिशत तथा मेक्सिको और फ्रांस ने 10-10 प्रतिशत राशि का आवंटन उत्सर्जन को कम करने के लिए किया है। फ्रांस ने साइकिल पार्किंग और मरम्मत पर सब्सिडी के तौर पर 6.6 करोड़ डॉलर का खर्च किया है। इसी तरह जर्मनी ने पवन और सौर-ऊर्जा परियोजनाओं, ऊर्जा-कुशल भवनों, बिजली एवं हाइड्रोजन चालित वाहनों और अधिक कुशल बसों एवं हवाई जहाज़ों के निर्माण को बढ़ावा दिया है।
कई देश काफी पिछड़े हुए भी हैं। दूर जाने की ज़रूरत नहीं, अपने आसपास के देशों को देख सकते हैं। भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा किए गए नीतिगत परिवर्तनों से उत्सर्जन में वृद्धि होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, इन देशों ने जनता पर आर्थिक बोझ कम करने के लिए बिजली की कीमतों में 5 प्रतिशत तक की कटौती की है। चीन ने कीमतों को स्थिर रखने के लिए कोयला खनिकों से उत्पादन में वृद्धि करने की मांग की है। भारत ने कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों में वायु प्रदूषण उपायों को लागू करने की निर्धारित समय सीमा को और आगे बढ़ा दिया है। दक्षिण अफ्रीका ने बिजली संयंत्रों से 11.4 अरब डॉलर की बिजली खरीद की है जिसके उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग किया गया है जबकि पवन ऊर्जा से उत्पादित बिजली खरीद को कम किया है। भारत ने तो निजी निवेश को आकर्षित करने और कोयले की कीमतों को कम करने के लिए कोयला खनन के बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण करने का निर्णय लिया है। इसके लिए कोयला उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 14 अरब डॉलर खर्च किए गए हैं।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यू.एस., जापान, कनाडा और यूके ने उत्सर्जन को कम करने के लिए रिकवरी फंड का 10% से भी कम इस्तेमाल करने की प्रतिबद्धता जताई है। यह कंजूसी ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में इन देशों द्वारा किए गए वादों के सर्वथा विपरीत है।
वैसे, इस बीच कुछ अच्छे निर्णय भी लिए गए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन के पहले नेट-ज़ीरो लक्ष्य की घोषणा की है और 2016 के बाद से पूरे विश्व के बाकी हिस्सों की तुलना में अधिक समुद्री पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने हालिया इन्फ्रास्ट्रक्चर बिल में 2021 के पेरिस समझौते का अनुपालन करते हुए सार्वजनिक परिवहन, वाहनों के विद्युतीकरण और ग्रिड के आधुनिकीकरण में निवेश को शामिल किया है। अलबत्ता, इन घोषणाओं से इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अमेरिका और चीन ने अपने रिकवरी पैकेजों में जीवाश्म-ईंधन आधारित उद्योगों में एक बड़ी रकम निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है।
अध्ययन की सीमाएं
इस अध्ययन में नीति निर्माताओं द्वारा लिए गए उन निर्णयों पर प्रकाश डाला गया जो उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोगी या हानिकारक हैं। अलबत्ता, हर विश्लेषणात्मक रिपोर्ट की तरह इस रिपोर्ट की भी कुछ सीमाएं हैं:
इस अध्ययन में केवल कोविड-19 महामारी के संदर्भ में लिए गए निर्णयों को शामिल किया गया है। अर्थात कोविड-19 राहत प्रोत्साहन के दायरे के बाहर की नीतियों को इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में दोषपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होने की पूरी संभावना है।
इस रिपोर्ट में महामारी के दौरान जलवायु सम्बंधी सभी खर्चों को शामिल नहीं किया गया है और केवल राजकोशीय खर्च पर ध्यान दिया गया है।
मौद्रिक नीति में परिवर्तन तथा ऋण के माध्यम से मांग और आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। रिपोर्ट में अध्ययन की अवधि के दौरान इन परिवर्तनों और इसके कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। वस्तुओं और सेवाओं की मांग एवं आपूर्ति का उत्सर्जन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है और इस नाते मौद्रिक नीति उत्सर्जन नियंत्रण का काम कर सकती है।
यह अध्ययन मुख्य रूप से घोषणाओं पर केंद्रित है। यह जानी-मानी बात है कि सरकारी घोषणाओं और वास्तविक निवेश में बहुत अंतर होता है।
कम कार्बन ऊर्जा में निवेश
हाल ही में शोध फर्म ‘ब्लूमबर्ग एनईएफ’ द्वारा प्रकाशित एक नई रिपोर्ट, ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ के अनुसार निम्न कार्बन आधारित ऊर्जा की ओर परिवर्तन में वैश्विक निवेश 755 अरब अमेरिकी डॉलर की नई रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के क्षेत्र को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रों में निवेश बढ़ा है। रिपोर्ट के अनुसार पवन, सौर तथा अन्य नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में 366 अरब डॉलर का सबसे बड़ा निवेश हुआ है जो पिछले वर्ष की तुलना में पूरा 6 प्रतिशत अधिक है।
273 अरब डॉलर के साथ दूसरे स्थान पर सबसे अधिक निवेश विद्युतीकृत परिवहन क्षेत्र में हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में विद्युत वाहनों की बिक्री हुई है। इस रिपोर्ट में यह ध्यान देने योग्य है कि अक्षय ऊर्जा सबसे बड़ा उद्योग क्षेत्र है लेकिन इलेक्ट्रिक वाहन सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला उद्योग है। इतने वाहनों की बिक्री से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि अक्षय ऊर्जा उद्योग में 6 प्रतिशत। यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है तो 2022 तक विद्युत वाहन उद्योग अक्षय ऊर्जा उद्योग से भी आगे निकल जाएगा। यह काफी दिलचस्प है कि 755 अरब डॉलर में से 731 अरब डॉलर केवल इन दो क्षेत्रों से आता है जो स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में असमानता को दर्शाता है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ के प्रमुख विश्लेषक अल्बर्ट चेंग का विचार है कि “वस्तुओं की विश्व व्यापी कमी ने स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र के लिए नई चुनौतियों को जन्म दिया है। इसके नतीजे में सौर मॉड्यूल, पवन टर्बाइन और बैटरी पैक जैसी प्रमुख तकनीकों की इनपुट लागत में काफी वृद्धि हुई है। इसके मद्देनज़र, 2021 में ऊर्जा संक्रमण के क्षेत्र में निवेश में 27 प्रतिशत की वृद्धि एक अच्छा संकेत है जो निवेशकों, सरकारों और व्यवसायों की कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”
एक बार फिर ऊर्जा संक्रमण निवेश में चीन अकेला सबसे बड़ा देश है। इसके लिए चीन ने 2021 में 266 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता दिखाई है। चीन से काफी पीछे दूसरे नंबर पर अमेरिका ने 114 अरब डॉलर और युरोपीय संघ ने 154 अरब डॉलर का संकल्प लिया है।
नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
ब्लूमबर्ग एनईएफ की 2021 की रिपोर्ट ‘न्यू एनर्जी आउटलुक’ ने 2050 तक वैश्विक नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए ‘ग्रीन’, ‘रेड’ और ‘ग्रे’ लेबल के आधार पर तीन वैकल्पिक परिदृश्य सामने रखे हैं। ये तीनों परिदृश्य औसत वैश्विक तापमान में 1.75 डिग्री वृद्धि के हिसाब से हैं। न्यू एनर्जी आउटलुक का उद्देश्य वर्तमान आंकड़ों का अध्ययन करना और 2050 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी धन का अनुमान लगाना है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ की रिपोर्ट के अनुसार उपरोक्त तीन स्तरों में से किसी एक के भी करीब पहुंचने के लिए वैश्विक निवेश को तीन गुना करने की आवश्यकता है ताकि 2022 और 2025 के बीच उनका औसत 2.1 खरब डॉलर प्रति वर्ष और फिर 2026 से 2030 के बीच दुगना होकर 4.2 खरब डॉलर प्रति वर्ष हो जाए। वर्तमान विकास दर के लिहाज़ से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग एकमात्र ऐसा उद्योग है जिसके इस स्तर तक पहुंचने की उम्मीद है।
इस मामले में ब्लूमबर्ग एनईएफ में अर्थशास्त्र के प्रमुख मैथियास किमेल कहते हैं: “पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पूरे विश्व का कार्बन बजट तेज़ी से चुक रहा है। ऊर्जा संक्रमण का कार्य काफी अच्छी तरह से चल रहा है और पहले की तुलना में यह काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। लेकिन यदि हमें 2050 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो सरकारों को अगले कुछ वर्षों में अधिक वित्त जुटाने की आवश्यकता होगी।”
ब्लूमबर्ग रिपोर्ट के अनुसार 2021 में कुल कॉर्पोरेट वित्त 165 अरब डॉलर था जिसे ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ रिपोर्ट में 755 अरब डॉलर के शुरुआती आंकड़े में शामिल नहीं किया गया था। माना जा रहा है कि आने वाले वर्षों में इस पूंजी का उपयोग कंपनी के कामकाज को बढ़ाने और तकनीकों के विकास हेतु किया जाएगा।
गौरतलब है कि आज कंपनियों के पास इतनी पूंजी है जितनी मानव इतिहास में पहली कभी भी नहीं थी। यह सही है कि वे आज समस्याओं के समाधानों में ज़्यादा योगदान नहीं दे रही हैं लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वे नवाचारों के विस्तार में निरंतर योगदान दे रही हैं जो भविष्य की समस्याओं से निपटने के लिए अनिवार्य साबित होंगे।
निष्कर्ष
अब तक की चर्चा पढ़ने के बाद हमारे मन में एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब सरकारों को आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप निर्वहनीय तरीके से पुनर्निर्माण के अवसर मिल रहे हैं तो वे टिकाऊ विकास की ओर क्यों नहीं बढ़ रही हैं।
इसके दो बड़े कारण हो सकते हैं – सरकारें पर्यावरणीय विकास और जलवायु नीति की बजाय आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रही हैं। यह एक आम गलतफहमी है कि आर्थिक विकास और पर्यावरणीय विकास एक दूसरे के विरोधी हैं। जबकि सच तो यह है आर्थिक विकास और उत्सर्जन में कमी एक दूसरे के इतने भी विरोधी नहीं हैं जितना पहली नज़र में प्रतीत होते हैं।
इसका दूसरा कारण सरकारों के कार्यकाल से सम्बंधित है। आम तौर पर सरकारें यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि जो काम वे कर रही हैं उसका परिणाम उनके अपने कार्यकाल के भीतर ही मिल जाए ताकि जनता उन्हें फिर से चुन सके। यह अल्पकालिक सोच पैदा करता है। अब तक खर्च करने के जो भी निर्णय लिए गए हैं वे अल्पकालिक स्वास्थ्य संकट को दूर करने और आर्थिक संकट से बाहर निकलने के लिए हैं। जबकि इस समय यह आवश्यक था कि स्वास्थ्य सेवा में ऐसा निवेश हो जिसके परिणाम आने वाले दशकों में देखने को मिलें। शायद इसी कारण हमने सतत विकास के क्षेत्र में बहुत कम काम किया है क्योंकि टिकाऊपन के आधार पर पुनर्निर्माण के परिणाम पांच वर्षों में तो नहीं मिलेंगे।
तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता? देखा जाए तो ऐसे कई उपाय हैं जिनको अपनाकर सरकारें जलवायु को बिना नुकसान पहुंचाए विकास कार्य कर सकती हैं। सरकारें चाहें तो पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित शर्तों के आधार पर प्रोत्साहन कानून बना सकती हैं। फ्रांस इस तरह के सशर्त प्रोत्साहन का एक अच्छा उदाहरण है जिसने अपने विमानन उद्योग को वापस पटरी पर लाने के लिए सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन दिया। इस प्रोत्साहन के तहत उड़ानों को उन मार्गों पर सेवाएं न देने की शर्त रखी गई जहां रेल मार्ग से प्रतिस्पर्धा की संभावना है। इसके अलावा सरकारें ऐसे नीतिगत उपायों पर संसाधनों का आवंटन भी कर सकती है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। इसका एक तरीका अक्षय ऊर्जा पर खर्च करना हो सकता है। सभी सरकारों को अपनी रणनीति इस प्रकार तैयार करनी चाहिए कि कम-कार्बन उत्सर्जन करने वाले निवेश को संभव बनाया जा सके और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम किया जा सके।
देखा जाए तो यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्थिक विकास और टिकाऊ विकास साथ-साथ चल सकते हैं। हालांकि, हम जिन रिपोर्टों का उल्लेख कर रहे हैं वे स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि सरकारें टिकाऊ विकास पर पर्याप्त खर्च नहीं कर रही हैं और कई मामलों में वे इसके विपरीत काम कर रही हैं। कुछ देश अन्य की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। वास्तव में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है जो न केवल उत्सर्जन में वृद्धि करने वाले देशों को प्रभावित करती है बल्कि उन देशों को भी प्रभावित करती है जो उत्सर्जन को कम करने के निरंतर प्रयास कर रहे हैं। पेरिस समझौता और जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों में वित्तपोषण सही दिशा में कदम है, लेकिन यह देखना बाकी है कि 2050 नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने में सरकारें कहीं कंजूसी तो नहीं कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.piie.com/microsites/rebuilding-global-economy
1970 के दशक के अंत में पुरातत्वविदों ने उत्तरी इस्राइल में 12000 वर्ष पुराना एक प्राचीन गांव खोज निकाला था। इस गांव के लोग अपने प्रियजनों को घर के नीचे दफनाया करते थे। इस खोजबीन में उन्होंने एक कब्र का खुलासा किया था जिसमें दफन की गई महिला का हाथ एक कुत्ते के सीने पर रखा हुआ था। यह खोज मनुष्यों और कुत्तों के बीच एक शक्तिशाली भावनात्मक सम्बंध का संकेत देती है।
अलबत्ता, शोधकर्ताओं के बीच इस सम्बंध की शुरुआत को लेकर काफी मतभेद है। एक बड़ा सवाल है कि क्या यह सम्बंध कई हज़ारों वर्षों के दौरान उत्पन्न हुआ जिसमें कुत्ते दब्बू और मानव व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील होते गए या इस जुड़ाव की शुरुआत कुत्तों के पूर्वजों यानी मटमैले भेड़ियों के साथ ही हो चुकी थी?
एक हालिया अध्ययन से लगता है कि वयस्क भेड़िए भी कुत्तों के समान मनुष्यों से जुड़ाव बनाने में सक्षम हैं। और तो और, कुछ परिस्थितियों में तो वे मनुष्यों को सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में भी देखते हैं।
इस नए अध्ययन में स्ट्रेंज सिचुएशन टेस्ट (अनजान परिस्थिति परीक्षण) नामक प्रयोग का इस्तेमाल किया गया है। मूलत: इसे मानव शिशुओं और उनकी माताओं के बीच लगाव का अध्ययन करने के लिए तैयार किया गया था। इसमें इस बात का मापन किया जाता है कि किसी अजनबी व्यक्ति या माहौल से सामना होने पर जो तनाव पैदा होता है, वह देखभाल करने वाले से पुन: मुलाकात होने पर किस तरह बदलता है। ऐसी स्थिति में अधिक अंतर्क्रिया मज़बूत बंधन को दर्शाती है।
भेड़ियों पर ऐसा प्रयोग करना एक मुश्किल कार्य था, इसलिए शोधकताओं ने शुरुआत शिशु भेड़ियों से की। स्टॉकहोम युनिवर्सिटी की पारिस्थितिकीविद क्रिस्टीना हैनसन व्हीट और उनके सहयोगियों ने 10 दिन पहले पैदा हुए 10 मटमैले भेड़ियों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने कई दिनों तक बारी-बारी से 24 घंटे इन शावकों के साथ बिताए और समय-समय पर उनको बोतल से दूध भी पिलाया।
जब ये भेड़िए 23 सप्ताह के हुए तब देखभालकर्ता एक-एक करके उन्हें एक खाली कमरे में ले गया। इसके बाद वह कई बार इस कमरे के भीतर आना-जाना करता रहा। इस प्रक्रिया के दौरान भेड़िए को कभी-कभी तो कमरे में बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाता और कभी एक नितांत अजनबी के साथ छोड़ दिया जाता। शोधकर्ताओं ने यही प्रयोग 23 सप्ताह उम्र के 12 अलास्कन हस्की नस्ल के कुत्तों के साथ भी किया, जिन्हें उसी तरह पाला गया था।
इस अध्ययन में वैज्ञानिकों को भेड़ियों और कुत्तों में बहुत ही कम अंतर दिखा। जब देखभालकर्ता ने कमरे में प्रवेश किया तो दोनों ने ‘अभिवादन व्यवहार’ के पांच-बिंदु पैमाने पर 4.6 स्कोर किया जो किसी मनुष्य के पास रहने की इच्छा को ज़ाहिर करता है। हालांकि, किसी अजनबी के प्रवेश करने पर कुत्तों में यह व्यवहार गिरकर 4.2 हो गया और भेड़ियों में 3.5 पर आ गया। इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकशित रिपोर्ट के अनुसार इससे पता चलता है कि भेड़िए और कुत्ते दोनों अनजान व्यक्ति और परिचित व्यक्ति के बीच अंतर करते हैं। अंतर करने की इस क्षमता को टीम लगाव का संकेत मानती है। प्रयोग के दौरान कुत्ते और भेड़िए, दोनों ही अजनबी की तुलना में देखभालकर्ता से शारीरिक संपर्क करने में भी एक जैसे ही दिखे।
इसके अलावा, परीक्षण के दौरान कुत्तों ने ज़्यादा चहलकदमी नहीं की। जबकि भेड़ियों में थोड़े समय चहलकदमी देखी गई। चहलकदमी करना तनाव का द्योतक होता है। विशेषज्ञों के अनुसार मनुष्यों द्वारा पाले गए भेड़ियों में भी मनुष्य की उपस्थिति में बचैनी सामान्य है। यह भी देखा गया कि कमरे से अजनबी व्यक्ति के बाहर निकलने और देखभालकर्ता के अंदर आने पर भेड़ियों की चहलकदमी थम गई। ऐसा व्यवहार भेड़ियों में पहले कभी नहीं देखा गया था। व्हीट के अनुसार यह व्यवहार इस बात का संकेत है कि भेड़िए देखभालकर्ता मनुष्यों को सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में देखते हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस व्यवहार को सच मानें तो इस तरह का लगाव कुत्तों और भेड़ियों में एक समान ही है। अर्थात यह व्यवहार उनमें मनुष्यों द्वारा पैदा नहीं किया गया है बल्कि यह मानव चयन का एक उदाहरण है।
विशेषज्ञों का मत है कि चहलकदमी में परिवर्तन के प्रयोग को अन्य जंगली जीवों पर भी आज़माया जा सकता है जिससे यह साबित हो सके कि कोई जीव अपनी देखभाल करने वाले को मात्र भोजन प्रदान करने वाले के रूप में देखता है या फिर उसे एक सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में देखता है।
वैसे इस अध्ययन को लेकर शोधकर्ताओं में काफी मतभेद है। वर्ष 2005 में स्ट्रेंज सिचुएशन टेस्ट को कुत्तों और भेड़ियों के लिए विकसित करने वाली एट्वोस लोरांड युनिवर्सिटी की मार्था गैकसी इस अध्ययन से संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने इसी तरह के एक अध्ययन में कुत्तों और भेड़ियों के बीच काफी अंतर पाया था – भेड़िए अजनबी और देखभालकर्ता के बीच अंतर नहीं कर पाए थे। निष्कर्ष था कि भेड़ियों में विशिष्ट मनुष्यों से लगाव बनाने की क्षमता नहीं होती।
गैकसी इस नए अध्ययन में कई पद्धतिगत समस्याओं की ओर भी इशारा करती हैं। जैसे, कमरा जानवरों के लिए जाना-पहचाना था, कुत्तों की एक ही नस्ल ली गई थी और भेड़ियों ने इतनी चहलकदमी भी नहीं की थी कि उनके व्यवहार का निर्णय किया जा सके, वगैरह।
व्हीट का कहना है कि वे भी कुत्तों और भेड़ियों को एक समान नहीं मानती हैं लेकिन भेड़ियों में लगाव सम्बंधी व्यवहार के कुछ संकेतों के आधार कहा जा सकता है कि उनमें मनुष्यों से जुड़ाव बनाने का लक्षण पहले से मौजूद था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Alaskan_Husky.jpg https://en.wikipedia.org/wiki/Eurasian_wolf#/media/File:Eurasian_wolf_2.jpg
अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) के मुताबिक सन 1800 के आसपास शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव गतिविधियों ने अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों (जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) और सल्फर, फॉस्फोरस के यौगिकों व ओज़ोन का उत्सर्जन किया है। इसके कारण पृथ्वी की जलवायु बदल रही है।
खतरनाक वृद्धि
औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है – 18वीं शताब्दी में 280 पीपीएम से बढ़कर 2020 में 414 पीपीएम। और इन 200 वर्षों में अन्य ग्रीनहाउस गैसों का स्तर भी बढ़ा है।
1800 में भारत की आबादी 17 करोड़ थी, जो आज बढ़कर 140 करोड़ हो गई है। भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत आज़ादी के बाद ही यानी 75 साल पहले हुई थी। जहां इसने गरीबी कम करने में मदद की, वहीं वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि भी की है।
खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की वेबसाइट बताती है कि भारत की ग्रामीण आबादी कुल आबादी का 70 प्रतिशत है, और उनका मुख्य काम कृषि है। इनसे हमें कुल 27.5 करोड़ टन खाद्यान्न मिलता है। भारत चावल, गेहूं, गन्ना, कपास और मूंगफली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। इस लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत यथासंभव अपने कृषि क्षेत्र के कार्बन पदचिन्ह को कम करने की कोशिश करे।
कृषि विशेषज्ञों की मदद से किसान खेती में कुछ सराहनीय उपाय लाए हैं। जैसे उन्होंने खेतों में सौर पैनल लगाए हैं ताकि भूजल पंपों में डीज़ल का उपयोग कम से कम हो।
बेंगलुरु के एक स्वतंत्र पत्रकार सिबी अरासु कार्बन मैनेजमेंट पत्रिका में लिखते हैं, “जलवायु-अनुकूल कृषि आय के नए स्रोत प्रदान करती है और अधिक टिकाऊ है।” इससे भारत का सालाना कार्बन उत्सर्जन 4.5-6.2 करोड़ टन तक कम हो सकता है। सरकार और पेशेवर समूहों ने ग्रामीण किसानों की सौर पैनल लगाने में मदद की है ताकि पैसों की बचत हो और अधिक आमदनी मिल सके।
भारत के किसान न केवल चावल और गेहूं उगाते हैं बल्कि अन्य खाद्यान्न भी उगाते हैं। वर्ष 2020-21 के दौरान उन्होंने लगभग 12.15 करोड़ टन चावल और 10.90 करोड़ टन गेहूं उगाया था। वे अन्य खाद्यान्न जैसे मोटा अनाज, कसावा, और भी बहुत कुछ उगाते हैं। वे सालाना लगभग 1.2 करोड़ टन मोटा अनाज पैदा करते हैं। इसी तरह, प्रति वर्ष लगभग 2.86 करोड़ टन मक्का का उत्पादन होता है। प्रसंगवश यह भी देखा जा सकता है कि चावल की तुलना में बाजरा में अधिक प्रोटीन, वसा और फाइबर होता है। बाजरा में प्रोटीन 7.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 1.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 4.22 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है, जबकि चावल में प्रोटीन 2.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 0.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 0.4 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है।
इस लिहाज़ से, हमारे आहार में चावल और गेहूं के इतर अधिक बाजरा शामिल करना हमारे लिए स्वास्थ्यकर होगा। और, चावल खाने से बेहतर है गेहूं खाना, क्योंकि गेहूं में अधिक प्रोटीन (13.2 ग्राम प्रति 100 ग्राम), वसा (2.5 ग्राम प्रति 100 ग्राम), और फाइबर (10.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम) होता है।
एक साझा लक्ष्य
भारत में लगभग 20-39 प्रतिशत आबादी शाकाहारी है और लगभग 70 प्रतिशत आबादी मांस खाती है – मुख्यत: चिकन, मटन और मछली। भारत में कई नदियों और विशाल तट रेखा के चलते प्रचुर मछली संसाधन हैं। जूड कोलमैन द्वारा नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मछलियों में पोषक तत्व अधिक होते हैं और ये कार्बन पदचिन्ह को कम करने में मदद करते हैं। इस तरह से, किसान, मांस विक्रेता और मछुआरे सभी मिलकर हमारे कार्बन पदचिन्ह को कम करने में योगदान देंगे। हो सकता है हम दुनिया के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन जाएं। (स्रोत फीचर्स)
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नींद हमारे जीवन का अहम हिस्सा है। नींद ठीक से न हो तो दिन भर सुस्ती रहती है। लेकिन नींद और इससे जुड़े विकार चिकित्सा अध्ययनों में सबसे उपेक्षित रहे हैं। स्नातक स्तर की पढ़ाई में इस विषय पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, नींद अनुसंधान के क्षेत्र में वित्त या अनुदान की भी कमी है। इस उपेक्षा का कारण नींद सम्बंधी विकारों की विविधता है – जैसे स्लीप एप्निया (जो कान, नाक व गला विशेषज्ञ या हृदय रोग विशेषज्ञ के दायरे में आते हैं), या रेस्टलेस लेग सिंड्रोम (न्यूरोलॉजिस्ट या प्राथमिक चिकित्सक)। इसके कारणों की समझ में कमी और उपचार का अभाव भी इस समस्या को उपेक्षित बनाए रखते हैं।
हालांकि, अब परिस्थितियां बदलने लगी हैं। और इस बदलाव में कुछ योगदान दैनिक शारीरिक लय के आनुवंशिक आधार पर काम करने वाले नोबेल पुरस्कार विजेताओं माइकल रॉसबैश, जेफरी हॉल और माइकल यंग का रहा है। उनके काम की बदौलत आज हम यह जानते हैं कि मनुष्यों में एक आंतरिक आणविक घड़ी होती है – यह समय का हिसाब रखने वाले जीन और सम्बंधित प्रोटीन के एक नेटवर्क के रूप में होती है। ये जीन बाइपोलर डिसऑर्डर, अवसाद (डिप्रेशन) और अन्य मूड डिसऑर्डर से भी सम्बंधित हैं। कुछ निद्रा विकार पार्किंसंस रोग, लेवी बॉडी डिमेंशिया और मल्टीपल सिस्टम एट्रोफी के संकेतक के रूप में पाए गए हैं। इसके अलावा, पोर्टेबल निगरानी उपकरणों के विकास ने चिकित्सकों को सहज माहौल में, यहां तक कि घर में भी, नींद का निरीक्षण करने में सक्षम बनाया है। और, नार्कोलेप्सी की कार्यिकीय व्याख्या ने अनिद्रा की समस्या के लिए नई दवाओं का विकास संभव किया है। नार्कोलेप्सी उन न्यूरॉन्स की क्षति के कारण होती है जो जागृत अवस्था को उकसाने वाले ऑरेक्सिन नामक न्यूरोपैप्टाइड का स्राव करते हैं।
इसी कड़ी में, दी लैंसेट और दी लैंसेट न्यूरोलॉजी में चार शोध समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं जो विभिन्न निद्रा विकारों और नींद के मानवविज्ञान की व्यवस्थित तरीके से पड़ताल करती हैं। ये चार समीक्षाएं नींद के बारे में चार मुख्य बातें बताती हैं।
पहली, कि नींद सम्बंधी विकार एक आम स्वास्थ्य समस्या होने के बावजूद इन्हें बहुत कम तरजीह मिली है। नींद सम्बंधी विकार पीड़ित और उसके साथ सोने वालों के लिए बड़ी परेशानी का सबब बनते हैं, और जन-स्वास्थ्य और आर्थिक खुशहाली पर दूरगामी प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, एक तिहाई वयस्क अनिद्रा की समस्या के शिकार होते हैं। दिन के अधिकतर समय उनींदापन उत्पादकता और कार्यस्थल पर सुरक्षा में कमी ला सकता है। इसके चलते बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है और एक तिहाई तक सड़क हादसे नींद की कमी के कारण होते हैं।
दूसरी, कि प्रभावी उपचारों की कमी है। अनिद्रा के लिए तो आसानी से दवाएं लिख दी जाती हैं जैसे बेंजोडायज़ेपाइन्स और तथाकथित ज़ेड-औषधियां यानी ज़ोपिक्लोन, एस्ज़ोपिक्लोन और ज़ेलेप्लॉन। हालांकि अनिद्रा के उपचार के लिए गैर-औषधीय तरीकों, जैसे संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी प्रथम उपचार माने जाते हैं, लेकिन ये उपचार हर जगह उपलब्ध नहीं होते हैं। और, बातचीत आधारित उपचार से दवा पर आश्रित होने का खतरा भी नहीं होता – लंबे समय तक नींद की दवाएं लेने से इनकी लत लगना आम बात है। स्लीप हाइजीन (यानी समयानुसार सोना-जागना, शांत-अंधेरी जगह पर सोना, सोते समय मोबाइल वगैरह दूर रखना आदि) इस संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
तीसरी, अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सकों को उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोग जैसी चिकित्सा में नींद की जीर्ण समस्या के प्रभाव पता होना चाहिए। अपर्याप्त और अत्यधिक नींद दोनों ही स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालती हैं, ये अस्वस्थता और मृत्यु दर को बढ़ाती हैं। इसलिए किसी भी बीमारी का उपचार करते समय चिकित्सक को व्यक्ति की नींद की गुणवत्ता के बारे में भी पूछ लेना चाहिए।
और चौथी, अपर्याप्त नींद और नींद सम्बंधी विकारों की संख्या बढ़ने की अत्यधिक संभावना है। उदाहरण के लिए, मानवशास्त्रीय अध्ययनों से पता चला है कि अनिद्रा पूरी तरह से आधुनिक जीवन से जुड़ी हुई समस्या है (औद्योगिक समाज में 10-30 प्रतिशत लोग अनिद्रा का शिकार होते हैं, जबकि नामीबिया और बोलीविया में रहने वाले शिकारी-संग्रहकर्ता समुदाय की महज़ दो प्रतिशत आबादी अनिद्रा की शिकार है)। मनोसामाजिक तनाव, मदिरापान, धूम्रपान और व्यायाम में कमी नींद में बाधा डालते हैं। इसके अलावा, सोने के समय शयनकक्ष में तकनीकी उपकरणों का उपयोग या उनकी मौजूदगी, खास कर युवा वर्ग में स्मार्ट फोन का बढ़ता उपयोग नीली रोशनी से संपर्क बढ़ाता है जो, सोने और जागने की लय सम्बंधी विकारों के संभावित कारणों में से एक माना जाता है।
नींद हमारे जीवन का एक तिहाई हिस्सा है लेकिन चिकित्सकों, स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों और नीति निर्माताओं द्वारा इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। उक्त शृंखला अच्छी नींद के महत्व को भलीभांति उजागर करती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है। घर के बाहर वायु प्रदूषण के बारे में तो हम सजग हैं। लेकिन घर के अंदर की आब-ओ-हवा हमें सुरक्षित और स्वच्छ लगती है, क्योंकि हम यह मानकर चलते हैं कि हम (या हमारा शरीर) कोई प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है हमारी त्वचा खतरनाक वायु प्रदूषक पैदा करने में भूमिका निभाती है।
वायुमंडलीय रसायनज्ञों और इंजीनियरों के एक दल ने पाया है कि मानव त्वचा पर मौजूद तैलीय पदार्थ ओज़ोन से क्रिया करके क्रियाशील मुक्त मूलक उत्पन्न करता है जो फिर घर के अंदर मौजूद कई कार्बनिक यौगिकों के साथ क्रिया करके खतरनाक प्रदूषक पैदा करते हैं।
सायप्रस इंस्टीट्यूट व मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री के वायुमंडलीय रसायनज्ञ जोनाथन विलियम्स और उनके साथियों ने चार-चार वयस्क प्रतिभागियों के तीन समूह बनाए, और उन्हें अलग-अलग दिनों में शयनकक्ष जितने बड़े एक जलवायु-नियंत्रित स्टेनलेस-स्टील कक्ष में पांच घंटे तक बिठाया। फिर, अत्यधिक संवेदनशील उपकरणों की मदद से कमरे की वायु में मौजूद कार्बनिक यौगिक और हाइड्रॉक्सिल मूलक का स्तर मापा। उन्होंने एक विशेष मास्क की मदद से प्रतिभागियों की श्वास वायु में मौजूद रसायन भी जांचे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कक्ष की वायु में हुए परिवर्तन उनकी सांस के कारण नहीं हुए थे।
इसके बाद, शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के साथ यही प्रयोग दोहराया लेकिन इस बार उन्होंने कक्ष में ओज़ोन डाली। ओज़ोन की मात्रा 35 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी)) थी – हवाई जहाज़ के यात्री ओज़ोन की लगभग इतनी ही मात्रा के संपर्क में रहते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि त्वचा का तेल स्क्वैलीन ओज़ोन के साथ क्रिया करके ऐसे यौगिक बनाते हैं जो पुन: ओज़ोन के साथ क्रिया करके हाइड्रॉक्सिल मूलक नामक शक्तिशाली ऑक्सीकारक बनाते हैं। फिर ये मूलक घर के अंदर के फर्नीचर, घरेलू क्लीनर और यहां तक कि ताज़ा पके भोजन वगैरह जैसी चीज़ों से निकलने वाले अणुओं से क्रिया करके विषैले यौगिक बनाते हैं।
सामान्यत: वायुमंडल में हाइड्रॉक्सिल मूलक तब बनते हैं जब सूर्य का प्रकाश ओज़ोन को ऑक्सीजन परमाणुओं में तोड़ता है; ये ऑक्सीजन परमाणु पानी से क्रिया करके हाइड्रॉक्सिल मूलक बनाते हैं। वैसे (चाहे अंदर हो या बाहर) वायुमंडल में मौजूद हाइड्रॉक्सिल मूलक अपने आप में हानिकारक नहीं होते। कभी-कभी तो इन हाइड्रॉक्सिल मूलकों को ‘सफाईकर्ता’ भी कहा जाता है, क्योंकि ये हवा में मौजूद हाइड्रोकार्बन प्रदूषकों के साथ क्रिया करके उन्हें हटा देते हैं। लेकिन घर के अंदर इनकी उपस्थिति खतरनाक है, क्योंकि ये हवा में मौजूद कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करके उन्हें ऐसे रसायनों में बदल देते हैं जो सांस सम्बंधी व हृदय रोगों का कारण बनते हैं।
अपने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने वायु कक्ष में मौजूद रसायनों की मात्रा का डैटा ऐसे कंप्यूटर मॉडल्स में डाला, जो दर्शा सकते हैं कि त्वचा के आसपास पैदा हुए रसायन हवा में कैसे फैलेंगे।
पाया गया कि घर के अंदर हाइड्रॉक्सिल मूलक स्थिति को विकट बना देते हैं। जहां ओज़ोन चुनिंदा रसायनों से क्रिया करती है, वहीं हाइड्रॉक्सिल मूलक इतने अधिक क्रियाशील होते हैं कि उनके द्वारा उत्पादित सभी प्रकार के रसायनों का अनुमान लगाना भी मुश्किल है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि तापमान, नमी और त्वचा से संपर्क की मात्रा जैसे कई कारक हैं जो इन मूलकों के निर्माण को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए यह समझने की कोशिश चल रही है कि हवा में नमी हाइड्रॉक्सिल मूलकों के निर्माण को कैसे प्रभावित करती है।
उक्त निष्कर्ष घरेलू सामानों जैसे परफ्यूम्स, डिओडोरेंट्स और क्लीनर्स में उपस्थित रसायनों के ऑक्सीकरण के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों पर सवाल उठाते हैं। अन्य शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि ओज़ोन की मात्रा हाइड्रॉक्सिल मूलकों के निर्माण को कैसे प्रभावित करती है, क्योंकि किसी धूप वाले दिन में, खुली खिड़कियों वाले घर में ओज़ोन का स्तर सिर्फ 20 पीपीबी के करीब होता है। (स्रोत फीचर्स)
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यदि कोई मगरमच्छ की तस्वीर दिखाकर आपसे पूछे कि क्या यह एक पक्षी है, तो हो सकता है आप उसके इस नादान सवाल पर मुस्करा दें। और फिर, शायद जानवर को पहचानने में मदद भी कर दें। अब, एक हालिया अध्ययन कहता है कि इस तरह के वास्तविक दुनिया के (और कभी-कभी नादान) सवाल-जवाब कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के सीखने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इस तरीके से एआई द्वारा नई तस्वीरों को समझने में सुधार दिखा। इससे ऐसे प्रोग्राम डिज़ाइन करने में तेज़ी आ सकती है जो रोग निदान से लेकर रोबोट या अन्य उपकरणों को निर्देश देने तक के कार्य स्वयं करते हैं।
कई आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र पाशविक बल पद्धति से सीखते हैं: जैसे वे फर्नीचर की हज़ारों तस्वीरों में पैटर्न ढूंढते हैं और सीखते हैं कि कुर्सी कैसी दिखती है। लेकिन विशाल डैटा सेट के बावजूद भी जानकारी में कमी छूट ही जाती है। मसलन, हो सकता है कि तस्वीरों में दिख रही वस्तु पर कुर्सी लिखा हो लेकिन अन्य सम्बंधित जानकारी न हो। जैसे वह किस चीज़ से बनी है, या क्या आप उस पर बैठ सकते हैं।
आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र की समझ को विस्तार देने के लिए शोधकर्ता अब एक ऐसा तरीका विकसित करने की कोशिश में हैं जो उसकी जानकारी में कमी पता कर सके, और यह समझ सके कि अजनबियों से इस जानकारी को भरने के लिए कैसे कहा जाए।
इसके लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के रंजय कृष्णा (अब, युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में) और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में मशीन-लर्निंग प्रणाली को अपने ज्ञान में कमी खोजकर ऐसे सवाल पूछने के लिए प्रशिक्षित किया जिसका लोग धैर्यपूर्वक जवाब दे सकें। (जैसे, सिंक का आकार क्या है? जवाब: वर्गाकार)
शोधकर्ताओं ने समझने योग्य सवाल करने के लिए अपने एआई सिस्टम को पुरस्कृत भी किया: लोगों के जवाब के आधार पर सिस्टम को प्रतिक्रिया मिली कि वह अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली को समायोजित करे ताकि भविष्य में इसी तरह का व्यवहार कर सके। धीरे-धीरे, एआई ने भाषा और सामाजिक मानदंड सीखे और वाजिब व जवाब देने योग्य सवाल करने की क्षमता तराशी।
शोधकर्ता बताते हैं कि नए AI में कई घटक हैं जो मिल-जुलकर काम करते हैं। एक घटक इंस्टाग्राम पर डाली गई कोई एक तस्वीर – सूर्यास्त की तस्वीर – चुनता है, और दूसरा घटक सवाल करता है कि क्या यह तस्वीर रात में ली गई है? अन्य घटक लोगों के जवाबों से जानकारी निकालते हैं और उनसे तस्वीर के बारे में सीखते हैं।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि पूरे 8 महीनों में इंस्टाग्राम पर 2 लाख से अधिक सवाल पूछने के बाद एआई के जवाब देने की सटीकता में 118 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अप्रशिक्षित एआई द्वारा सवाल करने से सटीकता में केवल 72 प्रतिशत सुधार दिखा। उम्मीद है कि ऐसे सिस्टम एआई का सामान्य ज्ञान बढ़ाने मदद करेंगे और इंटरैक्टिव रोबोट्स और चैटबॉट को बेहतर करने में मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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चींटियों को गिनना रात में तारे गिनने जैसा काम है। लेकिन छह शोधकर्ताओं ने यह काम कर दिखाया है। और उनके आंकड़ों के मुताबिक पूरी पृथ्वी पर तकरीबन 20 क्वाड्रिलियन (20,000,000,000,000,000) चींटियां हैं। अधिकांश लोगों के लिए यह संख्या कल्पना से परे होगी लेकिन हिंदी में कहें तो 1 क्वाड्रिलियन का मतलब होता है 1 करोड़ शंख या 1 पद्म (नाम तो सुना ही होगा)। इतनी चींटियों का बायोमास 1.2 करोड़ टन के करीब है। यह सभी जंगली पक्षियों और स्तनधारियों के मिले-जुले वज़न से अधिक है। इस संख्या का मतलब यह भी है कि पृथ्वी पर हर मनुष्य के लिए 25 लाख चींटियां हैं।
चींटियां हमारे पारिस्थितिक तंत्र की महत्वपूर्ण इंजीनियर हैं। वे मिट्टी को यहां-वहां करती हैं, बीजों को फैलाती हैं, जैविक पदार्थों का पुनर्चक्रण (री-सायकल) करती हैं। दुनिया भर में चींटियां किस तरह से फैली हैं यह समझने के लिए कुछ शोध हुए हैं, लेकिन पृथ्वी पर कुल कितनी चीटियां रहती हैं इसका कोई ठीक-ठीक अनुमान नहीं था।
इसलिए शोधकर्ताओं ने विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध तकरीबन 12,000 रिपोर्ट्स को खंगाला (इनमें बल्गेरियाई और इन्डोनेशियाई जैसी भाषाएं भी शामिल थीं)। इसमें से उन्होंने उन 489 अध्ययनों का डैटा लिया जो चींटियों को इकट्ठा करके गिनने के गहन तरीकों पर केन्द्रित थे।
विश्लेषण के उपरांत शोधकर्ता आश्चर्यचकित रह गए कि चींटियां उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सर्वाधिक संख्या में रहती हैं। खास तौर से सवाना और नमी वाले जंगलों में इनकी बहुलता थी।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि ये अनुमान पूर्व में लगाए गए अनुमानों से दो से 20 गुना अधिक है। और इस अनुमान के सटीक होने की संभावना अधिक है, क्योंकि इसकी गणना दुनिया भर में पकड़ी गई चींटियों की वास्तविक संख्या के आधार पर की गई है। इसके पूर्व के अनुमान इस मान्यता के आधार पर लगाए गए थे कि पृथ्वी पर चीटियों की संख्या कुल कीटों की एक प्रतिशत है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक इस अध्ययन की एक सीमा यह रही कि उनके पास हर जगह का समान रूप से वितरित डैटा नहीं था। अधिकतर डैटा भूमि की ऊपरी सतह का डैटा था; पेड़-पौधों पर बसने वाली, और ज़मीन में गहराई पर रहने वाली चीटियों का डैटा कम था। (स्रोत फीचर्स)
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वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि ऊंट का दूध मनुष्य तथा गाय के दूध से किसी मामले में कम नहीं है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि ऊंट के दूध में एंटी-डायबेटिक, एंटी-हाइपरटेंसिव, एंटी-माइक्रोबियल व एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं।
देखा गया है कि मधुमेह रोगियों द्वारा ऊंट के दूध का लंबी अवधि तक सेवन इंसुलिन की ज़रूरत कम करने में सहायक होता है। ऊंटनी का दूध ऐतिहासिक रूप से अपने औषधीय और अन्य गुणों के लिए जाना जाता है। इन गुणों को लेकर कई अनुसंधान पत्र प्रकाशित हुए हैं। शोध बताते हैं कि यह मधुमेह और ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम विकारों से सम्बंधित बीमारियों के लिए अत्यंत लाभकारी पाया गया है। हाल के एक अनुसंधान से पता चला है कि ऊंट का दूध जीवाणुरोधी, एंटीवायरल, एंटीऑक्सिडेंट, कैंसर-रोधी तथा हाइपोएलर्जेनिक गुणों से संपन्न है।
इसके अलावा, ऊंट के दूध ने लैक्टोज़ टॉलरेंस के कारण लोगों के लिए एक वैकल्पिक डेयरी उत्पाद के रूप में लोकप्रियता हासिल की है। एक नई शोध समीक्षा के अनुसार ऊंट के दूध को गाय के दूध से बेहतर माना गया है क्योंकि इसमें लैक्टोज़, संतृप्त वसा और कोलेस्ट्रॉल कम होते हैं। इसमें असंतृप्त वसीय अम्ल भी अधिक होते हैं तथा 10 गुना अधिक लौह और 3 गुना अधिक विटामिन सी होता है।
वैसे तमाम वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ आम तौर पर कई उच्च जोखिम के कारण सामान्य रूप से कच्चे दूध का सेवन करने की सलाह नहीं देते हैं। कच्चे दूध का सेवन संक्रमण, गुर्दे की निष्क्रियता और यहां तक कि आक्रामक संक्रमण से मौत का कारण बन सकता है। विशेष रूप से उच्च जोखिम वाली आबादी, गर्भवती महिलाओं, बच्चों, वृद्धों, वयस्कों में प्रतिरक्षा सम्बंधी समस्याएं बढ़ने लगती हैं। अध्ययनों से पता चला है कि ऊंट के दूध में ऐसे जीवाणु पाए गए हैं जो श्वसन तंत्र को प्रभावित करते हैं। इसलिए गंभीर संक्रमण की घटनाएं तब पाई जाती हैं जब ऊंट के दूध का सेवन बिना पाश्चरीकरण के किया जाता है।
हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात में ऊंटनी के दूध की खपत के पैटर्न और वयस्कों के बीच कथित लाभों और उसके नुकसान सम्बंधी कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन किए गए थे। इस अध्ययन के तहत एक प्रश्नावली के माध्यम से 852 वयस्कों से जानकारी ली गई। प्रश्नावली में सामाजिक-जनसांख्यिकीय विशेषताओं से लेकर ऊंट के दूध की खपत के पैटर्न और कच्चे ऊंट के दूध के लाभों और जोखिमों के कथित ज्ञान की जांच की गई। पता चला कि 60 प्रतिशत प्रतिभागियों ने ऊंटनी का दूध आज़माया है, लेकिन मात्र एक चौथाई ही नियमित रूप से सेवन करते थे। अध्ययन में दूध के बाद सबसे ज़्यादा खपत ऊंट के दही और विशेष स्वाद तथा महक वाले वाले दूध की रही। ऊंट के दूध की उपभोग परीक्षण में शहद, हल्दी और चीनी के साथ मिलाकर सेवन करने वालों का प्रतिशत अधिक था। अधिकांश उपभोक्ता (57 प्रतिशत) रोज़ाना एक कप से कम ऊंटनी के दूध का सेवन करते हैं। 64 प्रतिशत लोग ऊंट के दूध को उसकी पौष्टिकता के कारण, जबकि 40 प्रतिशत चिकित्सकीय गुणों के कारण पसंद करते थे।
वैश्विक स्तर पर केन्या सालाना 11.65 लाख टन ऊंट के दूध का उत्पादन कर अव्वल है। इसके बाद सोमालिया 9.58 लाख टन और माली 2.71 लाख टन उत्पादन करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि केन्या के उत्तर-पूर्वी हिस्सों में जनजातियां लगभग 47.22 लाख ऊंट पालती हैं जो विश्व की ऊंट आबादी का लगभग 80 प्रतिशत है। वर्ष 2020 में गल्फ कॉर्पोरेट काउंसिल (जीसीसी) ने ऊंट के दूध के व्यवसाय से 50.23 लाख अमेरिकी डॉलर की कमाई की और वर्ष 2026 तक 7.1 प्रतिशत की वृद्धि की उम्मीद है। संयुक्त अरब अमीरात में ऊंट के दूध के कई उत्पाद बाजार में हैं – जैसे ताज़ा दूध, सुगंधित दूध, दूध पाउडर, घी, दही, छाछ आदि।
भारत समेत विभिन्न देश ऊंट के दूध का उत्पादन और विपणन करने के नए-नए तरीके ढूंढ रहे हैं। हमारे देश में ऊंट के दूध का उत्पादन एवं बिक्री करने के लिए अमूल, आदविक जैसे कई बड़े दुग्ध उत्पादक सामने आए हैं। भारत में ऊंटनी के दूध का बाज़ार अभी धीरे-धीरे गति पकड़ रहा है। नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की कुल वार्षिक आपूर्ति में गाय का दूध 85 प्रतिशत, भैंस का दूध 11 प्रतिशत, बकरी का दूध 3.4 प्रतिशत, भेड़ का दूध 1.4 प्रतिशत और ऊंट का दूध मात्र 0.2 प्रतिशत ही है।
गौरतलब है कि भारत में ऊंटों की आबादी में लगातार गिरावट आ रही है क्योंकि अब परिवहन या खेती के लिए इनकी आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, खेती तथा अन्य व्यवसाय के लिए खरीदकर मांस के लिए इनका उपयोग किया जाता है। 20वीं पशुधन गणना (2019) के अनुसार ऊंटों की आबादी में 37.5 प्रतिशत की गिरावट आई है।
अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया के लोग सदियों से दूध के लिए ऊंटों पर निर्भर हैं। अब, संयुक्त राज्य अमेरिका में ऊंट के दूध की खपत बढ़ रही है और मांग आपूर्ति से आगे निकल चुकी है।
2012 में अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने ऊंट के दूध की बिक्री की अनुमति दी। लेकिन बिक्री के लिए कानूनी निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए। ऊंट के दूध को निश्चित तौर पर पाश्चरीकृत होना चाहिए।
डेयरी उद्योग के एक जानकार के अनुसार ऊंट के दूध बाज़ार में वर्ष 2022-2027 के दौरान 3.1 प्रतिशत वृद्धि की आशा है और 2027 के अंत तक 8.6 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है।
अगर देखा जाए तो आज भारत में ऊंटों के नस्ल संरक्षण और संवर्धन की नई राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है। इस नियम में अवैध परिवहन और वध पर प्रतिबंध का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही साथ, ऊंटों के लिए चारागाह की व्यवस्था ज़रूरी है। ऊंट के दूध के वितरण के लिए स्थापित डेयरी उद्योग के विकास की नीति ज़रूर शामिल करनी चाहिए। इस संदर्भ में राजस्थान में ऊंट दूध कोऑपरेटिव प्रणाली वर्ष 2010 में आरंभ की गई थी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.shopify.com/s/files/1/0650/9435/articles/camel_kefir_692x.jpg?v=1561322713
दीपावली पर आतिशबाज़ी में अंधाधुंध पटाखे जलाए जाते है जिससे हमारे पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान होता है। यही वजह है कि दीपावली के दौरान और इसके बाद वातावरण में प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है।
पटाखों में मुख्य रूप से सल्फर के यौगिक मौजूद होते हैं। इसके अतिरिक्त भी पटाखों में कई प्रकार के बाइंडर्स, स्टेबलाइज़र्स, ऑक्सीडाइज़र, रिड्यूसिंग एजेंट और रंग मौजूद होते हैं। रंग-बिरंगी रोशनी पैदा करने के लिए एंटीमनी सल्फाइड, बेरियम नाइट्रेट, एल्यूमीनियम, तांबा, लीथियम, स्ट्रॉन्शियम वगैरह मिलाए जाते हैं।
दीपावली का त्योहार अक्टूबर/नवंबर में आता है और इस समय भारत में कोहरे का मौसम रहता है। इस वजह से यह पटाखों से निकलने वाले धुएं के साथ मिलकर प्रदूषण के स्तर को और भी ज़्यादा बढ़ा देता है। पटाखों से निकलने वाले रसायन अल्ज़ाइमर तथा फेफड़ों के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां का कारण बन सकते हैं। प्रदूषण का प्रभाव बड़ों की तुलना में बच्चों पर शीघ्र और ज़्यादा पड़ता है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक वायु प्रदूषण शरीर के हर अंग को नुकसान पहुंचा सकता है।
पटाखों में विभिन्न रंगों की रोशनी के लिए अलग-अलग रसायन मिलाए जाते हैं जो पर्यावरण व समस्त जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचाते है।
एल्युमिनियम का प्रदूषण त्वचा सम्बंधी रोग का कारण बनता है। सोडियम, मैग्नीशियम और ज़िंक का प्रदूषण मांशपेशियों को कमज़ोर करता है। कैडमियम रक्त की ऑक्सीजन वहन क्षमता को कम करता है, एनीमिया की संभावना बढ़ाता है। स्ट्रॉन्शियम कैल्शियम की कमी पैदा करके हड्डियों को कमज़ोर करता है। सल्फर सांस की तकलीफ पैदा करता है। और तांबा श्वसन नली में परेशानी पैदा करता है।
पटाखा
जलाने का समय(मिनट में)
PM 2.5 की मात्रा(माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर)
फुलझड़ी
2
10,390
सांप की गोली
3
64,500
हंटर बम
3
28,950
अनार
3
4,860
चकरी
5
9,490
लड़ (1000 बम वाली)
6
38,450
वर्ष 2016 में पुणे के चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन द्वारा अलग-अलग पटाखों से कितना प्रदूषण होता है इसका अध्ययन किया गया था। इसमें पाया गया था विभिन्न पटाखों को जलाने पर अलग-अलग मात्रा में 2.5 माइक्रॉन के कण (PM 2.5) उत्पन्न होते हैं। यह जानकारी तालिका में देखें।
जले हुए पटाखों के टुकड़ों से भूमि प्रदूषण की भी समस्या उत्पन्न होती है। पटाखों के कई टुकड़े बायोडीग्रेडेबल नहीं होते, जिस वजह से इनका निस्तारण आसानी से नहीं होता तथा समय बीतने पर ये और भी अधिक विषैले होते जाते हैं और भूमि को प्रदूषित करते हैं।
दिल्ली में हर वर्ष सितंबर महीने के आखिर से दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता खराब होने लगती है क्योंकि इस समय हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान पराली जलाते हैं। साथ ही यह समय आतिशबाज़ी का होता है। इसलिए दिल्ली सरकार ने पटाखों के उत्पादन, भंडारण, बिक्री और उपयोग पर पूरी तरह रोक लगा दी है। राजधानी दिल्ली में पिछले साल भी पटाखों की बिक्री और आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध था किंतु उसके बावजूद लोगों ने पटाखे फोड़े थे। पिछले साल यानी वर्ष 2021 में दिवाली के अगले दिन दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 462 था जो कि पिछले 5 साल में सबसे बुरा था। एयर क्वालिटी इंडेक्स के 462 होने का मतलब है कि दिल्ली में हवा गंभीर से अधिक खतरनाक स्तर पर प्रदूषित थी।
प्रदूषण की समस्या को कम करने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) द्वारा हरित पटाखे बनाए गए हैं। हरित पटाखे दिखने, जलाने और आवाज़ में सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं पर इनके जलने से प्रदूषण कम होता है। अलबत्ता, लोगों में हरित पटाखों को लेकर भ्रम है कि ये पूरी तरह प्रदूषण मुक्त हैं, लेकिन अगर लोग हरित पटाखे अधिक जलाते हैं तो निश्चित ही त्योहारों के बाद प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के अनुसार सरकार को सभी परिवारों के लिए पटाखे खरीदने की एक सीमा निर्धारित करनी चाहिए ताकि लोग एक तय सीमा से अधिक इन पटाखों का इस्तेमाल ना कर सकें। यह विडंबना है कि लोग पटाखों से होने वाले दुष्प्रभावों को जानने के बाद भी इनका उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.pinimg.com/564x/8c/ae/c8/8caec8198725320d880a8eeac5f9a1aa.jpg