गर्माती दुनिया में ठंडक का इंतज़ाम

रती का तापमान बढ़ने के साथ कई जीवों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मधुमक्खियां भी इनमें शुमार हैं। एक ओर तो कीटनाशकों का बेइंतहा इस्तेमाल, प्राकृतवासों का विनाश, प्रकाश प्रदूषण तथा परजीवियों ने मिलकर वैसे ही उनकी आबादी को प्रतिकूल प्रभावित किया है और साथ में तापमान बढ़ने की वजह से मुश्किलें बढ़ी हैं। ज़ाहिर है मधुमक्खियों की मुश्किलें उन तक सीमित नहीं रहेंगी। इनमें से कुछ हमारी फसलों तथा आर्थिक महत्व के अन्य पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बॉयोलॉजी की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत एक अध्ययन में बताया गया है कि तापमान में वृद्धि के चलते कुछ मधुमक्खियां जल्दी-जल्दी मगर उथली सांसें लेने लगी हैं। अध्ययन भौरों की कुछ प्रजातियों पर किया गया था।

वैसे तो पहले के अध्ययनों में पता चला था कि यूएस की भौरों की लगभग 45 प्रजातियां मुश्किलों से घिरी हैं लेकिन लगता है कि ज़्यादा दिक्कतें वे प्रजातियां भुगत रही हैं जिनकी जीभ लंबी होती है। आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय के एरिक रिडेल और उनके साथी यही समझने का प्रयास कर रहे थे कि क्यों जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा असर कुछ ही प्रजातियों पर हो रहा है। उन्होंने बॉम्बस ऑरिकोमस प्रजाति की मधुमक्खियों पर प्रयोग किए। इस प्रजाति की मधुमक्खियों की आबादी सबसे तेज़ी से घट रही है। तुलना के लिए बॉम्बस इम्पेशिएन्स प्रजाति को लिया गया था। शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों की रानी मधुमक्खियों को तब एकत्र कर लिया जब वे अपनी शीतनिद्रा से निकलकर नए छत्तों का निर्माण करने वाली थीं। इन्हें प्रयोगशाला में प्राकृतिक आवास जैसी परिस्थितियों में रखा गया।

फिर तापमान के प्रति रानियों की प्रतिक्रिया को देखने के लिए उन्हें कांच की नलियों में रखकर 18 डिग्री और 30 डिग्री सेल्सियस पर परखा गया। इस तरह से रिडेल और उनके साथियों ने यह जांच की कि बढ़ते तापमान का इन मधुमक्खियों की शरीर क्रिया पर क्या असर होगा।

18 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तो दोनों ही प्रजातियों की रानियों ने प्रति घंटे लगभग एक बार सांस ली। लेकिन जब तापमान बढ़ाया गया तो दोनों में श्वसन में परिवर्तन देखा गया। जहां बॉम्बस इम्पेशिएन्स हर 10 मिनट में एक बार सांस लेने लेगी वहीं बॉम्बस ऑरिकोमस में सांस की गति 10 गुना अधिक तेज़ हो गई। श्वसन दर बढ़ने के साथ उनके शरीर से पानी की हानि भी अधिक हुई।

इस परिस्थिति में 3 दिन रखे जाने पर 25 प्रतिशत बॉम्बस इम्पेशिएन्स जबकि 50 प्रतिशत बॉम्बस ऑरिकोमस मारी गईं। कुछ प्रजातियों की बढ़ी हुई श्वसन दर से कुछ हद तक इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों कुछ मधुमक्खियों की आबादी तेज़ी से घट रही है और जलवायु परिवर्तन के साथ इसमें और भी तेज़ी आ सकती है।

अन्य प्रजातियों पर तापमान का असर परखने के लिए शोधकर्ता यह अध्ययन सात अन्य प्रजातियों पर भी करने को तैयार हैं। मानना है कि घटती आबादी वाली सारी मधुमक्खियां तापमान बढ़ने पर ज़्यादा रफ्तार से श्वसन करती होंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यूएसए में बंदूक हिंसा और बंदूक नियंत्रण नीतियां

यूएसए में बंदूक सम्बंधी हिंसा का स्तर काफी अधिक है। वहां बंदूक नियंत्रण की नीतियों के कई अध्ययन भी हुए हैं। हाल ही में ऐसे 150 अध्ययनों के विश्लेषण का निष्कर्ष है कि बच्चों को बंदूक जैसे आग्नेयास्त्रों से दूर रखना बंदूकी हिंसा की रोकथाम में काफी कारगर है जबकि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए छिपाकर हथियार रखने की अनुमति देना हिंसा को बढ़ावा देता है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यूएस में निजी मिल्कियत में बंदूकों की संख्या 26.5 करोड़ से 39.3 करोड़ के बीच है। और हर साल 45,000 से ज़्यादा अमरीकी लोग बंदूक द्वारा जानबूझकर या गैर-इरादतन हिंसा के कारण जान गंवाते हैं। इनमें से लगभग आधे मामले खुदकुशी के होते हैं। इस हिंसा के पैटर्न को समझने के लिए 18 अलग-अलग क्षेत्रों की बंदूक नियंत्रण नीति पर किए गए 152 अध्ययनों की समीक्षा की गई और विभिन्न नीतियों के परिणामों को देखा गया – जैसे घाव तथा मृत्यु, मास शूटिंग, और बंदूक का सुरक्षा के लिए उपयोग वगैरह।

यूएस के कुछ प्रांतों में नीति है – स्टैण्ड-योर-ग्राउण्ड। इसका मतलब होता है कि यदि किसी को पर्याप्त यकीन है कि उसे कतिपय अपराध के खिलाफ स्वयं की रक्षा करना ज़रूरी है, तो वह जानलेवा शक्ति का उपयोग कर सकता है। अध्ययन में पाया गया कि यह नीति बंदूकी हत्याओं की उच्च दर से मेल खाती है। छिपाकर आग्नेयास्त्र रखने की अनुमति देने वाले कानून भी बंदूक-सम्बंधी हिंसा में वृद्धि से जुड़े पाए गए।

ये निष्कर्ष 2020 की रैण्ड कॉर्पोरेशन की रिपोर्ट से काफी अलग हैं जिसका निष्कर्ष था कि छिपाकर रखे जाने वाले हथियार सम्बंधी कानूनों और मौतों के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है। रैण्ड के व्यवहार-वैज्ञानिक एण्ड्र्यू मोरेल का मत है कि यह निष्कर्ष कानून व नीति निर्माताओं के लिए चुनौती भी है क्योंकि जिन प्रांतों में प्रतिबंधात्मक कानूनों को अदालतों में असंवैधानिक करार दिया गया था वहां आग्नेयास्त्र से होने वाली हत्याओं और कुल हत्याओं में वृद्धि होने की आशंका है। या ये प्रांत हथियार लेकर घूमने सम्बंधी इन समस्याओं का कोई और उपाय निकालेंगे। जैसे ये प्रांत कुछ बंदूक-मुक्त क्षेत्र घोषित कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं को इस बात के प्रमाण मिले हैं कि बच्चों की आग्नेयास्त्रों तक पहुंच रोकने वाले कानून – जिन्हें सेफ स्टोरेज कानून भी कहा जाता है – युवाओं में बंदूकों से होने वाली क्षति को कम करते हैं। इन कानूनों के तहत यह शर्त होती है कि बंदूकों को तालों में बंद करके, या गोलियां निकालकर, और गोलियों से अलग रखा जाए। ऐसे कानूनों से युवा लोगों में खुदकुशी व हत्याएं कम होती हैं।

यह निष्कर्ष खास तौर से युवाओं में खुदकुशी की घटनाएं रोकने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है क्योंकि खुदकुशी के अधिकांश मामलों में बंदूक का उपयोग देखा गया है। कारण यह बताया जाता है कि खुदकुशी करने का आवेग क्षणिक होता है और उस समय यदि बंदूक आसपास न हो तो बात टल सकती है। अन्यथा व्यक्ति को दूसरा मौका नहीं मिलता।

अलबत्ता, रिपोर्ट इस बारे में कोई निश्चयात्मक दावा नहीं करती कि मास शूटिंग और कानून का कोई सम्बंध है। लेकिन इस अध्ययन से एक बात साफ हुई है कि बंदूक की उपलब्धता और सुगमता का सम्बंध हिंसा से है। रैण्ड कॉर्पोरेशन इस हिंसा के अन्य पहलुओं पर भी अध्ययन करना चाहता है ताकि बंदूक संस्कृति पर लगाम लगाई जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मस्तिष्क में मातृभाषा की खास हैसियत है

धिकांश लोग अपने जीवन में एक या दो भाषाएं सीख लेते हैं। लेकिन कई लोग 5 से अधिक भाषाएं बोल लेते हैं। ये लोग बहुभाषी या पॉलीग्लॉट कहलाते हैं। और जो 10 से अधिक भाषाएं बोलते हैं ऐसे दुर्लभ लोगों को हायपरपॉलीग्लॉट कहते हैं। वाशिंगटन डी. सी. में रहने वाले वॉग स्मिथ एक हायपरपॉलीग्लॉट हैं जो 24 भाषाएं बोल लेते हैं।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऐसे ही बहुभाषियों के मस्तिष्क में झांका और देखा कि उनके मस्तिष्क का भाषा-सम्बंधी क्षेत्र अलग-अलग भाषाओं के सुनने पर कैसी प्रतिक्रिया देता है। देखा गया कि परिचित भाषाओं ने अपरिचित भाषाओं की तुलना में सशक्त प्रतिक्रिया दी, लेकिन अपवाद के रूप में देखा गया कि मातृभाषा को सुनने पर मस्तिष्क में अपेक्षाकृत कम हलचल दिखी। इससे शोधकर्ताओं को लगता है कि वे भाषाएं मस्तिष्क में कुछ विशिष्ट स्थान रखती हैं जिन्हें हम बचपन में सीख लेते हैं।

दरअसल उम्दा भाषा कौशल वाले लोगों (पॉलीग्लॉट्स) के मस्तिष्क में क्या हो रहा होता है इसे समझने पर बहुत ही कम अध्ययन हुए हैं। इसका एक कारण यह भी है कि दुनिया भर में पॉलीग्लॉट्स की संख्या बहुत ही कम है; महज एक प्रतिशत। तो शोध के लिए प्रतिभागी मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पॉलीग्लॉट्स पर अध्ययन मनुष्यों के ‘भाषा तंत्र’ को समझने में मदद कर सकता है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के संज्ञान तंत्रिकाविज्ञानी ईव फेडोरेंको और उनका दल यह जानना चाहता था कि मस्तिष्क पांच से अधिक भाषाओं को कैसे प्रोसेस करता है। इसके लिए उन्होंने 25 पॉलीग्लॉट्स के मस्तिष्क का स्कैन किया, जिनमें से 16 हायपरपॉलीग्लॉट्स थे और एक प्रतिभागी तो ऐसा था जो 50 से अधिक भाषाएं बोल सकता था। मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क को चित्रित करने के लिए उन्होंने fMRI तकनीक का उपयोग किया, जो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह को मापती है।

जब प्रतिभागी fMRI मशीन के अंदर थे तो उन्हें आठ अलग-अलग भाषाओं में 16-16 सेकंड लंबी रिकॉर्डिंग सुनाई गईं। हर रिकॉर्डिंग या तो बाइबल या फिर ऐलिसेज़ एडवेंचर्स इन वंडरलैंड के गद्यांश के क्रमश: 25 और 46 भाषाओं में अनुवाद की रिकॉर्डिंग थी। प्रतिभागियों के लिए रिकॉर्डिंग का चुनाव बेतरतीब तरीके से किया गया था। आठ भाषाओं की रिकॉर्डिंग में से एक उनकी मातृभाषा में थी, तीन उन भाषाओं में थीं जो उन्होंने अपेक्षाकृत देर से सीखी थीं, और चार अपरिचित भाषाओं में थीं। दो अपरिचित भाषाएं ऐसी थीं जो उनकी परिचित भाषा की निकट सम्बंधी थी जैसे इतालवी मातृभाषा के लोगों को स्पेनिश सुनाई गई। और अन्य दो अपरिचित भाषाएं उनकी परिचित भाषाओं से कोई सम्बंध नहीं रखती थीं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी भी भाषा के लिए मस्तिष्क में रक्त हमेशा एक-जैसे क्षेत्रों की ओर प्रवाहित हुआ। अर्थात सभी भाषाओं के लिए मस्तिष्क ने अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही बुनियादी नेटवर्क का उपयोग किया, जो एकभाषी व्यक्ति द्वारा ध्वनि को सुनकर उसे प्रोसेस करने में किया जाता है।

इसके अलावा, प्रतिभागी कितनी अच्छी तरह भाषा को जानते थे उस आधार पर मस्तिष्क के भाषा नेटवर्क की गतिविधि में उतार-चढ़ाव आया। भाषा जितनी अधिक परिचित थी, प्रतिक्रिया उतनी ही अधिक सशक्त थी। मस्तिष्क की गतिविधि विशेष रूप से तब बढ़ गई जब प्रतिभागियों ने उन अपरिचित भाषाओं को सुना जो उनकी भली-भांति परिचित भाषा से मिलती-जुलती थीं। ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि मस्तिष्क ने भाषाओं की बीच समानता के आधार पर अर्थ समझने के लिए अतिरिक्त काम किया होगा।

एक अपवाद भी मिला: अपनी मातृभाषा सुनने पर प्रतिभागियों का भाषा नेटवर्क अन्य परिचित भाषाओं की तुलना में शांत दिखा; ऐसा तब भी दिखा जब प्रतिभागी अन्य परिचित भाषाओं पर अच्छी पकड़ रखते थे। बायोआर्काइव्स नामक प्रीप्रिंट में शोधकर्ता बताते हैं कि इससे लगता है कि शुरुआती जीवन (बचपन) में सीखी गई भाषाओं को प्रोसेस करने में मस्तिष्क को कम मेहनत करनी पड़ती है।

यह देखा गया है कि किसी कार्य में महारत हासिल होने पर उसे करने में दिमाग को कम मशक्कत करनी पड़ती है। तो संभावना है कि भाषा के मामले में भी ऐसा हो। इस बात की भी संभावना दिखती है कि कम उम्र में सीखने पर संज्ञानात्मक दक्षता चरम तक पहुंच सकती है। चूंकि ये परिणाम विशुद्ध रूप से वर्णनात्मक हैं, इसलिए निष्कर्ष अभी भी अस्थायी हैं।

हालांकि कई पॉलीग्लॉट्स और हायपरपॉलीग्लॉट्स भाषा सीखने में किसी विशेष प्रतिभा के धनी होने से इन्कार करते हैं। लेकिन फिर भी शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि पॉलीग्लॉट्स कैसे इतनी भाषाएं सीख लेते हैं, जो अन्य लोगों को मुश्किल लगता है। क्या यह जन्मजात है, या सिर्फ दिलचस्पी या मौका मिलने की बात है। भाषा सीखने की क्रिया को समझने से स्ट्रोक या मस्तिष्क क्षति के बाद लोगों को फिर से भाषा सीखने में बेहतर मदद दी जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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स्वस्थ भविष्य के लिए मोटा अनाज-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइंस न्यूज़ में एक प्रशिक्षु एना गिब्स ने 9 मई 2022 के अंक में लिखा था, “आप जलवायु परिवर्तन को मानें या न मानें, लेकिन यह भविष्य में हमारे खान-पान को बदल देगा।” मनुष्य जितनी कैलोरी का उपभोग करते हैं, उसमें से आधा हिस्सा मक्का, चावल और गेहूं से आता है। हम अपनी 80 फीसदी पोषण सम्बंधी ज़रूरतों के लिए 13 फसलों पर निर्भर हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली अनियमित वर्षा और चरम मौसम की वजह से इनका उत्पादन घटेगा। हमारी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सख्तजान प्रजातियों को विकसित करने की ज़रूरत है, और यही वजह है कि मोटे अनाज (मिलेट्स) महत्व प्राप्त कर रहे हैं।

मोटे अनाज गर्म क्षेत्रों में अनुपजाऊ मिट्टी में उगाए जाते हैं और छोटे दानों वाली भरपूर उपज देते हैं, जिनका उपयोग आटा बनाने में किया जाता है। मोटे अनाज के कुछ उदाहरण हैं बाजरा, ज्वार, रागी। कम उगाए जाने वाले कुछ मोटे अनाज हैं तिनई (कंगनी), समा या समई और सांवा, जिनका उपयोग ब्रेड, रस्क (टोस्ट) और बिस्किट बनाने में किया जाता है।

अग्रणी उत्पादक

मोटे अनाज 10,000 से अधिक वर्षों से एशिया और अफ्रीका के लोगों के मुख्य आहार रहे हैं। ये जलवायु को लेकर लचीले हैं; बहुत कम पानी और गर्म, शुष्क परिस्थिति में अच्छी तरह से पनपते हैं। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार भारत सालाना लगभग 1.2 करोड़ मीट्रिक टन मोटे अनाजों का उत्पादन करता है। HelgiLibrary  के अनुसार, इनके उत्पादन में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, इसके बाद चीन और नाइजर का स्थान है।

खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 2023 को मोटे अनाज का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, भारत के कृषि मंत्रालय ने मोटे अनाज के उपयोग पर केंद्रित योजनाओं और गतिविधियों की एक शृंखला तैयार की है, विशेषकर आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में। मंत्रालय पंजाब, केरल और तमिलनाडु में ‘सही खाओ मेलों’ के आयोजन की भी योजना बना रहा है। चेन्नई स्थित एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए बहुत सक्रिय रहा है।

यह सही है कि हममें से अधिकांश लोग गेहूं और चावल को मुख्य भोजन के रूप में खाते हैं, लेकिन ये मोटे अनाज के बराबर पौष्टिक नहीं होते हैं। इसलिए उन्हें ‘पोषक-अनाज’ नहीं कहा जाता है। मोटे अनाज में उल्लेखनीय मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी, और कई धात्विक आयन होते हैं जो चावल जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों में नहीं होते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि इन लाभों को प्राप्त करने के लिए मोटे अनाज हमारे दैनिक भोजन में शामिल किए जाएं।

मोटे अनाज का अर्थशास्त्र

बैंगलुरु स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान की प्रोफेसर और एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन की प्रमुख मधुरा स्वामिनाथन ने 31 जनवरी, 2023 को दी हिंदू में प्रकाशित अपने लेख में इस विषय के अर्थशास्त्र की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है। वे बताती हैं कि अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में वितरित किए जाने वाले चावल और गेहूं के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से की जगह मोटा अनाज दिया जाए, तो इससे मध्याह्न भोजन से स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य को बहुत लाभ होगा। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ाना और कृषि भूमि में गिरावट को पलटना संभव तो है लेकिन आसान नहीं होगा और इसके लिए बहुस्तरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। भारत सरकार, और कर्नाटक और ओडिशा राज्यों ने मोटा अनाज मिशन शुरू किया है, जो स्वागत योग्य कदम है। (स्रोत फीचर्स)

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अवसादरोधी दवाइयां और एंटीबायोटिक प्रतिरोध

एंटीबायोटिक प्रतिरोध दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक खतरा है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2019 में इसके कारण 12 लाख लोगों की मृत्यु हुई। अक्सर ऐसा माना जाता है कि एंटीबायोटिक दवाइयों के अत्यधिक उपयोग के चलते बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी होते जा रहे हैं। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने प्रतिरोध का एक और संभावित कारण पाया है: अवसादरोधी औषधियों का सेवन।

प्रयोगशाला अध्ययन में देखा गया है कि किस तरह अवसादरोधी दवाइयां बैक्टीरिया में प्रतिरोध को शुरू कर सकती हैं। इन दवाइयों के संपर्क से बैक्टीरिया में एक नहीं बल्कि कई एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोध देखा गया।

मामले की शुरुआत ऐसे हुई कि ऑस्ट्रेलियन सेंटर फॉर वॉटर एंड एनवायरमेंटल बायोटेक्नॉलॉजी के जियानहुआ गुओ ने साल 2014 में देखा था कि अस्पतालों के अपशिष्ट जल नमूनों की तुलना में घरेलू अपशिष्ट जल नमूनों में अधिक एंटीबायोटिक-रोधी जीन्स हैं, जबकि अस्पतालों में एंटीबायोटिक दवाइयों का उपयोग अधिक होता है।

इसके अलावा, गुओ और अन्य समूहों ने यह भी देखा था कि अवसादरोधी दवाइयां कुछ बैक्टीरिया को मार देती हैं या उनकी वृद्धि रोक देती हैं। ये दवाइयां कोशिका के प्रतिरक्षा तंत्र को उकसाती हैं, जो बैक्टीरिया को बाद में एंटीबायोटिक उपचार से बचने में सक्षम बनाता है।

गुओ और उनकी टीम देखना चाहती थी कि गैर-एंटीबायोटिक दवाओं का एंटीबायोटिक प्रतिरोध विकसित करने में क्या योगदान है। 2018 के एक अध्ययन में उन्होंने देखा था कि फ्लोक्सेटीन (ब्रांड नाम प्रोज़ेक) के संपर्क में आने के बाद ई. कोली बैक्टीरिया में कई एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया था। हालिया अध्ययन में उन्होंने 5 अन्य अवसाद-रोधी दवाइयों और 13 एंटीबायोटिक दवाइयों पर अध्ययन किया और देखा कि ई. कोली में प्रतिरोध कैसे विकसित हुआ।

भरपूर ऑक्सीजन युक्त प्रयोगशाला परिस्थितियों में रखे गए बैक्टीरिया में उन्होंने देखा कि अवसादरोधी दवाइयों के कारण कोशिकाओं में सक्रिय ऑक्सीजन मूलक बने। ये विषैले अणु होते हैं जो बैक्टीरिया के प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करते हैं। इसने बैक्टीरिया की उस प्रणाली को सक्रिय कर दिया था जिसका उपयोग कई बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं सहित विभिन्न अणुओं को बाहर निकालने के लिए करते हैं। इससे शायद इस बात की व्याख्या हो जाती है कि प्रतिरोधी जीन की अनुपस्थिति में भी कैसे ये बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों का सामना कर सकते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि आंतों में, जहां ये बैक्टीरिया पाए जाते हैं, परिस्थिति ऑक्सीजन-रहित होती है। तो देखना होगा कि वहां क्या होता होगा। वैसे प्रयोग के दौरान अनॉक्सी परिस्थितियों में एंटीबायोटिक प्रतिरोध बहुत धीरे-धीरे विकसित हुआ था।

लेकिन अवसादरोधी दवाइयों के संपर्क में आने से ई. कोली बैक्टीरिया की उत्परिवर्तन दर में भी वृद्धि हुई, और उनमें से प्रतिरोधी जीन्स का चयन हुआ।

गौरतलब बात यह रही कि कम से कम एक अवसाद-रोधी दवा, सेरट्रेलाइन, ने बैक्टीरिया कोशिकाओं के बीच जीन्स के हस्तांतरण को बढ़ावा दिया। ऐसा हस्तांतरण विभिन्न बैक्टीरिया के बीच भी संभव है। इससे बैक्टीरिया की विभिन्न प्रजातियों के बीच भी प्रतिरोध फैल सकता है। अभी यह समझना बाकी है कि अवसादरोधी बैक्टीरिया में किन अणुओं को लक्षित करते हैं और विभिन्न बैक्टीरिया प्रजातियों पर इनके प्रभाव को देखने की भी ज़रूरत है।

2018 में, बैक्टीरिया को सीधे तौर पर प्रभावित न करने वाली 835 दवाइयों के सर्वेक्षण में देखा गया था कि इनमें से 24 प्रतिशत दवाइयों ने मानव आंत के कम से कम एक बैक्टीरिया किस्म की वृद्धि को रोक दिया था।

शोधकर्ता चूहों के सूक्ष्मजीव संसार पर अवसादरोधी दवाइयों के प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। शुरुआती आंकड़े बताते हैं कि ये दवाइयां चूहों की आंत के सूक्ष्मजीव संसार को बदल सकती हैं और जीन हस्तांतरण को बढ़ावा दे सकती हैं।

बहरहाल शोधकर्ताओं ने आगाह किया है कि इस शोध के आधार पर अवसादरोधी का सेवन बंद न करें। क्योंकि अवसाद का इलाज करना सबसे ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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पिघलता, आकार बदलता रोबोट

छोटे आकार का एक ऐसा रोबोट बनाया गया है जो अपना आकार बदलने में माहिर है। यह दुर्गम स्थानों तक पहुंचकर काम कर सकता है और पिंजरों से बाहर भी निकल सकता है। ऐसी संभावना है कि इसका उपयोग हैंड्स-फ्री सोल्डरिंग मशीन या फिर निगली गई ज़हरीली वस्तुओं को निकालने वाले उपकरण के रूप में किया जा सकेगा।

मानव शरीर में पाए जाने वाले संकीर्ण और नाज़ुक स्थानों पर काम करने के किए नर्म और लचीले रोबोट तो पहले से ही मौजूद हैं लेकिन वे दबाव नहीं झेल पाते और अधिक भार भी नहीं उठा पाते। इस समस्या से निपटने के लिए पेनसिल्वेनिया स्थित कार्नेजी मेलन युनिवर्सिटी के कार्मल मजीदी और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा रोबोट तैयार किया है जो न सिर्फ अपना आकार बदल सकता है बल्कि तरल और ठोस अवस्था में परिवर्तन के ज़रिए शक्तिशाली या दुर्बल भी बन सकता है।

मिलीमीटर साइज़ के रोबोट को तैयार करने के लिए तरल धातु गैलियम के साथ नीयोडिमियम, लोहे तथा बोरोन से बने चुम्बकीय पदार्थों के सूक्ष्म टुकड़ों का उपयोग किया गया है। ठोस अवस्था में यह रोबोट अपने वज़न से 30 गुना अधिक वज़न उठा सकता है। चुम्बकों की मदद से इसे लचीला, नर्म बनाया जा सकता है, गति करवाई जा सकती है और तरल में बदला जा सकता है। रोबोट में मौजूद चुम्बकीय टुकड़े इसे अलग-अलग दिशाओं में विकृत कर सकते हैं।   

शोधकर्ताओं ने रोबोट को छलांग लगवाने के लिए अधिक मज़बूत चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग किया। इसके अलावा, परिवर्तनशील चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करने पर रोबोट की तरल धातुओं में विद्युत धारा उत्पन्न हुई जिसने रोबोट को गर्म किया और अंतत: पिघला दिया। इस लचीलेपन का फायदा उठाते हुए टीम ने दो रोबोट तैयार किए जो एक सर्किट बोर्ड में छोटे प्रकाश बल्ब को सोल्डर करने के लिए बनाए गए थे। अपने लक्ष्य पर पहुंचने पर ये रोबोट बल्ब के किनारों के चारों ओर पिघल गए और बल्ब सर्किट बोर्ड में जुड़ गया।

एक प्रयोग में कृत्रिम आमाशय के अंदर शोधकर्ताओं ने अलग तरह से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न किया ताकि रोबोट एक वस्तु तक पहुंचकर पिघलकर चिपक जाए और वस्तु को खींचकर बाहर निकाला जा सके।

इसी क्रम में उन्होंने रोबोट को एक छोटे से लेगो का आकार दिया और उसे एक पिंजरे में कैद कर दिया। पिघलने पर यह रोबोट पिंजरे की सलाखों के बीच से बहकर बाहर आ गया। जब यह पिघला हुआ रोबोट पुन: एक सांचे में गिरा तो वह अपनी मूल, ठोस अवस्था में वापस आ गया।

इन पिघलने वाले रोबोट्स का उपयोग आपातकालीन स्थिति में किया जा सकता है जहां मानव या पारंपरिक रोबोटिक हाथ अव्यवहारिक हो जाते हैं। जैसे यह रोबोट अंतरिक्ष यान के खोए हुए पेंच के स्थान पर पहुंचकर स्वयं को पिघलाकर उस स्थान पर जम सकता है। अलबत्ता मनुष्यों या किसी जीव के शरीर में इसका उपयोग करने के लिए. सुरक्षा की दृष्टि से, ज़रूरी होगा कि हर कदम पर इसकी स्थिति पता लगाने का कोई तरीका हो (स्रोत फीचर्स)

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भूगर्भीय धरोहर कानून से शोध समुदाय में हलचल

हाल ही में मध्य प्रदेश के धार जिले में एक नीड़ स्थल से वैज्ञानिकों ने टाइटेनोसौर के 256 अंडे खोज निकाले हैं। इस नई खोज ने एक बार फिर भारत में विशाल भूगर्भीय और जीवाश्म संपदा की उपस्थिति का संकेत दिया है। लेकिन भूगर्भीय धरोहर सम्बंधी विधेयक के हालिया मसौदे से वैज्ञानिक इन विरासतों तक पहुंच, उनके संरक्षण और जन शिक्षण में उपयोग को लेकर काफी चिंतित हैं।

इस विधेयक में भारत के भूगर्भ वैज्ञानिक स्थलों और जीवाश्मों की रक्षा, किसी स्थल को राष्ट्रीय महत्व का घोषित करने और उनके रखरखाव का अधिकार केंद्र सरकार को दिया गया है। विधेयक में ऐसे स्थलों को नष्ट या विरूपित करने पर भारी दंड का प्रावधान भी रखा गया है। लंबे समय से अपेक्षित भू-विरासत कानून का कई वैज्ञानिकों ने समर्थन किया है। जीवाश्मों की लूटपाट रोकने के लिए जीवाश्म वैज्ञानिकों ने एक कानून बनाने के लिए काफी संघर्ष किया है।

लेकिन कई वैज्ञानिक इस विधेयक में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) को अत्यधिक शक्ति देने को लेकर चिंतित हैं। उनके अनुसार यह विधेयक जीएसआई को तलछट, चट्टानों, खनिजों, उल्कापिंडों और जीवाश्मों सहित भूवैज्ञानिक महत्व के स्थलों को नियंत्रित करने और पहुंच को सीमित करने का अधिकार देता है। शोधकर्ताओं को अंदेशा है कि जीएसआई के एकाधिकार से नौकरशाही को बढ़ावा मिलेगा और ऐसी सामग्री पर विश्वविद्यालयों तथा शोध संस्थानों सहित निजी-संग्राहकों की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी।

टाइटेनोसौर के अंडों की खोज करने वाली टीम के प्रमुख गुंटूपल्ली वी. आर. प्रसाद भी जीएसआई को दिए गए व्यापक अधिकारों से चिंतित हैं। भू-विरासतों का अध्ययन करने वाले गैर-जीएसआई शोधकर्ताओं तथा अन्य व्यक्तिगत अध्ययनकर्ताओं का शोध कार्य प्रभावित होगा। प्रसाद, दरअसल, भू-विरासतों के निरीक्षण के लिए एक स्वतंत्र बोर्ड बनाने के पक्ष में हैं जिसमें विभिन्न हितधारक शामिल हों।

2019 में सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंस (एसओईएस) द्वारा तैयार मसौदे में भी यही सुझाव दिया गया था। इसमें एक राष्ट्रीय भू-विरासत प्राधिकरण के तहत जीएसआई, कई मंत्रालयों, स्वतंत्र विशेषज्ञों और राज्य के भू-धरोहर विभागों को शामिल करने का विचार रखा गया था। इसमें वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए नए प्राधिकरण द्वारा स्थलों तक पहुंच प्रदान करने का भी प्रावधान था। वैसे तो हालिया मसौदा एसओईएस के उसी मसौदे पर आधारित है लेकिन इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। खास तौर से, विभिन्न हितधारकों की भागीदारी को खत्म कर दिया गया है।   

जीएसआई द्वारा नियंत्रण के मुद्दे से हटकर भू-विरासत के प्रबंधन को लेकर भी गंभीर सवाल उठाए गए हैं। जीएसआई द्वारा संरक्षित कुछ स्थलों का रख-रखाव ठीक ढंग से नहीं किया जा रहा है। इन स्थलों से जीवाश्मों की चोरी की रिपोर्टें सामने आई हैं। इसके अलावा जीएसआई ने अपने कब्ज़े में रखी काफी सामग्री खो दी है।   

विधेयक ने निजी संरक्षकों में भी डर की स्थिति पैदा की है जो कई वर्षों से जीवाश्म एकत्रित करने और निजी संग्रहालय बनाने का काम करते आए हैं। देखा जाए तो इस नए विधेयक के तहत जीएसआई उनके जीवनभर के कामों पर अपना दावा कर सकता है। अचानक ये संरक्षक अपराधी हो जाएंगे। संभावना यह है कि वन विभागों द्वारा संचालित जीवाश्म संग्रहालय भी जीएसआई के नियंत्रण में आ जाएंगे।

वैसे कई वैज्ञानिकों का मत है कि जीएसआई ने उनको और उनके सहयोगियों को ऐसे जीवाश्म नमूनों तक पहुंचने में मदद दी जिन्हें गुम मान लिया गया था। उसी की मदद से टाइटेनोसॉरस इंडिकस के जीवाश्मों को फिर से खोज निकाला गया जो 1828 में भारत में पाए गए थे, लेकिन बाद में गुम हो गए थे। शोधकर्ताओं को कोलकाता स्थित जीएसआई मुख्यालय में अन्य विशाल कशेरुक जीवाश्म संग्रहों के बीच ये जीवाश्म मिले थे।

बहरहाल वैज्ञानिक मानते हैं कि इन स्थलों तक शोधकर्ताओं की पहुंच की प्रक्रिया को पारदर्शी, समयबद्ध और सुव्यवस्थित होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हरित ऊर्जा में 350 अरब के निवेश का प्रस्ताव

र्ष 2023-24 के बजट में अर्थव्यवस्था को हरित-ऊर्जा की ओर ले जाने के संकेत हैं। इसके लिए सरकार ने 350 अरब रुपए के निवेश का प्रस्ताव रखा है। जलवायु नीति वैज्ञानिकों ने सरकार के इस निर्णय का स्वागत करते हुए दीर्घावधि प्रतिबद्धता की ज़रूरत भी बताई है।

गौरतलब है कि विश्व के तीसरे सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक के रूप में भारत ने 2021 के ग्लासगो सम्मेलन में 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया था। लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं था कि इस लक्ष्य को हासिल कैसे किया जाएगा। हालिया बजट वैश्विक तापमान कम करने के प्रति भारत की गंभीरता दर्शाता है।

बैंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के जलवायु वैज्ञानिक जयरामन श्रीनिवासन का कहना है कि कोयला, तेल और गैस से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्थानांतरण के लिए दशकों तक सुसंगत नीति की ज़रूरत होगी। कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार सरकार का यह कदम भारत में भविष्य के शोध की दिशा को भी निर्धारित करेगा।

1 फरवरी को बजट प्रस्तुत करते हुए वित्त मंत्री ने बताया कि सरकार ऊर्जा, कृषि व विनिर्माण सहित कई उद्योगों में डीकार्बनीकरण के कार्यक्रम लागू कर रही है। बजट में भारत को हरित हाइड्रोजन के उत्पादन और निर्यात का वैश्विक केंद्र बनाने के लिए 19.7 अरब रुपए का निवेश प्रस्तवित है। इसका प्रमुख उद्देश्य भविष्य में सीमेंट और इस्पात उत्पादन जैसे कार्बन-बहुल उद्योगों में जीवाश्म ईंधन की बजाय हरित हाइड्रोजन का उपयोग बढ़ाना है। इसके लिए नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय को 10.22 अरब रुपए की राशि आवंटित की गई है, जो पिछले बजट की तुलना में 48 प्रतिशत अधिक है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन और उसके प्रभावों को कम करने सम्बंधी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का संचालन करने वाले पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय के आवंटन में खास वृद्धि नहीं की गई है और वह 30 अरब रुपए के आसपास ही है।  

विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में हरित हाइड्रोजन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए नीति निर्माण, उद्योग और शोध के बीच तालमेल आवश्यक है। और साथ ही अक्षय ऊर्जा के अन्य स्रोतों का लाभ उठाने के लिए ऊर्जा-भंडारण की क्षमता बढ़ाना भी ज़रूरी है। सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोत चौबीसों घंटे या पूरे साल उपलब्ध नहीं होते। इसलिए इनकी ऊर्जा के भंडारण पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।     

गौरतलब है कि भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव काफी अधिक दिख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन सम्बंधी प्रथम राष्ट्रीय मूल्यांकन में पता चला था कि 1901 से 2018 के बीच औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार 2022 में पर्यावरण सम्बंधी कोई न कोई चरम घटना लगभग रोज़ाना दर्ज हुई है। भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं सबसे अधिक देखी गई हैं। पानी की कमी की संभावना तो है ही। (स्रोत फीचर्स)

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दवा कारखाने के रूप में पालतू बकरी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत और कई विकासशील देशों के गांवों में पालतू बकरी (कैपरा हिर्कस) मिलना आम है। पालतू बनाए जाने के समय (लगभग 10,000 साल पहले) से ही बकरियों ने मानव समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका निभाई है। यह भी कहा गया है कि मनुष्यों का शिकारी-संग्राहक जीवन शैली से कृषि आधारित बस्तियों में बसने में बकरियों का पालतूकरण एक महत्वपूर्ण कदम था।

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि दुनिया में लगभग 1000 नस्लों की 83 करोड़ बकरियां हैं। भारत में 20 से अधिक प्रमुख नस्लों की 15 करोड़ बकरियां हैं। राजस्थान में बकरियों की संख्या सबसे अधिक है – यहां पाई जाने वाली मारवाड़ी बकरी सख्तजान है और रेगिस्तानी जलवायु के अनुकूल है। एक और सख्तजान नस्ल है उस्मानाबादी जो महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तरी कर्नाटक के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है।

उत्तरी केरल की मलाबारी बकरी (जिसे टेलिचेरी भी कहा जाता है) एक ऐसी नस्ल है जिसके मांस में वसा कम होती है और वह खूब संतानें पैदा करती है। ऐसे ही गुण पंजाब की बीटल बकरी में भी होते हैं। पूर्वी भारतीय ब्लैक बंगाल बकरी बांग्लादेश के ग्रामीण गरीबों की आजीविका में महत्वपूर्ण योगदान देती है। ये 2 करोड़ वर्ग फुट से अधिक चमड़ा प्रदान करती हैं जिसका उपयोग अग्निशामकों के लिए दस्ताने बनाने से लेकर फैशनेबल हैंडबैग और चमड़े के अन्य सामान बनाने में होता है। चूंकि कई किसानों के पास मवेशी पालने के लिए जगह या धन की कमी है, इसलिए बकरियों को ‘गरीब आदमी की गाय’ उचित ही कहा जाता है।

भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में जंगली बकरियों की बहुत कम आबादी है, जिनसे पालतू बकरियां या भेड़ें विकसित हुई हैं। इनमें मार्खोर और हिमालयी और नीलगिरी ताहर शामिल हैं।

समुद्री यात्राओं के स्वर्ण युग में इन यात्राओं के ज़रिए भारतीय बकरियों के जीन दुनिया के सभी इलाकों में फैले। भारत से युरोप जाने वाले जहाजों पर लदी बकरियां महीने भर लंबी यात्रा के दौरान लोगों के लिए दूध और मांस उपलब्ध कराती थीं। उत्तर प्रदेश की जमुनापारी बकरियों को पसंद किया गया क्योंकि वे आठ महीने के स्तनपान काल के दौरान 300 किलोग्राम दूध देती हैं। इंग्लैंड में कभी, उच्च वसा वाला दूध देने वाली बकरियों की नस्ल, एंग्लो-न्युबियन, विकसित करने के लिए जमुनापारी बकरियों का वहां की स्थानीय नस्ल के साथ संकरण कराया गया था।

औषधि का निर्माण

बकरियां लगभग दो साल में प्रजनन शुरू कर देती हैं और भरपूर दूध देती हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि बकरियों ने चिकित्सकीय प्रोटीन उत्पादन के लिए जैव प्रोद्योगिकी कंपनियों का ध्यान आकर्षित किया है।

इसमें पहली सफलता एट्रीन (ATryn) के साथ मिली है – यह बकरी से उत्पादित एंटीथ्रॉम्बिन-III अणु का व्यावसायिक नाम है। एंटीथ्रॉम्बिन रक्त को थक्का बनने से मुक्त रखता है, और इस प्रोटीन की कमी (जो आम तौर पर वंशानुगत होती है) से पल्मोनरी एम्बोलिज़्म जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इससे पीड़ित व्यक्तियों को सप्ताह में दो बार एंटीथ्रॉम्बिन इंजेक्शन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर दान किए गए रक्त से निकाला जाता है।

ट्रांसजेनिक बकरियों, जिनमें मानव एंटीथ्रॉम्बिन जीन की एक प्रति रोपी जाती है, की स्तन ग्रंथियों की कोशिकाएं दूध में यह प्रोटीन स्रावित करती हैं। ऐसा दावा है कि एक बकरी उतना एंटीथ्रॉम्बिन बना सकती है जितना 90,000 युनिट मानव रक्त से प्राप्त होता है।

हाल ही में एफडीए द्वारा अनुमोदित सेटुक्सिमैब नामक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी औषधि का निर्माण क्लोन बकरियों में किया गया है। इसे बड़ी मात्रा में (प्रति लीटर दूध से 10 ग्राम) बनाया जा सकता है। फिलहाल यह मालूम नहीं है कि यह ‘औषधि’ सुरक्षा और प्रभावकारिता सम्बंधी नियामक बाधाओं को पार कर पाएगी या नहीं। अब देखना यह है कि क्या अन्य मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के अधिक मात्रा में उत्पादन के लिए बकरियों का इस्तेमाल दवा कारखानों के रूप में किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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चूहों में बुढ़ापे को पलटा गया

क दशक पूर्व जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के शिन्या यामानाका को ऐसे प्रोटीन्स की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था जिनकी मदद से वयस्क कोशिकाओं को वापिस उनकी प्रारंभिक स्थिति (स्टेम कोशिकाओं) में तबदील किया जा सकता है। अब दो शोधकर्ता दलों ने दावा किया है कि ये प्रोटीन्स सिर्फ कोशिकाओं को नहीं बल्कि पूरे जीव को उसकी प्रारंभिक स्थिति में ला सकते हैं – यानी बुढ़ापे को पलट सकते हैं। .

इनमें से एक दल एक बायोटेक कंपनी में कार्यरत है और उसने तथाकथित यामानाका फैक्टर को जीन-उपचार की तकनीक से बूढ़े चूहों में प्रविष्ट कराया और उनके जीवनकाल को थोड़ा लंबा करने में सफलता पाई। दूसरे दल ने जेनेटिक इंजीनियरिग की मदद से चूहे विकसित किए और बुढ़ापे के लक्षणों को पलटा।

दोनों ही मामलों में लगता है कि यामानाका फैक्टर्स ने चूहों के एपिजीनोम को बदल दिया। एपिजीनोम डीएनए और प्रोटीन्स में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को कहते हैं जो जीन्स की अभिव्यक्ति को बदल देते हैं – उसे ज़्यादा युवावस्था जैसा बना देते हैं। गौरतलब है कि इस प्रक्रिया में डीएनए के क्षारों में या उनके क्रम में परिवर्तन नहीं होता।

इससे पहले भी कई समूहों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे तैयार किए हैं जो वयस्क होने पर खुद यामानाका फैक्टर्स बनाने लगते हैं और बुढ़ापे के कुछ लक्षणों को पलटने में सक्षम होते हैं। अब जो प्रयोग किए गए हैं उनका मकसद मनुष्यों के लिए कुछ उपचार खोजना है।

इसी संदर्भ में रीजुविनेट बायो नामक कंपनी के शोधकर्ताओं ने उक्त यामानाका फैक्टर्स के जीन्स से युक्त एक वायरस को चूहों में इंजेक्ट किया। देखा गया कि इसके बाद ये चूहे 18 सप्ताह तक जीवित रहे जबकि शेष चूहे मात्र 9 सप्ताह। शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स में बताया है कि इन चूहों में डीएनए मिथायलेशन का पैटर्न अपेक्षाकृत युवा चूहों जैसा हो गया था। डीएनए मिथायलेशन एपिजेनेटिक परिवर्तन का एक प्रकार है। वैसे कुछ अन्य अध्ययनों में पाया गया था कि यामानाका फैक्टर्स कैंसर को बढ़ावा देते हैं लेकिन इस अध्ययन में ऐसा कुछ नहीं देखा गया।

दूसरा अध्ययन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डेविड सिन्क्लेयर के दल द्वारा सेल में प्रकाशित किया गया है। कहते हैं कि सिन्क्लेयर पिछले दो दशकों में कई वृद्धावस्था रोधी विवादास्पद हस्तक्षेपों के प्रणेता रहे हैं। सिन्क्लेयर का दल वृद्धावस्था के सूचना सिद्धांत के आधार पर काम कर रहा था। इस सिद्धांत में कहा जाता है कि हम बूढ़े इसलिए होते हैं क्योंकि समय के साथ एपिजेनेटिक चिंह खत्म होते जाते हैं। सिन्क्लेयर का मत है कि हमारी कोशिकाओं में डीएनए मरम्मत की व्यवस्था ही इसके लिए ज़िम्मेदार होती है।

तो इस दल ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे विकसित किए जिनमें यह गुण था कि उन्हें एक विशिष्ट औषधि देने पर वे एक एंज़ाइम बनाते थे जो उनके जीनोम को 20 जगह काट देता है। इन्हें फिर उक्त व्यवस्था द्वारा निष्ठापूर्वक दुरुस्त कर दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि कोशिका के डीएनए मिथायलेशन और जीन अभिव्यक्ति में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इन चूहों में जो एपिजेनेटिक पैटर्न था वह अपेक्षाकृत बुज़ुर्ग चूहों का था और उनकी सेहत भी बिगड़ गई – उनके बाल झड़ गए, रंग उड़ गया और उनमें दुर्बलता के कई लक्षण नज़र आने लगे।

अब शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या एपिजेनेटिक बदहाली के इन लक्षणों को पलटाया जा सकता है। उन्होंने एक वायरस के साथ यामानाका फैक्टर्स दिए और देखा कि बुढ़ाते चूहों की दृष्टि सुधर गई थी। कई अन्य मामलों में यामानाका फैक्टर्स ने एपिजेनेटिक सुधार किए थे। इसके आधार पर सिन्क्लेयर का मत है कि बुढ़ापे को आगे-पीछे कर सकते हैं और कुछ इलाज उभर सकता है।

बहरहाल, जैसा कि हमेशा होता है, पूरे मामले में कई अगर-मगर हैं। एक तो यही कि जो एपिजेनेटिक परिवर्तन किए गए थे वे कुदरती नहीं थे। पता नहीं कुदरती परिवर्तन किस तरह होते हैं और उनका क्या असर होता है। दूसरा कि चूहे और मनुष्य बहुत अलग-अलग हैं। तीसरा कि बुढ़ाना एक पेचीदा प्रक्रिया है और ये प्रयोग उसका सरलीकरण करते हैं। इन सारे अगर-मगर के बावजूद शोधकर्ता आगे बढ़कर मनुष्यों पर प्रयोग करने को उत्सुक हैं। बंदरों पर जांच तो शुरू भी हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

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