हाल ही में दक्षिणी वियतनाम स्थित ओसीरियो नामक प्राचीन गांव से प्राप्त 2000 वर्ष पुरानी एक सिल (सिल-लोढ़ा वाली) ने कई रहस्यों को उजागर किया है। लगता है कि इस सिल का उपयोग मसाले पीसने के लिए किया जाता था; इस पर आज भी जायफल की गंध महसूस की जा सकती है। साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दक्षिण पूर्व एशिया में मसाले पीसने का ज्ञात सबसे पहला उदाहरण है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारत और इंडोनेशिया से आए लोगों ने हज़ारों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में अपनी व्यंजन परंपराओं को प्रचलित किया होगा।
ओसीरियो में सबसे पहली खुदाई 1940 के दशक में हुई थी। खुदाई से प्राप्त सामग्री से मालूम चलता है कि यह शहर एक समय में विशाल व्यापार नेटवर्क का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा होगा जो भूमध्य सागर तक फैला हुआ था। वियतनामी पुरातत्वविद कान ट्रंग किएन नुयेन को हालिया खुदाई में ऐसे उपकरण मिले हैं जिनका उपयोग आज भी मसाले पीसने के लिए किया जाता है। भारत के प्राचीन स्थलों में भी इसी तरह की वस्तुएं पाई गई थीं।
सूक्ष्मदर्शी से जांच और 200 से अधिक प्रजातियों के नमूनों से तुलना करने के बाद टीम ने सिल पर हल्दी, अदरक, लौंग, दालचीनी और जायफल सहित आठ अलग-अलग मसालों की पहचान की है। सिल पर मसालों के अवशेष जिस तरह से संरक्षित थे उससे हैरानी होती थी और कहना मुश्किल था कि ये 2000 वर्ष पुराने हैं। विशेषज्ञों के अनुसार वियतनाम की जलवायु ने इन्हें संरक्षित रखा होगा। ये मसाले आज भी दक्षिण पूर्वी एशिया में उपयोग किए जाते हैं।
वास्तव में लौंग और जायफल जैसे कई मसाले मात्र दक्षिण एशिया और पूर्वी इंडोनेशिया में पाए जाते हैं। इस प्राचीन वियतनामी शहर में इन अवशेषों के मिलने से यह स्पष्ट होता है कि पहली शताब्दी के दौरान भारत और इंडोनेशिया से आए यात्रियों के साथ से ये मसाले यहां पहुंचे होंगे। इन निष्कर्षों से कुछ हद तक दक्षिण एशिया और फुनान के बीच प्रारंभिक व्यापार की भी पुष्टि होती है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि व्यापारियों द्वारा लाए गए व्यंजनों पर स्थानीय लोगों ने अपने मसालों के साथ एक अनूठी पाक परंपरा विकसित की है। ओसीरियो में पाए जाने वाले कई मसाले संभवत: आयात किए गए थे। अदरक की किस्में अभी भी कुछ थाई और अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई व्यंजनों में उपयोग की जाती हैं लेकिन भारत में उन्हीं व्यंजनों में नहीं डाली जातीं। नुयेन की टीम को सिल पर नारियल भी मिला है जिससे पता चलता है कि ओसीरियो में मसालों को नारियल के दूध से गाढ़ा किया जाता था। इसी तकनीक को वर्तमान दक्षिण पूर्व एशिया में सालन बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। यानी 2000 वर्ष पुरानी परंपराएं आज भी जारी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.theconversation.com/files/538673/original/file-20230721-6029-zzrvqd.jpeg?ixlib=rb-1.1.0&rect=0%2C0%2C1828%2C1145&q=20&auto=format&w=320&fit=clip&dpr=2&usm=12&cs=strip
हाल ही में भारत सरकार ने राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना का प्रस्ताव दिया है। इसके तहत अगले 5 वर्षों में अनुसंधान के लिए 6 अरब डॉलर खर्च करने की योजना है। अनुसंधान में इतना बड़ा निवेश एक अच्छी पहल है लेकिन इस निर्णय को लेकर वैज्ञानिकों के बीच काफी मतभेद है। समर्थकों का दावा है कि इस निर्णय से बुनियादी और व्यावहारिक विज्ञान में निवेश को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी ओर, अन्य ने इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका ज़ाहिर की है। 70 प्रतिशत फंडिंग तो निजी उद्योग से आएगा, इसलिए फंडिंग में वैसा रुझान भी दिख सकता है।
फिलहाल भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का काफी कम प्रतिशत अनुसंधान पर खर्च किया जाता है। शोध पत्रों और पेटेंट की गुणवत्ता में भी हम काफी पीछे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए एक शक्तिशाली शोध एजेंसी की मांग की गई थी ताकि विज्ञान नीति के समन्वय और शोध फंडिंग बढ़ाने में मदद मिले। 2020 में पेश प्रारंभिक प्रस्ताव में एजेंसी का वार्षिक बजट जीडीपी का 0.1 प्रतिशत से अधिक रखने का विचार था। संस्था को राजनीतिक दबाव और नौकरशाही से बचाने के लिए प्रमुख वैज्ञानिकों के एक स्वतंत्र बोर्ड को नेतृत्व को चुनने और पूर्ण-स्वायत्तता की बात थी।
नया प्रस्ताव इस सोच से काफी अलग है। नए प्रस्ताव में प्रधानमंत्री को बोर्ड का अध्यक्ष तथा विज्ञान और शिक्षा मंत्रियों को दो अन्य शीर्ष पदों पर रखने की व्यवस्था है। साथ ही विज्ञान मंत्रालय और भारत के विज्ञान सलाहकार को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इस सम्बंध में वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का मानना है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता अनुसंधान एवं विकास के प्रति गंभीरता दर्शाता है।
अलबत्ता, इस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना लगती है। एक मत है कि वर्तमान सरकार ने पहले भी छद्म वैज्ञानिक विचारों को बढ़ावा दिया है। कई पूर्व अधिकारियों को आशंका है कि नौकरशाही भी नई एजेंसी के काम में बाधक बन सकती है।
नए प्रस्ताव में विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी) को एनआरएफ में शामिल करने की बात कही गई है। यानी फाउंडेशन को एसईआरबी की तुलना में अधिक धन प्राप्त होगा। लेकिन सरकार एनआरएफ की शुरुआती फंडिंग के लिए निजी क्षेत्र पर भरोसा कर रही है जो काफी मुश्किल है।
फिलहाल इस विधेयक को संसद में पारित होने के बाद ही सार्वजनिक किया जाएगा। तब तक इस प्रस्ताव का ठीक तरह से सार्वजनिक आकलन करना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adj7031/abs/_20230714_nid_india.jpg
प्राकृतिक वरण हमें कम फिट बना सकता है, इसका एक कारण और है – वह है जिस पर्यावरण में हमारा विकास हुआ था और आज जिस पर्यावरण का हम अनुभव करते हैं, उनके बीच असामंजस्य।
यह अक्सर कहा जाता है कि हमारी वर्तमान सभ्यता हमारी पाषाण-युगीन जैविकी से मेल नहीं खाती। बदकिस्मती से, इस तरह मान लिए गए असामंजस्य का वैकासिक जीव विज्ञान के क्षेत्र में सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है। इसका उपयोग हमारी हर समस्या की ‘व्याख्या’ के लिए किया जाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि कुछ लोग कहते हैं कि इसलिए हमें अपनी आधुनिक जीवन शैली को पूरी तरह त्यागकर उस तरह जीना चाहिए जिस तरह हम कथित तौर पर स्वर्णिम पाषाण युग में जीते थे। वैकासिक जीव विज्ञान का ऐसा लापरवाह और बगैर सोचे-समझे उपयोग उसे बदनाम करता है और काफी हानि पहुंचाता है।
यह समझ लेने के बाद, यह कहा जा सकता है कि असामंजस्य की यह अवधारणा, यदि गहनता और पर्याप्त प्रमाणों के साथ लागू की जाए तो, हमारी चंद वर्तमान तकलीफों को समझने व उनसे निपटने में काफी उपयोगी व सही हो सकती है। पीटर ग्लकनैन और मार्क हैंसन ने अपनी पुस्तक मिसमैच (2008) में इस पर विचार करते हुए दर्शाया है कि हमारी उद्विकसित जैविकी और हमारे वर्तमान पर्यावरण के बीच असामंजस्य कई कारणों से हो सकता है।
उदाहरण के लिए, आधुनिक पाश्चात्य समाजों में, बेहतर पोषण व स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होने के चलते, मनोवैज्ञानिक व यौनिक परिपक्वता का समय बदला है। ये दोनों परिपक्वताएं अतीत में लगभग साथ-साथ आती थीं लेकिन अब इनकी कड़ी टूट गई है। आजकल बच्चे यौन परिपक्वता जल्दी और मनोवैज्ञानिक परिपक्वता से पहले हासिल कर लेते हैं। यह मनोवैज्ञानिक परिपक्वता यौन परिपक्वता की मांगों से निपटने लिए ज़रूरी होती है। ऐसा न होने पर आजकल के किशोर कई समस्याओं का सामना करते हैं।
हमारी जैविकी और भोजन, ऊर्जा के उपभोग व खर्च की आधुनिक जीवन शैली के बीच असामंजस्य एक और उदाहरण है। कृषि तथा आधुनिक टेक्नॉलॉजी के प्रादुर्भाव के साथ हमारा भोजन नाटकीय रूप से बदल गया है। वसा, नमक और शकर, जो पहले मुश्किल से मिलते थे, आज प्रचुर मात्रा में और नियमित रूप से उपलब्ध हो गए हैं। यह तो कृषि व टेक्नॉलॉजी में तरक्की के फलस्वरूप हुआ है। इसके अलावा, मार्केटिंग की रणनीतियों व व्यापारिक हितों के चलते लोगों को उनकी ज़रूरत से ज़्यादा उपभोग को प्रेरित किया जाता है और इसने समस्या को और विकट बनाया है। कुल मिलाकर इनका परिणाम तथाकथित जीवन शैली रोगों के रूप में सामने आया है – टाइप-2 मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप और हृदय-रक्तसंचार सम्बंधी बीमारियां।
लेकिन भोजन और स्वास्थ्य के बीच सम्बंध बहुत स्पष्ट नहीं हैं। लाल मांस, अंडे, वसाएं और शकर के उपभोग को लेकर दी गई सिफारिशों में उलटफेर काफी जानी-पहचाने हैं। ऐसे उलटफेर के चलते अक्सर विज्ञान के प्रति विश्वास कम हो जाता है – आम लोगों में भी और अन्य विषयों के वैज्ञानिकों में भी। तथ्य यह है कि ये कड़ियां निहायत पेचीदा हैं तथा और अनुसंधान की ज़रूरत है, खास तौर से वैकासिक नज़रिए को ध्यान में रखते हुए।
दरअसल, चूंकि विभिन्न खाद्य पदार्थों के उपयोग के पक्ष और विपक्ष में की गई सिफारिशों पर काफी सशक्त व्यावसायिक हित हावी होते हैं, इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रकृति और उसका मूल्यांकन दांव पर लगा है। नेचर पत्रिका में एक हालिया संपादकीय (शीर्षक ‘स्टडीज़ लिंकिंग डाएट विद हेल्थ मस्ट गेट एक होल लॉट बेटर’) में इस बात को रेखांकित किया गया है कि “अधिकांश पोषण सम्बंधी और स्वास्थ्य सम्बंधी सलाहों के पीछे प्रमाणों का आधार…. विवादित है।” संपादकीय में चेतावनी दी गई थी:
“यदि वित्तदाता अपने प्रयासों को अच्छी गुणवत्ता के आंकड़े उत्पन्न करने में नहीं लगाएंगे, तो आम लोग भ्रमित, शंकालु, अनाश्वस्त रहेंगे और उस जानकारी से वंचित रहेंगे जिसकी ज़रूरत स्वास्थ्य व जीवन शैली सम्बंधी निर्णयों के लिए है।”
एक और असामंजस्य होता है क्योंकि लोगों की प्रजनन-काल के बाद की जीवन अवधि लंबी होती जा रही है जिसकी वजह से बढ़ती उम्र की तमाम दिक्कतें सामने आ रही हैं – स्मृतिभ्रंश, पार्किंसन व अल्ज़ाइमर रोग और मेनोपॉज़ से जुड़ी दिक्कतें। हम इनके प्रति अनुकूलित नहीं हैं क्योंकि ये अपेक्षाकृत नई हैं क्योंकि बुढ़ापा स्वयं ही अब पहले की तुलना में ज़्यादा सामान्य बात हो गई है।
और तो और, चूंकि ये बीमारियां बढ़ती उम्र में होती हैं, इसलिए प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इनके विरुद्ध चयन भी नहीं कर सकती क्योंकि ये हमारी प्रजनन सफलता को प्रभावित नहीं करतीं। इस संदर्भ में एक वैकासिक नज़रिया और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
जैसा कि हमने पहले कहा था, असामंजस्य के कई मामले इसलिए उभरते हैं क्योंकि प्राकृतिक वरण हमारी आधुनिक सभ्यता के साथ कदम नहीं मिला पाया है। विडंबना देखिए कि जिस प्राकृतिक वरण ने हमारे बड़े दिमागों को उत्पन्न किया और हमें भाषा की कुशलता प्रदान की और तदानुसार संस्कृति के विकास को संभव बनाया, उसी ने हमें खुद प्राकृतिक वरण की शक्ति से बच निकलने की गुंजाइश भी दी है। स्वाभाविक सवाल है कि क्या वह कभी कदम मिला पाएगा। सिद्धांतत: तो जवाब ‘हां’ लगता है लेकिन व्यावहारिक तौर पर लगता है कि ‘शायद नहीं’ या ‘कभी-कभार ही’।
दूध की अच्छाई?
हमारी जैविकी और पर्यावरण के बीच सभ्यता-प्रेरित असामंजस्य के जिस उदाहरण का सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है, और जहां दोनों के बीच की खाई अंतत: पट जाएगी, वह है लैक्टोस सहनशीलता/असहनशीलता का। चूंकि सारे स्तनधारी जीव अपने शिशुओं को स्तनपान कराते हैं, इसलिए शिशुओं में लैक्टेज़ नामक एक एंज़ाइम पाया जाता है, जो दूध में पाई जाने वाली लैक्टोस शर्करा को पचाता है।
जब शिशुओं को दूध छुड़ाकर अन्य भोजन दिया जाने लगता है, तब वे लैक्टेज़ बनाना बंद कर देते हैं क्योंकि अब उसकी ज़रूरत नहीं होती। मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। इसलिए वयस्कों को ‘लैक्टेज़ नॉन-पर्सिस्टेंट’ अर्थात ‘लैक्टोस-असहनशील’ कहा जाता है। लेकिन दुनिया के कुछ हिस्सों में पशुपालन के प्रादुर्भाव के साथ यह काफी फायदेमंद हो गया कि वयस्क आहार में पशुओं के दूध को जगह दी जाए।
इस बात के काफी पुख्ता प्रमाण हैं कि प्राकृतिक वरण ने उन बिरले उत्परिवर्तनों को वरीयता दी जो किसी व्यक्ति को लैक्टेज़ नामक एंज़ाइम वयस्कपन में भी बनाते रहने की क्षमता देते थे। ये लोग ‘लैक्टेज़ पर्सिस्टेंट’ और ‘लैक्टोस सहनशील’ हो गए। इस बात के भी प्रमाण हैं कि दुनिया के अलग-अलग इलाकों उत्परिवर्तन अलग-अलग हैं। आज युरोप के कई हिस्सों तथा अफ्रीका व मध्य-पूर्व के कुछ इलाकों में ‘लैक्टेज़ पर्सिस्टेंट’ और ‘लैक्टोस सहनशीलता’ काफी आम है।
अलबत्ता, इसकी उपस्थिति में काफी विविधता है – स्कैंडिनेविया में 95-97 प्रतिशत, जहां दूध का सेवन सामान्य बात है, से लेकर पूर्वी एशिया में 0-10 प्रतिशत जहां दूध का सेवन काफी कम होता है।
कुल मिलाकर, लैक्टोस असहनशीलता दुनिया में सबसे आम स्थिति है। और वास्तव में यह मनुष्यों की प्राचीन स्थिति है। लेकिन वैकासिक नज़रिए के अभाव में और जाने-पहचाने पाश्चात्य पूर्वाग्रह के चलते, हम अक्सर सोचते हैं कि ‘लैक्टोस असहनशीलता’ एक बीमारी है।
वैकासिक परिप्रेक्ष्य हमें एक सर्वथा अलग तस्वीर प्रदान करता है। लैक्टोस असहनशीलता की प्राचीन स्थिति, जब दूध का सेवन नदारद था, से लेकर वर्तमान तक, जब कम से कम कुछ इलाकों में दूध का सेवन सामान्य बात है, लैक्टोस सहनशीलता का विकास हुआ है और इसने जैविकी और संस्कृति के बीच असामंजस्य को पलट दिया है। यह अपेक्षा उचित ही होगी कि यदि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी दूध का सेवन बढ़ता गया तो लैक्टोस सहनशीलता विकसित होती जाएगी। लेकिन प्राकृतिक वरण एक धीमी प्रक्रिया है और ऐसे असामंजस्य सैकड़ों-हज़ारों सालों तक बने रहने की अपेक्षा की जानी चाहिए।
जीन्स का दोष
हमारे शरीर के कई गुणों की तरह हमारी कई बीमारियों का दोष भी जीन्स को दिया जा सकता है। लेकिन यह सहजबोध के थोड़ा उल्टा लगता है क्योंकि ऐसे जीन्स का सफाया करना ही तो प्राकृतिक वरण का काम है। दिक्कत यह है कि प्राकृतिक वरण कई बार ऐसा करने में अशक्त होता है। उदाहरण के लिए, वह कुछ ऐसे खराब जीन्स को नहीं हटा सकता जिनके कुछ अच्छे प्रभाव भी होते हैं।
ऐसा सबसे बेहतरीन उदाहरण है वह जीन जो सिकल सेल एनीमिया का कारण है। यह जीन अफ्रीका के कुछ हिस्सों में काफी आम है। यह एक असामान्य हीमोग्लोबीन का निर्माण करता है जिसकी वजह से लाल रक्त कोशिकाएं विकृत हो जाती हैं और हंसिए की आकृति ग्रहण कर लेती हैं। ऐसी हंसियाकार कोशिकाएं रक्त के साथ आसानी से प्रवाहित नहीं हो पातीं, जिसकी वजह से रक्तस्राव, एनीमिया और कई अन्य दिक्कतें होती हैं।
जिन व्यक्तियों में दोषपूर्ण जीन की दो प्रतियां (माता और पिता दोनों से प्राप्त) होती हैं, उनमें सारी लाल रक्त कोशिकाएं हंसियाकार हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति गंभीर रोगग्रस्त होते हैं (इन्हें उस जीन के लिहाज़ से होमोज़ायगस कहा जाता है)। ऐसे व्यक्ति अक्सर प्रजनन की दृष्टि से परिपक्व होने से पहले ही मौत के शिकार हो जाते हैं। यदि कहानी सिर्फ इतनी होती तो प्राकृतिक वरण शायद पूरी आबादी से सिकल सेल जीन का सफाया कर चुका होता। लेकिन कहानी में एक पेंच है।
जिन लोगों को किसी एक पालक से दोषपूर्ण जीन विरासत में मिलता है और दूसरे पालक से सामान्य जीन मिलता है वे हेटेरोज़ायगस होते हैं; उनमें एक जीन दोषपूर्ण और एक जीन सामान्य होता है। ऐसे व्यक्तियों में सामान्य जीन सामान्य हीमोग्लोबीन और सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनाता है। और उनका काम इन सामान्य कोशिकाओं से चल जाता है। दोषपूर्ण जीन द्वारा बनाई गई असामान्य लाल रक्त कोशिकाओं को रक्त प्रवाह से हटा दिया जाता है। लिहाज़ा, शरीर में रोग के लक्षण प्रकट होने के लिए दोनों सिकल कोशिका जीन्स दोषपूर्ण होने चाहिए। ऐसे जीन्स को रेसेसिव कहा जाता है।
किसी रेसेसिव घातक जीन का सफाया करना प्राकृतिक वरण के लिए काफी मुश्किल होता है क्योंकि हेटेरोज़ायगस व्यक्तियों में ये जीन प्राकृतिक वरण के लिए ओझल होते हैं और दोषपूर्ण होने के बावजूद ये व्यक्ति जीवित रह पाते हैं और उस जीन को अगली पीढ़ी में प्रेषित कर देते हैं। यदि किसी आबादी में वह जीन काफी कम पाया जाता है, तो संभावना यह होती है कि उस जीन वाले अधिकांश लोग हेटेरोज़ायगस होंगे और प्राकृतिक वरण कम प्रभावी रह जाएगा। इसलिए, रेसेसिव घातक जीन्स किसी आबादी में कम संख्या में लंबे समय तक बने रह सकते हैं।
अब ज़रा कल्पना कीजिए कि हेटेरोज़ायगस लोग वास्तव में सामान्य जीन के होमोज़ायगस लोगों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। क्या यह संभव है? अवश्य संभव है, और कई मामलों में ऐसा होता भी है। उदाहरण के लिए, सिकल कोशिका जीन को ही लीजिए।
यह तो हम देख ही चुके हैं कि हेटेरोज़ायगस व्यक्ति दोषपूर्ण लाल रक्त कोशिकाओं को हटाकर काम चला लेते हैं। इसके चलते मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सिपैरम) के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है क्योंकि जिन कोशिकाओं में परजीवी बैठा होता है, उन्हें प्राय: हटा दिया जाता है। अर्थात सिकल कोशिका जीन के संदर्भ में हेटेरोज़ायगस व्यक्तियों को मलेरिया से मृत्यु के खिलाफ काफी सुरक्षा मिल जाती है।
तो, हेटेरोज़ायगस व्यक्ति के शरीर में सिकल कोशिका के जीन को न सिर्फ सुरक्षा मिलती है बल्कि प्राकृतिक वरण द्वारा चुना भी जाता है। जैसी कि अपेक्षा होगी, सिकल कोशिका जीन उन इलाकों में ज़्यादा आम होता है जो मलेरिया ग्रस्त हैं चाहे उस जीन के होमोज़ायगस व्यक्ति सिकल कोशिका रोग से पीड़ित होते रहें। यह एक ऐसी स्थिति है जहां जब तक मलेरिया का प्रकोप बना हुआ है, प्राकृतिक वरण मरम्मत करने में अक्षम रहता है।
शरीर में लेन–देन
जीवों को उनके पर्यावरण के अनुकूल बनाने में प्राकृतिक वरण के मार्ग में अड़चन का एक कारण और भी है। हमारे शरीर को दोषरहित बनाने के मार्ग में प्राय: यह अड़चन आती है कि उस अनुकूलन को अपनाने का असर किसी अन्य गुणधर्म पर पड़ता है। दोनों हाथों में लड्डू मुश्किल है। विलियम्स और नेसे कहते हैं,
“सीधे खड़े होकर चलने की कीमत पीठ-दर्द की समस्याएं हैं। ऊतकों की मरम्मत करने की क्षमता की कीमत कैंसर के रूप में सामने आती है। प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की कीमत प्रतिरक्षा विकारों के रूप में दिखती है। दुश्चिंता की कीमत पैनिक डिसऑर्डर होती है। प्रत्येक मामले में, प्राकृतिक वरण ने यथासंभव सर्वोत्तम प्रदर्शन किया है – लाभों को लागतों के साथ संतुलित करके। जहां भी संतुलन बिंदु होगा, बीमारी अवश्यंभावी है।
अनुकूलनवादी वैज्ञानिक शरीर को एक दोषमुक्त पर्फेक्ट रचना के रूप में नहीं बल्कि समझौतों के एक पुंज के रूप में देखते हैं। उन्हें समझकर हम बीमारियों को बेहतर समझ पाएंगे।”
आगामी लेखों में हम ऐसे समझौतों का और अन्वेषण करेंगे और खास तौर से यह देखेंगे कि ये यौवन और बुढ़ापे के बीच तथा पुरुषों और महिलाओं के बीच किस तरह सामने आते हैं।
सार रूप में, हमारे शरीर कमज़ोर और दोषपूर्ण हैं और बीमारियों के प्रति संवेदनशील हैं क्योंकि प्राकृतिक वरण ने कतिपय ऐतिहासिक मार्ग अपनाए होंगे, क्योंकि प्राकृतिक वरण रोगजनक जीवों के पक्ष में भी काम करता है, क्योंकि हमारी जैविकी और हमारी संस्कृति के बीच असामंजस्य है, क्योंकि बुरे जीन्स के कुछ अच्छे असर भी हो सकते हैं और प्राय: लाभ-लागत के बीच ऐसे लेन-देन होते हैं कि कई सारे कार्यों को एक साथ पर्फेक्ट बनाने की प्राकृतिक वरण की क्षमता बाधित होती है।
किसी वैकासिक जीव वैज्ञानिक के लिए यह रोमांचक बुनियादी विज्ञान है जो सौंदर्य और तर्क से लबरेज़ है। साथ ही, वैकासिक चिकित्सा का वायदा है कि यदि हम स्वास्थ्य व बीमारियों को एक वैकासिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें, तो इससे चिकित्सा विज्ञान समृद्ध होगा।
अगले लेख में हम वैकासिक चिकित्सा की वर्तमान स्थिति – नेसे व विलियम्स की पुस्तक के प्रकाशन के 30-35 साल बाद – पर विचार करेंगे।(स्रोत फीचर्स)
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वैकासिक चिकित्सा विज्ञान (जिसमें जैव विकास के नज़रिए को शामिल किया गया हो) एक उभरता क्षेत्र है जो कई व्याख्याएं प्रस्तुत करता है और दर्शाता है कि हम जैव विकास की समझ का इस्तेमाल बीमारियों की रोकथाम और उपचार में कैसे करें।
1990 के दशक के उत्तरार्ध में मैंने रैडोल्फ एम. नेसे और जॉर्ज सी. विलियम्स की पुस्तक पढ़ी थी, जिसका शीर्षक बहुत रोमांचक था – व्हाय वी गेट सिक (हम बीमार क्यों पड़ते हैं)।
मैं नहीं जानता था कि रैडोल्फ नेसे कौन हैं लेकिन यह जानता था कि जॉर्ज विलियम्स मशहूर वैकासिक जीव विज्ञानी हैं जिन्हें उनकी उत्कृष्ट पुस्तक एडाप्टेशन एंड नेचुरल सिलेक्शन (1974) के लिए जाना जाता है। इस पुस्तक में आम लोगों और विशेषज्ञों दोनों में व्याप्त प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया के अधकचरे सोच की सशक्त आलोचना की गई थी। पुस्तक के पहले पैराग्राफ में कहा गया था:
“उत्कृष्ट बनावट वाले शरीर में क्यों हज़ारों खामियां और दुर्बलताएं हैं जो उसे बीमारियों के प्रति संवेदनशील बना देती हैं? यदि प्राकृतिक वरण के माध्यम से होने वाला विकास आंख, हृदय और मस्तिष्क जैसी नफीस व्यवस्थाओं को आकार दे सकता है तो उसने निकटदृष्टि दोष, हार्ट अटैक और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों से बचाव के उपाय क्यों नहीं गढ़े? यदि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली करोड़ों पराए प्रोटीन्स को पहचानकर उन पर आक्रमण कर सकती है, तो हमें निमोनिया क्यों हो जाता है? यदि डीएनए की एक कुंडली खरबों विशेषीकृत कोशिकाओं को अपने-अपने उचित स्थान पर जमाकर एक वयस्क जीव की योजना विश्वसनीय ढंग से कूटबद्ध कर सकती है, तो हम एक क्षतिग्रस्त उंगली को फिर से क्यों नहीं उगा सकते? यदि हम सौ साल जी सकते हैं, तो दो सौ साल क्यों नहीं?”
जैसे-जैसे मैं पढ़ता गया, विडंबना धीरे-धीरे उजागर होती गई। पहले पैराग्राफ में प्राकृतिक वरण की जिन ‘असफलताओं’ की बात की गई थी, वे इस सोच के पक्ष में सबसे सशक्त दलीलें थीं कि हमारे शरीर को प्राकृतिक वरण के माध्यम से हुए विकास ने आकार दिया है! क्या कोई दैवी सृष्टा या बुद्धिमान रचयिता ऐसे घपले करता? नेसे और विलियम्स के शब्दों में:
“हमारे शरीर की बनावट एक साथ असाधारण रूप से सटीक और अविश्वसनीय रूप से फूहड़ दोनों है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर्स सात दिनों में एक बार छुट्टी पर जाते थे और उस दिन सारा काम अनाड़ी नौसिखियों को सौंप देते थे।”
दूसरी ओर, यदि हम प्राकृतिक वरण के माध्यम से विकास के परिणाम हैं तो हमें ऐसी खामियों और दुर्बलताओं की अपेक्षा करनी ही चाहिए। लेकिन क्यों?
एक नए विषय-क्षेत्र का जन्म
अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं कि वे इतने व्यस्त हैं कि उनके पास विज्ञान के सामाजिक पक्ष या दर्शन की बात तो दूर, इतिहास पर ध्यान देने की फुरसत भी नहीं है। वास्तव में युवा वैज्ञानिकों में इन विषयों के प्रति दिलचस्पी को प्राय: यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि यह गंभीर काम के प्रति उत्साह या क्षमता के अभाव का परिणाम है। फिर भी हम इतिहास से बहुत कुछ सीखते हैं – अतीत की गलतियों को दोहराने से कैसे बचें और प्रतिकूल हालात में भी अच्छा विज्ञान कैसे करें। तो यह देखना उपयोगी होगा कि वैकासिक चिकित्सा का जन्म कैसे हुआ।
कहानी कुछ इस तरह है। रैडोल्फ नेसे मिशिगन विश्वविद्यालय मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सा विभाग में चिकित्सक थे। एक ओर तो वे “मनोचिकित्सा में सैद्धांतिक बुनियाद न होने को लेकर हताश” थे तथा दूसरी ओर वे “जंतु व्यवहार के क्षेत्र में जैव विकास के विचारों के आधार पर हुई असाधारण प्रगति से अचंभित” भी थे। इसके चलते वे उन सहकर्मियों के साथ समय बिताने लगे जो जैव विकास और मानव व्यवहार में रुचि रखते थे। इन सहकर्मियों ने सुझाव दिया कि उन्हें जॉर्ज सी. विलियम्स नाम के एक जीव विज्ञानी से संपर्क करना चाहिए, जिन्होंने बुढ़ाने की एक वैकासिक व्याख्या प्रस्तावित की थी। नेसे ने इस सुझाव को मान लिया।
जॉर्ज सी. विलियम्स स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन विभाग में समुद्र वैज्ञानिक थे। उन्होंने 1957 में एक शोध पत्र लिखा था – प्लायोट्रॉपी, नेचुरल सिलेक्शन, एंड दी इवोल्यूशन ऑफ सेनेसेंस (एक जीन के एकाधिक प्रभाव, प्राकृतिक वरण और जरावस्था का विकास)। स्वयं विलियम्स मानते हैं कि चिकित्सा में वैकासिक सोच में उनकी रुचि युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के पक्षी विज्ञानी पौल एवाल्ड के एक शोध पत्र से जन्मी थी: “इवोल्यूशनरी बायोलॉजी एंड दी ट्रीटमेंट ऑफ साइन्स एंड सिम्पटम्स ऑफ इंफेक्शियस डिसीज़” (वैकासिक जीव विज्ञान तथा संक्रामक रोगों के चिंहों व लक्षणों का उपचार, जर्नल ऑफ थियरेटिकल बायोलॉजी, 1980)। इस शोध पत्र में एवाल्ड ने दलील दी थी कि
“जैव विकास के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, तो संक्रामक रोगों के लक्षणों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. बीमारी के हानिकारक पहलुओं का सामना करने के लिए मेज़बान में अनुकूलन
2. मेज़बान में छेड़छाड़ करने के लिए रोगजनक में अनुकूलन
3. बीमारी के साइड प्रभाव, जो न तो मेज़बान के लिए और न ही रोगजनक के लिए कोई अनुकूली भूमिका निभाते हैं।”
पर्चे के अंत में उन्होंने कहा था: “उपचार की पसंद इन तीन व्याख्याओं की वैधता के आकलन पर निर्भर है।”
पीछे मुड़कर देखें, तो यह कहा जा सकता है कि वैकासिक चिकित्सा के तीन अभिभावक हैं: एक पक्षी विज्ञानी (एवाल्ड), एक मनोचिकित्सक (नेसे) और एक समुद्र जीव विज्ञानी (विलियम्स)। ऐसा विचित्र अभिभावकत्व विज्ञान के विचारों के इतिहास में बार-बार नज़र आता है। लेकिन यह एक ऐसी चीज़ है जिसे अकादमिक जगत की रुढि़वादी और अकल्पनाशील मूल्याकंन प्रक्रिया प्रारंभिक अवस्था में ही खत्म कर सकती है।
विलियम्स, बुढ़ापे के उद्विकास में अपनी रुचि के चलते, एवाल्ड की सूझबूझ को समझने व सराहने के लिए तैयार थे। ऊपर बताए गए कारणों के चलते, नेसे भी जैसे तैयार बैठे थे विलियम्स के साथ हाथ मिलाकर स्वास्थ्य, बीमारी और चिकित्सा की वैकासिक व्याख्या की खोज में जुटने को।
स्वास्थ्य व बीमारी में वैकासिक सूझबूझ
संक्रामक रोगों के लक्षणों के एवाल्ड के वर्गीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि हमें अंधाधुंध ढंग से उन सबका शमन करने की ज़रूरत नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि हम उन लक्षणों को दूर करने की कोशिश करें, जो बीमारी से लड़ने हेतु शरीर के अनुकूलन हैं, तो हम फायदे की बजाय नुकसान ज़्यादा करेंगे।
नेसे और विलियम्स ने स्वास्थ्य और बीमारी के मामले में वैकासिक सोच के दायरे को काफी विस्तार दिया। हालात का आकलन करने के लिए उन्होंने 1991 में क्वार्टरली रिव्यू ऑफ बायोलॉजी में एक पर्चा प्रकाशित किया था – दी डॉन ऑफ डारविनियन मेडिसिन (डारविनवादी चिकित्सा का उदय)। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका लक्ष्य मात्र बीमारियों के संदर्भ में वैकासिक समझ को निरूपित करना नहीं है बल्कि वे चाहते हैं कि डॉक्टर भी ऐसा करें। अपने पर्चे की शुरुआत उन्होंने इस दावे के साथ की थी:
“चिकित्सा शिक्षा भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान की उन शाखाओं पर ज़ोर देती है जिनका सम्बंध तात्कालिक क्रियाविधि से है। जीव विज्ञान और चिकित्सा में इस ज्ञान के उपयोग के चलते मानव रोगों की रोकथाम और उपचार में प्रभावशाली प्रगति हुई है। अलबत्ता, जैव विकास को चिकित्सा पाठ्यक्रम में महत्व नहीं मिला है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि चिकित्सकीय समस्याओं पर वैकासिक सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा पेशेवर डारविन के साथ वैसा ही तालमेल बना पाते जैसा उन्होंने पाश्चर के साथ बनाया है तो तरक्की और भी तेज़ होती।”
वे जानते थे कि वैकासिक चिकित्सा अभी ज्ञान का ऐसा परिपक्व खजाना नहीं था जिसे तत्काल डॉक्टरों को सौंपा जा सके। यह तो सोचने का एक नया ढंग था जो उल्लेखनीय लाभ तभी दे सकता था जब चिकित्सक स्वयं इसे अपनाते। लिहाज़ा, उनका काम था कि वैकासिक सोच का विचार डॉक्टरों को बेचा जाए, कुछ प्रारंभिक समझ के साथ उनकी भूख को बढ़ाया जाए।
शुरुआत में ही नेसे और विलियम्स ने प्राकृतिक वरण की उस प्रचलित धारणा में ज़रूरी सुधार किए, जो ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ जुम्ले में प्रकट होती है। वे इस समझ के लिए रास्ता तैयार करना चाहते थे कि प्राकृतिक वरण कभी-कभी हमें कम फिट भी बना सकता है।
मोटे तौर पर ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ का आशय होता है एक पर्फेक्ट शरीर, जो ‘एक ऐसे शरीर से मेल नहीं खाता जिसमें हज़ारों खामियां और कमज़ोरियां हों जो उसे बीमारियों के जोखिम के प्रति दुर्बल बना दें।’
अब हम समझते हैं कि प्राकृतिक वरण जीवों की इस क्षमता को अधिकतम करता है कि वे अपने जीन्स की प्रतिलिपियां भावी पीढ़ियों के शरीरों में छोड़कर जाएं। इसे जैव विकास का जीन्स आई व्यू भी कहते हैं और यह जुम्ला जी. सी. विलियम्स ने दिया था। इसके आधार पर यह संभावना बनती है कि किसी जीव को दीर्घायु, रोग-मुक्त और शारीरिक क्षति का प्रतिरोधी बनाए बगैर भी जेनेटिक हस्तांतरण को अधिकतम करना संभव है।
इसके अलावा, दो प्रतिस्पर्धी जीवों में से जो अपने जीन्स की ज़्यादा प्रतिलिपियां छोड़ जाता है, प्राकृतिक वरण उसे वरीयता देता है, भले ही दोनों अपने आप में बहुत फिट न रहे हों।
दरअसल, यह समझना ज़रूरी है कि ‘फिट’ और ’फिटनेस’ शब्दों के कई अर्थ हैं। आम बोलचाल में हम फिट का मतलब समझते हैं शक्तिशाली और बीमारियों से मुक्त – उन ‘हज़ारों खामियां और कमज़ोरियों’ से मुक्त शरीर जो ‘बीमारियों के जोखिम के प्रति दुर्बल बनाती हैं’। चलिए, इसे फिटनेस की डॉक्टरी परिभाषा कहते हैं। दूसरी ओर, अभी हाल तक वैकासिक जीव विज्ञानी फिटनेस को इस आधार पर नापते थे कि कोई जीव अपने जीवन काल में कितनी संतानें पैदा करता है। इसे आजीवन प्रजनन सफलता भी कहते हैं। इसे हम शास्त्रोक्त डारविनी फिटनेस कहेंगे।
ज़्यादा हाल के समय में, वैकासिक जीव विज्ञानी समझ पाए हैं कि प्राकृतिक वरण का एक प्रकार (सहोदर वरण या किन सेलेक्शन) ऐसे गुणों को भी बढ़ावा दे सकता है जो उस जीव को प्रत्यक्ष रूप से तो कम संतानें उत्पन्न करने देते हैं लेकिन वह निकट जेनेटिक सम्बंधियों की देखभाल व जीवित रहने में मदद करते हैं। इसका कारण यह है कि निकट जेनेटिक सम्बंधी भी हमारे जीन्स की प्रतिलिपियां रखते हैं। अत:, स्वयं की संतानों की संख्या और सम्बंधियों को जीवित रहने में मदद मिलकर समावेशी फिटनेस कहलाते हैं।
दरअसल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, डॉक्टरी अर्थ में कमतर फिटनेस कई बार प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया का अपरिहार्य परिणाम होता है जब वह प्राकृतिक वरण डारविनी या समावेशी फिटनेस को बढ़ाने की दिशा में काम करे।
लिहाज़ा, डॉक्टरी फिटनेस तथा वैकासिक जीव विज्ञानी की फिटनेस की परिभाषाओं के बीच अंतर ही स्वास्थ्य व बीमारियों के मुद्दों पर वैकासिक तर्क को लागू करने का आधार बनता है। अपनी पुस्तक व्हाय वी गेट सिक में नेसे और विलियम्स पांच कारणों की चर्चा करते हैं कि क्यों प्राकृतिक वरण के बावजूद या उसके कारण हम कमज़ोर हो जाते हैं, बीमारियों के प्रति संवेदी हो जाते हैं।
इतिहास का अभिशाप
हमारे शरीरों में नज़र आने वाली संरचनागत खामियों का अस्तित्व इस बात का परिणाम है कि प्राकृतिक वरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो वैकल्पिक फीनोटाइप्स के बीच उत्तरजीविता का निर्धारण करती है जब वे किसी स्थान या समय पर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनमें से जो बेहतर होता है वह विजयी रहता है, चाहे वह एब्सोल्यूट रूप से कितना ही बुरा क्यों न हो। तो जब जीव किसी भिन्न पर्यावरण में पहुंचते हैं, तो प्राकृतिक वरण उन्हें वरीयता देता है जिनमें छोटे-छोटे उत्परिवर्तनों ने नए पर्यावरण के प्रति उन्हें बाकी से बेहतर अनुकूलित कर दिया हो।
दरअसल, प्राकृतिक वरण बुरी स्थिति में सर्वोत्तम प्रदर्शन करता है। उसके पास ऐसा कोई तरीका नहीं होता कि लौटकर मूल स्थिति में जाए और फिर से शुरू करे, जैसा कि इंजीनियर करते हैं। और तो और, हर मध्यवर्ती अवस्था को पिछली अवस्था से बेहतर नहीं तो कम से कम उतनी अच्छी तो होना ही चाहिए। इसके चलते अच्छे से बेहतर की ओर बढ़ने के मार्ग की सख्त सीमाएं तय हो जाती हैं। इसलिए हम कहते हैं कि प्राकृतिक वरण में कोई पूर्वानुमान नहीं होता। वह किसी कमतर जीव को सिर्फ इसलिए वरीयता नहीं दे सकता कि वह भविष्य में कहीं बेहतर साबित होगा। प्राकृतिक वरण एक अंधी यांत्रिक प्रक्रिया है जो इस क्षण और इस जगह काम करती है।
संभवत: इतिहास के अभिशाप की वजह से सबसे मशहूर संरचनागत खामी, जिसे फायलोजेनेटिक जड़त्व या फायलोजेनेटिक अड़चन कहते हैं, वह है हमें खाने-पीने से लगने वाला ठसका। स्वयं डारविन ने भी ध्यान दिया था:
“…यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भोजन या पेय पदार्थों का जो एक-एक कण हम निगलते हैं, उसे सांस नली (ट्रेकिया) के प्रवेश छिद्र पर से गुज़रना पड़ता है, जिसमें हमेशा यह जोखिम रहता है कि वह हमारे फेफड़ों में पहुंच जाएगा, चाहे कंठद्वार (ग्लॉटिस) को बंद करने वाली व्यवस्था कितनी भी बढ़िया क्यों न हो।”
इसका कारण यह है कि हम ‘संशोधनों के साथ अवतरित’ (descended with modification) हुए हैं। यह डारविन का प्रिय जुम्ला था। हमारा क्रमिक विकास उन नन्हे कृमियों से हुआ है जो उनके शरीर में प्रवेश करने वाले पानी से भोजन के कण छानकर पोषण प्राप्त करते थे और उसी पानी में से ऑक्सीजन भी ले लेते थे। जब इन कृमियों के वंशज हवा में सांस लेने लगे, तो मौजूदा पाचन तंत्र में से एक मार्ग का निर्माण हुआ जो हवा को फेफड़ों में ले जाता था। सारे कशेरुकी जीवों की तरह हम भी इस डिज़ाइन से बंधे हैं जिसमें हवा और भोजन के रास्ते एक-दूसरे को काटते हैं और ठसका लगने का खतरा पैदा करते हैं। ऐसा अनुमान है कि एक लाख में एक व्यक्ति हर साल इसके कारण मौत का शिकार होता है।
यह एक फायलोजेनेटिक अड़चन है कि हम छानकर भोजन ग्रहण करने वाले कृमियों से छोटे-छोटे परिवर्तनों के माध्यम से अवतरित हुए हैं। इसके चलते ऐसा कोई तरीका नहीं है कि प्राकृतिक वरण भोजन और वायु के लिए दो अलग-अलग मार्ग बनाकर इस समस्या को सुलझा लेता – जैसा कि उसने कीटों और मोलस्क जीवों के मामले में किया है।
परजीवी-मेज़बान प्रतिस्पर्धा
वैकासिक परिप्रेक्ष्य से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृतिक वरण सारे परजीवियों का खात्मा करके हमें रोगमुक्त नहीं बना सकता। सीधा-सा तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण की वही प्रक्रिया निरंतर काम करते हुए रोगजनक परजीवियों को भी यथासंभव सफल बनाती है। अर्थात हम रोगजनकों के साथ निरंतर प्रतिस्पर्धा में हैं। और कई मायनों में रोगजनक प्राकृतिक वरण की ताकत का उपयोग करने के लिहाज़ से फायदे में हैं।
चूंकि प्राकृतिक वरण वैकल्पिक फीनोटाइप के बीच प्रजनन में विविधता के आधार पर काम करता है, इसलिए जैव विकास की रफ्तार मात्र समयावधि पर नहीं बल्कि पीढ़ियों की संख्या पर निर्भर करती है। चूंकि आम तौर पर परजीवी अपने मेज़बान की तुलना में कहीं अधिक रफ्तार से प्रजनन करते हैं, इसलिए वे मेज़बान की तिकड़मों का जवाब अधिक तेज़ी से दे सकते हैं। अधिकांश रोगजनक हमारे शरीर में सैकड़ों-हज़ारों नहीं बल्कि लाखों पीढ़ियां गुज़ारते हैं। और हमें तो उनसे संघर्ष में कोई वैकासिक लाभ पूरी एक पीढ़ी बाद ही मिल सकता है जो शायद 20-30 साल बाद सामने आए।
लिहाज़ा, हम परजीवियों के लिए आसान शिकार हैं क्योंकि वे हमारे द्वारा विकसित सुरक्षा उपायों के विरुद्ध रणनीतियां विकसित करते रह सकते हैं।
एक मान्यता है कि लैंगिक प्रजनन का विकास परजीवियों से लड़ने के लिए हुआ है: लैंगिक प्रजनन के दौरान माता-पिता के जीन्स का सम्मिश्रण होता है और पुनर्मिश्रण के ज़रिए जीन्स को नए ढंग से संयोजित किया जाता है। परिणाम यह होता है कि हमारा शरीर परजीवियों के लिए एक नया जेनेटिक परिवेश उपस्थित करता है जिसके वे आदी नहीं हैं। सुरक्षा उपायों से बचने के लिए परजीवियों को नए सिरे से शुरू करना होगा और इस तरह हमें थोड़ा समय मिल जाता है।
हाल के समय में पता चला है कि परजीवी न सिर्फ हमारी कुदरती सुरक्षा व्यवस्था के खिलाफ विकसित होते हैं बल्कि वे हमारे द्वारा विकसित टेक्नॉलॉजी (जैसे एंटीबायोटिक्स) से बच निकलने के रास्ते भी विकसित कर लेते हैं।
मेज़बान-परजीवी सम्बंधों को लेकर एक वैकासिक नज़रिया न सिर्फ बीमारियों की एक नई समझ उपलब्ध कराता है बल्कि यह हमें बीमारियों से निपटने के लिए सर्वथा नए व सहजबोध के विपरीत नीतिगत सुझाव भी प्रदान करता है। याद कीजिए एवाल्ड ने संक्रामक रोगों के लक्षणों का वर्गीकरण करते हुए कहा था कि हमें किसी बीमारी के लक्षणों को दबाने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनमें से कुछ लक्षण शरीर की सुरक्षा क्रियाएं भी हो सकते हैं। हमें शरीर के इन सुरक्षा प्रयासों के खिलाफ काम करने की बजाय उनमें मदद देनी चाहिए।
इसके लिए न सिर्फ जैव विकास के ज्ञान की ज़रूरत होती है, बल्कि वैकासिक विवेक की भी। डॉक्टरों को थोड़ा विनम्र होना चाहिए और यह समझना चाहिए कि चिकित्सकीय हस्तक्षेप शरीर में लाखों वर्षों में विकसित सुरक्षा व्यवस्था में एक छोटा-सा योगदान भर है।
बुखार क्यों आता है?
उदाहरण के तौर पर यह सवाल लीजिए कि संक्रमण होने पर बुखार क्यों आता है। बढ़ते क्रम में इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि सारे समतापी (गर्म खून वाले) जीवों में बुखार संक्रमण के विरुद्ध एक अनुकूली प्रतिक्रिया होती है, न कि शरीर के ताप-नियमन तंत्र की कोई गड़बड़ी। यानी बुखार का इलाज करना, दरअसल, शरीर द्वारा बीमारी से लड़ने के प्रयासों में बाधा पहुंचा सकता है, फायदे की बजाय नुकसान कर सकता है।
आश्यर्यजनक रूप से बुखार के फायदे-नुकसान को लेकर अध्ययन बहुत कम हुए हैं। इसके मद्देनज़र, विलियम और नेसे यह सलाह नहीं देते कि डॉक्टर बुखार का इलाज करने से बचें, बल्कि ज़्यादा अनुसंधान की सलाह देते हैं। उन्हें स्पष्ट है कि वे
“…सपने में भी यह सलाह देने की नहीं सोचेंगे कि लोग बुखार कम करने के लिए दवा न लें। यदि कई सारे अध्ययन निर्विवाद रूप से यह साबित कर देते हैं कि बुखार आम तौर पर संक्रमण से लड़ने में महत्वपूर्ण होता है, फिर भी वे ऐसी किसी नीति का समर्थन नहीं करेंगे कि बुखार को प्रोत्साहित किया जाए या उसे अपने कुदरती स्तर तक बढ़ने दिया जाए।“
एक वैकासिक नज़रिया बुखार जैसे किसी अनुकूलन की लागत और लाभ दोनों की ओर ध्यान खींचता है। यदि मनुष्य के शरीर को 40 डिग्री सेल्सियस (103 डिग्री फैरनहाइट) पर बनाए रखने का कोई नुकसान न होता, तो उसे सदा इसी तापमान पर बने रहना चाहिए ताकि संक्रमण की शुरुआत ही न हो पाए। लेकिन इतने हल्के बुखार की भी कीमत होती है: इस तापमान पर शरीर के पोषण भंडार 20 प्रतिशत अधिक तेज़ी से कम होते हैं और पुरुष में अस्थायी वंध्यता पैदा होती है। इससे अधिक बुखार हो तो सन्निपात की स्थिति आ सकती है या शायद दौरे पड़ने लगें और ऊतकों की स्थायी क्षति हो जाए।
यह भी समझने की ज़रूरत है कि नियमन की कोई भी प्रणाली सारी परिस्थितियों का अंदेशा नहीं कर सकती। हम अपेक्षा करेंगे कि संक्रमण से लड़ने के लिए तापमान एक यथेष्ट स्तर तक बढ़ेगा, लेकिन नियमन प्रणाली की सटीकता सीमित है, इसलिए कभी-कभी बुखार बहुत अधिक बढ़ जाएगा या कभी पर्याप्त न बढ़ पाए।
इसी तरह की दलील एनीमिया के बारे में भी दी जा सकती है। एनीमिया कई बार संक्रमण के खिलाफ शरीर की सुरक्षा के रूप में पैदा होता है – यह बैक्टीरिया के लिए निहायत ज़रूरी लौह तत्व की उपलब्धता को कम करने का एक तरीका है।
ज़ाहिर है, और अधिक अनुसंधान की ज़रूरत है, लेकिन हो सकता है कि चिकित्सा शोधकर्ताओं को बुखार या एनीमिया के अनुकूली महत्व और इस तरह के अनुकूलन की सीमाओं की छानबीन करने में रुचि न हो, जब तक कि वैकासिक जीव विज्ञान उनकी शिक्षा का हिस्सा न बने। जब वे जैव विकास का अध्ययन करेंगे और उसे समस्त जीव विज्ञान का एकीकरण करने वाले सूत्र के रूप में समझ पाएंगे, तब वे शरीर की विकसित सुरक्षा प्रणाली के प्रति अधिक सचेत होंगे और खुद को शरीर के बीमारी से लड़ने के प्रयासों का एक पार्टनर मानेंगे।
तो, लगता है कि प्राकृतिक वरण हमें बीमार करता है (या कम फिट बनाता है) क्योंकि यह रोगजनक जीवों के पक्ष में काम करता है और शायद एक स्तर की अस्थायी रुग्णता बीमारी से संघर्ष के लिए ज़रूरी हो सकती है। लिहाज़ा यह समझना बीमारी की हमारी समझ और उनसे लड़ने की हमारी काबिलियत को प्रभावित कर सकता है कि प्राकृतिक वरण रोगजनकों को उनके कामकाज में बेहतर बनाता है और बीमारी के कुछ लक्षण हमारे शरीर की सुरक्षा प्रणाली के परिणाम हो सकते हैं।
अगली किश्त में हम देखेंगे कि हमारी कई स्वास्थ्य समस्याएं जैव विकास से प्राप्त जैविकी और संस्कृति के बीच असामंजस्य का परिणाम होती हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.thewire.in/wp-content/uploads/2022/10/25171155/IMG_4892-1536×1152.jpeg
हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में दुनिया के आधे से अधिक समंदर पहले से अधिक ‘हरे’ हो गए हैं और इसका कारण संभवत: बढ़ता तापमान है।
समंदरों का रंग कई कारणों से बदल सकता है। जैसे जब पोषक तत्व गहराई से ऊपर आते हैं तो इनके पोषण से पादप-प्लवक (फाइटोप्लांकटन) फलते-फूलते हैं। इन फाइटोप्लांकटन में हरा रंजक क्लोरोफिल होता है। तो, सागरों की सतह से परावर्तित सूर्य के प्रकाश की तरंग दैर्घ्य का अध्ययन करके यह पता चल सकता कि वहां कितना क्लोरोफिल मौजूद है, जिससे यह पता लग सकता है कि वहां शैवाल और पादप-प्लवक जैसे कितने जीव मौजूद हैं। सिद्धांतत: तो जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्रों का पानी गर्म होगा तो वहां की जैविक उत्पादकता बढ़नी चाहिए।
लेकिन सतही पानी में क्लोरोफिल की मात्रा साल-दर-साल काफी अलग-अलग हो सकती है, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले और बड़े प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के कारण होने वाले बदलावों में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए ऐसा माना गया था कि समंदरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पहचानने के लिए लंबे समय का डैटा चाहिए होगा – कम से कम 40 साल का।
इसलिए साउथेम्प्टन स्थित नेशनल ओशेनोग्राफी सेंटर के महासागर और जलवायु विज्ञानी बी. बी. काइल और उनकी टीम ने नासा के एक्वा उपग्रह पर लगे सेंसर MODIS द्वारा जुटाए गए डैटा का विश्लेषण किया। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने समुद्र के रंग को ट्रैक करने के लिए सिर्फ हरे रंग की तरंग दैर्घ्य की बजाय परावर्तित होने वाले संपूर्ण स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया।
बीस साल के डैटा का विश्लेषण कर उन्होंने पाया कि महासागरीय सतह के 56 प्रतिशत हिस्से में उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं, और ये बदलाव ज़्यादातर भूमध्य रेखा से 40 अंश उत्तर और 40 अंश दक्षिण के बीच के समंदरों में दिखे हैं। पाया गया है कि समय के साथ महासागरों का पानी हरा होता जा रहा है। चूंकि इन क्षेत्रों में पूरे साल के दौरान मौसम बहुत अधिक नहीं बदलता इसलिए एक साल की अवधि में इस हिस्से के महासागरीय पानी का रंग भी बहुत अधिक नहीं बदलता। इसलिए इन क्षेत्रों में दीर्घकालिक सूक्ष्म परिवर्तन भी काफी स्पष्ट दिखते हैं।
क्या ये बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण हुए हैं, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने अपने अवलोकनों की तुलना एक ऐसे जलवायु मॉडल से की जो बताता है कि ग्रीनहाउस गैस बढ़ने पर समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में किस तरह के बदलाव आएंगे। तुलना में उन्होंने पाया कि मॉडल के नतीजे और उनके अवलोकन मेल खाते हैं।
अलबत्ता, वास्तविक कारण पता लगाना बाकी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवत: यह समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि का सीधा प्रभाव नहीं है बल्कि कुछ और है। क्योंकि जिन जगहों पर रंग परिवर्तन हुआ है ये वे क्षेत्र नहीं हैं जहां तापमान बढ़ा है। अनुमान है कि यह शायद समुद्र में पोषक तत्वों के वितरण से जुड़ा मामला है। जैसे-जैसे सतह का पानी गर्म होता है, समुद्र की ऊपरी परतें अधिक स्तरीकृत हो जाती हैं। इस कारण पोषक तत्वों का सतह तक पहुंचना कठिन हो जाता है। सतहों पर पोषक तत्वों की कमी के कारण बड़े पादप-प्लवक की तुलना में छोटे पादप-प्लवक बेहतर फलते-फूलते हैं। इस तरह पोषक तत्वों की मात्रा में परिवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन ला सकता है, जो पानी के रंग में परिवर्तन में झलकता है।
बहरहाल इन नतीजों से नासा के अगले उपग्रह PACE – प्लैंकटन, एरोसोल, क्लाउड, ओशिएन इकोलॉजी – से उम्मीदें बढ़ गई हैं, जो कई तरंग दैर्घ्यों पर समुद्र के रंग की निगरानी करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/original/magazine-assets/d41586-023-02262-9/d41586-023-02262-9_25597426.jpg
हिमालय की एक नदी है, जो भारत के उत्तराखंड राज्य के उत्तर-पूर्वी हिस्से में काली और नेपाल के सुदूर पश्चिमी प्रदेश में महाकाली के नाम से जानी जाती है। पिछले दिनों मैंने एक शोध कार्य के सम्बंध में इस क्षेत्र में काफी समय गुज़ारा। यहां नदी के नामकरण और उसकी भू-राजनीति पर बात कर रहा हूं।
नदियों का नामकरण सामान्यत: किसी पौराणिक कथा, धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक घटना, उसके स्रोत (जैसे ग्लेशियर, जंगल, झील आदि), उसकी विशेष भौगोलिक संरचना या किसी खास गुण के आधार पर होता है। जैसे, पिंडारी नदी और उसके स्रोत ग्लेशियर का नाम एक ही है। राजस्थान की बनास नदी ‘वन की आस’ (होप ऑफ दी फॉरेस्ट) कहलाती है। गौरीगंगा को उसका यह नाम उसके साफ पानी और सफेद पत्थरों के कारण मिला है।
कई बार एक ही नदी को अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। जब नदियां किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा को लांघकर एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करती हैं तब प्राय: नदियों के नाम बदल जाते हैं। जैसे, तिब्बत से निकलने वाली त्संग्पो नदी को चीनी लोग यारलुंग ज़न्ग्बो कहते हैं, भारत में इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है और फिर आगे बांग्लादेश में यही जमुना हो जाती है। इसी प्रकार से नर्मदा नदी को स्थानीय लोग रेवा भी कहते हैं।
आइए, अब बात करते हैं काली-महाकाली नदी की। काली नदी एवं इसकी सहयोगी नदियों का अपवाह तंत्र भारत–नेपाल-तिब्बत की उच्च हिमालयी चोटियों (7000 मी.) से लेकर उपोष्ण कटिबंधीय तराई-मैदानी भाग (200 मी.) तक फैला है।
इस नदी की शुरुआत भारत, नेपाल और तिब्बत की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के जोड़ बिंदु यानी ‘त्रि-संधि’ के पास से होती है। यह क्षेत्र तीनों देशों के लिए बेहद सामरिक महत्व का है। यह काली नदी उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जनपद के सुदूर उत्तर में शुरू होकर तराई में टनकपुर, बनबसा तक भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए बहती है। पूर्व में नदी का यह क्षेत्र नेपाल के ‘सुदूर पश्चिम प्रदेश’ के अंतर्गत आता है। नदी प्रवाह के उत्तर में लिपूलेख से आगे तकलाकोट, तिब्बत का क्षेत्र है। अब आते हैं इसके नामकरण पर। इसके नामकरण और प्रवाह तंत्र से जुड़े कुछ रोचक विवाद निम्नानुसार हैं।
नदी एक, नाम अनेक
काली नदी भारत-नेपाल की लगभग 230 कि.मी. अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए अपनी नदी घाटी (व्यास) को दोनों देशों में विभाजित करती है। माना जाता है कि महर्षि वेद व्यास ने यहां तपस्या की थी, इसलिए इस घाटी को यह नाम दिया गया। इस घाटी में भारत से लगे नदी के पश्चिमी किनारे पर इसे काली नदी और पूर्वी किनारे पर नेपाल में महाकाली नदी कहा जाता है। व्यास घाटी के बाद नदी किनारे पहला भारतीय नगर धारचूला आता है। नदी पार नेपाल में बसे नगर को भी दार्चुला कहा जाता है। आगे जौलजीबी में काली नदी के साथ गौरी नदी का संगम होता है। मध्य हिमालय में इस नदी घाटी को काली कुमाऊं का क्षेत्र कहा जाता है।
यह नदी जब हिमालय से निकल कर तराई क्षेत्र में आती है तो इसका नाम शारदा हो जाता है। तराई में टनकपुर और बनबसा बैराज के पास इसके पूर्वी (नेपाल) और पश्चिमी (भारत) दोनों किनारों से बिजली उत्पादन व सिंचाई के लिए नहरें निकाली गई हैं।
यहां तक काली-महाकाली नदी के कुछ और नाम भी हैं। जैसे, इसके बेहद तेज़ बहाव और खड़े ढाल के कारण इसे एक गुस्सैल नदी कहा जाता है। ग्लेशियर मोरैन (हिमोढ़) और जंगली कंटीली झाड़ियों को बहाकर लाने के कारण स्थानीय लोग इसे नचिती (कांटों भरी), कव्या (गुंजी के पास), कुरूप, अपवित्र और अशुभ नदी भी कहते हैं। स्कंदपुराण के मानसखंड में इसका ज़िक्र श्यामा नदी के रूप में हुआ है।
आगे यह नदी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर पहले पूर्ण रूप से नेपाल के महेंद्र नगर में महाकाली के नाम से बहती है। फिर थोड़ी दूरी तय कर दुबारा सीमा लांघकर भारत के उत्तरप्रदेश में प्रवेश करती है। शारदा नाम से भारत में बहते हुए यह नदी बहराइच के पास नेपाल से ही आने वाली घाघरा (कर्णाली) नदी से संगम करती है। संगम के बाद यह नदी घाघरा के रूप में आगे बढ़ती है।
आगे घाघरा जब अयोध्या पहुंचती है तो सरयू के नाम से जानी जाती है। अंत में बिहार के छपरा शहर के पास सरयू (अर्थात काली और घाघरा) गंगा में समा जाती है।
असली काली कौन है?
सन 1814–16 में भारत में राज कर रहे अंग्रेज़ों और नेपाल के गोरखाओं के बीच एक युद्ध हुआ था। फिर मार्च 1816 में गोरखा शासन और औपनिवेशिक सत्ता (ईस्ट इंडिया कंपनी) के मध्य सिगौली (बिहार) में एक संधि हुई। इस संधि में कई अन्य निर्णयों के साथ ही नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच की सीमा ‘काली-महाकाली’ नदी को निर्धारित किया गया। संधि करने वाले दोनों ही पक्ष इस नदी के सुदूर उद्गम और शुरुआती प्रवाह तंत्र से अनजान थे। संधि दस्तावेज़ों में भी नदी का कोई मानचित्र या स्पष्ट विवरण दर्ज नहीं किया गया था।
चूंकि संधि में नदी उद्गम और शुरुआती प्रवाह के सम्बंध में कोई पुख्ता जानकारी नहीं थी, इसलिए मुख्य धारा को लेकर विवाद होना तय था और बाद के वर्षों में यह आशंका सच हुई भी। हाल के कुछ वर्षों में असली काली नदी को लेकर यह विवाद बार-बार उठाया गया है।
भारत का मानना है कि कालापानी से गुंजी आने वाली पूर्वी धारा ही सिगौली संधि में वर्णित वास्तविक काली नदी है। साथ ही पश्चिमी धारा का नाम कुटी यंग्ती बताया जाता है। यह पश्चिम में स्थित लिम्पिया धुरा से शुरू होकर ज्यौलिंकंग, निकुर्च, कुटी, रौंगकोंग, नाबी, नपलच्यों और गुंजी होते हुए मनेला तक पहुंचती है। इस प्रकार सीमा निर्धारण के हिसाब से काली नदी के पश्चिम में स्थित इन सभी क्षेत्रों पर भारत का अधिकार है।
मगर नेपाल का मानना है कि चूंकि कुटी यंग्ती लंबाई और जल प्रवाह क्षमता दोनों ही तरह से काली से बड़ी है अत: असली काली नदी वही है। इसी कारण उपरोक्त लिम्पिया धुरा-लिपूलेख-गुंजी क्षेत्र नेपाल के हिस्से होना चाहिए। यह विवादित क्षेत्र 335 वर्ग कि.मी. का है। नक्शा क्रमांक 2 में इस विवादित क्षेत्र को दर्शाया गया है।
भारत का तर्क है कि भले ही कुटी यंग्ती अपेक्षाकृत रूप से लंबी और जल प्रवाह क्षमता में बड़ी है मगर वर्षों से धार्मिक आस्था, विभिन्न मिथक और लोगों का विश्वास काली नदी की धारा के साथ जुड़ा है। सदियों से चले आ रहे तिब्बत व्यापार और कैलाश-मानसरोवर तीर्थ यात्रा में यही काली नदी एक महत्वपूर्ण मार्ग उपलब्ध करवाती है। कुटी यंग्ती की अपेक्षा यह ज़्यादा सामरिक महत्व भी रखती है। इसलिए यही मुख्य काली नदी है।
आखिर दोनों में से किस धारा को असली काली नदी माना जाए: बड़ी और लंबी कुटी यंग्ती को या धार्मिक और विश्वास रूप से ज़्यादा विख्यात अपेक्षाकृत छोटी काली नदी को?
नक्शों की राजनीति
नवंबर 2019 में भारत ने जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख की स्थिति में बदलाव के बाद अपना नवीन आधिकारिक मानचित्र प्रकाशित किया। इस नए मानचित्र में उपरोक्त विवादस्पद क्षेत्र को पहले की ही तरह भारत का हिस्सा दिखाया गया था। फिर भारत द्वारा 8 मई 2020 को इस घाटी में सेना के लिए बीआरओ द्वारा सड़क निर्माण का उद्घाटन किया गया।
नेपाल सरकार ने दोनों ही घटनाओं पर स्पष्ट आपत्ति ज़ाहिर की। आपत्ति के साथ ही 20 मई, 2020 में नेपाल का भी एक नया आधिकारिक मानचित्र प्रकाशित किया गया, जिसे वहां की संसद ने 10 जून 2020 को मान्यता दे दी। नेपाल के इस नवीनतम मानचित्र में इस विवादित क्षेत्र को नेपाल का हिस्सा दर्शाया गया है। अर्थात कुटी यंग्ती और काली नदी के बीच का यह क्षेत्र दोनों देशों के मानचित्रों में अपना दिखाया गया है।
उत्तराखंड सरकार के पूर्व मुख्य सचिव व मूलत: व्यास घाटी के वासी नृपसिंह नपलच्याल का कहना है कि कुटी यंग्ती भारत की आंतरिक नदी है और लिपूलेख तथा लिम्पिया धूरा सदियों से तिब्बत (अब चीन) से हमारी निर्विवाद सीमा को बनाते हैं। तिब्बत का यह पारंपरिक मार्ग है। यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि कुटी ही काली है तब भी औपनिवेशिक शासक कालापानी–लिपूलेख को ही सीमा बनाते। यह तिब्बत व्यापार, तीर्थयात्रा और सदियों से प्रचलित मार्ग का तकाज़ा था। कुटी को कभी भी किसी नक्शे में सीमा की तरह नहीं दिखाया गया था। इस तरफ सिर्फ नक्शों के आधार पर बात करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। अगर सच सिर्फ नक्शों में छिपा होता तो दुनिया में कहीं सीमा विवाद नहीं होता।
इस प्रकार इस विवादित क्षेत्र के कुटी, नाबी और गुंजी गांव में रहने वाले स्थानीय ‘रं’ समुदाय के लोग असमंजस की स्थिति में हैं। उनके गांव भारत और नेपाल दोनों मानचित्रों में हैं, अत: कहीं किसी रोज़ उनकी नागरिकता तो नहीं बदल दी जाएगी? या यह केवल एक नक्शों की राजनीति भर है?
जल धारा नदी कब बनती है?
काली नदी से जुड़ा एक और रोचक किस्सा है उसका धारा से नदी बनना। हिमालय में शुरू होने वाली नदियां किसी एक बिंदु या स्रोत से उत्पन्न नहीं होती हैं। अपितु उनकी शुरुआत कई छोटी-बड़ी जल धाराओं के मेल से होती है। ये कई छोटी-बड़ी धाराएं मिलकर एक नदी का प्रवाह तंत्र विकसित करती हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि आप इन सम्मिलित धाराओं के मेल को नदी का नाम कब और किस स्थान पर देते हैं। खास कर तब जब वह नदी किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण कर रही हो।
काली नदी को लेकर भी एक ऐसा ही विवाद कालापानी क्षेत्र में है। एक बुद्धिजीवी वर्ग का यह मानना है कि यदि भारत के तर्क अनुसार वर्तमान काली को ही वास्तविक काली नदी मान लिया जाए तो उसकी उत्पत्ति लिपूलेख ओम पर्वत के पास होती है। क्योंकि नदी की शुरुआती जलधाराएं वहीं से बनती हैं। इसलिए इन धाराओं के पूर्व का क्षेत्र नेपाल का और पश्चिमी क्षेत्र भारत के अधिकार में होना चाहिए, मगर ऐसा नहीं है। क्योंकि, भारत काली नदी की शुरुआत कालापानी से मानता है न कि लिपूलेख से। भारत वहां से आने वाली शुरुआती धारा को लिपूगाड़ कहता है। धार्मिक कारणों से अभी इसे काली नदी कहलाने का दर्जा प्राप्त नहीं है। लिपूगाड़, लिपूलेख और ओम पर्वत के आसपास के ग्लेशियरों का पानी लेकर आगे कालापानी स्थान पर पहुंचाती है। यहां लिपूगाड़ के दाएं किनारे पर कालीमाता का एक मंदिर स्थित है। मंदिर परिसर में एक ऐतिहासिक भू-जल स्रोत है। यहां इस भू-जल स्रोत से बहते पानी की एक छोटी जलधारा लिपूगाड़ में मिलती है। इस धारा और लिपूगाड़ के संगम के बाद इस प्रवाह को काली नदी नाम दिया जाता है। अर्थात कालापानी में काली मंदिर के इस भू-जल स्रोत को ही काली नदी का परम्परागत और आधिकारिक उद्गम स्थल माना गया है। हालांकि नदी प्रवाह का ज़्यादातर पानी पीछे लिपूलेख की तरफ से आ रहा है।
यह एक रोचक तथ्य है कि मंदिर के भू-जल स्रोत का थोड़ा-सा पानी मिलते ही लिपूगाड़, काली नदी में परिवर्तित हो जाती है। वैसे यह मामला भी भौगोलिक सिद्धांत से ज़्यादा धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक और सामरिक महत्व पर आधारित है। आगे इसी स्थान (कालापानी) से लेकर टनकपुर-बनबसा तक यह नदी भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानी जाती है।
वर्ष 1816 की सिगौली संधि के तहत ही गंडक नदी (नेपाल में नारायणी) को भी बिहार में भारत–नेपाल के बीच की अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाया गया था। वर्तमान में यह सुस्ता–चकधावा का क्षेत्र भी एक विवाद का विषय है। सीमा निर्धारण के समय सुस्ता नदी के दाएं तरफ वाला इलाका नेपाल में था। नदी द्वारा अपना प्रवाह मार्ग बदलने से अब यह नदी के बाएं तरफ आ गया है। इधर भारत का चकधावा (बिहार) गांव है। ऐसे ही स्थानीय लोगो के खेत भारत नेपाल के मध्य इधर-उधर होते रहे हैं।
देश के भीतर भी विभिन्न राज्यों के मध्य ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। सवाल यह है कि नदियों द्वारा दो देशों या राज्यों की सीमा निर्धारित करना कहां तक उचित है जबकि नदियों द्वारा अपना प्रवाह मार्ग बदलने से सीमाएं भी आगे–पीछे होने लगती हैं और दोनों क्षेत्रों के मध्य विवाद उत्पन्न होते हैं।
लेकिन समस्या मात्र भूगोल की नहीं है। दोनों तरफ के स्थानीय ‘रं’ समुदाय के लोगों में इन तमाम घटनाओं पर मिले-जुले विचार हैं। हालांकि सदियों से, कितने ही आक्रान्ता शासक, अंग्रेज़ अधिकारी, राजतंत्र के राजा और लोकतंत्र के प्रतिनिधि आए और गए मगर दोनों तरफ के समुदायों के बीच विश्वास और शांति के सम्बंध बने रहे।
यदि यहां कुछ समय के लिए देशों की सीमाओं को भुला दिया जाए तो नदी के पूर्व और पश्चिम किनारों की बसाहटों में कोई भिन्नता नहीं मिलेगी। कालांतर में लोग खेतों की बुवाई और जानवरों की चराई के लिए आते–जाते रहे हैं। हमेशा ही दोनों तरफ के समुदायों में अच्छे रिश्ते और रास्ते कायम रहे है। यहां स्थित दर्जन भर झूला पुल दो भू-भागों के साथ-साथ ही दोनों तरफ के समुदायों के दिलों, समाज और संस्कृति को जोड़ने का काम भी करते रहे हैं।
वर्तमान में नेपाल के छांगरू और तिंकर गांव के स्थानीय लोग, काली–तिंकर नदी संगम के पास स्थित लकड़ी के सीतापुल द्वारा नदी को पार कर भारतीय सड़क के माध्यम से ही इन ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों से नेपाल के अन्य शहरों में आते-जाते हैं।
आज भी इस घाटी में भारत–नेपाल सीमा के दोनों तरफ परस्पर व्यापार और रोटी–बेटी के गहरे सम्बंध बने हुए हैं। स्थानीय लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने, शादी करने, मंदिरों में पूजा करने, जड़ी-बूटी एकत्र करने, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और रोज़गार आदि के लिए आसानी से इधर-उधर आते-जाते हैं। कुल मिलाकर इन्हें देश की सीमाएं बांटती है, और भूगोल एक करता है। इस नदी ने ही सदियों पुरानी ‘रं’ सभ्यता को आज भी बचाए रखा है।
इसलिए दोनों देशों को इस ‘नक्शेबाज़ी’ की बजाय खुल कर संवाद करना चाहिए। दोनों तरफ के स्थानीय समुदायों को भी इस संवाद प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहिए। बड़ा देश होने के नाते भारत, नेपाल की स्वायत्तता और संप्रभुता का सम्मान करते हुए इस बातचीत की शुरुआत नए सिरे से कर सकता है, इससे पहले कि यह कोई हिंसक जटिल समस्या बन जाए।(स्रोत फीचर्स)
लेख में प्रयुक्त नक्शे स्वयं लेखक द्वारा बनाए गए हैं।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/d/dd/Sharda_or_Mahakali_River_AJTJ_P1020802.jpg
हमारे ज़माने में गांवों में छोटे-छोटे घर होते थे और हम अपने पड़ोसियों को जानते थे। महिलाएं मिलनसार थीं और बच्चे एक साथ खेलते थे। लेकिन जब हम नौकरी के लिए शहर आ गए, और आबादी भी बढ़ने लगी तो हम अपार्टमेंट (फ्लैट्स) में रहे। ये अपार्टमेंट आम तौर पर दो-चार मंज़िला से बड़े नहीं होते थे, जिनमें एक हॉल, रसोई और बाथरूम होते थे। लेकिन तब भी अधिकांश मंज़िलों पर रहने वाले लोगों और उनके परिवारों के साथ हमारे व्यवहार थे, और हम स्थानीय सब्ज़ी वालों और किरानियों को भी जानते थे। लेकिन अफसोस कि शहरी आबादी बहुत अधिक बढ़ने के कारण लोग ऊंची-ऊंची इमारतों में रहने लगे, कंप्यूटर पर घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) करने लगे, या काम पर जाने से मिलना-जुलना और साथ उठना-बैठना धीरे-धीरे खत्म हो गया है। बहुत हुआ तो हम अपनी मंज़िल पर रहने वाले परिवारों को जानते हैं। और हममें से अधिकांश लोग अपनी दैनिक ज़रूरतों की चीज़ें ज़ोमैटो और अमेज़ॉन जैसे ऐप्स से मंगाना पसंद करने लगे हैं!
बहुत अधिक आईटी कंपनियां और दवा कंपनियां होने से न सिर्फ मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे महानगरों में बल्कि मंझोले (टियर-टू) शहरों में भी 45 से 50 मंज़िला इमारतें बनने लगी हैं। इनमें रहने वाले लोग अपनी ही मंज़िल पर रहने वाले पड़ोसियों को भी नहीं जानते हैं। पहले के ज़माने की तुलना में अब पड़ोसियों के बीच मेलजोल बहुत कम हो गए हैं।
ऊंची इमारतों द्वारा जीवंतता खत्म करने के सात कारण (7 reasons why high-rises kill livability) शीर्षक से स्मार्टसिटीज़डाइव में प्रकाशित एक लेख में इस तरह की जीवनशैली के घाटे के बारे में बताया गया है। मैं आगे उसका सारांश प्रस्तुत कर रहा हूं।
ऊंची इमारतें लोगों को सड़कों से दूर करती हैं। इनके निवासी पास के सब्ज़ी वालों और किराने वालों को नहीं जानते हैं, उन्हें सड़कों पर होने वाली हलचल और लोगों का जोश देखने को नहीं मिलता है; उन्हें इनके बारे में सिर्फ अखबारों और मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है। समाज के लिए ज़रूरी आपसी संपर्क खत्म हो गया है। लोग और समाज ही हैं जो जीवन को हसीन या उल्लासपूर्ण बनाते हैं। ऊंची इमारतों में रहने वाले अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं, बहुत हद तक अंतरिक्ष यात्रियों की तरह!
उच्च कार्बन प्रभाव
45 से 60 मंजिलों वाली ऊंची इमारतें ‘संभ्रातिकरण’ और असमानता को जन्म देती हैं, वहीं छोटी/मध्यम ऊंचाई की इमारतें लचीलापन और वहनीयता देती हैं। मेकिंग सिटीज़ लिवेबल इंटरनेशनल काउंसिल के डॉ. एस. एच. सी. लेनार्ड बताते हैं कि रियल एस्टेट डेवलपर्स आलीशान फ्लेट्स और अपार्टमेंट वाली ऊंची इमारतें बनाना पसंद करते हैं, जो उन्हें अधिक मुनाफा देती हैं। दूसरी ओर, चार-पांच मंज़िलों वाली छोटी इमारतें अधिक मानवीय होती हैं, और समाज और उसके बदलते लचीलेपन में गुंथी होती हैं। लेनार्ड बताते हैं कि फ्रांस के पेरिस शहर में इमारतें छह मंज़िल या 37 मीटर से अधिक ऊंची नहीं होती हैं; ये लोगों को हमेशा सड़कों से जोड़े रखती हैं और सड़क किनारे के दुकानदारों को सहारा देती हैं। ऊंची इमारतों की जीवनशैली घनी आबादी और लोगों की उतनी ही संख्या वाली छोटी इमारतों की जीवनशैली की तुलना में अपने पूरे जीवनकाल में ग्रीनहाउस प्रभाव अधिक पैदा करती हैं।
इस कड़ी में, 1971 में कनाडा जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित अपने पेपर में मनोवैज्ञानिक डॉ. डी. कैप्पन ने बताया था कि ऊंची इमारतें अपने रहवासियों को सड़कों पर चहलकदमी और व्यायाम करने के अवसरों और बच्चों को अपने आस-पड़ोस के दोस्तों के साथ खेलने के आनंद से वंचित कर देती हैं। वास्तव में, ऊंची इमारतें वहां रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं हैं। तो, आइए हम एम्पायर स्टेट बिल्डिंग या बुर्ज खलीफा बनाने की बजाय पेरिस जैसे घर बनाएं!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/f0qwlt/article67057572.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_PO21_Landscape_mumba_2_1_KQA62FIA.jpg
बीपीए यानी बिसफिनॉल-ए एक ऐसा रसायन है जिसका उपयोग प्लास्टिक को लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए किया जाता है। बिना रासायनिक परीक्षण किए इसका पता नहीं लगाया जा सकता है। यह खाने-पीने, सांस या छूने के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश कर सकता है। वैसे तो शरीर में प्रवेश करने के कुछ ही घंटों में बीपीए विघटित होकर शरीर से बाहर निकल जाता है लेकिन लंबे समय तक इसके संपर्क में रहने से यह हानिकारक हो सकता है।
बीपीए को हार्मोनल गड़बड़ियां पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है और यह स्तन और अंडाशय के कैंसर के अलावा प्रतिरक्षा, थायरॉयड और चयापचय सम्बंधी दिक्कतों के लिए भी ज़िम्मेदार है। हाल ही में कैलिफोर्निया स्थित सेंटर फॉर एनवॉयर्नमेंटल हेल्थ (सीईएच) ने सैकड़ों ब्रांड के वस्त्रों में बीपीए की हानिकारक मात्रा पाई है। कपड़ा कंपनियों ने सीईएच के अध्ययन को गलत बताया है। रासायनिक उद्योग और अन्य निर्माता हमेशा से बीपीए को गैर-हानिकारक बताते आए हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में बीपीए और हार्मोनल अवरोधकों के बारे में जागरूकता बढ़ने के बाद भी यह समस्या बनी हुई है।
बीपीए की पहचान पहली बार 1891 में हुई थी लेकिन प्लास्टिक उद्योग में इसके उपयोग के बाद से यह लोकप्रिय हुआ। 2000 के दशक तक पानी की बोतलों से लेकर डेंटल सीमेंट, खाद्य पदार्थों के लेबल और लगभग हर चीज़ में बीपीए पाया जाने लगा। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) द्वारा 2003-04 में किए गए एक सर्वेक्षण में छह साल और उससे अधिक उम्र के अमरीकियों से एकत्र किए गए 2517 मूत्र नमूनों में से 93 प्रतिशत में बीपीए का अधिक स्तर पाया गया था।
अधिकांश बीपीए पैकेजिंग और प्लास्टिक कंटेनरों से खाद्य पदार्थों में मिलकर शरीर में प्रवेश करता है। हमारे शरीर का अधिकांश बीपीए यकृत द्वारा चयापचयित होता है और मूत्र के माध्यम से बाहर निकल जाता है। हालांकि जो बीपीए शरीर में रह जाता है वह एक हार्मोनल अवरोधक के रूप में कार्य करता है। यह हार्मोन्स और अन्य रसायनों के माध्यम से संकेत भेजने के लिए उपयोग की जाने वाली नाज़ुक आणविक प्रक्रियाओं को बदल देता है। इसका सबसे अधिक जोखिम भ्रूणावस्था और किशोरावस्था के दौरान है लेकिन दिक्कत यह है कि मनुष्यों में ऐसे अध्ययन नैतिकता के मापदंडों के चलते करना संभव नहीं है।
विभिन्न एस्ट्रोजेन हार्मोन्स के साथ आणविक समानता के कारण बीपीए समस्याएं उत्पन्न करता है। 1930 के दशक में चूहों पर किए गए अध्ययन से पता चला था कि बीपीए सेक्स हार्मोन एस्ट्रोन के समान महिला प्रजनन प्रणाली को उत्तेजित कर सकता है। इसके बाद के अध्ययनों से पता चलता है कि बीपीए कोशिकाओं के एस्ट्रोजन रिसेप्टर्स से जुड़ जाता है – तब यह एस्ट्रोजेन के प्रभाव को बढ़ा भी सकता है और इस हार्मोन की क्रिया को अवरुद्ध भी कर सकता है। थायरॉइड हार्मोन के रिसेप्टर्स से जुड़ने पर भी यह ऐसा ही प्रभाव दिखाता है। इससे बीपीए इन हार्मोन्स का प्रभाव बढ़ा भी सकता है और कम भी कर सकता है। देखा गया है कि बीपीए की थोड़ी मात्रा त्वचा द्वारा भी अवशोषित होती है।
बीपीए से नुकसान के हज़ारों अध्ययनों के बावजूद अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी और सीडीसी अभी भी बीपीए का नियमन नहीं करती हैं। दूसरी ओर, युरोप के खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण ने सितंबर 2018 में शिशुओं और 3 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए उपयोग की जाने वाली प्लास्टिक बोतलों और बर्तनों में बीपीए पर प्रतिबंध लगा दिया है।
बीपीए से होने वाली हानि का निर्धारण करना एक बड़ी चुनौती है। वैज्ञानिक आम तौर पर गंभीर असर पर ध्यान देते आए हैं जो संपर्क के तुरंत बाद दिखते हैं। लेकिन बीपीए और अन्य हार्मोनल अवरोधकों का प्रभाव वर्षों या दशकों बाद देखने को मिलता है। इसके अलावा, वे कई सामान्य तकलीफों के जोखिम को बढ़ाते हैं। इस तरह स्वास्थ्य पर बीपीए के प्रभाव को निर्धारित करना कठिन हो जाता है।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि सरकारी नियमन के अभाव में उपभोक्ताओं को अपनी सुरक्षा स्वयं करना चाहिए। बीपीए की व्यापक उपस्थिति को देखते हुए इससे पूरी तरह बचना तो लगभग असंभव है। फिर भी, बीपीए का जोखिम कम करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं:
1. प्लास्टिक से बचें। पानी के लिए प्लास्टिक की बोतल के बजाय कांच और बिना अस्तर वाले धातु के विकल्प अपनाए जा सकते हैं।
2. माइक्रोवेव में खाना गर्म करने के लिए प्लास्टिक के कंटेनरों का उपयोग न करें क्योंकि यदि आप प्लास्टिक अपनाते हैं तो माइक्रोवेव में इसके इस्तेमाल से बीपीए खाद्य सामग्री में मिल सकता है।
3. व्यायाम के बाद कपड़े बदलें। विशेष रूप से गर्म मौसम में व्यायाम करते समय पॉलिएस्टर/स्पैन्डेक्स मिश्रित शर्ट, शॉर्ट्स और अन्य वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। पसीने वाले व्यायाम वस्त्रों को जितनी जल्दी हो सके बदलने की सलाह दी जाती है ताकि त्वचा के संपर्क में रहने की अवधि को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/2a173614-b829-45f4-b375-291590fedfcd/GettyImages-153840687_16x9.jpg?w=1200
प्रयोगशाला में विकसित मांस एक बार फिर चर्चा में है। इस क्षेत्र में पहली सफलता 2013 में मिली थी, जब मास्ट्रिक्ट युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर मार्क पोस्ट ने पहला कल्चर्ड बीफ बर्गर तैयार किया था, जिसकी कीमत 3,25,000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 2.5 करोड़ रुपए!) थी। वर्तमान में विश्व भर की लगभग 150 से अधिक कंपनियां कल्चर्ड मांस (बीफ, चिकन, पोर्क और मछली), दूध और चमड़े सहित कई अन्य उत्पादों के मैदान में उतर चुकी हैं।
अमेरिकी नियामक एजेंसियों ने फिलहाल सिर्फ बर्कले स्थित अपसाइड फूड्स और कैलिफोर्निया स्थित गुड मीट कंपनियों को प्रयोगशाला विकसित मुर्गे का मांस (चिकन) बाज़ार में बेचने की अनुमति दी है। उम्मीद है कि इस साल अमेरिकी रेस्टॉरेंट्स में कल्चर्ड मांस परोसा जाने लगेगा। एक ओर उत्पादन संयंत्रों का निर्माण और अरबों का निवेश किया जा रहा है, वहीं कोशिका संवर्धन तकनीकें भी काफी तेज़ी से विकसित हो रही हैं।
जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से कल्चर्ड मांस को एक विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि पशुपालन में बहुत भूमि लगती है, और यह वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में लगभग 15 प्रतिशत योगदान देता है। इसके अलावा लाल मांस के सेवन से हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर वगैरह का जोखिम रहता है। मुर्गी फार्म से एवियन इन्फ्लुएंज़ा का और एंटीबाोटिक प्रतिरोध बढ़ने का खतरा भी रहता है।
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि बढ़ती वैश्विक आबादी के कारण 2031 तक मांस की वैश्विक मांग 15 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है। ज़ाहिर है इससे वैश्विक जलवायु भी प्रभावित होगी। इससे निपटने के लिए विभिन्न स्तर पर वैकल्पिक प्रोटीन स्रोतों को विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें मांस को प्राथमिकता दी गई है।
अलबत्ता, कल्चर्ड मांस उत्पादन की अपनी चुनौतियां हैं। कल्चर्ड मांस के उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा उपयोग, टेक्नॉलॉजी के विकास और पारंपरिक मांस की तुलना में इसका सैकड़ों गुना महंगा होना है। एक अनुमान के अनुसार 30 करोड़ टन की वार्षिक मांग के 10 प्रतिशत को भी कल्चर्ड मांस से पूरा करने के लिए हज़ारों संयंत्र लगाने होंगे। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक कल्चर्ड मांस स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण के लिए हानिकारक होगा।
कल्चर्ड मांस बनाने के लिए जानवर के ऊतकों को लिया जाता है। इसके बाद कोशिकाओं को पोषक माध्यम में रखा जाता है जिससे कोशिकाएं में संख्या-वृद्धि करती हैं। फिर इनमें से मांसपेशीय कोशिकाओं को अलग किया जाता है और इन्हें तंतुओं का रूप दिया जाता है। कुछ उत्पादों में प्राणि कोशिकाओं के साथ पादप कोशिकाओं का भी उपयोग किया जाता है जबकि कुछ कंपनियां मांस की जटिल संरचनाएं बनाने का प्रयास कर रही हैं। इन पेचीदगियों से यह तो ज़ाहिर है अंतिम उत्पाद काफी महंगा होगा।
अनुमान है कि आदर्श परिस्थितियों में उत्पादन लागत लगभग 6 डॉलर (480 रुपए) प्रति किलोग्राम हो सकती है। पारंपरिक मांस के लिए लागत 2 डॉलर (160 रुपए) प्रति किलोग्राम होती है। पूर्व में हुए अध्ययन कल्चर्ड मांस की लागत 37 डॉलर (लगभग 3000 रुपए) प्रति किलोग्राम आंकते हैं।
इससे निपटने के लिए मांस निर्माण प्रक्रिया में काफी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मुख्यत: विभिन्न प्रकार की प्रारंभिक कोशिकाओं का उपयोग किया जा रहा है जो अलग-अलग गति या घनत्व से बढ़ सकती हैं और विभिन्न बनावट या पोषण प्रोफाइल का उत्पादन करने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए नीदरलैंड की एक कंपनी गाय से लिए गए ऊतकों का उपयोग कर रही है जिसकी कोशिकाएं मात्र 30 से 50 बार विभाजित हो सकती हैं। सिद्धांतत: तो एक बायोप्सी से सैकड़ों-हज़ारों किलोग्राम मांस का निर्माण किया जा सकता है लेकिन निरंतर नई कोशिकाओं की आपूर्ति ज़रूरी होगी। यह भी देखा जा रहा है कि किस तरह छोटे अणुओं का मिश्रण मांसपेशी स्टेम कोशिकाओं को बढ़ने और साथ ही साथ विभिन्न परिपक्व मांसपेशी बनने में मदद कर सकता है।
एक अन्य विकल्प ‘अमर’ कोशिका वंश का उपयोग है जिसमें सैद्धांतिक रूप से एक ही बायोप्सी से सभी के लिए भोजन बनाया जा सकता है। इन्हें या तो आनुवंशिक संशोधन के माध्यम से तैयार किया जा सकता है या संयोगवश हुए उत्परिवर्तन के कारण बनी ‘अमर’ कोशिका हाथ लग जाए। एक अध्ययन के अनुसार ऐसी मांसपेशीय कोशिकाएं तेज़ी से और काफी आसानी से बढ़ती हैं और इन्हें वसा जैसी कोशिकाओं में परिवर्तित भी किया जा सकता है। उत्पादन लागत भी कम हो सकती है।
हालांकि, ऐसी उत्परिवर्तित ‘अमर’ कोशिकाओं में ट्यूमर की संभावना ज़्यादा होती है जिसके चलते इनकी सुरक्षा पर सवाल उठे हैं। अलबत्ता, खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार ऐसी कोशिकाओं के पैकेजिंग, पकाने और पाचन प्रक्रिया में जीवित रहने और नुकसान पहुंचाने की संभावना नगण्य है।
इन सबमें सबसे महंगी प्रक्रिया कोशिकाओं के लिए आवश्यक ‘भोजन’ तैयार करना है। यह अमीनो एसिड, प्रोटीन, शर्करा, लवण और विटामिन का एक शोरबा होता है। प्रयोगशाला में कोशिका वंशों के लिए सबसे बेहतरीन भोजन मवेशियों का फीटल बोवाइन सीरम है लेकिन पशु-कल्याण और अन्य मुद्दों के कारण इसका उपयोग संभव नहीं है। इसको कृत्रिम रूप से तैयार करने की लागत लाखों-करोड़ों रुपए है। शोधकर्ता इसके सस्ते वनस्पति-आधारित विकल्प तलाशने के प्रयास कर रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि लाल मांस से होने वाली कई हानिकारक स्वास्थ्य समस्याएं कल्चर्ड मांस में भी बनी रहेंगी। एफएओ को अन्य खाद्य पदार्थों के समान कल्चर्ड मांस के लिए भी हानिकारक बैक्टीरिया, एलर्जी, एंटीबायोटिक अवशेष, वृद्धि हार्मोन और अन्य कारकों की सीमा निर्धारित करना होगी।
पर्यावरण की दृष्टि से, प्रयोगशाला में मांस तैयार करने में पानी और भूमि का उपयोग कम होगा। लेकिन ऊर्जा की खपत एक गंभीर मुद्दा है। 2030 तक कल्चर्ड मांस के निर्माण में प्रति किलोग्राम लगभग 60 प्रतिशत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी। यदि यह ऊर्जा नवीकरणीय स्रोतों से आती है तो कल्चर्ड मांस का कार्बन पदचिन्ह पारंपरिक मांस की तुलना में कम हो सकता है।
एक सवाल कल्चर्ड मांस की स्वीकृति का है। सर्वेक्षणों में कल्चर्ड मांस खाने की इच्छा में भिन्नता नज़र आती है। चीन में मांस की बढ़ती मांग के चलते इसे अपनाए जाने की संभावना ज़्यादा है। दूसरी ओर, पश्चिमी देशों में कल्चर्ड मांस की अधिक मांग शाकाहारियों के बीच होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://hips.hearstapps.com/hmg-prod/images/fake-steak-index-1-1619538953.jpg
आम तौर पर अधिक वज़न (ओवरवेट) होना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। यहां तक कि चिकित्सक भी स्वस्थ रहने के लिए वज़न कम करने की सलाह देते हैं। लेकिन एक हालिया अध्ययन में ओवरवेट के रूप में वर्गीकृत लोगों की मृत्यु दर तथाकथित ‘आदर्श वज़न’ वाले लोगों की तुलना में थोड़ी कम पाई गई है। इन लोगों का वज़न अधिक ज़रूर था लेकिन ये मोटे (ओबेस) नहीं थे।
इस बात को लेकर तो कोई विवाद नहीं है कि वज़न बहुत अधिक हो तो सेहत के लिए हानिकारक होता है। लेकिन उपरोक्त अध्ययन से लगता है कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि स्वास्थ्य जोखिम कितने वज़न के बाद शुरू होते हैं।
आदर्श वज़न पता करने के लिए बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) देखा जाता है। बीएमआई की गणना वज़न (किलोग्राम में) को ऊंचाई (मीटर में) के वर्ग से भाग देकर की जाती है। अधिकांश देशों में 18.5 से 24.9 के बीच के बीएमआई को स्वस्थ माना जाता है; 25 से 29.9 को ओवरवेट और 30 से अधिक को मोटापा ग्रसित की श्रेणी में रखा जाता है। 1997 में आई विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में इनके उल्लेख के बाद तो इन सीमाओं को लगभग पूरी दुनिया में मान्यता मिल गई।
फिर कुछ अध्ययनों से पता चला था कि 25 से ऊपर बीएमआई वाले लोगों की मृत्यु दर दुबले-पतले लोगों से कम है। लेकिन ये अध्ययन काफी पुराने हैं जब लोग आज की तुलना में दुबले हुआ करते थे। इन अध्ययनों के सहभागियों में जनजातीय विविधता भी नहीं थी।
इस मुद्दे को समझने के लिए रटगर्स इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के आयुष विसारिया और उनके सहयोगियों ने 1999 में शुरू हुए एक अध्ययन का विश्लेषण किया जिसमें 20 वर्ष तक 5 लाख जनजातीय रूप से विविध अमेरिकी वयस्कों के जीवन को ट्रैक किया गया था। इन लोगों का वज़न और लंबाई ज्ञात थे। इस विश्लेषण में 22.5 से 24.9 बीएमआई के स्वस्थ बीएमआई वाले लोगों की तुलना में 25 से 27.4 बीएमआई वाले लोगों में मृत्यु का जोखिम 5 प्रतिशत कम पाया गया। इसके अलावा 27.5 से 29.9 बीएमआई वाले लोगों में मृत्यु का जोखिम 7 प्रतिशत कम पाया गया। ये निष्कर्ष वर्तमान बीएमआई की सीमाओं से काफी अलग प्रतीत होते हैं।
फिर भी शोधकर्ताओं के अनुसार इस आधार पर कोई भी निष्कर्ष निकालना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी। यह कहना ठीक नहीं होगा कि वर्तमान में अधिक वज़न के रूप में वर्गीकृत बीएमआई वर्तमान स्वस्थ श्रेणी से बेहतर है। आम तौर पर इस तरह के जनसंख्या अध्ययन में पूर्वाग्रह हो सकते हैं जिससे परिणामों में विसंगतियां हो सकती हैं। मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि अकेले बीएमआई मृत्यु के जोखिम का द्योतक नहीं है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन बीएमआई के साथ कमर की माप और अन्य कारकों को भी ध्यान में रखने की सलाह देता है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार बीएमआई को आबादी के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बनाया गया था। इसका उपयोग व्यक्तियों को स्वास्थ्य सलाह देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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