एक विचित्र समुद्री जीव

र्ष 2018 में एक पेशेवर फोटोग्राफर ने एक विचित्र से दिखने वाले तैरते समुद्री जीव की तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली थी – यह भूरी-नारंगी गोल गेंदनुमा जीव दिख रहा था जिसके चपटे वाले गोलार्ध पर बालों या जटाओं की तरह संरचनाएं निकली हुई दिख रही थीं। यह कोई कीट, मोलस्क या क्रस्टेशियन नहीं था, लेकिन किसी को मालूम नहीं था कि यह है कौन-सा जीव।

अब, केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के वैकासिक तंत्रिका वैज्ञानिक इगोर एडेमेयको ने करंट बायोलॉजी में बताया है कि उन्होंने इसके कुल की पहचान कर ली है, और यह चपटे कृमियों के एक समूह डाइजेनियन फ्लूक का एक परजीवी सदस्य है।

एडेमेयको जब मटर के दाने जितने बड़े इस जीव का ध्यानपूर्वक विच्छेदन कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि इस जीव को (तैरकर) आगे बढ़ने में मदद करने वाले जटानुमा उपांग गेंदनुमा संरचना के जिस ऊपरी हिस्से से जुड़े थे वो चपटा था। बारीकी से अवलोकन करने पर उन्होंने पाया कि यह कोई एक प्राणी नहीं है, बल्कि आपस में गुत्थमगुत्था बहुत सारे जीव हैं, और मुख्यत: दो तरह के जीव हैं।

एक तरह के जीव गोल संरचना के ऊपरी ओर बाहर लहराते हुए दिख रहे थे जिनकी कुल संख्या करीब 20 थी, ये गोले को तैरने या आगे बढ़ने में मदद कर रहे थे – इन्हें एडमेयको ने ‘नाविक’ की संज्ञा दी है। इनके सिर पर दो बिंदुनुमा आंखें थी, जिससे इनके सिर सांप के फन की तरह दिखाई दे रहे थे।

दूसरी तरह के जीव, गोले के दूसरे (या निचले) भाग के चारों ओर हज़ारों की तादाद में मौजूद थे। ये दिखने में शुक्राणु जैसे दिख रहे थे, जिनके सिर पेंसिल की तरह नुकीले थे और पूंछ बाल से भी पतली थीं। ये सभी जीव गोले के बीच में पूंछ की ओर से एक-दूसरे के साथ गुत्थमगुत्था थे और सभी के सिर गोले के बाहर की ओर निकले हुए थे। इन जीवों को शोधकर्ताओं ने ‘यात्रियों’ की संज्ञा दी है।

विच्छेदन से जीव की बनावट तो समझ आ गई थी लेकिन इसकी पहचान नहीं हो पाई। इसे पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने एंटीबॉडी की मदद से कोशिकाओं के पैटर्न देखे। इसके आधार पर लगा कि ये जीव लोफोट्रोकोज़ोअन नामक एक समूह से सम्बंधित होंगे, जिसमें मोलस्क, ब्रायोज़ोआन, ब्रेकिओपोड और चपटा कृमि जैसे जीव आते हैं। उन्हें यह भी संदेह था कि जीवों का यह झुंड कोई परजीवी होगा।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने इसका डीएनए विश्लेषण किया। अंतत: वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह परजीवी चपटा कृमि कुल डायजेनियन फ्लूक का सदस्य है। और यह इसका लार्वा रूप है।

इस नए डायजेनियन परजीवी की दिलचस्प बात यह है कि इसमें दो तरह के लार्वा होते हैं जो आपस में सहयोग करते हैं। ‘यात्री’ लार्वा मछली वगैरह जैसे मेज़बानों की आंत में संक्रमण फैलाते हैं, और खुले वातावरण में वे सिर्फ अपने मेज़बान में प्रवेश करने के इंतज़ार में रहते हैं। वहीं, ‘नाविक’ लार्वा तैरकर लार्वाओं के इस पूरे गोले को यहां-वहां पहुंचाते हैं ताकि नए मेज़बान तक पहुंच सकें – लेकिन ऐसा करने के लिए वे अपना प्रजनन अवसर त्याग देते हैं ताकि अन्य को प्रजनन अवसर सुलभ हो सके। यानी ये लार्वा सहोदर चयन की एक और मिसाल हैं।

शरीर के बाहर मुक्त वातावरण में किसी परजीवी लार्वा का अध्ययन नई बात है। इस अध्ययन से पता चलता है कि मुक्त लार्वा के स्तर पर भी इस तरह का श्रम विभाजन होता है।

शोधकर्ता ऐसे और लार्वा की तलाश में हैं ताकि जान सकें कि झुंड में यह निर्णय कैसे होता है कि कौन ‘नाविक’ बनेगा और कौन ‘यात्री’? और इस गोले की गति का नियंत्रण कैसे होता है? शायद नाविकों के सिर पर मौजूद दो बिंदुनुमा आंखों की इसमें कुछ भूमिका हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रसायन शास्त्र का नोबेल: दिलचस्प और उपयोगी खोज

र्ष 2023 का रसायन नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – एलेक्साई एकिमोव (पूर्व सोवियत संघ), लुई ब्रुस (यूएस) और मौंगी बावेंडी (यूएस)। इन तीनों ने मिलकर एक ऐसे प्रभाव की खोज की है जिसने इलेक्ट्रॉनिक्स व संचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। लोग इसके उपयोग से तो परिचित हैं लेकिन इसके चौंकाने वाले वैज्ञानिक धरातल से अपरिचित हैं।

इस वर्ष के रसायन नोबेल का कथानक क्वांटम यांत्रिकी से जुड़ा है। जहां एकिमोव और ब्रुस ने इस प्रभाव का अवलोकन करके इसे पहचाना, वहीं बावेंडी का प्रमुख योगदान इसे उत्पन्न करने की विधियों पर केंद्रित रहा।

यह प्रभाव साइज़ के अनुसार पदार्थों के बदलते गुणधर्मों को दर्शाता है। खास तौर से नैनो साइज़ पर यह प्रभाव बढ़-चढ़कर नज़र आने लगता है। तीनों शोधकर्ताओं ने इस बात की खोज की है कि जब हम मिलीमीटर के लाखवें-करोड़वें साइज़ के कणों के साथ काम करते हैं तो विचित्र घटनाएं होने लगती है। ऐसे कणों को क्वांटम बिंदु कहते हैं।

दरअसल, इस तरह के विचित्र प्रभाव की भविष्यवाणी काफी पहले 1930 के दशक में हरबर्ट फ्रोलिश नामक भौतिक शास्त्री कर चुके थे। फ्रोलिश ने क्वांटम यांत्रिकी की मशहूर श्रॉडिंजर समीकरण के सैद्धांतिक निहितार्थ की पड़ताल करते हुए दर्शाया था कि जब कण अत्यंत छोटे हो जाएंगे तो उनमें इलेक्ट्रॉन के लिए कम जगह रह जाएगी। परिणाम यह होगा कि इलेक्ट्रॉन (जो क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार कण भी होते हैं और तरंगें भी) पास-पास ठस जाएंगे। फ्रोलिश का मत था कि इसका पदार्थ के गुणधर्मों पर बहुत ज़्यादा असर होगा। इसे क्वांटम प्रभाव कहते हैं जो बहुत कम साइज़ों पर नज़र आता है।

भविष्यवाणी दिलचस्प थी और वैज्ञानिक गण इसे यथार्थ में साकार करने के प्रयासों में जुट गए हालांकि बहुत कम वैज्ञानिकों को लगता था कि इस क्वांटम प्रभाव का कोई व्यावहारिक उपयोग होगा।

खैर, 1970 के दशक में शोधकर्ता इस तरह की नैनो-संरचना बनाने में कामयाब हो गए। उन्होंने एक आणविक पुंज का उपयोग करते हुए एक मोटी सतह के ऊपर एक अत्यंत महीन (नैनो मोटी) परत बना दी। और इसके ज़रिए वे यह दिखा पाए कि इस महीन परत के प्रकाशीय गुणधर्म इसकी मोटाई के अनुसार बदलते हैं – यह प्रयोग क्वांटम यांत्रिकी की भविष्यवाणी से मेल खाता था। प्रायोगिक तौर पर क्वांटम प्रभाव को दर्शाना एक बड़ी बात थी लेकिन इस व्यवस्था को बनाने के लिए लगभग परम शून्य तापमान और अत्यंत गहन निर्वात की ज़रूरत थी।

इस प्रभाव को ज़्यादा साधारण अवस्था में देखने में मदद एक अनपेक्षित दिशा से मिली। रंगीन कांच बनाने की कला ने इस क्वांटम असर के अध्ययन में बहुत मदद की। प्राचीन समय से ही कारीगर लोग विभिन्न रंगों के कांच बनाते आए थे। वे कांच बनाते समय उसमें चांदी, सोना, कैडमियम जैसे पदार्थ मिलाते थे और फिर उसे अलग-अलग तापमान पर तपाकर विभिन्न रंग पैदा कर लेते थे।

भौतिक शास्त्रियों के लिए रंगीन कांच महत्वपूर्ण साधन साबित हुए थे। इनकी मदद से वे प्रकाश में से कुछ रंगों को (यानी कुछ तरंग दैर्घ्यों को) छानकर अलग कर सकते थे। इसके चलते शोधकर्ता खुद रंगीन कांच बनाने लगे। ऐसा करते हुए उन्होंने देखा कि एक ही पदार्थ मिलाने पर कांच में कई अलग-अलग रंग पैदा किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कैडमियम सेलेनाइड और कैडमियम सल्फाइड का मिश्रण कांच में मिलाया जाए, तो वह पीला बन सकता है या लाल भी बन सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि पिघले कांच को कितना तपाया गया था और किस तरह ठंडा किया गया था। है ना आश्चर्य की बात? शोधकर्ता यह भी दर्शा पाए कि कांच में रंग उसके अंदर बनने वाले कणों से पैदा होता है और कणों की साइज़ पर निर्भर करता है।

इस वर्ष के एक नोबल विजेता, एलेक्साई एकिमोव, ने इसी बात को आगे बढ़ाया। उन्हें यह बात थोड़ी बेतुकी लगी कि एक ही पदार्थ कांच में अलग-अलग रंग पैदा कर सकता है। लेकिन खुशकिस्मती से एकिमोव प्रकाशीय अध्ययनों से वाकिफ थे। लिहाज़ा, 1970 दशक में उन्होंने इनकी मदद से रंगीन कांचों की तहकीकात शुरू कर दी। उन्होंने व्यवस्थित रूप से कॉपर क्लोराइड से रंजित कांचों का निर्माण किया और पिघले हुए कांच को 500 से 700 डिग्री सेल्सियस पर अलग-अलग अवधियों (1 से लेकर 96 घंटे) तक तपाया। एक्सरे विश्लेषण से पता चला कि निर्माण की प्रक्रिया का असर कॉपर क्लोराइड के कणों की साइज़ पर हुआ था – कुछ नमूनों में ये कण मात्र 2 नैनोमीटर के थे जबकि कुछ नमूनों में इनकी साइज़ 30 नैनोमीटर तक थी।

सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इन कणों की साइज़ का असर कांच द्वारा सोखे गए प्रकाश पर पड़ रहा था – बड़े कण तो प्रकाश को उसी तरह सोख रहे थे जैसे कॉपर क्लोराइड सामान्यत: सोखता है लेकिन कण की साइज़ जितनी कम होती थी, वे उतना ही अधिक नीला प्रकाश सोखते थे।

भौतिक शास्त्री होने के नाते एकिमोव क्वांटम यांत्रिकी के नियमों से परिचित थे और फौरन समझ गए कि वे जिस चीज़ का अवलोकन कर रहे हैं, वह साइज़-आधारित क्वांटम प्रभाव है। यह पहली बार था कि किसी ने जानबूझकर क्वांटम बिंदु निर्मित किए थे। क्वांटम बिंदु यानी ऐसे नैनो-कण जो साइज़-आधारित प्रभाव उत्पन्न करें।

दिक्कत यह हुई कि एकिमोव ने अपनी खोज के परिणाम एक सोवियत शोध पत्रिका में प्रकाशित किए। शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ से बाहर इस शोध पत्र पर किसी का ध्यान ही नहीं गया।

सो, इस वर्ष के दूसरे नोबेल विजेता लुई ब्रुस ने 1983 में यह खोज दोबारा की। दरअसल, ब्रुस तो कोशिश कर रहे थे कि सौर ऊर्जा की मदद से रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकें। उन्होंने कैडमियम सल्फाइड के अत्यंत छोटे कण एक घोल में बनाए। छोटे कण बनाने का मकसद था कि उनकी सतह का क्षेत्रफल अधिकतम रहे। लेकिन ऐसा करते हुए ब्रुस ने एक अजीब-सा अवलोकन किया – जब वे इन कणों को प्रयोगशाला की बेंच पर कुछ समय के लिए छोड़ देते थे, तो उनके गुणधर्म बदल जाते थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि शायद ऐसा इसलिए हो रहा होगा क्योंकि रखे-रखे वे कण बड़े हो जाते होंगे। अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने कैडमियम सल्फाइड के लगभग 4.5 नैनोमीटर के कण बनाए और इनके प्रकाशीय गुणधर्मों की तुलना 12.5 नैनोमीटर के कणों से की। निष्कर्ष यह निकला कि बड़े कण तो उसी तरंग दैर्घ्य का प्रकाश अवशोषित करते हैं जो कैडमियम सल्फाइड सामान्य रूप से करता है लेकिन छोटे कणों के मामले में अवशोषण थोड़ा नीले रंग की ओर सरक जाता है। ब्रुस भी समझ गए कि उन्होंने साइज़-आधारित क्वांटम प्रभाव का अवलोकन किया है। 1983 में अपने परिणाम प्रकाशित करने के बाद उन्होंने कई पदार्थों के साथ प्रयोग करके पाया कि जितने छोटे कण होते हैं, अवशोषण नीली तरंग दैर्घ्यों की ओर खिसकता जाता है।

अब सवाल उठता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है। जवाब है कि यदि एक ही पदार्थ के कणों की साइज़ बदलने से उसका प्रकाश अवशोषण बदल जाता है, तो इसका मतलब हुआ कि उसमें कुछ तो बुनियादी रूप से बदल गया है। किसी भी पदार्थ के प्रकाशीय गुण उसके इलेक्ट्रॉन पर निर्भर करते हैं और उसके रासायनिक गुण भी। यानी किसी पदार्थ के रासायनिक गुण सिर्फ इलेक्ट्रॉन कक्षकों की संख्या और सबसे बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रॉनों की संख्या से तय नहीं होते बल्कि नैनो पैमाने पर साइज़ पर भी निर्भर करते हैं।

धीरे-धीरे स्पष्ट होता गया कि क्वांटम बिंदु के कई व्यावहारिक उपयोग हैं। ये आज क्वांटम बिंदु नैनो-टेक्नॉलॉजी का एक महत्वपूर्ण औज़ार हैं और तमाम उत्पादों में नज़र आते हैं। इनका सबसे अधिक उपयोग रंगीन प्रकाश पैदा करने में किया गया है। यदि क्वांटम बिंदुओं पर नीला प्रकाश डाला जाए तो ये उसे सोख लेते हैं और किसी अन्य रंग का प्रकाश छोड़ते हैं। उत्सर्जित प्रकाश का रंग क्वांटम बिंदु की साइज़ पर निर्भर करता है। इस तरह नीले प्रकाश को अलग-अलग रंगों में बदलकर तीन प्राथमिक रंग (नीला, लाल और हरा) बनाए जा सकते हैं। इनकी मदद से एलईडी लैम्प के प्रकाश का रंग व तीव्रता भी नियंत्रित किए जा सकते हैं।

क्वांटम बिंदुओं का उपयोग जैव-रसायन और चिकित्सा में भी किया जा सकता है। जैसे क्वांटम बिंदुओं को जैविक अणुओं से जोड़कर कोशिकाओं तथा अंगों का अध्ययन किया जा सकता है। और तो और, शरीर में ट्यूमर ऊतकों पर नज़र रखने में भी क्वांटम बिंदुओं के उपयोग पर काम शुरू हुआ है। माना जा रहा है कि भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में ये निहायत उपयोगी साबित होने जा रहे हैं।

अलबत्ता सही मनचाही साइज़ के क्वांटम बिंदु बनाना टेढ़ी खीर थी। जब तक उम्दा गुणवत्ता के क्वांटम बिंदु बनाने का कोई आसान तरीका सामने नहीं आता तब तक इनका उपयोग करना असंभव था। और यहीं तीसरे नोबेल विजेता मौंगी बावेंडी के योगदान को सम्मान दिया गया है। उन्होंने वह टेक्नॉलॉजी विकसित जिसकी मदद से नियंत्रित ढंग से क्वांटम बिंदुओं का निर्माण करना संभव हुआ। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विचित्र खोजों के लिए इगनोबल पुरस्कार

र वर्ष की तरह इगनोबल पुरस्कार विचित्र खोजों के लिए दिए गए हैं। पिछले 33 वर्षों से इगनोबल पुरस्कार ऐसे सवालों के जवाब खोजने के लिए दिए जाते रहे हैं जो पहली नज़र में तो हास्यास्पद लगते हैं लेकिन हमें सोचने को मजबूर कर देते हैं।

पहला पुरस्कार इस सवाल का जवाब खोजने के लिए दिया गया: भूगर्भ वैज्ञानिक चट्टानों को क्यों चाटते हैं? लाइसेस्टर विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक यान ज़लासिविक्ज़ के मुताबिक इस सवाल का जवाब बहुत आसान है – चट्टानों में उपस्थित खनिज कण सूखी चट्टान की अपेक्षा गीली सतह पर बेहतर नज़र आते हैं। लिहाज़ा, गीला करने पर मैदानी परिस्थिति में चट्टानों की पहचान करना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।

और तो और, ज़लासिविक्ज़ याद करते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब भूगर्भ वैज्ञानिक चट्टानों को सिर्फ चाटते नहीं थे बल्कि वे उन्हें पकाते थे और कभी-कभी तो उन्हें खा भी लेते थे। इस संदर्भ में उन्होंने 2017 में पैलिऑन्टोलॉजिल एसोसिएशन के न्यूज़लेटर में लिखा भी था, “हमने चखकर चट्टानों को पहचानने की कला गंवा दी है।”

इसी सिलसिले में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के मूत्र विशेषज्ञ (यूरोलॉजिस्ट) सेउंगमिन पार्क को एक ‘स्मार्ट लैटरीन’ के आविष्कार के लिए पुरस्कृत किया गया है। पार्क इसे स्टैनफोर्ड टॉयलेट कहते हैं और इसकी विशेषता है कि यह व्यक्ति के मल व मूत्र की जांच करके उसकी सेहत का विश्लेषण कर सकती है। जिस तरह से आप जो कुछ खाते-पीते हैं, उसकी तहकीकात कर सकते हैं, उसी तरह से आप अपने उत्सर्जित पदार्थों की भी निगरानी कर सकते हैं। पेशाब में एक डिपस्टिक परीक्षण संक्रमण, मधुमेह या अन्य रोगों का संकेत दे देगा। इस लैट्रीन में एक कंप्यूटर दृष्टि तंत्र लगा है जो पेशाब की मात्रा और उसके त्याग की रफ्तार का हिसाब रखेगा; और एक सेंसर व्यक्ति के गुदा द्वार के विशिष्ट गुणधर्मों के आधार पर उसकी पहचान करता है। यह लगभग फिंगरप्रिंट की तरह काम करता है।

साहित्य के क्षेत्र में इस वर्ष का इगनोबल पुरस्कार उन शोधकर्ताओं के मिला है जिन्होंने एक अजीबोगरीब परिघटना की तहकीकात की है। यह परिघटना सामान्य देजावु (जिसमें व्यक्ति को लगता है कि वर्तमान में वह जो देख-सुन रहा है, वह पहले भी हो चुका है) के विपरीत है – जमाइ वु। इसमें व्यक्ति को जानी-पहचानी चीज़ें भी अपरिचित लगने लगती हैं। इसके शोधकर्ता दल के अकीरा ओकोनोर ने बताया है कि इस स्थिति को प्रयोगशाला में निर्मित किया जा सकता है – व्यक्तियों को एक ही शब्द बार-बार, बार-बार, इतनी बार दोहराने को कहा जाए कि वह शब्द अनजाना सा लगने लगे।

अब कुछ मज़ेदार अनुसंधान पर गौर फरमाइए। उदाहरण के लिए चिकित्सा में जिस टीम को इगनोबल पुरस्कार मिला उसने मानव शवों की नाक में ताक-झांक करके यह देखने की कोशिश की है कि क्या दोनों नथुनों में बालों की संख्या बराबर होती है। इस टीम का नेतृत्व कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, इर्विन की त्वचा विशेषज्ञ नताशा मेसिंकोव्स्का ने किया। उन्होंने बताया है कि उक्त जानकारी शारीरिकी की पाठ्य पुस्तकों में उपलब्ध नहीं थी, इसलिए उन्हें यह काम हाथ में लेना पड़ा।

यह अध्ययन बाल गंवा रहे लोगों (एलोपेशिया से पीड़ित लोगों) के उपचार में मदद करेगा। मेसिंकोव्स्का का मत है कि एलोपेशिया से पीड़ित लोगों में प्राय: नथुने के बाल झड़ जाते हैं और वे एलर्जी और संक्रमण के प्रति दुर्बल हो जाते हैं। यह अध्ययन थोड़ा असामान्य लग सकता है लेकिन इसकी ज़रूरत का मूल यह समझने में था कि ये बाल श्वसन तंत्र की प्रथम रक्षा पंक्ति के तौर पर क्या भूमिका निभाते हैं।

एक और पुरस्कार उस अध्ययन के लिए दिया गया है जिसमें मृत मकड़ियों को पुनर्जीवित करने (ज़ॉम्बी मकड़ियों के निर्माण) का प्रयास किया गया था। मंशा यह थी कि इन मृत मकड़ियों का उपयोग चीज़ों को पकड़ने के औज़ार के रूप में किया जा सके। शोध के इस क्षेत्र को ‘नेक्रोबोटिक्स’ कहते हैं और इसमें जीवित सामग्री (या सही शब्दों में पूर्व-जीवित सामग्री) का उपयोग रोबोट बनाने में किया जाता है।

एक अन्य पुरस्कृत अध्ययन इस बाबत था कि मानव मस्तिष्क कैसे शब्दों का निर्माण करने वाली विभिन्न ध्वनियों को पहचानना सीखता है। इसे समझने के लिए टीम ने उन लोगों की मस्तिष्क गतिविधियों का अध्ययन किया जो उल्टा बोल सकते हैं – जैसे ‘कमल का फूल’ को ‘लफू का लमक’।

मज़ेदार बात यह रही कि सारे विजेताओं को 10 खरब ज़िम्बाब्वे मुद्रा का एक नकली नोट दिया गया और 6 पन्ने का एक पीडीएफ चित्र भेंट किया गया। इस तस्वीर का प्रिंटआउट लेकर फोल्ड करके ट्रॉफी बनाई जा सकती है। गौरतलब है कि यह पुरस्कार वैज्ञानिक हास्य पत्रिका एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च द्वारा प्रदान किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में हरित क्रांति के पुरौधा स्वामिनाथन नहीं रहे

त 28 सितंबर के दिन मशहूर कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम. एस. स्वामिनाथन का निधन हो गया। वे 98 वर्ष के थे। उन्होंने भारत में हरित क्रांति की बुनियाद रखी थी जिसकी बदौलत किसी समय खाद्यान्न के अभाव से पीड़ित देश न सिर्फ आत्मनिर्भर बना बल्कि निर्यातक भी बन गया।

वे सात दशकों तक कृषि अनुसंधान, नियोजन और प्रशासन के अलावा किसानों को नई तकनीकें अपनाने के लिए प्रशिक्षित करने में भी सक्रिय रहे।

1925 में तमिलनाडु के एक छोटे कस्बे में जन्मे डॉ. स्वामिनाथन ने आलू संवर्धन में विशेषज्ञता हासिल की थी और विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय में इसी विषय पर पोस्ट-डॉक्टरल अनुसंधान किया था। यूएस में ही आगे काम करते रहने का अवसर मिलने के बावजूद वे 1954 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में काम करने को भारत लौट आए थे।

1979 से 1982 तक वे कृषि एवं सिंचाई मंत्रालय में प्रमुख सचिव रहे। डॉ. स्वामिनाथन योजना आयोग के सदस्य और मंत्रिमंडल की विज्ञान सलाहकार समिति के अध्यक्ष भी रहे। 1982 में उन्हें इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (फिलिपाइन्स) का महानिदेशक नियुक्त किया गया और 1988 तक वे इस पद पर रहे। भारत लौटकर वे पर्यावरण नीति व भूजल नीति सम्बंधी समितियों के अध्यक्ष रहे और राज्य सभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में पादप आनुवंशिकीविद के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने देखा कि मेक्सिको में नॉर्मन बोरलॉग द्वारा विकसित गेहूं की नई किस्में परीक्षण के दौरान अद्भुत पैदावार दे रही हैं। स्वामिनाथन और बोरलॉग के बीच एक लाभदायक साझेदारी विकसित हुई और स्वामिनाथन ने बोरलॉग द्वारा विकसित किस्मों का संकरण मेक्सिको व जापान की अन्य किस्मों से करवाकर बेहतर गेहूं पैदा करने में सफलता हासिल की। गेहूं के ये नए पौधे ज़्यादा मज़बूत थे और दाना सुनहरा था।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निदेशक के नाते उन्होंने सरकार को राज़ी किया कि मेक्सिको से 18,000 टन गेहूं के बीज का आयात किया जाए। असर यह हुआ कि 1974 तक भारत गेहूं व धान के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका था।

डॉ. स्वामिनाथन को 1987 में प्रथम विश्व खाद्य पुरस्कार दिया गया; उन्होंने इस पुरस्कार के साथ प्राप्त 2 लाख डॉलर का उपयोग एम. एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना हेतु किया जो आज भी देश में एक अग्रणी नवाचार संस्थान है। (स्रोत फीचर्स)

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स्तनपान की पौष्टिकता – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

र्ष 2016 के दी लैसेंट की स्तनपान शृंखला में सीज़र विक्टोरा और उनके साथियों ने लिखा था: “नवजात शिशुओं के लिए स्तनपान न सिर्फ बखूबी संतुलित पोषण आपूर्ति है, बल्कि संभवत: यह उसे मिलने वाली सबसे विशिष्ट वैयक्तिकृत औषधि है, जो ऐसे समय उसे मिलती है जब जीवन के लिए उसकी जीन अभिव्यक्ति बेहतर तालमेल बैठा रही होती है।”

अब मानव दूध की इस ध्यानपूर्वक संरचित समृद्धि के बारे में आई नई खोज ने मायो-इनोसिटॉल के महत्व पर प्रकाश डाला है। मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा अल्कोहल है। स्तनपान के पहले दो हफ्तों में मायो-इनोसिटॉल का स्तर उच्च होता है फिर कुछ महीनों की अवधि में धीरे-धीरे इसका स्तर कम होता जाता है। शुरुआती चरणों में, नवजात शिशु के मस्तिष्क में तेज़ी से नए-नए सायनेप्स (तंत्रिकाओं के संगम बिंदु) बनकर ‘तार’ जुड़ रहे होते हैं (या ‘वायरिंग’ हो रही होती है)। प्रारंभिक विकास के दौरान उचित सायनेप्स बनना संज्ञानात्मक विकास की नींव रखते हैं; अपर्याप्त सायनेप्स निर्माण से मस्तिष्क के विकास में कठिनाई आती है।

येल विश्वविद्यालय के थॉमस बाइडरर के शोध दल द्वारा PNAS में प्रकाशित निष्कर्ष भी उपरोक्त निष्कर्ष से मेल खाते हैं – परखनली में संवर्धित चूहे की तंत्रिकाओं में मायो-इनोसिटॉल देने पर उनकी तंत्रिकाओं के बीच प्रचुर मात्रा में सायनेप्स बने थे।

मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा-अल्कोहल है, जो चीनी से लगभग आधा मीठा होता है। यह मस्तिष्क में प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है, जहां यह कई हार्मोनों की क्रियाओं में मध्यस्थता करता है। हमारे शरीर को कोशिका झिल्ली बनाने के लिए इनोसिटॉल की आवश्यकता होती है। हमारा शरीर ग्लूकोज़ से मायो-इनोसिटॉल बनाता है और यह प्रक्रिया अधिकांशत: किडनी में होती है। कॉफी और चीनी के सेवन से, और मधुमेह जैसी स्थितियों में हमारे शरीर की इनोसिटॉल ज़रूरत बढ़ जाती है। अनाज और बीजों के चोकर (ऊपरी छिलके) में इनोसिटॉल के निर्माण में शामिल घटक, फायटिक एसिड, होता है। बादाम, मटर और खरबूजे भी इसके समृद्ध स्रोत हैं।

मधुमेह से ग्रसित जंतु मॉडल में, इनोसिटॉल से वंचित चूहों के आहार में मायो-इनोसिटॉल पुन: शामिल करने से उनमें मोतियाबिंद और मधुमेह से जुड़ी अन्य समस्याओं को रोकने में मदद मिली।

मानव दूध के अन्य घटक भी विशिष्ट पोषकों से परिपूर्ण होते हैं। मेक्सिको स्थित मीड जॉनसन पीडियाट्रिक न्यूट्रिशन इंस्टीट्यूट के डॉ. शे फिलिप्स और उनके साथियों ने मानव दूध के संघटन को प्रभावित करने वाले कई कारकों का विश्लेषण किया है। वे बताते हैं कि एक आवश्यक पोषक तत्व, ओमेगा-3 वसा अम्ल (डाइकोसा-हेक्सेनोइक एसिड या डीएचए) की मात्रा गर्भवती स्त्री द्वारा लिए गए भोजन के आधार पर बदलती है। स्तनपान कराने वाली मां के दूध में डीएचए का स्तर विभिन्न देशों में अलग-अलग होता है – चीन की महिलाओं के दूध में 2.8 प्रतिशत, जापान की महिलाओं में 1 प्रतिशत, युरोप और अमेरिका की महिलाओं में लगभग 0.4-0.2 प्रतिशत और कई विकासशील देशों की महिलाओं के दूध में महज़ 0.1 प्रतिशत। डीएचए विकासशील मस्तिष्क और रेटिना के लिए महत्वपूर्ण होता है।

नेक्रोटाइज़िंग एंटरोकोलाइटिस (एनईसी) पाचन तंत्र की एक गंभीर तकलीफ है जो समय-पूर्व जन्मे या बेहद कम वज़न वाले शिशुओं को प्रभावित करती है। लक्षण हैं: पर्याप्त दूध न पीना, पेट में सूजन, अंगों की गड़बड़। यह जानलेवा हो सकती है। बोतल से दूध पिलाना, समय-पूर्व जन्म और जन्म के समय कम वज़न (<1.5 किलोग्राम) इसके होने का जोखिम बढ़ाते हैं। यह स्थिति खराब रक्त संचार और आंतों के संक्रमण के मिले-जुले असर से उत्पन्न होती है। स्तनपान और प्रोबायोटिक्स के उपयोग से एनईसी को होने से रोका जा सकता है। समय-पूर्व जन्मे लगभग 10 प्रतिशत शिशु एनईसी से ग्रसित हो जाते हैं, और प्रभावित शिशुओं में से एक चौथाई इस बीमारी के कारण दम तोड़ देते हैं। समय-पूर्व जन्मे बच्चों की आंतें पर्याप्त मात्रा में इंटरल्यूकिन-22 नामक पदार्थ नहीं बना पातीं जो हमें संक्रमण से बचाने में सहायक होता है।(स्रोत फीचर्स)

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क्या आपको पर्याप्त विटामिन डी मिल रहा है?

विटामिन डी स्वास्थ्य के लिए एक महत्वपूर्ण और आवश्यक पोषक तत्व है। यह हड्डियों को मज़बूत बनाए रखता है, मांसपेशियों के काम में मदद करता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मज़बूत करता है। विटामिन डी के निर्माण के लिए शरीर को मात्र सूरज की रोशनी चाहिए होती है। लेकिन भारत जैसे पर्याप्त धूप वाले देशों में भी लोगों में विटामिन डी की कमी है।

लेकिन जहां एक ओर धूप को इसका सबसे अच्छा स्रोत कहा जाता है, वहीं त्वचा के कैंसर से बचने के लिए धूप से बचने की सलाह भी दी जाती है। तो विटामिन डी से भरपूर चीज़ें खाने की सलाह दी जाती है, लेकिन सच तो यह है कि अधिकांश खाद्य पदार्थों में इसकी पर्याप्त मात्रा नहीं होती है। लिहाज़ा इसकी कमी को प्रभावित करने वाले कारकों को समझने के साथ यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हमारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी कैसे मिल सकता है।

विटामिन डी का प्रमुख कार्य भोजन से कैल्शियम को अवशोषित करने में मदद करना है। यह अवशोषण प्रक्रिया हमारी हड्डियों को मज़बूत रखने में महत्वपूर्ण है। इसके अलावा यह मांसपेशियों के कार्य, तंत्रिका संचार और हानिकारक बैक्टीरिया तथा वायरस के खिलाफ हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

विटामिन डी की कमी का जोखिम कई कारकों पर निर्भर करता है। बढ़ती उम्र के साथ त्वचा विटामिन डी का उत्पादन करने में कम कुशल हो जाती है और जीवन के हर दशक में लगभग 13 प्रतिशत की गिरावट होती है। इसके अलावा गहरे रंग की त्वचा हल्के रंग की त्वचा की तुलना में विटामिन डी बनाने में लगभग 90 प्रतिशत कम कुशल होती है।

इसी तरह मोटापे से ग्रस्त लोगों को दो से तीन गुना अधिक विटामिन डी की आवश्यकता होती है। विटामिन डी शरीर की वसा कोशिकाओं में जमा होता है और मोटे लोगों में ज़्यादा वसा कोशिकाएं होती हैं। इसलिए रक्त संचार में विटामिन-डी कम मात्रा में रहता है।

गर्भवती महिलाओं, स्तनपान करने वाले शिशुओं, सीमित धूप वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और एड्स जैसी स्थितियों को सम्भालने के लिए विशिष्ट दवाएं लेने वाले व्यक्तियों में विटामिन डी की कमी का जोखिम होता हैं। लीवर या किडनी रोग भी विटामिन डी को उसके सक्रिय रूप में बदलने में बाधा डाल सकते हैं।

विटामिन डी की कमी के कोई विशिष्ट लक्षण नहीं है इसलिए इसका पता रक्त परीक्षण से लगता है। वैसे थकान, हड्डियों में दर्द और मांसपेशियों में कमज़ोरी कुछ लक्षण बताए जाते हैं।

सूर्य का प्रकाश विटामिन डी का मुख्य स्रोत है। आम तौर पर हल्की रंग की त्वचा वाले लोगों के लिए, सप्ताह में तीन बार कम से कम 10 से 20 मिनट की धूप विटामिन डी के आवश्यक स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मानी जाती है। इसके विपरीत, गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों को उतना ही विटामिन डी बनाने के लिए तीन से पांच गुना अधिक समय तक धूप में रहने की आवश्यकता होती है। वैसे सबसे प्रभावी समय वह होता है, जब सूर्य ठीक सिर पर होता है। दरअसल सूर्य की यू.वी.बी किरणें विटामिन डी के उत्पादन में मदद करती हैं। सुबह और देर दोपहर और सर्दियों में (जब सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं) और अधिक समय वातावरण में बिताती हैं तो वहीं (वातावरण में) अवशोषित हो जाती हैं। कुछ अन्य कारक भी विटामिन डी के उत्पादन को प्रभावित करते हैं। एक समय में सनस्क्रीन को विटामिन डी उत्पादन में बाधा माना जाता था लेकिन हाल के अध्ययनों ने इस धारणा को खारिज कर दिया है।

लेकिन विटामिन डी के लिए मात्र सूरज की रोशनी के भरोसे नहीं रहा जा सकता क्योंकि धूप से अधिक संपर्क के साथ त्वचा कैंसर का खतरा जुड़ा है और बदलती जीवन शैली के चलते लोग अधिक समय घरों के अंदर बिताने लगे हैं।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ डर्मेटोलॉजी ने वयस्कों को सूर्य के संपर्क या इनडोर टैनिंग के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के बजाय आहार स्रोतों का सुझाव दिया है। दुर्भाग्य से, विटामिन डी के प्राकृतिक खाद्य स्रोत दुर्लभ हैं। ट्राउट, ट्यूना, सैल्मन और मैकेरल जैसी वसायुक्त मछलियां, मछली के जिगर के तेल और यूवी-एक्सपोज़्ड मशरूम विटामिन-डी के सबसे अच्छे स्रोत हैं। इसकी कुछ मात्रा अंडे की ज़र्दी, पनीर और बीफ लीवर में पाई जाती है। यूएस, यूके और फिनलैंड सहित विभिन्न देश इस कमी को दूर करने के लिए दूध, अनाज, संतरे का रस और दही जैसे उत्पादों को विटामिन डी से समृद्ध करते हैं। लेकिन इसमें दिक्कतें हैं। जैसे, एक कप विटामिन डी युक्त दूध में आम तौर पर लगभग 3 माइक्रोग्राम विटामिन डी होता है, जबकि 70 से कम उम्र वालों के लिए 15 माइक्रोग्राम और इससे अधिक उम्र के वयस्कों के लिए 20 माइक्रोग्राम ज़रूरी है। 

शरीर को पर्याप्त विटामिन डी प्रदान करने के लिए धूप, विटामिन डी से भरपूर आहार और ज़रूरत पड़ने पर पूरक आहार के बीच संतुलन बनाना होता है। जहां तक विटामिन पूरकों की बात है, इनके अधिक सेवन से बचना चाहिए। अत्यधिक विटामिन डी के सेवन से मितली, मांसपेशियों में कमज़ोरी, भ्रम, उल्टी और निर्जलीकरण जैसे लक्षण हो सकते हैं। गुर्दे की पथरी, गुर्दे का खराब होना, अनियमित धड़कन और यहां तक कि मृत्यु भी संभव है। पूरकों के विपरीत, सूर्य का संपर्क स्वाभाविक रूप से विटामिन डी उत्पादन को नियंत्रित करता है, जिससे विटामिन डी की अधिकता का खतरा नहीं रहता।

वैसे यदि आपमें विटामिन डी की कमी नहीं है, तो अधिक विटामिन डी लेने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक ठीक-ठाक जीवन के लिए ज़रूरी सामान

हाल ही में एनवायरनमेंट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण सवाल का जवाब प्रस्तुत किया है: किसी व्यक्ति को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकालने के लिए कितने ‘सामान’ की आवश्यकता है। और जवाब है कि किसी व्यक्ति को सालाना लगभग 6 टन सामान लगेगा जिसमें भोजन, ईंधन, कपड़े और कई अन्य आवश्यक चीजें शामिल हैं।

यह अध्ययन ऐसे समय में काफी महत्वपूर्ण है जब संयुक्त राष्ट्र अपने सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की चुनौती से जूझ रहा है। इन लक्ष्यों में पर्यावरण की सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के साथ 2030 तक वैश्विक गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य शामिल है। वैसे इन चर्चाओं में जीवाश्म ईंधन हावी रहते हैं लेकिन इस अध्ययन में सीमेंट, धातु, लकड़ी और अनाज जैसे कच्चे माल की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है। गौरतलब है कि इनके उत्पादन और शोधन से जैव विविधता को 90 प्रतिशत हानि होती है और ये कार्बन उत्सर्जन में 23 प्रतिशत का योगदान देते हैं।

यह अध्ययन 2017 में निर्धारित बुनियादी जीवन मानकों पर आधारित है: रहने के लिए 15 वर्ग मीटर जगह, प्रतिदिन 2100 कैलोरी का सेवन, बुनियादी उपकरण, एक फोन, लैपटॉप और यातायात के साधन वगैरह।

अध्ययन में भौतिक ज़रूरतों की दो श्रेणियों पर ध्यान दिया गया: पहली श्रेणी में घर, स्कूल और बुनियादी ढांचे के निर्माण को शामिल किया गया जिसमें काफी अधिक प्रारंभिक निवेश की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर, ये बुनियादी संरचनाएं गरीबी में रह रहे प्रति व्यक्ति के लिए लगभग 43 टन या वैश्विक स्तर पर 51.6 अरब टन कच्चे माल की मांग करती हैं।

दूसरी श्रेणी में जीवन यापन के लिए दैनिक आवश्यक चीज़ें शामिल हैं: भोजन, शिक्षा, कामकाज जैसी दैनिक ज़रूरतें। इसकी अधिक विस्तृत गणना में फसल बायोमास, उर्वरक, कीटनाशकों और विभिन्न परिवहन साधनों को शामिल किया गया है। इन सभी डैटा को ध्यान में रखते हुए शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि अत्यंत गरीबी में रहने वाले 1.2 अरब लोगों के लिए सबसे न्यूनतम स्तर की सभ्य जीवन शैली को बनाए रखने के लिए प्रति वर्ष 7.2 अरब टन कच्चे माल की आवश्यकता होती है यानी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष लगभग 6 टन। अध्ययन की सबसे खास और उत्साहजनक बात यह है कि 6 टन का यह आंकड़ा ग्रह को अपूरणीय क्षति पहुंचाए बिना प्राप्त किया जा सकता है।

हालांकि इसमें अभी भी एक समस्या है। इस अध्ययन में माना गया है कि वैश्विक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति समान मात्रा में कच्चे माल का उपभोग करेगा। वर्तमान स्थिति को देखा जाए तो यूएस और जर्मनी जैसे समृद्ध देशों में रहने वाले हर व्यक्ति को 70 टन प्रति वर्ष से अधिक कच्चे माल की आवश्यकता होती है। यह दुनिया भर में उचित जीवन स्तर के लिए आवश्यक 8-14 टन प्रति व्यक्ति से कहीं अधिक है। यह बात संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिहाज़ से असमानता को कम करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है।

इतने बड़े अंतर को कम करने में अधिक कुशल उपकरणों का उपयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उदाहरण के लिए, मांस की खपत को आधा करने या सार्वजनिक परिवहन का विकल्प चुनने से प्रति व्यक्ति सामग्री उपयोग में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। ये निष्कर्ष पृथ्वी के स्वास्थ्य से समझौता किए बिना गरीबी को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ने के मार्ग की एक सम्मोहक तस्वीर पेश करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इलेक्ट्रॉन अवलोकन का साधन: भौतिकी नोबेल पुरस्कार

र्ष 2023 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार उन प्रायोगिक विधियों के लिए दिया गया है जिनकी मदद से प्रकाश की अत्यंत अल्प अवधि (एटोसेकंड) चमक पैदा करके पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की गतियों का अध्ययन किया जा सकता है। पुरस्कार ओहायो विश्वविद्यालय के पियरे एगोस्टिनी, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ क्वांटम ऑप्टिक्स के फेरेंक क्राउज़, तथा लुंड विश्वविद्यालय के एन एलहुइलियर को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन तीन भौतिक शास्त्रियों ने वैज्ञानिकों को ऐसे औज़ार उपलब्ध कराए हैं जिनकी मदद से परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉन्स का बेहतर अध्ययन संभव हो जाएगा। दरअसल, अणु-परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स की गतियां बहुत तेज़ रफ्तार से होती हैं और उनकी गति या ऊर्जा में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए वैसे ही त्वरित अवलोकन साधन की ज़रूरत होती है। आम तौर पर इतनी तेज़ रफ्तार घटनाएं एक-दूसरे पर इस कदर व्याप्त हो जाती हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो उनकी अलग-अलग तस्वीरें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि हमें एक निरंतर चलती तस्वीर का आभास होता है। इलेक्ट्रॉन के स्तर पर तो सब कुछ इतनी तेज़ी से होता है कि प्रत्येक परिघटना 1 एटोसेकंड के दसवें भाग में सम्पन्न हो जाती है। कहते हैं कि एक एटोसेकंड इतना छोटा होता है कि एक सेकंड में उतने ही एटोसेकंड होते हैं जितने सेकंड ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर अब तक बीते हैं।

इस वर्ष के नोबेल विजेता प्रकाश का ऐसा पल्स पैदा करने में सफल रहे हैं जो एक एटोसेकंड को नाप सकता है। इसकी मदद से हम अणु-परमाणु के अंदर चल रही प्रक्रियाओं की तस्वीरें प्राप्त कर सकते हैं।

बहरहाल उनके इस काम को वैज्ञानिक स्तर पर समझना काफी मुश्किल होगा और हमें इन्तज़ार करना होगा कि कोई भौतिक शास्त्री उसे हमारे स्तर पर समझाए। (स्रोत फीचर्स)

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आरएनए टीके के लिए चिकित्सा नोबेल पुरस्कार

स वर्ष का कार्यिकी अथवा चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार एक निहायत उपयोगी शोध कार्य के लिए दिया गया है। यह पुरस्कार जैव रसायन शास्त्री केटेलिन केरिको और प्रतिरक्षा विज्ञानी ड्रयू वाइसमैन को उन खोजों के लिए दिया जा रहा है जिनके दम पर कोविड-19 के खिलाफ आरएनए टीके का विकास संभव हुआ।

नोबेल समिति ने बताया है कि यह टीका कम से कम 13 अरब मर्तबा दिया गया और अनुमान है कि इसने लाखों लोगों की जान बचाने के अलावा कोविड-19 के करोड़ों गंभीर मामलों की रोकथाम में भूमिका निभाई थी।

केरिको ने पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में काम करते हुए मेसेंजर आरएनए नामक जेनेटिक सामग्री (एम-आरएनए) को कोशिकाओं में पहुंचाने का तरीका खोजा था जिसकी मदद से एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचाते हुए अनावश्यक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती।

गौरतलब है कि केरिको चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित 13वीं महिला वैज्ञानिक हैं। उनका जन्म हंगरी में हुआ था लेकिन बाद में यूएस आ गई थीं।

यह तो सर्वविदित है कि मॉडर्ना और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा संयुक्त रूप से विकसित कोविड-19 टीका उस एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचा देता है जो कोशिका में एक प्रोटीन का निर्माण करवाता है। यह प्रोटीन वही होता है जो सार्स-कोव-2 वायरस की सतह पर पाया जाता है, जिसे स्पाइक प्रोटीन कहते हैं। इस प्रोटीन की उपस्थिति की वजह से शरीर इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगता है और इस तरह से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है।

कई दशकों से एम-आरएनए आधारित टीकों के बारे में माना जाता था कि ये व्यावहारिक नहीं होंगे क्योंकि जैसे ही एम-आरएनए का इंजेक्शन दिया जाएगा, वह शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू कर देगा जो स्वयं उस एम-आरएनए को ही नष्ट कर देगी। 2000 के दशक के मध्य में केरिको और वाइसमैन ने दर्शाया था कि एक किस्म के एम-आरएनए अणु (युरिडीन) के स्थान पर उसी तरह के एक अन्य अणु (स्यूडोयुरिडीन) का उपयोग किया जाए तो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है। अर्थात टीके में एक किस्म के अणु की जगह दूसरे किस्म के अणु का इस्तेमाल करके कोशिका की प्रतिक्रिया को बदला जा सकता है। इसकी बदौलत एम-आरएनए द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। यानी टीके की प्रभाविता को बढ़ाया जा सकता है।

नोबेल समिति ने कहा है कि इस खोज ने चिकित्सा के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत कर दी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आम धारणा के विपरीत सिर्फ उपयोगी विज्ञान ही नहीं, बुनियादी विज्ञान में निवेश भी महत्वपूर्ण है। कोविड-19 टीके की सफलता के बाद फ्लू, एचआईवी, मलेरिया और ज़िका जैसी कई बीमारियों के लिए टीके विकास के चरण में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मंथर गति घोंघा – स्लग – के गंभीर प्रभाव – हरेन्द्र श्रीवास्तव

बारिश के मौसम में आपने घरों के आसपास, बाग-बगीचों और खेतों में अक्सर जोंक जैसा दिखने वाला एक जीव अवश्य देखा होगा। चिपचिपे पदार्थ को अपने शरीर से स्रावित कर ज़मीन पर बेहद धीमी गति से रेंगते हुए इस जीव को देखकर अक्सर यह जिज्ञासा पैदा होती है कि आखिर ये कौन-सा अनोखा जीव है? प्राय: देखा गया है कि अधिकांश लोग अनुमान लगाते और मान लेते हैं कि यह जोंक है। क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में यह कौन-सा जीव हो सकता है?

मानसून के दौरान दिखाई देने वाला ये जीव दरअसल घोंघे की एक प्रजाति है। इसे स्लग (slug) कहते हैं और हिंदी में इसे मंथर के नाम से जाना जाता है। स्लग एक अकशेरुकी जीव है जिसे जोंक समझ बैठते हैं। घोंघे के बारे में लोगों की धारणा है कि वह अपनी खोल के भीतर बंद रहता है और जिसके शरीर पर एक कठोर कवच पाया जाता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि हमने बचपन से ही नदी, तालाबों, पोखरों जैसे जलभराव क्षेत्रों में घोंघे का यही आकार एवं स्वरूप देखा है। विज्ञान की किताबों में भी अक्सर विद्यार्थियों को कवच वाले घोंघे के बारे में ही जानकारी दी जाती है, स्लग घोंघे के बारे में नहीं। लिहाज़ा लोग जानते ही नहीं कि बिना कवच के भी कोई घोंघा हो सकता है।

स्लग धरती पर जंतुओं के दूसरे सबसे बड़े संघ मोलस्का के अन्तर्गत गैस्ट्रोपॉड वर्ग के प्राणी हैं। आर्थ्रोपॉड्स के बाद मोलस्का ही जंतुओं का दूसरा सबसे बड़ा संघ है जिसमें 85 हज़ार से भी ज़्यादा प्रजातियां शामिल हैं। सामान्य तौर पर दिखाई देने वाले कठोर कवचयुक्त घोंघे के विपरीत स्लग एक ऐसा घोंघा है जिसके शरीर पर कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना नहीं पाई जाती है। इसलिए इसे कवच विहीन स्थलीय घोंघा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे लैंड स्लग, गार्डन स्लग, लेदरलीफ स्लग आदि नामों से जाना जाता है। दुनिया भर में स्लग की हज़ारों प्रजातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिक शोधों के मुताबिक भारत में स्लग और स्थलीय घोंघो की 1400 से भी ज़्यादा प्रजातियां विभिन्न भौगोलिक पर्यावासों में फैली हुई हैं: पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत, हिमालयी क्षेत्र वगैरह।

स्लग मुख्यत: रात में सक्रिय होते हैं। स्लग का शरीर बेहद नरम एवं मुलायम होने के साथ ही बहुत नम भी होता है। स्लग कड़ी धूप और तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं क्योंकि इन्हें अपने नरम ऊतकों के सूखने का खतरा बना रहता है। अत: अपने शरीर में नमी बनाए रखने हेतु ये ज़्यादा गर्म व शुष्क मौसम से बचने का प्रयास करते हैं। शरीर की नमी सूखने ना पाए, इसलिए ये पेड़ की छाल, पत्तियों के ढेर और ज़मीन पर गिरी लकड़ी जैसी जगहों पर छिप जाते हैं। यही कारण है कि स्लग वर्षा ऋतु में ही बाग-बगीचों, नर्सरी और खेतों की नम भूमि तथा पौधों पर दिखाई देते हैं। स्लग के सिर के अग्रभाग पर दो जोड़ी स्पर्शिकाएं पाई जाती हैं। ये स्पर्शिकाएं स्लग को गंध एवं प्रकाश का अनुमान लगाने में मदद करती हैं।

स्लग प्राय: काले, भूरे, हरे, पीले और स्लेटी रंगों में देखने को मिलते हैं। स्लग का प्रजनन काल मुख्यत: बारिश के मौसम में शुरू होता है। इनकी प्रजनन गतिविधियां भरपूर नमी और उच्च आर्द्रता वाले मौसम पर निर्भर करती हैं। यही कारण है कि मानसून के दौरान उच्च आर्द्रता वाले मौसम में प्रजनन के उपरांत इनकी संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जाती है। स्लग एक बार में औसतन 30-40 अंडे देते हैं। कुछ प्रजातियां एक बार में 80 से भी ज़्यादा अंडे दे सकती हैं।

ज़मीन पर चलते हुए ये अपने शरीर से एक बेहद चिपचिपा सा तरल पदार्थ छोड़ते जाते हैं जिस कारण से देखने में ये घिनौने प्रतीत होते हैं। दरअसल इस चिपचिपे द्रव से इन्हें ज़मीन की उबड़-खाबड़ सतह पर चलने में मदद मिलती है। इसी चिपचिपे पदार्थ की मदद से ये पौधों की टहनियों और पत्तियों पर भी बड़ी आसानी चलते जाते हैं। यह चिपचिपा पदार्थ शिकारियों से सुरक्षा करने में भी इनकी सहायता करता है।

स्लग का आहार वनस्पतियां और फफूंद हैं। स्लग पौधों की पत्तियां, बीजांकुर, कुकुरमुत्ते, फफूंद, सब्जि़यां, फल आदि खाते हैं। खतरा महसूस होने पर स्लग अपने बेहद लचीले शरीर को सिकोड़कर गोल और स्थिर कर लेते हैं। काले और भूरे रंगों वाले स्लग स्थिर एवं संकुचित अवस्था में आलू के छिलके की तरह दिखाई देते हैं इसलिए कभी-कभी इनके शिकारी और इंसान भी गच्चा खा जाते हैं।

स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वातावरण के प्रति बेहद संवेदनशील होने के कारण ये बदलते मौसम एवं जलवायु के प्राकृतिक संकेतक हैं। स्लग प्राकृतिक खाद्य शृंखला के भी महत्वपूर्ण घटक हैं। कई प्रजाति के पक्षियों, सांपों, छिपकलियों, छोटे स्तनपायी जीवों एवं कुछ अकशेरुकी जंतुओं के लिए भी स्लग मुख्य आहार हैं। स्लग वातावरण से सड़ी-गली वनस्पतियों, कवकों तथा मृत कीटों के अवशेषों का भी सफाया करते हैं और पर्यावरण में पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण करते हैं। स्लग कई जंगली प्रजाति के जीवों को मैग्नीशियम, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे पोषक तत्व उपलब्ध करवाते हैं।

हालांकि स्लग की पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इनकी कई प्रजातियां आज कृषि एवं बागवानी के लिए बेहद हानिकारक कीट के रूप में गिनी जाती हैं। पिछले कुछ दशकों से स्लग दुनिया भर के सैकड़ों देशों में आक्रामक प्रजाति के तौर पर व्यापक रूप से फैल गए हैं जो अंकुरित पौधों, पत्तियों, फल-फूलों और सब्जि़यों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और आयात-निर्यात जैसी आर्थिक गतिविधियों के चलते स्लग की कई प्रजातियां अपने मूल स्थान से अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में पहुंचकर वहां की स्थानीय जैव विविधता के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। ज़ाहिर है जब वनस्पति या जीव-जंतु की कोई भी प्रजाति अपने मूल स्थान से नए क्षेत्रों में पहुंच जाए तो वे या तो उस वातावरण में जीवित नहीं रह पाती, या यदि किसी तरह उस नए वातावरण में ढल जाती हैं और वहां की स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करने लगती है जिस कारण पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होना स्वाभाविक है। लैंटाना और गाजर घास इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। स्लग की भी कई प्रजातियां एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में पहुंचकर आज कृषि एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। स्लग नए पारिस्थितिकी क्षेत्रों में इसलिए भी तेज़ी से फलते-फूलते हैं क्योंकि नई जगह पर उनका कोई बड़ा शिकारी नहीं होता।

स्लग पौधे के समस्त हिस्सों का उपभोग करते हैं। ये पत्तियों के बीच वाले भाग में छेद कर देते हैं और किनारे वाले भागों को कुतर देते हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। स्लग पौधों को तेज़ी से चट करते हैं जिसके चलते वनस्पतियों की कई प्रजातियों में काफी गिरावट आती है। यहां तक कि कई पौधों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर भी पहुंच जाती हैं और उन वनस्पतियों पर निर्भर जीव-जंतुओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाता है। स्लग द्वारा स्रावित चिपचिपा पदार्थ भी पौधों की संरचना को नुकसान पहुंचाता है।

भारत में स्लग की तकरीबन 15 प्रजातियां गंभीर कृषि कीट के रूप में पहचानी गईं हैं जिनमें से कॉमन गार्डन स्लग या लेदरलीफ स्लग (लेविकौलिस अल्टे) और ब्राउन गार्डन स्लग (फीलिकौलिस अल्टे) लगभग पूरे देश में फैली हैं। पश्चिम बंगाल में मार्श स्लग (डेरोसिरास लीवे) एक नई खोजी गई आक्रामक स्लग प्रजाति है। आज कॉमन गार्डन स्लग भारत सहित दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में तेज़ी से फैल रहे हैं। भारत में कई सब्ज़ियों और फूलों को तेज़ी से नुकसान पहुंचाते देखा गया है। ये स्लग नर्सरी में सुगंधित एवं औषधीय पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह ब्राउन गार्डन स्लग मूली, बंदगोभी, ब्रोकोली और पत्तागोभी को नष्ट करता है। दक्षिण भारत में यह कॉफी, रबर, ताड़, केला और काली मिर्च के पौधों के लिए अत्यन्त नुकसानदायक है। अफ्रीका का मूल निवासी कैटरपिलर स्लग भारत में हाल में ही नई आक्रामक प्रजाति के रूप में रिपोर्ट किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक कैटरपिलर स्लग के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 26 अरब डॉलर का घाटा होता है। लेविकौलिस हेराल्डी नामक एक नई विदेशी स्लग प्रजाति महाराष्ट्र में पहचानी गई है।

कई देशों में इन हानिकारक स्लग प्रजातियों को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। आम तौर पर किसान अपने खेतों में स्लग की बढ़ती आबादी को रोकने हेतु नमक का छिड़काव करते हैं जो उनके शरीर की नमी को सोख लेता है लेकिन इससे मिट्टी के क्षारीय एवं लवणीय होने का खतरा है। स्लग प्राय: शुष्क जगहों से बचने का प्रयास करते हैं इसीलिए किसानों द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के लिए सूखी राख का भी प्रयोग किया जाता है। साल में दो बार खेतों की गहरी जुताई करना भी स्लग से छुटकारा पाने का पर्यावरण अनुकूल तरीका है। जुताई से मिट्टी में मौजूद स्लग के अंडे नष्ट हो जाते हैं या मिट्टी से बाहर आकर शिकारियों द्वारा खा लिए जाते हैं। खेतों-क्यारियों की समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना भी स्लग को रोकने का एक कारगर उपाय है क्योंकि इससे स्लग के अंडे और स्लग को पोषण तथा आश्रय देने वाले खरपतवार पौधे नष्ट हो जाते हैं। कॉपर सल्फेट और ऑयरन फास्फेट भी स्लग को नष्ट करने में मददगार साबित हुए हैं।

स्लग नियंत्रण के उपायों में कृषि भूमि के आसपास पक्षियों एवं सांपो का संरक्षण शामिल करना होगा क्योंकि ये जंतु इनके प्राकृतिक शिकारी हैं और इनकी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने में सक्षम हैं। कुछ किसानों और बागवानों द्वारा इन्हें हाथ से पकड़कर दूर किया जाता है जो एक सार्थक प्रयास है।

वास्तव में देखा जाए तो मानव द्वारा पर्यावरण एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने के चलते ही स्लग की कुछ प्रजातियां कृषि और बागवानी के लिए हानिकारक साबित हुई हैं। हम मनुष्यों ने विदेशी पौधों एवं वन्य जीवों को दूसरे देशों से आयात किया और साथ में इन आक्रामक प्रजातियों को भी अपने खेतों तक पहुंचा दिया। किसानों द्वारा पक्षियों और सांपों को कीटनाशकों का उपयोग कर मार दिया गया जो स्लग के प्राकृतिक नियंत्रणकर्ता थे। कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन स्लग हमारी खेती और अर्थव्यवस्था को चौपट कर दें। सरकार द्वारा प्रशिक्षण एवं जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर किसानों को स्लग के भावी खतरे के प्रति सचेत करना होगा। बंदरगाहों एवं हवाई अड्डों पर बाहरी देशों से आयातित वस्तुओं का निरीक्षण कर देश में विदेशी स्लग प्रजातियों के घुसपैठ को रोका जा सकता है। अत: इस बारे में नियम-कायदे बनाने चाहिए। स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में मुख्य भूमिका निभाते हैं और वो भी इसी पर्यावरण के अभिन्न अंग है लेकिन जब वो मानवीय गतिविधियों के चलते अपने मूल भौगोलिक क्षेत्र से भटक जाते हैं, तब नए परितंत्र में वे कृषि एवं जैव विविधता के लिए संकट खड़ा करते हैं। आज ज़रूरत है कि हम खुद पर्यावरण के प्रति सचेत हों ताकि मानव, जैव विविधता एवं प्रकृति के बीच संतुलन बना रहे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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