जगमगाते कुकुरमुत्ते

आमोद कारखानिस

केरल वन एवं वन्यजीव विभाग तथा मशरूम्स ऑफ इंडिया समुदाय से जुड़े कुछ विशेषज्ञों ने केरल के रानीपुरम जंगलों में एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट से वनस्पति विज्ञान समुदाय बहुत उत्साहित है। इस क्षेत्र में मिलने वाले कुकुरमुत्तों (मशरूम) और कवकों की विभिन्न किस्मों का ब्यौरा देती इस रिपोर्ट में कुछ खास बात है जिसने वैज्ञानिक समुदाय को इतना उत्साहित कर दिया है।

हम सभी कुकुरमुत्ता (मशरूम) के बारे में जानते हैं। मानसून (monsoon season) में हमने कई बार सूख चुके पेड़ों के तनों पर सफेद छतरी जैसे मशरूम (wild mushrooms) उगते देखे हैं। ये अलग-अलग किस्मों, अलग-अलग रंगों के होते हैं। कुछ मशरूम खाने योग्य (edible mushrooms) भी होते हैं, और इन्हें खाने के लिए उगाया भी जाता है। अलबत्ता, कई मशरूम ज़हरीले (poisonous mushrooms) भी होते हैं। बताते हैं कि नारंगी रंग वाले मशरूम ज़हरीले होते हैं। प्राय: सफेद या काले रंग के मशरूम ही देखने को मिलते हैं।

रानीपुरम के इस जंगल (rainforest) में कई तरह के मशरूम हैं। तो क्या खास है यहां के मशरूम्स में?

ज़रा एक स्थिति की कल्पना कीजिए: घने बादलों से घिरी अंधेरी-काली रात है, बारिश अभी-अभी थमी है, और ऐसे में आप जंगल की किसी पगडंडी पर चले जा रहे हैं। यदि आप कोई शहरी व्यक्ति हैं जिसे शोर-शराबे की आदत है तो जंगल (dense forest) आपको बहुत निरव लगेगा, और जंगल का यह सन्नाटा भयावह। लेकिन जंगल में घुप सन्नाटा तो नहीं है; पत्तियों से पानी टपकने की टिप-टिप, सिकाडा (Cicada insect) का (कानफोड़ू) शोर, बीच-बीच में उल्लू की आवाज़। ये सब मिलकर एक अजीब सा माहौल बनाते हैं। और अचानक थोड़ी दूरी पर एक सफेद-सी आकृति दिखाई देती है। खैर, थोड़ा करीब जाकर देखेंगे तो वह आकृति कुल्लु (स्टर्कुलिया यूरेन्स) का पेड़ निकलती है। कोई आश्चर्य नहीं कि इसे भूतिया पेड़ (Ghost tree) कहते हैं।

जंगल के और अंदर चलिए। घने बादलों के तले, छोटी-सी टॉर्च के अलावा कोई और रोशनी नहीं है, वह भी सिर्फ पैरों के आसपास ही रास्ता दिखा पा रही है। जंगल के घुप अंधेरे को महसूस करने के लिए आप अपनी टॉर्च भी बंद कर लेते हैं। जैसे ही आंखें अंधेरे की आदी होती हैं कि फिर कुछ दिखाई देता है – कुछ हल्की हरी-सी चमक। इस चमक की तरफ बढ़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जंगल के फर्श पर छोटी-छोटी टहनियां, पत्तों के डंठल, सबके सब चमकते हुए प्रतीत होते हैं। कहीं आप किसी आश्चर्यलोक में तो नहीं हैं? या किसी परी-लोक में? चारों ओर देखते हैं, तो पेड़ों की छाल की धारियां भी चमक रही हैं। मंत्रमुग्ध कर देने वाला नज़ारा है। एक चमकीला जंगल (glowing forest)!

यह कोई काल्पनिक नज़ारा या कहानी नहीं है, बल्कि यह वास्तविक अनुभव है। यदि कभी आप रात में जंगल में घूमे हों तो आपने भी शायद ऐसा अनुभव किया हो। मुझे यह अनुभव कई साल पहले महाराष्ट्र के भीमाशंकर के जंगलों में हुआ था। इस रोशनी को जैव-दीप्ति (बायोल्यूमिनेसेंस, Bioluminescence) कहा जाता है।

देखा जाए तो बायो-ल्यूमिनेसेंस (natural bioluminescence) हमारी जानी-पहचानी चीज़ है। हम सभी ने जुगनू (fireflies) देखे हैं। पश्चिमी घाट (Western Ghats) के आसपास रहने वालों के लिए यह एक सामान्य बात है। वैसे भी लगभग सभी जंगलों में जून के महीने में, मानसून की शुरुआत में सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में जुगनू दिखाई देते हैं: नर और मादा दोनों प्रकाश उत्सर्जित करते हैं और टिमटिमाते हैं, लेकिन उनकी टिमटिमाने की लय अलग-अलग होती है। लगता है कि इस तरह से वे एक-दूसरे को ढूंढते हैं, प्रजनन साथी तलाशते हैं।

यह कीटों में जैव-दीप्ति (bioluminescent insects) है। वैसे और भी जीवों में जैव-दीप्ति देखने को मिलती है। लेकिन वनस्पतियों में जैव-दीप्ति मिलना दुर्लभ (rare bioluminescent fungi) है। कुछ कवक (फफूंद) चमकती हैं। कवक (fungi) की लगभग 10,000 प्रजातियों में से केवल 60 के करीब प्रजातियों में ही जैव-दीप्ति होती है। और ऐसी अधिकांश प्रजातियां केवल समुद्र (marine bioluminescence) में पाई जाती हैं।

पश्चिमी घाट के पुराने (लगभग अनछुए) वर्षा वनों में कुछ जैव-दीप्त कवक (glowing mushrooms) पाए जाते हैं। ऊपर वर्णित भीमाशंकर के जंगल के नज़ारों में जो जैव दीप्ति देखी गई है वह आर्मिलेरिया मेलिया (Armillaria mellea) कवक थी। मशरूम दरअसल कवक ही होते हैं। भारत में मायसिन (Mycena) की कुछ ऐसी प्रजातियां पाई जाती हैं जो जैव-दीप्त होती हैं।

रानीपुरम वन सर्वेक्षण (Ranipuram forest survey) की रिपोर्ट में लगभग 50 से अधिक कवक प्रजातियों की सूची है; इनमें से दो भारत के लिए नई खोजी गई प्रजातियां हैं। लेकिन इनमें से सबसे दिलचस्प है फिलोबोलेटस मैनिपुलेरिस (Phylloboletus manipularis)। यह एक बहुत ही दुर्लभ जैव-दीप्त मशरूम (rare glowing mushroom) है। यह कवक आम तौर पर ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और प्रशांत द्वीपों में पाई जाती है। तो फिर यह रानीपुरम तक कैसे पहुंची? सवाल दिलचस्प है और आगे अध्ययन की मांग करता है।

जैव-दीप्ति सजीवों में रासायनिक अभिक्रिया (chemical reaction in bioluminescence) के कारण होती है। यह काफी जटिल प्रक्रिया है, लेकिन इस प्रक्रिया में लूसिफेरिन (Luciferin) नामक रसायन की भूमिका होती है। (वास्तव में लूसिफेरिन रसायनों के एक समूह का नाम है। जैव-दीप्ति दिखलाने वाली हर प्रजाति में यह रसायन थोड़े-बहुत फर्क के साथ हो सकता है, लेकिन उनकी सामान्य संरचना एक-सी होती है।) लूसिफरेज़ (Luciferase) नामक एक एंज़ाइम की उपस्थिति में यह रसायन ऑक्सीकृत हो जाता है और ऑक्सीकरण की इस प्रक्रिया में कुछ ऊर्जा हरे या नीले प्रकाश (green or blue light emission) के रूप में निकलती है। दिलचस्प बात है कि इस रासायनिक अभिक्रिया में कोई ऊष्मा उत्पन्न नहीं होती है और अभिक्रिया कोशिका के सामान्य तापमान पर संपन्न होती है, इसलिए इसे शीत दहन (cold combustion) भी कहा जाता है।

महाराष्ट्र में पाए जाने वाले जैव-दीप्त कवक की रिपोर्ट एक पुराने, अछूते और बहुत नम वर्षावन (tropical rainforest) की है। लगभग 25 साल पहले भीमाशंकर के जंगल में मैंने जो कवक देखी थी, वह शिव ज्योतिर्लिंग मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित घने जंगल में थी। लेकिन अब यह जंगल घना नहीं रहा। बढ़ते पर्यटन और भक्तों की बढ़ती संख्या ने वहां की जैव-विविधता को प्रभावित किया है। लेकिन लोनावला, मुलशी-ताम्हिनी जैसे पश्चिमी घाट के कई अंदरूनी इलाकों (करीब-करीब अछूते इलाकों) और गोवा के कुछ जंगलों में इस कवक की मौजूदगी की सूचना मिली है।

इसी संदर्भ में केरल में एक बहुत ही दुर्लभ जैव-दीप्त मशरूम (rare Kerala glowing mushroom) का मिलना बहुत महत्वपूर्ण है। इस प्रजाति का मिलना इस बात की ओर भी इशारा करता है कि हम अभी भी पश्चिमी घाट के जंगल के बारे में सब कुछ नहीं जानते हैं। इन जंगलों में कई और नई प्रजातियां होंगी जिन्हें खोजा जाना बाकी है। हम काटे गए जंगलों की क्षतिपूर्ति के लिए वृक्षारोपण करके वृक्षाच्छादन तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन जंगलों ने हज़ारों वर्षों में जो जैव-विविधता विकसित की है, उसे वैसा का वैसा पनपाना मुश्किल है। इसलिए हमें इनके संरक्षण का हर संभव प्रयास करना चाहिए। विकास की आड़ में विनाश कर हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इस प्रक्रिया में हम क्या खोते जा रहे हैं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबके लिए स्वास्थ्य हासिल करने ‘मिशन पॉसिबल’

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चेन्नई स्थित नोशन प्रेस द्वारा प्रकाशित स्वामी सुब्रमण्यन और अपराजितन श्रीवत्सन अपनी किताब मिशन पॉसिबल में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage – UHC) सुगम करने के लिए राह बनाने के तरीके सुझाते हैं। यह किताब सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर है। किताब 143 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत (India Population) (जहां 38% बच्चे और 11% वरिष्ठ नागरिक हैं) को ध्यान में रखते हुए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज करने की बात कहती है। सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज कोई आसान काम नहीं है, और लेखक इसे हासिल करने के तरीके सुझाते हैं।

शुक्र है कि विश्लेषण के आधुनिक तरीकों में हुई प्रगति और सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology – IT) की मदद से यह हासिल करना अब संभव लगता है। यह कहना है दी लैंसेट में प्रकाशित लेख ‘रीइमेजिनिंग इंडिया’स हेल्थ सिस्टम (Reimagining India’s Health System)’ का। इस प्रयास का नेतृत्व अकादमिक लोगों, वैज्ञानिक समुदाय (Scientific Community), सिविल सोसायटी के संगठनों और निजी स्वास्थ्य सेवा (Private Healthcare Sector) के अग्रज़ों द्वारा किया जाना चाहिए। दी पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (Public Health Foundation of India – PHFI) ने भारत में एक एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली (Integrated Healthcare System) के निर्माण का सुझाव दिया था, जिसके अंतर्गत सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा (Universal Health Insurance) का प्रावधान, स्वास्थ्य सेवा में जवाबदेह व प्रमाण-आधारित अच्छी गुणवत्ता के तौर-तरीकों को बढ़ावा देने और प्रशिक्षित मानव संसाधन (Skilled Healthcare Workforce) के विकास के लिए स्वायत्त संस्थाओं की स्थापना, स्वास्थ्य प्रशासन का पुनर्गठन करके उसे अधिक समन्वित तथा विकेंद्रीकृत बनाना और कानून बनाकर समस्त भारतीयों को स्वास्थ्य का हक देना शामिल होगा।

गुणवत्ता में सुधार (Quality Improvement in Healthcare)

इसमें शामिल है भारत में प्रोत्साहक, निवारक और उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवाओं (Preventive and Curative Healthcare Services) के प्राथमिक प्रदाता के रूप में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली (Public Healthcare System) को मज़बूत करना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली (National Healthcare System) के भीतर निजी क्षेत्र (Private Sector in Healthcare) का एकीकरण करके गुणवत्ता में सुधार और स्वास्थ्य सम्बंधी खर्च को कम करना। वास्तव में 1946 में, जब आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संचार प्रणाली नहीं थी, तब भोर समिति (Bhore Committee Report 1946) की रिपोर्ट ने भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की नींव रखी थी। इसने एक त्रि-स्तरीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली (Three-Tier Healthcare System) स्थापित करने की सिफारिश की थी, जिसमें सुरक्षात्मक और निवारक सेवाओं को एकीकृत करने और उपचार की फीस भुगतान करने की क्षमता की परवाह किए बिना चिकित्सा सेवा तक सभी की पहुंच सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया था। समिति ने चिकित्सा शिक्षा प्रणाली (Medical Education System in India) में बड़े बदलाव भी सुझाए थे।

मिशन पॉसिबल बताती है कि जिस तरह आधार कार्ड (Aadhaar Card) का इस्तेमाल व्यक्तिगत पहचान और चुनाव में मतदाता पहचान के लिए किया जाता है, ठीक उसी तरह आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी (HealthTech – Healthcare Technology) का उपयोग करने वाले स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताओं (Community Health Workers – CHWs) की टीमों द्वारा सर्वोत्तम स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जा सकती है। इन टीमों में एक स्थानीय चिकित्सक (Primary Care Doctor) होगा, जिसकी मदद के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (CHWs) का एक समूह होगा। ये सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आपात स्थिति को छोड़कर) डॉक्टर के कामों का लगभग 75% काम कर सकते हैं, और मोबाइल फोन (Mobile Health – mHealth) और रोगियों के इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड (Electronic Medical Records – EMR) जैसे साधनों का उपयोग कर सकते हैं। इस टीम में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता से लेकर किसी एक अस्पताल में विशेषज्ञ तक शामिल हैं और जैसा कि लेखक कहते हैं, ‘प्रौद्योगिकी एक ऐसी गोंद है जो इस टीम को जोड़े रख सकती है’। प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता लगभग 40,000 की आबादी की सेवा करेगा, और तृतीयक देखभाल देने वाले 75 बिस्तरों वाले ज़िला अस्पताल (District Hospital) के साथ काम करेगा। प्रत्येक राज्य में एक विश्व स्तरीय चिकित्सा सुविधा (Top Medical Institute in India) होनी चाहिए (जैसे, दिल्ली का AIIMS (All India Institute of Medical Sciences – AIIMS), हैदराबाद का NIMS (Nizam’s Institute of Medical Sciences – NIMS))। सभी एमबीबीएस (MBBS) (और एमएससी बायोटेक (MSc Biotechnology)) के विद्यार्थियों को सामुदायिक चिकित्सा में तीन महीने का प्रशिक्षण लेना चाहिए।

आगे लेखक का सुझाव है कि जिस तरह ज़िला प्रशासन में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service – IAS) की भूमिका होती है, उसी तरह एक भारतीय चिकित्सा सेवा (Indian Medical Service – IMS) का गठन किया जाना चाहिए। विशेषज्ञ चिकित्सक (Specialist Doctors) राज्य स्तर पर मदद करें। इसके अलावा, सरकारी चिकित्सा तंत्र के साथ-साथ निजी चिकित्सा केंद्रों एवं संस्थाओं को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की अनुमति दी जानी चाहिए। दरअसल, दक्षिण भारत (South India Healthcare Model) में कई नेत्र विज्ञान संस्थान (Ophthalmology Institutes in India) ऐसा कर भी रहे हैं; पिरामिडनुमा चार-स्तरीय मॉडल (Four-Tier Healthcare Model) का उपयोग करते हुए, गांव और शहर के नेत्र देखभाल कर्मचारियों को अस्पतालों के ज़रिए विश्व स्तरीय नेत्र अनुसंधान केंद्रों (Eye Research Centers) से जोड़ा गया है। रोगियों को निदान के लिए नेत्र अस्पताल तक भी नहीं जाना पड़ता है, नेत्र चिकित्सक आधुनिक प्रौद्योगिकियों (Telemedicine in India) की मदद से घर पर ही रोगी की आंखों की जांच करते हैं। इस तरह, सबके लिए स्वास्थ्य (Healthcare for All) की राह बनाई जा सकती है।(स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन रोम के लोगों ने सीसा प्रदूषण झेला है

पैक्स रोमन काल (Pax Romana period) (27 ईसा पूर्व से 180 ईसवीं तक का समय) रोम के सुनहरे युग (Golden Age of Rome) के रूप में देखा जाता है। इस दौरान रोम में अपेक्षाकृत शांति और समृद्धि थी। इसी दौर में रोमन साम्राज्य (Roman Empire) की शुरुआत हुई, कोलोसियम (Colosseum) का निर्माण हुआ, और साम्राज्य पूरे भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) और अधिकांश ब्रिटिश द्वीपों (British Isles) तक फैला।

लेकिन प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस (Proceedings of the National Academy of Sciences – PNAS) में प्रकाशित शोध बताता है कि रोमवासियों ने इस समृद्धि की कीमत भी चुकाई है: चांदी खनन (silver mining) और गलाने (smelting) के काम के चलते उस दौरान रोमवासी सीसा प्रदूषण (lead pollution) का भी शिकार हुए थे। और इसके चलते उनके शारीरिक स्वास्थ्य (physical health) के साथ-साथ संज्ञान क्षमता (cognitive ability) में भी गिरावट आई होगी।

दरअसल, रोमन साम्राज्य में चांदी के सिक्के (silver coins) बनाने के लिए गैलेना (Galena) नामक सीसा-समृद्ध खनिज (lead-rich mineral) से चांदी का निष्कर्षण (silver extraction) किया जाता था। खनन (mining) व निष्कर्षण (extraction) के दौरान सीसा ज़हरीली वाष्प (toxic fumes) के रूप में निकलता है। एक ग्राम चांदी बनाने पर लगभग 10 किलोग्राम सीसा निकलता था।

अनुसंधानों की बदौलत आज हम यह जानते हैं कि सीसा (lead) से संदूषित चीज़ों (lead-contaminated materials), जैसे पाइप (pipes), पेंट (paint), खिलौने (toys) वगैरह के संपर्क में आने से हृदय (heart problems) और संज्ञान सम्बंधी समस्याएं (cognitive issues) हो सकती हैं और सीसे का संदूषण (lead contamination) शिशुओं और छोटे बच्चों (infants and young children) के लिए ज़्यादा जोखिमभरा है। फिर, यह भी देखा गया है कि प्राचीन रोम (Ancient Rome) में सीसे का खूब उपयोग होता था – चीनी मिट्टी के बर्तन (ceramic pottery), सौंदर्य प्रसाधन (cosmetics), चमकदार पेंट (glossy paint), पानी के पाइपों (water pipes) से लेकर वाइन के मिठासवर्धक (wine sweetener) के रूप में। हालिया अध्ययन का एक तर्क यह भी है कि इतने व्यापक इस्तेमाल के चलते सीसे की विषाक्तता (lead toxicity) ने रोमन साम्राज्य के पतन (fall of the Roman Empire) को गति दी होगी।

कुछ प्रमाण यह भी मिलते हैं कि रोमन लोग सीसा (lead poisoning) के खतरों को भांप चुके थे। प्लिनी दी एल्डर (Pliny the Elder) ने रोमन सौंदर्य प्रसाधनों (Roman cosmetics) में इस्तेमाल किए जाने वाले सफेद सीसा पाउडर (white lead powder) को ज़हर कहा था। और प्राचीन रोमन लोगों के दांतों के एनेमल (dental enamel) और कंकाल (skeletal remains) सीसा विषाक्तता का शिकार होने की गवाही तो देते ही हैं।

और, जिस तरह मिट्टी, चट्टानें अपनी परतों में अतीत की बातें छिपाए होती हैं, वैसे ही आर्कटिक (Arctic) में जमा बर्फ भी इतिहास की चुगली कर सकती है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में आर्कटिक कोर बर्फ (Arctic ice cores) में पैक्स रोमन काल में सीसा प्रदूषण (lead pollution during Pax Romana) और उसके स्वास्थ्य पर प्रभाव को बयां करते संकेत खोजे।

इसके लिए डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Desert Research Institute) के शोधकर्ता जोसेफ मैककॉनेल (Joseph McConnell) ने भलीभांति अध्ययन किए जा चुके ऐसे तीन हिम कोर (ice core samples) का डैटा लिया जो रूस के निकटवर्ती आर्कटिक (Russian Arctic) और ग्रीनलैंड (Greenland) से निकाले गए थे। इसी के साथ उन्होंने मौसमी हवाओं (seasonal wind patterns) और नमी पैटर्न (moisture patterns) समेत कई जलवायु कारकों (climate factors) का ऐतिहासिक डैटा भी जुटाया। और इन सभी आंकड़ों को एक मॉडल (climate model) में डाला। मॉडल के अनुसार पैक्स रोमन काल में रोम ने अपने खनन कार्यों वगैरह के चलते हर साल 3 से 4 किलोटन सीसा वायुमंडलीय (atmospheric lead emissions) में छोड़ा और कुल मिलाकर रोम ने करीब 500 किलोटन से अधिक सीसा वायुमंडल (atmosphere) में छोड़ा।

फिर शोधकर्ताओं ने देखा कि इस स्तर के उत्सर्जन और संपर्क का मनुष्य पर किस तरह का संज्ञानात्मक प्रभाव (cognitive impact) पड़ सकता है। देखा गया कि वहां के रहवासियों के रक्त में सीसे का स्तर (blood lead levels) पैक्स रोमन काल में पहले या बाद की तुलना में बहुत अधिक था और संभवत: इस अतिरिक्त सीसा (lead exposure) के चलते पूरे साम्राज्य की संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive function) में औसतन 2.5 से 3 अंकों की कमी आई होगी। और इसका खामियाजा चांदी खदानों के आसपास के बाशिंदों (silver mining regions) को अधिक भुगतना पड़ा होगा, जैसे आधुनिक फ्रांस (France), स्पेन (Spain), यू.के. (United Kingdom – UK) और पूर्वी एड्रियाटिक (Eastern Adriatic).

कुछ संकेत इस बात के भी मिलते हैं जब 165 ईसवीं में एंटोनिन प्लेग (Antonine Plague) फैला और इसके चलते लगभग 10 प्रतिशत रोमन आबादी (Roman population) ने अपनी जान गंवाई तो चांदी खनन का काम (silver mining activities) करने वाले लोगों की संख्या में कमी आई, इसलिए रोमन सिक्कों में (Roman coinage) भी चांदी का उपयोग कम हुआ और नतीजतन खदानों से होने वाला सीसा प्रदूषण (lead pollution from mines) भी कम हुआ।

हालांकि इस पर थोड़े भिन्न मत भी हैं। अन्य वैज्ञानिकों (scientists) का कहना है कि संज्ञानात्मक क्षति (cognitive decline) के लिए पूरी तरह सीसे (lead) को ज़िम्मेदार ठहराने के पहले कई सामाजिक कारकों (social factors) जैसे युद्ध की परिस्थितियां (war conditions), भोजन की कमी (food shortages) का भी आकलन किया जाना चाहिए। बहरहाल, महामारी विज्ञानियों (epidemiologists) और इतिहासकारों (historians) के आगे के अध्ययन इस सम्बंध पर और अधिक प्रकाश डाल सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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तंबाकू के विरुद्ध आवाज उठाने वाले वैज्ञानिकों पर संकट

वैसे तो हम सभी जानते हैं कि तंबाकू[tobacco], शराब [alcohol] और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों [ultra-processed foods]  का सेवन हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन इस जागरूकता को लाने में एक भूमिका वैज्ञानिकों [scientists] की भी है। क्योंकि यूं बेबुनियाद तो किसी चीज़ को नुकसानदेह या फायदेमंद नहीं कहा जा सकता। कोई चीज़ कितनी नुकसानदेह या कितनी फायदेमंद है, इस बात का निर्णय सतत शोधकार्यों [scientific research]  के ज़रिए बारीकी से पड़ताल करने के बाद होता है।

इस पड़ताल के दौरान वैज्ञानिकों को न सिर्फ अनुसंधान सम्बंधी चुनौतियों [research challenges] का सामना करना पड़ता है बल्कि उन्हें ऑनलाइन धमकियां [online threats], मुकदमे [lawsuits], सायबर हमले [cyber attacks], और यहां तक कि जान से मारने की धमकियां [death threats] तक झेलनी पड़ती हैं। इन वैज्ञानिकों को बदनाम करने और स्वास्थ्य से जुड़े अहम नियमों [public health policies] को टालने के लिए तंबाकू उद्योग [tobacco industry] ऐसी ही रणनीतियां अपनाते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन [study] में इस समस्या पर प्रकाश डाला गया है।

हेल्थ प्रमोशन इंटरनेशनल [Health Promotion International] में प्रकाशित अध्ययन में वर्ष 2000 से 2022 के बीच 64 प्लेटफॉर्म पर दर्ज हुए उत्पीड़न [harassment] के मामलों की समीक्षा की गई: करीब आधे मामले वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं [public health activists] को अखबारों [news media], सोशल मीडिया [social media], विज्ञापनों [advertisements] और टीवी [TV] के ज़रिए बदनाम करने के संगठित प्रयास थे।

तंबाकू और अन्य उद्योग आम तौर पर शोधकर्ताओं को ‘चरमपंथी’ [extremist] या ‘पाबंदीपसंद’ [prohibitionist] साबित करने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, पोलैंड में एक तंबाकू कंपनी [tobacco company] ने इन वैज्ञानिकों को ‘लड़ाकू चरमपंथी’ कहा है। कड़े नियमों की मांग करने वाले शोधकर्ताओं को ‘निकोटीन नाज़ी’ [nicotine nazi], ‘स्वास्थ्य तानाशाह’ [health dictator] और ‘प्रतिबंधवादी’ [ban supporter] जैसे आपत्तिजनक नामों से पुकारा जाता है।

इन आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल एक बड़ी रणनीति [industry strategy] का हिस्सा है, जिसका मकसद जन स्वास्थ्य उपायों [public health measures] को बाधित करना और तंबाकू, मीठे पेय [sugary drinks] और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण वाले कानूनों [regulations] के क्रियांवयन को टालना या रोकना है।

कभी-कभी तो ये दहशतगर्दियां हिंसा [violence] तक पहुंच जाती हैं; ऐसा छ: मामलों में देखा गया है। नाइजीरिया में तंबाकू नियंत्रण [tobacco control] के पक्ष में बोलने वाले एक कार्यकर्ता और उनके बच्चों को बंदूक की नोक पर धमकाया गया। इस घटना में उनके साले और गार्ड की हत्या कर दी गई।

कोलंबिया में, डॉ. एस्पेरैंज़ा सेरॉन को मीठे पेय पर कर लगाने [sugar tax] के समर्थन में अभियान चलाने पर धमकियां मिलीं, डरावने फोन कॉल्स आए और मोटरसाइकिल सवार लोगों ने उनका पीछा किया; बाद में उन्हें जान से मारने की धमकी मिली।

इन दहशतों के बावजूद, अधिकतर शोधकर्ता [researchers] अपने काम पर डटे रहे। वैसे डराने-धमकाने के कारण बहुत थोड़े लोग पीछे भी हटे या हिचके।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ [University of Bath] में तंबाकू नियंत्रण पर शोध कर रही वैज्ञानिक डॉ. केरन इवांस-रीव्स ने बताया कि उन्हें सोशल मीडिया पर उपहास [online trolling] का सामना करना पड़ा, तंबाकू कंपनियों ने उनकी आलोचना की और उन पर कानूनी कार्रवाई की धमकी भी दी। उन्होंने इस बात को साझा किया है कि उनके काम पर लगातार निगरानी रखने से उन्हें मानसिक रूप से कितना दबाव झेलना पड़ा। अलबत्ता, उन्होंने अपना शोध जारी रखा।

यह अध्ययन [research study] उन अदृश्य दिक्कतों को उजागर करता है, जिनका सामना जन स्वास्थ्य की रक्षा के लिए काम करने वाले शोधकर्ताओं को करना पड़ता है। अध्ययन इस बात पर भी ज़ोर देता है कि वैज्ञानिकों को वैश्विक समर्थन [global support] की ज़रूरत है ताकि वे डर और हिंसा के बिना अपना काम कर सकें।

इन शोधकर्ताओं की दृढ़ता यह दर्शाती है कि जोखिमों के बावजूद वे स्वस्थ समाज [healthy society] बनाने के अपने मिशन में अडिग हैं। यह शोध हमें याद दिलाता है कि शक्तिशाली उद्योगों [powerful industries] के खिलाफ यह संघर्ष [struggle] जारी है और उन लोगों की सुरक्षा बेहद ज़रूरी है जो समाज के हित में काम कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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20 सूत्रीय जन स्वास्थ्य चार्टर (20 Point Public Health Charter)

जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा विकसित 20 सूत्रीय जन स्वास्थ्य चार्टर में विशिष्ट रूप से निम्नलिखित बीस मांगें रखी गई थीं:

 1. स्वास्थ्य की बात अल्मा अता घोषणा पत्र (1978) में प्रस्तुत समग्र अवधारणा के अनुरूप हो। इसके अनुसार सारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में एकीकृत किया जाना चाहिए। फोकस व्यक्ति-आधारित जैव-चिकित्सकीय उपायों की बजाय सामाजिक, पारिस्थितिक व सामुदायिक उपायों पर होना चाहिए।

 2. स्वास्थ्य उपकेंद्रों व पीएचसी में पर्याप्त डॉक्टर्स व सामुदायिक चिकित्सा स्टाफ होगा और इन्हें स्थानीय संस्थाओं के प्रशासनिक व वित्तीय नियंत्रण में रखा जाएगा।

 3. सरकार एक समग्र चिकित्सा सेवा कार्यक्रम के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) का 5 प्रतिशत समर्थन देगी।

 4. सरकारी चिकित्सा संस्थानों के निजीकरण (उपयोगकर्ता शुल्क जैसी व्यवस्थाओं के ज़रिए), पीएचसी को ठेके पर उठाना, सरकारी डॉक्टरों को प्रायवेट प्रैक्टिस की अनुमति देना वगैरह पर रोक लगाई जानी चाहिए।

 5. स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए ज़रूरत-आधारित मानव संसाधन योजना बने। चिकित्सा-कर्मियों व डॉक्टरों की स्नातक शिक्षा ज़िला स्तर पर हो तथा अति-विशेषज्ञता की बजाय ज़ोर बुनियादी डॉक्टर तैयार करने पर हो। निजी क्षेत्र में और मेडिकल कॉलेज खोलने पर रोक लगे। सभी चिकित्सा-कर्मियों के लिए एक वर्ष की ग्रामीण पोस्टिंग अनिवार्य हो।

 6. निजी व्यावसायिक चिकित्सा प्रतिष्ठानों की बेलगाम वृद्धि पर रोक लगे। सभी चिकित्सा प्रतिष्ठानों में एकरूप मानकों का पालन सुनिश्चित किया जाए। समय-समय पर डॉक्टरी पर्चियों के मूल्यांकन की भी व्यवस्था हो।

 7. एक तर्कसंगत दवा-नीति बने जो ज़रूरी दवाइयों के उचित मूल्य व समुचित गुणवत्ता के उत्पादन पर आधारित हो। चार्टर में ऐसी दवा नीति के विभिन्न पहलू स्पष्ट किए गए थे।

 8. चिकित्सा अनुसंधान देश में रुग्णता व मृत्यु के परिदृश्य पर आधारित हो। अनुसंधान के लिए नैतिक मापदंड विकसित किए जाएं।

 9. परिवार का आकार निर्धारित करवाने के लिए प्रोत्साहन व निरुत्साहन समेत सारे दमनपूर्ण तरीके छोड़े जाएं। इसके साथ ही, लोगों, खासकर महिलाओं, को गर्भनिरोधक उपाय उपलब्ध कराए जाएं ताकि वे सोच-समझकर फैसले कर सकें। सुरक्षित गर्भपात की सुविधाएं भी आसानी से उपलब्ध होनी चाहिए।

10. पारंपरिक, स्थानीय व घरेलू चिकित्सा प्रणालियों को समर्थन दिया जाना चाहिए और साथ ही इनके संदर्भ में पर्याप्त अनुसंधान भी होना चाहिए।

11. स्वास्थ्य सेवा के संदर्भ में एक पारदर्शी व विकेंद्रित निर्णय प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जाए और हर स्तर पर सूचना का अधिकार लागू हो। नीतिगत निर्णयों से पहले सार्वजनिक वैज्ञानिक विचार-विमर्श हो।

12. पारिस्थितिक व सामाजिक उपाय अपनाए जाएं ताकि संक्रामक रोगों के उभार को रोका जा सके।

13. गैर-संक्रामक रोगों (जैसे मधुमेह, कैंसर, हृदय रोग वगैरह) के त्वरित निदान व उपचार की सुविधाएं चिकित्सा प्रणाली के समस्त उपयुक्त स्तरों पर उपलब्ध हों।

14. महिला-केंद्रित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हों जिनमें जेंडर व स्वास्थ्य के मुद्दों, महिलाओं पर काम के तिहरे बोझ, परवरिश को लेकर परिवार और समाज में भेदभाव, तथा महिलाओं के काम के स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों व हिंसा जैसे मुद्दों पर जागरूकता निर्माण पर ध्यान दिया जाए। औपचारिक व अनौपचारिक सभी जगहों पर समस्त कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व लाभ व बच्चों की देखभाल की सुविधा हो। विशेष रूप से अकेली महिलाओं, अल्पसंख्यक महिलाओं, भिन्न यौन रुझान वाली महिलाओं और यौनकर्मी महिलाओं पर ध्यान देना होगा। लिंग-आधारित गर्भपात, बच्चियों की शिशुहत्या तथा गर्भधारण से पूर्व लिंग चयन जैसी प्रथाओं के विरुद्ध अभियान चलाए जाने चाहिए व कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

15. बाल केंद्रित पहल के तहत बच्चों के अधिकारों की समग्र संहिता का निर्माण, सारे बच्चों की देखभाल सम्बंधित सेवाओं के लिए पर्याप्त बजट प्रावधान, एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम का विस्तार, बच्चों पर अत्याचार, खासकर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के उपाय तथा बाल श्रम को समाप्त करना व साथ में सब बच्चों के लिए अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा का प्रावधान अनिवार्य है।

16. व्यावसायिक व पर्यावरणीय स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देते हुए उद्योगों व कृषि में खतरनाक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल पर रोक तथा चिकित्सा शिक्षा में व्यावसायिक रोगों को महत्व देना, कामगारों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी प्रबंधन पर डालना ज़रूरी है।

17. विभिन्न परिस्थितियों (जैसे ट्राफिक, कारखानों, कृषि-कार्यों) में दुर्घटनाओं की संभावना को न्यूनतम करने के उपाय किए जाने चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति रवैये में सामाजिक संरचना की समझ को शामिल करना होगा। मात्र जैव-चिकित्सकीय नज़रिए से आगे जाकर अधिक समग्र नज़रिया अपनाना होगा।

18. बुज़ुर्गों की सेहत की दृष्टि से उनके लिए आर्थिक सुरक्षा, उपयुक्त रोज़गार के अवसर, संवेदनशील स्वास्थ्य सेवा और ज़रूरी होने पर रहवास की व्यवस्था होनी चाहिए। 

19. शारीरिक व मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त लोगों के स्वास्थ्य को समृद्ध करने के लिए ज़रूरी होगा कि उनकी अक्षमताओं की बजाय उनकी क्षमताओं पर ध्यान केंद्रित किया जाए। उन्हें अलग-थलग करने की बजाय समुदाय में जोड़ना बेहतर होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें शिक्षा व रोज़गार के समान अवसर मिलें और पुनर्वास समेत विशेष स्वास्थ्य देखभाल मिले।

20. ऐसे उद्योगों पर अंकुश लगाना होगा जो व्यसनों और अस्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देते हैं। और व्यसन के शिकार लोगों को लत से मुक्त कराने की सुविधाएं निर्मित करनी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जन स्वास्थ्य अभियान के 25 वर्ष: उपलब्धियां और सीमाएं

डॉ. अनंत फड़के

र्ष 2000 में स्वास्थ्य सेवा (public healthcare system)  के मुद्दे पर और स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों पर काम कर रहे संगठनों ने साथ आकर एक राष्ट्रीय गठबंधन – जन स्वास्थ्य अभियान (People’s Health Movement) – का गठन किया था। इसका गठन पूरे देश में जात्राओं, सम्मेलनों के एक सिलसिले के उपरांत किया गया था। ये संगठन देश के अलग-अलग क्षेत्रों से विभिन्न सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमियों के थे। जन स्वास्थ्य समूहों को साथ लाने की वैश्विक प्रक्रिया (global health initiatives) में भी ये संगठन शरीक रहे थे।

जन स्वास्थ्य अभियान का गठन इसी दिशा में एक बड़ा कदम था। साथ मिलकर इन संगठनों ने एक 20 सूत्रीय जन स्वास्थ्य चार्टर (People’s Health Charter) भी विकसित किया। यह चार्टर हक-आधारित नज़रिए से बनाया गया था। जन स्वास्थ्य अभियान के इस चार्टर में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में आमूल सुधार (healthcare reforms)  की सारी प्रमुख मांगों को शामिल किया गया था। साथ ही, स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों से सम्बंधित मांगें भी शामिल थीं।

20-सूत्री चार्टर में वर्तमान विषमतापूर्ण वैश्विक व्यवस्था (global inequities) का विरोध करते हुए कहा गया था कि यह व्यवस्था लोगों को उनके घरों से और आजीविकाओं से बेदखल करती है। चार्टर में लोगों के स्वास्थ्य सेवा के अधिकार का दावा किया गया था जिसके अंतर्गत सबके लिए खाद्यान्न सुरक्षा (food security), टिकाऊ आजीविका (sustainable livelihood), सुनिश्चित रोज़गार के अवसर, आवास (affordable housing), स्वच्छ पेयजल (clean drinking water) और स्वच्छ शौच व्यवस्था व समुचित चिकित्सा सुविधा शामिल हैं। कुल मिलाकर, यह सबके लिए स्वास्थ्य का मांग पत्र था।

चार्टर की भूमिका में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई थी कि अल्मा अता घोषणा पत्र (1978) (Alma Ata Declaration, 1978) में जो वायदे किए गए थे उन्हें विश्व बैंक (World Bank), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (IMF), विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसी वित्तीय संस्थाओं ने तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के इशारों पर काम कर रही सरकार ने कमज़ोर किया है। इसके अंतर्गत अपनाई गई नीतियों ने लोगों के संसाधन हड़पे और उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा संस्थाओं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभों से वंचित किया। चार्टर में मांग की गई थी कि स्वास्थ्य के अधिकार को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।

इस लक्ष्य को पाने के लिए चार्टर में कुछ सामान्य सुझाव दिए गए थे। जैसे विकेंद्रित शासन प्रणाली (decentralized governance system), खेती की निर्वहनीय प्रणाली (sustainable agriculture system), जो जोते उसकी ज़मीन का सिद्धांत (land-to-the-tiller principle) लागू करना, पानी व भूमि का समतामूलक वितरण (equitable distribution of water and land), कारगर सार्वजनिक वितरण तंत्र (effective public distribution system), शिक्षा (universal education), साफ पेयजल (safe drinking water), आवास (affordable housing) और स्वच्छ शौच व्यवस्था (clean sanitation system) सबकी पहुंच में होना, गरिमामय रोज़गार (dignified employment), स्वच्छ पर्यावरण (clean environment), एक ऐसा दवा उद्योग (pharmaceutical industry) जो ज़रूरी दवाइयों का उत्पादन उचित मूल्यों (affordable medicines) पर करे, तथा एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था (healthcare system) जो जेंडर-संवेदी (gender-sensitive) हो और बाज़ार द्वारा निर्धारित परिभाषाओं के प्रति नहीं बल्कि लोगों की ज़रूरतों के अनुरूप हो। इस चार्टर का सारांश इस लेख के परिशिष्ट (appendix) के रूप में दिया गया है।

स्वास्थ्य सेवा के राजनैतिक अर्थशास्त्र (political economy of healthcare), वित्तीय पूंजी के दबाव में स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण (privatization of healthcare) व कंपनीकरण (corporatization) को ध्यान में रखते हुए जन स्वास्थ्य अभियान वर्ष 2000 से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के सुदृढ़ीकरण (strengthening of public health services) की मांग करता रहा है जो लोगों के प्रति सीधे जवाबदेह हो। साथ ही, एक समर्पित, पारदर्शी व जवाबदेह नियामक ढांचे (transparent and accountable regulatory framework) के माध्यम से निजी स्वास्थ्य सेवाओं (private healthcare services) के नियमन की भी मांग रही है। यह कुछ राज्यों में पारित किए गए, बेकार पड़े, नौकरशाही से ग्रस्त चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन व नियमन) अधिनियम (Clinical Establishments Act, CEA) से बेहतर होना चाहिए।

चूंकि उपरोक्त सभी मांगें सरकारी नीतियों में परिवर्तन (policy reforms) से जुड़ी हैं इसलिए ज़ाहिर है, ये राजनैतिक मांगें (political demands) हैं जो इनकी एक खासियत है। दूसरी बात यह है कि सबके लिए शिक्षा (education for all) के समान सबके लिए स्वास्थ्य सेवा (universal healthcare) की मांग भी समस्त आम लोगों के साझा हित (common interests of people) में है। इस दृष्टि से इनका राजनैतिक महत्व (political significance) व संभावनाएं समाज के कतिपय विशिष्ट वर्गों (जैसे किसानों या यातायात कर्मियों या खेतिहर मज़दूरों) से जुड़ी मांगों से कहीं अधिक है।

उपरोक्त जन स्वास्थ्य अभियान के काम के अत्यंत सकारात्मक पहलू (positive aspects) हैं। स्वास्थ्य सेवा तथा स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों (social determinants of health) के संदर्भ में जन स्वास्थ्य अभियान ने लोगों के प्रवक्ता (advocate for public health) की भूमिका निभाई है। जनमत को प्रभावित करने (public awareness campaigns) की दृष्टि से अभियान अपनी मांगें, आलोचनाएं और सरोकार तरह-तरह से व्यक्त करता आया है। उपरोक्त नीतिगत परिवर्तनों (policy changes) के लिए लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने (awareness building) के प्रयास भी किए गए हैं। इसके लिए मीडिया में उपलब्ध जगह (media advocacy), राजनैतिक गुंजाइश (political space) का उपयोग कतिपय नौकरशाहों व राजनेताओं को प्रभावित करने के लिए करने का प्रयास रहा है।

इतना कहने के बाद, यह कहना भी ज़रूरी है कि अभियान मूलत: एक पैरवी गठबंधन (advocacy coalition) रहा है। जन स्वास्थ्य अभियान एक जन आंदोलन (mass movement) नहीं बन पाया। वह एक शक्तिशाली जन आंदोलन (strong people’s movement) खड़ा नहीं कर पाया जिसकी सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव (policy shifts) के लिए विवश करने के लिए ज़रूरत होती है।

शुरुआत तो एक धमाके के साथ हुई थी लेकिन अभियान मूलत: एक पैरवी समूह (advocacy group) बनकर रह गया। उसके आगे जाकर, जब तक एक व्यापक जागरूकता कार्यक्रम (mass awareness program) हाथ में नहीं लिया जाता, विशाल हस्ताक्षर अधियान (large signature campaign) नहीं चलाया जाता, जन विरोध के नवाचारी कार्यक्रम (innovative protest programs) शुरू नहीं किए जाते, तब तक उपरोक्त 20 सूत्री चार्टर (20-point charter) का असर सीमित ही रहेगा। महज इतना कहकर छुटकारा नहीं मिलेगा कि ऐसा आंदोलन खड़ा करना और चलाना तो लोक-हितैषी राजनैतिक दलों (pro-people political parties) का काम है। क्योंकि सच्चाई यह है कि उन्हें तो स्वास्थ्य को लेकर ऐसे व्यापक राजनैतिक आंदोलन (broad political movement for health) की ज़रूरत को लेकर भी स्पष्टता नहीं है और न ही उनके पास ऐसा काम उठाने की सामर्थ्य है। जन स्वास्थ्य समूहों (public health groups) को ही यह पहल करनी होगी और लोगों के बीच ऐसी राजनैतिक मांगों को लेकर जागरूकता बढ़ाने (awareness creation for political demands) के प्रयास करने होंगे। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।

मूलत: जागरूकता निर्माण (awareness building) और पैरवी (advocacy) के काम से आगे जाकर एक शक्तिशाली जन आंदोलन (powerful people’s movement) निर्मित करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। मसलन, स्वास्थ्य सेवा को संविधान के मौलिक अधिकारों (fundamental rights) में शामिल करवाने के लिए। यदि यह उद्देश्य (goal) है, तो इसके लिए संगठन के अंदर किस तरह के परिवर्तन (organizational changes) करने होंगे? मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर चर्चा (discussion on this issue) ज़रूरी है। जन स्वास्थ्य अभियान की पिछले 24 वर्षों की उपलब्धियों (achievements) पर फख्र करने के साथ-साथ, उसकी सीमाओं (limitations) के प्रति भी सचेत होना चाहिए और आगे बढ़ने का निर्णय करना चाहिए। अन्यथा अभियान का असर बहुत सीमित रहेगा और सबके लिए स्वास्थ्य (health for all) और सबके लिए स्वास्थ्य सेवा (healthcare for all) का नारा एक सपना (dream) ही बना रहेगा।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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1.5 डिग्री की तापमान वृद्धि की सीमा लांघी गई

र्ष 2024 में पृथ्वी का औसत तापमान (global average temperature) पहली बार उद्योग-पूर्व स्तर (1850-1900 के औसत) के मुकाबले 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच गया। यह जलवायु (climate change) में एक बड़े बदलाव को दर्शाता है और संकेत देता है कि अस्थायी रूप से ही सही लेकिन हम पेरिस समझौते (Paris Agreement) द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर रहने में असफल रहे हैं। हालांकि यह केवल एक वर्ष की बात है, फिर भी वैज्ञानिक चिंतित हैं कि वैश्विक तापमान (global warming)  पहले से अधिक तेज़ी से बढ़ सकता है।

गौरतलब है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य (1.5°C temperature goal) 2015 में लगभग 200 देशों द्वारा तय किया गया था, ताकि जलवायु परिवर्तन (climate change effects) के प्रभावों, जैसे कि गंभीर मौसमी घटनाओं, समुद्र स्तर में वृद्धि (sea level rise) और जैव विविधता की हानि को रोका जा सके। कई अंतर्राष्ट्रीय जलवायु संगठनों द्वारा एकत्रित डैटा के अनुसार, 2024 में वैश्विक औसत तापमान उद्योग-पूर्व समय से 1.55 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह न सिर्फ एक महत्वपूर्ण सीमा का उल्लंघन है, बल्कि वृद्धि की प्रवृत्ति को भी दर्शाता है।

वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि पिछले दो वर्षों में तापमान में हुई वृद्धि एक अस्थायी उतार-चढ़ाव (temporary fluctuations) है या जलवायु प्रणाली में किसी गंभीर प्रवृत्ति का संकेत। बहरहाल, इतना तो साफ है कि दुनिया तेज़ी से खतरनाक स्थिति की ओर बढ़ रही है। 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का पार होना तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता पर ज़ोर देता है।

जलवायु विशेषज्ञों (climate experts)  का मानना है कि तापमान वृद्धि को धीमा करने के लिए तुरंत कदम उठाना ज़रूरी है। सौर और पवन ऊर्जा (solar and wind energy) जैसे नवीकरणीय स्रोतों के विकास के बावजूद जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) से होने वाला उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है जो तापमान वृद्धि का मुख्य कारण है। हालांकि नवीकरणीय ऊर्जा का प्रसार हो रहा है, लेकिन पिछले वर्ष में कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) ने एक नया रिकॉर्ड बनाया है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस (UN Secretary-General António Guterres) के अनुसार एक वर्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का पार होना चिंता का विषय है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल करना अब असंभव हो गया है। उन्होंने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर नए प्रयासों (global climate action) की मांग की है और कहा है कि विश्व नेताओं को कदम उठाने होंगे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य दरअसल एक राजनीतिक मापदंड (political benchmark) है, न कि ऐसा बिंदु जहां जलवायु परिवर्तन बेकाबू हो जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, इसके प्रभाव (climate change impacts)  अधिक गंभीर और अपरिवर्तनीय होते जाएंगे। वर्तमान में पृथ्वी का तापमान औद्योगिक युग से पहले के स्तर से 1.3 डिग्री सेल्सियस अधिक है। यह सुनने में मामूली लग सकता है, लेकिन इसके असर नज़र आने लगे हैं; जैसे प्रचंड तूफान(severe storms), जंगल की भीषण आग(wildfires) और समुद्र का बढ़ता जल स्तर (rising sea levels) वगैरह। इसके अलावा, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases)  के कारण कैद अधिकांश गर्मी महासागरों, ज़मीन और बर्फ द्वारा सोख ली जाती है। इसके प्रभाव तब भी महसूस होते हैं जब तापमान धीरे-धीरे बढ़ता है।

इसके चलते, अधिक इन्तहाई मौसम(extreme weather conditions), पारिस्थितिकी तंत्र में क्षति (ecosystem damage) और समुद्र स्तर बढ़ने से विस्थापन जैसी समस्याएं झेलना पड़ सकती हैं, विशेष रूप से निचले द्वीपों और तटीय इलाकों के रहवासियों को। कहने का मतलब है कि तापमान में हर छोटा बदलाव भी मायने रखता है।

वैज्ञानिक अपनी ओर से, निरंतर तापमान वृद्धि पर लगाम कसने के प्रयास कर रहे हैं लेकिन समय तेज़ी से निकल रहा है। फिर भी, उम्मीद अभी बाकी है। समय की मांग है कि सरकारों और जनता (governments and citizens) दोनों की ओर से कार्रवाई की जाए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

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नींद में मस्तिष्क खुद की सफाई करता है

क्या आपने कभी सोचा है कि सोते समय आपके मस्तिष्क (brain) में क्या होता है? एक हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों (scientists) ने पाया है कि नींद के दौरान मस्तिष्क में ऐसी साफ-सफाई शुरू हो जाती है जो हमारे जागते समय एकत्रित हुए रासायनिक कचरे (chemical waste) को निकाल बाहर करती है।

गौरतलब है कि शरीर के अन्य हिस्सों से अवांछित पदार्थों को बाहर निकालने के लिए लसिका वाहिकाएं (lymphatic vessels) होती हैं लेकिन ये वाहिकाएं मस्तिष्क में नहीं होती हैं। 2012 में पाया गया था कि इस काम के लिए मस्तिष्क ‘ग्लिम्फेटिक सिस्टम’ (glymphatic system) पर निर्भर होता है – यह सिस्टम रक्त वाहिकाओं के आसपास छोटे-छोटे स्थानों से सेरेब्रोस्पाइनल तरल (cerebrospinal fluid) को बहाकर हानिकारक अणुओं को साफ करती है। गहरी (गैर-REM) (deep sleep)  नींद के दौरान, जब ऊतकों में नवीनीकरण की प्रक्रिया चलती है तब यह सफाई प्रक्रिया और तेज़ हो जाती है। वैज्ञानिक एक प्रभावी ग्लिम्फेटिक प्रवाह को बेहतर दिमागी स्वास्थ्य से जोड़ कर देखते हैं। अवलोकनों से यह बात भी सामने आई है कि इस प्रक्रिया में कोई रुकावट होने पर अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s) जैसी तंत्रिका-विघटन बीमारियां हो सकती हैं।

सेल पत्रिका (Cell journal) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि नॉरएपिनेफ्रिन, जो एड्रिनेलिन जैसा एक रसायन है, इस प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाता है। यह तंत्रिका-संप्रेषक अणु (neurotransmitter molecule) रक्त वाहिकाओं को सिकुड़ने और फैलने के लिए उकसाता है, जिससे पंपिंग क्रिया (pumping action) बनती है। 

जांच के लिए वैज्ञानिकों ने चूहों में इलेक्ट्रोड्स और फाइबर ऑप्टिक उपकरण (fiber optic tools)  लगाए ताकि वे नैसर्गिक नींद (natural sleep)  के दौरान मस्तिष्क की गतिविधि, रक्त प्रवाह और रसायनों के स्तर को ट्रैक कर सकें। उन्होंने देखा कि गहरी नींद के दौरान नॉरएपिनेफ्रिन का स्तर हर 50 सेकंड में चरम पर पहुंचता है। यह चरम स्तर रक्त वाहिकाओं के संकुचन के साथ मेल खाता है, जिससे सेरेब्रोस्पाइनल तरल मस्तिष्क में गहराई तक जाता है।

जब शोधकर्ताओं ने नॉरएपिनेफ्रिन के उतार-चढ़ाव को कृत्रिम रूप से बढ़ाया तो उन्होंने पाया कि इससे सेरेब्रोस्पाइनल तरल (flow of cerebrospinal fluid)  की गति भी बढ़ गई, जिससे मस्तिष्क की सफाई प्रणाली और बेहतर हुई।

अध्ययन में एक दिलचस्प बात पता लगी कि नींद की एक आम दवा ज़ोलपिडेम (या ऐम्बियन) इस सफाई प्रक्रिया को बाधित कर सकती है। चूहों पर किए गए परीक्षणों में यह देखा गया है कि ज़ोलपिडेम रक्त वाहिकाओं के लयबद्ध आकुंचन (rhythmic contraction) को कम करती है, जिससे सेरेब्रोस्पाइनल तरल की गति में रुकावट (disruption in fluid flow) आती है। शोधकर्ताओं का मत है कि  मस्तिष्क स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों को समझने के लिए मानव परीक्षणों की आवश्यकता पर है।  

इस खोज से पता चलता है कि मस्तिष्क स्वास्थ्य (sleep health) बनाए रखने में नींद कितनी महत्वपूर्ण है और नींद की दवाएं मस्तिष्क की सफाई प्रक्रिया (brain cleaning process)  को कैसे प्रभावित करती हैं। उम्मीद है इन प्रक्रियाओं को समझकर नींद सम्बंधी विकारों के लिए बेहतर इलाज और तंत्रिका-विघटन बीमारियों (neurodegenerative diseases)  के लिए बेहतर रोकथाम रणनीतियां (prevention strategies) विकसित की जा सकेंगी। (स्रोत फीचर्स)

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रैटलस्नेक एक-दूसरे के शल्क से पानी पीते हैं

वैज्ञानिक यह तो जानते हैं कि सूखे इलाकों (arid regions) में प्यास बुझाने के लिए रैटलस्नेक (rattlesnake) अक्सर बारिश होने पर अपने शरीर की कुंडली बनाते हैं और अपने शल्कों पर इकट्ठा हुई पानी (की बूंदें) पी लेते हैं। अब, करंट ज़ुऑलॉजी (Current Zoology) में प्रकाशित एक नया अध्ययन बताता है कि न सिर्फ वे अपने शरीर पर टपके पानी से प्यास बुझाते हैं बल्कि आसपास मौजूद अपने साथियों की त्वचा से भी पानी पीते हैं।

ये नतीजे शोधकर्ताओं ने कोलेराडो (Colorado) में सौ प्रेयरी रैटलस्नेक (Crotalus viridis) के अध्ययन के आधार पर दिए हैं। इस इलाके में वसंत से लेकर पतझड़ की शुरुआत तक हर महीने में केवल 2 मिलीमीटर बारिश होती है, इसी दौरान ये सरीसृप (reptiles) सबसे अधिक सक्रिय होते हैं। अपने अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने बगीचे में पानी देने वाले स्प्रेयर की मदद से ऐसी ही बारिश की स्थिति बनाई और इस बारिश में रेटलस्नैक की प्रतिक्रिया रिकॉर्ड की। पाया गया कि प्यास के मारे लगभग आधे रैटलस्नैक ने नकली बारिश (simulated rainfall) का पानी पिया।

देखा गया कि उन्होंने तीन अनूठे तरीकों (unique methods) से पानी पिया। कुछ सांप एक जगह इकट्ठे हुए और उन्होंने एक-दूसरे के शरीर पर एकत्रित पानी पिया(water collected on each other’s bodies); इनमें कुछ सांपों ने बारी-बारी से एक-दूसरे के सिर पर जमा पानी पिया और गर्भवती मादाओं (pregnant females) के एक समूह ने एक-दूसरे के तर शरीर से पानी की बूंदें पीं। कुछ सांपों ने अपनी शरीर की टेढ़े कटोरे (bowl-like coil) जैसी कुंडली बनाई, इस कुंडली का झुकाव उनके सिर की ओर था जिससे उनके कुंडलित शरीर में जमा पानी बहकर उनके मुंह तक आ रहा था। कुछ सांपों ने अपने मुंह तक बहकर आता पानी पीया, हालांकि यह स्पष्ट नहीं था कि उन्होंने कितनी बूंदें गुटकीं। शोधकर्ताओं ने देखा कि सांपों ने पानी पीने के लिए जिस तरीके का सर्वाधिक इस्तेमाल किया था वह था अपने आसपास के साथियों के शरीर से पानी पीना। आगे के अध्ययनों (future studies) में शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या ये तरीके वास्तव में एक-दूसरे की मदद (mutual aid) के तरीके हैं, खासकर गर्भवती मादाओं की मदद के लिए। (स्रोत फीचर्स)

रैटल स्नैक का वीडियों यहां देखें – https://www.science.org/content/article/watch-thirsty-rattlesnakes-drink-scales-other-snakes?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5471795

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कार्बन-कार्बन एकल इलेक्ट्रॉन बंध देखा गया

अंजु दास मानिकपुरी

मारे आसपास की चीज़ें परमाणुओं से बनी होती हैं, लेकिन ये परमाणु अलग-अलग नहीं तैरते रहते हैं। वे आम तौर पर दूसरे परमाणुओं (Atoms) (या परमाणुओं के समूहों) के साथ जुड़ जाया करते हैं। उदाहरण के लिए, परमाणु मज़बूत बंधनों से जुड़े हो सकते हैं और अणुओं (Molecules) या क्रिस्टल (Crystals) में व्यवस्थित हो सकते हैं या वे दूसरे परमाणुओं के साथ, जिनसे वे टकराते हैं, अस्थायी, कमज़ोर बंधन बना सकते हैं । अणुओं को एक साथ रखने वाले मज़बूत बंधन और अस्थायी कनेक्शन (Temporary Connections) बनाने वाले कमज़ोर बंधन दोनों ही हमारे जीवन के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं।

आखिर रासायनिक बंधन (Chemical Bonding)  क्यों बनते हैं? दरअसल परमाणु सबसे स्थिर (सबसे कम ऊर्जा) अवस्था तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। कई परमाणु इसलिए स्थिर होते हैं क्योंकि उनके इलेक्ट्रॉन विन्यास (Electron Configuration) में सबसे बाहरी खोल इलेक्ट्रॉनों से परिपूर्ण होते हैं (अधिकांश परमाणुओं के संदर्भ में यह स्थिति वह होती है जब सबसे बाहरी खोल में 8 इलेक्ट्रॉन हों, या कुछ मामलों में 2 इलेक्ट्रॉन से भी काम चल जाता है।) यदि परमाणुओं में यह व्यवस्था नहीं है, तो उनमें अन्य परमाणुओं से बंध बनाकर यह स्थिति प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है। ऐसा अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन (Electrons) प्राप्त करके, गंवाकर या साझा करके किया जाता है। परमाणुओं के बीच बंध मूलत: उनके बीच उपस्थित इलेक्ट्रॉन के प्रति नाभिकों के आकर्षण का परिणाम होते हैं। इस लिहाज़ से बंध तीन प्रकार के हो सकते हैं।

आयनिक बंधन (Ionic Bonding) में परमाणु इलेक्ट्रान को पूरी तरह से प्राप्त करके या गंवाकर आयन बनता है। जब इलेक्ट्रॉन प्राप्त किया जाता है तो ऋणायन (Anion)  बनता है और इलेक्ट्रॉन गंवाने के परिणामस्वरूप धनायन (Cation)  बनता है। आयनिक बंधन इन्हीं विपरीत आवेशों वाले आयनों के बीच आकर्षण होता है। उदाहरण के लिए, धन-आवेशित सोडियम आयन और ऋण-आवेशित क्लोराइड आयन एक दूसरे को आकर्षित करके सोडियम क्लोराइड (Sodium Chloride)  या टेबल सॉल्ट (Table Salt) बनाते हैं।

सहसंयोजी बंध (Covalent Bonding) में परमाणु इलेक्ट्रॉनों को पूरी तरह से प्राप्त करने या खोने की बजाय साझा करते हैं। इसलिए अणुओं में सहसंयोजी बंधों की संख्या इस बात पर निर्भर करेगी कि किन्हीं दो परमाणुओं के बीच कितने इलेक्ट्रॉन साझा किए जा रहे हैं। यदि वे तीन-तीन इलेक्ट्रॉन साझा करते हैं तो वह तिहरा (ट्रिपल) बंध बनेगा, जैसे कि नाइट्रोजन के अणु (Nitrogen Molecule) में होता है। यदि दो इलेक्ट्रॉन साझा हो रहे हों तो दोहरा (डबल) बंध बनेगा, उदाहरण के तौर पर ऑक्सीजन का अणु देखा जा सकता है। इसी तरह से 1-1 इलेक्ट्रॉन साझा हो रहे हों तो यह एकल (सिंगल) बंध बनाएगा। जैसे हाइड्रोजन में। ऐसे बंध अलग-अलग किस्म के परमाणुओं के बीच भी बन सकते हैं। जैसे नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के बीच या हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के बीच। वैसे नोबेल विजेता रसायनज्ञ लायनस पौलिंग (Linus Pauling) ने 1931 में सुझाया था कि सहबंध मात्र 1 इलेक्ट्रॉन की साझेदारी से भी बन सकते हैं। तब से कई ऐसे 1 इलेक्ट्रॉन की साझेदारी वाले सह-बंध देखे जा चुके हैं।

इन दो के अलावा एक तीसरे किस्म का बंध भी बनता है – उप-सहसंयोजी बंध। लेकिन यहां हम सहसंयोजी बंधों पर ध्यान देंगे।

रसायनज्ञ जानते हैं कि परमाणु विभिन्न तरीकों से आपस में जुड़ा करते हैं और जुड़ाव की प्रकृति का रसायन समझने के लिए रसायनज्ञ सतत अध्ययन करते रहते हैं। इसके लिए रसायनज्ञ नए अणुओं का संश्लेषण भी करते हैं और प्रकृति में मौजूद अणुओं के क्रिस्टल को भी अपने अध्ययन में शामिल करते हैं। हर तरह की परिस्थिति में इन अणुओं की बनावट और इनमें परमाणुओं की जमावट का लगातार अध्ययन करते हुए यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर रासायनिक बंध क्या है (यानी कौन-सी शक्ति परमाणुओं को आपस में बांधती है) और इसकी प्रकृति क्या है?

इस सतत अध्ययन का नतीजा एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध है। आम तौर पर सहबंध के मामले में यह मान्यता रही है कि बंध में शामिल दोनों परमाणु कम से कम एक-एक इलेक्ट्रॉन साझा करेंगे। यानी कुल कम से कम दो इलेक्ट्रॉन साझा होंगे। लेकिन फिर 1998 में, सीएनआरएस के वाय. कैनेक की टीम ने दो फॉस्फोरस परमाणुओं के बीच एक एकल-इलेक्ट्रॉन बंध देखा। यह बंध एक बेंज़ीन अणु में दो फॉस्फोरस परमाणुओं के बीच देखा गया था। इस बंध में दोनों परमाणुओं के बीच एक ही इलेक्ट्रॉन साझा हुआ था। अलबत्ता, यह बंध दुर्बल स्वभाव का था। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के शोधकर्ता मार्क एटिएन मोरेट के शोध समूह ने 2013 में तांबे और बोरॉन के बीच ऐसा ही एकल इलेक्ट्रॉन बंध पाया था।

लेकिन अब तक दो कार्बन परमाणुओं के बीच ऐसा एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध नहीं देखा गया था। रसायनज्ञों ने इन सभी अणुओं का अध्ययन करते हुए पाया कि ये असामान्य बंध परमाणुओं के बीच थोड़े समय के लिए ही बन सकते हैं जो रासायानिक अभिक्रियाओं के दौरान मध्यवर्ती संरचनाओं में बनते हैं। ये बंध अस्थिर होने के कारण आसानी से टूट जाएंगे इसलिए इन अस्थिर बंधों को देखने के लिए, ऐसे बंध वाले यौगिक को स्थिर करना होगा। हाल तक कार्बन परमाणुओं के बीच ऐसे एकल इलेक्ट्रॉन बंध नहीं देखे जा सके थे।

कार्बन के विशिष्ट गुणों के चलते कार्बन रसायन विज्ञान की अपनी शाखा है जिसे कार्बनिक रसायन कहा जाता है और कार्बन के यौगिक जीवन के आधार भी हैं। कार्बन गुणों में विशेष है। कार्बन में यह क्षमता है कि वह केवल अपने ही परमाणुओं की लंबी-लंबी शृंखलाएं बना सकता है। कार्बन के एक दर्जन या उससे ज़्यादा एलोट्रोप (अपररूप) होते हैं जिनमें कार्बन परमाणुओं की जमावट के कारण एकदम अलग-अलग गुण पाए जाते हैं। इनमें ग्रेफाइट, ग्रेफीन, हीरा, एस्बेस्टॉस और बकीबॉल शामिल हैं।

और अब, कार्बन की उपलब्धियों में एक और उपलब्धि जुड़ गई है – एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध बनाने की क्षमता। जापान के होक्काइडो विश्वविद्यालय के चार वैज्ञानिकों की शोध टीम हेक्साफिनाइलएथेन के एक व्युत्पन्न के बारे में अध्ययन कर रही है। वे इस बाबत शोध कर रहे थे कि जब हेक्साफिनाइलएथेन का ऑक्सीकरण आयोडीन की उपस्थिति में किया जाता है तो क्या होता है। 25 सितंबर 2024 के दिन इस टीम को ऐसा अवलोकन करने को मिला जो वास्तव में 93 साल पहले नोबेल पुरस्कार विजेता लायनस पॉलिंग द्वारा सुझाया गया था। इस तरह वैज्ञानिकों ने दो कार्बन परमाणुओं के बीच एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध के एक सदी पुराने सपने को साकार किया है।

इस शोध टीम को हेक्साफिनाइलएथेन के एक व्युत्पन्न यौगिक में कार्बन परमाणुओं के बीच एक स्थिर एकल-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध मिला। एकल बंध के बारे में बेहतर तरीके से जानने के लिए जरूरी था कि एक ऐसा यौगिक बनाया जाए जो एकल बंध को स्थिर कर सके। इसे प्राप्त करने के लिए, शोध टीम द्वारा हेक्साफिनाइलएथेन के ऐसे व्युत्पन्न अणु का चुनाव किया गया जिसमें दो कार्बन परमाणुओं के बीच एक बहुत लम्बा युग्मित-इलेक्ट्रॉन वाला सहसंयोजी बंध था। उन्होंने आयोडीन का उपयोग करके हेक्साफिनाइलएथेन के व्युत्पन्न को ऑक्सीकृत किया जिससे एक बैंगनी रंग का क्रिस्टल मिला। एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी की मदद से जांच करने पर उन्होंने देखा कि दो कार्बन परमाणु एक एकल-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध के कारण काफी करीब आ गए थे। रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी ने एकल इलेक्ट्रॉन कार्बन-कार्बन बंध की उपस्थिति की पुष्टि की। दरअसल क्रिस्टल के अणु का केंद्रीय कार्बन-कार्बन बंध खिंच जाने से यह एक इलेक्ट्रॉन खोने के लिए अतिसंवेदनशील हो जाता है और इस तरह एकल-इलेक्ट्रॉन बंध बनता है।

टोक्यो विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ ताकुया शिमाजिरी, जो कार्बन बॉन्डिंग शोध टीम का हिस्सा थे, कहते हैं, “सहसंयोजी  बंध रसायन विज्ञान में सबसे महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक है, और नए प्रकार के रासायनिक बंधनों की खोज आशाजनक है।”

1931 में, रसायनज्ञ लायनस पॉलिंग ने जर्नल ऑफ दी अमेरिकन केमिकल सोसाइटी (Journal of the American Chemical Society)  में कार्बन परमाणुओं की एक जोड़ी के बीच एकल इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी (single-electron covalent bond) की संभावना के बारे में लिखा था। पॉलिंग का सुझाव था कि एकल-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंध मौजूद हो सकते हैं, लेकिन वे सामान्य दो-इलेक्ट्रॉन सहसंयोजी बंधनों (two-electron covalent bonds) की तुलना में कमज़ोर होंगे।

मुझे उपरोक्त पर्चा खोजकर 1931 में लायनस पॉलिंग द्वारा दिए गए सुझाव को फिर से पढ़ने का मन कर रहा है। आखिर ऐसे कौन से अवलोकन थे जिसके कारण पॉलिंग के मन में यह विचार आया। मैं इस कोशिश में आगे बढ़ रही हूं। अगर आपको इस विषयवस्तु से सम्बंधित कुछ पाठ्य सामग्री मिले तो मुझे ज़रूर भेजिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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