बंद पड़ी रेल लाइन का ‘भूत’

भूत-प्रेत (Ghost stories) के किस्से कहानियां काफी प्रचलित हैं। यकीन करें या ना करें, लेकिन ऐसे किस्से-कहानियां इतने रोमांचक होते हैं कि हर जगह इनको सुनने-सुनाने वाले लोग मिल ही जाते हैं।

किसी भी आहट, हरकत, या मंज़र को भूत की करामात मान लेने का हुनर और विश्वास दुनिया के सभी हिस्सों में होता है और ऐसे किस्से हर जगह मिल जाएंगे। इसी का एक उदाहरण है दक्षिण कैरोलिना (South Carolina haunted places) के समरविले के जंगल में एक बंद पड़ी रेल लाइन (Abandoned railway track) पर अचानक कौंधने वाली चमक।

इस इलाके के कुछ बड़े-बुज़ुर्ग इस चमक से जुड़ी एक भूतिया कहानी (Ghost legend) सुनाते हैं: कई साल से एक महिला रात के वक्त हाथ में लालटेन लिए अपने पति का सिर इस रेल लाइन (Haunted railway track)  पर तलाशने निकलती है। उसका पति कभी किसी समय इस रेल लाइन पर ट्रेन से कट गया था और इस घटना में उसका सिर धड़ से अलग हो गया था।

इस कहानी पर गौर करें तो मन में कुछ ज़ाहिर से सवाल उठ सकते हैं। जैसे महिला को यदि सिर की ही तलाश है तो वह रात में तलाशने क्यों निकलती है, दिन में क्यों नहीं जाती? दिन में तलाशे तो सिर मिलने की संभावना अधिक होगी।

इसी कहानी का एक दूसरा रूप भी सुनने को मिलता है: 1880 के दशक में जब यह रेल लाइन (Old railway stories) चालू थी तब एक महिला रोज़ रात को हाथ में लालटेन (Lantern ghost story) लिए अपने ट्रेन कंडक्टर पति से मिलने और उसे खाना देने इस रेल ट्रेक पर आती थी। एक रात को वह आई लेकिन ट्रेन नहीं आई, बस खबर आई कि ट्रेन पटरी से उतर गई है और उसका पति उसमें मारा गया। लेकिन उसे यकीन नहीं हुआ और इस विश्वास में कि उसका पति लौटकर आएगा, वह रात को यहां लालटेन लेकर उसका इंतज़ार करती है।

कहानी के ऐसे कुछ और भी संस्करण सुनने को मिलते हैं। लेकिन जितने भी संस्करण आप सुनेंगे, उनमें एक चीज़ कॉमन है: रेल ट्रेक के पास लालटेन की रोशनी, या यूं कहें लालटेन की लौ के समान प्रकाश की वलयाकार चमक। दरअसल, इन सभी कहानियों में (एकमात्र) यही वास्तविक अवलोकन है और लोगों द्वारा इसके विविध अनुभवों ने भूतिया कहानियों (Paranormal stories)  को जन्म दिया है।

इन कहानियों ने जब स्थानीय किस्सागोई से आगे बढ़कर किताबों और अखबारों की सुर्खियों में जगह बनाई तो यू.एस. जियोलॉजिकल सर्वे (US Geological Survey) की भूकंपविज्ञानी सुज़ैन हफ (Seismologist Susan Hough) का ध्यान इनकी ओर गया। और बारीकी से जब उन्होंने इनके विवरणों को पढ़ा तो पाया कि यह कोई भूत-प्रेत (Ghost phenomena) का मामला नहीं बल्कि एक भूकंपीय घटना (Seismic event) का संकेत है।

जैसे लोगों ने कहा था कि उन्होंने अपनी कारें बेतहाशा हिलते हुए महसूस कीं, या अचानक घर के दरवाज़े हिलते हुए देखे। स्पष्ट तौर पर ये भूकंप के नतीजे थे। अलबत्ता, कुछ विवरण ऐसे थे जो सीधे तौर पर भूकंपीय घटना (Earthquake lights) से जुड़े नहीं लगे रहे थे। जैसे, लोगों को शोर और फुसफुसाहट सुनाई देना। लेकिन हवा में टंगी वलयाकार रोशनी(annular light) तो भूकंपीय घटना का परिणाम लग रही थी।

दरअसल इस इलाके में किए उनके पूर्वकार्य के अनुभव कह रहे थे कि यह रोशनी भूकंपीय घटना का परिणाम है। 2023 में, हफ और उनके साथियों ने इन्हीं पटरियों पर फील्डवर्क करते समय देखा था कि इन पटरियों में एक अजीब सा खम (घुमाव) है; बिछे ट्रेक पर पटरियां जहां-तहां थोड़ा मुड़ गई हैं और सीधी की बजाय लहरदार बिछी हैं। कभी सीधी रहीं इन पटरियों के लहरदार हो जाने का कारण उन्होंने 1886 में चार्ल्सटन में 7.3 तीव्रता का भूकंप (Charleston earthquake 1886) पाया था।

फिर, कई अन्य जगहों पर भूकंपीय रोशनियां (Earthquake lights phenomenon) अनुभव भी की गई हैं, जैसे विलमिंगटन और कैरोलिनास में भी इसी तरह की रोशनी दिखने की सूचना मिली है। और ये विलमिंगटन, कैरोलिनास या दक्षिणी कैरोलिना में ही नहीं, बल्कि कहीं भी दिख सकती हैं। लेकिन इनका अध्ययन करना मुश्किल है, क्योंकि ये कब-कहां दिखेंगी इसका कोई ठिकाना नहीं, इसलिए भूकंप की रोशनी को कैमरों वगैरह में कैद करना थोड़ा मुश्किल है। और फिर अब इतने सालों बाद समरविले और ऐसे अन्य स्थान इतने भी सुनसान और अंधकार में डूबे नहीं रहे हैं कि पल भर को कौंधती रोशनी अच्छे से दिख जाए।

जापान के एक वैज्ञानिक, युजी एनोमोटो ने इन भूकंपीय रोशनियों (Mysterious glow) के निकलने का कारण तो बताया है। जब भूकंप आता है तो कभी-कभी इसके साथ रेडॉन या मीथेन जैसी गैसें निकलती हैं, और जब ये गैसें ऑक्सीजन के संपर्क में आती हैं तो जलने लगती हैं। नतीजतन चमक (Mysterious glow) पैदा होती है।

लेकिन समरविले के मामले में हफ का ख्याल है कि यहां भूकंप के साथ रोशनी पैदा करने में रेडॉन या मीथेन जैसी गैसें नहीं बल्कि रेल की पटरियां भूमिका निभाती हैं। दरअसल साउथ कैरोलिना में अपने फील्डवर्क के दौरान उन्होंने देखा था कि ट्रेक के आसपास पुरानी पड़ चुकी पटरियों का ढेर पड़ा हुआ है। होता यह है कि जब रेल कंपनियां पुरानी पटरियों को बदलती हैं तो प्राय: पुरानी पटरियों को वहां से हटाती ही नहीं हैं। इसलिए, ट्रेक के आसपास ढेर सारी स्टील की पटरियां पड़ी होती हैं। और थोड़ी हलचल या भूकंप से जब ये पटरियां आपस में रगड़ खाती हैं तो इनसे चिंगारी निकलती है, जो लोगों ने अनुभव की। और कहानी बन गईं।

अपने इस विचार को हफ ने सिस्मोलॉजिकल रिसर्च लैटर्स (Seismological Research Letters) में प्रकाशित किया है, और वे इस पर खुद व अन्य लोगों द्वारा आगे काम करने और भूकंपीय रोशनी को तफसील से समझने की उम्मीद करती हैं।

बहरहाल, जैसा कि हमने शुरुआत में कहा, हमारे यहां भी ऐसी ढेरों कहानियां मशहूर हैं। भानगढ़ के मशहूर किले (Bhangarh Fort haunted place)  को ही ले लें; किले में रात के वक्त सुनाई देने वाली आवाज़ें उसे भूतिया करार देती हैं। हफ के द्वारा किया गया यह अध्ययन और उसका परिणाम क्या हमारे यहां के वैज्ञानिकों को यह समझने के लिए प्रेरित कर सकता है कि खाली पड़े खंडहर में रात को किसी (‘प्राणी’ या ‘शय’) की गूंज/पुकार (Supernatural sounds)  सुनाई देती है या माजरा कुछ और ही है? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टिकाऊ भविष्य के लिए ऊर्जा

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कोयला बिजली संयंत्रों (coal power plants) से बहुत अधिक वायु प्रदूषण (air pollution) होता है, जो मनुष्यों और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य (human health) को प्रभावित करता है। हाल ही में, स्टैनफोर्ड डोएर स्कूल ऑफ सस्टेनेबिलिटी के डॉ. कीरत सिंह और उनके साथियों ने बताया है कि भारत में कोयला बिजली संयंत्रों से होने वाले नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (Nitrogen Dioxide (NO2)) और ओज़ोन उत्सर्जन (ozone emissions) के कारण गेहूं और धान जैसी प्रमुख फसलों की पैदावार (crop yield) में कमी आती है। नाप-जोख कर उन्होंने अनुमान लगाया है कि भारत के कुछ हिस्सों में पैदावार का वार्षिक नुकसान (crop loss) 10 प्रतिशत से अधिक है। यह नुकसान पिछले छह वर्षों में उपज में हुई औसत वृद्धि के लगभग बराबर है। उन्नत किस्मों, बेहतर सिंचाई (irrigation) और मशीनीकरण (mechanization) के कारण हमारी फसलों की उत्पादकता बढ़ी है, और प्रदूषण (pollution) के कारण उपज में आ रही यह कमी चिंता का विषय है। 

गेहूं मुख्यत: भारत के मध्यवर्ती और उत्तरी राज्यों में उगाया जाता है, जबकि धान मुख्यत: दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में। 

कोयला मंत्रालय (Ministry of Coal) का अनुमान है कि इन क्षेत्रों की खदानों में बचा हुआ कोयला अगले 120 सालों तक चलेगा। भारत में कोयले से बिजली आपूर्ति (coal-based electricity) की शुरुआत 1920 में निज़ाम शासन के दौरान हैदराबाद के हुसैन सागर में हुई थी, जिसे बनाने के लिए ब्रिटिश उपकरणों का इस्तेमाल किया गया था। तब से लेकर अब तक भारत में कोयले से बिजली बनाई जा रही है, हालांकि पिछले कुछ सालों में इसके तरीकों में थोड़ा सुधार हुआ है। लेकिन ज़रूरत है कि हम बिजली बनाने के अन्य तरीकों के बारे में सोचें। 

स्वच्छ ऊर्जा विकल्प (Clean Energy Alternatives) 

1. पवन ऊर्जा (Wind Energy) 

बिजली बनाने का एक विकल्प है पवन ऊर्जा। इसमें पवन चक्कियां लगाकर पवन ऊर्जा से बिजली (wind power generation) पैदा की जाती है। भारत के नौ पवन समृद्ध राज्य 50 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक (wind energy producer) है। कई निजी कंपनियों ने पवन चक्कियां लगाई हैं जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बिजली बनाती हैं। 

2. सौर ऊर्जा (Solar Energy) 

दूसरी विधि है सौर ऊर्जा, जिसमें बिजली बनाने के लिए सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें घरों और इमारतों पर, या बड़े पैमाने पर सौर खेतों (solar farms) में सौर पैनल (solar panels) लगाए जाते हैं। ये पैनल सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करते हैं और इसे बिजली में बदल देते हैं। ये सौर छतें पहले से ही काफी प्रचलित हैं, और केंद्र और राज्य सरकारें सौर पैनल लगाने वालों को सब्सिडी देती हैं। 

3. जलविद्युत (Hydropower) 

तीसरी विधि है नदी बांधकर बिजली बनाना। इसमें नदी के एक हिस्से को रोककर बिजली बनाई जाती है। साथ ही नदी के बहाव वाले इलाकों में नहरों के ज़रिए खेती के लिए पानी दिया जाता है। जब नदी के पानी को बांध (dam) बनाकर रोका जाता है और फिर छोड़ा जाता है, तो इस ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली पैदा करने (hydroelectricity generation) में किया जाता है। भारत में मौजूद शीर्ष पांच बांध मिलकर 50 गीगावाट तक पनबिजली (hydropower electricity) पैदा करते हैं। 

4. परासरण दाब से बिजली (Osmotic Power) 

बिजली बनाने का चौथा तरीका हो सकता है जब नदी समुद्र में मिलती है। नैनो रिसर्च एनर्जी में प्रकाशित एक पेपर बताता है कि जब नदी का पानी समुद्र के खारे पानी (saline water) में मिलता है, तब उससे बिजली (osmotic energy) कैसे पैदा की जा सकती है। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय के स्वच्छ इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी केंद्र में डॉ. जावेद सेफई ने बिजली बनाने के लिए परासरण दाब (osmotic pressure) में इस अंतर का इस्तेमाल किया है। परासरण दाब पानी (या विलायक) में विभिन्न सांद्रता पर घुले अणुओं, खासकर लवण, के कारण लगने वाला दाब होता है।

इसी तरह, पेन स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के इंजीनियरों ने परासरण दाब में अंतर से बिजली पैदा की है। भारत की तटरेखा 7500 किलोमीटर लंबी है, जहां पश्चिम, दक्षिण और पूर्व से नदियां आकर समुद्र में मिलती हैं। भारत में यह तकनीक प्रभावी रूप से बिजली पैदा कर सकती है। भारतीय वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों (scientists and technologists) के लिए यह चुनौती स्वीकार करने का अवसर है। 

5. परमाणु ऊर्जा (Nuclear Energy) 

और पांचवा तरीका है परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए उपयोग करना। परमाणु ऊर्जा संयंत्र (nuclear power plants) में बिजली बनाने के लिए परमाणु विखंडन (nuclear fission) से उत्पन्न ऊष्मा का उपयोग पानी को गर्म करके भाप बनाने और उससे टर्बाइनों को घुमाने के लिए किया जाता है। भारत में आठ परमाणु ऊर्जा संयंत्र मिलकर 3.5 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं। 

समय की ज़रूरत है कि हम प्रदूषणकारी कोयले (polluting coal) को त्याग बिजली उत्पादन (electricity generation) के स्वच्छ विकल्प अपनाएं।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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WHO से सम्बंध विच्छेद: ट्रंप के दुस्साहसी फैसले का अर्थ

डॉ. अनंत फड़के

त्ता संभालने के मात्र आठ घंटे के अंदर डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने घोषणा कर दी कि संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से नाता तोड़ लेगा। उनका यह कदम तथाकथित ‘देशभक्तिपूर्ण’ (Patriotic), ‘अमेरिका फर्स्ट’ (America First), ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ जैसे अतिवादी, बड़बोले और गैर-ज़िम्मेदाराना राजनैतिक अजेंडा (Political Agenda) का हिस्सा था। ट्रंप ने इस फैसले के तीन कारण बताए:

  1. कोविड-19 (COVID-19) महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ का प्रदर्शन घटिया था।” हो सकता है कि महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ ने ज़रूरी अर्जेंसी के साथ काम न किया हो लेकिन संगठन से बाहर निकल जाना कोई उपयुक्त प्रतिक्रिया नहीं है। स्वयं ट्रंप प्रशासन द्वारा जिस ढंग से महामारी का प्रबंधन (Crisis Management) किया गया, वह भी साफ तौर पर अनर्थकारी था – वे बचाव के बुनियादी उपाय (जैसे मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग) भी लागू करने में असफल रहे थे। ट्रंप के दफ्तर छोड़ने तक चार लाख अमरीकी कोविड-19 के कारण जान गंवा चुके थे। लैंसेट (Lancet Report) के मुताबिक, इनमें से 40 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता था। सत्ता संभालने के बाद जो बाइडेन ने इस विनाशकारी नीति को बदला, लेकिन जो नुकसान होना था वह तो हो चुका था। यूएस की जनसंख्या दुनिया की जनसंख्या का मात्र 4 प्रतिशत है, लेकिन वहां कोविड-19 से दुनिया में सबसे अधिक मौतें हुईं – पूरी 12 लाख!
  2. चीन (China) की आबादी कहीं अधिक है और वह एक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था (Growing Economy) है, लेकिन वह डब्ल्यूएचओ में बहुत कम योगदान देता है।” हालांकि यह सही है, लेकिन इसका समाधान संगठन को छोड़ने में नहीं है बल्कि चीन पर योगदान बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाने में है।
  3. डब्ल्यूएचओ ने महामारी के संदर्भ में चीन के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई नहीं की।” यह दावा बेबुनियाद है। हमेशा की तरह चीन सरकार (Chinese Government) अपने कामकाज में अपारदर्शी (Opaque Governance) है। लेकिन चीन के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई (Sanctions) का कोई निश्चयात्मक कारण नहीं था। इसके अलावा, तथ्य यह है कि डब्ल्यूएचओ के पास सिर्फ परामर्श के अधिकार हैं – वह सदस्य देशों पर कोई निर्णय थोप नहीं सकता और न ही कोई कार्रवाई करने को बाध्य कर सकता है।

परस्पर निर्भर वैश्विक स्वास्थ्य (Global Health Interdependence)

कोविड-19 (Coronavirus Pandemic) ने, पहले से कहीं अधिक स्पष्टता से दिखा दिया है कि बात स्वास्थ्य की हो तो राष्ट्र एक-दूसरे पर बुरी तरह से निर्भर हैं। अतीत की महामारियों – इबोला (Ebola), स्वाइन फ्लू (Swine Flu), सार्स (SARS), ज़ीका (Zika Virus), बर्ड फ्लू (Bird Flu) – ने भी इस बात को रेखांकित किया है। ऐसे खतरों की निगरानी, रोकथाम व प्रबंधन के लिए एक समन्वित और कार्यकुशल वैश्विक स्वास्थ्य तंत्र अनिवार्य है। ट्रंप का फैसला तो खुद अमरीकी लोगों के भी सर्वोत्तम हित में नहीं है।

डब्ल्यूएचओ स्वास्थ्य सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान का संकलन और प्रसारण करता है, जिसमें नए रोगजनकों, बीमारियों के उभार, तथा वैक्सीन के विकास सम्बंधी जानकारी होती है। डब्ल्यूएचओ से निकल जाने के बाद यूएस के लिए एक बड़ी समस्या यह होगी कि उसे इस महत्वपूर्ण जानकारी तक पहुंच स्वत: हासिल नहीं होगी। इसके अलावा, कई अमेरिकी स्वास्थ्य संस्थाएं डब्ल्यूएचओ के साथ निकटता से जुड़ी हैं और ट्रंप का फैसला कई व्यावहारिक अड़चनें उत्पन्न करेगा। लेकिन यह सब दबंग ट्रंप महाशय को कौन समझाए?

निजी स्वार्थों का बढ़ता प्रभाव (Rise of Private Interests)

2024 में यूएस सरकार ने डब्ल्यूएचओ के बजट (WHO Budget) में सबसे अधिक योगदान (14.5 प्रतिशत) दिया था। ट्रंप का फैसला अगले साल से डब्ल्यूएचओ के लिए वित्तीय संकट खड़ा कर देगा। संगठन को लागत कटौती (Cost Cutting) के कई उपाय लागू करने होंगे, लेकिन सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। भारत जैसे विकासशील देश ज़्यादा प्रभावित होंगे, जबकि अल्पविकसित अफ्रीकी देशों को तो गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा।

इसके साथ ही, डब्ल्यूएचओ की निजी संस्थाओं (Private Institutions) पर निर्भरता बढ़ेगी। पिछले 40 वर्षों में डब्ल्यूएचओ के वित्तीय स्रोतों (Funding Sources) में उल्लेखनीय बदलाव आया है। शुरुआत में, डब्ल्यूएचओ की अधिकांश फंडिंग मूलत: सदस्य देशों से मिलने वाले निश्चित वार्षिक योगदान से आती थी। इस योगदान की मात्रा सम्बंधित देश की जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के पैमाने के आधार पर निर्धारित होती थी। अलबत्ता, आगे चलकर फोर्ड फाउंडेशन (Ford Foundation), बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (Bill & Melinda Gates Foundation – BMGF) और दवा कंपनियों (Pharmaceutical Companies) से जुड़े प्रतिष्ठान प्रमुख दानदाता हो गए।

1970 के दशक में निजी योगदान डब्ल्यूएचओ के बजट का मात्र 25 प्रतिशत थे। 1990 के दशक तक यह आंकड़ा बढ़कर 50 प्रतिशत हो चुका था। आज निजी दान डब्ल्यूएचओ के बजट का 75 प्रतिशत हैं।

2024 में अकेले बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने डब्ल्यूएचओ के बजट में 13.7 प्रतिशत योगदान दिया था – यह कई देशों के योगदान से अधिक था! इसी प्रकार से, गावी अलाएंस (जो टीकाकरण पर केंद्रित है) का योगदान 10.5 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने 4 प्रतिशत का योगदान दिया था। निजी फंडिंग पर यह अतिशय निर्भरता समस्यामूलक है, क्योंकि इनमें से कई अनुदानों के साथ शर्तें जुड़ी होती हैं – ये अक्सर किसी विशेष प्रोजेक्ट के लिए होते हैं, स्वास्थ्य सेवा में सामान्य सुधार के लिए नहीं होते।

हालांकि ये निजी प्रतिष्ठान तकनीकी रूप से ‘गैर-मुनाफा’ हैं लेकिन ये वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों पर काफी असर डालते हैं और प्राय: जन स्वास्थ्य उपायों की बजाय बाज़ार-चालित समाधानों की हिमायत करते हैं। उदाहरण के लिए, विकसित देशों में ऐतिहासिक रूप से पोलियो जैसी बीमारियों के उन्मूलन में स्वच्छता और साफ पेयजल की व्यापक उपलब्धता ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन ऐसे दीर्घावधि अधोसंरचना सुधार में निवेश करने की बजाय, निजी दानदाताओं के दबाव में डब्ल्यूएचओ ने टीकाकरण कार्यक्रमों को इन बीमारियों के लिए प्राथमिक समाधान के रूप में बढ़ावा दिया है जो टीका उत्पादकों को लाभ पहुंचाते हैं।

एक गौरतलब उदाहरण: 2011 के स्वाइन फ्लू प्रकोप के दौरान, अनुसंधान ने दर्शाया था कि अकेला टीकाकरण महामारी को कारगर ढंग से थाम नहीं पाएगा। इसके बावजूद, युरोपीय सरकारों ने वैक्सीन की लाखों खुराकों का भंडारण कर लिया, जिन्हें बाद में फेंकना पड़ा था क्योंकि इस बात के काफी प्रमाण इकट्ठे हो गए कि टीकाकरण स्वाइन फ्लू महामारी से लड़ाई में कारगर नहीं है। टीकाकरण का यह निर्णय निजी दवा कंपनियों और निहित स्वार्थों वाले प्रतिष्ठानों के प्रभाव में लिया गया था।

व्यापक तस्वीर (Bigger Picture)

चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति (Economic Power) के मद्देनज़र, वहां की सरकार को डब्ल्यूएचओ में ज़्यादा योगदान देने पर विचार करना चाहिए। लेकिन इसमें एक बड़ी अड़चन 1980 में यूएस के दबाव में लिया गया एक निर्णय (1980 US Policy Influence) है – एक संधि जिसने डब्ल्यूएचओ में सरकारों के योगदान को फ्रीज़ (Funding Freeze) कर दिया था, यहां तक कि महंगाई के हिसाब से कमी-बेशी भी असंभव बना दी! परिणाम यह है कि चीन के योगदान में कोई भी वृद्धि सीधे सरकारी योगदान से नहीं बल्कि निजी चीनी प्रतिष्ठानों (जैसे जैक मा प्रतिष्ठान) से होगी।

द्वितीय विश्व युद्ध तक अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों पर ब्रिटेन का वर्चस्व था। अलबत्ता, 1948 में डब्ल्यूएचओ की स्थापना के बाद, निर्णय प्रक्रिया ज़्यादा प्रजातांत्रिक हो गई और इसमें यूएस, युरोप, रूस, चीन तथा कुछ नव-स्वतंत्र देशों को आवाज़ मिली। हालांकि यूएस का काफी प्रभाव रहा लेकिन युद्धोपरांत कीन्स प्रभावित (कीनेशियन) युग में कल्याण-उन्मुखी नीतियों पर ज़ोर दिया गया, और यह स्वीकार किया गया कि निजी सेक्टर की समृद्धि सामान्य आर्थिक विकास और लोगों की खुशहाली से बंधी है। इसके परिणामस्वरूप सरकार-चालित स्वास्थ्य पहलों की शुरुआत हुई।

अलबत्ता, विश्व भर में इस राज्य पूंजीवाद के मार्फत कॉर्पोरेट ताकत बढ़ने के साथ, अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों में उनका प्रभाव भी बढ़ा। 1980 के दशक से, बाज़ार-चालित, कॉर्पोरेट-स्नेही नीतियों ने वैश्विक स्वास्थ्य रणनीतियों को आकार दिया है। डब्ल्यूएचओ से निकलने का ट्रंप का दुस्साहसिक फैसला (Trump’s WHO Exit) इस व्यापक रुझान का सीधा परिणाम है।

निरंकुश बेपरवाही (Authoritarian Carelessness) प्राय: गुप्त निहित स्वार्थों (Hidden Interests) की चाकरी करती है। युरोप में स्वाइन फ्लू टीके (Swine Flu Vaccine) की नाकामी दर्शाती है कि कैसे निजी कॉर्पोरेशन (Private Corporations) जन स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। ट्रंप के फैसले के चलते, डब्ल्यूएचओ अब कॉर्पोरेट प्रभावों के प्रति और भी दुर्बल हो गया है, जो निजी मुनाफे के रूबरू जन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की उसकी सामर्थ्य को और कमज़ोर करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक चिम्पैंज़ी के साथ-साथ एक ‘बोली’ की विलुप्ति

हाल में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2004 में आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के ताई नेशनल पार्क (Tai National Park) में शिकारियों ने जब चिम्पैंज़ियों (chimpanzees) के एक समूह के अंतिम दो वयस्क नरों में से एक को गोली मार दी थी तो उसके साथ-साथ चिम्पैंज़ियों के उस समूह की ‘बोली’ का एक इशारा (भाव-भंगिमा) भी खत्म हो गया। 

वैसे तो कई अध्ययनों से हमें चिम्पैंज़ियों के व्यवहार (chimpanzee behavior)/औज़ारों के इस्तेमाल वगैरह में विविधता के बारे में काफी कुछ पता चला है। हम यह भी जानते हैं चिम्पैंज़ी समुदाय (chimpanzee community) किस तरह से औज़ारों/साधनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन यह अध्ययन पहली बार इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करता है कि चिम्पैंज़ियों के अलग-अलग समूह एक ही चाहत या संवाद के लिए अलग-अलग हाव-भाव (gestures) का इस्तेमाल करते हैं और मनुष्यों के हस्तक्षेप या गतिविधियों के कारण उनके समूह के ये विशिष्ट व्यवहार विलुप्त हो रहे हैं। 

दरअसल नर चिम्पैंज़ी जब मादा के लिए अन्य नरों के साथ होने वाले टकराव और लड़ाई को टालना चाहते हैं तो वे गुपचुप संभोग (mating) के लिए मादा को चुपके से इशारा करते हैं। ये इशारे आम तौर पर संभोग आमंत्रण (mating invitation) के लिए दिए जाने वाले इशारों से अलग होते हैं। ये इशारे इतने चुपके से किए जाते हैं कि बस पास मौजूद मादा का ही इन पर ध्यान जाए, अन्य नरों का नहीं। 

स्विस सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च (Swiss Center for Scientific Research) के संरक्षण जीवविज्ञानी (conservation biologist) चिम्पैंज़ियों के इन्हीं इशारों और उनके मायनों में विविधता का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ताई जंगल (Tai forest) में रहने वाले चार चिम्पैंज़ी समुदायों के 495 इशारों का अध्ययन किया और पाया कि एक ही बात के लिए प्रत्येक समूह के इशारों में अंतर होता है, हालांकि कुछ इशारे एक समान भी होते हैं। जैसे संभोग के लिए आग्रह करने के लिए चारों समुदायों के नर किसी एक डाली को आगे-पीछे हिलाते हैं या अपनी एड़ी को ज़मीन पर पटकते हैं। लेकिन सिर्फ दक्षिणी और पूर्वी समुदाय के चिम्पैंज़ी चुपके से संभोग के इशारे के लिए पत्तियों को चीरते हैं, और केवल पूर्वोत्तर समुदाय के चिम्पैंज़ी उंगलियों के जोड़ से पेड़ या किसी सख्त सतह को ठोंकते हैं जैसे हम दरवाज़े को खटखटाते हैं। इस इशारे को नकल नॉक (knuckle knock) कहते हैं। 

वहीं हज़ारों किलोमीटर दूर युगांडा (Uganda) के चिम्पैंज़ी इनमें से किसी इशारे का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि वे अपने दोनों हाथों से किसी वस्तु पर तबला जैसे बजाते हैं, और यह इशारा आइवरी कोस्ट (Ivory Coast) के चिम्पैंज़ियों में नहीं देखा गया था। 

जब शोधकर्ता इन इशारों का अध्ययन कर रहे थे तब दल की फील्ड असिस्टेंट होनोरा नेने कपाज़ी का ध्यान चिम्पैंज़ियों के पूर्वोत्तर समूह द्वारा किए जाने वाले एक इशारे की ओर गया। उनके ध्यान में यह बात पिछले 30 से अधिक वर्षों से चिम्पैंज़ियों के साथ किए गए उनके काम के अनुभव के चलते आई। कपाज़ी ने पाया कि चिम्पैंज़ियों के पूर्वोत्तर क्षेत्र के समूह द्वारा किए गए इस नकल नॉक (knuckle knock) इशारे का उपयोग उत्तरी क्षेत्र के समुदायों में भी काफी आम हुआ करता था, लेकिन यह इशारा अब वहां से नदारद है। 

दरअसल, उत्तरी क्षेत्र के चिम्पैंज़ियों की संख्या में 1990 के दशक की शुरुआत में इबोला (Ebola) के कारण कमी आनी शुरू हुई थी। फिर 1999 में मनुष्यों से चिम्पैंज़ियों में एक श्वसन रोग (respiratory disease) फैला, जिसके कारण वहां उस समूह में मात्र दो वयस्क नर सदस्य बचे। फिर 2004 में शिकारियों ने उन दो नरों में से एक नर, मारियस, को गोली मार दी। बचा मात्र एक नर चिम्पैंज़ी। और जब समूह में एक ही नर बचा तो मादा के लिए टकराव या लड़ाई की गुंजाइश ही नहीं रही, और जब मादा के लिए कोई प्रतिद्वंदी ही नहीं तो संभोग के लिए चुपके से इशारा कर बुलाने की कोई ज़रूरत ही नहीं रही। नतीजतन, मारियस की मृत्यु के साथ ही नकल नॉक (knuckle knock) का इशारा भी खत्म हो गया। 

वास्तव में, चिम्पैंज़ियों में कई तरह के जन्मजात इशारे (innate gestures) होते हैं, जो सभी समुदाय के नर चिम्पैंज़ी कर सकते हैं – लेकिन अलग-अलग समुदायों के इन इशारों के अर्थ अलग-अलग होते हैं। और यह अध्ययन संरक्षण प्रयासों (conservation efforts) में इसी विविधता के महत्व पर ध्यान दिलाता है। 

हम जानते हैं कि शिकारी जंगलों से चिम्पैंज़ियों समेत तमाम जीव-जंतुओं का सफाया कर रहे हैं। इसके चलते चिम्पैंज़ियों की जेनेटिक विविधता (genetic diversity) खतरे में है। जेनेटिक विविधता पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) के साथ अनुकूलन को संभव बनाती है। सांस्कृतिक विविधता (cultural diversity) भी उतनी ही महत्वपूर्ण है; इसका विनाश चिम्पैंज़ियों में बदलते पर्यावरण के प्रति अनुकूलन की क्षमता प्रभावित करेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं का प्रतिरोध कैसे करते हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चिकित्सा (medical science) में एंटीबायोटिक (antibiotic) दवाइयों के व्यापक एवं अत्यधिक उपयोग के परिणामस्वरूप ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया (bacteria) और अन्य सूक्ष्मजीवों में वृद्धि हुई है जो एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ प्रतिरोधी (antibiotic resistance) हैं।
2021 में, विश्व में तकरीबन 12 लाख मौतें रोगाणुओं (pathogens) में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध (drug resistance) विकसित होने के कारण हुई थीं। भारतीय अस्पतालों (Indian hospitals) में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया (antibiotic-resistant bacteria) से हुए संक्रमण (infection) के कारण होने वाली मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। इसके चलते, चिकित्सा अनुसंधान (medical research) की एक बड़ी प्राथमिकता सतत नए एंटीबायोटिक्स (new antibiotics) की तलाश है।

एंटीबायोटिक (antibiotic) का शाब्दिक अर्थ है जीवन के खिलाफ। किंतु एंटीबायोटिक का उपयोग मानव कोशिकाओं (human cells) को हानि पहुंचाए बिना बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्मजीवों का खात्मा करने या उनकी वृद्धि रोकने के लिए किया जाता है।

कोशिका भित्ति (Cell Wall)

बैक्टीरिया कोशिकाओं (bacterial cells) की एक खासियत है कोशिका भित्ति (cell wall) की उपस्थिति। कोशिका भित्ति कोशिका झिल्ली (cell membrane) के ऊपर एक आवरण बनाती है। हमारी कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं होती है। बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति मुख्य रूप से पेप्टिडोग्लाइकेन (peptidoglycan) नामक एक अनोखे पदार्थ से बनी होती है। पेप्टिडोग्लाइकेन जाली जैसी संरचना होती है जो अमूमन दो घटकों से बनी होती है।

ग्लाइकेन्स (glycans) दो शर्करा अणुओं, NAG (N-acetylglucosamine) और NAM (N-acetylmuramic acid), से बनी लंबी शृंखलाएं होती हैं। लंबी शृंखलाओं में गुंथी NAM-NAG इकाई बैक्टीरिया के लिए अनोखी होती है। NAM-NAG इकाई का यह अनोखापन ही इसे एंटीबायोटिक विकास (antibiotic development) का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाता है। हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) भी हमलावर बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) का खात्मा करने के लिए इसी खास पहचान की तलाश करती है।

पेप्टिडोग्लाइकेन्स का दूसरा हिस्सा – ‘पेप्टिडो’ (peptido) – पेप्टाइड्स (peptides) से बना होता है। ये पास-पास की ग्लाइकेन शृंखलाओं की NAM शर्कराओं को आपस में जोड़ते हैं। इस तरह, क्रॉस लिंक्स (cross-links) बनती हैं और परस्पर गुंथी एक मजबूत जाली बन जाती है।

पहला खोजा गया एंटीबायोटिक, पेनिसिलिन (penicillin), इसी क्रॉस लिंकिंग चरण में बाधा पहुंचा कर अपने काम को अंजाम देता है। नतीजतन, बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति कमज़ोर पड़ जाती है जो कोशिका द्रव्य (cytoplasm) को सुरक्षित रूप से थाम नहीं पाती। अंतत: बैक्टीरिया कोशिका फट जाती है और मर जाती है।

प्रतिरोध का विकास (Development of Resistance)

बैक्टीरिया में पेनिसिलिन (penicillin) के प्रति प्रतिरोध (resistance) कैसे विकसित हुआ? बैक्टीरिया में ऐसे नए एंज़ाइम (enzymes) विकसित हुए जो पेनिसिलिनेज़ (penicillinase) नामक प्रोटीन का उत्पादन करते हैं, जिससे पेनिसिलिन अणु निष्क्रिय हो जाते हैं। या, बैक्टीरिया उन लक्ष्यों (targets) में बदलाव कर देते हैं जिन पर पेनिसिलीन असर करता है।

संक्रमण (infection) के दौरान बैक्टीरिया कोशिकाओं को तेज़ी से विभाजन (cell division) करके संख्या वृद्धि करना होता है, जिसके लिए कोशिका भित्ति का संश्लेषण (cell wall synthesis) ज़रूरी होता है। बैक्टीरिया कोशिका को वृद्धि और विभाजन करने के लिए मौजूदा भित्ति में कुछ चुनिंदा बंधन तोड़ने और बनाने पड़ते हैं।

नई कोशिका भित्ति जोड़ने से पहले, आणविक कैंचियां चलाई जाती हैं:

  • एंडोपेप्टिडेस (endopeptidases) नामक एंज़ाइम पेप्टाइड क्रॉसलिंक्स को तोड़ते हैं।
  • लायटिक ट्रांसग्लाइकोसिलेस (LTs – Lytic transglycosylases) नामक एंज़ाइम्स शर्करा शृंखला को काटते हैं।

इन दोनों कैंचियों को तालमेल बिठाकर काम करना होता है। इस प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाली बैक्टीरिया की मशीनरी (bacterial machinery) बहुत जटिल होती है – जिसके नए घटकों की खोज (scientific research) जारी है।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (CCMB – Centre for Cellular and Molecular Biology) की डॉ. मंजुला रेड्डी (Dr. Manjula Reddy) का दल उन तंत्रों को समझने पर काम कर रहा है जो बैक्टीरिया के कोशिका विभाजन (bacterial cell division) को नियंत्रित करने में भूमिका निभाते हैं।

पिछले साल PLOS Genetics में प्रकाशित एक अध्ययन में उनके दल ने बताया था कि बैक्टीरिया बहुत चतुर होते हैं और शर्करा शृंखला को काटने वाली LT कैंची को अधिकता में बनाकर क्रॉसलिंक्स तोड़ने वाली कैंची के अभाव की भरपाई कर सकते हैं।

ये नवीन नतीजे इस बात को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं कि बैक्टीरिया सभी बाधाओं के बावजूद कैसे जीवित रहते हैं। इस बारे में समझ बैक्टीरिया संक्रमण (bacterial infection) से लड़ने के नए मार्ग (new treatment strategies) प्रशस्त कर सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण कार्यकर्ता व समाज सुधारक विमला बहुगुणा का निधन – भारत डोगरा

बहुत ही कम उम्र में महात्मा गांधी का मार्ग अपनाकर जीवन जीने वाली विमला बहुगुणा ने 14 फरवरी को देहरादून (Dehradun) स्थित अपने घर पर अंतिम सांस ली। वे 92 वर्ष की थीं। अपने पीछे वे बेटी मधु पाठक और बेटे राजीव व प्रदीप को छोड़ गईं। उनके पति सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद (environmentalist) सुंदरलाल बहुगुणा का 2021 में 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया था।

अक्सर लोग विमला बहुगुणा को सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर किए गए कामों के लिए याद करते हैं। लेकिन वे स्वतंत्र रूप में एक महान समाज सुधारक (social reformer), न्याय की पैरोकार और पर्यावरण कार्यकर्ता (environment activist) थीं। उन्होंने स्वयं दूर-दराज़ के जंगलों में चिपको आंदोलन (Chipko Movement) (पेड़ों को बचाने के लिए उनका आलिंगन करना) के साथ-साथ शराब-विरोधी (anti-liquor movement) और अन्य समाज सुधार आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

भूमिहीन लोगों के अधिकारों में दृढ़ विश्वास रखने वाली विमला बहुगुणा ने सरला बहन के मार्गदर्शन में ‘भूदान’ (Bhoodan Movement) कार्यकर्ता के रूप में अपना सामाजिक काम शुरू किया था। वे भूमिहीन लोगों को भूमि दिलाने के लिए दूर-दराज़ के गांवों में जाती थीं।

भूदान आंदोलन के प्रसिद्ध नेता विनोबा भावे (Vinoba Bhave) ने इन शुरुआती दिनों में विमला बहुगुणा के काम करने के तरीके और दूर-दराज़ के गांवों में उनके प्रभाव को करीब से देखा था: दूर-दराज़ के गावों में, और कई बार तो बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में, वे पहली बार भूदान का संकल्प दिलाने के लिए जाती थीं। विनोबा भावे के सचिव ने सरला बहन को (विनोबा भावे की भावनाएं व्यक्त करते हुए) लिखा था, “मैंने उसके जैसी लड़की कार्यकर्ता नहीं देखी। वह सिर्फ पहाड़ों की लड़की नहीं है, वह पहाड़ों की देवी है।”

सरला बहन ने इन गांवों से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर बताया है कि एक नए क्षेत्र में काम करने के बावजूद, विमला को अक्सर अपने से अनुभवी स्थानीय पुरुष सदस्यों वाले समूह में नेतृत्व (leadership) की भूमिका मिलती थी।

विमला बहुगुणा का दृढ़ विचार था कि महिलाओं को समानता का अधिकार (women empowerment) मिले। उन्होंने सुंदरलाल बहुगुणा, जो उस समय प्रांतीय राजनीति (regional politics) के उभरते सितारे थे, के विवाह प्रस्ताव के समय यह शर्त रखी थी कि यदि सुंदरलाल राजनीतिक पार्टी (political party) की सदस्यता छोड़ने और महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के मार्ग पर चलकर स्वयं लोगों की सेवा करने का मार्ग अपनाने के लिए सहमत होते हैं तभी वे विवाह के लिए राज़ी होंगी।

उन्होंने अपनी राह चुन ली थी और उसी पर चलीं। सुंदरलाल बहुगुणा ने सभी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को त्याग दिया। शादी के तुरंत बाद युवा जोड़े ने टिहरी गढ़वाल (Tehri Garhwal) के एक सुदूर गांव सिलयारा में खुद के लिए एक बहुत ही साधारण-सा आश्रम (ashram) बनाने के लिए कड़ी मेहनत की।

यहां वे सामाजिक कार्यकर्ताओं (social activists) के लिए एक सहारा और प्रेरणादायक शख्सियत बन गईं, जिन्होंने नदियों और जंगलों (rivers and forests) की रक्षा के लिए, दलितों के समान अधिकारों (Dalit rights) के लिए, शराब की बढ़ती समस्याओं के खिलाफ काम किया और कई रचनात्मक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया।

जब भूकंप (earthquake) ने सिलयारा आश्रम के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया था, तब विमला बहुगुणा ने आश्रम का पुनर्निर्माण कार्य आरंभ होने तक बड़ी हिम्मत से इस मुश्किल घड़ी का सामना किया।

उनका सबसे कठिन और लंबा संघर्ष टिहरी बांध परियोजना (Tehri Dam Project) के खिलाफ था। इस संघर्ष में सुंदरलाल ने बांध स्थल (dam site) के पास नदी के किनारे एक झोंपड़ी में रहने की प्रतिज्ञा ली थी। उनके इस संघर्ष में वे दूर कैसे रह सकती थीं, तो विमला जी भी वहीं उनके साथ रहीं।

मैं 1977 के आसपास विमला जी से पहली बार मिला था। तब मैं 22 वर्षीय पत्रकार (journalist) के रूप में चिपको आंदोलन (Chipko Andolan) और उससे जुड़े मुद्दों पर लिखने के लिए सिलयारा आश्रम गया था। बहुत जल्द ही वे हमारे परिवार के लिए एक प्रेरणास्रोत (inspiration) बन गईं। उनके अंतिम दिनों तक हम फोन पर बात करते रहे और जब मैं उन्हें अपनी नई किताब (book) भेंट करने गया तो वे बहुत खुश हुईं थीं।

मैं जब-जब उनके घर या आश्रम गया, तब-तब मैं न केवल राष्ट्रीय (national issues) बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों (international affairs) में उनकी गहरी रुचि से प्रभावित हुआ। वे हाल के घटनाक्रमों से अवगत होने के साथ-साथ इन मुद्दों पर मेरी राय जानने में बहुत रुचि रखती थीं, और बेशक इन पर वे अपनी टिप्पणियां और नज़रिया भी साझा करती थीं।

वे एक बेहतर दुनिया (better world) बनाने के लिए प्रतिबद्ध थीं। चाहे कितनी भी बड़ी मुश्किलें आईं, वे कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं हुईं।

उनके काम को विस्तार से इन दो किताबों – प्लेनेट इन पेरिल (Planet in Peril) और विमला एंड सुंदरलाल – चिपको मूवमेंट एंड स्ट्रगल अगेंस्ट टिहरी डैम प्रोजेक्ट (Vimla and Sunderlal Bahuguna—Chipko Movement and Struggle against Tehri Dam Project in Garhwal Himalaya) – में पढ़ा जा सकता है। विमला जी सदैव एक प्रेरणा स्रोत रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान के हिसाब से, अंडा बढ़िया कैसे उबालें

एक बेहतरीन उबले अंडे की खूबी होती है कि उसकी ज़र्दी (egg yolk) एकदम मखमली-मुलायम पकी हो – ऐसी कि उसे ब्रेड (bread) पर मक्खन (butter) की तरह फैलाया जा सके – और उसकी सफेदी (egg white) नर्म-नर्म हो।

लेकिन इतना परफेक्ट अंडा (perfect egg) पकाना मुश्किल काम है। या तो ज़र्दी एकदम परफेक्ट मक्खन की तरह पकती है और सफेदी लिजलिजी जेली (jelly-like texture) जैसी हो जाती है। या सफेदी एकदम बढ़िया पकती है और ज़र्दी अजीब रंगत के साथ भुरभुरी (crumbly texture) सी हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सफेदी की तुलना में अंडे की ज़र्दी कम तापमान (low temperature cooking) पर पकती है; सफेदी को अच्छा पकाने के चक्कर में तेज़ आंच (high heat) पर उबालने से ज़र्दी भुरभुरा जाती है, जबकि धीमी आंच (low heat cooking) पर पकाने से सफेदी लिजलिजी हो जाती है।

पर अब, युनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स फेडरिको-2 (University of Naples Federico II) के वैज्ञानिकों (scientists), एमिला डी लॉरेन्ज़ो एवं अर्नेस्टो डी माइओ, ने एकदम परफेक्ट अंडा उबालने की विधि खोज ली है। इसे उन्होंने ‘पीरियोडिक कुकिंग’ (Periodic Cooking) नाम दिया है यानी थोड़े-थोड़े अंतराल पर पकाना। और इस तरीके से सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं, हम-आप भी अंडा उबाल सकते हैं।

उनकी खोजी विधि में ज़रूरत पड़ेगी दो बर्नर (two burners), दो पतीली (two pots) की और एक ऐसे जालीदार बर्तन (strainer or wire basket) की जो पतीली में रखा जा सके, और हां, अंडे (eggs) तो ज़रूरी हैं ही।

विधि यह है कि एक पतीली में पानी उबलता (boiling water) रहेगा और दूसरी पतीली का पानी गुनगुना (warm water at 30°C) रहेगा। अंडों को परफेक्ट उबालने (ideal egg boiling technique) के लिए उन्हें जालीदार बर्तन में रखकर हर दो मिनट के अंतराल पर उबलते पानी (hot water) से गुनगुने पानी वाले बर्तन में और गुनगुने पानी से उबलते पानी वाले बर्तन में डालना होगा। यह प्रक्रिया कुल 32 मिनट (32-minute cooking process) तक दोहरानी होगी। 32 मिनट तक अंडों को यहां से वहां और वहां से यहां करने के बाद इन्हें ठंडे पानी (cold water) में डालेंगे तो छिलका छीलने में आसानी होगी।

शोधकर्ता (researchers) इस विधि पर सैकड़ों अंडों को कई विधियों से उबालने के बाद पहुंचे हैं। और ये विधियां आज़माने से पहले उन्होंने यह समझा था कि उबालते समय अंडे में ऊष्मा (heat transfer in eggs) कैसे संचारित होती है, और अंडा तरल से ठोस (liquid to solid transformation) में कैसे बदलता है।

उन्होंने इस बात की पुष्टि भी की है कि यह विधि वाकई कारगर  है। ऐसा करने के लिए उन्होंने पीरियोडिक कुकिंग से उबले अंडों की रासायनिक संरचना (chemical composition) की तुलना पारंपरिक तरीके (traditional boiling method) से उबले अंडों की रासायनिक संरचना से की। साथ ही, दोनों तरीके से उबले अंडों को उन्होंने आठ फूड टेस्टर्स (food testers) को चखाया। दोनों तरीके से उबले अंडों में फर्क पाया गया।

कम्युनिकेशंस इंजीनियरिंग जर्नल (Communications Engineering Journal) में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि सफेदी और ज़र्दी इस विधि में परफेक्ट इसलिए पक पाते हैं क्योंकि अंडे की सफेदी अच्छी तरह सेट होने तक गर्म और ठंडी होती रहती है जबकि ज़र्दी को परफेक्ट पकने तक एक नियत तापमान (constant temperature) मिलता रहता है।

हालांकि यह बात तो है कि पारंपरिक विधि (traditional method) के मुकाबले इस विधि से अंडे उबालने में वक्त काफी लगेगा। पारंपरिक तरीके (traditional egg boiling) में अंडों को पानी से भरे बर्तन में उबलने के लिए रख दो और 10-15 मिनट (10-15 minutes boiling) बाद उतार लो, इस बीच आप कुछ और काम भी कर सकते हैं। लेकिन इस तरीके में पूरे 32 मिनट लगेंगे, वह भी पूरी मुस्तैदी के साथ सारा ध्यान अंडों पर लगाना होगा। लेकिन यदि आपके लिए स्वाद (perfect taste) अव्वल है तो अतिरिक्त समय और मेहनत फालतू नहीं जाएगी!

बहरहाल, यह अध्ययन भले ही बात तो अंडों को बेहतरीन स्वाद से पकाने की विधि की बात करता है, लेकिन यह पाक कला (culinary science) की उस महत्वपूर्ण प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाता है जिनके चलते आज हम व्यंजनों को स्वादिष्ट (tasty recipes) बनाने की विधियां जानते हैं। इन विधियों को भले ही ‘वैज्ञानिकों’ (food scientists) ने प्रयोगशाला (laboratory) में आज़मा-आज़माकर ‘परफेक्ट विधि’ (perfect cooking technique) होने की मुहर नहीं लगाई है, लेकिन जिन्होंने खाना पकाने की ज़िम्मेदारी निभाई उन्होंने नित नए प्रयोग (culinary innovations) से लज़ीज़ व्यंजन परोसे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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क्या अमेरिका के बिना चल पाएगा विश्व स्वास्थ्य संगठन?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। अमेरिका (USA) के अलग होने के हालिया फैसले ने संगठन (global health organization) के भविष्य को लेकर चिंता बढ़ा दी है। अमेरिका केवल एक संस्थापक सदस्य (founding member) ही नहीं था, बल्कि उसने 2022-23 में WHO की कुल आय का लगभग छठा हिस्सा भी प्रदान किया था। अलबत्ता, WHO अधिकारियों का मानना है कि यदि अन्य देश अपनी ज़िम्मेदारी उठाएं और निभाएं, तो संगठन आगे भी सुचारु ढंग से चलता रह सकता है।

WHO जन स्वास्थ्य (public health) से जुड़े प्रयासों का समन्वय करने वाला एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। यह बीमारियों के प्रसार को रोकने (disease control), सस्ती दवाएं (affordable medicines) और टीके (vaccines) उपलब्ध कराने और विशेष रूप से गरीब देशों (low-income countries) में स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाता है। 1980 के दशक में चेचक उन्मूलन (smallpox eradication) से लेकर इबोला (Ebola outbreak) जैसी महामारियों से लड़ने और नए संक्रामक रोगों (infectious diseases) के लिए टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने तक WHO की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

WHO का एक मुख्य कार्य चिकित्सा मानक (medical standards) तय करना और वैज्ञानिक मार्गदर्शन (scientific guidance) प्रदान करना है। इसके वैज्ञानिक दल ने साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने (evidence-based decision making) की क्षमता को मज़बूत किया है। लेकिन, आम लोगों के बीच इसकी जटिल भूमिका की पर्याप्त समझ नहीं है।

अमेरिका ने 2022-23 में WHO को लगभग 1.3 अरब डॉलर का वित्तीय सहयोग (financial support) दिया था, जिससे अफ्रीका (Africa) में संक्रामक रोगों की रोकथाम (epidemic prevention) और प्रभावित क्षेत्रों में आपातकालीन चिकित्सा सहायता (emergency medical aid) जैसे महत्वपूर्ण प्रयास हो पाए थे। अमेरिका की फंडिंग बंद होने (funding cut) से WHO को वित्तीय संकट (financial crisis) का सामना करना पड़ रहा है।

बहरहाल, यह संकट WHO को पूरी तरह से कमज़ोर नहीं कर सकता। अन्य समृद्ध (high-income nations) और मध्यम-आय वाले देश (middle-income countries), तथा परोपकारी संस्थाएं (philanthropic organizations), इस कमी को पूरा करने में मदद कर सकते हैं। WHO ने अब तक दाताओं (donors) से काफी अतिरिक्त वित्तीय प्रतिबद्धता हासिल कर ली है, लेकिन सभी खर्चों को पूरा करने के लिए इसे अभी भी और वित्त की ज़रूरत (fundraising challenge) है जिसे हासिल करना एक बड़ी चुनौती है।

कुछ लोगों का मानना है कि WHO को इस संकट को सुधार (reform opportunity) के अवसर के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए विशेष रूप से संगठन के प्रशासनिक ढांचे (administrative structure) में बदलाव की ज़रूरत है।

1948 में WHO की स्थापना के बाद से दुनिया काफी बदल चुकी है। अब अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल (Africa CDC) जैसी क्षेत्रीय संस्थाएं (regional health organizations) नीतियां बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। साथ ही, कई परोपकारी संगठन (philanthropic foundations) भी फंडिंग में सहयोग कर रहे हैं। यह बढ़ता हुआ वैश्विक सहयोग (global cooperation) मददगार होगा।

WHO की भूमिका महत्वपूर्ण (key role) है क्योंकि बीमारियां (diseases) राष्ट्रीय सीमाओं का पालन नहीं करतीं। WHO साझा ज़िम्मेदारी (shared responsibility) के सिद्धांत पर स्थापित किया गया था, और अब भविष्य इस बात पर निर्भर है कि अन्य देश वैश्विक स्वास्थ्य (global health investment) में निवेश करने को कितना तैयार हैं। शायद अमेरिका लौटे (US rejoin WHO), लेकिन तब तक बाकी देशों को इसके मिशन (“Health for All”) – सबके लिए स्वास्थ्य – को जारी रखने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गाज़ा: तबाही के साये में शोध कार्य

युद्ध (war), तबाही (destruction) और अनिश्चितता (uncertainty) के बावजूद, गाज़ा (Gaza) के वैज्ञानिक (scientists) अपने शोध (research) कार्य जारी रख रहे हैं। वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि शोध (scientific research) न केवल विनाश (documentation of destruction) के दस्तावेज़ीकरण और पुनर्निर्माण (reconstruction efforts) प्रयासों में मदद करता है, बल्कि मानवीय संकटों (humanitarian crisis) के समाधान के लिए भी आवश्यक है। 19 जनवरी को हमास (Hamas) और इस्राइल (Israel) के बीच अस्थायी संघर्ष विराम (ceasefire) से वैज्ञानिकों को स्थिति का आकलन करने का अवसर मिला है।

न्यूरोसाइंटिस्ट (neuroscientist) खमीस एलसी, जो वर्तमान में घायलों का इलाज कर रहे हैं, युद्ध के प्रभावों को दर्ज करने और प्रकाशित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इसी तरह, जलवाहित रोगों (waterborne diseases) के विशेषज्ञ सामर अबूज़र सुधार व पुनर्निर्माण में शोध (scientific studies) की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद, विज्ञान (science) और शिक्षा (education) के प्रति अटूट प्रतिबद्धता के चलते वैज्ञानिकों (Gaza scientists) ने अपना काम जारी रखा है।

युद्ध (conflict) के कारण गाज़ा की 22 लाख आबादी में से 90 प्रतिशत बेघर (homeless) हो गई है। भोजन (food crisis), पानी (water shortage), स्वास्थ्य सेवाएं (healthcare services) और शिक्षा (education crisis) जैसी बुनियादी सुविधाएं या तो नष्ट हो गई हैं या अत्यधिक सीमित रह गई हैं। बमबारी (airstrikes) से तबाह इलाकों से मलबा हटाना एक बड़ी चुनौती है। गाज़ा (Palestine conflict) के प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में करीब 100 किलोग्राम मलबा जमा है जिसमें खतरनाक पदार्थ (hazardous materials) भी मौजूद हैं।

गाज़ा में पानी (clean water crisis) की स्थिति भी गंभीर है। यहां 97 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों (groundwater contamination) से आता है, जो अत्यधिक असुरक्षित हैं और इनके दूषित होने का खतरा भी है। युद्ध (war damage) से पहले भी महज 10 प्रतिशत लोगों को साफ पानी (safe drinking water) मिलता था, लेकिन अब मात्र 4 प्रतिशत लोगों को ही मिल रहा है। टूटी-फूटी सीवेज लाइन (damaged sewage system) के कारण गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है, जिससे डायरिया (diarrhea) और हेपेटाइटिस (hepatitis outbreak) जैसी जलवाहित बीमारियों (waterborne infections) का खतरा बढ़ गया है।

युद्ध (war crisis) के कारण गाज़ा (Gaza universities) के 21 उच्च शिक्षण संस्थानों में से 15 बुरी तरह क्षतिग्रस्त या नष्ट हो चुके हैं। अस्पतालों (hospitals in Gaza) की स्थिति भी गंभीर है – लगभग आधे पूरी तरह बंद हैं, जबकि बाकी सीमित संसाधनों के साथ काम कर रहे हैं। कैंसर सहित अन्य गंभीर बीमारियों (chronic diseases) से जूझ रहे 11,000 मरीज़ों को न तो इलाज मिल रहा है और न ही उनके पास विदेश में उपचार का कोई अवसर है।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि सबसे पहले आवास (housing rehabilitation), सीवेज मरम्मत (sewage repair) और स्वास्थ्य सेवाओं (health services restoration) को बहाल करना ज़रूरी है। ऑनलाइन-लर्निंग विशेषज्ञ (online education expert) आया अलमशहरावी अस्थायी शिविर (temporary shelters) और घरों के पुनर्निर्माण (home reconstruction) के लिए तुरंत कदम उठाने की अपील कर रही हैं। वे खुद एक बमबारी (bombing survivor) में बचीं, जिसमें उनके अपार्टमेंट में 30 लोगों की जान चली गई, और अब वे एक शरणार्थी शिविर (refugee camp) में रह रही हैं।

भारी विनाश (mass destruction) के बावजूद, गाज़ा (Gaza research community) के वैज्ञानिक समुदाय का संकल्प अटूट है। वे इस संकट (ongoing crisis) का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं और भविष्य के पुनर्निर्माण (future rebuilding) में योगदान देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह साबित करता है कि युद्ध (war-torn regions) के कठिन समय में भी ज्ञान (knowledge) और शोध (scientific progress) को आगे बढ़ते रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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एक नए विषय का निर्माण

जयश्री रामदास

मेरा जन्म 1954 में मुंबई (mumbai) में हुआ और सबसे पहले दिल्ली के सेंट थॉमस स्कूल(St. Thomas School) में पढ़ी। मेरी सबसे प्यारी याद वह है जब मॉन्टेसरी स्कूल (montessori school) में चमचमाते सुनहरे मोतियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। ये मोती तार पर पिरोए गए थे जो दस-दस मोतियों की पंक्तियों, दस-दस की पंक्तियों से बने सौ के एक वर्ग, और हज़ार मोतियों के एक चमकते हुए घन के रूप में थे। यह मेरा सौभाग्य था क्योंकि भारतीय स्कूलों (Indian Schools) में हाथ से खोजबीन करने के अनुभव बहुत दुर्लभ होते हैं। हो सकता है नफासत से तैयार किए गए उपकरण काफी महंगे होते हैं  लेकिन स्थानीय स्तर पर सरल संसाधनों तक को छोड़कर रट्टा लगाने (rote learning) पर ज़ोर दिया जाता था।

मेरी दूसरी खुशनुमा याद अंग्रेज़ी (English) की हमारी अध्यापिका मिस विल्सन की है, जो हमें कविताएं (rhymes) और तुकबंदियां (limericks) लिखने को प्रेरित करती थीं। हमारी वार्षिक परीक्षा में एक लिमरिक तैयार करना था, जो मुझे बहुत मज़ेदार लगा। घर पर हम मराठी बोलते थे, और मेरी मां ने मुझे बोलचाल की भाषा और मज़ेदार मुहावरों से प्रेम विरासत में दिया था। ये सारी बातें बाद में मुझे प्राथमिक विज्ञान शिक्षण (Primary science education) में बहुत काम आईं।

सातवीं कक्षा मैंने बगदाद(bagdad) के अमेरिकन स्कूल(American school) से की। मेरे पिता, जो एक दूरसंचार इंजीनियर (telecommunication engineer) थे, को यू.एन. के असाइनमेंट पर नियुक्त किया गया था। मेरे माता-पिता का मानना था कि इस स्कूल ने पढ़ाई में मेरी रुचि जगाई, लेकिन मुझे यह साल किशोरावस्था (Adolescence) के गहरे तनाव और चिंता से भरा लगा। वहां शारीरिक रूप से मज़बूत, यौन सचेत (sexually aware) और नस्लीय रूप से आत्मविश्वासी (racially confident) बच्चों के बीच, मुझे केवल साप्ताहिक मेंटल मैथ (mental maths) प्रतियोगिता के दौरान अच्छा महसूस होता था, जब सभी छात्र-छात्राएं मुझे अपनी टीम में शामिल करना चाहते थे। हमारे विज्ञान और गणित के शिक्षक, मिस्टर बर्न्ट, हमसे कई प्रोजेक्ट कार्य (project work) करवाते थे, जिनका मैंने खूब आनंद लिया।

छह-दिवसीय अरब-इस्राइल युद्ध (Six-day Arab Israel war) के बाद जब अमेरिकन स्कूल बंद हो गया, तब मेरी मां मुझे वापस लाईं और पुणे के सेंट हेलेना बोर्डिंग स्कूल (St. Helena boarding school) में दाखिला दिलाया। यहां मुझे विज्ञान और गणित के अच्छे शिक्षक के रूप में मिस जोसेफ और मिस्टर जोग मिले, और मिली ग्रेगरी, धोंड और इंगले द्वारा लिखित भौतिकी की एक दिलचस्प किताब। यहां सीखने का तरीका केवल एक पाठ्यपुस्तक पढ़ने पर आधारित था, कुछ दुर्लभ प्रदर्शनों (rare demonstrations) को छोड़कर। मुझे एक अद्भुत डेमो याद है, जिसमें थोड़े से पानी को दस-लीटर के एक खाली कैरोसीन कैन (kerosene) में उबालने के बाद, ढक्कन लगाकर ठंडा किया गया, और वह ज़ोरदार आवाज़ के साथ सिकुड़कर ढेर हो गया।

मुझे भौतिकी (Physics) बहुत पसंद था ही, साथ ही मनोविज्ञान ने भी मुझे काफी आकर्षित किया। इसका एक कारण मेरी बुआ थीं, जो सामाजिक कार्य (social work) में लगी थीं। स्कूल पूरा करने के बाद मैंने विज्ञान (science) और कला(arts) दोनों में से किसी एक को चुनने पर विचार किया और अंत में मैंने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में विज्ञान को चुना। हालांकि जीव विज्ञान (biology) मेरे लिए त्रासदायक रहा, लेकिन मिस्टर इनामदार द्वारा पढ़ाई गई सॉलिड ज्यामिति (solid geometry) का मैंने खूब आनंद लिया। मिस्टर इनामदार काफी अस्त-व्यस्त थे लेकिन रैंगलर महाजनी द्वारा लिखित किताब से उनका पढ़ाना काफी मज़ेदार था। रसायनशास्त्र के शिक्षक मिस्टर पाठक ने एक बार यादगार होमवर्क दिया था, जिसमें कुछ लीनियर हाइड्रोकार्बन (linear hydrocarbons) की रचनाएं बनानी थीं, और उन्होंने उस सूची में C6H6 का सूत्र घुसा दिया था। मुझे एरोमेटिक यौगिकों के बारे में जानकारी नहीं थी, लेकिन बेंज़ीन की संरचना (benzene structure) का अनुमान लगाने में जो खुशी मिली, वह वर्षों तक याद रही।

आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) में प्रोफेसर ए. पी. शुक्ला, एच. एस. मणि और अन्य शिक्षकों ने हमें बेहतरीन ढंग से भौतिकी पढ़ाई, लेकिन उस दौरान मुझे लगा कि मैं अपनी क्षमता से भी अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रही हूं। एम.एससी. के बाद की गर्मियों में मैंने बर्कले सीरीज़ की पर्सेल लिखित ऑन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (Electricity and Magnetism) को आराम से पढ़कर इस कमी को पूरा किया। कॉलेज में मैं पाठ्यपुस्तकों को आलोचनात्मक दृष्टि (critical analysis) से देखती और अपने दोस्तों से कहती कि एक दिन मैं इससे बेहतर किताबें लिखूंगी। मेरी विज्ञान, मनोविज्ञान और शिक्षण पद्धति में रुचि तब पूरी तरह एक साथ जुड़ीं जब 1976 में मैंने होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, टी.आई.एफ.आर.(TIFR) जॉइन किया।

चूंकि मेरा शोध प्रबंध (थीसिस) संभवतः भारत में विज्ञान शिक्षा में सबसे पहला था, इसलिए मुझे इस क्षेत्र को परिभाषित करने की धीमी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। यह कार्य मुझे उपलब्ध मुद्रित सामग्री के आधार पर ही करना पड़ा। लेकिन मैं खुद को सौभाग्यशाली महसूस करती हूं कि मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में चल रहे अनुसंधानों से घिरे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (H.B.C.S.E.) में रही जहां ऐसे संसाधनों तक पहुंच मिली जो देश के अन्य स्थानों पर मिलना मुश्किल था। अंतर्राष्ट्रीय शोध प्रवृत्तियों से अलग रहने के कारण मैं अपनी स्वयं की रुचियों के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र थी।

H.B.C.S.E. ने मुझे स्कूल विज्ञान (school science) को दो तरह से देखने का मौका दिया – एक ऊपर से राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण (state level survey) के माध्यम से स्कूलों और शिक्षकों का अध्ययन करके और दूसरा धरातल से महाराष्ट्र (maharashtra) के जलगांव ज़िले के ग्रामीण स्कूलों में सैकड़ों विज्ञान अध्यायों का विश्लेषण करके और सप्ताहांत में मुंबई की झुग्गियों में पढ़ाकर भी। आगे चलकर, पुणे के भारतीय शिक्षा संस्थान (Indian Institute of Education) के औपचारिकेतर शिक्षा कार्यक्रम में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि अपने प्राकृतिक परिवेश में ग्रामीण बच्चों के अनुभव कितने समृद्ध थे, और किस तरह से वे अनुभव स्कूल और पाठ्यक्रम (curriculum) की औपचारिक संरचना के कारण बेकार जा रहे थे। H.B.C.S.E. के संस्थापक निदेशक प्रो. वी. जी. कुलकर्णी अक्सर विज्ञान शिक्षण में भाषा की भूमिका पर ज़ोर देते थे। बहुत बाद में मैंने उनकी इन बातों का महत्व समझा। विचार और भाषा एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, और हमारी स्कूल प्रणाली में रटंत पद्धति के कारण हम बुनियादी साक्षरता और गणना क्षमता विकसित करने में विफल हो रहे हैं।

एक संघर्षरत स्नातक छात्र के रूप में, जब मुझे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन में टीचर-एजूकेटर की भूमिका में रखा गया तो मैंने वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में विद्यार्थियों के विचारों में रुचि लेना शुरू किया। मुझे लगा कि मैं शिक्षकों को कुछ ऐसा सिखा सकती थी, जिसे वे सीधे अपनी कक्षा में लागू कर सकें। उसी समय, अन्य स्थानों पर भी ऐसे शोध हो रहे थे, जिनके परिणामों को ‘विद्यार्थियों की वैकल्पिक धारणाएं’ नाम दिया गया। इस क्षेत्र के बारे में मैने पोस्ट-डॉक्टरल काम के दौरान लीड्स की प्रोफेसर रोज़लिंड ड्राइवर और चेल्सी कॉलेज के प्रोफेसर पॉल ब्लैक से सीखा।

कुछ साल बाद, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (MIT) के मीडिया लैब के प्रोफेसर सीमोर पेपर्ट द्वारा युवा इंजीनियरों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, कलाकारों और डिज़ाइनरों के साथ जो बौद्धिक वातावरण बनाया गया था, उसने मुझे उत्साहित किया। ब्रिटेन और अमेरिका में, मैंने ग्रामीण और इनर-सिटी स्कूलों में काम किया, जिनमें से एक स्कूल के प्रवेश द्वार पर मेटल-डिटेक्टर लगा था। यह एक अनोखा अनुभव था। बच्चों की संकल्पनाओं और उनके द्वारा रेखाचित्रों को समझने के मामले में मेरी रुचि को इन अनुभवों से नया जीवन मिला।

भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक समकक्ष समूह की कमी थी। यही मेरे लिए विज्ञान शिक्षा में शोध करने की सबसे बड़ी चुनौती थी। एक न्यूनतम संख्या के अभाव के कारण, कई वर्षों तक H.B.C.S.E. में शोध कार्य प्राथमिकता में नहीं रहा। 1990 के दशक में, निदेशक प्रोफेसर अरविंद कुमार ने मुझे पाठ्यक्रम विकास का काम करने की सलाह दी, और इस निर्णय का मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। यह एक अनोखा अवसर था, जहां मैं शोध और फील्डवर्क पर आधारित एक पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम की सीमाओं से मुक्त, विकसित कर सकती थी। शिक्षकों और अभिभावकों से मिली गर्मजोश सराहना से इस प्रयास को काफी मज़बूती मिली।

इस दौरान, H.B.C.S.E. में एक सशक्त शोध समूह उभरा। मुझे विश्वास है कि शोध, पाठ्यक्रम और कामकाज के बीच स्वस्थ सम्बंध इस समूह को आगे बढ़ने में मदद करेगा। विद्यार्थियों के चित्रों और आरेखों से सम्बंधित मेरी शुरुआती रिसर्च, विज्ञान को समझने के दृश्य-स्थानिक मॉडल सम्बंधी वर्तमान शोध से जुड़ती है — चाहे वह विकासात्मक मनोविज्ञान हो, संज्ञानात्मक विज्ञान हो, या विज्ञान का इतिहास हो। मैं इस क्षेत्र में और अधिक शोध कार्य की उम्मीद करती हूं। H.B.C.S.E. द्वारा शुरू की गई epiSTEME कॉन्फ्रेंस शृंखला ने देश और विदेश में कड़ियां जोड़ने में मदद की है। H.B.C.S.E. का प्राथमिक विज्ञान पाठ्यक्रम भारत और विदेशों में जाना और उद्धरित किया जाता है। मेरी व्यक्तिगत जद्दोज़हद इस संस्थान के संघर्ष और एक नए शोध क्षेत्र के विकास के संघर्ष से गहराई से जुड़ी रही है।

मैं यह काम दो अन्य महिलाओं के योगदान के बिना नहीं कर पाती। पहली श्रीमती बापट हैं, जो स्वयं एक वैज्ञानिक की पत्नी थीं और स्नेहपूर्वक हमारे दो बच्चों की देखभाल करती थीं। और दूसरी हैं कला, जो एक अत्यंत सक्षम महिला थीं। उन्होंने अपनी बचपन की लालसाओं को त्यागकर T.I.F.R. कॉलोनी में घरेलू कामकाज किया। और हां, मेरे पति और बच्चों ने भी बेशक मेरे करियर में मेरा साथ दिया।

क्या अब मुझे लगता है कि काश मैंने कुछ अलग ढंग से किया होता? सबसे पहले, स्कूल और कॉलेज के छात्र के रूप में जो किताबें मुझे दी गई थीं उनकी बजाय मुझे अच्छी किताबों की तलाश खुद करना चाहिए थी। दूसरा, शुरुआत में मैं अपने विचारों को स्पष्ट रूप से कहना सीखने का प्रयास कर सकती थी – यह एक ऐसी चीज़ है जो विज्ञान के छात्रों को अक्सर नहीं सिखाई जाती। तीसरा, एक जूनियर शोधकर्ता के रूप में मैं अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के साथ अधिक सामंजस्यपूर्ण सम्बंध बनाने का प्रयास कर सकती थी। हालांकि, मैं यह समझती हूं कि व्यक्तित्व के कुछ पहलूओं को बदलना मुश्किल होता है। चौथा, मुझे बाल श्रम जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करना चाहिए था, जो एक निर्मम प्रथा है और आज भी हमारे अधिकांश बच्चों को उनकी संभावनाएं साकार करने से रोकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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