ठंडक के लिए कमरे को ठंडा करना ज़रूरी नहीं! – एस. अनंतनारायणन

र्मी से राहत पाने के लिए हम अपने कमरे या अपने आसपास की जगह को ठंडा करने का जो तरीका अपनाते हैं, उससे हम उन चीजों को भी ठंडा कर देते हैं जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत नहीं होती। किसी कमरे में मौजूद चीज़ों की ऊष्मा धारिता, जिन्हें एयर कंडीशनर (एसी) ठंडा कर देता है, लोगों की ठंडक की ज़रूरत की तुलना में कई गुना अधिक होती है।

हाल ही में ETH इंस्टीट्यूट के सिंगापुर परिसर के एरिक टिटेलबौम और उनके दल ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में ‘विकिरण शीतलन’ (रेडिएटिव कूलिंग) पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है। इस तकनीक में शरीर की गर्मी बाहर निकलेगी और शरीर ठंडा तो होगा लेकिन आसपास की चीज़ों को ठंडा करने में ऊर्जा ज़ाया नहीं होगी।

जिस तरह हम किसी वस्तु पर रंगीन रोशनी तो डाल सकते हैं, लेकिन हम उस पर ‘अंधेरा’ नहीं डाल सकते, उसी तरह गर्म वस्तुएं अपनी गर्मी तो बाहर छोड़ती या बिखेरती हैं, लेकिन ठंडी चीज़ें अपनी ‘ठंडक’ बाहर छोड़ती या फैलाती नहीं हैं। लेकिन ठंडी चीज़ें जितनी ऊष्मा उत्सर्जित करती हैं उसकी तुलना में अधिक ऊष्मा अवशोषित करती हैं। और ठंडी चीज़ों की मौजूदगी गर्म चीजों को अपनी ऊष्मा खोने और ठंडी होने में मदद करती है – तो सवाल सिर्फ उन चीज़ों को शीतल करने का है जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत है।

आम तौर पर हम गर्मी के मौसम में लोगों को ठंडक देने के लिए जिस तरीके का उपयोग करते हैं, वह है एयर कंडीशनिंग या वातानुकूलन। इसमें कमरों में ठंडी हवा छोड़ी जाती है। और सर्दियों में लोगों को गर्माहट देने के लिए हम ‘रेडिएटर्स’ या गर्म वस्तुओं का उपयोग करते हैं, जो कमरे की हवा को गर्म कर देते हैं, हालांकि लोग सीधे भी इन रेडिएटर्स की गर्मी को महसूस कर सकते हैं।

ठंडा करने के लिए एकमात्र व्यावहारिक तरीका है कि हवा को शीतलक से गुज़ार कर ठंडा किया जाए, और फिर इस ठंडी हवा को कमरे में फैलाया जाए (सिर्फ पंखे का उपयोग करें तो उसकी हवा से शरीर का पसीना वाष्पित होकर थोड़ी ठंडक महसूस कराता है)। इस तरह ठंडे किए जा रहे कमरे में लोग ठंडक या आराम महसूस करने लगें उसके पहले ठंडी हवा को दीवारों, फर्नीचर और फर्श को ठंडा करना पड़ता है।

मानव शरीर का तापमान लगभग 37 डिग्री सेल्सियस रहता है। चूंकि आसपास का परिवेश आम तौर पर अपेक्षाकृत ठंडा होता है, तो शरीर के भीतर ऊष्मा उत्पादन और बाहर ऊष्मा ह्रास के बीच संतुलन रहता है। यह ऊष्मा ह्रास मुख्य रूप से विकिरण के माध्यम से होता है; इस प्रक्रिया में गर्म शरीर परिवेश से अवशोषित ऊष्मा की तुलना में अधिक ऊष्मा बिखेरता है। कुछ ऊष्मा ह्रास हवा के संपर्क से भी होता है, लेकिन इस तरह से बहुत ज़्यादा ऊष्मा बाहर नहीं जाती है, क्योंकि हवा की ऊष्मा धारिता कम होती है।

समस्या तब शुरू होती है जब गर्मी के दिनों में बाहर का परिवेश शरीर की तुलना में गर्म हो जाता है, और शरीर पर्याप्त ऊष्मा नहीं बिखेर पाता। एकमात्र तरीका होता है कि पसीना आए जिसके वाष्पीकरण के माध्यम से शरीर की गर्मी बाहर निकल सके, लेकिन आसपास का परिवेश उमस (नमी) भरा हो तो पसीना आना कारगर नहीं होता है बल्कि बेचैनी बढ़ जाती है क्योंकि पसीने का वाष्पीकरण नहीं हो पाता।

प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ताओं ने जिस तरीके का उपयोग किया है उसमें उन्होंने कमरे में एक विशेष रूप से निर्मित पर्याप्त ‘ठंडी’ सतह लगाई है जो मानव शरीर द्वारा उत्सर्जित ऊष्मा को अवशोषित तो करेगी लेकिन उसे पर्यावरण में वापस नहीं छोड़ेगी – यानी यह एकतरफा रास्ते (वन-वे) की तरह काम करेगी।

तो सवाल है कि कोई भी ठंडी सतह यह काम क्यों नहीं कर सकती? इसलिए कि कमरे की कोई भी साधारण सतह या चीज़ आसपास बहती गर्म हवा के संपर्क में आकर जल्दी गर्म हो जाएगी। इसके अलावा, हवा में मौजूद नमी ठंडी सतह पर संघनित हो जाएगी। और संघनन की प्रक्रिया से अत्यधिक ऊष्मा मुक्त होती है। वातानुकूलन के मामले में, दरअसल, कमरे में प्रवाहित हो रही हवा को सुखाने में जितनी ऊर्जा लगती है, वह ऊर्जा उस हवा को ठंडा करने में लगने वाली ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जो व्यवस्था बनाई है वह इन दोनों प्रभावों को ध्यान रखती है और ठंडी सतह को केवल उस पर पड़ने वाले विकिरण द्वारा ऊष्मा सोखने देती है।

शोधकर्ताओं द्वारा बनाई गई यह व्यवस्था धातु की चादर लगी एक दीवार थी जिसे ठंडे किए गए पानी की मदद से 17 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। इस व्यवस्था को उन्होंने सिंगापुर में एक तंबू को ठंडा करने में आज़माया, जिसका तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस था। आम तौर पर, हवा (संवहन द्वारा) धातु की चादर को गर्म कर देती है। लेकिन यहां ऐसा न हो इसलिए इस व्यवस्था में एक कम घनत्व वाली पॉलीएथलीन झिल्ली को इंसुलेटर के रूप में धातु की चादर के ऊपर लगाया गया था। अध्ययन के अनुसार, “…हम ऊष्मा स्थानांतरण के इस अवांछित संवहन को हटा पाए”। बहरहाल, यह झिल्ली विकिरण ऊष्मा के लिए पारदर्शी थी, और तंबू में मौजूद लोगों के गर्म शरीर का ऊष्मा विकिरण इससे गुज़र सकता था ताकि उसे अंदर की ठंडी सतह सोख सके।

हवा से संपर्क वाली सतह को इन्सुलेशन झिल्ली ने अधिक ठंडा होने से बचाए रखा जिसकी वजह से संघनन नहीं हो पाया। परीक्षणों में देखा गया कि 66.5 प्रतिशत आर्द्रता होने पर भी 23.7 डिग्री सेल्सियस (जिस तापमान पर संघनन शुरू होता है) पर भी दीवार की सतह पर कोई संघनन नहीं हुआ था। अध्ययन के अनुसार, दीवार के अंदर से गुज़रता ठंडा पानी संघनन तापमान से भी कम, 12.7 डिग्री सेल्सियस, तक भी ठंडा रखा जा सकता है।

मानव आराम के बारे में क्या? सिंगापुर में 8 से 27 जनवरी के दौरान, जब वहां गर्मी का मौसम पड़ता है, 55 लोगों के साथ यह देखा गया कि उन्होंने कैसी ठंडक महसूस की। 55 लोगों में से 37 लोगों ने तंबू में तब प्रवेश किया था जब शीतलन प्रणाली चालू थी, और बाकी 18 लोगों ने तब प्रवेश किया जब शीतलन प्रणाली बंद थी। जिस समूह ने शीतलन प्रणाली चालू रहते प्रवेश किया था, उन्होंने 79 प्रतिशत दफे तंबू में तापमान ‘संतोषजनक’ बताया। यह देखा गया कि वहां मौजूद गर्म वस्तुओं ने अपनी गर्मी अवशोषक दीवार को दे दी थी। और सबसे गर्म ‘वस्तुएं’ मनुष्य थे और उन्होंने ही सबसे अधिक ऊष्मा गंवाई। हालांकि, हवा (या तंबू) का तापमान बमुश्किल ही कम हुआ था, 31 डिग्री सेल्सियस से घटकर यह सिर्फ 30 डिग्री सेल्सियस हुआ था। इस अंतिम अवलोकन से पता चलता है कि हवा को ठंडा करने में बहुत कम ऊर्जा खर्च हो रही थी, जबकि पारंपरिक शीतलन प्रणालियों में तापमान घटाने के लिए मुख्य वाहक हवा ही होती है।

इस तरह इस अध्ययन में प्रस्तुत यह तकनीक एयर कंडीशनर की जगह बखूबी ले सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक से ऊर्जा की खपत में 50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है, सिर्फ ऊष्मा सोखने वाली दीवारों तक ठंडे पानी को पहुंचाने में ऊर्जा लगेगी। यह इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि विश्व की कुल ऊर्जा खपत में से एयर कंडीशनिंग की ऊर्जा एक बड़ा हिस्सा है और इसके बढ़ने की संभावना है। नई प्रणाली का एक अन्य लाभ यह है कि ठंडे किए जा रहे स्थान खुली खिड़की वाले, हवादार भी हो सकते हैं। एयर कंडीशनिंग में, किफायत के लिहाज से यह मांग होती है कि अधिकांश ठंडी हवा को पुन: कमरे में घुमाया जाता रहे। तब ऑफिस में यदि कोई व्यक्ति सर्दी-ज़ुकाम (या ऐसे ही किसी संक्रमण) से पीड़ित हो तो पूरी संभावना है कि वह बाकियों को भी अपना संक्रमण दे देगा।

विकिरण शीतलन (रेडिएंट कूलिंग) की तकनीक काम करती है क्योंकि मानव शरीर से निकलने वाली ऊष्मा आसपास की हवा द्वारा नहीं सोखी जाती है जिसे वापिस मुक्त कर दिया जाए; वह तो ठंडी सतह तक पहुंच सकती है। वैसे, धरती के पैमाने पर देखें तो वायुमंडल ऊष्मा को पृथ्वी से बाहर नहीं निकलने देता है, यही कारण है कि रात में पृथ्वी बहुत ठंडी नहीं होती है (और इसलिए वायुमंडल में परिवर्तन वैश्विक तापमान बढ़ने का कारण बन रहे हैं)। हालांकि, 8-13 माइक्रोमीटर तरंग दैर्घ्य के लिए हमारा वायुमंडल ऊष्मा के लिए पारदर्शी है। इस परास की तरंग दैर्घ्य वाला ऊष्मा विकिरण वायुमंडल से बाहर सीधे अंतरिक्ष में जाता है। इस तथ्य का फायदा उठाने के लिए वस्तुओं को ऐसी फिल्म या शीट से ढंका जाता है जो वस्तुओं से निकलने वाली गर्मी को वांछित रेंज की तरंग दैर्घ्य में परिवर्तित कर दें। नतीजा यह होता है कि धूप में रखी जाने पर ये वस्तुएं रेडिएटिव कूलिंग के माध्यम से परिवेश की तुलना में 4-5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी हो सकती हैं। यह तकनीक ‘ग्रीन’ कोल्ड स्टोरेज और सौर ऊर्जा पैनल, जो गर्म होने पर कम कुशल हो जाते हैं, के लिए उपयोगी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कार्बन डाईऑक्साइड: उत्सर्जन घटाएं या हटाएं?

हालिया जलवायु सम्मेलनों में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन काफी चर्चा में रहा। इसमें नेट शब्द का अर्थ है कि हम सिर्फ उत्सर्जन कम करने पर नहीं बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण में हटाने पर भी ध्यान दें। एक विचार यह है कि सिर्फ उत्सर्जन कम करके हम 1.5 या 2 डिग्री वृद्धि का लक्ष्य नहीं पा सकेंगे।

फिलहाल उड्डयन और नौपरिवहन ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े स्रोत हैं, और आगे भी बने रहने की संभावना है। ऐसे में बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए कार्बन डाईऑक्साइड रिमूवल (सीडीआर) की भी आवश्यकता है।

सीडीआर का ऐतिहासिक तरीका पेड़ लगाना रहा है, लेकिन वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड हटाकर भूमि, समुद्र या अन्य स्थानों पर संग्रहित कर देना शायद अधिक टिकाऊ साबित हो।

वर्तमान में कई कंपनियां विभिन्न सीडीआर तकनीकों को जलवायु समाधान के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। इस विषय में प्राकृतिक कार्बन चक्र और हाल ही में सीडीआर तकनीकों पर काम कर रहे डेविड टी. हो लंबी अवधि के लिए सीडीआर तकनीकों को विकसित करने के पक्ष में तो हैं लेकिन थोड़े संशय में हैं। गौरतलब है कि पूर्व में डायरेक्ट एयर कैप्चर (डीएसी) तकनीक का छोटे स्तर पर प्रदर्शन किया गया था जो रासायनिक तरीकों से कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से बाहर करती है। इसके लिए 2022 में यू.एस. बायपार्टीज़न इंफ्रास्ट्रक्चर कानून ने चार डीएसी विकसित करने के लिए 3.5 अरब डॉलर का अनुदान देने का भी निर्णय लिया था। लेकिन डेविड के अनुसार यह प्रयास तब तक व्यर्थ है जब तक प्रदूषणकारी गतिविधियों को पूरी तरह से खत्म न कर दिया जाए।

इसको इस तरह से समझें। हमें कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कई वर्ष पहले की स्थिति में ले जाना है। प्रत्येक डीएसी सुविधा से प्रतिवर्ष 10 लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण से बाहर करने की उम्मीद है। अब देखिए कि 2022 में 40.5 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है। यदि डीएसी संयंत्र वर्ष भर अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करते हैं तो इससे वातावरण की स्थिति को मात्र 13 मिनट पीछे ले जाया जा सकता है। लेकिन 13 मिनट में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड हटाई जाएगी उतने ही समय में बाकी गतिविधियां साल भर की कार्बन डाईऑक्साइड वापस वातावरण में उंडेल देंगी। अब यह देखिए कि यदि हर व्यक्ति एक पेड़ लगाए इन 8 अरब पेड़ों के परिपक्व होने के बाद हमारा वातावरण हर वर्ष 43 घंटे पीछे जा सकता है।

कुल मिलाकर इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सीडीआर तकनीकों की क्षमता कितनी सीमित है।

ऐसे में सीडीआर तकनीकों को तत्काल समाधान के रूप में देखना उचित नहीं है। आने वाले समय में जलवायु समाधानों के लिए काफी धन आवंटित होने की उम्मीद है जिसका सही दिशा में उपयोग करना आवशयक है। यदि हम कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के मौजूदा स्तर को लगभग 10 प्रतिशत यानी 4 अरब टन प्रति वर्ष तक कम करते हैं तो 10 लाख टन हटाने में सक्षम एक डीएसी संयंत्र हमें 13 मिनट के बजाय 2 घंटे से अधिक समय पीछे ले जाएगी। इस स्थिति को देखते हुए एक निर्धारित वर्ष में नेट ज़ीरो हासिल करने के लिए पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा द्वारा संचालित 4000 डीएसी सुविधाओं की आवश्यकता होगी।

इस तरह से अवशिष्ट उत्सर्जन संभवत: हमारे वर्तमान कुल उत्सर्जन का 18 प्रतिशत होगा, इसलिए नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए कई सीडीआर स्थापित करने होंगे। तकरीबन 7290 डीएसी हब बनाना पर्याप्त होगा। साथ ही, सीडीआर विधियों की खोज के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है जो भूमि उपयोग और ऊर्जा खपत को कम करें तथा जिन्हें स्थायी और सस्ता बनाया जा सके।

फिर भी, यह ज़रूरी नहीं कि प्रयोगशाला में सुचारू रूप से काम करने वाली तकनीकें वास्तविक दुनिया में भी वैसे ही काम करेंगी। इनमें से कुछ तकनीकें जैव विविधता और पर्यावरण के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। यह सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है कि सीडीआर वास्तव में कितना काम कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिबंधित सीएफसी का बढ़ता स्तर

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987) के तहत ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले रसायन क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) के उपयोग को 2010 तक पूरी तरह खत्म करने का संकल्प लिया गया था। यह काफी सफल रहा था और उम्मीद थी कि 2060 ओज़ोन परत बहाल हो जाएगी। लेकिन ताज़ा आंकड़ों ने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2020 के बीच 5 प्रकार के सीएफसी के स्तर में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन सीएफसी का वर्तमान स्तर ओज़ोन परत की बहाली के लिए ज़्यादा खतरा उत्पन्न नहीं करता है। लेकिन सीएफसी शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें भी हैं जो जलवायु को प्रतिकूल प्रभावित करती हैं। गौरतलब है सीएफसी सैकड़ों वर्षों तक वातावरण में बने रहते हैं। इन 5 सीएफसी की वजह से वातावरण जितना गर्म होगा वह स्विट्ज़रलैंड जैसे किसी छोटे देश द्वारा किए गए उत्सर्जन के असर के बराबर होगा।

विशेषज्ञों के अनुसार काफी संभावना है कि सीएफसी विकल्पों के उत्पादन के दौरान संयंत्रों से गलती से सीएफसी-113A, सीएफसी-114A और सीएफसी-115 का उत्सर्जन हो रहा हो। वास्तव में सीएफसी को खत्म करने के लिए हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) को विकल्प के रूप में लाया गया था। लेकिन एचएफसी उत्पादन के दौरान अनपेक्षित रूप से सीएफसी के उत्पादन की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार के उत्पादन को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हतोत्साहित किया गया था लेकिन प्रतिबंधित नहीं किया गया था।

अन्य दो सीएफसी (सीएफसी-13 और सीएफसी-112A) के स्तर में वृद्धि एक रहस्य है क्योंकि इनका उत्पादन या उपयोग  प्रतिबंधित है। संभावना है कि विलायक या रासायनिक फीडस्टॉक के तौर पर उपयोग के कारण सीएफसी-112A के स्तर में वृद्धि हो रही है। लेकिन सीएफसी-13 के उत्सर्जन का अभी तक कोई सुराग नहीं है। वैश्विक स्तर पर पर्याप्त निगरानी स्टेशन की अनुपस्थिति में सीएफसी-13 के स्रोत का पता लगाना मुश्किल है।    

बहरहाल, आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि वैश्विक निगरानी प्रणाली काफी सक्रियता से काम कर रही है और वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के वातावरण और जलवायु समस्याओं पर कड़ी नज़र रखी जा रही है। पूर्व में भी दक्षिण कोरिया और जापान के निगरानी स्टेशन से सीएफसी-11 के उच्च स्तर का पता लगा था, जिसका स्रोत पूर्वी चीन में मिला था। इसके उत्सर्जन को नियंत्रित किया गया और इसके स्तर में कमी आने लगी। लिहाज़ा, अधिक निगरानी स्टेशनों की ज़रूरत है।

यदि हाल ही में खोजे गए 5 सीएफसी का अधिकांश उत्सर्जन सीएफसी-विकल्पों के उत्पादन के दौरान हो रहा है तो विकल्पों के बारे में विचार करना आवश्यक है। शायद हाइड्रोफ्लोरोओलीफीन्स (एचएफओ) का उपयोग करना होगा। लेकिन उसके उत्पादन से भी सीएफसी का उत्सर्जन हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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हम सूंघते कैसे हैं

गंध एक महत्वपूर्ण संवेदना है। मनुष्यों में यह शायद उतनी महत्वपूर्ण न हो, लेकिन कई अन्य जंतुओं में यह सबसे महत्वपूर्ण संवेदना होती है। जहां अन्य संवेदनाओं को लेकर हमारी समझ काफी विस्तृत है, वहीं गंध को लेकर कई अस्पष्टताएं हैं। अब हम इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं।

गंध संवेदना दरअसल एक रसायन-आधारित संवेदना है। कुछ रसायन हमारी गंध संवेदी तंत्रिकाओं के ग्राहियों को उत्तेजित करते हैं और मस्तिष्क इसे गंध के रूप में पहचानता है। अब पहली बार एक मानव गंध-ग्राही की सटीक त्रि-आयामी संरचना का खुलासा किया गया है। नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन में OR51E2 नामक एक गंध-ग्राही की संरचना का विवरण देते हुए बताया गया है कि यह आणविक क्रियाओं के माध्यम से कैसे चीज़ (cheese) की गंध को ताड़ता है।

गौरतलब है कि मानव जीनोम में 400 जीन्स होते हैं जो गंध-ग्राहियों के कोड हैं और ये ग्राही कई गंधों को पहचान सकते हैं। स्तनधारियों में गंध ग्राही के जीन्स सबसे पहले चूहों में 1990 के दशक में पहचाने गए थे। इससे पहले 1920 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य की नाक तकरीबन 1000 गंधों को ताड़ सकती है। लेकिन 2014 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि हम 1 खरब से ज़्यादा गंधों को अलग-अलग पहचान सकते हैं।

हर गंध-ग्राही गंधदार अणुओं (ओडोरेंट) के सिर्फ एक समूह से अंतर्क्रिया कर सकता है जबकि एक ही ओडोरेंट कई ग्राहियों को सक्रिय कर सकता है। होता यह है कि इन ग्राहियों की एक मिश्रित सक्रियता विशिष्ट गंध का एहसास कराती है।

लेकिन इन गंध-ग्राहियों की क्रिया को समझना एक चुनौती रही है। एक दिक्कत यह रही है कि ये ग्राही सिर्फ गंध तंत्रिकाओं में ही ठीक-ठाक काम करते हैं, बाकी किसी भी कोशिका में ये ठप हो जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि इन्हें किसी भी अन्य प्रकार की कोशिका में जोड़कर अध्ययन नहीं किया जा सकता।

इस समस्या से निपटने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन फ्रांसिस्को) के आशीष मांगलिक और उनके साथियों ने OR51E2 नामक ग्राही पर ध्यान केंद्रित किया। इस ग्राही की विशेषता है कि यह ओडोरेंट की पहचान के अलावा कुछ अन्य कार्य भी करता है और यह गुर्दों तथा प्रोस्टेट की कोशिकाओं में भी पाया जाता है।

यह ग्राही (OR51E2) दो ओडोरेंट अणुओं के साथ अंतर्क्रिया करता है – एसिटेट (जिसकी गंध सिरके जैसी होती है) और प्रोपिओनेट (जिसकी गंध चीज़नुमा होती है)। शोधकर्ताओं ने इस ग्राही को शुद्ध रूप में प्राप्त किया और फिर प्रोपिओनेट से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध OR51E2 की संरचना का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी और एटॉमिक रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया। इसके अलावा उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन की भी मदद ली ताकि पता चल सके कि यह ग्राही प्रोटीन ओडोरेंट अणुओं के साथ कैसे अंतर्क्रिया करता है।

विश्लेषण से पता चला कि यह प्रोटीन (OR51E2) आयनिक व हाइड्रोजन बंधनों के ज़रिए प्रोपिओनेट अणु के कार्बोक्सिलिक समूह को एक अमीनो अम्ल (आर्जीनीन) से जोड़ लेता है। जैसे ही प्रोपिओनेट जुड़ता है, OR51E2 की आकृति बदल जाती है और यही ग्राही को चालू कर देता है। शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस ग्राही के जीन में आर्जीनीन को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन उसे प्रोपिओनेट द्वारा सक्रिय नहीं होने देते।

वैज्ञानिकों की इच्छा रही है कि वे गंध ग्राहियों की रासायनिक संरचनाओं का एक कैटालॉग तैयार कर सकें और उसके आधार पर यह बता सकें कि इनमें से कौन-से ग्राही मिलकर किस गंध विशेष का एहसास कराते हैं। मांगलिक की टीम द्वारा यह खुलासा मात्र पहला कदम है। (स्रोत फीचर्स)

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मानव मस्तिष्क ऑर्गेनॉइड का चूहों में प्रत्यारोपण

जकल ऑर्गेनॉइड्स (अंगाभ) अनुसंधान की एक प्रमुख धारा है। ऑर्गेनॉइड का मतलब होता है ऊतकों का कृत्रिम रूप से तैयार किया गया एक ऐसा पिंड जो किसी अंग की तरह काम करे। विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभिन्न अंगों के अंगाभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इन्हीं में से एक है मस्तिष्क अंगाभ।

सेल स्टेम सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क अंगाभ को चूहे के क्षतिग्रस्त मस्तिष्क में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिया है। और तो और, अंगाभ ने शेष मस्तिष्क के साथ कड़ियां भी जोड़ लीं और प्रकाश उद्दीपन पर प्रतिक्रिया भी दी।

शोध समुदाय में इसे एक महत्वपूर्ण अपलब्धि माना जा रहा है क्योंकि अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क कहीं अधिक जटिल अंग है जिसमें तमाम कड़ियां जुड़ी होती हैं। इससे पहले मस्तिष्क अंगाभ को शिशु चूहों में ही प्रत्यारोपित किया गया था; मनुष्यों की बात तो दूर, वयस्क चूहों पर भी प्रयोग नहीं हुए थे। 

वर्तमान प्रयोग में पेनसिल्वेनिया की टीम ने कुछ वयस्क चूहों के मस्तिष्क के विज़ुअल कॉर्टेक्स नामक हिस्से का एक छोटा सा भाग निकाल दिया। फिर इस खाली जगह में मानव मस्तिष्क कोशिकाओं से बना अंगाभ डाल दिया। यह अंगाभ रेत के एक दाने के आकार का था। अगले तीन महीनों तक इन चूहों के मस्तिष्क की जांच की गई।

जैसी कि उम्मीद थी प्रत्यारोपित अंगाभों में 82 प्रतिशत पूरे प्रयोग की अवधि में जीवित रहे। पहले महीने में ही स्पष्ट हो गया था कि चूहों के मस्तिष्कों में इन अंगाभों को रक्त संचार में जोड़ लिया गया था और जीवित अंगाभ चूहों के दृष्टि तंत्र में एकाकार हो गए थे। यह भी देखा गया कि अंगाभों की तंत्रिका कोशिकाओं और चूहों की आंखों के बीच कनेक्शन भी बन गए थे। यानी कम से कम संरचना के लिहाज़ से तो अंगाभ काम करने लगे थे। इससे भी आगे बढ़कर, जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों की आंखों पर रोशनी चमकाई तो अंगाभ की तंत्रिकाओं में सक्रियता देखी गई। अर्थात अंगाभ कार्य की दृष्टि से भी सफल रहा था। लेकिन फिलहाल पूरा मामला मनुष्यों में परीक्षण से बहुत दूर है हालांकि यह सफलता आगे के लिए आशा जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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अफ्रीका में पोलियो के नए मामले टीके से पैदा हुए हैं

हाल ही में ग्लोबल पोलियो इरेडिकेशन इनिशिएटिव (GPEI) ने अफ्रीका से ऐसे सात बच्चों की रिपोर्ट दी है जो हाल ही में पोलियो की वजह से अपंग हो गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये टीके से पैदा हुए पोलियोवायरस स्ट्रेन की वजह से बीमार हुए हैं। पिछले वर्ष अफ्रीका, यमन और अन्य स्थानों से 786 बच्चों के पोलियोग्रस्त होने की खबर थी। लेकिन हाल के 7 मामले थोड़े अलग हैं। GPEI के मुताबिक ये मामले उस टीके से सम्बंधित हैं, जिसे ऐसी ही दिक्कतों से बचने के लिए विकसित किया गया था।

इस टीके को नॉवेल ओरल पोलियो वैक्सीन टाइप 2 (nOPV2) कहते हैं और पिछले दो वर्षों से विशेषज्ञ इस बात की निगरानी कर रहे हैं कि क्या यह यदा-कदा रोग-प्रकोप पैदा कर सकता है।

वैसे नॉवेल वैक्सीन कोई जादू की छड़ी नहीं है लेकिन अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि यह पूर्व में इस्तेमाल किए गए टीके (मोनोवेलेंट ओपीवी) से कहीं बेहतर है। और मुंह से दिया जाने वाला पोलियो का टीका (ओपीवी) गरीब देशों के लिए सबसे बेहतर माना गया है। इसमें वायरस को दुर्बल करके शरीर में डाला जाता है और प्रतिरक्षा तंत्र उसे पहचानकर वास्तविक वायरस से लड़ने के तैयार हो जाता है।  एक फायदा यह है कि टीकाकृत बच्चे मल के साथ दुर्बलीकृत वायरस त्यागते रहते हैं जो प्रदूषित पानी के साथ अन्य बच्चों के शरीर में पहुंचकर उन्हें भी सुरक्षा प्रदान कर देते हैं।

लेकिन इसका मतलब यह भी है कि ये दुर्बलीकृत वायरस अप्रतिरक्षित लोगों में प्रवाहित होते रहते हैं और उत्परिवर्तन हासिल करते जाते हैं। इसलिए यह संभावना बनी रहती है कि एक समय के बाद इतने उत्परिवर्तन इकट्ठे हो जाएंगे कि वायरस फिर से लकवा पैदा करने की स्थिति में पहुंच जाएगा। पोलियोवायरस के तीन स्ट्रेन हैं (1, 2 और 3) तथा उपरोक्त स्थिति टाइप 2 में ज़्यादा देखी गई है।

इस समस्या से निपटने के लिए टीके के वायरस के साथ फेरबदल की गई ताकि यह पलटकर अपंगताजनक स्थिति में न पहुंच सके। इस लिहाज़ से nOPV2 जेनेटिक दृष्टि से कहीं अधिक टिकाऊ है और इसमें उत्परिवर्तन की दर बहुत कम है। परीक्षण के दौरान 28 देशों में 60 करोड़ खुराकें दी गई हैं और अब तक कोई समस्या नहीं देखी गई थी। अब अफ्रीका में इन सात मामलों का सामने आना एक नई बात है जिसकी जांच-पड़ताल की जा रही है। एक मत यह है कि यदि कई देशों में टीकाकरण की दर कम रहती है तो ज़्यादा संभावना रहेगी कि वायरस पलटकर अपंगताजनक बन जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रतौंधी और शार्क की दृष्टि

व्हेल शार्क एक अति विशाल जीव है – लंबाई लगभग 18 मीटर और वज़न 2 हाथियों के बराबर। और यह भारी-भरकम जीव समुद्र में गहरे गोते लगाता है – सतह से लेकर 2 किलोमीटर की गहराई तक। इसमें समस्या यह है कि समुद्र सतह पर तो खूब रोशनी होती है लेकिन 2 किलोमीटर की गहराई पर घुप्प अंधेरा। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि व्हेल शार्क इतने गहरे गोते क्यों लगाता है लेकिन यह सवाल तो वाजिब है कि वह रोशन सतह और अंधकारमय गहराई दोनों जगह देखता कैसे है।

ऐसे तो कई प्राणि हैं जो निहायत कम रोशनी में देख सकते हैं। लेकिन व्हेल शार्क की विशेषता यह है कि वे दोनों परिस्थितियों में ठीक-ठाक देख लेते हैं।

तो जापान के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स के शिगेहिरो कुराकु और उनके साथियों ने पूरे मामले को जेनेटिक्स की दृष्टि से देखा। उन्होंने व्हेल शार्क और उसके एक निकट सम्बंधी ज़ेब्रा शार्क की जेनेटिक सूचना की तुलना की। पता चला कि व्हेल शार्क में डीएनए के दो स्थानों (क्रमांक 94 और 178) पर उत्परिवर्तन हुए हैं जिनकी वजह से रोडोप्सिन नामक प्रोटीन में अमीनो अम्लों का संघटन बदल गया है। गौरतलब है कि रोडोप्सिन एक प्रकाश संवेदी प्रोटीन है जो कम प्रकाश में भी रोशनी की उपस्थिति को भांप सकता है। यही वह प्रोटीन है जो मनुष्यों को भी कम रोशनी में देखने में मदद करता है।

और तो और, व्हेल शार्क का रोडोप्सिन नीली रोशनी के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होता है। आप समझ ही सकते हैं कि समुद्र की गहराई में कम प्रकाश पहुंचता है और वह भी अधिकांशत: नीला प्रकाश। तो रोडोप्सिन व्हेल शार्क को अपेक्षाकृत अंधकार और नीले प्रकाश की परिस्थिति में देखने में मदद करता है।

लेकिन एक दिक्कत है – यही रोडोप्सिन उथले पानी में भी नीले रंग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होगा और बाकी रंगों को देखने में बाधा बन जाएगा।

शोधकर्ताओं का मत है कि यहीं पर दूसरा उत्परिवर्तन (स्थान 178) काम आता है। उन्होंने पाया है कि व्हेल और ज़ेब्रा शार्क दोनों का रोडोप्सिन तापमान के प्रति संवेदनशील होता है। तापमान बढ़ने पर उनका रोडोप्सिन निष्क्रिय होने लगता है। जैसे ही शार्क व्हेल सतह पर आते हैं, उनका सामना वहां के अपेक्षाकृत उच्च तापमान से होता है और रोडोप्सिन निष्क्रिय हो जाता है। तब वह अन्य प्रकाश संवेदनाओं में बाधा नहीं डालता। समुद्र की गहराई में तापमान बहुत कम होता है जहां रोडोप्सिन सक्रिय होकर अंधेरे में देखने में मदद करता है। यही बात शोधकर्ताओं को दिलचस्प लगती है। यह एक ऐसा उत्परिवर्तन है जो प्रकाश-संवेदी रंजक को ठप करता है। जब मनुष्यों में यह रंजक काम करना बंद कर देता है रतौंधी की वजह बन जाता है। तो एक ऐसा उत्परिवर्तन आखिर बना क्यों रहेगा? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या टेक्नॉलॉजी से बुढ़ापे को टाला जा सकता है

क्कीसवीं सदी की आधुनिक टेक्नॉलॉजी ने हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। इसने दैनिक कार्यों को आसान करने के साथ दक्षता, उत्पादकता और प्रदर्शन में भी वृद्धि की है। स्वास्थ्य सेवा और टेक्नॉलॉजी के संगम ने स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और उसके प्रबंधन में क्रांतिकारी योगदान दिया है। पिछले कुछ वर्षों में टेक्नॉलॉजी के विकास से बेहतर और सटीक इलाज के साथ-साथ बेहतर निर्णय लेने में भी काफी मदद मिली है।

इलेक्ट्रॉनिक हेल्थ रिकॉर्ड (ईएचआर) से लेकर टेलीमेडिसिन, पहनने योग्य टेक्नॉलॉजी और कृत्रिम बुद्धि ने स्वास्थ्य सेवा के ढांचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। यहां हम कुछ ऐसी तकनीकों पर चर्चा कर रहे हैं जो भविष्य में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन ला सकती हैं।

नैनो टेक्नॉलॉजी और हृदय   

हृदयाघात के कारण तो सर्वविदित हैं। इसका मुख्य कारण है हृदय तक रक्त पहुंचाने वाली धमनियों में प्लाक जमा होकर उनका संकरा हो जाना जिससे रक्त प्रवाह को बाधित होता है। अंतत: ये धमनियां इतनी संकरी हो जाती हैं कि हृदय को पर्याप्त रक्त और ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। नतीजतन हृदयाघात या स्ट्रोक हो जाता है।

इस समस्या से निपटने के लिए स्टेंट या फिर बायपास का सहारा लिया जाता है। लेकिन इसकी सभी तकनीकें – कैथेटराइज़ेशन या ओपन-हार्ट सर्जरी वगैरह – काफी महंगी हैं। लेकिन प्लाक हटाने वाले नैनो-रोबोट्स की मदद से यह उपचार काफी सस्ता हो सकता है। इसमें एक अतिसूक्ष्म आकार का रोबोट रुकावट वाले स्थान पर जाकर धमनियों को चौड़ा कर सकता है।     

अंगों या ऊतकों का पुनर्जनन   

हारवर्ड युनिवर्सिटी में एक ऐसी तकनीक पर काम चल रहा है जिसमें एंटीरियर क्रुशिएट लिगामेंट (घुटने का लिगामेंट, एसीएल) को किसी अन्य व्यक्ति या जीव, या स्वयं उस व्यक्ति के लिगामेंट से प्रतिस्थापित करने की बजाय उसे स्वयं स्वस्थ होने में मदद दी जा सके।

इस तकनीक में अवरग्लास के आकार का एक स्पंज तैयार किया जाता है जिसमें रोगी का रक्त, विकास कारक और पुन:सक्रिय स्टेम कोशिकाएं भरी होती हैं। इसे प्रविष्ट कराने पर यह लिगामेंट के टुकड़ों के बीच एक सेतु का काम करता है जो विकसित होते हुए क्षतिग्रस्त लिगामेंट को जोड़ देता है।

कृत्रिम अंग

हम आनुवंशिक रूप से पुनर्निर्मित हृदय या कृत्रिम हृदय तैयार करने की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ शोधकर्ताओं का तो दावा है कि पर्याप्त पैसा मिले तो वे तीन वर्ष के भीतर एक कृत्रिम हृदय तैयार करके उसे मनुष्य के शरीर में प्रत्यारोपित कर सकते हैं।

यह बात 3-डी प्रिंटेड अंग के मामले में देखी जा रही है। इनमें ऐसी क्रियाविधियां या रचनाएं होती हैं जो अंगों या ऊतकों के अध्ययन में उपयोग की जा सकती हैं। जैसे फेफड़े के ऊतक जो कुदरती फेफड़ों के समान कोविड से संक्रमित हो सकते हैं और इनका उपयोग संक्रमण व उसके उपचार के अध्ययन में किया जा सकता है। हाल ही में एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने रोबोटिक उपकरण विकसित किया है जो किसी व्यक्ति की त्वचा की कोशिकाओं को प्रिंट करने में सक्षम है। इसका उपयोग घावों या जलने से क्षतिग्रस्त त्वचा को ठीक करने के लिए किया जा सकता है।

ज़रा कल्पना कीजिए कि आपके शरीर के सभी अंगों का कंप्यूटर कोड ‘क्लाउड’ पर मौजूद हो जिसकी मदद से आवश्यकतानुसार कोई अंग या उसका भाग तैयार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए यदि किसी कैंसरग्रस्त हड्डी को शरीर से अलग किया जाता है तो कंप्यूटर को की मदद से उसी आकार और क्षमता की हड्डी प्रत्यारोपित की जा सकेगी जिसके लिगामेंट, जोड़ और अन्य हड्डियों के साथ जुड़ाव मूल हड्डी जैसे ही होंगे। यह अगले 10 वर्षों में संभव हो सकता है। 

प्रोटीन में हेरफेर

कैसा हो यदि आप किसी अंग या शरीर के भाग में परिवर्तन कर सकें या फिर शरीर के सामान्य कामकाज के तरीके में हेर-फेर कर सकें। उदाहरण के लिए, कोरिया के शोधकर्ता ऐसी एंटीएजिंग दवाओं का परीक्षण कर रहे हैं जो गोलकृमियों की कोशिकाओं में प्रोटीन की गतिविधि को परिवर्तित कर देती हैं। ये प्रोटीन ऊर्जा में कमी के दौरान शरीर को शर्करा को ऊर्जा में बदलने के निर्देश देते हैं। इन दवाओं के उपयोग से कृमि के जीवनकाल में वृद्धि देखी गई है। 

मरम्मत के उपकरण

दीर्घायु के संदर्भ में यह देखना प्रासंगिक होगा कि हृदय के वाल्व के मामले में हम कितना आगे बढ़ चुके हैं। उम्र के साथ हृदय के वाल्व खराब होने लगते हैं; 65 वर्ष से अधिक आयु के 25 प्रतिशत लोगों के वाल्व के कार्य में किसी न किसी प्रकार का परिवर्तन आने लगता है और 85-95 वर्ष की आयु के वाल्व की मरम्मत या प्रतिस्थापन ज़रूरी हो जाता है।

पारंपरिक तौर पर इसके लिए ओपन-हार्ट सर्जरी में हृदय की धड़कन को रोककर एक पंप की मदद से रक्त संचरण जारी रखा जाता है। इस प्रक्रिया में 17 प्रतिशत रोगियों में सर्जरी के बाद मानसिक गिरावट पाई गई है। आजकल वाल्व को रक्त वाहिका के माध्यम से हृदय तक पहुंचाया जा सकता है। हालांकि यह भी हृदय सर्जरी है लेकिन इस तकनीक से रिकवरी की अवधि कम हो जाती है।  

हाई-टेक खिलौने

आज के दौर में कृत्रिम बुद्धि, वर्चुअल रियलिटी, उन्नत तकनीकें, बेहतर डैटा संग्रहण ने स्वास्थ्य सेवाओं में भी बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं। आज हम ऐप की मदद से चिकित्सकों से ऑनलाइन घर बैठे परामर्श ले सकते हैं, भले ही वे किसी अन्य देश में ही क्यों न हो।

यदि इन तकनीकों को और विकसित किया जाए तो हम क्या-क्या कर सकते हैं। संभव है कि नियमित डैटा संग्रहण से हम दवाओं को बेहतर ढंग से विकसित कर पाएं। पहनने योग्य उपकरण न केवल हमारे शरीर की स्थिति को ट्रैक कर पाएं बल्कि भविष्य में होने वाले समस्याओं का अनुमान भी लगा पाएं। शायद कृत्रिम बुद्धि की मदद से यह अनुमान लगा पाएं कि हृदय का वाल्व कब खराब हो सकता है।

हाल ही में येल स्थित जेनेटिक्स शोधकर्ताओं ने एक पोर्टेबल अल्ट्रासाउंड उपकरण तैयार किया है जिसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। यह सर्वोत्तम मशीन तो नहीं है लेकिन चिकित्सकों के लिए काफी उपयोगी हो सकती है। इसके उपयोग से चिकित्सकों द्वारा रोगियों को बेहतर सलाह देने में मदद मिलेगी।        

ज़ाहिर है, इन सभी तकनीकों की शुरुआती लागत काफी अधिक होगी लेकिन समय के साथ ये सस्ती होती जाएंगी। ये परिवर्तन हमारे जीवनकाल में वृद्धि करेंगे, जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाएंगे और हो सकता है कि हमारी जवानी को भी लंबा कर दें। हालांकि यह कोई जादू की छड़ी नहीं है जो सभी समस्याओं को एक शॉट में खत्म कर दे फिर भी टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में ये परिवर्तन दीर्घायु में महत्वपूर्ण योगदान देंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इम्यून-बूस्टर पूरकों का सच

कोविड-19 के दौर में प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने के लिए पूरक और पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों के सेवन की सलाह दी गई। कई लोगों ने शारीरिक दूरी, मास्क के उपयोग और टीकाकरण के अलावा विशेष पूरक तत्वों का उपयोग किया जबकि कुछ लोग तो मात्र प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने के ही सहारे रहे। बाज़ार में भी कई ऐसे उत्पादों की बाढ़ आई जिन्होंने प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने का दावा किया।

इन पूरक तत्वों में ज़िंक और विटामिन सी तथा डी को विशेष महत्व दिया गया। विशेषज्ञों की मानें तो इस तरह के प्रयासों से संक्रमण रुकने की संभावना तो नहीं है लेकिन ये प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए मददगार हो सकते हैं। फिर भी संतुलित भोजन, व्यायाम और पर्याप्त नींद लेने वाले व्यक्ति के लिए ये पूरक तत्व कोई खास उपयोगी नहीं हैं। ये उन लोगों के लिए उपयोगी हो सकते हैं जिनमें इन तत्वों की कमी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त विटामिन या खनिज तत्वों का सेवन करता है तो इसमें कोई हानि नहीं है बशर्ते कि इनकी मात्रा दैनिक अनुशंसित खुराक से अधिक न हो। अधिक मात्रा में इनका सेवन घातक हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य दवाओं के साथ परस्पर क्रिया की भी संभावना होती है।

तो चलिए देखते हैं कि संक्रमण को दूर करने के लिए आम तौर पर अपनाए जाने वाले प्रचलित तरीकों के बारे में विज्ञान क्या कहता है।

ज़िंक (जस्ता)

निसंदेह, प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए ज़िंक ज़रूरी है। यह टी-कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है जो बैक्टीरिया और वायरस से संक्रमित कोशिकाओं की पहचान कर उनको नष्ट करती हैं। यह श्वसन मार्ग की कोशिकाओं के कामकाज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जो हमारे शरीर की प्रतिरक्षा की पहली पंक्ति हैं। कुछ अध्ययन बताते हैं कि सामान्य सर्दी-जुकाम के शुरुआती 24 घंटे के भीतर ज़िंक पूरक लिया जाए तो बीमारी की अवधि को कम किया जा सकता है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि ज़िंक के इस्तेमाल से जुकाम की अवधि दो दिन कम की जा सकती है।

गौरतलब है कि ज़िंक को गंभीर कोविड-19 के विरुद्ध एक रक्षक के रूप में प्रचारित किया था लेकिन यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) के विशेषज्ञों ने अपर्याप्त प्रमाण के कारण इसे उपचार के रूप में स्वीकार नहीं किया। फ्रेड हच कैंसर रिसर्च सेंटर के प्रतिरक्षा विज्ञानी जैरोड डुडाकोव के अनुसार ज़िंक पूरक वायरल या बैक्टीरिया संक्रमण रोकने में सक्षम नहीं हैं। कम समय के लिए ज़िंक पूरक लेने से कोई हानि तो नहीं है लेकिन फायदे भी नहीं हैं। मांस, सीफूड, फलियां, दालें, गिरियां, बीज और साबुत अनाज ज़िंक के उम्दा स्रोत हैं। हां, ज़िंक की कमी वाले लोगों के लिए ज़िंक पूरक उपयोगी हो सकते हैं।

पुरुषों के लिए प्रतिदिन 11 मिलीग्राम और महिलाओं के लिए प्रतिदिन 8 मिलीग्राम ज़िंक अनुशंसित है। शोधकर्ताओं के अनुसार लंबे समय तक ज़िंक पूरक लेने से शरीर में तांबे की कमी हो सकती है जिससे तंत्रिका और रक्त सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। उच्च मात्रा में सेवन से मितली, उल्टी और सिरदर्द जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं।

विटामिन सी

ज़िंक की तरह विटामिन सी भी हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यह न्यूट्रोफिल नामक श्वेत रक्त कोशिकाओं को गतिशील करता है जो शरीर को संक्रमण से लड़ने में मदद करती हैं। इसके अलावा यह मैक्रोफेज नामक अन्य श्वेत रक्त कोशिकाओं को भी पुष्ट करता है जो रोगजनकों को निगलती हैं और मृत मेज़बान कोशिकाओं को हटाकर सूजन को कम करती हैं।

कई जंतु अध्ययनों से पता चला है कि विटामिन सी बैक्टीरिया और वायरल संक्रमणों को रोकने में तो सक्षम है लेकिन मानव आबादी में सामान्य सर्दी-जुकाम के प्रकोप को कम नहीं करता है। वैसे ज़िंक की तरह विटामिन सी भी रोग की अवधि को कम करता है। गौरतलब है कि कोविड-19 के मामले में एनआईएच ने अपर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर विटामिन सी के उपयोग को उपचार के रूप में स्वीकार नहीं किया था। फिर भी कुछ अध्ययनों के अनुसार गंभीर रूप से बीमार रोगियों में सूजन को कम करने में विटामिन सी की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।       

एक पूरक के तौर पर विटामिन सी मनुष्यों में वायरल या बैक्टीरियल संक्रमण रोकने के सक्षम नहीं है। बहरहाल, अन्य विटामिन और खनिज पदार्थों की तरह यह भी प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए उपयोगी है। लेकिन विशेषज्ञ संतुलित पौष्टिक आहार की सलाह देते हैं और पूरक आहार का सुझाव तब ही देते हैं जब कोई व्यक्ति इन खाद्य पदार्थों का सेवन करने में असमर्थ हो या फिर शरीर में इसकी कमी हो। पुरुषों के लिए प्रतिदिन 90 मिलीग्राम और महिलाओं के लिए प्रतिदिन 75 मिलीग्राम विटामिन सी अनुशंसित है। इससे अधिक सेवन से पथरी हो सकती है।            

विटामिन डी

विटामिन सी के समान विटामिन डी में भी सूजन-रोधी गुण होते हैं। विटामिन डी की कमी हो तो सर्दी-जुकाम का जोखिम रहता है। एक हालिया अध्ययन के अनुसार विटामिन डी पूरक सामान्य सर्दी जुकाम की अवधि और गंभीरता को कम कर सकता है। अलबत्ता, कोविड-19 के संदर्भ में विटामिन डी की भूमिका स्पष्ट नहीं है।

अक्टूबर 2021 में किए गए विश्लेषण के अनुसार शरीर में अपर्याप्त विटामिन डी ने लोगों में कोविड-19 के प्रति अधिक संवेदनशीलता या संक्रमण से उनकी मृत्यु की संभावना में कोई वृद्धि नहीं की थी। इसके अलावा विटामिन डी पूरकों से गंभीर लक्षणों वाले कोविड-19 रोगियों में भी कोई सुधार नहीं देखा गया।

सच तो यह है कि हमारे पास प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने की कोई जादुई गोली नहीं है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह है कि लोगों को यह नहीं पता होता कि उन्हें कौन से विटामिन या खनिजों की कमी है और किस हद तक है। विटामिन डी और बी-12 का पता लगाने के तो काफी अच्छे नैदानिक परीक्षण हैं लेकिन अधिकांश पोषक तत्वों को मापना काफी कठिन है। समाधान यही है कि हमें विभिन्न प्रकार के पौष्टिक खाद्य पदार्थों का संतुलित सेवन करना चाहिए और ये सबको मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा पर मोतियों में कैद पानी

पृथ्वी के बाहर जीवन की संभावना पानी की उपस्थिति पर टिकी है। अब चंद्रमा पर पानी का नया स्रोत मिला है: चंद्रमा की सतह पर बिखरे कांच के महीन मोती। अनुमान है कि पूरे चंद्रमा पर इन मोतियों में अरबों टन पानी कैद है। वैज्ञानिकों को आशा है कि आने वाले समय में चंद्रमा पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए इस पानी का उपयोग किया जा सकेगा। चंद्रमा पर पानी मिलना वहां हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के भी सुलभ स्रोत होने की संभावना भी खोलता है।

दरअसल दिसंबर 2020 में चीनी यान चांग’ई-5 जब पृथ्वी पर लौटा तो अपने साथ चंद्रमा की मिट्टी के नमूने भी लाया था। इन नमूनों में वैज्ञानिकों को कांच के छोटे-छोटे (एक मिलीमीटर से भी छोटे) मनके मिले थे। ये मनके चंद्रमा से उल्कापिंड की टक्कर के समय बने थे। टक्कर के परिणामस्वरूप पिघली बूंदें चंद्रमा पर से उछलीं और फिर ठंडी होकर मोतियों में बदलकर वहां की धूल के साथ मिल गईं।

ओपेन युनिवर्सिटी (यू.के.) के खगोल विज्ञानी महेश आनंद और चीन के वैज्ञानिकों के दल ने इन्हीं कांच के मोतियों का परीक्षण कर पता लगाया है कि इनमें पानी कैद है। उनके मुताबिक चंद्रमा पर बिखरे सभी मोतियों को मिला लें तो चंद्रमा की सतह पर 30 करोड़ टन से लेकर 270 अरब टन तक पानी हो सकता है।

यानी चंद्रमा की सतह उतनी भी बंजर-सूखी नहीं है जितनी पहले सोची गई थी। वैसे इसके पहले भी चंद्रमा पर पानी मिल चुका है। 1990 के दशक में, नासा के क्लेमेंटाइन ऑर्बाइटर ने चंद्रमा के ध्रुवों के पास एकदम खड़ी खाई में बर्फ के साक्ष्य पाए थे। 2009 में, चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह की धूल में पानी की परत जैसा कुछ देखा था।

अब, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित यह शोध संकेत देता है कि चंद्रमा की सतह पर पानी की यह परत कांच के मनकों में है। कहा जा रहा है कि खाई में जमे पानी का दोहन करने से आसान मोतियों से पानी निकालना होगा।

लगभग आधी सदी बाद अंतरिक्ष एजेंसियों ने चांद पर दोबारा कदम रखने का मन बनाया है। नासा अपने आर्टेमिस मिशन के साथ पहली महिला और पहले अश्वेत व्यक्ति को चांद पर पहुंचाने का श्रेय लेना चाहता है। वहीं युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी वहां गांव बसाना चाहती है। वहां की ज़रूरियात पूरी करने के लिए दोनों ही एंजेसियां चंद्रमा पर मौजूद संसाधनों का उपयोग करना चाहती हैं। इस लिहाज़ से चंद्रमा पर पानी का सुलभ स्रोत मिलना खुशखबरी है।

लेकिन ये इतना भी आसान नहीं है कि मोतियों को कसकर निचोड़ा और उनमें से पानी निकल आया। हालांकि इस बात के सबूत मिले हैं कि इन्हें 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तपाने पर इनसे पानी बाहर आ सकता है। बहरहाल ये मोती चंद्रमा के ध्रुवों से दूर स्थित जगहों पर पानी के सुविधाजनक स्रोत लगते हैं। इनसे प्रति घनमीटर मिट्टी में से 130 मिलीलीटर पानी मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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