मानव भ्रूण के जीन संपादन मामले में चीनी जैव-भौतिकविद ही जियानकुई को वर्ष 2019 में अनैतिक चिकित्सा पद्धति के जुर्म में तीन वर्ष कैद की सज़ा सुनाई गई थी। सज़ा समाप्ति के बाद उन्हें गत माह हांगकांग का वीज़ा दिया गया जिसे केवल 10 दिन बाद रद्द कर दिया गया। जियानकुई को 2-वर्षीय टॉप टैलेंट वीज़ा दिया गया था जिसका उद्देश्य “समृद्ध कार्य अनुभव और अच्छी शैक्षणिक योग्यता वाले” लोगों को आकर्षित करना है। लेकिन हांगकांग के अधिकारियों ने पुनर्विचार करके वीज़ा रद्द कर दिया। अधिकारियों को जियानकुई के आवेदन पत्र में गलत तथ्य देने की आशंका है। अब आवेदन के फॉर्म में संशोधन करके आपराधिक मामले उजागर करने की शर्त जोड़ी जा सकती है।
अप्रैल 2022 में जेल से रिहा होने के बाद, जियानकुई ने बीजिंग में एक प्रयोगशाला स्थापित की थी और दुर्लभ बीमारियों के लिए जीन थेरपी पर शोध अध्ययन करने का विचार किया था। इसके लिए उन्होंने कई लोगों से शोध में वित्तीय सहायता की भी मांग की है। उन्होंने अभी तक यह खुलासा नहीं किया है कि क्या उन्हें कोई समर्थक मिला है। (स्रोत फीचर्स)
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अमेरिका स्थित बंदरों की आयातक और बंदर अनुसंधान आपूर्तिकर्ता संस्था चार्ल्स रिवर लेबोरेटरीज़ ने हाल ही में कंबोडिया से बंदरों के आयात पर रोक लगा दी है। यह निर्णय यूएस डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस द्वारा जारी किए गए समन के बाद लिया गया है जिसमें कंबोडिया के एक तस्कर गिरोह को दोषी ठहराया गया है। एजेंसी का दावा है कि कंबोडिया के जंगलों से बड़ी संख्या में साइनोमोगलस मैकाक (प्रयोग में प्रयुक्त जंतु) को अवैध रूप से पकड़कर निर्यात किया जा रहा था जबकि कहा जा रहा था कि ये बंदी अवस्था में प्रजनन से पैदा हुए हैं। चार्ल्स रिवर संस्था के अनुसार यह समन कंबोडियाई आपूर्तिकर्ता से प्राप्त कई शिपमेंट से सम्बंधित है। गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया भर में जानवरों का सबसे बड़ा आयातक है; ज़्यादातर औषधि और जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों द्वारा अनुसंधान के लिए इनको अमेरिका लाया जाता है। अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के अनुसार, साइनोमोगलस मैकाक, जो एक लुप्तप्राय जीव है, वर्ष 2022 में देश में आयात किए गए लगभग 33,000 प्रायमेट्स का 96 प्रतिशत है। तथ्य यह है कि अमेरिका में लगभग दो-तिहाई साइनोमोगलस जंतु कंबोडिया से ही आयात किए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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कौन सा थलीय जंगली स्तनधारी जंतु पृथ्वी पर सबसे ‘वज़नी’ योगदान देता है? डील-डौल के चलते हाथी का नाम दिमाग में आता है। पृथ्वी पर स्तनधारियों के कुल द्रव्यमान का हालिया वैश्विक अनुमान कहता है कि ये हाथी तो नहीं हैं। अत्यधिक संख्या के बावजूद जंगली चूहे भी इसमें अव्वल नहीं हैं। अनुमान के अनुसार सबसे अधिक योगदान उत्तर और दक्षिण अमेरिका के घास के मैदानों और जंगलों का वासी सफेद पूंछ वाला हिरण देता है। थलीय जंगली स्तनधारियों के कुल बायोमास में इसका योगदान लगभग 10 प्रतिशत है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि पृथ्वी पर वर्तमान में जीवित थलीय जंगली स्तनधारियों का कुल बायोमास 2.2 करोड़ टन है, और समुद्री स्तनधारियों का कुल बायोमास 4 करोड़ टन है।
वैसे, इनका भार अपेक्षाकृत कम ही है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर सिर्फ चींटियों का बायोमास योगदान 8 करोड़ टन है। और मनुष्यों से इन आंकड़ों की तुलना करें तब तो यह और भी कम लगता है। मनुष्यों का योगदान 39 करोड़ टन का है, और पालतू जानवरों और मनुष्य के आसपास रहने वाले जंतु 63 करोड़ टन का अतिरिक्त योगदान करते हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि ये नतीजे एक अलार्म की तरह हैं, प्राकृतिक विश्व सिकुड़ रहा है। हमें जंगली स्तनधारियों के संरक्षण के लिए हर संभव प्रयास करने की ज़रूरत है।
2018 में, वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जीव विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख रॉन मिलो ने पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन के वज़न का अनुमान लगाया था। फिर उन्होंने जंगली स्तनधारियों के वज़न का अनुमान लगाया था जो कि महज़ 5 करोड़ टन निकला। तब से, शोधकर्ता जंगली स्तनधारियों के वज़न के अनुमान को सटीक करने में लगे हैं।
अनुमान को सटीक बनाने के लिए मिलो और उनके दल ने 392 जंगली स्तनधारी प्रजातियों की वैश्विक संख्या, उनके शरीर के वज़न, फैलाव और अन्य मापकों का विस्तृत डैटा निकाला। यह डैटा उनके कुल बायोमास की गणना करने के लिए पर्याप्त था। कम अध्ययन किए गए जंगली स्तनधारी जीवों के कुल बायोमास का अनुमान लगाने के लिए 392 प्रजातियों में से आधी प्रजातियों के ज्ञात डैटा से मशीन लर्निंग सिस्टम को प्रशिक्षित किया ताकि वह सटीक अनुमान लगा सके। इसकी मदद से उन्होंने मॉडल में 4400 अन्य स्तनधारी प्रजातियों के बायोमास की गणना की।
उन्होंने पाया कि भूमि पर अधिकांश बायोमास सूअर, हाथी, कंगारू और हिरण जैसे विशाल जंगली स्तनधारी प्रजातियों का है। थलीय जंगली स्तनधारी प्रजातियों के कुल बायोमास में शीर्ष 10 प्रजातियों का योगदान लगभग 9 करोड़ टन (कुल बायोमास का 40 प्रतिशत) है। मानव-सम्बंधित चूहे-छछूंदर हटा कर बाकी सभी कृन्तक इस बायोमास में 16 प्रतिशत का योगदान देते हैं, और मांसाहारी जंतु 3 प्रतिशत का।
समुद्री स्तनधारियों में, लगभग आधा योगदान बेलीन व्हेल का है। संख्या के हिसाब से जंगली स्तनधारियों में चमगादड़ बाज़ी मार लेते हैं: पृथ्वी पर दो-तिहाई जंगली स्तनधारी यही हैं, लेकिन कुल बायोमास में ये सिर्फ 7 प्रतिशत का योगदान देते हैं।
पालतू स्तनधारियों में गायों का वज़न 42 करोड़ टन है और कुत्तों का वज़न समस्त थलीय जंगली स्तनधारियों के वज़न के बराबर है। घरेलू बिल्लियों का बायोमास अफ्रीकी हाथियों से दुगुना और मूस के वज़न से चार गुना अधिक है।
इन आंकड़ों से बनती तस्वीर देखें तो पूरी पृथ्वी पर मनुष्य और उनके पालतू जानवर छाए दिखते हैं। छोटे हों या बड़े हर तरह के जंगली जानवर सीमित रह गए हैं। कहना न होगा कि इसमें मानव और उसकी गतिविधियों का योगदान है। इसलिए हमें ही इनके संरक्षण के बारे में संजीदा प्रयास करने होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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हाल के दशक में कीटनाशकों के उपयोग, कीटों के आवास स्थलों के विनाश जैसी मानव गतिविधियों के कारण कीटों की संख्या में काफी गिरावट हुई है। लेकिन एक अध्ययन में पाया गया है कि कुछ मधुमक्खियों और तितलियों की संख्या में कमी उन जगहों पर भी हुई है, जो सीधे तौर पर इन्सानों से अछूती हैं।
देखा गया है कि पिछले 15 सालों में, दक्षिण-पूर्वी यूएस के एक जंगल में मधुमक्खियों की आबादी में 62.5 प्रतिशत की और तितलियों की आबादी में 57.6 प्रतिशत की कमी आई है। इसके अलावा, मधुमक्खियों की प्रजातियों की संख्या (विविधता) में भी 39 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।
करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ओकोनी राष्ट्रीय वन के तीन जंगलों में वर्ष 2007 से 2022 के बीच पांच बार कीटों का सर्वेक्षण किया था। इन जंगलों में मनुष्यों की आवाजाही अपेक्षाकृत कम थी और यहां चीनी प्रिवेट जैसे घुसपैठिए पौधे भी नहीं थे।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन यहां मधुमक्खियों और तितलियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन और गर्माती धरती के पीछे भी मनुष्य का ही हाथ है। इसके अलावा, एक संदेह घुसपैठिए कीटों पर भी है, खासकर स्माल कारपेंटर मधुमक्खियों और पत्तियां कुतरने वाली मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट के लिए ये कीट ज़िम्मेदार हो सकते हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार, यही प्रजातियां सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। इसका संभावित कारण हो सकता है कि या तो लकड़ी पर छत्ता बनाने वाली और पत्ती कुतरने वाली घुसपैठी मधुमक्खियों ने इन मधुमक्खियों को उनकी जगह से खदेड़ दिया होगा, या उनके छत्ते उन्हें बढ़ते तापमान से बचा नहीं पाए होंगे। बहरहाल, कारण जो भी हो, स्थिति चिंताजनक है। (स्रोत फीचर्स)
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पृथ्वी पर अतीत में अंतरिक्ष पिंडों की टक्कर और तबाही से वैज्ञानिकों को हमेशा ये चिंता रही थी कि कहीं कोई क्षुदग्रह फिर आकर न टकरा जाए। भविष्य में ऐसी कोई घटना न हो इसलिए उनकी योजना है कि पृथ्वी की ओर आते हुए पिंड को टक्कर मारकर उसकी दिशा बदल दी जाए। बीते सितंबर ऐसे ही एक परीक्षण में नासा के डबल एस्टेरॉयड रीडायरेक्शन टेस्ट (DART) अंतरिक्ष यान द्वारा एक क्षुदग्रह को टक्कर मारकर उसका मार्ग बदल दिया गया था। अब, वैज्ञानिकों ने इस टक्कर और उसके प्रभाव का विश्लेषण करके देखा है कि वास्तव में यह टक्कर कितनी सफल रही।
परीक्षण के लिए वैज्ञानिकों ने डायमॉर्फोस नामक जिस क्षुद्रग्रह को चुना था वह स्वयं डायडिमॉस नामक एक बड़े क्षुदग्रह की परिक्रमा करता है। गौरतलब है कि यह क्षुदग्रह पृथ्वी के लिए न तो खतरा था, और न होगा।
पाया गया कि इस टक्कर से डायमॉर्फोस का परिक्रमा पथ छोटा हो गया है, और यह पहले की तुलना में 33 मिनट कम समय में परिक्रमा पूरी कर लेता है। इससे लगता है कि भविष्य में कोई क्षुद्रग्रह पृथ्वी की ओर आते हुए दिखा, तो वैज्ञानिक इसका रास्ता बदलने में सक्षम होंगे।
वैसे तो DART की सफलता की खबर पहले भी आ चुकी है; लेकिन अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित पांच अध्ययन इस घटना के आखिरी पलों का विस्तार से वर्णन करते हैं और बताते हैं कि इसने क्षुद्रग्रह को कैसे प्रभावित किया। इससे यह समझने में मदद मिलती है कि यह परीक्षण इतना सफल क्यों रहा।
इनमें से एक अध्ययन में टक्कर से ठीक पहले अंतरिक्ष यान के रास्ते का डैटा और क्षुद्रग्रह की सतह की तस्वीरों का विश्लेषण किया गया है। टक्कर के पहले DART द्वारा ली गई छवियों में डायमॉर्फोस खुरदुरी चट्टानी खोल में लिपटे अंडे की तरह दिख रहा था। और भुरभुरा सा लग रहा था – टक्कर पर टूट जाए ऐसा।
6 किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक की रफ्तार से डायमॉर्फोस की ओर बढ़ते हुए DART यान का सौर पैनल वाला हिस्सा सबसे पहले टकराया – क्षुद्र ग्रह की एक 6.5-मीटर-चौड़ी चट्टान से। इसके चंद माइक्रोसेकंड बाद DART यान का मुख्य भाग टकराया। इस टक्कर में DART भी टुकड़े-टुकड़े हो गया।
इस टक्कर से 4.3 अरब किलोग्राम वज़नी डायमॉर्फोस से कम से कम दस लाख किलोग्राम हिस्सा टूटकर अलग हो गया था। इससे निकला मलबा क्षुदग्रह की पूंछ बनाता हुआ हज़ारों किलोमीटर दूर तक फैला था। कई दूरबीनों द्वारा मलबे की इस पूंछ गति और विकास पर नज़र रखी गई; हबल टेलीस्कॉप से तो इसकी एक अन्य पूंछ भी दिखी जो 18 दिन बाद गायब हुई।
इसके सफल होने के पीछे एक कारक यह है कि DART यान क्षुद्रग्रह के केंद्र से लगभग 25 मीटर दूरी पर टकराया था, जिससे अधिकतम प्रभाव पड़ा। दूसरा यह है कि टक्कर से निकला अधिकतर मलबा क्षुद्रग्रह से बाहर की ओर उड़ा। जिसकी प्रतिक्रिया के चलते क्षुद्रग्रह अपने परिक्रमा पथ से काफी भटक गया। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस मलबे के धक्के से डायमॉर्फोस को DART यान की टक्कर से मिले संवेग की तुलना में 4 गुना अधिक संवेग मिला।
उम्मीद है कि भविष्य में यदि खतरा मंडराता है तो इस तकनीक को उन पर लागू किया जा सकेगा।
इसके अलावा, टक्कर से पहले, उसके दौरान और बाद में किए गए दूरबीन निरीक्षण में देखा गया कि अंतरिक्ष यान के टकराने के तुरंत बाद पिंड काफी लाल हो गया था। इसके बाद इसका रंग नीला हो गया था। यह संभवत: इसलिए हुआ होगा कि डायमॉर्फोस का काफी सारा पदार्थ बाहर फेंका गया होगा जिसके चलते उसकी अंदरूनी सतह उजागर हो गई होगी।
बहरहाल, डायमॉर्फोस और डायडिमॉस दोनों की भौतिकी, रसायन विज्ञान और भूविज्ञान के बारे में अधिक जानने के लिए शोधकर्ता DART यान के डैटा के विश्लेषण का काम जारी रखे हैं। इसमें कई शौकिया खगोलशास्त्रियों की मदद ली जा रही है। 2026 में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का हेरा यान डायमॉर्फोस पर पहुंचेगा। तब और भी बारीक प्रभाव देखने को मिलेंगे। इस बीच कई अन्य अध्ययनों के नतीजों का इन्तज़ार है। (स्रोत फीचर्स)
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हर किसी की तमन्ना होती है कि लंबा जीए लेकिन शरीर जवां और तंदुरुस्त बना रहे। अब यह तमन्ना सेनोलिटिक्स औषधियों से पूरी होने का दावा किया जा रहा है।
जीर्णता (या सेनेसेंस) उम्र बढ़ने की प्रक्रिया है। जीर्ण पड़ चुकी कोशिकाएं हमारे शरीर में घूमती रहती हैं और ऐसे पदार्थ स्रावित करती हैं जो स्वस्थ कोशिकाओं को भी जीर्ण कर सकते हैं; कुछ उसी तरह जैसे एक सड़ा हुआ फल बाकी फलों को भी सड़ाना शुरू कर देता है। इस प्रक्रिया में अवरोध पैदा करने वाले पदार्थों को कहते हैं सेनोलिटिक्स – वृद्धावस्था-रोधी।
सेनोलिटिक्स में (कृत्रिम या प्राकृतिक) सेनोलिटिक एंजेट की मदद से जीर्ण कोशिकाओं को हटाया जा सकता है, और इस तरह स्वस्थ कोशिकाओं पर जीर्ण कोशिकाओं के प्रभावों को रोककर वृद्धावस्था को टाला जा सकता है।
वर्तमान में शोधकर्ताओं ने सेनोलिटिक्स की मदद से वृद्ध हो रहे अलग-अलग अंगों की बहाली या तंदुरुस्ती लौटाने में सफलता पा ली है। जैसे मेयो क्लिनिक में एक ही परिस्थिति में एक ही उम्र के दो कृन्तकों पर अध्ययन किया गया था। देखा गया कि जो कृन्तक स्वाभाविक रूप से वृद्ध हो रहा था वह दुबला और बूढ़ा दिख रहा था, जबकि सेनोलिटिक उपचार वाला दूसरा कृन्तक स्फूर्तिभरा था।
अन्य शोधों में पाया गया है कि सेनोलिटिक्स के साथ उपचार से रक्त में इतना बदलाव हो जाता है कि ऐसे चूहों का रक्त प्राप्त करने वाले करीब दो साल के चूहे आठ महीने के चूहे लगने लगते हैं। इसके अलावा, दृष्टि बहाल करने से लेकर मेरुदंड में डिस्क ठीक से बिठाने तक के प्रयास सेनोलिटिक्स की मदद से किए जा रहे हैं।
यहां तक कि हृदय के मामले में सेनोलिटिक्स कारगर लगते हैं। पूरे शरीर में कुशलतापूर्वक रक्त पहुंचाने के लिए हृदय की रक्त पम्प करने वाले ऊतकों को सटीक लयबद्धता से काम करना पड़ता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है और इनकी कोशिकाएं बूढ़ी होती जाती हैं, यह लय गड़बड़ा सकती है। नतीजतन शरीर बीमारियों का घर बन सकता है। एक अध्ययन में देखा गया है कि अन्य उपयोगों के लिए स्वीकृत दो औषधियां हृदय को फिर तंदुरुस्त बना देती हैं। दोनों औषधियों का मिश्रण पुरानी पड़ चुकी कोशिकाओं को हटा देता है, जिससे उनकी पड़ोसी कोशिकाएं सामान्य तरह से कार्य करने लगती हैं।
लेकिन समग्र बुढ़ापे को पलटना यानी उम्र बढ़ाने का मामला थोड़ा पेचीदा है। बुढ़ापे का अंतिम पड़ाव है मृत्यु। किसी भी उपचार का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं को ऐसे पड़ाव या बिंदु की ज़रूरत होती है जिन पर वे उपचार की सफलता या विफलता तय कर सकें। लेकिन शोधकर्ता किसी व्यक्ति की मृत्यु का समय नहीं माप सकते, क्योंकि यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि उपचार से कोई कितना जीया और बिना उपचार के कितना जीता। बड़ी आबादी पर अध्ययन करके ही जाना जा सकेगा कि क्या अपनाए गए उपचार ने वास्तव में मृत्यु को टाला। कुछ संभव सेनोलिटिक उपचारों को 2026 के आसपास एफडीए से मंज़ूरी मिलने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)
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कहावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।
यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।
सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।
शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।
लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।
शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।
चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)
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कई लोग सपने में देखे गए दृश्यों को वास्तव में अंजाम देते हैं। यह एक समस्या है जो अक्सर नींद के रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) चरण में होती है। इसे आरईएम निद्रा व्यवहार विकार (आरबीडी) कहते हैं और यह लगभग 0.5 से लेकर 1.25 प्रतिशत लोगों, खासकर वयस्क पुरुषों, को प्रभावित करता है। विश्लेषण से पता चला है कि आरबीडी तंत्रिका-क्षति रोगों का पूर्वाभास हो सकता है। खास तौर से सिन्यूक्लीनोपैथी का अंदेशा होता है जिसमें मस्तिष्क में अल्फा-सिन्यूक्लीन नामक प्रोटीन के लोंदे जमा हो जाते हैं।
वैसे सोते हुए किए जाने वाले सारे व्यवहार आरबीडी नहीं होते। जैसे नींद में चलना या बड़बड़ाना गैर-आरईएम निद्रा के दौरान होते हैं और इन्हें आरबीडी की क्षेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि सारे आरबीडी का सम्बंध सिन्यूक्लीनोपैथी से नहीं होता। और तो और, यह स्थिति अन्य कारणों से भी बन सकती है।
अलबत्ता, जब आरबीडी के साथ ऐसी कोई अन्य स्थिति न हो तो भविष्य में बीमारी अंदेशा होता है। कुछ अध्ययनों का निष्कर्ष है कि सपनों में हरकतें भविष्य में तंत्रिका-क्षति रोग पैदा होने की 80 प्रतिशत तक भविष्यवाणी कर सकती हैं। हो सकता है कि यह ऐसी बीमारी का प्रथम लक्षण हो।
आरबीडी से जुड़ा सबसे प्रमुख रोग पार्किंसन रोग है। इसमें व्यक्ति क्रमश: अपने मांसपेशीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण गंवाता जाता है। एक अन्य रोग है लेवी बॉडी स्मृतिभ्रंश। इसमें मस्तिष्क में लेवी बॉडीज़ जमा होने लगती हैं और व्यक्ति का अपनी हरकतों और संज्ञान पर नियंत्रण नहीं रहता। एक तीसरे प्रकार की सिन्यूक्लीनोपैथी व्यक्ति की ऐच्छिक हरकतों के अलावा अनैच्छिक क्रियाओं (जैसे पाचन) में भी व्यवधान पहुंचाती है। शोधकर्ताओं का मत है कि जीर्ण कब्ज़ और गंध की संवेदना के ह्रास की अपेक्षा आरबीडी सिन्यूक्लीनोपैथी का बेहतर पूर्वानुमान देता है।
वैसे तो सपनों को चेष्टाओं में बदलना और पार्किंसन के आपसी सम्बंध के बारे में काफी समय से लिखा जाता रहा है। स्वयं जेम्स पार्किंसन ने 1817 में इसके बारे में लिखा था। सपनों और पार्किंसन रोग के बारे में कई रिपोर्ट्स के बावजूद इनकी कड़ियों को जोड़ा नहीं जा सका था। लेकिन हाल ही में खुद एक मरीज़, जिसे आरबीडी की शिकायत थी, ने अपने डॉक्टर से आग्रह किया कि उसका ब्रेन स्कैन करके पार्किंसन के बारे में शंका की जांच करें। उस मरीज़ की आशंका सही निकली – उसे पार्किंसन रोग था।
हाल के वर्षों में आरबीडी और सिन्यूक्लीनोपैथी के बीच कार्यकारी सम्बंध की समझ बढ़ी है। आम तौर पर आरईएम निद्रा के दौरान कुछ क्रियाविधि होती है जो ऐसी चेष्टाओं पर रोक लगाकर रखती है। लेकिन आरबीडी पीड़ित व्यक्ति में यह क्रियाविधि काम नहीं करती और वे शारीरिक चेष्टाएं करते रहते हैं। 1950 व 1960 के दशक में किए गए प्रयोगों से पता चला था कि आरईएम निद्रा के दौरान ऐसी हरकतें कितनी ऊटपटांग हो सकती हैं। जैसे कुछ बिल्लियों पर प्रयोग के दौरान उनके ब्रेन स्टेम के कुछ हिस्सों को काटकर निकाल दिया गया। ऐसा करने पर आरईएम निद्रा के दौरान मांसपेशियों की हरकतों पर जो रुकावट लगी थी वह समाप्त हो गई और आरईएम निद्रा के दौरान वे बिल्लियां ऐसे हाथ-पैर मारती रहीं जैसे सपने देखकर उसके अनुसार हरकतें कर रही हों।
फिर 1980 के दशक में एक मनोचिकित्सक कार्लोस शेंक और उनके साथियों ने आरबीडी को लेकर पहले केस अध्ययन प्रकाशित किए। ये मरीज़ वैसे तो शांत स्वभाव के थे किंतु उनका कहना था कि वे हिंसक सपने देखते हैं और आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। शेंक की टीम ने 29 आरबीडी मरीज़ों का अध्ययन किया। सभी 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। शेंक की टीम ने रिपोर्ट किया है कि इनमें से 11 में आरबीडी की शुरुआत के औसतन 13 वर्षों बाद तंत्रिका-क्षति रोग उभरे। आगे चलकर, कुल 21 मरीज़ों में ऐसे रोग प्रकट हुए।
इन परिणामों की पुष्टि एक ज़्यादा व्यापक अध्ययन से भी हुई है। दुनिया भर के 21 केंद्रों के 1280 आरबीडी मरीज़ों में से 74 प्रतिशत में 12 वर्षों के अंदर तंत्रिका-क्षति रोग का निदान किया गया। धीरे-धीरे आरबीडी और तंत्रिका-क्षति रोगों के बीच की कड़ियों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि इन कड़ियों का कार्यिकीय आधार क्या है।
कई वैज्ञानिकों का मत है कि आरबीडी इस वजह से होता है क्योंकि सिन्यूक्लीन ब्रेन स्टेम के उस हिस्से में जमा होने लगता है जो हमें आरईएम निद्रा के दौरान निष्क्रिय करके रखता है। अपने सामान्य रूप में यह प्रोटीन तंत्रिकाओं के कामकाज में भूमिका निभाता है। लेकिन जब यह असामान्य ढंग से तह हो जाता है तो यह विषैले लोंदे बना सकता है। ऑटोप्सी परीक्षणों से पता चला है कि आरबीडी से पीड़ित 90 प्रतिशत मरीज़ों की मृत्यु मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन जमाव के लक्षणों के साथ होती है। अभी तक ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जिससे जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन के थक्कों की जांच की जा सके। अलबत्ता, वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि शरीर के अन्य हिस्सों (खासकर सेरेब्रो-स्पायनल द्रव) में गलत तरह से तह हुए सिन्यूक्लीन का पता लगाया जा सके। ऐसे एक अध्ययन में आरबीडी पीड़ित 90 प्रतिशत व्यक्तियों में गलत ढंग से तह हुआ सिन्यूक्लीन मिला है।
इतना तो सभी मान रहे हैं कि आरबीडी पार्किंसन तथा अन्य तंत्रिका-क्षति रोगों का प्रारंभिक लक्षण है। इस समझ के साथ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा हानिकारक सिन्यूक्लीन शरीर में किस तरह फैलता है। इस बात के काफी प्रमाण मिले हैं कि यह विकार आंतों में शुरू होता है और वहां से मस्तिष्क तक पहुंचता है। उदाहरण के लिए चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि आंतों से मस्तिष्क तक यह वैगस तंत्रिका के ज़रिए पहुंचता है। मनुष्यों में भी देखा गया है कि वैगस तंत्रिका को काट दें (जो जीर्ण आमाशय अल्सर के इलाज के लिए किया जाता है), तो पार्किंसन होने का जोखिम कम हो जाता है।
कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि पार्किंसन दो प्रकार का होता है। कुछ में यह आंतों में पहले शुरू होता है और कुछ में पहले मस्तिष्क में। जैसे डेनमार्क के आर्हुस विश्वविद्यालय के पर बोर्गहैमर का कहना है कि आरबीडी मस्तिष्क-प्रथम पार्किंसन का एक शुरुआती लक्षण हो सकता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि आरबीडी के हर मरीज़ को अंतत: पार्किंसन रोग होगा ही। मात्र एक-तिहाई मरीज़ों में ऐसा होता है।
इस संदर्भ में एक और अवलोकन महत्वपूर्ण है। सॉरबोन विश्वविद्यालय की इसाबेल आर्नल्फ ने पार्किंसन के मरीज़ों के स्वप्न के समय के व्यवहार में कुछ अजीब बात देखी। ये मरीज़ जागृत अवस्था में तो शारीरिक क्रियाओं में दिक्कत महसूस करते थे, लेकिन सोते समय इन्हें हिलने-डुलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। इस तरह के व्यवहार के रिकॉर्डिग की मदद से आर्नल्फ की टीम को आरबीडी मरीज़ों के सपनों की कुछ विशेषताएं देखने को मिलीं जिनके आधार पर शायद यह समझने में मदद मिलेगी कि हमें सपने कैसे और क्यों आते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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माना जाता है कि बैक्टीरिया में गुणसूत्रों को पैकेज नहीं किया जाता और वे कोशिका द्रव्य में खुले पड़े रहते हैं। लेकिन बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक अध्ययन में 2 बैक्टीरिया प्रजातियों में गुणसूत्रों के कुछ हिस्सों के आसपास हिस्टोन नामक प्रोटीन लिपटे होने की रिपोर्ट दी गई है। अन्य जीवों में भी हिस्टोन गुणसूत्रों के पैकेजिंग में मदद करते हैं लेकिन व्यवस्था बिलकुल अलग होती है। जैसे केंद्रकीय (यूकेरियोटिक) जीवों में हिस्टोन डीएनए के आसपास नहीं लिपटा होता बल्कि डीएनए हिस्टोन के आसपास लिपटा होता है।
दरअसल, हिस्टोन गुणसूत्रों को सहारा देता है और उन पर उपस्थित जीन्स की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है। मान्यता थी कि बैक्टीरिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती। लेकिन बैक्टीरिया जीनोम के अधिकाधिक खुलासे के साथ हिस्टोन से सम्बंधित जीन्स मिलने लगे थे और लगने लगा था कि बैक्टीरिया में हिस्टोन जैसा कुछ होता होगा।
मज़ेदार बात यह है कि विविध केंद्रकीय कोशिकाओं में हिस्टोन की संरचना और कार्य में काफी एकरूपता होती है, गोया हिस्टोन पर जैव विकास का कोई असर ही नहीं हुआ है। इस एकरूपता को देखते हुए यह विचार स्वाभाविक है कि शायद इसका कोई विकल्प ही नहीं है।
इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के टोबियास वारनेके और एंतोन थोचर ने दो बैक्टीरिया प्रजातियों का अध्ययन करने की ठानी। ये दो प्रजातियां थी – एक रोगजनक लेप्टोसोरिया इंटरोगैन्स और दूसरी डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस। डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस एक ऐसा बैक्टीरिया है जो दूसरे बैक्टीरिया में घुसकर उसे अंदर ही अंदर पचा डालता है।
शोधकर्ताओं ने बैक्टीरियोवोरस से हिस्टोन प्रोटीन को पृथक करके उसकी संरचना का विश्लेषण किया – स्वतंत्र स्थिति में भी और डीएनए के साथ अंतर्क्रिया करते हुए भी। देखा गया कि बैक्टीरिया का हिस्टोन न तो आर्किया के समान व्यवहार करता है और न ही केंद्रकयुक्त कोशिकाओं के समान। बैक्टीरिया का हिस्टोन दो-दो की जोड़ी में डीएनए के आसपास लिपटा होता है जबकि केंद्रक युक्त कोशिकाओं में हिस्टोन साथ आकर एक स्तंभ सा बनाते हैं और डीएनए इसके इर्द-गिर्द लिपटा होता है।
वैसे तो अभी इस अवलोकन को वास्तविक कोशिका में देखा जाना बाकी है लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस तरह आसपास लिपटा हुआ हिस्टोन बैक्टीरिया द्वारा यहां-वहां बिखरे डीएनए के खंडों को अर्जित करने से बचाव करता होगा।
बेल्जियम स्थित कैथोलिक विश्वविद्यालय के जेराल्डीन लैलू ने देखा है कि जब यह बैक्टीरिया कोशिका के अंदर न होकर स्वतंत्र विचरण कर रहा होता है तब इसका डीएनए काफी सघनता से पैक किया हुआ होता है। उक्त अवलोकन शायद इस घनेपन की व्याख्या कर सकता है।
उपरोक्त अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने हज़ारों बैक्टीरिया के जीनोम्स के सर्वेक्षण में पाया कि आम मान्यता के विपरीत लगभग 2 प्रतिशत बैक्टीरिया-जीनोम्स में हिस्टोन-नुमा प्रोटीन के जीन्स होते हैं यानी काफी सारे बैक्टीरिया में हिस्टोन की उपस्थिति संभव है। (स्रोत फीचर्स)
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इतना तो साफ है कि आने वाले वर्षों में चांद की यात्राओं में खूब इजाफा होने वाला है। कई सरकारी-निजी अंतरिक्ष एजेंसियां चांद पर स्थायी मुकाम बनाने की कोशिश में हैं। इन कोशिशों की कई चुनौतियां हैं। उनमें से एक है कि चांद पर समय क्या है। अर्थात किसी समय चांद पर कितने बज रहे हैं।
बात का थोड़ा खुलासा किया जाए। हम सब जानते हैं कि पृथ्वी पर अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समय होता है। इन अंतरों की भलीभांति गणना करके हमने अलग-अलग जगहों के समयों का मिलान करना सीख लिया है। लेकिन चांद के लिए ऐसा नहीं हुआ है। आखिर चांद पर भी तो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समय होते होंगे।
फिलहाल चांद का अपना कोई समय का पैमाना नहीं हैं। सारे अंतरिक्ष अभियान अपना पैमाना इस्तेमाल करते हैं। हां, इतना ज़रूर है कि इसे को-ऑर्डिनेटेड युनिवर्सल टाइम (utc) से जोड़ दिया जाता है। utc के आधार पर ही पृथ्वी की घड़ियां तालमेल रखती हैं। लेकिन यह तरीका थोड़ा बेढंगा है और सारे अंतरिक्ष यान एक-दूसरे के साथ समय का तालमेल बनाकर नहीं रखते। चंद्रयानों की संख्या सीमित हो, तो यह ठीक-ठाक काम करता है लेकिन कई सारे यान एक साथ चलेंगे तो मुश्किल होगी। और अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं कि क्या चांद पर पृथ्वी के मानक समय का उपयोग किया जाएगा या उसका अपना utc होगा। चांद के लिए घड़ियां बनाने का काम इस निर्णय पर टिका होगा।
और निर्णय जल्दी करना होगा। अन्यथा तमाम अंतरिक्ष एजेंसियां अपने-अपने समाधान बनाकर लागू करने लगेंगी और अफरा-तफरी मच जाएगी।
इस निर्णय की अर्जेंसी का एक कारण यह भी है कि चांद के लिए एक ग्लोबल सेटेलाइट नेविगेशन सिस्टम (जीएनएसएस) स्थापित करने की बातें चल रही हैं। यह जीपीएस जैसा कुछ होगा। जैसा कि विदित है जीपीएस हमें पृथ्वी पर चीज़ों की स्थिति चिंहित करने में मदद करता है। अंतरिक्ष एजेंसियां 2030 तक जीएनएसएस स्थापित कर देना चाहती हैं। युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा ने इसे लेकर परियोजनाएं शुरू भी कर दी हैं।
अब तक होता यह आया है कि चंद्रमा पर जाने वाले सारे अभियान अपनी स्थिति को चिंहित करने के लिए पृथ्वी से भेजे गए रेडियो संकेतों का उपयोग करते हैं। लेकिन बहुत सारे यान होंगे तो इस व्यवस्था को संभालना तकनीकी रूप से मुश्किल होगा।
इस दिक्कत से निपटने के लिए 2024 से नासा और युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी पृथ्वी से भेजे जाने वाले दुर्बल संकेतों का परीक्षण करेंगे। इसके बाद योजना यह है कि चांद के इर्द-गिर्द कुछ सेटेलाइट इसी काम के लिए स्थापित कर दिए जाएंगे और हरेक पर अपनी-अपनी परमाणविक घड़ी होगी। इन सेटेलाइट से प्राप्त संकेतों की मदद से प्रत्येक यान अपनी स्थिति की गणना करेगा।
एक समस्या यह आ सकती है कि पृथ्वी के समान चांद पर भी अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समय होंगे। वैसे तो सब लोग एक सार्वभौमिक समय से तालमेल बना सकते हैं लेकिन यदि लोग वहां रहेंगे तो चाहेंगे कि सूर्योदय-सूर्यास्त से तालमेल रहे।
इसके बाद एक सैद्धांतिक समस्या है। वैसे तो एक सेकंड की परिभाषा हर जगह एक ही है लेकिन विशिष्ट सापेक्षता का सिद्धांत कहता है कि जितना शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण होगा, घड़ियां उतनी धीमी चलेंगी। चांद का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की तुलना में कम है, जिसका तात्पर्य है कि पृथ्वी के किसी प्रेक्षक को चांद की घड़ियां तेज़ चलती नज़र आएंगी। एक अनुमान के मुताबिक 24 घंटे की अवधि में चांद की घड़ी 56 माइक्रोसेकंड आगे निकल जाएगी। और तो और, चांद पर घड़ी की स्थिति से भी फर्क पड़ेगा।
कहा यह जा रहा है कि पृथ्वी और चांद के बीच सामंजस्य बैठाने का कोई तरीका निकालना होगा। इसमें एक बात का ध्यान रखना होगा। यदि चांद का समय पृथ्वी के तालमेल से चलता है, तो कोई युक्ति रखनी होगी कि यदि चांद और पृथ्वी का कनेक्शन टूट जाए तो भी काम चलता रहे। ज़्यादा महत्वाकांक्षी लोग कह रहे हैं कि यह व्यवस्था ऐसी होनी चहिए कि जब हम दूरस्थ ग्रहों पर कदम रखें, तब भी काम कर सके।
अंतत:, अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की रुचि है कि वर्तमान इंटरनेट के समान एक सौरमंडलीय इंटरनेट बनाया जाए। इसके लिए समय के सामंजस्य की कोई युक्ति तो अनिवार्य है। उसी की जद्दोजहद जारी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.wired.com/photos/5f4d7ccb9626ac1b1b3e5252/2:1/w_2399,h_1199,c_limit/The-Oysters-Who-Knew-What-Time-It-Was.jpg