खुद चैटजीपीटी कहता है कि वह नस्ल-भेद करता है

र्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से होने वाली आसानियों और मिलने वाली सहूलियतों से तो हम सब वाकिफ हैं। लेकिन इसे विकसित करने वाले वैज्ञानिक इससे जुड़े संकट और चिंताओं से भलीभांति अवगत हैं। एआई से जुड़ी ऐसी ही एक चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि विशाल भाषा मॉडल (LLM) नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को कायम रख सकते हैं।

वैसे तो वैज्ञानिकों की कोशिश है कि ऐसा न हो। इसके लिए उन्होंने इन मॉडल्स को ट्रेनिंग देने वाली टीम में विविधता लाने की कोशिश की है ताकि मॉडल को प्रशिक्षित करने वाले डैटा में विविधता हो, और पूर्वाग्रह-उन्मूलक एल्गोरिद्म बनाए हैं। सुरक्षा के लिए उन्होंने ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार की है जो चैटजीपीटी जैसे एआई मॉडल को हैट स्पीच जैसी गतिविधियों/वक्तव्यों में शामिल होने से रोकती है।

दरअसल यह चिंता तब सामने आई जब क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट क्रेग पीयर्स यह जानना चाह रहे थे कि चैटजीपीटी के मुक्त संस्करण (चैटजीपीटी 3.5) में अघोषित नस्लीय पूर्वाग्रह कितना साफ झलकता है। मकसद चैटजीपीटी 3.5 के पूर्वाग्रह उजागर करना नहीं था बल्कि यह देखना था कि इसे प्रशिक्षित करने वाली टीम पूर्वाग्रह से कितनी ग्रसित है? ये पूर्वाग्रह हमारी हमारी भाषा में झलकते हैं जो हमने विरासत में पाई है और अपना बना लिया है।

यह जानने के लिए उन्होंने चैटजीपीटी को चार शब्द देकर अपराध पर कहानी बनाने को कहा। अपराध कथा बनवाने के पीछे कारण यह था कि अपराध पर आधारित कहानी अन्य तरह की कहानियों की तुलना में नस्लीय पूर्वाग्रहों को अधिक आसानी से उजागर कर सकती है। अपराध पर कहानी बनाने के लिए चैटजीपीटी को दो बार कहा गया – पहली बार में शब्द थे ‘ब्लैक’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’ (छुरा), और ‘पुलिस’ और दूसरी बार शब्द थे ‘व्हाइट’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’, और ‘पुलिस’।

फिर, चैटजीपीटी द्वारा गढ़ी गई कहानियों को स्वयं चैटजीपीटी को ही भयावहता के 1-5 के पैमाने पर रेटिंग देने को कहा गया – कम खतरनाक हो तो 1 और बहुत ही खतरनाक कहानी हो तो 5। चैटजीपीटी ने ब्लैक शब्द वाली कहानी को 4 अंक दिए और व्हाइट शब्द वाली कहानी को 2। कहानी बनाने और रेटिंग देने की यह प्रक्रिया 6 बार दोहराई गई। पाया गया कि जिन कहानियों में ब्लैक शब्द था चैटजीपीटी ने उनको औसत रेटिंग 3.8 दी थी और कोई भी रेटिंग 3 से कम नहीं थी, जबकि जिन कहानियों में व्हाइट शब्द था उनकी औसत रेटिंग 2.6 थी और किसी भी कहानी को 3 से अधिक रेटिंग नहीं मिली थी।

फिर जब चैटजीपीटी की इस रचना को किसी फलाने की रचना बताकर यह सवाल पूछा कि क्या इसमें पक्षपाती या पूर्वाग्रह युक्त व्यवहार दिखता है? तो उसने इसका जवाब हां में देते हुए बताया कि हां यह व्यवहार पूर्वाग्रह युक्त हो सकता है। लेकिन जब उसे कहा गया कि तुम्हारी कहानी बनाने और इस तरह की रेटिंग्स देने को भी क्या पक्षपाती और पूर्वाग्रह युक्त माना जाए, तो उसने इन्कार करते हुए कहा कि मॉडल के अपने कोई विश्वास नहीं होते हैं, जिस तरह के डैटा से उसे प्रशिक्षित किया गया है यहां वही झलक रहा है। यदि आपको कहानियां पूर्वाग्रह ग्रसित लगी हैं तो प्रशिक्षण डैटा ही वैसा था। मेरे आउटपुट (यानी प्रस्तुत कहानी) में पूर्वाग्रह घटाने के लिए प्रशिक्षण डैटा में सुधार करने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी मॉडल विकसित करने वालों की होनी चाहिए कि डैटा में विविधता हो, सभी का सही प्रतिनिधित्व हो, और डैटा यथासम्भव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/13BDED0B-EF1B-44F1-97CF1C152C4BA7AB_source.jpg?w=900

लोग सच के लिए वैज्ञानिकों पर भरोसा करते हैं

क हालिया अध्ययन के अनुसार दुनिया भर के लोगों ने वैज्ञानिकों पर भरोसा व्यक्त किया है, लेकिन वे अनुसंधान में सरकारों के हस्तक्षेप को लेकर चिंतित भी हैं। यह निष्कर्ष वैश्विक संचार संस्थान एडेलमैन द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट ट्रस्ट बैरोमीटर का है जिसके लिए मेक्सिको से लेकर जापान तक 28 देशों के 32,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया गया था।

सर्वेक्षण के 74 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने नवाचारों और नई प्रौद्योगिकियों सम्बंधित सही जानकारी प्रदान करने के लिए वैज्ञानिकों पर विश्वास जताया है। इतने ही प्रतिशत लोगों ने चाहा है कि वैज्ञानिक इन नवाचारों को पेश करने में स्वयं आगे आएं। इसके विपरीत, सही जानकारी देने के संदर्भ में लोगों ने पत्रकारों और सरकारी नेताओं पर क्रमश: 47 प्रतिशत और 45 प्रतिशत ही भरोसा जताया है।

हालांकि, अध्ययन में 53 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने देश में विज्ञान के राजनीतिकरण की बात कही है, जो राजनेताओं के हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है। विश्व स्तर पर 59 प्रतिशत का मानना है कि सरकारें और अनुसंधान वित्तपोषक एजेंसियां वैज्ञानिक प्रयासों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। ये आंकड़े भारत में 70 प्रतिशत और चीन में 75 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। इसके अतिरिक्त, लगभग 60 प्रतिशत लोगों का मानना है कि सरकारों में उभरते नवाचारों के नियमन की क्षमता का अभाव है।

यह भरोसा वैज्ञानिकों के लिए एक अवसर के साथ चुनौती भी है। इस विश्वास के दम पर वैज्ञानिक प्रयास कर सकते हैं कि सरकारी नीतियां प्रमाण-आधारित बनें। इसके साथ ही वे सरकारी हस्तक्षेप और नियामक शक्तियों पर लोगों के अविश्वास सम्बंधी चिंताओं को भी संबोधित कर सकते हैं। सवाल यह उठता है कि सार्वजनिक हितों को ध्यान में रखते हुए, नीतियों की दिशा सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक सरकारों के साथ कैसे सहयोग कर सकते हैं?

कई विशेषज्ञ इस रिपोर्ट को काफी महत्वपूर्ण बताते हैं जो कोविड-19 महामारी और कृत्रिम बुद्धि के उदय जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए विज्ञान और नवाचार पर वैश्विक फोकस के साथ मेल खाती है। हालिया समय में दुनिया भर की सरकारें क्लस्टरिंग विश्वविद्यालयों से लेकर उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने और नवीन परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता की सुविधा प्रदान करने की विभिन्न रणनीतियों की तलाश कर रही हैं। एक हालिया प्रस्ताव में चिकित्सा विज्ञान में एआई की बड़ी भूमिका की वकालत की गई है लेकिन नियामक सुधारों को भी आवश्यक बताया है।

गौरतलब है कि इस पूरे मामले में सामाजिक विज्ञान एक ऐसे उपकरण के रूप में उभरा है जिसका उपयोग नहीं किया गया है। यूके एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज़ की एक रिपोर्ट में डैटा वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, नैतिकताविदों, कानूनी विद्वानों और समाजशास्त्रियों की विशेषज्ञता की चर्चा करते हुए नीति निर्माण में सामाजिक विज्ञान को जोड़ने पर ज़ोर दिया गया है। इन क्षेत्रों के पेशेवर लोग नई प्रौद्योगिकियों, आर्थिक मॉडलों और नियामक ढांचे की ताकत और सीमाओं का आकलन कर सकते हैं और उनमें निहित अनिश्चितताओं को भी संबोधित कर सकते हैं।

यदि लोगों को लगता है कि विज्ञान का राजनीतिकरण हो चुका है और सरकारें बहुत अधिक हस्तक्षेप कर रही हैं, तो  यह सिर्फ विज्ञान के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए भी समस्या है क्योंकि इससे लोगों के इस विश्वास में कमी आ सकती है कि सरकारें इन नवाचारों के लाभ उन तक पहुंचाएंगी और संभावित नुकसानों से बचाएंगी। ऐसे में वैज्ञानिकों को नवाचार के बारे में विश्वसनीय स्रोत बनने के अवसर का लाभ उठाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-00238-x/d41586-024-00238-x_26676258.jpg?as=webp

सूर्य के अवसान के बाद भी कुछ ग्रह साबुत रहेंगे

नासा की जेडब्ल्यूएसटी अंतरिक्ष दूरबीन ने एक असाधारण खोज की है जिससे सौर मंडल की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। जैसा कि हम जानते हैं, सूर्य लगभग 5 अरब वर्षों में एक लाल दानव में बदल जाएगा और अपने नज़दीकी ग्रहों को निगल जाएगा। लेकिन इस नई खोज से पता चला है कि इस प्रक्रिया के दौरान दूर स्थित ग्रह या तो सौर मंडल में अंदर की ओर खिंच जाएंगे या बाहर फेंक दिए जाएंगे लेकिन वे साबुत बना रह सकते हैं।

पहली बार, खगोलविदों ने कुछ श्वेत वामन तारों के आसपास सौर मंडल जैसी कक्षाओं में ग्रहों की प्रत्यक्ष छवि ली है। ये श्वेत वामन तब अस्तित्व में आते हैं जब सूर्य जैसे तारे पहले लाल दानव के रूप में फैलते हैं और फिर सिकुड़कर अंतत: पृथ्वी की साइज़ के रह जाते हैं।

वैसे तो ऐसे साबुत ग्रहों के संकेत पहले भी देखे गए हैं। ये ग्रह बाहरी सौर मंडल के बड़े ग्रहों से जैसे होते हैं जो इतने बड़े होते हैं कि अपने मूल तारों के विस्फोट को सहन कर पाएं।

श्वेत वामन सूर्य के प्रकाश की केवल 1 प्रतिशत रोशनी उत्सर्जित करते हैं और इस वजह से ये अवलोकन के लिए बढ़िया उम्मीदवार हैं। जेडब्ल्यूएसटी दूरबीन का उपयोग करते हुए, खगोलविदों ने नज़दीक के (लगभग 75 प्रकाश वर्ष दूर के) चार श्वेत वामनों का अध्ययन किया, जिसमें दो पिंड ऐसे दिखे जो ग्रह जैसे लगते हैं। इनमें एक बृहस्पति से 1.3 गुना वज़नी है और शनि की तरह परिक्रमा करता है जबकि दूसरा, बृहस्पति से 2.5 गुना वज़नी है और नेपच्यून की तुलना में थोड़ी बड़ी कक्षा में परिक्रमा करता दिखा।

स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट की खगोलशास्त्री सूज़न मुलाली का विचार है कि यह एक वास्तविक संकेत है कि बृहस्पति और शनि जैसे ग्रह अपने सूर्य के श्वेत वामन में परिवर्तित होने के बाद भी अपने वजूद को बनाए रखे हैं। हालांकि, शोधकर्ता इस बारे में और अधिक अवलोकन पर ज़ोर देते हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ये ग्रह ही हैं, पृष्ठभूमि की कोई अन्य आकाशगंगा नहीं। अलबत्ता शोधकर्ताओं के अनुसार गलत व्याख्या की संभावना 0.03 प्रतिशत ही है।

इस खोज के धरातल पर वैज्ञानिक ऐसे ग्रहों का एक समूह बनाने में सक्षम हो जाएंगे जो हमारे सौर मंडल के शनि और बृहस्पति जैसे दिखते हैं। चूंकि ऐसे ग्रह अपने श्वेत वामन तारों की तुलना में काफी चमकीले होते हैं, इसलिए उनके वायुमंडल का अध्ययन करना तथा सौर मंडल के विशाल ग्रहों से उनकी समानता या अंतर को समझना अपेक्षाकृत आसान होना चाहिए।

यह खोज न केवल मरणासन्न तारों के आसपास ग्रहों के लचीलेपन की एक झलक पेश करती है, बल्कि ग्रह प्रणालियों के बारे में हमारी समझ का विस्तार करने के लिए एक समृद्ध अवसर भी प्रदान करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zc8ezvj/full/_20240131_on_dwarf_white_star-1707750293477.jpg

न्यूरालिंक चिप: संभावनाएं और दुरुपयोग की आशंकाएं – प्रदीप

दुनिया के सबसे अमीर कारोबारियों में शुमार एलन मस्क एक लंबे अर्से से मनुष्य और मशीनों के बीच तालमेल बढ़ाने तथा मानवीय क्षमताओं को मौलिक रूप से बढ़ाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उपयोग की वकालत करते रहे हैं। हाल ही में मस्क ने घोषणा की है कि उनकी कंपनी न्यूरालिंक ने पहली बार अपने ब्रेन चिप या ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को एक इंसान के दिमाग में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया है और वह तेज़ी से ठीक हो रहा है।

मस्क ने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि “प्रारंभिक नतीजे उत्साहवर्धक हैं और ये न्यूरॉन स्पाइक का पता लगाने की उम्मीद जगाते दिखते हैं।” दरअसल न्यूरॉन स्पाइक, वे विद्युत संकेत होते हैं, जिससे तंत्रिकाएं आपस में संपर्क स्थापित करती हैं। मस्क ने इसके बाद लिखा कि न्यूरालिंक के पहले उत्पाद को ‘टेलीपैथी’ के नाम से जाना जाएगा। कंपनी का दावा है कि ब्रेन चिप इंप्लांट का उद्देश्य दृष्टिहीनता, बधिरता, टिनिटस, मस्तिष्क आघात या जन्मजात तंत्रिका विकारों से ग्रस्त रोगियों के जीवन को आसान बनाना है।

मस्क के मुताबिक, ब्रेन चिप इम्प्लांट केवल सोचने मात्र से, आपके मोबाइल या कंप्यूटर और उनके माध्यम से लगभग किसी भी डिवाइस का नियंत्रण संभव बना देता है। इसके आरंभिक उपयोगकर्ता वे दिव्यांग होंगे, जिनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया है। कल्पना करें, अगर स्टीफन हॉाकिंग होते तो इसकी मदद से वे एक स्पीड टायपिस्ट या नीलामीकर्ता के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से संवाद कर पाते।

गौरतलब है कि अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्‍ट्रेशन (एफडीए) ने मई 2023 में न्यूरालिंक को मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी थी। इसके बाद सितंबर में कंपनी ने घोषणा की थी कि वह अपने शुरुआती परीक्षण के लिए उपयुक्त लोगों की तलाश कर रही है। इसलिए मनुष्य में चिप इंप्लांट की हालिया घोषणा ने तंत्रिका विज्ञानियों को आश्चर्यचकित नहीं किया, उनके लिए यह खबर काफी हद तक अपेक्षित ही थी।

यह कल्पना ही बड़ी रोमांचक लगती है कि हमारे दिमाग में एक चिप इंप्लांट कर दिया जाए तथा हम हाथ-पैर हिलाए बिना बस पड़े रहें और हमारे सोचने भर से ही मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी जैसे उपकरण काम करने लगें। इंसानी दिमाग में चिप इंप्लांट की खबर के साथ यह कल्पना अब हकीकत का रूप लेती नज़र आ रही है। अगर न्यूरालिंक का यह प्रयोग पूरी तरह सफल हुआ तो चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी।

2016 में मस्क ने कुछ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के साथ मिलकर न्यूरालिंक कंपनी की स्थापना की थी। इस कंपनी का उद्देश्य ऐसी ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस तकनीकों का अविष्कार करना है, जिससे इंसान अपने दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ सके। लंबे समय से वैज्ञानिकों की यह मान्यता रही है कि इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ने से मस्तिष्क के जटिल रहस्यों को समझा जा सकता है और शारीरिक व मानसिक रोगों से पीड़ित मरीजों को नया जीवन मिल सकता है। इसका सबसे अधिक लाभ उन लोगों को मिल सकता है, जो किसी वजह से अपने हाथ-पांव नहीं चला सकते और अपने मन में चल रही बातों को व्यक्त नहीं कर पाते। इससे मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी आदि को चलाने या नियंत्रित करने के लिए हाथ-पांव हिलाने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी और मूक-बधिर भी मशीनों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकेंगे तथा बाहरी दुनिया से संवाद स्थापित कर सकेंगे।

इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ने की बात साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगती है। उदाहरण के लिए, 2018 में आई हॉलीवुड फिल्म ‘अपग्रेड’ को ही लीजिए। इसका नायक ग्रे एक हमले के दौरान लकवाग्रस्त हो जाता है। एक अरबपति, उसके शरीर में स्टेम नामक एक ऐसी कंप्यूटर चिप इंप्लांट करवाता है जिससे वह वापस चलने-फिरने लगता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भले ही आज हमें शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के चलने-फिरने और दृष्टिहीनों के दिखाई देने जैसी बातें साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगें, लेकिन मौजूदा तकनीकी प्रगति के मद्देनजर निकट भविष्य में यह पूरी तरह संभव होगा।

दिसंबर 2022 में एक वेब शो के दौरान मस्क ने न्यूरालिंक की सफलताओं और उपलब्धियों को सार्वजनिक करते हुए कहा था कि कंपनी द्वारा निर्मित ब्रेन चिप को मानव परीक्षण के बाद वे स्वयं डेमो के तौर पर अपने दिमाग में इंप्लांट करवाएंगे। इस वेब शो में एक वीडियो भी प्रदर्शित किया गया था, जिसमें एक बंदर अपने हाथों का इस्तेमाल किए बिना अपने दिमाग की मदद से टाइपिंग करता दिखाई दे रहा था। इस वीडियो को रिकॉर्ड करने से छह हफ्ते पहले बंदर के दिमाग में एक ब्रेन चिप इंप्लांट किया गया था। यह चिप कंप्यूटर या स्मार्टफोन और दिमाग के बीच एक इंटरफेस का काम कर रहा था। इससे भविष्य में हम सोचने भर से ही मशीनों को संचालित कर सकेंगे।

मौजूदा समय में ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस जैसी तकनीकों का मुख्य उद्देश्य चिकित्सा ही है। मसलन लकवाग्रस्त लोगों के लिए ऐसी सुविधा उपलब्ध करना जिससे वे सोचने भर से अपने ज़रूरी काम कर सकें। इसके समर्थक कहते हैं कि याददाश्त घटने, बहरापन, दृष्टिहीनता, अवसाद, पार्किंसन, मिर्गी और नींद न आने जैसी परेशानियां भी इस तकनीक से दूर की जा सकती हैं। न्यूरालिंक अभी जिस ब्रेन चिप का मानव परीक्षण कर रही है, उसे अगले 5-6 वर्षों में व्यावसायिक उपयोग में लाने का लक्ष्य है।

मस्क के मुताबिक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर मनुष्य की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस बहुत ज़रूरी है और न्यूरालिंक इसको विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उनके शब्दों में, “लंबी अवधि में इस तकनीक का उपयोग एआई से हमारे अस्तित्व सम्बंधी खतरे को दूर करने में किया जाएगा।” संभवत: यहाँ मस्क हालीवुड फिल्म ‘दी मैट्रिक्स’ की ओर संकेत कर रहे थे, जिसमें एआई से लैस कंप्यूटर प्रोग्राम पूरी दुनिया पर कब्ज़ा कर लेता है और इंसान अपने दिमाग में ऐसा ही कोई यंत्र इंप्लांट करके दिमागी स्तर पर उस कंप्यूटर प्रोग्राम से लड़ते हैं और जीत हासिल करते हैं।

ऐसा हो सकता है कि आगे चलकर इंसान, ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस की सहायता से स्वयं को अपग्रेड कर सकें, लेकिन यह भी हो सकता है कि इस टेक्नॉलॉजी के चलते इंसान किसी बड़े खतरे में पड़ जाएं। क्या होगा अगर ब्लूटूथ टेक्नॉलॉजी से संचालित किसी के ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को हैक कर लिया जाए? ताकतवर लोग इसका गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं। बड़ा सवाल यह होगा कि इंसानी दिमाग का कंट्रोल कंप्यूटर पर होगा या फिर कंप्यूटर ही दिमाग को चलाएगा? अगर कंप्यूटर ही दिमाग को नियंत्रित करेगा तो 21वीं सदी में वैश्वीकरण और मशीनीकरण के विस्तार के साथ शताब्दियों से चली आ रही मनुष्य की बल और बुद्धि की श्रेष्ठता के खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगेगा। उपरोक्त फिल्म ‘अपग्रेड’ के अंत में भी यही होता है। ब्रेन चिप ग्रे को अपने वश में कर लेता है और उसे अपने मनमुताबिक कंट्रोल करता है।

डर यह भी है कि इससे किसी इंसान की याददाश्त का कोई खास हिस्सा मिटाकर या जोड़कर उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा सबसे बड़ा डर प्रायवेसी (निजता) का है, क्योंकि यह किसी के दिमाग की सभी जानकारियां, समस्त अनुभव, यहां तक कि सारी निजी बातें इकट्ठी करके एक चिप में डाल देने जैसा है। बहरहाल, कोई चिप दिमाग की मदद के नाम पर देह और दिमाग दोनों को नियंत्रित करे, इस बात को लेकर वैज्ञानिक और दर्शनशास्त्री दोनों ही चिंतित हैं। कहना न होगा कि अगर हम इसके दुरुपयोग की आशंकाओं और चुनौतियों को दूर या कम कर सके तो निश्चित रूप से भविष्य में न्यूरालिंक चिप दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.majalla.com/styles/1200xauto/public/2024-02/167682.jpeg?itok=8XQCJvdx

आर्कटिक में प्रदूषण से ध्रुवीय भालू पर संकट – सुदर्शन सोलंकी

ध्रुवीय भालू (उर्सूस मैरीटिमस) आर्कटिक महासागर व उसके आसपास के क्षेत्रों में पाया जाता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा मांसभक्षी और सबसे बड़ा भालू भी है। 14 मई 2008 को, अमेरिकी गृह विभाग ने ध्रुवीय भालू को एक जोखिमग्रस्त प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया था।

नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन ध्रुवीय भालुओं को भूखा मार रहा है, जिसके कारण इनकी संख्या विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ तेज़ी से पिघल रही है। इस वजह से यहां के भालुओं के स्वभाव में परिवर्तन हो रहा है। एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भालुओं ने रिंग्ड सीलों (पूसा हिस्पिडा) को खाना कम कर दिया है। दूसरी ओर, रिंग्ड सील के बच्चों को पैदा होने से लेकर बड़े होने तक बर्फ की आवश्यकता होती है, किंतु पिघलती बर्फ की वजह से नए बच्चों के जीवित रहने की दर भी कम हो गई है।

जलवायु परिवर्तन के कारण ध्रुवीय भालुओं के आवास नष्ट होने एवं उन्हें पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण ज़िंदा रहने के लिए वे अपने ही शिशुओं को मारकर खाने को मजबूर होने लगे हैं। पोलर बेयर इंटरनेशनल के वैज्ञानिक स्टीवन एमस्ट्रुप के अनुसार वर्ष 2100 तक कनाडा के आर्कटिक द्वीपसमूह में क्वीन एलिज़ाबेथ द्वीप को छोड़कर, अन्य जगहों पर ध्रुवीय भालू का जन्म लेना असंभव-सा हो जाएगा।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले रसायन आर्कटिक तक पहुंच रहे हैं जो इन दुर्लभ भालुओं का जीना दूभर कर सकते हैं।

लैंकेस्टर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा की गई एक रिसर्च में पता चला है कि आर्कटिक के बर्फ में पॉली और परफ्लोरो अल्काइल यौगिक मिले हैं, जो पर्यावरण में विघटित नहीं होते और ऐसे ही बने रहते हैं जो इंसानों व जानवरों के लिए खतरनाक होते हैं। ये खतरनाक रसायन आर्कटिक के भालुओं के लिए भी काफी नुकसानदायक हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इनमें सबसे ज़्यादा मात्रा सौंदर्य प्रसाधनों में उपयोग किए जाने वाले रसायनों की है। रिसर्च में पता चला है कि खतरनाक सिंथेटिक पदार्थों को ऐसे ही फेंक दिया जाता है जो युनाइटेड किंगडम और आसपास के देशों के द्वारा आर्कटिक तक पहुंच जाते हैं। कुछ रसायन हवा के माध्यम से आर्कटिक तक पहुंच रहे हैं और यहां बर्फ से चिपक कर आर्कटिक को ज़हरीला बना रहे हैं।

ओशियनवाइज़ संरक्षण समूह और कनाडा के मत्स्य और महासागर विभाग द्वारा किए गए नए अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने आर्कटिक से समुद्री जल का नमूना लिया जिसमें 92 प्रतिशत माइक्रोप्लास्टिक पाया गया। ओशियनवाइज़ और ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ता पीटर रॉस के अनुसार इसमें लगभग 73 प्रतिशत पॉलिएस्टर था, जो सिंथेटिक वस्त्रों से निकलता है। इससे स्पष्ट है कि यह यूरोप और उत्तरी अमेरिका के घरों के कपड़ों की धोवन के माध्यम से आर्कटिक तक पहुंच रहा है।

जब बर्फ पिघलता है तो उसमें चिपके ज़हरीले रसायन और माइक्रोप्लास्टिक पानी में चले जाते हैं, जिसे भालू पी लेते हैं। शरीर में पहुंचकर ये रसायन ध्रुवीय भालुओं के हार्मोन तंत्र को खराब कर उनकी मौत का कारण बन रहे हैं।

अर्थात हमारे द्वारा उपयोग किया जा रहा प्लास्टिक व अन्य रसायन जल में बहते हुए अथवा वायु के साथ आर्कटिक पहुंचकर ध्रुवीय भालुओं के स्वभाव एवं रहन-सहन को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि वैज्ञानिक आर्कटिक तक पहुंचने वाले रसायनों को वहां तक पहुंचने से रोकने के उपाय खोजें। साथ ही इनका उपयोग नियंत्रित तरीके से किया जाए ताकि ध्रुवीय भालू को विलुप्त होने से बचाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.ctfassets.net/i04syw39vv9p/7b92miNxMihy1JWy6eo49l/ff49382636ec5db563675fd673627709/polar-bear-arctic-food-chain.jpg

हर वर्ष नया फोन पर्यावरण के अनुकूल नहीं है – सोमेश केलकर

क बार फिर ऐप्पल कंपनी के सीईओ टिम कुक ने हरे-भरे ऐप्पल पार्क में कंपनी के नवीनतम, सबसे तेज़ और सबसे सक्षम आईफोन (इस वर्ष आईफोन 15 और आईफोन 15-प्रो) को गर्व से प्रस्तुत किया। पिछले वर्ष सितंबर के इस ऐप्पल इवेंट के बाद दुनियाभर में हलचल मच गई थी और पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष प्री-ऑर्डर में 12% की वृद्धि देखी गई; अधिकांश प्री-ऑर्डर अमेरिका और भारत से रहे।

वास्तव में ऐप्पल कई उदाहरणों में से एक है कि कैसे आम लोग नासमझ उपभोक्तावाद के झांसे में आ जाते हैं और तकनीकी कंपनियां नए-नए आकर्षक उत्पादों के प्रति हमारी अतार्किक लालसा का फायदा उठाती हैं। निर्माता हर वर्ष स्मार्टफोन, लैपटॉप, कैमरे, इलेक्ट्रिक वाहन, टैबलेट जैसे अपने उत्पादों को रिफ्रेश करते हैं। अलबत्ता सच तो यह है कि किसी को भी हर साल एक नए स्मार्टफोन की ज़रूरत नहीं होती, नई इलेक्ट्रिक कार की तो बात ही छोड़िए।

एक दिलचस्प बात तो यह है कि ये इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, कार्बन तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, केवल सतही तौर पर ही इस दिशा में काम करते हैं। कुल मिलाकर, सच्चाई उतनी हरी-भरी नहीं है जितनी ऐप्पल पार्क के बगीचों में नज़र आती है जिस पर टिम कुक चहलकदमी करते हैं।

पर्यावरण अनुकूलता का सच

आज हमारे अधिकांश उपकरण जैसे स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप, कैमरा, हेडफोन, स्मार्टवॉच या फिर इलेक्ट्रिक वाहन, सभी में धातुओं, मुख्य रूप से तांबा, कोबाल्ट, कैडमियम, पारा, सीसा इत्यादि का उपयोग होता है। ये अत्यंत विषैले पदार्थ हैं जो खनन करने वालों के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी हानिकारक हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरसी) में देखा जा सकता है। हाल ही में डीआरसी में मानव तस्करी का मुद्दा चर्चा में रहा है जहां बच्चों से कोबाल्ट खदानों में जबरन काम करवाया जा रहा है। कोबाल्ट एक अत्यधिक ज़हरीला पदार्थ है जो बच्चों में कार्डियोमायोपैथी (इसमें हृदय का आकार बड़ा और लुंज-पुंज हो जाता है और अपनी संरचना को बनाए रखने और रक्त पंप करने में असमर्थ हो जाता है) के अलावा खून गाढ़ा करता है तथा बहरापन और अंधेपन जैसी अन्य समस्याएं पैदा करता है। कई बार मौत भी हो सकती है। कमज़ोर सुरक्षा नियमों के कारण ये बच्चे सुरंगों में खनन करते हुए कोबाल्ट विषाक्तता का शिकार हो जाते हैं। गैस मास्क या दस्ताने जैसे सुरक्षा उपकरणों के अभाव में कोबाल्ट त्वचा या श्वसन तंत्र के माध्यम से रक्तप्रवाह में आसानी से प्रवेश कर जाता है। इन सुरंगों के धंसने का खतरा भी होता है।

कोबाल्ट और कॉपर का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ-साथ अर्धचालकों के सर्किट निर्माण में किया जाता है, जिन्हें मोबाइल फोन और टैबलेट में सिस्टम ऑन-ए-चिप (एसओसी) और कंप्यूटर में प्रोसेसर कहा जाता है। सीसा, पारा और कैडमियम बैटरी में उपयोग की जाने वाली धातुएं हैं। कैडमियम का उपयोग विशेष रूप से रोज़मर्रा के इलेक्ट्रॉनिक्स में लगने वाली लीथियम-आयन बैटरियों को स्थिरता प्रदान करने के लिए किया जाता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, खनन उद्योग ने डीआरसी की सेना के साथ मिलकर संसाधन-समृद्ध भूमि का उपयोग करने के उद्देश्य से पूरे के पूरे गांवों को ज़मींदोज़ करके हज़ारों नागरिकों को विस्थापित कर दिया है।

एक अन्य रिपोर्ट में फ्रांस की दो सरकारी एजेंसियों ने यह गणना की है कि एक फोन के निर्माण के लिए कितने कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इस रिपोर्ट के अनुसार सेकंड हैंड फोन खरीदने या नया फोन खरीदने को टालकर हम कोबाल्ट और तांबे के खनन की आवश्यकता को 81.64 किलोग्राम तक कम कर सकते हैं। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अगर अमेरिका के सभी लोग एक और साल के लिए अपने पुराने स्मार्टफोन का उपयोग करते रहें, तो हम लगभग 18.14 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच जाएंगे। इसे भारतीय संदर्भ में देखा जाए, जिसकी जनसंख्या अमेरिका की तुलना में 4.2 गुना है, तो हम 76.2 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच सकते हैं।

संख्याएं चौंका देने वाली लगती हैं लेकिन दुर्भाग्य से यही सच है। और तो और, ये संख्याएं बढ़ती रहेंगी क्योंकि दुनियाभर की सरकारें इलेक्ट्रॉनिक वाहनों और अन्य तथाकथित ‘पर्यावरण-अनुकूल’ जीवन समाधानों को प्रोत्साहित कर रही हैं। ये उद्योग विषाक्त पदार्थों का खनन करने वाले बच्चों के कंधों पर खड़े हैं, उनकी क्षमताओं का शोषण कर रहे हैं और उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हाल के वर्षों में तांबे के खनन में 43% और कोबाल्ट के खनन में 30% की वृद्धि हुई है।

यह सच है कि इलेक्ट्रिक वाहन के उपयोग से प्रत्यक्ष उत्सर्जन कम होता है, लेकिन इससे यह सवाल भी उठता है कि पर्यावरण की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी क्या सिर्फ आम जनता पर है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो एक व्यक्ति इतना कम उत्सर्जन करता है कि भारी उद्योग में किसी एक कंपनी के वार्षिक उत्सर्जन की बराबरी करने के लिए उसे कई जीवन लगेंगे। आइए अब हमारी पसंदीदा टेक कंपनियों की कुछ गुप्त रणनीतियों पर एक नज़र डालते हैं जो हमें उन नई और चमचमाती चीज़ों की ओर आकर्षित करती हैं जिनकी वास्तव में हमें आवश्यकता ही नहीं है।

टेक कंपनियों की तिकड़में

आम तौर पर टेक कंपनियां ऐसे उपकरण बनाती हैं जो बहुत लम्बे समय तक कार्य कर सकते हैं। स्मार्टफोन, टैबलेट या कंप्यूटर के डिस्प्ले तथा एंटीना और अन्य सर्किटरी दशकों तक काफी अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम होते हैं। हर हार्डवेयर सॉफ्टवेयर पर चलता है जो अंततः उपयोगकर्ता के अनुभव को निर्धारित करता है। इसका मतलब यह है कि सॉफ्टवेयर को ऑनलाइन अपडेट करके उपयोगकर्ता द्वारा संचालन के तरीके को बदला जा सकता है। हम यह भी जानते हैं कि टेक कंपनियों का मुख्य उद्देश्य लंबे समय तक चलने वाले उपकरण बनाना नहीं है, बल्कि उपकरण बेचना है और यदि उपभोक्ता नए-नए फोन न खरीदें तो कारोबर में पैसों का प्रवाह नहीं हो सकता है। इसका मतलब है कि फोन बेचते रहना उनकी ज़रूरत है और टिकाऊ उपकरण बनाना टेक कंपनियों के इस प्राथमिक उद्देश्य के विरुद्ध है।

नियोजित रूप से चीज़ों को अनुपयोगी बना देना भी टेक जगत की एक प्रसिद्ध तिकड़म है। हर साल सैमसंग, श्याओमी और ऐप्पल जैसे प्रमुख टेक निर्माता ग्राहकों को अपने उत्पादों के प्रति लुभाने के लिए नए-नए लैपटॉप, स्मार्टफोन और घड़ियां जारी करते हैं, ताकि ग्राहक जीवन भर ऐसे नए-नए उपकरण खरीदते रहें जिनकी उनको आवश्यकता ही नहीं है। अभी हाल तक प्रमुख एंड्रॉइड फोन और टैबलेट निर्माता अपने उपकरणों के सॉफ्टवेयर और सुरक्षा संस्करणों को 2 साल के लिए अपडेट करते थे। यह एक ऐसा वादा था जो शायद ही पूरा होगा। ऐप्पल कंपनी 5-6 साल के वादे के साथ अपडेट के मामले में सबसे आगे थी, जो उन लोगों के लिए अच्छी खबर थी जो अपने फोन को लंबे समय तक अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है कि प्रत्येक अपडेट में पिछले की तुलना में अधिक कम्प्यूटेशनल संसाधनों की आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप फोन धीमा हो जाता है और उपभोक्ताओं को 6 साल तक अपडेट चक्र से पहले ही नया फोन खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

ऐप्पल जैसी कंपनियां फोन के विभिन्न पार्ट्स को क्रम संख्या देने और उन्हें लॉजिक बोर्ड में जोड़ने के लिए भी बदनाम हैं ताकि दूसरी कंपनी के सस्ते पार्ट्स उनके हार्डवेयर के साथ काम न करें। यह बैटरी या फिंगरप्रिंट या भुगतान के दौरान चेहरे की पहचान करने वाले सेंसर जैसे पार्ट्स के लिए तो समझ में आता है जो हिफाज़त या सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक हैं। लेकिन एक चुंबक को क्रम संख्या देना एक मरम्मत-विरोधी रणनीति है। यह लैपटॉप को बस इतना बताता है कि उसका ढक्कन कब नीचे है और उसकी स्क्रीन बंद होनी चाहिए। वैसे कैमरा, लैपटॉप और स्मार्टफोन बनाने वाली प्रमुख कंपनियां कार्बन-तटस्थ होने का दावा तो करती हैं लेकिन इन कपटी रणनीतियों से ई-कचरे में वृद्धि होती है।

यह मामला टेस्ला जैसे विद्युत वाहन निर्माताओं और जॉन डीरे जैसे इलेक्ट्रिक कृषि उपकरण निर्माताओं के साथ भी है। फरवरी 2023 में, अमेरिकी न्याय विभाग ने इलिनॉय संघीय न्यायालय से अपने उत्पादों की मरम्मत पर एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश के लिए जॉन डीरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) मुकदमे को खारिज न करने का निर्देश दिया था। 2020 में जॉन डीरे पर पहली बार अपने ट्रैक्टरों की मरम्मत के लिए बाज़ार पर एकाधिकार स्थापित करने और उसे नियंत्रित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया गया था। कंपनी ने उत्पादों को इस प्रकार बनाया था कि उनकी मरम्मत के लिए एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता अनिवार्य रहे जो केवल कंपनी के पास था। टेस्ला ने कारों में भी इन-बिल्ट सॉफ्टवेयर का उपयोग किया था जिससे यह पता लग जाता है कि थर्ड पार्टी या आफ्टरमार्केट रिप्लेसमेंट पार्ट्स का इस्तेमाल किया गया है। ऐसा करने वाले ग्राहकों को अमेरिका भर में फैले टेस्ला के फास्ट चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर से ब्लैकलिस्ट करके दंडित किया जाता है जिसकी काफी आलोचना भी हुई है।

इस मामले में यह समझना आवश्यक है कि निर्माता कार्बन-तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल होने के बारे में बड़े-बड़े दावे तो करते हैं लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कपटपूर्ण और भयावह है। टेक कंपनियों की रुचि मुनाफा कमाने और अपने निवेशकों को खुश रखने के लिए हर साल नए उत्पाद लॉन्च करके निरंतर पैसा कमाने की है। उन्हें पर्यावरण-अनुकूल होने की चिंता नहीं है, बल्कि उनके लिए यह सरकार को खुश रखने का एक दिखावा मात्र है जबकि इन उपकरणों के लिए आवश्यक कच्चे माल से समृद्ध देशों में बच्चों का सुनियोजित शोषण एक अलग कहानी बताते हैं। इन सामग्रियों की विषाक्त प्रकृति के कारण बच्चों का जीवन छोटा हो जाता है। कंपनियां अपना खरबों डॉलर का साम्राज्य बाल मज़दूरों की कब्रों पर बना रही हैं।

निष्कर्ष

तो इन कंपनियों के साथ संवाद करते समय उपभोक्ता के रूप में हम किन बातों का ध्यान रखें? हमें यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि विज्ञापन का हमारे अवचेतन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और ये हमें ऐसी चीज़ें खरीदने के लिए मजबूर करते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है। ऐसा विभिन्न कारणों से हो सकता है – कभी-कभी हम इन वस्तुओं को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ते हैं, हो सकता है कोई व्यक्ति नए आईफोन को अपने दोस्तों के बीच प्रतिष्ठा में वृद्धि के रूप में देखता हो। कोई हर साल नया उत्पाद इसलिए भी खरीद सकता है क्योंकि मार्केटिंग हमें यह विश्वास दिलाता है कि हमें हर साल नए उत्पादों में होने वाले मामूली सुधारों की आवश्यकता है। यह सच्चाई से कोसों दूर है। अगर हम केवल कॉल करते हैं, सोशल मीडिया ब्राउज़ करते हैं और ईमेल और टेक्स्ट भेजते और प्राप्त करते हैं तो हमें 12% अधिक फुर्तीले फोन की आवश्यकता कदापि नहीं है। यदि सड़कों पर 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गाड़ी चला ही नहीं सकते, तो ऐसी कार की क्या ज़रूरत है जो पिछले साल के मॉडल के 4 सेकंड की तुलना में 3.5 सेकंड में 0-100 की रफ्तार तक पहुंच जाए। यहां मुद्दा यह है कि हम अक्सर, अतार्किक कारणों से ऐसी चीज़ें खरीदते हैं जिनकी हमें आवश्यकता नहीं होती और ऐसा करते हुए इन उत्पादों की मांग पैदा करके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।

उत्पाद खरीदते समय हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इन उत्पादों के पार्ट्स को बदलना या मरम्मत करना कितना कठिन या महंगा होने वाला है। मरम्मत करने में कठिन उत्पाद उपभोक्ता को एक नया उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करता है जिससे अर्थव्यवस्था में इन उत्पादों की मांग पैदा होती है। नतीजतन अंततः पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है तथा मानव तस्करी और बाल मज़दूरी के रूप में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।

ऐसे मामलों में जब भी बड़ी कंपनियों की प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) प्रथाओं की बात आती है तो जागरूकता की सख्त ज़रूरत होती है। मानव तस्करी और बाल श्रम जैसी संदिग्ध नैतिक प्रथाओं तथा प्रतिस्पर्धा-विरोधी नीतियों में लिप्त कंपनियों से उपभोक्ताओं को दूर रहना चाहिए और उनका बहिष्कार करना चाहिए। इन बहिष्कारों का कंपनियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि मुनाफे के लिए वे अंतत: उपभोक्ताओं पर ही तो निर्भर हैं। दिक्कत यह है कि उपभोक्ता संगठित नहीं होते हैं। दरअसल बाज़ार उपभोक्ताओं को उनके पसंद की विलासिता प्रदान करता है, ऐसे में उपभोक्ता की यह ज़िम्मेदारी भी है कि वह बाज़ार को सतत और नैतिक विनिर्माण विधियों की ओर ले जाने के लिए अपनी मांग की शक्ति का उपयोग करे। अब देखने वाली बात यह है कि हम अपनी बेतुकी मांग से पर्यावरण व मानवाधिकारों को होने वाले नुकसान के प्रति जागरुक होते हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.independent.co.uk/2023/02/08/14/Siddharth%20Kara-1.jpg

शिशु की ‘आंखों’ से सीखी भाषा

हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए ‘crib (पालना)’ और ‘ball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।

शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढ़ने, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।

फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर सम्बंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से सम्बंधित हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोड़ियों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।

मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीज़ों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीज़ों को दर्शा सकता है।

हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।

इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें  छूने-पकड़ने, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-00288-1/d41586-024-00288-1_26685816.jpg?as=webp

अलग-अलग समझ और जोखिम का आकलन

साल 2017 में तंत्रिका विज्ञानी और युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लायमेट एक्शन युनिट के निदेशक क्रिस डी मेयर ने वैज्ञानिकों, वित्त पेशेवरों और नीति निर्माताओं के साथ एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया था। उन्होंने इन क्षेत्रों से आए लोगों को समूह में बांटा – प्रत्येक समूह में छह व्यक्ति। फिर उन्हें जोखिम और अनिश्चितिता से सम्बंधित उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक अनुभवों के आधार पर कुछ प्रश्न और गतिविधियां करने को दीं। पाया गया कि लोग इस बात को लेकर आपस में एकमत और सहमत नहीं हो सके थे कि ‘जोखिम और अनिश्चितता’ क्या है। और तो और, इतने छोटे समूह में भी लोगों के परस्पर विरोधी और कट्टर मत थे।

इस नतीजे से डी मेयर को यह बात तुरंत समझ में आई कि क्यों जलवायु सम्मेलनों, समितियों वगैरह में सहभागी पेशेवर अक्सर एक-दूसरे की कही बातों को गलत समझते हैं। ऐसा इसलिए है कि बुनियादी शब्दों पर भी लोगों की अवधारणाएं या समझ बहुत भिन्न होती हैं। इसलिए कई बार हम किसी शब्द के माध्यम से जो कहना या समझाना चाहते हैं, ज़रूरी नहीं है कि सामने वाले को वही समझ आ रहा हो। जैसे शब्द ‘विकास’ के बारे में लोगों की समझ भिन्न हो सकती है, किसी के लिए विकास का मतलब अच्छी सड़कें, जगमगाता शहर, बुलेट ट्रेन हो सकती है, वहीं किसी और के लिए लिए विकास का मतलब स्वच्छ पेयजल, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा हो सकती है। और समझ में इसी भिन्नता के चलते जलवायु वैज्ञानिक अपने संदेश को अन्य लोगों तक पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने में इतनी जद्दोजहद का सामना करते हैं, और बड़े वित्तीय संगठन प्राय: जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम आंकते हैं।

अध्ययन यह भी बताता है कि इस तरह के वैचारिक मतभेद या फर्क हर जगह सामने आते हैं, लेकिन आम तौर पर लोग इन विविधताओं से बेखबर होते हैं। तंत्रिका विज्ञान के अध्ययन दर्शाते हैं कि ये फर्क इस बात पर आधारित होते हैं कि किसी चीज़ या शब्द के बारे में हमारे विचार या अवधारणाएं किस प्रकार निर्मित हुई हैं, और हमारे ऊपर किस तरह के राजनीतिक, भावनात्मक और चरित्रगत असर हुए हैं। जीवन भर के अनुभवों, हमारे कामों या विश्वासों से बनी सोच को बदलना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर होता है।

लेकिन दो तरीके इसमें मदद कर सकते हैं: एक, लोगों को इस बारे में सचेत बनाना कि हमारे अर्थ और उनकी समझ में फर्क है; दूसरा, उन्हें नई भाषा चुनने के लिए प्रोत्साहित करना जो अवधारणात्मक बोझ से मुक्त हो।

‘अवधारणा’ शब्द को परिभाषित करना भी कठिन है। मोटे तौर पर अवधारणा का मतलब है किसी शब्द को सुनते, पढ़ते, या उपयोग करते समय हमारे मन में उभरने वाले उसके विभिन्न गुण, उदाहरण और सम्बंध और ये काफी अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पक्षी’ की अवधारणा में शामिल हो सकते हैं कि पंख, उड़ना, घोंसले बनाना, गोरैया। ये शब्दकोश में दी गई परिभाषाओं से भिन्न होती हैं, जो अडिग और विशिष्ट होती हैं जिन्हें आम तौर पर सीखना होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.licdn.com/dms/image/D4E12AQFtVn-1JhPDyg/article-cover_image-shrink_720_1280/0/1706906220931?e=1713398400&v=beta&t=YqUjDaEnZN526DBw-zcQJBWofMXJdcsbpoEvZf-nz9Q

हमारे पास कितने पेड़ हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, कुछ साल पहले इसका विस्तृत विश्लेषण किया गया था। वृक्षों की गणना के इस विश्व स्तरीय प्रयास में ज़मीनी वृक्षों की गणना प्रादर्श के आधार पर की गई थी, और उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों के साथ रखकर उन आंकड़ों को देखा गया था। और फिर एक परिष्कृत एल्गोरिदम की मदद से आंकड़ों का विश्लेषण करके वृक्षों की कुल संख्या का अनुमान लगाया गया था। अध्ययन का अनुमान था कि हमारी पृथ्वी पर करीब तीस खरब पेड़ हैं। यह संख्या चौंकाने वाली है, क्योंकि यह पूर्व में वैज्ञानिकों द्वारा लगाए गए सभी अनुमानों से बहुत ज़्यादा है। अध्ययन का निष्कर्ष था कि विश्व में प्रति व्यक्ति औसतन 400 से थोड़े अधिक पेड़ हैं। उपग्रह चित्रों से यह भी पता चला कि ये पेड़ पृथ्वी पर किस तरह वितरित हैं।

पृथ्वी पर मौजूद कुल पेड़ों का 15-20 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण अमेरिकी वर्षा वनों में है। इसके बाद बारी आती है कनाडा और रूस में फैले बोरियल जंगलों या टैगा में शंकुधारी (कोनिफर) वनों की। शंकुधारी वृक्षों की इस प्रचुरता के परिणामस्वरूप, कनाडा का प्रत्येक बाशिंदा लगभग 9000 वृक्षों से ‘समृद्ध’ है।

इसके ठीक विपरीत, मध्य पूर्वी द्वीप राष्ट्र बाहरीन के 15 लाख वासियों को मात्र 3100 पेड़ों का सहारा है। यहां प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में मात्र पांच पेड़ हैं।

अन्य ऑक्सीजन स्रोत

यह गौरतलब है कि पृथ्वी के विशाल क्षेत्र अपेक्षाकृत कम पेड़ों वाले घास के मैदान हैं। कुल मिलाकर, घास उतनी ही ऑक्सीजन बना सकती है जितना कि दुनिया भर के पेड़। फिर, हमारे पास समुद्री सायनोबैक्टीरिया और शैवाल हैं – इन सूक्ष्मजीवों के प्रकाश संश्लेषण से उतनी ही ऑक्सीजन बनती है जितनी कि सभी स्थलीय पेड़-पौधों से।

पेड़ ऑक्सीजन बनाने के अलावा वातावरण से कार्बन हटाने में अहम भूमिका निभाते हैं। लाखों साल पहले उगे पेड़ दलदल में डूबने और दबने के बाद धीरे-धीरे कोयले में बदल गए, और इस तरह उन्होंने कार्बन को बहुत लंबे समय तक वायुमंडल में जाने से थामे रखा। बेशक, आप बिजली पैदा करने के लिए थर्मल पावर प्लांट में कोयले को जला कर कार्बन को वायुमंडल में वापस जाने से रोकने की पेड़ों की सारी मेहनत पर फटाफट पानी फेर सकते हैं, साथ ही साथ कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल में छोड़कर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा सकते हैं।

भारत का वन आवरण

हमारे अपने देश के लिए अनुमान है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति पर लगभग 28 पेड़ हैं। उच्च जनसंख्या घनत्व और लंबे समय से हो रही वनों की कटाई के कारण यह संख्या इतनी ही रह गई है। बांग्लादेश, जिसका जनसंख्या घनत्व भारत से तीन गुना अधिक है, वहां प्रति नागरिक छह पेड़ हैं। नेपाल और श्रीलंका दोनों देशों में प्रति व्यक्ति सौ से थोड़े अधिक पेड़ हैं।

भारत की भौगोलिक विविधता के चलते प्राकृतिक वन क्षेत्र में बड़ा फर्क है। पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट में, पूर्वोत्तर भारत में और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में नम उष्णकटिबंधीय वनों का घना आच्छादन, उच्च वर्षा और समृद्ध जैव विविधता देखी जाती है। अरुणाचल प्रदेश का अस्सी प्रतिशत भूक्षेत्र वनों से आच्छादित है; वहीं राजस्थान में यह वन आच्छादन 10 प्रतिशत से भी कम है।

भारत के एक-तिहाई हिस्से को वन आच्छादित बनाने की वन नीति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। पुनर्वनीकरण के प्रयास इस लक्ष्य को हासिल करने में योगदान देते हैं, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अधिक महत्वपूर्ण है वनों की कटाई को रोकना। इस मामले में दक्षिणी राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत राज्य वन रिपोर्ट (ISFR) 2021 की रिपोर्ट के अनुसार वन आवरण में सबसे अच्छा सुधार करने वाले तीन राज्य हैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/4pz02v/article67804541.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_Beautiful_View_Of_We_2_1_8CBTQ9IK.jpg

चींटियों ने शेरों की नाक में किया दम

क्सर यह सुनने में आता है कि चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो वह हाथी को पस्त कर सकती है। यह बात तो ठीक है लेकिन हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है कि चींटियों ने परोक्ष रूप से शेरों की नाक में दम कर दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अफ्रीकी सवाना जंगलों में मनुष्यों द्वारा पहुंचाई गई बड़ी सिर वाली चींटियों ने वहां की स्थानीय चींटियों का सफाया कर दिया है; ये स्थानीय चींटियां वहां मौजूद बबूल के पेड़ों को हाथियों द्वारा भक्षण से बचाती थीं। इन रक्षक चींटियों के वहां से हटने से हाथियों को बबूल के पेड़ खाने को मिल गए। फिर पेड़ खत्म होने के कारण शेरों को घात लगाकर ज़ेब्रा का शिकार करने की ओट खत्म होती गई। नतीजतन शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल हो गया, और उन्हें ज़ेब्रा की जगह भैंसों को अपना शिकार बनाना पड़ा।

पूर्वी अफ्रीका के हज़ारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों में मुख्यत: एक तरह के बबूल (Vachellia drepanolobium) के पेड़ उगते हैं। इस इलाके का अधिकतर जैव पदार्थ (70-99 प्रतिशत) यही पेड़ होता है। और इनकी शाखाओं पर नुकीले कांटे होते हैं। साथ ही साथ इनकी शाखाओं पर खोखली गोल संरचनाएं बनती हैं, जिनमें स्थानीय बबूल चींटियां (Crematogaster spp.) रहती हैं और बबूल का मकरंद पीती हैं। बदले में ये चींटियां शाकाहारी जानवरों, खासकर हाथियों, से पेड़ों को बचाती हैं – कंटीले पेड़ों को खाने आए अफ्रीकी जंगली हाथियों की सूंड में चीटियां घुस जाती हैं, जिसके चलते वे इन्हें खाने का इरादा छोड़ देते हैं।

लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में, हिंद महासागर के एक द्वीप की मूल निवासी बड़े सिर वाली चींटियां (Pheidole megacephala) केन्या में पहुंच गईं – संभवत: मनुष्यों ने ही उन्हें वहां पहुंचाया था। केन्या पहुंचकर इन चींटियों ने बबूल पर बसने वाली चीटिंयों पर हमला करना शुरू किया और उनके शिशुओं को खाने लगीं। जब पेड़ों के रक्षक ही सलामत नहीं बचे, तो फिर पेड़ कैसे सलामत बचते। नतीजतन हाथी अब मज़े से कंटीले पेड़ खाने लगे और सवाना जंगलों में इन पेड़ों की संख्या गिरने लगी।

पेड़ों के इस विनाश को देखते हुए व्योमिंग विश्वविद्यालय के वन्यजीव पारिस्थितिकीविज्ञानी जैकब गोहेन जानना चाहते थे कि इस विनाश ने अन्य प्राणियों को कैसे प्रभावित किया होगा, खासकर शेर को। क्योंकि शेर पेड़ों की ओट में घात लगाकर अपना शिकार बड़ी कुशलता से कर लेते हैं। तो क्या इस कमी ने शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल बनाया होगा?

इसके लिए उन्होंने 360 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में फैले सवाना जंगलों में, ढाई-ढाई हज़ार वर्ग मीटर के एक दर्ज़न अध्ययन भूखंड चिन्हित किए। हर अध्ययन भूखंड पर शोधकर्ताओं की एक टीम ने वहां के परिदृश्य में दृश्यता, मैदानी ज़ेब्रा का आबादी घनत्व, बड़े सिर वाली चींटियों का आगमन और शेरों द्वारा ज़ेब्रा के शिकार पर नज़र रखी। साथ ही छह शेरनियों पर जीपीएस कॉलर भी लगाए ताकि यह देखा जा सके कि इन भूखंडों में उनकी हरकतें कैसी रहती हैं।

तीन साल की निगरानी के बाद शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन पेड़ों से वहां की स्थानीय बबूल चींटियां नदारद थीं, हाथियों ने उन पेड़ों का सात गुना अधिक तेज़ी से विनाश किया बनिस्बत उन पेड़ों के जिनमें स्थानीय संरक्षक चींटियां मौजूद थीं। जहां पेड़ और झाड़ियों का घनापन नाटकीय रूप से छंट गया है, वहां शेरों के लिए ज़ेब्रा पर हमला करना मुश्किल हो गया है। इसके विपरीत, बड़े सिर वाली चींटियों से मुक्त क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में कंटीले पेड़ और उनकी झुरमुट थी, जहां शेर छिप सकते थे। नतीजतन इन जगहों पर शेर ज़ेब्रा के शिकार में तीन गुना अधिक सक्षम थे।

इन निष्कर्ष से यह बात और स्पष्ट होती है कि कोई भी पारिस्थितिकी तंत्र आपस में कितना गुत्थम-गुत्था और जटिल होता है – यदि आप इसकी एक चीज़ को भी थोड़ा यहां-वहां करते हैं तो पूरा तंत्र डगमगा जाता है।

लेकिन इन नतीजों से यह सवाल उभरा कि जब कम घने क्षेत्र में शेर अपने शिकार (ज़ेब्रा) से चूक रहे हैं तब भी उनकी आबादी स्थिर कैसे है? इसी बात को खंगालने वाले अन्य अध्ययनों ने पाया है कि 2003 में 67 प्रतिशत ज़ेब्रा शेरों के शिकार के कारण मरे थे, जबकि 2020 में केवल 42 प्रतिशत ज़ेब्रा शिकार के कारण मरे। इसी दौरान, शेरों द्वारा अफ्रीकी भैंसे का शिकार शून्य प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया। यानी शेरों ने अपना शिकार बदल लिया है।

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह परिवर्तन टिकाऊ है या नहीं। क्योंकि शेरों के लिए भैंसों को मारना बहुत मुश्किल है। ज़ेब्रा की तुलना में भैसों में बहुत अधिक ताकत होती है, और भिड़ंत में कभी-कभी भैंस शेरों को मार भी डालती है।

यह भी समझने वाली बात है कि यदि भैसों का शिकार जारी रहा तो क्या उनकी संख्या घटने लगेगी, और यदि हां तो तब शेरों का क्या होगा? और ज़ेब्रा की संख्या बढ़ने से जंगल की वनस्पति किस तरह प्रभावित होगी? साथ ही यह भी देखने की ज़रूरत है कि बड़े सिर वाली चींटियां कैसे फैलती हैं ताकि उनके प्रसार को रोकने के प्रयास किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://live.staticflickr.com/260/32091613585_3a89c3d7c0_o.jpg