बच्चों का हास-परिहास और विकास

हास्य-विनोद (humor) इंसानी व्यक्तित्व (human personality)  का बहुत पुराना और रोचक पहलू है। बच्चे पूरे वाक्य बोलने या किताब पढ़ने से पहले ही हंसी-मज़ाक और शरारतें करने लगते हैं। यह उनके विकास (child development), दूसरों से जुड़ाव और बुद्धिमत्ता से जुड़ा होता है।

शोध बताता है कि बच्चे जन्म के कुछ ही महीनों बाद मुस्कराने और थोड़े समय बाद हंसने लगते है। शुरू में वे सरल खेलों (play activities) से मज़ा लेते हैं; जैसे आंख-मिचौली, गुदगुदी या टेढ़े-मेढ़े चेहरे बनाना। फिर वे अजीब जगहों पर छिपने का नाटक, उछल-कूद या चीज़ों को खिलौने बना कर मज़ा लेने लगते हैं।

धीरे-धीरे बच्चे और उन्नत हास्य (sense of humor) करने लगते हैं; जैसे चिढ़ाना, भूमिकाएं निभाना, बेतुके शब्द बोलना और अंत में शब्दों के खेल (wordplay) और चुटकुले समझना। मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘अर्ली ह्यूमर सर्वे’ (early humor survey) जैसे शोधों में दर्ज किया है। इससे स्पष्ट होता है कि बच्चे अचानक मज़ाकिया नहीं बन जाते बल्कि धीरे-धीरे यह कौशल विकसित करते हैं, जो आगे चलकर उनकी सोच और संवाद की क्षमता को मज़बूत बनाता है।

हास्य सिर्फ मनोरंजन (entertainment) नहीं है, बल्कि यह सीखने (learning process) और सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण ज़रिया है। जब कोई बच्चा मज़ाक या चुटकुला समझता है, तो उसे कई बातों पर ध्यान देना पड़ता है – जैसे किसी चीज़ का सामान्य उपयोग क्या है, उसमें क्या अलग या अजीब किया गया है और क्यों वह मज़ेदार लग रहा है। इसका मतलब है कि बच्चा चीज़ों को केवल अपनी नज़र से नहीं बल्कि दूसरों के दृष्टिकोण से भी देखना सीखता है। मनोवैज्ञानिक इसे ‘थ्योरी ऑफ माइंड’ (theory of mind) कहते हैं। जो बच्चे ज़्यादा मज़ाक करते हैं या खेल-खेल में हंसी-मज़ाक करते हैं, वे सामाजिक और मानसिक रूप से ज़्यादा तेज़ी से विकसित होते हैं। वे जल्दी सीखते हैं, बेहतर संवाद करते हैं और अच्छे रिश्ते बना पाते हैं।

हंसी-विनोद हमारे रिश्तों (relationships) को मज़बूत करने का काम करते हैं। मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट प्रोवाइन के अध्ययन में पाया गया कि हम दूसरों के साथ रहते हुए लगभग 30 गुना अधिक हंसते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम केवल 20 प्रतिशत मज़ाक या चुटकुलों पर हंसते है, बकाया तो आम बातचीत के दौरान हंसते हैं। यानी हंसी जुड़ाव, भरोसे और अपनेपन से जुड़ा मामला है।

यह आदत सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं है। चिम्पैंजी और गोरिल्ला जैसे अन्य प्राइमेट (primates) भी खेलते समय हंसी जैसी हरकतें दिखाते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि शुरू में हंसी का विकास ‘सोशल ग्रूमिंग’ (social grooming) के लिए हुआ था। क्योंकि शारीरिक ग्रूमिंग (जैसे एक-दूसरे को साफ करना) छोटे समूहों तक सीमित था और समय लेता था, हंसी शायद एक आसान और तेज़ तरीका बनी जिससे बड़े समूहों में भी अपनापन बढ़ सके। मनुष्यों में हंसी और भी मज़बूत भूमिका निभाती है। यह दो तरह की होती है। एक, स्वाभाविक हंसी (जब हमें सच में कुछ मज़ेदार लगता है)। दूसरी, जान-बूझकर की गई हंसी (जिसे हम दोस्ती जताने, तनाव घटाने या रुचि दिखाने के लिए करते हैं)। दोनों ही तरह की हंसी लोगों को जोड़ने और समूहों को एकजुट रखने में अहम भूमिका निभाती है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि इंसानी हंसी (human laughter) हमारी निहायत ‘नैसर्गिक’ अभिव्यक्तियों (natural expressions) में से एक है। इंसानों की खासियत यह है कि हम केवल खेल-खेल में नहीं, बल्कि व्यंग्य, कटाक्ष और यहां तक कि गहरी दार्शनिक बातों पर भी हंस सकते हैं। यह दिखाता है कि हास्य मानव स्वभाव की बुनियादी विशेषता है। इतिहास में कई दार्शनिकों ने इंसान की अनोखी पहचान को परिभाषित करने की कोशिश की है – अरस्तू ने इसे तार्किकता का नाम दिया, विट्गेंस्टाइन ने इसे भाषा बताया, और सार्त्र ने स्वतंत्र निर्णय। लेकिन हास्य की सर्वव्यापकता और बच्चों द्वारा इसे इतनी जल्दी अपनाना यह संकेत देता है कि हास्य हमारी पहचान के लिए उतना ही ज़रूरी है जितनी तार्किकता या भाषा। कहना गलत न होगा कि हम हंसते हैं इसलिए हम इंसान हैं।

सीखने में हास्य का महत्व (importance of humor in learning)

हास्य सीखने को आसान और मज़ेदार बना देता है। शोध बताते हैं कि यदि बच्चों को पढ़ाते समय हंसी-मज़ाक (fun learning) का इस्तेमाल किया जाता है तो बच्चे जल्दी और बेहतर सीखते हैं। यहां तक कि खबरें भी मज़ेदार अंदाज़ में सुनाई जाएं तो लोग उन्हें ज़्यादा दिलचस्पी से सुनते हैं।

बच्चों द्वारा हास्य और कल्पना (creativity) को मिलाना भी सीखने का हिस्सा है। जैसे केले को फोन बनाना या अजीब से शब्द गढ़ना – ये केवल खेल नहीं बल्कि रचनात्मकता की शुरुआत हैं। हास्य बच्चों को सुरक्षित और मज़ेदार तरीके से नियम तोड़ने का मौका देता है, जिससे वे नई बातें सोच पाते हैं और आगे बढ़ते हैं। धीरे-धीरे यही खेल-खेल में किया गया हास्य उन्हें कहानी कहने, नकल करने और गहराई से सोचने की क्षमता तक ले जाता है।

हालांकि बच्चों में हास्य (child humor) बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इस पर उतना शोध नहीं हुआ है जितना अन्य मनोवैज्ञानिक विषयों (psychology research) पर हुआ है। इसका कारण यह है कि छोटे बच्चे अक्सर कहे जाने पर मज़ाक नहीं करते और शोधकर्ताओं के सामने शर्माते भी हैं। कभी-कभी उनका हास्य समझना भी मुश्किल होता है। फिर, कुछ विद्वान हास्य को हल्का-फुल्का विषय मानते हैं और शोध के लायक नहीं समझते।

लेकिन हाल के अध्ययनों (recent studies) ने इस सोच को बदला है। एलेना होइका जैसे मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों के हास्य के विकास (humor development) को बारीकी से ट्रैक किया और दिखाया कि यह उनके मानसिक विकास से जुड़ा है। यानी यह केवल हंसी-मज़ाक नहीं है, बल्कि बच्चों के विकास में गंभीर और अहम भूमिका निभाता है।

बहरहाल, हास्य का महत्व (importance of humor) सिर्फ बचपन के विकास या सामाजिक रिश्तों तक सीमित नहीं है। इसकी असली ताकत यह है कि यह हमें इंसान बनाता है। हास्य हमें दुनिया को अलग नज़रिए से देखने, नियमों पर सवाल उठाने, दूसरों से जुड़ने और समाज निर्माण (social development) की क्षमता देता है। यह हमारी बुद्धि, रचनात्मकता और खुश रहने की क्षमता को दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती की कार्बन भंडारण की क्षमता असीमित नहीं है

क हालिया अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी की कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) को सुरक्षित रूप से भूमिगत भंडारण (carbon storage) की करने क्षमता पूर्व अनुमानों से कहीं कम है और यह साल 2200 तक खत्म भी हो सकती है। इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के लिए कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी तकनीकों को लंबी अवधि का हल मानना मुश्किल है।

पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत धरती के तापमान को औद्योगिक-पूर्व स्तर से डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए वातावरण से काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड को हटाना (CO2 removal) होगा। इसका एक तरीका है उद्योगों से निकलने वाली गैस को कैद करके गहराई में चट्टानों के बीच संग्रहित करना। पहले माना गया था कि धरती 10 से 40 हज़ार गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड संभाल सकती है, लेकिन ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों का नया अध्ययन बताता है कि सुरक्षित क्षमता सिर्फ 1460 गीगाटन है।

इस अनुमान में भूकंप (earthquake risk) से होने वाले रिसाव, तकनीकी दिक्कतों और ज़मीन के उपयोग पर राजनीतिक पाबंदियों (land use restrictions) जैसे कारकों को भी शामिल किया गया है। अध्ययन में स्थिर तलछटी चट्टानों (sedimentary rocks) पर ही गौर किया गया है, जहां फिलहाल अधिकांश कार्बन भंडारण की योजनाएं बनाई जा रही हैं।

फिलहाल, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS technology) तकनीक हर साल लगभग 4.9 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड हटाती है। योजना है कि इसे बढ़ाकर 41.6 करोड़ टन सालाना किया जाए। लेकिन पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल करने के लिए 2050 तक प्रति वर्ष 8.7 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड हटाना होगा – यानी अगले 30 सालों में 175 गुना बढ़ोतरी (emission reduction target)।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर धरती की सारी सुरक्षित क्षमता भी उपयोग कर ली जाए, तो भी तापमान केवल 0.7 डिग्री सेल्सियस ही घटेगा। जबकि इस सदी में तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अंदेशा है। इसलिए सिर्फ कार्बन कैप्चर के भरोसे नहीं रहा जा सकता। ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gases) उत्सर्जन को तेज़ी से घटाना होगा, नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) को बढ़ाना होगा और टिकाऊ तरीकों को अपनाना होगा।

अध्ययन यह भी बताता है कि ज़मीन में दफन कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 leakage) का रिसाव ज़मीन के पानी में घुलकर कार्बोनिक एसिड बना सकता है। इस तरह बढ़ी हुई अम्लीयता से खनिज घुल सकते हैं और ज़हरीली धातुएं निकल सकती हैं, जो पर्यावरण (environmental risk) और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विकलांगजन समावेशी कानून

सुबोध जोशी

भारत में विकलांगजन (disabled persons) के लिए कानून (disability law) बनने के बाद उनके समावेश की बात होने लगी। समावेश का अर्थ यह सुनिश्चित करना है कि विकलांगजन भी गैर-विकलांगों की तरह रोज़मर्रा की गतिविधियों और जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से पूरी तरह भाग ले सकें। इसमें समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी की राह में आने वाली सभी बाधाएं दूर करते हुए उन्हें बाधामुक्त वातावरण (accessible environment) एवं सुगमता उपलब्ध कराना, भागीदारी के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि समाज, समुदाय या संगठन में पर्याप्त विकलांग-हितैषी दृष्टिकोण, नीतियां और प्रथाएं लागू हों। सफल समावेश उसे कहा जा सकता है जिसकी बदौलत जीवन की सामाजिक रूप से अपेक्षित भूमिकाओं और गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़े। यह समावेश संपूर्ण समाज का कार्य है।

वर्तमान में विकलांगजन के हित में की जाने वाली बातें और कार्रवाई मुख्य रूप से विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के संधि पत्र (UNCRPD) की रोशनी में की जाती है। यह मौजूदा मानव अधिकारों को विकलांग व्यक्तियों की जीवन स्थितियों से जोड़ने वाला सार्वभौमिक दस्तावेज है। इस संधि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले देशों की संख्या 200 से कुछ ही कम है जिनमें से भारत भी एक है। UNCRPD एक तरह से विकलांगजन के हित में कार्य करने के लिए दुनिया के अधिकांश देशों के लिए एक साझा मार्गदर्शिका (disability rights treaty) है। भारत सहित अधिकांश देशों में इसी के आधार पर विकलांगता सम्बंधी कानून, नीतियां और योजनाएं तैयार कर उन पर अमल करने की कोशिशें की जा रही हैं। इसके अनुसार, “विकलांग व्यक्तियों में वे लोग शामिल हैं जिन्हें ऐसी दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षतियां हुई हैं, जो विभिन्न बाधाओं के कारण समाज में दूसरों के साथ समानता से उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।” इस प्रकार विकलांगता उन क्षतियों और बाधाओं के मेलजोल से निर्मित होती है जिनका सामना प्रभावित व्यक्ति को करना होता है। बाधाओं का अर्थ सिर्फ भौतिक बाधाओं के रूप में लगाया जाना गलत है। इसमें दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं भी शामिल होती हैं जिनकी तरफ न के बराबर ध्यान दिया जाता है।

विकलांगजन के समावेश के लिए इन दोनों प्रकार की बाधाओं को हटाया जाना ज़रूरी है। जीवन का कोई भी क्षेत्र केवल भौतिक बाधाओं (physical barriers) के ही हटने पर सुगम्य नहीं हो सकता। इसके लिए दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाओं (attitudinal barriers) का हटना भी उतना ही ज़रूरी है। सच तो यह है कि सुगम्यता और समावेश की राह में आने वाली भौतिक बाधाओं का मूल कारण ही विकलांगजन के प्रति समाज के दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं हैं। दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं पूर्वाग्रह और विचार-पद्धतियां हैं जो विकलांग व्यक्तियों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती हैं। उन्हें ज़रूरतमंद और असमर्थ बताना गलत है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे समाज का एक अंग होते हैं। गहराई से देखने पर यह मालूम पड़ता है कि विकलांग व्यक्तियों को अपनी क्षति के कारण उतनी असुविधाओं और बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता जितना अपने प्रति समाज के दृष्टिकोण के कारण करना पड़ता है। उनके प्रति अन्य व्यक्तियों, समुदाय, समाज और संगठनों का यह उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण वास्तव में वह बाधा है जो भौतिक बाधाओं से कहीं ज़्यादा गंभीर होता है। जहां ऐसी स्थिति होती है वहां एक तरह से समाज ही उन्हें विकलांग बनाता है।

बाधामुक्त वातावरण में केवल चलने-फिरने सम्बंधी विकलांगता के कारण व्हीलचेयर (wheelchair users), बैसाखी वगैरह सहायक उपकरण इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों के लिए रैंप, चौड़े दरवाज़े और सुगम्य शौचालय की व्यवस्था करना ही शामिल नहीं है। इसमें दृष्टिबाधित (visually impaired), श्रवणबाधित (hearing impaired), बहु-विकलांग व्यक्तियों और यहां तक कि बौद्धिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए विकलांगता-विशिष्ट व्यवस्थाएं करना भी शामिल है। इनके अलावा और भी विकलांगताएं होती हैं; भारत में विकलांगजन के लिए बनाए गए पहले कानून में सात विकलांगताएं परिभाषित कर शामिल की गई थी जिनकी संख्या वर्तमान में लागू दूसरे कानून में इक्कीस कर दी गई है। बाधामुक्त वातावरण में विकलांगता-विशिष्ट व्यवस्थाएं करने की यह ज़रूरत सभी सेवाओं, अवसरों, सार्वजनिक स्थलों, यातायात, आयोजनों, सूचना सामग्री, शिक्षा प्रणाली, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाओं, देखभाल, मनोरंजन आदि सभी क्षेत्रों में लागू होती हैं ताकि विभिन्न विकलांगताओं वाले व्यक्ति जानकारी प्राप्त कर सकें और निर्बाध भागीदारी कर सकें। शिक्षा और प्रशिक्षण की कमी के चलते भारत में बड़ी संख्या में ऐसे विकलांग व्यक्ति हैं जो सूचनाओं, जानकारी और विभिन्न उपायों, जैसे ब्रेल लिपि, दृश्य संकेत, सांकेतिक भाषा वगैरह का लाभ नहीं ले पाते हैं। इसलिए उनकी सहायता के लिए जगह-जगह संवेदनशील एवं प्रशिक्षित व्यक्ति होने चाहिए। चलने-फिरने और हाथों का इस्तेमाल करने में असमर्थ व्यक्तियों के लिए भी इस तरह की व्यक्तिगत सहायता उपलब्ध होनी चाहिए।

यह एक सच्चाई है कि भारत में विकलांगता के सामाजिक पहलू (social aspect of disability) पर न के बराबर ध्यान दिया जाता है, और इसे विशुद्ध रूप से एक चिकित्सीय विषय (medical model) माना जाता है। शिक्षा की कमी, विकलांगता के बारे में सही जानकारी का अभाव और गलत धारणाओं की व्यापकता के कारण देश में दृष्टिकोण सम्बंधी बाधा एक बहुत बड़ी समस्या है। स्थिति इतनी खराब है कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी यह माना जाता है कि विकलांगता विकलांग व्यक्ति और उसके परिजनों के पूर्वजन्म के कर्मों का फल है जो उन्हें भोगना ही होगा। यह सोचकर समाज खुद को विकलांग व्यक्ति और उसके परिवार से दूर कर लेता है और यह मान लेता है कि प्रभावित व्यक्ति या परिवार के प्रति उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। नतीजतन विकलांग व्यक्ति की ज़िम्मेदारी पूरी तरह उसके परिवार पर छोड़ दी जाती है। उसे कोई सामाजिक सहायता या सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है। शिक्षा की कमी और गरीबी समस्या को और बढ़ा देती है।

देश में विकलांगजन के लिए कानून बहुत देर से आने का मुख्य कारण संवेदनशीलता (social sensitivity) की कमी ही है और यह कमी कानून के अमल (policy implementation) में भी साफ देखी जा सकती है। न तो देश में विकलांगजन-हितैषी वातावरण बन सका है, न ही उनकी  ज़रूरतों के मान से पर्याप्त नीति निर्माण और नियोजन हो रहा है और न ही कल्याणकारी योजनाएं लागू की जा रही हैं। संवेदनशीलता की कमी दूर करना पहली प्राथमिकता मानकर इसके लिए विशेष अभियानों के माध्यम से संपूर्ण समाज को विकलांगता की सामाजिक और मानवाधिकार-आधारित समझ के बारे में जागरूक किया जाना ज़रूरी है। विकलांगजन के समावेश पर राजनैतिक और शासन के स्तर पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत में यह विशेष रूप से ज़रूरी है क्योंकि बदकिस्मती से यहां सामाजिक बदलाव का कार्य भी राज्य को करना पड़ता है। इसके लिए समावेश का मुद्दा नीति निर्माण और नियोजन का एक अनिवार्य पहलू होना चाहिए क्योंकि शायद ही कोई विभाग ऐसा होता होगा जिसका समावेश से किसी न किसी तरह से सम्बंध न हो। नीतियों और योजनाओं के अमल में भी ईमानदारी होनी चाहिए। कार्यप्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि समावेश की पुष्टि भी की जा सके। समावेश कोई ऐसा कार्य नहीं है जो एक बार कर दिया जाने के बाद बंद कर दिया जाए, बल्कि यह हमेशा जारी रहने वाली एक सतत प्रक्रिया है। इसलिए इसकी सतत मॉनीटरिंग भी ज़रूरी है।

यहां एक और महत्वपूर्ण बात जोड़ना उचित होगा। समावेशिता (inclusivity) के दायरे में विकलांगजन के साथ बुज़ुर्गों (elderly people), किसी क्षति के कारण अस्थाई रूप से अशक्त व्यक्तियों और गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि इनकी ज़रूरतें विकलांगजन की ज़रूरतों के समान ही हो जाती हैं। इन ज़रूरतों में देखभाल की ज़रूरत भी शामिल है। इसी तरह विकलांग व्यक्ति के बुज़ुर्गावस्था में पहुंचने पर उसकी भी आयु-आधारित कठिनाइयां एवं ज़रूरतें शुरू हो जाती हैं और उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती हैं।

भारत एक ऐसा देश है जहां अब तक गैर-विकलांगों के लिए भी बुनियादी ढांचा (infrastructure) हर जगह तैयार नहीं हुआ है। उनके लिए भी अवसरों और भागीदारी की समानता (equal opportunities) सुनिश्चित नहीं हुई है। स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा के क्षेत्रों पर नज़र डालने से ही यह सच्चाई आसानी से समझी जा सकती है। आज भी अनेक इलाके ऐसे हैं जहां स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध न होने के साथ आवागमन की सुविधा का भी अभाव है जिसके कारण प्रसव और इलाज के लिए कष्टप्रद यात्रा कर दूर जाना पड़ता है। आए दिन गर्भवती महिला और गंभीर मरीज़ को गांव या बस्ती वालों द्वारा खटिया पर दूरस्थ अस्पताल ले जाए जाने की घटनाएं सुनने में आती है। ऐसे में विकलांगजन और बुज़ुर्गों की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। इसके अलावा बड़े-छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में बुनियादी ढांचे तथा सेवाओं एवं सुविधाओं में ज़मीन-आसमान का फर्क है।

ऐसी स्थिति में विकलांगजन और बुज़ुर्गों के समावेश की कितनी भी बात कर ली जाए वह बेमानी ही होगी। इतने बड़े देश में इक्का-दुक्का विकलांग-अनुकूल स्थल या सेवा (disabled-friendly services) उपलब्ध करा देना सिर्फ एक ‘नमूना’ कहा जा सकता है; उदाहरण के लिए दिल्ली मेट्रो रेल सेवा। किसी खास स्थल या खास योजना के तहत आने वाले शहर या फिर कुछ ही समय के लिए होने वाले किसी खास आयोजन को सुगम्य बनाना मन समझाने की कवायद मात्र है। सिर्फ हेरिटेज सिटी या स्मार्ट सिटी परियोजना के अधीन आने वाले खास शहरों को ही सुगम्य बनाने से क्या होगा? सिर्फ कुंभ जैसे खास आयोजन को ही सुगम्य बनाने से क्या होगा?

वास्तव में ज़रूरत इस बात की है कि समावेशिता (inclusive development) के लिए पूरे देश को एक इकाई मानकर काम किया जाए। निश्चित लक्ष्य और ज़िम्मेदारियों के साथ एक समयबद्ध योजना बनाकर लागू की जाए। पूरे देश में जागरूकता एवं संवेदनशीलता (awareness) पैदा की जाए। दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं और भौतिक बाधाएं एक साथ हटाने के लिए काम किया जाए। चूंकि बुनियादी ढांचे पर काफी काम किया जाना अब भी बाकी है इसलिए सख्ती से ऐसी नीति लागू की जानी चाहिए कि बनाया जाने वाला हर नया ढांचा शुरू से ही समावेशी हो। और पूर्ववर्ती ढांचों को समावेशी ढांचे में ज़रूर बदला जाना चाहिए। एक निश्चित समय बाद समाज में ऐसा वातावरण बन जाना चाहिए कि समावेश के लिए अलग से बात करने या प्रयास करने की ज़रूरत ही न पड़े।

अंत में, विकलांगजन के समावेश (social inclusion) के विषय में यह समझ लेना सबसे महत्वपूर्ण है कि समस्या विकलांगजन में नहीं बल्कि समाज (society) में निहित है। उनका समावेश समाज में होना है लेकिन समाज यह होने नहीं दे रहा है। इसलिए ध्यान समाज पर केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि विकलांगजन पर। समावेश के लिए ज़रूरत समाज में बदलाव लाकर उसे समावेशी बनाने की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माती दुनिया में ठंडक देते वस्त्र

वैश्विक तपन (global warming) अब कोई दूर का खतरा नहीं रह गया है। यह हमारी ज़िंदगी, काम और जीने के तरीकों को बदल रहा है। जैसे-जैसे गर्मियां और अधिक गर्म और प्रचंड हो रही हैं, गर्मी में सिर्फ सूती कपड़े पहनना ठंडक के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसे में ठंडक देने के नए उपाय खोजने की मांग बढ़ रही है – ऐसे उपाय (cooling solutions) जो बिना अधिक बिजली खर्च किए गर्मी से बचा सकें।

इसके लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि हमें ठंडक कैसे मिलती है। शरीर को ठंडक मुख्यत: चार प्रमुख तरीके से मिलती है:

विकिरण – जब गर्मी अदृश्य ऊर्जा (इन्फ्रारेड विकिरण – (infrared radiation)) के रूप में बाहर निकलती है।

संचरण – जब गर्मी छूने से स्थानांतरित होती है, जैसे गरम तवे को छूना।

संवहन – जब बहती हवा (air circulation) गर्मी को साथ ले जाती है, जैसे ठंडी हवा का झोंका।

वाष्पीकरण – जब पसीना वाष्पित (sweat evaporation) होकर शरीर से गर्मी बाहर ले जाता है।

और, आधुनिक विज्ञान अब ऐसे कपड़े और पहनने योग्य उपकरण (wearable devices) बना रहा है, जो इन चारों तरीकों को और ज़्यादा असरदार बना सकें।

ठंडक देने वाले स्मार्ट कपड़े

वैज्ञानिक ऐसे खास कपड़े (spectrum-selective textiles) (smart textiles) बना रहे हैं, जो सूरज की हानिकारक गर्मी को रोकें और शरीर की प्राकृतिक इन्फ्रारेड ऊर्जा को बाहर निकलने दें। इसके कुछ उदहारण हैं:

नैनोपोरस पॉलीएथिलीन कपड़ा – यह सूती कपड़े से लगभग 2 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा ठंडा रखता है, क्योंकि यह शरीर की गर्मी को बाहर जाने देता है और सूरज की रोशनी को रोकता है।

मेटाफैब्रिक – यह कपड़ा अलग-अलग तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को परावर्तित करता है और शरीर की गर्मी को ‘वायुमंडलीय झरोखे’ (यानी वे किरणें जो अंतरिक्ष में बिखर जाती हैं) (atmospheric window)  के ज़रिए बाहर निकलने देता है।

लेकिन ये कपड़े कभी-कभी शहर की इमारतों और सड़कों से निकलने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। इसके अलावा नमी और वायु प्रदूषण भी इनके काम में बाधा डालते हैं। इसलिए वैज्ञानिक अब विकिरण प्रक्रिया को संवहन और वाष्पीकरण के साथ मिलाकर ऐसे कपड़े बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो वास्तविक परिस्थितियों में भी काम करें।

संचरण और संवहन

संचरण (thermal conduction) एक कारण है जिससे कुछ कपड़े छूते ही ठंडे लगते हैं। यदि इनमें बोरोन नाइट्राइड जैसे उच्च ऊष्मा चालक कण मिलाए जाएं, तो ये कपड़े त्वचा की गर्मी को जल्दी बाहर खींच लेते हैं। दूसरी ओर, एयरोजेल फाइबर (जो ध्रुवीय भालू के फर से प्रेरित हैं) (aerogel fiber) इंसुलेटर का काम करते हैं और अत्यधिक गर्म माहौल में बाहर की गर्मी को रोकते हैं।

संवहन प्रकृति का अपना एयर कंडीशनर (natural cooling)  है। ढीले, हवादार कपड़े गर्म हवा को बाहर निकालते हैं और ठंडी हवा को अंदर लाते हैं। कुछ स्मार्ट कपड़े तो ऐसे भी हैं जिनमें नमी-संवेदनशील रेशे होते हैं, जो पसीना बढ़ने पर छोटे-छोटे छिद्र खोल देते हैं और पसीने को तेज़ी से सुखा देते हैं।

वाष्पीकरण की भूमिका

साधारण कपड़ों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे पसीना (sweat) सोख लेते हैं और गीले हो जाते हैं, जिससे ये भारी व असुविधाजनक लगते हैं। अब वैज्ञानिक ऐसे कपड़े बना रहे हैं जो हमारी त्वचा (skin-like fabric) की तरह काम करें – यानी पसीने की बूंदों को बाहर निकाल दें। इससे शरीर सूखा बना रहता है। कुछ कपड़े तो छोटे-छोटे विद्युत आवेश का इस्तेमाल करके पसीने को सक्रिय रूप से बाहर पंप कर देते हैं। इससे न सिर्फ पहनने में आराम मिलता है बल्कि कपड़े की कूलिंग क्षमता (cooling capacity) भी बढ़ जाती है क्योंकि भीगे कपड़े ज़्यादा गर्मी सोखते हैं।

पहनने योग्य शीतलक

हमेशा सिर्फ कपड़े ही अत्यधिक गर्मी से नहीं बचा सकते। यहां काम आते हैं पहनने योग्य शीतलक। पंखे से लैस जैकेट (cooling jacket) और लिक्विड-कूलिंग वेस्ट पहले से मौजूद हैं, लेकिन ये भारी, ज़्यादा बैटरी खाने वाले और रोज़मर्रा के इस्तेमाल के लिए असुविधाजनक हैं।

एक नया विकल्प है किरिगामी-आधारित उपकरण (जापानी पेपर-फोल्डिंग कला से प्रेरित) (Kirigami cooling device)। यह आकार और सतह बदलकर गर्मी को नियंत्रित करता है और लैब टेस्ट में शरीर की आरामदायक सीमा को लगभग 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देता है।

एक और समाधान है सौर ऊर्जा से चलने वाले कपड़े (solar-powered clothing), जो ऑर्गेनिक सोलर पैनल और इलेक्ट्रोकैलोरिक डिवाइस की मदद से ज़रूरत के हिसाब से शरीर को ठंडा या गर्म रखते हैं। लेकिन अभी इनमें कई चुनौतियां हैं – जैसे बैटरी का जीवन, लचीलापन और तार की फिटिंग।

कृत्रिम बुद्धि और शीतलन

एक हालिया प्रयास स्मार्ट और निजी कूलिंग सिस्टम्स (AI cooling system) है। इसमें ऐसे पहनने योग्य सेंसर (wearable sensors) होंगे जो शरीर का तापमान, पसीना, हार्ट रेट और तनाव के स्तर को मापेंगे। इसके आधार पर एआई खुद ही पहचान लेगा कि शरीर ज़्यादा गर्म हो रहा है और तुरंत कूलिंग सिस्टम चालू कर देगा।

जल्द ही स्मार्ट कपड़ों में ऐसी तकनीकें भी आ सकती हैं जो खुद शरीर से ऊर्जा पैदा करें। जैसे: थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (thermoelectric generator), जो शरीर की गर्मी से ऊर्जा बनाएंगे। पिज़ोइलेक्ट्रिक सिस्टम, जो शरीर की हलचल से बिजली बनाएंगे। मॉइस्चर-इलेक्ट्रिक डिवाइस, जो पसीने से बिजली पैदा करेंगे।

लेकिन सिर्फ तकनीक काफी नहीं है। कूलिंग कपड़े तभी सफल होंगे जब वे रोज़ाना पहनने योग्य हों; मज़बूत और धोने योग्य हों; पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) हों ताकि प्रदूषण न फैले।

पर्सनल कूलिंग (personal cooling) सिर्फ आराम का सवाल नहीं है। धूप में काम करने वाले मज़दूरों, किसानों, डिलीवरी कर्मचारियों और फायरफाइटर्स जैसे लोगों के लिए यह जीवन और मौत (life saving) का फर्क साबित हो सकता है। वहीं एथलीट्स (athletes) और साहसी यात्रियों के लिए भी ऐसे कपड़े मददगार होंगे, जो आपको गर्मी से बचाएं और ज़्यादा ऊर्जा भी न खाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियों का अनोखा भोजन संतुलन

जंगली मधुमक्खियां (wild bees) यूं ही किसी भी फूल पर नहीं जातीं। एक नए अध्ययन से पता चला है कि ये नन्हे परागणकर्ता (pollinators) अलग-अलग फूल चुनकर अपने भोजन में प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट का संतुलन बनाए रखते हैं। ठीक वैसे ही जैसे इंसान कभी भरपेट खाना पसंद करते हैं तो कभी हल्का-फुल्का; जैसे सलाद।

यह शोध आठ साल तक अमेरिका के कोलोराडो रॉकीज़ (Colorado Rockies) पहाड़ों में किया गया, जहां वैज्ञानिकों ने आठ तरह की मधुमक्खियों पर अध्ययन किया। इन मधुमक्खियों द्वारा इकट्ठा किए गए पराग का विश्लेषण कर उन्होंने एक ‘पोषण मानचित्र’ बनाया, जिससे पता चला कि मधुमक्खियां कैसे और क्यों अलग-अलग फूल चुनती हैं।

कुछ फूलों के पराग में सिर्फ 17 प्रतिशत प्रोटीन था, जबकि कुछ में 86 प्रतिशत तक प्रोटीन पाया गया। मौसम का असर भी साफ दिखा: वसंत के फूलों में प्रोटीन ज़्यादा था, जबकि गर्मी के अंत में मिलने वाले फूलों में वसा और कार्बोहाइड्रेट (carbohydrates) अधिक थे। यही मौसमी बदलाव तय करता है कि मधुमक्खियां किस समय कौन-सा भोजन चुनेंगी।

इस अध्ययन से यह भी पता चला कि मधुमक्खियों की अलग-अलग प्रजातियां (bee species) अपने शरीर के आकार (body size) और जीभ की लंबाई के आधार पर अलग-अलग भोजन रणनीति अपनाती हैं। बड़ी और लंबी जीभ वाली मधुमक्खियां ज़्यादा प्रोटीन वाले पराग चुनती हैं, जबकि छोटी मधुमक्खियां कार्बोहाइड्रेट और वसा वाला पराग पसंद करती हैं। इसके अलावा, अलग-अलग मधुमक्खियां अपनी कॉलोनी (bee colony) के विकास की अवस्था के हिसाब से भी भोजन बदलती हैं।

इस अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता जस्टिन बैन (Justin Baen) के अनुसार पराग (pollen nutrition) में यह विविधता वैसी ही है जैसी इंसानों के खाने में होती है। यानी मधुमक्खियों को भी इंसानों की तरह संतुलित आहार (balanced diet) चाहिए।

हालांकि यह अध्ययन पथरीले पर्वतीय स्थल (mountain ecosystem) पर हुआ है, लेकिन यह दुनिया भर में परागणकर्ताओं (pollinators worldwide) की पोषण ज़रूरतों को समझने के लिए उपयोगी है। सबसे अहम बात यह है कि मधुमक्खियों के लिए एक जैसा भोजन काम नहीं करता – उनके लिए फूलों की विविधता ज़रूरी है ताकि उनकी आबादी स्वस्थ बनी रहे।

बागवान (gardeners) और संरक्षणकर्ता (conservationists) इस जानकारी के आधार पर ऐसे बगीचे और प्राकृतवास बना सकते हैं जो साल भर मधुमक्खियों की बदलती पोषण ज़रूरतों को पूरा करें। आज परागण करने वाले कीट (pollinator insects) जलवायु परिवर्तन (climate change), प्राकृतवास के नष्ट होने और पोषण की कमी जैसी बड़ी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में यह अध्ययन बताता है कि विविधता बनाए रखना कितना ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दारु की लत हमें अपने वनमानुष पूर्वजों से मिली है!

जीब लगता है लेकिन शायद यह सच है। यह सही है कि 1 करोड़ साल पहले हमारे वानर पूर्वज (ape ancestors) दारु (alcohol) बनाना तो नहीं जानते थे लेकिन उन्होंने उसका स्वाद परोक्ष रूप से चख लिया था। बायोसाइन्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती लगती है।

जीव वैज्ञानिक रॉबर्ट डूडले द्वारा प्रस्तुत एक परिकल्पना रही है – शराबखोर बंदर (drunken monkey hypothesis), जिसके अनुसार कई लाख साल पहले हमारे वानर पूर्वज गिरे हुए फल खाते थे, जो कुछ हद तक किण्वित होकर मदिरा (fermented fruit) से भर गए होंगे। इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने इस प्रवृत्ति को एक अच्छा सा नाम भी दे दिया है – स्क्रम्पिंग (फलचोरी) (fruit foraging)।

वैसे तो किण्वित होते फलों (fermentation) को सूंघ लेना काफी आसान है। जब फलों, पेड़ों से रिसते रस या मकरंद पर खमीर पनपता है तो वह अल्कोहल (ethanol) पैदा करता है। कई जानवर और पक्षी इसका सेवन करके थोड़े धुत तो हो जाते हैं। और फिर मनुष्यों ने लगभग 8000 साल पहले फलों से और अनाज से शराब बनाना (wine making) सीख लिया था। तो हो सकता है कि हमारे वानर पूर्वजों ने प्राकृतिक रूप से बनती शराब को चखा हो। दरअसल, यदि वे ऐसे किण्वित होते फलों को खाने लगते तो उन्हें अन्य जंतुओं से प्रतिस्पर्धा में लाभ मिलता क्योंकि अन्य जंतु इन्हें नहीं खाते। और तो और, ऐसे फलों को उनकी हवा में फैलती गंध की मदद से दूर से ताड़ लेना भी आसान रहा होगा।

हमारे पूर्वजों ने यह क्षमता हासिल कर ली थी, इसका सर्वप्रथम प्रमाण 2015 में 18 प्रायमेट प्रजातियों के एक जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से मिला था। इस अध्ययन में पता चला था कि मनुष्य, चिम्पैंज़ी तथा गोरिल्ला में एक ऐसा उत्परिवर्तन पाया जाता है जो अल्कोहल पचाने वाले एंज़ाइम (alcohol metabolism enzyme) की कार्यक्षमता को 40 गुना बढ़ा देता है। और गणनाओं से अन्दाज़ लगा था कि यह उत्परिवर्तन करीब 1 करोड़ साल पहले हुआ था।

लेकिन इस बाबत आंकड़े उपलब्ध नहीं थे कि क्या हमारे वानर पूर्वज पर्याप्त मात्रा में किण्वित खाद्य पदार्थ (fermented food) का भक्षण करते थे। परोक्ष अनुमानों के आधार पर तो 40 प्रजातियों के भोजन में यह 3 प्रतिशत से भी कम था। शोधकर्ताओं का विचार था कि यह अनुमान वास्तविकता से थोड़ा कम है क्योंकि इसमें उन फलों को शामिल नहीं किया गया है जो किण्वन की प्रारंभिक अवस्था में खाए जाते हैं।

फिर शोधकर्ताओं को एक आइडिया सूझा। उन्होंने विचार किया कि यदि वे गिरे हुए फलों (fallen fruits) पर ध्यान केन्द्रित करें तो बेहतर अनुमान मिल सकता है। मैदानी रिपोर्ट्स में अक्सर यह ज़रूर बताया जाता है कि जानवर क्या खा रहे थे और खाते समय वे कितनी ऊंचाई पर थे। यानी उस समय वे पेड़ पर बैठे थे या ज़मीन पर। इसके आधार पर शोधकर्ताओं ने यह अनुमान लगाया कि कितनी बार ये वानर पूर्वज (यानी एप्स) ज़मीन से फल उठाकर खाते हैं।  इसे उन्होंने स्क्रम्पिंग की संज्ञा दी यानी गिरे हुए फल एकत्रित करना। इन गिरे हुए फलों को किण्वन की प्रारंभिक अवस्था में माना गया।

अब इस नई परिभाषा को लेकर डार्टमाउथ कॉलेज के मानव वैज्ञानिक नाथेनियल डोमिनी और उनके साथियों ने चार प्रायमेट प्रजाति आबादियों (ape populations) के पहले से उपलब्ध आंकड़ों को एक बार फिर से टटोला – बोर्नियो के ओरांगुटान, युगांडा के चिम्पैंज़ी और पहाड़ी गोरिल्ला तथा गैबन के गोरिल्ला।

देखा गया कि इन चारों प्रजातियों के भोजन में फलों की मात्रा लगभग एक बराबर (15 से 60 प्रतिशत के बीच) थी लेकिन गिरे हुए या पेड़ से तोड़े गए फलों की मात्रा में काफी विविधता थी। अफ्रीकी एप्स (African apes), गोरिल्ला व चिम्पैंज़ी ने जो फल खाए उनमें से गिरे हुए फल 25 से 62 प्रतिशत तक थे जबकि ओरांगुटान (orangutans) ने ऐसे फल कभी-कभार ही खाए थे। गौरतलब है कि ओरांगुटान हमारे दूर के रिश्तेदार हैं और उनमें अल्कोहल का कुशलतापूर्वक पाचन करने के लिए ज़रूरी जेनेटिक उत्परिवर्तन नहीं होता। लिहाज़ा, उपरोक्त जानकारी काफी महत्वपूर्ण है।

अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का कहना है कि चंद स्थलों के आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है। हो सकता है यह प्रवृत्ति चंद आबादियों तक सीमित हो। जैसे हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के मानव वैज्ञानिक रिचर्ड रैंगहैम बताते हैं कि उन्होंने दशकों से युगांडा के जिन चिम्पैंज़ियों (chimpanzees) का अध्ययन किया है उनमें गिरे हुए फल के प्रति हिकारत ही देखी है। बहरहाल, वे मानते हैं कि इस अध्ययन ने अल्कोहल सेवन (alcohol consumption) की ओर जो ध्यान आकर्षित किया है वह महत्वपूर्ण है। यह बताता है कि जब आज से करीब 10,000 साल पहले हमने इरादतन अल्कोहल बनाना शुरू किया तब हम इसका सेवन करने को लेकर जीव वैज्ञानिक रूप से तैयार थे। (स्रोत फीचर्स)

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डर से लड़कर आगे बढ़ना – मैंने भौतिकी को क्यों चुना?

सुमति राव

मैं स्कूल और कॉलेज में बहुत अच्छी छात्रा थी और हमेशा पहेलियों (puzzles)  में रुचि रखती थी, चाहे वे शाब्दिक हों या आंकिक। बचपन में मुझे जासूसी कहानियां बहुत पसंद थीं। मुझे गणित (mathematics)  और विज्ञान दोनों अच्छे लगते थे, क्योंकि ये दोनों ही निगमन तर्क (deductive logic) पर आधारित थे। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई (वडोदरा में), मैंने लोकप्रिय विज्ञान और वैज्ञानिकों पर किताबें पढ़नी शुरू कीं और वैज्ञानिक (scientist) बनना चाहती थी।

पिता ने हमें हमेशा ऊंचे लक्ष्य निर्धारित करने को प्रेरित किया। जब मैंने वैज्ञानिक बनने का फैसला किया, तो उन्होंने सोचा कि मैं मैरी क्यूरी (Marie Curie) बनूंगी। मेरी मां की सोच अधिक व्यावहारिक और सरल थी। उन्हें भी पढ़ाई का शौक था, इसलिए उन्हें मेरा वैज्ञानिक बनने का ख्याल बहुत अच्छा लगा, और उन्होंने इसे करियर से अधिक एक जुनून के रूप में देखा जिसे पारिवारिक जीवन के साथ निभाया जा सकता है।

मुझे सिर्फ विज्ञान से प्रेम नहीं था, बल्कि मेरी एक मज़बूत नारीवादी (feminist)  सोच थी और करियर की महत्वाकांक्षाएं थी। स्कूल छोड़ते समय मैंने सोचा कि क्या विज्ञान सही करियर विकल्प है या इंजीनियरिंग (engineering) करना बेहतर होगा (चिकित्सा से तो मुझे नफरत थी)। मुझे यह भी चिंता थी कि विज्ञान को एक ऐसे व्यक्ति के लिए कम प्रतिष्ठित माना जाएगा जो ‘टॉपर’ है और जिसे चिकित्सा और इंजीनियरिंग (आई.आई.टी. सहित) जैसे पेशेवर क्षेत्रों में दाखिला मिल रहा था। लेकिन, नेशनल साइंस टैलेंट स्कॉलरशिप (NSTS scholarship) मिली और मुझे अपने दिल की सुनने की प्रेरणा मिली, क्योंकि इससे मुझे उन छात्रों से अलग पहचान मिली जो भौतिकी केवल इसलिए पढ़ रहे थे क्योंकि वे पेशेवर क्षेत्रों में नहीं जा पाए थे।

NSTS ग्रीष्मकालीन शाला ने मुझे अन्य हमउम्र छात्रों से मिलने का मौका दिया, जो विज्ञान (science)  में रुचि रखते थे। यह मेरे स्कूल के समूह में संभव नहीं था (जो एक लड़कियों का स्कूल था)। यह मेरे लिए आंखें खोल देने वाला अनुभव था और मुझे उन छात्रों से मिलकर अच्छा लगा, जो भौतिकी (physics) के सवालों पर चर्चा करना चाहते थे। यह सुखद अनुभव बाद में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (IIT Bombay) में भी जारी रहा, जहां परीक्षा और टेस्ट के दबाव के बावजूद मुझे भौतिकी पढ़ना बहुत मज़ेदार लगता रहा।

स्टोनीब्रुक (Stony Brook University), जहां मैंने अपनी पीएचडी (PhD) की, वहां भी यही अनुभव रहा। हमें एक अद्भुत सहकर्मी समूह मिला, जहां हमने एक-दूसरे से भौतिकी सीखी, और जीवन के बारे में भी सीखा। मैंने अपनी पीएचडी उच्च ऊर्जा भौतिकी (high energy physics) में की थी, खासकर ग्रैंड यूनिफाइड थ्योरी (grand unified theory) के उपक्षेत्र में, जो उन दिनों बहुत रोमांचक लग रहा था। मेरा अपने पीएचडी मार्गदर्शक के साथ अच्छा सम्बंध था; वे युवा थे और महिला छात्रों के प्रति कोई भेदभाव नहीं करते थे। अलबत्ता, वे उस समय काफी चिंतित हो गए थे जब मैं पहले साल में ही एक लंबा ब्रेक लेकर भारत लौटी थी। उन्हें लगा कि मैं शादी कर लूंगी और पढ़ाई छोड़ दूंगी। लेकिन मेरे असली गुरु तो मेरे सहपाठी थे, हमने एक-दूसरे को प्रेरित किया, परखा और सिखाया।

ज़िंदगी में असली चुनौती तब आई जब उम्र बढ़ी और हमें नौकरी की तलाश (job search) में जुटना पड़ा। मैंने स्टोनीब्रुक के एक साथी छात्र से शादी की और हम दोनों ने पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप ले ली। मेरी पहली पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप (postdoctoral fellowship) मेरे पति के साथ थी, लेकिन उसके बाद साथ में नौकरी पाना मुश्किल हो गया। शादी के शुरुआती सालों में हम भौतिकी पर चर्चा करते थे, क्योंकि यह हमारी साझा रुचि थी और यही हमें एक साथ लाने का कारण भी था। लेकिन मुझे इस बात का ध्यान रखना पड़ा कि मैं स्वतंत्र रूप से काम करूं, ताकि मुझे स्वतंत्र रूप से आंका जाए।

हम दोनों भारत लौटना चाहते थे और विदेश में नौकरी की तलाश नहीं की। लेकिन उन दिनों (1980 के दशक के उत्तरार्ध) भारत में बहुत कम संस्थान थे और नौकरी के अवसर भी कम थे। उस समय कुछ पुराने और अलिखित, ‘चाचा-भतीजावाद विरोधी’ नियम थे, जो पति-पत्नी को एक ही जगह नौकरी करने से रोकते थे। मुझे भुवनेश्वर के इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स (Institute of Physics) में नौकरी मिली और मेरे पति को मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट में नौकरी मिली, यानी भारत के दो अलग-अलग हिस्सों में। हम दोनों करियर के प्रति समर्पित थे, इसलिए एक जगह साथ रहने और दो अलग-अलग स्थानों पर नौकरी करने के बीच चयन करना कठिन नहीं था। मैं यह भी कहूंगी कि मुझे अपने परिवार से भरपूर समर्थन मिला। मेरे ससुराल वालों ने इस फैसले के लिए मुझे कभी दोषी महसूस नहीं कराया।

हालांकि निर्णय तो लिया मगर जीवन आसान नहीं था। उस समय संचार बहुत कठिन था। हमारे पास फोन नहीं थे और सूचना प्रौद्योगिकी (information technology) का दौर, जैसे ईमेल और इंटरनेट, अभी दूर था। सस्ती हवाई यात्रा भी उपलब्ध नहीं थी। दोनों शहरों के बीच ट्रेन यात्रा में लगभग 40 घंटे लगते थे। पति से दूर रहने के अलावा, भुवनेश्वर जैसे छोटे शहर में अकेले रहना भी आसान नहीं था। अंतत: मुझे कैंपस के एक गेस्टहाउस में रहना पड़ा और पीएचडी के दस साल बाद भी एक पीएचडी छात्र की तरह जीवन गुज़ारना पड़ा।

यहां मुझे यह एहसास हुआ कि एक युवा महिला शिक्षक को छात्रों और लगभग उसी की उम्र के पोस्ट-डॉक्टरल फैलो द्वारा गंभीरता से लिया जाना कठिन होता है। ‘एकल महिला’ (अलग रह रही युवा विवाहित महिलाएं भी इस श्रेणी में आती हैं) (single woman) पर ध्यान आकर्षित होने के अलावा युवा महिला भौतिकविदों को लगातार परीक्षाओं से गुज़रना होता है। बहुत तेज़ आवाज़ न होना और आक्रामक व्यक्तित्व न होने को आत्मविश्वास की कमी समझा जाता है।

जब मुझे यह एहसास हुआ कि मेरी उपलब्धियों को कम करके आंका जा रहा है और मेरे काम और शोध पत्रों का श्रेय मेरे पति को दिया जा रहा है, तो मैंने अपना शोध क्षेत्र (research field) बदलने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया ताकि मेरे पति और मैं एक ही क्षेत्र में न रहें। इससे मेरी ज़िंदगी थोड़ी और कठिन हो गई, क्योंकि उच्च-ऊर्जा भौतिकी में ट्रेनिंग और विदेशों में संपर्क अब मेरे लिए उपयोगी नहीं रह गए थे और मुझे फिर से शुरुआत करनी पड़ी।

हालांकि, मुझे लगता है कि लंबे समय में यह निर्णय सही था। संघनित पदार्थ भौतिकी (कंडेंस्ट मैटर फिज़िक्स) (condensed matter physics) एक विस्तृत क्षेत्र है जिसमें बहुत सारे रोचक सवाल थे, और इससे मेरी पहले की ट्रेनिंग बेकार नहीं गई। इसके अलावा, इस विषय ने मुझे अच्छे पीएचडी छात्र (PhD students) दिए। उन्होंने निश्चित रूप से भौतिकी में मेरी रुचि बनाए रखने में काफी मदद की। आखिरकार, भारत लौटने के आठ साल बाद, और शादी के बारह साल बाद, 1995 में मेरे पति और मैंने इलाहाबाद के हरिशचंद्र अनुसंधान संस्थान (Harish-Chandra Research Institute) में नौकरी पाई। अब हम दोनों अच्छे से स्थापित हैं और सीनियर फैकल्टी हैं। वर्षों से, शोध और शिक्षा (जिसे मैं पसंद करती हूं) (education) के अलावा, मैंने भौतिकी में महिलाओं और दबे-छिपे पक्षपातों (gender bias) पर काम करना शुरू किया है, जो कई प्रतिभाशाली महिलाओं को नौकरी के अवसर से बाहर कर देते हैं।

यदि मैं आज अपने करियर की शुरुआत फिर से करूं, तो क्या मैं फिर से भौतिकी (physics career) चुनूंगी? यकीनन, हां। मुझे अब भी लगता है कि यह एक बहुत ही तार्किक विषय है और यह हमें हर चीज़ के बारे में सोचने की क्षमता सिखाता है। और अगर मैं सब कुछ फिर से शुरू करती, तो मैं क्या अलग करती? मैं अब खुद को उन तानों के प्रति कम संवेदनशील पाती, जो मुझे एक युवा महिला के रूप में दुख पहुंचाते थे। अब मैं न सिर्फ अपने पसंद के काम करने से, गलतियां करने से कम डरती बल्कि सामान्य तौर पर भी कम डरती! लेकिन शायद यह केवल एक वरिष्ठ महिला ही कह सकती है। इसके अलावा, मुझे लगता है कि मैं भारत में एक भौतिकीविद (physicist in India) के रूप में जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूं और इसे किसी अन्य पेशे से नहीं बदलूंगी! ऐसा कौन सा पेशा है जो हमें इतनी स्वतंत्रता देता है? ऐसा कौन-सा करियर है जहां हम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का हिस्सा महसूस करते हैं? ऐसा कौन सा करियर है जहां हम सेमिनार और सम्मेलनों के लिए कई देशों का दौरा कर सकते हैं और उन देशों के भौतिकविदों से परिचित हो सकते हैं? (स्रोत फीचर्स)

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हकलाने के जीन की तलाश

म तौर पर हकलाने (Stuttering) को एक व्यवहारगत दिक्कत (Behavioral Problem) माना जाता है और डांट-फटकारकर उसे दुरुस्त करने के प्रयास किए जाते हैं या उस व्यक्ति को शांत रहकर अपनी वाणि पर नियंत्रण करने की सलाह दी जाती है। हकलाने की समस्या दुनिया भर में लगभग 1 प्रतिशत लोगों को परेशान करती है। ये 7 करोड़ लोग विभिन्न भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न पूर्वज समुदायों के वंशज हैं। यह समस्या आम तौर पर शुरुआती बचपन में शुरू होती है और अधिकांश लोग जल्दी ही इससे उबर जाते हैं लेकिन कुछ लोग बड़प्पन में प्रभावित रहते हैं।

दशकों के अनुसंधान से पता चला है कि हकलाना एक अनैच्छिक दिक्कत है और यह विरासत (Genetic Disorder) में भी मिल सकती है। इसके कारणों पर से कुछ धुंध छंटी है। इसमें एक कंपनी 23andMe के पास उपलब्ध सूचना से मदद मिली है। यह कंपनी डीएनए (DNA Testing) सम्बंधी निजी मदद करती है। लगभग 11 लाख लोगों के डीएनए के 57 खंडों को पहचाना गया है जिनके बारे में अंदाज़ था कि उनका सम्बंध हकलाने से है।

नेचर जेनेटिक्स (Nature Genetics) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि इसमें जो जीन्स शामिल हैं उनका सम्बंध दिमाग (Brain Function) के कामकाज और लय-ताल के एहसास से है। अध्ययन से यह भी लगता है कि शायद हकलाने का सम्बंध ऑटिज़्म (Autism) और अवसाद जैसे स्थितियों से भी है। माना जा रहा है कि इस खोज से हमें हकलाने के जैविक कारकों और उसके उपचार (Treatment) के लिए दिशा मिलेगी।

2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं के पास न तो इतना बड़ा जेनेटिक डैटाबेस (Genetic Database) था और न ही उसके विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर थे कि वे आम आबादी में हकलाने का सम्बंध जीन्स से खोज सकें। लिहाज़ा वे पाकिस्तान और अफ्रीका के एकरूप समुदायों में जेनेटिक पैटर्न पर ध्यान देते थे। उन्होंने कुछ संभावित डीएनए खंड और कुछ उत्परिवर्तन खोजे भी थे। लेकिन उन छोटे-छोटे अध्ययनों को सामान्य आबादी पर लागू करना संभव नहीं था।

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 23andMe की मदद ली। उन्होंने दो समूहों के लोगों के जेनेटिक पैटर्न (Genetic Pattern) की तुलना की – 99,076 ऐसे लोग जिन्होंने कहा था कि वे हकलाते हैं और 9,81,944 ऐसे लोग थे जिन्होंने ‘ना’ कहा। इस तुलना के परिणामस्वरूप 57 ऐसे जेनेटिक खंड निकले जो थोड़ी हद तक हकलाने की संभावना बढ़ा सकते हैं। यानी हकलाना एक जटिल, बहुजीन आधारित समस्या है, अनिद्रा (Insomnia) और टाइप-2 मधुमेह के समान।

इस अध्ययन में कुछ जीन्स ऐसे भी पहचाने गए हैं जो शायद यह समझने में मदद करें कि हकलाने की समस्या की उत्पत्ति कहां से होती है। ऐसा सबसे सशक्त संकेत VRK2 जीन (VRK2 Gene) में मिला। इस जीन का सम्बंध शुरुआती तंत्रिका विकास से देखा गया है और इसके परिवर्तित रूप शिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia), मिर्गी, और मल्टीपल स्क्लेरोसिस से जुड़े पाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सम्बंध संगीत की ताल के साथ ताली देने में दिक्कत से देखा गया है।

यह शोध का विषय रहा है कि ताल (Rhythm) के साथ कदमताल न कर पाने का सम्बंध हकलाने से हो सकता है और यह अध्ययन इसे बल देता है।

अध्ययन में चिंहित 20 जीन्स एक और सुराग देते हैं। इनका सम्बंध पहले भी ऑटिज़्म, एकाग्रता के अभाव व अति-सक्रियता (ADHD) वगैरह से देखा गया है। यानी संभव है कि इन सबमें एक से विकास पथ शामिल हैं।

अध्ययन से एक बात तो साफ है। हकलाना कोई व्यवहारगत या भावनात्मक समस्या (Emotional Disorder) नहीं है और इसकी बुनियाद में तंत्रिका का कामकाज है। वैसे इस अध्ययन की कई सीमाएं हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा थी और एशियाई तथा अफ्रीकी लोगों का प्रतिनिधित्व भी कम था। शोधकर्ताओं का कहना है कि वे फिलहाल कोई ‘ऑन-ऑफ’ स्विच नहीं दे सकते। बहरहाल, यह अध्ययन हकलाने के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों (Social Stigma) और धारणाओं को दूर करने में ज़रूर मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या आंतों में छिपा है अवसाद का राज़?

वसाद (Depression) आज दुनिया की सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) समस्याओं में से एक है, जो व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और जीने के तरीके को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 28 करोड़ लोग यानी करीब 5 प्रतिशत वयस्क अवसाद से पीड़ित हैं।

गौरतलब है कि लंबे समय से अवसाद और चिंता (Anxiety) को दिमाग की रासायनिक प्रक्रिया, जीन या जीवन की परिस्थितियों से जोड़ा जाता रहा है। लेकिन अब शोध से यह पता चला है कि हमारी आंतों में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार – यानी बैक्टीरिया (Bacteria), फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीवों का विशाल संसार – हमारे मूड को नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।

शुरुआत में वैज्ञानिकों ने बस एक सह-सम्बंध देखा था: जिन लोगों को अवसाद या चिंता थी, उनके आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव स्वस्थ लोगों से अलग थे। फिर 2016 के दो अलग-अलग अध्ययनों में जब अवसाद से पीड़ित मनुष्यों की विष्ठा (Fecal Transplant) चूहों की आंत में डाली गई, तो चूहों में भी अवसाद जैसे लक्षण दिखने लगे। वे आनंद या खुशी का अनुभव करने में रुचि खो बैठे, उनमें चिंता जैसी हरकतें दिखीं और उनके मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाएं भी बदल गई।

इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि मानसिक बीमारियां (Mental Illness) सिर्फ जीन या किसी सदमे से नहीं होतीं, बल्कि सूक्ष्मजीवों के ज़रिए भी ‘स्थानांतरित’ हो सकती हैं। इससे एक नया सवाल उठा: अगर अस्वास्थ्यकर सूक्ष्मजीव बीमारी फैला सकते हैं, तो क्या स्वस्थ सूक्ष्मजीव हमें फिर से स्वस्थ बना सकते हैं?

जवाबों की ओर पहला कदम

इससे प्रेरित होकर, युनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी की मनोचिकित्सक वैलेरी टेलर ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू किए। उन्होंने बाइपोलर डिसऑर्डर (Bipolar Disorder) जैसी बीमारियों से शुरुआत की जिन्हें ठीक करना सबसे मुश्किल माना जाता है। उनका सोचना था कि अगर उस मामले में विष्ठा सूक्ष्मजीव प्रत्यारोपण (फीकल माइक्रोबायोटा ट्रांसप्लांट, FMT) कारगर साबित होता है, तो यह अन्य बीमारियों में भी मदद कर सकता है।

शुरुआती अध्ययनों में दिखा कि आंतों के सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव से मूड बेहतर हो सकता है। हालांकि FMT हर व्यक्ति पर एक जैसा असर नहीं करता, लेकिन कुछ मरीज़ों के लिए यह ज़िंदगी बदल देने वाला साबित हुआ। लेकिन एक समस्या है: FMT से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि कौन-से विशेष सूक्ष्मजीव इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। यह किसी खास बैक्टीरिया को नहीं बल्कि पूरे सूक्ष्मजीव संसार का पुनर्गठन करता है। शुरुआत के लिए तो ठीक है, लेकिन बहुत सटीक नहीं।

इसी कमी को दूर करने के लिए वैज्ञानिक अब साइकोबायोटिक्स (Psychobiotics) पर काम कर रहे हैं – यानी ऐसे फायदेमंद बैक्टीरिया (Probiotics – प्रोबायोटिक्स के रूप में) जो मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं। कुछ छोटे मानव परीक्षण बताते हैं कि इलाज के लिए अपने आप में इनकी क्षमता सीमित है, लेकिन साइकोबायोटिक्स अवसादरोधी दवाइयों का असर बढ़ा सकते हैं।

इस सम्बंध में वैज्ञानिकों का ध्यान आहार (Diet) पर भी रहा है। हमारा आहार हमारी आंत के सूक्ष्मजीव संसार को गहराई से प्रभावित करता है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक मशहूर अध्ययन में पाया गया था कि मेडिटेरेनियन डाइट (जिसमें फल, सब्ज़ियां, दालें, मछली और साबुत अनाज अधिक हों) (Mediterranean Diet) अपनाने से प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण काफी कम हुए। भोजन से शरीर को प्रोबायोटिक्स मिलते हैं। ये ऐसे तत्व हैं जिन पर अच्छे बैक्टीरिया पनपते हैं और इस तरह एक स्वस्थ सूक्ष्मजीव समुदाय विकसित होता है।

शुरुआती नतीजे उत्साहजनक हैं, लेकिन यह क्षेत्र अभी नया है और इसमें कई सवाल बाकी हैं। जैसे, मानसिक स्वास्थ्य के लिए कौन-से खास सूक्ष्मजीव सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं? फायदा सूक्ष्मजीवों की विविधता से होता है या कुछ खास सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति या अनुपस्थिति से? कितने समय तक सूक्ष्मजीव संसार में बदलाव बने रहने चाहिए ताकि लक्षणों में सुधार दिखे? प्रोबायोटिक्स का असर इसलिए है कि वे अवसादरोधियों (Antidepressants) की क्षमता बढ़ाते हैं या वे एक बिल्कुल अलग प्रक्रिया से काम करते हैं?

वैज्ञानिक भविष्य में मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी चिकित्सा (Treatment) की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें इलाज का तौर-तरीका मरीज़ की आंतों के सूक्ष्मजीवों के अनुसार तय किया जाएगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर नैदानिक परीक्षण; जीन, प्रोटीन, मेटाबोलाइट्स वगैरह का अध्ययन (‘मल्टीओमिक्स’); और मस्तिष्क इमेजिंग (Brain Imaging) को सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखने की ज़रूरत होगी। ये प्रयोग महंगे हैं, लेकिन अब लागत धीरे-धीरे कम हो रही है।

सबसे बड़ी रुकावट तो यह है कि कंपनियां इसमें भारी निवेश नहीं करना चाहतीं क्योंकि दवा कंपनियां दवाइयों पर तो पेटेंट ले सकती हैं, उन्हें आसानी से बेच सकती हैं और मुनाफा कमा सकती हैं। लेकिन प्रोबायोटिक्स या डाइट प्लान को इस तरह बेचना मुश्किल है।

अवसाद या मानसिक समस्याओं से पीड़ित लोगों के सूक्ष्मजीव संसार पर आधारित इलाज (Gut Microbiome Therapy) एक नया नज़रिया है। यह मानसिक बीमारियों को देखने की धारणाओं को भी बदल सकता है। अब मानसिक रोगों को सिर्फ दिमाग की गड़बड़ी नहीं, बल्कि शरीर, सूक्ष्मजीवों और मन के बीच जटिल संवाद का नतीजा माना जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जिराफ की एक नहीं, चार प्रजातियां हैं

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN, conservation) ने हाल ही में इस बात की पुष्टि की है कि जिराफ (giraffe)  की एक नहीं चार प्रजातियां हैं। यह रिपोर्ट जिराफ के संरक्षण (wildlife protection)  के लिहाज़ से महत्वपूर्ण मानी जा रही है।

दरअसल कुछ साल पहले तक समस्त जिराफ को बस एक ही प्रजाति, जिराफा कैमिलोपार्डेलिस (Giraffa camelopardalis), और उनकी नौ उप-प्रजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन 2016 में, नामीबिया स्थित जिराफ संरक्षण फाउंडेशन (Giraffe Conservation Foundation) के शोधकर्ताओं ने संपूर्ण अफ्रीका (Africa) के जिराफों का जेनेटिक अनुक्रमण (genetics) किया था। इसमें उन्हें विभिन्न जिराफ आबादियों के बीच बहुत अंतर मिला था।

विश्लेषण में उन्हें चार अलग-अलग प्रजातियां समझ आई थीं जिन्हें उन्होंने मसाई (Giraffa tippelskirchi), उत्तरी (Giraffa camelopardalis), जालीदार (Giraffa reticulata) और दक्षिणी जिराफ (Giraffa giraffa) के रूप में वर्गीकृत किया था।

IUCN की हालिया रिपोर्ट (IUCN Red List) ने इसी अध्ययन को आगे बढ़ाया है। हालिया अध्ययन में विशेषज्ञों ने जिराफ का जेनेटिक डैटा (DNA) तो देखा ही, साथ ही उन्होंने विभिन्न जिराफ आबादियों की अस्थि संरचना भी देखी और उनके भौगोलिक वितरण पर हुए अध्ययनों की समीक्षा भी की। उनके निष्कर्ष भी जिराफ की चार प्रजातियां होने की ओर इशारा करते हैं।

ये निष्कर्ष जिराफ संरक्षण (endangered species) के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं। दरअसल जिराफ की हर प्रजाति के सामने अलग-अलग खतरे होंगे। यदि हमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताएं पता होंगी तो उसी के अनुरूप हम संरक्षण रणनीतियां (conservation strategy) बना सकते हैं।

मसलन, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और दक्षिण सूडान (South Sudan, Central African Republic) के बीच चल रहे सशस्त्र संघर्ष के चलते उत्तरी जिराफों की संख्या में 1995 के बाद से 70 प्रतिशत की कमी आई है और आज महज 7037 रह गई है। वहीं, उम्दा संरक्षण कार्यक्रमों (conservation programs) की बदौलत दक्षिणी जिराफ की आबादी इसी अवधि में दुगनी होकर 68,837 पर पहुंच गई है।

यदि समस्त जिराफ को एक ही प्रजाति (species) के रूप में देखा जाए तो किसी एक स्थान के जिराफ की तादाद में कमी इतनी चिंताजनक नहीं लगेगी क्योंकि अन्य स्थान पर तो वे फलते-फूलते दिखेंगे। लेकिन अब जब हमें पता है कि उत्तरी और दक्षिणी जिराफ दो अलग-अलग प्रजातियां हैं तो उत्तरी जिराफ की संख्या में कमी चिंता (population decline) जगाती है, उनके संरक्षण के प्रयासों (protection efforts) को तेज़ करने की ज़रूरत को रेखांकित करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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