पश्चिमी घाट का पालक्कड़ (पालघाट) दर्रा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

श्चिमी घाट का एक अहम विभाजक कहा जाने वाला पालक्कड़ दर्रा लगभग 40 किलोमीटर चौड़ा है। इसके दोनों ओर समुद्र तल से 2000 मीटर तक ऊंचे, एकदम खड़ी ढलान वाले नीलगिरी और अन्नामलाई पर्वत हैं।

ऐतिहासिक रूप से पालक्कड़ दर्रा केरल राज्य में प्रवेश के लिए महत्वपूर्ण रहा है। यहां से कोयम्बटूर को पालक्कड़ से जोड़ने वाले सड़क और रेल मार्ग गुज़रते हैं। इसके बीच से भरतप्पुझा नदी बहती है। पश्चिमी घाट के ऊष्णकटिबंधीय वर्षावनों के विपरीत, पालक्कड़ दर्रे की वनस्पति शुष्क सदाबहार वन की श्रेणी में आती है। यह दर्रा पश्चिमी घाट में पाई जाने वाली वनस्पतियों और जंतुओं का विभाजक भी है। उदाहरण के लिए, मेंढकों की कई प्रजातियां दर्रे के केवल एक तरफ पाई जाती हैं।

भूवैज्ञानिक उथल-पुथल

यह दर्रा एक भूवैज्ञानिक अपरूपण क्षेत्र है जो पूर्व-पश्चिम की ओर खुलता है। अपरूपण क्षेत्र पृथ्वी की भूपर्पटी के कमज़ोर क्षेत्र होते हैं – यही कारण है कि कोयम्बटूर क्षेत्र में कभी-कभी भूकंप के झटके महसूस किए जाते हैं।

माना जाता है कि पालक्कड़ दर्रे का निर्माण ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका के गोंडवाना भूभाग से टूटकर अलग होने के बाद महाद्वीपीय जलमग्न तटों के बहाव की वजह से हुआ है।

भारत और मेडागास्कर तब तक एक ही भूभाग का हिस्सा थे जब तक कि बड़े पैमाने पर हुई ज्वालामुखीय गतिविधि ने दोनों को विभाजित नहीं कर दिया था; यह विभाजन वहां हुआ था जहां पालक्कड़ दर्रा है – यह दर्रा बिलकुल मेडागास्कर के पूर्वी ओर स्थित रेनोत्सरा दर्रे का दर्पण प्रतिबंब है। दर्रा कितना पहले बना था? मेडागास्कर लगभग 10 करोड़ साल पहले अलग हो गया था, और दर्रा इससे पहले बन गया था; लेकिन कितने पहले बना था इस पर अभी सोच-विचार जारी है।

यह अनुमान है कि दर्रे के उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्र में पाई जाने वाली प्रजातियों में अंतर का एक कारण प्राचीन नदी या सुदूर अतीत में समुद्र की घुसपैठ हो सकता है।

नीलगिरी पर्वत पर पाए जाने वाले हाथियों के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए अन्नामलाई पर्वत और पेरियार अभयारण्यों में पाए जाने वाले हाथियों से भिन्न होते हैं।

आईआईएससी बैंगलोर द्वारा किए गए एक अध्ययन में पेट पर सफेद धारी वाले शॉर्टविंग पक्षी के डीएनए अनुक्रम के विस्तृत डैटा का विश्लेषण किया गया है। शॉर्टविंग एक स्थानिक और संकटग्रस्त पक्षी है। ऊटी और बाबा बुदान के आसपास पाए जाने वाले पक्षियों को नीलगिरी ब्लू रॉबिन कहा जाता है; अन्नामलाई पर पाए जाने वाले पक्षी दिखने में थोड़े अलग होते हैं, और इन्हें व्हाइट-बेलीड ब्लू रॉबिन कहा जाता है।

दर्रे का दक्षिणी भाग

किसी भी क्षेत्र की जैव विविधता दो तरीकों से व्यक्त की जाती है। एक, प्रजातियों की प्रचुरता से। यानी किसी पारिस्थितिकी तंत्र में कितनी प्रजातियां पाई जाती हैं। और दूसरा, फाइलोजेनेटिक विविधता से। फाइलोजेनेटिक विविधता में देखा जाता है कि वहां उपस्थित प्रजातियों के बीच जैव विकास की दृष्टि से कितनी दूरी है।

हैदराबाद स्थित सीसीएमबी और अन्य संस्थानों के शोधदल द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पालक्कड़ दर्रे के दक्षिणी पश्चिमी घाट में ये दोनों विविधताएं प्रचुर मात्रा में हैं। मैग्नोलिया चंपका (चंपा) सहित यहां पेड़ों की 450 से अधिक प्रजातियां हैं, जो यहां लगभग 13 करोड़ वर्षों से अधिक समय से हैं।

भूमध्य रेखा से करीब होने के कारण गर्म मौसम और नम हवा के कारण दक्षिणी पश्चिमी घाट में बहुत बारिश होती है। इसलिए यह क्षेत्र जीवन के सभी रूपों के लिए एक आश्रय की तरह रहा है, भले ही बार-बार आते हिमयुगों और सूखे के चक्र ने आसपास के क्षेत्रों में जैव विविधता कम कर दी हो। देखा जाए तो पालक्कड़ दर्रे के उत्तर की ओर सालाना अधिक बारिश होती है, लेकिन दक्षिणी हिस्से में साल भर समान रूप से बारिश होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पहला उभयचर परागणकर्ता

मिल्क ट्री के मलाईदार फल और मकरंद से भरपूर फूल ब्राज़ील के मूल निवासी मेंढक ज़िनोहायला ट्रंकेटा (Xenohyla truncata) के प्रिय हैं। गर्म रातों में, इनके फलों को खाने और मकरंद के लिए भूरे रंग के ये मेंढक बड़ी संख्या में इन पौधों पर टूट पड़ते हैं। फूलों का मकरंद पीते हुए ये एकदम फूल के अंदर चले जाते हैं, सिर्फ इनके पिछले पैरों वाला हिस्सा बाहर से दिखाई देता है। इस दौरान चिपचिपे परागकण इनके शरीर से चिपक जाते हैं।

फूड वेब्स पत्रिका में शोधकर्ताओं ने संभावना जताई है कि इस तरह ये मेंढक जाने-अनजाने इन पौधों को परागित भी कर देते होंगे। युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पिनास के लुईस फिलिप टोलेडो और उनके साथियों ने बताया है कि पहली बार किसी मेंढक को, या यू कहें कि किसी उभयचर को, किसी पौधे का परागण करते देखा गया है। आम तौर पर केवल कीटों और पक्षियों को ही परागणकर्ता के रूप में देखा जाता था। लेकिन पिछले कुछ अध्ययनों में कुछ सरीसृप और स्तनधारी भी यह काम करते देखे गए हैं। और अब इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने परागणकर्ता के रूप में उभयचर की संभावना जताई है। इसकी पुष्टि के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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ठंडक के लिए कुकुरमुत्ते

हाल ही में पता लगा है कि कुकुरमुत्ते (मशरूम) और अन्य फफूंदें अपने परिवेश के तापमान की तुलना में अधिक ठंडे बने रहते हैं। नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के अनुसार इसका कारण उनमें भरपूर मात्रा में पानी की उपस्थिति है। लगभग हमारे पसीने की तरह यह पानी धीरे-धीरे वातावरण में वाष्पित होता रहता है, और तापमान कम करता है।

मशरूम तथा अन्य फफूंदों की इस विशेषता के बारे में तब पता चला जब जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के सूक्ष्मजीव विज्ञानी रैडामेस कॉर्डेरो अपनी प्रयोगशाला के नए थर्मल कैमरे का परीक्षण कर रहे थे। यह कैमरा इन्फ्रारेड-ऊष्मा को छवि के रूप में रिकॉर्ड कर सकता है। कॉर्डेरो और उनके सहयोगी आर्टुरो कैसाडेवल ने कैमरे से यह पता लगाने का प्रयास किया कि कुछ कवक के गहरे रंग के रंजक उनकी सतह के तापमान को कैसे प्रभावित करते हैं। अध्ययन में उन्होंने लगभग 20 प्रकार के जंगली मशरूम की छवियां तैयार की जो अपने परिवेश की तुलना में काफी ठंडे थे।

प्रयोगशाला जांच में उन्होंने पाया कि ब्राउन अमेरिकन स्टार-फूटेड एमेनाइटा जैसी कुछ प्रजातियों का तापमान अपने परिवेश की तुलना में एक या दो डिग्री कम था जबकि ओइस्टर मशरूम का तापमान अपने परिवेश से लगभग छह डिग्री सेल्सियस कम था। शराब बनाने वाली खमीर सहित 19 प्रकार के फफूंदों में इसी तरह के पैटर्न दिखाई दिए। यहां तक कि ठंडे मौसम में भी इनकी कॉलोनियों का तापमान लगभग एक डिग्री सेल्सियस कम था। एक-कोशिकीय कवकों के तापमान में इस तरह के पैटर्न काफी आश्चर्यजनक हैं। कॉलोनी के रूप में भी देखा जाए तो मशरूम की तुलना में इन कवकों का सतह-क्षेत्र प्रति आयतन बहुत कम होता है। ऐसे में सतह से गर्मी विकिरित होकर तापमान को कम करना आश्चर्यजनक है।

शीतलन क्षमता के मापन से पता चला है कि शीतलन प्रभाव कवक से वाष्पित होने वाले पानी के कारण होता है जो एक गर्म दिन में हमारे शरीर से निकलने वाले पसीने जैसा काम करता है। मशरूम के नीचे की गलफड़ेनुमा बनावट सतह क्षेत्र में वृद्धि करती हैं। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इस विशेषता से मशरूम को क्या फायदा होता है।

बहरहाल इन मशरूमों की ठंडक का इस्तेमाल तो किया ही जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग आधा-किलोग्राम बटन मशरूम को एक छोटे स्टायरोफोम पैकिंग बॉक्स में रखा। इसमें हवा के लिए दो छेद रखे। हवा खींचने के लिए एक छेद में एक कंप्यूटर एग्ज़ॉस्ट फैन लगाया और बॉक्स को एक बड़े स्टायरोफोम कंटेनर में रख दिया। पंखा चालू होने के 40 मिनट के अंदर बड़े कंटेनर का तापमान 10 डिग्री सेल्सियस तक गिर गया और आधे घंटे तक कम ही बना रहा। इस व्यवस्था से बर्फ तो नहीं जमेगा लेकिन यदि आपका पिकनिक का कोई प्रोग्राम है तो खाना ठंडा रखने के लिए मशरूम एक अच्छा विकल्प है। और तो और, बाद में आप इसे खा भी सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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हृदय रुक जाने के बाद भी मस्तिष्क में गतिविधियां

मौत के करीब से गुज़रे कई लोग बताते हैं कि उनकी नज़रों के सामने से उनका जीवन गुज़रने लगता है। जीवन के यादगार क्षण दोहराने लगते हैं और यह सब कुछ वे शरीर के बाहर से अनुभव करते हैं जैसे खुद को कहीं बाहर से देख रहे हों। हाल ही में चार मरणासन्न लोगों पर किए गए एक अध्ययन से लगता है कि इसकी व्याख्या की जा सकती है। पता चला है कि मृत्यु के दौरान दिल की धड़कन बंद होने के बाद भी दिमाग में हलचल जारी रहती है।

चिकित्सकीय रूप से मृत्यु उस स्थिति को कहा जाता है जब हृदय हमेशा के लिए धड़कना बंद कर देता है। लेकिन हालिया अध्ययनों से पता चला है कि हृदय गति रुकने के बाद भी कुछ सेकंड से लेकर घंटों तक मस्तिष्क में हलचल जारी रह सकती है। वर्ष 2013 में चूहों पर हुए एक अध्ययन में चूहों के मस्तिष्क में मरने के 30 सेकंड बाद तक चेतना के लक्षण देखे गए थे।

अब एक नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की न्यूरोलॉजिस्ट जिमो बोर्जिगिन की टीम ने कोमा या लाइफ सपोर्ट वाले चार ऐसे रोगियों के सिर पर ईईजी टोपियां लगाईं जिनके जीने की संभावनाएं काफी कम थीं।  

ये टोपियां मस्तिष्क की सतह के विद्युत संकेतों की निगरानी के लिए लगाई गई थीं। चिकित्सकों द्वारा वेंटीलेटर हटाए जाने पर दो रोगियों के दिल की धड़कन बंद होने के बाद दिमाग में गामा तरंग नामक उच्च-आवृत्ति वाले तंत्रिका पैटर्न देखे गए। एक स्वस्थ व्यक्ति में ऐसे पैटर्न तब बनते हैं जब वह कुछ सीख रहा हो, या कोई स्मृति या सपना याद कर रहा हो। कई तंत्रिका वैज्ञानिक इसे चेतना से जोड़ते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार गामा तरंगें इस बात का संकेत देती हैं कि मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्र एक साथ काम कर रहे थे, जैसे – हम किसी वस्तु को समझने के लिए दृष्टि, गंध और ध्वनि को एक साथ महसूस करते हैं। हालांकि यह अभी भी एक रहस्य है कि मस्तिष्क यह सब कैसे करता है लेकिन मरने वाले लोगों में गामा तरंगें देखकर ऐसा लगता है कि वे अपने अंतिम क्षणों में यादगार घटनाएं याद कर रहे थे।

टीम ने मस्तिष्क के उस क्षेत्र की विद्युत गतिविधियों में वृद्धि देखी, जिसकी चेतना में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है और यह क्षेत्र सपनों, दिमागी दौरे और मतिभ्रम के दौरान सक्रिय होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार मस्तिष्क की गतिविधि में अचानक वृद्धि होना उसके जीवित रहने की कोशिश का हिस्सा है – ऑक्सीजन से वंचित होने पर मस्तिष्क इस मोड में चला जाता है। मस्तिष्क-मृत्यु से गुज़रते जीवों के अध्ययन में पाया गया है कि उनका मस्तिष्क कई संकेतक अणु छोड़ने लगता है और खुद को पुनर्जीवित करने की कोशिश करने के लिए असामान्य ब्रेनवेव पैटर्न बनाता है। ऐसा करते हुए वह चेतना के बाहरी संकेतों को बंद कर देता है।

बोर्जिगिन मरणासन्न मरीज़ों में मस्तिष्क गतिविधि का अध्ययन करने के लिए अन्य चिकित्सा केंद्रों के साथ सहयोग की उम्मीद करती हैं ताकि निष्कर्षों की पुष्टि हो सके। (स्रोत फीचर्स)

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भूख का नियंत्रण करते सात हार्मोन

हने को तो यह बड़ी सरल-सी बात है कि हमें जब भूख लगती है तो हम खाना खा लेते हैं, और पेट भरने का एहसास होने पर खाना बंद कर देते हैं। लेकिन वास्तव में यह काफी जटिल मामला है। आपको भूख लगने और पेट भरने का एहसास दिलाने के लिए कई हार्मोन मिल-जुल कर काम करते हैं ताकि न खाने या अत्यधिक खाने के कारण शरीर और स्वास्थ्य प्रभावित न हो।

यहां भूख नियमन में लिप्त सात प्रमुख हार्मोन पर बात की जा रही है। इनमें कुछ हार्मोन जेनेटिक कारकों से प्रभावित होते हैं जबकि कुछ अन्य हार्मोंन हमारी जीवन शैली, सेहत की हालत और/या शरीर के वज़न में परिवर्तन से प्रभावित होते हैं। कुछ हार्मोन भोजन सेवन का अल्पकालिक नियमन करते हैं ताकि हम अत्यधिक भोजन करने से बच जाएं, वहीं अन्य हार्मोन शरीर में सामान्य ऊर्जा भंडार को बनाए रखने के लिए दीर्घकालिक भूमिका निभाते हैं।

लेप्टिन: लेप्टिन हार्मोन हमारे शरीर के वसा ऊतकों द्वारा बनाया जाता है। वसा कोशिकाएं तृप्ति (पेट भरने) का संकेत देने के लिए पूरे शरीर में लेप्टिन स्रावित करती हैं, जिससे भूख शांत होने का एहसास होता है और भोजन सेवन रोक दिया जाता है। 1994 में लेप्टिन के बारे में पता चलने से पहले हमें यह नहीं पता था कि शरीर के वसा भंडार मस्तिष्क के साथ कैसे संवाद करते हैं।

जो लोग मोटापे का शिकार होते हैं उनमें लेप्टिन का स्तर अधिक होता है क्योंकि या तो उनके शरीर में अधिक वसा कोशिकाएं होती हैं या उनका शरीर हार्मोन के प्रति प्रतिरोधी होता है। दूसरी ओर, यदि आप भोजन में कैलोरी की मात्रा घटाते हैं और शरीर की चर्बी घटाते हैं तो शरीर में लेप्टिन का स्तर कम हो जाता है। लेप्टिन भूखे मरने और शरीर के वसा भंडार को घटने से बचाने की कोशिश करता है। एक मायने में यह वज़न को संतुलित बनाए रखने वाला हार्मोन है।

ग्रेलीन: ग्रेलीन आमाशय में बनता है, और इसे अक्सर ‘भूख का हार्मोन’ कहा जाता है। खाने से ठीक पहले ग्रेलीन का स्तर बढ़ा हुआ होता है, और भोजन करने के बाद कम हो जाता है।

यदि आप वज़न कम करने की कोशिश में कम कैलोरी लेते हैं, तो ग्रेलीन अपने सामान्य स्तर से बढ़ा रहेगा। इससे वज़न कम करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि सामान्य से अधिक समय तक भूख का एहसास बना रहेगा या बार-बार भूख लगेगी। 2017 में ओबेसिटी पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि ग्रेलीन के सामान्य से अधिक स्तर ने लोगों में खाने की लालसा बढ़ा दी थी – खासकर तले-भुने, मसालेदार या मीठे पदार्थों के लिए, और छह महीने में ही उनका वज़न काफी बढ़ गया था।

कोलेसिस्टोकायनीन (CCK): यह तृप्ति के एहसास से जुड़ा हार्मोन है। यह खाना खाने के बाद आंत में बनता है और पेट भरे होने का एहसास दिलाता है। यह आमाशय से भोजन के गुज़रने की गति को मंद करके पाचन बेहतर करता है जिससे देर तक पेट भरे होने का एहसास होता है। इसके चलते अग्न्याशय से वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का चयापचय करने वाले और अधिक द्रव और एंज़ाइम स्रावित होते हैं।

इंसुलिन: रक्तप्रवाह में शर्करा का स्तर बढ़ जाने पर अग्न्याशय की बीटा कोशिकाओं द्वारा इंसुलिन स्रावित किया जाता है। कार्बोहाइड्रेट के अधिक सेवन से अधिक इंसुलिन उत्पन्न होता है जो ज़्यादा ग्लूकोज़ को ऊर्जा के लिए कोशिकाओं में भेजने का काम करता है। यह हार्मोन भी तृप्ति का एहसास कराता है।

कॉर्टिसोल: इसे तनाव हार्मोन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि शरीर में इसका स्तर तब उच्च होता है जब आप तनाव में होते हैं। वास्तव में, कॉर्टिसोल के कई अलग-अलग कार्य होते हैं – इनमें से एक है चयापचय को नियंत्रित करना। कॉर्टिसोल का उच्च स्तर इंसुलिन के काम में बाधा डालता है और वसा भंडारण बढ़ाता है। देखा गया है कि जीर्ण तनाव की स्थिति में, कॉर्टिसोल के उच्च स्तर से भूख बढ़ जाती है खासकर मीठा, नमकीन-मसालेदार, या वसायुक्त भोजन की भूख तथा रक्त में शर्करा और इंसुलिन का स्तर बढ़ जाता है। न्यूरोइमेज क्लीनिकल पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि कॉर्टिसोल का अधिक स्तर भूख को उकसाता है और मस्तिष्क के उन क्षेत्रों में रक्त प्रवाह को कम कर देता है जो भोजन सेवन का नियंत्रण करते हैं।

ग्लूकागोन लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1): GLP-1 खाना खाने के बाद आंत में मुक्त होता है। यह मस्तिष्क में रिसेप्टर्स के साथ संवाद करता है और तृप्ति का एहसास पैदा करता है। यह पाचन और आंत से भोजन गुज़रने की गति को धीमा कर देता है, जिसके कारण लंबे समय तक पेट भरे होने का एहसास होता रहता है।

ग्लूकोज़ डिपेंडेंट इंसुलिनोट्रॉपिक पॉलीपेप्टाइड (GIP): यह हार्मोन खाना खाने के बाद छोटी आंत द्वारा बनाया जाता है। यह इंसुलिन के स्तर को बढ़ाता है जो ग्लायकोजन और वसा अम्लों के निर्माण को उकसाते हैं, और वसा को टूटने को रोकते हैं। GIP की भूमिका को पूरी तरह समझना बाकी है।

ये तो हुई भूख नियंत्रण में जुड़े हार्मोन्स की भूमिकाओं की बात। इनमें गड़बड़ी भूख नियंत्रण प्रणाली को गड़बड़ा देती है, नतीजतन शरीर और स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं। विशेषज्ञों की सलाह है कि कुछ उपचार और जीवनशैली में कुछ बदलाव मदद कर सकते हैं। इनमें से कुछ की चर्चा यहां की जा रही है।

भरपूर नींद: भूख से जुड़े कई हार्मोन के सुचारू कामकाज के लिए पर्याप्त नींद ज़रूरी है। नींद की कमी से शरीर में कॉर्टिसोल और ग्रेलीन का स्तर बढ़ा रहता है, और लेप्टिन कम हो जाता है। ओबेसिटी पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि रात में नींद की कमी से पुरुषों की तुलना में महिलाओं में लेप्टिन का स्तर अधिक कम हुआ था। और जो लोग मोटापे से ग्रस्त थे उनमें नींद की कमी के कारण ग्रेलीन का स्तर बढ़ा हुआ था।

नियमित व्यायाम: देखा गया है कि एरोबिक व्यायाम कुछ समय के लिए भूख को शांत कर देते हैं, ग्रेलीन का स्तर कम कर देते हैं और GLP-1 के स्तर को बढ़ा देते हैं। और सघन व्यायाम स्वस्थ लोगों में ग्रेलीन के स्तर को अधिक प्रभावी तरीके से कम करते हैं। लगता है कि नियमित व्यायाम इन हार्मोन को आपके पक्ष में करेंगे, और इंसुलिन को शरीर में बेहतर तरीके से काम करने में मदद करेंगे।

तनाव भगाना: जीवन एकदम ही तनावमुक्त हो, ऐसा होना तो ज़रा मुश्किल है। लेकिन खुद को तनावमुक्त रखने के उपाय करके आप भूख सम्बंधी हार्मोन्स को संतुलित रख सकते हैं।

अध्ययनों में पाया गया है कि अत्यधिक तनाव भूख घटाता है, लेकिन जीर्ण या लंबे समय के तनाव से शरीर में कॉर्टिसोल का स्तर बढ़ता है। नतीजतन खाने की इच्छा बढ़ती है – खास कर उच्च कैलोरी वाली चीज़ों को खाने की।

तनाव और कॉर्टिसोल के स्तर को कम करने में सांस सम्बंधी या शारीरिक व्यायाम कारगर पाए गए हैं। बिहेवियोरल साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि मानसिक शांति के लिए किए गए 12 मिनट के सत्र, सांस सम्बंधी व्यायाम सहित, से लार के कॉर्टिसोल स्तर में कमी आई।

इसके अलावा खान-पान का ध्यान रखना (जैसे प्रोसेस्ड खाद्य का कम सेवन, भोजन में साबुत अनाज, फल, सब्ज़ियां शामिल करना) फायदेमंद होगा।

बहरहाल कभी-कभी हार्मोन का संतुलन रखने के लिए चिकित्सकीय हस्तक्षेप की ज़रूरत भी पड़ती है। मोटापे और डायबिटीज़ के इलाज के लिए GLP-1 और GIP हार्मोन पर लक्षित उपचार इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि कई दवाएं मोटापा घटाने और रक्त शर्करा नियंत्रित करने में कारगर हैं। लेकिन इनका उपयोग चिकित्सकीय सलाह पर आहार, जीवनशैली में परिवर्तन और व्यायाम के साथ किया जाना चाहिए। आखिर आप पूरी तरह दवाओं पर निर्भर तो नहीं रह सकते – वे संपूर्ण समाधान नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एलीफैंट सील गोता लगाने के दौरान झपकी लेते हैं

भी स्तनधारी प्राणियों के लिए पर्याप्त नींद स्वास्थ्य और विकास के लिए आवश्यक है। कई जीव तो दिन में 20 घंटे तक सोते हैं। अलबत्ता, अफ्रीकी हाथी के लिए केवल दो घंटे की नींद पर्याप्त है। लेकिन अब इस थलीय प्राणि को एक समुद्री स्तनधारी ने टक्कर दी है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी एलीफैंट सील के लिए भी दो घंटे की नींद पर्याप्त है। भूमि की तुलना में ये समुद्र में बहुत कम समय के लिए सोते हैं और इस दौरान वे सैकड़ों फीट की गहराई तक पहुंच जाते हैं।

अमेरिका के पश्चिमी तट पर पाए जाने वाले एलीफैंट सील गोता लगाने में माहिर होते हैं और 2500 फीट गहरा गोता लगाकर लगभग दो घंटे तक वहां रह भी सकते हैं। इनका वज़न एक कार जितना होता है और लंबाई लगभग 13 फीट होती है। अपने भारी-भरकम शरीर को बनाए रखने के लिए ये हर साल लगभग 7 महीने समुद्र में शिकार करते हैं। इनका मुख्य आहार मछली और स्क्विड हैं।

इन गहरे समुद्रों में आम तौर पर व्हाइट शार्क और किलर व्हेल शिकारी की भूमिका में होते हैं। इनसे बचने के लिए डॉल्फिन और फर सील जैसे कई स्तनधारी समुद्री जीव एक समय में अपने आधे मस्तिष्क को आराम देते हैं और उनका आधा मस्तिष्क सक्रिय रहता है। इस तरह की निद्रा को एकल-गोलार्ध निद्रा कहा जाता है जिसमें जंतु की एक आंख खुली रहती है। इसके उलट, एलीफैंट सील बिलकुल मनुष्य के समान सोते हैं और उनका मस्तिष्क पूरी तरह आराम कर रहा होता है।

सैन डिएगो स्थित स्क्रिप्स इंस्टीट्यूट ऑफ ओशियनोग्राफी की जेसिका कैंडल-बार ने उत्तरी एलीफैंट सील की निद्रा, शिकार और शिकार होने से बचाव के पैटर्न को समझने का प्रयास किया। कैंडल-बार और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया जो सील की मस्तिष्क तरंगों, हृदय गति, गोते की गहराई और गतियों की निगरानी कर सके। उपकरण एक टोपी की तरह सील के सिर के ऊपर आसानी से फिट हो जाता है। इन उपकरणों को कई एलीफैंट सील के सिर पर लगाकर पांच दिनों तक उनकी दिनचर्या का अध्ययन किया गया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि गोता लगाने के बाद वे तैरना बंद कर देते हैं और ग्लाइड करने लगते है। जैसे-जैसे वे गहराई में जाते हैं उनके मस्तिष्क की गतिविधि मंद पड़ने लगती है। जल्द ही वे गहरी नींद में सो जाते हैं और उलटे होकर एक गिरती हुई पत्ती के समान लहराते हुए समुद्र के पेंदे की ओर जाने लगते हैं। लगभग 10 मिनट लंबी नींद के बाद वे अचानक जाग जाते हैं और सतह पर वापस आ जाते हैं। इस दौरान कुछ सील 1000 फीट से भी अधिक गहराई तक चले जाते हैं और कभी-कभी तो वे समुद्र के पेंदे तक पहुंच जाते हैं।

एलीफैंट सील दिन में कई बार इस तरह के गोते लगाते हैं जिससे उन्हें लगभग दो घंटे की नींद मिलती है। सील जब भूमि पर प्रजनन करने के लिए आते हैं तो दिन में 10 घंटे से अधिक सोते हैं। इस दौरान वे कुछ खाते नहीं हैं जिससे अतिरिक्त नींद की आवश्यकता समझ आती है।

इस अध्ययन के आधार पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एलीफैंट सील अधिकतम भोजन करने के लिए समुद्र में सोने का समय तो सीमित करते ही हैं साथ ही खुद के शिकार होने के समय को भी कम करते हैं।

जीव जगत में एलीफैंट सील की नींद की अवधि में एक अनोखा लचीलापन दिखता है। लगभग 200 से अधिक दिनों के लिए दिन में दो घंटे की नींद से लेकर बाकी दिनों में 10.8 घंटे प्रतिदिन की नींद का पैटर्न किसी अन्य स्तनधारी में नहीं देखा गया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक समुद्री स्तनधारी जीवों के नींद के पैटर्न के बारे में अधिक जानकारी उनके प्राकृतवास प्रबंधन को सुधारने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)

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पतझड़ के बाद पेड़ों को पानी कैसे मिलता है? – डॉ. किशोर पंवार

सतपुड़ा, विंध्याचल या अरावली पर्वत शृंखलाओं के जंगलों में कभी फरवरी-मार्च के महीनों में पैदल चल कर देखिए; सूखे पत्तों की चरचराहट की आवाज़ साफ सुनाई देगी। मानो पत्ते कह रहे हों कि जनाब आप पतझड़ी जंगल में विचर रहे हैं। इन जंगलों में कहीं-कहीं पर तो सूखे पत्तों की यह चादर एक फीट तक मोटी होती है जो सेमल, पलाश, अमलतास, सागौन वगैरह के पत्तों के गिरने से बनी होती है।

अप्रैल-मई के महीनों में जब तेज़ गर्म हवाएं चल रही होती हैं, हवा भी सूखी होती है, धरती का कंठ भी सूखने लगता है। उस समय देखने में आता है कि इन पतझड़ी पेड़ों के ठूठ हरे होने लगते हैं। पलाश, अमलतास, सुनहरी टेबेबुइया और पांगरा फूलने लगते हैं।

लेकिन बिना पानी के यह कैसे संभव होता है? हमारे बाग-बगीचों की तरह जंगल में तो कोई पानी देने भी नहीं जाता। तब पेड़ों पर फूटने वाली नई कोपलों और फूलों के लिए भोजन-पानी कहां से आता है? जबकि ये पेड़ अपनी पाक शालाएं (पत्तियां) तो दो महीने पहले ही झड़ा चुके थे।

इस सवाल का जवाब एक शब्द ‘सुप्तावस्था’ में छुपा हुआ है। दरअसल ये पेड़-पौधे आने वाले सूखे गर्म दिनों को भांप लेते हैं। अत: आने वाली गर्मियों (या ठंडे देशों में जाड़े) के मुश्किल दिनों को टालने के लिए ये पेड़ दो-तीन महीनों की विश्राम की अवस्था में चले जाते हैं, लेकिन पूरी तैयारी के साथ। जब तैयारी पूरी हो जाती है तब सूचना पटल के रूप में पेड़ों की ये लाल-पीली पत्तियां इन पेड़ों की टहनियों पर टंगी नज़र आती है कि अब दुकान बंद हो गई है। फिर कुछ ही दिनों में हवा के झोंकों से ये पत्तियां भी गिर जाती हैं।

इन पतझड़ी पेड़ों की ही तरह ठंडे देशों में ग्रिज़ली बेयर यानी भूरा भालू और डोरमाइस, जो कि एक प्रकार का चूहे जैसा रात्रिचर जीव है, सुप्तावस्था (या शीतनिद्रा) में चले जाते हैं। ग्रिज़ली भालू जाड़ा पड़ने के पहले खा-खाकर अपने शरीर में वसा की इतनी मोटी परत चढ़ा लेता है कि पूरी सर्दियों जीवित रह सके।

पतझड़ी पेड़ भी सुप्तावस्था की तैयारी बिल्कुल ऐसे ही करते हैं। सूर्य की ऊर्जा से वे शर्करा और अन्य पदार्थ बनाते हैं जिन्हें वे अपनी त्वचा के नीचे भंडारित करके रखते हैं। पेड़ों की त्वचा यानी उनकी मोटी छाल ऊपर से तो मरी-मरी लगती है पर अंदर से जीवित होती है। एक निश्चित बिंदु पर आकर पेड़ों का पेट भर जाता है; इस स्थिति में पेड़ थोड़े मोटे भी लगने लगते हैं। ठंडे देशों के चेरी कुल के जंगली पेड़ों की पत्तियां अक्टूबर के पहले ही लाल होने लगती हैं और इसका सीधा अर्थ यह होता है कि उनकी छाल और जड़ों में भोजन संग्रह करने वाले स्थान भर चुके हैं, और यदि वे और शर्करा बनाते हैं तो उसे भंडारित करने के लिए अब उनके पास कोई जगह नहीं बची है।

ठंडे देशों में पहली ज़ोरदार बर्फबारी होने तक उन्हें अपनी सभी गतिविधियां बंद करनी होती हैं। इसका एक महत्वपूर्ण कारण पानी है; सजीवों के उपयोग हेतु इसे तरल अवस्था में होना ज़रूरी होता है। परंतु लगता है कुछ पेड़ अभी जाड़े के मूड में नहीं हैं।

ऐसा दो कारणों से होता है पहला कि वे अंतिम गर्म दिनों का उपयोग ऊर्जा संग्रह के लिए करते रहते हैं, और दूसरा अधिकांश प्रजातियां पत्तियों से ऊर्जा संग्रह कर अपने तनों और जड़ों में भोजन भेजने में लगी होती हैं। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्हें अपने हरे रंग के क्लोरोफिल को उसके घटकों में तोड़कर उन घटकों को संग्रह करना होता है ताकि आने वाले बसंत में नई पत्तियों में क्लोरोफिल के निर्माण में इनका उपयोग हो सके।।

गर्म देशों के हों या ठंडे देशों के, पतझड़ी पेड़ों के लिए बासी पत्तियों को खिराना एक प्रभावी सुरक्षा योजना होती है। यह पेड़ों के लिए अपने व्यर्थ या अवांछित पदार्थों को त्यागने का एक अवसर भी होता है। व्यर्थ पदार्थ ज़मीन पर इधर-उधर उनकी त्यागी हुई पत्तियों के रूप में उड़ते रहते हैं। जब पत्तियों में भंडारित ऊर्जा वापस शाखाओं और जड़ों में अवशोषित कर ली जाती है, तब पेड़ों की कोशिकाओं में एक विलगन परत बनती है जो पत्तियों और शाखाओं के बीच का संपर्क बंद कर देती है। ऐसे में हल्की हवा का झोंका लगते ही पत्तियां ज़मीन पर आ जाती है।

यह तो हुई ऊर्जा की बात। पानी की व्यवस्था के लिए जब पानी उपलब्ध होता है तब जड़ें उसे तनों की छाल में व स्वयं अपने आप में संग्रह करती रहती हैं। पौधों का एक नाम पादप भी है अर्थात पांव से पानी पीने वाले जीव। पांव (जड़ों) से पीकर पानी को तने और जड़ों में संग्रह कर लिया जाता है।

मई-जून के महीनों में इन मृतप्राय पेड़ों में नई पत्तियां और फूलों के खिलने के लिए जो ऊर्जा और पानी लगते हैं, वे शाखाओं और जड़ों के इसी संग्रह से मिलते हैं। किंतु अब बहाव की दिशा उल्टी है।

पानी का परिवहन

वनस्पति विज्ञान की किताबें कहती हैं कि सौ से डेढ़ सौ फीट ऊंचे पेड़ों में पानी को ज़मीन से खींचकर शीर्ष तक पहुंचाने में पत्तियों में होने वाली वाष्प उत्सर्जन क्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सिद्धांत को वाष्पोत्सर्जन खिंचाव बल नाम दिया गया है। पर यह सवाल गर्मियों के दिन में बड़ा रोचक हो जाता है – जब पेड़ों पर पानी खींचने वाले छोटे-छोटे पंप अर्थात पत्तियां नहीं हैं, तो फिर पत्ती विहीन पेड़ों के शीर्ष पर फूटने वाली नई कोपल और कलियों को पानी कौन और कैसे पहुंचाता है। अत: लगता है मामला कुछ और भी है जो हम अभी तक नहीं जानते। सचमुच प्रकृति के क्रियाकलाप अद्भुत हैं और जानने को आज भी बहुत कुछ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीनी और वसा से मस्तिष्क कैसे प्रभावित होता है

आम तौर पर जब किसी बुरी आदत या लत की बात होती है तो हम धूम्रपान या मद्यपान के बारे में सोचते हैं। लेकिन एक ऐसी भी लत है जिसने वयस्कों और बच्चों की बड़ी संख्या को अपनी चपेट में लिया है। यह लत खानपान की लत है।

खानपान में भी विशेष रूप से वसा और चीनी से भरपूर भोजन हमें अधिक लुभाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो भोजन की लालसा मात्र एक भावना नहीं है। गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में हमारा भोजन अति-प्रोसेस्ड हो गया है। इस प्रकार का भोजन शरीर में चीनी और वसा संवेदी ग्राहियों को सक्रिय कर डोपामाइन मुक्त करने का काम करता है। प्रोसेस्ड खाद्य शरीर में कुछ ऐसे परिवर्तन करते हैं जिससे मस्तिष्क इनका अधिक सेवन करने को प्रोत्साहित करने लगता है और लंबे समय तक इनका सेवन शरीर के लिए घातक हो सकता है। विशेषज्ञ खानपान की लत को बारीकी से समझने का प्रयास कर रहे हैं।

इसके लिए सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि भोजन हमारे मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है। एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया मस्तिष्क से डोपामाइन नामक न्यूरोट्रांसमीटर मुक्त होना है। नशीले पदार्थों के समान खाना खाने से भी डोपामाइन मुक्त होता है। आम समझ है कि डोपामाइन आनंद में वृद्धि करता है लेकिन यह सच नहीं है। यह हमें ऐसे व्यवहारों को दोहराने के लिए उकसाता है जो जीवन के लिए ज़रूरी हैं। जैसे भोजन करना और प्रजनन। जितना अधिक डोपामाइन मुक्त होगा, उस व्यवहार को दोहराने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।

वसा या चीनी युक्त भोजन का सेवन करने पर हमारे मुंह का सेंसर स्ट्रिएटम को डोपामाइन मुक्त करने का संदेश भेजता है। स्ट्रिएटम मस्तिष्क का एक भाग है जो गतियों और पुरस्कार योग्य व्यवहार से जुड़ा है। लेकिन मुंह के सेंसर द्वारा डोपामाइन मुक्त होना पूरी प्रक्रिया का केवल एक हिस्सा है।

विशेषज्ञों के अनुसार आंत में भी वसा और चीनी के लिए एक द्वितीयक सेंसर होता है और वह भी मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को डोपामाइन मुक्त करने का संकेत देता है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत से मस्तिष्क तक चीनी की उपस्थिति का संकेत कैसे पहुंचता है लेकिन वसा के संकेत का पता लगाया जा चुका है। ऊपरी आंत में वसा का पता लगने पर वैगस तंत्रिका के माध्यम से पश्‍च-मस्तिष्क को संकेत पहुंचता है जो आखिरकार स्ट्रिएटम तक जाता है।         

यह देखा गया है कि चीनी व वसा से भरपूर खाद्य पदार्थ स्ट्रिएटम में डोपामाइन का स्तर सामान्य से 200 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। यह स्तर निकोटीन और शराब द्वारा की जाने वाली वृद्धि के बराबर है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि शकर ने डोपामाइन के स्तर को 135 से 140 प्रतिशत तक बढ़ाया जबकि वसा ने इस स्तर को 160 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था। तुलना के लिए कोकेन ने सामान्य डोपामाइन के स्तर को तीन गुना किया जबकि मेथाम्फेटामिन नेे इसे 10 गुना बढ़ाया।

जैसे-जैसे हम भोजन और मस्तिष्क के सम्बंध को समझ रहे हैं, वैसे-वैसे भोजन का उत्पादन इस तरह किया जाने लगा है कि हम खुद को रोक न पाएं। हमारे शरीरों को ऐसे खाद्य पदार्थों से पाट दिया गया है जिनमें कुछ विशिष्ट पोषक पदार्थों की मात्रा अत्यधिक है – जैसे शकर, वसा और नए-नए पदार्थों के सम्मिश्रण।

औद्योगिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ स्टार्च और हाइड्रोजनीकृत वसा से तैयार किए जाते हैं। इसके अलावा मज़ेदार स्वाद देने वाले कृत्रिम फ्लेवर, पानी और तेल को घुलनशील रखने वाले इमल्सीफायर और खाद्य सामग्री की संरचना को संरक्षित रखने वाले स्टेबिलाइज़र्स ने हमारे भोजन को अधिक आकर्षक तो बना दिया है लेकिन हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी किया है।

विशेषज्ञों के अनुसार अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों और बुनियादी चीज़ों से बनाए खाद्य पदार्थों के बीच अंतर करना ज़रूरी है। यह अंतर आहार सम्बंधी स्वास्थ्य समस्याओं से बचने का पहला कदम हो सकता है। अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ नशे की तरह काम करते हैं। जितनी तेज़ी से कोई चीज़ आपके मस्तिष्क को प्रभावित करती है उतनी ही जल्दी आपको उस चीज़ की लत लगती है। इसके साथ ही डोपामाइन मुक्त होने की गति को बढ़ाने के लिए कई प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों को पहले से ही थोड़ा पचाया गया होता है।

आखिर में इस पूरे मुद्दे में सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। प्रोसेस्ड खाद्य सामग्री काफी समय से सुलभ और सस्ती है तथा इसका काफी विज्ञापन भी किया जाता रहा है। लिहाज़ा, बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो जानते हैं कि ये खाद्य सामग्री स्वास्थ्यवर्धक नहीं हैं लेकिन फिर भी वे अपने आपको रोक नहीं पाते हैं।

किसी भी पदार्थ या ड्रग की लत के सम्बंध में सहनशीलता और उसे छोड़ने के परिणाम के सिद्धांत का इस्तेमाल किया जाता है। सहनशीलता यानी किसी ड्रग (या भोजन) का इतना आदी हो जाना कि उतना ही प्रभाव प्राप्त करने के लिए इसका और अधिक सेवन करना पड़े। जबकि छोड़ने के परिणाम का सम्बंध उन शारीरिक और मानसिक लक्षणों से है जो अचानक किसी नशीले पदार्थ का उपयोग बंद या कम करने पर होते हैं।

पूर्व में यह माना जाता था कि भोजन की लत वाले लोग खानपान जारी रखते हैं ताकि खुद को उसे छोड़ने की स्थिति जैसे चिंता, मितली और सिरदर्द से बचा सकें। भोजन के मामले में, डोपामाइन की कमी की परिकल्पना यह बताती है कि अगर हम कुछ खाते हैं और इससे पर्याप्त आनंद नहीं मिलता है, तो हम तब तक खाते रहेंगे जब तक वैसा आनंद महसूस नहीं करते।

लेकिन भोजन के मानसिक असर को लेकर अभी पूरी स्पष्टता नहीं है। वर्तमान में वैज्ञानिकों के पास इस बाबत उत्तर कम, प्रश्न अधिक हैं कि हमारा शरीर भोजन का आदी कैसे हो जाता है। हम जानते हैं कि डोपामाइन ही सब कुछ नहीं है क्योंकि सिर्फ इसी से भोजन आनंददायक नहीं बनता है। हालांकि शोधकर्ताओं ने वर्ष 2012 के एक अध्ययन में पाया है कि खाना खाने से हमारे अफीमी ग्राही उत्तेजित होते हैं, जो आनंद की भावना को बढ़ाते हैं। लेकिन वैज्ञानिक अभी भी इस प्रक्रिया के बारे में कम ही जानते हैं। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि ऊपरी आंत में एक संवेदक हमारे भोजन की पसंद-नापसंद में कुछ भूमिका निभाता है। कई अन्य इसके लिए हायपोथैलेमस को महत्वपूर्ण मानते हैं जो शरीर के तापमान से लेकर भूख के एहसास तक सब कुछ नियंत्रित करता है। (स्रोत फीचर्स)

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भालुओं में शीतनिद्रा में भी रक्त के थक्के क्यों नहीं जमते

लंबे समय की निष्क्रियता पैर की शिराओं और फेफड़ों में रक्त के थक्के जमा सकती है। लेकिन यह परेशानी महीनों लंबी शीतनिद्रा में सोए भालुओं में पेश नहीं आती। साइंस पत्रिका में बताया गया है कि इसका कारण है कि शीतनिद्रा में सोए भालू एक प्रोटीन (HSP47) कम बनाते हैं जो रक्त का थक्का जमाने में भूमिका निभाता है।

रक्त के थक्के मनुष्यों के लिए काफी घातक हो सकते हैं। अमूमन ये थक्के पैर की शिराओं में बनते हैं। स्थिति तब घातक हो जाती है जब ये रक्त प्रवाह के साथ फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और वहां रक्त संचार को अवरुद्ध कर देते हैं। इसका वर्तमान उपचार है रक्त को पतला करना, लेकिन वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है और इसके कारण अनियंत्रित रक्तस्राव हो सकता है।

यह समझने के लिए कि शीतनिद्रा के दौरान भालुओं में रक्त के थक्के क्यों नहीं बनते, लुडविग मैक्सिमिलियन विश्वविद्यालय के एक दल ने शीतनिद्रामग्न भूरे भालुओं पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने जाड़ों में शीतनिद्रामग्नेे (13) भूरे भालुओं को खोजा और उनके रक्त के नमूने लिए। इसके बाद उन्होंने गर्मी के मौसम में भी इन्हीं भालुओं के रक्त के नमूने लिए। शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्मियों में भालुओं के रक्त में HSP47 नामक प्रोटीन प्रचुर मात्रा में था, जबकि जाड़ों में यह लगभग नदारद था।

चूहों पर हुए पूर्व अध्ययनों में यह देखा गया था कि अन्य कार्यों के अलावा HSP47 प्रोटीन की भूमिका रक्त के थक्के बनाने में भी है। HSP47 प्रोटीन रक्त प्लेटलेट्स की सतह पर बैठ जाता है और संक्रमण से लड़ने वाली सफेद रक्त कोशिकाओं (न्यूट्रोफिल) को आकर्षित करता है और प्लेटलेट्स से जोड़ता जाता है। इससे बने ‘जाल’ में प्रोटीन, रोगजनक और कोशिकाएं वगैरह फंस जाते हैं। नतीजतन, रक्त का थक्का बनता है। देखा गया है कि जिन चूहों में इस प्रोटीन की कमी थी उनकी प्लेटलेट्स ने न्यूट्रोफिल को कम आकर्षित किया और रक्त का थक्का बनने की संभावना कम रही। अब चूंकि शीतनिद्रा में भालुओं में HSP47 कम बनता है, इसलिए उक्त प्रक्रिया द्वारा थक्का निर्माण की संभावना भी कम होती है।

शोधकर्ताओं ने उन लोगों में HSP47 का स्तर देखा जो रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से चल-फिर नहीं पा रहे थे लेकिन उनमें रक्त के थक्के नहीं बन रहे थे। पाया गया कि इन लोगों में HSP47 का स्तर अपेक्षाकृत कम था। इससे लग रहा था कि चलना-फिरना बंद हो जाने पर शरीर HSP47 प्रोटीन कम बनाने लगता है। जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 10 स्वस्थ व्यक्तियों को 27 दिन तक बेडरेस्ट कराया। जैसी कि उम्मीद थी धीरे-धीरे उनमें HSP47 का स्तर कम होने लगा था।

लगता है कि जिन लोगों ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया है उनमें स्वाभाविक रूप से HSP47 का स्तर घटना शुरू होने से पहले HSP47 का स्तर घटा कर थक्का बनने के जोखिम को कम किया जा सकता है। लेकिन अभी और अध्ययन की ज़रूरत है।

बहरहाल, भालुओं और मनुष्यों दोनों में HSP47 की एक जैसी भूमिका से लगता है कि स्तनधारियों में थक्का बनने का तंत्र काफी पुराना है। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा पर उतरने का निजी प्रयास विफल

टोक्यो की एक निजी कंपनी आईस्पेस द्वारा हुकाटो-आर मिशन (एम-1) नामक पहला व्यावसायिक ल्यूनर मिशन 11 दिसंबर 2022 को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल से स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। 21 मार्च को इसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 25 अप्रैल को इसके लैंडर को चंद्रमा की सतह पर उतरना था, लेकिन कुछ तकनीकी समस्या के कारण यह मिशन विफल हो गया। चंद्रमा की सतह से लगभग 90 मीटर ऊपर लैंडर से पृथ्वी का संपर्क टूट गया और नियोजित लैंडिंग के बाद दोबारा संचार स्थापित नहीं हो पाया। संभावना है कि एम-1 लैंडर उतरते वक्त क्रैश हो गया। फिलहाल पूरे घटनाक्रम की जांच जारी है।

गौरतलब है कि 2.3 मीटर लंबा लैंडर सतह पर उतरने के अंतिम चरण में खड़ी स्थिति में था लेकिन इसमें ईंधन काफी कम बचा था। लैंडर से प्राप्त आखरी सूचना से पता चलता है कि चंद्रमा की सतह की ओर बढ़ते हुए यान की रफ्तार बढ़ गई थी। किसी भी लैंडर के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें लंबवत रूप से उतरते समय इंजन चालू रखे जाते हैं ताकि वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सतह से तेज़ रफ्तार से न टकराए।            

आईस्पेस टीम के प्रमुख टेक्नॉलॉजी अधिकारी रयो उजी बताते हैं कि सतह पर उतरने के अंतिम चरण में ऊंचाईमापी उपकरण ने शून्य ऊंचाई का संकेत दिया था यानी उसके हिसाब से लैंडर चांद की धरती पर पहुंच चुका था। जबकि यान सतह से काफी ऊपर था। ऐसी भी संभावना है कि लैंडर के नीचे उतरते हुए यान का ईंधन खत्म हो गया और गति में वृद्धि होती गई। टीम अभी भी यह जानने का प्रयास कर रही है कि अनुमानित और वास्तविक ऊंचाई के बीच अंतर के क्या कारण हो सकते हैं। इस तरह के यानों में विशेष सेंसर लगाए जाते हैं जो लैंडर और सतह के बीच की दूरी को मापते हैं और उसी हिसाब से लैंडर नीचे उतरता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इन सेंसरों में कोई गड़बड़ी हुई या सॉफ्टवेयर में कोई समस्या थी।

लैंडर के क्रैश होने के कारण उस पर भेजे गए कई उपकरण भी नष्ट हो गए हैं। जैसे संयुक्त अरब अमीरात का 50 सेंटीमीटर लंबा राशिद रोवर जिसका उद्देश्य चंद्रमा की मिट्टी के कणों का अध्ययन और सतह के भूगर्भीय गुणों की जांच करना था; जापानी अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा विकसित एक दो-पहिया रोबोट; और कनाडा की कनाडेन्सिस एयरोस्पेस द्वारा निर्मित एक मल्टी-कैमरा सिस्टम।

मिशन की विफलता के जो भी कारण रहे हों लेकिन यह साफ है कि चंद्रमा पर सफलतापूर्वक लैंडिंग काफी चुनौतीपूर्ण है। फिर भी इस लैंडिंग प्रक्रिया के दौरान प्राप्त डैटा से उम्मीद है कि आईस्पेस के भावी चंद्रमा मिशन के लिए टीम को  बेहतर तैयारी का मौका मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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