ततैया की तकरीबन 200 प्रजातियां परजीवी हैं। इनकी मादाएं अपने अंडे किसी अकशेरुकी जीव के अंदर देती हैं। अंडों से निकलने के बाद ततैया के लार्वा अपने मेजबान को अपना भोजन बनाते हैं, और अंतत: उसे काल के हवाले कर खुद उसके शरीर से बाहर निकल आते हैं।
अंडे देने के लिए अधिकतर ततैया की पहली पसंद फलमक्खियों (ड्रॉसोफिला) (fruit flies) के जीवित लार्वा-प्यूपा होते हैं। लार्वा या प्यूपा को चुनने का एक कारण यह होता है कि ये छोटे होते हैं, आसानी से पकड़ में आ जाते हैं और शिकार बन जाते हैं; वयस्क मेजबान एक तो आकार में बड़े होते हैं, ऊपर से उनके पास मुकाबला करने, डराने या बच निकलने की क्षमताएं भी होती हैं। इसलिए वयस्कों में अंडे देना ज़रा मुश्किल काम है। (कितना मुश्किल है इसका अंदाज़ा इस वीडियो (parasitoid wasps attack video) को देखकर लगाया जा सकता है:
बहरहाल, हाल ही में जीवविज्ञानियों (biologists) ने एक ऐसी ततैया पहचानी है जो वयस्क फलमक्खियों को अपना शिकार बनाती है और उनमें अंडे देती हैं।
इस ततैया को शोधकर्ताओं ने सिनट्रेटस पर्लमैनी (Syntretus perlmani) नाम दिया है। इस नई ततैया को यह नाम परजीवियों (parasites research) पर भरपूर शोध करने वाले स्टीव पर्लमैन के नाम पर दिया है।
दरअसल शोधकर्ता मिसिसिपी स्थित अपनी प्रयोगशाला (Mississippi lab research) के कैंपस में फैलाए गए जाल में फंसी फलमक्खियों में कृमि संक्रमण की पड़ताल कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें ऐसी वयस्क नर फलमक्खी मिली जिसके अंदर ततैया का लार्वा था। अब शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एस. पर्लमैनी ततैया वास्तव में कितनी वयस्क फलमक्खियों को शिकार बनाती हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने करीब 6000 नर फलमक्खियां और करीब 500 मादा फल मक्खियों की पड़ताल की।
अंडे देने के 7 से 18 दिन के बाद, बिना किसी चीरफाड़ के नर फलमक्खी में तो आसानी से दिख जाता है कि किनके अंदर ततैया का लार्वा है और किनके अंदर नहीं। दूसरी ओर, मादा फलमक्खी में लार्वा होने की पुष्टि चीरफाड़ करके ही की जा सकी।
विश्लेषण में पाया गया कि एस. पर्लमेनी ततैया हर साल 0.5-3 प्रतिशत तक वयस्क नर मक्खियों को अपना मेज़बान बनाती है। इसके विपरीत मात्र एक मादा फलमक्खी में ततैया के लार्वा मिले।
शोधकर्ताओं का विचार है कि संभवत: वयस्क मक्खी को शिकार बनाने के कुछ फायदे होंगे। जैसे लार्वा-प्यूपा की तुलना में वयस्क फलमक्खी ततैयों के लार्वा की सुरक्षा (wasp larvae protection) कर सकते हैं; यह भी संभव है कि वयस्क फलमक्खियों की प्रतिरक्षा प्रणाली लार्वा की तुलना में कम प्रभावी हो और इसके चलते लार्वा को बाहर धकेले जाने का खतरा कम होता हो। और वयस्कों को मेज़बान बनाने से लार्वा-प्यूपा के लिए प्रतिस्पर्धा कम हो जाती होगी।
नेचर (Nature journal) में प्रकाशित ये नतीजे ततैया के व्यवहार में विविधता को उजागर करते हैं और आगे के अध्ययन के लिए ज़मीन बनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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घात लगाकर हमला करने वाले शिकारी जंतु (predator animals) शिकार को पकड़ने के लिए अनेक प्रकार की रणनीतियां (hunting strategies) अपनाते हैं। विशेषकर मकड़ियों (spiders) के पास शिकार पकड़ने की अद्भुत रणनीतियां होती हैं, जिनमें महज़ घात लगाने से लेकर रेशमी जाले (silk webs) में फांसने तक के जटिल तरीके अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए बोलस मकड़ी (Bolas spider) प्रजाति-विशेष के नर पतंगों (male moths) को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रेशमी धागे के अंतिम छोर पर चिपचिपी और फेरोमोन्स युक्त बूंद लटका देती है। नर पतंगें उसे मादा समझकर चिपक जाते हैं और मकड़ी के शिकार बन जाते हैं।
कुछ पायरेट मकड़ियां (pirate spiders) अन्य मकड़ियों के जालों में इस प्रकार के कंपन उत्पन्न करती हैं जिससे मेज़बान को यह विश्वास हो जाए कि जाल में कोई कीट (insect) फंसकर छटपटा रहा है। जैसे ही मेज़बान मकड़ी पास आती है, पायरेट मकड़ी उसे अपना शिकार बना लेती है।
फूलों पर पाई जाने वाली क्रेब मकड़ी (crab spider) लंबे समय तक बिना हिले-डुले फूलों पर घात लगाकर बैठी रहती है। जैसे ही फूलों का मकरंद लेने के लिए कोई कीट आता है वे तुरंत आक्रमण करके उसका शिकार कर लेती हैं।
लाल चींटों जैसी दिखने वाली एमिशिया मकड़ी (ant-mimicking spider) चींटों जैसी बनावट और व्यवहार अपना लेती है तथा अपनी पहचान छुपा कर रहती है, और फिर उनका ही शिकार करती हैं।
सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी दाईकिन ली, हुआझोंग कृषि विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी शिन्हुआ फू और साथियों ने हाल ही में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में मकड़ी पर एक शोध पत्र प्रकाशित किया है। शोध में यह देखा गया कि मकड़ियां नर जुगनू (male fireflies) को मादा जुगनू की तरह जगमगाने पर मजबूर करती हैं जिससे बड़ी संख्या में नर जुगनू आकर्षित होते हैं तथा मकड़ी को अधिक शिकार मिलते हैं।
प्रायः सभी वैज्ञानिक खोजों में अवलोकन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। चीन के वुहान शहर में अपनी फील्ड ट्रिप के दौरान जीव विज्ञानी शिन्हुआ फू को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कई मकड़ियों के जाले ऐसे थे जिनमें केवल नर जुगनू शिकार हुए थे। सवाल था कि क्या मकड़ियां कोई ऐसी जुगत या तरकीब लगा रही हैं जिससे वे नर जुगनू को आकर्षित करके शिकार कर रही हों।
जुगनू की प्रणय लीला (Mating Behavior of Fireflies)
प्रत्येक जंतु में विपरीत लिंग को प्रजनन के लिए आकर्षित करने के तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। जुगनुओं में यह कार्य उदर में उपस्थित विशेष अंगों से उत्पन्न प्रकाश को चमकाकर (light signals) किया जाता है। सूर्यास्त होते ही नर जुगनू उदर से एक निश्चित क्रम में प्रकाश-चमक के संकेतों से मादाओं को आकर्षित करते हैं। घास में नीचे बैठी मादा जुगनू अपनी प्रजाति के नरों की चमक के पैटर्न को देखकर अपनी प्रजाति के साथी को पहचान जाती है। अब मादा प्रत्युत्तर में रोशनी चमकाकर चयनित नर को आकर्षित करती हैं। संभोग के बाद, मादा गीली मिट्टी में 500 तक अंडे देती है।
उष्णकटिबंधीय एशियाई जुगनू प्रजाति एब्सकॉन्डिटा टर्मिनेलिस में, नर और मादा, दोनों ही प्रणय के लिए साथी तलाशने के लिए चमक फेंकते हैं। लेकिन उनकी चमक एक जैसी नहीं होती। मादाएं अपने उदर में एकल प्रकाश स्रोत से धीमे-धीमे टिमटिमाती हैं, जबकि नर अपने उदर के दो प्रकाश स्रोतों से उतने ही समय में अधिक बार टिमटिमाते हैं।
मकड़ियों की चालाकी (Spider’s Deception)
एरेनियस वेंट्रिकोसस (Araneus ventricosus) नामक मकड़ी निशाचर होती है और कार के पहिए के आकार के बड़े और गोलाकार जाले बुनती है। जाला बुनने वाली मकड़ियों की देखने की क्षमता जाला न बुनने वाली मकड़ियों की तुलना में कमज़ोर होती है। उन्हें वस्तुएं केवल तभी दिखाई देती हैं जब वे अपेक्षाकृत उनके करीब होती हैं। इन मकड़ियों के जाले में जब नर जुगनू फंस जाता है तो उसकी चमक से मकड़ी नर को पहचान जाती है और उसे जाले में लपेटते हुए अनेक बार विष दंतों से काट कर उसे मादा जुगनू जैसे प्रकाश संकेत निकालने पर मजबूर कर देती है। बंदी नर जुगनू विष के प्रभाव से मादा जैसे टिमटिमाने लगता है, जिससे कई नर भ्रमित होकर ‘मादा’ से संभोग की उम्मीद में मकड़ी के जाल में प्रवेश करते हैं और शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार नर जुगनू मकड़ी के जाले में फंसे देखे जा सकते हैं।
शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि कुछ जंतु विशेष प्रकार के जंतुओं का शिकार करने के लिए शिकार के तरीके में हेरफेर करने में सक्षम होते हैं तथा शिकार को छद्म संकेत (false signals) उत्पन्न करने को विवश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://c02.purpledshub.com/uploads/sites/62/2024/09/Orb-weaving-spider-manipulates-firefly-scaled.jpeg?w=600&webp=1
युनिसेफ ने 21 मार्च के दिन को विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) के रूप में घोषित किया है। विश्व कविता दिवस मनाने का उद्देश्य काव्यात्मक अभिव्यक्ति (poetic expression) के माध्यम से भाषाई विविधता को बढ़ावा देना है। हर साल इस दिन के लिए कोई एक थीम (theme) चुनी जाती है। वर्ष 2022 में इस दिन की थीम ‘पर्यावरण’ रखी गई थी। 2023 की थीम थी, ‘सदैव कवि, गद्य में भी (Always a poet, even in prose)’ और इस साल की थीम है ‘दिग्गजों के अनुभव पर बढ़ना (Standing on the shoulders of giants)’।
कविता का उपयोग भावनाएं जगाने के लिए, बिंब रचने के लिए, और विचारों को सुगठित और कल्पनाशील तरीके से व्यक्त करने के लिए किया जाता है। इसमें लय होती है, छंद या मीटर (meter) होता है, भावनात्मक अनुनाद होता है। पाठक या गायक कवि की भावना को महसूस करते हैं और यह उनके दिल-ओ-दिमाग में प्रभावी ढंग से उतर जाती हैं। इसमें किफायत, अलंकरण (embellishment) और लय की समझ होती है। ये अक्सर गाई जा सकती हैं। जैसे, हमारा राष्ट्रगान ‘जन गण मन’; यह रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई एक कविता है, जिसे हम सभी जोश-ओ-खरोश से गाते हैं। वहीं, हममें से कई अपनी भाषा में दुख-दर्द भरे नगमे भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं, सुनते हैं।
वर्ष 2022 का विश्व कविता दिवस लुप्तप्राय भाषाओं (endangered languages), इन भाषाओं में कविताओं, गद्य और गीतों पर केंद्रित था। दुनिया भर में, 7000 से अधिक भाषाएं लुप्तप्राय हैं। यूनेस्को के अनुसार भारत में, 42 भाषाएं लुप्तप्राय (10-10 हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली) हैं। 2013 से, भारत ने अपनी लुप्तप्राय भाषाओं के बचाव और संरक्षण (preservation) के लिए एक योजना शुरू की है। वेबसाइट ‘Endangered languages in India (भारत में लुप्तप्राय भाषाएं)’ पर इन लुप्तप्राय भाषाओं की सूची दी गई है। इस सूची में ‘ग्रेट अंडमानी’, लद्दाख में बोली जाने वाली ‘तिब्बती बलती’ और झारखंड की ‘असुर’ भाषाएं शामिल हैं। मैसूर स्थित स्कीम फॉर प्रोटेक्शन एंड प्रिवेंशन ऑफ एन्डेंजर्ड लैंग्वैज (SPPEL) इस क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्यरत है।
2023 में विश्व कविता दिवस की थीम थी: ‘Always a poet, even in prose’। शेक्सपियर इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं। उनके गद्य (prose) में भी काव्यात्मक लय थी। यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं: ‘Brevity is the soul of wit’; और ‘my words fly up, but my thoughts remain below’। हिंदी, उर्दू और तमिल में कई विद्वानों ने इसी तरह की कविताएं/बातें लिखी हैं।
जब हम गद्य में अपने मन की बात कह सकते हैं तो कविता क्यों लिखना? जहां गद्य में प्रयुक्त भाषा स्वाभाविक और व्याकरण-सम्मत होती है, वहीं काव्यात्मक भाषा आलंकारिक (figurative) और प्रतीकात्मक होती है। ऑक्सफोर्ड स्कोलेस्टिका एकेडमी बताती है कि कविता साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक ऐसा रूप है जिसमें भाषा का उपयोग होता है। और एनसायक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopedia Britannica) कहता है, कविता में आप भाषा (के शब्दों) को अर्थ, ध्वनि और लय के मुताबिक काफी सोच-समझकर चुनते और जमाते हैं। कविता पढ़ते या सुनते समय, आपके मस्तिष्क का ‘आनंद केंद्र’ (pleasure center) सक्रियता से बिंबों का अर्थ खोजने और रूपकों की व्याख्या करने में तल्लीन हो जाता है।
वैज्ञानिक और कविता
‘Scientists take on poetry (साइंटिस्ट टेक ऑन पोएट्री)’ नामक साइट बताती है कि गणितज्ञ एडा लवलेस, रसायनज्ञ हम्फ्री डेवी और भौतिक विज्ञानी जेम्स मैक्सवेल ने अपने काम के बारे में कविताएं लिखी हैं। भारत में, वैज्ञानिक एस. एस. भटनागर ने हिंदी में कविताएं लिखीं। वैसे सी. वी. रमन कवि तो नहीं थे, लेकिन वायलिन की संगीतमय ध्वनियों (musical tones) का वैज्ञानिक आधार जानने में उनकी रुचि थी और उन्होंने ‘Experiment with mechanically played violin (यांत्रिक तरीके से बजाए जाने वाले वायलिन के साथ प्रयोग)’ शीर्षक से एक शोधपत्र लिखा था, जो 1920 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी इंडियन एसोसिएशन फॉर दी कल्टीवेशन ऑफ साइंस में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने भारतीय आघात वाद्य यंत्रों (percussion instruments) की विशिष्टता का भी अध्ययन किया। तबला और मृदंग की ध्वनियों की हारमोनिक प्रकृति का उनका विश्लेषण भारतीय ताल वाद्यों पर पहला वैज्ञानिक अध्ययन था।
इसी तरह, भौतिक विज्ञानी एस. एन. बोस तंतु वाद्य एसराज बजाया करते थे। बर्डमैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर प्रकृतिविद सालिम अली ने भारत के पक्षियों पर कई किताबें लिखीं। और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर श्रीराम रंगराजन (जिनका तखल्लुस ‘सुजाता’ है) ने तमिल में बेहतरीन किताबें और लेख लिखे, जिन्हें उनके भाषा कौशल (language proficiency) के कारण हर जगह सराहा जाता है। क्या ऐसे और वैज्ञानिक नहीं होने चाहिए जो संगीत पर कविताएं और निबंध लिखें? (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/ihddoe/article68642855.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/Poetry.jpg
यह तो हम जानते हैं कि कई जीव-जंतुओं में शिकारियों (predators) से अपने बचाव के लिए कई तरीके विकसित हुए हैं। कुछ का रंग-रूप या काया आसपास के पर्यावरण (environment) से घुल-मिल जाती है, तो कोई किसी दूसरे खतरनाक जीव सी काया धर लेता है। या गुलाब जैसे पौधों या साही जैसे जीवों में कांटे विकसित हुए हैं कि शिकारी उनसे दूर ही रहें। ये तो हुए शिकार बनने से बचने के तरीके, लेकिन शिकार बन जाएं तब क्या?
कार्टून वगैरह में तो ऐसा बहुत देखा होगा कि हीरो चरित्र शिकारी के पेट में गुदगुदी करके, उछल-कूद मचाकर या ऐसे ही किसी तरीके से उसे परेशान करके उसके पेट से सलामत बाहर निकल आता है। हाल ही में, ऐसा ही कुछ मामला हकीकत में होता दिखा है। करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित अध्ययन का एक्स-रे वीडियो (X-ray video) खुलासा करता है कि जापानी ईल (Anguilla japonica) अपने शिकारी मछली के पेट से कैसे बाहर निकल जाती है।
दरअसल, पूर्व में नागासाकी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया था कि जापानी ईल अपने शिकारी के पेट से गलफड़ों (gills) के रास्ते बाहर निकल आती है। लेकिन वह ऐसा करती कैसे है यह उन्हें ठीक-ठीक नहीं मालूम था।
इस बात को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 32 शिशु ईल में एक ऐसा पदार्थ (barium sulfate) डाला जो एक्स-रे की नज़र की पकड़ में आ जाए। फिर उन्होंने ईल को डार्क स्लीपर (Odontobutis obscura) नामक एक शिकारी मछली के साथ छोटे टैंक (tank) में रखा।
जब ये ईल शिकार बने तो उन सभी ईल ने शिकारी के पेट से भागने की कोशिश की। एक्स-रे की मदद से पता चल पाया कि इनमें से कुछ ईल ने बाहर का रास्ता तलाशने के लिए शिकारी के पेट में चक्कर लगाया। लेकिन सभी ईल भागने में सफल नहीं हो पाई। सिर्फ 9 ईल ही बाहर निकल पाईं। जो बाहर निकलने में सफल हो पाईं, वे तैरकर वापिस शिकारी की ग्रासनली (esophagus) में गईं और फिर गलफड़ों के ज़रिए सरसराते हुए पूंछ को पहले बाहर निकालते हुए पूरी की पूरी सलामत बाहर निकलने में सफल हो गईं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.popsci.com/wp-content/uploads/2024/09/eel-escape.png?quality=85
पेड़ों का अस्तित्व धरती पर लगभग 40 करोड़ वर्षों से है। तब से पेड़ कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर चुके हैं। चाहे वह उल्का की टक्कर हो या शीत युग, पेड़ धरती पर टिके रहे। लेकिन अब उन्हें खतरा इंसानों से है। कृषि (agriculture) के आगमन के बाद से, खेती और मवेशियों के लिए जगह बनाने के लिए बड़ी संख्या में जंगलों (forests) का सफाया किया गया है। पिछले 300 वर्षों में, लगभग 1.5 अरब हैक्टर जंगलों को नष्ट किया जा चुका है जो आज के कुल वन क्षेत्र का 37 प्रतिशत है।
आम तौर पर यह माना जाता है कि जंगलों की क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण (tree plantation) करके की जा सकती है, और इसे सबसे सरल और सटीक समाधान के तौर पर देखा जाता है। पिछले कुछ दशकों में यह धारणा भी बनी है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) को कम करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, यह बात भी उतनी ही सच है कि बिना किसी ठोस योजना और जानकारी के सिर्फ पेड़ लगाना कई बार पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) को नुकसान पहुंचा सकता है।
गौरतलब है कि कई वृक्षारोपण परियोजनाओं में सिर्फ एक प्रजाति के पेड़ लगाए जाते हैं, जिसे मोनोकल्चर (monoculture) कहा जाता है। यह पद्धति जैव विविधता (biodiversity) को कम करती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में सिर्फ एक प्रजाति के पौधे और उससे जुड़े वन्यजीव और सूक्ष्मजीव ही पनप पाते हैं। एक ही प्रजाति के पेड़ बीमारियों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे कोई बीमारी फैलने पर पूरे जंगल का सफाया हो सकता है। इसके अलावा, कई बार ऐसे पेड़ भी लगाए जाते हैं जो उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं होते, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है।
वनों की बहाली में एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है। जैक रॉबिन्सन अपनी किताब ट्रीवाइल्डिंग (Treewilding) में बताते हैं कि जंगलों की बहाली के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना और वृद्धि करना भी ज़रूरी है। इसके लिए यह समझना भी आवश्यक है कि कौन-सी प्रजातियां किस क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं, और वे स्थानीय समुदायों (local communities) और वन्यजीवों से किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। हलांकि वनों की कटाई को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, लेकिन इसे कम करने और पौधारोपण को सही दिशा में ले जाने के लिए गहन शोध (research) और नियोजन ज़रूरी है।
रॉबिन्सन यह भी कहते हैं कि वृक्षारोपण परियोजनाओं को स्थानीय ज्ञान (local knowledge) के आधार पर संचालित किया जाना चाहिए, जिससे न केवल पेड़ लगाए जाएं बल्कि उनकी देखभाल पर भी ध्यान दिया जाए। ऐसा करने से ही युवा पेड़ सही तरीके से बढ़ सकेंगे और दीर्घकालिक लाभ दे सकेंगे। इसमें एक विशेष बात यह है कि प्राकृतिक पुनर्जनन (natural regeneration) यानी किसी वन को अपने आप पुनः विकसित होने देना, जंगलों को बहाल करने का सबसे प्रभावी तरीका है।
ग्रेट ग्रीन वॉल (Great Green Wall) जैसी कुछ वन बहाली परियोजनाएं काफी उपयोगी रही हैं। इस परियोजना में सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में 8000 किलोमीटर लंबी और 15 किलोमीटर चौड़ी पेड़ों की एक दीवार बनाने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य रेगिस्तान के फैलाव को रोकना, भूमि की गुणवत्ता सुधारना, और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करना है। इस परियोजना में अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं, लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।
इसी प्रकार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की गोंडवाना लिंक परियोजना (Gondwana Link project) 1000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पुराने जंगलों के बिखरे हुए टुकड़ों को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही है। इसका उद्देश्य उन प्रजातियों की रक्षा करना है जो जंगलों के इन छोटे-छोटे हिस्सों में फंसी हुई हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं। जब अलग-अलग क्षेत्रों की प्रजातियां एक-दूसरे के साथ संपर्क में आती हैं, तो उनकी जेनेटिक विविधता (genetic diversity) में सुधार होता है, जो उन्हें पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में मदद करता है। इस परियोजना के तहत 14,500 हैक्टर भूमि पर पेड़ लगाए जा चुके हैं, और इसे कार्बन क्रेडिट (carbon credit) या कर छूट के रूप में निवेशकों से वित्तीय सहायता प्राप्त हो रही है।
रॉबिन्सन अपने काम में पारिस्थितिकी (ecology) को समझने के लिए एक नई तकनीक का भी उपयोग कर रहे हैं, जिसे इकोएकूस्टिक्स (ecoacoustics) कहा जाता है। यह विधि वन्यजीवों और पक्षियों की ध्वनियों का उपयोग करके जंगलों की संरचना और उसमें हो रहे परिवर्तनों को समझने का प्रयास करती है। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे जंगल पुनर्जीवित होते हैं, मिट्टी में छिपे हुए अकशेरुकी जीवों (invertebrates) की संख्या बढ़ती है, जिससे ‘जीवन की एक छिपी हुई ध्वनि’ उत्पन्न होती है।
रॉबिन्सन की किताब ट्रीवाइल्डिंग पर्यावरण और वन पुनर्स्थापना (forest restoration) पर एक अद्भुत अध्ययन है। यह पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है कि जंगलों के संरक्षण (conservation) के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है जो पारिस्थितिकी, स्थानीय समुदायों, और विज्ञान के गहरे परस्पर सम्बंधों को समझ सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-024-02834-3/d41586-024-02834-3_27627640.jpg?as=webp
हाल ही में हुए एक अध्ययन ने चमगादड़ों की संख्या और शिशु मृत्यु दर (infant mortality) के बीच एक अप्रत्याशित सम्बंध का खुलासा किया है – शिशु मृत्यु दर में वृद्धि चमगादड़ों की घटती संख्या से जुड़ी है।
दरअसल, वर्ष 2006 में न्यू इंग्लैंड क्षेत्र में खतरनाक फंगल बीमारी, व्हाइट नोज़ सिंड्रोम (White Nose Syndrome) के कारण बड़े पैमाने पर चमगादड़ों की मौत हो गई थी। चमगादड़ों की आबादी में आई कमी के कारण कीटों (insects) की संख्या में वृद्धि हुई, जिससे किसानों ने अधिक मात्रा में कीटनाशकों (pesticides) का उपयोग किया। साइंस पत्रिका (Science Journal) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, कीटनाशक उपयोग में हुई 31 प्रतिशत की वृद्धि से प्रभावित इलाकों में शिशु मृत्यु दर 8 प्रतिशत बढ़ गई।
गौरतलब है कि चमगादड़ प्राकृतिक कीट नियंत्रक (natural pest control) के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; ये हर रात बड़ी संख्या में कीटों का शिकार करते हैं। कुछ प्रजातियां तो हर रात अपने शरीर के वज़न के 40 प्रतिशत के बराबर कीटों को खा जाती हैं। इस सेवा का मूल्य लगाया जाए तो इतनी मात्रा में कीटों का सफाया करने में प्रति वर्ष 300 अरब से 4000 अरब रुपए का खर्चा बैठता है।
जब कीटों को खाने वाले चमगादड़ कम हो गए तो कीट बढ़ गए और किसानों को कीटनाशकों का सहारा लेना पड़ा। पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ कीटनाशक, खासकर तंत्रिका तंत्र (nervous system) को प्रभावित करने वाले, बच्चों और शिशुओं के लिए गंभीर खतरे का कारण बनते हैं। अध्ययन का दावा है कि कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग का इंसानों (human health), विशेषकर शिशुओं की सेहत पर बुरा असर पड़ा।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने चमगादड़-विहीन क्षेत्रों (bat-free areas) की तुलना चमगादड़-बहुल इलाकों (bat-rich areas) से की। उन्होंने पाया कि जिन क्षेत्रों में चमगादड़ खत्म हो गए थे, वहां कीटनाशकों का उपयोग अधिक था और शिशुओं की बीमारियों तथा जन्मजात विकृतियों (birth defects) के कारण मृत्यु दर में वृद्धि पाई गई। हालांकि, अन्य कारणों से होने वाली मौतों में वृद्धि नहीं देखी गई, जो इस अध्ययन के निष्कर्षों को और भी पुष्ट करते हैं।
हालांकि, उन इलाकों में कीटनाशकों का उपयोग सरकारी नियंत्रण में किया जाता है। फिर भी ये हवा या पानी (air or water contamination) के ज़रिए फैलकर असर कर सकते हैं।
यह अध्ययन इस बात पर ज़ोर देता है और चेताता है कि वन्यजीवों की कमी इंसानों की सेहत (human health) को भी प्रभावित कर सकती है। हालांकि इस मुद्दे पर और शोध की ज़रूरत है।
फिलहाल, चमगादड़ों की संख्या को बढ़ाने के लिए संरक्षण प्रयास जारी हैं, लेकिन इसमें कई दशकों का समय लग सकता है। इस बीच, बीमारी अमरीका के अधिक कृषि क्षेत्रों में भी फैल रही है, जिससे कृषि (agriculture) और मानव स्वास्थ्य पर खतरा मंडरा रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zu56w28/full/_20240905_on_white_nose_bat-1725576038307.jpg
जानवरों के विपरीत, पेड़-पौधे अपने शिकारियों से बचने के लिए भाग नहीं सकते – वे बस एक ही जगह जड़ खड़े रहते हैं। इसलिए पेड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए खुद को असंख्य रासायनिक ‘हथियारों’ (chemical weapons) से लैस किया है।
वैसे तो अपनी जगह से हिल-डुल न पाने के कारण समूचे पेड़-पौधे ही अपने शिकारियों से असुरक्षित होते हैं लेकिन पेड़-पौधों के वे हिस्से जो ज़मीन के नीचे होते हैं, हमलावरों से विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं (underground threats). इनके भूमिगत खतरों की सूची लंबी है – बैक्टीरिया, कवक, कृमि, इल्लियां, घोंघे, चूहे आदि इस सूची में शामिल हैं (soil threats). अचरज न होगा कि सुरक्षा के लिए प्याज़ और लहसुन जैसे पौधों ने हर संभव तरह के सुरक्षा रसायनों से खुद को लैस किया है (onion and garlic, protective chemicals)। ये अपनी भूमिगत गाँठों (बल्बों) में भावी विकास के लिए भोजन (पोषण) संग्रहित करते हैं (bulbs, nutrition storage)।
तेईस सौ रसायन (2300 Chemicals)
हाल ही में, बहुत ही सूक्ष्म रासायनिक विश्लेषण करने वाले उपकरणों की मदद से पड़ताल करने पर पता चला है कि लहसुन की कलियों (या फांकों) में 2300 से अधिक रसायनों की ‘आणविक फौज’ (molecular arsenal) मौजूद होती है। इनमें से अधिकांश रसायनों की उपस्थिति का कारण हम अब तक समझ नहीं पाए हैं। इनमें से बमुश्किल 70 रसायन ही वर्तमान के पोषण चार्ट में शामिल हैं (nutritional chart). लहसुन इनमें से तीन पोषक तत्वों से मुख्य रूप से लबरेज़ है: मैंग्नीज़, सेलेनियम और विटामिन बी-6 (manganese, selenium, vitamin B6)।
लहसुन के कई अन्य घटक – जैसे थायोसल्फिनेट्स, लेक्टिन, सैपोनिन और फ्लेवोनॉइड्स – मनुष्यों में सुरक्षात्मक भूमिका निभा सकते हैं (thyiosulfates, lectins, saponins, flavonoids, protective role)। आश्चर्य की बात नहीं है कि मनुष्यों ने लंबे समय से अपने आहार में लहसुन को शामिल किया है (historical use of garlic)। 4000 साल पुरानी सुमेरियन मृदा तख्तियों में लहसुन के व्यंजनों का उल्लेख मिलता है (Sumerian tablets, garlic recipes)। और कई संस्कृतियों में लहसुन का उपयोग, पौष्टिक महत्व से परे, औषधीय गुणों के चलते किया जाता है (medicinal properties of garlic)।
भारत में (In India)
आयुर्वेद में, लहसुन वाला गर्म दूध (लहसुन क्षीरपाक) सांस सम्बंधी समस्याओं – जैसे दमा, खांसी, सर्दी-ज़ुकाम – में फायदेमंद माना जाता है (Ayurveda, garlic milk benefits)। साथ ही यह शक्तिवर्धक भी माना जाता है। इसी तरह, लहसुनी पानी का उपयोग टॉनिक के रूप में किया जाता है: यह पाचन सम्बंधी एंज़ाइमों के स्राव को उकसा कर पाचन में सुधार करता है, और इसके वातहारी गुण गैस बनने की समस्या को कम करते हैं (digestive tonic, garlic water benefits)।
लहसुन एवं सम्बंधित प्रजातियों के अन्य मसालों की खासियत है इनकी तीखी महक (pungent odor). यह महक इनमें सल्फर युक्त यौगिक से आती है (sulfur compounds)। लहसुन की खास महक एलिसिन (Allicin) नामक रसायन से आती है। लेकिन साबुत लहसुन या उसकी साबुत कली में एलिसिन मौजूद नहीं होता है (allicin formation). एलिसिन तो लहसुन में तब बनता है जब उसमें मौजूद एलिनेज़ (Alliinase) नामक एंज़ाइम गंधहीन एलीन (Alliin) से क्रिया करता है (enzyme reaction, alliin). जब हम लहसुन को काटते, कूटते, कुचलते या चबाते हैं तब ये दोनों (एलिनेज़ और एलीन) संपर्क में आते हैं और उनकी परस्पर क्रिया के फलस्वरूप एलिसिन बनता है (garlic preparation).
एलिसिन, ट्राइजेमिनल (trigeminal) तंत्रिका में संवेदी न्यूरॉन्स पर पाए जाने वाले ग्राहियों के साथ जुड़ता है (sensory neurons). ये ग्राही मुंह और नाक की संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं (sensory receptors)। लहसुन की तीखी महक ग्राहियों से इसी जुड़ाव का नतीजा है (pungent sensation)।
एलिसिन और लहसुन के अन्य घटक जैसे डायलिल डाईसल्फाइड शोथ को प्रभावित करते हैं (diallyl disulfide, inflammation). इसके लाभकारी प्रभावों में रक्तचाप का नियंत्रण और हृदय सम्बंधी स्वास्थ्य का ख्याल रखना शामिल हैं (blood pressure control, heart health)। एक अन्य घटक, फ्लेवोनॉइड ल्यूटिओलिन, एमिलॉयड बीटा प्लाक के बनने को और उसके एक जगह जुटने को रोकता है (flavonoid luteolin, amyloid beta plaque); एमिलॉयड बीटा प्लाक का जमघट अल्ज़ाइमर रोग की प्रमुख निशानी है (Alzheimer’s disease).
लहसुन पर केंद्रित शोध भविष्य में लहसुन में पाए जाने वाले कई अन्य रसायनों की भूमिकाओं को उजागर कर सकते हैं (future research, garlic chemicals)। संभव है कि इनमें से कुछ रसायन, अकेले ही या किसी अन्य रसायन के साथ, मानव स्वास्थ्य की बेहतरी में योगदान देते हों (health benefits). लेकिन वर्तमान में हमें यह मालूम है कि लाभ के लिए हमारे आहार में लहसुन का संतुलित मात्रा में उपयोग महत्वपूर्ण है (balanced consumption). ताकि इसकी अति के चलते होने वाले सीने में जलन और दस्त जैसे दुष्प्रभावों से बचा जा सके (side effects, heartburn, diarrhea)। कुछ चिकित्सकों का कहना है कि हर दिन चार ग्राम सही मात्रा है (recommended dosage, 4 grams daily)।
भारत, लहसुन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है (India, second largest producer of garlic)। लहसुन की बढ़िया किस्में (जैसे रियावन लहसुन) मध्य प्रदेश के नीमच और रतलाम से आती हैं (Riyavan garlic, Neemuch, Ratlam); मध्य प्रदेश लहसुन का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है (largest producer state)। दक्षिण भारत में, कर्नाटक के गदग की लहसुन की स्थानीय किस्में अपने तेज़, और तीखे स्वाद और सुगंध के कारण खूब बिकती हैं (Gadag garlic, Karnataka). और फिर कई कश्मीरी किस्में भी हैं (Kashmiri varieties).
आप चाहें जिस भी किस्म के लहसुन इस्तेमाल करें, थोड़ा सा लहसुन ज़ायका बढ़ा सकता है और आपको सेहतमंद रखने में मदद कर सकता है (garlic benefits, enhance taste). (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/latest-news/k9c810/article68591155.ece/alternates/FREE_1200/Garlic.jpg
केंद्र सरकार ने हाल ही में 156 नियत खुराक संयोजनों (फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन ड्रग्स या एफडीसी) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगाया है। विशेषज्ञ समितियों के मुताबिक ये एफडीसी बेतुके हैं या चिकित्सा की दृष्टि से इनका कोई औचित्य नहीं हैं (medical necessity)।
लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जून 2023 में केंद्र सरकार ने 14 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया था (drug bans)। और 2016 से अब तक लगभग 500 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। ये प्रतिबंध क्यों?
लेकिन पहले यह देखते हैं कि एफडीसी औषधियां या नियत खुराक संयोजन क्या हैं? नियत खुराक संयोजन (एफडीसी) ऐसी औषधियां होती हैं जिसमें एक गोली, कैप्सूल, या शॉट में दो या दो से अधिक औषधियां या दवाएं एक साथ होती हैं (fixed dose combinations)। उदाहरण के लिए, पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन। यदि पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन को मिलाते हैं तो यह एक एफडीसी है, यह संयोजन कॉम्बिफ्लेम में होता है (Combiflam)। किसी समय में हमारे यहां एक-एक एफडीसी में 10-10 दवाओं का मिश्रण हुआ करता था और आज भी ऐसी दवाइयां प्रचलन में है, जिनकी वास्तव में कोई ज़रूरत न तब थी और न आज है (medicinal needs)।
एक सवाल यह उठता है कि सिर्फ भारत में इतने बेतुके दवा संयोजन देखने को क्यों मिलते हैं? दरअसल 70, 80 और 90 के दशक में, भारत विश्व के (कम से कम विकासशील विश्व के) लिए ‘दवा सप्लायर’ बनने की राह पर था और आज भी है और खूब प्रगति कर रहा था (pharmaceutical supplier)। उस समय देश में औषधि निर्माण के कायदे-कानून इतने सख्त नहीं थे जितने सख्त होने चाहिए थे। दवा निर्माताओं ने इसका फायदा उठाया। कैसे?
भारत में नई दवा को बाज़ार में लाने की सामान्य प्रक्रिया यह है कि किसी भी नई औषधि के लिए आवेदन और ज़रूरी जानकारी केंद्र सरकार के संगठन, सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड्स कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (CDSCO), को दिया जाता है (CDSCO approval)। CDSCO की विशेषज्ञ समिति इस पर विचार करके इसे मंज़ूर (या नामंज़ूर) करती है। CDSCO से मंज़ूरी मिल जाने के बाद, दवा निर्माता को इस दवा निर्माण के लिए राज्य लायसेंसिंग अधिकारी से लायसेंस प्राप्त करना होता है (state licensing authority)। लायसेंस मिलने के बाद ही उसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है।
अब, 70-80-90 के दशक में हुआ यह कि कई निर्माता केंद्रीय प्राधिकरणों से इनकी जांच-परख कराने और मंज़ूरी लेने की ज़हमत उठाने की बजाय लाइसेंस के लिए सीधे लायसेंसिंग प्राधिकरण के पास चले जाते थे (regulatory authorities)। वास्तव में, राज्य लायसेंसिंग प्राधिकरण को पूछना चाहिए था कि क्या आपको केंद्रीय प्राधिकरण से मंज़ूरी मिल गई है (central approval)? लेकिन वे नहीं पूछते थे। तो, निर्माताओं ने इस ढीले-ढाले रवैये का फायदा उठाया और अपनी मनचाही औषधियों का निर्माण किया (manufacturing practices)। और इस तरह जांच-परख के अभाव में कई बेतुकी और बिना किसी औचित्य की दवाएं बाज़ार में आ गईं (market regulations)।
चूंकि तब भारतीय फार्मा उद्योग खूब फल-फूल रहा था, जो अभी भी उत्तरोत्तर बढ़ ही रहा है (Indian pharmaceutical industry), इसलिए इतनी सारी औषधियां बाज़ार में लाने को एक जश्न की तरह देखा गया। और इस तरह दवा निर्माता अधिकाधिक औषधियां बाज़ार में लाते गए (market expansion)।
वे सिर्फ शॉर्टकट से अत्यधिक औषधियां नहीं लाए, बल्कि उन्होंने कई विवादास्पद दावे भी किए। जैसे एफडीसी में आपको एक से अधिक ऐसी दवाइयां मिलेंगी जो आपके लिए बेहतर है (product claims)। लेकिन किसी ने उन दावों पर सवाल नहीं उठाए। और तो और, (कुछ भले लोगों को छोड़कर) डॉक्टरों, चिकित्सा पेशेवरों, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे ज़िम्मेदार समूहों तक ने इन पर सवाल नहीं उठाए (medical professionals, Indian Medical Association)।
बाज़ार में एफडीसी की बाढ़ लाने में एक कारण कीमत भी है (drug pricing)। दरअसल, एफडीसी औषधियां बनाकर निर्माता (एकल) औषधियों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम मूल्य से बच निकलते हैं (price control regulations)। फिलहाल, भारत में राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची (NLEM) में शामिल 384 दवाइयां मूल्य नियंत्रण के दायरे में हैं (NLEM list)। लेकिन 80-90 के दशक में, बहुत कम औषधियां मूल्य नियंत्रण के अधीन थीं; बाज़ार में मौजूद कुल औषधियों में से लगभग 5-10 प्रतिशत। आज भी यह अधिक से अधिक 20 प्रतिशत है (market share, drug pricing controls)।
अब यदि निर्माता NLEM में शामिल औषधि के मूल्य नियंत्रण से बचना चाहते हैं तो रास्ता आसान है; औषधि में कैफीन जैसी कोई चीज़ जोड़कर इसके निर्माण के लिए अनुमोदन ले लिया जाए (exemptions from price control)। यह मिश्रण दवा मूल्य नियंत्रण से बाहर हो जाएगी (price control exemptions)।
इसके अलावा, यदि पैरासिटामॉल की 500 मि.ग्रा. की गोली NLEM सूची में है, तो निर्माता इसका पैरासिटामॉल 501 मि.ग्रा. संस्करण बनाकर मूल्य नियंत्रण से बाहर निकल सकते हैं (dosage variations)। क्योंकि मूल्य नियंत्रण सिर्फ औषधियों की विशेष शक्ति पर लागू होता है। इसका वास्तविक उदाहरण है बाज़ार में मौजूद पैरासिटामॉल 1000 मि.ग्रा. (high dosage forms)। पैरासिटामॉल का यह अनुचित डोज़ है, लेकिन इसे मंज़ूरी मिली हुई है, बाज़ार में उपलब्ध है और यह मूल्य नियंत्रण से बाहर है (market availability, price control). तो, बस खुराक बदलकर, या एक या अधिक सामग्री जोड़कर निर्माता इसे एक नई दवा कहते हैं और मूल्य नियंत्रण से बच निकलते हैं (regulatory loopholes, price control evasion)।
सिर्फ इतना ही नहीं, दवा निर्माता अपनी महंगी दवाइयों को खरीदने के लिए लोगों को बेतुके तर्क देकर बरगलाते भी हैं (marketing tactics)। जैसे वे इन महंगी दवाओं को यह कहकर बेचते हैं कि हम आपको एक से अधिक समस्याओं के लिए एक साथ दो दवाएं दे रहे हैं (product benefits, combination drugs)।
सवाल उठता है कि आखिर क्या एफडीसी कभी उपयुक्त भी होते हैं या हमेशा बेतुके होते हैं (appropriateness of FDCs)? ऐसा नहीं हैं। कुछ मामलों में एफडीसी उपयोगी होते हैं। जैसे तब जब उनमें उपस्थित घटक लगभग हमेशा साथ-साथ देना ज़रूरी होता है (functional combinations)। जीवन रक्षक घोल (ओआरएस) एक उदाहरण है (ORS solution)। इसमें मिलाए गए घटक डीहायड्रेशन कम करने, दस्त की रोकथाम वगैरह में ज़रूरी हैं। इसके अलावा, कई घटक एक-दूसरे की क्रिया में मददगार होते हैं। इस स्थिति में इन्हें सिनर्जिस्टिक कहते हैं (synergistic effects)। यदि किसी एफडीसी के घटक सिनर्जिस्टिक हैं तो उसे तर्कसंगत कहा जा सकता है (rational use of FDCs)।
फिर, एफडीसी के घटकों की जैव-उपलब्धता (bioavailability) पर विचार करना होगा। यानी यदि दो या दो से अधिक औषधियां सम्मिलित रूप में परोसी जा रही हैं तो उन्हें लगभग एक ही समय में रक्त में चरम पर होना चाहिए (pharmacokinetics)। लेकिन अधिकांश एफडीसी में शामिल दवाइयों के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए, ऐसे मिश्रण तर्कहीन हैं (inappropriate combinations)।
वास्तव में, NLEM, 2022 में तकरीबन 384 ज़रूरी दवाइयों में से केवल 22 एफडीसी ही इस सूची में है (essential medicines list, NLEM)। चूंकि ये NLEM में है, इसलिए इन 22 एफडीसी को तर्कसंगत माना जा सकता है (approved FDCs)।
एक अनुमान है कि लगभग 800-900 अणु औषधीय उपयोग के लिए उपलब्ध हैं (drug molecules)। इनमें से कई औषधियों के निर्माण आदि सम्बंधी जानकारी एवं इनकी गुणवत्ता की जांच के तरीके भारतीय फार्माकोपिया व अन्य बेहतर नियंत्रित देशों के फार्माकोपिया में वर्णित हैं (pharmacopoeia standards)। एकल घटक औषधियों की गुणवत्ता या कारगरता परख के लिए अधिकतम 20 मानदंड हैं जिन पर खरा उतरना आवश्यक है। लेकिन यदि दो या अधिक घटकों का संयोजन कर दिया जाता है, तो हमारे पास इन संयोजनों की गुणवत्ता या कारगरता को जांचने-परखने के कोई मानक मानदंड नहीं है (combination standards, quality assessment)। क्योंकि इनका फार्माकोपिया में कोई उल्लेख नहीं है। नतीजा, एफडीसी के निर्माता ही हमें संयोजन के परीक्षण के तरीके बताते हैं (manufacturer claims)। इन पर निगरानी रखने वाले विशेषज्ञों के पास इन तरीकों को जांचने के लिए न तो समय होता है और न ही सुविधा (regulatory oversight)। नतीजतन, इन एफडीसी औषधियों की गुणवत्ता और कारगरता के बारे में कुछ कहना जटिल मामला हो जाता है (complexity in assessment)। और फिर, किसी ने इन पर पर्याप्त शोध भी नहीं किए हैं। NLEM में शामिल 22 संयोजनों पर ही पर्याप्त शोध हुए हैं (research gaps, studies on FDCs)।
उपरोक्त कारणों से बाज़ार में तर्कहीन एफडीसी की भरमार है (excess of irrational FDCs)। इनमें एंटीबायोटिक्स, दर्दनिवारक या मधुमेह-रोधी इत्यादि के संयोजन भी मौजूद हैं (antibiotic combinations, painkillers, antidiabetic drugs)। जैसे, एंटीबायोटिक और दर्दनिवारक, एंटीबायोटिक और एंटी-कोलेस्ट्रॉल, एंटीबायोटिक और एंटी-ब्लडप्रेशर, इत्यादि (antibiotic and painkiller, antibiotic and anti-cholesterol, antibiotic and anti-hypertension)। ये एफडीसी अलग-अलग उपचारात्मक वर्ग की औषधियों के मिश्रण हैं (therapeutic classes of drugs).
होता यह है कि (एफडीसी की भरमार के कारण) कई बार कोई रोगी दो, तीन या दस दवाओं के संयोजन वाली औषधि खा रहा होता है, जबकि उसे सिर्फ एक ही औषधि की ज़रूरत थी (excessive drug combinations)। जैसे, लोग दर्द के लिए कॉम्बिफ्लेम (पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन का संयोजन) लेते हैं (Combiflam, paracetamol and ibuprofen combination)। जबकि दर्द के लिए आपको सिर्फ पैरासिटामॉल की ज़रूरत है, इबुप्रोफेन की नहीं है (need for only paracetamol)। इसलिए, जब आप दर्द में कॉम्बिफ्लेम ले रहे हैं, तो आपको इबुप्रोफेन के प्रतिकूल प्रभाव होते हैं (adverse effects of ibuprofen)। इसी तरह, जब आप एफडीसी के चलते बेवजह पैरासिटामॉल खाते हैं तो लीवर की क्षति और अन्य समस्याएं हो सकती हैं (liver damage, unnecessary paracetamol intake)। अनावश्यक रूप से ज़्यादा दवाएं खा लेने के अपने साइड-इफेक्ट और प्रतिकूल प्रभाव होते हैं (side effects, adverse reactions)। इसलिए एफडीसी रोगी के जीवन को जटिल बना रही हैं (complications from FDCs)।
अब थोड़ा बाज़ार में इनकी बिक्री की स्थिति देखते हैं। एक आंकड़ा है कि भारत में दवाओं की कुल बिक्री का लगभग 50 प्रतिशत एफडीसी हैं और 50 प्रतिशत एकल घटक दवाएं हैं (market share of FDCs and single ingredient drugs)। ऐसा पाया गया है कि इस 50 प्रतिशत एफडीसी में से आधी बिक्री तो तर्कसंगत एफडीसी की है और शेष तर्कहीन एफडीसी की (rational vs irrational FDCs)। यानी बाज़ार में कम से कम 25 प्रतिशत तर्कहीन एफडीसी बिक रही हैं (percentage of irrational FDCs)。
वर्तमान में, भारत में औषधियों का बाज़ार लगभग 2 लाख करोड़ (2 ट्रिलियन) रुपए का है (pharmaceutical market size, 2 trillion INR)। इसमें से 25 प्रतिशत यानी 50,000 करोड़ रुपये तर्कहीन एफडीसी की खपत से आते हैं (market value of irrational FDCs)। यदि इन्हें बाज़ार से हटा दिया तो ज़ाहिर है, दवा की बिक्री में भारी गिरावट आएगी (impact on market sales)। बाज़ार तो इन दवाओं के हटाने तो तैयार नहीं होगा, न ही शेयरधारक क्योंकि उन्हें अपने निवेश पर रिटर्न चाहिए (shareholder interests, market resistance)。
तर्कहीन एफडीसी को बाज़ार से हटाने के लिए ज़रूरत है सरकार के स्तर पर उचित कार्रवाई की, उचित प्रक्रिया अपनाने की और सख्त नियम-कानून लागू करने की और उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई की (government intervention, regulatory measures, strict enforcement)। यदि पहले से ही दवाओं का निर्माण उचित मंज़ूरी प्रक्रिया से गुज़रा होता और ऐसा न होने पर कंपनियों पर सख्त दंड लगाया गया होता तो यह नौबत न होती (approval process, penalties for non-compliance)। बस कुछ-कुछ समय के अंतराल में तर्कहीन दवाएं ढूंढकर उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है (ban on irrational drugs, periodic monitoring)। होता यह है कि दवा कंपनियां इन प्रतिबंधों को निरस्त करवाने या स्थगन आदेश के लिए न्यायालय जाती हैं और न्यायालय की कार्रवाई में सालों-साल बीत जाते हैं (legal battles, court delays)। तब तक ये बेतुकी दवाइयां बाज़ार में बिकती रहती हैं (availability of irrational drugs in the market)। दरअसल, इस मामले में औषधि नियामकों और दवा उद्योग, दोनों को दोषी माना जाना चाहिए (responsibility of regulators and pharmaceutical industry)।
ऐसा ही मार्च 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नियुक्त कोकते कमेटी द्वारा 344 एफडीसी पर लगाए गए प्रतिबंध का मामले में हुआ था (March 2016, Kokate Committee). कोकते समिति ने करीब 6000 एफडीसी की जांच की थी (review of 6000 FDCs)। समिति ने इन एफडीसी को चार श्रेणियों में डाला था (categories of FDCs)। पहली श्रेणी में 344 एफडीसी थीं जो निश्चित रूप से तर्कहीन थीं और इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को कहा गया था (irrational FDCs, complete ban)।
दूसरी श्रेणी में ऐसी औषधियां थीं जिन पर अधिक डैटा की आवश्यकता थी (more data required)। और कंपनियों को इन पर अधिक डैटा प्रस्तुत करने के लिए समय दिया गया (extended deadline for data submission)। तीसरी श्रेणी तर्कसंगत एफडीसी की थी (rational FDCs)। वे उचित कागज़ी कार्रवाई के बाद इनका निर्माण विपणन जारी रख सकती थीं (market approval with proper documentation)। और चौथी श्रेणी में, वे एफडीसी थीं जिनकी तर्कसंगतता के बारे में कुछ कहने से पहले विपणन-पश्चात निगरानी, परीक्षण आदि की आवश्यकता थी (post-marketing surveillance required)।
लेकिन कंपनियां एकदम तर्कहीन 344 एफडीसी के मामले में तुरंत न्यायालय चली गईं (court cases against irrational FDCs)। न्यायालय ने सरकार को दोबारा जांच समिति बनाने का निर्देश दिया ताकि दवा उद्योग की राय पर फिर से विचार किया जा सके (court directives for re-evaluation)। डॉ. नीलिमा क्षीरसागर की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने भी सितंबर 2018 में प्रतिबंध को जायज़ ठहराया (September 2018, Dr. Neelima Kshirsagar Committee)। लेकिन कंपनियां फिर से अदालत पहुंच गईं (legal challenges by companies)। कंपनियां झुकने को तैयार नहीं होती हैं, भले ही उन्हें पता होता है कि दवाओं पर जो प्रतिबंध लगे हैं वे एकदम सही हैं (resistance to bans, valid restrictions)। कुछ को लगता है तर्कहीन एफडीसी से अच्छा मुनाफा मिलता है इसे हाथ क्यों जाने दें, इसलिए केस लड़ती हैं (profit from irrational FDCs, legal battles)। साथ में वकीलों को लाभ होता है (benefits to lawyers)। मुकदमा चलता रहता है और प्रतिबंधित एफडीसी बाज़ार में बिकती रहती हैं (market availability of banned FDCs)। प्रसंगवश यह बताया जा सकता है कि 2016 में हाई कोर्ट और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में इन कंपनियों की पैरवी देश के नामी-गिरामी वकीलों ने की थी (notable lawyers in High Court and Supreme Court cases)। ताज़ा आदेश के सिलसिले में भी कंपनियां कोर्ट से कुछ राहत पाने में सफल रही हैं (recent court relief).
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत में निगरानी व्यवस्था अपर्याप्त है, और जो कुछ है उसका पालन घटिया दर्जे का है (insufficient regulatory oversight, poor enforcement)। और इसलिए कंपनियां जो चाहें कर रही हैं (industry malpractices)। वर्तमान में देखें तो हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के पास एक अच्छी दवा नीति है, जो उन्होंने 1982 में लागू की थी (Bangladesh drug policy, 1982)। उन्होंने बहुत सी तर्कहीन दवाइयों को हटा दिया था (removal of irrational drugs in Bangladesh)। वहां सामान्यत: केवल तर्कसंगत एकल घटक वाली दवाइयां ही उपलब्ध होती हैं (availability of rational single-ingredient drugs)। तो, जहां चाह है, वहां राह है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://economictimes.indiatimes.com/thumb/msid-51433877,width-1200,height-900,resizemode-4,imgsize-104148/move-to-ban-fixed-dose-combinations-a-culmination-of-efforts-to-free-market-from-irrational-drugs.jpg?from=mdr
एक सूक्ष्म चपटा कृमि है जो क्लोनिंग (cloning) के ज़रिए हज़ारों कृमियों की फौज बना लेता है। हैप्लोर्किस प्यूमिलियो (Haplorchis pumilio) नामक ये कृमि घोंघे को संक्रमित (infect) करते हैं और उसके प्रजनन अंगों की दावत उड़ाते हैं। अंतत: वह घोंघा वंध्या हो जाता है। ये चपटे कृमि दो-चार हफ्ते नहीं, सालों तक वहां बने रहते हैं और घोंघे के खून में से पोषण चूसते रहते हैं और अपने क्लोन बनाते रहते हैं। यानी यह घोंघा परजीवी-निर्माण कारखाना (parasite factory) बनकर रह जाता है।
और क्रूरता यहीं समाप्त नहीं होती। जहां अधिकांश कृमि प्रजनन के बाद अपने लार्वा (larvae) को झीलों या नदी-नालों (ponds or rivers) में छोड़ देते हैं ताकि वे नए शिकार तलाश सकें, वहीं इस परजीवी के कुछ लार्वा प्रजनन के अयोग्य होते हैं और पानी में जाने की बजाय वहीं बने रहते हैं। ये सैनिकों (soldiers) के रूप में भूमिका निभाते हैं और इनके गले बड़े-बड़े होते हैं।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences) में शोधकर्ताओं (researchers) ने बताया है कि ये अन्य प्रतिस्पर्धी परजीवियों के शरीर में छेद कर देते हैं और उनकी आंतों को चूस लेते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इन कृमियों में सामाजिक व्यवस्था (social structure) का द्योतक है। वैसे तो मधुमक्खियों और चींटियों जैसे जंतुओं में सामाजिक विभेदन देखने को मिलता है लेकिन ट्रेमेटोडा वर्ग (Trematoda class) के कृमियों में यह पहली बार देखा गया है। पहले के शोधकर्ताओं का विचार था कि ये सैनिक कृमि जीवन में कभी ना कभी प्रजनन करते होंगे।
हैप्लोर्किस प्यूमिलियो को लेकर यह खोज संयोग और सोच-समझकर किए गए प्रयोगों (experiments) का मिला-जुला परिणाम है। एक झील के पास टहलते हुए परजीवी वैज्ञानिक (parasitologist) डैन मेट्ज़ की नज़र एक अजीब से घोंघे पर पड़ी। उन्होंने इसे पहचान लिया – यह मलेशिया मूल का ट्रम्पेट घोंघा (Melanoides tuberculata) था। वे इसे प्रयोगशाला (laboratory) में ले आए। वहां जब उसे सूक्ष्मदर्शी के नीचे एक तश्तरी में रखा तो देखा कि उसमें से परजीवी निकल-निकल कर आसपास तैर रहे हैं।
मेट्ज़ ने पहचान कर ली कि ये परजीवी एच. प्यूमिलियो हैं। जांच करने पर पता चला कि कृमि के अंदर बच्चे भरे हुए हैं। खुद कृमि लगभग 1 मिली मीटर लंबा था। कुछ छोटे कृमि भी थे जो सामान्य साइज़ का मात्र 5 प्रतिशत थे यानी 1 मिलीमीटर का बीसवां भाग। लेकिन छोटे होने के बावजूद उनके मांसल गले विशाल थे – पूरे शरीर का लगभग एक-चौथाई। मेट्ज़ का विचार था कि ये सैनिक होंगे।
अगला कदम था परजीवियों की कुश्ती। मेट्ज़ ने एच. प्यूमिलियो के सैनिकों को अन्य परजीवी कृमि प्रजातियों (parasite species) के साथ रखा। वे प्रजातियां भी आम तौर पर घोंघों को संक्रमित करती हैं। सैनिक इन पराए कृमियों के पास गए, अपना मुंह उनसे चिपकाया और गले को फुलाया। इसकी वजह से निर्वात उत्पन्न हुआ जिसके चलते बड़े परजीवियों के शरीर में छेद हो गए। इस छेद के ज़रिए सैनिकों ने उस परजीवी की आंतों को चूसकर बाहर निकाला और खा गए। लेकिन अजीबोगरीब बात यह देखी गई कि जब इन सैनिकों को उन्हीं की प्रजाति के अन्य सदस्यों के साथ रखा गया तो उन्होंने अपने प्रजननक्षम सहोदरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।
इन सैनिकों में प्रजनन अंग (reproductive organs) भी नहीं पाए जाते और आजीवन वे वंध्या अवस्था में ही रहते हैं। यानी ये इसी रक्षात्मक भूमिका (defensive role) के लिए तैयार हुए हैं। इसके आधार पर मेट्ज़ का विचार है कि यह वास्तविक सामाजिक व्यवस्था का लक्षण है जैसी कि मधुमक्खियों, चींटियों, दीमकों वगैरह में पाई जाती है।
एच. प्यूमिलियो का यह फौजी जमावड़ा (military group) काफी मददगार साबित होता है। 2021 में मेट्ज़ और उनके साथियों मे 3164 एम. ट्यूबरकुलेटा घोंघों का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने देखा कि एच. प्यूमिलियो ने घोंघों पर पूरा कब्ज़ा कर लिया था। ऐसे मामले बिरले ही थे जहां घोंघों को किन्हीं अन्य प्रजातियों ने संक्रमित किया हो। और तो और, जिन मामलों में अन्य प्रजातियों ने घोंघों को संक्रमित किया था, उनमें भी एच. प्यूमिलियो का ही वर्चस्व (dominance) दिखा। लड़ाइयों में एच. प्यूमिलियो सैनिक कभी नहीं मारे गए, बल्कि वे ही हमेशा किसी और को मारते दिखे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zngo9b5/abs/_20240729_on_soldier-parasite_v2.jpg
अंतरिक्ष का यात्रा का अवसर मिलना एक दुर्लभ घटना है। दुनिया के अरबों लोगों में से अब तक सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही अंतरिक्ष यात्रा (space travel) का मौका मिला है। इसकी शुरुआत 12 अप्रैल 1961 को रूस के यूरी गागरिन की अंतरिक्ष यात्रा के साथ हुई थी। पिछले 63 सालों से कुछ ज़्यादा की अवधि में मोटे तौर पर दुनिया भर के सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही यह मौका मिला है। ये 600 व्यक्ति भी गिने-चुने देशों के रहे हैं। अब तक दुनिया के सिर्फ तीन देश रूस, अमेरिका और चीन ही मानव सहित अंतरिक्ष यान (manned spacecraft) भेज सके हैं।
अंतरिक्ष यात्रा एक दुर्लभ क्षेत्र है और अंतरिक्ष यात्री (astronaut) के रूप में उन्हीं का चयन होता आया है जो अन्य योग्यताएं पूर्ण करने के साथ-साथ शारीरिक रूप से फिट हों। ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरिक्ष में स्वास्थ्य सम्बंधी अनेक खतरों की संभावना रहती है। वहां सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण और भारहीनता (microgravity, weightlessness) की स्थितियों में रहना पड़ता है जिनके कारण शरीर में बदलाव आ जाते हैं। इनके प्रभाव पृथ्वी पर लौट आने के बाद भी काफी समय तक बने रहते हैं। कमज़ोर शरीर या स्वास्थ्य वाले व्यक्ति के लिए अंतरिक्ष यात्रा के स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे घातक हो सकते हैं। अच्छी शारीरिक स्थिति और अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को भी अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुने जाने के बाद गहन परीक्षणों और अनुकूलन प्रशिक्षण (adaptation training) से गुज़रना होता है।
इन सब कारणों से अब तक किसी विकलांग व्यक्ति को अंतरिक्ष यात्रा पर भेजने पर विचार तक नहीं किया गया था।
अब युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) ने एक अनोखी पहल करते हुए एक ब्रिटिश डॉक्टर और पैरालिंपियन जॉन मैकफॉल का चयन दुनिया के पहले पैरा-एस्ट्रोनॉट (parastronaut) के रूप में किया है। अंतरिक्ष यात्रा के लिए वे दुनिया के पहले विकलांग उम्मीदवार (disabled astronaut) हैं।
सेना में करियर बनाने के इच्छुक जॉन मैकफॉल 19 साल की उम्र में थाईलैंड यात्रा के दौरान एक मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गए थे जिसके कारण उनका दायां पैर घुटने के ऊपर से काटना पड़ा। उन्हें कृत्रिम पैर (prosthetic leg) लगाया गया था।
रोहेम्पटन हॉस्पिटल की विकलांग पुनर्वास विंग में ‘अवसर’ शीर्षक से उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसका समापन उन्होंने इन पंक्तियों के साथ किया था:
“जो आंसू इस पन्ने को भिगो रहे हैं,
वे मायूसी के नहीं हैं
और न ही हताशा या अपराधबोध के हैं,
अपितु इस बात को नज़रअंदाज़ करने का पागलपन है
कि मेरा दिल अब भी धड़क रहा है
और मैं जिस दरवाज़े की ओर कदम बढ़ा रहा हूं
उसके पीछे एक अवसर (opportunity) खुलने को है।”
जॉन मैकफॉल अपनी कविता में आपदा में अवसर की बात कर रहे थे। लेकिन सामान्य तौर पर भी विकलांग व्यक्तियों के जीवन में यह शब्द ‘अवसर’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। विकसित पश्चिमी देशों और पिछड़े एवं विकासशील देशों के विकलांग व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता के बीच सारा अंतर सामाजिक दृष्टि से ‘अवसर’ के अंतर के कारण है। विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज में स्वीकार्यता और सकारात्मक रवैया हो और साथ ही समाज में उन्हें गैर-विकलांग व्यक्तियों के समान अवसर (equal opportunity) मिलें और उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो तो वे न सिर्फ अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए समाज के उपयोगी सदस्य बन सकते हैं बल्कि ऐसे कार्य भी कर सकते हैं जिनसे सारे समाज को लाभ मिले। समाज में समानता और समावेशन (inclusion) उनका अधिकार है।
जॉन मैकफॉल ने अपने बुरे दौर में खेलों में भाग लेना शुरू किया था। पैर खोने के आठ साल बाद उन्होंने 2008 के बीजिंग ओलंपिक (Beijing Olympics) में भाग लिया और 100 मीटर रेस में कांस्य पदक (bronze medal) जीता। इसके बाद अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने कार्डिफ यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन (Cardiff University, School of Medicine) से एमबीबीएस (MBBS) की डिग्री हासिल की और ऑर्थोपेडिक सर्जन (orthopedic surgeon) बने। आगे उन्होंने विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान (medical science), खेल आदि कई विषयों में और पढ़ाई की। बीजिंग ओलंपिक के अलावा भी उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पदक जीते। दौड़ के अलावा कई साहसिक खेलों (adventure sports) में भी वे भाग लेते रहे। विज्ञान में शिक्षा और खेलों से मिली फिटनेस (fitness) ने उन्हें पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में चयन का पात्र बनाया।
बीजिंग ओलंपिक के बाद क्रिसमस पर उनके पिता ने उन्हें एक एटलस भेंट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था: “बेटा, हमेशा अतिरिक्त प्रयास करो। जीवन तुम्हें पुरस्कृत करेगा।” यह जॉन मैकफॉल का ‘अचेतन मंत्र’ बन गया।
“पैरा-एस्ट्रोनॉट फिज़िबिलिटी प्रोग्राम” (Parastronaut Feasibility Program) में जॉन मैकफॉल को कक्षा में आपातकालीन प्रक्रियाएं पूरी करने की क्षमता और सूक्ष्म-गुरुत्व (microgravity) में अपने आप को स्थिर रखने की क्षमता के बारे में कई महीनों का कठोर प्रशिक्षण प्रदान किया गया है। यदि उन्हें अंतरिक्ष यात्रा (space mission) पर भेजा जाता है तो वे चालक दल (crew) के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे। साथ ही अंतरिक्ष यात्रा का उनकी विकलांगता और उनके कृत्रिम अंग (prosthetic limb) पर पड़ने वाले प्रभावों का भी परीक्षण किया जाएगा। चूंकि वे चालक दल के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, इसीलिए वे स्वयं को “पैरा-एस्ट्रोनॉट” की बजाय “एस्ट्रोनॉट” (astronaut) संबोधित किए जाने की वकालत करते हैं। उनका तर्क है कि वे एक “पैरा-सर्जन” और “पैरा-डैड” नहीं बल्कि एक सामान्य चिकित्सक (सर्जन) और सामान्य पिता हैं।
युरोपियन स्पेस एजेंसी (ESA) ने पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में जॉन मैकफॉल का चयन गहन वैज्ञानिक परीक्षण (scientific evaluation) के उद्देश्य से किया है। साथ ही ऐसा करके युरोपियन स्पेस एजेंसी ने सामाजिक दृष्टि से एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ओर दुनिया के अधिकांश देशों में जहां विकलांग व्यक्ति समाज में स्वीकार्यता, समानता (equality), अवसर, भागीदारी और समावेश के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, विकसित यूरोपीय देश, अमेरिका और जापान समावेशी समाज निर्मित करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं। युरोपियन स्पेस एजेंसी में 22 सदस्य देश (member countries) हैं। एजेंसी द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए विकलांग व्यक्ति का चयन करने का अर्थ है ये 22 देश विकलांग व्यक्तियों के प्रति शेष दुनिया से ज़्यादा संवेदनशील, सकारात्मक रवैये वाले और समावेशी समाज (inclusive society) निर्मित करने के प्रति ईमानदार हैं। ये देश न सिर्फ धरती पर बल्कि अंतरिक्ष में भी समावेशन की दिशा में कदम उठा रहे हैं। वैज्ञानिक उन्नति (scientific progress) के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ इस सामाजिक आयाम का समावेशन इस पहल को और अधिक महत्वपूर्ण बनाता है। शेष दुनिया को इससे प्रेरणा लेते हुए कम से कम अपनी धरती पर समावेशी समाज निर्मित करने के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए।
जॉन मैकफॉल की अंतरिक्ष की उड़ान सचमुच हौसलों की उड़ान (flight of courage) होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.moneycontrol.com/static-mcnews/2024/08/20240831152001_jpgtopngconverter-com-4.jpg?impolicy=website&width=770&height=431