मानवीकृत चूहे महामारी से बचाएंगे

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

क्या कोविड-19 जैसी महामारी फिर से आ सकती है? इस बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि महामारी का उभरना संयोगवश होने वाली एक घटना है, और यह कहीं भी और कभी भी घट सकती है। महामारी की संभावनाएं विशेषकर वहां ज्यादा होती है जहां लोग पालतू या जंगली जानवरों के निकट संपर्क में रहते हैं। लिहाज़ा, आगामी महामारी से बचाव के लिए ला जोला इंस्टीट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी (La Jolla Institute for Immunology) के वैज्ञानिकों ने कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) से सबक सीखकर एक नया औज़ार विकसित किया है। उन्होंने मानवीकृत (humanized) चूहों की छह प्रजातियां विकसित की हैं, जो कोविड-19 के मामलों के अध्ययन (COVID-19 research) के लिए मूल्यवान मॉडल के रूप में काम कर सकती हैं।

क्या हैं मानवकृत चूहे?

मानवीकृत चूहा (humanized mouse) एक ऐसा चूहा है जिसमें किसी मनुष्य का डीएनए, कोई ऊतक, ट्यूमर, या माइक्रोबायोम (microbiome) प्रत्यारोपित किया गया हो। ऐसे मानवकृत चूहों में पूर्ण विकसित कार्यकारी मानव प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) विकसित हो जाती है। इनमें लसिका ग्रंथियां, थायमस और मानव ‘टी’ और ‘बी’ प्रतिरक्षी कोशिकाएं सम्मिलित हैं। मानवीकृत चूहों का उपयोग मनुष्यों को होने वाले रोगों जैसे कैंसर (cancer), संक्रामक रोगों (infectious diseases) और एलर्जी (allergies) आदि का अध्ययन करने के लिए किया जाता है। मानवीकृत चूहे मानव शरीर के अधिक उपयुक्त अनुसंधान मॉडल हो सकते हैं। वे शोधकर्ताओं को मानव विकास और बीमारी को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकते हैं, और अंतत: हम सामान्य चिकित्सा के बजाय पिन-पॉइंटेड व्यक्तिगत चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं। 

उदाहरण के लिए एक प्रचलित मानवीकृत चूहा है PDX (Patient Derived Xenograft)। यह ऐसा चूहा है जिसमें मानव ट्यूमर (human tumor) प्रत्यारोपित किया जाता है। इस प्रकार के चूहे कैंसर के फैलाव (cancer spread) और नई कैंसर दवाओं के प्रारंभिक परीक्षण (cancer drug trials) करने के लिए प्रयुक्त होते हैं।

इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक किसी मरीज़ से ट्यूमर निकाल कर उसे टुकड़ों में काट सकते हैं और प्रत्येक टुकड़े को कई भिन्न-भिन्न चूहों में डाल सकते हैं। प्रत्येक टुकड़ा एक-एक नया ट्यूमर बनता है और फिर उसे विभाजित करके अनेक चूहों में डाला जा सकता है। इस प्रक्रिया द्वारा, दर्जनों मानवीकृत (humanized) चूहे बनाए जाते हैं, जिनका ट्यूमर (tumor) मूल मानव रोगी के ट्यूमर के लगभग समान होता है। वैज्ञानिक ऐसे PDX चूहों (PDX mice) के विभिन्न समूहों का वैकल्पिक दवाओं, दवा के विभिन्न संयोजनों और अनुक्रमों के साथ इलाज कर सकते हैं। इससे उन्हें यह निर्धारित करने में मदद मिलती है कि किसी विशेष ट्यूमर को खत्म करने के लिए कौन सी दवा (drug) या उसका संयोजन सबसे अच्छा काम करता है।

महामारी अनुसंधान में महत्ता 

मानवीकृत चूहों के नए मॉडल इस बात पर प्रकाश डालने में मदद कर सकते हैं कि SARS-CoV-2 शरीर में कैसे फैलता है और अलग-अलग लोगों को कोविड-19 (COVID-19) के भिन्न-भिन्न लक्षण क्यों होते हैं। 

ईबायोमेडिसिन पत्रिका (eBioMedicine journal) में प्रकाशित शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने बताया है कि ये चूहा मॉडल कोविड-19 अनुसंधान (COVID-19 research) में इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी कोशिकाओं को इस तरह इंजीनियर किया गया था कि उनमें ऐसे दो महत्वपूर्ण अणु (molecules) बनते थे जो मानव कोशिकाओं में SARS-CoV-2 संक्रमण (SARS-CoV-2 infection) में भूमिका निभाते हैं। इन मानवीकृत चूहों को प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) की दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के तहत तैयार किया गया था। 

इन चूहा मॉडल्स की मदद से हम महामारी की दृष्टि से प्रासंगिक SARS-CoV-2 संक्रमण और टीकाकरण (vaccination) के परिदृश्य को मॉडल कर सकते हैं, और हम संक्रमण और टीकाकरण के बाद विभिन्न समयों पर मात्र रक्त नहीं बल्कि विभिन्न प्रासंगिक ऊतकों का अध्ययन कर सकते हैं। 

इन मॉडल्स की मदद से वैज्ञानिक यह जांच पहले ही कर चुके हैं कि SARS-CoV-2 का संक्रमण मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। आगे वैज्ञानिक यह जांच कर सकते हैं कि उपरोक्त में से प्रत्येक अणु किस तरह से अलग-अलग SARS-CoV-2 संस्करणों (SARS-CoV-2 variants) को संक्रमण में मदद करता है। वे यह अध्ययन भी कर सकते हैं कि मेज़बान की आनुवंशिक पृष्ठभूमि (genetic background) किस तरह से विभिन्न संस्करणों के संक्रमण के बाद रोग की प्रगति और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित कर सकती है। 

शोधकर्ताओं ने बारीकी से इस बात का अवलोकन किया है कि ये जंतु-मॉडल वास्तविक SARS-CoV-2 संक्रमण पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। वैज्ञानिकों ने SARS-CoV-2 के संपर्क में आए विभिन्न चूहा स्ट्रेन (mouse strains) से ऊतक के नमूने लिए। फिर उन्होंने ऊतक के नमूनों की जांच की और उनकी तुलना कोविड-19 से पीड़ित मनुष्यों के पैथोलॉजिकल निष्कर्षों से की। वैज्ञानिको के विश्लेषण से फेफड़ों (lungs) में SARS-CoV-2 संक्रमण के लक्षण दिखाई दिए, जो मनुष्यों में SARS-CoV-2 संक्रमण के लिए सबसे कमज़ोर ऊतक भी है। अनुसंधान समूह ने माउस की प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को संक्रमण के प्रति लगभग उसी तरह से प्रतिक्रिया करते हुए भी देखा जो मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी दर्शाती थी। 

नए चूहा मॉडल में इन प्रतिक्रियाओं को पहचानकर, शोधकर्ताओं ने SARS-CoV-2-प्रेरित रोग की प्रतिरक्षा विविधता (immune diversity) या प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं की विस्तृत शृंखला को समझने के लिए एक आधार स्थापित किया है। नए चूहा मॉडल्स उभरते SARS-CoV-2 संस्करण (emerging SARS-CoV-2 variants) और महामारी पैदा करने की क्षमता वाले भावी कोरोनावायरस (coronavirus) की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए मूल्यवान साबित हो सकते हैं। 

इन नए चूहा मॉडल्स ने वैज्ञानिकों को यह स्पष्ट तस्वीर खींचने में मदद की है कि SARS-CoV-2 मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। ये माउस मॉडल कोविड-19 अनुसंधान समुदाय (COVID-19 research community) के सभी शोधकर्ताओं के लिए भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चिकित्सा अनुसंधान के लिए लास्कर पुरस्कार

डॉ. सुशील जोशी

2024 का लास्कर-डीबेकी पुरस्कार (Lasker-DeBakey Award 2024) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के जील हेबनर (Joel Habener), रॉकफेलर विश्वविद्यालय की स्वेतलाना मोजसोव (Svetlana Mojsov) और नोवो लॉरडिस्क की लोटे ब्येरो नडसन (Lotte Bjerre Knudsen)। इन्होंने जीएलपी-1 (GLP-1 hormone) नामक हॉर्मोन के सक्रिय रूप को पहचाना और उसे वज़न घटाने की औषधि (weight loss medication) के रूप में विकसित किया।

दुनिया भर में अनुमानित 90 करोड़ वयस्क मोटापे से ग्रस्त हैं। मोटापा कई घातक रोगों का कारण बनता है। पूर्व में मोटापे से निपटने के लिए कारगर औषधियों के विकास को ज़्यादा सफलता नहीं मिली थी। उक्त तीन वैज्ञानिकों ने जीएलपी-1 आधारित औषधियों का मार्ग प्रशस्त किया जो काफी उम्मीदें जगाता है।

एक नया हॉर्मोन

1970 के दशक में मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में कार्यरत एंडोक्रायनोलॉजिस्ट हेबनर का ध्यान डायबिटीज़ ने आकर्षिक किया था। आम तौर पर ग्लूकोज़ की उपस्थिति अग्न्याशय (pancreas) को इंसुलिन स्रावित करने के लिए प्रेरित करती है। यह इंसुलिन शर्करा को रक्त प्रवाह में से हटाकर कोशिकाओं में पहुंचाता है।

डायबिटीज़(diabetes) में होता यह है कि इंसुलिन की कमी के चलते रक्त प्रवाह में ग्लूकोज़ की मात्रा अधिक बनी रहती है जबकि कोशिकाएं भूखी मरती हैं। इंसुलिन की आपूर्ति करना डायबिटीज़ के एक उपचार के रूप में उभरा था लेकिन वैकल्पिक चिकित्सा की तलाश जारी रही। पैंक्रियास द्वारा स्रावित एक अन्य हॉर्मोन – ग्लूकागोन – रक्त में शर्करा की मात्रा को बढ़ाता है। तो एक विचार यह आया कि यदि ग्लूकागोन को बाधित कर दिया जाए तो डायबिटीज़ रोगियों को मदद मिलेगी।

हेबनर ने सोचा कि वे ग्लूकागोन का जीन पृथक करेंगे। लेकिन उस समय नियमों के तहत यूएस में स्तनधारी जीन्स के साथ छेड़छाड़ की अनुमति नहीं थी। तो हेबन ने एंगलरफिश का सहारा लिया। एंगलरफिश के इस्तेमाल का एक फायदा यह भी था कि इसमें एक विशिष्ट अंग होता है जो भरपूर मात्रा में ग्लूकागोन बनाता है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि पेप्टाइड हॉर्मोन बड़े प्रोटीन अणुओं में से बनते हैं, जब एंज़ाइम उन्हें विशिष्ट स्थानों पर काट देते हैं। 1982 में हेबनर ने रिपोर्ट किया कि एंगलरफिश का ग्लूकागोन जीन एक ऐसे पूर्ववर्ती प्रोटीन का निर्माण करवाता है जिसमें ग्लूकागोन के अलावा एक और पेप्टाइड होता है जो ग्लूकागोन जैसा ही है। इस प्रोटीन में दो अमीनो अम्ल – लायसीन-आर्जिनीन – जोड़ियां कई स्थानों पर पाई जाती हैं। यह वही जोड़ी है जो कई हॉर्मोन के पूर्ववर्ती प्रोटीन्स में कटान स्थल दर्शाती हैं। विचार यह बना कि इन स्थलों पर काटने से ग्लूकागोन भी मुक्त होगा और वह दूसरा पेप्टाइड भी।

इसके अगले वर्ष चिरॉन कॉर्पोरेशन (Chiron Corporation) के ग्रेम बेल ने पाया कि हैमस्टर का ग्लूकागोन जीन भी फिश पेप्टाइड के एक अन्य संस्करण को कोड करता है – इसे उन्होंने नाम दिया ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1)। आगे चलकर मनुष्यों तथा अन्य स्तनधारियों में भी ऐसे ही परिणाम मिले।

एक उपेक्षित चरण

स्वेतलाना मोजसोव ने ग्लूकागोन की क्रियाविधि का अध्ययन करने के लिए बड़ी मात्रा में इसके निर्माण के प्रयास में इस हॉर्मोन की संरचना का विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने प्रोटीन संश्लेषण की एक नई विधि का उपयोग किया जो शुद्ध पदार्थ की पर्याप्त मात्रा बनाने के लिए पसंदीदा विधि बन चुकी थी।

1983 के आसपास मोजसोव ने मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में जीएलपी-1 के काम को आगे बढ़ाया। 1990 के दशक की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि आंतों में उपस्थित कतिपय पदार्थ पैंक्रियास को यह हॉर्मोन बनाने को उकसाते हैं। 1964 में किए गए प्रयोगों में यह देखा गया था कि यदि ग्लूकोज़ को मुंह से लिया जाए तो वह ज़्यादा इंसुलिन उत्पादन को प्रेरित करता है बनिस्बत उसे इंजेक्शन के माध्यम से लेने पर। निष्कर्ष यह था कि आंतों में उपस्थित कोई चीज़ इंसुलिन स्राव को प्रेरित करती है। इन पदार्थों को इंक्रेटिन कहते हैं। उस समय तक ऐसे इंक्रेटिन्स की पहचान नहीं हो पाई थी। अब जीएलपी-1 एक उम्मीदवार के रूप में उभरा क्योंकि यह एक ऐसे हॉर्मोन (glucagon) से मेल खाता है जो रक्त-शर्करा के स्तर को प्रभावित करता है।

जीएलपी-1 के लिए 37 अमीनो अम्लों (amino acids) की शृंखला सुझाई गई थी और उन अमीनो अम्लों के अनुक्रम की भविष्यवाणी भी कर दी गई थी। यदि अलग-अलग प्रोटीन्स में एक से अमीनो अम्ल एक-से स्थानों पर पाए जाएं, तो माना जाता है कि वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। लेकिन जीएलपी-1 की शृंखला की शुरुआत में ऐसे अमीनो अम्ल पाए गए थे जो ग्लूकागोन में नहीं पाए जाते। जीएलपी-1 में पोज़ीशन 6 पर आर्जिनीन था। आर्जिनीन को जाने-माने मानव एंज़ाइमों द्वारा काटा जाता है। यदि इन प्रथम 6 अमीनो अम्लों को काटकर अलग कर दिया जाए तो शेष पेप्टाइड 37 नहीं बल्कि 31 अमीनो अम्ल लंबा होगा और यह ग्लूकागोन कुल के सदस्यों से पूरी तरह मेल खाएगा। मोजसोव ने यह पता करने के प्रयास शुरू कर दिए कि क्या जीएलपी-1 का लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] जीएलपी-1 के लंबे संस्करण [GLP-1 (1-37)] से मुक्त होकर उस अज्ञात इंक्रेटिन की भूमिका निभा सकेगा। इसके लिए उन्होंने दोनों शुद्ध पेप्टाइड का बड़ी मात्रा में संश्लेषण एक ही मिश्रण में किया। उन्होंने ऐसी एंटीबॉडीज़ भी बनाईं जो एक साझा स्थान पर इन दोनों पेप्टाइड्स से जुड़ें – अर्थात वे दोनों संस्करणों को पहचानने में मददगार थीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने मिश्रण में से GLP-1 (1-37) और GLP-1 (7-37) को अलग-अलग करने का तरीका भी खोज निकाला। अंतत: वे सक्रिय पेप्टाइड को पहचान पाईं।

इसके बाद मोजसोव ने पेप्टाइड्स(peptides) को रेडियोधर्मी (radioactive) परमाणुओं से चिंहित किया और फिर जीएलपी-1 एंटीबॉडीज़ की मदद से यह पता किया कि क्या जीएलपी-1 जंतुओं में दिखाई देता है। इसके बाद उन्होंने पेप्टाइड्स को अलग-अलग करके यह स्थापित किया कि लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] ही प्रमुख अंश है। यही आंतों में पाया जाता है।

मोजसोव और हेबनर द्वारा चूहों पर किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि लघु संस्करण GLP-1 (7-37) ही कार्यिकीय रूप से प्रासंगिक पेप्टाइड है।

तब हेबनर और मोजसोव ने मनुष्यों पर अध्ययन शुरू किए। पाया गया कि GLP-1 (7-37) इंसुलिन स्राव को उकसाता है और रक्त शर्करा का स्तर कम करता है। इसके डायबिटीज़ में उपयोग का रास्ता खुल गया।

वसा अम्ल (fatty acid), मोटापे में संभावनाएं

डायबिटीज़ के अलावा मोटापे से निपटने में जीएलपी-1 की भूमिका को लेकर नडसन पहले से सोच रहे थे। 1996 में एक शोध पत्र में बताया गया था कि चूहों के मस्तिष्क में जीएलपी-1 का इंजेक्शन लगाने पर उनका भोजन लेना एकदम से कम हो गया। शोध पत्र का निष्कर्ष था कि यह पेप्टाइड तृप्ति का संदेश देता है।

दिक्कत यह थी कि इंसानों में रक्त संचार में प्रवेश करने के मिनटों के अंदर जीएलपी-1 गायब हो जाता है। एक एंज़ाइम डीपीपी-4 इसे नष्ट कर देता है। बाकी बचे जीएलपी-1 को गुर्दे बाहर निकाल देते हैं। एक औषधि के रूप में इस्तेमाल करने के लिए इसे इन प्रक्रियाओं से बचाना होगा। 

अंतत: रणनीति यह बनी कि जीएलपी-1 के साथ वसा अम्ल जोड़ दिए जाएं। ये वसा अम्ल रक्त संचार में काफी मात्रा में उपस्थित एलब्यूमिन नामक प्रोटीन से कुदरती रूप से जुड़ जाते हैं। एलब्यूमिन पदार्थों को पूरे शरीर में पहुंचाता है। नडसन का विचार था कि एलब्यूमिन जीएलपी-1 को रक्त संचार में ढोएगा और उसे डीपीपी-4 द्वारा विनाश से तथा गुर्दों द्वारा निष्कासन से भी बचाकर रखेगा।

नडसन की टीम ने कई सारे अलग-अलग जीएलपी-1 समरूप बनाए। अंतत: वे लिराग्लुटाइड नामक एक पदार्थ तक पहुंचे। इसका अर्ध जीवन काल 1.2 घंटे से बढ़ाकर 13 घंटे किया जा सका और 2010 में 1300 डायबिटीज़ टाइप-2 मरीज़ों के एक क्लीनिकल परीक्षण में इसका प्रदर्शन अच्छा रहा और साइड प्रभाव न्यूनतम रहे। 2009 में युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और 2010 में यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने लिराग्लूटाइड को अनुमति दे दी।

इसी दौरान इस बात के प्रमाण भी मिलने लगे थे कि जीएलपी-1 भूख कम करता है और वज़न घटाता है। एक महत्वपूर्ण अध्ययन में देखा गया कि डायबिटीज़-मुक्त लेकिन मोटे व अधिक वज़न वाले लोगों में लिराग्लूटाइड देने पर एक वर्ष में साढ़े पांच किलोग्राम तक वज़न कम हुआ। अंतत: इसे भी मंज़ूरी मिल गई। कोशिश यह चल रही थी कि दवा शरीर में ज़्यादा देर तक बनी रहे ताकि प्रतिदिन एक गोली की बजाय कम बार लेनी पड़े।

काफी मशक्कत के बाद एक ऐसा अणु मिल गया जो शरीर में पूरे 165 घंटे तक बना रहता था। इसे नाम मिला सेमाग्लूटाइड। इसे 2017 में डायबिटीज़ के उपचार के लिए तथा 2021 में मोटापे के इलाज के लिए अनुमति मिली। लिराग्लूटाइड के मुकाबले सेमाग्लूटाइड का असर लगभग दुगना होता है। परीक्षण के दौरान 16 महीने में प्रतिभागियों के वज़न में 12 किलोग्राम की कमी देखी गई और साइड प्रभाव न के बराबर देखे गए। लिराग्लूटाइड और सेमाग्लूटाइड ने नई दवाइयों का मार्ग प्रशस्त किया है।

मज़ेदार बात यह है कि जीएलपी-1 का डायबिटीज़ सम्बंधी असर तो पैंक्रियास पर होता है लेकिन भूख कम करने के असर को मस्तिष्क में देखा जा सकता है। इस असर की क्रियाविधि को समझने के प्रयास जारी हैं। यह भी बताया जा रहा है कि शायद यह औषधि कई अन्य बीमारियों में भी कारगर हो सकती है। जैसे जीर्ण गुर्दा रोग, फैटी लीवर रोग, अल्ज़ाइमर व पार्किंसन रोग तथा व्यसन सम्बंधी दिक्कतें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हड्डियों के विश्लेषण से धूम्रपान आदतों की खोज

हालिया अध्ययन में सदियों पुरानी हड्डियों (bones) का सूक्ष्म विश्लेषण कर धूम्रपान (smoking) करने वालों की पहचान की गई है। ये नतीजे इंग्लैंड (England) में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान तम्बाकू सेवन की आश्चर्यजनक जानकारी देते हैं कि न केवल पुरुष, बल्कि महिलाएं और समाज के सभी वर्गों के लोग तम्बाकू (tobacco) सेवन किया करते थे। 

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह उल्लेख तो मिलता था कि 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड में धूम्रपान एक आम आदत थी – हर वर्ग के पुरुष तम्बाकूपान (tobacco consumption) करते थे। यहां तक कि मांग को पूरा करने के लिए अमेरिका (America) से भारी मात्रा में तम्बाकू आयात होती थी। लेकिन धूम्रपान के पुरातात्विक साक्ष्य दुर्लभ हैं। क्योंकि पहचान के पारंपरिक तरीके दांतों के घिसाव (teeth wear) और मिट्टी के पाइप जैसे सुरागों पर निर्भर थे, लेकिन खुदाई में सलामत बत्तीसी वाले कंकाल और पाइप बहुत ही कम मिले हैं। और कंकाल से फेफड़ों की क्षति का भी पता नहीं चलता। फिर, यह भी ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति धूम्रपान करके ही तम्बाकू सेवन करता हो, नसवार या खैनी भी तम्बाकू सेवन का माध्यम हो सकते हैं।  

इसलिए साइंस एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित इस अध्ययन में मानव हड्डियों में तम्बाकू के रासायनिक हस्ताक्षर (chemical signatures) पता लगाने के लिए मेटाबोलोमिक्स (metabolomics) का उपयोग किया गया। मेटाबोलोमिक्स का मतलब होता है कि शरीर में भोजन, दवाइयों व अन्य पदार्थों के पाचन से उत्पन्न पदार्थों का विश्लेषण। शोधकर्ताओं ने तरल क्रोमेटोग्राफी (liquid chromatography) की मदद से हड्डियों से चयापचय पदार्थ अलग किए। ये रासायनिक उप-उत्पाद (chemical byproducts) हैं और तम्बाकू जैसे पदार्थों को पचाने के बाद शरीर में बने रहते हैं। फिर उन्होंने इंग्लैंड में तम्बाकू के आने से पहले की हड्डियों और बाद की हड्डियों की तुलना करके रासायनिक अंतरों से उन लोगों की पहचान की जिन्होंने तम्बाकू सेवन किया था। विश्लेषण किए गए 323 से अधिक कंकालों में से आधे से अधिक नमूनों में लंबे समय तक तम्बाकू सेवन के प्रमाण मिले हैं। ये आंकड़े वर्तमान ब्रिटेन (Britain)  में धूम्रपान दर से चार गुना अधिक हैं।

हालांकि ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि विक्टोरिया युग (1830 से 1900) में धूम्रपान मुख्यत: पुरुष करते थे, इसमें बहुत कम महिलाओं का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह अध्ययन स्पष्ट करता है कि विक्टोरियन महिलाएं (Victorian women), यहां तक कि अमीर घरानों की महिलाएं, भी अक्सर धूम्रपान करती थीं। गरीब महिलाएं धूम्रपान के लिए सस्ते मिट्टी के पाइप का इस्तेमाल करती थीं जिससे उनके दांतों में गड्ढे बन जाते थे, वहीं अमीर महिलाएं एम्बर, लकड़ी या हड्डी से बने पाइप का इस्तेमाल करती थीं। ऐसे पाइप दांतों पर कोई स्पष्ट निशान नहीं छोड़ते। इससे यह समझा जा सकता है कि पिछले अध्ययनों में महिलाओं की धूम्रपान आदतें क्यों अनदेखी रहीं। शोध से स्पष्ट है कि तम्बाकू सेवन सभी सामाजिक वर्गों में आम था।

चूंकि ये चयापचय जनित पदार्थ लाखों वर्षों तक हड्डियों में बने रह सकते हैं, यह तकनीक प्राचीन मनुष्यों के व्यवहार (behavior) जैसे उनके आहार, मादक सेवन या तपेदिक जैसी बीमारियों को उजागर करने में मदद कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फोर्टिफाइड चावल से चेतावनी हटाने के निर्णय को चुनौती

पिछले कुछ वर्षों से देश की राशन दुकानों (ration shops) पर और आंगनवाड़ियों (Anganwadis) में जो चावल मिलता है उसमें कई पोषक तत्व मिलाए जाते हैं। इसे फोर्टिफाइड चावल (fortified rice) कहते हैं। इनमें एक पोषक तत्व लौह (iron) भी होता है। वर्ष 2022 में शुरू की गई इस योजना के संदर्भ में 2023 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में चिंता व्यक्त की गई थी कि थैलेसीमिया (thalassemia) और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) जैसे हीमोग्लोबीन सम्बंधी कुछ रोगों के रोगियों के लिए लौह का अतिरिक्त सेवन नुकसानदायक हो सकता है। तब फैसला यह हुआ था कि भारतीय खाद्य सुरक्षा व मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India, FSSAI) ऐसे फोर्टिफाइड चावल के पैकेट्स पर यह चेतावनी चस्पा करेगा कि थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित लोग इस चावल का सेवन न करें। दरअसल, खाद्य सुरक्षा व मानक (खाद्य पदार्थों का समृद्धिकरण) नियमन 2018 के मुताबिक ऐसे लोगों के लिए लौह का सेवन प्रतिबंधित है। विश्व भर से प्राप्त प्रमाण भी इस प्रतिबंध का समर्थन करते हैं। 

थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) से पीड़ित लोगों को अतिरिक्त लौह के सेवन से लिवर सिरोसिस (liver cirrhosis), कार्डियोमायोपैथी (cardiomyopathy), हृदय की नाकामी (heart failure), हायपोगोनेडिज़्म (hypogonadism), डायबिटीज़ (diabetes) और विलंबित यौवनारंभ जैसी दिक्कतों का जोखिम होता है। ऑनलाइन याचिका में लौह के अतिरेक से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं (health risks) को लेकर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों का ज़िक्र भी किया गया है। 

फिलहाल लौह-फोर्टिफाइड चावल पर यह चेतावनी होती है कि ‘लौह-फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थ का सेवन थैलेसीमिया पीड़ित (thalassemia patients) व्यक्तियों को चिकित्सकीय देखरेख के तहत और सिकल सेल एनीमिया पीड़ितों को नहीं करना चाहिए।’ अब प्रस्ताव यह आया है कि यह चेतावनी हटा दी जाए। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research, ICMR) की एक समिति ने इसकी सिफारिश की है और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने खाद्य सुरक्षा एवं मानक (खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन) नियमन में संशोधन हेतु 18 सितंबर को एक मसौदा भी जारी किया है। 

इस प्रस्ताव ने व्यापक स्तर पर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं (health concerns) को जन्म दिया है। इस प्रस्ताव के विरुद्ध एक ऑनलाइन अभियान (online campaign) शुरू किया गया है। ऑनलाइन याचिका के मुताबिक यह चेतावनी व्यापक वैज्ञानिक विचार-विमर्श के उपरांत शामिल की गई थी। याचिका कहती है कि यह वैधानिक परामर्श सर्वप्रथम 2018 में काफी वैज्ञानिक विचार-विमर्श के बाद जोड़ा गया था। 

याचिका में स्पष्ट कहा गया है कि सामान्य परिस्थिति में भी कुपोषण (malnutrition) की समस्या के इलाज के रूप में फोर्टिफिकेशन (fortification) को बढ़ावा देना प्रमाण सम्मत नहीं है। एनीमिया (anemia) के प्रबंधन में लौह-फोर्टिफिकेशन अनावश्यक है और असरहीन है। कारण यह है कि एनीमिया सिर्फ लौह तत्व की कमी (iron deficiency) से नहीं होता, इसके कई अन्य कारण भी हैं। जैसे, फोलेट, विटामिन बी-12 (vitamin B12) की कमी, संक्रमण (infections) वगैरह। 

कोक्रेन अध्ययन (Cochrane studies) जैसे विश्वसनीय अध्ययनों का भी निष्कर्ष है कि सामान्य फोर्टिफिकेशन के लाभ अनिश्चित व अस्पष्ट हैं। स्वयं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि ‘एनीमिया में सुधार की दृष्टि से लौह-फोर्टिफाइड चावल और मध्यान्ह भोजन बराबर प्रभावी थे।’ 

इन निष्कर्षों के प्रकाश में उन लोगों को लौह फोर्टिफाइड चावल देना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता, जिनमें इसकी वजह से दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। जैसे सिकल सेल एनीमिया या थैलेसीमिया पीड़ित लोगों में अतिरिक्त लौह तत्व का सेवन न सिर्फ डायबिटीज़ का ज़ोखिम बढ़ा सकता है बल्कि अन-अवशोषित लौह की वजह से आंतों में सूक्ष्मजीवी असंतुलन (gut microbiota imbalance) को भी जन्म दे सकता है। 

भारत सरकार के खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग (Department of Food and Public Distribution) का एक अध्ययन भी बताता है कि कभी-कभी खाद्य पदार्थों में लौह का फोर्टिफिकेशन हीमोक्रोमेटोसिस (hemochromatosis) पीड़ित व्यक्तियों में लौह-अतिरेक पैदा कर सकता है। इसलिए लौह के अतिरिक्त सेवन की निगरानी किसी भी फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए। विभिन्न देशों में किए गए अध्ययन भी ऐसे ही परिणाम दर्शाते हैं। 

वैसे, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की जिस समिति को स्वास्थ्य चेतावनी पर सलाह देने के लिए गठित किया गया था, उसका कहना है कि अन्य देशों में भी ऐसी चेतावनी नहीं होती और विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization, WHO) भी ऐसी किसी चेतावनी का समर्थन नहीं करता। लेकिन याचिका में स्पष्ट किया गया है कि अन्य देशों में भी उपयुक्त लेबल (labeling) लगाए जाते हैं ताकि मरीज़ सोच-समझकर निर्णय कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बुनियादी चिकित्सा अनुसंधान के लिए लास्कर पुरस्कार

डॉ. सुशील जोशी

2024 के लिए बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार (Albert Lasker Award) टेक्सास विश्वविद्यालय (University of Texas) के साउथवेस्टर्न मेडिकल सेंटर के ज़िजियान ‘जेम्स’ चेन को दिया गया है। चेन ने अपने प्रयोगों से इस बाबत बुनियादी समझ विकसित की है कि आसपास फैले रोगजनक (pathogens) के बीच हमारा शरीर सुरक्षित कैसे रहता है। इस समझ के औषधीय महत्व जो भी हों, लेकिन इसने प्रतिरक्षा (immune system) को समझने में बहुत मदद की है। 

उन्होंने इस बात का खुलासा किया है कि आनुवंशिक पदार्थ डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immune response) और शोथ (inflammation) को कैसे उकसाता है। उन्होंने दर्शाया है कि cGAS एंजाइम (cGAS enzyme) उस क्रियाविधि का प्रमुख घटक होता है जिसका उपयोग स्तनधारी प्राणी सूक्ष्मजीवी घुसपैठियों से निपटने में करते हैं और यही एंज़ाइम ट्यूमर-रोधी प्रतिरक्षा (anti-tumor immunity) को भी बढ़ावा देता है। अलबत्ता, कभी-कभी cGAS की अनुपयुक्त सक्रियता स्व-प्रतिरक्षा एवं शोथ सम्बंधी समस्याओं को भी जन्म देती है। 

डीएनए की विविध भूमिकाएं

वैसे तो पाठ्यपुस्तकों में बताया जाता है कि डीएनए (DNA) जेनेटिक सूचनाओं का वाहक होता है। लेकिन सच्चाई यह है कि यही डीएनए कई अन्य कार्यों को भी अंजाम देता है। सामान्यत: जंतुओं में डीएनए उनकी कोशिकाओं के केंद्रकों (nucleus) या माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) में बंद होता है। जब डीएनए इन कोशिकांगों के बाहर – यानी कोशिका द्रव्य में – मिले तो वह एक चेतावनी होती है कि या तो कोई सूक्ष्मजीवी मेहमान (microbial invader) कोशिका में पहुंच गया है या दुर्दम (malignant) कोशिकाएं उपस्थित हैं या कोई अन्य रोग-सम्बंधी स्थिति बन रही है। 

जैसे, 1908 में नोबेल विजेता इल्या मेक्निकोव ने कहा था कि डीएनए सूक्ष्मजीवों को दूर रखने के लिए ‘भक्षी कोशिकाओं’ (phagocytes) की रक्षात्मक फौज तैनात कर लेता है। लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि यह काम होता कैसे है। इस कोशिकीय फौज में मूलत: जन्मजात (innate) प्रतिरक्षा तंत्र के घटक होते हैं। ये रोगजनक (pathogen) को देखते ही उसे निपटा देते हैं। साथ ही साथ ये अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र की बी कोशिकाएं (B cells) व टी कोशिकाएं (T cells) को सक्रिय कर देते हैं जो आगे की कार्रवाई करती हैं और जो कुछ देखती हैं उसे ‘याद’ रखती हैं। 

2006 में शोधकर्ताओं ने दर्शाया कि यदि स्तनधारी कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में दोहरे सूत्र वाला यानी डबल स्ट्रेंडेड डीएनए (dsDNA) [double-stranded DNA] प्रविष्ट कराया जाए, तो उनमें जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र [innate immune system] के घटकों की मात्रा में खूब वृद्धि हो जाती है। इन अणुओं में टाइप-1 इंटरफेरॉन (जैसे इंटरफेरॉन-β) शामिल होते हैं।

इस खोज के साथ ही कोशिका द्रव्य में dsDNA की शिनाख्त करके टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] का निर्माण शुरू करवाने वाले अणु की खोज शुरू हो गई। 2008 में अंततः दो शोधकर्ताओं ने स्वतंत्र रूप से इंटरफेरॉन उत्पादन मार्ग [interferon pathway] के एक प्रमुख अणु की खोज कर ली। इस प्रोटीन को स्टिम्यूलेटर ऑफ इंटरफेरॉन जीन्स (स्टिंग) [STING – Stimulator of Interferon Genes] नाम दिया गया। अगले ही वर्ष पता चला कि इस प्रक्रिया की शुरुआत डीएनए करवाता है। एक दिक्कत यह थी कि पूरी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण होते हुए भी स्टिंग स्वयं dsDNA से नहीं जुड़ता।

इसके बाद शुरू हुई अत्यंत कल्पनाशील प्रयोगों की एक शृंखला – ज़िजियान ‘जेम्स’ चेन के नेतृत्व में। चेन ने इस काम में जो तरीका अपनाया उसकी खासियत थी कि वे संभावित ग्राही [receptor] की पहचान या गुणों को लेकर कोई मान्यता लेकर नहीं चले थे। वे तो सिर्फ एक ऐसे अणु की खोज में लगे थे जो वांछित कार्य – स्टिंग को सक्रिय करना [activating STING] – को अंजाम देता हो।

सबसे पहले तो उन्होंने कुछ चूहों की कोशिकाओं में स्टिंग को समाप्त कर दिया ताकि वे मात्र उसको सक्रिय करने वाले अणुओं को देख सकें, उसके बाद बनने वाले अणुओं को नहीं। dsDNA को इन स्टिंग-रहित कोशिकाओं [STING-deficient cells] में डाला गया और उसमें उपस्थित पदार्थों की जांच की। इस पदार्थ को उन्होंने अन्य कोशिकाओं में डाला और उनमें स्टिंग-सक्रियता [STING activation] का मापन किया। मापन के लिए उन्होंने एक ऐसे प्रोटीन की स्थिति को देखा जो स्टिंग के द्वारा निर्मित किया जाता है – IRF3 जो इंटरफेरॉन-β नियमनकर्ता है।

उन कोशिकाओं से प्राप्त पदार्थ ने IRF3 का निर्माण करवाया। इससे चेन व साथियों को समझ में आ गया कि वे जिस पदार्थ की खोज कर रहे हैं, वह स्टिंग-रहित कोशिकाओं [STING-deficient cells] से प्राप्त मिश्रण में मौजूद है। उन्होंने इस मिश्रण के घटकों को अलग-अलग किया। पृथक्करण से उन्हें मनचाहा रसायन मिल ही गया।

आगे विश्लेषण से इस पदार्थ की पहचान हो गई – यह सायक्लिक GMP-AMP (cGAMP) [cyclic GMP-AMP] किस्म का यौगिक था। इस तरह के अणु स्तनधारी कोशिकाओं में पहले कभी नहीं देखे गए थे। इस अणु में दो न्यूक्लिओटाइड [nucleotides] (गुआनोसीन मोनो फॉस्फेट – GMP और एडिनोसीन मोनो फॉस्फेट- AMP) आपस में एक वृत्त के रूप में जुड़ जाते हैं। चेन ने यह खोज 2012 में प्रकाशित की थी और बताया था कि cGAMP में स्टिंग को सक्रिय करने के लिए समुचित गुण होते हैं। इस अणु का एक संश्लेषित संस्करण संवर्धित स्तनधारी कोशिकाओं में इंटरफेरॉन-β के निर्माण को प्रेरित करता है। यह भी देखा गया कि cGAMP का उत्पादन तभी बढ़ता है जब स्तनधारी कोशिका में किसी डीएनए वायरस [DNA virus] का संक्रमण हुआ हो, जबकि आरएनए वायरस [RNA virus] संक्रमित कोशिकाओं में ऐसा नहीं होता। इन प्रयोगों के आधार पर चेन का निष्कर्ष था कि कोशिका द्रव्य में डीएनए की उपस्थिति से एक प्रक्रिया शुरू होती है – cGAMP प्रकट होता है जो स्टिंग को उकसाता है, स्टिंग IRF3 को टाइप-1 इंटरफेरॉन व सम्बंधित जीन्स को सक्रिय करने को धकेलता है।

इतना हो जाने के बाद चेन यह जानना चाहते थे कि वह कौन-सा एंज़ाइम है जो cGAMP का निर्माण करवाता है। इसके लिए उन्होंने ऐसी कोशिकाएं लीं जो डीएनए [DNA] के उकसावे पर cGAMP बनाती हों। इनका चूर्ण बनाकर उनके घटकों को अलग-अलग कर लिया। फिर हर नमूने का परीक्षण किया कि क्या वह डीएनए की उपस्थिति में cGAMP बनवा सकता है। ऐसा कई बार करने के बाद चेन को तीन ऐसे प्रोटीन मिले जिनकी मात्रा उन नमूनों में अधिक होती थी जिनमें एंज़ाइम की सक्रियता भी सबसे अधिक दिखती थी। 

इन तीन प्रोटीन में से एक का अनुमानित अमीनो अम्ल अनुक्रम खास तौर से रोमांचक था। यह एक अन्य एंज़ाइम 2´-5´-ओलिगोएडिनायलेट सिंथेज़ से मिलता-जुलता था। यह एंज़ाइम सायक्लिक AMP [cyclic AMP] का निर्माण करवाता है। गौरतलब है कि सायक्लिक AMP एक संकेतक अणु है। चेन का तर्क था कि यह नया-नया खोजा गया प्रोटीन लगभग एडिनायलेट सायक्लेज़ [adenylate cyclase] के समान का काम करेगा; अंतर सिर्फ इतना होगा कि यह दो ATP को जोड़ने की बजाय एक GTP और एक ATP को जोड़कर cGAMP का निर्माण करवाएगा। 

तब चेन ने इस प्रोटीन के लिए ज़िम्मेदार जीन पृथक किया जिसे उन्होंने नाम दिया है – GMP-AMP सिंथेज़ (cGAS) [GMP-AMP synthase]. वे यह भी दर्शा पाए कि cGAS का अति-उत्पादन उन कोशिकाओं में इंटरफेरॉन-β [interferon-beta] के निर्माण को प्रेरित करता है जिनमें स्टिंग [STING] उपस्थित हो। लेकिन स्टिंग न हो तो इसका कोई असर नहीं होता। यह भी देखा गया है कि इसके उन हिस्सों को बदल दिया जाए जो उत्प्रेरण के लिए महत्वपूर्ण हैं तो यह अपनी क्षमता गंवा देता है। 

तरह-तरह से चेन ने दर्शाया है कि मानव तथा चूहा कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में डीएनए या वायरल डीएनए [viral DNA] से संपर्क होने पर cGAMP के निर्माण तथा इंटरफेरॉन-β को उकसाने के लिए cGAS की उपस्थिति अनिवार्य है। वे यह भी पता लगा पाए हैं कि cGAS डीएनए से जुड़ जाता है और आगे की क्रियाएं संपन्न करवाता है। 

कोशिका द्रव्य में डीएनए कई स्रोतों से आ सकता है। जैसे किसी सूक्ष्मजीव [microorganism] के साथ या केंद्रक अथवा माइटोकॉण्ड्रिया [mitochondria] में से रिसाव के कारण। कोशिका द्रव्य में उपस्थित डीएनए cGAS से जुड़ जाता है और cGAMP का उत्पादन शुरू करवा देता है। यह cGAMP स्टिंग के ज़रिए TANK-बाइंडिंग काइनेज़ (TBK1) तथा IκB काइनेज़ नामक एंज़ाइमों को सक्रिय कर देता है। इसके बाद दो अन्य एंज़ाइम सक्रिय हो जाते हैं और दोनों केंद्रक में पहुंचकर शोथ को बढ़ावा देने वाले जीन्स को सक्रिय कर देते हैं। इनमें टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] का जीन भी होता है जो जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली [innate immune system] को उकसाता है। यह प्रतिक्रिया रोगजनक सूक्ष्मजीवों [pathogens] से तो बचाव करती है लेकिन कुछ मामलों में स्व-प्रतिरक्षा तकलीफों और शोथ सम्बंधी गड़बड़ियों का भी कारण बन सकती है। 

चेन के इस काम ने एक नया अनुसंधान क्षेत्र खोल दिया। कुछ ही महीनों में चेन व अन्य वैज्ञानिकों ने cGAS की संरचना का खुलासा किया और यह भी पता कर लिया कि डीएनए उसे सक्रिय कैसे करता है। यह भी स्पष्ट हुआ कि cGAMP कैसे स्टिंग को सक्रिय कर देता है।

अपने काम को आगे बढ़ाते हुए चेन ने यह भी स्पष्ट किया कि cGAS→cGAMP→STING क्रियामार्ग सिर्फ डीएनए वायरसों [DNA viruses] को ही नहीं ताड़ता बल्कि एच.आई.वी. [HIV] जैसे रिट्रोवायरसों को भी ताड़ लेता है। रिट्रोवायरसों की जेनेटिक सामग्री डीएनए [DNA] के रूप में नहीं बल्कि आरएनए [RNA] के रूप में होती है। मेज़बान कोशिका में प्रवेश के बाद वायरस के आरएनए को डीएनए में बदला जाता है। वैसे तो ये रिट्रोवायरस जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र को चकमा देने के लिए बदनाम हैं लेकिन कुछ फेरबदल एच.आई.वी. को इस तरह बदल सकते हैं कि वह टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] व अन्य सम्बंधित अणुओं की हलचल पैदा कर सकता है। इनमें एक तरीका यह है कि वायरस के आवरण (कैप्सिड) को कमज़ोर बना दिया जाए। चेन ने दर्शाया कि कतिपय परिस्थितियों में cGAS एच.आई.वी. व अन्य रिट्रोवायरसों को भी ताड़ सकता है। इससे यह आशा पैदा हुई है कि cGAMP के उपयोग से एच.आई.वी. द्वारा प्रतिरक्षा तंत्र को चकमा देने की समस्या से बचाव संभव होगा। 

चेन ने इन प्रयोगों को परखनलियों के अलावा वास्तविक जंतुओं में भी करके देखा। पता चला कि डीएनए वायरस [DNA viruses] से संक्रमित करने पर cGAS-रहित कृंतकों में इंटरफेरॉन [interferon] आधारित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया निहायत कमज़ोर रही और अधिकांश मारे गए जबकि जिन चूहों में cGAS सामान्य मात्रा में था, उनकी प्रतिरक्षा अधिक सुदृढ़ रही। cGAMP इंजेक्शन [cGAMP injection] ने भी अच्छा असर दिखाया। इसका अर्थ है कि यह अणु एंटीबॉडी [antibodies] और टी-कोशिका प्रतिक्रिया [T-cell response] को सुदृढ़ करता है। 

धीरे-धीरे स्पष्ट हुआ है कि cGAS जंतुओं में डीएनए वायरस को ताड़कर जन्मजात प्रतिरक्षा को शुरू करवाता है। इस समझ के आधार पर न सिर्फ सूक्ष्मजीवी संक्रमण [microbial infections] के खिलाफ लड़ाई के रास्ते खुले हैं बल्कि कैंसर से रक्षा [cancer protection] की आशा भी जगी है। 

शोथ को बढ़ावा 

यह सही है कि जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र [innate immune system] घुसपैठियों से निपटकर फायदा पहुंचाती है लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष तब सामने आता है जब शरीर स्वयं पर आक्रमण करने लगता है। वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इसका कारण एक एंज़ाइम Trex1 में गड़बड़ी से है। यह एंज़ाइम कोशिका द्रव्य में पाए गए डीएनए को नष्ट कर देता है। इन्हें स्व-प्रतिरक्षी रोग [autoimmune diseases] कहते हैं। इन रोगों में इंटरफेरॉन-प्रेरित जीन्स [interferon-induced genes] की अति सक्रियता देखी गई है। 

इन अध्ययनों से पता चलता था कि कोशिका द्रव्य में पाए गए डीएनए को नष्ट करने में असमर्थता इंटरफेरॉन क्रियामार्ग [interferon pathway] को सक्रिय कर देती है। जिन चूहों में Trex1 जीन नहीं होता उनमें इंटरफेरॉन-प्रेरित जीन अति-उत्तेजित हो जाता है और वे गंभीर शोथ के कारण जल्दी मर जाते हैं। 

इस मामले में चेन ने 2015 में दर्शाया कि Trex1 विहीन चूहों में cGAS एंज़ाइम को हटा देने पर Trex1 की अनुपस्थिति के जानलेवा असर समाप्त हो जाते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि Trex1 की अनुपस्थिति में cGAS एंज़ाइम ही जानलेवा असर का पैदा करता है और यदि cGAS को रोक दिया जाए तो कुछ स्व-प्रतिरक्षा रोगों से बचाव हो सकता है। 

स्व-प्रतिरक्षा तकलीफों के अलावा cGAS को शोथ सम्बंधी बीमारियों [inflammatory diseases] में भी लिप्त पाया गया है। इनमें उम्र के साथ आंखों में मैक्यूलर ह्रास [macular degeneration], पार्किंसन [Parkinson’s], अल्ज़ाइमर [Alzheimer’s], और एमायोट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS) जैसे रोग शामिल हैं। लिहाज़ा, cGAS→cGAMP→STING क्रियामार्ग को बाधित करके संभवत: इन रोगों पर काबू पाया जा सकेगा। 

इन संभावनाओं के मद्देनज़र कई दवा कंपनियां cGAS को बाधित करने के लिए दवाइयों की खोज में जुट गई हैं। लेकिन इस पक्ष पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि cGAS ही प्रतिरक्षा की प्रथम पंक्ति को तैनात करवाता है एवं ट्यूमर-रोधी प्रतिरक्षा [tumor immunity] में भी योगदान देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भूमध्य सागर सूखने पर जीवन उथल-पुथल हुआ था

अपने सुंदर समुद्र तटों के लिए लोकप्रिय भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व पूरी तरह से सूख गया था। ‘भूमध्यसागर लवणीयता संकट’ (Mediterranean salinity crisis) के रूप मशहूर इस घटना ने इस क्षेत्र में लगभग सभी समुद्री जीवन (marine life) को मिटा दिया और नमक की एक मोटी परत छोड़ दी। इसके परिणामस्वरूप क्षेत्र की जैव विविधता (biodiversity) गंभीर रूप से प्रभावित हुई। 

इस घटना के साक्ष्य पहली बार 1970 के दशक में उजागर हुए जब भूवैज्ञानिकों (geologists) ने समुद्र तल की खुदाई में बड़े पैमाने पर नमक जमा पाया। विशेषज्ञों के अनुसार, 60 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी की महाद्वीपीय प्लेटें खिसकने के कारण भूमध्य सागर अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) से अलग हो गया, जिसके बाद लगभग 6 लाख वर्षों में समुद्र सूख गया। नतीजतन, कोरल रीफ (coral reef) और मछली प्रजातियों से संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) लगभग नमक का बंजर रेगिस्तान बन गया। इस संकट ने समुद्री जीवन को काफी प्रभावित किया, भूमध्य सागर की जैव विविधता को हमेशा के लिए बदल डाला। 

भूविज्ञानी कॉन्स्टेन्टिना अगियादी और उनकी टीम द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययन ने इस विलुप्ति की घटना और उसके बाद की बहाली के बारे में नई जानकारी प्रदान की है। उन्होंने संग्रहालयों में उपलब्ध 1.2 करोड़ से 35 लाख वर्ष पुराने 23,000 से अधिक जीवाश्मों (fossils) का विश्लेषण किया, जिससे 1755 वंशों (genera) की 4903 प्रजातियों का पता चला जो कभी भूमध्य सागर में निवास करती थीं। इस शोध से एक गंभीर तस्वीर सामने आई है: जीवंत कोरल रीफ सहित लगभग 800 प्रजातियां (species) पूरी तरह से विलुप्त हो गईं। केवल सार्डीन और मैनेटिज़ (sardines and manatees) जैसी समुद्री स्तनधारियों (marine mammals) की केवल 86 प्रजातियां इस आपदा से बच पाईं। 

लगभग 50,000 वर्षों के बाद, टेक्टोनिक प्लेटों (tectonic plates) के विचरण ने भूमध्य सागर को अटलांटिक से फिर से जोड़ दिया और समुद्र का पानी सूखे हुए बेसिन में वापस बहने लगा। लगभग 2700 प्रजातियां इस क्षेत्र में पुनः आबाद हो गईं। हालांकि, वे सभी प्रजातियां वापस नहीं पनप सकीं जो पहले यहां रहा करती थीं। आजकल की प्रजातियों में नई प्रजातियां अधिक हैं, जैसे ग्रेट व्हाइट शार्क (great white shark), डॉल्फिन (dolphin) वगैरह। 

इस घटना ने जैव विविधता पैटर्न (biodiversity patterns) में भी दीर्घकालिक बदलाव किया। इस संकट से पहले, भूमध्य सागर के पूर्वी भाग में (आधुनिक लेबनान के पास) जैव विविधता सबसे अधिक थी। लेकिन पानी फिर से भर जाने के बाद जैव विविधता का केंद्र पश्चिमी छोर बन गया, जो आज भी कायम है। जैव विविधता के केंद्र में परिवर्तन के कारण अभी स्पष्ट नहीं हैं। 

बहरहाल, यह संकट एक केस स्टडी है जिससे यह समझा जा सकता है कि कैसे पारिस्थितिकी तंत्र चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों (extreme environmental changes) के बाद ढहते और बहाल होते हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन दुनिया भर के ऐसे क्षेत्रों पर और अधिक अध्ययनों को प्रेरित करेगा। विशेष रूप से मध्य यूरोप और मेक्सिको की खाड़ी (Gulf of Mexico) में यह समझने में मदद मिलेगी कि पिछले पर्यावरणीय बदलावों ने वैश्विक स्तर पर जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया था। (स्रोत फीचर्स) 

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ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए काष्ठ तिज़ोरियां

वैसे तो इस बात पर आम सहमति है कि ग्लोबल वार्मिंग (global warming) से निपटने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) का उत्सर्जन कम करना सर्वोत्तम तरीका है, लेकिन कई लोग मानते हैं कि सिर्फ उत्सर्जन कम करने से बात नहीं बनेगी। कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल (atmosphere) से हटाकर भंडारित करना भी ज़रूरी होगा। 

इसी सिलसिले में कनाडा में 3775 साल पुराने संरक्षित लाल देवदार (red cedar) के लट्ठे की खोज ने जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के एक नए तरीके में रुचि उत्पन्न की है: लकड़ी की तिज़ोरियां (wood vaults)। इस तकनीक में लकड़ी को इस तरह दफनाया जाता है कि वह सड़कर वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड न छोड़े। गौरतलब है कि कार्बन डाईऑक्साइड ग्लोबल वार्मिंग में एक प्रमुख योगदानकर्ता है। 

यह विचार मैरीलैंड विश्वविद्यालय (University of Maryland) के जलवायु वैज्ञानिक निंग ज़ेंग (Ning Zeng) का है, जिनके अनुसार मिट्टी की परतों (soil layers) के नीचे दबा हुआ यह प्राचीन लट्ठा दर्शाता है कि कैसे लकड़ी को कम ऑक्सीजन (low oxygen) वाले वातावरण में रखा जाए तो उसका कार्बन अक्षुण्ण रहता है। ज़मीन के ऊपर पड़ी लकड़ियां जल्दी से सड़ जाती हैं, और कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होती है। लेकिन जब उसी लकड़ी को मिट्टी या कीचड़ के नीचे दफनाया जाता है, जहां ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती, तो वह बहुत धीरे-धीरे विघटित होती है और कार्बन सदियों तक कैद रहता है। 

ज़ेंग और उनके सहयोगियों का अनुमान है कि दुनिया भर में एक-दो बार इस्तेमाल की जा चुकी लकड़ी के 4.5 प्रतिशत बायोमास (biomass) को इस तरह दफनाने से वायुमंडल से सालाना 10 गीगाटन (gigaton) तक कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है। 

अलबत्ता, इस उपाय की प्रभाविता पर कुछ विशेषज्ञों को चिंता है। इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दबी हुई लकड़ी में कार्बन सदियों तक कैद रहता है या नहीं। अब तक, समुद्री मिट्टी (marine soil) के नीचे क्यूबेक लॉग का संरक्षण वैज्ञानिकों को उम्मीद देता है कि इसी तरह के परिणाम बड़े पैमाने पर प्राप्त किए जा सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अन्य किस्म की मिट्टियां भी ऐसी सुरक्षात्मक परिस्थितियां प्रदान कर सकती हैं। 

एक चिंता यह है कि कहीं यह तकनीक जंगलों को काटने की प्रेरणा न बन जाए, क्योंकि वह जैव विविधता (biodiversity) के लिए खतरे की घंटी होगी। एक और चुनौती पेड़ों को दफनाने की व्यावहारिकता और अर्थशास्त्र (economics) है। लकड़ी का उपयोग निर्माण कार्य, कागज़ और फर्नीचर (construction, paper, furniture) बनाने में किया जाता है, और इसे दफनाने से वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान सम्बंधित चिंताएं बढ़ सकती हैं। हालांकि, ज़ेंग का सुझाव है कि इन जोखिमों से बचने के लिए केवल बेकार लकड़ी को दफनाया जा सकता है। ज़ेंग के अनुसार, बेकार लकड़ी के ढेर आग का खतरा भी बन सकते हैं, इसलिए उन्हें दफनाने से कई लाभ मिलेंगे। 

अभी के लिए, काष्ठ तिज़ोरियां जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक लड़ाई में एक आशाजनक रणनीति दिख रही हैं। यद्यपि पर्यावरण सम्बंधी चिताओं के मद्देनज़र इस पर और शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चींटियों ने कीटभक्षी पक्षियों को ऊपरी इलाकों में खदेड़ा

दक्षिण एशिया के निचले इलाकों में, फलभक्षी (fruit-eating birds) और मकरंदभक्षी पक्षी तो खूब दिखाई देते हैं, लेकिन कीटभक्षी पक्षी (insect-eating birds) यहां दुर्लभ हैं। इकोलॉजी लेटर्स (Ecology Letters) में प्रकाशित एक अध्ययन ने इस विषय पर प्रकाश डाला है और बताया है कि कीटभक्षी पक्षियों के नदारद होने के पीछे बुनकर चींटियों (weaver ants) का हाथ है। निचले जंगलों में रहने वाली बुनकर चींटियां गुबरैले और पतंगों जैसे जीवों को खा जाती हैं। दिक्कत यह है कि यही जीव कीटभक्षी पक्षियों के भी भोजन (insect prey) हैं। चूंकि चींटियां इन पक्षियों के भोजन को खत्म कर देती हैं, मजबूरन पक्षी ऊंचे इलाकों (higher elevations) पर चले जाते हैं, जहां ये चींटियां नहीं पाई जातीं। 

दरअसल, कई पर्वत शृंखलाओं में समुद्रतल से लगभग 1000 से 1500 मीटर की ऊंचाई को ‘एंट लाईन’ (ant line) या चींटी रेखा कहा जाता है। इस रेखा के ऊपर छोटे अकशेरुकी जीव (invertebrates) कम मिलने लगते हैं। वैसे तो बुनकर चींटियां उत्तरी ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणपूर्वी एशिया से लेकर अफ्रीका तक व्यापक रूप से फैली हैं, लेकिन 2020 में, हिमालय क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन ने ऐसा संकेत दिया था कि निचले इलाके के जंगलों में सात भाई (sibling species) और फुदकी जैसे कीटभक्षी पक्षियों के न होने का कारण संभवत: बुनकर चींटियां ही हैं। जब शोधकर्ताओं ने एशियाई बुनकर चींटियों (Oecophylla smaragdina) को अध्ययन क्षेत्र से हटाया और उन्हें पेड़ पर चढ़ने से रोक दिया, तो गुबरैले और पतंगों (beetles and moths) जैसे कीटों की संख्या बढ़ गई थी। ये कीट सॉन्गबर्ड्स (songbirds) जैसे कीटभक्षी पक्षियों के भोजन का मुख्य स्रोत हैं। 

इस आधार पर शोधकर्ताओं ने यह परिकल्पना (hypothesis) बुनी कि बुनकर चींटियों के साथ प्रतिस्पर्धा निचले इलाकों के जंगलों में कीटभक्षी पक्षियों की संख्या कम होने के लिए ज़िम्मेदार हो सकती है। 

इस परिकल्पना से प्रेरित होकर भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science) के पारिस्थितिकीविद उमेश श्रीनिवासन और उनके दल ने यह देखने की कोशिश की कि क्या इसी तरह के पैटर्न अन्यत्र भी दिखते हैं। इसके लिए उन्होंने दुनिया भर के पहाड़ी पक्षियों (mountain birds) की ऊंचाई के मुताबिक उपस्थिति का विश्लेषण किया। इस विश्लेषण से पता चला कि जिन इलाकों में बुनकर चींटियां नदारद थीं, वहां कीटभक्षी पक्षियों की विविधता (bird diversity) कम ऊंचाई पर काफी अधिक होती है और ऊंचे इलाकों में कम होती जाती है। लेकिन बुनकर चींटियों की मौजूदगी वाले क्षेत्रों में, पक्षियों की विविधता 1000 मीटर से ऊंचे इलाकों में अत्यधिक थी। 

लेकिन फलभक्षी (fruit-eating birds) या अन्य भोजन पर आश्रित पक्षियों में ऐसा कोई पैटर्न नहीं दिखा। यह पैटर्न और नतीजे काफी दिलचस्प हैं, लेकिन वास्तविक परिस्थितियों में इस परिकल्पना को जांचकर देखने की ज़रूरत है कि क्या वास्तव में ऐसे नतीजे मिलते हैं। यदि यह पैटर्न सामान्य है, तो यह काफी रोचक है कि चींटियां जैव विविधता (biodiversity) को इस कदर प्रभावित करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक पक्षी की अनोखी प्रणयलीला

वैसे तो कई सारे नर मादा को रिझाने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाते हैं। कई अपने रंग-रूप से लुभाते हैं, कुछ अपनी शक्ति से, कुछ गाकर (bird song), तो कुछ नाच कर (bird dance)। लेकिन बॉवरबर्ड कुल (Bowerbird species) के सदस्यों के नर की प्रणयलीला का अंदाज़ निराला है। अपनी मादाओं को नर बॉवरबर्ड रिझाते तो नाच-गाकर ही हैं, लेकिन इसके लिए वे पहले पूरा मंच (stage setup) बनाते हैं, उसे सजाते हैं। और तो और, हालिया अध्ययन बताता है कि वे अपने मंच में ऐसा इंतज़ाम करते हैं कि उनका गाना (song performance) मादाओं को मोहित करने के लिए एकदम सही सुरों में सुनाई दे। इतना ही नहीं, वे अपने दर्शकों (female birds) के लिए परफॉर्मेंस देखते-देखते खानपान की व्यवस्था भी करते हैं। यानी मूवी के साथ पॉपकॉर्न भी! 

वास्तव में, अनूठी प्रणयलीला के चलते बॉवरबर्ड के प्रदर्शन पर काफी अध्ययन (behavioral studies) हुए हैं। लेकिन ये सभी अध्ययन दृश्य इंतज़ामों और प्रदर्शन तक सीमित थे। पता चला था कि बॉवरबर्ड टहनियां वगैरह इकट्ठी करके मेहराबदार सुरंगनुमा बॉवर (bower structure) या ऊंची कुटिया बनाते हैं। इसके द्वार से सटे आंगन की सजावट वे कंकड़-पत्थर (pebbles), शंख (shells), हड्डियों और कांच या प्लास्टिक के रंगीन टुकड़ों से करते हैं। जब यह कुटिया बनकर तैयार हो जाती है तो नर तेज़, कर्कश आवाज़ें (loud calls) निकालकर इसके बारे में मादाओं को सूचना देते हैं। अगर कोई मादा इस पुकार को सुनकर चली आती है, और कुटिया की बनावट और सजावट उसे भा जाती है तो वह अंदर प्रवेश करती है। 

बस फिर क्या, नर उड़कर (flight display) आंगन में आ जाता है और अपनी कलाकारी का प्रदर्शन शुरू कर देता है। मादा सुरंगनुमा कुटिया के दरवाज़े से आंगन में खड़े नर बॉवरबर्ड का केवल सिर ही देख पाती है। नर का प्रदर्शन भी उसी के अनुरूप होता है। 

नर बॉवरबर्ड तेज़, कर्कश, हिस्स्सकारती हुई आवाज़ में गाना गाता है। गाने के साथ वह मादा को लुभाने के लिए संटियां, फल जैसी विभिन्न वस्तुएं चोंच से उछाल-उछाल कर दिखाता है, और गर्दन घुमाकर अपने सिर के पीछे बने गुलाबी पंखों का मुकुट (pink crest feathers) भी दिखाता है। 

लेकिन, जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि ये सारे अवलोकन बॉवरबर्ड की दृश्य गतिविधियों पर केंद्रित थे। डीकिन युनिवर्सिटी के प्रकृति-इतिहासकार जॉन एंडलर (John Endler) जानना चाहते थे कि क्या कुटिया की बनावट और आंगन की सजावट ‘गाने’ (courtship song) को मादा के लिए रुचिकर बनाने कोई भूमिका निभाते हैं? 

अपने अध्ययन के लिए उन्होंने उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के निवासी ग्रेट बॉवरबर्ड (Great Bowerbird – *Chlamydera nuchalis*) को चुना। पहले तो उनकी टीम ने उत्तरी क्वींसलैंड के वनों में नर बॉवरबर्ड्स के ‘प्रेमालाप’ (courtship behavior) की रिकॉर्डिंग की। इसके बाद, उन्होंने कुटिया के प्रवेश द्वार (जहां नर होता है) पर स्पीकर को रखकर इस रिकॉर्डिंग को चलाया, और जहां आम तौर पर मादा का सिर होता है वहां माइक्रोफोन लगाकर ध्वनियों को रिकॉर्ड किया ताकि यह समझा जा सके कि कुटिया के आकार (bower architecture) के कारण नर का प्रेमगीत मादा को कैसा सुनाई देता है।फिर, टीम ने व्यवस्थित रूप से कुटिया के आंगन में सजाई गई विभिन्न सजावटी वस्तुओं को हटाया और पता किया कि प्रत्येक सामग्री से कुटिया के अंदर सुनाई पड़ने वाली ध्वनि पर कैसा प्रभाव पड़ता है। 

बिहेवियोरल इकोलॉजी (Behavioral Ecology) में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि नर ग्रेट बॉवरबर्ड बेहतरीन साउंड इंजीनियर (sound engineers) होते हैं। कुटिया का आकार नर के गीत को ऊंचा कर देता है, जिससे अंदर मौजूद मादा को यह ज़्यादा तेज़ सुनाई देता है। आंगन की सजावट भी आवाज़ को प्रभावित करती है; शंख (shells) जैसी सख्त सतह भी टकराने वाली आवाज़ को तेज़ कर देती हैं। 

नर ग्रेट बॉवरबर्ड मादा के लिए न सिर्फ आकर्षक भवन, गीत और नृत्य प्रदर्शन (dance display) का इंतज़ाम करते हैं बल्कि वे शो के दौरान खाने की चीज़ों का इंतज़ाम भी करते हैं। वे कुटिया की दीवारों को लार और वनस्पतियों से रंगते हैं, और उनके प्रदर्शन को देखते हुए मादा इसे चबाती हैं। रिझाने के लिए एक और पैंतरा! 

देखा जाए तो यह अध्ययन अपने-आप में काफी दिलचस्प है लेकिन इस संदर्भ में कई और चीज़ें समझना बाकी हैं। जैसे मादा कर्कश या मृदु आवाज़ों या मोटी-पतली आवाज़ों में गाए गए प्रेमगीतों पर कैसी प्रतिक्रिया देती हैं।(स्रोत फीचर्स)

नर बॉवरबर्ड का प्रदर्शन यहां देखें : https://oup.silverchair-cdn.com/oup/backfile/Content_public/Journal/beheco/PAP/10.1093_beheco_arae070/1/arae070_suppl_supplementary_data.mp4?Expires=1731151727&Signature=eATlb5ZRlsI~yzL9ymUwXbQIxDbt95izhSI2-MwQwT9Dy1smV-O81-o6Uk~lswxmxr89jIXkc3WayCqFKcQP9L1QgME0Wq5jBxYbF0mpmgp9bZDEOOF~owdr-flr6rXJQeyvivY~SXUoEkrdyKvRPke3T43d4BIVrQW2NtcN0JszD5e8TjdfiiO2Qvhyq4iq6HnN71-qDJRIX-y65U~rb-V1CVKreVX5j0bfnskYpFhC6iO-PuJ6kBgW-fffREDQKjdPxyzxu46EAxHNDpHwBqFScu-wtA6dsWU6PeIaLFbgYXFJwAHVsojDLjcvtv9XpgexWlUO5q~sAaGwR-j6uA__&Key-Pair-Id=APKAIE5G5CRDK6RD3PGA

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस के हमले से बैक्टीरिया अपनी रक्षा कैसे करते हैं?

वायरस (virus) मनुष्यों को तो संक्रमित करते ही हैं, बैक्टीरिया को भी नहीं छोड़ते। बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले वायरसों को बैक्टीरियाभक्षी या बैक्टीरियोफेज (bacteriophage) कहते हैं। लेकिन बैक्टीरिया भी अपनी रक्षा के लिए एक असाधारण तरीके का उपयोग कर लेते हैं। हाल ही में साइन्स पत्रिका (Science Journal) में प्रकाशित दो अध्ययनों में इस तरीके का खुलासा किया गया है। 

दोनों ही समूहों ने बताया है कि बैक्टीरिया एक नया जीन (gene) बना लेता है जो उसके पास सामान्यत: नहीं होता। दोनों समूहों ने इस नए जीन को नियो (Neo gene) नाम दिया है। यह नियो जीन फिर ऐसे प्रोटीन (protein) का निर्माण करवाता है जो वायरस को ठप कर देता है। 

इस नए जीन नियो के निर्माण हेतु बैक्टीरिया वायरसों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले एक एंज़ाइम (enzyme) का उपयोग करते हैं। आम तौर पर माना जाता है कि जेनेटिक सूचना (genetic information) एक ही दिशा में प्रवाहित होती है – डीएनए (DNA) से आरएनए (RNA) बनता है और यह आरएनए प्रोटीन बनवाता है। 

लेकिन इसी काम को उल्टी दिशा (आरएनए→डीएनए) में चलाने के लिए एक एंज़ाइम ज़रूरी होता है जिसे रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ (reverse transcriptase) कहते हैं। यह एंज़ाइम ट्यूमर पैदा करने वाले वायरसों में पाया गया था, और संभवत: यही एंज़ाइम एड्स वायरस (HIV virus) को हमारी कोशिकाओं पर प्रभुत्व जमाने में कारगर बनाता है। 

एक रोचक बात यह है कि कई बैक्टीरिया भी रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ बना सकते हैं। और उपरोक्त दो अध्ययनों से यही पता चला है कि कम से कम एक बैक्टीरिया प्रजाति इस एंज़ाइम का उपयोग करके वायरस को पछाड़ देती है। 

दरअसल, 2020 में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (MIT) के आणविक जीव विज्ञानी फेंग ज़ांग (Feng Zhang) ने बैक्टीरिया में वायरस के खिलाफ प्रतिरक्षा (immunity) का पता लगाया था। उपरोक्त दोनों समूह इसी प्रतिरक्षा की क्रियाविधि (mechanism) समझने की कोशिश कर रहे थे। 

इस प्रतिरक्षा तंत्र को कोड करने वाले बैक्टीरिया के डीएनए में एक खंड होता है जो एक छोटा आरएनए अणु (small RNA molecule) बनवा सकता है लेकिन वह आरएनए किसी प्रोटीन में अनुदित नहीं होता। इसी में रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ एंज़ाइम का जीन भी पाया जाता है। 

इसकी आगे छानबीन करने के लिए दोनों टीम्स ने प्रतिरक्षा तंत्र का यह डीएनए एक अन्य बैक्टीरिया एशरीशिया कोली (E. coli) में डाल दिया जिसके साथ काम करना अपेक्षाकृत आसान होता है। ऐसा करने पर देखा गया कि ई. कोली की कोशिका में वायरस का हमला होने पर रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ की मदद से उस रहस्यमय छोटे आरएनए की डीएनए प्रतिलिपियां बनने लगीं – यही वह जीन नियो था। अलबत्ता, दोनों समूहों ने पाया कि इस तरह बने डीएनए में उस आरएनए शृंखला की प्रतिलिपि एक बार नहीं, बल्कि कई बार बनी थी और वे आपस में जुड़ी हुई थीं।

अब यह जीन सामान्य प्रोटीन-निर्माता जीन की तरह काम करने लगता है। यह तभी बनता है जब कोई वायरस इस बैक्टीरिया पर हमला करता है और इसके द्वारा बनाया गया प्रोटीन कोशिका को सुप्तावस्था (dormant state) में ढकेल देता है। अब जब मेज़बान (यानी उस बैक्टीरिया) में तालाबंदी हो गई है तो मेहमान वायरस की प्रतिलिपियां (new viruses) बनना रुक जाते हैं क्योंकि उन्हें इस काम के लिए संसाधन ही नहीं मिल पाते। 

अब यह जानना बाकी है कि बैक्टीरिया कोशिका अपनी सामान्य वायरस रोधी प्रक्रियाओं की बजाय इस क्रियाविधि का उपयोग कब करती हैं। वैसे शोधकर्ताओं का विचार है कि इस क्रियाविधि का पूरा खुलासा होने पर वायरसों से निपटने के नए रास्ते (new methods) खुलेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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