रक्त समूहों की उत्पत्ति की गुत्थी

वैसे तो एक व्यक्ति का खून दूसरे को देना यानी रक्ताधान (Blood Transfusion) सत्रहवीं शताब्दी के शुरू में ही किया जाने लगा था लेकिन यह मरीज़ों की बदकिस्मती थी कि सुप्रसिद्ध ‘ए, बी, ओ’ रक्त समूहों (Blood Groups) की जानकारी हमें 1901 में ही मिली थी। इससे पहले रक्ताधान का सफल होना या न होना संयोग की बात होती थी। अलबत्ता, इसके बाद किए गए तमाम अनुसंधान के बावजूद आज भी वैज्ञानिक इस गुत्थी से जूझ रहे हैं कि ये रक्त समूह होते ही क्यों हैं।

यह तो पता है कि ए, बी और ओ रक्त समूह के जो जीनोटाइप (Genotype) पाए जाते हैं, उनका असर कई बीमारियों के परिणामों पर होता है। जैसे एडिनबरा विश्वविद्यालय के एलेक्स रोवे और उनके साथियों ने दर्शाया है कि ‘ओ’ रक्त समूह (O Blood Group) के लोगों में मलेरिया (Malaria) के गंभीर लक्षण प्रकट होने की संभावना कम होती है। इसका कारण यह बताते हैं कि ‘ओ’ किस्म की लाल रक्त कोशिकाओं में संक्रमण के बाद रोज़ेट (Rosette Formation) नामक झुंड बनाने की क्षमता कम होती है। रोज़ेट बनने पर पतली रक्त नलिकाओं में रुकावट पैदा होती है।

तो शायद ऐसा लगे कि मलेरिया के संक्रमण से निपटने के चक्कर में रक्त समूह बने होंगे। लेकिन कई वैज्ञानिक बताते हैं कि मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम (Plasmodium Falciparum) ने चिम्पैंज़ियों से मनुष्यों में छलांग करीब 10,000 वर्ष पहले लगाई थी जबकि रक्त समूह तो संभवत: 2 करोड़ साल पहले से अस्तित्व में हैं।

बहरहाल, रक्त समूह और बीमारियों के प्रति दुर्बलता का सम्बंध मलेरिया से काफी आगे तक है। और तो और ए, बी तथा ओ एंटीजेन (Antigens) सिर्फ लाल रक्त कोशिकाओं की सतह पर नहीं बल्कि सफेद रक्त कोशिकाओं पर भी पाए जाते हैं और कई अंगों की सतह पर एपीथीलियल कोशिकाओं (Epithelial Cells) पर भी पाए जाते हैं। और तो और, ये रक्त समूह कई ऐसी बीमारियों के परिणामों को भी प्रभावित करते हैं जिनका सम्बंध लाल रक्त कोशिकाओं से नहीं होता। जैसे, हैजा (Cholera), टीबी (Tuberculosis), हेपेटाइटिस (Hepatitis) तथा अल्सर पैदा करने वाले हेलिकोबैक्टर पायलोरी (Helicobacter Pylori) के मामले में।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि करोड़ों वर्ष पूर्व संक्रामक बीमारियों के दबाव में रक्त समूहों का विकास हुआ था लेकिन यह पता नहीं है कि वह कौन-सी बीमारी या बीमारियां थीं जिसने विकास को इस दिशा में मोड़ा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टार्डिग्रेड में विकिरण प्रतिरोध

टार्डिग्रेड्स, जिन्हें अक्सर जलीय भालू (water bears) भी कहा जाता है, आठ पैरों वाले सूक्ष्म जीव (microscopic organisms) हैं जो अत्यंत कठिन परिस्थितियों (extreme conditions) में भी जीवित रहने के लिए जाने जाते हैं। इसमें स्वयं को अत्यधिक विकिरण (radiation) से सुरक्षित रखना भी शामिल है, जिस पर इन दिनों वैज्ञानिक गहरी समझ विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब है कि टार्डिग्रेड्स विकिरण की इतनी खुराक सहन कर सकते हैं जो इंसानों के लिए जानलेवा मात्रा से 1000 गुना ज़्यादा है।

छह वर्ष पूर्व, शोधकर्ताओं ने चीन के हेनान के फुनिउ पर्वत से मॉस के नमूने एकत्र किए थे, जिसमें टार्डिग्रेड की एक नई प्रजाति हाइप्सिबियस हेनानेंसिस (Hypsibius henanensis) मिली थी। इसके जीनोम अनुक्रमण (genome sequencing) से पता चला कि इसमें 14,701 जीन हैं, जिनमें से लगभग 30 प्रतिशत जीन मात्र टार्डिग्रेड्स में ही पाए जाते हैं।

टार्डिग्रेड्स में विकिरण झेलने की क्षमता की क्रियाविधि का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने हाइप्सिबियस हेनानेंसिस को अत्यधिक विकिरण (radiation exposure) के संपर्क में रखा। इतना विकिरण मनुष्यों के लिए घातक होता। उन्होंने पाया कि ऐसा करने पर इनमें से 2801 जीन सक्रिय हो गए। ये जीन्स डीएनए की मरम्मत, कोशिका विभाजन और प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं से सम्बंधित थे। इनमें से एक जीन (TRID1) एक ऐसे प्रोटीन (protein) का निर्माण करवाता है जो क्षतिग्रस्त डीएनए की मरम्मत करता है। यह विकिरण से क्षतिग्रस्त कोशिकाओं के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है।

इसके अलावा, शोध से पता चला कि टार्डिग्रेड में 0.5-3.1 प्रतिशत जीन पार्श्व जीन हस्तांतरण (horizontal gene transfer) के ज़रिए आए हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीन का हस्तांतरण लैंगिक माध्यम से नहीं बल्कि एक से दूसरी प्रजाति को अन्य तरीकों से होता है। ऐसा ही एक जीन है DODA1, जो संभवत: बैक्टीरिया (bacteria) से टार्डिग्रेड में आया है। यह टार्डिग्रेड को बीटालेन (betalain) नामक रंजक का उत्पादन करने में सक्षम बनाता है जो ऑक्सीकरण-रोधी (antioxidants) के रूप में कार्य करते हैं और ऐसे हानिकारक रसायनों को हटाते हैं जो कोशिकाओं में विकिरण के प्रभाव से बनते हैं।

इस अध्ययन के निष्कर्षों का महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। जब शोधकर्ताओं ने मानव कोशिकाओं को टार्डिग्रेड के एक बीटालेन से उपचारित किया तो कोशिकाएं विकिरण के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी (radiation-resistant) हो गईं। यह खोज कैंसर उपचार (cancer treatment) में उपयोग की जाने वाली विकिरण थेरेपी (radiation therapy) में सुधार की उम्मीद जगाती है, जिससे मानव कोशिकाएं विकिरण जोखिम को बेहतर ढंग से झेलने में सक्षम हो सकती हैं।

दीर्घकालिक अंतरिक्ष मिशनों (long-term space missions) के दौरान विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों के लिए एक बड़ा जोखिम होता है। टार्डिग्रेड में विकिरण प्रतिरोध की क्रियाविधि की समझ अंतरिक्ष यात्रियों (astronauts) को हानिकारक अंतरिक्ष विकिरण से बचाने में मदद कर सकती है।

टार्डिग्रेड्स न केवल विकिरण बल्कि निर्जलीकरण, ठंड और भुखमरी जैसी चरम स्थितियों में भी जीवित रहने के लिए प्रसिद्ध हैं। इन स्थितियों को वे कैसे सहन करते हैं, इसका अध्ययन करके शोधकर्ताओं को और अधिक रहस्यों को उजागर करने की उम्मीद है। मसलन, इन तंत्रों को समझने से टीकों (vaccines) जैसे नाज़ुक पदार्थों की शेल्फ लाइफ (shelf life) में सुधार हो सकता है।

संभव है कि टार्डिग्रेड्स की अन्य प्रजातियां इसी तरह के रहस्य उजागर करने का इंतज़ार कर रही हों। टार्डिग्रेड्स की विभिन्न प्रजातियों की तुलना करके वैज्ञानिकों का लक्ष्य जीवित रहने की उन असाधारण रणनीतियों को समझना है जो इन नन्हे जीवों को इतना आकर्षक और मूल्यवान बनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बीज बिखेरने वाले जंतु और पारिस्थितिकी की सेहत

1990 के दशक में जब शिकारियों ने पश्चिमी बोर्नियो के उष्णकटिबंधीय जंगलों से अधिकतर फलभक्षी पक्षियों (fruit-eating birds) का शिकार कर डाला तब वहां का आसमान तो सूना हो ही गया था, कुछ सालों के भीतर वहां का जंगल भी उजड़ गया था। बीज बिखेरने वाले पक्षियों (seed dispersing animals) के अभाव में फलदार पौधों (fruit-bearing plants) की विविधता में जो कमी आई उसने पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem health) की सेहत में बीज फैलाने वाले जीवों (seed dispersers) के महत्व को नुमाया किया था। लेकिन अब, समशीतोष्ण क्षेत्रों में भी पारिस्थितिकी तंत्र की सांसें उखड़ती नज़र आ रही हैं।

साइंस पत्रिका (Science journal) में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि कम से कम एक तिहाई युरोपीय पौधों (European plant species) की प्रजातियां शायद सिर्फ इसलिए जोखिमग्रस्त की श्रेणी में आ जाएं क्योंकि या तो उनके बीजों को फैलाने वाले ज़्यादातर जानवर (seed dispersing animals) खतरे में हैं या कम होते जा रहे हैं। बीज फैलाने वालों (seed dispersers), जिनमें पक्षियों के अलावा स्तनधारी (mammals), सरिसृप (reptiles) और चींटियां (ants) भी शामिल हैं, की संख्या में गिरावट पौधों की जलवायु परिवर्तन (climate change adaptation) से निपटने या जंगल की आग के बाद उबरने की क्षमता को खतरे में डाल सकती है, खासकर युरोप के अत्यधिक खंडित परिदृश्य में।

कोइम्ब्रा विश्वविद्यालय (Coimbra University) की सामुदायिक पारिस्थितिकी विज्ञानी सारा मेंडेस ने यह पता लगाने का बीड़ा उठाया कि कौन-से जानवर कौन-से पौधे के बीज फैलाते हैं। इसके लिए पहले तो उन्होंने 26 भाषाओं में उपलब्ध हज़ारों अध्ययनों को खंगाला और उनमें से ऐसे अध्ययनों को छांटा जिनमें बीज प्रकीर्णन (seed dispersal) जैसे शब्दों का उल्लेख था, या जो युरोप के (900 से अधिक में से किसी एक) बीजभक्षी जानवर पर केंद्रित थे।

मेंडेस को इस छंटनी में ऐसे 592 स्थानिक पौधों (endemic plants) की सूची मिली जिनके फल गूदेदार थे, या यूं कहें कि जिन पौधों में बीज फैलाने वाले जानवरों को उनके फल खाने के लिए लालच देने का अनुकूलन था। साथ ही, उन्हें इन फलों को खाने वाले 398 जानवरों (fruit-eating animals) की सूची भी मिली। इनमें से फलभक्षी जानवर (frugivorous animals) एक से अधिक प्रकार के पौधों के फल/बीज खाते हैं। तो इस तरह उनके द्वारा तैयार डैटा सेट (dataset) में हरेक पौधे और उसके बीजों को फैलाने जानवरों की 5000 से अधिक जोड़ियां बनीं।

फिर शोधकर्ताओं ने इन बीज फैलाने वालों की हालिया स्थिति का जायज़ा लिया। उन्होंने पाया कि युरोप के सभी प्रमुख जैव-भौगोलिक क्षेत्रों में पाए जाने वाले एक तिहाई से अधिक ऐसे जंतु तो अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा जोखिमग्रस्त (endangered) घोषित हैं, या उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। उदाहरण के लिए, एक आम प्रवासी पक्षी गार्डन वार्बलर (garden warbler – Sylvia borin) लगभग 60 पौधों के बीजों को फैलाता है, और इसकी संख्या पूरे युरोप में घट रही है। यही हाल रेडविंग (redwing – Turdus iliacus) का भी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जोखिमग्रस्त जानवरों की संख्या को देखते हुए संकट शब्द का उपयोग अनुचित न होगा।

अध्ययन में 60 प्रतिशत से अधिक पौधों के पांच या उससे कम बीज बिखेरने वाले जानवर पाए गए हैं। अब यदि इनमें से कोई भी महत्वपूर्ण बीज वितरक (seed disperser) विलुप्त हो जाता है तो स्थिति पौधे के लिए अति-असुरक्षित (highly vulnerable) बन सकती है। इसके अलावा सूची में लगभग 80 ऐसी ‘अति चिंतनीय’ अंतःक्रियाएं (critical interactions) भी शामिल हैं जिनमें पौधे और जानवर दोनों ही खतरे में हैं या तेज़ी से घट रहे हैं। इस सूची में युरोपियन फैन पाम (European fan palm – Chamaerops humilis) शामिल है। यह पौधा 10 जंतु प्रजातियों की बीज वितरण सेवाओं (seed dispersal services) के भरोसे फलता-फूलता है। इसके बीज वितरकों में युरोपीय खरगोश (European rabbit – Oryctolagus cuniculus) शामिल है जो IUCN द्वारा स्पेन और पुर्तगाल में ‘लुप्तप्राय’ (endangered) सूची में शामिल है।

बहरहाल, अध्ययन उजागर करें, न करें लेकिन वैश्विक स्तर पर भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। और इतना तो ज़ाहिर है कि जीव-जंतुओं का बेहतर संरक्षण (wildlife conservation) पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem restoration) को सुदृढ़ और स्वस्थ रख सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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मीठा खाने वाले चमगादड़ों को मधुमेह क्यों नहीं होती?

विपुल कीर्ति शर्मा

मिठाई कुछ लोगों की कमज़ोरी होती है। मिठाई देखते ही खुद को रोकना असंभव-सा हो जाता है। लगातार ज़्यादा चीनी वाला आहार मनुष्यों में कई समस्याओं को जन्म देता है जिनमें मोटापा (obesity) और मधुमेह (diabetes) प्रमुख हैं। अत: स्वस्थ रहने और अपनी कोशिकाओं को सीमित मात्रा में ईंधन देने के लिए शरीर में रक्त शर्करा सांद्रता (blood sugar levels) को नियंत्रित करना बहुत ज़रूरी है। रक्त में शर्करा की बहुत कम या बहुत अधिक मात्रा गंभीर स्वास्थ्य जटिलताओं का कारण बन सकती है। उच्च रक्त शर्करा (high blood sugar) मधुमेह की पक्की पहचान है।

ग्लूकोज़ कैसे मिलता है? 

ग्लूकोज़ मुख्य रूप से हमारे भोजन और पेय पदार्थों (शर्बत और फलों के रस) में मौजूद कार्बोहाइड्रेट (carbohydrates) से प्राप्त होता है। ग्लूकोज़ ही हमारे शरीर की ऊर्जा (energy source) का मुख्य स्रोत है। जब आहारनाल में भोजन का पाचन होता है, तो भोजन में मौजूद कार्बोहाइड्रेट (shugars and starch) एक अन्य प्रकार की शर्करा में टूट जाता है, जिसे ग्लूकोज़ (glucose) कहते हैं। यह ग्लूकोज़ रक्त वाहिनियों में छोड़ दिया जाता है।

रक्त का एक कार्य शरीर की सभी कोशिकाओं तक ग्लूकोज़ पहुंचाना है ताकि कोशिका ऊर्जा प्राप्त कर सकें। सामान्य भोजन के बाद बढ़ी हुई ग्लूकोज़ की मात्रा, इंसुलिन नामक हॉर्मोन (insulin hormone) द्वारा यकृत में जमा कर दी जाती है। किंतु यदि ऐसा न हो पाए तो रक्त में शर्करा का स्तर बढ़ जाता है जिसे हम डायबिटीज़ (diabetes) या मधुमेह कहते हैं। लगातार लंबे समय तक (महीनों या सालों तक) उच्च रक्त शर्करा स्तर के कारण शरीर के अंगों (जैसे नेत्र, तंत्रिकाएं, गुर्दे और रक्त वाहिकाओं) को स्थायी नुकसान हो सकता है।

यदि हमारा रक्त शर्करा स्तर सामान्य से नीचे चला जाता है तो शरीर में कंपकपी होती है और धड़कन तेज़ हो जाती है, और यदि शर्करा स्तर बहुत कम हो जाता है तो यह जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मस्तिष्क को ठीक से काम करने के लिए ग्लूकोज़ की निरंतर आपूर्ति (constant glucose supply) की आवश्यकता होती है।

हाल ही में, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा नेचर कम्यूनिकेशंस एंड इवॉल्यूशन (Nature Communications and Evolution) में प्रकाशित शोधपत्र में बताया गया है कि मीठे फल खाने वाले फलाहारी चमगादड़ों के रक्त में चीनी की सांद्रता (sugar concentration) अन्य स्तनधारी जंतुओं की तुलना में बहुत अधिक होती है। इतनी अधिक शर्करा से अन्य स्तनधारियों के मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचती है। वैज्ञानिक इस बात से हैरान थे कि उच्च रक्त शर्करा को संभालने के लिए फलाहारी चमगादड़ (fruit-eating bats) में कैसे ग्लूकोज़ सहनशीलता (glucose tolerance) विकसित हुई है। शोध के निष्कर्ष शरीर में उन अनुकूलनों की ओर इशारा करते हैं जो उनके चीनी युक्त आहार को हानिकारक बनने से रोकते हैं।

न्यू वर्ल्ड लीफ-नोज़्ड बैट 

न्यू वर्ल्ड लीफ-नोज़्ड बैट विशेष रूप से दक्षिण-पश्चिमी यूएस (Southwest US) से लेकर उत्तरी अर्जेंटीना तक पाए जाने वाले चमगादड़ हैं। तीन करोड़ साल पहले, नियोट्रॉपिकल लीफ-नोज़्ड बैट (Neotropical Leaf-Nosed Bat) के पूर्वज का आहार केवल कीट-पतंगे थे। तब से उद्विकास (evolution) के दौरान इन चमगादड़ों के आहार में बदलाव हुए और कई अलग-अलग प्रजातियां विकसित हुईं। उनमें से कुछ रक्ताहारी, मकरंदाहारी और फलाहारी जैसे विविध खाद्य स्रोतों पर जीवन यापन की विशेषज्ञता हासिल करने वाले हो गए हैं।

चमगादड़ों ने अपने आहार में विविधता कैसे अपनाई यह जानने के लिए टीम ने कई वर्षों तक मध्य अमेरिका (Central America), दक्षिण अमेरिका (South America) और कैरेबियन के जंगलों में फील्डवर्क किया। टीम ने 29 प्रजातियों के लगभग 200 जंगली चमगादड़ों को पकड़ा। टीम के सदस्य चमगादड़ों को पकड़ते और तीन प्रकार के आहार (कीट, मकरंद और फलाहार) में से कोई एक आहार चमगादड़ को एक बार देते थे, और उनके रक्त में ग्लूकोज़ के स्तर को नाप कर उन्हें छोड़ देते थे।

वैज्ञानिकों ने पाया कि चमगादड़ों के शरीर में चीनी को अंगीकार (absorb) करने के विभिन्न तरीके मौजूद होते हैं। अवशोषण, संग्रहण और उपयोग की प्रक्रिया विभिन्न आहारों के कारण विशिष्ट हो गई है।

ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस (glucose homeostasis) एक ऐसी प्रक्रिया है जो शरीर की आंतरिक और बाहरी स्थितियों में परिवर्तन के बावजूद रक्त शर्करा के स्तर को स्थिर करती है। ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस का मुख्य कारण अग्न्याशय (पैंक्रियास) के आइलेट्स ऑफ लैंगरहैंस द्वारा इंसुलिन और ग्लूकागोन हार्मोन्स का स्राव है। मधुमेह में ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस गड़बड़ा जाता है।

लीफ-नोज़्ड बैट की विभिन्न प्रजातियां ग्लूकोज़ होमियोस्टेसिस के लिए अनुकूलन के विविध तरीके दर्शाती हैं। इनमें आंतों की संरचना में परिवर्तन से लेकर रक्त से कोशिकाओं तक शर्करा पहुंचाने वाले वाहक प्रोटीन में आनुवंशिक परिवर्तन भी शामिल हैं। फलाहारी चमगादड़ों में इंसुलिन सिग्नलिंग मार्ग (insulin signaling pathway) बेहतर हुआ है। दूसरी ओर मकरंदाहारी चमगादड़ों में उच्च रक्त शर्करा के स्तर को सहन कर सकने की काबिलियत विकसित हुई है। फलाहारी चमगादड़ों ने एक अलग तंत्र विकसित किया है जो इंसुलिन पर निर्भर नहीं लगता है। यद्यपि मकरंदाहारी चमगादड़ ग्लूकोज़ का प्रबंधन कैसे करते हैं, यह अभी भी जांच का विषय है फिर भी शोधकर्ताओं ने इस बाबत कई सुराग प्राप्त किए हैं जिनसे लगता है कि उनमें ग्लूकोज़ विनियमन के लिए वैकल्पिक चयापचय तरीका होता है।

भोजन से पोषक तत्वों के अवशोषण (nutrient absorption) के लिए मकरंदाहारी चमगादड़ों की आंतों में अधिक सतह वाली कोशिकाएं पाई गईं। इसके अलावा, इनमें ग्लूकोज़ परिवहन तंत्र (glucose transport mechanism) फलाहारी चमगादड़ों से भिन्न होता है, जिसके लिए ज़िम्मेदार जीन निरंतर अभिव्यक्त होते हैं। फलाहारी चमगादड़ों के अग्न्याशय और गुर्दे की संरचना (pancreatic and renal structure) भी परिवर्तित हुई है, जो उनके आहार को समायोजित करती है। अग्न्याशय में इंसुलिन का उत्पादन करने के लिए अधिक कोशिकाएं पाई गईं, जो शरीर में रक्त शर्करा को कम करने (lower blood sugar) में मददगार होती हैं। साथ ही ग्लुकागॉन हॉर्मोन (glucagon hormone) – जो रक्त में ग्लूकोज़ के स्तर को बढ़ाता है –  का उत्पादन करने के लिए भी कोशिकाएं अधिक थीं। मकरंद पीने वाले चमगादड़ों जैसी ही विशेषताएं हमिंगबर्ड (hummingbird) पक्षी में भी देखी गई हैं, जो फूलों का मकरंद पीते हैं।

यह शोध न केवल विभिन्न आहार वाली चमगादड़ प्रजातियों की चयापचय विशेषताओं (metabolic characteristics) के बारे में एक बेहतर समझ विकसित करने में सहायक है, बल्कि आहार में अनुकूलन के कारण आंतों में संरचनात्मक परिवर्तन (intestinal adaptations), जीनोम और प्रोटीन के संरचनात्मक अंतरों को भी उजागर करता है। इस शोध में संलग्न कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि चमगादड़ के रूप में उन्हें तो एक ‘हीरो’ (model organism) मिल गया है, जो भविष्य में मधुमेह का बेहतर इलाज खोजने में मददगार साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चाय का शौकीन भारत

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चाय के पौधे लगभग तीन शताब्दी पूर्व चीन (China) और दक्षिण-पूर्वी एशिया (Southeast Asia) से भारत आए थे, और इन्हें भारत लाने वाले थे ब्रिटिश (British)। दरअसल भारत में चाय (Tea in India) उगाने के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा था कि असम (Assam Tea) में मोटी पत्तियों वाले चाय के पौधे उगते हैं। जब चाय के पौधों को भारत में लगाया गया तो ये बहुत अच्छी तरह से पनपे। (गौरतलब है कि कर्नाटक (Karnataka), केरल (Kerala) और तमिलनाडु (Tamil Nadu) के कुछ इलाकों में भी चाय उगाई जाती है, हालांकि इसकी पैदावार उतनी नहीं होती जितनी कि पूर्वोत्तर (North East India) में होती है)। हाल ही में, उत्तराखंड (Uttarakhand) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) ने भी चाय उगाना शुरू किया है। वर्तमान में भारत में चाय की कुल खपत सबसे ज़्यादा (India’s tea consumption) है (5,40,000 मीट्रिक टन है यानी प्रति व्यक्ति 620 ग्राम)। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक (Tea Exporter) देश है, और इससे देश प्रति वर्ष लगभग 80 करोड़ डॉलर कमाता है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (National Sample Survey Organization) के अनुसार, भारत में कॉफी (Coffee) की तुलना में चाय की खपत 15 गुना ज़्यादा होती है। उत्तर भारत (North India) में, शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चाय रोज़ाना का मुख्य पेय बन गई है। यहां एक कप चाय सिर्फ 8-10 रुपए में मिलती है, जो सभी की पहुंच में है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत (South India) में एक कप चाय तो 10 रुपए में ही मिलती है, जबकि कॉफी 15 से 20 रुपए में मिलती है।

रासायनिक घटक

फूड केमिस्ट्री (Food Chemistry) और फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस (Food Science and Human Wellness) नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित कई शोधपत्रों ने चाय की पत्तियों में मौजूद रासायनिक अणुओं (Chemical compounds in tea) का वर्णन किया है। वे बताते हैं कि ये पत्तियां सुगंध से भरपूर होती हैं, जो चाय को उसकी खुशबू देती हैं। फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस में 2015 में प्रकाशित एक शोधपत्र में ऐसे वाष्पशील यौगिकों (Volatile Compounds) के कुछ उदाहरण दिए गए थे। ये यौगिक गाजर, कद्दू और शकरकंद जैसे हमारे दैनिक आहार में पाए जाते हैं। हमारे आहार में गैर-वाष्पशील पदार्थ (Non-volatile substances) भी होते हैं; जैसे नमक, चीनी, कैल्शियम और फल आदि, और ये विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं।

चाय की पत्तियां विटामिन (Vitamins in tea) और सुरक्षात्मक यौगिकों से भी भरपूर होती हैं जो रक्तचाप और हृदय की सेहत (Heart Health) को बेहतर बनाने, मधुमेह (Diabetes) के जोखिम को कम करने, आंतों को चंगा रखने, तनाव और चिंता को कम करने, ध्यान और एकाग्रता में सुधार करने में मदद करती हैं। इस मामले में चाय कॉफी से बेहतर है, क्योंकि चाय में कैफीन (Low caffeine in tea) कम होता है, जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। यही कारण है कि बच्चों को ये दोनों ही पीने की सलाह नहीं दी जाती है।

2015 के शोधपत्र के लेखकों ने पाया था कि चाय की पत्तियों की सुगंध लाइकोपीन (Lycopene), ल्यूटिन (Lutein) और जैस्मोनेट जैसे वाष्पशील यौगिकों (Carotenoids) की उपस्थिति के कारण होती है। दूसरी ओर, भोजन का स्वाद चीनी (Sugar), नमक (Salt), आयरन (Iron) और कैल्शियम (Calcium) जैसे गैर-वाष्पशील यौगिकों से होता है।

घर पर पकाए और बनाए जाने वाले भोजन में ये स्वाद एक तो आयरन, नमक, कैल्शियम और चीनी के उपयोग से आते हैं, और दूसरा गाजर, शकरकंद और ताज़ी सब्ज़ियों से आते हैं। भारत में, मैसूर (Mysore) (और अन्य जगहों पर) स्थित केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (CSIR-CFTRI) भारतीय भोजन (Indian Food) में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants), पोलीफीनॉल (Polyphenols) और अन्य स्वास्थ्य-वर्धक अणुओं का अध्ययन कर रहा है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, कॉफी की तुलना में अधिक भारतीय चाय पीते हैं। तो फिर कॉफी की बजाय चाय पीने के क्या लाभ हैं? चाय में कॉफी की तुलना में कैफीन कम होता है और एंटीऑक्सीडेंट अधिक होते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि कॉफी मधुमेह के खिलाफ चाय की तुलना में बेहतर है। ऐसे में, सवाल आपकी पसंद-नापसंद का है। (स्रोत फीचर्स)

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रोहिणी गोडबोले – लीलावती की एक बेटी

अरविन्द गुप्ता

रोहिणी गोडबोले का जन्म 1952 में पुणे के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था। उनके प्रगतिशील परिवार में बौद्धिक गतिविधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। स्वयं उनकी मां ने तीन बेटियों के जन्म के बाद बी.ए. और एम.ए. किया और फिर बी.एड. करने के बाद पुणे के प्रतिष्ठित हुज़ूरपागा हाई स्कूल (Huzurpaga High School, Pune) (स्थापना 1884) में बतौर शिक्षक अपना कैरियर शुरू किया। उनके दादाजी ने मैट्रिकुलेशन से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं कराने का फैसला किया था। ज़ाहिर है, उनका परिवार लड़कियों के कैरियर को प्रोत्साहित करता था। रोहिणी की तीन बहनों में से एक डॉक्टर (Doctor) और बाकी दो विज्ञान शिक्षिका बनीं।

वैज्ञानिक (Scientist) बनना एक कैरियर विकल्प हो सकता है, यह विचार रोहिणी के दिमाग में काफी बाद में आया था। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उनकी कन्या शाला में सातवीं कक्षा तक केवल गृह-विज्ञान ही पढ़ाया जाता था। सातवीं कक्षा में राज्य प्रतिभा छात्रवृत्ति (State Talent Scholarship) के लिए तैयारी करते समय उन्होंने पहली बार भौतिकी (Physics), जीव विज्ञान (Biology), और रसायन विज्ञान (Chemistry) का अध्ययन किया, और वह भी अपने दम पर। वे यह छात्रवृत्ति पाने वाली अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं।

फिर उन्होंने विज्ञान पत्रिकाएं (Science Magazines) पढ़ना, विज्ञान निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और पाठ्यपुस्तकों के बाहर की चीज़ें सीखना शुरू कीं। एक दिन उनकी बड़ी बहन नेशनल साइंस टैलेंट स्कालरशिप (National Science Talent Scholarship) का एक पर्चा लेकर घर आई। उस छात्रवृत्ति की पहली शर्त यह थी कि विजेता को मूल विज्ञान (Basic Science) का अध्ययन करना ज़रूरी होता था। इस छात्रवृत्ति की वजह से ही वे अपनी गर्मियों की छुट्टियां (एस. पी. कॉलेज, पुणे से भौतिकी में बीएससी करते हुए) आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) और आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बिता पाई थीं।

उन्होंने बीएससी पूरी की और विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। तब उन्हें बैंक ऑफ महाराष्ट्र (Bank of Maharashtra) से नौकरी का एक प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें लगभग उतना ही वेतन मिलता जितना उस समय उनके पिता कमाते थे। वैसा ही आलम आज आई.टी. (IT Industry) क्षेत्र द्वारा दिए जाने वाले वेतन का भी है, जो युवाओं को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में जाने से रोकता है!! उन्होंने अनुसंधान की ओर पहला कदम तब उठाया जब वे आईआईटी मुंबई (IIT Bombay) से एमएससी कर रही थीं। वहां के कई प्रोफेसरों ने उन्हें किताबों से परे देखना और अपने सवालों के जवाब खुद खोजना सिखाया। जब वे एमएससी के दूसरे वर्ष में थीं, उस समय अमेरिकन युनिवर्सिटी विमेंस एसोसिएशन (American University Women’s Association) ने अमरीका में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए एक छात्रवृत्ति की घोषणा की। उस छात्रवृत्ति को पाने के लिए किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय (American University) में दाखिला लेना ज़रूरी था। उन्होंने पार्टिकल-फिज़िक्स (Particle Physics) में शोध करने के लिए स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय (Stony Brook University) में दाखिला लिया।

अपनी पीएचडी (PhD) पूरी करने के बाद वे भारत लौटीं। हालांकि उन्हें युरोप (Europe) में पोस्ट-डॉक्टरल शोध (Postdoctoral Research) के लिए नौकरी का प्रस्ताव मिला था, लेकिन विदेश में पांच साल बिताने के बाद वे घर लौटना चाहती थीं। अगर उन्होंने युरोप में आगे पढ़ाई की होती तो शायद उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग मोड़ ले लेती।

बहरहाल, उन्हें अपने निर्णय का कोई मलाल नहीं हुआ। पीएचडी के बाद उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (Tata Institute of Fundamental Research) में तीन सफल वर्ष बिताए और फिर मुंबई विश्वविद्यालय (University of Mumbai) में व्याख्याता के रूप में पढ़ाना शुरू किया। टाटा इंस्टीट्यूट में उनके सभी वरिष्ठ साथियों को लगा कि व्याख्याता का पद स्वीकार करने से उनका शोधकार्य समाप्त हो जाएगा। यह भारत में शोध संस्थानों (Research Institutes) और विश्वविद्यालयों के बीच के व्यापक अंतर को दर्शाता है।

इसका पहला अनुभव उन्हें तब हुआ जब उन्होंने विश्वविद्यालय में मकान पाने के लिए आवेदन किया। जहां टाटा इंस्टीट्यूट में शामिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें मकान मिल गया था, वहीं मुंबई विश्वविद्यालय में उन्हें तमाम बेतुके सवालों के जवाब देने पड़े; जैसे कि क्या वे शादीशुदा हैं, उनके माता-पिता कहां रहते हैं वगैरह, वगैरह।  

वे पार्टिकल फिज़िक्स में अपने पूर्व सहयोगियों और टाटा इंस्टीट्यूट के शोध छात्रों के सहयोग से अपना शोध कार्य जारी रख पाईं।

1995 में उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (Indian Institute of Science), बैंगलोर में शोधकार्य और अध्यापन शुरू किया। उन्होंने हाई एनर्जी फिज़िक्स (High Energy Physics) के क्षेत्र में काम किया और उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि भी कमाई। उन्होंने जिनेवा स्थित प्रयोगशाला सर्न (CERN, Geneva) के लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर (Large Hadron Collider) में भौतिकी के सैद्धांतिक पहलुओं पर काम किया। जब उनकी और उनके एक युवा जर्मन सहकर्मी द्वारा की गई भविष्यवाणी सच निकली तो लोगों ने उसे ‘ड्रीस-गोडबोले प्रभाव’ (Drees-Godbole Effect) नाम दिया। उसके बाद उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान (Awards and Recognition) मिले। अलबत्ता, उनका सबसे प्रिय पुरस्कार आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) का डिस्टिंग्विश्ड एलम्नस अवार्ड (Distinguished Alumnus Award) था। इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला होना उनके लिए विशेष रूप से संतोषजनक था। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री (Padma Shri) से नवाज़ा।

इस दौरान उन्होंने एक जर्मन सहकर्मी के साथ 12 वर्षों तक वैवाहिक जीवन भी जीया हालांकि दो अलग-अलग महाद्वीपों में रहते हुए। लेकिन दोनों ने तब तक बच्चे न पैदा करने का फैसला किया जब तक कि दोनों को एक जगह नौकरी नहीं मिल जाती। 

लड़कियों और युवा महिलाओं की विज्ञान (Women in Science) और अनुसंधान (Research) में रुचि और जिज्ञासा बढ़ाने में मदद करना उन्हें अपनी एक अहम ज़िम्मेदारी महसूस होती थी। इसके तहत उन्होंने 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian Women Scientists) को उनके बचपन, उनकी विज्ञान यात्रा, उनके अनुभवों और संघर्षों को लिखने के लिए आमंत्रित किया। 2008 में ये संस्मरण लीलावती’स डॉटर्स (Leelavati’s Daughters) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह एक नायाब पुस्तक (Unique Book) है। पहली बार अदृश्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों की अनूठी कहानियां लोगों को पढ़ने को मिलीं। इस पुस्तक का संपादन प्रो. रोहिणी गोडबोले और प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने मिलकर किया और इसको इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Indian Academy of Sciences), बैंगलोर ने प्रकाशित किया। इस अनूठी पुस्तक के कुछ अध्यायों के अनुवाद (Translation) भी हुए और वे हिंदी में एकलव्य (Eklavya) द्वारा प्रकाशित पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ, और मराठी के प्रतिष्ठित अखबार लोकसत्ता में प्रकाशित हुए। 

प्रो. रोहिणी गोडबोले से मिलने के मुझे कई अवसर मिले। उनके अकस्मात निधन से एक शून्य पैदा हुआ है। उनकी अनूठी पुस्तक लीलावती’स डॉटर्स का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन ने बनाया विश्व का सबसे शक्तिशाली चुंबक

चीन ने दुनिया का सबसे शक्तिशाली विद्युत चुंबक (Electromagnet) बनाकर वैज्ञानिक नवाचार में एक महत्वपूर्ण छलांग लगाई है। यह पृथ्वी की तुलना में 8 लाख गुना अधिक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic Field) उत्पन्न करने में सक्षम है। 22 सितंबर, 2024 को हेफेई में स्थिर उच्च चुंबकीय क्षेत्र केंद्र (SHMFF) में, चुंबक ने 42.02 टेस्ला का स्थिर क्षेत्र उत्पन्न किया। यह 2017 में यूएसए (USA) द्वारा स्थापित 41.4 टेस्ला के रिकॉर्ड से अधिक है।

गौरतलब है कि विद्युत चुंबक तारों की कुंडलियों में विद्युत प्रवाहित करके बनाए जाते हैं। चीन द्वारा विकसित यह शक्तिशाली चुंबक सुपरकंडक्टर (Superconductor) जैसी सामग्रियों के अध्ययन का महत्वपूर्ण उपकरण है।

शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Powerful Magnetic Field) वाले चुंबक वैज्ञानिकों को पदार्थों के अनजाने गुणों का पता लगाने में मदद करते हैं, जैसे सुपरकंडक्टर में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in Superconductors)। शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में उनका अध्ययन करने से सफलता मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, ये चुंबक ऐसे प्रयोगों की क्षमता बढ़ा सकते हैं जिनमें संवेदनशील मापों पर निर्भरता होती है। इससे वैज्ञानिकों को सूक्ष्म भौतिक परिवर्तनों का पता लगाने में मदद मिलती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रत्येक अतिरिक्त टेस्ला (Tesla Unit) अनुसंधान को अधिक सटीक बनाता है। इस लिहाज़ से यह 42-टेस्ला चुंबक महत्वपूर्ण है।

विद्युत चुंबक अत्यधिक विश्वसनीय और लंबे समय तक शक्तिशाली क्षेत्र बनाए रख सकते हैं, लेकिन ये उच्च ऊर्जा खपत (High Energy Consumption) भी करते हैं। SHMFF के चुंबक को अपने रिकॉर्ड-तोड़ प्रदर्शन के लिए 32.3 मेगावॉट बिजली लगती है। अत: ऐसे शक्तिशाली चुंबकों को चलाना काफी महंगा है, और इतनी ऊर्जा खपत को उचित ठहराने के लिए ठोस वैज्ञानिक तर्क की आवश्यकता होगी।

हालांकि बिजली की खपत को कम करने के लिए शोधकर्ता अपना ध्यान हाइब्रिड (Hybrid Magnets) और पूरी तरह से सुपरकंडक्टिंग चुंबकों (Superconducting Magnets) पर केंद्रित कर रहे हैं। ये नए डिज़ाइन विद्युत चुंबकों को सुपरकंडक्टिंग चुंबक के साथ जोड़ते हैं, जिन्हें शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए कम बिजली लगती है। 2022 में, SHMFF के हाइब्रिड चुंबक ने 45.22 टेस्ला का क्षेत्र प्राप्त किया था।

हाइब्रिड और सुपरकंडक्टिंग चुंबक की संभावनाएं तो बहुत हैं, लेकिन कई चुनौतियां भी हैं। इन्हें बनाना काफी महंगा है और काम करने के लिए जटिल कूलिंग सिस्टम (Cooling Systems) की ज़रूरत होती है। बहरहाल, अधिक मज़बूत और कुशल चुंबक बनाने की होड़ जारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमेह से निपटने के लिए स्मार्ट इंसुलिन

हाल ही में वैज्ञानिकों ने इंसुलिन का एक नया रूप विकसित किया है जिसकी सक्रियता रक्त शर्करा (Blood Sugar) के स्तर के आधार पर नियंत्रित होती है। NNC2215 नामक यह ‘स्मार्ट’ इंसुलिन (Smart Insulin), शर्करा के स्तर को प्रभावी ढंग से कम करने के अलावा खून में शर्करा बहुत कम होने से भी बचाता है।

गौरतलब है कि मधुमेह (Diabetes) से दुनिया भर में लगभग 42.2 करोड़ लोग प्रभावित हैं, जिसमें से कई लोगों को रक्त शर्करा नियंत्रित रखने के लिए इंसुलिन (Insulin Injection) लेना पड़ता है। टाइप-1 मधुमेह (Type-1 Diabetes) में, हर दिन इंसुलिन का एक इंजेक्शन लगता है, लेकिन बहुत अधिक इंसुलिन हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) का कारण बन सकता है। यानी रक्त शर्करा का स्तर सामान्य से नीचे जा सकता है, जिससे दुश्चिंता, कमज़ोरी, भ्रम जैसी समस्याएं हो सकती हैं, यहां तक कि जान का जोखिम भी रहता है।

ऐसे तरीके उपलब्ध हैं जिनमें ऐसे यौगिकों का उपयोग किया जाता है जो खून में ग्लूकोज़ (Glucose Levels) बढ़ने पर इंसुलिन छोड़ते हैं। लेकिन इसका नुकसान यह है कि एक बार इंसुलिन रक्त में पहुंचने के बाद इस पर नियंत्रण नहीं रह जाता, जिससे हाइपोग्लाइसीमिया (Low Blood Sugar) का जोखिम रहता है।

नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इंसुलिन को संशोधित किया है। डेनमार्क स्थित नोवो नॉर्डिस्क (Novo Nordisk) की रीटा स्लाबी के नेतृत्व में टीम ने ग्लूकोज़ के प्रति संवेदी इंसुलिन अणु में फेरबदल करके एक ‘स्विच’ जोड़ा है। यह स्विच रक्त शर्करा के स्तर के मुताबिक अपनी गतिविधि को चालू या बंद करता है। इस स्विच में दो भाग होते हैं: एक मैक्रोसाइकल (Macrocyle Structure) और एक ग्लूकोसाइड। जब रक्त शर्करा कम होती है, तो इंसुलिन निष्क्रिय रहता है। जैसे ही ग्लूकोज़ का स्तर बढ़ता है, इंसुलिन सक्रिय हो जाता है, और रक्त शर्करा का स्तर कम हो जाता है।

सूअरों और चूहों पर किए गए परीक्षणों में, NNC2215 ने रक्त शर्करा को कम करने में सामान्य इंसुलिन (Regular Insulin) के समान ही प्रभाव दर्शाया। महत्वपूर्ण बात यह रही कि इसने वर्तमान इंसुलिन उपचारों के साथ देखी जाने वाली रक्त शर्करा में गंभीर गिरावट की दिक्कत को भी रोका।

हालांकि, यह सफलता आशाजनक है फिर भी कुछ सवाल बने हुए हैं। जैसे यह परीक्षण मधुमेह रोगियों में आम तौर पर देखे जाने वाले रक्त शर्करा स्तर से कहीं अधिक व्यापक परास में किया गया। भविष्य के अध्ययनों को अधिक वास्तविक सीमा में इसका प्रभाव देखना होगा। इसके अतिरिक्त, इसे बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराने से पहले इसकी सुरक्षा और खर्च सम्बंधी मूल्यांकन (Cost Evaluation) किया जाना चाहिए।

फिलहाल, कई अन्य शोध टीमें ‘स्मार्ट’ इंसुलिन उपचार (Smart Insulin Therapy) विकसित कर रही हैं। इनका लक्ष्य स्मार्ट इंसुलिन दवाओं की एक शृंखला बनाना है जिसे अलग-अलग रोगियों के लिए तैयार किया जा सके और मधुमेह रोगियों को गुणवत्तापूर्ण जीवन (Quality of Life for Diabetes Patients) दिया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकृति में सोने के डले कैसे बनते हैं – माधव केलकर

सोना एक बहुमूल्य धातु है। दुनिया के सभी देश अपनी मुद्राओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निश्चित स्वर्ण भंडार बनाए रखते हैं। लेकिन धरती पर सोने की मौजूदगी बेहद कम है। दुनिया में सोने की खदानों पर एक नज़र डालेंगे तो चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, अमरीका, कनाडा, रूस जैसे देश सोने के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में सोने का उत्पादन कर्नाटक व आंध्रप्रदेश में मौजूद खदानों से होता है। कुछ प्रमुख तांबा खदानों में भी सोना मिलता है। वहीं झारखंड की स्वर्णरेखा नदी में बेहद कम मात्रा में रेत के साथ सोने के कण मिलते हैं इन्हें स्थानीय लोग रेत को धोकर-छानकर प्राप्त करते हैं। 

सोना उन धातुओं में शुमार है जो प्रकृति में मुक्त रूप में मिलता है। आम तौर पर तत्वों के अयस्क ऑक्साइड, कार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड के रूप में मिलते हैं। जैसे हीमेटाइट, मैग्नेटाइट, सिडेराइट, पायराइट, चाल्कोपायराइट आदि। लेकिन सोना, चांदी शुद्ध (Pure Metal) रूप में भी मिलते हैं। साथ ही, अन्य अयस्कों के साथ भी मिल सकते हैं। जैसे सोना तांबे के अयस्क चाल्कोपायराइट के साथ भी मिलता है हालांकि चाल्कोपायराइट में सोने की मात्रा बेहद कम होती है। सोना जिस खनिज के साथ सबसे ज़्यादा मिलता है वह है क्वार्ट्ज़ (Quartz) यानी सिलिका का ऑक्साइड। क्वार्ट्ज़ धरती की सतह से कुछ किलोमीटर नीचे तक चट्टानों के रूप में पाया जाता है। क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के कण एकत्रित होते जाते हैं। इन दरारों तक कई खनिजों के तरल गरम मिश्रण, जिन्हें हाइड्रोथर्मल तरल (Hydrothermal Fluids) कहा जाता है, के साथ सोना इन क्वार्ट्ज़ दरारों तक आता है और इन दरारों में इकट्ठा होने लगता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और सोने के बड़े-बड़े डिगले या डले बनते जाते हैं। 

क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के इस जमाव को लेकर काफी शोध एवं नए विचार सामने आए हैं। हाल में ही नेचर जियोसाइंस (Nature Geoscience) में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि धरती पर आने वाले भूकंप क्वार्ट्ज़ में आवेशों को उत्तेजित कर सकते हैं जिससे हाइड्रोथर्मल तरल में तैर रहे मुक्त सोने के कण क्वार्ट्ज़ पर एकत्रित होते जाते हैं। अभी तक इस परिकल्पना की जांच प्रयोगशाला स्तर पर करके देखी गई है। धरती के भूगर्भीय हालात में इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। 

सामान्य तौर पर सोने के बड़े डिगले या डले क्वार्ट्ज़ शिराओं या दरारों में पाए जाते हैं। भूवैज्ञानिक काफी पहले से यह जानते थे कि सोने से भरपूर हाइड्रोथर्मल तरल इन दरारों में जमा होते हैं। दरारों के बनने का सिलसिला धरती के भीतर उठने वाले भूकंप (Earthquakes) या विविध बलों की वजह से होता है। सोने के कण इस गरम तरल पदार्थ में घुले हुए नहीं होते बल्कि इसमें तैर रहे होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस गरम तरल में सोने की सांद्रता बहुत ज़्यादा होती हो। एक अनुमान है कि पांच स्वीमिंग पूल में मौजूद पानी के बराबर गरम तरल में एक किलो सोने की डली बनने लायक सोने के कण हो सकते हैं। 

सवाल यह है कि जब गरम तरल में सोने के कण इतने बिखरे-बिखरे हुए होते हैं तो ये चिपककर इतनी बड़ी डली कैसे बना लेते हैं। मोनाश विश्वविद्यालय (Monash University) के भूविज्ञानी क्रिस्टोफर वोइसी और उनके सहकर्मियों को लगा कि इसका जवाब दाब-विद्युत यानी पीज़ोइलेक्ट्रिक (Piezoelectric Effect) प्रभाव में छुपा हो सकता है। 

क्वार्ट्ज़ एक पीज़ोइलेक्ट्रिक पदार्थ (Piezoelectric Material) है, यानी जब इस पर यांत्रिक तनाव (Mechanical Stress) आरोपित किया जाता है तो इसमें विद्युत आवेश पैदा होता है। यह विद्युत तरल पदार्थ में मौजूद सोने के आयनों को ठोस सोना (Solid Gold) बनाने का कारण बन सकती है। ठोस सोना क्वार्ट्ज़ के विद्युत क्षेत्र में एक कंडक्टर के रूप में कार्य कर सकता है, जिससे घोल में मौजूद अधिक सोने के आयन एक ही स्थान पर आकर्षित होते हैं और अंततः एक साथ चिपक जाते हैं। लेकिन क्या भूकंप क्वार्ट्ज़ में पर्याप्त पीज़ोइलेक्ट्रिक वोल्टेज स्थापित कर सकता है जिससे ऐसा सब घटित हो?  इसका परीक्षण करने के लिए, टीम ने क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल को छोटे, स्वतंत्र रूप से तैरते सोने के कणों वाले घोल में डुबोया और भूकंपीय तरंगों की आवृत्ति जितनी सूक्ष्म तरंगों से क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल पर तनाव बनाया और हटाया। वोइसी और उनकी टीम ने पाया कि क्वार्ट्ज़ पर मामूली तनाव से भी क्रिस्टल की सतहों पर सोने के कण जमा हो जाते हैं। इस प्रयोग को कई बार दोहराने पर सोने के कणों का ढेर बड़ा होता जाता है। 

वोइसी कहते हैं कि यह भी संभव है कि पीज़ोइलेक्ट्रिक प्रभाव इन सोने की डलियों के बनने का केवल एक कारण हो, अन्य कारण खोजे जाने बाकी हैं। जब तक मनुष्य सोने को महत्व देते रहेंगे, तब तक सोने की डली बनने की खोज जारी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

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मशीन लर्निंग एवं कृत्रिम बुद्धि को नोबेल सम्मान

चक्रेश जैन

साल 2024 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों जॉन एच. हॉपफील्ड और जेफ्री ई. हिंटन को संयुक्त रूप से मिला है। यह पुरस्कार आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (Artificial Neural Network – ANN) के माध्यम से मशीन लर्निंग (Machine Learning) को सक्षम बनाने वाले बुनियादी सिद्धांत की नींव रखने के लिए दिया गया है। उन्होंने भौतिकी (Physics) के औज़ारों का उपयोग करके ऐसे तरीके विकसित किये हैं, जो मशीन लर्निंग की नींव साबित हुए हैं। आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क पर आधारित मशीन लर्निंग ने वर्तमान दौर में विज्ञान (Science), इंजीनियरिंग (Engineering) और रोज़मर्रा के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव किया है। नोबेल सम्मान यह भी रेखांकित करता है कि हम विचारों के ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहां आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क और मशीन लर्निंग समाज के लगभग हर क्षेत्र में हावी हो जाएंगे।

दोनों अध्ययनकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना बनाने वाले प्राकृतिक न्यूरल नेटवर्क अर्थात तंत्रिका कोशिकाओं को अत्यधिक गहराई और बारीकी से समझ कर कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क का सृजन किया है, जो स्मृतियों का संग्रह कर सकता है और वापिस पेश कर सकता है।

प्रोफेसर जॉन हॉपफील्ड ने एक ऐसी संरचना का सृजन किया है, जो जानकारियों का संग्रह और पुनर्प्राप्ति कर सकती है, जबकि जेफ्री हिंटन ने एक ऐसी विधि का आविष्कार किया है, जो स्वतंत्र रूप से डैटा में पैटर्न (Data Patterns) का पता लगा सकती है। यह अब लार्ज न्यूरल नेटवर्क के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहा है।

अधिकांश लोग जानते हैं कि कम्प्यूटर भाषाओं का अनुवाद, चित्रों की व्याख्या और तर्कपूर्ण संवाद कर सकता है। लेकिन कुछ ही लोगों को इस तरह की प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी है, जो लंबे समय से अनुसंधान कार्य के लिए अहम रही है।

विगत 15-20 वर्षों में मशीन लर्निंग का व्यापक पैमाने पर विकास हुआ है। इसमें आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क संरचना का उपयोग किया गया है। वर्तमान में जब हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (Artificial Intelligence – AI) यानी कृत्रिम बुद्धि की बात करते हैं, तो इसका अभिप्राय इसी प्रौद्योगिकी से है। हालांकि कंप्यूटर सोचने में सक्षम नहीं रहे हैं, लेकिन ये आधुनिक मशीनें अब स्मृति संजोने और सीखने जैसे कार्यों की नकल कर सकती हैं।

यहां एक बात पर गौर करने की ज़रूरत है। मशीन लर्निंग, पारम्परिक सॉफ्टवेयर से भिन्न है। 

आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क सम्पूर्ण नेटवर्क संरचना का उपयोग कर सूचनाएं प्रोसेस करता है। एक कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क में न्यूरॉन्स को अलग-अलग मान वाले बिंदुओं अथवा नोड्स के रूप में दिखाया जाता है। ये बिंदु कनेक्शन के ज़रिए एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। 

सन 1980 में हॉपफील्ड ने कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क विकसित किया और इसे ‘हॉपफील्ड नेटवर्क’ (Hopfield Network) नाम दिया गया। उन्हें इसकी प्रेरणा भौतिकी के एटामिक स्पिन (Atomic Spin) से मिली थी। यह तरीका मनुष्य के मस्तिष्क के पेटर्न की विशिष्टताओं जैसे सूचना संग्रह और पुनर्प्राप्ति की नकल करने में पूरी तरह सक्षम था। 

बाद में प्रोफेसर हिंटन ने प्रोफेसर हॉपफील्ड के अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए परिष्कृत कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क बनाया, जिसे बोल्ट्जमैन मशीन (Boltzmann Machine) कहा जाता है। इसमें कंप्यूटेशनल त्रुटियों को पकड़ने और उन्हें ठीक करने के लिए ‘हिडन लेयर्स’ (Hidden Layers) का उपयोग किया जाता है।

पुरस्कार की सूचना मिलने पर जेफ्री हिंटन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि एआई प्रौद्योगिकी (AI Technology) के वर्चस्व और विस्तार से मनुष्य के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसकी तुलना औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) से की जा सकती है। इससे रोज़गार (Jobs) के अवसरों पर विपरीत असर पड़ेगा। कुछ चीज़ें मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हो जायेंगी। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) के दुष्परिणामों पर चिंता जताते हुए बताया कि अंततः एआई मनुष्य को पीछे छोड़कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगी।

हिंटन ने एआई के कुछ अच्छे पहलुओं का ज़िक्र करते हुए बताया कि कई मायनों में यह प्रौद्योगिकी अद्भुत है। इससे हेल्थकेयर (Healthcare) के क्षेत्र में उल्लेखनीय बदलाव आयेगा। बेहतर डिजिटल सहायकों (Digital Assistants) का सृजन किया जा सकेगा। उत्पादकता (Productivity) के क्षेत्र में अत्यधिक सुधार होगा। हिंटन ने यह भी कहा है कि उन्होंने गूगल की नौकरी से इस्तीफा इसीलिए दिया, ताकि वे एआई से जुड़े विवादित मुद्दों पर लोगों के साथ खुलकर चर्चा कर सकें। 

गुज़रे साल 2023 में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित लार्ज लैंग्वेज मॉडल (Artificial Intelligence based Large Language Model – LLM) चैटजीपीटी (ChatGPT) दुनिया भर में चर्चा के केन्द्र में रहा है। दरअसल, चैटजीपीटी मॉडल कृत्रिम बुद्धि (जनरेटिव एआई – Generative AI) की देन है। चैटजीपीटी के विकास में हिंटन की अहम भूमिका रही है। चैटजीपीटी का उपयोग शोध पत्र लेखन (Research Paper Writing) से लेकर मौसम की भविष्यवाणी (Weather Prediction) तक में हो रहा है। सच तो यह है कि इसके उपयोगों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के कंप्यूटर वैज्ञानिक प्रोफेसर मिशेल वुडरिज (Professor Michael Wooldridge) ने पुरस्कार को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि एआई से विज्ञान का रूपांतरण हो रहा है। न्यूरल नेटवर्क पर शोध में मिली सफलताओं ने सूचनाओं के विश्लेषण को बेहद आसान बना दिया है। विज्ञान जगत का कोई ऐसा कोना अथवा विषय नहीं रहा है, जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अछूता बचा हो।

भौतिकी नोबेल समिति (Physics Nobel Committee) के चेयरमैन एलन मूंस (Alan Moons) का कहना है कि कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क ‘एएनएन’ का उपयोग पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics), माद्द विज्ञान (Material Science) और खगोल भौतिकी (Astrophysics) में अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। यह हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुका है, जिसके उदाहरण अनुवाद कार्य (Translation Work) और चेहरे की पहचान (Face Recognition) के रूप में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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