डॉ. अनंत फड़के

अक्सर भारत में दवाइयों (medicine prices in India) की ऊंची कीमतों को लेकर शिकायतें सुनने को मिलती हैं। लेकिन देश में अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत कम है, इसके बावजूद मरीज़ों को दवाइयां महंगे दामों पर क्यों मिलती हैं?
पहले भाग में, हमने इसके एक प्रमुख कारण – भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन (drug price regulation in India) की लगभग अनुपस्थिति – पर बात की थी। इस भाग में, हम भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों (एफडीसी) (Fixed-Dose Combinations – FDC), ‘मी टू’ औषधियों (Me-Too Drugs) को दी जाने वाली अनुमति पर बात करेंगे।
भाग 2: ब्रांडेड दवाइयां, बेतुके नियत खुराक मिश्रण, ‘मी–टू दवाइयां’, और पेटेंट का सदाबहारीकरण
दोषपूर्ण औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश-2023 (Drug Price Control Order – DPCO 2023) से इतर भी कई कारण हैं कि क्यों भारत में दवाइयों की कीमतें अनावश्यक रूप से ऊंची हैं। आगे इन्हीं कारणों की चर्चा है।
ब्रांड, ब्रांडेड जेनेरिक और उनकी गुणवत्ता
जब किसी नई औषधि का आविष्कार होता है तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से सम्बद्ध एक अंतर्राष्ट्रीय समिति उसे एक ‘जेनेरिक नाम’ (Generic Name) देती है (जेनेरिक नाम मतलब इंटरनेशनल नॉन-प्रोपायटरी नाम आईएनएन या अंतर्राष्ट्रीय गैर-मालिकाना नाम)। जेनेरिक नाम (Generic Drug Name) का उपयोग सारे वैज्ञानिक जर्नल्स, किताबों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में किया जाता है। अलबत्ता, जो कंपनी उस औषधि का आविष्कार करती है उसे अधिकार होता है कि वह उसे एक मालिकाना नाम दे दे। आम तौर पर यह विपणन के मकसद से होता है। इस मालिकाना ब्रांड नाम को प्रासंगिक राष्ट्रीय व वैश्विक कानूनों के तहत पंजीकृत किया जाता है, हालांकि पंजीकरण ऐच्छिक है। कंपनी को उस ब्रांड नाम पर 20 सालों तक एकधिकार प्राप्त होता है, जो आविष्कारक को मिले पेटेंट की वैधता की अवधि है।
उदाहरण के लिए, बुखार, सिरदर्द और बदन दर्द (fever, headache, body pain) से तात्कालिक अस्थायी राहत के लिए एक औषधि है एन-एसिटाइल-पैरा-अमीनोफिनॉल (एपीएपी) (N-Acetyl-Para-Aminophenol), जिसे जेनेरिक नाम (आईएनएन-INN) पैरासिटामॉल दिया गया है। यूएस की दवा कंपनी मैकनाइल ने इसे 1955 में टायलेनॉल (Tylenol) के ब्रांड नाम से पेटेंट किया था। अमेरिकी कानून के अनुसार, इस पेटेंट अवधि में कोई अन्य कंपनी पैरासिटामॉल का उत्पादन मूल निर्माता की अनुमति और रॉयल्टी भुगतान के बगैर नहीं कर सकती। 20 साल की अवधि के बाद कोई भी निर्माता अपने देश के सम्बंधित अधिकारी से उत्पादन का लायसेंस प्राप्त करके उस दवा को जेनेरिक नाम पैरासिटामॉल या अपनी पसंद के किसी ब्रांड नाम से बेच सकता है।
जिस औषधि की पेटेंट अवधि (Patent Expiry) पूरी हो चुकी है और उसे ‘जेनेरिक’ (Generic Drug) के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया है, उसे बदकिस्मती से, जेनेरिक नाम से नहीं बल्कि अलग-अलग कंपनियों द्वारा अलग-अलग ब्रांड नामों से बेचा जाता है। इसका परिणाम विभिन्न ‘ब्रांडेड जेनेरिक्स’ के रूप में सामने आता है। उदाहरण के लिए, भारत में पैरासिटामॉल, जो कई वर्षों से पेटेंट-मुक्त (Off-Patent Drugs) है, को क्रोसिन (Crocin), कैल्पॉल (Calpol), मेटासिन (Metacin), डोलो (Dolo) तथा कई अन्य ‘ब्रांडेड जेनेरिक’ (Branded Generic Drugs) नामों से बेचा जाता है। इस तरह के ब्रांडिंग से जेनेरिक नाम पीछे रह जाता है और सामने आते हैं एक ही जेनेरिक औषधि के दर्जनों ब्रांड्स। इन ब्रांड्स की कीमत जेनेरिक औषधि से काफी अधिक रखी जाती है क्योंकि उपभोक्ता औषधि के मूल, जेनेरिक नाम से अनभिज्ञ रहते हैं क्योंकि ब्रांडेड पैकेज पर जेनेरिक नाम छोटे अक्षरों में छापा जाता है। उपभोक्ता तो अति-विज्ञापित ब्रांडेड उत्पाद के लिए अतिरिक्त कीमत चुकाते रहते हैं। इस तरह की ब्रांडिंग डॉक्टरों के लिए भी बोझ बन जाती है क्योंकि उन्हें विभिन्न जेनेरिक औषधियों के ब्रांड नाम याद रखने होते हैं जबकि उनका पूरा प्रशिक्षण जेनेरिक नामों के आधार पर होता है और चिकित्सा साहित्य में जेनेरिक नामों का ही इस्तेमाल होता है।
भारत में दवा कंपनियां 60 जेनेरिक औषधि वर्गों के 60,000 से ज़्यादा (ब्रांडेड) जेनेरिक्स (Branded Generics in India) का विपणन करती हैं। हालांकि कुछ जेनेरिक निर्माता अपनी दवाइयों का थोक बाज़ार में विपणन जेनेरिक नामों से करते हैं और इन्हें कुछ अस्पतालों तथा सरकारी संस्थाओं को बेचते हैं, लेकिन ‘जेनेरिक्स व्यापार’(generic trade) में लगी अधिकांश कंपनियां जेनेरिक्स के लिए अपने-अपने ब्रांड नामों का उपयोग करती है। ये विविध ब्रांड नाम व्यापारिक प्रतिस्पर्धा (market competetion) के चलते उभरते हैं; हर कंपनी डॉक्टरों को पटाना चाहती है – गलत-सही तरीकों से – कि वे उसका ब्रांड लिखें। इस तरह के क्रियाकलाप पर काफी खर्च होता है और बड़ी कंपनियां अधिक संसाधनों के दम पर अधिक खर्च कर सकती है। परिणास्वरूप, चंद बड़ी-बड़ी कंपनियां, विज्ञापनों के ज़रिए बाज़ार पर हावी रहती हैं और अंतत: इसकी कीमत उपभोक्ता चुकाते हैं। एक बारगी डॉक्टर को किसी ब्रांडेड जेनेरिक की बेहतर गुणवत्ता की घुटी पिला दी गई तो दवा कंपनी उसकी कीमत बढ़ा देती है। कई डॉक्टर प्राय: इस मूल्य वृद्धि से अनभिज्ञ रहते हैं या उसकी अनदेखी कर देते हैं। नतीजतन, ऐसे किसी ब्रांड की कीमत उत्पादन-लागत से 10-20 गुना अधिक हो जाती है।
इस समस्या का आसान समाधान यह है कि सरकार उन सभी औषधियों के ब्रांड नामों की निंदाई कर दे जिनकी पेटेंट अवधि समाप्त हो चुकी है। यह सुझाव 1975 में ही औषधि एवं दवा उद्योग समिति (हाथी समिति रिपोर्ट-hathi committee report) मे दे दिया गया था। रिपोर्ट में “चरणबद्ध तरीके से ब्रांड नाम समाप्त करने” का सुझाव दिया गया था, सिवाय उनके जो फिलहाल पेटेंट एकाधिकार (patent monopoly) के तहत हैं। हालांकि तत्कालीन सरकार शुरू-शुरू में इसके प्रति सकारात्मक थी लेकिन थोड़े-बहुत क्रियान्वयन के बाद ही दवा कंपनियों द्वारा कानूनी कार्रवाई ने इसे रोक दिया।
ब्रांड नामों के उन्मूलन का बड़ी दवा कंपनियां और उनके समर्थक विरोध करते हैं। वे तर्क देते हैं कि उनके ब्रांड की गुणवत्ता सुनिश्चित है और उनकी कीमतें अधिक इसलिए हैं क्योंकि उच्च मानकों को बनाए रखने की लागत अधिक होती है। वे यह भी दावा करती हैं कि ‘जेनेरिक्स’ या छोटी कंपनियों के ब्रांडेड जेनेरिक्स अमानक होते हैं। अधिकांश डॉक्टर्स बड़ी-बड़ी दवा कंपनियों के इस प्रपोगैंडा की चपेट में आ जाते हैं। लेकिन, जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया था, भारत के बाज़ार में 90 प्रतिशत दवाइयां जेनेरिक हैं यानी पेटेंट से बाहर हैं।
ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिसने यह बताया हो कि नवाचारी के ब्रांड या अन्य अग्रणी बड़ी कंपनियों के ब्रांड की गुणवत्ता ठीक है जबकि ब्रांडेड जेनेरिक्स की गुणवत्ता कम है। लिहाज़ा, अग्रणी ब्रांड्स की ऊंची कीमतों को यह कहकर सही नहीं ठहराया जा सकता कि उनकी गुणवत्ता ऊंचे दर्जे की है और उच्च गुणवत्ता बनाए रखने की लागत अधिक होती है।
लोकॉस्ट स्टैण्डर्ड थेराप्यूटिक्स (लोकॉस्ट-LOCOST) नामक एक चैरिटेबल ट्रस्ट 30 से अधिक वर्षों से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (primary healthcare) के लिए अच्छी गुणवता की ज़रूरी दवाइयों का उत्पादन करता आया है और उन्हें जेनेरिक नामों से गैर-मुनाफा गैर सरकारी चेरिटेबल स्वास्थ्य संस्थाओं को काफी कम कीमत पर बेचता आया है। लोकॉस्ट अपने लिए बहुत कम मार्जिन (less margin) रखता है, सिर्फ अपने उत्पादन संयंत्र के संचालन व उन्नयन के लिए पर्याप्त। यानी सिर्फ हाथी समिति द्वारा 1975 में सारे ब्रांड नाम समाप्त करने के सुझाव पर अमल करके दवाइयों की कीमतें एक-तिहाई से लेकर 10 गुना तक कम की जा सकती हैं। इसलिए दवाइयां सिर्फ जेनेरिक नामों से बेची जानी चाहिए। जब उपभोक्ता को पता होगा कि एक ही दवा विभिन्न कंपनियों द्वारा बेची जा रही है, तो वे सस्ती दवा को चुनेंगे, तो कीमतें कम हो जाएगी।
ब्रांड नाम अनावश्यक भ्रम भी पैदा करते हैं क्योंकि फैंसी ब्रांड नाम और उसके अंदर मौजूद औषधि के बीच कोई सम्बंध नहीं होता। ब्रांड नाम के साथ एक और दिक्कत यह है कि यह आशंका हमेशा बनी रहती है कि मरीज़ को गलत दवा मिल जाएगी क्योंकि कई ब्रांड नाम एक जैसे दिखते हैं लेकिन उनमें औषधि अलग-अलग होती है। जैसे ‘A to Z’, ‘AZ-A’, और ‘AZ’ क्रमश: एक विटामिन, एक एंटीबायोटिक और एक कृमिनाशी दवा के ब्रांड नाम हैं। और यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि डॉक्टरों द्वारा हाथ से लिखी गई पर्चियों की अपठनीयता मशहूर है। ऐसे में मेडिकल स्टोर वाले इन्हें गलत पढ़ सकते हैं और यह मरीज़ के लिए घातक हो सकता है।
बेतुके नियत खुराक औषधि मिश्रण (FDC)
चिकित्सा पाठ्य पुस्तकें व अन्य विद्वान कुछ दवाइयों को मिलाकर इकलौती गोली या तरल के रूप में देने की सलाह देते हैं, तब जब ऐसा करना उन्हीं दवाइयों को अलग-अलग देने से अधिक लाभदायक हो। इन्हें नियत खुराक मिश्रण या एफडीसी (Fixed-Dose Combination – FDC) कहते हैं। उदाहरण के लिए, पाठ्य पुस्तकें सिफारिश करती हैं कि लौह (iron) की कमी से होने वाले एनीमिया का उपचार लौह व फॉलिक एसिड (folic acid) दोनों के मिश्रण से किया जाना चाहिए क्योंकि अमूमन लौह की कमी के साथ फॉलिक एसिड की कमी भी देखी जाती है। इसी प्रकार से, कैल्शियम (calcium) की गोली में विटामिन डी (vitamin D) मिलाना ज़्यादा कारगर होता है क्योंकि विटामिन डी आंतों में कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है। एफडीसी इकलौते घटक वाली दवा से महंगे हो सकते हैं लेकिन यह अतिरिक्त कीमत इनकी अधिक उत्पादन लागत और अधिक असर के आधार पर उचित ठहराई जा सकती है।
जब दो या अधिक औषधियों को मिलाने का कोई वैज्ञानिक तर्क न हो तो ऐसे मिश्रणों को बेतुके एफडीसी (irrational FCD) कहा जाता है। ऐसे बेतुके एफडीसी ज़्यादा महंगे इसलिए होते हैं कि इनमें अनावश्यक अतिरिक्त घटक मिलाए जाते हैं जबकि इससे कोई अतिरिक्त फायदा नहीं मिलता। दूसरी बात, दवा कंपनियां इनकी अतिरिक्त प्रभाविता के भ्रामक दावे बढ़ा-चढ़ाकर करती हैं (जबकि वाकई ऐसी कोई अतिरिक्त प्रभाविता होती नहीं है)। और यह कहकर उनकी कीमतें बढ़ा देती हैं कि कंपनी यह अधिक असरदार नुस्खा बेच रही है। इन बेतुके एफडीसी के साइड प्रभाव (side-effects of irrational FCDs) भी इकलौते घटक वाली दवा से ज़्यादा होते हैं। एक से अधिक अवयव के चलते इनकी गुणवत्ता की जांच भी ज़्यादा मुश्किल होती है। राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची-2011 में शामिल 348 दवाइयों में से मात्र 16 (5 प्रतिशत) ही एफडीसी थीं क्योंकि सिर्फ यही वैज्ञानिक रूप से उचित हैं। अलबत्ता, भारत के दवा बाज़ार में 40 प्रतिशत दवा-नुस्खे एफडीसी हैं। महंगे होने के अलावा अनावश्यक अवयवों के चलते इनके साइड प्रभाव भी अधिक हैं। ऐसे बेतुके एफडीसी भारत में दवाइयों के अनावश्यक रूप से महंगी होने का एक प्रमुख कारण है। अत: सिर्फ उन्हीं एफडीसी को अनुमति दी जानी चाहिए जिनकी सिफारिश प्रामाणिक चिकित्सा पाठ्य पुस्तकों या अन्य चिकित्सा विद्वानों द्वारा की गई है। बाज़ार में आज बिक रहे सैकड़ों अन्य एफडीसी पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। इससे दवाइयों पर होने वाला अनावश्यक खर्च बचेगा और इनमें मिलाए गए अनुपयुक्त अवयवों से होने वाले साइड प्रभावों से भी सुरक्षा मिलेगी।
‘मी–टू दवाइयां‘ (Me-too Drugs)
दवा कंपनियों के लिए यह आसान और ज़्यादा मुनाफादायक होता है कि वे किसी ‘नई दवा’ का विकास किसी पहले से चली आ रही दवा (Existing Drug Molecule) में थोड़े बहुत परिवर्तन के ज़रिए करें। मौजूदा दवाइयों के ये रासायनिक सहोदर मूल दवा की तुलना में कोई खास चिकित्सकीय लाभ (therapeutic benefits) नहीं देते। ऐसी ‘नई दवाइयों’ को ‘मी-टू दवाइयां’ कहा जाता है। दवा कंपनियां किसी भिन्न रासायनिक वर्ग की दवाइयां विकसित करने की बजाय ऐसी ‘मी-टू दवाइयों’ (Me-Too Drugs in India) पर खूब ध्यान देती हैं जबकि नए रासायनिक वर्ग की दवाइयां मौजूदा दवा की अपेक्षा कई लाभ प्रदान करती हैं।
‘मी-टू दवाइयां’ अमूमन तब बाज़ार में उतारी जाती हैं जब मूल अणु की पेटेंट अवधि समाप्ति के करीब होती है। ये तथाकथित नई दवाइयां (Newly Launched Me-Too Drugs) कहीं अधिक बढ़े हुए दाम पर बेची जाती हैं, और दावा किया जाता है कि ये बेहतर विकल्प हैं। कभी-कभी ये दावे कुछ हद तक सही होते हैं लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि चतुर, आक्रामक विपणन रणनीतियों के दम पर ये ‘नई’ दवाइयां डॉक्टरों के बीच लोकप्रिय हो जाती हैं, चाहे उनमें कोई खास बात न हो। अधिकांश मामलों में कीमतें इतनी ज़्यादा होती हैं कि उन्हें अतिरिक्त लाभ (यदि कोई हो) के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। कारण यह है कि इन दवाइयों को नई दवा कहा जाता है जिस पर पेटेंट एकाधिकार होता है।
मसलन, एंजियोटेन्सिव रिसेप्टर ब्लॉकर (ARBs) दवाइयों का एक समूह है जिनका उपयोग उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु किया जाता है। अलबत्ता, दवा कंपनियों द्वारा इसी समूह की पांच अन्य औषधियों का विकास कर लिया गया है। इसी तरह, भारत के दवा बाज़ार में सात किस्म के स्टेटिन्स, आठ किस्म के एसीई अवरोधक और नौ किस्म के क्विनोलोन्स हैं। क्या इतनी सारी महंगी ‘मी-टू’ दवाइयां सचमुच आवश्यक हैं? और उपभोक्ता क्यों थोड़े से या शून्य अतिरिक्त लाभ के लिए ज़्यादा भुगतान करें?
‘मी-टू दवाइयों’ पर प्रतिबंध तो नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वे मूल दवाइयों के समान सुरक्षित व प्रभावी दर्शाई गई हैं। लेकिन बेहतर प्रभाविता और सुरक्षा के उनके दावों की गहन जांच स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए। और दवा कंपनियों द्वारा ‘मी-टू दवाइयों’ की प्रचार-प्रसार सामग्री की भी जांच होनी चाहिए।
दवाइयों पर उत्पाद पेटेंट
भारतीय पेटेंट कानून, 1970 ने ब्रिटिश राज के उत्पाद-पेंटेट कानून की जगह प्रक्रिया पेटेंट व्यवस्था लागू की थी। इसके कारण भारत में जेनेरिक दवाइयों के उत्पादन में उछाल आया था और दवाइयों की कीमतों में भी काफी कमी आई थी क्योंकि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार टूटा था और उत्पादन लागत भी कम हुई थी। क्वालिटी जेनेरिक्स का निर्यात विकसित देशों तक को किया गया था, और आज भारत में निर्मित लगभग आधी दवाइयां विकसित देशों को निर्यात की जाती हैं। लिहाज़ा भारत ‘विकासशील देशों की औषधि शाला’ के रूप में उभरा।
अलबत्ता, जब भारत विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बना, तब से बातें बदलने लगीं। बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार सम्बंधी पहलुओं पर समझौता यानी एग्रीमेंट ऑन ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (TRIPS) के अंतर्गत कई मामले आते हैं। इनमें उत्पाद पेटेंट भी शामिल है। ट्रिप्स समझौते की शर्त है कि सारे सदस्य देश उत्पादों और प्रक्रियाओं, जो कतिपय मापदंडों को पूरा करते हों, के लिए पेटेंट सुरक्षा प्रदान करेंगे। इसमें कुछ अपवादों की गुंजाइश रखी गई है। कम विकसित होने के आधार पर भारत उत्पाद पेटेंट सुरक्षा को लागू करने में विलंब कर सकता था। लेकिन अंतत: दवा कंपनियों के दबाव में भारत सरकार ने 2005 में दवाइयों के मामले में उत्पाद पेटेंट को पुन: लागू कर दिया। इसका मतलब हुआ कि 1970 के पहले के दिनों की तरह, भारत में नई पेटेंटशुदा दवाइयों का उत्पादन आविष्कार के 20 साल बाद ही किया जा सकता है। हां, नवाचारकर्ता अनुमति दे दे तो बात अलग है। यानी इन नई दवाइयों, जो आधुनिक विज्ञान व टेक्नॉलॉजी के फल हैं, पर उत्पाद पेटेंट व्यवस्था के तहत नवाचारी कंपनी का एकाधिकार हो जाता है और उन्हें निहायत ऊंचे दामों पर बेचा जाता है। इनकी कीमतें मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से भी बाहर होती हैं।
फिलहाल ये नई दवाइयां कुल बाज़ार का बहुत छोटा हिस्सा हैं। लेकिन ये बहु-औषधि-प्रतिरोधी टीबी, कतिपय अल्सर, और हिपेटाइटिस-सी के मरीज़ों के लिए जीवन-मृत्यु का मामला होती हैं क्योंकि इनकी कीमतें अत्यंत अधिक होती हैं। आने वाले दो-तीन दशकों में मौजूदा तथा नई स्वास्थ्य समस्याओं के लिए कहीं अधिक असरदार तथा सुरक्षित दवाइयां खोजी जाने की संभावना है। ये समस्याएं आबादी के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं। इसलिए, यह मौका है कि उत्पाद पेटेंट व्यवस्था के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक दबाव बनाने में भारत सरकार अन्य सहमना शक्तियों के साथ मिलकर सक्रिय भूमिका निभाए। लक्ष्य यह होना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में बदलाव हों, तथा प्रक्रिया पेटेंट व्यवस्था पर लौटा जाए।
शुक्र है कि ‘दोहा घोषणा पत्र’ की बदौलत, भारत अपने संशोधित भारतीय पेटेंट कानून 2005 में ‘अनिवार्य लायसेंस’ के प्रावधान को बरकरार रख पाया – यह एक ऐसा प्रावधान है जिसके ज़रिए जनहित में ज़रूरी होने पर वह किसी नवाचारी कंपनी को आदेश दे सकता है कि वह किसी दवा, जिसके लिए उसके पास उत्पाद पेटेंट है, के उत्पादन की अनुमति अन्य कंपनियों को दे। बदकिस्मती से, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पश्चिमी सरकारों के दबाव के चलते, भारत सरकार ‘अनिवार्य लायसेंस’ प्रावधान का इस्तेमाल करने को लेकर अनिच्छुक रही है। भारत सरकार को ‘अनिवार्य लायसेंस’ तथा अन्य गुंजाइशों का इस्तेमाल करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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