जीन संपादन कैंची का उपयोग

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब आप कोई दस्तावेज़, पत्र या लेख संपादित करते हैं तो आप उसके अर्थ को अधिक स्पष्ट बनाने के लिए शब्दों और वाक्यों में कुछ बदलाव करते हैं। जीन संपादन (Gene Editing) में, विशिष्ट एंज़ाइम (enzymes) की मदद से डीएनए (DNA) को एक निश्चित स्थान से काट कर डीएनए का अनुक्रम बदला जाता है, इससे किसी जीन (gene) में कोई आनुवंशिक जानकारी  हटाने, जोड़ने या बदलने में मदद मिलती है। यह प्रक्रिया किसी वाक्य में गलत हिज्जे (spelling) ठीक करने या किसी शब्द को अधिक उपयुक्त शब्द से बदलने के समान है। जीवों में, ऐसे संशोधन सीधे डीएनए में अंकित आनुवंशिक निर्देशों (genetic instructions) को बदल देते हैं।

पूर्व में, जब हमें किसी वांछित कार्य के लिए डीएनए में अंकित संदेश को बदलना होता था तो हमें दो एंज़ाइमों की ज़रूरत पड़ती थी – एक डीएनए को एक विशिष्ट (या वांछित) स्थान से काटकर हटाने के लिए, और दूसरा वांछित आनुवंशिक परिवर्तन (genetic modification) जोड़ने के लिए। हालांकि यह द्वि-एंज़ाइम आधारित तरीका कारगर था, लेकिन इसमें मेहनत बहुत लगती थी।

एक खोज (Discovery of CRISPR-Cas9)

फिर, अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) की डॉ. जेनिफर डाउडना (Dr. Jennifer Doudna) और जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय (Humboldt University) की इमैनुएल शॉपान्टिए (Emmanuelle Charpentier)  ने ये दोनों काम (काटना और जोड़ना) करने वाली जीन संपादन विधि, CRISRP-Cas9, विकसित की। यह एक ऐसी विधि है जो मनुष्यों, रोगाणुओं और पौधों के जीनोम को संपादित कर सकती है। CRISPR का फुल फॉर्म है क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पर्स्ड शॉर्ट पैलिंड्रोमिक रिपीट्स (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats) और Cas9 से तात्पर्य है क्रिस्पर-एसोसिएटेड प्रोटीन-9 जो विशिष्ट स्थान पर डीएनए को काटता है जिससे वहां एक रिक्त स्थान बन जाता है, जिसे नए डीएनए खंड से भरा जा सकता है। डाउडना और शॉपान्टिए द्वारा 2012 में की गई इस खोज के लिए उन्हें 2020 में साझा रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

वैसे, साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (Southern California University) के प्रो. फेंग झेंग ने भी एक पेपर में CRISPR-Cas9 प्रणाली की मदद से जीनोम इंजीनियरिंग (genome engineering) के बारे में बताया था लेकिन नोबेल समिति ने उन्हें नोबेल के तीसरे साझेदार वैज्ञानिक के रूप में शामिल नहीं किया। इसके बाद उन्होंने साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय छोड़ दिया, इस कार्य का पेटेंट हासिल किया और बोस्टन चले गए। इसका पेटेंट अब ब्रॉड इंस्टीट्यूट (एमआईटी और हारवर्ड विश्वविद्यालय का संयुक्त उपक्रम) (Broad Institute – MIT and Harvard)  के स्वामित्व में है। यह संस्थान विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए CRISPR-Cas9 विधि का उपयोग करता है; जैसे कैंसर के लिए माउस मॉडल का विकास, कैंसर की दवाओं को निष्प्रभावी बनाने वाले जीन्स की पहचान, प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells)  में संशोधन। यही ब्रॉड इंस्टीट्यूट अन्य वैज्ञानिकों को इस तकनीक का प्रशिक्षण भी प्रदान करता है।

पौधों में जीन संपादन (Gene Editing in Plants)

CRISPR-Cas9 पेटेंट तकनीक का उपयोग कृषि वैज्ञानिक और वनस्पति शोधकर्ता भी पौधों में जीनोम इंजीनियरिंग के लिए करते हैं। जर्मनी के कार्लस्रुहे बॉटेनिकल इंस्टीट्यूट (Karlsruhe Botanical Institute) के डॉ. होल्गर पुख्ता (Dr. Holger Puchta) के समूह ने कई ऐसे शोधपत्र प्रकाशित किए हैं, जो मुख्यत: बताते हैं कि पौधों के जीनोम को लक्षित करने के लिए Cas9, Cas12 और Cas13 का उपयोग कैसे किया जाए। हाल ही में, CRISPR-Cas9 की मदद से दो जीन्स को ‘निष्क्रिय’ कर, वज़न में कमी लाए बगैर टमाटर में मिठास बढ़ाई गई है। अवश्य ही अन्य पौधों और फलों पर भी इसी प्रकार के अध्ययन हो रहे होंगे।

बहरहाल, डॉ. अनुराग चौरसिया ने हाल ही में एक रिपोर्ट (‘How CRISPR patent issues block Indian farmers from accessing biotech benefits – क्रिस्पर पेटेंट की समस्या कैसे भारतीय किसानों को बायोटेक लाभ लेने से रोक रही है)’ में बताया है कि IPO ने डबलिन के ईआरएस जीनोमिक्स (ERS Genomics)  को एक लोकल पेटेंट दिया है। लोकल पेटेंट भारतीय शोधकर्ताओं को CRISPR-Cas9 का उपयोग करने की अनुमति तो देता है लेकिन केवल अकादमिक या शोध सम्बंधी उद्देश्यों के लिए, इसके द्वारा हासिल किसी भी वैज्ञानिक उपलब्धि का व्यावसायीकरण नहीं किया जा सकता। तो, हमारे किसान (farmers) अभी भी ‘पुराने ज़माने’ के हिसाब से ही चल रहे हैं।

दृष्टिबाधितों में (Gene Editing for Vision Impairments)

नेत्र विकारों (vision disorders) से पीड़ित लोगों के लिए हैदराबाद स्थित एलवी प्रसाद नेत्र संस्थान (L.V. Prasad Eye Institute) के वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (IGIB) के एक समूह के साथ मिलकर जीन संपादन की एक विधि की मदद से रोगी-विशिष्ट स्टेम कोशिकाओं (patient-specific stem cells) में वंशानुगत उत्परिवर्तन को ठीक किया है। उनके ये परिणाम नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल (Nature Communications Journal)  के जून, 2024 के अंक में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन में उत्परिवर्तन-संशोधित इन स्टेम कोशिकाओं से रेटिना कोशिकाएं बनाने में सफलता मिली है, जिनमें लुप्त प्रोटीन की पुनः अभिव्यक्ति देखी गई है। इन परिणामों से कुछ वंशानुगत नेत्र विकारों के लिए स्व-कोशिका चिकित्सा विकसित करने की संभावना खुल गई है। शरीर के अन्य तरह के ऊतकों और कोशिकाओं को प्रभावित करने वाली अन्य बीमारियों के समाधान के लिए भी इसी तरह के तरीके अपनाए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घटते बादलों से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा

पिछले दो दशकों में पृथ्वी के सौर ऊर्जा संतुलन (Earth’s solar energy balance)  में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखी गई है: ग्रह पर जितनी ऊर्जा आ रही है, उससे कम बाहर जा रही है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (greenhouse gas emissions) इसका एक प्रमुख कारण है लेकिन वैज्ञानिक इस असंतुलन को पूरी तरह समझने के लिए काफी समय से प्रयास करते आए हैं। बर्फ के पिघलने की वजह से उनके नीचे की गर्मी सोखने वाली सतहों (heat-absorbing surfaces)  के बढ़ने और वायुमंडलीय प्रदूषण (atmospheric pollution) के घटने ने भी इसमें योगदान दिया है।

हाल ही में इसमें एक संभावित कड़ी सामने आई है: घटते बादल (declining clouds)। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज़ (NASA Goddard Institute for Space Studies) के जॉर्ज सेलियोडिस के नेतृत्व में हुए शोध में पाया गया है कि पिछले 20 वर्षों में परावर्तक बादलों (reflective clouds) की मात्रा में कमी आई है, जिससे पृथ्वी की सतह पर सूर्य की किरणें अधिक पहुंच रही हैं। सेलियोडिस को पूरा यकीन है कि नासा के टेरा उपग्रह (NASA Terra satellite)  द्वारा दर्ज की गई इस मामूली लेकिन उल्लेखनीय कमी ने वैश्विक तापमान में अधिक वृद्धि की है।

गौरतलब है कि बादल सूर्य की किरणों को अंतरिक्ष में परावर्तित करके पृथ्वी के तापमान (Earth’s temperature) को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये बादल मुख्य रूप से भूमध्य रेखा के आसपास और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों (mid-latitude regions)  में बनते हैं, जहां तूफानी प्रणालियां (storm systems) हावी रहती हैं।

पिछले 35 वर्षों में उपग्रह तस्वीरों (satellite imagery) से पता चला है कि भूमध्य रेखा के आसपास के बादल के पट्टे (cloud belts) सिकुड़ रहे हैं और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में तूफान के मार्ग ध्रुवों की ओर खिसक रहे हैं – बादलों की मात्रा में हर दशक में 1.5 प्रतिशत की कमी हो रही है। यह कमी भले ही मामूली दिखती है लेकिन इसका संचयी प्रभाव (cumulative impact)  बहुत गंभीर है और यह जलवायु परिवर्तन (climate change) को और तेज़ करने वाले चक्रों को जन्म दे सकता है।

सेलियोडिस के अनुसार, परावर्तनीयता (reflectivity) में 80 प्रतिशत बदलाव बादलों के संकुचन (cloud contraction) के कारण है, न कि बादलों की प्रकृति कम परावर्तक होने की वजह से।

वैसे, यही जलवायु मॉडल (climate model) कुछ अन्य संकेत भी देता है। जैसे ग्लोबल वार्मिंग से, खासकर प्रशांत महासागर के ऊपर बड़े पैमाने पर वायु संचरण (air circulation) कमज़ोर हो सकता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में पूर्वी प्रशांत ठंडा हुआ है जिसके चलते हवाएं अस्थायी रूप से बलवती हुई हैं। इन विविध पैटर्न (weather patterns) के चलते स्थिति का विश्लेषण मुश्किल हुआ है।

बादलों के घटने से जलवायु परिवर्तन में तेज़ी (accelerated climate change) आने का खतरा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो इससे एक दुष्चक्र शुरू हो सकता है: उच्च तापमान (high temperatures) के कारण बादल आवरण कम होगा जिससे गर्मी और अधिक बढ़ेगी।

हालांकि घटते बादल परस्पर सम्बंधित कई कारणों का केवल एक हिस्सा है। उत्तरी गोलार्ध में प्रदूषण में कमी की भी एक भूमिका हो सकती है। अलबत्ता, संदेश साफ है: पृथ्वी के बादल और उनकी भूमिका में बदलाव हो रहे हैं, जिसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

ये परिणाम एक चेतावनी देते हैं। बादलों के घटने के कारणों की व्याख्या और समाधान, वैश्विक तापमान (global temperature impact) पर उनके प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वृक्ष मेंढकों की दिलचस्प छलांग

चाइनीज़ ग्लाइडिंग वृक्ष मेंढक (Polypedates dennysi) (Chinese Gliding Tree Frog) चीन और दक्षिण पूर्व एशिया (South East Asia forests) के नम जंगलों में पाए जाते हैं। करीब 10 से.मी. के ये मेंढक इन जंगलों में झूलती शाखों और तनों (tree branches and trunks) पर छलांग लगाते रहते हैं। इनकी यही छलांग वैज्ञानिकों को इनका अध्ययन करने के लिए आकर्षित करती है। दरअसल, जिन जंगलों में ये मेंढक रहते हैं वहां की ज़मीन गीली, दलदली (swampy ground) है। छलांग लगाते वक्त यदि दूरी, ऊंचाई, शाख की चौड़ाई वगैरह का अंदाज़ा ज़रा भी चूका तो ये सीधा कीचड़ में समाएंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं है: जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल ज़ुऑलॉजी पार्ट : इकॉलॉजिकल एंड इंटीग्रेटिव फिज़ियोलॉजी  (Journal of Experimental Zoology Part A: Ecological and Integrative Physiology) में प्रकाशित एक अध्ययन का कहना है कि उनमें खड़ी शाखाओं और तनों को पकड़ने के लिए कुछ लचीले तरीके विकसित हुए हैं।

वृक्ष मेंढकों की छलांग का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं (researchers) ने प्रयोगशाला में सेटअप (laboratory setup) जमाया। उन्होंने अलग-अलग व्यास के खंभे जमाए – फेविस्टिक से लेकर टॉयलेट पेपर रोल तक। फिर इन खंभों पर पांच मेंढकों की सैकड़ों छलांगों को वीडियो रिकॉर्ड (video recordings) किया।

पाया गया कि मेंढकों ने इस बात का अंदाज़ा लेने के लिए कुछ सेकंड लगाए कि खंभे का व्यास कितना है और वे कितनी दूरी पर हैं, फिर इसके हिसाब से उन्होंने अपनी छलांग लगाने का तरीका (jumping technique) तय किया। मुख्यत: दो तरीकों से छलांग लगाई। एक तरीके में वे अपने लक्ष्य (यानी शाख) के पास से गुज़रते हुए उससे ज़रा-सा आगे निकल जाते हैं और फिर गुज़रने के एकदम अंतिम क्षण में अपने चिपचिपे, गद्देदार हाथ या पैर (sticky padded hands and feet) से उसे पकड़ लेते हैं, और उसके सहारे खंभे से लिपट जाते हैं। दूसरे तरीके में वे शाख पर पेट के बल उतरते हैं और उससे लिपट जाते हैं।

मोटे खंभों (thicker poles) के लिए मेंढकों ने खंभों से आगे निकलकर, उसे हाथ बढ़ाकर पकड़ने का तरीका अपनाया। लेकिन जैसे-जैसे खंभे संकरे (narrower poles) होते गए, मेंढकों ने लैंडिंग की चूक से बचने के लिए पैरों और पेट के बल लैंड करने का तरीका अपनाया। शोधकर्ताओं का कहना है कि मेंढकों ने छलांग लगाने के लिए क्या पोज़ीशन ली है (jumping posture), इसे देखकर बताया जा सकता है कि वे शाख को पकड़ने के लिए हाथ या पैर से शाख थामेंगे या पेट का सहारा लेंगे।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि खड़ी शाखाओं (vertical branches) पर लैंड करने से मेंढकों के शरीर पर कम ठेस लगती है, इस बात का पता उन्हें खंभों के नीचे लगे बल संवेदी (force sensors) से चला। इस नतीजे से वैज्ञानिकों को एक नया सवाल सता रहा है: आडी और खड़ी दोनों तरह की शाख मौजूद हों तो ये मेंढक क्या खड़ी शाखों पर उतरना पसंद करेंगे या आड़ी शाख (horizontal branches) पर? (स्रोत फीचर्स) छलांग का वीडियो यहां देखें – https://www.science.org/content/article/watch-these-tree-frogs-make-some-most-dramatic-landings-nature?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5471795 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/content/article/watch-these-tree-frogs-make-some-most-dramatic-landings-nature?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5471795

निजी अस्पताल: दरों का मानकीकरण और रोगियों के अधिकार

गायत्री शर्मा

भारत की बड़ी आबादी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य सम्बंधी खर्च रोगियों को खुद वहन करना पड़ता है, जिससे हर साल लाखों लोग गरीबी में धकेल दिए जाते हैं। चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन और विनियमन) अधिनियम, 2010 और इसके तहत 2012 में बने नियम निजी स्वास्थ्य सेवाओं की दरों (private healthcare costs) को नियंत्रित करने का ढांचा प्रदान करते हैं, लेकिन यह अब तक प्रभावी रूप से लागू नहीं हो सका है।

102 डॉक्टरों, स्वास्थ्य पेशेवरों और जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों ने भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की लागत (healthcare expenses in India) को नियंत्रित करने और रोगियों के अधिकारों (patients’ rights) को लागू करने की मांग की है। फोरम फॉर इक्विटी इन हेल्थ (Forum for Equity in Health) द्वारा समर्थित विशेषज्ञों की इस अपील में स्वास्थ्य सेवाओं की उचित, पारदर्शी और मानकीकृत दरें (standardized healthcare rates) तय करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है ताकि रोगियों पर आर्थिक बोझ कम किया जा सके।

यह अपील जन स्वास्थ्य अभियान (Jan Swasthya Abhiyan) द्वारा सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) में दायर एक जनहित याचिका का समर्थन करती है, जिसमें केंद्र सरकार से 2012 के चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम के नियम 9 के तहत निजी स्वास्थ्य सेवाओं की दरों को विनियमित (regulate healthcare pricing) करने की मांग की गई है। इस कानूनी बहस में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने मौजूदा नियमों को लागू करने की मांग की है, जिसका व्यावसायिक निजी स्वास्थ्य सेवा समूहों (private healthcare groups)  द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा है।

कार्रवाई के इस आव्हान से एक कड़वी सच्चाई सामने आती है: सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की कमी के कारण देश की बड़ी आबादी को निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर होना पड़ता है। निजी अस्पतालों में अत्यधिक और मनमाने शुल्क के कारण कई परिवार आर्थिक संकट में फंस जाते हैं और गरीबी में धकेल दिए जाते हैं।

इस अपील पर हस्ताक्षर करने वाले लोग भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र के विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा (primary, secondary, tertiary care) संस्थानों के डॉक्टर, छोटे निजी क्लीनिक (small private clinics), बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल (corporate hospitals), चैरिटेबल ट्रस्ट (charitable trusts) द्वारा संचालित अस्पताल और ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन शामिल हैं। हस्ताक्षरकर्ताओं में युवा पेशेवर, मध्यम अनुभव वाले विशेषज्ञ और दशकों के अनुभव वाले वरिष्ठ विशेषज्ञ शामिल हैं। यह सामूहिक आवाज़ दर्शाती है कि भारत के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में असमानताओं और विनियमन की कमी को दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है।

दरों का मानकीकरण

चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन और विनियमन) अधिनियम, 2010 और इसके तहत 2012 में बने नियम निजी स्वास्थ्य सेवाओं को नियंत्रित करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। लेकिन, (standardization of healthcare rates), न्यूनतम मानकों (minimum standards), और पारदर्शिता (transparency)  जैसे प्रमुख पहलू अभी तक पूरी तरह लागू नहीं हो पाए हैं। यह स्थिति निजी अस्पतालों में अधिक शुल्क वसूलने की व्यापक प्रवृत्ति के बावजूद है, जो कोविड महामारी के दौरान उजागर हुई थी।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि दरों का मानकीकरण तकनीकी रूप से संभव है और इसे पहले ही सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम (CGHS) और आयुष्मान भारत (Ayushman Bharat) –प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना जैसी योजनाओं में सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका है।

मसलन, CGHS देश भर में 1850 से अधिक चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए समान दरें तय करता है, जिससे लाखों सरकारी कर्मचारी और पेंशनभोगी लाभान्वित होते हैं। इसी तरह, आयुष्मान भारत के तहत 28,000 से अधिक अस्पताल सूचीबद्ध हैं, जो लगभग 2000 प्रक्रियाओं के लिए निश्चित दरों पर इलाज करते हैं। इन योजनाओं और जापान जैसे देशों की समान दर व्यवस्था से प्रेरणा लेते हुए, विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा ढांचा न सिर्फ संभव है बल्कि मनमाने और अत्यधिक शुल्क से मरीज़ों को बचाने के लिए आवश्यक भी है।

अनैतिक प्रथाएं और असमानता

इस अपील में निजी स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त अनैतिक प्रथाओं (unethical practices in healthcare) , जैसे अधिक शुल्क वसूली (overbilling), रेफरल के लिए कमीशन (referral commissions) और मनमानी बिलिंग की समस्याओं को उजागर किया गया है। ये प्रथाएं रोगियों पर अतिरिक्त बोझ डालती हैं और ईमानदार चिकित्सकों के प्रयासों को कमज़ोर करती हैं। दरों के मानकीकरण से इन समस्याओं को दूर करके एक अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इससे ईमानदार निजी चिकित्सकों को बराबरी से प्रतिस्पर्धा का मौका मिलेगा और रोगियों पर वित्तीय बोझ भी कम होगा। मुख्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए उचित दर सुनिश्चित करके, इस क्षेत्र में अत्यधिक मुनाफाखोरी को रोका जा सकता है और रोगियों और चिकित्सकों के बीच विश्वास को मज़बूत किया जा सकता है।

आगे का रास्ता

फोरम फॉर इक्विटी इन हेल्थ और अन्य हस्ताक्षरकर्ता निम्नलिखित उपायों का सुझाव देते हैं:

1. रोगियों के अधिकारों का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन और क्रियांवयन (patients’ rights charter): सभी चिकित्सा संस्थानों में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी रोगियों के अधिकारों का चार्टर स्थानीय भाषाओं में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाना चाहिए।

2. पारदर्शी मूल्य निर्धारण (transparent pricing): स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को प्रमुख प्रक्रियाओं के लिए दरें अनिवार्य रूप से प्रदर्शित करनी चाहिए, ताकि रोगियों को सोच-समझकर निर्णय लेने में मदद मिल सके।

3. मुख्य प्रक्रियाओं की मानकीकृत लागत: प्रमुख चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए निश्चित दरें होनी चाहिए, ताकि अत्यधिक शुल्क वसूली को रोका जा सके। इसमें अतिरिक्त सुविधाओं या विशेष आवश्यकताओं के लिए लचीलापन रखा जा सकता है।

4. शिकायत निवारण प्रणाली (grievance redressal system): रोगियों की समस्याओं का तुरंत समाधान करने के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।

5. छोटे और गैरमुनाफा संस्थानों का समर्थन: मानकीकरण प्रक्रिया को छोटे क्लीनिक्स, चैरिटेबल अस्पतालों और गैर-मुनाफा संगठनों के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए लागू किया जाना चाहिए।

देश भर के हस्ताक्षरकर्ताओं ने फिर से यह ज़ाहिर किया है कि स्वास्थ्य सेवा को एक सामाजिक कार्य के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि मुनाफा कमाने की वस्तु के रूप में। वे एक मज़बूत सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं जिसे निजी क्षेत्र पर प्रभावी नियम लागू करके बल मिले। यह अपील इस बात पर भी ज़ोर देती है कि स्वास्थ्य का संवैधानिक अधिकार तभी पूरा हो सकता है, जब निरंकुश निजी स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं द्वारा उत्पन्न वित्तीय असमानताओं को हल किया जाए।

इस अपील का संदेश स्पष्ट है: स्वास्थ्य सेवा एक मौलिक अधिकार है, न कि कोई विशेषाधिकार। इसे साकार करने के लिए नीति निर्माताओं, न्यायपालिका, और समाज को निजी स्वास्थ्य सेवा लागतों को नियंत्रित करने, रोगियों के अधिकार चार्टर को लागू करने और सरकारी स्वास्थ्य अधोसंरचना को मज़बूत करने के लिए निर्णायक कदम उठाने होंगे।

अपील में यह भी कहा गया है: “समय आ गया है कि हम सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को मज़बूत करें, निजी स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं को नियंत्रित करें, और सुनिश्चित करें कि हर भारतीय को किफायती, समान और नैतिक चिकित्सा सेवा प्राप्त हो।”

मानकीकृत दरों को लागू करके और मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा करके ही देश एक न्यायपूर्ण, समान और सुलभ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की ओर बढ़ सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/standardized-rates-and-enforcement-of-patients-rights-in-indian-private-hospitals

वायरसों का नया नामकरण

रसों से सजीवों (वनस्पति और जंतुओं) के नाम एक द्विनाम पद्धति के अंतर्गत रखे जाते हैं। जैसे इस पद्धति के तहत आलू को सोलेनम ट्यूबरोसम (Solanum tuberosum) और कुत्ते को कैनिस ल्यूपस फेमिलिएरिस (Canis lupus familiaris) कहा जाता है। इन नामों में पहला हिस्सा जीनस या वंश का होता है और दूसरा हिस्सा प्रजाति। वंश एक ज़्यादा बड़ा समूह होता है जिसमें मोटे तौर पर एक समान जीव रखे जाते हैं। इस वंश के अंदर ज़्यादा बारीक भेद वाले जीवों को प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात सोलेनम एक जीनस या वंश है जिसमें लगभग 1500 प्रजातियां – जैसे टमाटर, बैंगन, धतूरा वगैरह शामिल हैं। 

वायरस सजीव-निर्जीव के बीच कहीं स्थित हैं और अब तक वे इस पद्धति में शामिल नहीं किए गए थे। लेकिन अब इंटरनेशनल कमिटी ऑन टेक्सॉनॉमी ऑफ वायरसेस (आईसीटीवी) (International Committee on Taxonomy of Viruses – ICTV) ने निर्णय लिया है कि वायरसों को भी द्विनाम पद्धति के अनुसार नाम दिए जाएंगे। हालांकि अभी वैज्ञानिक वायरसों को कुल व वंश के स्तर तक वर्गीकृत करते हैं लेकिन प्रजाति स्तर के वर्गीकरण तक आते-आते बात बिखर जाती है। आम तौर पर वायरस प्रजातियों को नाम उनके द्वारा पैदा की गई किसी बीमारी के नाम पर, या उनके द्वारा संक्रमित किसी जीव प्रजाति के नाम पर या उन्हें पहली बार खोजे जाने के स्थान के नाम पर दिया जाता है। जैसे सेवीयर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) (Severe Acute Respiratory Syndrome – SARS) पैदा करने वाले वायरस को सार्स-सीओवी-2 कहा गया है। इसी प्रकार से ईस्टर्स एक्वाइन एंसिफेलाइटिस वायरस है जो घोड़ों को संक्रमित करता है। ज़िका वायरस को उसका नाम युगांडा में एक जंगल में खोजे जाने के फलस्वरूप मिला था। इस मामले में ऐसा माना जाता है कि यह नाम उस इलाके को बेवजह बदनाम करता है।

यह व्यवस्था तब तक तो ठीक-ठाक चली जब तक ज्ञात वायरसों की संख्या सैकड़ों या हज़ारों तक सीमित थी। लेकिन फिर जीनोम विश्लेषण (genome analysis) की तकनीक के आगमन के साथ एक-एक अध्ययन में हज़ारों वायरसों की खोज होने लगी। इतनी बड़ी संख्या के चलते वैज्ञानिकों के बीच वार्तालाप को आसान बनाने के लिए एक मानक नामकरण व्यवस्था (standard nomenclature system) की ज़रूरत महसूस की जाने लगी।

तब आईसीटीवी ने 2016 में विचार-विमर्श शुरू किया। दरअसल आईसीटीवी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ माइक्रोबायोलॉजिकल सोसायटीज़ (International Union of Microbiological Societies)  का अंग है। अंतत: आईसीटीवी में इस बात पर सहमति बनी कि वायरसों को भी सामान्य द्विनाम पद्धति (binomial nomenclature for viruses) से नाम दिए जाएं।

बहरहाल, कई वायरस वैज्ञानिकों को लगता है कि सचमुच इसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वायरसों को नाम दिए गए हैं और ये काफी प्रचलन में आ चुके हैं। कई वैज्ञानिकों को तो लगता है कि ये ज़बान के लिए अत्यंत कठिन साबित होंगे। एक उदाहरण के रूप में बताते हैं कि सार्स वायरस का नाम होगा बीटाकोरोनावायरस पेंडेमिकम (Betacoronavirus pandemicum) या एड्स वायरस यानी ह्यूमैन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (Human Immunodeficiency Virus) को लेंटीवायरस ह्यूमिमडेफ1 (Lentivirus humimdef1) कहा जाएगा। जो लोग नई व्यवस्था का मखौल बनाना चाहते हैं उन्होंने ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। जैसे वेस्टनाइल वायरस को ऑर्थोफ्लेविवायरस नाइलेंस (Orthoflavivirus nilense) कहना या शार्क रिवर वायरस को ऑर्थोबन्यावायरस स्क्वेलोफ्लवी (Orthobunyavirus squalofluvii) कहना उनके अनुसार मूर्खतापूर्ण है। इस निर्णय के आलोचक कहते हैं कि पहले से प्रचलित नाम हमें वायरस को पहचानने में अधिक सहायक हैं।

दूसरी ओर, कई वैज्ञानिक मानते हैं कि इन नए नामों के आ जाने से वायरस वैज्ञानिकों को काम करने में आसानी होगी। जब भी किसी शोध पत्र में किसी वायरस का द्विनाम पद्धति का नाम आएगा तो दुनिया भर में पता चल जाएगा कि किस वायरस की बात हो रही है। और इस नई व्यवस्था के समर्थक शुरुआती अफरा-तफरी को एक ज़रूरी परेशानी भर मानते हैं।

फिलहाल, इस समस्या का एक मध्यमार्ग निकाला गया है। यह फैसला हुआ है कि सारे वायरस डैटाबेस (virus database) में दोनों नामों का उपयोग किया जाएगा और सारी जानकारी दोनों नामों (existing and binomial names) से खोजी जा सकेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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व्हेल दोगुना जी सकती हैं, बशर्ते मनुष्य जीने दें

ह तो जानी-मानी बात है कि व्हेल (whales)  दीर्घायु (long-living mammals) स्तनधारी हैं। कई प्रजातियां तो 100 वर्ष से अधिक भी जी सकती हैं। व्हेल की उम्र का अंदाज़ा लगाने के लिए वैज्ञानिक कई तरीके अपनाते हैं; जैसे उनके कान के मैल की परतें गिनना जो पेड़ के छल्लों की तरह साल दर साल जमा होती हैं, या आंखों के प्रोटीन में एक निश्चित दर से होने वाले रासायनिक परिवर्तन को नापना, या उनके त्वचा के नीचे की वसा में शिकारी भालों के निशान गिनकर।

इन तकनीकों से विश्लेषण के लिए अक्सर तुरंत मृत व्हेलों के नमूने (whale samples) चाहिए होते हैं, जो मिलना मुश्किल है। फिर, शिकारी गतिविधियों के चलते वृद्ध व्हेल भी मिलना मुश्किल है क्योंकि अब अधिकांश युवा व्हेल ही जीवित बची हैं। इसी कारण व्हेल की सटीक आयु बता पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन वैज्ञानिक भी इन मुश्किलों के सामने हाथ-पर-हाथ धरे बैठे नहीं रहते, वे हल खोजते रहते हैं। अब, उन्होंने व्हेल की उम्र की गणना का एक बेहतर तरीका खोजा है जो साइंस एडवांसेस पत्रिका (Science Advances journal) में प्रकाशित हुआ है।

युनिवर्सिटी ऑफ अलास्का फेयरबैंक के इकॉलॉजिस्ट ग्रेग ब्रीड और उनके साथियों ने मृत व्हेल के नमूनों की बजाय राइट व्हेल की दो प्रजातियों – उत्तरी अटलांटिक राइट व्हेल (Eubalaena glacialis) और दक्षिणी राइट व्हेल (Eubalaena australis) पर अध्ययन किया, जिनका अंधाधुंध शिकार किया गया है। उन्होंने इन दो व्हेल प्रजातियों की 1970 से अब तक की तस्वीरों को खंगाला और उनका बारीकी से अवलोकन किया। इसकी मदद से शोधकर्ता प्रत्येक व्हेल को पहचान सकते थे और यह बता सकते थे कि कौन सी व्हेल कब (संभवत: मृत्यु के कारण) आबादी से गायब हो गई। व्हेल के गायब होने के समय के आंकड़ों को उन्होंने विभिन्न सांख्यिकीय मॉडल्स (statistical models)  में डाला जो यह बता सकते थे कि कितने प्रतिशत आबादी किस-किस उम्र तक जीवित रहेगी।

सबसे उपयुक्त परिणाम उस मॉडल से मिले जो बीमा कंपनियां (insurance companies) मनुष्यों की मृत्यु दर का पूर्वानुमान लगाने और उसके अनुसार प्रीमियम दरें तय करने के लिए करती हैं। परिणाम के अनुसार दक्षिणी राइट व्हेल का औसत जीवनकाल लगभग 73 साल है, लेकिन 10 प्रतिशत 132 साल से भी अधिक आयु तक जीवित रह सकती हैं। जबकि, पूर्व अध्ययनों का कहना था कि इस व्हेल का जीवनकाल अधिकतम 70 से 80 साल है।

उत्तरी अटलांटिक राइट व्हेल के बारे में मॉडल का विश्लेषण है कि इनका औसत जीवनकाल करीब 22 वर्ष है लेकिन 10 प्रतिशत 47 वर्ष से अधिक आयु तक जी सकती हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि काफी सारी व्हेल कुदरती रूप से नहीं बल्कि जहाज़ों से टकराकर (ship strikes) और मत्स्याखेट उपकरणों (fishing gear entanglement) में उलझकर मरती हैं। साथ ही, पूर्व में हुए अंधाधुंध शिकार से ये उबर नहीं पाई हैं और विलुप्ति की कगार (endangered whales) पर हैं। इनके अधिक असुरक्षित होने का एक कारण यह भी है कि वे मानव आबादी वाले तटीय क्षेत्रों (coastal areas)  में रहती हैं।

हालांकि दीर्घायु के मामले में बोहेड व्हेल (Balaena mysticetus) अब भी आगे हैं – वे 200 साल से अधिक जीवित रहती हैं। वैज्ञानिकों का मानना था कि बोहेड व्हेल इतने लंबे समय तक इसलिए जीवित रहती हैं क्योंकि वे सुस्त होती हैं – वे धीरे-धीरे तैरती (slow swimmers) हैं, धीरे-धीरे परिपक्व होती हैं और उनका चयापचय धीमा होता है। लेकिन राइट व्हेल तुलनात्मक रूप से फुर्तीली होती हैं, इनकी चयापचय गति (metabolism rate)  अन्य स्तनधारियों की तरह ही होती है, इसलिए यहां एक सवाल उभरता है कि वे इतना लंबा कैसे जीवित रहती हैं?

बहरहाल, व्हेल की नैसर्गिक उम्र (natural lifespan of whales) चाहे जितनी लंबी रहे लेकिन जब तक उन पर शिकार (whale hunting) और मानव गतिविधियों (human activities) का खतरा मंडराता रहेगा उनका चिरंजीवी होना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बृहस्पति के चांद युरोपा की मोटी बर्फीली चादर जीवन की संभावना घटाती है

बृहस्पति के एक चांद युरोपा (Europa Moon) को जीवन के लिए संभावित स्थान माना जाता था। लेकिन अब संभावनाएं कम होती लग रही हैं। नासा (NASA) के जूनो अंतरिक्ष यान (Juno Spacecraft) से प्राप्त डैटा के अनुसार, युरोपा की बर्फीली परत पूर्व अनुमान से कहीं अधिक मोटी है। यह औसतन 35 किलोमीटर मोटी है (चार एवरेस्ट की ऊंचाई के बराबर)। यह खोज युरोपा पर जीवन की संभावना (Life on Europa) को कम करती है।

यह मापन जूनो के माइक्रोवेव रेडियोमीटर ((Microwave Radiometer – MWR) द्वारा संभव हो पाया है। उल्काओं की टक्करों (Meteor Impacts) के कारण बने गड्ढों के विश्लेषणों पर आधारित पूर्व अध्ययन ने 7 से 20 किलोमीटर मोटाई की परत का अनुमान दिया था, जिसमें ऊपरी 7 किलोमीटर की परत अचल और अंदरूनी 13 किलोमीटर मोटी परत गतिशील थी। लेकिन जूनो के डैटा से पता चलता है कि यह परत हर जगह मोटी और अचल है, हालांकि मोटाई विभिन्न जगहों पर थोड़ी उन्नीस-बीस हो सकती है।

यह खोज युरोपा के जीवन (Habitability of Europa) योग्य होने पर गहरा प्रभाव डालती है। पतली परत महासागर (Subsurface Ocean) को सतह के साथ रासायनिक संपर्क का मौका देती, जिससे जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life) की संभावना बन सकती है। इसके विपरीत, मोटी परत के चलते जटिल रासायनिक क्रियाओं की संभावना कम हो जाती है। इसका मतलब यह भी है कि युरोपा के चट्टानी आंतरिक हिस्से से कम गर्मी आ रही है। यानी हाइड्रोथर्मल वेंटिंग (Hydrothermal Venting) जैसी भूगर्भीय प्रक्रियाओं के लिए भी मौके कम हैं जो जीवन को सहारा दे सकें।

इनके अलावा, अन्य अध्ययन के नतीजे भी जीवनक्षम (Potential for Life) होने की संभावना को नकारते हैं – एक अध्ययन बताता है कि बृहस्पति से निकलने वाले विकिरण (Jovian Radiation) के कारण युरोपा का महासागर पूर्वानुमान से कम ऑक्सीजन बनाएगा। इसके अलावा, जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope – JWST)  द्वारा युरोपा की सतह से भाप के फव्वारों (Water Plumes) का पता लगाने के प्रयास असफल रहे जिससे हबल स्पेस टेलीस्कोप (Hubble Space Telescope) द्वारा पूर्व में की गई जेट सम्बंधित टिप्पणियों पर संदेह पैदा हो गया है।

अब, 2030 के दशक में पहुंचने वाला नासा का युरोपा क्लिपर मिशन (Europa Clipper Mission)  उन्नत रडार से लैस होगा, जो अधिक स्पष्टता प्रदान करेगा। क्लिपर का विकिरण 30 किलोमीटर की गहराई तक पहुंच सकता है, लेकिन अगर युरोपा की बर्फ जूनो द्वारा सुझाई गई माप जितनी है तो यह यंत्र भी परत का अध्ययन करने में मुश्किलों का सामना करेगा।

बर्फ की मोटी परत भविष्य के उन अभियानों के लिए भी तकनीकी चुनौतियां (Technical Challenges for Exploration) पेश करती है जो समुद्र की गहराई तक पहुंचने के लिए ड्रिलिंग (Ice Drilling on Europa) करना चाहते हैं। जैसे-जैसे शोधकर्ता अपने मॉडल को बेहतर करते हैं और अधिक डैटा इकट्ठा करते हैं, युरोपा हमारी कल्पना और महत्वाकांक्षा को ईंधन प्रदान करता है और सारी दिक्कतों के बावजूद हम पृथ्वी के बाहर जीवन (Extraterrestrial Life) की खोज में जुटे रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हार्मोन ग्रंथियां: शरीर के नन्हे नियामक अंग

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जब हम अपने परिजनों और दोस्तों की सेहत की चिंता करते हैं तो अक्सर चर्चा हमारे हार्मोन (hormones) पर चली जाती है, जिसमें सबसे ज़्यादा चर्चा इंसुलिन (insulin) और थायरॉइड हार्मोन (thyroid hormone) पर होती है। हार्मोन अधिकांश बहुकोशिकीय जीवों में पाए जाने वाले सिग्नलिंग (signaling molecules) अणु होते हैं। ये हमारे शरीर में एक-दूसरे से दूर-दूर मौजूद अंगों और ऊतकों के बीच संवाद की सुविधा मुहैया करवाते हैं। संकेत कई तरह की शारीरिक और व्यावहारिक कार्यविधियों को नियंत्रित करते हैं, जैसे वृदधि (growth) और परिपक्वता, नींद (sleep), पाचनक्रिया (digestion) और तनाव प्रतिक्रियाएं (stress responses) वगैरह।

स्कूली शिक्षा (school education) के दौरान हमें मानव शरीर में हार्मोन की भूमिका के बारे में समझाया जाता है। इसमें यह बताया जाता है कि हार्मोन स्रावित करने वाली अंतःस्रावी (endocrine glands) ग्रंथियों का आकार और आकृति कैसी होती है, और वे हमारे शरीर में कहां-कहां मौजूद होती हैं।

इन ग्रंथियों के विवरणों में गौर करने लायक बात यह होती है कि ये ग्रंथियां कितनी छोटी हैं। वयस्कों में प्रत्येक एड्रीनल ग्रंथि (adrenal gland), जो दोनों किडनियों (kidneys) के ऊपर पाई जाती हैं, का वज़न 5-10 ग्राम होता है। मस्तिष्क (brain) की मध्य रेखा में पाई जाने वाली पीनियल ग्रंथि (pineal gland) चावल के दाने के बराबर और उसी की आकृति जैसी होती है, और इसका वज़न 50-150 मिलीग्राम होता है। गर्दन (neck) में पाई जाने वाली थायरॉइड ग्रंथि आकार में तितली (butterfly-shaped) की तरह होती है और इसका वज़न लगभग 25 ग्राम होता है।

आकार बनाम कार्य

एक पहेली जो अब तक अनसुलझी थी, वह है कि अंतःस्रावी ग्रंथियों के आकार (size) में इतना अधिक अंतर कैसे या क्यों होता है। जहां थायरॉइड ग्रंथि का वज़न करीब दस-दस रुपए के तीन सिक्कों जितना होता है, वहीं पीनियल ग्रंथि का वज़न चावल के दाने जितना होता है। अब हाल ही में, इस्राइल (Israel) के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट (Weizmann Institute) के यूरी एलोन (Uri Alon) के समूह ने हमारे शरीर के कई हार्मोन के लिए इस पहेली का जवाब खोज लिया है; उनका यह अध्ययन आईसाइंस (iScience journal) पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

अपने अध्ययन में उन्होंने हार्मोन स्रावित करने वाली अंतःस्रावी ग्रंथियों में कोशिकाओं की संख्याओं की गणना की। मसलन, पैराथायरॉइड ग्रंथि (parathyroid gland) जिनमें से चार गर्दन में पाई जाती हैं। प्रत्येक पैराथायरॉइड ग्रंथि मसूर के दाने बराबर होती हैं, और प्रत्येक का वज़न 120 मिलीग्राम होता है। प्रत्येक में लगभग 1 करोड़ कोशिकाएं होती हैं जो पैराथायराइड हार्मोन (parathyroid hormone) स्रावित करती हैं। दूसरी ओर, एड्रीनल कॉर्टेक्स (adrenal cortex) बहुत बड़ा होता है, जिसका वज़न 5 ग्राम से अधिक होता है और इसमें 4.5 अरब कोशिकाएं होती हैं जो कॉर्टिसोल (cortisol) का स्राव करती हैं।

वे सभी कोशिकाएं जो किसी हार्मोन अणु का लक्ष्य होती हैं, उनकी सतह पर उस अणु के लिए एक रिसेप्टर (receptor) होता है। इन रिसेप्टर्स वाली कोशिकाओं को चिन्हित करके और सूक्ष्मदर्शी (microscope) की मदद से ऊतक के एक हिस्से में कोशिकाओं की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हार्मोन-स्रावी कोशिकाओं की संख्या उनके द्वारा बनाए जाने वाले हार्मोन की लक्षित कोशिकाओं की संख्या के अनुपात में होती है। प्रत्येक हार्मोन उत्पादक कोशिका के लिए लगभग 2000 लक्ष्य कोशिकाएं होती हैं।

एड्रीनल कॉर्टेक्स ग्रंथि अपेक्षाकृत बड़ी होती है, जैसी कि थायरॉइड ग्रंथि भी होती है। एड्रीनल कॉर्टेक्स द्वारा बनाया जाने वाला हार्मोन एड्रीनेलीन (adrenaline) शरीर की उन सभी कोशिकाओं से जुड़ता है जिनमें नाभिक (nucleus) होता है। दूसरी ओर, थायरॉइड हार्मोन पूरे शरीर में चयापचय संतुलन (metabolic balance) बनाए रखता है। पैराथायराइड हार्मोन एक छोटी ग्रंथि से स्रावित होता है, जिसका लक्ष्य गुर्दे (kidneys), अग्न्याशय (pancreas) और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) के कुछ हिस्से होते हैं।

कुछ हार्मोन उन अंगों द्वारा स्रावित होते हैं जो अन्य कार्य भी करते हैं। अग्न्याशय (pancreas, weight 80-100 grams) पाचन एंज़ाइमों (digestive enzymes) का स्राव करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। अलबत्ता, अग्न्याशय की केवल 1-2 प्रतिशत कोशिकाएं ही इंसुलिन बनाती हैं, जो लिवर (liver) और मांसपेशियों की कोशिकाओं को लक्षित करती हैं।

आहार (diet) और अन्य स्वास्थ्य उपायों (health tips) द्वारा हार्मोनल स्तरों में समायोजन हमारे स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं। जैसे, नियत अंतराल पर भोजन व उपवास (intermittent fasting) रक्त में प्रवाहित इंसुलिन की सांद्रता को कम करता है क्योंकि भोजन का सेवन न करने पर इंसुलिन स्राव की आवश्यकता कम हो जाती है। रेशों (fiber-rich diet) की अधिकता वाला आहार, नियमित व्यायाम (regular exercise), पर्याप्त नींद (adequate sleep) और कम तनाव (low stress) भी इंसुलिन के स्तर को नियंत्रित (कम) रखते हैं। इंसुलिन स्तर कम हो तो हमारे शरीर की कोशिकाएं रक्त से अधिक दक्षता से ग्लूकोज़ (glucose) ले पाती हैं। यह इंसुलिन प्रतिरोध (insulin resistance) को रोकने में मदद करता है। इन अंगों का मात्र सूक्ष्म आकार देखकर हमारे स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव को आंकना गलत होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आनंदीबाई जोशी: चुनौतियां और संघर्ष – संकलन : पूजा ठकर

आनंदीबाई जोशी
मार्च 1865 – फरवरी 1887

न्यूयॉर्क के पॉकीप्सी ग्रामीण कब्रिस्तान के ‘लॉट 216-ए’ में, अमरीकियों की कई कब्रों के बीच डॉ. आनंदीबाई जोशी की कब्र है। उनकी आयताकार कब्र पर लगा कुतबा (संग-ए-कब्र) बयां करता है कि आनंदी जोशी एक हिंदू ब्राह्मण लड़की थीं, जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और चिकित्सा (मेडिकल) की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने यह कैसे हासिल किया? उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ा? इन सवालों के आनंदी बाई के जो जवाब होते, उन्हें यहां मैं अपने अंदाज़ में देने का प्रयास कर रही हूं; ये जवाब मैंने आनंदीबाई के बारे में और उनके समय के बारे में पढ़कर जुटाई गई जानकारी के आधार पर लिखे हैं। – पूजा ठकर

मेरा जन्म 31 मार्च, 1865 को मुंबई के पास एक छोटे से कस्बे कल्याण में यमुना जोशी के रूप में हुआ था। मेरा परिवार कल्याण में ज़मींदार हुआ करता था, लेकिन तब तक उनकी जागीर समाप्त हो चुकी थी। 9 साल की उम्र में मेरी शादी हुई और मेरा नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

शादी के पहले मैं मराठी पढ़ लेती थी; उस समय लड़कियों का पढ़ाई करना आम बात नहीं थी। लेकिन मेरे पति गोपालराव विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा (women education in India)  के प्रबल समर्थक थे। वास्तव में, उन्होंने इसी शर्त पर मुझसे विवाह किया था कि उन्हें मुझे पढ़ाने की इजाज़त होगी। हमारी शादी के बाद उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। यह बहुत मुश्किल था; उन दिनों, दूसरों के सामने कोई पति अपनी पत्नी से सीधे बात नहीं कर सकता था। शुरुआत में, मेरे पति ने मुझे मिशनरी स्कूलों (missionary schools in India) में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनाी। हमें कल्याण से अलीबाग, अलीबाग से कोल्हापुर और फिर कोल्हापुर से कलकत्ता जाना पड़ा। लेकिन एक बार जब मैंने सीखना-पढ़ना शुरू कर दिया तो मैं जल्द ही संस्कृत पढ़ने लगी और अंग्रेज़ी (English education for women)  पढ़ने और बोलने लगी।

अपने पति से सीखना कोई आसान बात नहीं थी। वे मुझे संटियों से मारते थे; गुस्से में मुझ पर कुर्सियां और किताबें फेंकते थे। मुझे याद है कि जब मैं 12 साल की थी, तब उन्होंने मुझे छोड़ने की धमकी दी थी। सालों बाद, जब मैंने उन्हें अमेरिका से पत्र लिखा तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या यह सही था? मैं हमेशा सोचती हूं कि क्या मेरे प्रति उनका यह व्यवहार ठीक था? मान लो, यदि मैंने उन्हें तब छोड़ दिया होता तो क्या होता? मैंने पत्र में उन्हें समझाया था कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। लेकिन उसी पल मुझे यह ख्याल भी कचोटता कि कैसे एक हिंदू महिला (Hindu women in 19th century) के पास अपने पति को उसकी मनमानी करने देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है।

मेरी द्रुत प्रगति के चलते मेरे पति की यह ज़िद थी कि मुझे उच्च शिक्षा (higher education for women in India)  प्राप्त करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में अधिकतर महिलाओं के लिए कोई महिला डॉक्टर (female doctor in India) नहीं है, और जो महिलाएं पुरुष डॉक्टर के पास जाने में शर्माती हैं या पुरुष डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती हैं, उन्हें इसके नतीजे में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। मैंने खुद 14 साल की उम्र में अपने नवजात बेटे को खो दिया था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं डॉक्टर बनूंगी। यहां तक कि बाद में मैंने अपनी थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था “आर्य हिंदुओं में प्रसूति विज्ञान”।

मेरे पति ने मुझे अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय (university in USA for Indian women) में दाखिला दिलाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने इसके लिए मिशनरी बनने का दिखावा भी किया, लेकिन इससे सिर्फ उपहास ही हुआ। संयोग से, न्यू जर्सी के रोसेल की श्रीमती कारपेंटर को यह कहानी पता चली और मिशनरी रिव्यू में पत्राचार से द्रवित होकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा। उन्होंने मुझे होस्ट करने का प्रस्ताव दिया और जल्द ही श्रीमती कारपेंटर और मैं एक-दूसरे को बहुत पत्र लिखने लगे। वे मुझे बहुत अपनी लगने लगीं थीं और मैं उन्हें ‘मवशी’ (मौसी) कहकर बुलाने लगी थी। इन पत्रों में, हमने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की; मैं उन मामलों/मुद्दों पर अपनी चिंताएं उन्हें लिख सकती थी, जिनको मुझे नहीं लगता कि मैं सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती थी। हमने बाल विवाह और महिलाओं के स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव की चर्चा की। मुझे याद है, एक पत्र मैं मैंने उन्हें लिखा था कि सती प्रथा की तरह बाल विवाह पर प्रतिबंध का भी कानून होना चाहिए। इसी तरह हमने समाज में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की।

चूंकि गोपालराव को वहां नौकरी नहीं मिली, इसलिए हमने तय किया कि मुझे अकेले ही अमेरिका चले जाना चाहिए। हमें बहुत विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा, यहां तक कि लोगों ने हम पर पत्थर और गोबर फेंके। आखिरकार, कई आज़माइशों और क्लेशों के बाद, जून 1883 में मैं अमेरिकी मिशनरी महिलाओं के साथ अमेरिका पहुंच गई, और मेरी मुलाकात कारपेंटर मौसी से हुई।

अमेरिका में ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे अजीब लगती थीं और कई ऐसी चीजें थीं जो कारपेंटर परिवार को मेरे बारे में अजीब लगती थीं। लेकिन कारपेंटर मौसी ने मेरा ऐसे ख्याल रखा जैसे मैं उनकी बेटी हूं। जब वे मुझे फिलाडेल्फिया (Philadelphia for medical studies) के महिला कॉलेज में छोड़ कर आ रही थीं तो वे एक बच्चे की तरह रोईं।

कॉलेज के अधीक्षक और सचिव बहुत दयालु थे और वे इस बात से प्रभावित थे कि मैं इतनी दूर से पढ़ने आई हूं। उन्होंने मुझे वहां तीन साल के लिए 600 डॉलर की छात्रवृत्ति भी दी।

अमेरिका में मेरे सामने पहली समस्या जाड़ों के लिबास की थी। पारंपरिक महाराष्ट्रीयन नौ गज़ की साड़ी जो मैं पहनती थी, उससे मेरी कमर और पिंडलियां खुली रहती थीं। पश्चिमी पोशाक, जो ठंड से निपटने का उम्दा तरीका था, पहनने में मैं पूरी तरह से सहज नहीं थी। उसी समय, मुझे भगवद गीता का पढ़ा हुआ एक श्लोक याद आया, जिसमें कहा गया था कि शरीर मात्र आत्मा को ढंकता है, आत्मा को अपवित्र नहीं किया जा सकता। तब मुझे अहसास हुआ कि यह बात सही है कि मेरे पश्चिमी पोशाक पहनने से मेरी आत्मा कैसे भ्रष्ट या अपवित्र या नष्ट हो सकती है। कई सवाल-जवाब से जूझते हुए और बहुत सोच-विचार के बाद मैंने गुजराती महिलाओं की तरह साड़ी पहनना तय किया; इस तरीके से साड़ी पहनकर मैं अपनी अपनी कमर और पिंडलियों को ढंके रख सकती थी और अंदर पेटीकोट भी पहन सकती थी। मैंने तय किया कि इस बारे में अभी गोपालराव को नहीं बताऊंगी।

कॉलेज में मुझे जो कमरा दिया गया था उसमें फायरप्लेस (अलाव) की ठीक व्यवस्था नहीं थी। अलाव जलाने पर कमरे में बहुत अधिक धुआं भर जाता था। तो मेरे पास दो ही विकल्प थे, या तो धुआं बर्दाश्त करो या ठंड! वहां रहने से मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमेरिका में लगभग दो साल रहने के बाद, मुझे अचानक बेहोशी और तेज़ बुखार के दौरे पड़ने लगे। खांसी ने मुझे लगातार जकड़े रखा। तीसरे साल के अंत तक, मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी। खैर, जैसे-तैसे मैं आखिरी परीक्षा में पास हो गई थी।

दीक्षांत समारोह, जिसमें मेरे पति और पंडिता रमाबाई मौजूद थे, में यह घोषणा की गई कि मैं भारत की पहली महिला डॉक्टर हूं और इसके लिए सबने खड़े होकर तालियां बजाईं! वह लम्हा मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल लम्हों में से एक था। मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन खराब होता गया। मेरे पति ने मुझे फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भर्ती कराया और मुझे टीबी होने का पता चला। लेकिन टीबी तब तक मेरे फेफड़ों तक नहीं पहुंची थी। डॉक्टरों ने मुझे भारत वापस जाने की सलाह दी। मैंने भारत लौटकर कोल्हापुर में लेडी डॉक्टर के पद का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

घर वापसी की यात्रा ने आनंदीबाई (Anandi Gopal Joshi) के स्वास्थ्य पर और अधिक प्रभाव डाला क्योंकि जहाज़ पर मौजूद डॉक्टरों ने एक अश्वेत महिला का इलाज करने से इन्कार कर दिया था। भारत पहुंचने पर वे एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक वैद्य से इलाज कराने के लिए पुणे में अपने कज़िन के घर रुकीं, लेकिन उन वैद्य ने भी उनका इलाज करने से इन्कार कर दिया क्योंकि उनके अनुसार आनंनदीबाई ने समाज की मर्यादा लांघी थीं। अंतत: बीमारी के कारण 26 फरवरी, 1887 को 22 वर्ष की आयु में आनंदीबाई की मृत्यु हो गई। पूरे भारत में उनके लिए शोक मनाया गया। उनकी अस्थियां श्रीमती कारपेंटर को भेज दी गईं। उन्होंने अस्थियों को पॉकीप्सी में अपने पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया।

यह गज़ब की बात है कि महज़ 15 वर्षीय आनंदीबाई अपने समय के समाज को कितना समझ पाई थीं। श्रीमती कारपेंटर को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने उन मुद्दों पर अपनी राय बना ली थी जिन्हें आज नारीवादी माना जाता। ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री पुरुष तुलना’, पंडिता रमाबाई की ‘स्त्री धर्म नीति’ और रख्माबाई के ‘दी हिंदू लेडी’ नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए पत्र जैसे नारीवादी लेखन भी इसी दौर के हैं। यह कमाल की बात है कि आनंदीबाई महज़ 15 साल की थीं जब उन्होंने इसी तरह के नारीवादी विचार व्यक्त किए थे।

हालाकि, आनंदीबाई के प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आज भी, वे सभी क्षेत्रों में भारतीय लड़कियों को प्रेरित करती हैं और यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, सपनों को साकार करना नामुमकिन नहीं हैं और हममें से हर किसी में सपने साकार करने की, चाहतों को पूरा करने की क्षमता होती है। महाराष्ट्र सरकार ने महिला स्वास्थ्य (women’s health)पर काम करने वाली युवा महिलाओं के लिए उनके नाम पर एक फेलोशिप शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान समाचार संकलन

कोविड-19 की उत्पत्ति

कोविड-19 वायरस और प्रयोगशाला लीक थ्योरी (Lab Leak Theory) कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) की जांच कर रही एक अमेरिकी संसदीय समिति (US congressional committee) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि वायरस संभवत: चीन (China lab leak) की एक प्रयोगशाला (laboratory) से लीक हुआ था। हालांकि, रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत (concrete evidence) नहीं हैं, केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण (circumstantial evidence) दिए गए हैं।  520 पन्नों की इस रिपोर्ट में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में किए गए गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च (gain-of-function research) पर ध्यान दिया गया है।  एक नए खुलासे में, रिपोर्ट ने ईमेल का उल्लेख किया है, जो वायरस की उत्पत्ति (origin of the virus) से जुड़े अपराधों (potential crimes) पर एक ग्रैंड जूरी जांच (grand jury investigation) की ज़रूरत बताते हैं। इसके विपरीत, वैज्ञानिकों (scientists) और समिति के असहमत सदस्यों (dissenting members) ने प्रयोगशाला से लीक होने के सिद्धांत (lab leak hypothesis) को लेकर रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती (challenged conclusions) दी है। (स्रोत फीचर्स) 

महामारी का शैक्षणिक प्रदर्शन पर असर

ट्रेंड्स इन इंटरनेशनल मैथेमेटिक्स एंड साइंस स्टडी (Trends in International Mathematics and Science Study – TIMSS) की ताज़ा रिपोर्ट (latest report) बताती है कि 2019 के मुकाबले 2023 में 8वीं कक्षा (Grade 8) के गणित (Mathematics scores) के प्राप्तांक 39 प्रतिशत देशों में और विज्ञान (Science scores) के प्राप्तांक 42 प्रतिशत देशों में घटे हैं। वहीं, चौथी कक्षा (Grade 4) के विद्यार्थियों के अंक कुछ बेहतर (improved scores) रहे, जबकि अधिकांश देशों (most countries) में अंक स्थिर (stable scores) रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) में दोनों कक्षाओं के अंक 1995 में पहले टेस्ट (first test in 1995) के बाद से सबसे निचले स्तर (lowest level) पर पहुंचे हैं। वहीं, सिंगापुर (Singapore), ताइवान (Taiwan), और दक्षिण कोरिया (South Korea) वैश्विक रैंकिंग (global rankings) में शीर्ष पर (top positions) बने हुए हैं।  (स्रोत फीचर्स)

नारंगी बिल्लियां का रहस्य खुला

वैज्ञानिकों ने नारंगी रंग (orange color) की बिल्लियों (cats) के फर (fur) के पीछे की आनुवंशिक गुत्थी (genetic mystery) को सुलझा लिया है, जो 60 सालों से एक रहस्य (decades-old mystery) बनी हुई थी। दो शोध टीमों ने स्वतंत्र रूप से पाया कि एक्स गुणसूत्र (X chromosome) पर एक उत्परिवर्तन (mutation) रंजक बनाने वाली कोशिकाओं (pigment-producing cells) में Arhgap36 प्रोटीन (protein) के उत्पादन को बढ़ा देता है। यह प्रोटीन एक ऐसा मार्ग सक्रिय करता है, जो हल्के लाल रंग का रंजक (light red pigment) बनाता है, जिससे बिल्लियों का नारंगी रंग का फर (orange fur) बनता है। यह खोज (discovery) जीवों में आनुवंशिकी (genetics) और फर के रंग (fur color) को समझने में एक नई दिशा (new insights) है। (स्रोत फीचर्स)

अल्ज़ाइमर की दवा परीक्षण में असफल

अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer’s disease) के लिए बनाई गई प्रयोगात्मक दवा सिम्यूफिलम (Simufilam experimental drug) ने अंतिम चरण के क्लीनिकल परीक्षण (clinical trial) में कोई सकारात्मक असर नहीं दिखाए। प्लेसिबो (placebo) लेने वाले रोगियों से तुलना में, एक साल तक सिम्यूफिलम लेने वाले रोगियों में न तो संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive ability) में सुधार दिखा, और न ही रोज़मर्रा के कार्यों (daily tasks) में कोई बेहतरी दिखी। दवा बनाने वाली कंपनी कसावा साइंस (Cassava Sciences) पर शोध में धोखाधड़ी (fraud in research) और वित्तीय कदाचार (financial misconduct) के आरोप तक लगे हैं। परीक्षण (trial) में असफलता के बाद इस दवा के विकास (drug development) को रोक दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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