उपकरण की मदद से बोलने का रिकॉर्ड

एलएस नामक रोग की वजह से एक महिला की बोलने की क्षमता पूरी तरह जा चुकी थी। एएलएस या लाऊ गेरिग रोग व्यक्ति को क्रमश: लकवा ग्रस्त करता जाता है। वह महिला आवाज़ तो पैदा कर सकती थी लेकिन शब्द समझने योग्य नहीं होते थे। अब उसी महिला ने एक मस्तिष्क इम्प्लांट की मदद से बोलने का रिकॉर्ड स्थापित कर दिया है।

यह दावा स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक दल ने बायोआर्काइव्स नामक वेबसाइट पर प्रकाशित शोध पत्र में किया है। महिला की पहचान गोपनीय रखने के लिए उसे छद्मनाम T12 से संबोधित किया गया है। रिकॉर्ड यह है कि T12 लगभग 62 शब्द प्रति मिनट की रफ्तार से बोल पा रही है। हम आम तौर पर करीब डेढ़ सौ शब्द प्रति मिनट की गति से बोलते हैं और बोलना संप्रेषण का सचमुच सबसे तेज़ तरीका है।

तो सवाल है कि यह करिश्मा हुआ कैसे और आगे की दिशा क्या होगी।

दरअसल, इससे जुड़े शोधकर्ता कृष्णा शिनॉय पिछले कई वर्षों से मस्तिष्क-कंप्यूटर के संपर्क बिंदु की गति को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहे हैं। इसके लिए वे एक छोटी सी पट्टी पर कई इलेक्ट्रोड लगाकर उसे व्यक्ति के मस्तिष्क के मोटर कॉर्टेक्स में स्थापित कर देते हैं। यह मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो गतियों को नियंत्रित करने में भूमिका निभाता है। इस उपकरण की मदद से शोधकर्ता यह रिकॉर्ड कर पाते हैं व्यक्ति की कौन-सी तंत्रिकाएं एक साथ सक्रिय हो रही हैं। इस पैटर्न से यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति क्या क्रिया करने के बारे में सोच रहा है, भले वह व्यक्ति लकवाग्रस्त हो।

इससे पहले जो प्रयोग हुए थे उनमें लकवाग्रस्त व्यक्ति से हाथों की हरकत करने के बारे में सोचने को कहा गया था। ऐसे सोचते वक्त उसकी तंत्रिका गतिविधि को भांपकर वह इम्प्लांट कंप्यूटर के पर्दे पर कर्सर को चलाता था या वे सिर्फ सोचकर वीडियो गेम्स खेल सकते थे या रोबोटिक भुजा पर नियंत्रण कर सकते थे।

इन सफलताओं के बाद स्टैनफोर्ड की टीम यह समझने में लगी थी कि क्या बोलने से जुड़ी क्रियाओं के संदर्भ में मोटर कॉर्टेक्स की तंत्रिकाओं में कुछ उपयोगी जानकारी होती है।

जैसे, यदि T12 बोलने की कोशिश में अपने मुंह, जीभ, स्वर यंत्र को एक खास तरह से चलाने का प्रयास कर रही है तो क्या इस बात को तंत्रिका गतिविधियों में भांपा जा सकता है? ज़ाहिर है बोलते समय मांसपेशियों की बहुत छोटी-छोटी, बारीक हरकतें होती है। लेकिन बड़ी खोज यह हुई कि इन छोटी-छोटी हरकतों के बारे में भी चंद तंत्रिकाओं में ऐसी सूचनाएं होती है जिनकी मदद से कोई कंप्यूटर प्रोग्राम यह अनुमान लगा सकता है कि व्यक्ति क्या शब्द बोलने का प्रयास कर रहा है। और जब यह सूचना कंप्यूटर को दी गई तो उसके पर्दे पर वे शब्द प्रकट हो गए जो T12 बोलना चाहती थी।

देखा जाए, तो बोलते समय हम मांसपेशियों की निहायत पेचीदा हरकतें करते हैं – हम हवा को बाहर धकेलते हैं, उसमें कंपन पैदा करते हैं ताकि वह ध्वनि के रूप में निकले, फिर मुंह, होठों, जीभ की हरकतों से उस ध्वनि को शब्दों का रूप देते हैं।

पहले भी इन हरकतों को शब्दों में ढालने की ऐसी कोशिशें की जाती रही हैं लेकिन स्टैनफोर्ड की टीम ने अधिक सटीकता और गति हासिल कर ली है। इसमें कृत्रिम बुद्धि की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही और आगे यह भूमिका बढ़ने के साथ सटीकता और गति बढ़ने की उम्मीद है। इसमें भाषा के मॉडल्स का उपयोग यह पूर्वानुमान करने में किया जाएगा कि एक शब्द बोलने के बाद क्या अपेक्षा की जाए कि वह व्यक्ति अगला शब्द क्या बोलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एज़्टेक हमिंगबर्ड्स, भारतीय शकरखोरा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

ज़्टेक लोगों द्वारा हमिंगबर्ड को एक नाम दिया गया था ह्यूतज़िलिन यानी ‘सूर्य की किरण’। मूलत: अमेरिकी महाद्वीप के इस पक्षी की साढ़े तीन सौ प्रजातियों के इंद्रधनुषी रंगों ने अक्सर कवियों और आभूषण डिज़ाइनरों की कल्पना को पंख लगाए हैं।

हमिंगबर्ड आकार में छोटे होते हैं: मधुमक्खी हमिंगबर्ड बमुश्किल 5 सेंटीमीटर लंबी होती है और इसका वज़न 2 ग्राम होता है। वे अपने पंखों को एक सेकंड में 50 बार तक फड़फड़ा सकती हैं, जिसके कारण एक गुनगुनाहट (हम) जैसी आवाज़ पैदा होती है और यही आवाज़ उनके नाम को परिभाषित करती है। वे फूल से रस चूसते हुए शानदार ढंग से मंडरा सकती हैं, और यहां तक कि उल्टी दिशा में (पीछे की ओर) भी उड़ सकती हैं। वे मकरंद के लिए नलीनुमा फूल, जो चमकीले लाल या नारंगी रंग के होते हैं, जैसे लैंटाना और रोडोडेंड्रोन, को वरीयता देती हैं।

उनके पंखों के विश्लेषण से पता चलता है कि उनके हाथ की हड्डियां बहुत लंबी होती हैं लेकिन बांह की हड्डियां बहुत छोटी होती हैं जो निहायत लचीले बॉल-एंड-सॉकेट जोड़ के माध्यम से शरीर से जुड़ी होती हैं। यह जोड़ आधा फड़फड़ाने के बाद पंखों को घुमाने के काबिल बनाता है, जिससे उनमें फुर्तीलापन आता है और पीछे की ओर उड़ना संभव हो पाता है।

समानताएं

भारत में सनबर्ड्स या शकरखोरा पाई जाती हैं। हालांकि यह हमिंगबर्ड्स की सम्बंधी नहीं हैं, लेकिन अभिसारी विकास में ये दोनों पक्षी कई विशेषताएं साझा करते हैं। सनबर्ड्स को नेक्टेरिनिडे कुल में रखा गया है। हालांकि थोड़ी बड़ी सनबर्ड थोड़े समय के लिए मधुमक्खियों की तरह मंडरा भी सकती हैं, और सुर्ख, नलीदार फूलों पर जा सकती हैं। वे जंगल के अंगार सरीखे रंग वाले (पीले-नारंगी) फूलों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

अलबत्ता खाते समय उन्हें बैठना पड़ता है। हमिंगबर्ड की तरह वे कीट पकड़ सकती हैं, खासकर अपने बच्चों को खिलाने के लिए। भारत में आम तौर पर बैंगनी सनबर्ड दिखने को मिलती हैं। इनके बड़े व चमकीले नर का रूप-रंग मार्च में अपने प्रजननकाल में शबाब पर होता है।

एक ही जगह रुककर उड़ने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। द्रव्यमान के हिसाब से देखें, तो कशेरुकियों में, हमिंगबर्ड्स की चयापचय दर (प्रति मिनट कैलोरी खपत) अधिकतम होती है। इस ऊर्जा का अधिकांश भाग मकरंद से मिलता है। उनके पाचन तंत्र द्वारा तेज़ी से शर्करा उपभोग यह सुनिश्चित करता है कि वे ऊर्जा हाल ही में गटके गए मकरंद से लेते हैं।

इसके अलावा, समान साइज़ के स्तनधारियों की तुलना में उनके फेफड़े हवा से ऑक्सीजन अवशोषित करने में 10 गुना बेहतर होते हैं।

विरोधाभास देखिए कि मनुष्यों में अत्यधिक व्यायाम रक्त शर्करा के स्तर में वृद्धि करता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि त्वरित तौर पर ऊर्जा की आवश्यकता के लिए आपका शरीर ग्लूकोनियोजेनेसिस का सहारा लेता है – ग्लूकोनियोजेनेसिस यानी मांसपेशियों के प्रोटीन जैसे संसाधनों को ग्लूकोज़ में परिवर्तित करना। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह होता है कि आप इतनी मशक्कत के बाद भी न तो मांसपेशियां बना पाते हैं और न ही वसा कम कर पाते हैं।

हमिंगबर्ड में अति गहन गतिविधियां करने पर क्या होता है? हाल ही के जीनोम अध्ययनों से पता चला है कि विकास के दौरान, हमिंगबर्ड में जब मंडराने की गतिविधि उभरने लगी तब ग्लूकोनियोजेनेसिस के लिए ज़िम्मेदार एक प्रमुख एंज़ाइम का जीन उनमें से लुप्त हो गया। प्रयोगशाला में संवर्धित पक्षी कोशिकाओं से इस जीन को हटाने पर इन कोशिकाओं की ऊर्जा दक्षता में वृद्धि दिखी।

नकल और नृत्य

तोते और कुछ सॉन्गबर्ड की तरह, हमिंगबर्ड भी किसी अन्य की आवाज़ निकाल (मिमिक्री कर) सकते हैं। जब हमिंगबर्ड के जोड़े को अलग-थलग पाला गया, तो इन दोनों द्वारा गाया गया गीत उनकी प्रजातियों द्वारा गाए जाने वाले मानक गीत से तनिक-सा अलग था।

गौरतलब बात यह है कि वे कान तक पहुंचने वाली ध्वनि और अपनी मांसपेशियों की हरकत का तालमेल बैठा सकते हैं – यानी नृत्य कर सकते हैं।

टफ्ट्स युनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट अनिरुद्ध पटेल ने सिद्धांत दिया है कि आवाज़ की नकल करने के लिए गले की मांसपेशियों को नियंत्रित करने की क्षमता के लिए पहले ध्वनियों के साथ लय में थिरकने की क्षमता होना ज़रूरी है। हालांकि, हमिंगबर्ड हम मनुष्यों की तरह जोड़े या समूहों में नृत्य नहीं कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य के पुराने दस्तावेज़ों से बीमारियों के सुराग

लेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अपना महत्व है, बशर्ते कि हम उनका सही तरह से विश्लेषण करें। हाल ही में किए गए ऐसे विश्लेषण से संकेत मिला है कि फ्लू व अन्य आम वायरसों के संक्रमण और अल्ज़ाइमर या पार्किंसन जैसे तंत्रिका-क्षय रोगों के बीच कुछ सम्बंध है।

वैसे तो हर्पीज़ वायरस के संक्रमण का सम्बंध अल्ज़ाइमर रोग से देखा गया है और एप्स्टाइन-बार वायरस संक्रमण और मल्टीपल स्क्लेरोसिस के बीच सम्बंध के भी सशक्त प्रमाण मिले हैं। लेकिन ताज़ा अध्ययन में सेंटर फॉर अल्ज़ाइमर रिलेटेड डिमेंशिया के क्रिस्टीन लेविन और उनके साथियों ने यह देखने की कोशिश की है कि क्या आम तौर पर वायरस संक्रमण और तंत्रिका-क्षय रोगों के बीच कोई सम्बंध है।

लगभग साढ़े चार लाख इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्डों की जांच के न्यूरॉन में प्रकाशित परिणामों से पता चला है कि वायरस संक्रमण और तंत्रिका-क्षय रोगों के बीच कम से कम 22 कड़ियां हैं और कई मामलों में तंत्रिका क्षय रोग का जोखिम संक्रमण के 15 वर्षों बाद भी देखा गया। वैसे फिलहाल इस सह-सम्बंध की कार्यप्रणाली की समझ नहीं बनी है।

टीम ने सबसे पहले तो 35,000 ऐसे लोगों के रिकॉर्ड देखे जिन्हें मस्तिष्क सम्बंधी कोई रोग था। तुलना के लिए उन्होंने 3,10,000 ऐसे लोगों के रिकॉर्ड की भी जांच की जिन्हें ऐसा कोई रोग नहीं था। ये सारे रिकॉर्ड उन्हें फिनजेन नामक डैटाबेस से प्राप्त हुए थे। इस जांच में टीम को संक्रमण और मस्तिष्क रोगों के बीच 45 उल्लेखनीय कड़ियां देखने को मिलीं। इसी बात को उन्होंने एक अन्य डैटाबेस – यूके बायोबैंक – से तुलना करके भी देखा। अंतत: उनके पास 22 कड़ियां शेष रहीं।

सबसे सशक्त कड़ी वायरस-जन्य मस्तिष्क ज्वर और अल्ज़ाइमर के बीच सामने आई। मस्तिष्क ज्वर से पीड़ित व्यक्तियों को आगे चलकर अल्ज़ाइमर होने की संभावना 31 गुना ज़्यादा देखी गई। अन्य मामलों में सह-सम्बंध इतने सशक्त नहीं दिखे, हालांकि कुछ हद तक देखे गए।

इस अध्ययन की कुछ ज़ाहिर-सी सीमाएं भी हैं। पहली तो यह है कि सारे आंकड़े युरोपीय मूल के लोगों के हैं। इसके अलावा, दुनिया के अन्य इलाकों में ज़्यादा संक्रमित करने वाले वायरसों को भी इसमें शामिल नहीं किया जा सका है। बहरहाल, इस अध्ययन से कुछ संकेतक तो मिले हैं जिन पर आगे काम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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मानव जेनेटिक्स विज्ञान सभा का माफीनामा

पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित हुई। रिपोर्ट में अमेरिकन सोसायटी ऑफ ह्यूमैन जेनेटिक्स (एएसएचजी) ने अपने विगत 75 सालों के इतिहास की समीक्षा की है और अपने कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों की यूजेनिक्स आंदोलन में भूमिका के लिए क्षमा याचना की है। साथ ही सोसायटी ने इस बात के लिए माफी मांगी है कि समय-समय पर उसने जेनेटिक्स के क्षेत्र में हुए सामाजिक अन्याय और क्षति को अनदेखा किया और विरोध नहीं किया।

एएसएचजी की स्थापना 1926 में हुई थी और आज इसके लगभग 8000 सदस्य हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्थापना के समय से लेकर 1972 तक सोसायटी के निदेशक मंडल के कम से कम 9 सदस्य/अध्यक्ष अमेरिकन यूजेनिक्स सोसायटी के सदस्य रहे। रिपोर्ट में जिन अन्यायों की चर्चा की गई है, उनमें एएसएचजी के मुखियाओं द्वारा जबरन नसबंदियों का समर्थन और जेनेटिक्स का उपयोग अश्वेत लोगों के प्रति भेदभाव को जायज़ ठहराने के लिए करने जैसी घटनाएं शामिल हैं।

दरअसल, इस समीक्षा की प्रेरणा यूएस के मिनेसोटा में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लायड की एक पुलिस अधिकारी द्वारा हत्या के जवाब में उभरे नस्लवाद विरोधी आंदोलन से मिली थी।

गौरतलब है कि यूजेनिक्स और उसके समर्थकों की धारणा रही है कि मनुष्यों में जो अंतर नज़र आते हैं वे मूलत: उनकी जेनेटिक बनावट से उपजते हैं। इसलिए ये लोग मानते हैं कि मानव समाज में बेहतरी के लिए ज़रूरी है कि कतिपय लोगों को अधिक से अधिक प्रजनन का मौका मिले और कुछ समुदायों को प्रजनन करने से रोका जाए। और तो और, यूजेनिक्स के समर्थक मानते हैं कि अपराध की प्रवृत्ति, शराबखोरी की लत जैसी सामाजिक बुराइयों की जड़ें भी जेनेटिक्स में हैं।

यूजेनिक्स के आधार पर नस्लों को जायज़ ठहराने के प्रयास हुए हैं। जर्मनी में यहूदियों के संहार को भी इसी आधार पर जायज़ ठहराया गया था कि इससे समाज उन्नत होगा।

रिपोर्ट में ऐसी कई बातों का खुलासा किया गया है जब सोसायटी के प्रमुख सदस्यों ने यूजेनिक्स-प्रेरित कदमों का समर्थन किया। साथ ही यह भी कहा गया है कि कई बार सोसायटी ने यूजेनिक्स की धारणा पर हो रहे शोध का समर्थन तो नहीं किया लेकिन खुलकर विरोध भी नहीं किया। अंतत: 1990 के दशक में सोसायटी ने यूजेनिक्स सिद्धांतों के विरोध में स्पष्ट वक्तव्य प्रकाशित किए।

रिपोर्ट में बताया गया है कि जब 1960 के दशक में जेनेटिक्स का दुरुपयोग सामाजिक भेदभाव को जायज़ ठहराने के लिए किया जा रहा था, तब भी सोसायटी मौन रही। उदाहरण के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने यह विचार प्रस्तुत किया कि अश्वेत लोग अपनी जेनेटिक बनावट के चलते बौद्धिक रूप से हीन होते हैं। इसी प्रकार से सिकल सेल रोग की जेनेटिक प्रकृति के बारे में गलतफहमियों को पनपने दिया गया, जिसके चलते अश्वेत लोगों के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा मिला।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सोसायटी ने समय-समय पर जेनेटिक्स के अनैतिक प्रयोगों के प्रति कोई विरोध दर्ज नहीं किया था। इन प्रयोगों में कुछ समुदायों की जेनेटिक सूचनाओं का इस्तेमाल समुदाय की अनुमति/स्वीकृति के बगैर किया गया था। अलबत्ता, यह भी स्पष्ट किया गया है कि आम तौर पर जेनेटिक्स अनुसंधान के क्षेत्र और सोसायटी ने हाल के वर्षों में ऐसे अन्यायों की खुलकर निंदा की है।

दरअसल. कई वैज्ञानिकों का मानना है कि यह रिपोर्ट सोसायटी के इतिहास की समीक्षा तो है ही, लेकिन यह जेनेटिक्स के लगातार फैलते क्षेत्र की भावी चुनौतियों और मुद्दों को भी व्यक्त करती है। इस लिहाज़ से यह एक साहसिक व महत्वपूर्ण रिपोर्ट है। (स्रोत फीचर्स)

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हिमशैल (आइसबर्ग) से पीने का पानी

स्वालबर्डी ब्रांड अपने बोतलबंद ठंडे पानी का स्वाद “मुंह में बर्फ (स्नो) के एहसास” जैसा बताता है, जो उत्तरी ध्रुव से 1000 किलोमीटर दूर के एक हिमशैल को पिघलाकर तैयार किया जाता है। इसे नॉर्वे के स्वालबर्ड द्वीपसमूह के एक छोटे से महानगर लॉन्गइयरब्येन में बोतलबंद किया जाता है। स्वालबर्डी का बोतलबंद पानी लंदन, सिडनी, फ्लोरिडा और मकाऊ में समृद्ध स्थानों पर पहुंचाया जाता है। ‘आर्कटिक को बचाने के लिए आर्कटिक का स्वाद चखें’ यह बात बोलती इसकी वेबसाइट अपने पानी में कार्बन उदासीनता का बखान करती है, और 750 मिलीलीटर की पानी बोतल 107 डॉलर (8836 रुपए) में ऑनलाइन बेचती है।

इस कीमत का पानी दुनिया के अधिकांश लोगों की पहुंच से बहुत दूर है। इनमें वे भी शामिल हैं जिनके पास सुरक्षित और साफ पेयजल का अभाव है। कानून, संस्कृति और मानविकी के विशेषज्ञ मैथ्यू बर्कहोल्ड अपनी पुस्तक चेज़िंग आइसबर्ग्स में लिखते हैं कि क्या दुनिया की प्यास को हिमशैल और हिम-टोपियों में कैद विश्व के दो-तिहाई मीठे-साफ पानी से बुझाना संभव है?

कुछ लोग पहले से ही इस काम में लगे हुए हैं – न सिर्फ स्वालबर्डी जैसी कंपनियां जो विलासी प्यास बुझाने का काम रही हैं, बल्कि वहां भी जहां साफ पानी की कमी है। बर्कहोल्ड ने न्यूफाउंडलैंड के ‘आइसबर्ग काउबॉय’ एड कीन से साक्षात्कार किया, जो बर्फीले समुद्र से हिमशिलाओं को लाते हैं और सौंदर्य प्रसाधन कंपनियों और शराब निर्माता कंपनियों को इसका पानी बेचते हैं। गौरतलब है कि ग्रीनलैंड के सबसे उत्तरी शहर कानाक में सार्वजनिक जल आपूर्ति हिमशिला के पिघले हुए पानी को फिल्टर और उपचारित करके की जाती है।

यह विचार कहां से आया? एक अनुमान है कि अंटार्कटिका से हर साल करीब 2300 घन किलोमीटर बर्फ टूटकर अलग होती है। 2022 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार आर्कटिक और अंटार्कटिक से हर साल 1,00,000 से अधिक हिमशिलाएं पिघलकर समुद्र में पहुंचती हैं। लगभग 11.3 करोड़ टन का एक हिमशैल अंटार्कटिका से दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन तक खींचकर लाने से एक वर्ष के लिए इस शहर की 20 प्रतिशत पानी की आपूर्ति हो सकती है। तो फिर क्यों न यही किया जाए?

बर्कहोल्ड लिखते हैं कि इस किताब को लिखने के लिए मैंने दर्जनों वैज्ञानिकों से बात की है। और वे सभी हिमशैल से पेयजल लेने के बारे में संशय में है। पुरापाषाण विज्ञानी एलेन मोस्ले-थॉम्पसन ने अंटार्कटिका से हिमशैल निकाल लाने के नौ अभियानों और ग्रीनलैंड में छह अभियानों का नेतृत्व किया है। लेकिन फिर भी वे इस कार्य को लेकर संशय में हैं।

केप टाउन योजना बनाने वाले निक स्लोन थोड़े कम आशंकित लगते हैं। उनकी हिमनद विशेषज्ञों, इंजीनियरों और समुद्र विज्ञानियों की टीम सर्वश्रेष्ठ हिमशैल को खोजने के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करेगी। फिर हिमशैल को एक विशाल जाल से पकड़ कर टगबोट द्वारा शक्तिशाली अंटार्कटिक परिध्रुवीय धारा तक खींचकर लाएगी, और वहां से इसे उत्तर की ओर बहती हुई बेंगुएला धारा में ले जाएगी।

स्लोन का अनुमान है कि इसमें तकरीबन 10 करोड़ डॉलर की लागत आएगी। इसके अलावा अतिरिक्त 5 करोड़ डॉलर की लागत बर्फ को पिघलाने में और मीठे पानी को ज़मीन तक भेजने में आएगी, बशर्ते हिमशैल समुद्र में न तो पिघले और न ही रास्ता भटके। लेकिन केप टाउन के अधिकारी इस काम के लिए कम उत्साही दिखे।

स्लोन की इस योजना पर अभी तक अमल नहीं हुआ है। इस बीच, बर्लिन की एक कंपनी पोलवाटर लगभग एक दशक से इसी तरह की योजना – जमे हुए मीठे पानी को अफ्रीका और कैरिबियन के पश्चिमी तट पर रहने वाले सख्त ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की योजना पर काम कर रही है। वे भी उम्दा हिमशैलों का पता उपग्रह डैटा की मदद से लगाएंगे। लेकिन इनका पता लगने के बाद उनकी योजना पिघले हुए पानी को आसानी से परिवहनीय विशाल बैग में भरने की है।

फिर संयुक्त अरब अमीरात का आइसबर्ग प्रोजेक्ट है, जो आविष्कारक अब्दुल्ला अलशेही का सपना है: हिमशैल को अंटार्कटिक से फुजैराह तट पर लाना। प्रचार सामग्री में पेंगुइन और ध्रुवीय भालू – दोनों अलग-अलग ध्रुव के जीव – हिमशैल पर उदास खड़े दिखाई देते हैं। अलशेही का कहना है खारे समुद्री पानी को लवणमुक्त करके मीठे पानी में बदलने की तुलना में हिमशैलों को यहां लाना सस्ता होगा।

लवणमुक्ति से हर साल वैश्विक स्तर पर कम से कम 35 ट्रिलियन लीटर पेयजल प्राप्त किया जाता है। बर्कहोल्ड बताते हैं कि यह कई जगहों पर अत्यधिक महंगा है। यह ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर करता है, और इसके द्वारा निकला अतिरिक्त लवण वापस समुद्र में ही डाला जाता है जो समुद्र को प्रदूषित करता है। लेकिन वे ऐसे विकल्पों की ज़्यादा बात नहीं करते जो संभवत: हिमशैल खींचकर लाने की तुलना में बेहतर हैं, जैसे अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण (रीयसाकलिंग) या फसल सिंचाई के लिए खारे पानी की आपूर्ति। वे पानी के अन्य स्रोतों, जैसे कोहरे से पानी के दोहन पर कोई आंकड़े नहीं देते। इन स्रोतों का उपयोग चिली, मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका के दूरस्थ समुदायों द्वारा किया जाता है। और न ही वे पानी की बर्बादी को कम करने या पानी के उपयोग को अधिक कार्यकुशल बनाने के बारे में बात करते हैं।

बर्कहोल्ड का अनुमान है कि यदि हिमशैल से पानी का दोहन सफल हो जाता है, तो पानी के प्यासे बड़े-बड़े उद्यमी अपनी मुनाफा-कमाऊ सोच के साथ यहां आएंगे। हिमशैल के दोहन या उपयोग को लेकर नियम-कानून बहुत कम है: कुछ राष्ट्रीय कानून हिमशैल के उपयोग पर बात करते हैं, लेकिन ऐसा कोई अंतर्राष्ट्रीय नियम या समझौता नहीं है जो यह स्पष्ट करता हो कि कौन मीठे पानी के इस स्रोत का किस तरह इस्तेमाल कर सकता है या बेच सकता है।

यदि इनका निष्पक्ष रूप से उपयोग किया जाना है, तो हमें यह तय करना होगा कि न्यायसंगत तरीके से हिमशैलों का उपयोग कौन, कैसे और कितना कर सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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पुरातात्विक अपराध विज्ञान

गभग 5000 साल पहले स्पेन के टैरागोना की एक गुफा में किसी ने चुपके से एक वृद्ध व्यक्ति के सिर पर पीछे से एक भोथरे हथियार से वार किया था, संभवतः उसकी मृत्यु वहीं हो गई थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में ऐसे कई हमले दर्ज हैं, फिर भी शोधकर्ताओं को यह पता करने में मशक्कत करनी पड़ती है कि वास्तव में क्या हुआ था। अब एक नए अध्ययन की बदौलत शोधकर्ता यह सब जानने के बहुत करीब पहुंच गए हैं।

नवीन अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनेक नकली खोपड़ियां पर अलग-अलग हथियारों से वार किया और उनका अवलोकन किया। शुरुआत उन्होंने पुराने समय के दो औज़ारों, कुल्हाड़ी और बसूला, से की। बसूला हथौड़ा और कुल्हाड़ी का मिला-जुला सा औज़ार है। दोनों नवपाषाण युग (10,000 से 4500 ईसा पूर्व तक) के लोकप्रिय औज़ार थे, इसी समय मानव संपर्क बढ़ा था और हिंसा भी। शोधकर्ताओं ने पॉलीयुरेथेन और रबर ‘त्वचा’ से कृत्रिम खोपड़ी बनाई और मस्तिष्क के नरम ऊतक के एहसास के लिए उसमें जिलेटिन से भर दिया। फिर, उन पर जानलेवा वार करने के काम को अंजाम दिया!

जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित इस रिपोर्ट के खूनी परिणाम दर्शाते हैं कि दोनों हथियारों ने अलग-अलग तरह के फ्रैक्चर पैटर्न दिए। उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी के वार ने बसूले की तुलना में अधिक सममित, अंडाकार फ्रैक्चर बनाया। फ्रैक्चर ने हमलावर और पीड़ित के बीच डील-डौल के अंतर के भी संकेत दिए; उदाहरण के लिए ‘मस्तिष्क’ तक भेदने वाला वार संकेत देता है कि हमलावर कद में मृतक से ऊंचा था। तो इससे लगता है कि वैज्ञानिकों ने इस प्राचीन स्पेनिश व्यक्ति की मृत्यु के रहस्य को सुलझा लिया है: ऐसा लगता है कि उसे किसी बसूले से मारा गया था। (स्रोत फीचर्स)

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शोधपत्र में जालसाज़ी, फिर भी वापसी से इन्कार

प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।

डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।

उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।

जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।

ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।

इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।

बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)

प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।

इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”

सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।

जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।

डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।

समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शरीर की सारी वसा एक-सी नहीं होती

मारे शरीर में वसा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ शरीर के विकास के लिए भी आवश्यक हैं। लेकिन शरीर में वसा की अतिरिक्त मात्रा से स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है और उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग जैसी बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। भारत में औसतन 40 प्रतिशत लोग मोटापे की समस्या से परेशान हैं। इससे निपटने के लिए सबसे अच्छा सुझाव तो नियमित रूप से व्यायाम और शारीरिक परिश्रम करना है लेकिन ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। इस विषय में कई तरह के शोध किए गए हैं लेकिन अभी तक कोई ऐसा नुस्खा नहीं मिला जिससे आसानी से शरीर की वसा को नियंत्रित किया जा सके।

हाल के वर्षों में एक अंतर्राष्ट्रीय शोध दल ने शरीर में उपस्थित अत्यधिक वसा से निपटने का तरीका खोज निकाला है। गौरतलब है कि हमारे शरीर में मुख्य रूप से दो प्रकार की वसा होती है: ब्राउन फैट और व्हाइट फैट। ब्राउन फैट चयापचय, मोटापे और मधुमेह को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और दीर्घायु को संभव बनाती है। दूसरी ओर, व्हाइट फैट चयापचय की दृष्टि से अकार्यशील होता है। इसकी ऊर्जा का अधिक उपयोग नहीं किया जाता है, और यह शरीर में जमा होता रहता है और कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनता है।

तो यह एक महत्वपूर्ण सवाल रहा है कि शरीर में ब्राउन फैट को कैसे बढ़ाया व सक्रिय किया जाए। साथ ही यह भी एक मुद्दा रहा है कि क्या व्हाइट फैट को ब्राउन में तबदील करना संभव है।

क्यूबैक स्थित शेरब्रुक युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में शरीर में उपस्थित ब्राउन फैट को सक्रिय करने का प्रयास किया गया है। वास्तव में ब्राउन फैट ठंड या कुछ रासायनिक संकेतों के प्रत्युत्तर में सक्रिय होकर शरीर में गर्मी उत्पन्न करता है।

मनुष्यों के शरीर में ब्राउन फैट की मात्रा काफी कम होती है। वैज्ञानिकों का प्रयास रहा है कि किसी अन्य तरीके से ब्राउन फैट को सक्रिय किया जा सके या व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित किया जा सके ताकि चयापचय में सुधार हो।

ब्राउन फैट नवजात शिशुओं की गर्दन और कंधों में पाया जाता है। यह काफी मात्रा में कैलोरी जलाता है और शरीर को गर्म रखने का काम करता है। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह कम होने लगता है और 6 वर्ष की आयु तक यह कुल फैट के 5 प्रतिशत से भी कम हो जाता है। इसके बाद हमारे शरीर में केवल निष्क्रिय व्हाइट फैट बनता है।

इस व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में बदलने और स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया। उन्होंने व्हाइट फैट की कोशिकाओं को लेकर उन्हें बहुसक्षम (प्लूरिपोटेंट) स्थिति में परिवर्तित किया और फिर कुछ एपीजेनेटिक स्विच के साथ छेड़छाड़ की तो वे ब्राउन फैट कोशिकाओं में परिवर्तित हो गई।

इसके बाद उन्होंने ब्राउन फैट कोशिकाओं को कल्चर किया और एक अन्य जीन को सक्रिय करके कोशिका की सतह पर ऐसे प्रोटीन की संरचना को परिवर्तित कर दिया जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। ऐसा करने से ब्राउन फैट को भेड़ों में इंजेक्ट करने पर उनके शरीर ने इसे अस्वीकार नहीं किया।

इस ब्राउन फैट को एक मोटी भेड़ में डाला गया। जैसी कि उम्मीद थी अधिक मात्रा में ब्राउन फैट वाली भेड़ दुबली हो गई और उसमें चयापचय सिंड्रोम तथा मधुमेह भी खत्म हो गया।

इस संदर्भ में, डॉ. शिन्या यामानाका द्वारा वयस्क कोशिकाओं को उनकी मूल भ्रूण अवस्था में लाने का काम महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके लिए उन्होंने चार प्रकार के जीन को सक्रिय किया था जिन्हें यामानाका कारक कहा जाता है। ये कारक एक तरह से स्विच का काम करते हैं। भ्रूणीय अवस्था में आने के बाद ये कोशिकाएं ब्राउन फैट, व्हाइट फैट, हृदय. लीवर या गुर्दे वगैरह की कोशिकाएं बनाने में सक्षम हो जाती हैं।

ब्राउन फैट को उपयोग करने में एक बड़ी समस्या रही है कि ब्राउन फैट द्वारा किए जाने वाले कार्यों को व्हाइट फैट में प्रोग्राम किया जाए। यह अब संभव हो गया है। डेलावेयर स्थित एक समूह ने एक मान्य उपचार के माध्यम से कुछ महिलाओं में निष्क्रिय ब्राउन फैट को सक्रिय किया तथा व्हाइट फैट को ब्राउन में भी परिवर्तित किया। इसकी मदद से व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित करने की तकनीकें विकसित की जा सकेंगी। यह ब्राउन फैट आपके वज़न को कम करने के साथ मधुमेह, हृदय रोग, कैंसर, अस्थि रोग और डिमेंशिया के जोखिम को भी कम करेगा।

यह तकनीक जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। गौरतलब है कि 1974 से मधुमेह, अस्थिरोग और कैंसर जैसे बीमारियों के लिए व्हाइट फैट का बढ़ता स्तर सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा थकान और ताकत की कमी जैसे बुढ़ापे के लक्षणों के पीछे का कारण भी शरीर की अतिरिक्त वसा है। वसा के बढ़ने से जीवन प्रत्याशा में भी कमी आई है। यदि वैज्ञानिक मनुष्यों में व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित करने का रास्ता खोज निकालते हैं तो इससे कई बीमारियों के जोखिम में कमी आ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती को ठंडा रखने के लिए धूल का शामियाना

कुछ खगोल भौतिकविदों ने प्लॉस क्लाइमेट में पृथ्वी को ठंडा रखने के लिए सुझाव दिया है कि चंद्रमा से धूल का गुबार बिखेरा जाए ताकि सूर्य के प्रकाश को कुछ हद तक पृथ्वी तक पहुंचने से रोक जा सके।

शोधकर्ताओं की टीम ने एक ऐसा मॉडल तैयार किया है जिसमें अंतरिक्ष में बिखेरी गई धूल से पृथ्वी तक पहुंचने वाली धूप के प्रभाव को 1 से 2 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। टीम के मुताबिक इसका सबसे सस्ता और प्रभावी तरीका चंद्रमा से धूल के गुबार प्रक्षेपित करना है जो एक शामियाना सा बना देगी। इस विचार को कार्यान्वित करने के लिए जटिल इंजीनियरिंग की आवश्यकता होगी।

वैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की और भी रणनीतियां हैं जिनको निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है लेकिन कई शोधकर्ता इस विचार को एक बैक-अप के रूप में देखते हैं। कुछ जलवायु वैज्ञानिक ऐसे विचारों को वास्तविक समाधान से भटकाने वाला मानते हैं।  

सूर्य के प्रकाश को रोकने के लिए किसी पर्दे के उपयोग का प्रस्ताव पहली बार नहीं आया है। लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के जेम्स अर्ली ने वर्ष 1989 में सूर्य और पृथ्वी के बीच 2000 किलोमीटर चौड़ी कांच की ढाल स्थापित करने का और 2006 में खगोलशास्त्री रॉजर एंजेल ने धूप को रोकने के लिए खरबों छोटे अंतरिक्ष यानों से छाते जैसी ढाल तैयार करने का विचार रखा था। इसके अलावा पिछले वर्ष एमआईटी शोधकर्ताओं के समूह ने बुलबुलों का बेड़ा तैनात करने का विचार रखा था।

लेकिन इन सभी विचारों से जुड़े असंख्य मुद्दे हैं। जैसे सामग्री की आवश्यकता एवं अंतरिक्ष में खतरनाक और अपरिवर्तनीय निर्माण। उदाहरण के लिए  सूर्य की रोशनी के प्रभाव को कम करने के लिए 10 अरब किलोग्राम से अधिक धूल की आवश्यकता होगी। अलबत्ता, नए प्रस्ताव के प्रवर्तक अंतरिक्ष में धूल फैलाकर सूर्य के प्रकाश को रोकने के विचार को काफी प्रभावी मानते हैं। टीम के मॉडल के मुताबिक चंद्रमा की धूल इसके लिए सबसे उपयुक्त है। इसमें सबसे बड़ी समस्या 10 अरब कि.ग्रा. धूल को एकत्रित करना है जिसको बार-बार फैलाना होगा। इस सामग्री को सही स्थान पर पहुंचाना भी होगा। टीम ने धूल को प्रक्षेपित करने के विभिन्न तरीकों को कंप्यूटर पर आज़माया है।       

वर्तमान सौर इंजीनियरिंग तकनीक से हटकर कई वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अन्य तरीकों का भी सुझाव दिया है। एक विचार समताप मंडल में गैस और एयरोसोल भरने का है। ऐसा करने से अंतरिक्ष में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादल तैयार किए जा सकते हैं। लेकिन इस तकनीक को विकसित करने में अभी समय लगेगा और ज़ाहिर है कि इसको अपनाने में कई चुनौतियां भी होंगी। इसमें एक बड़ी समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सहमति बनाना होगी जिसको सभी राष्ट्र, वैज्ञानिक समुदाय और संगठन स्वीकार करें। इस बीच यह विचार करना आवश्यक लगता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के पारंपरिक उपायों पर गंभीरता से अमल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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डोडो की वापसी के प्रयास

त्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार के चलते मॉरीशस द्वीप पर पाए जाने वाले डोडो पक्षी पूरी तरह विलुप्त हो गए थे। अब, कोलोसल बायोसाइंस नामक बायोटेक कंपनी ने डोडो पक्षी को वापस अस्तित्व में ले आने की महत्वाकांक्षी घोषणा की है। इस काम के लिए उन्हें 22.5 करोड़ डॉलर की धनराशि मिली है। कोलोसल बायोसाइंस की यह योजना जीनोम संपादन तकनीक, स्टेम-कोशिका जैविकी और पशुपालन की तकनीकों में परिष्कार पर निर्भर करती है।

लेकिन इसमें कितनी सफलता हासिल होगी यह निश्चित नहीं है और कई वैज्ञानिकों को लगता है कि निकट भविष्य में तो यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

डोडो की महत्वाकांक्षी वापसी का सफर उसके निकटतम जीवित सम्बंधी, चमकीले पंखों वाले निकोबार कबूतर (कैलोएनस निकोबारिका) से शुरू होगा। पहले निकोबार कबूतर से उनकी विशिष्ट आद्य जनन कोशिका यानी प्रायमोर्डियल जर्म सेल (PGC) को अलग किया जाएगा और उन्हें प्रयोगशाला में संवर्धित किया जाएगा। PGC वे अविभेदित स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो शुक्राणु और अंडाणु बनाने का काम करती हैं। फिर, CRISPR जैसी जीन संपादन तकनीकों की मदद से PGC में डीएनए अनुक्रम को संपादित किया जाएगा और इसे डोडो के डीएनए अनुक्रम की तरह बना लिया जाएगा। इन जीन-संपादित जनन कोशिकाओं को फिर एक सरोगेट पक्षी प्रजाति के भ्रूण में डाला जाएगा।

इससे ऐसा शिमेरिक (मिश्र) जीव बनने की उम्मीद है जो डोडो के समान अंडाणु व शुक्राणु बनाएगा। और इन अंडाणुओं और शुक्राणुओं के निषेचन से संभवत: डोडो (रैफस क्यूकुलैटस) जैसा कुछ पैदा हो जाएगा।

लेकिन यह प्रक्रिया जितनी सहज दिखती है वास्तव में उतनी है नहीं। सबसे पहले तो शोधकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियों का पता लगाना होगा जिसमें निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाएं प्रयोगशाला में अच्छी तरह पनप सकें। हालांकि चूज़ों के साथ इसी तरह का काम किया जा चुका है लेकिन अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के लिए उपयुक्त परिस्थितियां पहचानने में समय लगेगा।

इसके बाद एक बड़ी चुनौती होगी निकोबार कबूतरों और डोडो के डीएनए के बीच अंतरों को पहचानना। डोडो और निकोबार कबूतर के साझा पूर्वज लगभग 3 करोड़ से 5 करोड़ साल पहले पाए जाते थे। इन दोनों पक्षियों के जीनोम की तुलना करके उन अधिकांश डीएनए परिवर्तनों की पहचान की जा सकती है जिन्होंने उनके बीच अंतर पैदा किया था। डोडो परियोजना की सलाहकार बेथ शेपिरो की टीम ने डोडो के जीनोम का अनुक्रमण कर लिया है, लेकिन अभी ये परिणाम प्रकाशित नहीं हुए हैं।

डीएनए अनुक्रम में सटीक अंतर पता करने के लिए डोडो का उच्च गुणवत्ता का जीनोम उपलब्ध होना महत्वपूर्ण होगा। दरअसल प्राचीन जीवों के जीनोम छिन्न-भिन्न हालत में मिलते हैं और इनका विश्लेषण करके डीएनए के छोटे-छोटे खंडों का अनुक्रमण किया जाता है और फिर उन्हें एक साथ जोड़ कर पूरा जीनोम तैयार किया जाता है। ज़ाहिर है, इस तरह तैयार जीनोम की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं होती और इनमें कई कमियां और त्रुटियां रह जाती हैं।

इसलिए दोनों पक्षियों के बीच डीएनए के हरेक अंतर का पता लगाना संभव नहीं लगता। पूर्व में किए गए रैटस मैक्लेरी और रैटस नॉर्वेजिकस नामक दो चूहा प्रजातियों के जीनोम की तुलना के परिणामों के आधार पर लगता है कि डोडो जीनोम में गैप (अधूरी जानकारी) उन डीएनए क्षेत्रों में अधिक मिलेगी जिनमें डोडो और निकोबर कबूतर के अलग होने के बाद सबसे अधिक परिवर्तन हुए थे।

अब यदि शोधकर्ता जीनोम में हर बारीक अंतर पता भी कर लेते हैं तो निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाओं में ऐसे हज़ारों परिवर्तनों शामिल करना आसान काम नहीं होगा। बटेर के जीनोम में सिर्फ एक आनुवंशिक परिवर्तन करने में शोधकर्ताओं को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

एक सुझाव है कि डीएनए परिवर्तन सिर्फ उन खंडों तक सीमित रखा जाए जो प्रोटीन का निर्माण करवाते हैं। इससे ज़रूरी संपादनों की संख्या थोड़ी कम की जा सकती है।

एक और बड़ी समस्या है इतना बड़ा पक्षी, जैसे एमू (ड्रोमाईस नोवेहोलैंडिया), खोजना जो डोडो जैसे अंडे को संभाल सके। डोडो के अंडे निकोबार कबूतर के अंडे से बहुत बड़े होते हैं। इसलिए निकोबार के अंडों में डोडो की वृद्धि नहीं की जा सकती। मुर्गियों के भ्रूण अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के प्रति काफी ग्रहणशील होते हैं। पूर्व में शिमेरिक मुर्गियां तैयार की गई हैं जो बटेर के शुक्राणु पैदा कर सकती हैं, लेकिन अंडाणु बनाने में अब तक सफलता नहीं मिली है। इस लिहाज़ से लगता है कि जनन कोशिकाओं को एक पक्षी से दूसरे में स्थानांतरित करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा, खास तौर से तब जब इन जनन कोशिकाओं में जीन संपादन के ज़रिए व्यापक परिवर्तन कर दिए गए हों।

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इतने प्रयास क्या वास्तविक डोडो जैसा कुछ दे पाएंगे? बहरहाल, कोलोसल बायोसाइंस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इन बाधाओं को स्वीकार करते हैं, और कहते हैं कि डोडो बने या न बने लेकिन इस काम से अन्य पक्षियों के संरक्षण के प्रयासों में मदद मिलेगी। ये प्रयास पक्षी संरक्षण के लिए कई नई प्रौद्योगिकियां देंगे। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि येन केन प्रकारेण डोडो बन भी जाए तो डोडो के शिकारी तो आज भी मौजूद हैं। तो खतरा तो मंडराएगा ही। इसलिए यदि इतना पैसा उपलब्ध है तो उसे अन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के प्रयास में लगाया जाना बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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