अंतरिक्ष में कानूनी ब्लैक होल्स – सैमुअल स्टॉकवेल

30 अप्रैल 2020 के दिन नासा ने तीन निजी कंपनियों को 2024 का चंद्र अभियान पूरा करने के लिए 96.7 करोड़ डॉलर का एक संयुक्त ठेका दिया था। नासा के प्रशासक जिम ब्राइंडस्टोन ने दावा किया था कि यह वह अंतिम मोहरा है जिसकी ज़रूरत अमेरिका को चंद्रमा तक पहुंचने के लिए थी। इस बात को मीडिया में तो खूब प्रसारित किया गया था लेकिन इस बात पर बहुत कम चर्चा हुई थी कि अंतरिक्ष अभियानों को लेकर जो मौजूदा कानून/संधियां हैं वे निजी कंपनियों के उपक्रमों पर किस हद तक लागू होते हैं। दरअसल, कॉर्पोरेट जगत द्वारा धरती से बाहर कदम जमाने के चलते आशाओं और चिंताओं दोनों को हवा मिली है। चिंताएं और आशाएं अंतरिक्ष में बढ़ते पूंजीगत निवेश के संभावित लाभों को लेकर हैं।

1967 में राष्ट्र संघ बाह्य अंतरिक्ष संधि (OST) मंज़ूर की गई थी। यह यूएस के तथाकथित ‘नव-अंतरिक्ष’ किरदारों के उदय के संदर्भ में विश्लेषण का एक ढांचा माना गया था। इस लेख का तर्क है कि बाह्य अंतरिक्ष में निजी कंपनियों की मौजूदगी को लेकर कई महत्वपूर्ण कानूनी अस्पष्टताएं हैं। इन खामियों की वजह से ही यूएस सरकार को यह गुंजाइश मिली है कि वह OST के अंतर्गत अपने दायित्वों को दरकिनार कर सके और साथ ही संरचना को परिवर्तित करके अंतरिक्ष की ‘वैश्विक साझा संसाधन’ की धारणा को ठेस पहुंचा सके। OST के अंदर अंतरिक्ष के संसाधनों को लेकर निजी संपदा अधिकारों को लेकर विशिष्ट प्रावधान न होने के कारण यह जोखिम पैदा हो रहा है कि धरती के संसाधनों में जो गैर-बराबरी है वह, और अंतरिक्ष में यूएस का दबदबा दोनों अंतरिक्ष के संसाधनों पर भी लागू हो जाएंगे। इस तरह से, अंतरिक्ष के लाभ एक व्यापक विश्व समुदाय की बजाय मुट्ठी भर धनवान अमेरिकी निवेशकों के हाथों में सिमट जाएंगे।

इसके अलावा, OST में अंतरिक्ष निरीक्षण के नियमन को लेकर जो कमज़ोर प्रावधान हैं, उनके चलते यूएस उपग्रहों के नेटवर्क (global panopticon) को बढ़ावा मिलेगा। दोहरे उपयोग वाली टेक्नॉलॉजी के उभार की वजह से सैन्य और नागरिक अवलोकनों के बीच का अंतर धुंधला पड़ रहा है। इसके चलते यूएस द्वारा अंतरिक्ष-आधारित डैटा संग्रह की प्रकृति को लेकर गंभीर नैतिक चिंताएं पैदा हुई हैं।

और, अंतिम बात कि निजी उपग्रहों की बढ़ती संख्या इस बात की संभावना बढ़ा रही है कि अंतरिक्ष में फैले मलबे के बीच भयानक टक्करें होंगी और भू-राजनैतिक तनाव बढ़ेंगे। इस तरह के विकास की वजह से अंतरिक्ष में ऐसे अपमिश्रण की आशंका भी कई गुना बढ़ गई है, जिसकी कल्पना OST में नहीं की गई थी।

राष्ट्र संघ बाह्य अंतरिक्ष संधि और नवअंतरिक्ष किरदार

हालांकि OST 1967 में अस्तित्व में आई थी, लेकिन संभवत: आज भी यही एक प्रासंगिक उपकरण है जिसके तहत बाह्य अंतरिक्ष में राज्य तथा गैर-राज्य गतिविधियों का विश्लेषण किया जा सके। शीत युद्ध के चरमोत्कर्ष पर अंतरिक्ष के सैन्यकरण तथा राष्ट्रों द्वारा आकाशीय पिंडों पर कब्ज़े, दोनों की रोकथाम के संदर्भ में OST का प्रमुख स्थान है। 100 से ज़्यादा राष्ट्रों ने इसका अनुमोदन किया है – जिनमें यूएस, रूस व चीन जैसे प्रमुख अंतरिक्ष यात्री राष्ट्र शामिल हैं – और इस प्रकार से यह संधि एक अधिकारिक दस्तावेज़ के तौर पर व्यापक रूप से मान्य है और यही बाद में बनने वाली अन्य अंतरिक्ष संधियों का आधार रही है। यह संधि बाद के दस्तावेज़ों से इस मायने में भिन्न है कि कई देश इन पर हस्ताक्षर करने से कतराते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर 1972 की चंद्रमा संधि जिसका उद्देश्य चंद्र अभियानों और विकास में सहयोग को बढ़ावा देना है।

बाह्य अंतरिक्ष के क्षेत्र में शामिल हो रहे अमेरिकी किरदारों में बहुत विविधता आई है। हालांकि ये 1950 के दशक से ही नासा के साथ काम करते रहे हैं, लेकिन तब व्यावसायिक उद्यम मूलत: रॉकेटों तथा अंतरिक्ष गतिविधियों से सम्बंधित अन्य पुर्ज़ों का उत्पादन किया करते थे। लेकिन, अपोलो 11 के चांद पर उतरने के बाद से नासा के बजट में कुल मिलाकर तेज़ गिरावट देखी गई और इसके साथ ही सरकारी कार्यों के निजीकरण की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इसकी वजह से निजी अंतरिक्ष कंपनियों की क्षमताएं और नज़रिया दोनों बदले हैं।

एक ओर अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में विश्व स्तर पर विस्तार हो रहा है, वहीं 2012 से 2013 के दरम्यान सरकारों का खर्च 1.3 प्रतिशत कम हुआ है और व्यावसायिक क्षेत्र में लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। निजी अंतरिक्ष क्षेत्र में विस्तार का प्रमुख ज़ोर तथाकथित ‘नव-अंतरिक्ष’ किरदारों से आया है। ये मूलत: यूएस स्थित उद्यमी हैं जो 30 से अधिक वर्षों से अंतरिक्ष को व्यावसायिक क्षेत्र बनाने का प्रयास करते आए हैं। अर्थव्यवस्था के उदारवादी नज़रिए से चालित और अंतरिक्ष खोजबीन में नासा की ऐतिहासिक पकड़ के आलोचक ये किरदार स्वयं को ‘अंतिम मोर्चे’ के अग्रणि किरदार कहते आए हैं जो निजी वित्तपोषित अंतरिक्ष अभियानों के ज़रिए मानवता को विलुप्ति से बचाएंगे।

पृथ्वी के नज़दीकी पिंड और संसाधन का खनन : अंतरिक्ष में यूएस की निजी संपत्ति

अपोलो अभियानों की मदद से प्राप्त चंद्रमा की चट्टानों के नमूनों में हीलियम-3 जैसे दुर्लभ तत्व हैं जो पृथ्वी पर पारंपरिक नाभिकीय परमाणु बिजली घरों की अपेक्षा ज़्यादा बिजली पैदा कर सकते हैं और इनमें कचरा भी कम पैदा होगा। ऐसे ही संसाधनों ने धरती से परे संसाधनों के खनन के लिए प्रलोभन-प्रोत्साहन प्रदान किया है। इस विचार को और बल मिला जब यह पता चला कि पृथ्वी के नज़दीकी पिंडों (जैसे तथाकथित एंटेरॉस क्षुद्र ग्रह) में शायद पांच खरब डॉलर मूल्य का मैग्नीशियम सिलिकेट और एल्युमिनियम मौजूद है।

अंतरिक्ष-यात्री राष्ट्रों द्वारा अंतरिक्ष के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के ऐसे संभावित प्रयासों के मद्देनज़र राष्ट्र संघ OST के अनुच्छेद II में घोषित किया गया था कि: “बाह्य अंतरिक्ष पर राष्ट्रीय संप्रभुता के आधार पर, कब्ज़ा करके, उसका उपयोग करके या अन्य किसी तरीके से, अधिग्रहित करने की अनुमति नहीं है।” राष्ट्रीय संप्रभुता के दावों पर ज़ोर देने का मुख्य सरोकार उस समय जारी शीत युद्ध के माहौल से था, जब अंतरिक्ष गतिविधियां पूरी तरह सरकारी संस्थाओं का एकाधिकार थीं और इन्हें सैन्य वर्चस्व या राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के उद्देश्य से शुरू किया जाता था।

अलबत्ता, 1980 के दशक से अंतरिक्ष उद्योग के निजीकरण का अर्थ हुआ है कि उक्त कानून में अंतरिक्ष में संसाधनों के निजी दोहन के नियमन को लेकर कई कानूनी अस्पष्टताएं हैं और व्याख्या की गुंजाइश है। जैसा कि एम. शेयर ने दर्शाया है, अनुच्छेद II इस समस्या को संबोधित करने में असफल रहता है कि अंतरिक्ष का दोहन वित्तीय लाभ के लिए करने पर या निजी उद्योग द्वारा उस पर अपना अधिकार जताने पर क्या किया जाएगा।

बहरहाल, राष्ट्र संघ संधि का अनुच्छेद VI कहता है: “राष्ट्रीय अंतरिक्ष गतिविधियों के लिए राज्य ज़िम्मेदार होगा, चाहे वे गतिविधियां सरकारी एजेंसी द्वारा की जाएं या गैर-सरकारी एजंसियों द्वारा।” कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह अनुच्छेद निजी अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन्स की गतिविधियों पर काफी अंकुश लगा सकता है, क्योंकि इसके अंतर्गत निजी एजेंसियों की गतिविधियों का दायित्व भी राज्य पर होगा। अलबत्ता, यूएस सरकार ने हाल ही में एक कानून लागू किया है जिसमें इस अनुच्छेद का फायदा उठाया गया है ताकि अपने प्रतिबंधों को बायपास कर सके और अंतरिक्ष में यूएस के आर्थिक दबदबे को मज़बूत कर सके। 2015 के यूएस अंतरिक्ष कानून के पारित होने से “यूएस के नागरिकों को अंतरिक्ष से प्राप्त हुए संसाधनों को अपने पास रखने, उनके स्वामित्व, परिवहन और बिक्री” का अधिकार मिल गया है। अर्थात इसमें सावधानीपूर्वक राष्ट्रीय संप्रभुता के दावे को छोड़ दिया गया है।

तो, चाहे वह कोई अमेरिकी निजी कंपनी हो या सार्वजनिक उद्यम हो, यूएस अपने भू-राजनैतिक हितों की पूर्ति कर रहा है जिसके लिए वह अमेरिकी लाभ के लिए अंतरिक्ष के संसाधनों को समेट रहा है। इस तरह से राष्ट्र की सॉफ्ट शक्ति में चीन जैसे अंतरिक्ष-यात्री देशों की कीमत पर इजाफा हो रहा है।

दरअसल, नव-अंतरिक्ष किरदारों ने विधेयक के पारित होने से पहले इन सामरिक सरोकारों को चतुराई से उछाला था। जैसे अरबपति अंतरिक्ष उद्यमी रॉबर्ट बिजलो ने दावा किया था कि सबसे बड़ा खतरा चांद पर निजी उद्यमियों से नहीं है बल्कि इस बात से है कि “अमेरिका सोता रहे, कुछ न करे जबकि चीन आगे आए…सर्वेक्षण करे और [चांद पर] दावा ठोंक दे।”

यूएस सरकार द्वारा निजी कंपनियों को समर्थन से संभावना है कि संपदा में पृथ्वी-आधारित गैर-बराबरी को अंतरिक्ष में मज़बूत किया जाएगा। कई नव-अंतरिक्ष किरदार अंतरिक्ष में अपनी दीर्घावधि महत्वाकांक्षाओं को मानवीय सुर में ढालते हैं। जैसे, वे यह वादा करेंगे कि वे मानव जाति को आसन्न विलुप्ति के खतरे से बचाने के लिए अंतरिक्ष में बस्तियां बनाएंगे। अलबत्ता, इस तरह का विमर्श शायद ही उनकी खालिस निजी प्रकृति को छुपा सके। वे यह कहते नज़र आते हैं कि पूरे मामले में आम नागरिकों का हित जुड़ा है लेकिन हकीकत यह है कि ये अंतरिक्ष अग्रदूत वास्तव में एक छोटे से ब्रह्मांडीय आभिजात्य समूह के सदस्य हैं – Amazon.com, Microsoft, Pay Pal के संस्थापक और तरह-तरह के गेम डिज़ाइनर तथा होटल व्यवसायी।

वास्तव में, निजी अंतरिक्ष उद्यमियों ने स्वयं सुझाव दिया है कि उन पर कोई दायित्व नहीं होना चाहिए कि वे अंतरिक्ष से प्राप्त खनिज संसाधनों को विश्व समुदाय के साथ साझा करें। यह बात नाथन इंग्राहम (टेकसाइट EngadAsteroid mining के वरिष्ठ संपादक) के भाषण में साफ प्रतिबिंबित हुई थी। उन्होंने कहा था कि क्षुद्रग्रह खनन कैसा होगा यह इस बात पर निर्भर है कि  “अमेरिका अंतरिक्ष में कैसे आगे बढ़ता है और अगली वेगास स्ट्रिप कैसे विकसित करता है।” ऐसी टिप्पणियां उस चीज़ को रेखांकित करती हैं जिसे बीयरी ‘स्केलर पोलिटिक्स’ कहते हैं। जिस तरह से गैर-बराबर अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों ने बाह्य अंतरिक्ष के साथ हमारे सम्बंधों को ‘वैश्विक साझा संपदा’ की आड़ में छिपाया है, उसी तरह निजी कंपनियां, अपनी मानवीय लफ्फाज़ी के ज़रिए, अंतरिक्ष से संसाधनों का दोहन करके पार्थिव गैर-बराबरियों और सामाजिक सम्बंधों को अंतरिक्ष में पहुंचा रही हैं। नव-अंतरिक्ष किरदार अपने उद्यमों की रचना इस तरह से करते हैं कि वे आम हित लुभाएं, और इसके पर्दे में यह बात छिपा लें कि वास्तव में व्यावसायिक संसाधन दोहन मात्र उनके निजी हितधारकों (शेयरहोल्डर्स) के हितों को पूरा करता है। और यह काम दुनिया के बहुसंख्य लोगों की कीमत पर किया जाता है।

निजी अंतरिक्ष कंपनियां और कक्षीय निगरानी : दोहरे उपयोग वाली टेक्नॉलॉजी

2013 से शुरू होकर, यूएस नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी के कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के द्वारा लीक की गई गोपनीय सूचनाओं से पता चला था कि किस हद तक अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियां निगरानी के व्यापक कार्यक्रमों में निजी एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रही हैं। इसे समाज के ‘सुरक्षाकरण’ (securitisation) का नाम दिया गया है और इसके तहत वर्तमान राज्य ‘राजनीति से निगरानी की ओर तथा शासन से (प्रजा के) प्रबंधन की ओर’ बढ़े हैं। और यह परिवर्तन नागरिकों की सहमति के बगैर किया गया है। हालांकि पारंपरिक रूप से ये क्रियाकलाप पृथ्वी-आधारित रहे हैं, लेकिन अंतरिक्ष ने उपग्रहों के ज़रिए निगरानी के रणनीतिक रूप से लाभदायक तरीके उपलब्ध करा दिए हैं।

यह सही है कि कई सारे व्यावसायिक उपग्रह पृथ्वी के पर्यावरण और इंटरनेट के लिहाज़ से महत्वपूर्ण क्षमताएं प्रदान करते हैं, लेकिन साथ ही ये राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यूएस के दबदबे के लिए अत्यंत ज़रूरी हैं। इसीलिए उपग्रहों की प्रकृति को दोहरे उपयोग की प्रकृति कहा जाता है। इसमें नागरिक उपयोग और सैन्य उद्देश्य एक ही अवलोकन उपकरण में घुल-मिल जाते हैं और इन्हें ज़रूरत के अनुसार अलग-अलग कार्यों में तैनात किया जा सकता है। दोहरे उपयोग उपग्रह टेक्नॉलॉजी यूएस सेना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रही है और इसने जंग के मैदानों में विशेष लाभ दिया है। और इसमें से उपग्रह संचार की 80 प्रतिशत ज़रूरतों की पूर्ति व्यावसायिक उपग्रहों द्वारा की जाती है। इन नेटवर्क्स पर निर्भरता यूएस सैन्य दबदबे का एक प्रमुख घटक है जिसे ‘अंतरिक्ष नियंत्रण’ कहा जाता है। इसका एक लक्ष्य यह है कि व्यावसायिक उपग्रह डैटा के संचार को सुरक्षित रखा जाए जिसकी मदद से संवेदनशील सैन्य सूचनाएं उजागर न हों।

बाह्य अंतरिक्ष संधि में ऐसा कोई अनुच्छेद नहीं है जिसमें अंतरिक्ष में डैटा निगरानी के लिए नियम-कानून निर्धारित किए गए हों। फिर भी यह माना जा सकता है कि किसी भी रूप में बदनीयती या गैर-कानूनी ढंग से की गई निगरानी अनुच्छेद XI का उल्लंघन है। अनुच्छेद XI में राज्यों से अपेक्षित है कि वे “अपनी अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रकृति, संचालन, भौगोलिक स्थिति और परिणामों के बारे में राष्ट्र संघ के महासचिव के अलावा आम लोगों तथा अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय को यथासंभव अधिक से अधिक तथा व्यावहारिक रूप से संभव सूचना प्रदान करेंगे।” कानूनी विशेषज्ञों ने मत व्यक्त किया है कि यह अनुच्छेद काफी कमज़ोर है क्योंकि राज्य अपनी अंतरिक्ष गतिविधियों की सूचना यह कहकर रोक सकते हैं कि उसे प्रसारित करना संभव या व्यावहारिक नहीं है। राष्ट्र संघ के किसी स्पष्ट दिशानिर्देश की अनुपस्थिति का मतलब यह भी रहा है कि अमेरिकी उपग्रह कंपनियां बढ़ते क्रम में अपनी मंशाएं उजागर करने से इन्कार कर पा रही हैं। वे यह भी बताने से इन्कार कर पा रही हैं कि उनके ग्राहक कौन हैं। यूएस सरकार ऐसे ही गुप्त ग्राहकों में है।

1994 में यूएस राष्ट्रपति के निर्णय क्रमांक 23 ने यूएस सरकार को यह अधिकार प्रदान किया था कि वह कंपनियों द्वारा कतिपय उपग्रह चित्र बेचने पर प्रतिबंध लगा सके या ऐसी बिक्री को सीमित कर सके। इस प्रक्रिया को ‘शटर कंट्रोल’ कहा जाता है। यह इस मायने में विवादास्पद है कि यह यूएस कार्यपालिका को यह अधिकार देती है कि वह कतिपय परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी को सीमित कर सके, जो संभवत: प्रथम संशोधन में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन है। 2001 के अफगानिस्तान युद्ध के दौरान यूएस सरकार ने जियोआई उपग्रह से प्राप्त उन समस्त तस्वीरों के अधिकार खरीद लिए थे जो युद्धस्थल के ऊपर से ली गई थीं। इसका कारण राष्ट्रीय सुरक्षा बताया गया था। अलबत्ता, मीडिया समूहों ने सरकार के इस सौदे पर आरोप लगाया था कि इसके ज़रिए उन्हें आम लोगों को महत्वपूर्ण मामलों के बारे में सूचना देने से रोका जा रहा है, जिनमें राष्ट्रीय सुरक्षा का कोई मसला है भी नहीं। उदाहरण के लिए इसमें ऐसी सूचनाएं शामिल थीं कि सिविल इमारतों को कितना नुकसान पहुंचा है या कितने नागरिक मारे गए हैं। लिहाज़ा, इन कदमों ने OST के अनुच्छेद XI का उल्लंघन किया था क्योंकि इनके ज़रिए महत्वपूर्ण सूचनाएं जनता से छिपाई गई थीं जबकि यह व्यावहारिक रूप से संभव था और बहाना राष्ट्रीय सुरक्षा का बनाया गया था। इसके अलावा, इन कदमों से यूएस सरकार उन इलाकों के कवरेज के साथ भी छेड़छाड़ कर सकी जो उसे अफगानिस्तान युद्ध में जनता के समर्थन की दृष्टि से महत्वपूर्ण लगे, और साथ ही अंतरिक्ष में अपना दबदबा भी बढ़ाया। कई मायनों में इसे ‘वैश्विक पैनॉप्टिकल’ खुफिया नेटवर्क को सुगम बनाने की एक रणनीति भी माना जा सकता है।

बाह्य अंतरिक्ष में सार्वजनिक-निजी संकर ढांचे को बढ़ावा देकर कंपनियों और सरकारों को यह अवसर मिल जाता है कि वे किसी भी स्थान पर विश्व भर के करोड़ों नागरिकों की निगरानी, उनके जाने बगैर, कर सकें और इसके ज़रिए विशाल मात्रा में आंकड़े जुटा सकें। यह जानी-मानी बात है कि जियोआई को उसके आईकोनोस चित्रों के लिए यूएस सरकार से लगभग 20 लाख डॉलर मिले थे। इससे व्यावासायिक उपग्रह उद्योग को प्रलोभन मिलेगा कि वह ऐसी जानकारियों को छिपाकर रखे जो दुनिया भर में नागरिकों के हित में काम आ सकती है। इस मायने में, उपग्रह तस्वीरें एक किस्म के कक्षीय डैटा अधिग्रहण का रूप ले सकती हैं जहां कंपनियां अतंरिक्ष में निगरानी करेंगी और अपनी सूचनाएं सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच देंगी। और इस प्रक्रिया में निजता वगैरह की कोई परवाह नहीं की जाएगी। कैम्ब्रिज एनालिटिका और फेसबुक से जुड़े मामलों में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है कि कंपनियां किस हद तक अपने उपभोक्ताओं की सूचनाओं का मौद्रिकरण कर रही हैं।

कॉर्पोरेट अंतरिक्ष मलबा, सुरक्षा सम्बंधी तनातनी और पर्यावरणीय संदूषण

अंतरिक्ष में विचरती मानव-निर्मित निरुद्देश्य वस्तुओं को अंतरिक्ष मलबा कहा जा सकता है। ये वस्तुएं पहले किए गए अंतरिक्ष अभियानों के निष्क्रिय टुकड़े हो सकते हैं, उपग्रहों के टुकड़े हो सकते हैं। पृथ्वी की कक्षा में लगभग 30,000 मलबा टुकड़े हैं। यह सही है कि अधिकांश मलबे का आकार सेंटीमीटर या मिलीमीटर में ही है लेकिन ये टुकड़े अक्सर बंदूक की गोली की रफ्तार से चलते हैं। अर्थात ऐसे दो टुकड़ों के बीच टक्कर काफी घातक हो सकती है – पर्यावरण, यांत्रिकी और वित्तीय दृष्टि से।

1978 में केसलर सिंड्रोम सिद्धांत का विकास हुआ था – यह सिद्धांत भविष्यवाणी करता है कि अंतरिक्ष मलबा इतना घना हो जाएगा कि एक टक्कर टक्करों के एक सिलसिले को जन्म दे देगी। ऐसा माना जाता है कि अंतरिक्ष मलबा तात्कालिक रूप से सैन्य-अंतरिक्ष गतिविधियों की अपेक्षा ज़्यादा बड़ा खतरा होगा। यह पता करना भी मुश्किल होगा कि कोई टक्कर मात्र एक हादसा थी या जानबूझकर करवाई गई थी। इस अनिश्चितता के चलते समस्या और विकराल हो जाती है क्योंकि कहते हैं कि ‘अंतरिक्ष की हर वस्तु शेष समस्त वस्तुओं के लिए खतरा है।’ इन्हीं बातों के चलते यूएस प्रशासन कक्षीय मलबे के संदर्भ में अधिक से अधिक सुरक्षाकरण का विमर्श अपनाने लगा है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि भविष्य में अमेरिकी उपग्रहों की टक्कर के प्रति यूएस की प्रतिक्रिया सैन्य दृष्टिकोण से दी जाएगी।

कई सारे नव-अंतरिक्ष किरदार, हालिया उपग्रह प्रस्तावों के ज़रिए, शायद इस चिंता को और पेचीदा बनाएंगे। एक ओर तो बोइंग लगभग 3000 उपग्रहों का नक्षत्र प्रस्तावित कर रही है वहीं स्पेसएक्स की योजना तो और भी महत्वाकांक्षी है – वह तो 4425 उपग्रह प्रक्षेपित करने की योजना बना रही है और निकट भविष्य में इनकी संख्या 12,000 कर देगी। तुलना के लिए देखें कि फिलहाल पृथ्वी की कक्षा में मात्र करीब 1400 सक्रिय उपग्रह हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये किस तरह के सुरक्षा सम्बंधी खतरों को जन्म दे सकते हैं।

इसके अलावा, व्यावसायिक उपग्रहों की यह बाढ़ महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दे भी उठाती है। OST का अनुच्छेद IX कहता है: ‘राज्य अंतरिक्ष गतिविधियों को इस तरह करेंगे कि उनसे कोई हानिकारक संदूषण अथवा पृथ्वी पर कोई प्रतिकूल पर्यावरणीय परिवर्तन न हो।’ अलबत्ता, ‘हानिकारक’ या ‘प्रतिकूल परिवर्तन’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल से इस मामले में अस्पष्टता झलकती है कि पर्यावरणीय परिवर्तन का ठीक-ठीक मतलब क्या है या किसे हानि से बचाया जाना चाहिए। इसमें अंतरिक्ष मलबे की समस्या को संबोधित करने में नाकामी दिखती है क्योंकि पूरा विमर्श रासायनिक प्रदूषण पर केंद्रित है और इसमें अंतरिक्ष में तैरते मलबे को हटाने का कोई ज़िक्र नहीं है।

अंतरिक्ष में पर्यावरणीय सरोकारों को उपयुक्त ढंग से संबोधित करने में OST की नाकामी को नव-अंतरिक्ष समुदाय ने आगे बढ़ाया है जहां पारिस्थितिक मसलों को नकारा गया है: “बाह्य अंतरिक्ष संसाधन विकास सम्बंधी सैकड़ों आलेख और पुस्तकें कभी-कभार ही यह ज़िक्र करती हैं कि ऐसी गतिविधियां पर्यावरण को इस तरह प्रतिकूल प्रभावित कर सकती हैं जो उनके अपने उद्यमों और उन्हें क्रियान्वित करने वाले मनुष्यों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।” ऐसे वर्णन उन दिक्कतों को उजागर करते हैं जिनका सामना निजी कंपनियां पृथ्वी पर कर चुकी हैं – पूंजी और पर्यावरण का ऐसा तालमेल बनाना जो उनके मुनाफे को कम न करे। फिर भी ऐसा करते हुए अंतरिक्ष में मलबे का फैलाव अवश्यंभावी है जिसे संबोधित करने में ओएसटी नाकाम रही है। वैसे तो बाह्य अंतरिक्ष बहुत विशाल है लेकिन मानवीय उपयोग अथवा लाभ की दृष्टि से उसका बहुत छोटा हिस्सा ही काम आ सकता है। इसका मतलब होगा कि बढ़ते अंतरिक्ष मलबे के साये में विकासशील देशों के लिए अंतरिक्ष का उपयोग संभव नहीं रह जाएगा।

एलन मस्क की स्पेसएक्स कंपनी ने पृथ्वी पर बैठे खगोलशास्त्रियों की मुश्किलें बढ़ा भी दी हैं। अन्य उपग्रहों के मुकाबले उनके स्टारलिंक उपग्रहों की चमक इतनी है कि वह दूरबीन से ली जाने वाली तस्वीरों को धुंधला कर रही है। उससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि स्टारलिंक उपग्रह संभवत: उषाकाल में ज़्यादा नज़र आएंगे और इसका असर खतरनाक धूमकेतुओं के समय रहते अवलोकन करने पर पड़ेगा। इस मायने में, हालांकि निजी अंतरिक्ष उद्यम बड़े-बड़े उपग्रह समूह स्थापित करके अपना मुनाफा तो बढ़ा लेंगे लेकिन ये पृथ्वी पर शोधकर्ताओं के वैज्ञानिक काम को बरबाद कर देंगे।

निष्कर्ष : अंतरिक्ष बतौर एक वैश्विक माल

अंतत: यह लेख उजागर करता है कि कैसे OST निजी अंतरिक्ष उद्यमों का उपयुक्त ढंग से नियमन करने में असफल रही है। मूलत: यह संधि राज्य-केंद्रित नज़रिए से विकसित की गई थी, लेकिन राज्य और निजी क्षेत्र के बढ़ते मेलजोल का परिणाम है कि दोनों ही अपने अंतरिक्ष हितों को साधने में संधि की अस्पष्टताओं का फायदा उठा रहे हैं।

इन प्रक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट होती है – कि बाह्य अंतरिक्ष संधि के निर्माताओं की संकल्पना और नव-अंतरिक्ष किरदारों की संकल्पना, दोनों ही पृथ्वी-आधारित सामाजिक सम्बंधों और शक्ति के ढांचों से जुड़ी हैं। चाहे संसाधनों को लेकर दावे-प्रतिदावे हों या पर्यावरण के मुद्दे हों, जो सरोकार पेश हुए हैं वे पृथ्वी पर चल रहे घटनाक्रम को प्रतिबिंबित करते हैं। जिस समय OST विकसित की गई थी, उस समय के अनुरूप यह राज्यों को एक-दूसरे द्वारा किए जा सकने वाले नुकसान से बचाने के लिए बनी थी। उस समय माहौल तीखे अंतर्राष्ट्रीय टकरावों का था और परमाणु युद्ध का खतरा मुंह बाए खड़ा था। तो उस समय अंतरिक्ष के पर्यावरण की रक्षा कोई सरोकार नहीं था। स्वयं को मानवता के रक्षक बताने वाले नव-अंतरिक्ष उद्यमियों का अंतरिक्ष में मुनाफा अधिकतम करने पर ज़ोर है और इसलिए आलोचना वही है जो पृथ्वी के संदर्भ में थी। नासा द्वारा 2020 में स्थापित नज़ीर का मतलब यह होगा कि भविष्य में निजी कंपनियां अंतरिक्ष ‘में सार्वजनिक पहुंच को और कम करेंगी। वास्तव में बाह्य अंतरिक्ष की धारणा ‘वैश्विक साझा संपदा’ से बदलकर ‘वैश्विक माल’ में तबदील होती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बॉडी मॉस इंडेक्स (बीएमआई) पर पुनर्विचार ज़रूरी

बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) का उपयोग यह पता करने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति का वज़न स्वस्थ सीमा के भीतर है या नहीं। बीएमआई की गणना वज़न (कि.ग्रा.) को ऊंचाई (मीटर) के वर्ग से विभाजित करके की जाती है। लेकिन इस सरलता के साथ कई खामियां भी हैं।

पिछले कुछ वर्षों में मोटापे को लेकर चल रही चर्चा से पता चलता है कि यह माप किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के सम्बंध में अक्सर पूरी तस्वीर प्रदान नहीं करता है। विशेषज्ञ इस संदर्भ में अधिक व्यापक दृष्टिकोण खोजने का प्रयास कर रहे हैं।

कई दशकों से बीएमआई स्वास्थ्य के आकलन के एक वैश्विक मानक के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। यह शरीर में वसा के द्योतक के रूप में कार्य करता है; वसा की उच्च मात्रा से चयापचय सम्बंधी रोगों में वृद्धि होती है और यहां तक कि मृत्यु का खतरा भी बढ़ जाता है।

स्वास्थ्य सूचकांक के रूप में बीएमआई का उपयोग करते हुए उम्र, लिंग और नस्ल जैसे कारकों को ध्यान में नहीं रखा जाता है जबकि ये वज़न के साथ-साथ किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के आकलन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। बीएमआई सदैव अस्वस्थता का सूचक नहीं होता। देखा गया है कि बराबर बीएमआई वाले लोगों की स्वास्थ्य सम्बंधी स्थिति काफी अलग-अलग हो सकती है।

इन कमियों को ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञों द्वारा मोटापे के आकलन हेतु अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) ने बीएमआई की खामियों को स्वीकार करते हुए पूरक के तौर पर वजन-सम्बंधी अन्य मापों का सुझाव दिया है।

बीएमआई की धारणा लगभग दो शताब्दी पूर्व एडोल्फ क्वेटलेट द्वारा ‘औसत आदमी’ को परिभाषित करने के प्रयासों से उभरी थी। प्रारंभ में, इसका स्वास्थ्य से बहुत कम और मानक तय करने से अधिक लेना-देना रहा था। एन्सेल कीज़ ने बाद में इसे बॉडी-मास इंडेक्स के रूप में पुनर्निर्मित किया। कीज़ के अनुसार यह उस समय की ऊंचाई-वज़न तालिकाओं की तुलना में स्वस्थ शरीर के आकार का एक बेहतर संकेतक था।

बीएमआई जनसंख्या-स्तर पर मृत्यु के जोखिम से सम्बंधित है – बहुत कम बीएमआई भी मृत्यु का जोखिम बढ़ाता है और बहुत अधिक बीएमआई भी। लेकिन जब इसका उपयोग व्यक्तिगत स्वास्थ्य जोखिमों का आकलन करने के लिए किया जाता है तो यह असफल रहता है।

एक अध्ययन से पता चला है कि अधिक वजन वाले व्यक्तियों में मृत्यु का जोखिम ‘स्वस्थ’ वज़न वाले लोगों के समान होता है। इसके अतिरिक्त, बीएमआई के पैमाने पर मोटापे से ग्रस्त कुछ व्यक्तियों का हृदय-सम्बंधी स्वास्थ्य सामान्य लोगों के समान ही होता है, जो बीएमआई की धारणा को चुनौती देता है।

दरअसल, बीएमआई का मुख्य आकर्षण इसकी आसानी में निहित है, जो इसे एक सुविधाजनक स्क्रीनिंग टूल बनाता है। विशेषज्ञों का तर्क है कि यह स्वास्थ्य का सटीक आकलन करने में नाकाम है। इसकी मुख्य समस्या है कि यह शरीर में वसा या मांसपेशियों के द्रव्यमान और वितरण जैसे कई महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में नहीं रखता है, जो लोगों के बीच काफी भिन्न हो सकते हैं।

इससे भी बड़ी समस्या यह है कि बीएमआई को श्वेत आबादी के डेटा का उपयोग करके विकसित किया गया है जिसका सीधा मतलब है कि इसका निर्धारण नस्लीय और जातीय समूहों के बीच शरीर की संरचना और वसा वितरण को ध्यान में रखते हुए नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, शरीर में वसा की मात्रा और वितरण में भिन्नता के कारण कम बीएमआई के बावजूद एशियाई आबादी में हृदय रोग का खतरा अधिक हो सकता है। यह बात बीएमआई के अत्यधिक उपयोग के विरुद्ध एक चेतावनी है।

बीएमआई के नैदानिक उपयोग को कम करने के लिए एएमए की हालिया नीति को एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इसके तहत केवल बीएमआई के आधार पर निदान करने की बजाय, चिकित्सकों को सलाह दी जा रही है कि वे इसका उपयोग मात्र एक स्क्रीनिंग टूल के रूप में करें, ताकि उन लोगों को पहचाना जा सके जिनका आगे आकलन करने की ज़रूरत है। इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि चिकित्सक कोलेस्ट्रॉल, रक्त शर्करा, पारिवारिक इतिहास और आनुवंशिकी जैसे अतिरिक्त कारकों पर भी ध्यान दें जो मोटापे और इससे सम्बंधित स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इस बदलाव में एक बड़ी चुनौती यह है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सकों  को कम समय में रोगी के स्वास्थ्य के कई पहलुओं पर ध्यान देना होता है। मात्र बीएमआई के आधार पर मोटापा-रोधी दवाइयां लिखना चिंता का विषय है।

बहरहाल, बीएमआई से परे मोटापे को फिर से परिभाषित करने के प्रयास चल रहे हैं। एक अंतरराष्ट्रीय आयोग विभिन्न अंग तंत्रों पर वज़न के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए नए नैदानिक मानदंडों पर काम कर रहा है। इसके अतिरिक्त, शारीरिक, मानसिक और कामकाजी स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बीएमआई के साथ-साथ एडमोंटन ओबेसिटी स्टेजिंग सिस्टम (ईओएसएस) विकसित की गई है, जो मोटापा नियंत्रण के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है।

बहरहाल, मुद्दा यह है कि इन परिवर्तनों को अमली जामा पहनाना एक बड़ी चुनौती है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य की जटिलताओं और मोटापे की विविध प्रकृति को ध्यान में रखते हुए बीएमआई से आगे बढ़ने का समय आ गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैसे पनपा समलैंगिक व्यवहार

झींगुर से लेकर समुद्री अर्चिन तक और बॉटलनोज़ डॉल्फिन से लेकर बोनोबोस तक 1500 से अधिक प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार देखने को मिलता है।

एक मत है कि जंतुओं में यह व्यवहार उद्विकास की शुरुआत से ही दिखाई पड़ता है। लेकिन स्तनधारियों पर किए गए हालिया अध्ययन का निष्कर्ष इससे अलग है। इसके अनुसार स्तनघारी जंतुओं में समलैंगिक व्यवहार तब विकसित हुआ जब उन्होंने समूहों में रहना शुरू किया। अध्ययन के मुताबिक हालांकि इस तरह के व्यवहार से किसी जंतु के जीन्स संतानों में नहीं पहुंचते लेकिन संभवत: यह अन्य वैकासिक लाभ प्रदान करता है। जैसे समूह में संघर्षों को सुलझाने और सदस्यों के बीच सकारात्मक सम्बंध बनाने में मदद करता है।

अलबत्ता, शोधकर्ता आगाह करते हैं कि इन नतीजों को मनुष्यों में दिखने वाली लिंग पहचान की समस्या या समलैंगिक व्यवहार से जोड़कर न देखा जाए। अन्य जीवों में समलैंगिक व्यवहार मनुष्यों में दिखने वाले व्यवहार से काफी भिन्न है और इसलिए यह अध्ययन मनुष्यों के संदर्भ में कोई व्याख्या नहीं देता है।

देखा जाए तो समलैंगिक व्यवहार को समझने का यह पहला अध्ययन नहीं है। पूर्व में भी इस पर अध्ययन हुए हैं लेकिन वे सारे अध्ययन एक ही प्रजाति या जीवों के एक छोटे समूह के अवलोकन पर आधारित थे।

स्पेन के वैकासिक जीवविज्ञानी जोस गोमेज़ का यह अध्ययन इस दृष्टि से व्यापक है कि उन्होंने स्तनधारियों की 6649 प्रजातियों में इस व्यवहार की तलाश की। इसके लिए उन्होंने वैज्ञानिक साहित्य खंगाला और देखा कि इनमें से कौन-सी और कितनी प्रजातियां समलैंगिक व्यवहार – रिझाना, मिलना-जुलना, प्रेमालाप करना, संभोग और दृढ़ रिश्ते बनाना  – दर्शाती देखी गई हैं। उन्हें 261 प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार के प्रमाण मिले।

उन्हें यह भी दिखा कि नर और मादा दोनों ही बराबर समलैंगिक व्यवहार करते हैं। कुछ प्रजातियों में, या तो सिर्फ नर या तो सिर्फ मादा में समलैंगिक व्यवहार दिखा।

तो इन जंतुओं में समलैंगिक व्यवहार उपजा कैसे? इसके जवाब की तलाश के लिए शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों का वंशवृक्ष बनाया। इसमें उन्होंने पाया कि प्रत्येक प्रजाति में यह व्यवहार स्वतंत्र रूप से उपजा है, और अलग-अलग समय पर कई-कई बार उपजा है।

नेचर कम्युनिकेशंस में शोधकर्ता बताते हैं कि जीवित स्तनधारियों के शुरुआती पूर्वजों, जैसे प्राइमेट या बिल्लियों, में समलैंगिक व्यवहार नहीं दिखता है। लेकिन जैसे-जैसे नए वंशज विकसित हुए, उनमें से कुछ में यह व्यवहार दिखने लगा। जैसे, वानर में लीमर्स की तुलना में समलैंगिक व्यवहार अधिक तेज़ी से विकसित हुआ। वानर लगभग 2.5 करोड़ वर्ष पहले अन्य प्राइमेट्स से अलग हो गए थे।

इसके बाद उन्होंने समलैंगिक व्यवहार दर्शाने वाली प्रजातियों में समानताओं पर ध्यान दिया – पाया गया कि ये सभी प्रजातियां समूह में रहती हैं। अत: ये नतीजे इस परिकल्पना का समर्थन करते हैं कि समलैंगिक व्यवहार का मूल समूह में रहना है, जैसा कि अन्य अध्ययनों का भी निष्कर्ष था।

समूह में रहने पर सदस्यों के बीच हिंसा या संघर्ष हो सकता है, जिसके चलते समूह टूट सकता है। ऐसा होने पर समूह में रहने से मिलने वाले फायदे मिलना बंद हो जाएंगे। समलैंगिक व्यवहार एक तरीका हो सकता है जिससे सदस्यों के बीच पनपे इस संघर्ष को दूर किया जा सकता है, और समूह को जोड़े रखा जा सकता है। यह कुछ-कुछ रूठने-मनाने जैसा लगता है।

लेकिन मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के वैकासिक जीवविज्ञानी डाइटर लुकास को इस निष्कर्ष पर संदेह है। वे कहते हैं कि समलैंगिक व्यवहार की यही एकमात्र व्याख्या नहीं हो सकती। उनको लगता है कि प्राकृतिक परिस्थितियों में इस व्यवहार के अवलोकन में शायद कुछ प्रजातियों का व्यवहार नज़रअंदाज़ हुआ हो। जैसे, हो सकता है कि कुछ निशाचर जंतु उपेक्षित रह गए हों।

दिलचस्प बात है कि एक अन्य अध्ययन में झींगुर में भी समलैंगिक व्यवहार दिखा है। नर झींगुर कभी-कभी प्रेम-गीत गाते हैं जिससे वे अन्य नर और किशोरों के साथ सम्बंध बनाने की कोशिश करते दिखे हैं। लेकिन झींगुर तो समूहों में नहीं रहते। इसलिए यदि समूह में रहना समलैंगिक व्यवहार की एकमात्र व्याख्या दी जाए, तो फिर झींगुर के व्यवहार को कैसे समझेंगे? संभव है कि झींगुर समेत कुछ अन्य प्रजातियां संभोग के अधिक से अधिक अवसरों का लाभ उठाने की रणनीति के हिस्से के रूप में समलैंगिक व्यवहार करती हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विटामिन सी को अतिशय महत्व दिया रहा है

विटामिन सी को प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने वाला माना जाता रहा है। लेकिन क्या इसकी महत्ता उचित है या इसको ज़रूरत से अधिक महत्व दिया जाता है।

दरअसल, 1970 के दशक में विटामिन सी को लायनस पौलिंग के दम पर प्रतिष्ठा हासिल हुई थी। उनका दावा था कि विटामिन सी काफी मात्रा में लिया जाए तो सामान्य ज़ुकाम के अलावा हृदय रोग तथा कैंसर से भी लड़ने में मदद मिलती है। अलबत्ता, नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ हेल्थ (एनआईएच) सहित कई शोधकर्ताओं के अनुसार इसके कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं।

अध्ययन बताते हैं कि यह सर्दी-ज़ुकाम के खिलाफ आवश्यक सुरक्षा प्रदान नहीं करता। दैनिक अनुशंसित मात्रा से अधिक लेने से बेहतर स्वास्थ्य की कोई संभावना नहीं होती है। दरअसल, 1000 मिलीग्राम से अधिक विटामिन सी लें, तो अतिरिक्त मात्रा मूत्र के साथ बाहर निकल जाती है।

विटामिन सी की कमी या शारीरिक तनाव के मामलों को छोड़ दिया जाए तो विटामिन सी की उच्च खुराक न तो सामान्य सर्दी-ज़ुकाम के लक्षणों को रोकती है, न ही उनको कम करती है।

वैसे विटामिन सी शरीर में कुछ अहम भूमिकाएं निभाता है। यह इंटरफेरॉन जैसे प्रोटीन निर्माण को बढ़ावा देता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करता है। इससे कोशिकाओं को वायरल हमलों से सुरक्षा मिलती है और संक्रमण से लड़ने वाली श्वेत रक्त कोशिकाओं में भी वृद्धि होती है। विटामिन सी कोलाजन निर्माण में भी सहायक है जो हड्डियों, मांसपेशियों, रक्त वाहिकाओं और त्वचा के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। स्किन-केयर उत्पादों में इसका उपयोग चमड़ी के लटकने, झुर्रियों, काले धब्बों और मुहांसों से बचने के लिए किया जाता है। इसके अलावा सनस्क्रीन में यह सूर्य की हानिकारक किरणों से कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करता है।

विटामिन सी ऑक्सीकरण-रोधी के रूप में भी काम करता है।  इसके अतिरिक्त, यह मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में महत्वपूर्ण रासायनिक संकेतकों और हार्मोन के उत्पादन में भी योगदान देता है, जिससे तनाव और बेचैनी कम हो जाती है।

तथ्य यह है कि हमारा शरीर विटामिन सी का उत्पादन या भंडारण नहीं करता है। इसलिए इसे आहार के माध्यम से प्राप्त करना अनिवार्य है। अच्छी बात है कि अधिकांश लोगों को खट्टे फलों (जैसे संतरा, अंगूर, नींबू), टमाटर और ब्रोकोली, गोभी, फूलगोभी जैसी सब्ज़ियों से पर्याप्त विटामिन सी मिल जाता है। धूम्रपान से विटामिन सी को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ऐसे लोगों को अतिरिक्त विटामिन सी का सेवन करना चाहिए।

आखिर में यह जानना भी आवश्यक है कि क्या पर्याप्त मात्रा से अधिक विटामिन सी का सेवन किया जा सकता है। अधिकांश लोगों को विटामिन सी की उच्च खुराक से कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन गुर्दे की समस्या वाले लोगों को सावधान रहना चाहिए। अत्यधिक विटामिन सी के सेवन से पेट की समस्याएं हो सकती हैं जबकि कुछ मामलों में, स्टैटिन जैसी दवाइयों की प्रभावशीलता भी कम हो सकती है। चबाने योग्य विटामिन सी की गोलियां मुंह की स्वच्छता के लिए फायदेमंद तो हैं लेकिन बहुत देर तक मुंह में रखी जाएं तो दांतों के क्षरण का कारण भी बन सकती हैं।

यानी विटामिन सी स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण तो है, लेकिन जब तक आपके शरीर में इसकी कमी न हो तब तक इसके अतिरिक्त व अत्यधिक सेवन की कोई तुक नहीं है। यह सिर्फ पैसों की बर्बादी है और शायद हानिकारक भी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कृत्रिम बुदि्ध और चेतना – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता;
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता।

(उसे देख पाना कदापि सम्भव नहीं है। वह अद्वितीय तो अकेला ही है। यदि उसमे द्वैतता का लेश मात्र भी अंश होता तो, कहीं न कहीं उस से सामना हो ही जाता। वह एक से अधिक हो ही नहीं सकता।)

ग़ालिब का यह शेर है तो ईश्वर के लिए, पर इसे इंसान या किसी भी चेतन प्राणी के लिए भी कहा जा सकता है। दुई या द्वैत – यानी हम दिखते तो एक ही हैं, पर हमारा चेतन मन और हमारा जिस्म या शरीर, क्या ये दोनों एक हैं? हज़ारों सालों से यह सवाल इंसान को परेशान करता रहा है। आज जब हर क्षेत्र में विज्ञान और टेक्नॉलॉजी का बोलबाला है, यह खयाल फलसफे के दायरे से निकलकर वैज्ञानिक शोध का एक अहम सवाल बन गया है। खास तौर पर आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस (ए.आई.) यानी कृत्रिम बुद्धि पर हर कहीं बातचीत हो रही है, और इस चर्चा में कॉन्शसनेस या चेतना पर जोर-शोर से बहस चल रही है।

आखिर एक इंसान और मशीन में फर्क क्या है? हम अपने परिवेश के बारे में सचेत रहते हैं, चेतन होने की एक पहचान यह है। ऐसी रोबोट मशीनें अब बन रही हैं जो परिवेश की पूरी जानकारी रखती हैं। हमारी तरह ये मशीनें सड़क पर चलते हुए सामने पड़े पत्थर से बचकर निकल सकती हैं। कुछ हद तक ये मशीनें हमसे ज़्यादा ताकतवर हैं; जैसे हम पत्थर के ऊपर से छलांग लगाकर निकल सकते हैं तो मशीन ऊंचाई तक उड़ सकती है। कहीं आग लगी है तो हम वहां से दूर खड़े होकर आग बुझाएंगे, कहीं पानी पड़ा हुआ है तो हम कहीं से ईंटें उठाकर कीचड़ पार करने का तरीका ढूंढेंगे; ऐसे काम मशीनें भी कर सकती हैं।

किसी भी सवाल पर जानकारी पाने के लिए हम जिस तरह किताबों-पोथियों में माथा खपाते हैं, कंप्यूटर पर चल रहे चैट-जीपीटी जैसे विशाल भाषाई मॉडल (लार्ज-लैंग्वेज़ मॉडल) हमसे कहीं ज़्यादा तेज़ी से वह हासिल कर रहे हैं। मशीनें जटिल सवालों का हल बता रही हैं। दो साल पहले गूगल कंपनी में काम कर रहे इंजीनियर ब्लेक लीमोइन ने दावा किया कि LaMDA नामक जिस चैटबॉट का वे परीक्षण कर रहे थे, वह संवेदनशील था। इसकी वजह से आखिरकार उनको नौकरी छोड़नी पड़ी। पर इस घटना ने आम लोगों को मशीन में चेतना के सवाल पर विज्ञान कथाओं से परे शोध की दुनिया में ला पहुंचाने का काम किया।

एआई सिस्टम, विशेष रूप से तथाकथित विशाल भाषा मॉडल (जैसे LaMDA और चैटजीपीटी) वाकई सचेत लग सकते हैं। लेकिन उन्हें मानवीय प्रतिक्रियाओं की नकल करने के लिए बड़ी तादाद में जानकारियों से प्रशिक्षित किया जाता है। तो हम वास्तव में कैसे जान सकते हैं कि क्या मशीनें हमारी तरह चेतन हैं? दरअसल पहली नज़र में जिस्मानी तौर पर इंसान और मशीन में फर्क वाकई अब कम होता दिख रहा है। जहां फर्क हैं, उनमें अक्सर मशीन ज़्यादा काबिल और ताकतवर नज़र आती हैं। फिर भी हम मशीन को चेतन नहीं मानते। इसकी मुख्य वजह ‘दुई’ से जुड़ी है।

ज़ेहन के बारे में जो वैज्ञानिक समझ हमारे पास है, उससे यह तो पता चलता है कि जिस्म के बिना चेतना का वजूद नहीं होता, पर अब तक यह बहस जारी है कि क्या चेतना शरीर से अलग कुछ है? जैसे अलग-अलग कंपनियों के कंप्यूटरों में एक ही तरह का सॉफ्टवेयर काम करता है, क्या चेतना भी उसी तरह हमारे शरीर में मौजूद है, यानी अलग-अलग प्राणियों के शरीरों में वह एक जैसा काम कर रही है, जिससे हर प्राणी को सुख-दु:ख का एक जैसा एहसास होता है। या कि वाकई उसका कोई अलग वजूद नहीं है और हर प्राणी के शरीर में ज़ेहन में चल रही प्रक्रियाओं से ही चेतना बनती है?

चेतना और संवेदना में फर्क किया जाता है; ऐंद्रिक अनुभूतियां संवेदना पैदा करती हैं, किंतु चेतना इससे अलग कुछ है जो अपने एहसासों से परे दूर तक पहुंच सकती है।

पिछले कुछ दशकों में मस्तिष्क सम्बंधी वैज्ञानिक शोध में काफी तरक्की हुई है। आम लोग इसे बीमारियों के इलाज के संदर्भ में जानते हैं, जैसे मैग्नेटिक रेज़ोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) या पॉज़िट्रॉन इमेज टोमोग्राफी (पीईटी) आदि तकनीकों से ज़ेहन में चल रही प्रक्रियाओं के बारे में अच्छी समझ बनी है और कई मुश्किल बीमारियों का इलाज इनकी मदद से होता है। चेतना के विज्ञान में भी इन तकनीकों के इस्तेमाल से सैद्धांतिक समझ बढ़ी है। कई नए सिद्धांत सामने आए हैं, जो हमारी ऐंद्रिक अनुभूतियों को ज़ेहन के अलग-अलग हिस्सों के साथ जोड़ते हैं और इसके आधार पर चेतना की एक भौतिक ज़मीन बन रही है।

सवाल यह नहीं रहा कि चेतना जिस्म से अलग कुछ है या नहीं, बल्कि यह हो गया है कि चेतना ज़ेहन में चल रही किन प्रक्रियाओं के जरिए वजूद में आती है। तंत्रिकाओं में आपसी तालमेल का कैसा पैमाना हो, इसके पीछे कैसे बल या अणुओं की कैसी आपसी क्रिया-प्रतिक्रियाएं काम कर रही हैं? कोई कंप्यूटरों को चलाने वाले लॉजिक-तंत्र में इस सवाल के जवाब ढूंढ रहा है तो कोई क्वांटम गतिकी में गोते लगा रहा है। इन तकरीबन एक दर्जन सिद्धांतों में से किसकी कसौटी पर मशीन में पनप रही समझ को हम चेतना कह सकते हैं? एआई या रोबोट मशीनों पर काम कर रहे वैज्ञानिकों के लिए यह अहम सवाल है।

हाल में वैज्ञानिक शोध की सार्वजनिक वेब-साइट arxiv.org में छपे एक पर्चे में (arxiv.org/abs/2308.08708) उन्नीस कंप्यूटर वैज्ञानिकों, तंत्रिका-विज्ञानियों और दार्शनिकों का एक समूह नया नज़रिया लेकर आया है। उन्होंने चेतना की खासियत की एक लंबी जांच सूची बनाई है, और उनका मत है कि मात्र कुछेक बातों से ही मशीन को चेतन न कहा जाए बल्कि इन सभी खासियतों की कसौटी पर खरा उतरने पर ही मशीन को चेतन कहा जाए। ज़ाहिर है किसी रोबोट या एआई मशीन में सभी विशेषताएं शायद न मिलें। इस स्थिति में देखा जाएगा कि सूची में मौजूद कितनी विशेषताओं को हम किसी मशीन में देख पाते हैं। इससे हम यह कह पाएंगे कि किसी मशीन में किस हद तक चेतन होने की संभावना है, यानी चेतन हो पाने का एक पैमाना सा बन गया है।

इस तरह की जांच से अंदाज़ा लग सकता है कि मशीनी शोध में चेतना तक पहुंचने में किस हद तक कामयाबी मिली है, हालांकि यह कह पाना अब भी नामुमकिन है कि कोई मशीन वाकई चेतन है या नहीं। इस सूची में शोधकर्ताओं ने मानव चेतना के सिद्धांतों पर 14 मानदंड रखे हैं, और फिर वे उन्हें मौजूदा एआई आर्किटेक्चर पर लागू करते हैं, जिसमें चैटजीपीटी को चलाने वाले मॉडल भी शामिल हैं।

अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को शहर के एआई सुरक्षा केंद्र के सह-लेखक रॉबर्ट लॉंग के मुताबिक यह सूची तेज़ी से बढ़ रहे इंसान जैसी काबिलियत वाले एआई के मूल्यांकन का एक तरीका पेश करती है। अब तक यह बेतरतीबी से हो रहा था, पर अब एक पैमाना बन रहा है।

मोनाश युनिवर्सिटी के कम्प्यूटेशनल न्यूरोसाइंटिस्ट और कैनेडियन इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस्ड रिसर्च (CIFAR) के फेलो अदील रज़ी ने इसे एक अहम कदम माना है। हालांकि वे भी मानते हैं कि सवालों के पर्याप्त जवाब नहीं मिल रहे हैं, पर एक ज़रूरी चर्चा की शुरुआत हुई है। आज दुनिया भर में इन सवालों पर लगातार कार्यशालाएं और वैज्ञानिक-सम्मेलन हो रहे हैं और शोधकर्ता अपने काम पर पर्चे पढ़ रहे हैं। रॉबर्ट लॉंग और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के फ्यूचर ऑफ ह्यूमैनिटी इंस्टीट्यूट के दार्शनिक पैट्रिक बटलिन ने हाल में ही दो ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन किया था, जहां इस विषय पर चर्चाएं हुईं कि एआई में संवेदनशीलता का परीक्षण कैसे किया जा सकता है।

अमेरिका के अर्वाइन शहर में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में काम कर रही एक कम्प्यूटेशनल न्यूरोसाइंटिस्ट मेगन पीटर्स जैसे शोधकर्ताओं के लिए इस मुद्दे का एक नैतिक आयाम है। अगर मशीन में चेतना की संभावना है तो क्या उसे भी इंसानों जैसी जिस्मानी बीमारियां होंगी; अगर हां, तो इनका इलाज कैसे होगा। अब तक मानव-चेतना पर समझ हमेशा शारीरिक क्रियाओं के साथ जुड़ी रही हैं, जो बाहरी उद्दीपन से दृष्टि, स्पर्श या दर्द आदि ऐंद्रिक अनुभूतियां पैदा करती हैं; इसे फिनॉमिनल कॉन्शसनेस कहते हैं। इंसान की बीमारियों के इलाज के लिए एमआरआई या ईईजी जैसी तकनीकें काम आती हैं, पर कंप्यूटर द्वारा चलने वाली मशीनों की बीमारियां एल्गोरिदम में या प्रोग्राम में गड़बड़ी से होंगी, तो उनकी जांच कैसे की जाएगी? एमआरआई या ईईजी तो काम नहीं आएंगे। तेल-अवीव विश्वविद्यालय के संज्ञान-तंत्रिका वैज्ञानिक लिआद मुद्रिक बताते हैं कि वे पहले सचेत होने की बुनियादी खासियत की पहचान के लिए मानव चेतना के मौजूदा सिद्धांतों की खोज करेंगे, और फिर इन्हें एआई के अंतर्निहित खाके में ढूंढेंगे। इस तरह से कामकाजी सिद्धांतों की सूची बनाई जाएगी।

सूची में ऐसे ही सिद्धांत शामिल किए गए हैं, जो तंत्रिका-विज्ञान पर आधारित हैं और चेतना में हेरफेर करने वाली जांच के दौरान मस्तिष्क के स्कैन से मिले आंकड़े जैसी प्रत्यक्ष जानकारी से जिनका प्रमाण मिलता है। साथ ही सिद्धांत में यह खुलापन होना ज़रूरी है कि चेतना जैविक न्यूरॉन्स की तरह ही कंप्यूटर के सिलिकॉन चिप्स से भी पैदा हो सकती है, भले ही वह गणना द्वारा होती हो।

छह सिद्धांत इन पैमानों पर खरे उतरे हैं। इनमें एक रेकरिंग (आवर्ती) प्रोसेसिंग सिद्धांत है, जिसमें  फीडबैक लूप के माध्यम से जानकारी पारित करना चेतना की कुंजी माना गया है। एक और सिद्धांत ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस सिद्धांत का तर्क है कि चेतना तब पैदा होती है जब सूचना की खुली धाराएं रुकावटें पार कर कंप्यूटर क्लिप-बोर्ड (आम कक्षाओं के ब्लैक-बोर्ड) जैसे पटल पर जुड़ती हैं, जहां वे आपस में जानकारियों का लेन-देन कर सकती हैं।

एचओटी (हायर ऑर्डर थियरी) कहलाने वाले सिद्धांतों में चेतना में इंद्रियों से प्राप्त बुनियादी इनपुट को पेश करने और व्याख्या करने की प्रक्रिया शामिल है। दीगर सिद्धांत ध्यान को नियंत्रित करने के लिए तंत्र के महत्व और बाहरी दुनिया से सही-गलत की जानकारी पाने वाले ढांचे पर ज़ोर देते हैं। छह शामिल सिद्धांतों में से टीम ने सचेत अवस्था के अपने 14 संकेत निकाले हैं। कोई एआई संरचना इनमें से जितने अधिक संकेतक प्रकट करती है, उसमें चेतना होने की संभावना उतनी ही अधिक होती है। मशीन लर्निंग विशेषज्ञ एरिक एल्मोज़निनो ने चेक-लिस्ट को कई ए.आई. नमूनों पर लागू किया। जैसे इनमें तस्वीरें बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले डाल-ई 2 नामक एआई शामिल हैं। कई ए.आई. संरचनाएं ऐसी थीं जो रेकरिंग प्रोसेसिंग सिद्धांत के संकेतकों पर खरी उतरीं। चैटजीपीटी जैसा एक विशाल भाषा मॉडल ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस सिद्धांत की खासियत के करीब दिखा।

गूगल का PaLM-E, जो विभिन्न रोबोटिक सेंसरों से इनपुट लेता है, “एजेंसी और एम्बॉडीमेंट”  (ढांचे में स्वायत्तता की मौजूदगी)की कसौटी पर खरा उतरा। और एल्मोज़निनो के मुताबिक ज़रा सी छूट दें तो इसमें कुछ हद तक ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस भी दिखता है।

डीपमाइंड कंपनी का ट्रांसफॉर्मर-आधारित एडाप्टिव एजेंट (एडीए), जिसे आभासी 3-डी स्पेस में एक नमूना नियंत्रित करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था, वह भी “एजेंसी और एम्बॉडीमेंट” के लिए सही निकला, भले ही इसमें PaLM-E जैसे भौतिक सेंसर का अभाव है। एडीए में मानकों के अनुरूप होने की सबसे अधिक संभावना थी, क्योंकि इसमें परिवेश के भौतिक फैलाव की अच्छी समझ दिखी।

यह देखते हुए कि कोई भी ए.आई. मुट्ठी भर कसौटियों से अधिक पर खरा नहीं उतरता है, इनमें से कोई भी चेतना के लिए तगड़ा उम्मीदवार नहीं है, हालांकि एल्मोज़निनो के मुताबिक इन खासियत को ए-आई के डिज़ाइन में डालना मामूली बात होगी। अभी तक ऐसा नहीं किए जाने की वजह यह है कि इनकी मौजूदगी से मिलने वाले फायदों पर साफ समझ नहीं है।

अभी चेक-लिस्ट पर काम चल रहा है। और यह इस तरह की अकेली कोशिश नहीं है। रज़ी के साथ समूह के कुछ सदस्य, चेतना सम्बंधी एक बड़ी शोध परियोजना में शामिल हैं, जिसमें ऑर्गेनॉएड्स, जानवरों और नवजात शिशुओं पर काम किया जा सकता है।

ऐसी सभी परियोजनाओं के लिए समस्या यह है कि अभी जो सिद्धांत हमारे पास हैं, वे मानव चेतना की हमारी अपनी समझ पर आधारित हैं। पर चेतना दीगर रूपों में आ सकती है, यहां तक कि हमारे साथी स्तनधारी प्राणियों में भी वह मौजूद हो सकती है। अमेरिकन दार्शनिक थॉमस नेगल ने साठ साल पहले कभी यह सवाल रखा था कि अगर हम चमगादड़ होते तो कैसे होते यानी एक तरह की चेतना चमगादड़ों में भी है, हम कैसे जानें कि वह हमारी जैसी है या नहीं। जाहिर है कि ये सवाल जटिल हैं और आगे इस दिशा में तेज़ी से तरक्की की उम्मीदें बरकरार हैं। (स्रोत फीचर्स)

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देश को गर्मी से सुरक्षित कैसे करें

वैसे तो अभी जाड़े का मौसम आने वाला है लेकिन गर्मियां भी दूर नहीं हैं। और भारत की चिलचिलाती गर्मी नागरिकों के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है। बढ़ती गर्मी न सिर्फ असुविधा पैदा कर रही है बल्कि जानलेवा भी साबित हो रही है। निरंतर बढ़ते तापमान और अत्यधिक आर्द्रता के परिणामस्वरूप हीट स्ट्रोक (लू लगने) से मृत्यु की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

पिछले वर्ष दी लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2000-04 और 2017-21 के बीच गर्मी से मरने वाले लोगों की संख्या में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी क्षेत्रों पर हो रहा है जहां टार और कांक्रीट जैसी गर्मी सोखने वाली निर्माण सामग्री का भरपूर उपयोग हो रहा है।

विशेषज्ञों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग और तेज़ी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों के चलते यह जोखिम बढ़ने की संभावना है। अनुमान है कि 2025 तक भारत की आधी से अधिक आबादी शहरों में निवास करेगी। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी गरीबों पर होगा जो न एयर कंडीशनिंग का खर्च उठा सकते हैं और बाहर खुले में काम करते हैं। इस स्थिति को देखते हुए शोधकर्ता और नीति निर्माता अब इस बढ़ते संकट को समझने और इसके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न रणनीतियां विकसित कर रहे हैं।

ऐतिहासिक रूप से भारत में आपदा नियोजन प्रयास चक्रवातों और बाढ़ से निपटने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन वर्ष 2015 से राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीष्म लहरों को प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में शामिल किया गया है। कुछ शहरों में शोधकर्ता आपातकालीन योजनाओं को बेहतर बनाने के लिए अधिकारियों के साथ ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने और शीतलता केंद्र खोलने पर विचार कर रहे हैं। कुछ शोधकर्ता तो घरों को ठंडा बनाने के लिए सस्ते तरीके भी आज़मा रहे हैं। कुछ अन्य शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि आसपास के तापमान पर भूमि उपयोग और वास्तुकला का प्रभाव समझकर शहरों के विस्तार के लिए समुचित डैटा जुटा सकें।

इसी तरह का एक प्रयास नागपुर में अर्बन हीट रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत शोधकर्ताओं द्वारा किया गया; 30 लाख की आबादी वाला यह शहर भारत के सबसे गर्म शहरों में से एक है।

तापमान के दैनिक पैटर्न से मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। कई अध्ययन दर्शाते हैं कि गर्म दिनों के साथ रातें भी गर्म रहें तो स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं क्योंकि ऐसा होने पर शरीर को गर्मी से कभी राहत नहीं मिलती है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि भारत में लगातार गर्म दिन और गर्म रातें आम बात होती जा रही हैं।

इसके साथ ही सामाजिक-आर्थिक कारकों और गर्मी के प्रति संवेदनशीलता के सम्बंध को भी समझने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए गरीब लोग घर को ठंडा रखने के उपकरण खरीदने में सक्षम नहीं होते। यह भी संभव है कि बुज़ुर्गों को ऐसी बीमारियां होती हों जो उन्हें गर्मी के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं। कुछ क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति या स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है जो गर्मी से सम्बंधित बीमारी से निपटने में मदद कर सकते हैं। जैसे नागपुर के बाहरी इलाकों में लोगों के पास स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है।

टीम ने गर्मी के बारे में लोगों की समझ को भी महत्वपूर्ण माना है। पिछले साल ग्रीष्म लहर के दौरान शोधकर्ताओं ने पैदल लोगों से बातचीत की। 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी अधिकांश लोगों ने कम ही चिंता व्यक्त की क्योंकि उनके लिए इसमें कुछ नया नहीं है, मौसम तो हमेशा से ऐसा ही रहा है। यह काफी चिंताजनक है क्योंकि आम जनता को गर्मी से होने वाले जोखिमों के बारे में पर्याप्त समझ नहीं है। संभव है कि वे ग्रीष्म लहर से सम्बंधित चेतावनियों पर भी ध्यान नहीं देंगे। इस स्थिति में हीट एक्शन प्लान (एचएपी) तैयार करना और भी ज़रूरी हो जाता है।

मुख्य तौर पर एचएपी का उद्देश्य अधिकारियों को ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने के लिए तैयार करने और अस्पतालों एवं अन्य संस्थानों को सचेत करना है। इसके तहत अस्पतालों को गर्मी के मौसम में लू के रोगियों के इलाज के लिए कोल्ड वार्ड बनाने और बिल्डरों को अत्यधिक गर्म दिनों में मज़दूरों को छुट्टी देने का सुझाव दिया गया है।

एचएपी सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में स्थानीय वैज्ञानिक संस्थानों और गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल (एनआरडीसी) द्वारा शुरू किया गया था। 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस योजना के तहत कम से कम 1190 लोगों की जान बचाई गई। आपदा प्रबंधन एजेंसी अब देश के 28 में से 23 राज्यों में एचएपी विकसित करने के लिए काम कर रही है।

अलबत्ता, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा एचएपी का कार्यान्वयन असमान रहा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना में पर्याप्त धन की कमी है। इसके अलावा योजना के तहत निर्धारित सीमाएं स्थानीय जलवायु के अनुरूप नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों में तो केवल दिन का उच्चतम तापमान ही अलर्ट के लिए पर्याप्त माना गया है। उदाहरण के लिए अहमदाबाद में प्रारंभिक अलर्ट के लिए सीमा 41 डिग्री सेल्सियस निर्धारित की गई है। लेकिन कई अन्य स्थानों पर, रात का तापमान या आर्द्रता भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि दिन का तापमान लेकिन इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।

जैसे, मुंबई में अप्रैल माह में देर सुबह और बिना किसी छाया के आयोजित एक समारोह में 11 लोगों की लू से हुई मौतों ने अधिक सूक्ष्म और स्थान-आधारित चेतावनियों की आवश्यकता को रेखांकित किया है। उस दिन का अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस था, जो राष्ट्रीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा तटीय शहरों के लिए निर्धारित अलर्ट सीमा से 1 डिग्री सेल्सियस कम था। लेकिन गर्मी का प्रभाव आर्द्रता के कारण अधिक बढ़ गया था जिसे गर्मी चेतावनी प्रणालियों में अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। विडंबना यह है कि मुंबई सहित महाराष्ट्र में इस त्रासदी से सिर्फ 2 महीने पहले एचएपी अपनाया गया था। इसमें गर्म दिनों में बाहरी कार्यक्रमों को अलसुबह करने की सलाह दी गई थी।

एचएपी को बेहतर बनाने में मदद के लिए शोधकर्ता एक मॉडल योजना पर काम कर रहे है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार ढाला जा सके। साथ ही सभी शहरों की अधिक जोखिम वाली आबादी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक जोखिम मानचित्र का भी सुझाव दिया गया है।

ऐसा मानचित्र बड़ी आसानी से बनाया जा सकता है। इसमें  अधिक बुजुर्ग आबादी वाले या अनौपचारिक आवासों वाले इलाकों को चिंहित किया जा सकता है ताकि उन्हें विशेष चेतावनी मिल सके या पर्याप्त शीतलन केंद्रों की व्यवस्था की जा सके। नागपुर परियोजना के तहत एक जोखिम मानचित्र तैयार किया गया है जो यह बता सकता है कि ग्रीष्म लहर की स्थिति में किन इलाकों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

शोधकर्ताओं का मानना है कि एचएपी में केवल अल्पकालिक आपातकालीन सेवाओं के अलावा मध्यम से दीर्घकालिक उपायों पर भी काम किया जाना चाहिए। जैसे छाया प्रदान करने के लिए पेड़ लगाने के स्थान तय करना। एचएपी के तहत घरों के पुनर्निर्माण या भवन निर्माण नियमों में बदलाव के प्रयासों को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। शहरों को ठंडा रखने के लिए उनके निर्माण के तरीके बदलना होंगे। नागपुर की टीम ने शहर की ऐसी इमारतों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। लेकिन ऐसे घरों के निर्माण के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं है और इनके रख-रखाव का खर्च भी बहुत ज़्यादा होता है।

हाल के वर्षों में, आवास मंत्रालय ने जलवायु अनुकूल इमारतों के निर्माण के लिए विस्तृत दिशानिर्देश तैयार किए हैं। इसमें पारंपरिक वास्तुकला के कुछ सिद्धांत शामिल किए गए हैं। लेकिन ये दिशानिर्देश ज़्यादातर कागज़ों पर ही हैं। बिल्डर और स्थानीय सरकारें अपने तौर-तरीकों को बदलने में धीमी या अनिच्छुक लगते हैं।

वैसे, शहरों में रहने वाले कम आय वाले कई परिवारों के लिए नवनिर्मित, जलवायु-अनुकूल निवास में जाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए मौजूदा घरों में ही कुछ परिवर्तन किया जा सकता है। सबसे सस्ता और जांचा-परखा तरीका छतों को सफेद परावर्तक पेंट से ढंकना है। एचएपी के तहत इस तकनीक का सबसे पहला उपयोग 2017 में अहमदाबाद में किया गया था। एक अध्ययन के अनुसार पेंट की हुई टीन की छत वाले घर बिना पेंट वाली छतों की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस ठंडे रहते हैं जबकि अधिक महंगी तकनीक का उपयोग करके घरों को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा किया जा सकता है।

2020 में, 15,000 कम आय वाले घरों तक कूल रूफ कार्यक्रम का विस्तार किया गया था। इस साल, जोधपुर ने इसी तरह की पहल की है। इसी तरह तेलंगाना ने 2028 तक 300 वर्ग किलोमीटर ठंडी छतें बनाने का संकल्प लिया है। मुंबई और अन्य शहरों में, सीबैलेंस नामक एक निजी फर्म गरीब परिवारों के लिए कम लागत वाली शीतलन तकनीकों का परीक्षण कर रही है।

इस तकनीक में घर को ठंडा रखने के लिए टीन की छत को एल्यूमीनियम पन्नी से ढंककर गर्मी से इन्सुलेशन दिया जाएगा। इन घरों में एक बड़ा परिवर्तन छत के थोड़ा ऊपर पुनर्चक्रित प्लास्टिक कचरे के पैनलों से निर्मित दूसरी छत बनाना है। रसोई की खिड़की के लिए सुबह के समय पैनलों को बंद करने की व्यवस्था होगी जिससे धूप को रोका जा सकेगा और रात में उन्हें फिर से खोलकर गर्मी को बाहर किया जा सकेगा।

फिलहाल तो एक गैर-सरकारी परोपकारी संस्था ने इन परिवर्तनों के लिए धन प्रदान किया है। लेकिन भारत में शीतलन संसाधनों के भुगतान के लिए पैसा एकत्रित करना एक चुनौती है। विशेष पेंट काफी महंगा है। पैसे बचाने के लिए कुछ लोगों ने अपनी छतों को साधारण सफेद पेंट से रंगने की कोशिश की है। लेकिन यह तापमान को उतना कम नहीं करता है।

वैसे कई अन्य समस्याएं भी हैं। जैसे मुंबई की बस्तियों में बेतरतीब बिजली के तारों से कुछ छतों पर शेडिंग पैनल स्थापित नहीं किए जा सकते। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि छत पर किए जाने वाले परिवर्तनों से वॉटरप्रूफिंग को नुकसान न पहुंचे। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता और इंजीनियर भारत के शहरों और उसमें भी सबसे कमज़ोर नागरिकों के लिए कूलिंग समाधान खोजने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियों में कूलिंग कोई सुविधा नहीं बल्कि सामाजिक न्याय का मामला बन गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यह कीट खानपान में नखरे नहीं करता

क्षिणी इटली में जैतून के लहलहाते पेड़ों के लिए मिडो स्पिटलबग (Philaenus spumarius) एक बड़ी मुसीबत है। यह साधारण-सा कीट ज़ायलेला फास्टिडिओसा बैक्टीरिया का वाहक है जो धीरे-धीरे फसलों को नष्ट कर देता है। हाल ही में प्लॉस वन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार पौधों के मामले में मिडो स्पिटलबग, कीट जगत में सबसे कम चुनावपसंद कीट है जो 1300 से अधिक पादप प्रजातियों का रस चूसता है।

यह अध्ययन उन किसानों के लिए काफी महत्वपूर्ण है जो अपनी आजीविका के लिए विभिन्न पादप प्रजातियों पर निर्भर हैं। यह सही है कि मीडो स्पिटलबग द्वारा खाए गए सभी पौधे ज़ायलेला के प्रति संवेदनशील नहीं हैं लेकिन ये ‘सुरक्षित’ प्रजातियां ज़ायलेला के भंडार के रूप में कार्य कर सकती हैं। इस स्थिति में जैतून और ज़ायलेला के प्रति कमज़ोर अन्य प्रजातियों की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है।

दरअसल, मिडो स्पिटलबग फ्रॉगहॉपर नामक कीट की अपरिपक्व अवस्था है। इन्हें यह नाम पौधों के तनों पर दिखाई देने वाली थूक जैसी छोटी-छोटी बुलबुलेनुमा संरचना पर पड़ा है। यह पदार्थ स्पिटलबग मूत्र के साथ उत्सर्जित करते हैं।

आम तौर पर रस चूसने वाले कीट पौधों के फ्लोएम नामक ऊतक में छेद करते हैं, जो पोषण से सराबोर होता है। लेकिन स्पिटलबग ज़ाइलम में उपस्थित अधिक पतला रस निकालने में माहिर होते हैं। विभिन्न प्रजातियों के बीच इस रस में ज़्यादा अंतर नहीं होता, इसलिए शोधकर्ताओं को लगता था कि मिडो स्पिटलबग और उसके जैसे कीट पौधों के बीच कोई भेद नहीं करते होंगे।

मिडो स्पिटलबग की आहार सम्बंधी आदतों की व्यापक जांच लगभग एक दशक पहले की गई थी जब इसकी पहचान जैतून के पेड़ों में ज़ायलेला जीवाणु के वाहक के रूप में हुई। इस कीट की आहार सम्बंधी बहुमुखी प्रतिभा का खुलासा तब हुआ जब आम लोगों के सहयोग से इसे 1311 पादप प्रजातियों पर पनपता हुआ देखा गया। ये प्रजातियां 631 वंशों (जीनस) और 117 कुलों में बिखरी हैं। इस सूची में न केवल डेज़ी और गुलाब जैसी परिचित वनस्पतियां, बल्कि फर्न, घास, झाड़ियां और यहां तक कि कई पेड़ भी शामिल हैं। और तो और, हाल ही में इसे स्पेनिश बादाम के पेड़ों को प्रभावित करने वाले एक नए ज़ायलेला प्रकोप के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है।

स्पष्ट है कि यह कीट कृषि और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण और तेज़ी से बढ़ता हुआ खतरा बन गया है। यह शोध मिडो स्पिटलबग और उसमें पाए जाने वाले जीवाणु द्वारा उत्पन्न जोखिमों की व्यापक समझ और सक्रिय उपायों की तत्काल आवश्यकता का संकेत देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदित्य मिशन से लेकर इगनोबल तक – चक्रेश जैन

सरो द्वारा प्रक्षेपित सूर्य मिशन आदित्य एल-1 ने सेल्फी ली और पृथ्वी तथा चंद्रमा की तस्वीरें भेजीं। चार महीनों बाद अपने गंतव्य तक पहुंचने वाला आदित्य एल-1 मौसम की उत्त्पति के कारणों का अध्ययन करेगा। उसने सम्बंधित आंकड़े जुटाना शुरू कर दिया है। इसमें एक विशेष दूरबीन लगाई गई है, जिससे सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों की जानकारी मिल सकेगी। इससे ओज़ोन परत पर पराबैंगनी किरणों के असर के बारे में भी नई जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी।

इसरो प्रमुख द्वारा आदित्य एल-1 को यात्रा पर विदा करने के पहले पूजा-अर्चना करने पर इस बार भी कुछ टेलीविज़न चैनलों पर यह मुद्दा उठा कि विज्ञान जगत में तर्क और तथ्यों का स्थान है। अतः वैज्ञानिकों को सफलताओं के लिए मंदिरों अथवा धार्मिक स्थलों पर नहीं जाना चाहिए। पीछे मुड़कर देखें तो इसके प्रथम निदेशक विक्रम साराभाई और द्वितीय निदेशक सतीश धवन ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया था।

चंद्रयान-1 से मिले डैटा का विश्लेषण कर रहे वैज्ञानिकों ने पाया कि पृथ्वी के उच्च ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉन चंद्रमा पर पानी बना रहे हैं। चंद्रमा पर पानी की सांद्रता को जानना, इसके बनने और विकास को समझने के लिए अहम है और मानव सहित मिशन्स के लिए पानी उपलब्ध कराने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

नए विज्ञान पुरस्कार

भारत सरकार ने 14 सितंबर को पद्म पुरस्कारों की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की। इसके साथ ही विभिन्न विज्ञान विभागों द्वारा दिए जा रहे लगभग 300 पुरस्कारों को रद्द कर दिया गया है। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों को चार श्रेणियों में रखा गया है। 1) विज्ञान रत्न पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जीवन पर्यन्त उपलब्धियों के लिए। 2) विज्ञानश्री पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए। 3) विज्ञान युवा शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए 45 वर्ष की आयु तक के युवा वैज्ञानिकों को। और 4) विज्ञान टीम पुरस्कार – विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एक टीम के रूप असाधारण योगदान देने वाली तीन या अधिक की टीम को।

शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार

भारत का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार की घोषणा हर साल 26 सितंबर को वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के स्थापना दिवस पर की जाती है। लेकिन इस बार कुछ दिनों पहले ही 12 वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा कर दी गई। चिंताजनक बात यह है कि इस सूची में एक भी महिला वैज्ञानिक नहीं है। आज तक सम्मानित 600 वैज्ञानिकों  में सिर्फ 19 महिला वैज्ञानिक हैं।

संसद में अंतरिक्ष विज्ञान

संसद के विशेष सत्र में सांसदों ने अंतरिक्ष विज्ञान की ताज़ा उपलब्धियों पर वैज्ञानिकों को बधाई दी। राज्य सभा में केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने बताया कि 2020 में श्रीहरिकोटा के द्वार आम जनता के लिए खोल दिए गए। उन्होंने बताया कि 2023-24 में अंतरिक्ष विभाग का बजट बढ़ाकर बारह हज़ार करोड़ रुपए किया गया है।

निपाह वायरस

केरल में चौथी बार निपाह वायरस का संक्रमण फैला और लगभग 1500 लोग इसकी चपेट में आ गए। यह रोग जानवरों (इस मामले में चमगादड़ों) से मनुष्य में फैलता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे कोविड की तुलना में अधिक खतरनाक बताया है। इसके लक्षणों में सिरदर्द, खांसी, बुखार, सांस लेने में कठिनाई, चक्कर, मस्तिष्क में सूजन आदि शामिल हैं। अभी तक इसके लिए कोई वैक्सीन नहीं है।

नदी जोड़ो योजना जल संकट बढ़ा सकती है

मुंबई के आईआईटी, पुणे के आईआईटीएम व कई संस्थानों द्वारा किए गए एक अध्ययन (विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित) के अनुसार सूखे और बाढ़ का स्थायी हल खोजने के लिए प्रस्तावित ‘नदी जोड़ो योजना’ जल संकट बढ़ा सकती है। और तो और, इससे देश में बारिश का रुझान भी बदल सकता है।

जी-20 में विज्ञान

जी-20 अपनी स्थापना के बाद आर्थिक सहयोग के एक प्रमुख मंच के रूप में उभरा है। भारत की अध्यक्षता में साइंस-20 की बैठकें पुडुचेरी, अगरतला, बेंगलूरू और भोपाल में हो चुकी हैं जहां स्वच्छ ऊर्जा, कृत्रिम बुद्धि, क्वाटंम कम्प्यूटिंग, मशीन लर्निंग से जुड़े मुद्दों पर विचार किया गया।

जी-20 के झण्डे तले साइंस-20 एंगेजमेंट ग्रुप की स्थापना 2017 में की गई थी। इस वर्ष भारत की अध्यक्षता में हुई साइंस-20 बैठक की थीम चुनी गई थी- ‘डिसरप्टिव साइंस फॉर इनोवेटिव एंड सस्टेनेएबल डेवलपमेंट गोल्स’।

इगनोबल पुरस्कार 2023

14 सितंबर को 33वें इगनोबल पुरस्कारों की घोषणा की गई, जिसमें दस उपलब्धियों के लिए विजेताओं को सम्मानित किया गया। दरअसल यह बिलकुल भिन्न प्रकार का पुरस्कार है, जो पहले हंसाता है और बाद में विचार मंथन के लिए प्रेरित करता है।

मृत मकड़ियों को ग्रिपिंग औज़ारों के रूप में इस्तेमाल करने, चट्टानों को चाटने (सूखी सतह के बजाय गीली सतह पर खनिज बेहतर दिखते हैं, इसलिए खनिज पहचान करने में मदद मिलती है),‘स्मार्ट’ शौचालय का निर्माण (जो व्यक्तियों के मल-मूत्र की निगरानी और विश्लेषण कर उनके स्वास्थ्य के बारे में बताता है), नासिका में बालों की संख्या गिनने (एलोपेशिया से ग्रसित लोगों के लिए उपचार तलाशना), साहित्य में ‘देजा वु’ के विपरीत ‘जमाइ वु’ ( जिसमें कोई परिचित चीज़ (या शब्द) बार-बार दोहराने से अपरिचित लगने लगते हैं) पर शोध के लिए दिए गए।


रैफ्लेसिया पुष्प खतरे में

प्लांट्स पीपुल प्लेनेट जर्नल में प्रकाशित ताज़ा जानकारी के अनुसार दुनिया के सबसे बड़े पुष्प रैफ्लेसिया का अस्तित्व खतरे में है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी 42 प्रजातियां ज्ञात हैं, जिनमें से साठ प्रतिशत पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। रैफ्लेसिया पुष्प का वजन 6.8 किलोग्राम तक होता है और यह तीन फुट तक का हो सकता है।


नोबेल पुरस्कार राशि में वृद्धि

नोबेल पुरस्कार फाउंडेशन ने पुरस्कार राशि बढ़ाने का फैसला किया है। पुरस्कार राशि एक करोड़ क्रोनर (9,00,000 अमेरिकी डॉलर) से बढ़ाकर 1 करोड़ 10 लाख क्रोनर (9,86,270 अमेरिकी डॉलर) कर दी गई है।

दसवां भोपाल विज्ञान मेला

इस महीने भोपाल में दसवां भोपाल विज्ञान मेला आयोजित किया गया, लेकिन बारिश ने मज़ा फीका कर दिया। मेले में नवाचारी विद्यार्थियों ने अपने नवाचारी मॉडल प्रदर्शित किए। आम लोगों तक विज्ञान की बातें पहुंचाने के लिए विज्ञान मेलों की ज़रूरत है लेकिन देखा गया है कि ऐसे आयोजनों में वैज्ञानिक सोच का मुद्दा हाशिए पर ही चला जाता है।


.प्र. का प्रथम बायोटेक पार्क

मध्यप्रदेश का प्रथम बायोटेक पार्क नीमच ज़िले की जावद तहसील में 39 हैक्टर भूमि पर 50 करोड़ की लागत से स्थापित किया जाएगा। यह देश का दसवां और मध्यप्रदेश का प्रथम बायोटेक पार्क है। (स्रोत फीचर्स)

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हाथी की हरफनमौला सूंड

हाथी अपनी सूंड से लकड़ी के भारी लट्ठे से लेकर कुरकुरी आलू चिप्स बिना मसले उठा सकते हैं। उनकी सूंड की जटिल मांसल संरचना इस कोमल और मज़बूत दोनों तरह की पकड़ को संभव बनाती है। अब, शोधकर्ताओं ने एक शिशु हाथी की सूंड की विस्तृत पड़ताल कर इस उपांग की मांसपेशियों की गणना कर ली है और उन्हें चित्रित किया है। करंट बायोलॉजी में प्रस्तुत उनकी रिपोर्ट के अनुसार हाथियों की सूंड को (चीज़ों के अनुसार) पकड़ में लचीलापन मांसपेशी तंतुओं के लगभग 90,000 सूक्ष्म गुच्छों से मिलता है। इस खोज से रोबोट के उपांगों में लचीलापन लाने में मदद मिलने की उम्मीद है।

गौरतलब है कि हाथी की सूंड उपांग के उन चंद उदाहरणों में से हैं जिनमें हड्डियां नहीं होती, लेकिन फिर भी ये स्वयं से घूम-मुड़ सकते हैं; जैसे हमारी जीभ। प्रमुख रूप से, सूंड के दोनों तरफ आठ मुख्य पेशियां होती हैं, साथ ही दोनों नासिका छिद्रों के बीच सूंड के शुरू से आखिर तक एक लंबी पेशी होती हैं। लेकिन सूंड को विशिष्टता इन पेशियों की सूक्ष्म बनावट से मिलती है।

पेशियां तंतुओं के गुच्छों से बनी होती हैं। इन गुच्छों को फैसिकल कहते हैं और इनकी जमावट ही पेशियों के विभिन्न कार्यों के लिए ज़िम्मेदार है। पूर्व अध्ययनों में सूंड का विच्छेदन करके अनुमान लगाया गया था कि सूंड में तकरीबन 30,000 से 1,50,000 के बीच फैसिकल्स हो सकते हैं। सटीक गणना के लिए हम्बोल्ट विश्वविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक माइकल ब्रेख्त की टीम ने 6 दिन की उम्र में मृत एक शिशु हाथी की सूंड को उच्च विभेदन वाले सीटी स्कैनर से स्कैन किया और एक सॉफ्टवेयर की मदद से सूंड के चार प्रतिनिधि भागों में पेशियों के फैसिकल्स की पहचान की। इस तरह उन्होंने पता लगाया कि पूरी सूंड में 89,000 से भी अधिक फैसिकल्स होते हैं। सूंड के पकड़ बनाने वाले सिरे पर सबसे अधिक, लगभग 8000, नन्हें फैसिकल्स होते हैं। सिरे पर इन फैसिकल्स की लंबाई महज 2 मिलीमीटर होती है और औसत व्यास मानव बाल (औसतन 75 माइक्रोमीटर) के बराबर होता है। तुलना के लिए देख सकते हैं कि मानव हाथ के फैसिकल्स करीब 60 मिलीमीटर लंबे होते हैं।

इसके अलावा सूंड के सिरे पर फैसिकल्स की जमावट रेडियल रूप में (कतार में केन्द्र से बाहर की ओर) होती है, जो पकड़ में बारीक नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण है। इस तरह यह सूंड के सिरे को चुन्नट डालकर सिकुड़ने और फैलने में मदद करती है।

स्कैन से यह भी पता चला कि मुख्य सूंड में सिरे की तुलना में फैसिकल्स काफी बड़े होते हैं, और दो तरह से जमे होते हैं। लंबाई में जमे फैसिकल्स पूरी सूंड को ऊपर-नीचे और अगल-बगल ले जाने में मदद करते हैं जबकि आड़े में जमे फैसिकल्स सूंड में मरोड़ पैदा करने में सहायता करते हैं। सूंड के ऊपरी हिस्से में ज़्यादा पेशियां आड़े में जमी होती हैं जबकि नीचे की ओर लंबाई में जमी पेशियां ज़्यादा होती हैं। यही कारण है कि सूंड बाहर की तुलना में अंदर की ओर ज़्यादा मुड़ सकती है।

इस जानकारी का इस्तेमाल अधिक लचीले और नियंत्रित रोबोटिक अंग बनाने में किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खेती-बाड़ी में केंचुओं का अद्भुत योगदान

ह तो जानी-मानी बात है कि केंचुए मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं और खेती को फायदा पहुंचाते हैं। लेकिन वास्तव में केंचुए खेती में कितना फायदा पहुंचाते हैं? अपने तरह के प्रथम अध्ययन में इसकी गणना करके बताया गया है कि केंचुओं की बदौलत हर साल 14 करोड़ टन अधिक अनाज पैदा होता है।

पैदावार में इस योगदान की गणना करने के लिए कोलोरेडो स्टेट युनिवर्सिटी के मृदा और कृषि-पारिस्थितिकीविद स्टीवन फोंटे और उनके सहयोगियों ने पूरे विश्व में केंचुओं का वितरण और अलग-अलग स्थानों पर उनकी प्रचुरता देखी और उसे हर जगह की कृषि उपज से जोड़ा। विश्लेषण करते हुए स्वयं पौधों में आई उत्पादकता में वृद्धि के कारक को भी ध्यान में रखा गया।

उन्होंने पाया कि विश्व स्तर पर धान, गेहूं और मक्का जैसी फसलों में केंचुए लगभग 7 प्रतिशत का योगदान देते हैं। दूसरी ओर, सोयाबीन, दाल वगैरह जैसी फलीदार फसलों की उपज वृद्धि में इनका योगदान थोड़ा कम है – लगभग 2 प्रतिशत। फलीदार फसलों में कम योगदान का कारण है कि ये फसलें सूक्ष्मजीवों के सहयोग से स्वयं नाइट्रोजन प्राप्त कर सकती हैं; इसलिए पोषक तत्वों के लिए कृमियों पर कम निर्भर होती हैं।

नेचर कम्युनिकेशंस में शोधकर्ता बताते हैं कि ग्लोबल साउथ के कई हिस्सों में केंचुओं से लाभ और भी अधिक है। मसलन उप-सहारा अफ्रीका में, जहां अधिकांश मिट्टी बंजर या अनुपजाऊ हो गई है और उर्वरक उनकी पहुंच में नहीं हैं, वहां केंचुए पैदावार को 10 प्रतिशत तक बढ़ा देते हैं। लेकिन अनुमानों में सावधानी की ज़रूरत है क्योंकि केंचुओं के वितरण सम्बंधी अधिकांश अध्ययन उत्तरी समशीतोष्ण देशों से थे।

उम्मीद की जा रही है कि यह अध्ययन नीति निर्माताओं और भूमि प्रबंधकों को मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने वाले और मिट्टी को स्वस्थ बनाने वाले जीवों की भूमिका पर अधिक ध्यान देने को प्रोत्साहित करेगा। उनकी सलाह है कि मिट्टी में केंचुओं के अनुकूल वातावरण रखने के लिए किसान कम जुताई करें। सघन जुताई या ट्रैक्टर से जुताई में ये कट-पिट जाते हैं।

हालांकि तथ्य तो यह भी है कि केंचुओं की सलामती के अनुकूल मिट्टी बनाने और जुताई न करने की सलाह देना जितना आसान है उतना ही मुश्किल उस पर अमल करना है। उदाहरण के लिए, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जहां मिट्टी अक्सर अनुपजाऊ हो जाती है वहां के गरीब किसान केंचुओं की आबादी बढ़ाने के जाने-माने तरीकों, जैसे मिट्टी की नमी बढ़ाने या जैविक पदार्थ डालने, का खर्च वहन नहीं कर पाते। इसके अलावा, जुताई न करने से खरपतवार की समस्या भी बनी रहती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो केंचुओं से लाभ लेना एक बड़ी चुनौती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adl0589/abs/_20230926_on_earthworms.jpg