कोशिकाओं को बिजली से ऊर्जा देना

पारंपरिक बिजली संयंत्र जीवाश्म ईंधन से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीवाश्म ईंधन में यह ऊर्जा करोड़ों साल पहले प्रकाश ऊर्जा को जैविक ऊर्जा में तबदील करके भंडारित हुई थी। लेकिन एक हालिया शोध में रसायनज्ञों ने बिजली को जैविक ऊर्जा में परिवर्तित किया है।

एक सरल रासायनिक प्रक्रिया से शोधकर्ताओं ने विद्युत ऊर्जा को एडिनोसीन ट्राइफॉस्फेट (एटीपी) में परिवर्तित किया है। एटीपी कोशिकाओं को ऊर्जा देने वाला रासायनिक ईंधन है। इस प्रक्रिया से नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके जैव कारखानों को ऊर्जा मिल सकेगी और दवाओं से लेकर प्रोटीन पूरक वगैरह बनाए जा सकेंगे।

गौरतलब है कि पौधों की कोशिकाओं के भीतर छोटी-छोटी क्लोरोप्लास्ट नामक रचनाएं प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए एटीपी बनाती हैं। एटीपी आवश्यक चयापचय क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। जब एटीपी अणु का उपयोग होता है तब यह एक फॉस्फेट को त्याग कर एडिनोसीन डायफॉस्फेट (एडीपी) बन जाता है। यह एडीपी ऊर्जा मिलने पर फिर से एटीपी में परिवर्तित हो जाता है। पौधों का उपभोग करने वाले जीव ग्लूकोज़ को ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं और उस ऊर्जा का उपयोग एटीपी-एडीपी-एटीपी चक्र चलाने के लिए करते हैं।

संशोधित सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके औद्योगिक स्तर पर विभिन्न उत्पाद तैयार किए जाते हैं। इसमें पौधे उगाकर शर्करा या अन्य खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं और खमीर (यीस्ट), बैक्टीरिया या अन्य औद्योगिक सूक्ष्मजीवों को खिलाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव इस भोजन से एटीपी उत्पन्न करते हैं, जो वांछित जैव रासायनिक क्रियाओं को ऊर्जा प्रदान करता है।

समस्या यह है कि पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का केवल 1 प्रतिशत ही उपयोगी यौगिकों में परिवर्तित कर पाते हैं, इसलिए इस प्रक्रिया की दक्षता काफी कम रहती है। इसके विपरीत सौर-सेल 20 प्रतिशत से अधिक सौर ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं।

इसका फायदा उठाते हुए मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर टेरेस्ट्रियल माइक्रोबायोलॉजी के टोबियास एर्ब ने बिजली को सीधे एटीपी में परिवर्तित करने पर विचार किया।

वैसे वर्ष 2016 में किए गए एक पूर्व प्रयास में एक इलेक्ट्रोड के पास एटीपी सिंथेज़ नामक एंजाइम की प्रतिलिपियां एक झिल्ली में जमाई गई थीं। प्रयोगशाला में तो यह कारगर रहा लेकिन व्यवहारिक रूप से उपयोगी साबित नहीं हुआ।

अब एर्ब की टीम ने एक सरल प्रक्रिया सुझाई है जिसे “एएए चक्र” का नाम दिया गया है। इस चक्र में चार एंजाइमों का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा की मदद से एडीपी को एटीपी में परिवर्तित किया जाता है। इसमें एक टंगस्टन युक्त एल्डिहाइड फेरेडॉक्सिन ऑक्सीडोरिडक्टेस (एओआर) नामक एंजाइम की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह एंज़ाइम कुछ वर्ष पूर्व एक बैक्टीरिया से प्राप्त किया गया था।

एओआर एडीपी को सीधे एटीपी में परिवर्तित नहीं करता बल्कि एक ऊर्जा कनवर्टर के रूप में काम करता है। एओआर इलेक्ट्रोड से इलेक्ट्रॉन युग्म प्राप्त करके उनका उपयोग एक यौगिक को ऊर्जा प्रदान करने के लिए करता है। अन्य एंज़ाइम इस यौगिक क्रमश: इस तरह परिवर्तित करते हैं कि अंत में शुरुआती यौगिक वापिस बन जाता है और चक्र चलता रहता है। इस दौरान मुक्त ऊर्जा का उपयोग एडीपी में एक फॉस्फेट समूह जोड़कर एटीपी उत्पादन में हो जाता है।

विशेषज्ञ इस प्रक्रिया की सराहना करते हुए एओआर की सीमित स्थिरता को देखते हुए इस चक्र में सुधार करने पर भी ज़ोर दे रहे हैं। एर्ब की टीम सुधार के प्रयासों में जुट गई है। यदि सफलता मिली तो उत्पादन प्रक्रियाओं में एक बड़े परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है और जैव-इंजीनियरों को विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए ऊर्जा प्रदान करने का एक तरीका मिल जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महाद्वीपों के अलग होने से फूटते हीरों के फव्वारे

प्राकृतिक हीरे पृथ्वी की सतह से लगभग 150 किलोमीटर नीचे अत्यधिक दाब और ताप वाली परिस्थिति में बनते हैं। ये हीरे किम्बरलाइट के रूप में पृथ्वी की सतह पर आ जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इसी प्रकार की कुछ शक्तिशाली घटनाओं ने माउंट वेसुवियस जैसे ज्वालामुखी विस्फोटों को जन्म दिया होगा।

साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय में पृथ्वी और जलवायु विज्ञान के प्रोफेसर थॉमस गर्नोन ने इन विस्फोटों और पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों की गतिशीलता के बीच एक जुड़ाव पाया है। उनके अनुसार किम्बरलाइट अक्सर तब निकलते हैं जब टेक्टोनिक प्लेट्स पुनर्व्यवस्थित हो रही होती हैं, जैसे पैंजिया महाद्वीप के टूटने के दौरान। लेकिन दिलचस्प बात है कि ये विस्फोट टूटती टेक्टोनिक प्लेटों के किनारों पर नहीं बल्कि महाद्वीपों के मध्य में होते हैं जहां पृथ्वी की परत अधिक मज़बूत होती है और जिसे तोड़ना कठिन होता है।

यह एक बड़ा सवाल है कि इन टेक्टोनिक प्लेट टूटने या इधर-उधर होने के दौरान ऐसा क्या होता है जिससे ऐसी शानदार प्राकृतिक आतिशबाज़ी होती है?

इसे समझने के लिए गर्नोन की टीम ने पृथ्वी के इतिहास के लगभग 50 करोड़ वर्षों के पैटर्न की जांच की। उन्होंने पाया कि टेक्टोनिक प्लेटों के टूटकर अलग होने के लगभग 2.2 से 3 करोड़ वर्ष बाद किम्बरलाइट्स का विस्फोट चरम पर होता है।

उदाहरण के लिए, लगभग 18 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना महाद्वीप से टूटकर अलग हुए वर्तमान अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में अलगाव के लगभग 2.5 करोड़ वर्ष बाद किम्बरलाइट विस्फोटों में वृद्धि देखी गई थी। इसी तरह लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले पैंजिया अलग हुआ और उसके बाद उत्तरी अमेरिका में अधिक किम्बरलाइट विस्फोट देखे गए। खास बात यह है कि विस्फोट अलगाव के किनारों से शुरू होकर केंद्र की ओर बढ़ते हैं।

शोधकर्ताओं के लिए अगला काम इस पैटर्न को समझना था। इसके लिए पृथ्वी की पर्पटी के गहरे हिस्से और मेंटल के ऊपरी भाग का कंप्यूटर मॉडल तैयार किया गया। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे टेक्टोनिक प्लेटें एक-दूसरे से दूर होती हैं महाद्वीपीय पर्पटी का निचला भाग पतला होता जाता है। इस दौरान गर्म चट्टानें ऊपर उठती हैं और इस विभाजन सीमा के संपर्क में आने के बाद ठंडी होकर फिर से डूब जाती हैं। इस प्रक्रिया में परिसंचरण के स्थानीय क्षेत्र बनते हैं।

ये अस्थिर क्षेत्र आसपास के क्षेत्रों में भी अस्थिरता पैदा कर सकते हैं और धीरे-धीरे हज़ारों किलोमीटर दूर महाद्वीप के केंद्र की ओर खिसक सकते हैं। नेचर जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह निष्कर्ष किम्बरलाइट विस्फोटों के वास्तविक पैटर्न, छोर से शुरू होकर केंद्र की ओर, से मेल खाते हैं।

ये निष्कर्ष हीरे के अज्ञात भंडारों की खोज में उपयोगी हो सकते हैं तथा इनसे ज्वालामुखी विस्फोटों को समझने में भी मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y गुणसूत्र ने बहुत छकाया, अब हाथ में आया

भी ऐसा माना जाता था कि Y गुणसूत्र का पूरा अनुक्रमण करना (यानी उसमें क्षारों का क्रम पता लगाना) मुश्किल ही नहीं, नाममुकिन है। कारण यह है कि इस गुणसूत्र के डीएनए में क्षारों की ऐसी लड़ियां भरी पड़ी हैं जो बार-बार दोहराई जाती हैं और पलटकर लगी होती हैं। ऐसा होने पर डीएनए के टुकड़ों में क्षार का क्रम पता होने पर भी उन्हें जोड़कर पूरा गुणसूत्र बनाना असंभव हो जाता है। लेकिन अब नेचर में प्रकाशित दो शोध पत्रों में इस समस्या को सुलझा लिया गया है। इन दोनों टीमों ने दुनिया भर के दर्जनों पुरुषों के Y गुणसूत्र का खुलासा कर दिया है।

एक शोध पत्र में यह बताया गया है कि दोहराए जाने वाले क्षेत्र किस तरह जमे होते हैं। इस शोध पत्र में कई नए जीन्स की भी पहचान की गई है। दूसरे शोध पत्र में बताया गया है कि उक्त जमावट तथा जीन्स की संख्या को लेकर व्यक्ति-व्यक्ति में भारी अंतर होते हैं।

वैज्ञानिक मानते आए हैं कि X और Y गुणसूत्र किसी समय एक समान थे। फिर समय के साथ Y गुणसूत्र का वह हिस्सा सिकुड़ गया जिसमें जीन्स पाए जाते हैं। यह सिकुड़कर X गुणसूत्र के जीन्स वाले हिस्से का छठा हिस्सा रह गया। आज Y गुणसूत्र में X के मुकाबले मात्र आधे जीन्स ही हैं। कई शोधकर्ताओं का तो मत है कि यह क्षय जारी रहेगा और हो सकता है कि अंतत: Y गुणसूत्र पूरी तरह नदारद हो जाए। कुछ जंतु वंशों में ऐसा हुआ भी है।

छोटे आकार के बावजूद Y गुणसूत्र का अनुक्रमण टेढ़ी खीर रहा है। यहां तक कि मानव जीनोम अनुक्रमण के शुरुआती प्रयासों में तो Y गुणसूत्र के अनुक्रमण की कोशिश भी नहीं की गई थी। कुछ हद तक इसका कारण यह भी था कि Y गुणसूत्र को जीन्स का कब्रिस्तान माना जाता है जहां के सारे जीन्स अंतत: गुम हो जाएंगे। इसके अलावा दोहराने वाले हिस्सों के चलते इसे शरारती गुणसूत्र भी माना जाता है।

अंतत: एक समूह ने Y गुणसूत्र के एक खंड का अनुक्रमण किया और पाया कि यह गुणसूत्र काफी गतिमान है, इसमें जीन्स इधर-उधर फुदकते रहते हैं और एक ही क्षार अनुक्रम के कई दर्पण प्रतिबिंब उपस्थित होते हैं। ऐसा करके यह गुणसूत्र अपने चंद बचे-खुचे जीन्स को अच्छी हालत में रखता है। मार्च में नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट और टीलोमेयर-टू-टीलोमेयर समूह ने पूरे मानव जीनोम का क्षार अनुक्रम प्रकाशित किया था (सिवाय Y गुणसूत्र के)। अब इसी समूह ने Y गुणसूत्र के 6.2 करोड़ क्षारों का पेचीदा क्रम प्रकाशित कर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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पारंपरिक चिकित्सा पर प्रथम वैश्विक सम्मेलन

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पहली बार पारंपरिक चिकित्सा का वैश्विक सम्मेलन 17-18 अगस्त को गांधीनगर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जी-20 व अन्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रियों के अलावा 88 देशों के वैज्ञानिक, पारंपरिक चिकित्सक, स्वास्थ्यकर्मी तथा सिविल सोसायटी प्रतिनिधि शामिल हुए।

सम्मेलन विभिन्न सम्बद्ध लोगों के लिए अपने अनुभव, सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों तथा आपसी सहयोग के लिए विचारों के आदान-प्रदान का मंच बना। सम्मेलन में दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों (ऑस्ट्रेलिया, बोलीविया, ब्राज़ील, कनाडा, ग्वाटेमाला, न्यूज़ीलैंड वगैरह) से आदिवासी लोगों ने भी शिरकत की। ये वे लोग हैं जिनके लिए पारंपरिक चिकित्सा स्वास्थ्य में ही नहीं बल्कि संस्कृति व आजीविका में भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

सम्मेलन में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पारंपरिक चिकित्सा के वैश्विक सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी। रिपोर्ट से पता चलता है कि लगभग 100 देशों में पारंपरिक चिकित्सा से सम्बंधित राष्ट्रीय नीतियां और रणनीतियां हैं। कई सारे देशों में पारंपरिक चिकित्सा के उपचार ज़रूरी दवा सूचियों में, और अनिवार्य स्वास्थ्य सेवा में शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कई देशों में ये उपचार राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा में शामिल किए गए हैं। बड़ी संख्या में लोग गैर-संक्रामक रोगों के उपचार, रोकथाम, प्रबंधन व पुनर्वास में पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग करते हैं। 

सम्मेलन का सबसे प्रमुख निष्कर्ष था कि पारंपरिक चिकित्सा से संदर्भ में सशक्त प्रमाणों के आधार की ज़रूरत है। सशक्त प्रमाणों की उपस्थिति में ही देश पारंपरिक चिकित्सा को लेकर उपयुक्त नियामक ढांचा बना सकेंगे और नीतियों को आकार दे सकेंगे।

सम्मेलन में एक प्रमुख संकल्प यह व्यक्त हुआ कि सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल करने और 2030 तक स्वास्थ्य सम्बंधी सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य हासिल करने के लिए ज़रूरी है कि पारंपरिक चिकित्सा की संभावनाओं को साकार किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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सनसनीखेज़ एलके-99 अतिचालक है ही नहीं!

पिछले कुछ सप्ताह से तांबा, सीसा, फॉस्फोरस और ऑक्सीजन से निर्मित अतिचालक (सुपरकंडक्टर) एलके-99 से जुड़े रहस्य का अब खुलासा हो चुका है। इस दावे को खारिज करने वाले साक्ष्य प्रस्तुत होने के बाद सामान्य तापमान पर अतिचालकता का दावा भी धराशायी हो गया है।

सामान्य दाब और 127 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर अतिचालकता के दावे ने सोशल मीडिया पर काफी हंगामा मचाया था। चूंकि पूर्व में अतिचालकता सिर्फ अत्यंत अधिक दाब और अत्यंत कम तापमान पर ही देखी गई थी, इसलिए इस नए आविष्कार में वैज्ञानिकों और आमजन की गहरी रुचि पैदा हुई।

दक्षिण कोरियाई टीम का दावा एलके-99 के दो दिलचस्प गुणों पर टिका था: चुंबकीय क्षेत्र में ऊपर उठकर तैरना (लेविटेशन) और प्रतिरोध में गिरावट। दोनों ही अतिचालकता के लक्षण माने जाते हैं।

पेकिंग विश्वविद्यालय और चीनी विज्ञान अकादमी की टीमों ने इन अवलोकनों के लिए अधिक व्यावहारिक स्पष्टीकरण भी पेश किए थे। इसके अलावा,  प्रायोगिक व सैद्धांतिक विश्लेषण के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप के शोधकर्ताओं ने एलके-99 की संरचना को देखते हुए अतिचालकता की संभावना से ही इंकार किया। इस सामग्री की प्रकृति के बारे में संदेह को दूर करने के लिए कुछ शोधकर्ताओं ने एलके-99 के शुद्ध नमूने संश्लेषित किए और दर्शाया कि यह दरअसल एक इन्सुलेटर (कुचालक) है।

अपने दावों की पुष्टि के लिए दक्षिण कोरियाई टीम ने एक वीडियो भी जारी किया था जिसमें एक चुंबक के ऊपर एक रुपहले सिक्के के आकार का नमूना तैरते हुए दिखाया गया था। कोरियाई शोधकर्ताओं ने इसे मीस्नर प्रभाव कहा था जो अतिचालकता का लक्षण है। सोशल मीडिया पर इस तरह के कई असत्यापित वीडियो आने पर कई शोधकर्ताओं ने इसे दोहराने का प्रयास किया लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। इससे उन्हें एलके-99 की अतिचालक प्रकृति पर संदेह हुआ।

एलके-99 में रुचि रखने वाले हारवर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व शोधकर्ता डेरिक वानगेनप ने भी इस वीडियो का अध्ययन किया। उन्हें इस नमूने का एक किनारा चुंबक से चिपका हुआ प्रतीत हुआ जिसे बहुत ही बारीकी से संतुलित किया गया था। जबकि चुंबक के ऊपर तैरते सुपरकंडक्टर्स को आसानी से घुमाया जा सकता है और पलटा भी जा सकता है। इस आधार पर वैनगेनप को एलके-99 के गुण लौह-चुंबकत्व से अधिक मिलते हुए प्रतीत हुए। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने गैर-अतिचालक लेकिन लौह-चुम्बकीय डिस्क तैयार की जिसने ठीक एलके-99 के समान व्यवहार किया। इसके अलावा पेकिंग युनिवर्सिटी की एक शोध टीम ने भी एलके-99 के तैरने के लिए सुपरकंडक्टर के बजाय लौह-चुम्बकीय होने की पुष्टि की है। टीम ने इस नमूने की प्रतिरोधकता को मापा लेकिन उन्हें अतिचालकता का कोई संकेत नहीं मिला।

दक्षिण कोरियाई शोधकर्ताओं ने यह भी दावा किया था कि एलके-99 की प्रतिरोधकता ठीक 104.8 डिग्री सेल्सियस पर दस गुना कम (0.02 ओम-सेंटीमीटर से घटकर 0.002 ओम-सेमी) हो जाती है। यह काफी दिलचस्प है कि एकदम सटीक तापमान के इस दावे ने इलिनॉय विश्वविद्यालय के प्रशांत जैन का ध्यान आकर्षित किया। जैन काफी समय से कॉपर सल्फाइड पर अध्ययन कर रहे थे और उन्हें लगा कि यह तापमान (104.8 डिग्री सेल्सियस) जाना-पहचाना है।

एलके-99 के संश्लेषण में असंतुलित मिश्रण बनता है जिसमें कई अशुद्धियां होती हैं। इनमें कॉपर सल्फाइड भी शामिल था। कॉपर सल्फाइड विशेषज्ञ के रूप में जैन को याद आया कि 104 डिग्री वह तापमान है जिस पर कॉपर सल्फाइड का अवस्था परिवर्तन होता है। 104 डिग्री सेल्सियस से नीचे हवा के संपर्क में रखे गए कॉपर सल्फाइड की प्रतिरोधकता अचानक कम होती है और एलके-99 में ऐसा ही दिखा है।

चीनी विज्ञान एकेडमी की टीम ने एलके-99 पर कॉपर सल्फाइड के प्रभाव का पता लगाया। उन्होंने दो नमूनों का परीक्षण किया – एक को निर्वात में गर्म किया गया (जिसमें कॉपर सल्फाइड की मात्रा 5 प्रतिशत रही) और दूसरे को हवा में तपाया गया (जिसमें कॉपर सल्फाइड 70 प्रतिशत रहा)। पहले नमूने की प्रतिरोधकता उम्मीद के मुताबिक व्यवहार कर रही थी (यानी तापमान घटने के साथ बढ़ती गई) जबकि दूसरे नमूने की प्रतिरोधकता 112 डिग्री सेल्सियस के आसपास अचानक कम हो गई, जो दक्षिण कोरियाई टीम के निष्कर्षों के लगभग समान थी। नमूनों में अप्रत्याशित विविधता के कारण एलके-99 के गुणों को निर्धारित करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन वैज्ञानिकों का तर्क है कि यह अध्ययन पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है कि एलके-99 के अतिचालक गुणों का दावा करना शेखी बघारने के अलावा और कुछ नहीं है।

यानी ज़ाहिर है कि एलके-99 की प्रतिरोधकता में गिरावट और चुंबकीय क्षेत्र में उसका तैरना अतिचालकता के कारण नहीं है लेकिन एलके-99 की वास्तविक प्रकृति के बारे में सवाल बने रहे।

डेंसिटी फंक्शनल थ्योरी (डीएफटी) के आधार पर एलके-99 की संरचना को समझने के प्रारंभिक सैद्धांतिक प्रयासों ने फ्लैट बैंड नामक इलेक्ट्रॉनिक संरचना की उपस्थिति के संकेत दिए। फ्लैट बैंड वे स्थान होते हैं जहां इलेक्ट्रॉन धीमी गति से चलते हैं और आपस में जोड़ियां बना सकते हैं। लेकिन ये गणनाएं एलके-99 संरचना की असत्यापित मान्यताओं पर आधारित थीं।

इसकी स्पष्टता के लिए एक अमेरिकी-युरोपीय टीम ने सटीक एक्स-रे इमेजिंग का उपयोग किया। टीम के अनुसार एलके-99 के फ्लैट बैंड अतिचालकता के लिए अनुपयुक्त हैं। दरअसल एलके-99 के प्लैट बैंड अत्यंत स्थानबद्ध इलेक्ट्रॉनों से बने होते हैं जो छलांग लगाकर अतिचालकता पैदा नहीं कर सकते।

इसी तरह मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर सॉलिड स्टेट रिसर्च की एक टीम ने एलके-99 के शुद्ध एकल क्रिस्टल बनाए जो कॉपर सल्फाइड जैसी अशुद्धियों से मुक्त थे। ये क्रिस्टल बहुत अधिक प्रतिरोध वाले इन्सुलेटर साबित हुए जिसने अतिचालकता के सभी दावों को पूरी तरह ध्वस्त कर किया।

बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम से कई कीमती सबक मिले हैं। कई विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक गणनाओं में जल्दबाज़ी की दिक्कतों पर ज़ोर दिया है। कुछ शोधकर्ताओं ने शोध कार्य के दौरान ऐतिहासिक डैटा को नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति की ओर भी इशारा किया है। जहां कुछ लोग एलके-99 मामले को विज्ञान में प्रयोगों को दोहराने के एक मॉडल के रूप में देखते हैं वहीं अन्य मानते हैं कि यह एक हाई-प्रोफाइल पहेली के असाधारण और त्वरित समाधान का उदाहरण है। आम तौर पर ऐसे मुद्दे समाधान के बिना घिसटते रहते हैं। अलबत्ता कई लोगों ने ध्यान दिलाया है कि विज्ञान की कई गुत्थियां हैं जिन पर आज तक कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया है।(स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क तरंगों से निर्मित किया गया एक गीत

गे पढ़ने से पहले इनमें से किसी एक लिंक पर जाकर रिकॉर्डिंग सुनें:

इस रिकॉर्डिंग में गिटार के तारों की आवाज़ अजीब सी गूंजती सुनाई देती है, गायक की आवाज़ भी ठीक से नहीं आती, गाने के बोल बमुश्किल समझ में आते हैं। फिर भी, जो लोग इस गीत से वाकिफ हैं वे गीत को पहचान पाते हैं। यह रॉक बैंड पिंक फ्लॉयड के 1979 के सुपरहिट एल्बम ‘दी वॉल’ का गीत ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ है।

यह रिकॉर्डिंग किसी पुरानी कैसेट को दुरुस्त करके नहीं बनाई गई है। यह रिकॉर्डिंग तो उन लोगों की मस्तिष्क तरंगों के आधार पर बनाई गई है जिन्होंने इस गीत को सुना था। इस तरह पुनर्निर्मित इस धुन से यह पता चला है कि मस्तिष्क संगीत का प्रोसेसिंग कहां करता है।

वास्तव में, मस्तिष्क तरंगों की यह रिकॉर्डिंग काफी पुरानी है। दस से भी अधिक साल से पहले अल्बेनी मेडिकल सेंटर के तंत्रिका विज्ञानियों ने मिर्गी पीड़ितों के दौरों के दौरान मस्तिष्क गतिविधियों को देखने के लिए 29 मरीज़ों में से प्रत्येक के मस्तिष्क में 2668 इलेक्ट्रोड लगाए और उनकी मस्तिष्क गतिविधि रिकॉर्ड की। ऐसा करते समय उन्होंने इन मरीज़ों को गीत सुनाए थे।

इस प्रक्रिया ने शोधकर्ताओं को यह भी जानने का मौका दे दिया कि मस्तिष्क संगीत पर कैसे प्रतिक्रिया देता है। अधिकांश लोगों में, बोली गई भाषा को समझने के लिए ज़िम्मेदार रचनाएं मस्तिष्क के बाएं गोलार्ध में होती हैं। लेकिन कई अध्ययनों से पता चला है कि संगीत को समझने या प्रोसेस करने में मस्तिष्क का एक जटिल नेटवर्क शामिल होता है जो संभवत: दोनों गोलार्ध में फैला होता है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी लुडोविक बेलियर बताते हैं कि मरीज़ों को पिंक फ्लॉयड बेहद पसंद था। वास्तव में मरीजों ने कई गाने सुने थे जिनमें बैंड का सबसे प्रसिद्ध और हिट गाना ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 2)’ भी था। लेकिन सबसे विस्तृत मस्तिष्क रिकॉर्डिंग उन लोगों से मिली जिन्होंने कम लोकप्रिय गाना (भाग 1) सुना था।

शोधकर्ताओं ने इन रिकॉर्डिंग्स का उपयोग एक कम्प्यूटेशनल मॉडल को यह सिखाने के लिए किया कि संगीत की किस विशेषता के लिए मस्तिष्क में क्या गतिविधि हुई। टीम को उम्मीद थी कि उनका मॉडल सीख जाएगा और अंतत: मूल गीत का ऐसा संस्करण बना देगा जिसे पहचाना जा सके।

शोधकर्ताओं ने मॉडल को मात्र 90 प्रतिशत गीत के लिए प्रशिक्षित किया। बाकी हिस्सा मॉडल को सीखकर तैयार करने दिया। मॉडल ने गीत का शेष 10 प्रतिशत हिस्सा (करीब 15 सेकंड लंबा हिस्सा) पुन: बना लिया।

फिर शोधकर्ताओं ने विभिन्न संगीत विशेषताओं से जुड़ी मस्तिष्क गतिविधि को पहचानने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने मॉडल में मस्तिष्क रिकॉर्डिंग्स डालीं जिसमें कुछ इलेक्ट्रोड का डैटा उन्होंने हटा दिया और फिर से बनाए गए गाने पर प्रभाव देखा। इस तरह एक नए पहचाने गए मस्तिष्क क्षेत्र का पता चला जो संगीत में लय – जैसे ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ में बजने वाले गिटार – को समझने में शामिल है। ये नतीजे प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन इस बात की पुष्टि भी करता है कि संगीत को समझने में भाषा प्रसंस्करण के विपरीत मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध शामिल होते हैं।

बेलियर को उम्मीद है कि इस शोध से एक दिन उन मरीज़ों को मदद मिल सकेगी जिन्हें आघात, चोट या एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस जैसी बीमारियों के कारण बोलने में मुश्किल होती है। हालांकि वर्तमान में ऐसे मस्तिष्क-मशीन इंटरफेस मौजूद हैं जिनकी मदद से ये मरीज़ संवाद कर पाते हैं। लेकिन भाषा को जिस लयबद्धता या आवाज़ में उतार-चढ़ाव के साथ बोला जाता है ये प्रौद्योगिकियां संवाद में वैसी लयबद्धता नहीं ला पातीं, इसलिए मरीज़ों की आवाज़ धीमी और रोबोटिक लगती है। इसलिए उम्मीद है कि कृत्रिम बुद्धि पर आधारित ब्रेन मशीन इंटरफेस संवाद में लयबद्धता ला सकते हैं, जिससे मरीज़ों का संवाद अधिक स्वाभाविक लगेगा।

हालांकि वर्तमान में इस तरह की तकनीक के लिए घुसपैठी सर्जरी लगेगी। लेकिन जैसे-जैसे तकनीकों में सुधार होगा, ऐसा हो सकता है किसी दिन खोपड़ी की सतह से जुड़े इलेक्ट्रोड से इस तरह की रिकॉर्डिंग संभव हो जाए।(स्रोत फीचर्स)

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फल मक्खियां झूला झूलने का आनंद लेती हैं!

च्चे हों या बड़े झूला झूलने में मज़ा सबको आता है। और अब, हालिया अध्ययन से लगता है कि इसका मज़ा फल मक्खियां भी लेती हैं। एक अध्ययन में देखा गया है कि कुछ फल मक्खियां खुद से बार-बार चकरी जैसे गोल-गोल घूमते ‘झूले’ पर चढ़ रही थीं, जिससे लगता है कि उन्हें झूला झूलना अच्छा लग रहा था।

बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित यह अध्ययन अकशेरूकी जीवों में खेलकूद या मनोरंजन के प्रमाण भी देता है और कीटों में लोकोमोटर खेल का पहला उदाहरण है। लोकोमोटर खेल वे खेल होते हैं जिसमें स्वयं खिलाड़ी के शरीर में हरकत होती है जैसे दौड़ना, कूदना या झूलना। वैसे पूर्व में मधुमक्खियों को वस्तु के साथ खेल, और ततैया और मकड़ियों को सामाजिक खेल खेलते देखा गया है।

दरअसल कुछ साल पहले कॉन्सटेन्ज़ युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वुल्फ हटरॉथ ने देखा था कि एक बत्तख तेज़ बहती नदी में बहते हुए कुछ दूरी बहने के बाद उड़कर लौटती और फिर बहकर नीचे चली जाती। वे सोचने लगे कि वह ऐसा व्यवहार क्यों करती है और क्या मक्खियां (या कीट) भी ऐसा करते हैं।

यह देखने के लिए हटरॉथ और उनके साथी टिलमन ट्रिफान ने चकरी जैसा घूमने वाला झूला बनाया। फिर उन्होंने प्रयोगशाला में में नर फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) को कूदकर झूले पर चढ़ने का मौका दिया। उन्होंने देखा कि कुछ फल मक्खियों ने झूले को नज़रअंदाज़ किया लेकिन कुछ फल मक्खियों का व्यवहार ऐसा था मानो वे डिज़्नीलैंड में हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों के एक समूह ने अपने दिन का 5 प्रतिशत या उससे अधिक समय झूले पर बिताया। और जब उन्होंने दो झूले रखे जो बारी-बारी घूमते थे तो कुछ फल मक्खियां उन झूलों पर चली जाती थीं जो घूम रहे होते थे। और एक मक्खी तो थोड़ी देर झूला झूलती, फिर उससे उतर जाती और फिर वापस थोड़ा और झूलने चली जाती थी।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों को स्थान के बारे में अच्छी समझ होती हैं, इसलिए यदि उन्हें गोल घूमना पसंद नहीं आएगा तो वे झूले की सवारी नहीं करेंगी, जैसा कि कुछ ने किया भी। लेकिन अधिकतर मक्खियां ऐसी थीं जिन्होंने न तो झूले का लुत्फ उठाया, न परहेज किया। इसलिए ऐसा लगता है कि (कम से कम कुछ) मक्खियां झूले पर सवारी का आनंद ले रही थीं।

बहरहाल, शोधकर्ता पक्के तौर पर यह कहने में झिझक रहे हैं कि मक्खियां को झूलने में मज़ा आता है क्योंकि वे अभी यह नहीं जान पाए हैं कि मक्खियां ऐसा क्यों करती हैं।

शोधकर्ता इस व्यवहार में शामिल तंत्रिका तंत्र को समझना चाहते हैं। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि मक्खियों (या किसी अन्य जीव) को लोकोमोटर खेल से क्या फायदा हो सकता है? इस तरह के खेल व्यवहार का महत्व क्या है? क्या यह किसी भी चीज़ के लिए अच्छा है? वगैरह।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माते समुद्र पेंगुइन का प्रजनन दूभर कर सकते हैं

म्परर पेंगुइन अच्छी तरह जमी हुई समुद्री बर्फ वाले इलाकों में ही प्रजनन और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उनके प्रजनन क्षेत्रों के आसपास की बर्फ पिघल कर टूटने लगे तो वे स्थान बदल लेते हैं लेकिन इससे उनका प्रजनन प्रभावित होता है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि हाल ही में जलवायु परिवर्तन के चलते अंटार्कटिका के आसपास के समुद्र गर्म होने से मौसम के पहले ही बर्फ टूटने लगी है, जिसके कारण पेंगुइन अपने प्रजनन स्थल से पलायन कर गए हैं।

ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण लगभग पिछले 15 सालों से उपग्रह द्वारा अंटार्कटिका में पेंगुइन बस्तियों की निगरानी कर रहा है। पिछले साल रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ और भूगोलविद पीटर फ्रेटवेल और उनके साथियों ने अक्टूबर के अंत में कुछ स्थानों पर समुद्री बर्फ टूटते हुए देखी थी। एम्परर पेंगुइन प्रजनन के लिए इन स्थानों पर मार्च-अप्रैल में पहुंचते हैं। अगस्त-सितंबर के बीच उनके अंडों से चूज़े निकलते हैं और दिसंबर और जनवरी तक इनके पंख विकसित हो पाते हैं। यदि चूज़ों के परिपक्व होने के पहले ही समुद्री बर्फ टूट जाएगी तो बच्चे डूब जाएंगे या फ्रीज़ हो जाएंगे। यानी अक्टूबर में बर्फ का बिखरना पेंगुइन के लिए निश्चित खतरा होगा।

हुआ भी वही। उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि जब 2022 में समुद्री बर्फ टूटी तो अक्टूबर के अंत में पेंगुइन की एक बस्ती ने वह स्थान छोड़ दिया था। दिसंबर की शुरुआत में पेंगुइन के तीन अन्य समूह वहां से चले गए। सिर्फ सुदूर उत्तर में स्थित रोथ्सचाइल्ड द्वीप पर एक बस्ती बची रही और सफलतापूर्वक अपने चूज़ों को पाल पाई।

ऐसा अनुमान है कि अंटार्कटिका में एम्परर पेंगुइन के कुल प्रजनन जोड़े करीब 2,50,000 हैं। पिछले साल बेलिंगशॉसेन में लगभग 10,000 जोड़े प्रभावित हुए थे। वैसे तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं लगती। पेंगुइन की उम्र 20 साल होती है तो इनमें से अधिकांश पेंगुइन अगले साल फिर प्रजनन कर लेंगी। लेकिन लगातार ऐसी स्थिति रही तो हालात मुश्किल होंगे। मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर फ्रेटवेल का अनुमान है कि यह साल भी पांचों बस्तियों के लिए उतना ही बुरा होगा। पूर्व में भी समुद्री बर्फ की स्थिति बदलने के चलते ऐसी स्थितियां बनी हैं जब पेंगुइन के लिए प्रजनन मुश्किल हुआ है। कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, और कार्बन उत्सर्जन समुद्र के गर्माने में बड़ा योगदान देता है। हालात इसी तरह बदलते रहे तो यह पूरा का पूरा क्षेत्र ही पेंगुइन के लिए अनुपयुक्त हो जाएगा और उन्हें अपने लिए वैकल्पिक स्थान ढूंढना भी मुश्किल हो जाएगा। संभव है कि अगले कुछ वर्षों में उनकी कॉलोनियां विलुप्त हो जाएंगी।

यदि हम कार्बन उत्सर्जन को तत्काल कम करते हैं तो पेंगुइन के लिए महफूज़ बचे स्थान सलामत रहेंगे। साथ ही इस क्षेत्र में मछली पकड़ने पर रोक लगाकर पेंगुइन के लिए पर्याप्त भोजन संरक्षित रखा जा सकता है और पर्यटन को कम करके उनके लिए तनावमुक्त माहौल सुनिश्चित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमनदों के पिघलने से उभरते नए परितंत्र

तेज़ी से बढ़ते वैश्विक तापमान का एक और बड़ा प्रभाव ऊंचे पहाड़ी (अल्पाइन) हिमनदों में देखा जा सकता है। हालिया अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से विश्व भर के अल्पाइन हिमनद काफी तेज़ी से पिघल रहे हैं जिसके नतीजतन शताब्दियों से हिमाच्छादित भूमि के विशाल हिस्से उजागर हो सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन उभरते हुए नए परितंत्रों का संरक्षण नई चुनौतियों के साथ-साथ नए अवसर भी देगा।

अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के बाहर वर्तमान में अल्पाइन हिमनद लगभग 6.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। गर्मियों में ये हिमनद लगभग दो अरब लोगों के अलावा वैश्विक परितंत्र को जल आपूर्ति करते हैं। ज़ाहिर है इनके पिघलने से वैश्विक परितंत्र पर काफी प्रभाव पड़ेगा।

शोधकर्ताओं ने इसके प्रभाव को समझने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए एक जलवायु मॉडल तैयार किया जिसमें हिमनदों के पिघलने और सिमटने से खुलने वाले परितंत्र पर प्रकाश डाला गया है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सबसे आशाजनक स्थिति में भी इस सदी के अंत तक 1,40,500 वर्ग कि.मी. (झारखंड के बराबर) क्षेत्र उजागर हो सकता है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ज़्यादा रहा तो यह क्षेत्र इसका दुगना हो सकता है। सबसे अधिक प्रभाव अलास्का और एशिया के ऊंचे पहाड़ों पर पड़ने की संभावना है।

इस अध्ययन के प्रमुख और हिमनद वैज्ञानिक ज़्यां-बैप्टिस्ट बोसां ने इसे पृथ्वी के सबसे बड़े पारिस्थितिक परिवर्तनों में से एक निरूपित किया है। उनका अनुमान है कि नव उजागर क्षेत्र में से करीब 78 प्रतिशत भूमि और 14 प्रतिशत व 8 प्रतिशत हिस्सा क्रमश: समुद्री और मीठे पानी वाले क्षेत्र होंगे।

एक दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में निर्मित नए प्राकृतवास महत्वपूर्ण होंगे जिनका संरक्षण करने की ज़रूरत होगी। पेड़-पौधे बढें़गे तो कार्बन भंडारण अधिक होगा, जो निर्वनीकरण की प्रतिपूर्ति कर सकता है और ऐसे जंतुओं को नए प्राकृतवास मिलेंगे जो कम ऊंचाई पर रहते हैं और बढ़ते तापमान से जूझ रहे हैं।

यह अध्ययन उन वैज्ञानिकों के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करेगा जो अनछुए स्थानों पर सूक्ष्मजीवों, पौधों और जंतुओं के प्रवास को समझने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब बात है कि इस अध्ययन में शामिल किए गए आधे से भी कम हिमनद क्षेत्र वर्तमान के संरक्षित क्षेत्रों में शामिल हैं। लिहाज़ा इस अध्ययन से इस भावी परिघटना के मद्देनज़र भूमि प्रबंधन को लेकर सरकारें भी नई चुनौतियों से निपट पाएंगी।

वैसे बोसां का कहना है कि  ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के प्रयास तत्काल किए जाएं तो वर्तमान हिमनदों का काफी हिस्सा बचाया जा सकता है। चूंकि वर्तमान में हम बढ़ते तापमान की समस्या से जूझ रहे हैं, इन उभरते परितंत्रों का संरक्षण और प्रबंधन न केवल जैव विविधता संरक्षण के लिए अनिवार्य है बल्कि जलवायु परिवर्तन के दूरगामी प्रभावों को कम करने का एक अवसर भी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदित्य मिशन: सूरज के अध्ययन में शामिल होगा भारत

चंद्रयान के सकुशल अवतरण के बाद इसरो की तैयारी सूरज को पढ़ने की है। इसरो का आदित्य-L1 मिशन 2 सितंबर को प्रक्षेपित होने जा रहा है। इसे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्री हरिकोटा से PSLV-XL रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा। यह अंतरिक्ष यान पृथ्वी से करीब 15 लाख किलोमीटर दूर सूर्य-पृथ्वी के बीच लैग्रांजे बिंदु-1 (L-1) की कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जहां से यह सौर गतिविधियों की निगरानी करेगा। यह सूर्य का अध्ययन करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष अभियान होगा। गौरतलब है कि फिलहाल विभिन्न देशों के 20 से ज़्यादा सौर अध्ययन अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष में मौजूद हैं।

बताते चलें कि लैग्रांजे बिंदु अंतरिक्ष में दो पिंडों के बीच वे स्थान होते हैं जहां यदि कोई छोटा पिंड या उपग्रह रख दिया जाए तो वह वहां टिका रहता है। पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के बीच ऐसे पांच बिंदु हैं। L1 बिंदु की कक्षा में स्थापित करने का फायदा यह है कि आदित्य-L1 बिना किसी अड़चन, ग्रहण वगैरह के सूर्य की लगातार निगरानी कर सकता है।

पृथ्वी से सूर्य की निगरानी और अवलोकन तो हम करते रहे हैं। लेकिन अंतरिक्ष से सूर्य के अवलोकन का कारण है कि पृथ्वी का वायुमंडल कई तंरगदैर्घ्यों और कणों को प्रवेश नहीं करने देता। इसलिए ऐसे विकिरण की मदद से होने वाले अवलोकन पृथ्वी से कर पाना संभव नहीं है। चूंकि अंतरिक्ष में ऐसी कोई बाधा नहीं है इसलिए अंतरिक्ष से इनका अवलोकन संभव है।  

आदित्य-L1 में सूर्य की गतिविधियां, सौर वायुमंडल (मुख्यत: क्रोमोस्फीयर और कोरोना) और अंतरिक्ष के मौसम का निरीक्षण करने के लिए सात यंत्र लगे हैं। इनमें से चार यंत्र बिंदु L1 पर बिना किसी बाधा के सीधे सूर्य का अवलोकन करेंगे, और शेष तीन यंत्र लैग्रांजे बिंदु L1 की स्थिति और कणों का जायज़ा लेंगे। आदित्य-L1 पर लगे विज़िबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ (VELC) का काम होगा सूर्य के कोरोना और कोरोना से निकलने वाले पदार्थों का अध्ययन करना। कोरोना सूर्य की सबसे बाहरी सतह है जो सूर्य के तेज़ प्रकाश में ओझल रहती है। इसे विशेष उपकरणों से ही देखा जा सकता है। वैसे कोरोना को पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान देखा जा सकता है। सोलर अल्ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT) पराबैंगनी प्रकाश में सूर्य के फोटोस्फीयर और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेगा और अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश के नज़दीक सौर विकिरण विचलन मापेगा। फोटोस्फीयर या प्रकाशमंडल वह सतह है जहां से प्रकाश फैलता है। सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS) और हाई एनर्जी L1 ऑर्बाइटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS) सूर्य की एक्स-रे प्रदीप्ति का अध्ययन करेगा। आदित्य सोलर विंड पार्टीकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX) और प्लाज़्मा एनालाइज़र पैकेज फॉर आदित्य (PAPA) सौर पवन, उसके आयन और ऊर्जा वितरण का अध्ययन करेगा। इसका एडवांस्ड ट्राय-एक्सिस हाई रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर L1 बिंदु पर मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र का मापन करेगा।

प्रक्षेपण के करीब 100 दिन बाद आदित्य अपनी मंज़िल (L1) पर पहुंचेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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