क्या वुली मैमथ फिर से जी उठेगा?

क कंपनी है कोलोसल जिसका उद्देश्य है विलुप्त हो चुके जंतुओं को फिर से साकार करना। इस बार यह कंपनी कोशिश कर रही है कि वुली मैमथ नाम के विशाल प्राणि को पुन: प्रकट किया जाए।

अपने इस प्रयास में कंपनी के वैज्ञानिक आजकल के हाथियों की त्वचा कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में परिवर्तित करने में सफल हो गए हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो किसी खास अंग की कोशिका में विभेदित नहीं हो चुकी होती हैं और सही परिवेश मिलने पर शरीर की कोई भी कोशिश बनाने में समर्थ होती हैं। योजना यह है कि इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों की मदद से मैमथ के जीन्स रोपे जाएंगे और उम्मीद है कि यह कोशिका विकसित होकर एक मैमथ का रूप ले लेगी।

कोलोसल का उद्देश्य है कि एशियाई हाथियों (Elephas maximus) का ऐसा कुनबा तैयार किया जाए जिसके शरीर पर वुली मैमथ (Mammuthus primigenius) जैसे लंबे-लंबे बाल हों, अतिरिक्त चर्बी हो और मैमथ के अन्य गुणधर्म हों।

देखने में तो बात सीधी-सी लगती है क्योंकि सामान्य कोशिकाओं को बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं में बदलने में पहले भी सफलता मिल चुकी है और जेनेटिक इंजीनियरिंग भी अब कोई अजूबा नहीं है। जैसे एक शोधकर्ता दल ने 2011 में श्वेत राइनोसिरस (Ceratotherium simum cottoni) और ड्रिल नामक एक बंदर (Mandrillus leucophaeus) से स्टेम कोशिकाएं तैयार कर ली थीं। इसके बाद कई अन्य जोखिमग्रस्त प्रजातियों के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। जैसे, तेंदुए (Panthera uncia), सुमात्रा का ओरांगुटान (Pongo abelii) वगैरह। लेकिन पूरे काम में कई अगर-मगर हैं।

अव्वल तो कई दल हाथी की स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में असफल रह चुके हैं। जैसे कोलोसल की ही एक टीम एशियाई हाथी की कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में तबदील करने में असफल रही थी। उन्होंने शिन्या यामानाका द्वारा वर्णित रीप्रोग्रामिंग कारकों का उपयोग किया था। अधिकांश स्टेम कोशिकाएं तैयार करने के लिए इसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है।

इस असफलता के बाद एरिओना ह्योसोली की टीम ने उस रासायनिक मिश्रण का उपयोग किया जिसके उपयोग से मानव व मूषक कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं का रूप देने में सफलता मिल चुकी थी। लेकिन इस उपचार के बाद हाथियों की अधिकांश कोशिकाएं या तो मर गईं, या उनमें विभाजन रुक गया या कई मामलों में वे इस उपचार से अप्राभावित रहीं। लेकिन चंद कोशिकाओं ने गोल आकार हासिल कर लिया जो स्टेम कोशिका जैसा था। अब टीम ने इन कोशिकाओं को यामानाका कारकों से उपचारित किया। लेकिन सफलता तो तब हाथ लगी जब उन्होंने एक कैंसर-रोधी जीन TP53 की अभिव्यक्ति को ठप कर दिया। इस तरह से शोधकर्ताओं ने एक हाथी से चार कोशिका वंश तैयार किए हैं।

अब अगला कदम होगा हाथी की कोशिकाओं में जेनेटिक संपादन करके मैमथ जैसे गुणधर्म जोड़ना। इसके लिए उन्हें यह पहचानना होगा कि वे कौन-से जेनेटिक परिवर्तन हैं जो हाथी को मैमथनुमा बना देंगे। यह काम पहले तो सामान्य कोशिकाओं में किया जाएगा और फिर स्टेम कोशिकाओं में। पहले संपादित स्टेम कोशिकाएं तैयार की जाएगी और फिर उन्हें ऊतकों (जैसे बाल या रक्त) में विकसित करने का काम करना होगा।

लेकिन उससे पहले और भी कई काम होंगे। जैसे संपादित स्टेम कोशिकाओं को किसी प्रकार से शुक्राणुओं व अंडाणुओं में बदलना ताकि उनके निषेचन से भ्रूण बन सके। यह काम चूहों में किया जा चुका है। इसका दूसरा रास्ता भी है – इन स्टेम कोशिकाओं को ‘संश्लेषित’ भ्रूण में तबदील कर देना।

एक समस्या यह भी आएगी कि भ्रूण तैयार हो जाने के बाद उनके विकास के लिए कोख का इंतज़ाम करना। इसके लिए टीम को कृत्रिम कोख का इस्तेमाल करना ज़्यादा मुफीद लग रहा है क्योंकि हाथी की कोख में विकसित होने के दौरान मैमथ भ्रूण का विकास प्रभावित हो सकता है। लिहाज़ा स्टेम कोशिकाओं से ही कोख तैयार करने की योजना है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के लिए यह प्रयास जोखिमग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण की दिशा में कदम है। और इससे जीव वैज्ञानिक शोध में मदद मिलने की भी उम्मीद है। जैसे वैकासिक जीव वैज्ञानिक विंसेंट लिंच का विचार है कि हाथियों की स्टेम कोशिकाओं पर प्रयोग यह समझा सकते हैं कि हाथियों को कैंसर इतना कम क्यों होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जनसंख्या वृद्धि उम्मीद से अधिक तेज़ी से गिर रही है

मानव आबादी का अस्तिस्व बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि प्रति प्रजननक्षम व्यक्ति के 2.1 बच्चे पैदा हों। इसे प्रतिस्थापन दर कहते हैं। काफी समय से जननांकिकीविदों का अनुमान था कि कुछ सालों के बाद प्रजनन दर इस जादुई संख्या (2.1) से कम रह जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग (UNPD) की 2022 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि यह पड़ाव वर्ष 2056 में आएगा। 2021 में विट्गेन्स्टाइन सेंटर फॉर डेमोग्राफी एंड ग्लोबल ह्यूमन कैपिटल ने इस पड़ाव के 2040 में आने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन दी लैंसेट में प्रकाशित हालिया अध्ययन थोड़ा चौंकाता है और बताता है कि यह मुकाम ज़्यादा दूर नहीं, बल्कि वर्ष 2030 में ही आने वाला है।

देखा जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जनसंख्या नियंत्रण पर जागरूकता लाने के प्रयास, लोगों के शिक्षित होने, बढ़ती आय, गर्भ निरोधकों तक बढ़ती पहुंच जैसे कई सारे कारकों की वजह से कई देशों में प्रजनन दर में काफी गिरावट आई है, और यह प्रतिस्थापन दर से भी नीचे पहुंच गई है। मसलन, संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रजनन दर 1.6 है, चीन की दर 1.2 है और ताइवान की 1.0 है। लेकिन कई देशों, खासकर उप-सहारा अफ्रीका के गरीब देशों, में यह दर अभी भी काफी अधिक है: नाइजर की 6.7, सोमालिया की 6.1 और नाइजीरिया की 5.1।

चूंकि हर देश की प्रजनन दर बहुत अलग-अलग हो सकती है, ये रुझान विश्व को दो हिस्सों में बांट सकते हैं: कम प्रजनन वाले देश, जहां युवाओं की घटती संख्या के मुकाबले वरिष्ठ नागरिकों की आबादी अधिक होगी; और उच्च-प्रजनन वाले देश, जहां निरंतर बढ़ती जनसंख्या विकास में बाधा पहुंचा सकती है।
यहां यह स्पष्ट करते चलें कि प्रजनन दर का प्रतिस्थापन दर से नीचे पहुंच जाने का यह कतई मतलब नहीं है कि वैश्विक जनसंख्या तुरंत कम हो जाएगी। ऐसा होने में लगभग 30 और साल लगेंगे।

इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) के शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल में प्रजनन दर कब प्रतिस्थापन दर से नीचे जाएगी, इस समय का अनुमान इस आधार पर लगाया है कि प्रत्येक जनसंख्या ‘समूह’ (यानी एक विशिष्ट वर्ष में पैदा हुए लोग) अपने जीवनकाल में कितने बच्चों को जन्म देंगे। इस तरीके से अनुमान लगाने में लोगों के अपने जीवनकाल में देरी से बच्चे जनने के निर्णय लेने जैसे परिवर्तन पता चलते हैं। इसके अलावा IHME के इस मॉडल ने अनुमान लगाने में लोगों की गर्भ निरोधकों और शिक्षा तक पहुंच जैसे चार कारकों को भी ध्यान में रखा है जो प्रजनन दर को प्रभावित कर सकते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है यह पड़ाव चाहे कभी भी आए, देशों की प्रजनन दर में बढ़ती असमानता (अन्य) असमानताओं को बढ़ाने में योगदान दे सकती है। मध्यम व उच्च आय के साथ निम्न प्रजनन दर वाले देशों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से कम होने से वहां काम करने वाले लोगों की कमी पड़ सकती है और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों, राष्ट्रीयकृत स्वास्थ्य बीमा और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर दबाव पड़ सकता है। वहीं, निम्न आय के साथ उच्च प्रजनन दर वाले देशों के आर्थिक रूप से और अधिक पिछड़ने की संभावना बनती है। साथ ही, बहुत कम संसाधनों के साथ ये देश बढ़ती आबादी को बेहतर स्वास्थ्य, कल्याण और शिक्षा मुहैया नहीं करा पाएंगे। बहरहाल, इस तरह की समस्याओं को संभालने के लिए हमें समाधान खोजने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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जेरोसाइंस: बढ़ती उम्र से सम्बंधित विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय (जहां से मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की) के महामारी विज्ञानी डॉ. डेनियल बेल्स्की ने एक नया शब्द गढ़ा है ‘जेरोसाइंस’, जिसका अर्थ है बुढ़ापा या बढ़ती उम्र सम्बंधी विज्ञान। इसके तहत, उन्होंने एक अनोखा रक्त परीक्षण तैयार किया है जो यह बताता है कि कोई व्यक्ति किस रफ्तार से बूढ़ा हो रहा है।
उनके दल ने एक विधि विकसित की है जिसमें वरिष्ठजनों के डीएनए में एक एंज़ाइम के ज़रिए मिथाइल समूहों के निर्माण का अध्ययन किया जाता है। उन्होंने पाया है कि डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना (मिथाइलेशन) उम्र बढ़ने के प्रति संवेदनशील है। इस एंज़ाइम को अक्सर ‘जेरोज़ाइम’ कहा जाता है। (मिथाइलेशन डीएनए और अन्य अणुओं का रासायनिक संशोधन है जो तब होता है जब कोशिकाएं विभाजित होकर नई कोशिका बनाती हैं।)
जेरोज़ाइम को नियंत्रित करने के लिए कई शोध समूह औषधियों और अन्य तरीकों पर काम कर रहे हैं। ये प्रयास किसी भी व्यक्ति की बढ़ती उम्र को कैसे प्रभावित करते हैं? एक शोध समूह ने बताया है कि मेटफॉर्मिन नामक औषधि बढ़ती उम्र को लक्षित करने का एक साधन है (सेल मेटाबॉलिज़्म, जून 2016)। एक अन्य समूह ने पाया है कि यदि हम TORC1 एंजाइम को बाधित कर देते हैं, तो यह बुज़ुर्गों में प्रतिरक्षा को बढ़ा सकता है और संक्रमणों को कम कर सकता। हाल ही में, जोन बी. मेनिक और उनके दल ने नेचर एजिंग पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में मानव रोगों के पशु मॉडल्स की उम्र व जीवित रहने पर रैपामाइसिन औषधि के प्रभावों की समीक्षा की है। उन्होंने बताया है कि कैसे हम इस औषधि के अवरोधकों को वृद्धावस्था के रोगों की मानक देखभाल में शामिल कर सकते हैं।
डॉ. बेल्स्की के समूह ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि (अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी) के लोगों में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का भी अध्ययन किया और पाया कि सामाजिक-आर्थिक स्तर की प्रतिकूल परिस्थितियां भी इसमें भूमिका निभाती हैं।
कोलंबिया एजिंग सेंटर ने पाया है कि संतुलित आहार शोथ को कम करके मस्तिष्क के स्वास्थ्य की देखभाल करता है, आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति करके उचित रक्त प्रवाह बनाए रखता है जो संज्ञानात्मक कार्य में सहायक होता है। वेबसाइट healthline.com बात को आगे बढ़ाते हुए बताती है कि प्रोटीन के स्वास्थ्यवर्धक स्रोत, स्वास्थ्यकर वसा और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थ, जैसे सब्ज़ियां, तेल से भरपूर खाद्य पदार्थ और बहुत सारे फल स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं।
भारत में हमारे लिए यह और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे यहां (143 करोड़ की कुल जनसंख्या में से) 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की कुल संख्या लगभग 10 करोड़ है। healthline.com का सुझाव है कि (जंतु और वनस्पति) प्रोटीन, पौष्टिक अनाज (गेहूं, चावल, रागी, बाजरा), तेल, फल और सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं। ये मांसाहारियों और शाकाहारियों दोनों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं।
व्यायाम से रोकथाम
स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि घायल या बूढ़े चूहों की शक्ति बढ़ाने वाली एक औषधि तंत्रिकाओं और मांसपेशीय तंतुओं के बीच कड़ियों को बहाल करती है। यह औषधि उम्र बढ़ने से जुड़े जेरोज़ाइम, 15-PGDH, की गतिविधि को अवरुद्ध करती है। यह जेरोज़ाइम उम्र बढ़ने के साथ और न्यूरोमस्कुलर रोग के चलते मांसपेशियों में कुदरती रूप से बढ़ता है। लेकिन यह औषधि देने पर उम्रदराज़ चूहों की शारीरिक गतिविधि फिर से बढ़ गई थी।
मिनेसोटा का मेयो क्लीनिक नियमित शारीरिक गतिविधि के सात लाभ बताता है। ये लाभ हैं: वज़न पर नियंत्रण; स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप, टाइप-2 डायबिटीज़ और कैंसर जैसी स्थितियों और बीमारियों से लड़ता है; मूड में सुधार; ऊर्जा देता है; अच्छी नींद लाता है; यौन जीवन बेहतर करता है; और कहना न होगा कि यह मज़ेदार और सामाजिक हो सकता है। जैसे दूसरों से मेल-जोल होना, घूमना या खेलना। हम सभी, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों को, व्यायाम से बहुत लाभ होगा, और इस प्रकार जेरोज़ाइम बाधित होगा।
संगीत भी जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है और यह डिमेंशिया (स्मृतिभ्रंश) का इलाज भी हो सकता है! 2020 में, स्पेन के टोलेडो के एक समूह ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसका निष्कर्ष था – संगीत डिमेंशिया के उपचार का एक सशक्त तरीका हो सकता है। और हाल ही में, स्पेन के ही एक अन्य समूह द्वारा प्रकाशित पेपर का शीर्षक है: संगीत बढ़ती उम्र से सम्बंधित संज्ञानात्मक विकारों में परिवर्तित जीन अभिव्यक्ति की भरपाई कर देता है (Music compensates for altered gene expression in age-related cognitive disorders)। यह पेपर बताता है कि संगीत हमारे जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है। तो दोस्तों! गाना गाएं या गा नहीं सकते तो कम से कम सुनें ज़रूर! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डिप्रेशन की दवाइयां और चूहों पर प्रयोग

जब डिप्रेशन यानी अवसाद के लिए कोई दवा विकसित होती है तो उसका परीक्षण कैसे किया जाता है? पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों के पास एक सरल सा परीक्षण रहा है। 1977 में निर्मित इस परीक्षण को जबरन तैराकी परीक्षण (forced swim test FST) कहते हैं। यह परीक्षण इस धारणा पर टिका है कि कोई अवसादग्रस्त जंतु जल्दी ही हाथ डाल देगा। लगता था कि यह परीक्षण कारगर है। देखा गया था कि डिप्रेशन-रोधी दवाइयां और इलेक्ट्रोकंवल्सिव थेरपी (ईसीटी या सरल शब्दों में बिजली के झटके) देने पर जंतु हार मानने से पहले थोड़ी ज़्यादा कोशिश करते हैं। यह परीक्षण इतना लोकप्रिय है कि हर साल लगभग 600 शोध पत्रों में इसका उल्लेख होता है।
जबरन तैराकी परीक्षण में किया यह जाता है कि किसी चूहे को पानी भरे एक टब में छोड़ दिया जाता है और यह देखा जाता है कि वह कब तक तैरने की कोशिश करता है और कितनी देर बाद कोशिश करना छोड़ देता है। ऐसा देखा गया है कि अवसाद-रोधी दवा देने के बाद चूहे ज़्यादा देर तक तैरने की कोशिश करते हैं।
परीक्षण में कई अगर-मगर होते हैं। जैसे चूहे के प्रदर्शन पर इस बात का असर पड़ता है कि वह पहले से कितने तनाव में था। यह भी देखा गया है कि चतुर चूहे समझ जाते हैं कि अंतत: शोधकर्ता उन्हें सुरक्षित बचा लेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि चूहों पर असर के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह दवा मनुष्यों पर भी काम करेगी। इन दिक्कतों के चलते जंतु अधिकार कार्यकर्ता (जैसे पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा) इस परीक्षण पर सवाल उठाते रहे हैं।
कुछ समय से शोधकर्ताओं के बीच भी इस परीक्षण को लेकर शंकाएं पैदा होने लगी हैं। खास तौर से इस बात को लेकर संदेह जताए जा रहे हैं कि क्या यह परीक्षण इस बात का सही पूर्वानुमान कर पाता है कि कोई अवसाद-रोधी दवा मनुष्यों पर कारगर होगी। इस परीक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। एक चिंता यह है कि जबरन तैराकी परीक्षण निहायत क्रूर है और परिणाम सटीक नहीं होते।
2023 में ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने कह दिया था कि वह जबरन तैराकी परीक्षण करने वाले अनुसंधान के लिए पैसा नहीं देगी। यू.के. में निर्देश है कि यदि इस परीक्षण का उपयोग करना है तो उसे उचित ठहराने का कारण बताना होगा। फिर ऑस्ट्रेलिया के प्रांत न्यू साउथ वेल्स ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। कम से कम 13 बड़ी दवा कंपनियों ने कहा है कि वे इस परीक्षण का उपयोग नहीं करेंगी। यूएस में प्रतिबंध तो नहीं लगाया गया है किंतु इसे निरुत्साहित करने की नीति बनाई है।
इस सबका एक सकारात्मक असर यह हुआ है कि शोधकर्ता अब नए वैकल्पिक परीक्षणों की तलाश कर रहे हैं। खास तौर से यह देखने की कोशिश की जा रही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े व्यवहारों की पड़ताल की जाए। जैसे जीवन का आनंद, नींद का उम्दा पैटर्न, तनाव के प्रति लचीलापन वगैरह। सोच यह है कि अवसाद को एक स्वतंत्र तकलीफ न माना जाए बल्कि कई मानसिक विकारों के हिस्से के रूप में देखा जाए। अलबत्ता, तथ्य यह है कि 2018 से 2020 के बीच अवसाद से सम्बंधित 60 प्रतिशत शोध पत्रों में जबरन तैराकी परीक्षण का उपयोग किया गया और बताया गया कि ‘यह अवसादनुमा व्यवहार’ का उपयुक्त द्योतक है।
बहरहाल, नए परीक्षणों की तलाश जारी है। जैसे फरवरी में न्यूरोसायकोफार्मेकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में औषधि वैज्ञानिक मार्को बोर्टोलेटो ने ऐसे ही परीक्षण की जानकारी दी है। इस परीक्षण में चूहे को यह सीखना होता है कि वह पानी से बाहर निकलने के लिए वहां बने प्लेटफॉर्म्स पर चढ़ सकता है लेकिन जब वह उन पर चढ़ता है तो वे डूब जाते हैं। परीक्षण में यह देखा जाता है कि चूहा एक स्थिर प्लेटफॉर्म ढूंढने की कोशिश कब तक जारी रखता है। एक परीक्षण में पता चला कि चूहों को अवसाद-रोधी दवा प्लोक्ज़ेटिन देने पर या उन्हें कसरत कराने पर वे देर तक कोशिश करते रहे।
ऐसा ही एक विकल्प तंत्रिका वैज्ञानिक मॉरिट्ज़ रोसनर भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने परीक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया है कि बायपोलर तकलीफ की दवा लीथियम देने पर चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनके परीक्षण में एक नहीं बल्कि 11 व्यवहारों का अवलोकन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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पक्षी भी करते हैं ‘पहले आप!’, ‘पहले आप!’

हाथ हिलाकर विदा कहना, झुककर अभिवादन करना, ठेंगा दिखाना, ऐसे कई इशारे या भंगिमाएं हम अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने आपस में इसी तरह मेलजोल करते एक ‘शिष्ट’ पक्षी जोड़े को देखा है।
जापान के नागानो में लिए गए वीडियो में दो जापानी टिट पक्षी (Parus minor) कैद हुए हैं। वीडियो में दिखता है कि जब पक्षियों का ये जोड़ा अपने चूज़ों के लिए भोजन लेकर घोंसले को लौटता है तो मादा घोंसले के पास वाली डाल पर जाकर बैठ जाती है और पंख फड़फड़ा कर अपने साथी को पहले घोंसले में जाने का इशारा करती है। जब साथी घोंसले के अंदर चला जाता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी घोंसले मे चली जाती है।
करीब 8 पैरस माइनर जोड़ों के 300 से अधिक बार घोंसले में लौटने के अवलोकनों से पता चला कि मादाओं का फड़फड़ाना अधिक था; वे फड़फड़ा कर ज़ाहिर करती हैं कि उनके साथी पहले घोंसले में जाएं और वे उनके अंदर जाने तक रुकी रहती हैं। लेकिन जब मादा पंख नहीं फड़फड़ाती तो इसका मतलब होता है वह पहले घोंसले में जाना चाहती है। पक्षियों में ‘पहले आप’ की शिष्टता उजागर करते ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
मादा पंख फड़फड़ाते हुए अपने साथी की ओर मुखातिब थी, न कि घोंसले की ओर। इससे पता चलता है वह केवल घोंसले का पता नहीं बता रही थी बल्कि कोई संदेश भी दे रही थी। रुचि की किसी चीज़ की ओर ध्यान आकर्षित करने का व्यवहार कौवों सहित अन्य पक्षियों में देखा गया है, लेकिन सांकेतिक इशारों को अधिक जटिल माना जाता है। इस तरह से संदेश देने के व्यवहार इसके पहले प्रायमेट्स के अलावा अन्य किसी प्राणि में नहीं देखे गए हैं।
इसका वीडियो यहां देख सकते हैं: https://www.science.org/content/article/after-you-female-bird-s-flutter-conveys-polite-message-her-mate (स्रोत फीचर्स)

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दाएं-बाएं हाथ की वरीयता क्या जीन्स तय करते हैं?

यह कैसे तय होता है कि हम अपनी सुबह की चाय या कॉफी का कप किस हाथ से उठाएंगे या मंजन किस हाथ से करेंगे? हाल ही में शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस में 3,50,000 से अधिक व्यक्तियों के जेनेटिक डैटा की पड़ताल के नतीजे प्रकाशित किए हैं, जो इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं कि वह क्या है जो यह तय करता है कि हम दाएं हाथ से काम करने में सहज होंगे या बाएं हाथ से। इस पड़ताल में उन्हें ट्यूबुलिन प्रोटीन की भूमिका का पता चला है जो कोशिकाओं के आंतरिक कंकाल की रचना करता है।
दरअसल मानव विकास में भ्रूणावस्था के दौरान मस्तिष्क के दाएं और बाएं हिस्से की वायरिंग अलग-अलग तरह से होती है, जो आंशिक रूप से जन्मजात व्यवहारों को निर्धारित करती है। जैसे कि हम मुंह में किस ओर रखकर खाना चबाएंगे, आलिंगन किस ओर से करेंगे, और हमारा कौन-सा हाथ लगभग सभी कामों को करेगा या प्रमुख होगा। अधितकर लोगों का दायां हाथ प्रमुख हाथ होता है। लेकिन लगभग 10 प्रतिशत मनुष्यों का बायां हाथ प्रमुख होता है।
चूंकि अधिकांश लोगों में एक हाथ की तुलना में दूसरे हाथ के लिए स्पष्ट रूप से प्राथमिकता होती है, प्रमुख हाथ से सम्बंधित जीन का पता लगने से मस्तिष्क में दाएं-बाएं विषमता का जेनेटिक सुराग मिल सकता है।
पूर्व में हुए अध्ययनों में यूके बायोबैंक में सहेजे गए जीनोम डैटा की पड़ताल कर 48 ऐसे जेनेटिक रूपांतर खोजे गए थे जो बाएं हाथ के प्रधान होने से सम्बंधित थे। ये ज़्यादातर डीएनए के गैर-कोडिंग हिस्सों, यानी उन हिस्सों में पाए गए थे जो किसी प्रोटीन के निर्माण का कोड नहीं हैं। इनमें वे हिस्से भी थे जो ट्यूबुलिन से सम्बंधित जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित कर सकते थे। ट्यूबलिन प्रोटीन लंबे, ट्यूब जैसे तंतुओं में संगठित होते हैं जिन्हें सूक्ष्मनलिकाएं कहा जाता है, जो कोशिकाओं के आकार और आंतरिक गतियों को नियंत्रित करती हैं।
लेकिन अब नेदरलैंड के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर साइकोलिंग्विस्टिक्स के आनुवंशिकीविद और तंत्रिका वैज्ञानिक क्लाइड फ्रैंक्स और उनकी टीम ने यूके बायोबैंक में संग्रहित जीनोम डैटा में प्रोटीन-कोडिंग हिस्से में जेनेटिक रूपांतर खोजे हैं। इसमें 3,13,271 दाएं हाथ प्रधान और 38,043 बाएं हाथ प्रधान लोगों का डैटा था। विश्लेषण में उन्हें TUBB4B ट्यूबुलिन जीन में एक रूपांतर मिला, जो दाएं हाथ प्रधान लोगों की अपेक्षा बाएं हाथ प्रधान लोगों में 2.7 गुना अधिक था।
माइक्रोट्यूब्यूल्स हाथ की वरीयता को प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि वे सिलिया – कोशिका झिल्ली में रोमिल संरचना – बनाते हैं जो विकास के दौरान एक असममित तरीके से द्रव प्रवाह को दिशा दे सकती है। ये निष्कर्ष यह पता करने में मदद कर सकते हैं कि कैसे सूक्ष्मनलिकाएं प्रारंभिक मस्तिष्क विकास को ‘असममित मोड़’ दे सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बारिश और नमी से ऊर्जा का उत्पादन

हाल ही वैज्ञानिकों ने वर्षा बूंदों और नमी की मदद से ऊर्जा उत्पादन की एक अभूतपूर्व हरित तकनीक विकसित की है। मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी जून याओ और उनकी टीम ने एक ऐसी सरंध्र फिल्म विकसित की है जो जलवाष्प में प्राकृतिक रूप से मौजूद आवेशों को विद्युत धारा में परिवर्तित कर सकती है।
वर्तमान में ये फिल्में डाक टिकटों के आकार की हैं और अल्प मात्रा में ही विद्युत उत्पन्न करती हैं, लेकिन उम्मीद है कि भविष्य में इन्हें बड़ा करके सौर पैनलों की तरह लगाया जा सकेगा। इस तकनीक को हाइड्रोवोल्टेइक कहते हैं। और दुनियाभर के कई समूह नवीन हाइड्रोवोल्टेइक उपकरणों पर काम कर रहे हैं जिससे वाष्पीकरण, वर्षा और मामूली जलप्रवाह की ऊर्जा को विद्युत में बदल जा सकता है।
नमी की निरंतर उपलब्धता हाइड्रवोल्टेइक को खास तौर से उपयोगी बनाती है। रुक-रुक कर मिलने वाली पवन और सौर ऊर्जा के विपरीत, वातावरण में नमी की निरंतर उपस्थिति एक सतत ऊर्जा स्रोत प्रदान करती है। वैसे तो मनुष्य प्राचीन समय से पनचक्कियों से लेकर आधुनिक जलविद्युत बांधों तक, ऊर्जा के लिए बहते पानी का उपयोग करते आए हैं। लेकिन हाइड्रोवोल्टेइक्स पदार्थों के साथ पानी की अंतर्क्रिया पर आधारित है।
शोधकर्ताओं ने देखा था कि आवेशित सतहों से टकराने वाली बूंदों या बहते पानी से छोटे-छोटे वोल्टेज स्पाइक्स उत्पन्न होते हैं। इस तकनीक की मदद से हाल ही में, थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन बूंदों की बौछारों से 1200 वोल्ट तक बिजली उत्पन्न की गई जो एलईडी डायोड के टिमटिमाने लिए पर्याप्त थी।
इसके अलावा वाष्पीकरण में भी बिजली उत्पादन की क्षमता होती है। हांगकांग पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के मेकेनिकल इंजीनियर ज़ुआंकाई वांग ने ड्रिंकिंग बर्ड नामक खिलौने से इसका प्रदर्शन किया। यह खिलौना एक झूलती चिड़िया होती है। इसकी अवशोषक ‘चोंच’ को पानी में डुबोया जाता है तो यह डोलने लगती है। इसके वापस सीधा होने के बाद, पानी वाष्पित होता है और इसके सिर को ठंडा कर देता है। दबाव में आई कमी के कारण एक अन्य द्रव सिर में पहुंच जाता है और दोलन फिर शुरू हो जाता है। इस गति का उपयोग ‘ट्राइबोइलेक्ट्रिक’ जनरेटर की मदद से बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है।
इससे पहले याओ ने पिछले वर्ष हवा में उपस्थित पानी के अणुओं से विद्युत आवेशों को पकड़ने के लिए एक वायु जनरेटर भी तैयार किया था। इस जनरेटर में नैनो-रंध्रों वाली एक पतली चादर का उपयोग किया गया था। वर्तमान में इस जनरेटर से उत्पादन चंद माइक्रोवॉट प्रति वर्ग सेंटीमीटर के आसपास ही है, लेकिन याओ का विचार है कि कई परतों का उपयोग करके इस जनरेटर को एक 3डी डिवाइस में बदल सकते हैं जो हवा से निरंतर बिजली कैप्चर करने में सक्षम हो सकता है।
इसके अलावा जटिल नैनो संरचना आधारित लकड़ी का उपयोग एक अन्य हाइड्रोवोल्टेइक प्रणाली विकसित करने के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस लकड़ी के टुकड़े को पानी पर रखकर और उसकी ऊपरी सतह को हवा के संपर्क में लाकर बिजली पैदा की जा सकती है। ऊपर की ओर से वाष्पीकरण लकड़ी के चैनलों के माध्यम से अधिक पानी और आयन खींचता है, जिससे एक छोटी लेकिन स्थिर विद्युत धारा उत्पन्न होती है। शोधकर्ताओं ने लकड़ी में सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग किया जिससे उत्पादन दस गुना तक बढ़ा। आयरन ऑक्साइड नैनोकणों को शामिल करने से, बिजली उत्पादन 52 माइक्रोवॉट प्रति वर्ग मीटर तक पहुंच गया जो प्राकृतिक लकड़ी की तुलना में बेहतर है।
फिलहाल इन उपकरणों की ऊर्जा उत्पादन दरें काफी कम हैं। तुलना के लिए सिलिकॉन सौर पैनल की क्षमता 200 से 300 वॉट प्रति वर्ग मीटर होती है। लेकिन हाइड्रोवोल्टेइक्स अभी शुरुआती दौर में है। और अधिक अध्ययन होगा तो हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हाइड्रोवोल्टेइक्स एक आशाजनक प्रणाली साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या साफ आकाश धरती को गर्म करता है?

वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रिकॉर्ड किया गया है। यह वैश्विक तापमान में तेज़ी से हो रही वृद्धि का संकेत है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवॉयरनमेंट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि इस तेज़ी से बढ़ती गर्मी का एक प्रमुख कारक पृथ्वी का साफ होता आसमान है। इसके चलते सूर्य की अधिक रोशनी वातावरण में प्रवेश करके तापमान में वृद्धि करती है।
नासा का क्लाउड्स एंड दी अर्थ्स रेडिएंट एनर्जी सिस्टम (CERES) वर्ष 2001 से पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन की निगरानी कर रहा है। CERES ने पृथ्वी द्वारा अवशोषित सौर ऊर्जा की मात्रा में काफी वृद्धि देखी है। इसकी व्याख्या मात्र ग्रीनहाउस गैसों के आधार पर नहीं की जा सकती। एक कारण यह हो सकता है कि वायुमंडल कम परावर्तक हो गया है। शायद वर्ष 2001 और 2019 के बीच बिजली संयंत्रों से प्रदूषण में कमी और स्वच्छ ईंधन के उपयोग से हवा ज़्यादा पारदर्शी हो गई है। अध्ययन का अनुमान है कि इससे वार्मिंग में 40 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि हुई है।
जलवायु वैज्ञानिक काफी समय से जानते हैं कि घटते प्रदूषण के कारण धरती के तापमान में वृद्धि हो सकती है। वजह यह मानी जाती है कि प्रदूषण के कण न केवल प्रकाश को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं, बल्कि उनके कारण बादलों में ज़्यादा जल कण बनते हैं जिससे बादल अधिक चमकीले और टिकाऊ होते हैं। गौरतलब है कि दो साल पूर्व एरोसोल में वैश्विक स्तर पर भारी गिरावट देखी गई थी। लेकिन वर्तमान अध्ययन में प्रयुक्त जलवायु मॉडल्स ने प्रदूषण में इस कमी को वार्मिंग के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।
अलबत्ता, साफ आसमान परावर्तन में गिरावट का एकमात्र कारण नहीं हो सकता। CERES के मॉडल्स प्रकाश के अतिरिक्त अवशोषण में से 40 प्रतिशत की व्याख्या नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा, CERES डैटा ने दोनों गोलार्धों में परावर्तन में गिरावट दर्शायी है जबकि प्रदूषण में कमी उत्तरी गोलार्ध में अधिक हुई है। इसके अलावा, बर्फ के पिघलने से उसके नीचे की गहरे रंग की ज़मीन उजागर हो जाती है, अधिक तापमान के कारण समुद्र के ऊपर के बादल छितर जाते हैं और अपेक्षाकृत गहरे रंग का पानी उजागर हो जाता है। ऐसे कई कारक पृथ्वी की परावर्तनशीलता घटाने में योगदान दे सकते हैं। इस सब बातों के मद्देनज़र, हो सकता है कि ये मॉडल्स प्रदूषण में कमी के असर को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग एक नाज़ुक ऊर्जा संतुलन पर टिका है। सूरज लगातार पृथ्वी पर ऊर्जा की बौछार करता है। इसमें से काफी सारी ऊर्जा को परावर्तित कर दिया जाता है और कुछ परावर्तित ऊर्जा को वायुमंडल रोक लेता है। यदि वायुमंडल थोड़ी भी अधिक गर्मी को रोके या सूर्य के प्रकाश को थोड़ा कम परावर्तित करे, तो तापमान बढ़ सकता है। कई दशकों से आपतित ऊर्जा और परावर्तित ऊर्जा का यह संतुलन गड़बड़ाया हुआ है।
नॉर्वे के सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लायमेट रिसर्च के मॉडलर ओइविन होडनेब्रोग की टीम ने चार जलवायु मॉडलों की तुलना करके ऊर्जा के बढ़ते अवशोषण के कारणों की पहचान करने की कोशिश की है।
इस अध्ययन के अनुसार एरोसोल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। चीन और भारत जैसे देशों में सख्त प्रदूषण नियंत्रण के चलते एयरोसोल में कमी क्षेत्रीय मौसम के पैटर्न को प्रभावित करेगी।
अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु पर वायु प्रदूषण में कमी का प्रभाव प्रकट होने में कई दशक लग सकते हैं। थोड़ा-सा एरोसोल भी बादल को चमकीला और परावर्तक बनाने के लिए काफी होता है। यानी प्रदूषित क्षेत्रों में, बादलों की परावर्तनशीलता तब तक कम नहीं होगी जब तक कि आसमान काफी हद तक साफ न हो जाए।
एक चिंता डैटा की निरंतरता को लेकर भी है। पुराने एक्वा और टेरा उपग्रहों के उपकरण अपने जीवन के अंत के करीब हैं। ऐसा लगता है कि अगली पीढ़ी के उपग्रह, लाइबेरा, के 2028 में लॉन्च होने तक केवल एक उपकरण ही सक्रिय रहेगा। यह संभावित अंतराल जलवायु अनुसंधान के लिए एक गंभीर समस्या बन सकता है।
देखने में तो साफ आकाश सकारात्मक पर्यावरणीय परिवर्तन लगता है लेकिन वास्तव में यह ग्लोबल वार्मिंग में तेज़ी से योगदान दे रहा है। बढ़ते जलवायु संकट से निपटने के लिए पृथ्वी की ऊर्जा प्रणाली के जटिल संतुलन को समझना और संबोधित करना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंदन के पेड़ उगाने की जुगत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

शायद ही किसी को चंदन के बारे में बताने की ज़रूरत पड़ेगी। इसके सुगंधित तेल, बेशकीमती लकड़ी और कई औषधीय गुणों के कारण इसे सदियों से महत्व मिलता रहा है। लेकिन चंदन का पेड़, जिससे यह सारी चीज़ें हमें मिलती हैं, उससे हम इतना वाकिफ नहीं हैं।

चंदन का पेड़ पतझड़ी जंगलों में उगने वाला पेड़ है। यह आंशिक या अर्ध-परजीवी वृक्ष है, जिसके चारों ओर चार-पांच अन्य तरह के पेड़ों की उपस्थिति ज़रूरी होती है। चंदन की जड़ें ज़मीन के नीचे एक हौस्टोरियम (चूषक-जाल) बनाती हैं। यह चूषक-जाल आसपास के मेज़बान पेड़ों की जड़ों पर ऑक्टोपस जैसी पकड़ बनाती हैं, और उनके ज़रिए पानी और अन्य पोषक तत्व प्राप्त करती हैं।

चंदन के फल से तो शायद हम और भी अधिक अपरिचित हैं। इसका फल लगभग 1.5 से.मी. व्यास का (करीब बेर/जामुन जितना बड़ा), रसीला-गूदेदार और पकने पर चमकदार जामुनी-काले रंग का होता है। इसके अंदर एक बीज होता है। इस बीज की रक्षा करने के लिए सख्त खोल नहीं होती बल्कि वह सूखी गिरी में कैद होता है। इस कारण बीज का एक मौसम से अधिक समय तक जीवित रहना मुश्किल होता है।

चंदन के उपरोक्त दोनों गुण – प्रारंभिक विकास चरण में अन्य पेड़ों की मदद की आवश्यकता, और अल्पकाल तक ही सलामत रहने वाले बीज जो संग्रहित नहीं किए जा सकते – के अलावा अत्यधिक दोहन किए जाने के चलते इन पेड़ों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। इस वजह से दक्षिण भारत के जंगलों में चंदन के पेड़ों की संख्या में भारी गिरावट आई है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने चंदन को एक जोखिमग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखा है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि अब चंदन और चंदन के तेल का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश ऑस्ट्रेलिया है।

पक्षियों द्वारा फैलाव

इसका फल कड़वा होता है, इसका स्वाद मनुष्यों को नहीं भाएगा। लेकिन यह पक्षियों को प्रिय है। एशियाई कोयल और भूरा धनेश जैसी लगभग 10 प्रजातियां इसके फल को साबुत ही निगल जाती हैं, और समय के साथ बीज को उस पेड़ से काफी दूरी पर गिरा देती हैं। ये पक्षी भारत के बड़े फल खाने वाले (फलभक्षी) पक्षियों में से हैं। चंदन के पेड़ का फल कोयल और धनेश के लिए एकदम उपयुक्त है। जानी-मानी बात है कि चंदन के जिन पेड़ों के बीज बड़ी साइज़ के होते हैं, उनके बीज आम तौर पर मूल पेड़ के आसपास ही बिखरते हैं। हालांकि बड़े बीज अंकुरण के लिए बेहतर होते हैं, लेकिन पक्षी बड़े बीजों को निगल नहीं पाते हैं और गूदे पर चोंच मारने के बाद उन्हें वहीं नीचे गिरा देते हैं।

बीजों के अंकुरण के लिए अच्छा होता है कि वे पक्षियों के पाचन तंत्र से होकर गुज़रें। इससे गुज़रने के बाद बीज बहुत तेज़ी से अंकुरित होते हैं और उनके पेड़ बनने की संभावना अधिक होती है। यही कारण है कि हमें बड़े-बड़े परिपक्व चंदन के पेड़ जंगलों में देखने को मिलते हैं न कि वृक्षारोपण स्थलों (प्लांटेशन) में। अफसोस की बात है कि जंगलों के कम होने से पक्षियों की आबादी भी कम हो गई है, और इसलिए उचित बीज फैलाव की संभावना भी कम हो गई है।

इस मामले में, क्या मनुष्य पक्षियों की बराबरी कर सकते हैं? फॉरेस्ट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में त्रिशूर के केरल कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने, युरोप के साथियों के साथ मिलकर चंदन के बीजों को अंकुरण के लिए विभिन्न तरीकों से तैयार करने की कोशिश की है। सर्वोत्तम परिणाम तब मिले जब ताज़े एकत्रित किए हुए बीजों को पॉलीएथिलीन ग्लाइकॉल-6000 के 5% घोल में दो दिनों के लिए भिगोया गया। यह दिलचस्प सिंथेटिक पदार्थ बीज की कोशिकाओं पर परासरण दाब पैदा करता है और अंकुरण प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। इसे ऑस्मोप्रायमिंग कहा जाता है, और सही ढंग से करने पर यह बीजों को केवल पानी में भिगोने से अधिक प्रभावी होता है। ऑस्मोप्रायमिंग की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद बीजों की अंकुरण दर 79 प्रतिशत थी जबकि सीधे बीज बोने में यह दर सिर्फ 45 प्रतिशत थी। (स्रोत फीचर्स)

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क्या फूल पौधों के कान हैं – डॉ. किशोर पंवार

रंग-बिरंगे, रस भरे फूलों पर तितलियां, भंवरे और शकरखोरा (सनबर्ड) जैसे पक्षी सुबह-शाम मंडराते हैं। रात के वक्त इनका स्थान पतंगे और छोटे चमगादड़ ले लेते हैं। तितलियों या पक्षियों का फूलों पर बार-बार आना-जाना बेसबब नहीं होता। यह रिश्ता लेन-देन का है। फूल अपना मीठा रस इन हवाई मेहमानों को देते हैं और बदले में ये जीव इन फूलों के पराग को यहां से वहां ले जाते हैं। इस लेन-देन में तितलियों, पक्षियों, चमगादड़ों को भोजन मिल जाता है और फूलों का परागण हो जाता है जो नए फल और बीज बनने के लिए ज़रूरी है।

कभी दुश्मन, कभी दोस्त

पत्तियों को कुतरने वाली इल्लियां और फुदकने वाले तरह-तरह के टिड्डे, ये सब पत्तियों के दुश्मन हैं। टिड्डों की बात छोड़ दें, परंतु तितलियां और पतंगे तो इन्हीं इल्लियों के उड़ने वाले रूप हैं जो पेड़-पौधों से दोस्तियां निभाते हैं। ये इन जीवों के जीवन चक्र की दो अलग-अलग अवस्थाएं हैं। इनमें से कुछ जीव अपूर्ण कायांतरण दर्शाते हैं (जैसे कि टिड्डे) तो कुछ पूर्ण कायांतरण का मुज़ाहिरा करते हैं (जैसे तितलियां और पतंगे)। जीवन चक्र की इनकी ये अवस्थाएं इतनी अलग-अलग दिखती हैं कि आप पहचान ही नहीं पाएंगे कि ये एक ही जीव के दो रूप हैं।

जीवन चक्र की शुरुआती अवस्था (इल्ली रूप) में ये पत्तियों को कुतरते हैं, उन्हें छेद देते हैं और कभी-कभी तो पूरा पौधा ही चट कर जाते हैं। ऐसी स्थिति में ये पौधों के दुश्मन नज़र आते हैं। दूसरी ओर, वयस्क अवस्था अर्थात उड़ने वाले जीव के रूप में ये रस भरे फूलों का रसपान करते हैं और चलते-चलते (उड़ते-उड़ते) उन फूलों का परागण कर देते हैं।

तथ्य यह है कि 87.5 प्रतिशत पुष्पधारी पौधे परागण के लिए इन तितलियों, मधुमक्खियों और विभिन्न पक्षियों और चमगादड़ों पर निर्भर है। इनमें कई महत्वपूर्ण फसलें, तथा आर्थिक महत्व के पेड़-पौधे शामिल हैं।

क्या पौधे सुनते हैं

फूलों के बारे में यह तो जानी-मानी बात है कि वे अपने रंगों से, सुगंध से परागणकर्ता कीट-पतंगों को आकर्षित करते हैं और अपनी प्रजनन सफलता को बढ़ाते हैं। और अब, हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि पौधे इन जीवों की आवाज़ भी सुनते हैं। और सिर्फ सुनते नहीं, उस पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया भी देते हैं। यह प्रतिक्रिया फूलों को फायदा पहुंचाती है। तो क्या पेड़-पौधों के कान होते हैं? अध्ययन से तो लगता है कि यह बात सही है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि ‘सुनने-सुनाने’ का यह काम फूल करते हैं। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि सुनने से आशय हवाई कंपनों के प्रति प्रतिक्रिया से है। ज़रूरी नहीं कि इन कंपनों से ध्वनि की संवेदना पैदा हो।

शोधकर्ता लिलैक हैडानी व उनके साथियों की परिकल्पना थी कि पौधे ध्वनियों के प्रति कुछ न कुछ प्रतिक्रिया ज़रूर देते होंगे। खास तौर पर उन्हें लगता था कि परागणकर्ताओं के पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति का फूलों पर कुछ असर ज़रूर होता होगा। उनका यह भी विचार था कि परागणकर्ता (तितली वगैरह) के आसपास मंडराने पर फूलों में ऐसे परिवर्तन होते होंगे जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करने में मदद करते हैं या उनको कुछ तोहफा देते हैं। जैसे, हो सकता है कि ऐसी ध्वनियों के असर से वे ज़्यादा या बेहतर मकरंद तैयार करते हों। शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या परागणकर्ता द्वारा उत्पन्न ध्वनि का मकरंद की मात्रा या गुणवत्ता पर कोई असर पड़ता है?

शोधकर्ताओं का यह भी विचार था कि यदि फूलों के माध्यम से ही ध्वनि के कंपन पर प्रतिक्रिया होती है, तो खुद फूल भी कंपन करते होंगे; खासकर कटोरेनुमा आकार वाले फूल। तो उन्होंने अपने प्रयोग इन दो परिकल्पनाओं की जांच के हिसाब से बनाए। और इन प्रयोगों के लिए उन्होंने वसंती गुलाब को चुना। इस पौधे को अलग-अलग तरह की ध्वनि के संपर्क में लाकर उसकी प्रतिक्रियाओं का नाप-जोख किया और परिणाम चौंकाने वाले रहे। पहले तो यह देखते हैं कि प्रयोग किस तरह किए गए थे।

प्रयोग की योजना

प्रयोग के एक सेट में पौधे प्राकृतिक वातावरण में, खुले में उगाए गए थे जबकि गर्मियों में घर के अंदर उगाए गए थे। और पौधे प्राकृतिक ध्वनियों के संपर्क में थे। दूसरे सेट में (कंट्रोल के तौर पर) कोई ध्वनि नहीं सुनाई गई और तीसरे में ऐसी ध्वनियों की रिकॉर्डिंग उन्हें सुनाई गई जो कीटों के पंख फड़फड़ाने की आवृत्ति के आसपास थी। एक अन्य प्रयोग सेट में उच्च आवृत्ति की ध्वनि की रिकॉर्डिग सुनाई गई। शोधकर्ताओं ने यह भी सावधानी बरती थी कि स्पीकर के विद्युत चुंबकीय क्षेत्र के संभावित प्रभाव को नियंत्रित किया जाए।

जिस फूल पर ये प्रयोग किए गए उसका नाम है बीच इवनिंग प्रिमरोज़ या वसंती गुलाब (Oenothera drummondii)। यह पौधा 400 मीटर से नीचे के तटीय इलाकों में रेतीले क्षेत्र में पाया जाता है। यह मेक्सिको और दक्षिण पूर्वी यूएस का मूल निवासी है। इसके फूल चटख पीले रंग के होते हैं। फूल शाम को खिलते हैं और सूरज की रोशनी आने पर बंद हो जाते हैं। प्रत्येक फूल में चार पंखुड़ियां और चार अंखुड़ियां तथा आठ परागकोश होते हैं। इन कटोरानुमा फूलों का रात और अलसुबह परागण पतंगों द्वारा होता है, और संध्याकाल और सुबह में मधुमक्खी के द्वारा। ये प्रयोग इस्राइल में किए गए थे।

एक प्रयोग में घर के अंदर उगाए गए पौधों को एक अकेली मंडराती मधुमक्खी की रिकॉर्डिंग का प्लेबैक सुनाया गया जबकि एक प्रयोग में पौधे की प्रतिक्रिया का परीक्षण कुछ निम्न और मध्यम आवृत्ति के ध्वनि उद्दीपनों के लिए किया गया था।

उपरोक्त विभिन्न उद्दीपनों पर फूलों की प्रतिक्रिया नापने के लिए पहले उसका मकरंद खाली करके तुरंत उपरोक्त उद्दीपनों में से एक के संपर्क में लाया गया लाया गया और नवनिर्मित मकरंद को 3 मिनट के अंदर निकालकर मापन किया गया। उद्दीपन से पहले और बाद में मकरंद में चीनी की सांद्रता भी पता की गई।

इकॉलॉजी लेटर्स के जुलाई 2019 अंक में प्रकाशित इस मज़ेदार प्रयोग में वैज्ञानिकों ने पाया कि मधुमक्खी के पंखों की फड़फड़ाहट की प्राकृतिक ध्वनि (रिकॉर्डिंग) के संपर्क में आने के बाद वसंती गुलाब के फूलों के मकरंद में शर्करा की सांद्रता में काफी अधिक (1.2 गुना) वृद्धि हो गई थी, जबकि उच्च आवृत्ति की ध्वनियों या बिना किसी ध्वनि के संपर्क में आने वाले फूलों में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं देखा गया। मधुमक्खी जैसी आवृत्ति वाली ध्वनियों का भी शर्करा की सांद्रता पर उल्लेखनीय असर रहा।

प्रयोग 900 पौधों के 650 से अधिक फूलों पर किया गया था। कीट-पतंगे, पक्षी, चमगादड़ वगैरह जीव जब हवा में उड़ते हैं तो उनके पंखों की गति हवा में ध्वनि तरंगें पैदा करती है। जब ये फूलों के आसपास मंडराते हैं तो पंखुड़ियों में कंपन होने लगता है। ऐसा होने पर फूल ज़्यादा मकरंद बनाते हैं। मात्र 3 मिनट की फड़फड़ाहट शर्करा की मात्रा लगभग डेढ़ गुना बढ़ा देती है। दरअसल, परागणकर्ता की ध्वनि का मकरंद की कुल मात्रा पर कोई असर नहीं देखा गया। शोधकर्ताओं का कहना है कि शर्करा की सांद्रता में परिवर्तन पानी की मात्रा में परिवर्तन का परिणाम है।

लरज़ते फूल

प्रयोग में यह भी देखा गया कि इन फूलों की पंखुड़ियां कीटों के पंखों से उत्पन्न ध्वनि पर कंपन भी करती हैं। लेज़र वाइब्रोमेट्री की मदद से पता चला कि कंपन का आयाम 0.01 मिलीमीटर तक रहा। पंखुड़ियों की हिलने-डुलने की आवृत्ति आम तौर पर मधुमक्खी और पतंगे के पंखों की फड़फड़ाहट से उत्पन्न ध्वनि की आवृत्तियों के करीब थी। पंखुड़ियों में कंपन का यह कार्य मैकेनोरिसेप्टर द्वारा किया जाता है जो आम तौर पर पौधों में पाए जाते हैं।

परागण से आगे

पौधों में हवा में उत्पन्न होने वाली इन ध्वनियों को महसूस करने की क्षमता इससे कहीं और आगे भी जा सकती है। संभवत: पौधे शाकाहारियों, शिकारियों और अन्य पौधों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं। इस तरह की प्रतिक्रियाओं के कई दूरगामी निहितार्थ हो सकते हैं। ध्वनि के प्रति पौधों की यह प्रतिक्रिया परागणकर्ताओं और पौधों के बीच दो-तरफा प्रतिक्रिया है जो उनके बीच समन्वय में सुधार कर सकती है, और मकरंद को व्यर्थ जाने से बचा सकती है और शायद बदलते पर्यावरण में परागण की दक्षता में सुधार कर सकती है। अंत में यह कहा जा सकता है कि वायु जनित ध्वनियों को महसूस करने की पौधों की क्षमता परागण से कहीं अधिक महत्व की है। शायद पौधे अन्य ध्वनियों (जैसे मानवजनित ध्वनियों) पर भी प्रतिक्रिया देते हों। इसके बारे में अभी और बहुत कुछ जानना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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