शिशु की ‘आंखों’ से सीखी भाषा

हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए ‘crib (पालना)’ और ‘ball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।

शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढ़ने, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।

फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर सम्बंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से सम्बंधित हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोड़ियों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।

मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीज़ों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीज़ों को दर्शा सकता है।

हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।

इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें  छूने-पकड़ने, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अलग-अलग समझ और जोखिम का आकलन

साल 2017 में तंत्रिका विज्ञानी और युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लायमेट एक्शन युनिट के निदेशक क्रिस डी मेयर ने वैज्ञानिकों, वित्त पेशेवरों और नीति निर्माताओं के साथ एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया था। उन्होंने इन क्षेत्रों से आए लोगों को समूह में बांटा – प्रत्येक समूह में छह व्यक्ति। फिर उन्हें जोखिम और अनिश्चितिता से सम्बंधित उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक अनुभवों के आधार पर कुछ प्रश्न और गतिविधियां करने को दीं। पाया गया कि लोग इस बात को लेकर आपस में एकमत और सहमत नहीं हो सके थे कि ‘जोखिम और अनिश्चितता’ क्या है। और तो और, इतने छोटे समूह में भी लोगों के परस्पर विरोधी और कट्टर मत थे।

इस नतीजे से डी मेयर को यह बात तुरंत समझ में आई कि क्यों जलवायु सम्मेलनों, समितियों वगैरह में सहभागी पेशेवर अक्सर एक-दूसरे की कही बातों को गलत समझते हैं। ऐसा इसलिए है कि बुनियादी शब्दों पर भी लोगों की अवधारणाएं या समझ बहुत भिन्न होती हैं। इसलिए कई बार हम किसी शब्द के माध्यम से जो कहना या समझाना चाहते हैं, ज़रूरी नहीं है कि सामने वाले को वही समझ आ रहा हो। जैसे शब्द ‘विकास’ के बारे में लोगों की समझ भिन्न हो सकती है, किसी के लिए विकास का मतलब अच्छी सड़कें, जगमगाता शहर, बुलेट ट्रेन हो सकती है, वहीं किसी और के लिए लिए विकास का मतलब स्वच्छ पेयजल, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा हो सकती है। और समझ में इसी भिन्नता के चलते जलवायु वैज्ञानिक अपने संदेश को अन्य लोगों तक पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने में इतनी जद्दोजहद का सामना करते हैं, और बड़े वित्तीय संगठन प्राय: जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम आंकते हैं।

अध्ययन यह भी बताता है कि इस तरह के वैचारिक मतभेद या फर्क हर जगह सामने आते हैं, लेकिन आम तौर पर लोग इन विविधताओं से बेखबर होते हैं। तंत्रिका विज्ञान के अध्ययन दर्शाते हैं कि ये फर्क इस बात पर आधारित होते हैं कि किसी चीज़ या शब्द के बारे में हमारे विचार या अवधारणाएं किस प्रकार निर्मित हुई हैं, और हमारे ऊपर किस तरह के राजनीतिक, भावनात्मक और चरित्रगत असर हुए हैं। जीवन भर के अनुभवों, हमारे कामों या विश्वासों से बनी सोच को बदलना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर होता है।

लेकिन दो तरीके इसमें मदद कर सकते हैं: एक, लोगों को इस बारे में सचेत बनाना कि हमारे अर्थ और उनकी समझ में फर्क है; दूसरा, उन्हें नई भाषा चुनने के लिए प्रोत्साहित करना जो अवधारणात्मक बोझ से मुक्त हो।

‘अवधारणा’ शब्द को परिभाषित करना भी कठिन है। मोटे तौर पर अवधारणा का मतलब है किसी शब्द को सुनते, पढ़ते, या उपयोग करते समय हमारे मन में उभरने वाले उसके विभिन्न गुण, उदाहरण और सम्बंध और ये काफी अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पक्षी’ की अवधारणा में शामिल हो सकते हैं कि पंख, उड़ना, घोंसले बनाना, गोरैया। ये शब्दकोश में दी गई परिभाषाओं से भिन्न होती हैं, जो अडिग और विशिष्ट होती हैं जिन्हें आम तौर पर सीखना होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हमारे पास कितने पेड़ हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, कुछ साल पहले इसका विस्तृत विश्लेषण किया गया था। वृक्षों की गणना के इस विश्व स्तरीय प्रयास में ज़मीनी वृक्षों की गणना प्रादर्श के आधार पर की गई थी, और उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों के साथ रखकर उन आंकड़ों को देखा गया था। और फिर एक परिष्कृत एल्गोरिदम की मदद से आंकड़ों का विश्लेषण करके वृक्षों की कुल संख्या का अनुमान लगाया गया था। अध्ययन का अनुमान था कि हमारी पृथ्वी पर करीब तीस खरब पेड़ हैं। यह संख्या चौंकाने वाली है, क्योंकि यह पूर्व में वैज्ञानिकों द्वारा लगाए गए सभी अनुमानों से बहुत ज़्यादा है। अध्ययन का निष्कर्ष था कि विश्व में प्रति व्यक्ति औसतन 400 से थोड़े अधिक पेड़ हैं। उपग्रह चित्रों से यह भी पता चला कि ये पेड़ पृथ्वी पर किस तरह वितरित हैं।

पृथ्वी पर मौजूद कुल पेड़ों का 15-20 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण अमेरिकी वर्षा वनों में है। इसके बाद बारी आती है कनाडा और रूस में फैले बोरियल जंगलों या टैगा में शंकुधारी (कोनिफर) वनों की। शंकुधारी वृक्षों की इस प्रचुरता के परिणामस्वरूप, कनाडा का प्रत्येक बाशिंदा लगभग 9000 वृक्षों से ‘समृद्ध’ है।

इसके ठीक विपरीत, मध्य पूर्वी द्वीप राष्ट्र बाहरीन के 15 लाख वासियों को मात्र 3100 पेड़ों का सहारा है। यहां प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में मात्र पांच पेड़ हैं।

अन्य ऑक्सीजन स्रोत

यह गौरतलब है कि पृथ्वी के विशाल क्षेत्र अपेक्षाकृत कम पेड़ों वाले घास के मैदान हैं। कुल मिलाकर, घास उतनी ही ऑक्सीजन बना सकती है जितना कि दुनिया भर के पेड़। फिर, हमारे पास समुद्री सायनोबैक्टीरिया और शैवाल हैं – इन सूक्ष्मजीवों के प्रकाश संश्लेषण से उतनी ही ऑक्सीजन बनती है जितनी कि सभी स्थलीय पेड़-पौधों से।

पेड़ ऑक्सीजन बनाने के अलावा वातावरण से कार्बन हटाने में अहम भूमिका निभाते हैं। लाखों साल पहले उगे पेड़ दलदल में डूबने और दबने के बाद धीरे-धीरे कोयले में बदल गए, और इस तरह उन्होंने कार्बन को बहुत लंबे समय तक वायुमंडल में जाने से थामे रखा। बेशक, आप बिजली पैदा करने के लिए थर्मल पावर प्लांट में कोयले को जला कर कार्बन को वायुमंडल में वापस जाने से रोकने की पेड़ों की सारी मेहनत पर फटाफट पानी फेर सकते हैं, साथ ही साथ कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल में छोड़कर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा सकते हैं।

भारत का वन आवरण

हमारे अपने देश के लिए अनुमान है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति पर लगभग 28 पेड़ हैं। उच्च जनसंख्या घनत्व और लंबे समय से हो रही वनों की कटाई के कारण यह संख्या इतनी ही रह गई है। बांग्लादेश, जिसका जनसंख्या घनत्व भारत से तीन गुना अधिक है, वहां प्रति नागरिक छह पेड़ हैं। नेपाल और श्रीलंका दोनों देशों में प्रति व्यक्ति सौ से थोड़े अधिक पेड़ हैं।

भारत की भौगोलिक विविधता के चलते प्राकृतिक वन क्षेत्र में बड़ा फर्क है। पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट में, पूर्वोत्तर भारत में और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में नम उष्णकटिबंधीय वनों का घना आच्छादन, उच्च वर्षा और समृद्ध जैव विविधता देखी जाती है। अरुणाचल प्रदेश का अस्सी प्रतिशत भूक्षेत्र वनों से आच्छादित है; वहीं राजस्थान में यह वन आच्छादन 10 प्रतिशत से भी कम है।

भारत के एक-तिहाई हिस्से को वन आच्छादित बनाने की वन नीति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। पुनर्वनीकरण के प्रयास इस लक्ष्य को हासिल करने में योगदान देते हैं, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अधिक महत्वपूर्ण है वनों की कटाई को रोकना। इस मामले में दक्षिणी राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत राज्य वन रिपोर्ट (ISFR) 2021 की रिपोर्ट के अनुसार वन आवरण में सबसे अच्छा सुधार करने वाले तीन राज्य हैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने शेरों की नाक में किया दम

क्सर यह सुनने में आता है कि चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो वह हाथी को पस्त कर सकती है। यह बात तो ठीक है लेकिन हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है कि चींटियों ने परोक्ष रूप से शेरों की नाक में दम कर दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अफ्रीकी सवाना जंगलों में मनुष्यों द्वारा पहुंचाई गई बड़ी सिर वाली चींटियों ने वहां की स्थानीय चींटियों का सफाया कर दिया है; ये स्थानीय चींटियां वहां मौजूद बबूल के पेड़ों को हाथियों द्वारा भक्षण से बचाती थीं। इन रक्षक चींटियों के वहां से हटने से हाथियों को बबूल के पेड़ खाने को मिल गए। फिर पेड़ खत्म होने के कारण शेरों को घात लगाकर ज़ेब्रा का शिकार करने की ओट खत्म होती गई। नतीजतन शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल हो गया, और उन्हें ज़ेब्रा की जगह भैंसों को अपना शिकार बनाना पड़ा।

पूर्वी अफ्रीका के हज़ारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों में मुख्यत: एक तरह के बबूल (Vachellia drepanolobium) के पेड़ उगते हैं। इस इलाके का अधिकतर जैव पदार्थ (70-99 प्रतिशत) यही पेड़ होता है। और इनकी शाखाओं पर नुकीले कांटे होते हैं। साथ ही साथ इनकी शाखाओं पर खोखली गोल संरचनाएं बनती हैं, जिनमें स्थानीय बबूल चींटियां (Crematogaster spp.) रहती हैं और बबूल का मकरंद पीती हैं। बदले में ये चींटियां शाकाहारी जानवरों, खासकर हाथियों, से पेड़ों को बचाती हैं – कंटीले पेड़ों को खाने आए अफ्रीकी जंगली हाथियों की सूंड में चीटियां घुस जाती हैं, जिसके चलते वे इन्हें खाने का इरादा छोड़ देते हैं।

लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में, हिंद महासागर के एक द्वीप की मूल निवासी बड़े सिर वाली चींटियां (Pheidole megacephala) केन्या में पहुंच गईं – संभवत: मनुष्यों ने ही उन्हें वहां पहुंचाया था। केन्या पहुंचकर इन चींटियों ने बबूल पर बसने वाली चीटिंयों पर हमला करना शुरू किया और उनके शिशुओं को खाने लगीं। जब पेड़ों के रक्षक ही सलामत नहीं बचे, तो फिर पेड़ कैसे सलामत बचते। नतीजतन हाथी अब मज़े से कंटीले पेड़ खाने लगे और सवाना जंगलों में इन पेड़ों की संख्या गिरने लगी।

पेड़ों के इस विनाश को देखते हुए व्योमिंग विश्वविद्यालय के वन्यजीव पारिस्थितिकीविज्ञानी जैकब गोहेन जानना चाहते थे कि इस विनाश ने अन्य प्राणियों को कैसे प्रभावित किया होगा, खासकर शेर को। क्योंकि शेर पेड़ों की ओट में घात लगाकर अपना शिकार बड़ी कुशलता से कर लेते हैं। तो क्या इस कमी ने शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल बनाया होगा?

इसके लिए उन्होंने 360 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में फैले सवाना जंगलों में, ढाई-ढाई हज़ार वर्ग मीटर के एक दर्ज़न अध्ययन भूखंड चिन्हित किए। हर अध्ययन भूखंड पर शोधकर्ताओं की एक टीम ने वहां के परिदृश्य में दृश्यता, मैदानी ज़ेब्रा का आबादी घनत्व, बड़े सिर वाली चींटियों का आगमन और शेरों द्वारा ज़ेब्रा के शिकार पर नज़र रखी। साथ ही छह शेरनियों पर जीपीएस कॉलर भी लगाए ताकि यह देखा जा सके कि इन भूखंडों में उनकी हरकतें कैसी रहती हैं।

तीन साल की निगरानी के बाद शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन पेड़ों से वहां की स्थानीय बबूल चींटियां नदारद थीं, हाथियों ने उन पेड़ों का सात गुना अधिक तेज़ी से विनाश किया बनिस्बत उन पेड़ों के जिनमें स्थानीय संरक्षक चींटियां मौजूद थीं। जहां पेड़ और झाड़ियों का घनापन नाटकीय रूप से छंट गया है, वहां शेरों के लिए ज़ेब्रा पर हमला करना मुश्किल हो गया है। इसके विपरीत, बड़े सिर वाली चींटियों से मुक्त क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में कंटीले पेड़ और उनकी झुरमुट थी, जहां शेर छिप सकते थे। नतीजतन इन जगहों पर शेर ज़ेब्रा के शिकार में तीन गुना अधिक सक्षम थे।

इन निष्कर्ष से यह बात और स्पष्ट होती है कि कोई भी पारिस्थितिकी तंत्र आपस में कितना गुत्थम-गुत्था और जटिल होता है – यदि आप इसकी एक चीज़ को भी थोड़ा यहां-वहां करते हैं तो पूरा तंत्र डगमगा जाता है।

लेकिन इन नतीजों से यह सवाल उभरा कि जब कम घने क्षेत्र में शेर अपने शिकार (ज़ेब्रा) से चूक रहे हैं तब भी उनकी आबादी स्थिर कैसे है? इसी बात को खंगालने वाले अन्य अध्ययनों ने पाया है कि 2003 में 67 प्रतिशत ज़ेब्रा शेरों के शिकार के कारण मरे थे, जबकि 2020 में केवल 42 प्रतिशत ज़ेब्रा शिकार के कारण मरे। इसी दौरान, शेरों द्वारा अफ्रीकी भैंसे का शिकार शून्य प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया। यानी शेरों ने अपना शिकार बदल लिया है।

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह परिवर्तन टिकाऊ है या नहीं। क्योंकि शेरों के लिए भैंसों को मारना बहुत मुश्किल है। ज़ेब्रा की तुलना में भैसों में बहुत अधिक ताकत होती है, और भिड़ंत में कभी-कभी भैंस शेरों को मार भी डालती है।

यह भी समझने वाली बात है कि यदि भैसों का शिकार जारी रहा तो क्या उनकी संख्या घटने लगेगी, और यदि हां तो तब शेरों का क्या होगा? और ज़ेब्रा की संख्या बढ़ने से जंगल की वनस्पति किस तरह प्रभावित होगी? साथ ही यह भी देखने की ज़रूरत है कि बड़े सिर वाली चींटियां कैसे फैलती हैं ताकि उनके प्रसार को रोकने के प्रयास किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

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गुमशुदा जलमग्न महाद्वीप का मानचित्र

क हालिया खोज में, शोधकर्ताओं ने दक्षिण प्रशांत महासागर में जलमग्न महाद्वीप ज़ीलैंडिया के रहस्यों का खुलासा किया है। यह खोज पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देती है और न्यूज़ीलैंड को देखने के हमारे तरीके को बदलने के साथ पृथ्वी के भूवैज्ञानिक अतीत की नई समझ प्रदान करती है। वैज्ञानिकों ने यह खुलासा चट्टानों के नमूनों, और चुंबकीय मानचित्रण से जुड़ी एक जटिल प्रक्रिया के माध्यम से किया है।

ज़ीलैंडिया या स्थानीय माओरी भाषा में ते रिउ-ए-माउई नामक इस भूखंड को सात वर्ष पूर्व एक भूविज्ञानी निक मॉर्टिमर द्वारा प्रकाश में लाया गया था। हाल ही में टेक्टोनिक्स जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में, मॉर्टिमर और उनकी टीम ने इस जलमग्न महाद्वीप के करीब 50 लाख वर्ग किलोमीटर का मानचित्रण कर लिया है। वर्तमान में कुछ द्वीपों के समूह के रूप में न्यूज़ीलैंड की आम धारणा के विपरीत, ज़ीलैंडिया एक विशाल महाद्वीप के रूप में उभरता है, जो ऑस्ट्रेलिया के आकार का लगभग आधा है और समुद्र में डूबा हुआ है। इस खोज से भूवैज्ञानिक इतिहास और पृथ्वी के महाद्वीपीय विकास की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

इस अध्ययन के लिए 2016 में मॉर्टिमर ने ज़ीलैंडिया के उत्तरी क्षेत्र से ग्रेनाइट चट्टानें और तलछटी नमूने लिए थे। ग्रेनाइट के इन टुकड़ों का विश्लेषण कई चरणों में किया गया: उन्हें कूटकर छाना गया और टुकड़ों को भारी द्रव में डाला गया। कुछ टुकड़े तैरने लगे जबकि अन्य डूब गए। डूबी सामग्री से चुंबकीय खनिजों को अलग करने के लिए चुंबकीय पृथक्करण किया गया। इसके बाद, वैज्ञानिकों ने बची हुई सामग्री का सूक्ष्मदर्शी से सावधानीपूर्वक निरीक्षण किया और ज़रकॉन रवों को अलग किया।

इन एक-तिहाई मिलीमीटर के ज़रकॉन ने ज़ीलैंडिया के भूवैज्ञानिक इतिहास को जानने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्वालामुखी मैग्मा के ठंडा होने के दौरान बने इन क्रिस्टलों में रेडियोधर्मी तत्व युरेनियम होता है जो समय के साथ क्षय होते हुए सीसे में परिवर्तित होता है। वैज्ञानिक उनकी उम्र का पता लगाने के लिए ज़रकॉन में इन तत्वों के अनुपात को मापते हैं। जीलैंडिया के ग्रेनाइट में मैग्मा की डेटिंग से पता चलता है कि यह लगभग 10 करोड़ वर्ष पुराना है जो पूर्ववर्ती सुपरमहाद्वीप के टूटने के समय से मेल खाता है।

ये जानकारियां केवल आंशिक समझ प्रदान कर रही थीं। इसको अधिक गहराई से समझने के लिए टीम ने चुंबकीय क्षेत्र की विसंगतियों का पता लगाने का निर्णय लिया और जहाज़ों, अंतरिक्ष में और ज़मीन पर लगे सेंसरों के माध्यम से चुंबकीय मानचित्रण किया। पता चला कि अधिकतर चट्टानें अतीत की ज्वालामुखी गतिविधि से निर्मित बेसाल्ट के बनी थीं। इस तरह बने चुंबकीय मानचित्रों से ज़ीलैंडिया की संरचना का पता चला।

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि पूर्व में पाए गए ज्वालामुखीय क्षेत्रों में ये चुंबकीय चट्टानें बेतरतीब बिखरी नहीं थी बल्कि समुद्र में डूबी पर्पटी के दरार क्षेत्र के समांतर या लंबवत थीं जहां से ये महाद्वीप अलग-अलग हुए थे। मॉर्टिमर के अनुसार ऐसा लगता है कि ये क्षेत्र ज़ीलैंडिया और अंटर्कटिका के अलग होने से ठीक पहले सुपरमहाद्वीप गोंडवाना में तनाव से सम्बंधित हैं।

गौरतलब है कि पृथ्वी की महाद्वीपीय परत चक्रीय विकास से गुज़रती है: सबसे पहले एक सुपरमहाद्वीप के रूप में विशाल भूखंड होता है, फिर उसके छोटे-छोटे टुकड़ होते हैं और अंतत: ये फिर से जुड़ जाते हैं। लगभग 30 से 25 करोड़ वर्ष पूर्व सुपरमहाद्वीप पैंजिया के दक्षिण में गोंडवाना और उत्तर में लॉरेशिया शामिल थे, जो अंतत: अलग हो गए थे।

इस अलगाव के दौरान, महाद्वीपीय पर्पटी के खिंचने से नई प्लेट सीमाओं का निर्माण हुआ। लगभग 10 करोड़ वर्ष पूर्व गोंडवाना के भीतर एक दरार ने ज्वालामुखीय गतिविधि को जन्म दिया, जिससे लगभग 6 करोड़ वर्ष पहले तक यह परत पिज़्ज़ा के आटे की तरह खिंचती गई। इसके बाद जैसे-जैसे यह क्षेत्र ठंडा हुआ, ज़ीलैंडिया घना होता गया और लगभग 2.5 करोड़ वर्ष पहले पूरा का पूरा समुद्र में डूब चुका था। आज, ज़ीलैंडिया का केवल पांच प्रतिशत हिस्सा पानी के ऊपर उभरा हुआ है जिसे हम न्यूज़ीलैंड, न्यू कैलेडोनिया और कुछ ऑस्ट्रेलियाई द्वीपों के रूप में देख सकते हैं।

वर्तमान में जलमग्न ज़ीलैंडिया महाद्वीप का उत्तरी भाग तो ऑस्ट्रेलिया से जुड़ा हुआ है, जबकि दक्षिणी भाग अंटार्कटिका से सटा है।

आगे की खोज में 2019 में प्राप्त 50 से अधिक नमूनों को शामिल किया जाएगा जो ज़ीलैंडिया के भूगर्भीय इतिहास को जानने के लिए आवश्यक है। बहरहाल इस खुलासे के बाद भी शोधकर्ता ज़ीलैंडिया की वर्तमान समझ को एक धुंधली तस्वीर के रूप में देखते हैं और अतिरिक्त नमूनों और विश्लेषण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया की ‘याददाश्त’!

हा जाता है कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले’। लेकिन पिछली बातों को याद रखना कई मामलों में फायदेमंद होता है, जैसे यदि हम पहले कभी गर्म चीज़ से जले हैं तो हम इस स्मृति के आधार पर आगे सतर्क रहते हैं और अन्य को भी सावधान करते हैं। ये स्मृतियां हमारे जीवन को सुरक्षित बनाती हैं।

अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि बैक्टीरिया भी अपने पिछले अनुभवों को याद रखते हैं: एशरिशिया कोली (ई.कोली.) बैक्टीरिया अपने आसपास मौजूद पोषक तत्व का स्तर याद रखते हैं। साथ ही वे इन स्मृतियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित भी करते हैं, जो संभवत: उनकी संतति को एंटीबायोटिक दवाओं से बचने में मदद करता है।

आम तौर पर हमें लगता है कि एक-कोशिकीय सूक्ष्मजीव अकेले-अकेले बस अपना-अपना काम करते रहते हैं। लेकिन बैक्टीरिया अक्सर मिल-जुल काम करते हैं जो उन्हें अधिक सुरक्षित रखता है। स्थायी ‘घर’ (बायोफिल्म) की तलाश में बैक्टीरिया के झुंड अक्सर घूमते हैं। झुंड में रहने से बैक्टीरिया को यह फायदा होता है कि वे एंटीबायोटिक के असर को बेहतर ढंग से झेल पाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय के सौविक भट्टाचार्य जब ई. कोली बैक्टीरिया में झुंड के व्यवहार का अध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने उनकी कॉलोनियों में ‘अजीब से पैटर्न’ देखे। फिर जब उन्होंने इन कालोनियों से एक-एक बैक्टीरिया को अलग करके देखा तो उन्होंने पाया कि बैक्टीरिया अपने पिछले अनुभवों के आधार पर अलग-अलग व्यवहार कर रहे थे। कॉलोनी में जिन बैक्टीरिया ने पहले झुंड बनाए थे, उनके दोबारा झुंड में आने की संभावना उन बैक्टीरिया की तुलना में अधिक थी जिन्होंने पहले झुंड नहीं बनाए थे। और यह प्रवृत्ति कम से कम उनकी अगली चार पीढ़ियों (जो दो घंटे में अस्तित्व में आ गईं थी) ने भी दिखाई थी।

ई. कोली के जीनोम में फेर-बदल करने पर शोध दल ने पाया कि उनकी इस क्षमता के पीछे दो जीन्स हैं जो मिलकर लौह के ग्रहण और नियमन को नियंत्रित करते हैं। बैक्टीरिया के लिए लौह अहम पोषक तत्व है। लौह का स्तर कम होने पर बैक्टीरिया में अपने झुंड की जगह बदलने की प्रवृत्ति दिखी, जो उनमें सहज रूप से निहित थी। ऐसा अनुमान है कि लौह स्तर कम होने पर बैक्टीरिया का झुंड आदर्श लौह स्तर वाले नए स्थान की तलाश में था।

हालांकि यह मालूम था कि कुछ बैक्टीरिया अपने आसपास के भौतिक पर्यावरण (जैसे टिकाऊ सतह) को याद रखते हैं और यह जानकारी अपनी संतानों को दे सकते हैं लेकिन इस अध्ययन में यह नई बात मालूम चली कि बैक्टीरिया पोषक तत्वों की उपस्थिति को भी याद रखते हैं। टिकाऊ, सुरक्षित और उपयुक्त स्थान तलाशने के लिए बैक्टीरिया इन स्मृतियों का उपयोग करते हैं और बायोफिल्म बनाते हैं।

बहरहाल, यह देखने की ज़रूरत है कि क्या अन्य सूक्ष्मजीव भी लौह स्तर को याद रखते हैं? बैक्टीरिया लौह स्तर अनुपयुक्त पाने पर कैसे अपना व्यवहार बदलते हैं? शोधकर्ताओं का मानना है कि इस मामले में अधिक अध्ययन रोगजनक संक्रमणों से निपटने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जब जीवन के चंद दिन बचें हो…

दि आपको पता चले कि आपकी ज़िंदगी के बस तीन हफ्ते बचे हैं तो आप अपने आखिरी समय में क्या करना चाहेंगे? ऑस्ट्रेलियाई मार्सुपियल जंतु एंटेकिनस के नर का अपने आखिरी समय में उद्देश्य स्पष्ट होता है – अधिक से अधिक संभोग। हालिया अध्ययन में पता चला है कि इस समय में वे अधिक से अधिक प्रणय करने के लिए अपनी नींद तक दांव पर लगा देते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि नींद लगभग हर जंतु के लिए ज़रूरी है। मनुष्यों में नींद की कमी से स्मृति ह्रास, पकड़ पर नियंत्रण में कमी जैसी समस्याएं हो सकती है। लेकिन ऐसा देखा गया है कुछ परिस्थितियों में उत्तरजीविता के लिए कुछ प्रजातियां अपनी नींद से समझौता कर सकती हैं। 2012 में ला ट्रोब युनिवर्सिटी के निद्रा विशेषज्ञ जॉन लेस्कु ने देखा था कि पेक्टोरल सैंडपाइपर नामक पक्षी के नर अपने तीन हफ्ते के प्रजनन काल में अधिकतर समय (95 प्रतिशत) जागते रहते हैं। नींद से समझौते का उन्हें फल भी मिलता है: जो पक्षी कम सोते हैं उनकी अधिक संतानें होती हैं।

इन नतीजों ने लेस्कू को एंटेकिनस के बारे में यह जानने के लिए प्रेरित किया कि क्या वे भी प्रजनन सफलता को अधिकतम करने के लिए नींद से समझौता करते हैं?

गौरतलब है कि चूहे जैसे दिखने वाले छोटे, झबरीले नर एंटेकिनस (Antechinus swainsonii) का जीवनकाल मात्र एक साल का होता है। जिसमें उनके जीवन के आखिरी तीन हफ्ते उनका प्रजनन काल होता है, इसके बाद नर एंटेकिनस मर जाते हैं। मादा एंटेकिनस का जीवन नर से थोड़ा लंबा होता है वे अपने शिशुओं की देखभाल के लिए करीब 2 महीने और जीवित रहती हैं, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ मादाएं दो प्रजनन काल यानी दो साल तक जीवित रह सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने 15 एंटेकिनस का प्रजनन काल से पहले और प्रजनन काल के दौरान प्रयोगशाला में अध्ययन किया।  उनकी गतिविधि समझने के लिए उन पर कॉलर आईडी लगाए, मस्तिष्क गतिविधियों (खासकर नींद) पर नज़र रखने के लिए उनमें सेंसर प्रत्यारोपित किए और टेस्टोस्टेरॉन में परिवर्तन को देखने के लिए उनके रक्त के नमूने लिए। नरों को अलग-अलग रखा गया था, इसलिए उनमें वास्तविक संभोग नहीं हुआ।

टीम ने पाया कि नर एंटेकिनस ने प्रजनन काल में अपनी नींद में प्रति दिन औसतन 3 घंटे की कटौती की थी, यहां तक कि एक नर ने अपनी दैनिक नींद आधी कर दी थी। यह भी पाया गया कि नींद की कमी से उनका टेस्टोस्टेरॉन का स्तर बढ़ गया था, जिससे लगता है कि उनके अधिकाधिक प्रजनन की प्रवृत्ति में यह हारमोन मदद करता है।

इसके अलवा, शोधकर्ताओं ने एंटेकिनस एजिलिस नामक एक अन्य प्रजाति के प्राकृतवास में रह रहे 38 नर और मादा के प्रजनन काल के दौरान रक्त के नमूने लिए। करंट बायोलॉजी में उन्होंने बताया है कि इन जीवों में ऑक्सेलिक अम्ल का स्तर कम पाया गया, जो नींद की कमी का द्योतक है। और तो और, प्रेम-आतुर नर मादाओं को भी सोने नहीं दे रहे होंगे।

हालांकि टीम ने यह नहीं देखा है कि क्या वास्तव में नींद गंवाकर अधिकाधिक संभोग करने से नर की अधिक संतान पैदा हुई या नहीं, लेकिन उनका ऐसा अनुमान है कि इस व्यवहार का संभवत: यही कारण होगा।

फिर भी, नींद में कटौती करने के बावजूद एंटेकिनस दिन का लगभग आधा समय सोते हुए बिता रहे थे जो इस बात का प्रमाण है कि नींद कितनी महत्वपूर्ण है।

बहरहाल, कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब पाने के लिए अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। जैसे क्या प्रकृति में रह रहे एंटेकिनस को भी उतनी ही नींद की ज़रूरत होती है जितनी प्रयोगशाला में पल रहे एंटेकिनस को, प्रजनन काल के दौरान, नींद की कमी से नर और मादा के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ते हैं, और वे इससे निपटने के लिए क्या करते हैं?

इस संदर्भ में यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि नींद लेने का हमारा तरीका ही एकमात्र तरीका नहीं है। विभिन्न तरह के जंतुओं ने नींद लेने के अपने तरीके विकसित किए हैं। और हमें इस बारे में बहुत कुछ सीखने-समझने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फ्रिज में गाजर को रसीला कैसे रखा जाए

प बाज़ार से ताज़ातरीन गाजर लाते हैं और फ्रिज में इस उम्मीद से रखते हैं कि वे थोड़ा लंबे समय तक ताज़ा, रसीली और खस्ता बनी रहेंगी। लेकिन आप देखते हैं कि फ्रिज में भी गाजर कुछ ही दिनों में मुरझा-सी जाती हैं और अपनी ताज़गी खो देती हैं। गाजर ही नहीं, कई सब्ज़ियों, खासकर पत्तेदार सब्ज़ियों, के साथ भी ऐसा ही होता है।

यह जानने के लिए कि ऐसा क्यों होता हैं, शोधकर्ताओं ने गाजर को लंबाई में काटकर फ्रिज में रखा। इससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि शीतलन से गाजर का आंतरिक भाग कैसे प्रभावित होता है। उन्होंने पाया कि फ्रिज का ठंडा वातावरण सब्ज़ियों और भोजन वगैरह को सड़ने से तो बचा देता है, लेकिन फ्रिज में चल रही वायु धाराओं के कारण सब्ज़ियां अपनी नमी खोती जाती हैं और सूख जाती हैं।

शोधकर्ताओं ने रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में बताया है कि फ्रिज में गाजर ने 22 प्रतिशत तक नमी गंवाई थी और प्रति दिन औसतन 0.37 प्रतिशत सिकुड़ती जा रही थीं। गाजरों की नमी खोने से उनकी कोशिकाओं ने अपना आकार खो दिया, जिससे सब्ज़ियां सूख-सिकुड़ गईं। मेकेनिकल और सिविल इंजीनियरिंग में प्रयुक्त एक 3डी-मॉडल प्रोग्राम ने एकदम सही भविष्यवाणी की थी कि समय के साथ गाजरें कैसे मुरझाएंगी।

गाजरों के मुरझाने में एक अन्य कारक भी भूमिका निभाता है। गाजर काटने के बाद, वे उस अक्ष से मुड़ती हैं जिससे उन्हें काटा गया था – एक यांत्रिक गुण जिसे ‘अवशिष्ट तनाव’ कहा जाता है।

मॉडल ने गाजर को कुरकुरा रखने का एक तरीका भी बताया है: उन्हें ठंडे, हल्के नमीदार और एयरटाइट (सीलबंद) डिब्बे में रखें। सीधे फ्रिज की किसी शेल्फ या कंटेनर में न पटक दें। इस तरीके का उपयोग अवशिष्ट तनाव झेलने वाली चीज़ों, जैसे लकड़ी, बांस और अन्य जैविक सामग्री का स्वरूप और आकार बरकरार रखने के लिए किया जा सकता है ताकि सुरक्षित भवन, खिड़की-दरवाज़े, कलाकृतियां बनाने में मदद मिले और वे अपना स्वरूप न खोएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निकटवर्ती निहारिका का ब्लैक होल सचमुच है

र्ष 2023 में इवेंट होरिजन टेलीस्कोप (ई.एच.टी.) द्वारा हमारी नज़दीकी निहारिका M87 में स्थित ब्लैक होल की पहली तस्वीर प्राप्त हुई थी। तस्वीर के बीच में एक गहरा काला धब्बा था, और उसके चारों ओर प्रकाश का चमकीला छल्ला नज़र आ रहा था।

अब, ई.एच.टी. द्वारा ली गई इसी निहारिका की ताज़ा छवियों में ऐसा ही साया दिख रहा है, जो इस निहारिका में शक्तिशाली ब्लैक होल होने की पुष्टि करता है। यह ब्लैक होल सूर्य से तकरीबन 6.5 अरब गुना वज़नी है। लेकिन एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित ताज़ा छवियों में साए के चारों ओर का चमकदार छल्ला थोड़ा घूमा हुआ नज़र आ रहा है, जो संभवत: यह बताता है कि गैसें ब्लैक होल के चारों ओर कैसे घूमती हैं। नई और पुरानी छवियों के विश्लेषण में यह भी देखा गया है कि दोनों ही तस्वीरों में कैद छायादार केंद्र का दायरा एक बराबर ही है, जिससे पुष्टि होती है कि वहां वास्तव में कोई ब्लैक होल है। ब्लैक होल का द्रव्यमान एक साल में उल्लेखनीय रूप से नहीं बढ़ा होगा, इसलिए तस्वीरों की तुलना इस विचार का भी समर्थन करती है कि ब्लैकहोल की साइज़ सिर्फ उसके द्रव्यमान से निर्धारित होती है।

हालांकि, ताज़ा तस्वीरों में ब्लैक होल के चारों ओर के छल्ले का सबसे चमकीला हिस्सा घड़ी की उल्टी दिशा में लगभग 30 डिग्री घूमा नज़र आ रहा है। ऐसा ब्लैक होल की विषुवत रेखा के चारों ओर के पदार्थ के बेतरतीब मथे जाने के कारण हो सकता है। ऐसा ब्लैक होल के ध्रुवों से निकलने वाली ज़ोरदार फुहारों में कमी-बेशी के कारण भी हो सकता है – इससे ऐसा लगता है कि ये फुहारें ब्लैक होल की धुरी की सीध में नहीं होती हैं, बल्कि इसके चारों ओर डोलती रहती हैं।

ब्लैक होल को देखने के लिए हमारी दूरबीन इनसे होने वाले रेडियो उत्सर्जन पर निर्भर हैं। वास्तव में ई.एच.टी. दूरबीन में आठ रेडियो टेलिस्कोप हैं जो पृथ्वी पर एक-दूसरे से दूर-दूर ऊंचे स्थानों पर स्थापित हैं। एक मायने में यह पृथ्वी के बराबर की दूरबीन है। इन्हीं के मिले-जुले डैटा से छवियां बनाई जाती है।

लेकिन ब्लैक होल के और बारीक अवलोकन एवं स्पष्ट तस्वीरों और दूर स्थित ब्लैक होल के अवलोकन के लिए शोधकर्ता दूरबीनों के इस नेटवर्क में और अधिक दूरबीनें जोड़ना चाहते हैं: चार स्थानों – व्योमिंग, कैनरी द्वीप, चिली और मैक्सिको में 9-9 मीटर की रेडियो डिश और एमआईटी स्थित हेस्टैक वेधशाला में 37 मीटर की डिश। डैटा प्रोसेसिंग को तेज़ करने के लिए नए हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की भी ज़रूरत है, ताकि वर्षों की बजाय कुछ ही दिनों में परिणाम हासिल किए जा सकें। इसके लिए तकरीबन 7.3 करोड़ डॉलर की आवश्कता होगी।

अवलोकन में सटीकता और विश्लेषण में तेज़ी लाने से यह समझने में मदद मिलेगी कि ब्लैक होल का धुरी पर घूर्णन, उसका चुंबकीय क्षेत्र और पदार्थ की घूमती हुई डिस्क मिलकर किस तरह सुदूर अंतरिक्ष में कणों की फुहार फेंकते हैं।

ब्लैक होल के इर्द-गिर्द बने प्रकाशमान छल्लों के सूक्ष्म अवलोकन के लिए पृथ्वी से भी बड़ी एक आभासी रेडियो डिश की ज़रूरत है। क्योंकि पृथ्वी बराबर दूरबीन से अवलोकन की सीमा आ चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्रामीण महिला पशु चिकित्सक – भारत डोगरा

टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के नदिया गांव में रहने वाली भारती अहरवार को जब पता चला कि एक संस्था, सृजन, क्षेत्र की कुछ महिलाओं को बकरियों को रोग-मुक्त रखने व उनके इलाज के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उसने ‘सृजन’ और ‘दी गोट ट्रस्ट’ नामक संस्था द्वारा सह-आयोजित प्रशिक्षण पहले क्षेत्रीय स्तर पर व फिर लखनऊ स्तर पर लिया।

इस प्रशिक्षण से भारती को एक नया आत्म-विश्वास मिला। अब उसे ‘पशु-सखी’ या बकरियों की पैरा डाक्टर के रूप में नई पहचान मिली, मान्यता मिली, दवा व वैक्सीन मिले। लेकिन जब वह अपनी पशु-सखी की युनिफार्म में इलाज के लिए निकलती तो कुछ लोग मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते। पर इसकी परवाह न करते हुए भारती ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से जारी रखा व अधिक दक्षता प्राप्त करती रही। उसने बकरी स्वास्थ्य के लिए विशेष शिविरों का आयोजन भी किया।

धीरे-धीरे गांव के लोग उसके कार्य का महत्व समझने लगे। बकरी में बीमारी होने पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है। पी.पी.आर. और एफ.एम.डी. बीमारियों से बचाव व डीवर्मिंग ज़रूरी है। यदि इस सबके लिए गांव में ही ‘पशु-सखी’ की सेवाएं मिल जाएं तो इधर-उधर भटकना नहीं पडे़गा। गांववासियों की नज़रों में स्वीकृति व सम्मान बढ़ने के साथ भारती का कार्य भी बढ़ा व आय भी।

टीकमगढ़ ज़िले की माया घोष एक वरिष्ठ पशु-सखी हैं जिनकी गिनती इस कार्यक्षेत्र में सबसे पहले आने वाली महिलाओं में होती है। माया घोष ने अपने स्थानीय व लखनऊ के प्रशिक्षण के बाद अपने गांव बिजरावन में बकरी पालन का सर्वेक्षण किया। इससे स्पष्ट हुआ कि थोड़े से प्रवासी मज़दूरों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अन्यथा लगभग सभी घरों में औसतन 5 से 10 बकरियां हैं। कांटी गांव की ‘पशु-सखी’ हीरा देवी ने बताया कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने कार्य आरंभ किया तो आसपास के कुछ लोगों ने उनकी योग्यता पर संदेह प्रकट किया। इस स्थिति में उन्होंने एक बीमार बकरी को खरीद लिया और उसे अपने इलाज से पूरी तरह ठीक कर दिया। इसके बाद लोग उनके पास बकरियों के इलाज के लिए पहुंचने लगे और यह सिलसिला अभी तक चल रहा है।

सृजन के सहयोग से किसानों का एक उत्पादक संगठन बना है जिसके द्वारा बकरियों के लिए स्वस्थ आहार बनाया जाता है जिसमें अनेक पौष्टिक तत्त्व मिले होते हैं। वैसे बकरी खुले में चर कर अपना पेट भरती है, पर कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार मिलने से उनका स्वास्थ्य और सुधर जाता है। इस पौष्टिक आहार की बिक्री भी पशु-सखी द्वारा की जाती है। दवाएं उपलब्ध करवाने में भी किसान उत्पादक संगठन की सहायता मिलती है।

लगभग 10 पशु सखियों के प्रशिक्षण से शुरू हुए इस प्रयास से आज इस जिले में 76 प्रशिक्षित पशु-सखियां हैं जो अपना जीविकोपार्जन बढ़ाने का कार्य बहुत आत्मविश्वास से कर रही हैं और गांव-समुदाय के लिए बहुत सहायक भी सिद्ध हो रही हैं। यहां के अधिकांश गांवों में लगभग तीन-चौथाई परिवारों के पास बकरियां हैं, पर अचानक फैली बीमारियों में अनेक बकरियों के समय-समय पर मर जाने से लोग परेशान थे। अब पशु-सखियों के कारण यह समस्या कम हुई है व स्वस्थ बकरी विकास की संभावना बढ़ी है।

इसी तरह का कार्य कुछ अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। एक उत्साहवर्धक स्थिति यह बनी है कि कुछ सरकारी अधिकारियों ने इस सफलता को नज़दीकी स्तर पर देखने के बाद इसे अपने-अपने स्तर पर भी आगे बढ़ाने के लिए कहा है। उन्होंने माना है कि यह एक उल्लेखनीय सफलता है जिसे आगे बढ़ना चाहिए।

इसके अलावा, व्यापारियों द्वारा बकरी पालकों को पहले कम कीमत देकर ठगा जाता था पर अब इस मामले में भी सुधार हो रहा है ताकि बकरी पालक को उचित मूल्य मिले। सरकार की, विशेषकर दलितों व आदिवासियों के लिए, बकरियों को बहुत कम कीमत पर उपलब्ध वाली योजनाएं हैं व उनसे भी समुचित सहायता प्राप्त की जा सकती है।

जहां बकरियों को मुख्य रूप से बिक्री के लिए पाला जाता है, वहां इनसे, अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही सही, विशिष्ट पौष्टिक गुणों वाला दूध भी प्राप्त हो जाता है तथा बकरियों से खाद भी उच्च गुणवत्ता की प्राप्त होती है। अपेक्षाकृत निर्धन परिवारों के लिए पशु पालन की सबसे सहज आजीविका बकरी पालन के रूप में ही है व पशु-सखियों ने स्वस्थ बकरीपालन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह एक अनुकरणीय मॉडल है जो अन्य स्थानों पर भी बकरी पालन को बेहतर बना सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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