व्हेल दोगुना जी सकती हैं, बशर्ते मनुष्य जीने दें

ह तो जानी-मानी बात है कि व्हेल (whales)  दीर्घायु (long-living mammals) स्तनधारी हैं। कई प्रजातियां तो 100 वर्ष से अधिक भी जी सकती हैं। व्हेल की उम्र का अंदाज़ा लगाने के लिए वैज्ञानिक कई तरीके अपनाते हैं; जैसे उनके कान के मैल की परतें गिनना जो पेड़ के छल्लों की तरह साल दर साल जमा होती हैं, या आंखों के प्रोटीन में एक निश्चित दर से होने वाले रासायनिक परिवर्तन को नापना, या उनके त्वचा के नीचे की वसा में शिकारी भालों के निशान गिनकर।

इन तकनीकों से विश्लेषण के लिए अक्सर तुरंत मृत व्हेलों के नमूने (whale samples) चाहिए होते हैं, जो मिलना मुश्किल है। फिर, शिकारी गतिविधियों के चलते वृद्ध व्हेल भी मिलना मुश्किल है क्योंकि अब अधिकांश युवा व्हेल ही जीवित बची हैं। इसी कारण व्हेल की सटीक आयु बता पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन वैज्ञानिक भी इन मुश्किलों के सामने हाथ-पर-हाथ धरे बैठे नहीं रहते, वे हल खोजते रहते हैं। अब, उन्होंने व्हेल की उम्र की गणना का एक बेहतर तरीका खोजा है जो साइंस एडवांसेस पत्रिका (Science Advances journal) में प्रकाशित हुआ है।

युनिवर्सिटी ऑफ अलास्का फेयरबैंक के इकॉलॉजिस्ट ग्रेग ब्रीड और उनके साथियों ने मृत व्हेल के नमूनों की बजाय राइट व्हेल की दो प्रजातियों – उत्तरी अटलांटिक राइट व्हेल (Eubalaena glacialis) और दक्षिणी राइट व्हेल (Eubalaena australis) पर अध्ययन किया, जिनका अंधाधुंध शिकार किया गया है। उन्होंने इन दो व्हेल प्रजातियों की 1970 से अब तक की तस्वीरों को खंगाला और उनका बारीकी से अवलोकन किया। इसकी मदद से शोधकर्ता प्रत्येक व्हेल को पहचान सकते थे और यह बता सकते थे कि कौन सी व्हेल कब (संभवत: मृत्यु के कारण) आबादी से गायब हो गई। व्हेल के गायब होने के समय के आंकड़ों को उन्होंने विभिन्न सांख्यिकीय मॉडल्स (statistical models)  में डाला जो यह बता सकते थे कि कितने प्रतिशत आबादी किस-किस उम्र तक जीवित रहेगी।

सबसे उपयुक्त परिणाम उस मॉडल से मिले जो बीमा कंपनियां (insurance companies) मनुष्यों की मृत्यु दर का पूर्वानुमान लगाने और उसके अनुसार प्रीमियम दरें तय करने के लिए करती हैं। परिणाम के अनुसार दक्षिणी राइट व्हेल का औसत जीवनकाल लगभग 73 साल है, लेकिन 10 प्रतिशत 132 साल से भी अधिक आयु तक जीवित रह सकती हैं। जबकि, पूर्व अध्ययनों का कहना था कि इस व्हेल का जीवनकाल अधिकतम 70 से 80 साल है।

उत्तरी अटलांटिक राइट व्हेल के बारे में मॉडल का विश्लेषण है कि इनका औसत जीवनकाल करीब 22 वर्ष है लेकिन 10 प्रतिशत 47 वर्ष से अधिक आयु तक जी सकती हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि काफी सारी व्हेल कुदरती रूप से नहीं बल्कि जहाज़ों से टकराकर (ship strikes) और मत्स्याखेट उपकरणों (fishing gear entanglement) में उलझकर मरती हैं। साथ ही, पूर्व में हुए अंधाधुंध शिकार से ये उबर नहीं पाई हैं और विलुप्ति की कगार (endangered whales) पर हैं। इनके अधिक असुरक्षित होने का एक कारण यह भी है कि वे मानव आबादी वाले तटीय क्षेत्रों (coastal areas)  में रहती हैं।

हालांकि दीर्घायु के मामले में बोहेड व्हेल (Balaena mysticetus) अब भी आगे हैं – वे 200 साल से अधिक जीवित रहती हैं। वैज्ञानिकों का मानना था कि बोहेड व्हेल इतने लंबे समय तक इसलिए जीवित रहती हैं क्योंकि वे सुस्त होती हैं – वे धीरे-धीरे तैरती (slow swimmers) हैं, धीरे-धीरे परिपक्व होती हैं और उनका चयापचय धीमा होता है। लेकिन राइट व्हेल तुलनात्मक रूप से फुर्तीली होती हैं, इनकी चयापचय गति (metabolism rate)  अन्य स्तनधारियों की तरह ही होती है, इसलिए यहां एक सवाल उभरता है कि वे इतना लंबा कैसे जीवित रहती हैं?

बहरहाल, व्हेल की नैसर्गिक उम्र (natural lifespan of whales) चाहे जितनी लंबी रहे लेकिन जब तक उन पर शिकार (whale hunting) और मानव गतिविधियों (human activities) का खतरा मंडराता रहेगा उनका चिरंजीवी होना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बृहस्पति के चांद युरोपा की मोटी बर्फीली चादर जीवन की संभावना घटाती है

बृहस्पति के एक चांद युरोपा (Europa Moon) को जीवन के लिए संभावित स्थान माना जाता था। लेकिन अब संभावनाएं कम होती लग रही हैं। नासा (NASA) के जूनो अंतरिक्ष यान (Juno Spacecraft) से प्राप्त डैटा के अनुसार, युरोपा की बर्फीली परत पूर्व अनुमान से कहीं अधिक मोटी है। यह औसतन 35 किलोमीटर मोटी है (चार एवरेस्ट की ऊंचाई के बराबर)। यह खोज युरोपा पर जीवन की संभावना (Life on Europa) को कम करती है।

यह मापन जूनो के माइक्रोवेव रेडियोमीटर ((Microwave Radiometer – MWR) द्वारा संभव हो पाया है। उल्काओं की टक्करों (Meteor Impacts) के कारण बने गड्ढों के विश्लेषणों पर आधारित पूर्व अध्ययन ने 7 से 20 किलोमीटर मोटाई की परत का अनुमान दिया था, जिसमें ऊपरी 7 किलोमीटर की परत अचल और अंदरूनी 13 किलोमीटर मोटी परत गतिशील थी। लेकिन जूनो के डैटा से पता चलता है कि यह परत हर जगह मोटी और अचल है, हालांकि मोटाई विभिन्न जगहों पर थोड़ी उन्नीस-बीस हो सकती है।

यह खोज युरोपा के जीवन (Habitability of Europa) योग्य होने पर गहरा प्रभाव डालती है। पतली परत महासागर (Subsurface Ocean) को सतह के साथ रासायनिक संपर्क का मौका देती, जिससे जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life) की संभावना बन सकती है। इसके विपरीत, मोटी परत के चलते जटिल रासायनिक क्रियाओं की संभावना कम हो जाती है। इसका मतलब यह भी है कि युरोपा के चट्टानी आंतरिक हिस्से से कम गर्मी आ रही है। यानी हाइड्रोथर्मल वेंटिंग (Hydrothermal Venting) जैसी भूगर्भीय प्रक्रियाओं के लिए भी मौके कम हैं जो जीवन को सहारा दे सकें।

इनके अलावा, अन्य अध्ययन के नतीजे भी जीवनक्षम (Potential for Life) होने की संभावना को नकारते हैं – एक अध्ययन बताता है कि बृहस्पति से निकलने वाले विकिरण (Jovian Radiation) के कारण युरोपा का महासागर पूर्वानुमान से कम ऑक्सीजन बनाएगा। इसके अलावा, जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope – JWST)  द्वारा युरोपा की सतह से भाप के फव्वारों (Water Plumes) का पता लगाने के प्रयास असफल रहे जिससे हबल स्पेस टेलीस्कोप (Hubble Space Telescope) द्वारा पूर्व में की गई जेट सम्बंधित टिप्पणियों पर संदेह पैदा हो गया है।

अब, 2030 के दशक में पहुंचने वाला नासा का युरोपा क्लिपर मिशन (Europa Clipper Mission)  उन्नत रडार से लैस होगा, जो अधिक स्पष्टता प्रदान करेगा। क्लिपर का विकिरण 30 किलोमीटर की गहराई तक पहुंच सकता है, लेकिन अगर युरोपा की बर्फ जूनो द्वारा सुझाई गई माप जितनी है तो यह यंत्र भी परत का अध्ययन करने में मुश्किलों का सामना करेगा।

बर्फ की मोटी परत भविष्य के उन अभियानों के लिए भी तकनीकी चुनौतियां (Technical Challenges for Exploration) पेश करती है जो समुद्र की गहराई तक पहुंचने के लिए ड्रिलिंग (Ice Drilling on Europa) करना चाहते हैं। जैसे-जैसे शोधकर्ता अपने मॉडल को बेहतर करते हैं और अधिक डैटा इकट्ठा करते हैं, युरोपा हमारी कल्पना और महत्वाकांक्षा को ईंधन प्रदान करता है और सारी दिक्कतों के बावजूद हम पृथ्वी के बाहर जीवन (Extraterrestrial Life) की खोज में जुटे रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हार्मोन ग्रंथियां: शरीर के नन्हे नियामक अंग

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जब हम अपने परिजनों और दोस्तों की सेहत की चिंता करते हैं तो अक्सर चर्चा हमारे हार्मोन (hormones) पर चली जाती है, जिसमें सबसे ज़्यादा चर्चा इंसुलिन (insulin) और थायरॉइड हार्मोन (thyroid hormone) पर होती है। हार्मोन अधिकांश बहुकोशिकीय जीवों में पाए जाने वाले सिग्नलिंग (signaling molecules) अणु होते हैं। ये हमारे शरीर में एक-दूसरे से दूर-दूर मौजूद अंगों और ऊतकों के बीच संवाद की सुविधा मुहैया करवाते हैं। संकेत कई तरह की शारीरिक और व्यावहारिक कार्यविधियों को नियंत्रित करते हैं, जैसे वृदधि (growth) और परिपक्वता, नींद (sleep), पाचनक्रिया (digestion) और तनाव प्रतिक्रियाएं (stress responses) वगैरह।

स्कूली शिक्षा (school education) के दौरान हमें मानव शरीर में हार्मोन की भूमिका के बारे में समझाया जाता है। इसमें यह बताया जाता है कि हार्मोन स्रावित करने वाली अंतःस्रावी (endocrine glands) ग्रंथियों का आकार और आकृति कैसी होती है, और वे हमारे शरीर में कहां-कहां मौजूद होती हैं।

इन ग्रंथियों के विवरणों में गौर करने लायक बात यह होती है कि ये ग्रंथियां कितनी छोटी हैं। वयस्कों में प्रत्येक एड्रीनल ग्रंथि (adrenal gland), जो दोनों किडनियों (kidneys) के ऊपर पाई जाती हैं, का वज़न 5-10 ग्राम होता है। मस्तिष्क (brain) की मध्य रेखा में पाई जाने वाली पीनियल ग्रंथि (pineal gland) चावल के दाने के बराबर और उसी की आकृति जैसी होती है, और इसका वज़न 50-150 मिलीग्राम होता है। गर्दन (neck) में पाई जाने वाली थायरॉइड ग्रंथि आकार में तितली (butterfly-shaped) की तरह होती है और इसका वज़न लगभग 25 ग्राम होता है।

आकार बनाम कार्य

एक पहेली जो अब तक अनसुलझी थी, वह है कि अंतःस्रावी ग्रंथियों के आकार (size) में इतना अधिक अंतर कैसे या क्यों होता है। जहां थायरॉइड ग्रंथि का वज़न करीब दस-दस रुपए के तीन सिक्कों जितना होता है, वहीं पीनियल ग्रंथि का वज़न चावल के दाने जितना होता है। अब हाल ही में, इस्राइल (Israel) के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट (Weizmann Institute) के यूरी एलोन (Uri Alon) के समूह ने हमारे शरीर के कई हार्मोन के लिए इस पहेली का जवाब खोज लिया है; उनका यह अध्ययन आईसाइंस (iScience journal) पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

अपने अध्ययन में उन्होंने हार्मोन स्रावित करने वाली अंतःस्रावी ग्रंथियों में कोशिकाओं की संख्याओं की गणना की। मसलन, पैराथायरॉइड ग्रंथि (parathyroid gland) जिनमें से चार गर्दन में पाई जाती हैं। प्रत्येक पैराथायरॉइड ग्रंथि मसूर के दाने बराबर होती हैं, और प्रत्येक का वज़न 120 मिलीग्राम होता है। प्रत्येक में लगभग 1 करोड़ कोशिकाएं होती हैं जो पैराथायराइड हार्मोन (parathyroid hormone) स्रावित करती हैं। दूसरी ओर, एड्रीनल कॉर्टेक्स (adrenal cortex) बहुत बड़ा होता है, जिसका वज़न 5 ग्राम से अधिक होता है और इसमें 4.5 अरब कोशिकाएं होती हैं जो कॉर्टिसोल (cortisol) का स्राव करती हैं।

वे सभी कोशिकाएं जो किसी हार्मोन अणु का लक्ष्य होती हैं, उनकी सतह पर उस अणु के लिए एक रिसेप्टर (receptor) होता है। इन रिसेप्टर्स वाली कोशिकाओं को चिन्हित करके और सूक्ष्मदर्शी (microscope) की मदद से ऊतक के एक हिस्से में कोशिकाओं की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हार्मोन-स्रावी कोशिकाओं की संख्या उनके द्वारा बनाए जाने वाले हार्मोन की लक्षित कोशिकाओं की संख्या के अनुपात में होती है। प्रत्येक हार्मोन उत्पादक कोशिका के लिए लगभग 2000 लक्ष्य कोशिकाएं होती हैं।

एड्रीनल कॉर्टेक्स ग्रंथि अपेक्षाकृत बड़ी होती है, जैसी कि थायरॉइड ग्रंथि भी होती है। एड्रीनल कॉर्टेक्स द्वारा बनाया जाने वाला हार्मोन एड्रीनेलीन (adrenaline) शरीर की उन सभी कोशिकाओं से जुड़ता है जिनमें नाभिक (nucleus) होता है। दूसरी ओर, थायरॉइड हार्मोन पूरे शरीर में चयापचय संतुलन (metabolic balance) बनाए रखता है। पैराथायराइड हार्मोन एक छोटी ग्रंथि से स्रावित होता है, जिसका लक्ष्य गुर्दे (kidneys), अग्न्याशय (pancreas) और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) के कुछ हिस्से होते हैं।

कुछ हार्मोन उन अंगों द्वारा स्रावित होते हैं जो अन्य कार्य भी करते हैं। अग्न्याशय (pancreas, weight 80-100 grams) पाचन एंज़ाइमों (digestive enzymes) का स्राव करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। अलबत्ता, अग्न्याशय की केवल 1-2 प्रतिशत कोशिकाएं ही इंसुलिन बनाती हैं, जो लिवर (liver) और मांसपेशियों की कोशिकाओं को लक्षित करती हैं।

आहार (diet) और अन्य स्वास्थ्य उपायों (health tips) द्वारा हार्मोनल स्तरों में समायोजन हमारे स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं। जैसे, नियत अंतराल पर भोजन व उपवास (intermittent fasting) रक्त में प्रवाहित इंसुलिन की सांद्रता को कम करता है क्योंकि भोजन का सेवन न करने पर इंसुलिन स्राव की आवश्यकता कम हो जाती है। रेशों (fiber-rich diet) की अधिकता वाला आहार, नियमित व्यायाम (regular exercise), पर्याप्त नींद (adequate sleep) और कम तनाव (low stress) भी इंसुलिन के स्तर को नियंत्रित (कम) रखते हैं। इंसुलिन स्तर कम हो तो हमारे शरीर की कोशिकाएं रक्त से अधिक दक्षता से ग्लूकोज़ (glucose) ले पाती हैं। यह इंसुलिन प्रतिरोध (insulin resistance) को रोकने में मदद करता है। इन अंगों का मात्र सूक्ष्म आकार देखकर हमारे स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव को आंकना गलत होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आनंदीबाई जोशी: चुनौतियां और संघर्ष – संकलन : पूजा ठकर

आनंदीबाई जोशी
मार्च 1865 – फरवरी 1887

न्यूयॉर्क के पॉकीप्सी ग्रामीण कब्रिस्तान के ‘लॉट 216-ए’ में, अमरीकियों की कई कब्रों के बीच डॉ. आनंदीबाई जोशी की कब्र है। उनकी आयताकार कब्र पर लगा कुतबा (संग-ए-कब्र) बयां करता है कि आनंदी जोशी एक हिंदू ब्राह्मण लड़की थीं, जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और चिकित्सा (मेडिकल) की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने यह कैसे हासिल किया? उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ा? इन सवालों के आनंदी बाई के जो जवाब होते, उन्हें यहां मैं अपने अंदाज़ में देने का प्रयास कर रही हूं; ये जवाब मैंने आनंदीबाई के बारे में और उनके समय के बारे में पढ़कर जुटाई गई जानकारी के आधार पर लिखे हैं। – पूजा ठकर

मेरा जन्म 31 मार्च, 1865 को मुंबई के पास एक छोटे से कस्बे कल्याण में यमुना जोशी के रूप में हुआ था। मेरा परिवार कल्याण में ज़मींदार हुआ करता था, लेकिन तब तक उनकी जागीर समाप्त हो चुकी थी। 9 साल की उम्र में मेरी शादी हुई और मेरा नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

शादी के पहले मैं मराठी पढ़ लेती थी; उस समय लड़कियों का पढ़ाई करना आम बात नहीं थी। लेकिन मेरे पति गोपालराव विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा (women education in India)  के प्रबल समर्थक थे। वास्तव में, उन्होंने इसी शर्त पर मुझसे विवाह किया था कि उन्हें मुझे पढ़ाने की इजाज़त होगी। हमारी शादी के बाद उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। यह बहुत मुश्किल था; उन दिनों, दूसरों के सामने कोई पति अपनी पत्नी से सीधे बात नहीं कर सकता था। शुरुआत में, मेरे पति ने मुझे मिशनरी स्कूलों (missionary schools in India) में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनाी। हमें कल्याण से अलीबाग, अलीबाग से कोल्हापुर और फिर कोल्हापुर से कलकत्ता जाना पड़ा। लेकिन एक बार जब मैंने सीखना-पढ़ना शुरू कर दिया तो मैं जल्द ही संस्कृत पढ़ने लगी और अंग्रेज़ी (English education for women)  पढ़ने और बोलने लगी।

अपने पति से सीखना कोई आसान बात नहीं थी। वे मुझे संटियों से मारते थे; गुस्से में मुझ पर कुर्सियां और किताबें फेंकते थे। मुझे याद है कि जब मैं 12 साल की थी, तब उन्होंने मुझे छोड़ने की धमकी दी थी। सालों बाद, जब मैंने उन्हें अमेरिका से पत्र लिखा तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या यह सही था? मैं हमेशा सोचती हूं कि क्या मेरे प्रति उनका यह व्यवहार ठीक था? मान लो, यदि मैंने उन्हें तब छोड़ दिया होता तो क्या होता? मैंने पत्र में उन्हें समझाया था कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। लेकिन उसी पल मुझे यह ख्याल भी कचोटता कि कैसे एक हिंदू महिला (Hindu women in 19th century) के पास अपने पति को उसकी मनमानी करने देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है।

मेरी द्रुत प्रगति के चलते मेरे पति की यह ज़िद थी कि मुझे उच्च शिक्षा (higher education for women in India)  प्राप्त करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में अधिकतर महिलाओं के लिए कोई महिला डॉक्टर (female doctor in India) नहीं है, और जो महिलाएं पुरुष डॉक्टर के पास जाने में शर्माती हैं या पुरुष डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती हैं, उन्हें इसके नतीजे में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। मैंने खुद 14 साल की उम्र में अपने नवजात बेटे को खो दिया था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं डॉक्टर बनूंगी। यहां तक कि बाद में मैंने अपनी थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था “आर्य हिंदुओं में प्रसूति विज्ञान”।

मेरे पति ने मुझे अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय (university in USA for Indian women) में दाखिला दिलाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने इसके लिए मिशनरी बनने का दिखावा भी किया, लेकिन इससे सिर्फ उपहास ही हुआ। संयोग से, न्यू जर्सी के रोसेल की श्रीमती कारपेंटर को यह कहानी पता चली और मिशनरी रिव्यू में पत्राचार से द्रवित होकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा। उन्होंने मुझे होस्ट करने का प्रस्ताव दिया और जल्द ही श्रीमती कारपेंटर और मैं एक-दूसरे को बहुत पत्र लिखने लगे। वे मुझे बहुत अपनी लगने लगीं थीं और मैं उन्हें ‘मवशी’ (मौसी) कहकर बुलाने लगी थी। इन पत्रों में, हमने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की; मैं उन मामलों/मुद्दों पर अपनी चिंताएं उन्हें लिख सकती थी, जिनको मुझे नहीं लगता कि मैं सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती थी। हमने बाल विवाह और महिलाओं के स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव की चर्चा की। मुझे याद है, एक पत्र मैं मैंने उन्हें लिखा था कि सती प्रथा की तरह बाल विवाह पर प्रतिबंध का भी कानून होना चाहिए। इसी तरह हमने समाज में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की।

चूंकि गोपालराव को वहां नौकरी नहीं मिली, इसलिए हमने तय किया कि मुझे अकेले ही अमेरिका चले जाना चाहिए। हमें बहुत विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा, यहां तक कि लोगों ने हम पर पत्थर और गोबर फेंके। आखिरकार, कई आज़माइशों और क्लेशों के बाद, जून 1883 में मैं अमेरिकी मिशनरी महिलाओं के साथ अमेरिका पहुंच गई, और मेरी मुलाकात कारपेंटर मौसी से हुई।

अमेरिका में ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे अजीब लगती थीं और कई ऐसी चीजें थीं जो कारपेंटर परिवार को मेरे बारे में अजीब लगती थीं। लेकिन कारपेंटर मौसी ने मेरा ऐसे ख्याल रखा जैसे मैं उनकी बेटी हूं। जब वे मुझे फिलाडेल्फिया (Philadelphia for medical studies) के महिला कॉलेज में छोड़ कर आ रही थीं तो वे एक बच्चे की तरह रोईं।

कॉलेज के अधीक्षक और सचिव बहुत दयालु थे और वे इस बात से प्रभावित थे कि मैं इतनी दूर से पढ़ने आई हूं। उन्होंने मुझे वहां तीन साल के लिए 600 डॉलर की छात्रवृत्ति भी दी।

अमेरिका में मेरे सामने पहली समस्या जाड़ों के लिबास की थी। पारंपरिक महाराष्ट्रीयन नौ गज़ की साड़ी जो मैं पहनती थी, उससे मेरी कमर और पिंडलियां खुली रहती थीं। पश्चिमी पोशाक, जो ठंड से निपटने का उम्दा तरीका था, पहनने में मैं पूरी तरह से सहज नहीं थी। उसी समय, मुझे भगवद गीता का पढ़ा हुआ एक श्लोक याद आया, जिसमें कहा गया था कि शरीर मात्र आत्मा को ढंकता है, आत्मा को अपवित्र नहीं किया जा सकता। तब मुझे अहसास हुआ कि यह बात सही है कि मेरे पश्चिमी पोशाक पहनने से मेरी आत्मा कैसे भ्रष्ट या अपवित्र या नष्ट हो सकती है। कई सवाल-जवाब से जूझते हुए और बहुत सोच-विचार के बाद मैंने गुजराती महिलाओं की तरह साड़ी पहनना तय किया; इस तरीके से साड़ी पहनकर मैं अपनी अपनी कमर और पिंडलियों को ढंके रख सकती थी और अंदर पेटीकोट भी पहन सकती थी। मैंने तय किया कि इस बारे में अभी गोपालराव को नहीं बताऊंगी।

कॉलेज में मुझे जो कमरा दिया गया था उसमें फायरप्लेस (अलाव) की ठीक व्यवस्था नहीं थी। अलाव जलाने पर कमरे में बहुत अधिक धुआं भर जाता था। तो मेरे पास दो ही विकल्प थे, या तो धुआं बर्दाश्त करो या ठंड! वहां रहने से मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमेरिका में लगभग दो साल रहने के बाद, मुझे अचानक बेहोशी और तेज़ बुखार के दौरे पड़ने लगे। खांसी ने मुझे लगातार जकड़े रखा। तीसरे साल के अंत तक, मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी। खैर, जैसे-तैसे मैं आखिरी परीक्षा में पास हो गई थी।

दीक्षांत समारोह, जिसमें मेरे पति और पंडिता रमाबाई मौजूद थे, में यह घोषणा की गई कि मैं भारत की पहली महिला डॉक्टर हूं और इसके लिए सबने खड़े होकर तालियां बजाईं! वह लम्हा मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल लम्हों में से एक था। मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन खराब होता गया। मेरे पति ने मुझे फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भर्ती कराया और मुझे टीबी होने का पता चला। लेकिन टीबी तब तक मेरे फेफड़ों तक नहीं पहुंची थी। डॉक्टरों ने मुझे भारत वापस जाने की सलाह दी। मैंने भारत लौटकर कोल्हापुर में लेडी डॉक्टर के पद का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

घर वापसी की यात्रा ने आनंदीबाई (Anandi Gopal Joshi) के स्वास्थ्य पर और अधिक प्रभाव डाला क्योंकि जहाज़ पर मौजूद डॉक्टरों ने एक अश्वेत महिला का इलाज करने से इन्कार कर दिया था। भारत पहुंचने पर वे एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक वैद्य से इलाज कराने के लिए पुणे में अपने कज़िन के घर रुकीं, लेकिन उन वैद्य ने भी उनका इलाज करने से इन्कार कर दिया क्योंकि उनके अनुसार आनंनदीबाई ने समाज की मर्यादा लांघी थीं। अंतत: बीमारी के कारण 26 फरवरी, 1887 को 22 वर्ष की आयु में आनंदीबाई की मृत्यु हो गई। पूरे भारत में उनके लिए शोक मनाया गया। उनकी अस्थियां श्रीमती कारपेंटर को भेज दी गईं। उन्होंने अस्थियों को पॉकीप्सी में अपने पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया।

यह गज़ब की बात है कि महज़ 15 वर्षीय आनंदीबाई अपने समय के समाज को कितना समझ पाई थीं। श्रीमती कारपेंटर को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने उन मुद्दों पर अपनी राय बना ली थी जिन्हें आज नारीवादी माना जाता। ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री पुरुष तुलना’, पंडिता रमाबाई की ‘स्त्री धर्म नीति’ और रख्माबाई के ‘दी हिंदू लेडी’ नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए पत्र जैसे नारीवादी लेखन भी इसी दौर के हैं। यह कमाल की बात है कि आनंदीबाई महज़ 15 साल की थीं जब उन्होंने इसी तरह के नारीवादी विचार व्यक्त किए थे।

हालाकि, आनंदीबाई के प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आज भी, वे सभी क्षेत्रों में भारतीय लड़कियों को प्रेरित करती हैं और यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, सपनों को साकार करना नामुमकिन नहीं हैं और हममें से हर किसी में सपने साकार करने की, चाहतों को पूरा करने की क्षमता होती है। महाराष्ट्र सरकार ने महिला स्वास्थ्य (women’s health)पर काम करने वाली युवा महिलाओं के लिए उनके नाम पर एक फेलोशिप शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान समाचार संकलन

कोविड-19 की उत्पत्ति

कोविड-19 वायरस और प्रयोगशाला लीक थ्योरी (Lab Leak Theory) कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) की जांच कर रही एक अमेरिकी संसदीय समिति (US congressional committee) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि वायरस संभवत: चीन (China lab leak) की एक प्रयोगशाला (laboratory) से लीक हुआ था। हालांकि, रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत (concrete evidence) नहीं हैं, केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण (circumstantial evidence) दिए गए हैं।  520 पन्नों की इस रिपोर्ट में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में किए गए गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च (gain-of-function research) पर ध्यान दिया गया है।  एक नए खुलासे में, रिपोर्ट ने ईमेल का उल्लेख किया है, जो वायरस की उत्पत्ति (origin of the virus) से जुड़े अपराधों (potential crimes) पर एक ग्रैंड जूरी जांच (grand jury investigation) की ज़रूरत बताते हैं। इसके विपरीत, वैज्ञानिकों (scientists) और समिति के असहमत सदस्यों (dissenting members) ने प्रयोगशाला से लीक होने के सिद्धांत (lab leak hypothesis) को लेकर रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती (challenged conclusions) दी है। (स्रोत फीचर्स) 

महामारी का शैक्षणिक प्रदर्शन पर असर

ट्रेंड्स इन इंटरनेशनल मैथेमेटिक्स एंड साइंस स्टडी (Trends in International Mathematics and Science Study – TIMSS) की ताज़ा रिपोर्ट (latest report) बताती है कि 2019 के मुकाबले 2023 में 8वीं कक्षा (Grade 8) के गणित (Mathematics scores) के प्राप्तांक 39 प्रतिशत देशों में और विज्ञान (Science scores) के प्राप्तांक 42 प्रतिशत देशों में घटे हैं। वहीं, चौथी कक्षा (Grade 4) के विद्यार्थियों के अंक कुछ बेहतर (improved scores) रहे, जबकि अधिकांश देशों (most countries) में अंक स्थिर (stable scores) रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) में दोनों कक्षाओं के अंक 1995 में पहले टेस्ट (first test in 1995) के बाद से सबसे निचले स्तर (lowest level) पर पहुंचे हैं। वहीं, सिंगापुर (Singapore), ताइवान (Taiwan), और दक्षिण कोरिया (South Korea) वैश्विक रैंकिंग (global rankings) में शीर्ष पर (top positions) बने हुए हैं।  (स्रोत फीचर्स)

नारंगी बिल्लियां का रहस्य खुला

वैज्ञानिकों ने नारंगी रंग (orange color) की बिल्लियों (cats) के फर (fur) के पीछे की आनुवंशिक गुत्थी (genetic mystery) को सुलझा लिया है, जो 60 सालों से एक रहस्य (decades-old mystery) बनी हुई थी। दो शोध टीमों ने स्वतंत्र रूप से पाया कि एक्स गुणसूत्र (X chromosome) पर एक उत्परिवर्तन (mutation) रंजक बनाने वाली कोशिकाओं (pigment-producing cells) में Arhgap36 प्रोटीन (protein) के उत्पादन को बढ़ा देता है। यह प्रोटीन एक ऐसा मार्ग सक्रिय करता है, जो हल्के लाल रंग का रंजक (light red pigment) बनाता है, जिससे बिल्लियों का नारंगी रंग का फर (orange fur) बनता है। यह खोज (discovery) जीवों में आनुवंशिकी (genetics) और फर के रंग (fur color) को समझने में एक नई दिशा (new insights) है। (स्रोत फीचर्स)

अल्ज़ाइमर की दवा परीक्षण में असफल

अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer’s disease) के लिए बनाई गई प्रयोगात्मक दवा सिम्यूफिलम (Simufilam experimental drug) ने अंतिम चरण के क्लीनिकल परीक्षण (clinical trial) में कोई सकारात्मक असर नहीं दिखाए। प्लेसिबो (placebo) लेने वाले रोगियों से तुलना में, एक साल तक सिम्यूफिलम लेने वाले रोगियों में न तो संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive ability) में सुधार दिखा, और न ही रोज़मर्रा के कार्यों (daily tasks) में कोई बेहतरी दिखी। दवा बनाने वाली कंपनी कसावा साइंस (Cassava Sciences) पर शोध में धोखाधड़ी (fraud in research) और वित्तीय कदाचार (financial misconduct) के आरोप तक लगे हैं। परीक्षण (trial) में असफलता के बाद इस दवा के विकास (drug development) को रोक दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने खेती लाखों साल पहले शुरू की थी

खेती-किसानी (farming and agriculture) की बात निकलते ही हम सबको गांवों मे हल-बैल लेकर फसल उगाते किसान (farmers with plough and oxen) नज़र आते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि नन्हीं चींटियों (ants farming fungus) ने खेती करना करीब पौने तीन करोड़ साल पहले शुरू कर दिया था।

आजकल सैकड़ों चींटी प्रजातियां फफूंद की खेती (fungus farming by ants) करती हैं। ये चींटियां पौधों की पत्तियां कुतरती हैं और उन्हें अपनी बांबी (ant colony) में ले जाती हैं और ताज़ी हरी पत्तियां फफूंदों को खिलाती हैं। जहां इन फफूंदों को रखा जाता है, उन प्रकोष्ठों के वातावरण को भलीभांति नियंत्रित रखा जाता है। चींटियां फिर इन फफूंदों का भक्षण करती हैं।

चींटियों के उद्विकास (evolution of ants) के अध्ययन से संकेत मिलता है कि चींटी-फफूंद का यह सम्बंध करोड़ों वर्ष पुराना (millions of years old ant-fungus relationship) है। अब साइन्स में प्रकाशित (Science journal) एक अध्ययन में फफूंद के साथ चींटियों के इस सम्बंध की शुरुआत का समय अधिक सटीकता से निर्धारित किया गया है। यह अनुकूलन लगभग 6.6 करोड़ वर्ष पहले हुआ था जब एक उल्का की टक्कर (asteroid impact) ने पृथ्वी से डायनासौर (dinosaurs extinction) समेत कई प्राणियों का सफाया कर दिया था।

चींटियों के फफूंद बागानों (fungus gardens)  का सर्वप्रथम विवरण डेढ़ सौ साल पहले दिया गया था। तब से वैज्ञानिकों ने 247 ऐसी चींटी प्रजातियां खोजी हैं जो फफूंदों को पालती हैं और भोजन के लिए उन पर निर्भर हैं। शोधकर्ताओं का मत रहा है कि ऐसी सारी किसान चींटियां एक साझा पूर्वज से विकसित हुई हैं और धीरे-धीरे प्रत्येक प्रजाति ने अलग-अलग फफूंद को पालतू बना लिया और इस तरह वे अलग-अलग प्रजातियां बन गईं।

लेकिन इस फफूंद-चींटी कृषि सम्बंध (ant-fungus symbiotic relationship) में शामिल फफूंदों का वंशवृक्ष तैयार करना एक चुनौती रही है। इस वजह से यह कहना मुश्किल रहा था कि यह सम्बंध कब शुरू हुआ था। अब फफूंद जीनोम (fungal genome) के विश्लेषण की नई तकनीकें विकसित होने के बाद 475 फफूंद प्रजातियों के जीनोम का निर्धारण संभव हो पाया है। इनमें से लगभग सभी की खेती चींटियों द्वारा की जाती है। स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन के टेड शूल्ज़ और उनके साथियों ने इस जानकारी को 276 चींटी प्रजातियों के जीनोम आंकड़ों के साथ रखकर देखा। इन वंशवृक्षों को जब चींटी व फफूंद के जीवाश्म रिकॉर्ड के साथ रखकर अध्ययन किया तो वे प्रत्येक जोड़ी के आरंभ की तारीख का अंदाज़ लगा पाए।

इस विश्लेषण के आधार पर शूल्ज़ का निष्कर्ष है कि किसानी में शामिल चींटी और फफूंद दोनों का उद्भव करीब 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व (66 million years ago ant-fungus adaptation) हुआ था। उस समय उल्का की टक्कर (asteroid impact aftermath) के कारण मलबे का ऐसा गुबार फैला कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया कई महीनों के लिए ठप हो गई। वनस्पतियों और उन पर निर्भर जीवों का सफाया हो गया। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया वनस्पतियों के लिए तो ज़रूरी है ही, समस्त जंतु भी भोजन के लिए इसी के भरोसे हैं।

लेकिन फफूंदों की तो बन आई। फफूंद आम तौर पर वनस्पति अवशेषों का विघटन करके काम चलाती हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि इस समय जो चींटियां फफूंदों के साथ ढीला-ढाला सम्बंध बना चुकी थीं, उन्होंने इसे और मज़बूत कर लिया। यही आगे चलकर फफूंदों के पालतूकरण (domestication of fungi by ants) के रूप में सामने आया, जिसमें फफूंद पूरी तरह चींटियों की परवरिश के भरोसे हो गईं। पहले कुछ लाख वर्षों तक तो चींटियां जंगली फफूंदों को पालती रहीं। फिर लगभग 2.7 करोड़ वर्ष पूर्व कुछ चींटियों ने फफूंद की किस्मों को पूरी तरह पालतू बना लिया जो आज अपने जंगली सम्बंधियों से पूरी तरह कट चुकी हैं।

यहां एक दिलचस्प बात बताई जा सकती है कि चींटियां सिर्फ खेती (ant agriculture) नहीं करती, बल्कि मनुष्यों के समान पशुपालन (ant animal husbandry) भी करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हाथ से लिखने से याददाश्त में मदद मिलती है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

क समय था जब हम अधेड़ लोग खत व अन्य पत्राचार कागज़-कलम का उपयोग करके लिखते थे और डाक से भेजा करते थे। आजकल तो ग्रीटिंग कार्ड (Greeting card) ही डाक से भेजे जाते हैं। बाकी कामों के लिए हम स्मार्टफोन (smartphone), कंप्यूटर (computer) जैसे डिजिटल उपकरणों (digital tools) का इस्तेमाल करने लगे हैं। आवेदन, संदेश(message), और जवाब भेजने के लिए इन पर हम अक्षर टाइप करते हैं और भेज देते हैं। अलबत्ता, आज के ई-युग (e-age) में भी प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों के बच्चे अपने सबक लिखने (note-taking), होमवर्क (homework) करने, परीक्षाओं में जवाब लिखने और निबंध (essay writing) वगैरह हाथ से ही लिखते हैं। लेकिन यह सब पूरा हो जाने के बाद वे स्मार्टफोन उठाकर दोस्तों से बातें करते हैं या व्हाट्सऐप (whatsApp) करते हैं।

साइन्टिफिक अमेरिकन (Scientific American) में चार्लोट हू का एक लेख छपा है जिसमें ऐसे कई सारे शोध पत्रों का हवाला दिया गया है जो बताते हैं कि हाथों से लिखने से मस्तिष्क (brain Activity) के कई परस्पर सम्बंधित क्षेत्र सक्रिय हो जाते हैं, जिनका सम्बंध सीखने(learning) और याददाश्त(memory) से है। मैं यहां इनमें से कुछ प्रकाशनों का ज़िक्र करूंगा। ट्रॉडेनहाइम (नॉर्वे) के टेक्नॉलॉजीविदों (technologist) के एक समूह ने शिक्षा के क्षेत्र (education research) में शोध किया है जो फ्रन्टियर्स इन सायकोलॉजी (Frontiers in Psychology) में प्रकाशित हुआ है। इस शोध पत्र में बताया गया है कि टाइपरायटिंग (tyring) की बजाय हाथ से लिखने पर मस्तिष्क में व्यापक कड़ियां जुड़ती हैं। दूसरे शब्दों में, एक ही सामग्री को टायपिंग की बजाय हाथ से लिखने पर दिमाग पर कहीं अधिक सकारात्मक असर होता है। सबसे पहले तो हाथ से लिखना न सिर्फ वर्तनी की सटीकता (spelling accuracy) में सुधार करता है बल्कि बेहतर याददाश्त और पुन:स्मरण (वापिस याद करने) में भी मदद करता है।

उक्त दल ने स्कूली बच्चों के एक समूह का अध्ययन किया था। उनके सिरों पर इलेक्ट्रॉनिक सेंसर्स (electronic sensors) लगाए गए थे और उनकी मस्तिष्क की गतिविधियों को रिकॉर्ड किया गया था। यह काम दो स्थितियों में किया गया था – एक, जब बच्चे हाथ से लिख रहे थे और दूसरा, तब जब वे कंप्यूटर का उपयोग कर रहे थे। इस तरह के इलेक्ट्रोएंसेफेलोग्राम (ईईजी) (EEG Studies) अध्ययन से पता चला कि टायपिंग की बजाय हाथों से लिखने या चित्र बनाने से मस्तिष्क में ज़्यादा गतिविधि होती है और उसमें दिमाग का ज़्यादा बड़ा क्षेत्र शामिल रहता है। अर्थात टायपिंग की बजाय लिखना दिमाग के अधिक बड़े क्षेत्र को रोशन कर देता है। जब छात्रों को एक मुश्किल शब्द पहेली दी गई (जैसे स्क्रेबल(scrabble) या वर्डल(wordle)) तब भी उनकी याददाश्त का स्तर कहीं अधिक पाया गया।

हस्तलेखन (handwriting) वर्णमाला के अक्षरों के आकार व साइज़ को पहचानने और समझने में भी मदद करता है। 30 छात्रों के साथ किए गए एक अध्ययन में, सहभागियों से कहा गया था कि वे दिए गए शब्दों को एक डिजिटल कलम (digital pen) की मदद से कर्सिव ढंग से एक टच स्क्रीन (touch screen) पर भी लिख सकते हैं या कीबोर्ड (keyboard) की सहायता से टाइप भी कर सकते हैं। इस अध्ययन में भी हाथ से लिखे गए अक्षरों की आकृतियां व साइज़ टाइप किए गए अक्षरों से बेहतर थी।

जिन भाषाओं में वर्णमाला अंग्रेज़ी से भिन्न होती है (जैसे मध्य पूर्व, सुदूर पूर्व या कुछ भारतीय भाषाओं (Indian Languages) की) उन्हें भी हाथों से कहीं अधिक आसानी से लिखा जा सकता है और वे अधिकांश व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध कंप्यूटर पर सरलता से उपलब्ध नहीं होतीं।

भारत के अधिकांश स्कूलों में प्राथमिक से लेकर कक्षा 10 तक शिक्षण का माध्यम स्थानीय भाषा (local language) होती है। अंग्रेज़ी एक अतिरिक्त भाषा (secondary language) के रूप में सेकंडरी स्कूल से पढ़ाई जाती है। अलबत्ता, बच्चे इससे पहले ही मोबाइल फोन (mobile phone) का इस्तेमाल करने लगते हैं, जिनमें अंग्रेज़ी वर्णमाला होती है। कई भारतीय भाषाओं में अनोखे अक्षर होते हैं जो अंग्रेज़ी वर्णमाला में नहीं होते (जैसे तमिल व मलयालम में ழ और ഴ जिन्हें अंग्रेज़ी में लगभग ‘zha’ के रूप में लिखा जाता है।

इसी प्रकार से कई उर्दू/अरबी शब्द (urdu/ Arabic words), जिनका उपयोग हिंदी में किया जाता है, भी कीबोर्ड पर टाइप नहीं किए जा सकते। और जब भारत में हम लोग कुछ लिखने के लिए मोबाइल फोन या कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं, तो हमें कठिनाई होती है क्योंकि इन उपकरणों पर सिर्फ अंग्रेज़ी वर्णमाला होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एंटीबायोटिक प्रतिरोध के इलाज की तलाश

वृंदा नम्पूथिरी

एंटीमाइक्रोबियल दवाओं (Antimicrobial Resistance) को दशकों से चमत्कारी दवाइयां माना गया है। काफी समय से ये जानलेवा संक्रमणों (Infectious diseases) का इलाज करने में सक्षम रही हैं। इसी धारणा के चलते एंटीबायोटिक्स (Antibiotics Overuse) का ज़रूरत से ज़्यादा और दुरुपयोग हुआ है। साधारण ज़ुकाम (common cold) से लेकर दस्त तक में, ये आम लोगों की पहली पसंद बन गए हैं, जिससे एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध (AMR – एएमआर) की समस्या बढ़ गई है।

एएमआर: क्या और कैसे

एएमआर एक ऐसी स्थिति है जिसमें सूक्ष्मजीव सामान्यत: दी जाने वाली एंटीमाइक्रोबियल दवाओं (Antimicrobial Drugs) के प्रतिरोधी हो जाते हैं। सूक्ष्मजीवों के विरुद्ध काम करने वाली एंटीमाइक्रोबियल दवाएं विभिन्न प्रकार की होती हैं: बैक्टीरिया के लिए एंटीबायोटिक्स, फफूंद के लिए एंटीफंगल, वायरस के लिए एंटीवायरल (Antiviral medication) और एक-कोशिकीय प्रोटोज़ोआ जीवों के लिए एंटीप्रोटोज़ोआ दवाएं।

एएमआर का सबसे सामान्य रूप एंटीबायोटिक प्रतिरोध है, जिसमें बैक्टीरिया एंटीबायोटिक्स के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। मतलब है कि यदि कोई व्यक्ति प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Resistant Bacteria) से संक्रमित हो जाए तो वह एंटीबायोटिक दवा उस संक्रमण को ठीक नहीं कर पाएगी। ऐसा अनुमान है कि हर साल करीब 47 लाख लोग प्रतिरोधी संक्रमणों (Drug-resistant infections) से मर जाते हैं, जिन्हें अन्यथा इलाज से ठीक किया जा सकता था।

एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक व अंधाधुन्ध उपयोग त्वरित प्रतिरोध के विकास का कारण बना है। इसके चलते दवा कंपनियां नए एंटीबायोटिक्स के विकास में निवेश करने के प्रति भी हतोत्साहित हुई हैं। वर्तमान स्थिति में, जहां एंटीबायोटिक्स की संख्या सीमित है, यह ज़रूरी है कि हम उपलब्ध एंटीबायोटिक्स का सही तरीके से उपयोग करके उन्हें कारगर बनाए रखें।

भारत एंटीबायोटिक्स (India Antibiotic Consumption) का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इनके अति उपयोग के दो प्रमुख कारण हैं – भारत में संक्रामक रोगों का अधिक बोझ (Infectious Disease Burden) और एंटीबायोटिक्स तक सामुदायिक पहुंच पर नियंत्रण का अभाव।

भारत में अधिकांश लोग सीमित स्वास्थ्य सेवाओं (Healthcare Infrastructure in India) के कारण त्रस्त हैं। नतीजतन, रोगी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अनाधिकृत चिकित्सकों (Unqualified Practitioners) पर निर्भर रहते हैं। ऐसे चिकित्सकों के चलते सामान्य शारीरिक समस्याओं के लिए स्टेरॉयड, एंटीबायोटिक्स, मल्टीविटामिन्स और दर्द निवारक दवाओं का मिश्रण लेना आम बात है। यहां तक कि योग्य चिकित्सक भी अक्सर अनावश्यक और गलत एंटीबायोटिक्स लिखते हैं।

इसके अलावा, साफ पानी, स्वच्छता व सफाई की कमी, और मवेशियों को बढ़ावा देने के लिए एंटीबायोटिक्स का अनियंत्रित उपयोग, हमारे देश में एएमआर की समस्या को और बढ़ाता है।

फार्मासिस्ट और एएमआर

फार्मासिस्ट (Role of Pharmacists) समुदाय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे लोगों और डॉक्टरों के बीच एक कड़ी हैं। अक्सर, लोग डॉक्टरों के मुकाबले फार्मासिस्ट से अधिक आसानी से संपर्क कर सकते हैं। डॉक्टर से परामर्श लेने के लिए पहले अपॉइंटमेंट लेना पड़ता है, फिर घंटों इंतज़ार करना पड़ता है, यहां तक कि व्यक्ति को काम से छुट्टी भी लेनी पड़ सकती है। इसके विपरीत, लोग किसी स्थानीय मेडिकल स्टोर पर जाकर अपनी समस्या बताकर दवा ले सकते हैं और जल्दी से निकल सकते हैं। जैसा कि एक फार्मासिस्ट ने बताया कि बगैर डॉक्टरी पर्ची के एंटीबायोटिक्स/दवाइयां खरीदना एक सामान्य प्रथा है क्योंकि लोगों के पास निजी डॉक्टर से परामर्श करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं होते हैं।

हालांकि, यह ‘सुविधा’ अक्सर जोखिमों के साथ आती है। भारत में कई मामलों में, मेडिकल स्टोर में बैठने वाला व्यक्ति एक पंजीकृत फार्मासिस्ट भी नहीं होता है। चूंकि ऐसे अप्रशिक्षित व्यक्तियों के पास दवाइयों के सुरक्षित और प्रभावी उपयोग के बारे में आवश्यक जानकारी नहीं होती, इसलिए रोगियों की जान को खतरा भी हो सकता है।

भारत में स्वास्थ्य सेवा के लिए फार्मेसियों पर निर्भरता जन स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की खामियों को भी उजागर करती है। एक फार्मासिस्ट ने बताया कि यदि सभी फार्मासिस्ट बिना डॉक्टरी पर्ची के दवाइयां देना बंद कर दें, तो देश में हंगामा मच जाएगा क्योंकि सरकार के पास हर रोगी के लिए पर्याप्त सुविधाओं का अभाव है। हम जानते ही हैं कि हमारे सिविल अस्पतालों का क्या हाल है; लंबी कतारें और हमेशा ही भीड़। ऐसे में यदि मेडिकल स्टोर (रिटेल फार्मेसी) वाले दवाइयां देना बंद कर दें, तो सब कुछ रुक जाएगा।

एएमआर से जुड़ी गलत धारणाएं

एक और बड़ी समस्या यह है कि भारत में एंटीबायोटिक्स (Antibiotics misuse) को सभी संक्रमणों का ‘एक समाधान’ (Universal Cure Misconception) माना जाता है। अधिकांश लोग बैक्टीरियल, वायरल और फफूंद संक्रमणों के बीच अंतर नहीं कर पाते और यह नहीं जानते कि एंटीबायोटिक्स केवल बैक्टीरिया संक्रमणों के लिए प्रभावी होती हैं।

समझ की इसी कमी के कारण एंटीबायोटिक्स का गलत उपयोग होता है; जैसा कि मेडिकल स्टोर पर हम अक्सर लोगों को एंटीबायोटिक्स मांगते देखते हैं। एक फार्मासिस्ट ने बताया कि जो रोगी खुद से दवा लेने आते हैं, वे सीधे एंटीबायोटिक्स मांगते हैं, और यदि हम दवा नहीं देते तो वे बहस करने लगते हैं। कभी-कभी तो लोग पुरानी पर्ची लेकर दवाइयां खरीदने आते हैं।

लोग अक्सर मानते हैं कि एंटीबायोटिक्स लेने से वे जल्दी ठीक हो जाएंगे, और जल्दी काम पर लौट पाएंगे जिससे वेतन की हानि कम होगी। यह गलतफहमी पढ़े-लिखे और अनपढ़, दोनों तरह के लोगों में समान रूप से होती है। एक अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन में काम करने वाले व्यक्ति ने कहा, “मुझे सर्दी-खांसी हो गई थी… (मैंने एंटीबायोटिक्स लीं) मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था। मैं दिवाली पर बीमार नहीं पड़ सकता था।” इस सोच के चलते लोग डॉक्टरों से एंटीबायोटिक्स मांगते हैं और यदि उनकी मांग पूरी नहीं होती तो वे किसी और डॉक्टर के पास चले जाते हैं।

एक सर्जन अपने शोध कार्य के दौरान का मामला बताते हैं: “यदि मैं रोगी को समझा पाया तो वह खुश होकर वापस चला जाता है, लेकिन नहीं समझा पाया तो वह किसी और सर्जन के पास जाएगा, और फिर किसी और सर्जन के पास। आखिरकार, वह ऐसे सर्जन के पास जाएगा जो एंटीबायोटिक्स लिख देगा, और तब वह खुश हो जाएगा। इसे हम ‘डॉक्टर शॉपिंग’ कहते हैं।”

यह दर्शाता है कि लोगों को एंटीबायोटिक्स के ज़िम्मेदार उपयोग और दुरुपयोग के खतरों के बारे में शिक्षित करना कितना ज़रूरी है।

भारत में एएमआर से संघर्ष

भारत में एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध से निपटने के लिए कई पहल हुई हैं। इनमें शामिल हैं: एंटीबायोटिक उपचार दिशानिर्देश बनाना और लागू करना; एंटीमाइक्रोबियल स्टुवार्डशिप प्रोग्राम (एएमएस, एंटीमाइक्रोबियल के उपयोग को बेहतर बनाने वाला प्रोग्राम) लागू करना; स्वास्थ्य पेशेवरों को एंटीबायोटिक के उचित उपयोग को लेकर शिक्षित-प्रशिक्षित करना; और एएमआर को थामने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय योजनाएं लागू करना।

हालांकि, लगभग 80 प्रतिशत एंटीबायोटिक का उपयोग सामुदायिक स्तर पर होता है, लेकिन इन पहलों में से अधिकांश का ध्यान मुख्य रूप से अस्पतालों पर केंद्रित है। सामुदायिक स्तर पर एंटीबायोटिक उपयोग को बेहतर बनाने के लिए किसी भी हस्तक्षेप से पहले, इन समस्याओं के कारणों को समझना ज़रूरी है।

भारत में बिना पर्ची एंटीबायोटिक दवाइयां बेचने पर प्रतिबंध लगाने के लिए नियम बनाए गए हैं, जैसे शेड्यूल एच और एच1 दवाएं (केवल पर्ची पर मिलने वाली दवाएं) और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया रेड लाइन जागरूकता अभियान। लेकिन, देश के कई हिस्सों में इन नियमों का क्रियान्वयन पर्याप्त नहीं है। 

मेरी एक विदेशी सहकर्मी कुछ साल पहले भारत आई थीं। वे इस बात से हैरान थीं कि एयरपोर्ट की फार्मेसी पर एंटीबायोटिक बिना पर्ची के आसानी से मिल रही थी। जबकि उनके देश में सामुदायिक फार्मेसियों पर एंटीबायोटिक सख्त नियंत्रण में बेची जाती हैं और एंटीबायोटिक के लिए डॉक्टरी पर्ची के लिए कई दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता है।

फार्मासिस्ट का संभावित योगदान

बतौर फार्मासिस्ट, मुझे लगता है कि एंटीबायोटिक उपयोग को बेहतर बनाने में हम कई तरीके से सक्रिय योगदान दे सकते हैं। 

हमारी सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों में से एक है एंटीबायोटिक्स की ओवर-दी-काउंटर बिक्री (OTC Antibiotics ban) पर रोक। यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि एंटीबायोटिक्स केवल पंजीकृत डॉक्टर की वैध पर्ची पर ही दी जाएं। इसके लिए पर्ची की तारीख का सत्यापन और यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि पर्ची उसी व्यक्ति की है जो इसे दिखा रहा है। कई बार रोगी पुरानी पर्ची दिखाकर उन्हीं लक्षणों के लिए दोबारा एंटीबायोटिक खरीदना चाहते हैं, या परिवार के किसी अन्य सदस्य की पर्ची दिखाते हैं। ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए सतर्कता अहम है।  

रोगियों को एंटीबायोटिक के सही उपयोग के बारे में शिक्षित करना हमारी भूमिका का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा है। अक्सर, फार्मासिस्ट केवल बुनियादी निर्देश देने तक ही सीमित रहते हैं, जैसे दवा भोजन से पहले लें या बाद में, खुराक की मात्रा और उपचार की अवधि। यह सब महत्वपूर्ण है, लेकिन रोगियों को एंटीबायोटिक के सही व गलत उपयोग के बारे में बताना भी उतना ही ज़रूरी है।

हमें रोगियों को समझाना चाहिए कि एंटीबायोटिक क्यों दी गई है, उसका नाम क्या है, और इसे कुछ खास खाद्य पदार्थों या दवाओं के साथ लेने से बचना चाहिए या नहीं। रोगियों को यह समझाना बहुत ज़रूरी है कि दवा का कोर्स पूरा करना ज़रूरी है, भले ही उन्हें बीच में ही अच्छा लगने लगे। साथ ही, यह भी बताना चाहिए कि एंटीबायोटिक को कभी भी दूसरों को नहीं देना चाहिए, भले ही उनके लक्षण एक जैसे क्यों न लग रहे हों। 

एंटीबायोटिक के सही और तर्कसंगत उपयोग पर अपडेट रहना भी एक अहम ज़िम्मेदारी है, जिसमें क्लीनिकल फार्मासिस्ट्स को पहल करनी चाहिए। मैंने देखा है कि कुछ वरिष्ठ फार्मासिस्ट नई जानकारी अपनाने में हिचकिचाते हैं, जिससे देखभाल की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।

चाहे हम कम्युनिटी फार्मेसी में काम करें या अस्पताल में, हमारी भूमिका सिर्फ दवा देने तक सीमित नहीं है। हम ऐसे स्थान पर हैं जहां हम एंटीबायोटिक के तर्कसंगत उपयोग को बढ़ावा देकर रोगियों के इलाज को बेहतर बना सकते हैं। अपने सहयोगियों के साथ मिलकर अच्छी प्रथाओं को साझा करना और इन्हें अलग-अलग जगहों पर लागू करने के लिए काम करना हमारे प्रयासों को और प्रभावी बना सकता है। 

हमारे योगदान को पूरी तरह प्रभावी बनाने के लिए अस्पताल प्रबंधन एवं सरकारी संस्थानों से मान्यता मिलना बहुत ज़रूरी है। ऐसा समर्थन न केवल क्लीनिकल फार्मासिस्ट्स को बेहतर रोज़गार के अवसर देगा, बल्कि रोगियों की देखभाल के नतीजे भी सुधारने में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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शतायु कोशिकाओं का बैंक

सौ साल जीने का राज़ क्या है? वैज्ञानिकों का एक विचार यह है कि मामला कोशिकाओं (Longevity cells) से सम्बंधित है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए बोस्टन (मैसाचुसेट्स) के वैज्ञानिकों ने शतायु लोगों की स्टेम कोशिकाओं (Centenarian stem cells) का एक बैंक निर्मित किया है। ये स्टेम कोशिकाएं सामान्य रक्त कोशिकाओं (Blood cells) को रीप्रोग्राम करके तैयार की गई हैं। सामान्य कोशिकाएं एक समय के बाद विभाजन बंद करके मर जाती हैं लेकिन स्टेम कोशिकाएं लंबे समय तक जीवित रहती हैं और उनसे विभिन्न किस्म की कोशिकाओं का निर्माण किया जा सकता है। उम्मीद की जा रही है कि इनके अध्ययन से शोधकर्ताओं को दीर्घ व स्वस्थ जीवन (Healthy aging) के कारकों को समझने में मदद मिलेगी। शुरुआती प्रयोगों से मस्तिष्क के बुढ़ाने (Brain aging research) को लेकर कुछ सुराग मिले भी हैं।

शतायु लोग दीर्घजीविता को समझने का एक अवसर प्रदान करते हैं। जो लोग सौ साल जी चुके हैं उनमें नुकसान व क्षति से उबरने की ज़बर्दस्त क्षमता होती है। बोस्टन विश्वविद्यालय चोबेनियन व एवेडिसियन स्कूल ऑफ मेडिसिन (Boston University School of Medicine) के स्टेम कोशिका वैज्ञानिक जॉर्ज मर्फी (George Murphy) ने बताया है कि उनकी जानकारी में एक शतायु व्यक्ति 1912 के स्पैनिश फ्लू (Spanish Flu survivor) और फिर हाल के कोविड-19 (COVID-19 recovered) से उबरे हैं। शतायु लोगों की दीर्घायु की एक व्याख्या इस आधार पर की गई है कि उनकी जेनेटिक बनावट (Genetic makeup) में कुछ ऐसी बात होती है जो उन्हें बीमारियों से बचाती है। लेकिन इस बात की जांच कैसे की जाए? इस उम्र के लोग बहुत बिरले होते हैं जिसके चलते उनकी त्वचा या रक्त के नमूने (skin and blood samples) शोध के लिए बेशकीमती संसाधन होते हैं। इसी से शतायु कोशिकाओं के बैंक (Centenarian cell bank) का विचार उभरा। जॉर्ज मर्फी ने स्पष्ट किया है कि यह बैंक सभी वैज्ञानिकों के बीच साझा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर धरती पर हावी कैसे हो गए

नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करता है कि डायनासौर ने पूरी धरती पर दबदबा कैसे कायम किया था। इस बात का सुराग ट्राएसिक युग (25-20 करोड़ वर्ष पूर्व) के अंतिम दौर से लेकर प्रारंभिक जुरासिक युग (20-14.5 करोड़ वर्ष पूर्व) में डायनासौर की विष्ठा (fossilized dung analysis) और वमन जीवाश्मों (Bromalite study) के विश्लेषण से मिला है। डायनासौर के भोजन के अध्ययन से पता चलता है कि कैसे 23-20 करोड़ वर्ष पूर्व के समय में डायनासौर ने अपने सारे प्रतिद्वन्द्वियों को विस्थापित कर दिया था और स्वयं विविध आकारों और साइज़ों (Dinosaur dominance) में विकसित हुए थे। यह घटना प्राचीन सुपर महाद्वीप पैंजिया के एक हिस्से में घटी थी। यह शोध पत्र उपसला विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक मार्टिन क्वार्नस्ट्रॉम (Martin Qvarnström ) और उनके साथियों का है।

क्वार्नस्ट्रॉम का कहना है कि आम तौर पर लोग जंतुओं के कंकालों के जीवाश्मों पर ध्यान देते हैं, उनकी विष्ठा पर नहीं, जबकि विष्ठा जानकारी का खज़ाना होती है।

पहले डायनासौर करीब 23 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर अदना किरदारों के रूप में प्रकट हुए थे। उस समय की पारिस्थितिकी में तमाम अन्य किरदार मौजूद थे – विशाल शाकाहारी (डायसिनोडोन्टDicynodonts), बड़े-बड़े शिकारी सरिसृप (रौइसुकिड्सRauisuchids) और मगरमच्छ जैसे जीव। लेकिन 3 करोड़ सालों के अंदर डायनासौर धरती पर छा गए – उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वियों द्वारा घेरे गए समस्त निशे पर कब्ज़ा कर लिया। पारिस्थितिकी में निशे का मतलब होता है कि कोई प्रजाति अपने परिवेश में क्या भूमिका निभाती है – यानी परिवेश के अन्य सजीव और निर्जीव घटकों से क्या सम्बंध निर्वाह करती है। यह बहस का विषय रहा है कि क्या डायनासौर इसलिए हावी हुए थे कि उनके पास खास किस्म के शारीरिक लक्षण थे या फिर उनके प्रतिद्वन्द्वी जलवायु में हुए बदलाव के कारण परास्त हो गए थे।

क्वार्नस्ट्रॉम और उनके साथियों को लगता था कि इसका सुराग डायनासौर के भोजन में मिलेगा। डायनासौर की खुराक का खुलासा करने के लिए वे पोलिश बेसिन में डायनासौर की विष्ठा और वमन के जीवाश्म की तलाश में जुट गए। यह वह इलाका है जहां से हड्डियों के जीवाश्म और पुराजलवायु सम्बंधी विस्तृत रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। टीम ने तीन मुख्य स्रोतों से प्राचीन भोजन शृंखला का पुनर्निर्माण किया: कोप्रोलाइट (coprolite -विष्ठा जीवाश्म), रीगर्जिएट (Regurgitated fossils – वमन के जीवाश्म) और कोलोलाइट्स (cololites – पाचन तंत्र के जीवाश्मित पदार्थ)। इन तीनों प्रकार के जीवाश्मों का मिला-जुला नाम है ब्रोमालाइट।

शोधकर्ताओं ने नौ जगहों से प्राप्त 532 ब्रोमालाइट्स की जांच की। इसके बाद उन्होंने इन ब्रोमालाइट्स को साइज़, आकृति और पदार्थों के आधार विभिन्न प्राचीन जंतु समूहों (Taxa – टैक्सा) में बांट दिया। उदाहरण के लिए, लंगफिश (Lungfish – फेफड़ों वाली मछलियां) और शार्क की आहार नाल सर्पिलाकार होती है और उनकी विष्ठा ऐंठे हुए भंवर के आकार की होती है। इससे अलग, उभयचर जीव अंडाकार विष्ठा छोड़ते हैं जिसमें मछलियों के शल्क बहुतायत में होते हैं।

खोज स्थल से भी कई सुराग मिले। जैसे कोप्रोलाइट्स प्राय: उससे सम्बंधित जीव की हड्डियों और पदचिंहों के बीच मिलते हैं। उदाहरण के लिए यदि आपको 30 से.मी. से ज़्यादा लंबी/बड़ी विष्ठा मिलती है और जहां आसपास डायनासौर के खूब पदचिंह हैं, तो पक्का है कि उसी की विष्ठा है।

इसके बाद रासायनिक विश्लेषण और सिन्क्रोट्रॉन टोमोग्राफी (Synchrotron tomography) जैसी तकनीकों की मदद से शोधकर्ताओं ने उस काल के भोजन की तहकीकात की। उदाहरण के लिए, जब उन्हें लंबी विष्ठा मिली जिसमें मछलियों के अवशेष भरपूर मात्रा में थे तो उन्होंने माना कि यह विष्ठा मगरमच्छ जैसे किसी सरिसृप ने छोड़ी होगी जिसकी थूथन लंबी होगी और दांत पैने होंगे (Paleorhinus – पैलियोराइनस)। दूसरी ओर यदि गोबर के जीवाश्म में गुबरैले हैं तो वह यकीनन कीटभक्षी सिलेसौरस की करतूत है। सिलेसौरस डायनासौर का निकट सम्बंधी था। आर्कोसौर स्मॉक की विष्ठा के जीवाश्म में उसके शिकार की चबाई हुई हड्डियां और दांत मिले। स्मॉक 5 मीटर लंबा दोपाया शिकारी था जिसके जबड़े निहायत शक्तिशाली और दांत आरीनुमा थे।

इस तरह शोधकर्ताओं ने समय के साथ भोजन में आए परिवर्तनों पर गौर किया तो उन्हें डायनासौर के दबदबा स्थापित होने के नए सुराग मिलते गए।

डायनासौर के पूर्वज छोटे-छोटे सर्वाहारी थे जो ट्राएसिक पारिस्थितिकी में गौण किरदार थे। इनसे शुरुआती डायनासौर का विकास हुआ – जैसे छोटे शिकारी थेरोपॉड्स (Theropods)। ये मूलत: कीट और मछलियां खाते थे। जुरासिक काल के उत्तरार्ध में जलवायु अपेक्षाकृत गर्म और नम होने लगी थी। इसके चलते वनस्पतियों का विस्तार हुआ और शाकाहारी डायनासौर (जाने-माने विशाल लंबी गर्दन वाले सौरोपॉड्स) (Sauropods) के लिए ज़्यादा भोजन उपलब्ध होने लगा। इन्होंने जो विष्ठा छोड़ी है उसमें वनस्पति अवशेष भरपूर मात्रा में पाए गए हैं। सारे संकेत यही दर्शाते हैं कि सौरोपॉड्स भारी मात्रा में बड़ी पत्तियों वाले फर्न खाते थे। धीरे-धीरे ये शाकाहारी विशाल हो गए और साथ ही इनका शिकार करने वाले थेरोपॉड भी।

ट्राएसिक काल के अंतिम दौर का विष्ठा रिकॉर्ड दर्शाता है कि डायनासौर पारिस्थितिकी तंत्र के हर स्तर पर छा चुके थे और उनके गैर-डायनासौर प्रतिद्वन्द्वी विस्थापित हो गए थे। यह पूर्व में अस्थि जीवाश्मों व अन्य प्रमाणों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों की पुष्टि करता है। इस विषय के शोधकर्ता आम तौर पर स्वीकार कर रहे हैं कि विष्ठा के विश्लेषण से यह पता करना कि कौन किसको खाता था, पारिस्थितिकी तंत्र को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। क्वार्नस्ट्रॉम को उम्मीद है कि यह शोध पत्र अन्य शोधकर्ताओं को भी इस दिशा में काम करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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