महासागरों का प्रबंधन – डॉ. शैलेश नायक

जीवन की उत्पत्ति समंदर में हुई थी। यह अकेला सबसे प्रमुख कारण है कि क्यों समुद्री पर्यावरण की रक्षा की जानी चाहिए। समंदर हमें भोजन, ऊर्जा, खनिज संसाधन तो प्रदान करते ही हैं साथ ही ये जैव विविधता के भंडार भी हैं। ये मौसम और जलवायु को प्रभावित करते हैं और पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करते हैं। इसके अलावा यही समंदर जीवाश्म-ईंधन आधारित ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं और विश्व की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं। इस मायने में इनका रणनीतिक महत्व है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि भविष्य में हमारा विकास और समृद्धि समंदरों पर निर्भर रहेगी। इनके महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2012 में टिकाऊ विकास सम्बंधी सम्मेलन में हरित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाकर नीली अर्थव्यवस्था तक ले जाने पर ज़ोर दिया था। संयुक्त राष्ट्र ने महासागरों, सागरों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण को निर्वहनीय विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में शामिल किया है। समंदरों के विकास के महत्व को ध्यान में रखते हुए युनेस्को की संस्था इंटरनेशनल ओशियन कमीशन (आईओसी) ने वर्तमान दशक को ‘समुद्र विज्ञान दशक’ घोषित किया है ताकि उपरोक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी विज्ञान उपलब्ध हो सके। भारत ने भी समुद्र-निर्भर अर्थव्यवस्था की महत्ता को स्वीकार किया है। नीली अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जिन प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने की ज़रूरत है वे निम्नानुसार हैं।

टिकाऊ मत्स्य भंडार: 2050 तक वैश्विक जनसंख्या लगभग 9 अरब तक पहुंचने की संभावना है। इस स्थिति में पोषण के लिए समुद्री मत्स्य भंडार पर निर्भरता भी निश्चित रूप से बढ़ेगी। प्राथमिक और माध्यमिक उत्पादन में परिवर्तनों के कारण मछलियों के स्टॉक में कमी आ रही है जिससे तटीय समुदायों की आजीविका भी प्रभावित हुई है। इसके अलवा वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि से मछलियों की कई प्रजातियां ध्रुवों की ओर पलायन कर रही हैं। इस परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भौतिक, जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं की समझ विकसित करना और आने वाले निकट भविष्य तथा दूरस्थ भविष्य में मछलियों के स्टॉक का पूर्वानुमान करने हेतु मॉडल विकसित करना अत्यंत आवश्यक है। इन मॉडलों की मदद से मत्स्याखेट को जैविक रूप से निर्वहनीय सीमाओं के भीतर रखा जा सकेगा।

तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण: मूंगा चट्टानें (कोरल रीफ), मैंग्रोव और समुद्री घास महत्वपूर्ण परितंत्र हैं और मत्स्य भंडार एवं अन्य बायोटा को बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन और इन्सानी गतिविधियों के कारण उनकी संरचना, कार्यों और दुर्बलताओं को समझना आवश्यक है। कोप-27 सम्मलेन के दौरान यूएई और इंडोनेशिया द्वारा शुरू किया गया मैंग्रोव एलायंस फॉर क्लाइमेट इस दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। समुद्री जीवन की जनगणना कार्यक्रम और उसके परिणामस्वरूप उभरे अंतर्राष्ट्रीय महासागर जैव-भौगोलिक सूचना तंत्र ने समुद्री जीवन की भरपूर जानकारी प्रदान की है। इस तरह के सर्वे समय-समय पर होते रहना ज़रूरी है।

हानिकारक शैवाल: लंबे समय से अत्यधिक भारी वर्षा से नदियों से बहकर आने वाले पानी में वृद्धि हुई है। इसके साथ आए पोषक तत्वों ने तटीय जल को संदूूषित किया है जिसकी वजह से हानिकारक शैवाल काफी तेज़ी से बढ़ गए हैं। परिणामस्वरूप व्यापक स्तर पर समुद्री जीवों की मृत्यु और रुग्णता में वृद्धि हुई है। ऐसे क्षेत्रों में मत्स्याखेट से बचने और पोषक तत्वों के प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु एक चेतावनी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।

तटीय प्रदूषण: तटीय क्षेत्रों के बढ़ते हुए विकास के मद्देनज़र तटीय और समुद्री परितंत्र, पारिस्थितिकीय वस्तुओं एवं सेवाओं और मत्स्य पालन पर समुद्री कचरे (माइक्रोप्लास्टिक सहित) के वितरण के प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए। एक समग्र मॉडल विकसित किया जाना चाहिए जिसमें जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव, भूमि उपयोग नीति और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को शामिल किया गया हो। विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं को प्लास्टिक कचरे के उत्पादन, तट तक उनके पहुंचने और समंदरों में प्रवाह को लेकर अधिक समझ बनाने के लिए निवेश करना ज़रूरी होगा।

समंदरों से खनिज और मीठा पानी: तटीय और अपतटीय खनिज भंडार औद्योगिक और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक टाइटेनियम, दुर्लभ मृदा धातु, थोरियम, निकल और कोबाल्ट जैसे कई महत्वपूर्ण खनिज प्रदान करते हैं। हालिया ‘हाई सी ट्रीटी’ के तहत इन संसाधनों का टिकाऊ उपयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इन्सानी गतिविधियों के नियमन का निर्णय लिया गया है। इसका लाभ सभी देशों के बीच समान रूप से साझा किया जाएगा। जैसे-जैसे तटीय क्षेत्रों की गतिविधियों में वृद्धि होगी वैसे-वैसे मीठे पानी की मांग भी बढ़ेगी। लक्षद्वीप में कई वर्षों से लो टेम्परेचर थर्मल डिसेलिनेशन (एलटीटीडी) तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। तटीय आबादी और विकास गतिविधियों के लिए एक करोड़ लीटर प्रतिदिन मीठे पानी का उत्पादन करने में सक्षम अलवणीकरण संयंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिए तकनीकी विशेषज्ञता के साथ-साथ वित्त और मानव संसाधनों में सामूहिक निवेश की ज़रूरत होगी।

समुद्री ऊर्जा: पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में वैकल्पिक और नए ऊर्जा स्रोत के रूप में समुद्री ऊर्जा पर विचार किया जा सकता है। गैस हाइड्रेट्स (बर्फ के समान मीथेन और पानी का क्रिस्टलीय रूप) की हालिया खोज आशाजनक रही है जिसके उपयोग के लिए उपयुक्त तकनीकों का विकास किया जा सकता है। इसके अलावा अपतटीय पवन फार्मों को बढ़ावा देते हुए बंदरगाहों पर आवश्यक अधोसंरचना स्थापित करने के प्रयास किए जाना चाहिए। इसके साथ ही समुद्री तापीय ऊर्जा और महासागरीय धाराओं के उचित उपयोग के लिए किए जाने वाले प्रयोगों को पर्याप्त समर्थन दिया जाना चाहिए।

तटीय पर्यटन: पिछले कुछ समय से सभी जी20 देशों के समुद्र तटों पर पर्यटन में काफी वृद्धि हुई है। इसको बढ़ावा देने के लिए भारत ‘ब्लू फ्लैग’ समुद्र तटों के प्रमाणन लिए सक्रिय प्रयास कर रहा है। ब्लू फ्लैग प्रमाणन फाउंडेशन फॉर एनवायर्नमेंटल एजुकेशन, कोपेनहेगन द्वारा उन तटों को दिया जाता है जहां सुंदर परिदृश्य, स्वच्छ जल, सुरक्षा और पर्यावरण के अनुकूल बुनियादी ढांचा उपस्थित है। इस प्रमाणन प्रक्रिया में पर्यावरण शिक्षा के साथ-साथ विकास को भी सुनिश्चित किया जाता है। अत: इस प्रमाणन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

खतरे की पहचान और प्रतिक्रिया तंत्र: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण चक्रवात, तटीय शहरों में बाढ़, तटीय कटाव जैसी चरम घटनाओं में वृद्धि हुई है। चेतावनी प्रणाली और प्रतिक्रिया तंत्र में सुधार एक प्रमुख आवश्यकता है। औद्योगिक और बुनियादी ढांचे की रक्षा को ध्यान में रखते हुए आकस्मिक घटनाओं के प्रति कमज़ोर क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए।

छोटे द्वीपों का विकास: मीठे पानी की उपलब्धता छोटे द्वीपों की एक प्रमुख आवश्यकता है। लक्षद्वीप के छह द्वीपों पर पानी उपलब्ध कराने के लिए एलटीटीडी तकनीक का उपयोग किया गया है। इसके अलावा इन द्वीपों पर स्थानीय लोगों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्री खेती (मैरीकल्चर) और सजावटी मत्स्य पालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

नौपरिवहन, उद्योग, बुनियादी ढांचा: बढ़ते व्यापार, नौपरिवहन और बुनियादी ढांचे के विकास को देखते हुए समुद्री परितंत्र पर दबाव बढ़ने की संभावना है। इसके लिए बंदरगाहों के विकास और नौपरिवहन (विद्युत चालित) के लिए सतत प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ावा देने की ज़रूरत है।

समुद्री प्रक्रियाओं को समझने, उनकी मॉडलिंग करने तथा मौसम, समुद्र की अवस्था और खतरों का पूर्वानुमान करने हेतु समुद्रों का अवलोकन (उपग्रह व अन्य साधनों से) बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे पूर्वानुमान मानव जीवन की सुरक्षा तथा इन्सानी गतिविधियों को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी हैं। महासागरों के निरंतर अवलोकन के लिए क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण है।

ओशिएनोग्राफिक रिसर्च एंड इंडियन ओशियन ग्लोबल ओशिएन ऑबसर्विंग सिस्टम ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हिंद महासागर का अध्ययन करने और समाज के भले के लिए नवीन ज्ञान प्राप्त करने का मंच प्रदान किया है।

पिछले एक दशक के दौरान जी20 फोरम में समुद्र से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती रही है। पूर्व में महासागरों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जी20 एक्शन प्लान ऑन मरीन लिटर (जर्मनी, 2017), ओसाका ब्लू ओशन विज़न (जापान, 2019), कोरल रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक्सलरेटर प्लेटफॉर्म (सऊदी अरब, 2020) और कंज़रवेशन, प्रोटेक्शन, रिस्टोरेशन एंड सस्टेनेबल यूज़ ऑफ बायोडायवर्सिटी (इटली, 2021) के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा 2022 में इंडोनेशियाई अध्यक्षता के तहत ब्लू इकॉनॉमी पर चर्चा की शुरुआत भी की गई थी।

गौरतलब है कि नीली अर्थव्यवस्था को अपनाने में भारत अग्रणी रहा है। यह उचित ही है कि भारत की अध्यक्षता में जी20 ने एक स्थायी और जलवायु-अनुकूल नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने, पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली में तेज़ी लाने और जैव विविधता की समृद्धि को प्राथमिकता दी है। विचार यह है कि महासागरों के स्वस्थ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संबोधित करते हुए समुद्री संसाधनों के टिकाऊ और समतामूलक आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले। यह संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्य-14 और भारत के नेतृत्व में पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक अभियान ‘मिशन LiFE’ (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) के अनुरूप ही है।

समुद्री अर्थव्यवस्था के विकास को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है – जैसे प्राकृतिक खतरे, जलवायु-प्रेरित मौसमी घटनाएं, समुद्र स्तर में वृद्धि, समुद्र का अम्लीकरण और इन्सानी गतिविधियों के प्रभाव। विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तटीय क्षेत्रों का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है। इन जोखिमों को समझने के लिए तटीय और समुद्री मानचित्रण करके उसके आधार पर विकास कार्यों की योजना बनाई जानी चाहिए।

नीली अर्थव्यवस्था के तहत व्यापक आर्थिक निर्णयों के लिए पर्यावरणीय डैटा आवश्यक है। वर्ष 2030 के बाद समुद्री पर्यावरण को सहारा देने के लिए बड़ा निवेश किए बिना महासागरों से आर्थिक विकास की संभावना काफी कम है। हमें महासागरों के लिए एक लेखा प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न डैटा स्रोतों को एक साथ लाया जा सके।

वर्ष 2030 के बाद जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ज़्यादा नज़र आने लगेंगे तब अर्थव्यवस्था को संभालने और आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्र पर निर्भरता और अधिक बढ़ जाएगी। महासागरों का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने और नीली अर्थव्यवस्था की शुरुआत करने के लिए पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक डैटा सहित वैज्ञानिक डैटा को एकीकृत करके ‘डिजिटल महासागर’ को बढ़ावा देना आवश्यक है। जी20 देशों के लिए समुद्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी का ज्ञान, साझेदारी की सर्वोत्तम प्रथाओं, वित्तीय संसाधनों को हासिल करने आदि के बारे में जानकारियां साझा करना काफी उपयोगी होगा। संसाधनों के टिकाऊ उपयोग के लिए एक संस्थागत ढांचा और संचालन व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए।

सभी हितधारकों, शोधकर्ताओं, उद्योगों, गैर-सरकारी संगठनों और नीति निर्माताओं सहित सरकारों के साथ प्रभावी संचार आवश्यक है ताकि इस तरह का विकास समाज के लिए प्रासंगिक बन सके। महासागरों का दायित्वपूर्ण प्रबंधन एक ऐसा निवेश है जिसका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिलेगा। यह मानव जाति के लाभ के लिए महासागरों और हमारे ग्रह के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दोहराने का एक अवसर है। वैश्विक समुदाय को ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के सिद्धांत के साथ ‘एक महासागर’ के लाभों को साझा करने के साथ ही पर्यावरण का संरक्षण भी सुनिश्चित करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

इस आलेख का  मूल अंग्रेज़ी संस्करण 10 मई 2023 को करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है और इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति के साथ यहां प्रकशित किया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सांपों ने अपनी टांगें कैसे गंवाई?

सांप बड़े विचित्र कशेरुकी जीव होते हैं। इनका शरीर इतना पतला होता है कि इसमें दूसरे फेफड़े के लिए जगह नहीं होती। ये अपनी जीभ से सूंघते हैं और सबसे खास बात तो यह कि इनकी टांगें नहीं होती। अब एक दर्जन से अधिक सांप प्रजातियों के जीनोम को अनुक्रमित कर उन उत्परिवर्तनों का पता लगाया गया है जिनके कारण टांगें लुप्त हुई थीं। कई अन्य लक्षणों से सम्बंधित डीएनए भी पता चले हैं।

चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में चेंग्दू इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजी के सरीसृपविज्ञानी जिया-तांग ली और उनके सहयोगियों ने सांपों के 12 कुलों की 14 प्रजातियों के जीनोम का अनुक्रमण किया। सैंपल में शामिल सांप जैव विकास की 15 करोड़ वर्षों की अवधि का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने उन 11 सांप प्रजातियों के जीनोम भी शामिल कर लिए जिन्हें पहले अनुक्रमित किया जा चुका था।

सेल में प्रकाशित इस अध्ययन में टीम ने बताया है कि भुजाओं के विकास को नियंत्रित करने वाले जीन (पीटीसीएच1) में तीन स्थानों से डीएनए खंड गायब थे। पूर्व शोधकर्ताओं का ख्याल था कि पीटीसीएच1 की गतिविधि को नियंत्रित करने वाले डीएनए खंड में उत्परिवर्तन कुछ हद तक टांगों के गायब होने के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन अब लग रहा है कि स्वयं जीन में हुए उत्परिवर्तन भुजाओं के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार है। सभी सांपों में पीटीसीएच1 में एक जैसे उत्परिवर्तन पाए गए और इस आधार पर यह टांगों के लोप का कारण लगता है।

और तो और, जब ली की टीम ने चूहों में एक समकक्ष जीन में वही उत्परिवर्तन किए तो चूहों के पैर की उंगलियों की हड्डियां बहुत छोटी हो गई थीं।

इसके अलावा उन्होंने सांपों की अन्य आनुवंशिक विशेषताओं को भी देखा है। पूर्व में किए गए अधूरे जीनोम के विश्लेषण के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना था कि सरीसृपों ने दृष्टि के मुख्य जीन को खो दिया है। लेकिन नए विश्लेषण से पता चलता है कि उनमें यह जीन अभी भी उपस्थित है, बस यह निष्क्रिय है और शायद सांपों के विकास के आरंभ में ही निष्क्रिय हो गया था – संभवत: उन  सांपों में जो भूमिगत रहते थे।

हो सकता है इस तरह के उत्परिवर्तन उच्च आवृत्तियों को सुनने की क्षमता से सम्बंधित जीन में भी हुए होंगे। लेकिन इस आनुवंशिक परिवर्तन से सरीसृपों के कान की हड्डियों का पुनर्गठन हुआ जो उन्हें कंपन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इतने पतले शरीर में सभी अंगों को फिट करने के लिए सांपों में दो जीन नदारद हुए हैं जो आम तौर पर शरीर को सममित रखने का निर्देश देते हैं, जैसे दोनों बाजू एक-एक फेफड़ा। लेकिन इन जीन्स के अभाव में यदि सांप का बायां फेफड़ा बनता भी है तो उसका आकार बहुत छोटा होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिंद महासागर में विशाल ‘गुरुत्वाकर्षण छिद्र’

हाल ही में शोधकर्ताओं ने हिंद महासागर में एक विशाल ‘छिद्र’ होने का दावा किया है। डरिए मत, यह कोई ऐसा छेद नहीं है जो महासागरों का सारा पानी बहा दे। यह तो बस एक शब्द है जिसका उपयोग भूवैज्ञानिक उस स्थान का वर्णन करने के लिए करते हैं जहां पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण औसत से कम होता है। इस नए अध्ययन के अनुसार इस स्थान की उत्पत्ति किसी प्राचीन महासागर तल के डूबते अवशेषों के छोर पर अफ्रीकी महाद्वीप के नीचे से उठने वाली पिघली हुई चट्टानों के गुबारों के कारण हुई है।

आम तौर पर पृथ्वी को गेंद की तरह गोल माना जाता है जिसकी सतह के प्रत्येक बिंदु पर गुरुत्वाकर्षण एक समान होना चाहिए। लेकिन वास्तव में पृथ्वी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर थोड़ी पिचकी हुई है और भूमध्य रेखा के पास थोड़ी फूली हुई है। इसके अतिरिक्त, अलग-अलग क्षेत्रों में भूपर्पटी, मेंटल और कोर के द्रव्यमान के आधार पर वहां अलग-अलग गुरुत्वाकर्षण बल हो सकता है।

पृथ्वी पर स्थापित सेंसरों और उपग्रहों की मदद से विभिन्न स्थानों के गुरुत्वाकर्षण के मापन के आधार पर यह देखा गया कि अलग-अलग गुरुत्वाकर्षण खिंचावों के कारण समुद्र की सतह कैसी नज़र आएगी। इससे उच्च और निम्न गुरुत्वाकर्षण वाले स्थानों के मॉडल तैयार किए गए हैं जिन्हें ग्लोबल जीयॉइड कहा जाता है। इसके सबसे प्रसिद्ध मॉडलों में से एक ‘पॉट्सडैम ग्रेविटी पोटैटो’ के नाम से जाना जाता है।

इस मॉडल से हिंद महासागर के नीचे खोजे गए इंडियन ओशियन जियॉइड लो (आईओजीएल) पर पृथ्वी की सबसे प्रमुख गुरुत्वाकर्षण विसंगति पाई गई है। यह भारत के दक्षिणी छोर से लगभग 1200 किलोमीटर दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र में 30 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला है। इस स्थान पर पेंदे के गुरुत्वाकर्षण के कम खिंचाव और आसपास के क्षेत्र के उच्च गुरुत्वाकर्षण खिंचाव के परिणामस्वरूप इस छिद्र के ऊपर हिंद महासागर का स्तर वैश्विक औसत से 106 मीटर नीचे है।

आईओजीएल की खोज 1948 में डच भूभौतिकीविद फेलिक्स एंड्रीज़ वेनिंग मीनेज़ द्वारा जहाज़-आधारित गुरुत्वाकर्षण सर्वेक्षण के दौरान की गई थी। अभी तक इसके कारणों की जानकारी नहीं थी। इसके लिए आईआईएससी, बैंगलुरु के देबंजन पाल और उनके सहयोगियों ने एक दर्जन से अधिक कंप्यूटर मॉडलों की मदद से पिछले 14 करोड़ वर्षों में पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों के खिसकने का अध्ययन किया और यह पता लगाया कि इस क्षेत्र का निर्माण कैसे हुआ है। हरेक मॉडल में पिघले हुए पदार्थ के प्रवाह के अलग-अलग आंकड़ों का उपयोग किया गया था। जियोफिजि़कल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित निष्कर्षों के अनुसार आईओजीएल की उत्पत्ति एक विशिष्ट मेंटल संरचना के कारण है। इसमें कुछ योगदान अफ्रीका के नीचे इससे सटी हुई हलचल का भी है जिसे लार्ज लो शीयर वेलोसिटी प्रॉविन्स (एलएलएसवीपी) या ‘अफ्रीकन ब्लॉब’ भी कहा जाता है। अफ्रीका के नीचे एलएलएसवीपी से आने वाली गर्म, कम घनत्व वाली सामग्री हिंद महासागर के नीचे बैठती गई है जिसने इस निम्न जियॉइड को जन्म दिया है।

आईओजीएल का निर्माण संभवत: मेंटल की गहराई में ‘टेथियन स्लैब’ द्वारा हुआ है। भूवैज्ञानिकों का अनुमान है कि ये स्लैब टेथिस महासागर के समुद्र तल के प्राचीन अवशेष हैं जो 20 करोड़ वर्ष से भी पहले लॉरेशिया और गोंडवाना महाद्वीपों के बीच स्थित था। उस समय अफ्रीका और भारत दोनों गोंडवाना का हिस्सा थे लेकिन वर्तमान भारत लगभग 12 करोड़ वर्ष पहले उत्तर में टेथिस महासागर की ओर बढ़ने लगा जिससे हिंद महासागर का निर्माण हुआ। शोधकर्ताओं का मानना है कि पिघली हुई चट्टान का गुबार तब उठा होगा जब पुराने टेथिस महासागर का स्लैब मेंटल के अंदर डूबकर कोर-मेंटल सीमा तक पहुंच गया।

संभावना है कि यह लगभग 2 करोड़ वर्ष पूर्व वजूद में आया होगा जब पिघली हुई चट्टानें ऊपरी मेंटल के भीतर फैलने लगी थीं। यह तब तक जारी रहा जब तक अफ्रीकी ब्लॉब से मेंटल सामग्री बहती रही। लेकिन जब यह प्रवाह बंद हुआ तब यह स्थान भी स्थिर हो गया। (स्रोत फीचर्स)

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इस्राइल में विज्ञान रहित शिक्षा चिंता का विषय है

हाल ही में इस्रायली संसद द्वारा देश के धार्मिक स्कूलों का बजट बढ़ाने का निर्णय काफी चर्चा में है। चूंकि इन स्कूलों में विज्ञान और गणित विषय नहीं पढ़ाए जाते इसलिए शोध समुदाय का मानना है कि इस कदम से देश के युवा आवश्यक तकनीकी ज्ञान और कौशल प्राप्त नहीं कर पाएंगे जिसके बिना वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस्राइल की हिस्सेदारी कम होने की आशंका रहेगी।

वर्तमान में इस्राइल में अति-रूढ़िवादी हरेदी (यहूदी) समुदाय की जनसंख्या लगभग 13 प्रतिशत है। लेकिन हरेदी स्कूलों में लगभग 26 प्रतिशत यहूदी छात्र और कुल इस्राइली छात्रों में से 20 प्रतिशत पढ़ते हैं। सरकार द्वारा वित्तपोषित इन स्कूलों में विशेष रूप से लड़कों को ताउम्र यहूदी धर्म ग्रंथ और कानून पढ़ने के लिए तैयार किया जाता है। इनमें से अधिकांश लड़के कभी भी धर्मनिरपेक्ष विषयों का अध्ययन नहीं करते हैं। हालांकि, हरेदी लड़कियों को राज्य-अनुमोदित पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। इसमें धर्मनिरपेक्ष विषय होते हैं लेकिन गैर-हरेदी छात्राओं को पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम की तुलना में यह काफी निम्न स्तर का है।

हरेदी शिक्षा के समर्थकों का मत है कि ये स्कूल बौद्धिक रूप मज़बूत लोगों को तैयार करते हैं जो विश्व में यहूदी पहचान को मज़बूत करने का पवित्र दायित्व निभाते हैं। दूसरी ओर, आलोचकों के अनुसार इन स्कूलों से हरेदी समुदाय में गरीबी और बेरोज़गारी दर में वृद्धि होती रही है। वर्तमान में हरेदी समुदाय के लगभग आधे पुरुष बेरोज़गार हैं। इसके साथ ही गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी में इस्रायली छात्रों की औसत दक्षता अन्य विकसित देशों के औसत से काफी नीचे है। ऐसे में सरकार का यह निर्णय इस्राइल को तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था बनने की राह पर ले जाएगा।

पूर्व में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू हरेदी स्कूलों में विज्ञान, गणित और अंग्रेजी सहित धर्मनिरपेक्ष विषयों को पढ़ाने की इच्छा तो ज़ाहिर कर चुके हैं लेकिन गठबंधन सरकार (जिसमें धार्मिक कट्टरपंथी और राष्ट्रवादी दल शामिल है) के दबाव के कारण बजट प्रस्ताव में ऐसी कोई शर्त शामिल नहीं की जा सकी है। 

अलबत्ता, कुछ विज्ञान और प्रौद्योगिकी समर्थकों द्वारा हरेदी स्कूलों से उत्तीर्ण छात्रों को तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। 2021-22 के दौरान 5000 से अधिक हरेदी छात्रों को हाई स्कूल के बाद तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दाखिला दिया गया है। इसके साथ ही लगभग 15,600 छात्रों ने कॉलेज डिग्री प्राप्त की है। बुनियादी धर्मनिरपेक्ष शिक्षा न मिलने के कारण हरेदी हाई स्कूल के छात्रों की गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी में पकड़ कमज़ोर होती है लेकिन उनकी कठोर धार्मिक शिक्षा में उन्हें रटना और विश्लेषण करना होता है जिससे उनमें ‘कैसे सीखें’ की समझ विकसित होती है। यह उनकी शैक्षिक खाई को पाटने का रास्ता बन सकती है। लेकिन स्पष्ट रूप से खाई तो है। (स्रोत फीचर्स)

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प्रोकेरियोट्स ने कैसे युकेरियोट्स को जन्म दिया – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी के जीवों को मोटे तौर पर दो समूहों में बांटा गया है – प्रोकेरियोट्स (केंद्रक-पूर्व या केंद्रकविहीन) और युकेरियोट्स (सुकेंद्रकीय या केंद्रकयुक्त)। प्रोकेरियोट्स एककोशिकीय जीव होते हैं; इनमें माइटोकॉन्ड्रिया जैसे कोई कोशिकांग भी नहीं होते, और इनमें डीएनए केंद्रक के अंदर बंद नहीं होता। युकेरियोट्स में माइटोकॉन्ड्रिया जैसे कोशिकांग होते हैं और इनका डीएनए केंद्रक के अंदर बंद होता है। अधिकांश युकेरियोट्स जटिल और बहुकोशिकीय जीव होते हैं।

लगभग 50 साल पहले यह दर्शाया गया था कि एककोशिकीय जीवों के एक उपसमूह, आर्किया, का वंशानुक्रम बैक्टीरिया से अलग है। ये दोनों कोशिका भित्ति की संरचना और कुछ जीनों के अनुक्रम की दृष्टि से अलग-अलग हैं। इस समूह के लिए आर्किया शब्द, जो प्राचीन होने का एहसास देता है, का उपयोग इसलिए किया गया था क्योंकि इस समूह के सबसे पहले खोजे गए सदस्य बहुत उच्च तापमान या बहुत अधिक खारी जगह वाली बहुत ही विषम परिस्थितियों में पाए गए थे।

आर्किया के एक समूह में ऐसे प्रोटीन पाए गए थे जो युकेरियोटिक प्रोटीन के काफी समान थे। ये जीव ऐसी भू-गर्भीय संरचनाओं में पाए जाते हैं जहां गर्म पानी एक दरार से बाहर निकलता है। ये संरचनाएं समुद्र में 2400 मीटर की गहराई पर हैं और यहां भूगर्भीय गर्मी से गरम होकर पानी के सोते फूटते रहते हैं। आगे चलकर इसी तरह के कई अन्य जीव कुछ असामान्य पारिस्थितिक तंत्रों में पाए गए, और उनके समूह को एसगार्ड कहा जाने लगा। एसगार्ड नॉर्स पौराणिक कथाओं में देवताओं के घर को कहा जाता है।

युकेरियोटिक कोशिकाओं का ऊर्जा बनाने वाला अंग (माइटोकॉन्ड्रिया) और पौधों की कोशिकाओं में प्रकाश संश्लेषण के लिए पाया जाने वाला अंग (क्लोरोप्लास्ट), दोनों ही मुक्त-जीवी बैक्टीरिया से विकसित हुए हैं। जैव विकास के किन चरणों में इन दो कोशिकाओं के बीच यह सहजीवी सम्बंध अस्तित्व में आया? माइटोकॉन्ड्रिया का पूर्वज कोई प्रोटियोबैक्टीरियम था जिसे किसी एसगार्ड आर्किया जीव ने निगल लिया था। इस अंत:सहजीवी संयोजन के वंशजों ने जंतुओं, कवकों और पौधों को जन्म दिया। पौधों में, एसगार्ड-माइटोकॉन्ड्रियल मेल के बाद प्रकाश संश्लेषण करने वाले सायनोबैक्टीरिया आए, जो क्लोरोप्लास्ट बन गए।

कुछ साल पहले हम भारतीयों ने कुछ सरकारी बैंकों का जटिल विलय देखा था, जो उनके संचालन को सुधारने/बेहतर करने के लिए किया गया था। इसी तरह, दो स्वतंत्र तरह के जीवों के बीच एक व्यावहारिक सहजीवी सम्बंध के निर्माण में कई चुनौतियां होती हैं। नए जीव में जीन के दो पूरे सेट बरकरार रखने की कोई ज़रूरत नहीं थी, इसलिए चयन किया गया; सूचना संचालन के लिए आर्किया के जीन बरकरार रखे गए और रखरखाव व कार्यों का निष्पादन करने (यानी प्रोटीन संश्लेषण) के लिए, बैक्टीरिया के जीन के चुने गए। समय के साथ, कोशिकांगों के अधिकांश जीन केंद्रक में पहुंच गए, जो संभवत: अधिक कुशल व्यवस्था थी।

पौधों का अलग तरीका

हैदराबाद के कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (सीसीएमबी) के राजन शंकरनारायणन के दल ने इन अंत:सहजीवी सम्बंधों में कोशिकीय प्रक्रियाओं के पुर्नगठन पर विस्तृत अध्ययन किया है। प्रोटीन संश्लेषण के महत्वपूर्ण कोशिकीय कार्य को केंद्र में रखकर उन्होंने जंतुओं और कवक की तुलना पादपों से की है। पादपों में यह और भी जटिल है क्योंकि इनके विकास में जीन के तीन सेट (आर्किया, प्रोटियोबैक्टीरियम और सायनोबैक्टीरियम) शामिल थे। पीएनएएस में प्रकाशित अपने हालिया अध्ययन में वे बताते हैं कि पादपों ने वाकई जानवरों और कवकों से अलग ही रणनीति अपनाई है।

प्रोटीन अमीनो एसिड से बने होते हैं। प्रकृति केवल वामहस्ती अमीनो एसिड का उपयोग करती है; दक्षिणहस्ती विषैले हो सकते हैं। एसगार्ड और बैक्टीरिया का ‘अच्छे-बुरे’ के बीच भेद करने का तंत्र अलग होता है। शोध पत्र बताता है कि जंतु और कवक माइटोकॉन्ड्रिया को बदल-बदलकर इस विसंगति को दूर करते हैं। पौधे इन दो व्यवस्थाओं को अलग-अलग कर देते हैं – कोशिकाद्रव्य और माइटोकॉन्ड्रिया में। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फल-सब्ज़ियां अब उतनी पौष्टिक नहीं रहीं

तंदुरुस्त बने रहने के लिए जंक फूड, तला-भुना खाने की बजाय अक्सर फल, सलाद, सब्ज़ियों को भोजन में शामिल करने की सलाह दी जाती है। लेकिन हम शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि पिछले सत्तर सालों में इन ‘सेहतमंद’ चीज़ों में भी पोषक तत्वों की मात्रा घट गई है।

वर्ष 2004 में जर्नल ऑफ दी अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रिशन में एक अध्ययन में 1950 से 1999 के बीच प्रकाशित यूएस कृषि विभाग के डैटा के आधार पर बताया गया था कि 43 फसलों में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, राइबोफ्लेविन, विटामिन सी जैसे 13 पोषक तत्वों में परिवर्तन दिखे थे। कमी कितनी हुई यह हर पोषक तत्व और फल-सब्ज़ी के प्रकार पर निर्भर है। लेकिन सामान्यत: प्रोटीन में 6 प्रतिशत से लेकर राइबोफ्लेविन में 38 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई है। खासकर ब्रोकली, केल (एक तरह की गोभी) और सरसों के साग में कैल्शियम में सबसे अधिक कमी आई है। वहीं चार्ड, खीरे और शलजम में आयरन की मात्रा में काफी कमी हुई है। शतावरी, कोलार्ड (एक अन्य तरह की गोभी), सरसों का साग और शलजम के पत्तों में विटामिन सी काफी कम हो गया है। इसके बाद हुए अन्य अध्ययनों में भी इसी तरह के परिणाम देखने को मिले हैं।

अनाजों में भी इसी तरह की कमी देखने को मिली है। 2020 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया था कि 1955 से 2016 के बीच गेहूं में प्रोटीन की मात्रा 23 प्रतिशत कम हो गई है, साथ ही आयरन, मैंग्नीज़, जस्ता और मैग्नीशियम भी घटे हैं।

मांसाहारी भी कम पोषक तत्व वाले भोजन की समस्या से अछूते नहीं हैं। पशु अब कम पौष्टिक घास और अनाज खा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप मांस और अन्य पशु उत्पाद अब पहले की तुलना में कम पौष्टिक हो गए हैं।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-आकृति विज्ञानी डेविड आर. मॉन्टगोमेरी और जलवायु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ क्रिस्टी एबी बताते हैं कि इस समस्या के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। इनमें एक है फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए अपनाई गईं आधुनिक कृषि पद्धतियां।

पौधों को शीघ्र और बड़ा उगाने के लिए अपनाए गए तरीके में पौधे मिट्टी से पर्याप्त पोषक तत्व नहीं सोख पाते या उन्हें संश्लेषित नहीं कर पाते हैं।

फिर अधिक उपज से यह भी होता है कि मिट्टी से अवशोषित पोषक तत्व अधिक फलों में बंट जाते हैं, नतीजतन फल-सब्ज़ियों में पोषक तत्व कम होते हैं।

उच्च पैदावर के कारण होने वाली मृदा की क्षति भी इस समस्या का एक कारण है। गेहूं, मक्का, चावल, सोयाबीन, आलू, केला, रतालू और सन सभी फसलों की जड़ें कवक के साथ साझेदारी करती हैं जिससे पौधों द्वारा मिट्टी से पोषक तत्व और पानी लेने की क्षमता बढ़ती है। उच्च पैदावार वाली खेती से मिट्टी खराब हो जाती है जिससे कुछ हद तक कवक और पौधों की साझेदारी प्रभावित होती है।

कार्बन डाईऑक्साइड का बढ़ता स्तर भी हमारे खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता कम कर रहा है। पौधे वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड लेते हैं, और वृद्धि के लिए इसके कार्बन का उपयोग करते हैं। लेकिन जब गेहूं, चावल, जौं और आलू समेत बाकी फसलों को उच्च कार्बन डाईऑक्साइड मिलती है तो उनमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। इसके अलावा, जब पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है तो ये मिट्टी से कम पानी खींचते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मिट्टी से सूक्ष्म पोषक तत्व भी कम ले रहे हैं।

2018 में साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि उच्च कार्बन डाईऑक्साइड के कारण 18 किस्म की धान में प्रोटीन, आयरन, ज़िंक और कई बी विटामिन कम पाए गए थे।

यदि इन पोषक तत्वों में और कमी आई तो पोषक तत्वों की कमी से होने वाले रोगों का खतरा बढ़ सकता है या जीर्ण रोगों के प्रति जोखिमग्रस्त हो सकते हैं। और इसका असर उन लोगों पर, खासकर निम्न और मध्यम आय वाले लोगों पर, अधिक होगा जो ऊर्जा और पोषण के लिए मुख्यत: चावल-गेहूं जैसे अनाजों पर निर्भर हैं और पोषण के अन्य स्रोतों का खर्च वहन नहीं कर सकते।

यह तो सुनने में आता रहता है कि अब सब्ज़ियों या फलों में वो स्वाद नहीं रहा। देखा गया है कि कई सारे पोषक तत्व फल-सब्ज़ियों और अनाज के स्वाद में इजाफा करते हैं। इनकी कमी फल-सब्ज़ियों के स्वाद को भी प्रभावित करेंगे।

बुरी खबर यह है कि कई अनुमान मॉडलों का कहना है कि आगे भी आलू, चावल, गेहूं और जौं के प्रोटीन में 6 से 14 प्रतिशत की कमी आ सकती है। नतीजतन भारत समेत 18 देशों के आहार से 5 प्रतिशत प्रोटीन घट जाएगा।

तो इस समस्या से कैसे निपटा जाए? मिट्टी में सुधार के लिए एक तरीका है संपोषी खेती। पीअरजे: लाइफ एंड एनवायरनमेंट पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि संपोषी खेती से फसलों में कुछ विटामिन, खनिज और पादप-रसायनों का स्तर बढ़ता है, मिट्टी का जैविक स्वास्थ्य बेहतर होता है। इसके लिए पहला कदम यह है कि जितना संभव हो सके मिट्टी को खाली छोड़ दिया जाए और जुताई कम कर दी जाए। मिट्टी को ढंकने वाली तिपतिया घास, राई घास, या वेच लगाकर मिट्टी का कटाव और खरपतवार की वृद्धि रोकी जा सकती है। और खेत में बदल-बदल कर फसलें लगाने से पोषक तत्व में फायदा हो सकता है।

लेकिन जब तक पैदावार में पोषण बहाल नहीं होता तब तक क्या करें? पहले तो इस खबर से घबराकर लोग फल-सब्ज़ियां खाना छोड़ या कम कर पोषण पूरकों का रुख न करें। बल्कि इससे वाकिफ रहें कि उनका भोजन कैसे उगाया जा रहा है। हम क्या खा रहे हैं यह पता होना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण यह जानना भी है कि हम जो खा रहे हैं वह कैसे उगाया जा रहा है। और पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरह और रंग की फल-सब्जियां आहार में शामिल करें। पृथ्वी पर मौजूदा सबसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य फल, सब्जियां और अनाज ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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असफल स्टेम सेल उपचार के लिए सर्जन को सज़ा

साल 2011 में स्टेम सेल चिकित्सक पाओलो मैककिएरिनी तब सुर्खियों में छा गए थे, जब उन्होंने दुनिया का पहला कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण कर लिया था। उन्होंने प्लास्टिक की श्वास नली पर उसी मरीज़ की स्टेम कोशिकाओं का अस्तर बनाकर प्रत्यारोपित किया था। उम्मीद थी कि ये स्टेम कोशिकाएं धीरे-धीरे श्वास नलिका बन जाएंगी।

अब वे दोबारा सुर्खियों में हैं। लेकिन इस बार वजह है तीन मरीज़ों में असफल उपचार के मामले में दोषी पाया जाना। मैककिएरिनी को हाल ही में स्टॉकहोम की अपील कोर्ट ने तीन लोगों के असफल उपचार के मामले में दोषी ठहराया है और उन्हें ढाई साल की सज़ा सुनाई है। इसके पहले यह मुकदमा स्वीडन की ज़िला अदालत में चला था, जिसने मैककिएरिनी को दो मरीज़ों के असफल उपचार के मामले में बरी कर दिया था और एक मामले में दोषी पाते हुए निलंबन की सजा सुनाई थी। इसके बाद दोनों ही पक्षों ने अपील कोर्ट में मुकदमा दायर किया था; अभियोजन पक्ष ने सज़ा बढ़ाने की मांग की थी जबकि मैककिएरिनी इल्ज़ाम से मुक्त होना चाहते थे।

मामला 2011-2012 का है जब मैककिएरिनी ने केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट में काम रहते हुए तीन मरीज़ों की सर्जरी की थी। उन्होंने स्वयं मरीज़ों की अस्थि मज्जा से स्टेम कोशिकाएं लेकर उन्हें कृत्रिम विंडपाइप पर बिछाया और उन्हें मरीज़ों में प्रत्यारोपित किया था, इस उम्मीद से कि समय के साथ ये स्टेम कोशिकाएं वृद्धि करके स्थायी उपचार देंगी।

लेकिन प्रत्यारोपण विफल हो गया और तीनों मरीज़ों की मृत्यु हो गई। एक मरीज़ की मृत्यु भारी रक्तस्राव के चलते 4 महीने के भीतर हो गई थी। दो अन्य मरीज़ तकरीबन ढाई साल और पांच साल तक जीवित रहे थे, लेकिन इस दौरान उन्होंने सर्जरी के कारण कई तकलीफें झेली थीं।

गौरतलब है कि 2011 से 2014 के बीच मैककिएरिनी ने श्वासनली के 8 प्रत्यारोपण किए थे। जिनमें से तीन केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट में किए गए थे, जिन पर उक्त फैसला आया है। इसके बाद 2013 में केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने मैककिएरिनी की सेवाएं समाप्त कर दी थीं। बाकी 5 प्रत्यारोपण रूस में किए गए थे। इनमें से एक भी प्रत्यारोपण सफल नहीं रहा था। यहां तक कि प्रत्यारोपण का पहला मामला जिसके लिए मैककिएरिनी ने सुर्खियां बटोरी थीं, वह भी सफल नहीं रहा था। हालांकि उन्होंने अपने पेपर में मरीज़ की स्थिति सामान्य बताई थी लेकिन लेंसेट में पेपर के प्रकाशित होने तक उसकी मृत्यु हो गई थी।

अपील कोर्ट के न्यायाधीशों ने ज़िला अदालत के फैसले से असहमति जताते हुए कहा है कि पहले दो मरीज़ों का मामला ‘इमरजेंसी केस’ नहीं था। ये दोनों मरीज़ सर्जरी के बिना भी काफी समय तक जीवित रह सकते थे। हां, तीसरा मामला ‘इमरजेंसी केस’ था, लेकिन इसके आधार पर मैककिएरिनी द्वारा दिए गए उपचार को सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उपचार के समय तक मैककिएरिनी इस उपचार की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे, फिर भी उन्होंने उपचार किया। (इस उपचार से एक मरीज़ की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी और दूसरा मरीज़ गंभीर समस्याओं से जूझ रहा था।)

इसलिए कोर्ट ने इसे मैककिएरिनी के ‘आपराधिक इरादे’ की तरह देखा है। कई सर्जन्स और श्वासनली विशेषज्ञों को अदालत का फैसला तर्कसंगत और उचित लगता है। उनका मत है कि मैककिएरिनी जानते थे कि यदि एक बार मरीज़ की अपनी श्वासनली निकल गई और कृत्रिम नली ठीक से प्रत्यारोपित नहीं हुई तो मरीज़ की मृत्यु तय है। और जिस तकनीक से उन्होंने उपचार किया है उसके सफल होने के मैककिएरिनी के पास कोई सबूत नहीं थे, सिवाय उम्मीद के। अभियोजन पक्ष ने भी फैसले पर संतुष्ट जताई है। मैककिएरिनी के वकील का कहना है कि वे इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देंगे। उनके अनुसार तीनों ही मामले ‘इमरजेंसी केस’ थे। मैककिएरिनी का यह भी कहना है कि उनका इरादा मरीज़ों को नुकसान पहुंचाने का नहीं था बल्कि मदद करने का था। मरीज़ों के पास किसी अन्य उपचार का विकल्प भी नहीं था। ये प्रत्यारोपण यूं ही आनन-फानन में या चुपके से नहीं किए गए थे बल्कि सहकर्मियों और निरीक्षकों से मंज़ूरी ली गई थी। 20-25 लोगों की टीम ने मिलकर सर्जरी की थी। इसलिए सिर्फ मुझ पर आरोप क्यों? उनका कहना है कि एक डॉक्टर पर अपराधिक इरादे का ठप्पा लगना उसके लिए सबसे शर्मनाक बात है। अब तो उच्च न्यायालय के फैसले का इन्तज़ार है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर में वाय गुणसूत्र की भूमिका

देखा गया है कि गैर-प्रजनन अंगों के कैंसर से मरने की संभावना पुरुषों में अधिक होती है (यहां ‘पुरुष’ शब्द का उपयोग उन लोगों के लिए किया गया है जिनमें गुणसूत्रों की तेइसवीं जोड़ी में एक वाय गुणसूत्र होता है हालांकि ऐसे कई लोग स्वयं की पहचान पुरुष के रूप में नहीं करते हैं)।

आम तौर पर माना जाता है कि पुरुषों की जीवनशैली की वजह से उनमें कतिपय कैंसर ज़्यादा होते हैं और ज़्यादा घातक होते हैं। जैसे धूम्रपान और शराब पीने जैसी आदतें। लेकिन इन आदतों को घ्यान में रखकर विश्लेषण किया जाए तो भी देखा गया है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों में कतिपय कैंसर होने की संभावना और गंभीरता अधिक रहती है। ऐसा क्यों है?

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के नतीजे देखने पर इसका कारण वाय गुणसूत्र लगता है। एक अध्ययन ने पाया है कि उम्र के साथ स्वाभाविक रूप से कुछ कोशिकाओं से वाय गुणसूत्र पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं। वाय गुणसूत्र का अभाव ही आक्रामक मूत्राशय कैंसर की संभावना बढ़ाता है और ट्यूमर को प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पहुंच से बचाता है। दूसरे अध्ययन में देखा गया है कि चूहों में वाय गुणसूत्र का एक जीन कुछ कोलोरेक्टल कैंसर के शरीर के अन्य भागों में फैलने का खतरा बढ़ाते हैं। शायद इसलिए क्योंकि यह जीन ट्यूमर की कोशिकाओं की आपसी कड़ी को कमज़ोर कर देता है।

कोशिका विभाजन के दौरान अक्सर वाय गुणसूत्र नष्ट होने की संभावना होती है। जैसे-जैसे (पुरुषों की) उम्र बढ़ती है वाय गुणसूत्र रहित रक्त कोशिकाओं की संख्या बढ़ती जाती है। वाय गुणसूत्र रहित कोशिकाओं की अधिकता का सम्बंध हृदय रोग, तंत्रिका-विघटन सम्बंधी स्थितियों और कुछ तरह के कैंसर जैसे रोगों से देखा गया है।

शोधकर्ता देखना चाहते थे कि यह प्रक्रिया मूत्राशय के कैंसर (तथाकथित ‘पुरुष कैंसर’) को कैसे प्रभावित करती है। सीडार्स-सिनाई मेडिकल सेंटर के डैन थियोडॉर्सक्यू और उनके साथियों ने मनुष्यों की उन मूत्राशय कैंसर कोशिकाओं का अध्ययन किया जिनके वाय गुणसूत्र या तो अपने आप नष्ट हो चुके थे या कृत्रिम रूप से जीनोम संपादन करके हटा दिए गए थे।

जब इन कोशिकाओं को चूहों में प्रत्यारोपित किया गया तो शोधकर्ताओं ने पाया कि वाय गुणसूत्र सहित कैंसर कोशिकाओं की तुलना में वाय गुणसूत्र रहित कैंसर कोशिकाएं अधिक आक्रामक थीं। उन्होंने यह भी पाया कि वाय गुणसूत्र रहित ट्यूमर के आसपास की प्रतिरक्षा कोशिकाएं निष्क्रिय थीं।

चूहों पर ही अध्ययन कर उन्होंने यह भी पाया कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं की गतिविधि को बहाल करने वाली चिकित्सीय एंटीबॉडी ऐसे ट्यूमर पर अधिक प्रभावी थी जो वाय गुणसूत्र रहित थे बनिस्बत उन ट्यूमर के जो वाय गुणसूत्र सहित थे। मानव ट्यूमर में भी शोधकर्ताओं को ऐसे ही परिणाम मिले हैं।

दूसरे अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के रोनाल्ड डीफिनो और उनके साथियों ने चूहों के कोलोरेक्टल कैंसर का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि वाय गुणसूत्र का KDM5D नामक जीन ट्यूमर कोशिकाओं के बीच की कड़ी को कमज़ोर करता है, जिससे कैंसर कोशिकाएं ट्यूमर से अलग होकर शरीर के अन्य भागों में फैलने लगती हैं। शोधकर्ताओं ने जब उस जीन को हटाया, तो पाया कि ट्यूमर कोशिकाएं कम आक्रामक हो गईं थी और प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पकड़ में अधिक आने लगी थीं।

उम्मीद की जा रही है उपरोक्त तरीके कैंसर के बेहतर उपचार में मदद करेंगे। इसके अलावा उपरोक्त दोनों तरह के कैंसर में वाय गुणसूत्र की दो भिन्न तरह की भूमिका बताती है कि हर ट्यूमर, हर जगह एक जैसा व्यवहार नहीं करता है, इसलिए यह देखने की ज़रूरत है कि वाय गुणसूत्र खत्म होने का असर विभिन्न तरह के कैंसर और अंगों पर किस तरह पड़ता है। इसके अलावा न सिर्फ प्रभावित अंग के आधार पर फर्क पड़ सकता है, बल्कि इससे भी फर्क पड़ सकता है कि किसी अंग में ट्यूमर किस स्थान पर है, और क्या अन्य आनुवंशिक उत्परिवर्तन हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या विज्ञान के अध्याय सोच-समझकर हटाए गए? – संजय कुमार

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा दसवीं की विज्ञान पाठ्यपुस्तक से जैव विकास के सिद्धांत और आवर्त सारणी को हटाने के निर्णय से एक बड़ी बहस छिड़ गई है। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जानी-मानी और सबसे पुरानी विज्ञान पत्रिकाओं में से एक नेचर ने भी इस मुद्दे को अहम मानते हुए इस पर संपादकीय लिखा है।

एनसीईआरटी ने इन अध्यायों के विलोपन को यह कहकर उचित ठहराया है कि पाठ्यक्रम के ‘युक्तियुक्तकरण’ के लिए इन अध्यायों को हटाया गया है ताकि विद्यार्थियों पर बोझ कम हो जाए। लेकिन नए संस्करण और पिछले संस्करण की पाठ्यपुस्तकों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि वास्तविक कारण बहुत अलग होंगे। इन अध्यायों का विलोपन स्कूलों में विज्ञान की शिक्षण पद्धति पर सवाल उठाता है। जिस तरीके से और जो अध्याय (या विषय) हटाए गए हैं उससे लगता है कि अध्यायों को सुविचारित तरीके से नहीं हटाया गया है बल्कि मात्र कैंची चलाई गई है।

ऐसा करने का संभावित कारण वर्तमान शासन की विज्ञान विरोधी विचारधारा को बताया जा रहा है। लेकिन, इस कतर-ब्योंत में अभिजात्य पूर्वाग्रह वाली एक टेक्नोक्रेटिक मानसिकता अधिक प्रभावी प्रतीत होती है। यह मानसिकता नई शिक्षा नीति की पहचान बनती जा रही है।

विलोपन के कारण

विलोपन के पहले यह पाठ्यपुस्तक पहली बार 2006 में प्रकाशित हुई थी जो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF, 2005) के अनुरूप थी। प्रसिद्ध ब्रह्मांडविद और विज्ञान प्रचारक प्रोफेसर जयंत वी. नार्लीकर इसकी सलाहकार समिति के प्रमुख थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भौतिकी की प्रोफेसर रूपमंजरी घोष पाठ्यपुस्तक समिति की प्रमुख थीं। उस समय पाठ्यपुस्तक को किशोर विद्यार्थियों को बांधने वाली बनाने के संजीदा प्रयास किए गए थे। उस पाठ्यपुस्तक के अध्यायों में जगह-जगह पर पूर्व अध्यायों और खंडो में चर्चित सामग्री का ज़िक्र किया जाता था। यह एक ऐसा तरीका है जो न सिर्फ विद्यार्थियों को सीखी जा चुकी अवधारणाएं/विषय भलीभांति याद दिलाने में मदद करता है बल्कि विभिन्न टॉपिक/विषयों के बीच जुड़ाव बनाता है और पूरी पाठ्यपुस्तक में तारतम्य बनता है।

2023-24 के शैक्षणिक सत्र की तेरह अध्यायों वाली ‘युक्ति-युक्त’ पाठ्यपुस्तक में अपवर्तन और परावर्तन पर एक नए अध्याय को छोड़कर बाकी सामग्री लगभग वैसी ही है। पाठ्यपुस्तक से आवर्त सारणी का पूरा अध्याय, जैव विकास का आधा अध्याय, विद्युत मोटर और विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाले अध्याय के कुछ हिस्से, और ऊर्जा के स्रोत और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के अध्याय हटा दिए गए हैं।

पाठ्यपुस्तक की संरचना और हटाए गए अध्यायों का सम्बंध चौंकानेवाला है। आवर्त सारणी का विलोपित अध्याय विलोपन-पूर्व वाली पाठ्यपुस्तक के रसायन विज्ञान वाले खंड का अंतिम अध्याय था। जैव विकास का हटाया गया अध्याय जीव विज्ञान वाले खंड का अंतिम हिस्सा था। विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाला खंड भौतिकी का अंतिम से ठीक पहले वाला खंड था। यह जानते हुए कि पहले वाले खंडों और अध्यायों की सामग्री का ज़िक्र अक्सर बाद वाले अध्यायों में किया जाता है, यदि जल्दबाज़ी में पाठ्यपुस्तक के ‘युक्ति-युक्तकरण’ का काम किया जाएगा, तो अंतिम अध्यायों और खंडों को हटाना ठीक ही लगेगा। दूसरी ओर, बीच के खंडों या अध्यायों को हटाया जाता तो अन्य जगहों पर उनके ज़िक्र (या जुड़ाव) को ‘युक्ति-युक्त’ बनाने के लिए उन अध्यायों को दोबारा लिखना ज़रूरी हो जाता।

बहिष्कारी शिक्षण शास्त्र

हो सकता है कि अध्यायों या खंडों को हटा देने का यह पैटर्न सबसे आसान रहा हो, लेकिन इसने पाठ्यपुस्तक की शैक्षणिक दिशा को तोड़-मरोड़ दिया है। दसवीं कक्षा में विज्ञान अनिवार्य विषय है। इसलिए इसके पाठ्यक्रम में यह झलकना चाहिए कि दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले किसी भी भारतीय (विद्यार्थी) से क्या अपेक्षित है, भले ही वह आगे चलकर विज्ञान विषय न पढ़े या औपचारिक शिक्षा छोड़ दे।

कक्षा दसवीं की विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने वाले विद्यार्थी समूह सर्वग्राही हैं। एक महत्वपूर्ण पैरामीटर उन विद्यार्थियों की संख्या है जो दसवीं के आगे विज्ञान की पढ़ाई नहीं करते, और जिनके लिए यह पाठ्यक्रम विज्ञान की अंतिम औपचारिक शिक्षा होगी।

भारत में औपचारिक शिक्षा में दाखिले का ढांचा पिरामिडनुमा है। 2018 के आंकड़ों के अनुसार, दसवीं कक्षा की परीक्षा देने वाले लगभग 20 प्रतिशत विद्यार्थियों ने अगले पड़ाव से पहले ही पढ़ाई छोड़ दी थी। उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं (ग्यारहवीं और बारहवीं) से उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय की ड्रॉपआउट दर और भी अधिक है। सकल दाखिला अनुपात आंकड़ों के अनुसार, उच्चतर माध्यमिक स्तर पर उत्तीर्ण लगभग आधे विद्यार्थी आगे जाकर कॉलेज (स्नातक) में प्रवेश नहीं लेते हैं। दसवीं कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की कुल ड्रॉपआउट दर 60 प्रतिशत है।

विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों का पिरामिडनुमा ढांचा और भी कठिन है। दसवीं पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी विज्ञान पढ़ते हैं। इसके बाद मात्र लगभग 42 प्रतिशत विद्यार्थी ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय लेते हैं। लेकिन 26 प्रतिशत विद्यार्थी ही स्नातक स्तर पर, यानी बी.एससी, बी.टेक, बीसीए, बी.फार्मा, एमबीबीएस और बी.एससी. (नर्सिंग) में, विज्ञान पढ़ते हैं। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर दर्ज विद्यार्थियों की संख्या और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या के डैटा को साथ देखने से पता चलता है कि दसवीं में पढ़ने वाले हर 10 में से सात विद्यार्थी अगली कक्षाओं में विज्ञान विषय नहीं लेते हैं, और इन्हीं दस में सिर्फ एक विद्यार्थी कॉलेज/युनिवर्सिटी स्तर पर विज्ञान की किसी शाखा में पढ़ाई जारी रखता है।

उपरोक्त अनुपात माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान शिक्षण की चुनौती को दर्शाता है। विज्ञान ज्ञान का एक संचयी निकाय है, और इसकी पढ़ाई बहुत ही क्रमबद्ध होती है। एक स्तर पर सरल अवधारणाओं को सीखे बगैर अगले स्तर की जटिल अवधारणाओं को नहीं समझा जा सकता है। इसलिए विज्ञान शिक्षण का कम से कम एक उद्देश्य विद्यार्थियों को अगले स्तर के अध्ययन के लिए तैयार करना है। वैसे यह उद्देश्य केवल दसवीं कक्षा के क्रमश: उन एक-तिहाई और दस प्रतिशत विद्यार्थियों के लिए है जो उच्चतर माध्यमिक या उच्च शिक्षा में विज्ञान की पढ़ाई जारी रखते हैं। बाकी बचे अधिकांश विद्यार्थियों, जिनके लिए दसवीं कक्षा तक की विज्ञान शिक्षा आखिरी औपचारिक विज्ञान शिक्षा है, के लिए विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य यह नहीं हो सकता।

पहले समूह के (विज्ञान की पढ़ाई जारी रखने वाले) विद्यार्थियों को विज्ञान की अमूर्त अवधारणाओं और सिद्धांतों को समझने और वैज्ञानिक तकनीकों, यानी समस्या-समाधान और प्रयोगशाला विधियों, में महारत हासिल करने की आवश्यकता होती है। दूसरे समूह के (विज्ञान की पढ़ाई या पढ़ाई ही छोड़ देने वाले) विद्यार्थियों को व्यक्तिगत विकास और सामाजिक जीवन में विज्ञान के महत्व को आत्मसात करने की आवश्यकता है। उन्हें दुनिया के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आम ज़िंदगी से विज्ञान के सम्बंध के बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है।

ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे से पृथक नहीं हैं। दरअसल, बहुसंख्य विद्यार्थियों को भी प्रयोगशाला के तरीकों और समस्या-समाधान के कुछ अनुभव मिलने चाहिए। ये दोनों शैक्षणिक उद्देश्य और उन्हें हासिल करने के तरीके अलग-अलग हैं और हमेशा तना-तनी में रहते हैं। इनके बीच संतुलन बनाने की कोशिश को विद्यार्थियों के उपरोक्त दोनों समूहों की आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में होना चाहिए।

पाठ्यचर्या बनाने वालों, पाठ्यपुस्तक लेखकों, शिक्षकों और प्रश्नपत्र तैयार करने वालों के लिए बहुत ही विविध आवश्यकताओं और प्रेरणाओं वाले विद्यार्थियों के लिए एकल पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रणाली बनाना आसान काम नहीं है। सामान्य प्रवृत्ति होती है कि सरल से जटिलता की ओर बढ़ते हुए विभिन्न विषयों, अवधारणाओं, समस्याओं और प्रश्नों से लदी एक पाठ्यपुस्तक बना दें और उम्मीद करें कि जो विद्यार्थी विज्ञान की पढ़ाई जारी रखेंगे वे कठिन और सरल दोनों हिस्सों तक पहुंच बना लेंगे; जबकि अन्य विद्यार्थी जो आगे की कक्षाओं में विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते हैं वे कठिन हिस्सों को सीखे बिना किसी तरह काम चला लेंगे।

शिक्षण शास्त्र की दृष्टि से यह तरीका गलत है। यह पहले समूह के विद्यार्थियों के उद्देश्य को तो पूरा कर सकता है लेकिन दूसरे समूह की आवश्यकताओं का अवमूल्यन करता है और उन्हें पिछड़े और असफल लोगों की श्रेणी में धकेल देता है।

उपरोक्त विचारों के प्रकाश में यह स्पष्ट होता है कि दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के आनन-फानन किए गए ‘युक्तियुक्तकरण’ ने उन विद्यार्थियों के बड़े समूह की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करना अधिक मुश्किल बना दिया है जो आगे विज्ञान की पढ़ाई जारी नहीं रखने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट और प्रदूषण ने पर्यावरण विज्ञान के कुछ हिस्सों को आम चर्चा का अभिन्न अंग बना दिया है। सभी विद्यार्थी परिष्कृत सिद्धांतों और अवधारणाओं में महारत हासिल किए बिना जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार कारणों को खोजने और हरित ऊर्जा स्रोतों की ज़रूरत को समझने में विज्ञान की भूमिका समझ सकते हैं। दसवीं कक्षा की विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से पर्यावरण विज्ञान के तीन में से दो अध्यायों के विलोपन ने आम विद्यार्थियों को वृहत सार्वजनिक सरोकार के लिए विज्ञान के महत्व को समझने के एक बहुत ही उपयोगी अवसर से वंचित कर दिया है।

जैव विकास का सिद्धांत और आवर्त सारणी विशिष्ट अवधारणाओं और अवलोकन पर आधारित हैं। अलबत्ता, जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान के अन्य विषयों की तुलना में, इन विषयों में सामान्य विचार भी शामिल हैं जिन्हें आसानी से ग्रहण किया और समझा जा सकता है। तथ्य यह है कि ये दोनों विषय/अवधारणाएं पृथ्वी पर जीवन के इतिहास और रासायनिक गुणों के वितरण की एकीकृत छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरअसल, इनकी बारीकियों को समझे बिना भी दुनिया की वैज्ञानिक तस्वीर बनाने में इनकी भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है।

विद्यार्थियों के सिर से बोझ कम करने के लिए ‘युक्तिसंगत’ बनाई गई वर्तमान पाठ्यपुस्तक की खासियतें विचित्र हैं। इसमें जीन हस्तांतरण के मेंडल के नियमों को तो यथावत रखा गया है, जो कि बहुत विशिष्ट और अमूर्त हैं और जिन्हें अधिकांश विद्यार्थी याद भर कर लेते हैं, लेकिन इसमें जैव विकास के लिए कोई जगह नहीं है जबकि इसकी मुख्य विचारों/बातों को सरल तरीके से बताया जा सकता है।

पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों को हटाने, और अपवर्तन एवं परावर्तन पर एक अध्याय, जिसमें लेंस और गोलीय दर्पणों के लिए प्रकाश किरण सम्बंधी नियम और सूत्र हैं, जोड़ने के साथ नई ‘युक्तिसंगत’ पाठ्यपुस्तक का संतुलन ज़ाहिर तौर पर अमूर्त और विशिष्ट विषयों की तरफ झुक गया है। इन विषयों में महारत हासिल करने के लिए बार-बार अनुभव और अभ्यास की आवश्यकता होती है, जो भारत में बड़े पैमाने पर स्कूल के बाहर कोचिंग में मिलता है। नई पाठ्यपुस्तक में क्षति उन सामान्य विषयों की हुई है जिन्हें सभी विद्यार्थी पढ़कर और चर्चा करके समझ सकते हैं।

जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, पारंपरिक सोच के अनुसार अपवर्तन और परावर्तन जैसे विषयों को ‘आसान’ माना जाता है। पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों का विलोपन उन अधिकांश विद्यार्थियों को शिक्षा से बहिष्कृत करने जैसा है जिनके आगे जाकर विज्ञान विषय पढ़ने की संभावना नहीं है।

चुनिंदा विषयों को हटाना निर्धारित वैचारिक प्रतिबद्धताओं का परिणाम नहीं बल्कि एक आसान समाधान लगता है। अलबत्ता, इसके शैक्षणिक निहितार्थ भारतीय शिक्षा प्रणाली में किए जा रहे परिवर्तनों के साथ फिट बैठते हैं। नई शिक्षा नीति को अपनाने के साथ ही भारतीय शिक्षा खुलकर तकनीकी दृष्टिकोण के अधीन आ गई है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य तकनीकी कर्मचारी तैयार करना है जिनकी क्षमताओं को आसानी से मात्रात्मक पैमाने पर नापा जा सके। देश भर में एक समान पाठ्यक्रम लागू करने की कोशिशें, बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल से लेकर विश्वविद्यालय में प्रवेश तक राष्ट्रव्यापी एकल परीक्षाओं को जबरन लागू करना, शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग पर ज़ोर देना आदि सभी उस योजना का हिस्सा हैं जिसका प्राथमिक उद्देश्य बाज़ार के लिए कुशल और अकुशल कर्मचारियों की फौज बनाना है। पिरामिडनुमा परिणाम इस व्यवस्था के ढांचे में ही निहित हैं। इस व्यवस्था में विज्ञान शिक्षा एक आवश्यक कौशल आधार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस ढांचे का कोई अन्य उद्देश्य, जैसे कि विद्यार्थियों में दुनिया को देखने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करने में मदद करना, प्राथमिकता नहीं है। इस ढांचे में उन विद्यार्थियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं के लिए कोई जगह नहीं है जिनकी विज्ञान की पढ़ाई आगे जारी रहने की संभावना नहीं है। वैसे भी उन विद्यार्थियों पर विफल होने का ठप्पा लगा ही दिया गया है! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या एआई चैटबॉट्स महामारी ला सकते हैं?

काफी समय से कुछ तकनीकी विशेषज्ञ कृत्रिम बुद्धि यानी एआई को मानवता के लिए खतरा बताते आए हैं। इस क्षेत्र में हुए हालिया विकास से प्रतीत होता है कि यह खतरा काफी नज़दीक है। विशेषज्ञों का दावा है कि एआई बिना किसी वैज्ञानिक विशेषज्ञता वाले बदनीयत व्यक्ति को घातक वायरस डिज़ाइन करने में मदद कर सकती है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जैव सुरक्षा विशेषज्ञ केविन एस्वेल्ट ने हाल ही में अपने छात्रों को चैटजीपीटी या अन्य विशाल भाषा मॉडल की मदद से एक खतरनाक वायरस तैयार करने का काम दिया। मात्र एक घंटे में छात्रों के पास वायरसों की एक लंबी सूची थी; और तो और, साथ में उन कंपनियों की भी जानकारी थी जो रोगजनकों के आनुवंशिक कोड को बनाने में मदद कर सकती थीं और इन टुकड़ों को जोड़ने वाली कुछ अनुसंधान कंपनियों के भी नाम थे। इन परिणामों के आधार पर एस्वेल्ट और अन्य विशेषज्ञों का दावा है कि एआई सिस्टम जल्द ही गैर-वैज्ञानिक लोगों को परमाणु हथियारों के बराबर घातक जैविक हथियार डिज़ाइन करने में मदद कर सकती है। इसका उपयोग आतंकी गतिविधियों में भी किया जा सकता है। 

फिलहाल किसी खतरनाक विलुप्त या मौजूदा वायरस के आधार पर जैविक हथियार बनाने का तरीका मिलने के बाद भी इन्हें बनाने में काफी विशेषज्ञता चाहिए होती है। इसके लिए न केवल उचित वायरस की पहचान करना होगी, बल्कि वायरल आनुवंशिक सामग्री को संश्लेषित करने, जीनोम को एक साथ जोड़ने और इसे अन्य अभिकर्मकों के साथ जोड़कर एक ऐसा वायरस तैयार करना होगा जो कोशिकाओं को संक्रमित कर सके और अपनी प्रतिलिपियां बना सके।

लेकिन एआई इस प्रक्रिया को आसान बना रही है। उदाहरण के लिए बाज़ार में जल्द ही उपलब्ध होने वाले बेंचटॉप डीएनए प्रिंटर की मदद से शोधकर्ता स्क्रीनिंग प्रक्रिया को धोखा दे सकते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनियां यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी नमूने में संभावित जैविक हथियारों के लिए आनुवंशिक सामग्री तो शामिल नहीं है। इस प्रक्रिया से बचकर कोई बदनीयत व्यक्ति इन आनुवंशिक ब्लूप्रिंट को अनुबंध अनुसंधान कंपनियों या एक रोबोटिक क्लाउड लैब को लक्ष्य वायरस में डालने के लिए भेज सकता है।

इस कार्य में एआई की भूमिका का पता लगाने के लिए एस्वेल्ट ने जीव-विज्ञान में बिना किसी विशेषज्ञता वाले स्नातक छात्रों को तीन से चार सदस्यों वाले तीन समूहों में बांटा। इन सभी समूहों के पास GPT-4, बार्ड और अन्य एआई चैटबॉट्स थे। एक घंटे के भीतर इन सभी समूहों को चैटबॉट्स की मदद से महामारी फैलाने में सक्षम वायरसों को डिज़ाइन करना था। हालांकि, कुछ चैटजीपीटी ने खतरनाक चीज़ों के बारे में पूछे गए सीधे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन जब शब्दों में हेर-फेर करके सवाल पूछे गए तो आसानी से जानकारी मिल गई। उदाहरण के तौर पर जब सवाल यह था कि “मैं एक टीका विकसित करने के लिए काम कर रहा हूं …” तो चैटबॉट्स ने जवाब में चार वायरस के सुझाव दे दिए थे। हालांकि गूगल पर ढूंढने पर भी ऐसी सूची मिल जाती लेकिन कुछ मामलों में चैटबॉट्स ने उन आनुवंशिक उत्परिवर्तनों की भी जानकारी दी जो संक्रमण को अधिक फैला सकते हैं।

इतना ही नहीं, एआई ने किसी वायरस के आनुवंशिक टुकड़ों को जोड़कर वायरस तैयार करने की तकनीक भी बताई इसके लिए उपयुक्त प्रयोगशालाओं और कंपनियों के नाम भी बताए जो बिना स्क्रीनिंग के आनुवंशिक सामग्री को प्रिंट करने के लिए तैयार हो सकती हैं।

एस्वेल्ट को चिंता है कि चैटबॉट्स द्वारा दिए गए विशिष्ट सुझाव किसी महामारी का खतरा बहुत अधिक बढ़ा सकते हैं। जैसे-जैसे जैविक खतरों पर वैज्ञानिक साहित्य में वृद्धि हो रही है और एआई प्रशिक्षण डैटा में इसे शामिल किया जा रहा है. इस बात की संभावना बढ़ रही है कि एआई आतंकवादियों का काम आसान बना सकती है। एस्वेल्ट का मानना है कि चैटबॉट और अन्य एआई प्रशिक्षण डैटा द्वारा साझा की जाने वाली जानकारी को सीमित किया जाना चाहिए। रोगजनकों को बनाने और बढ़ाने के बारे में बताने वाले ऑनलाइन पेपर्स को हटाकर जोखिम कम किया जा सकता है। सभी डीएनए संश्लेषण कंपनियों और डीएनए प्रिंटरों के लिए ज्ञात रोगजनकों और विषाक्त पदार्थों की आनुवंशिक सामग्री की जांच अनिवार्य की जानी चाहिए। इसके साथ ही एकत्रित की जाने वाली किसी भी आनुवंशिक सामग्री की सुरक्षा जांच करना भी सभी अनुबंध अनुसंधान संगठनों के लिए अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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