पेलिकन और रामसर स्थल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

श्रीहरिकोटा द्वीप खारे पानी के एक लैगून – पुलिकट झील – के लिए एक ढाल का काम करता है। चूंकि यह इसरो का प्रक्षेपण स्थल है इसलिए इसका अधिकतर क्षेत्र पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित है। इस क्षेत्र में जलीय पक्षियों की 76 प्रजातियां पाई जाती हैं। झील हालांकि लगभग 60 किलोमीटर लंबी है, लेकिन इसकी औसत गहराई केवल एक मीटर है।

ज्वार-भाटों के साथ समुद्र तटों की खुलती-ढंकती नम भूमि (टाइडल फ्लैट) और मीठे व खारे पानी की नमभूमियां भूरे पेलिकन या हवासील (spot-billed pelican) के लिए आदर्श आवास हैं।

जब हम जल पक्षियों के बारे में सोचते हैं तो अधिकतर यही पक्षी हमारे मन में उभरता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने इसे रेड लिस्ट में शामिल किया है और इसे लगभग-संकटग्रस्त की श्रेणी में डाला है।

हवासील की हास्यास्पद चाल उसकी टांगों की कमज़ोर मांसपेशियों की ओर इशारा करती है, और इसी वजह ये पक्षी कोई माहिर तैराक नहीं हैं। और ये पानी की सतह के पास पाई जाने वाली मछलियां ही पकड़ते हैं। स्पॉट बिल्ड (यानी धब्बेदार चोंच वाला) पेलिकन, यह नाम इसे इसकी चोंच के किनारों पर पाए जाने वाले नीले धब्बों के कारण मिला है।

यह एक सामाजिक पक्षी है। कभी-कभी ये समूह में मछली पकड़ने जाते हैं, मिलकर अर्ध-वृत्ताकार चक्रव्यूह बना लेते हैं जो मछली को उथले पानी की ओर धकेलता है। हवासील छोटे पनकौवों के साथ भोजन साझा भी करते हैं।

पनकौवे कुशल गोताखोर होते हैं। उनके गोता लगाने के कारण गहराई में मौजूद मछलियां ऊपर सतह पर आ जाती हैं, जहां पेलिकन उन्हें पकड़ने के लिए घात लगाए होते हैं।

वयस्क हवासील का वज़न साढ़े चार-पांच किलोग्राम तक होता है। चोंच के नीचे एक थैली, जिसे गलास्थि कहते हैं, मछलियों को पकड़ने के लिए होती है। प्रजनन काल में, एक वयस्क भूरा पेलिकन एक बार में 2 किलो मछली पकड़ सकता है। भूरे पेलिकन अन्य जलीय पक्षियों के साथ टिकाऊ व मज़बूत कॉलोनी बनाते हैं। वे पेड़ों पर घोंसले बनाते हैं और एक बार में दो से तीन अंडे देते हैं। जब चूज़ों की उम्र लगभग एक महीने हो जाती है तो ये चूज़े घोंसलों को नष्ट कर देते हैं।

इनकी प्रजनन कॉलोनियां गांवों के बहुत करीब या गांवों के अंदर ही होती हैं। और ये पक्षी मानव गतिविधि से परेशान नहीं होते हैं। गांव के लोग पेलिकन और उनके घोंसलों का स्वागत करते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। गांव के लोग भूरे पेलिकन की बीट का उपयोग उर्वरक के रूप में करते हैं। प्रजननकाल के बाद, भूरे पेलिकन की आबादी बहुत बड़े क्षेत्र में भोजन की तलाश में फैल जाती है।

2005 में फोर्कटेल में कन्नन और मनकादन द्वारा प्रकाशित एक व्यापक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में भूरे पेलिकन की संख्या लगभग 6,000-7,000 है। सर्वेक्षण में, दक्षिण भारत में तंजावुर के पास करैवेट्टी-वेट्टांगुडी, तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के पास कुंतनकुलम, कर्नाटक में कोकरबेल्लुर (मांड्या ज़िला) और करंजी झील (मैसूर शहर), और आंध्र प्रदेश में गुंटूर के पास उप्पलपाडु और पुलीकट झील के पास नेलपट्टू में इनके प्रजनन स्थल पाए गए थे। आंध्र प्रदेश में हाल में कोलेरू झील में इन पक्षियों की एक बड़ी प्रजनन कॉलोनी नष्ट हो गई, जहां एक्वाकल्चर के चलते पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त हो गया था।

पुरावनस्पति विज्ञानी बताते हैं कि पुलिकट झील, जो अब एक खारा दलदल है, 16वीं शताब्दी में एक घना मैंग्रोव वन हुआ करती थी। नमभूमि का पारिस्थितिक तंत्र वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को ‘ब्लू कार्बन’ के रूप में सोख लेता है। कार्बन सिंक के रूप में, मैंग्रोव वन प्रति हैक्टर 1000 टन कार्बन संग्रहित कर सकते हैं।

वैश्विक महत्व की नमभूमियों को रामसर स्थल कहा जाता है। रामसर नाम ईरान के उस शहर के नाम पर पड़ा है जहां 1971 में वैश्विक नमभूमि संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह संधि 1975 में प्रभावी हुई थी। भारत में 75 रामसर स्थल हैं, जिनमें से 14 तमिलनाडु में हैं। इनमें तीन रामसर स्थल पिछले साल जोड़े गए हैं: करिकिली पक्षी अभयारण्य, पल्लीकरनई मार्श रिज़र्व फॉरेस्ट और पिचावरम मैंग्रोव। खुशकिस्मती से भूरे पेलिकन इन सभी रामसर स्थलों  पर पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सांप की कलाबाज़ियां

गस्त 2019 में, कुछ शोधकर्ताओं को उत्तर-पश्चिम मलेशिया के एक विशाल चूना पत्थर पहाड़ के पास सड़क पार करता हुआ एक ड्वार्फ रीड सांप (स्यूडोरेब्डियन लॉन्गिसेप्स) दिखा। जैसे ही वे उसके पास गए तो पहले तो वह अपने बचाव के लिए हवा में ऊपर की ओर घूमा और फिर कुंडली की तरह गोल-गोल लपेटता हुआ नीचे आ गया। शोधकर्ताओं ने सांप को पकड़ लिया और उसे सड़क किनारे समतल जगह पर रख दिया। उसने यही बचाव करतब फिर कई बार दोहराया।

ड्वार्फ रीड सांप दिखने में गहरे रंग का, बौना और संटी सरीखा पतला सा होता है। यह निशाचर प्राणि है जो चट्टानों में छिप कर रहता है। शोधकर्ताओं ने इस सांप पर किए अपने अवलोकन को बायोट्रॉपिका में प्रकाशित किया है। सांपों में इस तरह की हरकत पहली बार देखी और दर्ज की गई है। हालांकि कई अन्य जानवर, जैसे पैंगोलिन और टेपुई मेंढक, भी इस तरह कुलांचे भर सकते हैं, लेकिन सरिसृपों की बात तो दूर, स्तनधारियों में भी शरीर को मरोड़ना (या बल देना) इतनी आम बात नहीं है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह सांप खतरे से जल्दी दूर भागने के लिए ऐसा करता है। उसका यह व्यवहार उसके शत्रुओं को भ्रमित भी कर सकता है। और क्योंकि उसकी यह कलाबाज़ी रेंगकर चलने की तुलना में उसके शरीर को ज़मीन से कम संपर्क में रखती है तो उसे सूंघ कर हमला करने वाले शिकारी भटक जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दो पिता की संतान

हिंदी फिल्मों में ‘एक बाप की औलाद’ की बात कई मर्तबा की जाती है और माना जाता है कि वही सच्ची औलाद होती है। लेकिन यहां बात उस संवाद के संदर्भ में नहीं बल्कि वैज्ञानिकों द्वारा नर की कोशिकाओं से अंडे के निर्माण की हो रही है।

लंदन में हाल ही में सम्पन्न तृतीय अंतर्राष्ट्रीय मानव जीनोम संपादन सम्मेलन में यह जानकारी दी गई कि शोधकर्ताओं ने नर चूहों की कोशिकाओं से अंडे बना लिए और जब उन्हें निषेचित करके मादा चूहे के गर्भाशय में रखा गया तो उनसे स्वस्थ संतान पैदा हुई और वे स्वयं संतानोत्पत्ति में सक्षम थीं।

यह करामात करने के लिए शोधकर्ता बरसों से प्रयास कर रहे थे। मसलन, 2018 में एक टीम ने खबर दी थी कि उन्होंने शुक्राणु या अंडाणु से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं से पिल्ले पैदा किए थे जिनके दो पिता या दो मांएं थीं। दो मांओं वाले पिल्ले तो वयस्क अवस्था तक जीवित रहे और प्रजननक्षम थे लेकिन दो पिता वाले पिल्ले कुछ ही दिन जीवित रहे थे।

फिर 2020 में कात्सुहिको हयाशी ने बताया था कि किसी कोशिका को प्रयोगशाला के उपकरणों में परिपक्व अंडे में विकसित होने के लिए किस तरह के जेनेटिक परिवर्तनों की ज़रूरत होती है। इसी टीम ने 2021 में खबर दी कि वह चूहे के अंडाशय की परिस्थितियां निर्मित करके अंडे तैयार करने में सफल रही और इन अंडों ने प्रजननक्षम संतानें भी उत्पन्न कीं।

अब हयाशी और उनके साथियों ने कोशिश शुरू कर दी कि वयस्क नर चूहे की कोशिकाओं से अंडे विकसित किए जाएं। उन्होंने इन कोशिकाओं को इस तरह परिवर्तित किया कि वे प्रेरित बहुसक्षम कोशिकाएं बन गईं। टीम ने इन कोशिकाओं को कल्चर में पनपने दिया जब तक कि उनमें से कुछ कोशिकाओं ने स्वत: अपना वाय गुणसूत्र गंवा नहीं दिया। जैसा कि सब जानते हैं नर चूहों की कोशिकाओं में सामान्यत: एक वाय और एक एक्स गुणसूत्र होता है। इन कोशिकाओं को रेवर्सीन नामक एक रसायन से उपचारित किया गया। यह रसायन कोशिका विभाजन के समय गुणसूत्रों के वितरण में त्रुटियों को बढ़ावा देता है। इसके बाद टीम ने वे कोशिकाएं ढूंढी जिनमें एक्स गुणसूत्र की दो प्रतिलिपियां थी, अर्थात गुणसूत्रों के लिहाज़ से वे मादा कोशिकाएं थीं।

इसके बाद टीम ने प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं को वे जेनेटिक संकेत दिए जो अपरिपक्व अंडा बनाने के लिए ज़रूरी होते हैं। जब अंडा बन गया तो उसका निषेचन शुक्राणु से करवाया गया और निषेचित अंडों को मादा चूहे के गर्भाशय में डाल दिया गया।

हयाशी ने सम्मेलन में बताया कि इन निषेचित अंडों (भ्रूण) की जीवन दर बहुत कम रही – कुल 630 भ्रूण गर्भाशयों में डाले गए और उनमें से मात्र 7 का विकास पिल्लों के रूप में हो पाया। लेकिन ये 7 भलीभांति विकसित हुए और वयस्क होकर प्रजननक्षम रहे।

यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, लेकिन हयाशी का कहना है कि अभी इसे एक चिकित्सकीय तकनीक बनने में बहुत समय लगेगा क्योंकि मनुष्य और चूहों में बहुत फर्क होते हैं। अभी यह भी देखना बाकी है कि क्या मूल कोशिका में जो एपिजेनेटिक बदलाव किए गए थे वे नर कोशिका से बने अंडों में सुरक्षित रहते हैं या नहीं। और भी कई तकनीकी अड़चनें आएंगी।

बहरहाल, यदि ये अड़चनें पार कर ली जाएं, तो यह तकनीक संतानहीनता की कुछ परिस्थितियों में कारगर हो सकती है। जैसे टर्नर सिंड्रोम के मामले में जहां स्त्री के दो में से एक एक्स गुणसूत्र नहीं होता या आधा-अधूरा होता है। जापान के होकाइडो विश्वविद्यालय के जैव-नैतिकताविद तेत्सुया इशी का कहना है कि यह तकनीक पुरुष (समलैंगिक विवाहित) दंपतियों को भी संतान पैदा करने का अवसर दे सकती है; हां, उन्हें सरोगेट गर्भाशय की ज़रूरत तो पड़ेगी। इसके अलावा, शायद सूदूर भविष्य में अकेला पुरुष भी अपनी जैविक संतान पैदा कर सकेगा। इस संदर्भ में सिर्फ तकनीकी नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दों पर विचार भी ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे नीरस संख्या

णितज्ञों को कई संख्याएं बहुत दिलचस्प लगती हैं जबकि कुछ संख्याएं नीरस लगती हैं। तो यह देखना दिलचस्प होगा कि गणितज्ञों को संख्याएं क्यों सरस और नीरस लगती हैं।

जैसे, पसंदीदा संख्या पूछे जाने पर गणित का कोई विद्यार्थी शायद पाई (π), या यूलर्स संख्या (e) या 2 का वर्गमूल कहे। लेकिन एक आम व्यक्ति के लिए कई अन्य संख्याएं दिलचस्प हो सकती हैं। जैसे सात समंदर, सातवां आसमान, सप्तर्षि में आया सात। तेरह को बदनसीब संख्या मानना उसे दिलचस्प बना देगा। चतुर्भुज में चार, या पंचामृत के चलते पांच को लोकप्रिय कहा जा सकता है।

इस संदर्भ में एक किस्सा मशहूर है। प्रसिद्ध गणितज्ञ गॉडफ्रे हैरॉल्ड हार्डी का ख्याल था कि 1729 एक नीरस संख्या है। वे इसी नंबर की टैक्सी में बैठकर अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे अपने गणितज्ञ साथी श्रीनिवास रामानुजन से मिलने पहंुचे और उन्हें बताया कि वे एक नीरस नंबर की टैक्सी में आए हैं। रामानुजन ने तत्काल इस बात खंडन करते हुए कहा था, “यह तो निहायत दिलचस्प संख्या है; यह वह सबसे छोटी संख्या है जिसे दो संख्याओं के घन के योग से दो तरह से व्यक्त किया जा सकता है (1729 = 123 + 13 = 103 + 93)।”

है ना मज़ेदार – 1729 जैसी संख्या भी दिलचस्प निकली। तो सवाल यह उठता है कि क्या कोई ऐसी संख्या है, जिसमें कोई दिलचस्प गुण न हो। लेकिन गणितज्ञों ने ऐसा तरीका खोज निकाला है जिसकी मदद से किसी भी संख्या के दिलचस्प गुणों का निर्धारण किया जा सकता है। और 2009 में किए गए अनुसंधान से पता चला कि प्राकृत संख्याओं (धनात्मक पूर्ण संख्याओं) को तो स्पष्ट समूहों में बांटा जा सकता है – रोमांचक और नीरस।

संख्या अनुक्रमों का एक विशाल विश्वकोश इन दो समूहों की तहकीकात को संभव बनाता है। गणितज्ञ नील स्लोअन के मन में ऐसे विश्वकोश का विचार 1963 में आया था। वे अपना शोध प्रबंध लिख रहे थे और उन्हें ट्री नेटवर्क नामक ग्राफ में विभिन्न मानों का कद नापना होता था। इस दौरान उनका सामना संख्याओं की एक शृंखला से हुआ – 0, 1, 8, 78, 944….। उस समय उन्हें पता नहीं था कि इस शृंखला की संख्याओं की गणना कैसे करें और वे तलाश रहे थे कि क्या उनके किसी साथी ने ऐसी शृंखला देखी है। लेकिन लॉगरिद्म या सूत्रों के समान संख्याओं की शृंखला की कोई रजिस्ट्री मौजूद नहीं थी। तो 10 वर्ष बाद स्लोअन ने पहला विश्वकोश प्रकाशित किया – ए हैण्डबुक ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस। इसमें लगभग 2400 शृंखलाएं थीं और गणित जगत में इसका भरपूर स्वागत किया गया।

आने वाले वर्षों में स्लोअन को कई शृंखलाएं प्रस्तुत की गईं और संख्या शृंखलाओं को लेकर कई शोध पत्र प्रकाशित हुए। इससे प्रेरित होकर स्लोअन ने अपने साथी साइमन प्लाउफ के साथ मिलकर 1995 में दी एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस प्रकाशित किया। इसका विस्तार होता रहा और फिर इंटरनेट ने आंकड़ों की इस बाढ़ को संभालना संभव बना दिया।

1996 में ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस सामने आया जिसमें शृंखलाओं की संख्या को लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। मार्च 2023 तक इसमें 3 लाख 60 हज़ार प्रविष्टियां थीं। इसमें कोई व्यक्ति अपनी शृंखला प्रस्तुत कर सकता है; उसे सिर्फ यह समझाना होगा कि वह शृंखला कैसे उत्पन्न हुई और उसमें दिलचस्प बात क्या है। यदि इन मापदंडों पर खरी उतरी तो उसे प्रकाशित कर दिया जाता है।

इस एनसायक्लोपीडिया में कुछ तो स्वत:स्पष्ट प्रविष्टियां हैं – जैसे अभाज्य संख्याओं की शृंखला (2, 3, 5, 7, 11…) या फिबोनाची शृंखला (1, 1, 2, 3, 5, 8, 13….)। किंतु ऐसी शृंखलाएं भी हैं – टू-बाय-फोर स्टडेड लेगो ब्लॉक्स की एक निश्चित संख्या (n) की मदद से एक स्थिर मीनार बनाने के तरीकों की संख्या। या ‘लेज़ी कैटरर्स शृंखला’ (1, 2, 4, 7, 11, 16, 22, 29,…) या किसी केक को n बार काटकर अधिकतम कितने टुकड़े प्राप्त हो सकते हैं।

यह एनसायक्लोपीडिया दरअसल सारी शृंखलाओं का एक संग्रह बनाने का प्रयास है। लिहाज़ा, यह संख्याओं की लोकप्रियता को आंकने का एक साधन भी बन गया है। कोई संख्या इस संग्रह में जितनी अधिक मर्तबा सामने आती है, उतनी ही वह दिलचस्प है। कम से कम फिलिप गुग्लिएमेटी का यह विचार है। अपने ब्लॉग डॉ. गौलू पर उन्होंने लिखा था कि उनके एक गणित शिक्षक ने दावा किया था कि 1548 में कोई विशेष गुण नहीं हैं। लेकिन ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया में यह संख्या 326 बार प्रकट होती है। थॉमस हार्डी ने जिस संख्या 1729 को नीरस माना था वह इस एनसायक्लोपीडिया में 918 बार नज़र आती है।

तो गुग्लिएमेटी सचमुच नीरस संख्याओं की खोज में जुट गए। यानी ऐसी संख्याएं जो एनसायक्लोपीडिया में या तो कभी नहीं दिखतीं या बहुत कम बार दिखती हैं। संख्या 20,067 की यही स्थिति पता चली। इस वर्ष मार्च तक यह वह सबसे छोटी संख्या थी जो एक भी शृंखला का हिस्सा नहीं थी। इसका कारण शायद यह है कि इस एनसायक्लोपीडिया में किसी भी शृंखला के प्रथम 180 पदों को शामिल किया जाता है। अन्यथा हर संख्या धनात्मक पूर्ण संख्याओं की सूची में तो आ ही जाएगी। इस लिहाज़ से देखा जाए तो संख्या 20,067 काफी नीरस लगती है जबकि 20,068 की 6 प्रविष्टियां मिलती हैं। वैसे यह कोई स्थायी अवस्था नहीं है। यदि कोई नई शृंखला खोज ली जाए, तो 20,067 का रुतबा बदल भी सकता है। बहरहाल, एनसायक्लोपीडिया संख्या की रोचकता का कुछ अंदाज़ तो दे ही सकता है।

वैसे बात इतने पर ही नहीं रुकती और यह एनसायक्लोपीडिया संख्याओं के अन्य गुणों की खोजबीन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। लेकिन शायद वह गहन गणित का मामला है। (स्रोत फीचर्स)

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फल मक्खियां क्षारीय स्वाद पहचानती हैं

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हाल ही में शोधकर्ताओं ने फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) में एक नए प्रकार का स्वाद ग्राही खोज निकाला है जिससे वे क्षारीय पदार्थों का पता लगा सकती हैं। इस अद्भुत क्षमता से वे उच्च क्षारीयता वाले ज़हरीले भोजन और सतहों से स्वयं को बचा सकती हैं। इतने भलीभांति अध्ययन किए गए जंतु में एक नए स्वाद ग्राही का पता चलना आश्चर्यजनक है। नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित रिपोर्ट अन्य जीवों में भी क्षारीय स्वाद ग्राही का पता लगाने की संभावना खोलती है।

अधिकांश जीव अम्ल और क्षार के एक संकीर्ण परास में कार्य करते हैं जो उनके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। पिछले कुछ दशकों में खट्टे और अम्लीय स्वाद का पता लगाने वाले ग्राहियों, कोशिकाओं और तंत्रिका मार्गों का विस्तृत अध्ययन किया गया है लेकिन क्षारीय पदार्थों को लेकर समझ उतनी पुख्ता नहीं है।   

इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मक्खियों में उच्च क्षारीयता के लिए विशिष्ट ग्राहियों का पता लगाने का प्रयास किया। अम्लीयता-क्षारीयता को पीएच नामक एक पैमाने पर नापा जाता है – पीएच कम होने से अम्लीयता बढ़ती है और पीएच बढ़ने पर क्षारीयता।

मक्खियों की पसंद को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने उन्हें पेट्री डिश में मीठा जेल पेश किया। इसमें आधे जेल को उदासीन (पीएच 7) रखा गया जबकि बाकी आधे को क्षारीय (पीएच >7) बनाया गया था। प्रत्येक आधे जेल को लाल या नीले रंग से रंगा गया। पसंदीदा जेल का सेवन करने के बाद मक्खियों का पारभासी पेट लाल, नीला या बैंगनी रंग (यदि दोनों हिस्से खाएं) का हो जाएगा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मक्खियों ने अधिक क्षारीय भोजन से परहेज़ किया। अलबत्ता मक्खियों का एक समूह ऐसा भी था जो दो प्रकार के भोजन के बीच अंतर करने में उतना अच्छा नहीं था। इन मक्खियों का अध्ययन करने से पता चला कि उनके जीन में एक उत्परिवर्तन हुआ था। यह जीन मक्खियों की सूंड के सिरे पर उपस्थित स्वाद तंत्रिकाओं के साथ-साथ उनके पैरों और एंटीना की कोशिकाओं में सक्रिय पाया गया।  

कोशिकाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हुआ कि यह जीन एक ऐसा ग्राही प्रोटीन बनाता है जो क्षारीय घोल से संपर्क में आने पर सक्रिय होकर एक चैनल खोल देता है। इससे मक्खी के मस्तिष्क को तुरंत उस भोजन से बचने का संकेत मिलता है।  

शोधकर्ताओं के अनुसार अधिकांश संवेदना ग्राहियों में चैनल धनायन प्रवाहित करते हैं लेकिन इस मामले में ऋणायनों का प्रवाह देखा गया।

ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक से इस जीन से सम्बंधित कोशिकाओं को सक्रिय करने पर मक्खियों ने सूंड को पीछे खींच लिया यानी वह भोजन बहुत क्षारीय है। 

शोधकर्ताओं के अनुसार इन परिणामों को कशेरुकी जीवों पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि उनमें यह जीन उपस्थित नहीं होता है। इस अध्ययन से यह भी समझा जा सकता है कि मक्खियां अंडे देने का स्थान कैसे चुनती हैं या कीट नियंत्रण के उपायों पर किस तरह से प्रतिक्रिया देंगी। (स्रोत फीचर्स)

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रेल पटरियों के बीच बनेगी बिजली – मनीष श्रीवास्तव

ज पूरी दुनिया ऊर्जा संकट के दौर से गुजर रही है। परंपरागत ऊर्जा स्रोत और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को लेकर समय-समय पर विश्व स्तर पर ज़रूरी नियम बनाए जाते रहते हैं और उनका पालन कराने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास भी होता रहता है। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण खबर आई है कि अब रेलवे पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाकर सौर ऊर्जा उत्पन्न करने की तैयारी की जा रही है ताकि बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सके और इस परियोजना को पूरे विश्व में लागू किया जा सके। इस नवोन्मेषी परियोजना का संचालन स्विट्ज़रलैण्ड की कंपनी सन-वेज़ द्वारा किया जा रहा है। कंपनी ने एक ऐसा डिवाइस तैयार किया है जिसके माध्यम से पटरियों के बीच निश्चित आकार के सोलर पैनल लगाने का काम किया जाएगा। पटरियों के बीच की चौड़ाई के हिसाब से एक मीटर चौड़े पैनल को पिस्टन तंत्र का उपयोग कर लगाया जाएगा।

कंपनी का दावा है कि पैनल को पटरियों के बीच लगाने से रेल गाड़ियों के संचालन में भी किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी। इनमें विशेष प्रकार के एंटी-रिफ्लेक्शन फिल्टर का प्रयोग होगा ताकि ट्रेन चलाने वाले ड्राइवरों को पैनल के रिफ्लेक्शन की वजह से किसी प्रकार की परेशानी न हो।

वर्तमान में स्विटज़रलैण्ड के बट्स रेलवे स्टेशन की पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाए जा रहे हैं। इसकी सफलता के बाद, स्विट्ज़रलैण्ड के कुल 5317 किलोमीटर लंबे रेलवे नेटवर्क में इसे बिछाने की योजना है। कंपनी का अनुमान है कि इन सोलर पैनलों के द्वारा वार्षिक तौर पर 1 टेरावॉट प्रति घंटा सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकेगी और स्विट्ज़रलैण्ड की वार्षिक ऊर्जा खपत का 2 प्रतिशत उत्पन्न किया जा सकेगा।

आवश्यकता होने पर सोलर पैनल को वापस बिना किसी असुविधा के निकाला जा सकेगा।

सन-वेज़ कंपनी ने आगामी सालों में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली, अमेरिका और एशियाई देशों में परियोजना को संचालित करने का लक्ष्य रखा है। भारत सहित जिन देशों में बड़े स्तर पर रेलवे नेटवर्क हैं, उनके लिए यह परियोजना बहुत फायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि अब तक रेलवे ट्रैक के बीच खाली पड़ी जगह का कोई उपयोग नहीं हो रहा था। इस परियोजना की सफलता के बाद सौर ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर सकारात्मक परिवर्तन आने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)

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घुड़सवारी के प्रथम प्रमाण

नुष्य ने सबसे पहले घुड़सवारी कब की थी? इस सवाल के जवाब कई तरह से खोजने की कोशिश हुई है क्योंकि घोड़े पर सवारी करना मानव इतिहास का एक अहम पड़ाव माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि आजकल के रूस और यूक्रेन के घास के मैदानों (स्टेपीज़) से निकलकर लोग तेज़ी से युरेशिया में फैल गए थे। यह कोई 5300 वर्ष पहले की बात है। जल्दी ही इन यामानाया लोगों के जेनेटिक चिंह मध्य युरोप से लेकर कैस्पियन सागर के लोगों तक में दिखने लगे थे। आजकल के पुरावेत्ता इन लोगों को ‘पूर्वी चरवाहे’ कहते हैं।

लेकिन इनमें घुड़सवारी के कोई लक्षण नज़र नहीं आते थे। इसके अलावा, यामानाया स्थलों पर मवेशियों की हड्डियां भी मिली हैं और मज़बूत गाड़ियों के अवशेष भी। लेकिन घोड़ों की हड्डियां बहुत कम मिली हैं। इस सबके आधार पर पुरावेत्ताओं ने मान लिया था कि लोगों ने घोड़ों पर सवारी 1000 साल से पहले शुरू नहीं की होगी।

अब अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइन्सेज़ (AAAS) के सम्मेलन में प्रस्तुत एक अध्ययन में दावा किया गया है कि घुड़सवारी के प्रमाण प्राचीन घोड़ों की हड्डियों में नहीं, बल्कि यामानाया सवारों की हड्डियों में मिले हैं। हेलसिंकी विश्वविद्यालय के वोल्कर हेड का कहना है कि सब लोग घोड़ों को देख रहे थे और हमने मनुष्यों को देखा।

आनुवंशिक व अन्य प्रमाण बताते हैं कि घोड़ों को 3500 ईसा पूर्व में पालतू बना लिया गया था। लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों या चित्रों में घुड़सवारी के प्रमाण इसके लगभग 2000 वर्षों बाद मिलने लगते हैं। तो कई पुरावेत्ता मानने लगे थे कि पूर्वी चरवाहे घोड़ों पर सवारी करने की बजाय अपने पशुधन के साथ पैदल ही चलते रहे होंगे।

अब यामानाया फैलाव को समझने के उद्देश्य से हेलसिंकी के मानव वैज्ञानिक मार्टिन ट्रॉटमैन और उनके साथियों ने रोमानिया, हंगरी और बुल्गारिया की कब्रों से खोदे गए डेढ़ सौ से ज़्यादा मानव कंकालों का विश्लेषण किया है। यह क्षेत्र यामानाया लोगों के फैलाव की पूर्वी सीमा पर है। विश्लेषण से पता चला कि ये लोग सुपोषित, तंदुरुस्त और अच्छे कद वाले थे। उनकी हड्डियों के रासायनिक विश्लेषण से यह भी लगता है कि इनका भोजन प्रोटीन प्रचुर था। लेकिन एक दिक्कत थी – इनके कंकालों में विशिष्ट किस्म की क्षतियां और विकृतियां नज़र आईं।

कई कंकालों में रीढ़ की हड्डियां दबी हुई थीं। ऐसा तब हो सकता है जब बैठी स्थिति में व्यक्ति को दचके लग रहे हों। कंकालों की जांघ की हड्डियों में कुछ मोटे स्थान भी नज़र आए जो टांगें मोड़कर लंबे समय तक बैठक का परिणाम हो सकते हैं। और तो और, टूटी हुई कंधे की हड्डियां, पैरों की हड्डियों में फ्रेक्चर और कशेरुकों में दरारें ऐसी चोटों से मेल खाती थीं जो या तो घोड़े द्वारा मारी गई लातों से हो सकती थीं या वैसी हो सकती थीं जो आजकल घुड़सवारों को घोड़ों पर से गिरने के कारण होती हैं।

इन लक्षणों की तुलना उन्होंने बाद के समय के ऐसे कंकालों से की जिन्हें घुड़सवारी के उपकरणों और घोड़ों के साथ दफनाया गया था जो इस बात का परिस्थितिजन्य प्रमाण है कि ये पक्के तौर पर घुड़सवार रहे होंगे। और इन लक्षणों में समानता देखी गई। लेकिन अन्य पुरावेत्ता अभी अपने विचारों को लगाम दे रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि जब तक घोड़ों की हड्डियां न मिल जाएं, जिन पर सवारी के चिंह हों, तब तक निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक समस्या यह भी है कि पुरावेत्ताओं को यामानाया स्थलों से गाड़ियां, बैल और जुएं तो मिले हैं लेकिन लगाम और ज़ीन जैसे घुड़सवारी के साधन नहीं मिले हैं। तो मामला अभी खुला है कि मनुष्यों ने घुड़सवारी कब शुरू की थी। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक सुपरजीन में परिवर्तन के व्यापक असर होते हैं

क चींटी होती है जिसे छापामार चींटी (Ooceraea biroi) कहते हैं। इनमें स्पष्ट श्रम विभाजन पाया जाता है। कुछ सदस्य श्रमिक होते हैं और उनका काम होता है अन्य चींटी प्रजातियों की बस्तियों पर छापा मारना और वहां से उनकी शिशु चींटियों को चुराकर अपनी बस्ती में ले आना। ये नन्ही चींटियां भोजन के रूप में काम आती हैं। आम तौर पर श्रमिक चींटियों के पंख नहीं होते। पंख तो सिर्फ रानी चींटी के होते हैं जो अपनी बस्ती से बाहर कदम तक नहीं रखतीं।

लेकिन ऐसी एक बस्ती के अध्ययन में देखा गया कि कुछ श्रमिकों के पंख निकल आए थे और वे बस्ती के बाहर कदम रखने से कतराने लगी थी। कारण एक जेनेटिक उत्परिवर्तन था जिसके चलते वे सुस्त परजीवी बन गई थीं जो अंडे देने और अन्य चींटियों द्वारा लाए गए भोजन को चट करने के अलावा कुछ नहीं कर रही थी।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में खोजी गई ये चींटियां शायद इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं कि कैसे किसी सुपरजीन में उत्परिवर्तन एक साथ कई परिवर्तनों को रफ्तार दे सकता है। सुपरजीन ऐसे जीन्स के समूह को कहते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी में एक साथ पहुंचते हैं। जेनेटिक परिवर्तन की वजह से इस तरह के त्वरित विकास की संभावना लगभग एक दशक पूर्व जताई गई थी लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं था।  

अब लगता है कि Ooceraea biroi में इसे देख लिया गया है। मिलीमीटर लंबी ये छापामार चींटियां बांग्लादेश की मूल निवासी हैं लेकिन अब ये चीन, भारत व अन्य कई द्वीपों पर पाई जाती हैं। अधिकांश चींटी बस्तियों में एक रानी होती है, जो अंडे देती है और श्रमिक चींटियां उसके लिए, खुद के लिए तथा बस्ती की नन्ही चींटियों के लिए भोजन की व्यवस्था करती हैं। लेकिन इन छापामार चींटियों में रानी नहीं होती। इनमें श्रमिक अंडे देते हैं जिनमें से और श्रमिक पैदा होते हैं। इनकी गंध संवेदना काफी बढ़िया होती है जिसके दम पर ये अन्य बस्तियों पर छापे मारते समय ज़बर्दस्त सहयोग से काम करती हैं।

फिर 2015 में रॉकफेलर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने देखा कि ओकिनावा (जापान) से संग्रहित कुछ छापामार चींटियों में युवावस्था के शुरुआती दिनों में रानी चींटी के समान पंख हैं। और तो और, उनके बच्चों के भी पंख विकसित हुए। यानी यह गुण अगली पीढ़ी को भी हस्तांतरित हो जाता है। यह भी देखा गया कि पंख का उभरना उत्परिवर्तन का एकमात्र प्रभाव नहीं था। तो इसकी खोजबीन एक ज़ोरदार जासूसी कथा बन गई। आगे सात सालों तक कीट वैज्ञानिक वारिंग ‘बक’ ट्राइबल ने इनका अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पंखदार छापामार चींटियां अपने बाकी साथियों की तुलना में अधिक अंडे देती हैं और अन्य चींटी बस्तियों पर छापे मारने के लिए बाहर भी कम निकलती हैं। एक मायने में ये परजीवी चींटियां हैं।

वैसे परजीवी चींटियां कोई असामान्य बात नहीं है। चींटियों की ऐसी 400 प्रजातियां हैं जो किसी अन्य चींटी (अन्य प्रजाति की चींटी) की बांबी में मज़े से रहती हैं। और तो और, उस बांबी के श्रमिक उन्हें और उनकी संतानों को खिलाते-पिलाते हैं और उनकी सुरक्षा करते हैं। लेकिन ऐसी अधिकांश चींटियां लाखों वर्षों से मुफ्तखोर रही हैं और शायद यह क्षमता विकसित करने में उन्हें हज़ारों साल लगे होंगे। तो पता करना मुश्किल है कि यह सफलता किन चरणों से होकर मिली होगी।

दूसरी ओर छापामार चींटियों में तो यह करिश्मा एक पीढ़ी में हो गया। ट्राइबल मानते हैं कि यह त्वरित संक्रमण एक सुपरजीन में उत्परिवर्तन का परिणाम है। इस सुपरजीन में कई सारे जीन्स हैं जो निर्धारित करते हैं कि श्रमिक कैसे दिखेंगे और कैसे व्यवहार करेंगे। एक खास बात यह है कि छापामार चींटी में सारे श्रमिक जेनेटिक रूप से एक जैसे यानी क्लोन होते हैं। इसलिए यह पता करना मुश्किल है कि इस उत्परिवर्तन के बगैर स्थिति क्या होगी। खैर, ट्राइबल के दल ने पता लगाया है कि अधिकांश अन्य परजीवी और उनकी मेज़बान चींटियों के डीएनए में फर्क इसी सुपरजीन में होता है।

ट्राइबल का तो यहां तक कहना है कि अधिकांश परजीवी चींटियां इसी तरह प्रकट हुईं और फिर कालांतर में वे अलग प्रजातियां बन गईं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम बुद्धि बता देगी कि आपने क्या देखा था

कृत्रिम बुद्धि (एआई) का एक नया करिश्मा सामने आया है और यह बहुत हैरतअंगेज़ है। इस बार एआई ने व्यक्ति के ब्रेन स्कैन का विश्लेषण करके इस बात का खुलासा कर दिया कि उस व्यक्ति ने क्या देखा था। एकदम साफ चित्र तो नहीं बना लेकिन मोटा-मोटा खाका तो सामने आ ही गया।

एक ओर तो तंत्रिका वैज्ञानिक यह समझने की जद्दोजहद में हैं कि हमारी आंखों से जो इनपुट प्राप्त होता है, उसे दिमाग मानसिक छवियों का रूप कैसे देता है, वहीं एआई ने दिमाग की इस काबिलियत की नकल कर ली है। हाल ही में एक कंप्यूटर दृष्टि सम्मेलन में यह बताया गया कि ब्रेन स्कैन को देखकर एआई उस छवि का काफी यथार्थ चित्रण कर देती है जो उस व्यक्ति ने हाल में देखी थी।

दिमाग में बनी तस्वीर को पढ़ने का यह करिश्मा एआई की एक एल्गोरिद्म की मदद से किया गया – स्टेबल डिफ्यूज़न। इस एल्गोरिद्म का विकास जर्मनी के एक दल ने 2022 में जारी किया था। स्टेबल डिफ्यूज़न दरअसल पूर्व में विकसित DALL-E 2 और Midjourney जैसे कुछ एल्गोरिद्म के समान है लेकिन वे एल्गोरिद्म किसी पाठ्य वस्तु द्वारा दिए गए उद्दीपन के आधार पर तस्वीर बनाते हैं। इन्हें पाठ्य वस्तुओं से जुड़ी करोड़ों तस्वीरों की मदद से ऐसा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।

ताज़ा अध्ययन के लिए जापान के एक दल ने स्टेबल डिफ्यूज़न के मानक प्रशिक्षण में कुछ आयाम और जोड़े। इनमें खास तौर से ब्रेन स्कैन के दौरान व्यक्ति को दिखाए चित्र के ब्रेन स्कैन में दिख रहे पैटर्न को लेकर विवरण शामिल किए गए थे। यानी व्यक्ति को कोई चित्र दिखाया, ब्रेन स्कैन में उसका पैटर्न देखा और उस पैटर्न को चित्र से जोड़कर विवरण बनाया और यह सारी जानकारी कंप्यूटर में डाल दी।

इसके बाद एल्गोरिद्म इस जानकारी का उपयोग चित्रों के प्रोसेसिंग में शामिल दिमाग के विभिन्न हिस्सों (जैसे ऑक्सीपीटल व टेम्पोरल लोब्स) से प्राप्त जानकारी को जोड़कर तस्वीर का निर्माण करता है। ओसाका विश्वविद्यालय के यू तगाकी का कहना है कि यह एल्गोरिद्म फंक्शनल एमआरआई (fMRI) से प्राप्त ब्रेन स्कैन की जानकारी की व्याख्या करता है। यह रिकॉर्ड करता है कि किसी भी क्षण दिमाग के विभिन्न हिस्सों में रक्त के प्रवाह में किस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं, जिसके आधार पर यह पता चलता है कि कौन से हिस्से सक्रिय हैं।

जब व्यक्ति फोटो देखता है तो टेम्पोरल लोब मूलत: तस्वीर की विषयवस्तु (व्यक्ति, वस्तु अथवा सीनरी) पर ध्यान देता है जबकि ऑक्सीपीटल लोब उसके विन्यास और परिप्रेक्ष्य (जैसे वस्तुओं की साइज़ और स्थिति) रिकॉर्ड करता है। यह सारी जानकारी fMRI में दिमाग के हिस्सों की सक्रियता के रूप में रिकॉर्ड हो जाती है। इसी जानकारी का उपयोग एआई द्वारा करके तस्वीर को पुन: निर्मित किया जाता है।

इस अध्ययन में जानकारी का एक स्रोत यह था कि मिनेसोटा विश्वविद्यालय में 4 व्यक्तियों के ब्रेन स्कैन की सूचना थी जो प्रत्येक व्यक्ति द्वारा 10,000 फोटो देखते हुए लिए गए थे। इनमें से प्रत्येक के कुछ ब्रेन स्कैन्स का उपयोग एल्गोरिद्म के प्रशिक्षण में नहीं किया गया था, लेकिन उनका उपयोग एल्गोरिद्म की जांच में किया गया।

एआई द्वारा जनित प्रत्येक तस्वीर शोरगुल के रूप में शुरू होती है जैसा टीवी पर भी देखा जाता है। फिर धीरे-धीरे जब स्टेबल डिफ्यूज़न व्यक्ति की दिमागी सक्रियता की जानकारी की तुलना उसे प्रशिक्षण के दौरान दिखाई गई तस्वीरों से करता है, तो कुछ पैटर्न उभरने लगते हैं। अंतत: एक तस्वीर उभर आती है। इसमें विषयवस्तु, चीज़ों की जमावट, और परिप्रेक्ष्य काफी अच्छे से नज़र आते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: ऑक्सीपीटल लोब में सक्रियता से विन्यास और परिप्रेक्ष्य सम्बंधी जानकारी तो पर्याप्त थी लेकिन वस्तुओं को पहचानने के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं थी। लिहाज़ा जहां घंटाघर था, वहां एल्गोरिद्म ने एक अमूर्त सा चित्र बना दिया। बहरहाल, शोधकर्ताओं का मत है कि प्रशिक्षण के लिए ज़्यादा डैटा का उपयोग करने से ये बारीकियां भी पकड़ी जा सकेंगी। फिलहाल शोधकर्ताओं ने इस समस्या से निपटने के लिए प्रशिक्षण के लिए प्रयुक्त छवियों के साथ नाम भी चस्पा कर दिए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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किसी अन्य तारे से आया पहला मेहमान

पको याद होगा 2017 में आकाश में एक रहस्यमय वस्तु गुज़री थी। इसके आकार वगैरह को देखकर बताना मुश्किल था कि यह एक क्षुद्रग्रह है या धूमकेतु है (कुछ ने तो इसे एलियन्स द्वारा भेजा गया यान भी कहा था)। इस अत्यंत तेज़ रफ्तार पिंड को ओमुआमुआ नाम दिया गया था।

हाल ही में बर्कले स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ जेनिफर बर्गनर और उनकी टीम ने विश्लेषण के आधार पर इसे धूमकेतु घोषित किया है। गौरतलब है कि ओमुआमुआ को सबसे पहले सूर्य के नज़दीक से 87 किलोमीटर प्रति सेकंड की अधिकतम गति से गुज़रते देखा गया था जो सौर मंडल में बनने वाली किसी वस्तु के लिए बहुत अधिक है। अवलोकनों के अनुसार यह 100 से 400 मीटर लंबा और सिगार के आकार का था। सौर मंडल से निकलने के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी बढ़ गई थी। हालांकि अन्य धूमकेतुओं के समान ओमुआमुआ के पीछे कोई पूंछ नहीं दिखाई दी थी और न ही उसके आसपास धूल या गैस का कोई गोला था।

शोधकर्ताओं के अनुसार ओमुआमुआ के जीवन की शुरुआत किसी तारे से निकले जल-समृद्ध धूमकेतु के रूप में हुई। इसके बाद ब्रह्मांड में सुपरनोवा और अन्य ऊर्जावान घटनाओं द्वारा उत्सर्जित उच्च ऊर्जा किरणों ने इसकी लगभग 30 प्रतिशत बर्फ को हाइड्रोजन में परिवर्तित किया और यात्रा के दौरान यह ओमुआमुआ की बर्फ में फंसी रही। सूर्य के निकट पहुंचने पर बर्फ के पिघलने से फंसी हुई हाइड्रोजन निकलने से इसकी गति में वृद्धि हुई। चूंकि आणविक हाइड्रोजन सामान्य धूमकेतुओं से उत्सर्जित कार्बन मोनोऑक्साइड या कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में कम भारी होती है इसलिए वह अपने साथ अंतरिक्ष में उपस्थित धूल के कणों को इतना अधिक नहीं खींच पाई। इसी वजह से पूंछ नहीं बन पाई होगी।       

पूर्व में शोधकर्ताओं का मानना था कि ओमुआमुआ धूल और गैस के ठंडे अंतरतारकीय बादल से बनने वाला एक क्षुद्रग्रह या जमी हुई हाइड्रोजन का टुकड़ा हो सकता है। बहरहाल हालिया विश्लेषण के बाद सभी सहमत हैं कि यह एक धूमकेतु ही था।

अब ओमुआमुआ नेप्च्यून की कक्षा से आगे निकल चुका है और सौर मंडल से बाहर भी निकल जाएगा। हम इसे फिर कभी नहीं देखेंगे। लेकिन संभावना है कि इस तरह के और पिंड भविष्य में हमारे सौर मंडल में प्रवेश करेंगे। इसलिए कॉमेट इंटरसेप्टर नामक एक युरोपीय मिशन तैयार किया जा रहा है जो इस तरह के पिंडों का अध्ययन करने के लिए चंद्रमा से आगे की एक कक्षा में स्थापित किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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