विलुप्ति की कगार पर थार रेगिस्तान

ई सदियों से दक्षिण एशियाई मानसून ने भारत में जीवन को लयबद्ध किया है। इसके प्रभाव से हमेशा से पूर्वी क्षेत्र हरा-भरा रहा है जबकि पश्चिम में स्थित विशाल थार रेगिस्तान सूखा रहा है। इस जलवायु ने अनेकों सभ्यताओं और संस्कृतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अब इस जलवायु पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हालिया अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्तमान मौसम के पैटर्न में परिवर्तन की संभावना है जिससे मानसून पश्चिम की ओर सरक रहा है। ऐसा ही चलता रहा तो मात्र एक सदी की अवधि में यह विशाल थार रेगिस्तान पूरी तरह से गायब हो सकता है।

इस परिवर्तन से एक अरब से अधिक लोग प्रभावित हो सकते हैं। स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशिएनोग्राफी के जलवायु वैज्ञानिक शांग-पिंग झी का विचार है कि इस अध्ययन का निहितार्थ है कि थार रेगिस्तान में बाढ़ें आएंगी जो पिछले वर्ष पाकिस्तान में आई भयंकर बाढ़ जैसी हो सकती हैं जिसमें 80 लाख लोग बेघर हो गए थे और लगभग 15 अरब डॉलर की संपत्ति का नुकसान हुआ था।

आम तौर पर ऐसा कहा जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण रेगिस्तान फैलेंगे, लेकिन इसके विपरीत थार रेगिस्तान के हरियाने संभावना है। इस पैटर्न को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दक्षिण एशिया के आधी सदी के मौसमी आंकड़ों का अध्ययन किया। एकत्रित डैटा में उन्होंने मानसूनी वर्षा को पश्चिम की ओर खिसकते पाया, इससे कुछ शुष्क उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में वर्षा में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है जबकि आर्द्र पूर्वी क्षेत्र में वर्षा में कमी आई है। अर्थ्स फ्यूचर में प्रकाशित भूपेंद्र यादव व साथियों के इस जलवायु मॉडल का अनुमान है कि मानसून के पश्चिम की ओर 500 किलोमीटर से अधिक खिसकने के कारण अगली सदी तक थार में लगभग दुगनी वर्षा होने लगेगी।

इसका मुख्य कारण हिंद महासागर का असमान रूप से गर्म होना है, जिससे कम दबाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पश्चिम की ओर खिसकेगा जिससे बरसात में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप भारत में शुष्क मौसम का प्रतीक थार रेगिस्तान सदी के अंत तक हरा-भरा हो सकता है। और तो और, यह वर्षा रिमझिम नहीं होगी बल्कि काफी तेज़ होगी जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। अलबत्ता, इस बदलाव का सदुपयोग भी किया जा सकता है। वर्षा जल का संचयन और भूजल भंडार रणनीतियों को मज़बूत करके थार के कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह उस काल जैसा हो सकता है जब 5000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई थी। साथ ही, भारी बारिश से जुड़े कई खतरे भी होंगे। पाकिस्तान में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़ संभावित तबाही के संकेत देती है।

स्पष्ट है कि बदलते जलवायु क्षेत्रों की बारीकी से निगरानी करना होगी और घनी आबादी वाले क्षेत्रों में विशेष निगरानी ज़रूरी है जहां मामूली जलवायु परिवर्तन भी विनाशकारी परिणाम ला सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk2726/full/_20230809_on_thar_desert-1691773519473.jpg

एक अजूबा है चूहा हिरण – प्रमोद भार्गव

चूहा, हिरण और खरगोश – तीन प्राणि एक ही प्राणि में शामिल हैं? एकाएक यह बात विश्वसनीय नहीं लगती। परंतु दुनिया का यह सबसे छोटा हिरण प्रकृति का एक अजूबा है। बताते हैं कि विलुप्ति की कगार पर खड़े ये हिरण छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में स्थित अचानकमार अभयारण्य और कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाते हैं। कांगेर घाटी अभयारण्य में इस दुर्लभ प्रजाति के हिरण का चित्र अचानक ही कैमरा में कैद हुआ है।

भारत में पाए जाने वाले हिरणों की 12 प्रजातियों में से एक प्रजाति चूहा-हिरण (Moschiola indica) की भी है। इसे विश्व का सबसे छोटा हिरण माना जाता है। इन अभयारण्यों के वन प्रांतरों में भारी-भरकम, खतरनाक और मांसाहारी वन्य प्राणियों के बीच यह छोटा एवं अत्यंत चंचल जीव कब तक बचा रहेगा, यह तो वक्त ही तय करेगा। हिरण और चूहे की शारीरिक बनावट व आदतों वाले इस नन्हे जंतु को हिंदी में ‘चूहा-हिरण’ संस्कृत में ‘मूषक-मृग’ और अंग्रेज़ी में माउस डियर कहते हैं। यह ट्रेगुलिडी कुल में आता है। वैसे बिलासपुर क्षेत्र के स्थानीय लोग इसे खरगोश की एक प्रजाति मानते आए हैं। इसलिए वे इसे ‘खरहा’ कहकर पुकारते हैं।

यहां के आदिवासी इसे घेरकर लाठियों से आसानी से मार लेते हैं। यदि यह लाठी की मार में नहीं आता तो वे इसे विष बुझे तीरों से निशाना भी बनाते हैं। दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में सूचीबद्ध होने के कारण इसके शिकार पर पूरी तरह प्रतिबंध है, संभवत: इसीलिए इसका अस्तित्व अभी तक बचा हुआ है। अब जागरूकता के चलते आदिवासी भी इसका शिकार नहीं करते हैं।

कुदरत का यह अजीब नमूना शक्ल-सूरत में खरगोश की तरह दिखता है, पर इसका मुंह एकदम चूहे से मिलता-जुलता है। इसकी त्वचा गहरा हरापन लिए भूरी-सी होती है। इससे इसे हरियाली के बीच छिपने में मदद मिलती है। अन्य हिरणों की तरह इसकी सूंघने व सुनने शक्ति तेज़ होती है। इससे यह दुश्मन को दूर से ही ताड़ लेता है और भागकर हरी घास अथवा झाड़ियों में छिप जाता है। इस तरह यह प्राणि हिंसक जीवों से अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है।

इसकी त्वचा पर पेट के दोनों तरफ दो-दो चकत्तों में सफेद धारियां होती हैं। यही धारियां इसकी खास पहचान हैं तथा खरगोश व इसमें भेद करती हैं। इसका मुंह कुछ लंबा और कान छोटे होते हैं। इसके सिर पर सींग नहीं पाए जाते हैं, इसलिए यह एंटिलोप समूह का हिरण नहीं है। सींग की बजाय इसके मुंह पर ऊपरी जबड़े में दो कैनाइन दांत होते हैं। ये दांत कस्तूरी मृग में भी पाए जाते हैं। इन्हीं दांतों की सहायता से यह आहार को तोड़ता व चबाता है। इसके पैर गोल होने के साथ खुरों से युक्त होते हैं। खुर दो हिस्सों में विभाजित रहते हैं।

इनका रहवास विशेष रूप से घनी झाड़ियों और नमी वाले नमक्षेत्र होते हैं। अधिकतर ज़्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। शरीर की लंबाई 57.5 सेंटीमीटर तक होती है और पूंछ करीब 2.5 से.मी. लंबी होती है। इस तरह से यह कुल लगभग 61 से.मी. लंबा होता है। इसकी ऊंचाई 35 से.मी. तक होती है और वज़न तीन से सात किलोग्राम तक होता है। यह जंगलों में आठ से बारह वर्ष तक जीवित रह सकता है। यह पूरी तरह शाकाहारी प्राणि है और हिरण की अन्य प्रजातियों की तरह घास और फूल-पत्तियां ही खाता है।

भारत, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत अन्य दक्षिण एशियाई और पूर्व एशियाई देशों के उष्णकटिबंधीय नमी वाले क्षेत्रों में भी ये पाए जाते हैं। बिना सींगों वाले हिरणों का यह एकमात्र समूह है। शर्मीले और निशाचर होने के कारण इन पर भारत में ज़्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं, इसीलिए इनके बारे में विशेष जानकारी भारतीय प्राणि विशेषज्ञों के पास भी नहीं है।

इनका प्रजनन काल पूरे साल चलता है। मादा साल में दो मर्तबा बच्चे जनती है। आम तौर पर एक बार में एक ही बच्चा जनती है, पर कभी-कभार दो बच्चे भी जनती है। ये बच्चे पैदा होने के 24 घंटे बाद चलने-फिरने व दौड़ने लगते हैं। चूहा हिरण की रफ्तार खरगोश से बहुत तेज़ होती है। अन्य हिरणों की भांति यह कुलांचे भरने में भी निपुण होता है। चूहा हिरण से कुछ बड़ा चिलियन हिरण पुडू पुडा (Pudu puda) होता है जो हमारे देश में नहीं पाया जाता। चिलियन पुडू पुडा की लंबाई 85 सेंटीमीटर और ऊंचाई 45 सेंटीमीटर तक होती है। शोरगुल, यांत्रिक कोलाहल व मानवीय हलचल से दूर ये हिरण नितांत एकांत पसंद करते हैं। मनुष्य का हस्तक्षेप, भले ही वह इसके संरक्षण के लिए ही क्यों न हो, इसके प्रजनन पर प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए चिड़ियाघरों में यह हिरण ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहता। लिहाज़ा, अब बड़े चिड़ियाघरों ने इसे पालना बंद कर दिया है।

छत्तीसगढ़ में चूहा हिरण को पहली बार 1905 में एक अंग्रेज़ नागरिक ने रायपुर में देखा था। इसके संरक्षण के बेहतर प्रयास छत्तीसगढ़ से अधिक तेलंगाना प्रांत में हो रहे हैं। तेलंगाना के जंगलों में अब तक चूहा हिरण के 17 जोड़े छोड़े गए हैं। लेकिन इस हिरण के उचित संरक्षण हेतु इसकी आदतों और नैसर्गिक प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.srilankansafari.com/images/most-endangerd-species-of-sri-lanka-4.jpg?q=79&w=800&h=571

रहस्यमय भारतीय चील-उल्लू – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारतीय चील-उल्लू (Bubo bengalensis) को कुछ वर्षों पूर्व ही एक अलग प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और इसे युरेशियन चील-उल्लू (Bubo bubo) से अलग पहचान मिली थी। भारतीय प्रजाति सचमुच एक शानदार पक्षी है। मादा नर से थोड़ी बड़ी होती है और ढाई फीट तक लंबी हो सकती है, और उसके डैनों का फैलाव छह फीट तक हो सकता है। इनके विशिष्ट कान सिर पर सींग की तरह उभरे हुए दिखाई देते हैं। इस बनावट के पीछे एक तर्क यह दिया जाता है कि ये इन्हें डरावना रूप देने के लिए विकसित हुए हैं ताकि शिकारी दूर रहें। यदि यह सही है, तो ये सींग वास्तव में अपना काम करते हैं और डरावना आभास देते हैं।

निशाचर होने के कारण इस पक्षी के बारे में बहुत कम मालूमात हैं। इनके विस्तृत फैलाव (संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप) से लगता है कि इनकी आबादी काफी स्थिर है। लेकिन पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि ये बहुत आम पक्षी नहीं हैं। इनकी कुल संख्या की कभी गणना नहीं की गई है। हमारे देश में वन क्षेत्र में कमी होते जाने से आज कई पक्षी प्रजातियों की संख्या कम हो रही है। लेकिन भारतीय चील-उल्लू वनों पर निर्भर नहीं है। उनका सामान्य भोजन, जैसे चूहे, बैंडिकूट और यहां तक कि चमगादड़ और कबूतर तो झाड़-झंखाड़ और खेतों में आसानी से मिल जाते हैं। आसपास की चट्टानी जगहें इनके घोंसले बनाने के लिए आदर्श स्थान हैं।

मिथक, अंधविश्वास

मानव बस्तियों के पास ये आम के पेड़ पर रहना पसंद करते हैं। ग्रामीण भारत में, इस पक्षी और इसकी तेज़ आवाज़ को लेकर कई अंधविश्वास हैं। इनका आना या इनकी आवाज़ अपशकुन मानी जाती है। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लोककथाओं का दस्तावेज़ीकरण किया है जो यह कहती हैं कि चील-उल्लू को पकड़कर उसे पिंजरे में कैद कर भूखा रखा जाए तो यह मनुष्य की आवाज़ में बोलता है और लोगों का भविष्य बताता है।

उल्लू द्वारा भविष्यवाणी करने सम्बंधी ऐसे ही मिथक यूनानी से लेकर एज़्टेक तक कई संस्कृतियों में व्याप्त हैं। कहीं माना जाता है कि वे भविष्यवाणी कर सकते हैं कि युद्ध में कौन जीतेगा, तो कहीं माना जाता है कि आने वाले खतरों की चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम उन्हें ज्ञान से भी जोड़ते हैं। देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू (उलूक) ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

भारतीय चील-उल्लू से जुड़े नकारात्मक अंधविश्वास हमें इनके घोंसले वाली जगहों पर इनकी उग्र सुरक्षात्मक रणनीति पर विचार करने को मजबूर करते हैं। इनके घोंसले चट्टान पर खरोंचकर बनाए गोल कटोरेनुमा संरचना से अधिक कुछ नहीं होते, जिसमें ये चार तक अंडे देते हैं। इनके खुले घोंसले किसी नेवले या इंसान की आसान पहुंच में होते हैं। यदि कोई इनके घोंसले की ओर कूच करता है तो ये उल्लू खूब शोर मचाकर उपद्रवी व्यवहार करते हैं, और घुसपैठिये के सिर पर पीछे की ओर से अपने पंजे से झपट्टा मारकर वार करते हैं।

खेती में लाभकारी

इन उल्लुओं की मौजूदगी से किसानों को निश्चित ही लाभ होता है। एला फाउंडेशन और भारतीय प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि झाड़-झंखाड़ के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लुओं की तुलना में खेतों के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लू संख्या में अधिक और स्वस्थ होते हैं। ज़ाहिर है, उन्हें चूहे वगैरह कृंतक जीव बड़ी संख्या में मिलते होंगे। और उल्लुओं के होने से किसानों को भी राहत मिलती होगी।

इन उल्लुओं का भविष्य क्या है? भारत में पक्षियों के प्रति रुचि बढ़ती दिख रही है। पक्षी निरीक्षण (बर्ड वॉचिंग),  जिसे एक शौक कहा जाता है, अधिकाधिक उत्साही लोगों को लुभा रहा है। ये लोग पक्षियों की गणना, सर्वेक्षण और प्रवासन क्षेत्रों का डैटा जुटाने में योगदान दे रहे हैं। लेकिन यह काम अधिकतर दिन के उजाले में किया जाता है जिसमें उल्लुओं के दर्शन प्राय: कम होते हैं। उम्मीद है कि भारतीय चील-उल्लू जैसे निशाचर पक्षियों के भी दिन (रात) फिरेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://d18x2uyjeekruj.cloudfront.net/wp-content/uploads/2023/08/indian-owl.jpg

शुक्र पर जीवन की तलाश – प्रदीप

पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावना का विचार हमेशा से सभी को आकर्षित करता रहा है। जीवन की संभावना वाले ग्रहों की सूची में मंगल के अलावा शुक्र भी शामिल हो चुका है। इसका कारण पिछले डेढ़-दो दशक में शुक्र के वातावरण में घटित हो रही रासायनिक प्रक्रियाओं को लेकर हमारी समझ में हुई वृद्धि है। हाल ही में कार्डिफ युनिवर्सिटी के जेन ग्रीव्स की टीम ने खगोल विज्ञान की एक राष्ट्रीय गोष्ठी में शुक्र पर जीवन योग्य परिस्थितियों की मौजूदगी को लेकर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया है। इस शोध पत्र का निष्कर्ष है कि शुक्र के तपते और विषैले वायुमंडल में फॉस्फीन नामक एक गैस है जो वहां जीवन की उपस्थिति का संकेत हो सकती है।

पूर्व में कार्डिफ युनिवर्सिटी के ही शोधकर्ताओं ने शुक्र के वातावरण में फॉस्फीन के स्रोतों का पता लगाकर हलचल मचा दी थी। हालांकि तब कई प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने शुक्र के घने कार्बन डाईऑक्साइड युक्त वातावरण, सतह के अत्यधिक तापमान व दाब और सल्फ्यूरिक अम्ल के बादलों जैसी बिलकुल प्रतिकूल परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस शोध को खारिज कर दिया था। लेकिन अब हवाई स्थित जेम्स क्लार्क मैक्सवेल टेलीस्कोप (जेसीएमटी) और चिली स्थित एटाकामा लार्ज मिलीमीटर ऐरे रेडियो टेलीस्कोप की सहायता से ग्रीव्‍स को शुक्र के वायुमंडल के निचले क्षेत्र में फॉस्फीन की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। इससे शुक्र के अम्लीय बादलों में सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी की उम्मीदें पुनर्जीवित हो गई हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक शुक्र के वातावरण में 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है, लेकिन फॉस्फीन का मिलना अपने आप में बेहद असाधारण बात है क्योंकि यह एक सशक्त बायो सिग्नेचर (जैव-चिन्ह) है। फॉस्फीन को एक बायो सिग्नेचर मानने का एक बड़ा कारण है पृथ्वी पर फॉस्फीन का सम्बंध जीवन से है। फॉस्फीन गैस के एक अणु में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे फॉस्फोरस परमाणु होते हैं, जैसे अमोनिया में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे नाइट्रोजन परमाणु होते हैं। पृथ्वी पर यह गैस औद्योगिक प्रक्रियाओं से बनती है। यह कुछ अनॉक्सी जीवाणुओं द्वारा भी निर्मित होती है जो ऑक्सीजन-विरल वातावरण में रहते हैं, जैसे सीवर, भराव क्षेत्र या दलदल में। सूक्ष्मजीव यह गैस ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में उत्सर्जित करते हैं। 

शुक्र पर फॉस्फीन की खोज के दो मायने हैं। एक, शुक्र पर जीवित सूक्ष्मजीव हो सकते हैं – शुक्र की सतह पर नहीं बल्कि उसके बादलों में, क्योंकि शुक्र की सतह किसी भी प्रकार के जीवन के अनुकूल नहीं है। उल्लेखनीय है कि फॉस्फीन या उसके स्रोत जिन बादलों में मिले हैं वहां तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था। दूसरा, यह उन भूगर्भीय या रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित हो सकती है, जो हमें पृथ्वी पर नहीं दिखती। ऐसे में इस खोज से यह दावा नहीं किया जा सकता कि हमने वहां जीवन खोज लिया है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते कि वहां जीवन नहीं है। यह खोज अंतरिक्ष-अन्वेषण के लिए नए द्वार खोलती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://d1e00ek4ebabms.cloudfront.net/production/675adf3d-8534-4c21-8624-2da0559504fe.jpg

प्राचीन संस्कृति के राज़ उजागर करती माला

स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल की पुरातत्वविद हाला अलाराशी और उनकी टीम को वर्ष 2018 में पेट्रा (जॉर्डन) से उत्तर में कई मील दूर बाजा नामक एक प्राचीन बस्ती में लगभग 9000 साल पुरानी एक छोटी, पत्थर से बनी कब्र के अंदर एक बच्चे का कंकाल भ्रूण जैसी मुद्रा में दफन मिला था। इसी के साथ दफन थी मनकों से बनी एक माला जो इस कंकाल की गर्दन पर पहनाई गई थी। हालांकि यह माला बिखरे हुए मनकों के ढेर के रूप में मिली थी लेकिन वैज्ञानिकों ने इन्हें सावधानी से समेटा और वैसा का वैसा पुनर्निर्मित किया। अब, प्लॉस वन में प्रकाशित विश्लेषण बताता है कि प्राचीन लोग किस तरह अपने मृतकों की परवाह करते थे। इसके अलावा यह खेती और बड़े समाजों में बसने से समुदायों में उस समय उभर रहे कुलीन वर्ग के बारे में भी बताता है। फिलहाल यह माला पेट्रा संग्रहालय में रखी गई है।

शोधकर्ताओं ने इस स्थल पर पाई गई कलाकृतियों की तुलना अन्य नवपाषाण स्थलों पर खोजी गई कलाकृतियों से करके यह पता लगाया था कि यह स्थल कितना पुराना है। फिर ल्यूमिनेसेंस डेटिंग तकनीक से इसके काल की पुष्टि की। ल्यूमिनेसेंस डेटिंग यह मापता है कि कोई तलछट कितने समय पहले आखिरी बार प्रकाश के संपर्क में आई थी। पाया गया कि यह कंकाल लगभग 7000 ईसा पूर्व नवपाषाण काल का था। इसी समय कई संस्कृतियां खेती करना, मवेशी-जानवर पालना और बड़े व जटिल समाजों में बसना शुरू कर रही थीं। इस गांव के निवासी भी गेहूं की खेती करते थे और भेड़-बकरियां पालते थे। हालांकि शोधकर्ता पुख्ता तौर पर माला पहने कंकाल के लिंग का पता तो नहीं कर पाए हैं, लेकिन कुछ हड्डियों के आकार को देखकर अनुमान है कि वह एक लड़की थी। शोधकर्ताओं ने उसका नाम जमीला रखा है, जिसका अर्थ है ‘सुंदर’।

अलाराशी बताती हैं कि हालांकि अन्य भूमध्यसागरीय खुदाई स्थलों पर भी नवपाषाण काल और उससे पूर्व के आभूषण (जैसे पत्थर की अंगूठियां व कंगन) मिलते हैं लेकिन ये आभूषण बाजा में मिली माला जितने बड़े नहीं हैं। अब तक खोजे गए नवपाषाणकालीन आभूषणों में सबसे प्राचीन और सबसे प्रभावशाली आभूषणों में से एक इस माला में 2500 मनके थे जो पत्थर, सीप और अश्मीभूत गोंद (एम्बर) के थे। ये मनके नौ लड़ियों में पिरोए हुए थे जो माला के ऊपरी ओर हेमेटाइट के पेंडल से बंधी थीं। नीचे की ओर, बाहरी सात लड़ियां एक छल्ले जैसे नक्काशीदार पेंडल से जुड़ी थीं और अंदरूनी दो लड़ियां बिना पेंडल के थीं।

वे आगे बताती हैं कि खुदाई से जब माला के सभी हिस्सों को खोदकर निकाल लिया गया तो उसे वापस बनाना एक कठिन काम था। अधिकांश मनके जमीला की गर्दन और कंधों के पास मिले थे, और कुछ मनके लड़ी की तरह कतार में पड़े थे, जिससे लगता था कि वे एक बड़ी माला के हिस्से थे। मनकों की कुछ अक्षुण्ण कतारों की सावधानीपूर्वक जांच करके अलाराशी ने इसके समग्र पैटर्न का अनुमान लगाया। और थोड़ा अपने हिसाब से अंदाज़ा लगाया कि माला कैसी रही होगी: उनका तर्क है कि हेमेटाइट पेंडेंट और छल्ले को माला में प्रमुख स्थान पर रखा गया होगा।

माला के अधिकांश मनके बलुआ पत्थर से बने थे, जो बाजा में आसानी से उपलब्ध थे। लेकिन अन्य मनके जैसे फिरोज़ा और एम्बर दूर से मंगाए गए थे। माला का केन्द्रीय हिस्सा यानी छल्ला एक विशाल मोती सीप से बनाया गया था, जो कई किलोमीटर दूर लाल सागर से आई थी।

अलाराशी का कहना है कि समुदायों के खेती करने और बड़े समाज में बसना शुरू करने से उन समुदायों में विशेष स्थिति वाले लोग उभरे। माला से पता चलता है कि जमीला को उच्च दर्जा प्राप्त था – हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उसे यह विशेषाधिकार क्यों प्राप्त था। और, उसको दफनाना एक सामुदायिक कार्यक्रम रहा होगा जिसने सामुदायिक बंधनों को मज़बूत किया होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ancient-origins.net/sites/default/files/field/image/Neolithic-necklace-Jordan.jpg

घर बन जाएंगे असीम बैटरियां

हाल ही में शोधकर्ताओं ने ऊर्जा संग्रहण के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी खोज की है। इस नई खोज में सीमेंट में उच्च चालकता वाले कार्बन (ग्रैफीन या कार्बन नैनोनलिकाओं) का उपयोग करके सीमेंट रचनाओं में सुपरकैपेसिटर बनाने का एक किफायती तरीका विकसित किया गया है। इन विद्युतीकृत सीमेंट संरचनाओं में पर्याप्त ऊर्जा संचित की जा सकती है जिससे घर और सड़कें बैटरियों की तरह काम कर पाएंगे।

गौरतलब है कि सुपरकैपेसिटर  में दो चालक प्लेट्स का उपयोग किया जाता है जिसके बीच में एक इलेक्ट्रोलाइट और एक पतली झिल्ली होती है। जब यह उपकरण चार्ज होता है, विपरीत आवेश वाले आयन अलग-अलग प्लेट्स पर जमा होने लगते हैं। इन उपकरणों में ऊर्जा संचयन की क्षमता प्लेट्स की सतह के क्षेत्रफल पर निर्भर करती है। पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिकों ने कॉन्क्रीट और कार्बन सम्मिश्र जैसी सामग्रियों में सुपरकैपेसिटर बनाने के प्रयास किए हैं। चूंकि सुपरकैपेसिटर में गैर-ज्वलनशील इलेक्ट्रोलाइट का उपयोग होता है इसलिए ये पारंपरिक बैटरियों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं।

सामान्य सीमेंट विद्युत का एक खराब चालक होता है। इस समस्या के समाधान के लिए शोधकर्ताओं ने अत्यधिक सुचालक कार्बन रूपों (ग्रैफीन या कार्बन नैनोट्यूब्स) को सीमेंट में मिलाया। यह तकनीक काफी प्रभावी साबित हुई लेकिन बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन काफी खर्चीला और कठिन होता है। इसके किफायती विकल्प की तलाश में एमआईटी के फ्रांज़-जोसेफ उल्म और उनकी टीम ने ब्लैक कार्बन का उपयोग किया जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है और किफायती भी है। इस मिश्रण के कठोर होने पर सीमेंट के भीतर सुचालक तंतुओं का एक समन्वित जाल बन गया। इस सीमेंट को छोटे सुपरकैपेसिटर प्लेट्स के रूप में तैयार करने के बाद इसमें इलेक्ट्रोलाइट के रूप में पोटैशियम क्लोराइड और पानी का उपयोग किया गया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस उपकरण से एलईडी बल्ब जलाया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि कार्बन ब्लैक सीमेंट का उपयोग 45 घनमीटर कॉन्क्रीट (यानी एक सामान्य घर की नींव के बराबर) बनाने के लिए किया जाता है तो यह 10 किलोवॉट-घंटा ऊर्जा संचित कर सकता है जो एक औसत घर की एक दिन की ऊर्जा आवश्यकता को पूरा कर सकती है। बड़े पैमाने पर इस बिजली का उपयोग पार्किंग स्थलों, सड़कों और इलेक्ट्रिक वाहनों की चार्जिंग में किया जा सकता है। इसके अलावा यह महंगी बैटरियों का प्रभावी विकल्प पेश करके विकासशील देशों में ऊर्जा भंडारण की समस्या को भी हल कर सकता है।

हालांकि बड़े पैमाने पर इस तकनीक का उपयोग चुनौतीपूर्ण है। जैसे-जैसे सुपरकैपेसिटर बड़े होते हैं, उनकी चालकता कम हो जाती है। इसका एक समाधान सीमेंट में ज़्यादा ब्लैक कार्बन का उपयोग हो सकता है लेकिन ऐसा करने पर सीमेंट की मज़बूती कम होने की संभावना है। फिलहाल शोधकर्ताओं ने इस तकनीक को पेटेंट कर लिया है और वाहनों में उपयोग होने वाली 12-वोल्ट बैटरी जैसा आउटपुट प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk0583/abs/_20230731_on_cement_electricity.jpg

मलेरिया के विरुद्ध नई रणनीति

लेरिया आज भी एक बड़ी वैश्विक स्वास्थ्य चुनौती है। इससे हर वर्ष पांच लाख से अधिक मौतें होती हैं जिसमें अधिकांश 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे होते हैं। मच्छरों में कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो जाता है और टीकाकरण आंशिक सुरक्षा ही प्रदान करता है। इनके चलते नियंत्रण के प्रयास विफल रहे हैं। अब, वैज्ञानिकों ने मलेरिया की रोकथाम के लिए एक नया तरीका खोज निकाला है। यदि मच्छरों को एक कुदरती बैक्टीरिया खिलाया जाए तो उनकी आंतों में मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम) के विकास को रोका जा सकता है।

वैज्ञानिकों ने पहले भी मच्छर जनित बीमारियों से निपटने के लिए रोगाणुओं की क्षमता पर प्रयोग किए हैं। इस दौरान वोल्बाचिया पिपिएंटिस बैक्टीरिया ने डेंगू बुखार के विरुद्ध सकारात्मक परिणाम दिए हैं। मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम को रोकने के लिए अक्सर आनुवंशिक रूप से संशोधित बैक्टीरिया पर काम हुआ है। लेकिन नियामक अनुमोदन की अड़चनें और पारिस्थितिक प्रभाव इस प्रकार के संशोधन के मार्ग में बाधा बन जाते हैं।

हाल ही में साइंस में प्रकाशित अध्ययन ने आशाजनक विकल्प प्रस्तुत किया है। शोधकर्ताओं को संयोगवश एक प्राकृतिक बैक्टीरिया डेल्फ्टिया सुरुहेटेंसिस टीसी1 का पता चला जो मच्छरों में मलेरिया परजीवी के विकास को रोकता है। गौरतलब है कि इस बैक्टीरिया का प्रभाव जेनेटिक परिवर्तन के बिना होता है। मच्छरों की आंत में उपस्थित डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 बैक्टीरिया प्लाज़्मोडियम का विकास रोकता है और इसके अंडों की संख्या को 75 प्रतिशत तक कम कर देता है। इसका परीक्षण करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 बैक्टीरियम संक्रमित मच्छरों के दंश से ग्रस्त चूहों में सिर्फ तिहाई ही मलेरिया से पीड़ित हुए जबकि सामान्य मच्छरों द्वारा काटे गए सभी चूहे मलेरिया से संक्रमित हुए।

चूंकि यह बैक्टीरिया मच्छर या उसकी संतानों के जीवित रहने पर प्रभाव नहीं डालता इसलिए मच्छरों में इसके खिलाफ प्रतिरोध विकसित होने की संभावना कम है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया है कि यह बैक्टीरिया हारमैन नामक एक अणु भी मुक्त करता है। यह अणु पौधों में भी पाया जाता है जिसका उपयोग कहीं-कहीं परंपरागत चिकित्सा में होता है। यह अणु प्लाज़्मोडियम की विकास प्रक्रिया को रोकता है।

मच्छरों के शरीर में हारमैन किसी सतह से भी आ सकता है। इसका एक मतलब यह भी है कि हारमैन का उपयोग मच्छरों में प्लाज़्मोडियम का विकास रोकने में किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने बुर्किना फासो में इसका परीक्षण भी किया। उन्होंने पहले तो मच्छरों को डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 खाने पर मजबूर किया। इन मच्छरों ने संक्रमित व्यक्तियों का खून पीया तो इनके शरीर में परजीवी का विकास प्रभावी ढंग से अवरुद्ध हो गया।

शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण बात यह बताई है कि यह बैक्टीरिया एक से दूसरे मच्छर में नहीं पहुंचता जो एक अच्छी बात है। संभवत: जल्द ही हमारे पास बैक्टीरिया के चूर्ण या हारमैन के रूप में कोई मलेरिया-रोधी उत्पाद होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk1267/full/_20230803_on_malaria_mosquito-1691091204580.jpg

गुदगुदी कहां से नियंत्रित होती है

में, और खासकर छोटे बच्चों को, गुदगुदी का खेल पसंद आता है। लेकिन गुदगुदी, खेल-मनोरंजन या स्तनधारियों के ऐसे ही सकारात्मक व्यवहारों को बहुत कम समझा गया है। इसके विपरीत आक्रामकता या डर जैसे व्यवहारों को समझने के लिए काफी अध्ययन हुए हैं।

हम्बोल्ट विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी माइकल ब्रेख्त की रुचि यह समझने में थी कि खेल के सुखद अहसास कहां से आते हैं। पूर्व में देखा जा चुका था कि कुछ कृंतकों को मनोरंजन पसंद होता है। और यदि वे अच्छे मूड और अनुकूल महौल में हैं तो गुदगुदी का आनंद लेते हैं, और इंसानों की हंसी के समान उच्च आवृत्ति की आवाज़ें निकालते हैं। न्यूरॉन में प्रकाशित हालिया अध्ययन के मुताबिक शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में इस आनंद के लिए ज़िम्मेदार क्षेत्र की पहचान कर ली है।

पूर्व अध्ययन बताते हैं कि चूहों में चेतना और अन्य उच्च श्रेणि के व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार मस्तिष्क का क्षेत्र (कॉर्टेक्स) पूरा नष्ट हो जाने के बाद भी वे खेलकूद जारी रखते हैं। इससे पता चलता है कि डर की तरह खेल (या मनोरंजन) भी नैसर्गिक है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि पेरिएक्वाडक्टल ग्रे (पीएजी) नामक एक संरचना की भी इसमें भूमिका हो सकती है जो ध्वनि, ‘लड़ो-या-भागो’ प्रतिक्रिया और अन्य व्यवहारों में भूमिका निभाती है। जब चूहे एक-दूसरे के साथ लड़ाई-लड़ाई खेलते हैं तो वे भय और आक्रामकता जैसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। इसलिए ब्रेख्त को लगा कि पीएजी या मस्तिष्क का ऐसा ही कोई क्षेत्र मनोरंजन में भागीदार हो सकता है।

वे अपने पूर्व अध्ययन में देख चुके थे कि चूहे इंसानों की तरह पेचीदा खेल खेल सकते हैं। उनकी टीम कृंतकों को लुका-छिपी खेलना भी सिखा चुकी थी। खेल के शुरू में चूहे को एक बक्से में बंद कर शोधकर्ता कमरे में कहीं छिप गए। फिर रिमोट कंट्रोल की मदद से बक्सा खोलने पर चूहे ने बाहर आकर शोधकर्ता को ‘ढूंढना’ शुरू किया। जब चूहे ने छुपे हुए शोधकर्ता को ढूंढ लिया तो उसे गुदगुदी के रूप में पुरस्कार मिला। चूहों को भी छिपने का अवसर दिया गया था, और देखा गया कि चूहे छिपने की काफी नई-नई जगहें ढूंढ लेते हैं।

अपने अनुमान – खेल में पीएजी की भूमिका – की जांच के लिए ब्रेख्त की टीम ने पहले तो यह सुनिश्चित किया कि चूहे अपने अनुकूल और सहज माहौल में रहें। चूहों को मद्धम रोशनी वाली जगह सुहाती हैं, तेज़ रोशनी वाली और ऊंची जगहों पर वे परेशान होते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने उनके साथ ‘हाथ पकड़ो’ खेल खेला। जब चूहे उनके हाथ तक पहुंच जाते थे तो शोधकर्ता उनकी पीठ और पेट पर गुदगुदी करते थे। गुदगुदी करने पर चूहे खुश होते थे और ‘खिलखिलाते’ थे। शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगाकर उनके मस्तिष्क की गतिविधि की निगरानी की। और अल्ट्रासोनिक माइक्रोफोन से उनकी हंसी भी रिकॉर्ड की।

पाया गया कि चूहे मनुष्यों के सुनने की क्षमता से बहुत अधिक आवृति पर ‘हंसते’ हैं। और, जब चूहे हंस रहे थे और खेल में व्यस्त थे तो उनके पीएजी के एक विशिष्ट क्षेत्र में हलचल देखी गई। इसके विपरीत जब चूहों को असहज जगह पर बैठाकर गुदगुदी की तो उन्होंने हंसना बंद कर दिया व उनके पीएजी का सक्रिय हिस्सा शांत हो गया। इससे लगता है कि विनोदभाव के लिए चूहों में पीएजी ज़िम्मेदार है। इसकी पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने पीएजी के उस हिस्से की तंत्रिकाओं को एक रसायन की मदद से शांत कर दिया। इसके बाद गुगगुदी करने पर चूहे नहीं हंसे और उनकी इंसानों और खेल में रुचि भी जाती रही। इससे लगता है कि गुदगुदी और खेल में पीएजी की महत्वपूर्ण भूमिका है।

ये नतीजे और भी महत्वपूर्ण इसलिए लगते हैं क्योंकि यह देखा जा चुका है कि जब कुछ चूहों को खेलने से वंचित कर दिया जाए तो वे मायूस हो जाते हैं, रिश्ते बनाने में असफल रहते हैं और तनावपूर्ण स्थितियों में कम लचीले हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि खेल की कमी से मस्तिष्क का विकास भी रुक जाता है।

आगे ब्रेख्त यह देखना चाहते हैं कि पीएजी की खेल के अन्य पहलुओं, जैसे नियमों का पालन करने के व्यवहार में क्या भूमिका है। उनका अवलोकन था कि लुका-छिपी खेल में यदि मनुष्य बार-बार एक ही जगह छिपें या ठीक से छिपने में विफल रहें तो चूहों ने खेल में रुचि खो दी थी। उम्मीद है कि इस काम से सकारात्मक भावनाओं को समझने की दिशा में अधिक काम होगा और चिंता व अवसाद से पीड़ित रोगियों के लिए प्रभावी उपचार विकसित करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk0145/full/_20230728_on_rattickling-1690557289130.jpg

छत्ता निर्माण की साझा ज्यामिति

हाल ही में मधुमक्खियों और ततैयों पर किए गए एक अध्ययन से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जैव विकास की राह में 18 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ने के बावजूद मधुमक्खियों और ततैयों दोनों समूहों ने छत्ता निर्माण की जटिल ज्यामितीय समस्या से निपटने के लिए एक जैसी तरकीब अपनाई है।

गौरतलब है कि मधुमक्खियों और ततैयों के छत्ते छोटे-छोटे षट्कोणीय प्रकोष्ठों से मिलकर बने होते हैं। इस प्रकार की संरचना में निर्माण सामग्री कम लगती है, भंडारण के लिए अधिकतम स्थान मिलता है और स्थिरता भी रहती है। लेकिन रानी मक्खी जैसे कुछ सदस्यों के लिए बड़े आकार के प्रकोष्ठ बनाना होता है और उनको समायोजित करना एक चुनौती होती है। यदि कुछ प्रकोष्ठ का आकार बड़ा हो जाए तो ये छत्ते में ठीक से फिट नहीं होंगे और छत्ता कमज़ोर बनेगा।

मामले की छानबीन के लिए ऑबर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मधुमक्खी और ततैया की कई प्रजातियों के छत्तों का विश्लेषण किया और पाया कि दोनों जीव इस समस्या के समाधान के लिए एक जैसी तरकीब अपनाते हैं। यदि छोटे और बड़े प्रकोष्ठ की साइज़ में अंतर बहुत अधिक न हो तो वे बीच-बीच में थोड़े विकृत मध्यम आकार के षट्कोणीय प्रकोष्ठ बना देते हैं। यदि आकार का अंतर अधिक हो तो वे बीच-बीच में प्रकोष्ठों की ऐसी जोड़ियां बना देते हैं जिनमें से एक प्रकोष्ठ पांच भुजाओं वाला और दूसरा सात भुजाओं वाला होता है।

शोधकर्ताओं ने इसका एक गणितीय मॉडल भी तैयार किया जो बड़े और छोटे षट्कोणों के आकार में असमानता के आधार पर बता सकता है कि प्रकोष्ठों की साइज़ में कितना अंतर होने पर पंचभुज व सप्तभुज प्रकोष्ठों की कितनी जोड़ियां लगेंगी। अत: भले ही मधुमक्खियों और ततैयों ने स्वतंत्र रूप से षट्कोणीय प्रकोष्ठों से छत्ता बनाने की क्षमता विकसित की हो लेकिन लगता है कि वे इन्हें बनाने के लिए एक जैसे गणितीय सिद्धांतों का उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2023/07/072523_di_bee-geometry_inlinemobile_rev-e1690465254984.jpg

जैव विकास के प्रति जागरूक चिकित्सा विज्ञान – 4 -डॉ. राघवेंद्र गडग्कर

कुछ हालिया मुद्दे

वैकासिक चिकित्सा के क्षेत्र में अपेक्षा यह है कि अधिकांश गतिविधि जिज्ञासा-प्रेरित पहेली सुलझाने पर आधारित अनुसंधान से जुड़ी होंगी और सफलता का आकलन इस आधार पर किया जाएगा कि नए निष्कर्ष कितने सुंदर और तार्किक हैं और कैसे वे अब तक असम्बंधित दिखने वाली परिघटनाओं को संतोषजनक ढंग से आपस में जोड़ते हैं। विज्ञान के फलने-फूलने के लिए यही तो चाहिए। आइए अब कुछ हालिया उदाहरणों पर गौर करते हैं।

रोगनुमा मोटापा: वैकासिक उत्पत्ति

मैरी जेन एक अत्यंत प्रतिष्ठित वैकासिक जीव विज्ञानी हैं। उनकी पुस्तक डेवलपमेंटल प्लास्टिसिटी एंड इवोल्यूशन (Developmental Plasticity and Evolution, 2003) ने उन्हें वैकासिक जीव विज्ञान में एक प्रमुख समकालीन विचारक के रूप में स्थापित कर दिया है। खुशी की बात है कि ऐसे लेखक ने अब अपना ध्यान वैकासिक चिकित्सा की समस्या पर लगाया है।

वर्ष 2019 में PNAS के एक परिप्रेक्ष्य आलेख – ‘न्यूट्रिशन, दी विसरल इम्यून सिस्टम, एंड दी इवोल्यूशनरी ओरिजिन्स ऑफ पैथोजेनिक ओबेसिटी’ – में मैरी जेन ने एक नवीन परिकल्पना प्रस्तावित की थी: ‘VAT prioritisation’। उनका मुख्य सुझाव यह था कि आमाशयी वसा और त्वचा के नीचे जमा वसा के बीच भेद किया जाना चाहिए। इन्हें एक ही श्रेणि में रखना ठीक नहीं है जैसा कि बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) के संदर्भ में किया जाता है। बीएमआई का मतलब होता है आपका कुल वज़न बटा मीटर में कद का वर्ग।

बीएमआई अति वज़न और मोटापे की स्थिति का विवऱण देने या उनका निदान करने के लिए पर्याप्त नहीं होता और न ही उनसे सम्बंधित तमाम रोगों (जैसे टाइप-2 डायबिटीज़ या रक्त संचार सम्बंधी रोग) को समझने में मददगार होता है। इसका कारण यह है कि आमाशयी वसा, जिसे तकनीकी भाषा में विसरल एडिपोज़ टिश्यू (VAT) कहते हैं, और त्वचा के नीचे जमा वसा, जिसे सबक्यूटेनियस एडिपोज़ टिश्यू (SAT) कहते हैं, इन दोनों के कार्य अलग-अलग हैं और ये पर्यावरणीय कारकों के प्रति अलग-अलग ढंग से प्रत्युत्तर देते हैं। स्वास्थ्य, सामाजिक व वैकासिक संदर्भ में इनके परिणाम भी अलग-अलग होते हैं।

लिहाज़ा, मैरी जेन का कहना है कि “इन मुख्य संरचनाओं के जैविक कार्यों को समझे बगैर, मोटापे की बीमारी का विश्लेषण करना ऐसा है जैसे हृदय के जैविक कार्य को समझे बगैर रक्त संचार सम्बंधी रोगों को समझने की कोशिश।”

VAT के प्रमुख प्रतिरक्षा सम्बंधी कार्य हैं जिनमें प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू करने के लिए ज़रूरी कुछ वसा अम्लों का भंडारण करना और ऐसे संकेतों का प्रत्युत्तर देना जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की ज़रूरत दर्शाते हैं। लिहाज़ा, VAT आमाशयी संक्रमणों से निपटने में निर्णायक भूमिका निभाता है। दूसरी ओर, SAT संक्रमणों से निपटने में महत्वपूर्ण नहीं होता और उसके अन्य कार्य होते हैं जैसा कि हम आगे देखेंगे।

VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना कहती है कि जब भ्रूण को कम पोषण मिले तो उसे SAT के मुकाबले VAT में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि जन्म के समय बच्चे का वज़न कम होगा, जो संक्रमण के उच्च जोखिम से जुड़ा देखा गया है।

लेकिन कभी-कभी अभावग्रस्त भ्रूणीय पर्यावरण के आधार पर अभावग्रस्त वयस्क पर्यावरण की भविष्यवाणी असफल रहती है (जैसा तब होता है जब कम वज़न वाले बच्चे को बढ़िया भोजन मिलने लगता है) तो एक दिक्कत होती है, एक नए किस्म का असामंजस्य प्रकट होता है। अतिरिक्त व अनावश्यक आमाशयी वसा जमा होने लगती है, जिसका परिणाम मोटापे के रूप में सामने आता है, जिसका सम्बंध डायबिटीज़ और रक्तसंचार सम्बंधी रोगों से देखा गया है।

आमाशयी वसा के अतिरेक की समस्या तब और विकट हो जाती है जब वयस्कों को वसा व शकर से भरपूर भोजन मिलने लगता है। ऐसा भोजन शरीर को सूजननुमा (शोथनुमा) प्रतिक्रिया शुरू करने को उकसाता है। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अतिरिक्त वसा व शकर आंतों के बैक्टीरिया को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण संभवत: विसरल रोगजनकों के लिए पारगम्यता और बढ़ जाती है।

शरीर के विभिन्न कार्यिकीय घटकों की जटिल परस्पर क्रियाओं की जानकारी के बगैर चिकित्सकीय हस्तक्षेपों को लेकर सचेत हो जाना चाहिए।

मुझे खास तौर से मैरी जेन द्वारा उद्धरित एक शोध पत्र ने प्रभावित किया था जिसमें नीना मोदी और इम्पीरियल कॉलेज लंदन और किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल, पुणे के उनके साथियों ने भारतीय व युरोपीय शिशुओं की तुलना की थी। इसमें कहा गया था, “वयस्क एशियाई भारतीय फीनोटाइप में कमतर बॉडी मास इंडेक्स के बावजूद कमर वाले हिस्से में मोटापा पाया जाता है।”

उनका निष्कर्ष गौरतलब है। युरोपीय शिशुओं की तुलना में एशियाई भारतीय नवजातों में VAT वसा-संग्रह कहीं ज़्यादा था, जबकि पूरे शरीर के स्तर पर वसा संग्रह लगभग बराबर था। उनका निष्कर्ष था कि “वसा ऊतकों का विभाजन जन्म के समय ही अस्तित्व में होता है” और उन्होंने सलाह दी थी कि “खोजबीन, स्क्रीनिंग तथा रोकथाम के उपायों में मां के स्वास्थ्य, गर्भाशय में रहने की अवधि और शैशवावस्था को शामिल किया जाना चाहिए।”

SAT के ऊपर VAT को प्राथमिकता देना शरीर का एक उपयोगी प्रत्युत्तर हो सकता है – लेकिन गर्भावस्था के दौरान घटिया पोषण की भरपाई ज़्यादा वसा और शकर युक्त आहार देकर करना शायद मामले को और बिगाड़ सकता है। कहने का मतलब यह है कि जीवन में खराब परिस्थितियों के कारण हुए असर को किसी अन्य समय पर परिस्थिति में सुधार करके संभाला नहीं जा सकता। दरअसल, यह बात को बिगाड़ सकता है।

यह एक बार फिर दर्शाता है कि चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल में शरीर की उन क्रियाविधियों का ध्यान रखना होगा, जो प्रतिकूलताओं से निपटने के लिए विकसित हुई हैं। कोशिश इन प्रक्रियाओं को सुदृढ़ बनाने की होनी चाहिए, न कि उनको अनदेखा करके कुछ एकदम नया करने की।

दूसरी ओर, SAT का अतिरेक स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। इसीलिए अधिक SAT वाले लोगों पर ‘चयापचयी रूप से स्वस्थ मोटा’ का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना का एक प्रमुख तत्व यह है कि VAT-SAT संतुलन फीनोटायपिक लचीलेपन से आकार पाता है – कहने का मतलब कि एक ही जीन समुच्चय पर्यावरण के अनुसार अलग-अलग प्रकट रूपों को जन्म दे सकता है: यदि परिस्थितियां खराब हों तो VAT ज़्यादा और यदि बाहर सब कुछ ठीक-ठाक लगे तो SAT ज़्यादा। तो आखिर ज़्यादा SAT क्यों अच्छा है?

विविध साहित्य के आधार पर, मैरी जेन का तर्क है कि SAT व्यक्ति को स्तनों और कूल्हों जैसे क्षेत्रों में वसा संग्रह की अनुमति देता है, जिनसे शरीर का शेप तथा सौंदर्य व उर्वरता के अन्य लक्षण परिलक्षित होते हैं और यौन व सामाजिक आकर्षण के ज़रिए प्रजनन में सफलता मिलती है। यौन व सामाजिक आकर्षण ऐसी परिघटना है जिसका मैरी जेन पहले काफी विस्तार में अध्ययन कर चुकी हैं और ये प्राकृतिक वरण की विविधताएं हैं जहां व्यक्ति प्रजनन या सामाजिक सहयोग के लिए साथी के रूप में वरीयता पाकर वैकासिक सफलता हासिल करता है।

कुल मिलाकर मैरी जेन का निष्कर्ष था कि “VAT–SAT संतुलन को वैकासिक दृष्टि से देखा जा सकता है जिसमें VAT की प्रतिरक्षा भूमिका और SAT की सामाजिक भूमिका (शरीर को आकार देना) के बीच लेन-देन होता है।”

निसंदेह इन विचारों को संभावित परिकल्पना के रूप में देखा जाना चाहिए, जिनकी आगे जांच करना उपयोगी होगा। कोई परिकल्पना जितने विविध व सहजबोध विरुद्ध अवलोकनों को जोड़ सके वह उतनी ही आकर्षक होनी चाहिए।

अलबत्ता, परिकल्पना के उच्चतर आकर्षण का मतलब ज़रूरी नहीं कि वह सही हो, लेकिन इतना तो है कि ऐसी परिकल्पना को परीक्षण में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

टाइप-2 डायबिटीज़ पर पुनर्विचार

मेरे मित्र व सहकर्मी मिलिंद वाटवे ने पिछले दो दशक टाइप-2 डायबिटीज़ के बारे में हमारी समझ को चुनौती देते व्यतीत किए हैं और एक संभव नया मान्यता-आधार सुझाने की कोशिश की है। एक पुस्तक डव्स, डिप्लोमैट्स एंड डायबिटीज़ में वाटवे पहले तो टाइप-2 डायबिटीज़ की हमारी पारंपरिक समझ का सार प्रस्तुत करते हैं:

1. मोटापा धनात्मक ऊर्जा संतुलन का परिणाम है – यानी हम जितना जलाते हैं, उससे ज़्यादा खाते हैं।

2. मोटापा इंसुलिन प्रतिरोध का प्रमुख कारण है।

3. इंसुलिन प्रतिरोध से निपटने के लिए शरीर ज़्यादा इंसुलिन बनाने लगता है।

4. इंसुलिन निर्माण की क्षमता में क्रमिक गिरावट और इंसुलिन प्रतिरोध का विकास मिलकर रक्त शर्करा में वृद्धि का कारण बनते हैं।

5. बढ़ी हुई रक्त शर्करा डायबिटीज़ के रोग परिणामों के लिए उत्तरदायी होती है।

दूसरे भाग में तमाम शोध साहित्य की मदद से वे इनमें से प्रत्येक वक्तव्य पर सवाल खड़े करते हैं:

1. धनात्मक ऊर्जा संतुलन का कारण अस्पष्ट है; क्या यह इसलिए होता है कि हम ज़्यादा खाते हैं या कमजलाते हैं? यदि हम नहीं जानते कि कौन-सी बात सही है, तो धनात्मक ऊर्जा संतुलन का विचार उपयोगी नहीं रह जाता। दूसरे शब्दों में, हम आजकल के मोटापे के कारणों को नहीं समझते।

2. मोटापा और इंसुलिन प्रतिरोध में सह-सम्बंध तो है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन-सा कारण है और कौन-सा उसका परिणाम। यदि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध मान लिया जाए, तो भी यह स्पष्ट नहीं है कि मोटापा किस क्रियाविधि से इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता है।

3. यह भी सही है कि इंसुलिन प्रतिरोध और इंसुलिन के उत्पादन के बीच सह-सम्बंध है लेकिन यहां भी कार्य-कारण सम्बंध अस्पष्ट है। यदि ऐसा हो कि इंसुलिन का अति-उत्पादन इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता हो, तो कहानी पलट जाएगी और खुराक व मोटापे की भूमिकाओं पर सवाल खड़े हो जाएंगे।

4. शोध-साहित्य में सारे प्रमाण संकेत देते हैं कि इंसुलिन की कमी और इंसुलिन प्रतिरोध, दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये रक्त शर्करा में वृद्धि पैदा करने के लिए न तो आवश्यक हैं और न ही पर्याप्त।

5. उच्च रक्त शर्करा और डायबिटीज़ के रोगनुमा प्रभावों के बीच प्रस्तावित कड़ी सबसे कमज़ोर है और इसके चलते पूरा मामला प्रमाणित तथ्य की बजाय एक विश्वास ज़्यादा लगता है।

प्रचलित मान्यता-आधार से असंतुष्ट होकर, वाटवे ने एक नया मान्यता-आधार प्रस्तुत करने की कोशिश की। संक्षेप में, वाटवे का नया मान्यता-आधार यह है कि हमारी व्यवहारगत रणनीतियां स्वास्थ्य और बीमारी, खास तौर से चयापचय-सम्बंधी बीमारियों, के संदर्भ में महत्वपूर्ण तत्व हैं।

व्यापक शोध साहित्य के आधार पर वाटवे ने अपनी परिकल्पना और वर्तमान मान्यता-आधार का अंतर संक्षेप में इन शब्दों में प्रस्तुत किया था:

“क्लासिकल सिद्धांत की दलील है कि सुस्त जीवन शैली मोटापे को जन्म देती है, मोटापा इंसुलिन-प्रतिरोध पैदा करता है। [मेरी] नई परिकल्पना कहती है कि शारीरिक गतिविधियां और खास तौर से आक्रामक गतिविधियां, मोटापे से स्वतंत्र, अपने-आप में इंसुलिन के प्रति संवेदनशील बनाती हैं…।”

अर्थात, वाटवे द्वारा प्रस्तावित कार्य-कारण दिशा ‘जीवन शैली से इंसुलिन प्रतिरोध से मोटापे’ की ओर जाती है, न कि पूर्व में बताई गई ‘जीवन शैली से मोटापा से इंसुलिन प्रतिरोध’ की ओर। ज़ाहिर है कि यह प्रस्तावित नया कार्य-कारण सम्बंध बहुत अलग किस्म के नीतिगत नुस्खे का रास्ता खोलता है।

वाटवे ने दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (पुणे) में हाल ही में स्थापित बिहेवियोरल इंटरवेंशन फॉर लाइफस्टाइल डिस-ऑर्डर्स (BILD) में चिकित्सकों के साथ काम शुरू भी कर दिया है। एक हालिया प्रकाशन में उन्होंने और उनके साथियों ने दर्शाया है कि “कामकाजी फिटनेस के एक बहुआयामी स्कोर का टाइप-2 डायबिटीज़ के साथ ज़्यादा सशक्त सह-सम्बंध है बनिस्बत मोटापे के।”

अलबत्ता, मान्यता-आधारों को बदलना बहुत मुश्किल काम है। एक हालिया ईमेल में वाटवे ने मुझे बताया था:

“मैं डायबिटीज़ के सम्बंध में शोध कार्य प्रकाशित करता रहा हूं (अब तक 20 शोध पत्र और 2 पुस्तकें)। लेकिन मैं डायबिटीज़ अनुसंधान समुदाय की प्रतिक्रिया से हैरान हूं। किसी ने विरोध में तर्क नहीं दिए, जो कुछ मैं कह रहा हूं, किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाए और संदेह व्यक्त नहीं किए। मैंने हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जोसलिन डायबिटीज़ सेंटर जैसी जगहों पर व्याख्यान दिए। लोगों ने मुझे रुचिपूर्वक सुना और व्यक्ति की हैसियत से सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन विज्ञान के स्तर पर कुछ नहीं हुआ। प्रचलित मान्यता-आधार में कोई परिवर्तन नहीं दिखा जबकि अनगिनत प्रयोग उसका खंडन कर रहे हैं। मेरे शोध पत्रों को बहुत कम उद्धरित किया जाता है। चिकित्सकीय कामकाज में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।”

वाटवे के साथ न्याय करते हुए, कहना होगा कि उनके दावे और अपेक्षाएं बहुत अधिक नहीं हैं। अपनी पुस्तक का समापन करते हुए उन्होंने लिखा है कि हो सकता है कि वे गलत हों और उन्हें खुशी होगी कि कोई उनकी गलतियां बताए या उनकी भविष्यवाणियों को परखने के लिए प्रयोग करे।

वैकासिक सोच, डॉक्टर और मरीज़

बदकिस्मती से, वैकासिक जीव विज्ञान में वैकासिक चिकित्सा के विचार से प्रेरित गतिविधियों का अंबार अपने आप चिकित्सा के कामकाज में, डॉक्टरों के पेशेवर जीवन में या मरीज़ों के अनुभव में कोई ठोस परिवर्तन नहीं लाएगा। 

नए अनुसंधान का डॉक्टरों व मरीज़ों पर कोई असर हो, इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान का उतना ही लाभदायक असर चिकित्सा विज्ञान तथा चिकित्सकीय कामकाज पर हो। यह तभी होगा जब डॉक्टर और चिकित्सा शोधकर्ता वैकासिक जीव विज्ञान को मुख्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार करें।

इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान चिकित्सा शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बने ताकि चिकित्सा शोधकर्ता और चिकित्सक स्वयं चिकित्सा का एक जैव विकास प्रेरित अजेंडा विकसित कर सकें। यहां जॉर्ज विलियम्स और रैडॉल्फ नेसे की वह टिप्पणी दोहराना मुनासिब है जो उन्होंने अपने महत्वपूर्ण शोध पत्र दी डॉन ऑफ डार्विनियन मेडिसिन (1991) में व्यक्त की थी:

“चिकित्सा सम्बंधी समस्याओं में जैव विकास के सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा व्यवसायी डार्विन से उसी तरह प्रेरित हों, जिस तरह से वे पाश्चर से हुए हैं, तो प्रगति और भी तेज़ होगी।”

जैव विकास और चिकित्सा पाठ्यक्रम

चिकित्सा विद्यालयों को यह समझाने के काफी प्रयास किए गए हैं कि वे चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में वैकासिक जीव विज्ञान को शामिल करें लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली है। रैडॉल्फ नेसे ने एक हालिया ईमेल में मुझे बताया था:

“कोई चिकित्सा विद्यालय यह विषय नहीं पढ़ाता, हालांकि एक व्याख्यान होता है। क्यों नहीं पढ़ाता? एक वास्तविक तहकीकात ज़रूरी है लेकिन मुख्य बात यह है कि डॉक्टर्स वैकासिक जीव विज्ञान जानते ही नहीं, और चिकित्सा विद्यालयों की फैकल्टी में कोई वैकासिक जीव वैज्ञानिक नहीं होता…और चिकित्सा एक ऐसा व्यवसाय है जो सिर्फ ठीक करने (फिक्सिंग) पर ध्यान देता है और मात्र उस समझ को बढ़ावा देता है जो ठीक करने में या स्थापित चिकित्सा वैज्ञानिकों के कैरियर में मदद करे…। PNAS में मेरे आलेख (कि क्यों चिकित्सा पाठ्यक्रम में जैव विकास ज़रूरी है) में हारवर्ड और येल विश्वविद्यालय के डीन्स सहलेखक थे किंतु उसका लगभग कोई असर नहीं हुआ।”

पाठ्यक्रम सुधार प्राय: विभिन्न विषयों के संरक्षकों के बीच दंगल-सा होता है। जैव विकास के मामले में एक अतिरिक्त समस्या है – जैव विकास को लेकर धार्मिक आपत्तियां और कतिपय समाजों में हित-सम्बंधी समूहों के तुष्टिकरण की राजनैतिक मजबूरी। डॉक्टरों और चिकित्सा विज्ञान शोधकर्ताओं को वैकासिक सोच आत्मसात करवाना पाठ्यक्रम सुधार के बिना संभव नहीं है। लेकिन यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रगति बहुत कम हुई है और भविष्य भी बहुत आशाजनक नहीं लगता।

इस बात की तत्काल ज़रूरत है कि शिक्षाविद और प्रशासक इस बाधा को पार करने के उपाय निकालें, क्योंकि दांव पर काफी कुछ लगा है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://iiif.elifesciences.org/journal-cms/collection%2F2021-07%2Felife-evolutionary-medicine-2.jpg/0,1,10738,3576/2000,/0/default.jpg