यूएस चुनाव: बंदर बताएंगे हार-जीत!

वर्ष 2010 के फुटबॉल विश्व कप (FIFA World Cup) में प्रत्येक मैच के विजेता की घोषणा के लिए एक ऑक्टोपस (Octopus) का इस्तेमाल किया गया था। पॉल नामक वह ऑक्टोपस तब काफी मशहूर हुआ था। अब उसी शृंखला में एक नया प्रयोग सामने आया है। समकक्ष समीक्षा का मुंतज़िर, यह प्रकाशन पूर्व शोध पत्र (research paper) काफी मशहूर हो रहा है। 

इस अध्ययन का सम्बंध यूएसए (USA) के आगामी राष्ट्रपति चुनाव (US Presidential Election) में विजेता का पूर्वानुमान (prediction) लगाने से है। कहा यह जा रहा है कि कुछ बंदरों को जब राष्ट्रपति चुनाव के प्रतिस्पर्धियों की तस्वीरें दिखाई जाती हैं तो वे उस तस्वीर को ज़्यादा देर तक तकते हैं जो पराजित उम्मीदवार की हो। 

इस शोध पत्र के लेखक बंदरों में शक्लों की पसंद-नापसंद का अध्ययन करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, कई सारे प्रयोग किए गए थे जिनमें कुछ मैकॉक बंदरों (macaque monkeys) को ऐसे बंदरों के चेहरे दिखाए गए थे जिन्हें मैकॉक्स ने पहले कभी नहीं देखा था। शोधकर्ताओं ने पाया कि मैकॉक उच्च हैसियत वाले बंदरों पर एक नज़र भर डालते थे। शायद इसलिए कि घूरना आक्रामकता का द्योतक माना जाता है। दूसरी ओर, जब वे किसी निम्न हैसियत वाले बंदर या मादा बंदर को देखते तो अधिक समय तक देखते रहते थे। तंत्रिका वैज्ञानिक (neuroscientist) युओगुआन्ग जियांग के अनुसार इसका मतलब है कि वे मात्र तस्वीरों के आधार पर कुछ पहचान पाते हैं। 

तो शोधकर्ताओं ने सोचा कि क्या ये बंदर इंसानों की शक्ल देखकर भी ऐसा ही करेंगे। उन्होंने बंदरों को 1995 से 2008 के बीच हुए 273 यूएस संसद (US Congress), गवर्नर तथा राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवारों की तस्वीरें जोड़े में दिखाईं। मान्यता यह थी कि बंदर उन व्यक्तियों की पहचान, दलगत जुड़ाव (political affiliation) या नीतियों के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ थे। 

बंदरों ने हर जोड़ी के व्यक्तियों को देखा। प्रयोगों में बंदरों ने पराजित उम्मीदवार (losing candidate) को 54.4 प्रतिशत ज़्यादा देर तक देखा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। इन बंदरों का प्रदर्शन डांवाडोल प्रांतों (swing states) के बारे में तो और भी बेहतर रहा जिसमें उन्होंने 58.1 प्रतिशत बार विजेता को चुना। वैसे 2000 से 2020 के दरम्यान हुए राष्ट्रपति चुनावों को लेकर उनकी टकटकी ज़्यादा कुछ नहीं बता पाईं। 

प्लाट का कहना है कि इससे लगता है कि मात्र चेहरे (face) में काफी ऐसी जानकारी छिपी होती है जिसका सम्बंध इस बात से है कि लोग मतदान के समय क्या करेंगे। शोधकर्ताओं का तो यह भी मत है कि इसमें से कुछ जानकारी तो उम्मीदवार के जबड़े (jawline) के आकार से मिलती है। 

कहते हैं कि पहले हुए अध्ययन भी बताते हैं कि राजनीति (politics) से सर्वथा अनजान लोग भी चेहरा देखकर चुनाव के नतीजे की भविष्यवाणी कर सकते हैं। और तो और, एक अध्ययन में पता चला था कि छोटे बच्चे (children) भी चेहरा देखकर विजेता को पहचान लेते हैं। तो शोधकर्ताओं ने यहां तक कह दिया है कि हमारे जीन्स (genes) में कुछ है जो हमारे निर्णयों को प्रभावित करता है और शायद बंदरों और इंसानों में चेहरों को लेकर पूर्वाग्रह का कुछ साझा वैकासिक आधार (evolutionary basis) है। तो नीतियां, प्रचार-प्रसार (campaign) जाने दें, पार्टियों को तो चेहरों पर ध्यान देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीव-जंतुओं की रक्षा के बेहतर प्रयास चाहिए

भारत डोगरा

विभिन्न स्तरों पर विकट होती पर्यावरण की स्थिति ने मनुष्यों के स्वास्थ्य को बहुत प्रतिकूल  प्रभावित किया है। इस पर समझ बढ़ रही है, पर विकट होते पर्यावरणीय हालात से अन्य जीव-जंतुओं का जीवन संकटग्रस्त हो रहा है, उस पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। 

डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि यदि हर 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियां 100 वर्षों में लुप्त हो जाएं तो इसे सामान्य जैसी स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष 1900 के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य की अपेक्षा कशेरुकी प्रजातियों (vertebrate species) के लुप्त होने की गति 100 गुना तक बढ़ गई है। इस तरह जलवायु बदलाव (climate change), वन विनाश (deforestation) व प्रदूषण (pollution) बहुत बढ़ जाने के कारण विभिन्न प्रजातियों का लुप्त होना असहनीय हद तक बढ़ गया है। 

अध्ययन में बताया गया है कि उक्त अनुमान लगाने में जो मान्यताएं अपनाई गई हैं, उस आधार से अनुमानित संख्या वास्तविकता से कम हो सकती है लेकिन अधिक नहीं। दूसरे शब्दों में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। मात्र एक प्रजाति के लुप्त होने से ऐसी शृंखलाबद्ध प्रक्रियाएं हो सकती हैं जिससे आगे कई प्रजातियां खतरे में पड़ जाएंगी। कई प्रजातियां लुप्त होने से मनुष्य के अपने जीवन की कई कठिनाइयां अप्रत्याशित ढंग से बढ़ सकती हैं, क्योंकि सभी तरह के जीवन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। डॉ. पॉल एहलरिच ने अध्ययन पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि मनुष्य जिस डाल पर बैठा है, उसी को काट रहा है। 

विभिन्न जीव-जंतुओं का जीवन सबसे अधिक इस बात से जुड़ा है कि जिस जंगल (forest) में या समुद्र (ocean) में या नदी (river) में वे रहते हैं उसकी हालत कैसी है। चूंकि वन बहुत बड़े पैमाने पर काटे गए हैं व समुद्र, नदी समेत सारे जल स्रोतों का प्रदूषण बहुत बढ़ गया है व अनेक जल स्रोत सिमट गए हैं, अत: यह स्पष्ट है कि इन लाखों तरह के जीव-जंतुओं की समस्याएं बहुत बढ़ गईं हैं व इनमें से अनेक अब लुप्तप्राय (endangered species) हैं। इसके अतिरिक्त तरह-तरह के लालच में आकर मनुष्य ने अन्य जीवों का शिकार (hunting) भी बहुत किया है। अत्यधिक वायु प्रदूषण (air pollution) का भी जीवों, विशेषकर पक्षियों (birds), पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा है। 

पिछले लगभग दो-तीन दशकों में फुटबॉल के मैदान जितने बड़े मछली मारक जहाज़ समुद्र में बेहद विनाशक उपकरणों से लैस होकर पहुंचते रहे हैं और ये जिस खास तरह की मछली (fish) को पकड़ना चाहते हैं, उसे पकड़ने की प्रक्रिया में वे लाखों अन्य समुद्री जीव-जंतुओं (marine species) को भी मार कर यों ही फेंकते रहे हैं। इन बेहद विनाशकारी तकनीकों (destructive technologies) के कारण हज़ारों किस्म के समुद्री जीव-जंतुओं के लिए भी अब अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया है। 

जो प्राकृतिक वन (natural forests) विविध तरह के जीवों के आश्रय स्थान रहे हैं वे बड़े पैमाने पर उजड़ रहे हैं। इनके स्थान पर जो नए वन लगाए जा रहे हैं वे व्यापारिक दृष्टि से लाभदायक प्रजातियों के प्लांटेशन (commercial plantations) की तरह हैं। उनमें वन्य जीवों (wildlife) को अपनी ज़रूरतों के अनुकूल आश्रय नहीं मिल पा रहा है। इससे एक ओर वे संकटग्रस्त हो रहे हैं तथा दूसरी ओर गांवों व खेतों में उत्पात करने की उनकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। हाल के समय में अनेक गांवों में किसानों का अस्तित्व ही बंदर, नीलगाय (nilgai), हाथी (elephant), जंगली सूअर (wild boar) आदि के उत्पात के कारण संकट में आ गया है। प्राकृतिक वनों की रक्षा ज़रूरी है ताकि वन्य जीवों को प्राकृतिक आश्रय मिल सके। 

अनेक जल स्रोतों (water sources) के लुप्तप्राय होने, नदियों में पानी का बहाव कम होने या पूरी तरह सूख जाने के कारण बड़ी संख्या में जलीय जीव (aquatic species) तड़प कर मर चुके हैं। नदियों के बढ़ते प्रदूषण से भी बड़ी संख्या में जलीय जीव मारे गए हैं या संकटग्रस्त हुए हैं। नदियों पर बहुत से बांध व बैराज बनने के कारण अनेक मछलियों (fish species) के लिए प्रजनन-स्थल तक पहुंचने में बाधाएं उत्पन्न हो गई हैं। 

यदि वन्य व जलीय जीवों की रक्षा में स्थानीय गांववासियों का सहयोग प्राप्त किया जाए तो ये उपाय अधिक सफल होंगे। इस समय संरक्षित वन क्षेत्रों (protected forest areas) से गांववासियों के अधिकार छीनने या उन्हें विस्थापित करने की जो नीति अपनाई जा रही है वह अन्यायपूर्ण व अनुचित है। मौजूदा नीतियों व कानूनों में बदलाव ज़रूरी हैं ताकि वन्य व जलीय जीवों की रक्षा में बड़े पैमाने पर गांववासियों व विशेषकर आदिवासियों (tribals) की भागीदारी प्राप्त की जा सके। विश्व स्तर पर अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जब वन्य-जीव रक्षा के प्रयास आसपास के गांववासियों के सहयोग से होते हैं तब उनमें अधिक सफलता मिलती है। 

आज विश्व में जितने लोग हैं, लगभग उतनी ही संख्या में पालतू पशु (domestic animals) कृषि कार्य और बोझा ढोने के कार्य में लगे हुए हैं, अथवा उन्हें दूध, मांस, ऊन आदि प्राप्त करने के लिए पाला जा रहा है। कुछ देशों में तो इन पशुओं की संख्या मनुष्यों की संख्या से कहीं अधिक है। 

यदि मुर्गीपालन (poultry farming) को भी सम्मिलित कर मुर्गी व मिली-जुली प्रजाति के पक्षियों की संख्या देखी जाए (जिन्हें अंडे व मांस प्राप्त करने के लिए पाला जाता है) तो इनकी संख्या मनुष्यों की संख्या से तीन गुना अधिक है। 

दूध देने वाले पशु से कोई भावनात्मक सम्बंध न रखकर केवल उससे दूध देने वाली मशीन की तरह व्यवहार करना निश्चय ही उचित नहीं है, पर हकीकत में अनेक देशों में यही स्थिति देखी जा रही है। 

जिन पशुओं को केवल मांस प्राप्त करने के लिए पाला जा रहा है उसमें पशुओं के कष्ट कम करने के लिए खर्च करने को कोई तैयार नहीं है। एकमात्र उद्देश्य यह रह गया है कि इससे अधिकतम लाभ (maximum profit) प्राप्त कर लिया जाए। 

न्यू इंटरनेशनलिस्ट पत्रिका में पश्चिमी देशों में सूअर पालन (pig farming) पर गेल हार्डी ने लिखा है, “मादा सूअर को इतनी तंग जगह पर रखा जाता है कि वह अपनी गर्भावस्था के पूरे समय में एक कदम से ज़्यादा हिल नहीं पाती है। हवा और प्रकाश से वंचित उसे प्राय: अपनी गंदगी में ही लेटना पड़ता है।” मुर्गीपालन (poultry industry) के हालात के विषय में वे बताते हैं कि कुछ पक्षी अपना पूरा जीवन बेहद तंग पिंजरों में बिताने के बाद प्राकृतिक प्रकाश (natural light) पहली बार तभी देख पाते हैं जब उनका वध होने वाला होता है। मुर्गियों को ऐसे ठूंस कर रखा जाता है कि उनमें एक-दूसरे को जख्मी करने जैसे विकार पैदा हो जाते हैं। 

सूअर पालन पर एक पत्रिका ने हाल ही में इस व्यवसाय में लगे लोगों को सलाह दी है, “भूल जाओ कि सूअर एक पशु है। उसे फैक्ट्री में एक मशीन की तरह समझो।” वास्तव में पशु-पक्षियों के प्रति ऐसा व्यवहार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी पर दुख-दर्द कम करने का कोई भी अभियान तब तक अधूरा ही माना जाएगा जब तक उसमें पालतू पशुओं के दुख-दर्द कम करने के प्रयासों को समुचित ध्यान न दिया जाए। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत के नमकीन रेगिस्तान में जीवन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत के कच्छ का रण तब विकसित हुआ था जब अरब सागर के पानी ने इस क्षेत्र में घुसपैठ की थी। यह करीबन 15-20 करोड़ वर्ष पहले की घटना है। भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण एक भूभाग ऊपर उठा, जिसने कच्छ बेसिन को समुद्र से अलग कर दिया। कच्छ के रण का एक हिस्सा ‘लिटिल रण ऑफ कच्छ’ (Little Rann of Kutch) कच्छ की खाड़ी के अंत में स्थित है और 5000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र, मुख्य रूप से गुजरात के सुरेंद्रनगर ज़िले, में फैला है। 

वर्ष के अधिकांश समय, इस भूभाग में नमक के विशाल, बंजर और सफेद मैदान दिखाई देते हैं। जब मानसून आता है तो यहां का भूदृश्य एकदम से बदल जाता है; यह सफेद रण एक उथली आर्द्रभूमि (wetland) में तबदील हो जाता है। भूमि के लगभग 75 ऊंचे-ऊंचे टीले टापुओं में तबदील हो जाते हैं, जिन्हें स्थानीय अगरिया और मालधारी समुदाय बेट कहते हैं। 

लिटिल रण ऑफ कच्छ में जंगली गधा अभयारण्य (Wild Ass Sanctuary) भी है। यह अभयारण्य भारतीय जंगली गधे (Indian Wild Ass) [Equus hemionus khur] का एकमात्र प्राकृतवास बचा है। रेतीले और भूरे रंग वाले इन जानवरों की संख्या इस क्षेत्र में लगभग 6000 है। ये जिस तरह के स्थान (habitat) पर रहते हैं, वहां की परिस्थिति वर्ष के अधिकांश समय दूभर रहती है, और वहां की वनस्पति शुष्क पादप और कंटीली वनस्पति होती है। खुर और इनके जैसे एसिनस उप-प्रजाति (Asinus subspecies) के अन्य गधों में उजाड़ जगहों पर भी भोजन खोजने की उल्लेखनीय क्षमता होती है। उनका पाचन तंत्र सबसे शुष्क (कंटीली) वनस्पतियों को भी पचाने में माहिर होता है। खुर के चीता (cheetah) और शेर (lion) जैसे शिकारी लुप्त हो चुके हैं, इन्हें इस क्षेत्र में आखिरी बार 1850 के दशक में देखा गया था। 

खुर आकार में लगभग ज़ेबरा जितना बड़ा होता है, और इसका जीवनकाल 21 साल का होता है। खुर के स्थायी समूहों में मादा खुर और उनके शावक होते हैं। नर खुर अकेले रहते हैं, खासकर प्रजनन के मौसम में। रण के सपाट भूभाग पर वे 70 कि.मी. प्रति घंटे तक की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। मादा खुर के लिए यहां जीवन मुश्किल हो सकता है क्योंकि गर्भधारण की अवधि लंबी होती है, 11 से 12 महीने। और कभी-कभी तो गर्भावस्था के दौरान भी स्तनपान कराते हुए मादा देखी गई हैं। 

विलुप्ति से वापसी

ये खुर बीमारियों की चपेट में आने कारण विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे, लेकिन हाल ही में ये इस संकट से बाहर निकल आए हैं। संक्रामक अफ्रीकी हॉर्स सिकनेस (African Horse Sickness) और सर्रा (Sarra) [Trypanosoma evansi] के कारण होने वाला रोग जो काटने वाले कीटों से फैलता है, ने खुरों के कई झुंडों का सफाया कर दिया था। 1960 के दशक में केवल कुछ सौ बचे होने का अनुमान था। 

अमरावती स्थित गवर्मेंट विदर्भ इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने खुर के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mitochondrial DNA) का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में उन्हें जेनेटिक विविधता (genetic diversity) बहुत ही कम होने के संकेत मिले हैं। यह बीमारी के प्रकोप के कारण होने वाली जेनेटिक बाधा के कारण है; बीमारी के कारण केवल कुछ ही खुर जीवित बचे हैं। लगातार संरक्षण प्रयासों (conservation efforts) की बदौलत, हाल के दशकों में खुर की आबादी में वृद्धि देखी गई है। 

मनुष्यों के साथ संघर्ष

नमक के दलदल (salt marshes) मानव उद्यमियों को आकर्षित करते हैं – भारत के 30 प्रतिशत नमक की आपूर्ति लिटिल रण से होती है। हर साल, मौसमी प्रवास इस मरीचिका जैसे परिदृश्य को बदल देता है, जिसमें 5000 परिवार यहां आते हैं और यहां भारी वाहनों का आवागमन बढ़ जाता है। मनुष्यों और साथ में उनके मवेशियों की यह आमद, जो खूब चरते हैं, मिलकर यहां के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) और उसके वन्यजीवों (wildlife) के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। सिंचाई नहरें (irrigation canals), जो लिटिल रण के दक्षिणी किनारे तक पानी ले जाती हैं, भी मिट्टी में खारेपन को बढ़ा सकती हैं। 

कृषि (agriculture) और नमक की खेती (salt farming), दोनों के चलते बढ़ती मानवीय उपस्थिति ने खुरों को छितरा दिया है। खुर के झुंड गुजरात और यहां तक कि राजस्थान के आसपास के इलाकों में देखे जाते हैं। इस कारण जंगली गधों को फसल चट करने वालों (crop raiders) का दर्जा दे दिया गया है। नीलगाय (nilgai) और जंगली सूअर (wild boar) जैसे अन्य जानवर फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन दोषी खुरों को ही ठहराया जाता है। अभयारण्य के बेहद खूबसूरत परिदृश्य (landscape) और मानव-बहुल क्षेत्रों को बाकायदा अलग-अलग रखना दोनों के लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एड्स: सामाजिक-वैज्ञानिक काम बना लास्कर का हकदार

प्रतिका गुप्ता

विगत दिनों लास्कर अवार्ड 2024 (Lasker Award 2024) की घोषणा की गई। इस वर्ष के लोक सेवा (public service) श्रेणी में इस पुरस्कार के लिए कुरैशा अब्दुल करीम और सलीम अब्दुल करीम की जोड़ी को चुना गया है। यह सम्मान उन्हें विषमलैंगिक यौन सम्बंधों (heterosexual relationships) में एचआईवी (HIV) फैलाने वाले प्रमुख वाहकों/कारकों पर प्रकाश डालने, और एचआईवी की रोकथाम (HIV prevention) एवं उपचार का जीवनदायिनी तरीका देने के लिए मिला है। साथ ही, विश्व स्तर पर बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति (public health policy) में अग्रणी योगदान और उसकी वकालत के लिए भी इस पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया है। कुरैशा और सलीम दोनों ही कोलंबिया युनिवर्सिटी (Columbia University) में रोगप्रसार विज्ञान (epidemiology) के विशेषज्ञ हैं, साथ ही गैर-मुनाफा संस्थान सेंटर फॉर एड्स प्रोग्राम ऑफ रिसर्च इन साउथ अफ्रीका (CAPRISA) के संस्थापक हैं।

कुरैशा और सलीम ने 1988 में दक्षिण अफ्रीका में एचआईवी पर काम शुरू किया था। इस समय तक दक्षिण अफ्रीका में एचआईवी संक्रमण (HIV infection) उजागर नहीं हुआ था। उन्होंने समुदाय-आधारित सर्वेक्षण (community-based survey) कर 1992 में यह बताया था कि वहां 1 प्रतिशत से अधिक लोगों में एचआईवी संक्रमण मौजूद है, और पुरुषों की तुलना में तीन गुना अधिक महिलाएं इससे संक्रमित हैं। इसके अलावा, 20 साल से कम उम्र के किशोर (adolescent) लड़कों में यह लगभग न के बराबर फैला था जबकि किशोर लड़कियों में इसका प्रसार सर्वाधिक था। निष्कर्ष स्पष्ट था कि किशोर लड़कियों को संक्रमण किशोर लड़कों से नहीं, बल्कि वयस्क पुरुषों (adult men) से मिल रहा था।

ये नतीजे अविश्वसनीय थे क्योंकि अन्य देशों में एचआईवी मुख्यत: पुरुषों को प्रभावित करता है। लेकिन अब्दुल करीम द्वय ने बताया कि अफ्रीका के संदर्भ में एचआईवी से महिलाएं अधिक असुरक्षित (vulnerable women) हैं। महिलाओं के एचआईवी से बचाव के लिए उन्होंने असुरक्षित यौन सम्बंधों से परहेज़ और कंडोम उपयोग (condom use) करने की सलाह दी। लेकिन ये उपाय अपर्याप्त लग रहे थे। क्योंकि वयस्क और बुज़ुर्ग पुरुषों के पास सामाजिक ताकत होती है और वे अपनी ताकत का उपयोग कर लड़कियों को यौन सम्बंध बनाने के लिए मजबूर कर सकते हैं, और इसी शक्ति अंसतुलन के कारण लड़कियां कंडोम का उपयोग करने के लिए आग्रह भी नहीं कर पातीं।

इसलिए अब्दुल करीम द्वय ने ऐसे तरीके खोजने शुरू किए जिनके उपयोग से लड़कियों और महिलाओं को सुरक्षित रहने के लिए पुरुषों पर निर्भर न रहना पड़े, वे स्वयं ही एचआईवी से बचाव (HIV prevention methods) के तरीके अपना सकें। कई सारी विफलताओं और छोटी-मोटी सफलताओं के बाद, अंतत: 18 साल के सतत प्रयास से उन्हें एचआईवी की रोकथाम का प्रभावी तरीका (effective method) खोजने में सफलता मिल गई।

दरअसल पूर्व के प्रयासों में वे रोकथाम के लिए ऐसी औषधि तैयार करना चाह रहे थे जो एचआईवी वायरस को कोशिकाओं में प्रवेश ही न करने दे, लेकिन ऐसी औषधियां कारगर नहीं रहीं। इसलिए उन्होंने एक ऐसे रसायन (टेनोफोविर) का मलहम तैयार किया जिसे योनि पर लगाने से एचआईवी वायरस कोशिकाओं में पहुंचता तो है लेकिन उसकी प्रतियां बनाने की क्षमता जाती रहती है। अंतत: यह एंटीरेट्रोवायरल औषधि (antiretroviral medication) कारगर रही; इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाओं में नए एचआईवी संक्रमण की घटनाएं 39 प्रतिशत तक कम हो गईं। आगे चलकर यह औषधि टेनोफोविर गोली (Tenofovir pill) के रूप में आई जो अधिक सस्ती, लेने में आसान और अत्यधिक प्रभावी थी।

अंतत: विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization, WHO) ने इसे संपर्क-पूर्व रोकथाम के उपाय (Pre-Exposure Prophylaxis, PrEP) के रूप में मान्यता दे दी।

करीम दंपति ने असुरक्षित यौन सम्बंधों के अलावा ऐसे अन्य कारकों की भी पहचान की जो महिलाओं को एचआईवी संक्रमण के प्रति अधिक असुरक्षित (high risk for HIV) बनाते हैं। उदाहरण के लिए, जननांगों में सूजन एचआईवी संक्रमण को पकड़ने का जोखिम बढ़ाती है, और यह रोगनिरोधक टेनोफोविर की प्रभावशीलता को भी कम करती है। साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि जननांग का सूक्ष्मजीव संसार (microbiome) भी इसमें भूमिका निभाता है। इस काम ने एचआईवी से निपटने के नए रास्ते (new approaches) खोले।

इस बीच, एक अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) समस्या जन्मी थी। दक्षिण अफ्रीका में, एड्स से पीड़ित अधिकांश लोगों को टीबी (tuberculosis, TB) भी था। चिकित्सक एड्स और टीबी की दवाएं साथ लेने के संभावित दुष्प्रभावों (side effects) से चिंता में थे। करीम दंपती ने अध्ययन कर एड्स और टीबी के सह-संक्रमण वाले लोगों के प्रभावी उपचार और देखभाल का तरीका बताया, जिसे डब्ल्यूएचओ (WHO) ने अपना लिया।

दोनों शोधकर्ताओं ने दशकों तक अध्ययन कर अफ्रीका में एचआईवी संचरण के चक्र (HIV transmission cycle) को भी समझा। इसके लिए उन्होंने एचआईवी वायरस के हज़ारों संस्करणों का अनुक्रमण (sequencing) किया। फिर उन लोगों के समूह बनाए जो एक जैसे वायरस से या निकट सम्बंधी संस्करणों से संक्रमित थे। इस काम ने यह पुख्ता किया कि किशोर लड़कियों और युवा महिलाओं को एचआईवी संक्रमण उनसे करीब 9 साल बड़े पुरुषों से मिलता है। फिर ये संक्रमित महिलाएं जिन पुरुषों के साथ यौन सम्बंध बनाती हैं उनमें से 39 प्रतिशत पुरुष अपने से बहुत छोटी लड़कियों के साथ यौन सम्बंध बनाते हैं और यह चक्र चलता रहता है, संक्रमण फैलता रहता है। उनके इन निष्कर्षों ने एड्स उन्मूलन के लिए नई नीति (AIDS policy) की बुनियाद रखी।

करीम द्वय ने 2002 में, दक्षिण अफ्रीका में एड्स अनुसंधान कार्यक्रम (CAPRISA) की भी स्थापना की और संक्रामक रोगों पर काम करने के लिए युवा वैज्ञानिकों (young scientists) को तैयार किया हैं। इसी संस्था की अगुवाई में एचआईवी और तपेदिक सह-संक्रमण (co-infection) के अध्ययन हुए। कोविड-19 (COVID-19) के दौरान, इस संस्थान के वैज्ञानिकों ने एचआईवी वायरस अनुक्रमण और विश्लेषण के दौरान विकसित अपनी दक्षताओं का उपयोग कर SARS-CoV-2 वायरस के संस्करणों (variants) को समझा और उसके प्रसार के तरीकों के बारे में चेताया।

करीम दंपती ने न सिर्फ शोधकार्य किए बल्कि वे बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) के लिए अग्रणी नेता के तौर पर उभरे। उन्होंने बेबुनियाद बातों और दावों का जवाब दिया। न सिर्फ जवाब दिया बल्कि व्याप्त मिथकों (myths) पर जागरुकता जगाने के लिए सतत सक्रिय रहे। मसलन, 1999 में, दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति ने दावा किया कि एचआईवी दरअसल एड्स का कारण नहीं है। मौतों का कारण तो टीबी और कुपोषण (malnutrition) हैं और इस आधार पर उन्होंने उन क्लीनिकों से समर्थन वापस ले लिया जो मां से बच्चे में एचआईवी संक्रमण फैलने से रोकने के लिए एंटीरेट्रोवायरल (antiretroviral drugs) वितरित कर रहे थे। कुरैशा ने साक्ष्यों के साथ सरकार के इस फैसले को कोर्ट में चुनौती दी। अदालत ने सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया और ज़रूरतमंदों के लिए दवा वितरण के लिए सरकार को बाध्य किया।

करीम दंपती टीवी, रेडियो, प्रिंट हर तरह के मीडिया से लगातार लोगों को जागरूक (awareness) करते रहे, सवाल उठाते रहे। वे स्वास्थ्य अनुसंधान और स्वास्थ्य नीतियों सम्बंधी विभिन्न फोरम, समितियों, संगठनों के सदस्य हैं। 

उनके इन सभी योगदान को मान्यता देने के लिए उन्हें लास्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

लास्कर पुरस्कार: एक परिचय

सन 1945 में अल्बर्ट लास्कर और मैरी लास्कर द्वारा लास्कर पुरस्कारों की शुरुआत की गई थी। लास्कर पुरस्कार मानव स्वास्थ्य को बेहतर बनाने वाली मौलिक जीव वैज्ञानिक खोजों और उपचारों के लिए दिया जाता है। इन पुरस्कारों का उद्देश्य विज्ञान के लिए सार्वजनिक समर्थन के महत्व को रेखांकित करना भी है।

लास्कर पुरस्कार चार श्रेणियों के तहत दिए जाते हैं :

अल्बर्ट लास्कर बुनियादी चिकित्सा अनुसंधान पुरस्कार: यह पुरस्कार किसी ऐसे बुनियादी अनुसंधान के लिए दिया जाता है जिसने जैव-चिकित्सा विज्ञान में एक नई ज़मीन तैयार की हो।

लास्करडेबेकी नैदानिक चिकित्सा अनुसंधान पुरस्कार: यह पुरस्कार नैदानिक अनुसंधान में किसी ऐसी बड़ी प्रगति को दिया जाता है, जिसने लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाया हो।

लास्करकोशलैंड चिकित्सा विज्ञान में विशेष उपलब्धि पुरस्कार: यह पुरस्कार शानदार और सम्मानीय शोध उपलब्धियों और अग्रणी वैज्ञानिक नीति निर्माण प्रयासों के लिए दिया जाता है।

लास्कर-ब्लूमबर्ग लोक सेवा पुरस्कार: यह चिकित्सा अनुसंधान, सार्वजनिक स्वास्थ्य या स्वास्थ्य सेवा के बारे में जनता की समझ को बेहतर करने के लिए; चिकित्सा विज्ञान या स्वास्थ्य में प्रगति को गति देने वाली नीति, नियम-कानूनों या अन्य पहलों के समर्थन में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए; चिकित्सा विज्ञान या सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए समर्थन देने या मुहैया कराने में योगदान के लिए; सार्वजनिक स्वास्थ्य पर काम करके कई लोगों के जीवन को लाभान्वित करने के लिए दिया जाता है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सिर पटककर बंबलबी ज़्यादा परागकण प्राप्त करती है

करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि बंबलबी (Bumblebee) जिन फूलों का परागण (pollination) करती है, उन पर ज़्यादा माथा पटकती है। परिणाम यह होता है कि परागकोशों में भरे परागकण (pollen grains) ज़्यादा मात्रा में बाहर निकलते हैं। यह सही है कि कई फूलों में परागकोशों में परागकण बाहर ही होते हैं और यहां सिर पटकने की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन कई फूलों में परागकण कोश के अंदर होते हैं। ऐसे फूलों के मामले में परागण की क्रिया बहुत आसान नहीं होती। यहां गुंजन परागण (buzz pollination) काम आता है। गुंजन परागण का मतलब होता है कि बंबलबी ध्वनि कंपन (vibration) पैदा करती है ताकि उस फूल में कंपन हो और परागकोश के अंदर भरे परागकण बाहर आ जाएं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 9 प्रतिशत पौधे इसी तरह के परागण (pollination process) के भरोसे हैं और इनमें आलू (potato), टमाटर (tomato) व मटर (pea) जैसे कई फसली पौधे भी शामिल हैं।

वैसे कीटों (insects) के लिए गुंजन-परागित फूलों के परागकणों को बटोरना आसान नहीं होता। क्योंकि ऐसे फूलों में परागकण नलीनुमा परागकोशों (tube-like anthers) में भरे होते हैं और इनमें एक बारीक सा सुराख होता है। लेकिन कुछ मधुमक्खियां (bees) (बंबलबी सहित) ऐसे फूलों पर बैठ जाती हैं और अपने पंखों को जमकर फड़फड़ाती हैं। यानी वे गुंजन (buzzing) करती हैं और इसके कंपन परागकोश को कंपायमान कर देते हैं। ऐसा होने पर परागकण बाहर छलकने लगते हैं।

वैज्ञानिक यह तो दर्शा चुके हैं कि कोई मधुमक्खी (bee) जितने अधिक कंपन (vibration) पैदा करती है, उतने ही अधिक परागकण (pollen grains) उसे हासिल होते हैं। लेकिन यह एक रहस्य था कि बंबलबी कंपन पैदा करने में इतनी कुशल कैसे होती है। इसे समझने के लिए उपसला विश्वविद्यालय (Uppsala University) के चार्ली वुडरो ने बंबलबी के व्यवहार को बारीकी से देखा। अधिकांश शोधकर्ता मानते आए थे कि मधुमक्खियां गुनगुनाते समय खुद को स्थिरता प्रदान करने के लिए कभी-कभार फूलों को काटती हैं। लेकिन इसी व्यवहार के हाई स्पीड वीडियो (high-speed video) में नज़र आया कि ये कीट तो अपने सिर और वक्ष को तेज़ी से हिलाते रहते हैं।

तो, वुडरो और उनके साथियों ने एक बंबलबी (Bombus terrestris) का वीडियो बनाया। उन्होंने खास तौर से उस समय के वीडियो रिकॉर्ड किए जब वे दो तरह के गुंजन-परागित फूलों के परागकोशों पर पहुंचीं।

इस तरह की वीडियोग्राफी (videography) में शोधकर्ता यह भी मापन कर पाए कि बंबलबी के कंपनों (vibrations) के जवाब में फूलों में कितने कंपन हुए। पता चला कि जब गुनगुनाती बंबलबी परागकोश को काटती हैं तो तीन गुना अधिक कंपन फूलों तक पहुंचते हैं। यह भी देखा गया कि काटने वाली बंबलबी ने परागकोश से ज़्यादा परागकण छलकाए।

अलबत्ता, इन अवलोकनों ने कई नए सवालों को भी जन्म दिया है। जैसे बंबलबी फूलों पर पहुंचकर लगातार परागकोशों को काटती नहीं रहती हैं। यह पता करना रोचक होगा कि वे कब ऐसा करती हैं। दूसरा अवलोकन यह था कि जब वे काटती हैं तो उनका सिर ‘सिर चकरा देने’ (head spinning) की हद तक कंपन करता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि वे ऐसा कैसे कर पाती हैं। यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि क्या बंबलबी के व्यवहार का फूल के प्रकार (flower type) से भी कुछ सम्बंध है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://news.harvard.edu/gazette/story/2016/02/making-use-of-the-head/

टापुओं के चूहों के विरुद्ध वैश्विक जंग

वर्ष 1959 में, एक छोटे समुद्री पक्षी व्हाइट-फेस्ड स्टॉर्म पेट्रेल (White-faced Storm Petrel) को बचाने के एक प्रयास में न्यूज़ीलैंड के मारिया द्वीप (Maria Island) से चूहों का सफाया किया गया था। यह अनुभव कई टापुओं पर घुसपैठी चूहों को खत्म करने के एक वैश्विक अभियान (global campaign against rats) की प्रेरणा बना।

एक गैर-सरकारी संस्थान आइलैंड कंज़र्वेशन (Island Conservation) के अनुसार, पिछले पचास वर्षों में 666 द्वीपों से चूहों को खत्म करने के लिए 820 प्रयास (rat eradication efforts) किए गए हैं और सफलता लगभग 88 प्रतिशत रही है। गौरतलब है कि चूहे आम शहरी जीव (urban rats) हैं लेकिन टापुओं पर ये काफी विनाशकारी (destructive) हो जाते हैं। वास्तव में टापू जैसे अलग-थलग पारिस्थितिकी तंत्र (isolated ecosystems) जोखिमग्रस्त प्रजातियों के घर हैं, और चूहे इन टापुओं पर रहने वाले पक्षियों, स्तनपाइयों, उभयचरों और सरीसृपों की लगभग 75 प्रतिशत विलुप्ति (species extinction) के लिए ज़िम्मेदार हैं।

चूहों की तीन सबसे आम प्रजातियां, काला चूहा (Black Rat, Rattus rattus), ब्राउन या नॉर्वे चूहा (Brown Rat, R. norvegicus), और प्रशांत चूहा (Pacific Rat, R. exulans) इस उन्मूलन का लक्ष्य हैं। ये कृंतक (rodents), अक्सर जहाज़ों (ships) पर सवार होकर टापुओं पर पहुंच जाते हैं और तेज़ी से संख्यावृद्धि (rapid population growth) करते हैं। एक मादा चूहा एक साल में सैकड़ों-हज़ारों संतानों को जन्म दे सकती है।

गैलापागोस (Galapagos Islands) से लेकर अंटार्कटिका के दक्षिण जॉर्जिया द्वीप (South Georgia Island) तक उन्मूलन अभियान सफल रहे हैं। दक्षिण जॉर्जिया के टापुओं को चूहों से मुक्त (rat-free islands) करने के लिए 10 साल तक 135 करोड़ डॉलर का अभियान चला। इसमें हेलीकॉप्टर की मदद से 3000 टन ज़हरीला चारा (poison bait) फैलाया गया।

चूहों को खत्म करना चुनौतीपूर्ण (challenging task) कार्य है। उष्णकटिबंधीय द्वीपों (tropical islands) पर चूहे साल भर प्रजनन करते हैं और उन्हें प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध होता है। ऐसे में बार-बार प्रयास करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, गैलापागोस के उत्तरी सीमोर द्वीप (North Seymour Island) पर प्रारंभिक अभियान के बाद चूहों की आबादी में फिर से इजाफा दिखा था, जिसके बाद उन्मूलन प्रयास फिर से शुरू करना पड़ा। आसपास चूहों की आबादी होने से या मानव निवास वाले द्वीपों पर पुन: घुसपैठ की संभावना अधिक होती है।

उन्मूलन प्रयासों का पैमाना बढ़ रहा है। 2019 तक उन्मूलन के लिए लक्षित द्वीपों का औसत क्षेत्रफल 1700 हेक्टर था, लेकिन टोंगा स्थित लेट आइलैंड (Late Island, Tonga) (11,600 हेक्टर) और गैलापागोस में फ्लोरियाना द्वीप (Floreana Island) (17,900 हेक्टर) जैसे बड़े द्वीप नए केंद्र (new eradication centers) बन गए हैं।

फिलहाल, सबसे बड़ा द्वीप उन्मूलन प्रयास दक्षिण जॉर्जिया द्वीप (South Georgia Island) (1,00,000 हेक्टर) पर हुआ है। हाल ही में, न्यूज़ीलैंड (New Zealand) ने एक योजना शुरू की है जिसका उद्देश्य 2050 तक पूरे देश को चूहों, फेरेट्स और पोसम (possums) जैसी प्रजातियों से छुटकारा (eradication plan) दिलाना है।

2019 के एक अध्ययन में पाया गया था कि अगले दशक में सिर्फ 169 द्वीपों से चूहों और अन्य घुसपैठी स्तनधारियों (invasive mammals) को खत्म करने से पृथ्वी की सबसे लुप्तप्राय प्रजातियों में से 111 को बचाया (species conservation) जा सकता है। इसका मतलब है कि द्वीपों को चूहों से मुक्त (rat-free islands) करने के प्रयास जैव विविधता संरक्षण (biodiversity conservation) को काफी प्रभावित कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या बिल्लियों को अपनी कद-काठी का अंदाज़ा होता है?

बिल्लियां इतनी लचीली होती हैं कि लोगों ने उन्हें पानी की उपमा दे डाली है जो कितनी भी कम जगह से बाहर निकल जाता है, किसी भी आकार में ढल जाता है। बिल्लियों के ऐसे करतब कभी न कभी आपने भी देखे होंगे।

लेकिन क्या बिल्लियां खुद को लचीला मानती हैं? क्या वे किसी छोटे छेद (small hole) या संकरी संद (narrow space) में से गुज़रने के पहले अपने शरीर के आकार (body size) को ध्यान में रखकर यह सोचती हैं कि वे इसमें से निकल पाएंगी या नहीं? कुल मिलाकर सवाल है कि क्या बिल्लियों को अपने डील-डौल (cat’s body awareness) के बारे में बोध होता है?

ओटवोस लोरैंड विश्वविद्यालय के पीटर पोंग्रेज़, जिन्होंने कुत्तों और बिल्लियों की समझ-बूझ (cognitive understanding) पर काफी शोध किए हैं, ने इस बार बिल्लियों पर अध्ययन के लिए यही सवाल चुना। अध्ययन के लिए उन्होंने 30 पालतू बिल्लियां (domestic cats) चुनी। बिल्लियों के साथ प्रयोगशाला में अध्ययन करना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए अध्ययन उन्होंने सभी बिल्लियों के घर जा-जाकर किए।

अध्ययन के लिए उन्होंने कमरे में एक ऐसा लकड़ी के पैनल का पार्टीशन (wooden partition) लगाया जिसमें एक आयताकार छेद बना हुआ था, और इस आयताकार छेद को (लंबाई और चौड़ाई में) छोटा-बड़ा किया जा सकता था। इस छेद के अलावा, कमरों की सारी ऐसी जगहों को ठीक से बंद कर दिया गया था, जहां से बिल्लियों के निकलने की संभावना हो सकती थी। पार्टीशन के एक तरफ बिल्ली को रखा जाता था और दूसरी तरफ बैठे उनके मालिक उन्हें पुकारते थे।

इस पुकार प्रक्रिया में, जब पैनल में छेद बड़ा था – इतना बड़ा कि छेद की ऊंचाई और चौड़ाई बिल्लियों की ऊंचाई (height of the cat) और चौड़ाई (width of the cat) से अधिक थी – तो बिल्लियां बेहिचक फर्राटे से उसमें से निकल रही थीं। फिर छेद की चौड़ाई को उतना (आरामदायक) ही रखा, लेकिन ऊंचाई थोड़ी-थोड़ी कम की गई और दूसरी ओर से बिल्लियों के मालिक उन्हें पुकारते रहे। अब बिल्लियां थोड़ा हिचकिचाने लगीं, शायद उन्हें लग रहा था कि उनका कद (cat’s size) इस छेद से बहुत अधिक है। लेकिन हिचकिचाहट के बाद भी वे इस छेद से निकलने की कोशिश करती रहीं; तब भी जब छेद उनके कद का आधा था। इससे लगता है कि बिल्लियों को अपने शरीर के साइज़ (size perception) के बारे में कुछ तो अंदाज़ा है।

लेकिन चौड़ाई के मामले में नतीजे अलग रहे। शोधकर्ताओं ने ऊंचाई को आरामदायक स्थिति में स्थिर रखकर चौड़ाई को थोड़ा-थोड़ा कम किया। छेद चाहे कितना भी संकरा क्यों न हो गया हो – यहां तक कि बिल्लियों की चौड़ाई का आधा भी – बिल्लियां छेद से निकलने से पहले कभी नहीं हिचकिचाई। छेद से निकलने में उनकी गति ज़रा भी धीमी नहीं हुई। इससे लगता है कि बिल्लियां अपनी चौड़ाई का अंदाज़ा (cat’s width awareness) नहीं लगा पातीं; वे तो बस अपने लचीले शरीर (flexible body) का फायदा उठाती हैं, कोशिश करती रहती हैं और संकरी से संकरी जगह (narrow spaces) से निकल लेती हैं।

ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि बिल्लियां अधिक लचीली (flexibility in cats) होती हैं, इसलिए उन्हें केवल कुछ ही मामलों में अपने शरीर के आकार का ध्यान रखना होता होगा। लेकिन वास्तव में बिल्लियां अपने शरीर की साइज़ (body size awareness in cats) के बारे में क्या सोचती हैं यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाया है।

फिलहाल जितना भी पता चला है, उस जानकारी का इस्तेमाल बिल्लियों के मालिक उनके लिए घर, खेल के मैदान वगैरह को सुरक्षित रखने (safety for cats) में कर सकते हैं, ताकि बिल्लियां किसी छोटी-संकरी जगह में न फंस जाएं। ये नतीजे आईसाइंस (iScience journal) में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शिकारियों से बचने के लिए बुलबुले का सहारा

कोस्टा रिका और पनामा के वर्षा वनों में वॉटर एनोल (Anolis aquaticus) नामक एक छोटी, अर्ध-जलीय छिपकली में जान बचाने के लिए अनोखी रणनीति विकसित हुई है। यह पानी के अंदर हवा के बुलबुले (air bubbles) बनाकर उन्हें ऑक्सीजन टैंक (oxygen tank) की तरह इस्तेमाल करती है। इस तकनीक से छिपकली लंबे समय तक पानी में छिपकर पक्षियों और सांप (predators like birds and snakes) जैसे शिकारियों से स्वयं को सुरक्षित रखती है।

गौरतलब है कि वैज्ञानिक लंबे समय से इन छिपकलियों को हवा के बुलबुले बनाते हुए देखते आए हैं। बुलबुले पानी में गोता लगाने के दौरान छिपकलियों के नथुने से चिपके रहते हैं, इन बुलबुलों की हवा का उपयोग कर वे लगभग 16 मिनट तक पानी के नीचे रह सकती हैं। यह समय किसी भी अन्य छिपकली की तुलना में अधिक है। लेकिन शोधकर्ताओं को यह स्पष्ट नहीं था कि ये बुलबुले वास्तव में उन्हें पानी में लंबे समय तक गोता लगाने में मदद करते हैं या यह एक संयोग मात्र है। 

इसे समझने के लिए जीवविज्ञानियों (biologists) ने प्राकृतिक स्थिति में रह रही कुछ वाॉटर एनोल के थूथन पर मॉइश्चराइज़र (moisturizer) लगाया ताकि उन्हें बुलबुले बनाने से रोका जा सके और फिर यह देखा कि छिपकलियां कितने समय तक पानी में डूबी रह सकती हैं। बुलबुले बनाने वाली छिपकलियां, बुलबुले न बनाने वाली छिपकलियों की तुलना में एक मिनट से ज़्यादा समय तक पानी के नीचे रहीं। शोधकर्ताओं के अनुसार गोता लगाने के समय (dive time) को बढ़ाने की क्षमता उनके अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है, क्योंकि यह उन्हें शिकारियों से छिपने के समय में बढ़त देती है। 

इस अध्ययन से कुछ नए सवाल भी उठते हैं। जैसे ये बुलबुले कैसे काम कर रहे होंगे। शोधकर्ता फिलहाल यह देखना चाहते हैं कि क्या बुलबुले आसपास के पानी के साथ गैस का आदान-प्रदान (gas exchange) भी करते हैं। यदि छिपकलियां अतिरिक्त ऑक्सीजन लेकर कार्बन डाईऑक्साइड बाहर निकालती हैं तो यह बुलबुला और भी अधिक कुशल हो सकता है। 

अपनी अनोखी रणनीति से परे, जल एनोल मानव प्रौद्योगिकी के लिए प्रेरणा हो सकते हैं। इन छिपकलियों तथा कीटों (aquatic insects) जैसे अन्य जलीय जीवों द्वारा बुलबुले का उपयोग करने के तरीके का अध्ययन करके, इंजीनियर (engineers) ऐसी नई सामग्री विकसित कर सकते हैं जो पानी के नीचे हवा को कैद करके रख सकती है, साफ रह सकती है या तरल पदार्थों में अधिक आसानी से घूम सकती है। (स्रोत फीचर्स)

छिपकली को बुलबुला बनाते हुए देखने के लिए लिंक – https://www.science.org/content/article/these-lizards-blow-bubbles-underwater-and-use-them-scuba-tanks)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन

ज़ुबैर सिद्दिकी

कई दशकों से वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन (climate change) और उसके प्रभावों (climate change impacts) की चेतावनी देते आए हैं। ये प्रभाव अब हर जगह दिखने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में समुद्र स्तर (sea level rise) में हो रही वृद्धि और भीषण गर्मी (extreme heat) ने मानव जीवन और पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के साथ समुद्र तल में वृद्धि हो रही है और तटीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) और कटाव का खतरा बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर शहरों में अत्यधिक गर्मी (urban heat) जानलेवा साबित हो रही है। इससे निपटने का सबसे उचित तरीका तो कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) को सीमित करना और अपनी खपत को कम करना है लेकिन इसके साथ ही बदलती जलवायु के प्रति अनुकूलन (climate adaptation) भी महत्वपूर्ण है।

इसके लिए, नए-नए तरीकों और नवाचारों (innovation in climate adaptation) पर काम किया जा रहा है। बढ़ते समुद्र स्तर से निपटने के लिए तैरते शहरों (floating cities) और उभयचर घरों (amphibious homes) जैसी अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, वहीं भीषण गर्मी से राहत के लिए सुपरकूल सामग्री (supercooling materials) और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए नई एयर कंडीशनिंग तकनीकें (energy-efficient air conditioning) विकसित की जा रही हैं। इन उपायों का उद्देश्य उन्नत तकनीकों की मदद से आबादी को बाढ़ और अत्यधिक गर्मी जैसे खतरों से सुरक्षित करना है। आइए ऐसे कुछ नवाचारों और समाधानों पर चर्चा करें।

तटों की सुरक्षा और जलवायु अनुकूलन 

वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार वर्तमान उत्सर्जन की स्थिति में वर्ष 2100 तक समुद्र स्तर में एक मीटर से भी अधिक की वृद्धि (sea level rise prediction) हो सकती है, जिससे निचले तटीय क्षेत्रों की आबादी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी। इस समस्या से निपटने के लिए ‘क्लायमेटोपिया’ (Climatopia concept) का विचार काफी प्रासंगिक हो गया है। क्लायमेटोपिया शब्द दरअसल युटोपिया का रूपांतरण है जिसका मतलब होता है सबके लिए आदर्श कल्पनालोक। इन बस्तियों की कल्पना विशेष रूप से उन क्षेत्रों के लिए की जा रही है, जो कुछ वर्षों में जलमग्न हो सकते हैं। उच्च तकनीकी परियोजनाओं के जरिए इन बस्तियों में बाढ़ के प्रभावों को कम करने और ऊर्जा दक्षता (energy efficiency) बढ़ाने के उपाय के रूप में देखा जा रहा है।

ऐसे विचारों में पानी पर आवास (water-based housing) या तैरते घर (floating homes), गेड़ियों (स्टिल्ट्स) पर बने घर और उभयचर आवास शामिल हैं। देखा जाए तो इनमें से कोई भी विचार नया नहीं है। जैसे पूर्व में पेरू की टिटिकाका झील में कृत्रिम द्वीप (artificial islands) और वियतनाम तथा नाइजीरिया में स्टिल्ट हाउस (stilt houses) बनाए गए हैं। उत्तर-पूर्वी भारत में ऐसे घर बहुतायत में बनते हैं। तैरते घरों के रूप में डल झील के शिकारे तो मशहूर हैं ही। एम्स्टर्डम के आइबर्ग क्षेत्र में उभयचर घरों की परियोजना काफी सफल रही है। फर्क इतना है कि आधुनिक क्लायमेटोपिया उच्च तकनीक वाले शहरों के रूप में उभर रहे हैं, जिनमें सौर पैनल (solar panels), स्वास्थ्य सेवाएं (health services), स्कूल और अन्य सुविधाएं शामिल हैं। हालांकि, इन डिज़ाइनों में भी चुनौतियां मौजूद हैं, और इन्हें लागू करते समय स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा।

क्लायमेटोपिया को तीन मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है:

1. पुनर्निर्मित भूमि (reclaimed land): तटीय क्षेत्रों में रेत और मिट्टी जमा करके नई भूमि बनाई जाती है। चीन में ओशियन फ्लावर आइलैंड (Ocean Flower Island) इसका एक उदाहरण है, लेकिन आवश्यक निवेश आकर्षित करने के बावजूद इस प्रकार की परियोजनाएं पर्यावरणीय प्रभाव (environmental impact) और स्थानीय समुदायों पर संभावित व्यवधान (local community disruption) के कारण विवादास्पद हो सकती हैं। 

2. उभयचर घर (amphibious homes): ये घर ज़मीन पर टिके होते हैं, लेकिन जल स्तर बढ़ने पर तैर सकते हैं। हालांकि, इसका एक नकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी परियोजनाएं लोगों को उच्च जोखिम वाले बाढ़ क्षेत्रों (flood-prone areas) में रहने के लिए प्रोत्साहित करेंगी। 

3. तैरते शहर (floating cities): ये शहर पूरी तरह से समुद्र या लैगून पर स्थित होते हैं और इन्हें इंटरलॉकिंग मॉड्यूलर प्रणाली (modular interlocking system) के साथ डिज़ाइन किया जाता है। मालदीव में 20,000 लोगों के निवास के लिए डिज़ाइन की गई फ्लोटिंग सिटी इसका एक उदाहरण है, लेकिन बड़े तूफानों (storm resilience) की स्थिति में इन शहरों की दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठते हैं। 

चुनौतियां 

क्लायमेटोपिया परियोजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे कितनी प्रभावी और सुरक्षित (effective and safe urban design) हैं। पुनर्निर्मित द्वीप (reclaimed islands) सबसे महंगे होते हैं और इनके निर्माण में समय भी अधिक लगता है। वहीं, उभयचर घरों की लागत अपेक्षाकृत कम होती है और वे आवश्यक सेवाओं तक आसान पहुंच प्रदान करते हैं। लेकिन समुद्री तूफानों और सुनामी (tsunamis) जैसी आपदाओं के दौरान इन डिज़ाइनों की स्थिरता पर संदेह बना रहता है। इसलिए सरकारों और योजनाकारों को इन परियोजनाओं की दीर्घकालिक व्यवहार्यता (long-term sustainability) का मूल्यांकन करना होगा।

इसके अलावा, इनके निर्माण से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा असर पड़ सकता है तथा भारी मात्रा में सामग्रियों के निष्कर्षण और परिवहन से कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) होता है। पुनर्निर्मित द्वीप जैव विविधता (biodiversity loss) को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जबकि तैरते शहर मौसम के पैटर्न (climate change) को बदल सकते हैं और समुद्री जीवों को प्रभावित कर सकते हैं। इन प्रभावों को कम करने के लिए सरकारों और शोधकर्ताओं को सतत विकास (sustainable development) प्रक्रियाओं का पालन करना और पारिस्थितिकीय आकलन को प्राथमिकता देनी होगी।

इन परियोजनाओं के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, क्लायमेटोपिया जैसी परियोजनाएं मुख्यतः अमीर लोगों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जिससे गरीब समुदायों के लिए इनका लाभ सीमित हो जाता है। इसके अतिरिक्त, इन परियोजनाओं के चलते पारंपरिक मछली पकड़ने और अन्य स्थानीय गतिविधियों पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। इसलिए, इन नवाचारों को सफल और न्यायसंगत बनाने के लिए सरकारों को सामाजिक न्याय (social justice) को प्राथमिकता देते हुए किफायती आवास (affordable housing) और जीवन-यापन के साधनों को भी इन परियोजनाओं का हिस्सा बनाना चाहिए।

गर्मी से निपटना

वैश्विक तापमान (global warming) में वृद्धि के कारण शहरों में अत्यधिक गर्मी महसूस की जा रही है, जिससे पानी की कमी (water scarcity), फसलों को नुकसान, और स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इस समस्या का समाधान करने के लिए, वैज्ञानिक नए-नए तरीकों पर काम कर रहे हैं जो बिजली की कम से कम खपत (energy efficiency) के साथ ठंडक प्रदान कर सकते हैं। इसमें अधिक कुशल एयर कंडीशनर (air conditioning) और विशेष सामग्री शामिल हैं जो बिना बिजली का उपयोग किए सतहों को ठंडा रख सकती हैं।

शीतलकों में परिवर्तन
पारंपरिक एयर कंडीशनर (traditional air conditioner) इमारत के अंदर से गर्मी को बाहर की ओर ले जाने के लिए एक गैसीय पदार्थ को संपीड़ित करते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा का उपयोग तो होता ही है, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) का भी उत्सर्जन होता है। इन्हें ऊर्जा-कुशल (energy efficient) बनाने के लिए, शोधकर्ता एक नई तकनीक ‘इलेक्ट्रोकैलोरिक’ कूलिंग (electrocaloric cooling) पर काम कर रहे हैं।
इस प्रक्रिया में, कुछ विशेष सिरेमिक सामग्री (ceramic material) का उपयोग किया जाता है। इन सामग्रियों में विद्युत क्षेत्र आरोपित करने पर पदार्थ का तापमान बढ़ जाता है। इसके बाद एक द्रव की मदद से उस गर्मी को बाहर ले जाया जाता है ताकि सिरेमिक पदार्थ का तापमान कम हो जाए यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसका उपयोग शीतलन उद्देश्यों (cooling purposes) के लिए किया जा सकता है।

सुपरकूल सामग्री
सुपरकूल सामग्री दरअसल बिजली का उपयोग किए बिना सतहों को ठंडा रखती है। वैसे तो अधिकांश सामग्री सूर्य की रोशनी (sunlight reflection) को परावर्तित करती हैं और इंफ्रारेड विकिरण (infrared radiation) का उत्सर्जन करती हैं। लेकिन सूपरकूल सामग्री ये दोनों ही कार्य अत्यंत कुशलता से करती हैं।
आम तौर पर हर सतह इंफ्रारेड तरंगें उत्सर्जित करती है जिन्हें वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) और जलवाष्प वगैरह सोख लेते हैं और वातावरण गर्म हो जाता है। सुपरकूल पदार्थ भी ऐसा ही करते हैं लेकिन वे जो इंफ्रारेड तरंगें छोड़ते हैं उनकी तरंग लंबाई उस परास में होती है जिन्हें वायुमंडल में सोखा नहीं जाता और वे अंतरिक्ष (space) में चली जाती हैं। लिहाज़ा वातावरण ठंडा रहता है। यह तकनीक शहरों में हवा के तापमान (urban temperature) को कम करने में भी मदद कर सकती है, जिससे शहरी क्षेत्र अधिक आरामदायक और एयर कंडीशनिंग पर कम निर्भर हो सकते हैं।

गौरतलब है कि पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक प्लास्टिक, धातुओं से लेकर पेंट और यहां तक कि लकड़ी को सुपरकूल सामग्री (supercool material) के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में सैल्मन मछली के शुक्राणुओं के डीएनए और जिलेटिन से बना एक सुपरकूल एरोजेल (supercool aerogel) तैयार किया गया है जो हवा के तापमान की तुलना में सतहों को 16 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा रख सकता है। इस सामग्री को तैयार करने में बायोडिग्रेडेबल सामग्री (biodegradable material) का उपयोग किया गया है इसलिए यह पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) भी है।

इमारतों की ठंडी सतह  

सतहों को ठंडा रखने के लिए वैज्ञानिक सुपरकूल सामग्री से आगे बढ़कर कूल सामग्री (cool material) पर प्रयोग कर रहे हैं। ‘कूल सामग्री’ का उत्पादन आसान है और ये प्रभावी भी हैं। इन्हें भारी मात्रा में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित (reflect sunlight) करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। सुपरकूल सामग्रियों के विपरीत, कूल सामग्री को अत्यधिक परावर्तक (highly reflective) होना चाहिए, किसी विशिष्ट तरंग लंबाई का उत्सर्जन करने की चिंता नहीं की जाती है।

शोधकर्ता इमारतों की खड़ी सतहों (भवनों के अग्रभाग) (building facades) के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर रहे हैं। यह एक मुश्किल काम है क्योंकि खड़ी सतहें आकाश और ज़मीन दोनों की ओर उन्मुख होती हैं। इस वजह से ये गर्मियों में धरती से निकलने वाली गर्मी को सोख लेती हैं और ठंड में गर्मी को आकाश में बिखेर देती हैं। इसका समाधान भौतिक संरचना में मिला है। एक विशेष कोटिंग गर्मियों में आकाश की ओर गर्मी को बिखेरकर दीवारों को ठंडा कर सकती है, जबकि सर्दियों में यह धरती की ओर कम गर्मी बिखेरती है।

एक अन्य तरीका है इमारत की दीवारों के विशिष्ट हिस्सों पर सुपरकूल पेंट (supercool paint) का उपयोग करना है। इसमें खड़ी सतह को लहरदार बनाया जाता है। इस लहरदार (यानी कोरुगेटेड) सतह के आकाश की ओर उन्मुख हिस्सों पर परावर्तक पेंट (reflective paint) लगाया जाता है। जमीन की ओर उन्मुख सतहों पर ऐसी धातु का लेप किया जाता है जो गर्मी को कम सोखे। इस संयोजन से दीवार आसपास की हवा की तुलना में 2-3 डिग्री सेल्सियस ठंडी रही। 

इसके अलावा, धरती को ठंडा रखने के तरीकों पर भी विचार किया गया है। एक प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने एरिज़ोना में शॉपिंग सेंटर की पार्किंग में एक परावर्तक ‘ठंडा फुटपाथ’ (cool pavement) बनाया। यह हल्के रंग का फुटपाथ आसपास के गहरे रंग के फुटपाथ से 8 डिग्री सेल्सियस ठंडा था, और इसके ऊपर की हवा लगभग 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी थी। 

आकार बदलने वाली सामग्री 

ऑस्ट्रेलिया में, इंजीनियर प्रावस्था-बदल स्याही (‘फेज-चेंजिंग इंक’ / phase-changing ink) विकसित कर रहे हैं, जिसे तापमान के आधार पर इमारतों को ठंडा या गर्म रखने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस स्याही में नैनोकण (nanoparticles) होते हैं जो तापमान के साथ प्रावस्था बदलते हैं। ऊंचे तापमान पर इन कणों का संयोजन धातु की तरह व्यवहार करता है और गर्मी को परावर्तित (reflect heat) करता है। कम तापमान पर इनका संयोजन एक सुपरकंडक्टर की तरह व्यवहार करता है और गर्मी अपने अंदर आने देता है।

प्रयोगशाला से बाज़ार तक 

हालांकि ये प्रौद्योगिकियां (technologies) काफी आशाजनक हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश विकास के शुरुआती चरणों (early stages) में हैं। कुछ का परीक्षण केवल प्रयोगशालाओं या छोटे पैमाने पर किया गया है, इसलिए उनकी उपयोगिता को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। 

यह भी सवाल है कि ये प्रौद्योगिकियां अलग-अलग जलवायु (different climates) में कितनी अच्छी तरह काम करेंगी। उदाहरण के लिए, सुपरकूल सामग्री आर्द्र या बादल वाले वातावरण (humid environments) में कम प्रभावी हो सकती है, जहां वातावरण अधिक गर्मी को कैद करता है। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता आशावादी हैं। भले ही ये सामग्री हवा को अपेक्षा के अनुसार ठंडा न कर सकें, लेकिन वे इसे गर्म करने में भी योगदान नहीं देंगी। 

इसमें एक बड़ी चुनौती लोगों को इन नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। हल्की, अधिक परावर्तक छतों का उपयोग करने जैसे सरल परिवर्तन स्पष्ट लाभ प्रदान करने के बावजूद अभी तक व्यापक नहीं हुए हैं। फिर भी लॉस एंजेल्स सहित कई शहरों ने ठंडे फुटपाथ और अन्य शीतलन रणनीतियों (cooling strategies) को लागू करना शुरू कर दिया है। 

ऑस्ट्रेलिया में सिडनी की एक टीम ने दुनिया भर में 300 से अधिक परियोजनाओं में शीतलन सामग्री (cooling materials) का उपयोग किया है, जिसमें सऊदी अरब के रियाद में एक प्रमुख पहल भी शामिल है। 

इसका उद्देश्य शहर के तापमान को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना है। यह परियोजना अधिक आरामदायक शहरी वातावरण (urban environment) बनाने के लिए ठंडी और सुपरकूल सामग्रियों के संयोजन के साथ-साथ अधिक हरियाली का उपयोग करती है। ज़्यादा से ज़्यादा शहरों में इन नवाचारों के प्रयोग से हम यह समझ पाएंगे कि भीषण गर्मी से खुद को बचाने का सबसे बेहतर तरीका कौन-सा है। 

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन (climate change) का प्रभाव बढ़ रहा है, चुनौतियों का सामना करने के लिए नवाचारों की आवश्यकता है। तैरते शहर, उभयचर घर और सुपरकूल सामग्री जैसे समाधान हमें जलवायु परिवर्तन के खतरों से सुरक्षित रख सकते हैं, लेकिन इन्हें सावधानीपूर्वक और टिकाऊ विकास (sustainable development) के सिद्धांतों के तहत लागू करना आवश्यक है। इन तकनीकों को लागू करने में सामाजिक न्याय और समानता (social justice and equity) पर भी ध्यान देना होगा, ताकि समाज के सभी वर्गों को इनका लाभ मिल सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ई-कचरा प्रबंधन: राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की भूमिका

कुमार सिद्धार्थ

भारत में ई-कचरे (इलेक्ट्रॉनिक कचरा यानी पुराने लैपटॉप (old laptops) और सेल फोन (mobile phones), कैमरा और एसी (AC), टीवी और एलईडी लैंप (LED lamps) वगैरह) के प्रबंधन की तेज़ी से बढ़ती चुनौती से जुड़े पर्यावरणीय कानूनों (environmental laws) को मज़बूती प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल, NGT) प्रतिबद्ध है। हाल ही में अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव के नेतृत्व में एनजीटी ने ई-कचरा प्रबंधन रिपोर्टिंग की वर्तमान स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है। एनजीटी ने अपने पूर्व आदेशों का पालन न करने का दावा करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे (electronic waste) के उत्पादन और निस्तारण पर एक नई रिपोर्ट पेश करने के निर्देश दिए हैं। वहीं ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों का पालन न करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के खिलाफ की गई कार्रवाई का भी उल्लेख करने को कहा है। 

यह पहल ई-कचरे से निपटने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) और पारिस्थितिक अखंडता के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दा (environmental issue) है। 

देश में ई-कचरा प्रबंधन से जुड़े नियमों को लागू कराने में सीपीसीबी की भूमिका अहम है। ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों के पालन की निगरानी के साथ-साथ ई-कचरा प्रबंधन और निपटारा सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों हेतु भी सक्रिय पहल करने की ज़िम्मेदारी सीपीसीबी की है। एनजीटी ने सीपीसीबी को यह नई रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने के लिए 12 दिसंबर तक का वक्त दिया है, जिसमें समस्त राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ई-कचरे के उत्पादन (e-waste production), उपचार सुविधाओं, और मौजूदा खामियों पर विस्तृत डैटा (detailed data) शामिल होना चाहिए। 

देश में बढ़ते ई-कचरे पर एनजीटी ने 7 नवंबर, 2022 को निर्देश दिए थे कि ई-कचरे के मामले में सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board) और प्रदूषण नियंत्रण समितियां, सीपीसीबी द्वारा जारी रिपोर्ट का पालन करें। लेकिन तमाम ज़िम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन निर्देशों का अनुपालन ठीक से न करने पर एनजीटी ने असंतोष व्यक्त किया है। 

ई-कचरा जहां पर्यावरण (environment) के लिए खतरनाक होता है, वहीं मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। ई-कचरे के निपटान और तोड़फोड़ से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इनसे निकलने वाले तरल और रसायन सतही जल (surface water), भूजल (groundwater), मिट्टी और हवा में मिल सकते हैं। इनके ज़रिए ये जानवरों और फसलों में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसी फसलों के इस्तेमाल से मानव शरीर में घातक रसायन (hazardous chemicals) पहुंचने का खतरा होता है। इलेक्ट्रॉनिक सामान में लेड (lead), कैडमियम (cadmium), बैरियम (barium), भारी धातुएं व अन्य घातक रसायन होते हैं। 

सीपीसीबी द्वारा दिसंबर, 2020 में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 में भारत में 10,00,000 लाख टन से अधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 2017-18 में यह 25,325 टन और 2018-19 में 78,281 टन था। एक तथ्य यह भी है कि 2018 में केवल 3 फीसदी ई-कचरा एकत्र किया गया था, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 10 फीसदी था। मतलब साफ है कि देश में ई-कचरे को री-सायकल (recycle) करना तो दूर, इस कचरे की एक बड़ी मात्रा एकत्र ही नहीं की जा रही है। एक अन्य रिपोर्ट के आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में 2022 के दौरान 413.7 करोड़ किलोग्राम इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 

भारत में अभी तक राज्य सरकारों द्वारा मान्यता प्राप्त व पंजीकृत ई-कचरा री-सायक्लर 178 ही हैं। लेकिन भारत के ज़्यादातर ई-कचरा री-सायक्लर (e-waste recycler) ई-कचरे का रीसायक्लिंग नहीं कर पा रहे हैं और कुछ तो इसे खतरनाक तरीके से संग्रहित कर रहे हैं। इनमें से कई री-सायक्लर के पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता भी नहीं है। 

आंकड़े बताते हैं कि खतरनाक ई-कचरे को सुरक्षित रूप से संसाधित करने के लिए नए नियम (new regulations) आने के बावजूद, लगभग 80 प्रतिशत ई-कचरा अनौपचारिक सेक्टर (informal sector) द्वारा गलत तरीके से निपटान किया जा रहा है, जिससे प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे कई गुना बढ़ने की आशंका है। इतना ही नहीं इससे भूजल और मिट्टी भी प्रदूषित हो रही है। 

गौरतलब है कि दुनिया भर में प्रति वर्ष 2 से 5 करोड़ टन ई-कचरा पैदा होता है। जबकि वर्तमान में सिर्फ 12.5 फीसदी ई-कचरा रीसायकल हो रहा है। मोबाइल फोन (mobile phones) और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान में बड़ी मात्रा में सोना (gold) या चांदी जैसी कीमती धातुएं होती हैं। अमेरिका में प्रति वर्ष फेंके गए मोबाइल फोन में 3.82 अरब रुपए का सोना या चांदी होता है। ई-कचरे के रीसायक्लिंग (e-waste recycling) से ये धातुएं प्राप्त की जा सकती हैं। 10 लाख लैपटॉप के रीसायक्लिंग से अमेरिका के 3657 घरों में प्रयोग होने वाली बिजली जितनी ऊर्जा (energy) मिलती है। 

विश्व भर में ई-कचरे का वार्षिक उत्पादन 2.6 करोड़ टन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है, जो 2030 तक 8.2 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा। रीसायक्लिंग की कमी वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक उद्योग (electronics industry) पर भारी पड़ती है, और जैसे-जैसे उपकरण अधिक संख्या में, छोटे और अधिक जटिल होते जाते हैं, समस्या बढ़ती जाती है। वर्तमान में, कुछ प्रकार के ई-कचरे का रीसायक्लिंग और धातुओं को पुनर्प्राप्त करना एक महंगी प्रक्रिया है। 

हमें इस बढ़ती समस्या के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इससे निपटने के लिए सबके साथ की आवश्यकता है। राष्ट्रीय प्राधिकरणों, प्रवर्तन एजेंसियों (enforcement agencies), उपकरण निर्माताओं (device manufacturers), रीसायक्लिंग में जुटे लोगों, शोधकर्ताओं के साथ उपभोक्ताओं को भी इनके प्रबंधन और रीसायक्लिंग में योगदान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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