चाय का शौकीन भारत

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चाय के पौधे लगभग तीन शताब्दी पूर्व चीन (China) और दक्षिण-पूर्वी एशिया (Southeast Asia) से भारत आए थे, और इन्हें भारत लाने वाले थे ब्रिटिश (British)। दरअसल भारत में चाय (Tea in India) उगाने के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा था कि असम (Assam Tea) में मोटी पत्तियों वाले चाय के पौधे उगते हैं। जब चाय के पौधों को भारत में लगाया गया तो ये बहुत अच्छी तरह से पनपे। (गौरतलब है कि कर्नाटक (Karnataka), केरल (Kerala) और तमिलनाडु (Tamil Nadu) के कुछ इलाकों में भी चाय उगाई जाती है, हालांकि इसकी पैदावार उतनी नहीं होती जितनी कि पूर्वोत्तर (North East India) में होती है)। हाल ही में, उत्तराखंड (Uttarakhand) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) ने भी चाय उगाना शुरू किया है। वर्तमान में भारत में चाय की कुल खपत सबसे ज़्यादा (India’s tea consumption) है (5,40,000 मीट्रिक टन है यानी प्रति व्यक्ति 620 ग्राम)। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक (Tea Exporter) देश है, और इससे देश प्रति वर्ष लगभग 80 करोड़ डॉलर कमाता है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (National Sample Survey Organization) के अनुसार, भारत में कॉफी (Coffee) की तुलना में चाय की खपत 15 गुना ज़्यादा होती है। उत्तर भारत (North India) में, शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चाय रोज़ाना का मुख्य पेय बन गई है। यहां एक कप चाय सिर्फ 8-10 रुपए में मिलती है, जो सभी की पहुंच में है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत (South India) में एक कप चाय तो 10 रुपए में ही मिलती है, जबकि कॉफी 15 से 20 रुपए में मिलती है।

रासायनिक घटक

फूड केमिस्ट्री (Food Chemistry) और फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस (Food Science and Human Wellness) नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित कई शोधपत्रों ने चाय की पत्तियों में मौजूद रासायनिक अणुओं (Chemical compounds in tea) का वर्णन किया है। वे बताते हैं कि ये पत्तियां सुगंध से भरपूर होती हैं, जो चाय को उसकी खुशबू देती हैं। फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस में 2015 में प्रकाशित एक शोधपत्र में ऐसे वाष्पशील यौगिकों (Volatile Compounds) के कुछ उदाहरण दिए गए थे। ये यौगिक गाजर, कद्दू और शकरकंद जैसे हमारे दैनिक आहार में पाए जाते हैं। हमारे आहार में गैर-वाष्पशील पदार्थ (Non-volatile substances) भी होते हैं; जैसे नमक, चीनी, कैल्शियम और फल आदि, और ये विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं।

चाय की पत्तियां विटामिन (Vitamins in tea) और सुरक्षात्मक यौगिकों से भी भरपूर होती हैं जो रक्तचाप और हृदय की सेहत (Heart Health) को बेहतर बनाने, मधुमेह (Diabetes) के जोखिम को कम करने, आंतों को चंगा रखने, तनाव और चिंता को कम करने, ध्यान और एकाग्रता में सुधार करने में मदद करती हैं। इस मामले में चाय कॉफी से बेहतर है, क्योंकि चाय में कैफीन (Low caffeine in tea) कम होता है, जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। यही कारण है कि बच्चों को ये दोनों ही पीने की सलाह नहीं दी जाती है।

2015 के शोधपत्र के लेखकों ने पाया था कि चाय की पत्तियों की सुगंध लाइकोपीन (Lycopene), ल्यूटिन (Lutein) और जैस्मोनेट जैसे वाष्पशील यौगिकों (Carotenoids) की उपस्थिति के कारण होती है। दूसरी ओर, भोजन का स्वाद चीनी (Sugar), नमक (Salt), आयरन (Iron) और कैल्शियम (Calcium) जैसे गैर-वाष्पशील यौगिकों से होता है।

घर पर पकाए और बनाए जाने वाले भोजन में ये स्वाद एक तो आयरन, नमक, कैल्शियम और चीनी के उपयोग से आते हैं, और दूसरा गाजर, शकरकंद और ताज़ी सब्ज़ियों से आते हैं। भारत में, मैसूर (Mysore) (और अन्य जगहों पर) स्थित केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (CSIR-CFTRI) भारतीय भोजन (Indian Food) में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants), पोलीफीनॉल (Polyphenols) और अन्य स्वास्थ्य-वर्धक अणुओं का अध्ययन कर रहा है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, कॉफी की तुलना में अधिक भारतीय चाय पीते हैं। तो फिर कॉफी की बजाय चाय पीने के क्या लाभ हैं? चाय में कॉफी की तुलना में कैफीन कम होता है और एंटीऑक्सीडेंट अधिक होते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि कॉफी मधुमेह के खिलाफ चाय की तुलना में बेहतर है। ऐसे में, सवाल आपकी पसंद-नापसंद का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रोहिणी गोडबोले – लीलावती की एक बेटी

अरविन्द गुप्ता

रोहिणी गोडबोले का जन्म 1952 में पुणे के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था। उनके प्रगतिशील परिवार में बौद्धिक गतिविधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। स्वयं उनकी मां ने तीन बेटियों के जन्म के बाद बी.ए. और एम.ए. किया और फिर बी.एड. करने के बाद पुणे के प्रतिष्ठित हुज़ूरपागा हाई स्कूल (Huzurpaga High School, Pune) (स्थापना 1884) में बतौर शिक्षक अपना कैरियर शुरू किया। उनके दादाजी ने मैट्रिकुलेशन से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं कराने का फैसला किया था। ज़ाहिर है, उनका परिवार लड़कियों के कैरियर को प्रोत्साहित करता था। रोहिणी की तीन बहनों में से एक डॉक्टर (Doctor) और बाकी दो विज्ञान शिक्षिका बनीं।

वैज्ञानिक (Scientist) बनना एक कैरियर विकल्प हो सकता है, यह विचार रोहिणी के दिमाग में काफी बाद में आया था। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उनकी कन्या शाला में सातवीं कक्षा तक केवल गृह-विज्ञान ही पढ़ाया जाता था। सातवीं कक्षा में राज्य प्रतिभा छात्रवृत्ति (State Talent Scholarship) के लिए तैयारी करते समय उन्होंने पहली बार भौतिकी (Physics), जीव विज्ञान (Biology), और रसायन विज्ञान (Chemistry) का अध्ययन किया, और वह भी अपने दम पर। वे यह छात्रवृत्ति पाने वाली अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं।

फिर उन्होंने विज्ञान पत्रिकाएं (Science Magazines) पढ़ना, विज्ञान निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और पाठ्यपुस्तकों के बाहर की चीज़ें सीखना शुरू कीं। एक दिन उनकी बड़ी बहन नेशनल साइंस टैलेंट स्कालरशिप (National Science Talent Scholarship) का एक पर्चा लेकर घर आई। उस छात्रवृत्ति की पहली शर्त यह थी कि विजेता को मूल विज्ञान (Basic Science) का अध्ययन करना ज़रूरी होता था। इस छात्रवृत्ति की वजह से ही वे अपनी गर्मियों की छुट्टियां (एस. पी. कॉलेज, पुणे से भौतिकी में बीएससी करते हुए) आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) और आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बिता पाई थीं।

उन्होंने बीएससी पूरी की और विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। तब उन्हें बैंक ऑफ महाराष्ट्र (Bank of Maharashtra) से नौकरी का एक प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें लगभग उतना ही वेतन मिलता जितना उस समय उनके पिता कमाते थे। वैसा ही आलम आज आई.टी. (IT Industry) क्षेत्र द्वारा दिए जाने वाले वेतन का भी है, जो युवाओं को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में जाने से रोकता है!! उन्होंने अनुसंधान की ओर पहला कदम तब उठाया जब वे आईआईटी मुंबई (IIT Bombay) से एमएससी कर रही थीं। वहां के कई प्रोफेसरों ने उन्हें किताबों से परे देखना और अपने सवालों के जवाब खुद खोजना सिखाया। जब वे एमएससी के दूसरे वर्ष में थीं, उस समय अमेरिकन युनिवर्सिटी विमेंस एसोसिएशन (American University Women’s Association) ने अमरीका में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए एक छात्रवृत्ति की घोषणा की। उस छात्रवृत्ति को पाने के लिए किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय (American University) में दाखिला लेना ज़रूरी था। उन्होंने पार्टिकल-फिज़िक्स (Particle Physics) में शोध करने के लिए स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय (Stony Brook University) में दाखिला लिया।

अपनी पीएचडी (PhD) पूरी करने के बाद वे भारत लौटीं। हालांकि उन्हें युरोप (Europe) में पोस्ट-डॉक्टरल शोध (Postdoctoral Research) के लिए नौकरी का प्रस्ताव मिला था, लेकिन विदेश में पांच साल बिताने के बाद वे घर लौटना चाहती थीं। अगर उन्होंने युरोप में आगे पढ़ाई की होती तो शायद उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग मोड़ ले लेती।

बहरहाल, उन्हें अपने निर्णय का कोई मलाल नहीं हुआ। पीएचडी के बाद उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (Tata Institute of Fundamental Research) में तीन सफल वर्ष बिताए और फिर मुंबई विश्वविद्यालय (University of Mumbai) में व्याख्याता के रूप में पढ़ाना शुरू किया। टाटा इंस्टीट्यूट में उनके सभी वरिष्ठ साथियों को लगा कि व्याख्याता का पद स्वीकार करने से उनका शोधकार्य समाप्त हो जाएगा। यह भारत में शोध संस्थानों (Research Institutes) और विश्वविद्यालयों के बीच के व्यापक अंतर को दर्शाता है।

इसका पहला अनुभव उन्हें तब हुआ जब उन्होंने विश्वविद्यालय में मकान पाने के लिए आवेदन किया। जहां टाटा इंस्टीट्यूट में शामिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें मकान मिल गया था, वहीं मुंबई विश्वविद्यालय में उन्हें तमाम बेतुके सवालों के जवाब देने पड़े; जैसे कि क्या वे शादीशुदा हैं, उनके माता-पिता कहां रहते हैं वगैरह, वगैरह।  

वे पार्टिकल फिज़िक्स में अपने पूर्व सहयोगियों और टाटा इंस्टीट्यूट के शोध छात्रों के सहयोग से अपना शोध कार्य जारी रख पाईं।

1995 में उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (Indian Institute of Science), बैंगलोर में शोधकार्य और अध्यापन शुरू किया। उन्होंने हाई एनर्जी फिज़िक्स (High Energy Physics) के क्षेत्र में काम किया और उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि भी कमाई। उन्होंने जिनेवा स्थित प्रयोगशाला सर्न (CERN, Geneva) के लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर (Large Hadron Collider) में भौतिकी के सैद्धांतिक पहलुओं पर काम किया। जब उनकी और उनके एक युवा जर्मन सहकर्मी द्वारा की गई भविष्यवाणी सच निकली तो लोगों ने उसे ‘ड्रीस-गोडबोले प्रभाव’ (Drees-Godbole Effect) नाम दिया। उसके बाद उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान (Awards and Recognition) मिले। अलबत्ता, उनका सबसे प्रिय पुरस्कार आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) का डिस्टिंग्विश्ड एलम्नस अवार्ड (Distinguished Alumnus Award) था। इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला होना उनके लिए विशेष रूप से संतोषजनक था। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री (Padma Shri) से नवाज़ा।

इस दौरान उन्होंने एक जर्मन सहकर्मी के साथ 12 वर्षों तक वैवाहिक जीवन भी जीया हालांकि दो अलग-अलग महाद्वीपों में रहते हुए। लेकिन दोनों ने तब तक बच्चे न पैदा करने का फैसला किया जब तक कि दोनों को एक जगह नौकरी नहीं मिल जाती। 

लड़कियों और युवा महिलाओं की विज्ञान (Women in Science) और अनुसंधान (Research) में रुचि और जिज्ञासा बढ़ाने में मदद करना उन्हें अपनी एक अहम ज़िम्मेदारी महसूस होती थी। इसके तहत उन्होंने 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian Women Scientists) को उनके बचपन, उनकी विज्ञान यात्रा, उनके अनुभवों और संघर्षों को लिखने के लिए आमंत्रित किया। 2008 में ये संस्मरण लीलावती’स डॉटर्स (Leelavati’s Daughters) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह एक नायाब पुस्तक (Unique Book) है। पहली बार अदृश्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों की अनूठी कहानियां लोगों को पढ़ने को मिलीं। इस पुस्तक का संपादन प्रो. रोहिणी गोडबोले और प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने मिलकर किया और इसको इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Indian Academy of Sciences), बैंगलोर ने प्रकाशित किया। इस अनूठी पुस्तक के कुछ अध्यायों के अनुवाद (Translation) भी हुए और वे हिंदी में एकलव्य (Eklavya) द्वारा प्रकाशित पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ, और मराठी के प्रतिष्ठित अखबार लोकसत्ता में प्रकाशित हुए। 

प्रो. रोहिणी गोडबोले से मिलने के मुझे कई अवसर मिले। उनके अकस्मात निधन से एक शून्य पैदा हुआ है। उनकी अनूठी पुस्तक लीलावती’स डॉटर्स का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन ने बनाया विश्व का सबसे शक्तिशाली चुंबक

चीन ने दुनिया का सबसे शक्तिशाली विद्युत चुंबक (Electromagnet) बनाकर वैज्ञानिक नवाचार में एक महत्वपूर्ण छलांग लगाई है। यह पृथ्वी की तुलना में 8 लाख गुना अधिक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic Field) उत्पन्न करने में सक्षम है। 22 सितंबर, 2024 को हेफेई में स्थिर उच्च चुंबकीय क्षेत्र केंद्र (SHMFF) में, चुंबक ने 42.02 टेस्ला का स्थिर क्षेत्र उत्पन्न किया। यह 2017 में यूएसए (USA) द्वारा स्थापित 41.4 टेस्ला के रिकॉर्ड से अधिक है।

गौरतलब है कि विद्युत चुंबक तारों की कुंडलियों में विद्युत प्रवाहित करके बनाए जाते हैं। चीन द्वारा विकसित यह शक्तिशाली चुंबक सुपरकंडक्टर (Superconductor) जैसी सामग्रियों के अध्ययन का महत्वपूर्ण उपकरण है।

शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Powerful Magnetic Field) वाले चुंबक वैज्ञानिकों को पदार्थों के अनजाने गुणों का पता लगाने में मदद करते हैं, जैसे सुपरकंडक्टर में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in Superconductors)। शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में उनका अध्ययन करने से सफलता मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, ये चुंबक ऐसे प्रयोगों की क्षमता बढ़ा सकते हैं जिनमें संवेदनशील मापों पर निर्भरता होती है। इससे वैज्ञानिकों को सूक्ष्म भौतिक परिवर्तनों का पता लगाने में मदद मिलती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रत्येक अतिरिक्त टेस्ला (Tesla Unit) अनुसंधान को अधिक सटीक बनाता है। इस लिहाज़ से यह 42-टेस्ला चुंबक महत्वपूर्ण है।

विद्युत चुंबक अत्यधिक विश्वसनीय और लंबे समय तक शक्तिशाली क्षेत्र बनाए रख सकते हैं, लेकिन ये उच्च ऊर्जा खपत (High Energy Consumption) भी करते हैं। SHMFF के चुंबक को अपने रिकॉर्ड-तोड़ प्रदर्शन के लिए 32.3 मेगावॉट बिजली लगती है। अत: ऐसे शक्तिशाली चुंबकों को चलाना काफी महंगा है, और इतनी ऊर्जा खपत को उचित ठहराने के लिए ठोस वैज्ञानिक तर्क की आवश्यकता होगी।

हालांकि बिजली की खपत को कम करने के लिए शोधकर्ता अपना ध्यान हाइब्रिड (Hybrid Magnets) और पूरी तरह से सुपरकंडक्टिंग चुंबकों (Superconducting Magnets) पर केंद्रित कर रहे हैं। ये नए डिज़ाइन विद्युत चुंबकों को सुपरकंडक्टिंग चुंबक के साथ जोड़ते हैं, जिन्हें शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए कम बिजली लगती है। 2022 में, SHMFF के हाइब्रिड चुंबक ने 45.22 टेस्ला का क्षेत्र प्राप्त किया था।

हाइब्रिड और सुपरकंडक्टिंग चुंबक की संभावनाएं तो बहुत हैं, लेकिन कई चुनौतियां भी हैं। इन्हें बनाना काफी महंगा है और काम करने के लिए जटिल कूलिंग सिस्टम (Cooling Systems) की ज़रूरत होती है। बहरहाल, अधिक मज़बूत और कुशल चुंबक बनाने की होड़ जारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमेह से निपटने के लिए स्मार्ट इंसुलिन

हाल ही में वैज्ञानिकों ने इंसुलिन का एक नया रूप विकसित किया है जिसकी सक्रियता रक्त शर्करा (Blood Sugar) के स्तर के आधार पर नियंत्रित होती है। NNC2215 नामक यह ‘स्मार्ट’ इंसुलिन (Smart Insulin), शर्करा के स्तर को प्रभावी ढंग से कम करने के अलावा खून में शर्करा बहुत कम होने से भी बचाता है।

गौरतलब है कि मधुमेह (Diabetes) से दुनिया भर में लगभग 42.2 करोड़ लोग प्रभावित हैं, जिसमें से कई लोगों को रक्त शर्करा नियंत्रित रखने के लिए इंसुलिन (Insulin Injection) लेना पड़ता है। टाइप-1 मधुमेह (Type-1 Diabetes) में, हर दिन इंसुलिन का एक इंजेक्शन लगता है, लेकिन बहुत अधिक इंसुलिन हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) का कारण बन सकता है। यानी रक्त शर्करा का स्तर सामान्य से नीचे जा सकता है, जिससे दुश्चिंता, कमज़ोरी, भ्रम जैसी समस्याएं हो सकती हैं, यहां तक कि जान का जोखिम भी रहता है।

ऐसे तरीके उपलब्ध हैं जिनमें ऐसे यौगिकों का उपयोग किया जाता है जो खून में ग्लूकोज़ (Glucose Levels) बढ़ने पर इंसुलिन छोड़ते हैं। लेकिन इसका नुकसान यह है कि एक बार इंसुलिन रक्त में पहुंचने के बाद इस पर नियंत्रण नहीं रह जाता, जिससे हाइपोग्लाइसीमिया (Low Blood Sugar) का जोखिम रहता है।

नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने इंसुलिन को संशोधित किया है। डेनमार्क स्थित नोवो नॉर्डिस्क (Novo Nordisk) की रीटा स्लाबी के नेतृत्व में टीम ने ग्लूकोज़ के प्रति संवेदी इंसुलिन अणु में फेरबदल करके एक ‘स्विच’ जोड़ा है। यह स्विच रक्त शर्करा के स्तर के मुताबिक अपनी गतिविधि को चालू या बंद करता है। इस स्विच में दो भाग होते हैं: एक मैक्रोसाइकल (Macrocyle Structure) और एक ग्लूकोसाइड। जब रक्त शर्करा कम होती है, तो इंसुलिन निष्क्रिय रहता है। जैसे ही ग्लूकोज़ का स्तर बढ़ता है, इंसुलिन सक्रिय हो जाता है, और रक्त शर्करा का स्तर कम हो जाता है।

सूअरों और चूहों पर किए गए परीक्षणों में, NNC2215 ने रक्त शर्करा को कम करने में सामान्य इंसुलिन (Regular Insulin) के समान ही प्रभाव दर्शाया। महत्वपूर्ण बात यह रही कि इसने वर्तमान इंसुलिन उपचारों के साथ देखी जाने वाली रक्त शर्करा में गंभीर गिरावट की दिक्कत को भी रोका।

हालांकि, यह सफलता आशाजनक है फिर भी कुछ सवाल बने हुए हैं। जैसे यह परीक्षण मधुमेह रोगियों में आम तौर पर देखे जाने वाले रक्त शर्करा स्तर से कहीं अधिक व्यापक परास में किया गया। भविष्य के अध्ययनों को अधिक वास्तविक सीमा में इसका प्रभाव देखना होगा। इसके अतिरिक्त, इसे बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराने से पहले इसकी सुरक्षा और खर्च सम्बंधी मूल्यांकन (Cost Evaluation) किया जाना चाहिए।

फिलहाल, कई अन्य शोध टीमें ‘स्मार्ट’ इंसुलिन उपचार (Smart Insulin Therapy) विकसित कर रही हैं। इनका लक्ष्य स्मार्ट इंसुलिन दवाओं की एक शृंखला बनाना है जिसे अलग-अलग रोगियों के लिए तैयार किया जा सके और मधुमेह रोगियों को गुणवत्तापूर्ण जीवन (Quality of Life for Diabetes Patients) दिया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकृति में सोने के डले कैसे बनते हैं – माधव केलकर

सोना एक बहुमूल्य धातु है। दुनिया के सभी देश अपनी मुद्राओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निश्चित स्वर्ण भंडार बनाए रखते हैं। लेकिन धरती पर सोने की मौजूदगी बेहद कम है। दुनिया में सोने की खदानों पर एक नज़र डालेंगे तो चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, अमरीका, कनाडा, रूस जैसे देश सोने के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में सोने का उत्पादन कर्नाटक व आंध्रप्रदेश में मौजूद खदानों से होता है। कुछ प्रमुख तांबा खदानों में भी सोना मिलता है। वहीं झारखंड की स्वर्णरेखा नदी में बेहद कम मात्रा में रेत के साथ सोने के कण मिलते हैं इन्हें स्थानीय लोग रेत को धोकर-छानकर प्राप्त करते हैं। 

सोना उन धातुओं में शुमार है जो प्रकृति में मुक्त रूप में मिलता है। आम तौर पर तत्वों के अयस्क ऑक्साइड, कार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड के रूप में मिलते हैं। जैसे हीमेटाइट, मैग्नेटाइट, सिडेराइट, पायराइट, चाल्कोपायराइट आदि। लेकिन सोना, चांदी शुद्ध (Pure Metal) रूप में भी मिलते हैं। साथ ही, अन्य अयस्कों के साथ भी मिल सकते हैं। जैसे सोना तांबे के अयस्क चाल्कोपायराइट के साथ भी मिलता है हालांकि चाल्कोपायराइट में सोने की मात्रा बेहद कम होती है। सोना जिस खनिज के साथ सबसे ज़्यादा मिलता है वह है क्वार्ट्ज़ (Quartz) यानी सिलिका का ऑक्साइड। क्वार्ट्ज़ धरती की सतह से कुछ किलोमीटर नीचे तक चट्टानों के रूप में पाया जाता है। क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के कण एकत्रित होते जाते हैं। इन दरारों तक कई खनिजों के तरल गरम मिश्रण, जिन्हें हाइड्रोथर्मल तरल (Hydrothermal Fluids) कहा जाता है, के साथ सोना इन क्वार्ट्ज़ दरारों तक आता है और इन दरारों में इकट्ठा होने लगता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और सोने के बड़े-बड़े डिगले या डले बनते जाते हैं। 

क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के इस जमाव को लेकर काफी शोध एवं नए विचार सामने आए हैं। हाल में ही नेचर जियोसाइंस (Nature Geoscience) में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि धरती पर आने वाले भूकंप क्वार्ट्ज़ में आवेशों को उत्तेजित कर सकते हैं जिससे हाइड्रोथर्मल तरल में तैर रहे मुक्त सोने के कण क्वार्ट्ज़ पर एकत्रित होते जाते हैं। अभी तक इस परिकल्पना की जांच प्रयोगशाला स्तर पर करके देखी गई है। धरती के भूगर्भीय हालात में इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। 

सामान्य तौर पर सोने के बड़े डिगले या डले क्वार्ट्ज़ शिराओं या दरारों में पाए जाते हैं। भूवैज्ञानिक काफी पहले से यह जानते थे कि सोने से भरपूर हाइड्रोथर्मल तरल इन दरारों में जमा होते हैं। दरारों के बनने का सिलसिला धरती के भीतर उठने वाले भूकंप (Earthquakes) या विविध बलों की वजह से होता है। सोने के कण इस गरम तरल पदार्थ में घुले हुए नहीं होते बल्कि इसमें तैर रहे होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस गरम तरल में सोने की सांद्रता बहुत ज़्यादा होती हो। एक अनुमान है कि पांच स्वीमिंग पूल में मौजूद पानी के बराबर गरम तरल में एक किलो सोने की डली बनने लायक सोने के कण हो सकते हैं। 

सवाल यह है कि जब गरम तरल में सोने के कण इतने बिखरे-बिखरे हुए होते हैं तो ये चिपककर इतनी बड़ी डली कैसे बना लेते हैं। मोनाश विश्वविद्यालय (Monash University) के भूविज्ञानी क्रिस्टोफर वोइसी और उनके सहकर्मियों को लगा कि इसका जवाब दाब-विद्युत यानी पीज़ोइलेक्ट्रिक (Piezoelectric Effect) प्रभाव में छुपा हो सकता है। 

क्वार्ट्ज़ एक पीज़ोइलेक्ट्रिक पदार्थ (Piezoelectric Material) है, यानी जब इस पर यांत्रिक तनाव (Mechanical Stress) आरोपित किया जाता है तो इसमें विद्युत आवेश पैदा होता है। यह विद्युत तरल पदार्थ में मौजूद सोने के आयनों को ठोस सोना (Solid Gold) बनाने का कारण बन सकती है। ठोस सोना क्वार्ट्ज़ के विद्युत क्षेत्र में एक कंडक्टर के रूप में कार्य कर सकता है, जिससे घोल में मौजूद अधिक सोने के आयन एक ही स्थान पर आकर्षित होते हैं और अंततः एक साथ चिपक जाते हैं। लेकिन क्या भूकंप क्वार्ट्ज़ में पर्याप्त पीज़ोइलेक्ट्रिक वोल्टेज स्थापित कर सकता है जिससे ऐसा सब घटित हो?  इसका परीक्षण करने के लिए, टीम ने क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल को छोटे, स्वतंत्र रूप से तैरते सोने के कणों वाले घोल में डुबोया और भूकंपीय तरंगों की आवृत्ति जितनी सूक्ष्म तरंगों से क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल पर तनाव बनाया और हटाया। वोइसी और उनकी टीम ने पाया कि क्वार्ट्ज़ पर मामूली तनाव से भी क्रिस्टल की सतहों पर सोने के कण जमा हो जाते हैं। इस प्रयोग को कई बार दोहराने पर सोने के कणों का ढेर बड़ा होता जाता है। 

वोइसी कहते हैं कि यह भी संभव है कि पीज़ोइलेक्ट्रिक प्रभाव इन सोने की डलियों के बनने का केवल एक कारण हो, अन्य कारण खोजे जाने बाकी हैं। जब तक मनुष्य सोने को महत्व देते रहेंगे, तब तक सोने की डली बनने की खोज जारी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

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मशीन लर्निंग एवं कृत्रिम बुद्धि को नोबेल सम्मान

चक्रेश जैन

साल 2024 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों जॉन एच. हॉपफील्ड और जेफ्री ई. हिंटन को संयुक्त रूप से मिला है। यह पुरस्कार आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (Artificial Neural Network – ANN) के माध्यम से मशीन लर्निंग (Machine Learning) को सक्षम बनाने वाले बुनियादी सिद्धांत की नींव रखने के लिए दिया गया है। उन्होंने भौतिकी (Physics) के औज़ारों का उपयोग करके ऐसे तरीके विकसित किये हैं, जो मशीन लर्निंग की नींव साबित हुए हैं। आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क पर आधारित मशीन लर्निंग ने वर्तमान दौर में विज्ञान (Science), इंजीनियरिंग (Engineering) और रोज़मर्रा के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव किया है। नोबेल सम्मान यह भी रेखांकित करता है कि हम विचारों के ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहां आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क और मशीन लर्निंग समाज के लगभग हर क्षेत्र में हावी हो जाएंगे।

दोनों अध्ययनकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना बनाने वाले प्राकृतिक न्यूरल नेटवर्क अर्थात तंत्रिका कोशिकाओं को अत्यधिक गहराई और बारीकी से समझ कर कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क का सृजन किया है, जो स्मृतियों का संग्रह कर सकता है और वापिस पेश कर सकता है।

प्रोफेसर जॉन हॉपफील्ड ने एक ऐसी संरचना का सृजन किया है, जो जानकारियों का संग्रह और पुनर्प्राप्ति कर सकती है, जबकि जेफ्री हिंटन ने एक ऐसी विधि का आविष्कार किया है, जो स्वतंत्र रूप से डैटा में पैटर्न (Data Patterns) का पता लगा सकती है। यह अब लार्ज न्यूरल नेटवर्क के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहा है।

अधिकांश लोग जानते हैं कि कम्प्यूटर भाषाओं का अनुवाद, चित्रों की व्याख्या और तर्कपूर्ण संवाद कर सकता है। लेकिन कुछ ही लोगों को इस तरह की प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी है, जो लंबे समय से अनुसंधान कार्य के लिए अहम रही है।

विगत 15-20 वर्षों में मशीन लर्निंग का व्यापक पैमाने पर विकास हुआ है। इसमें आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क संरचना का उपयोग किया गया है। वर्तमान में जब हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (Artificial Intelligence – AI) यानी कृत्रिम बुद्धि की बात करते हैं, तो इसका अभिप्राय इसी प्रौद्योगिकी से है। हालांकि कंप्यूटर सोचने में सक्षम नहीं रहे हैं, लेकिन ये आधुनिक मशीनें अब स्मृति संजोने और सीखने जैसे कार्यों की नकल कर सकती हैं।

यहां एक बात पर गौर करने की ज़रूरत है। मशीन लर्निंग, पारम्परिक सॉफ्टवेयर से भिन्न है। 

आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क सम्पूर्ण नेटवर्क संरचना का उपयोग कर सूचनाएं प्रोसेस करता है। एक कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क में न्यूरॉन्स को अलग-अलग मान वाले बिंदुओं अथवा नोड्स के रूप में दिखाया जाता है। ये बिंदु कनेक्शन के ज़रिए एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। 

सन 1980 में हॉपफील्ड ने कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क विकसित किया और इसे ‘हॉपफील्ड नेटवर्क’ (Hopfield Network) नाम दिया गया। उन्हें इसकी प्रेरणा भौतिकी के एटामिक स्पिन (Atomic Spin) से मिली थी। यह तरीका मनुष्य के मस्तिष्क के पेटर्न की विशिष्टताओं जैसे सूचना संग्रह और पुनर्प्राप्ति की नकल करने में पूरी तरह सक्षम था। 

बाद में प्रोफेसर हिंटन ने प्रोफेसर हॉपफील्ड के अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए परिष्कृत कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क बनाया, जिसे बोल्ट्जमैन मशीन (Boltzmann Machine) कहा जाता है। इसमें कंप्यूटेशनल त्रुटियों को पकड़ने और उन्हें ठीक करने के लिए ‘हिडन लेयर्स’ (Hidden Layers) का उपयोग किया जाता है।

पुरस्कार की सूचना मिलने पर जेफ्री हिंटन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि एआई प्रौद्योगिकी (AI Technology) के वर्चस्व और विस्तार से मनुष्य के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसकी तुलना औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) से की जा सकती है। इससे रोज़गार (Jobs) के अवसरों पर विपरीत असर पड़ेगा। कुछ चीज़ें मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हो जायेंगी। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) के दुष्परिणामों पर चिंता जताते हुए बताया कि अंततः एआई मनुष्य को पीछे छोड़कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगी।

हिंटन ने एआई के कुछ अच्छे पहलुओं का ज़िक्र करते हुए बताया कि कई मायनों में यह प्रौद्योगिकी अद्भुत है। इससे हेल्थकेयर (Healthcare) के क्षेत्र में उल्लेखनीय बदलाव आयेगा। बेहतर डिजिटल सहायकों (Digital Assistants) का सृजन किया जा सकेगा। उत्पादकता (Productivity) के क्षेत्र में अत्यधिक सुधार होगा। हिंटन ने यह भी कहा है कि उन्होंने गूगल की नौकरी से इस्तीफा इसीलिए दिया, ताकि वे एआई से जुड़े विवादित मुद्दों पर लोगों के साथ खुलकर चर्चा कर सकें। 

गुज़रे साल 2023 में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित लार्ज लैंग्वेज मॉडल (Artificial Intelligence based Large Language Model – LLM) चैटजीपीटी (ChatGPT) दुनिया भर में चर्चा के केन्द्र में रहा है। दरअसल, चैटजीपीटी मॉडल कृत्रिम बुद्धि (जनरेटिव एआई – Generative AI) की देन है। चैटजीपीटी के विकास में हिंटन की अहम भूमिका रही है। चैटजीपीटी का उपयोग शोध पत्र लेखन (Research Paper Writing) से लेकर मौसम की भविष्यवाणी (Weather Prediction) तक में हो रहा है। सच तो यह है कि इसके उपयोगों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के कंप्यूटर वैज्ञानिक प्रोफेसर मिशेल वुडरिज (Professor Michael Wooldridge) ने पुरस्कार को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि एआई से विज्ञान का रूपांतरण हो रहा है। न्यूरल नेटवर्क पर शोध में मिली सफलताओं ने सूचनाओं के विश्लेषण को बेहद आसान बना दिया है। विज्ञान जगत का कोई ऐसा कोना अथवा विषय नहीं रहा है, जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अछूता बचा हो।

भौतिकी नोबेल समिति (Physics Nobel Committee) के चेयरमैन एलन मूंस (Alan Moons) का कहना है कि कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क ‘एएनएन’ का उपयोग पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics), माद्द विज्ञान (Material Science) और खगोल भौतिकी (Astrophysics) में अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। यह हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुका है, जिसके उदाहरण अनुवाद कार्य (Translation Work) और चेहरे की पहचान (Face Recognition) के रूप में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीन नियमन के एक नए रास्ते की खोज के लिए नोबेल

डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष का चिकित्सा अथवा कार्यिकी क्षेत्र का नोबेल सम्मान दो वैज्ञानिकों – विक्टर एम्ब्रोस तथा गैरी रुवकुन – को संयुक्त रूप से कोशिका के कामकाज के नियमन सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान के लिए दिया गया है। 

यह तो आज जीव विज्ञान (biology research) में सर्वमान्य तथ्य है कि गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम्स (chromosomes) सजीवों की कोशिकाओं के लिए एक निर्देश पत्र के समान होते हैं। इन गुणसूत्रों में डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (डीएनए) (DNA structure) के रूप में सारी सूचनाएं अंकित होती हैं। प्रत्येक सूचना खंड को जीन (genes) कहते हैं। यह भी ज़ाहिर है कि किसी भी सजीव की सारी कोशिकाओं में एक-से गुणसूत्र पाए जाते हैं। अर्थात हर कोशिका में संचालन के लिए निर्देश पत्र (जीन्स) एक ही होता है। फिर भी हर किस्म की कोशिकाएं अलग-अलग काम करती हैं। तो यह कैसे संभव होता है? इसका जवाब जीन नियमन (gene regulation) की प्रक्रिया में निहित है। इसी के परिणामस्वरूप हर किस्म की कोशिका में जीन्स का अलग-अलग समुच्चय सक्रिय होता है। 

एम्ब्रोस और रुवकुन ने जीन नियमन (gene expression) की इस प्रणाली का खुलासा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका यह अनुसंधान लगभग 30 वर्षों के अंतराल के बाद पुरस्कृत हुआ है। कोशिकाओं में जेनेटिक सूचना डीएनए (DNA transcription) में संग्रहित होती है। इसे संदेशवाहक आरएनए (mRNA) के रूप में नकल किया जाता है। इस प्रक्रिया को प्रतिलेखन (transcription process) कहते हैं। यह एमआरएनए कोशिका की अन्य मशीनरी की मदद से सम्बंधित प्रोटीन (protein synthesis) का निर्माण करवाता है। इस प्रक्रिया को अनुलेखन कहते हैं। यह अत्यंत सटीकता से की जाती है ताकि डीएनए के जीन में अंकित सूचना के आधार पर प्रोटीन बने। विभिन्न किस्म की कोशिकाओं में एक-सी आनुवंशिक सूचना (genetic code) होने के बावजूद वे एकदम अलग-अलग काम करती हैं, उनमें अलग-अलग प्रोटीन का निर्माण होता है। अर्थात उनमें अलग-अलग जीन्स अभिव्यक्त (gene expression regulation) होते हैं। तभी तो मांसपेशियों की कोशिकाएं, पैंक्रियास की कोशिकाएं, आंतों की कोशिकाएं सर्वथा भिन्न-भिन्न काम कर पाती हैं। इसके अलावा एक मसला यह भी है कि हरेक कोशिका को शरीर की स्थिति और पर्यावरण के हिसाब से अपने कामकाज का तालमेल बनाना पड़ता है। और यह सब होता है जीन नियमन के द्वारा। यदि जीन नियमन गड़बड़ हो जाए तो तमाम किस्म की दिक्कतें पैदा होने लगती हैं। जैसे कैंसर (cancer research), डायबिटीज़ (diabetes research) वगैरह। 

तो जीन नियमन (gene regulation research) को समझना जीव विज्ञान में एक महत्वपूर्ण अनुसंधान क्षेत्र रहा है। 1960 के दशक में यह दर्शाया गया था कि कुछ विशेष प्रोटीन्स (proteins) इस बात का नियमन करते हैं कि कौन-से एमआरएनए का निर्माण होगा। इन्हें प्रतिलेखन कारक (transcription factors) कहते हैं। इस समझ के बाद हज़ारों प्रतिलेखन कारक खोजे जा चुके हैं और यह लगभग मान लिया गया था कि जीन नियमन की गुत्थी को सुलझा लिया गया है। लेकिन… 

जी हां, लेकिन। 1993 में इस वर्ष के नोबेल विजेताओं ने ऐसी अनपेक्षित खोज (Nobel Prize discovery) का प्रकाशन किया जिसने जीन-नियमन के सर्वथा नए स्तर को उजागर किया। यह अनुसंधान एक नन्हे कृमि सीनोरेब्डाइटिस एलेगेंस (Caenorhabditis elegans) की मदद से हुआ था। 

बात यह थी कि 1980 के दशक में एम्ब्रोस और रुवकुन एक अन्य नोबेल विजेता रॉबर्ट होरविट्ज़ की प्रयोगशाला में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे। वहीं उन्होंने सी. एलेगेंस का अध्ययन किया था। यह जटिल जंतुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छा मॉडल माना जाता है कि बहुकोशिकीय जंतुओं में ऊतक कैसे विकसित होते हैं और परिपक्व होते हैं।

बात यह थी कि 1980 के दशक में एम्ब्रोस और रुवकुन एक अन्य नोबेल विजेता रॉबर्ट होरविट्ज़ की प्रयोगशाला में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे। वहीं उन्होंने सी. एलेगेंस का अध्ययन किया था। यह जटिल जंतुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छा मॉडल (model organism) माना जाता है कि बहुकोशिकीय जंतुओं में ऊतक कैसे विकसित होते हैं और परिपक्व होते हैं। 

एम्ब्रोस और रुवकुन की रुचि विभिन्न जेनेटिक प्रोग्राम्स (genetic programs) के सक्रिय होने के समय को नियंत्रित करने वाले जीन्स में थी। इन्हीं के द्वारा यह सुनिश्चित होता है कि विभिन्न किस्म की कोशिकाएं सही समय पर विकसित हों। इस काम के लिए उन्होंने सी. एलेगेंस के उत्परिवर्तित रूपों को चुना। इन्हें lin-4 और lin-14 कहते हैं। इन दोनों में विकास के दौरान जेनेटिक प्रोग्राम्स के क्रियाशील होने के समय में गड़बड़ी देखने को मिलती थी। हमारे इस वर्ष के नोबेल विजेता इनमें उपस्थित उत्परिवर्तित जीन्स की शिनाख्त करना चाहते थे और उनकी क्रियाविधि को समझना चाहते थे। 

एम्ब्रोस पहले ही यह दर्शा चुके थे कि lin-4 जीन lin-14 जीन की सक्रियता को बाधित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वह ऐसा कैसे करता है। एम्ब्रोस और रुवकुन इसी गुत्थी को सुलझाने में भिड़ गए। 

एम्ब्रोस ने lin-4 उत्परिवर्तित कृमि का अध्ययन किया। उन्होंने इस जीन का क्लोन बनाया तो विचित्र परिणाम प्राप्त हुए। lin-4 जीन ने एक ऐसे आरएनए (RNA regulation) का निर्माण किया जो असाधारण रूप से छोटा था और वह किसी प्रोटीन का कोड नहीं था। एक अनुमान था कि यही लघु आरएनए दूसरे जीन lin-14 को बाधित करने के लिए ज़िम्मेदार है। 

लगभग इसी समय रुवकुन ने lin-14 जीन के नियमन की खोजबीन शुरू की। उस समय जीन नियमन की जो प्रणाली ज्ञात थी उसमें यह होता था कि किसी जीन द्वारा निर्मित संदेशवाहक आरएनए (messenger RNA) किसी दूसरे जीन द्वारा एमआरएनए के निर्माण को बाधित करता है। लेकिन रुवकुन ने दर्शाया कि lin-4 जीन lin-14 जीन की क्रिया में बाधा एमआरएनए के निर्माण के दौरान नहीं पहुंचाता है बल्कि बाद के किसी चरण में पहुंचाता है। वह चरण होता है प्रोटीन के निर्माण का। शोध से यह भी पता चला कि lin-14 जीन का एक खंड lin-4 जीन की क्रिया को बाधित करने के लिए अनिवार्य होता है। 

जब एम्ब्रोस और रुवकुन ने अपने परिणामों को जोड़कर देखा तो एक ज़ोरदार खोज (breakthrough discovery) सामने आई। lin-4 का एक खंड हूबहू lin-14 के निर्णायक खंड से मेल खाता है। आगे किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि lin-4 द्वारा बनाया गया माइक्रो-आरएनए (micro-RNA) जाकर lin-14 द्वारा बनाए गए एमआरएनए के पूरक अनुक्रम से जुड़ जाता है और उसके द्वारा प्रोटीन निर्माण को रोक देता है। तो इस प्रकार जीन नियमन का एक नया सिद्धांत उभरा – जिसे माइक्रो-आरएनए (microRNA regulation) के माध्यम से क्रियांवित किया जाता है। 

1993 में सेल पत्रिका में प्रकाशित इन निष्कर्षों पर वैज्ञानिकों ने यह कहकर ध्यान नहीं दिया कि ये शायद महज़ सी. एलेगेंस कृमि के संदर्भ में हैं। लेकिन वर्ष 2000 में यह मत बदलने लगा जब रुवकुन के समूह ने एक और माइक्रो-आरएनए की खोज (microRNA discovery) का प्रकाशन किया। यह माइक्रो-आरएनए एक अन्य जीन let-7 द्वारा बनाया जाता है। ध्यान खींचने वाली बात यह थी कि let-7 जीन समूचे जंतु जगत में पाया जाता है। इस खोज के प्रकाशन के बाद तो सैकड़ों माइक्रो-आरएनए पहचाने गए और आज हम मनुष्य में माइक्रो-आरएनए (human microRNA genes) बनाने वाले एक हज़ार से ज़्यादा जीन्स जानते हैं। और यह भी ज्ञात हो चुका है कि माइक्रो-आरएनए द्वारा जीन्स का नियमन बहु-कोशिकीय जीवों में सर्वत्र पाया जाता है। 

1993 में हुई इस महत्वपूर्ण खोज (important discovery) के लिए नोबेल पुरस्कार 30 से अधिक वर्षों बाद दिया गया है। इस बीच कई सारे समूहों ने यह पता लगा लिया है कि माइक्रो-आरएनए का निर्माण कैसे होता है और उन्हें उनकी पूरक शृंखला तक कैसे पहुंचाया जाता है। जब माइक्रो-आरएनए जाकर एमआरएनए के पूरक खंड से जुड़ जाता है तो या तो वह एमआरएनए प्रोटीन का संश्लेषण नहीं करवा पाता है या उसका विघटन हो जाता है। यह भी पता चल चुका है कि एक अकेला माइक्रो-आरएनए कई सारे अलग-अलग जीन्स की अभिव्यक्ति (gene expression) का नियमन कर सकता है और कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति का नियमन एक से अधिक माइक्रो-आरएनए कर सकते हैं। 

माइक्रो-आरएनए निर्माण की क्रियाविधि का इस्तेमाल कई अन्य लघु आरएनए के निर्माण में भी किया जाता है जो प्रोटीन का संश्लेषण करवा सकते हैं। जैसे ये लघु आरएनए पौधों को वायरस संक्रमण से बचाते हैं। इसी संदर्भ में आरएनए इंटरफेरेंस (RNA interference) की प्रक्रिया की खोज के लिए 2006 में नोबेल सम्मान मिल चुका है। 

माइक्रो-आरएनए के शरीर क्रियात्मक असर काफी व्यापक हैं। ज़ाहिर है, जटिलतम होते गए सजीवों का विकास इन्हीं के दम पर हुआ है। काफी शोध की बदौलत हम जानते हैं कि माइक्रो-आरएनए की अनुपस्थिति में कोशिकाएं और ऊतक सामान्य रूप से विकसित नहीं हो पाते। यदि माइक्रो-आरएनए नियमन गड़बड़ा जाए तो कैंसर जैसी समस्याएं (cancer-related issues) पैदा हो सकती हैं। मनुष्यों में माइक्रो-आरएनए के उत्परिवर्तित जीन्स पाए गए हैं जो कई दिक्कतों को जन्म देते हैं। 

कुल मिलाकर कोशिकाओं में जेनेटिक सूचना के नियमन (genetic information regulation) को लेकर एक बुनियादी जिज्ञासा से प्रेरित एम्ब्रोस और रुवकुन ने एक कृमि पर शोध की मदद से ऐसी असाधारण खोज (extraordinary discovery) की जिसने जीन नियमन का एक नया आयाम उजागर किया जो बहु-कोशिकीय जीवों के लिए अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना के लिए नोबेल

चक्रेश जैन

साल 2024 का रसायन नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से दिया गया है। तीनों वैज्ञानिकों ने प्रोटीन की संरचना (Protein Structure) अथवा बनावट समझने और पूर्वानुमान के लिए कंप्यूटर टूल्स (Computer Tools) और कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence – AI) तकनीकों का उपयोग किया है। 

गूगल डीप माइंड (Google DeepMind) के डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने एआई मॉडल अल्फाफोल्ड (AlphaFold AI Model) के विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है, जिसकी सहायता से प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना (3D Protein Structure) की भविष्यवाणी की जा सकती है। पुरस्कार की आधी राशि इन दोनों वैज्ञानिक को दी जाएगी। पुरस्कार की शेष आधी राशि डेविड बेकर को मिलेगी। बेकर ने कंप्यूटेशनल रिसर्च (Computational Research) के ज़रिए बिलकुल नए प्रकार के प्रोटीन डिज़ाइन किए हैं। इनका उपयोग टीकों (Vaccines), नैनो पदार्थ (Nanomaterials), सूक्ष्म संवेदकों और औषधियों (Drugs) में संभव है। 

1976 में जन्मे हस्साबिस ने युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्हें अल्फाफोल्ड मॉडल पर शोध के लिए ‘ब्रेकथ्रू’ पुरस्कार (Breakthrough Prize) सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। 

1985 में जन्मे जॉन जम्पर ने 2017 में शिकागो युनिवर्सिटी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्हें विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका *नेचर* ने साल 2021 में टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया था। 

डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर दोनों ही लंदन स्थित एक ही कंपनी गूगल डीप माइंड से जुड़े हुए हैं। 

डेविड बेकर को पुरस्कार नए प्रोटीन (New Protein Design) के निर्माण की असंभव लगने वाली उपलब्धि के लिए दिया गया है। डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को अल्फाफोल्ड नाम के एआई मॉडल (AI Model for Protein Structure) का विकास और उसका उपयोग करके प्रोटीन की जटिल संरचनाओं की भविष्यवाणी करने की आधी सदी पुरानी समस्या के समाधान के लिए दिया गया है। 

किसी प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना को निर्धारित करने के जटिल व लंबी अवधि तक चलने वाले प्रयोगों की आवश्यकता होती थी। प्रोटीन का कार्य उसकी त्रि-आयामी रचना से ही निर्धारित होता है। 

प्रोटीन दरअसल अमीनो अम्लों (Amino Acids) की एक लंबी शृंखला से बने होते हैं। पहला काम होता है किसी प्रोटीन में इन अमीनो अम्लों का अनुक्रम (Amino Acid Sequence) पता करना। किसी प्रोटीन में अमीनो अम्ल के अनुक्रम के बारे में जान जाने के बाद भी वह शृंखला विभिन्न ढंग से तह होकर कई आकृतियां ग्रहण कर सकती है। प्रोटीन की इस तह की हुई त्रि-आयामी संरचना का निर्धारण अत्यधिक चुनौतीपूर्ण होता है।

मिसाल के तौर पर अगर किसी प्रोटीन में केवल 100 अमीनो अम्ल हों, तो वह कम-से-कम 1047 विभिन्न त्रि-आयामी संरचनाएं ग्रहण कर सकता है। कुछ वर्षों पहले तक मनुष्यों में पाए जाने वाले करीब 20,000 प्रोटीनों में से केवल एक-तिहाई की संरचना ही प्रयोगशाला के स्तर पर आंशिक रूप से निर्धारित की गई थी।

अल्फाफोल्ड (AlphaFold) ने अब तक लगभग दस लाख प्रजातियों में लगभग 20 करोड़ प्रोटीन (Proteins) की त्रि-आयामी संरचनाओं की भविष्यवाणी की है। 

2018 में हस्साबिस और जम्पर ने प्रोटीन संरचना के पूर्वानुमान में 60 प्रतिशत की सटीकता प्राप्त कर ली थी। सन 2020 में एआई मॉडल के प्रदर्शन की तुलना एक्स-रे क्रिस्टेलोग्रॉफी (X-Ray Crystallography) से की गई थी। एक्स-रे क्रिस्टेलोग्राफी प्रोटीन संरचना पता करने की एक और विधि है। हालांकि यह एआई मॉडल अभी भी पूरी तरह मुकम्मल नहीं है, परन्तु यह इस बात का अनुमान लगाता है कि जो संरचना प्रस्तावित की गई है, वह कितनी सही है। 

वर्ष 2021 से अल्फाफोल्ड मॉडल का कोड (AlphaFold Code) सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है। इस एआई उपकरण का उपयोग 190 देशों के बीस लाख से अधिक शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। 

बेकर ने अमीनो अम्ल के अनुक्रमों के आधार पर प्रोटीन की संरचना की भविष्यवाणी करने की बजाय नई प्रोटीन संरचनाओं (New Protein Structures) का सृजन किया। उन्होंने अपने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर रोसेटा (Rosetta Software) का उपयोग ऐसे नए प्रोटीनों का निर्माण करने के लिए किया, जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। बेकर ने ज्ञात प्रोटीन संरचनाओं के डैटाबेस की खोज और समानता वाले प्रोटीनों के छोटे टुकड़ों की तलाश करके अमीनो अम्ल का अनुक्रम निर्धारित करने में रोसेटा का उपयोग किया है। 

प्रोटीन सजीवों में होने वाली सभी प्रकार की रासायनिक अभिक्रियाओं को नियंत्रित और संचालित करते हैं। प्रोटीन अणु, हारमोन्स (Hormones), एंटीबॉडीज़ (Antibodies) और विभिन्न ऊतकों में बिल्डिंग ब्लॉक (Building Blocks) की भूमिका भी निभाते हैं। प्रोटीन आकृति में फीते की तरह होते हैं और अमीनो अम्लों की लंबी शृंखला से बने होते हैं। सामान्य तौर पर प्रोटीन 20 अलग-अलग प्रकार के अमीनो अम्लों से बनते हैं। प्रोटीन की लंबी शृंखला को तह करके त्रि-आयामी संरचना बनाई जा सकती है।   

सन् 1970 से वैज्ञानिक प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना (3D Protein Structure) की भविष्यवाणी पर अनुसंधान कर रहे हैं। इस विषय पर शोधकार्य की रफ्तार बेहद धीमी रही है। लेकिन साल 2020 में अनुसंधानकर्ताओं को बड़ी सफलता मिली जब प्रोफेसर हस्साबिस और जॉन जम्पर ने कृत्रिम बुद्धि (AI) की सहायता से अल्फाफोल्ड-2 (AlphaFold-2) के विकास की घोषणा की थी। प्रोफेसर जॉन जम्पर ने संवाददाताओं के सवालों का उत्तर देते हुए बताया कि डीप लर्निंग मॉडल (Deep Learning Model) ने जीव विज्ञान की जटिलताओं के समाधान में सही डैटा (Data) उपलब्ध कराया है। उन्होंने बताया कि अल्फाफोल्ड-2 का विभिन्न तरह से उपयोग किया गया है। इनमें बीमारियों के हमले से मुकाबला करने की क्षमता और प्लास्टिक के विघटन में भूमिका निभाने वाले एंजाइम (Enzymes) शामिल हैं। 

हस्साबिस का कहना है कि अल्फाफोल्ड मॉडल की खोज को एआई की विपुल संभावनाओं (AI Potential) के प्रमाण के तौर पर देखना चाहिए। इससे न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान की रफ्तार तेज़ होगी, बल्कि समाज को भी लाभ मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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आपका टूथब्रश सैकड़ों वायरसों का अड्डा है

क्या आप जानते हैं कि आपके टूथब्रश (Toothbrush) और शॉवरहेड (Showerhead) में सैकड़ों वायरस (Viruses) हो सकते हैं? लेकिन घबराने की कोई ज़रूरत नहीं! बैक्टीरियोफेज (Bacteriophages) नामक ये वायरस सिर्फ बैक्टीरिया (Bacteria) को संक्रमित करते हैं, इंसानों को इससे कोई खतरा नहीं हैं। उल्टा ये वायरस हमें खतरनाक, दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Drug-Resistant Bacteria) से लड़ने के नए तरीके खोजने में मदद कर सकते हैं। 

नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी की एरिका हार्टमैन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने आम घरेलू सतहों पर वायरस की अदृश्य दुनिया की अधिक जानकारी के लिए अमेरिकी घरों से 92 शॉवरहेड और 36 टूथब्रश का अध्ययन किया। उन्नत डीएनए अनुक्रमण तकनीकों (DNA Sequencing) का उपयोग करके, इन नमूनों में उन्होंने 600 से अधिक विभिन्न प्रकार के बैक्टीरियोफेज (Phages) पाए। इनमें से ज़्यादातर वायरस टूथब्रश में पाए गए और वहां मिले कई वायरस तो विज्ञान के लिए सर्वथा नए थे। 

बैक्टीरियोफेज आम तौर पर दो में से किसी एक तरीके से कार्य करते हैं: वे या तो बैक्टीरिया की मशीनरी को हाईजैक (Hijack Bacterial Machinery) कर लेते हैं और अपनी प्रतियां बनाकर अंतत: मेज़बान बैक्टीरिया को नष्ट कर देते हैं, या वे बैक्टीरिया के जीनोम (Bacterial Genome) में एकीकृत हो जाते हैं और बैक्टीरिया के व्यवहार को बदल देते हैं। ये वायरस संभवत: हमारे घरों में रसोई के सिंक (Kitchen Sink) या रेफ्रिजरेटर जैसी अन्य नम सतहों पर भी मौजूद होते हैं। 

यह अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि बैक्टीरियोफेज रोज़मर्रा के वातावरण (Everyday Environment) में कैसे काम करते हैं, जिससे शोधकर्ताओं को आसपास छिपी हुई सूक्ष्मजीवी दुनिया (Microbial World) को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैक गिल्बर्ट इसे एक ‘आकर्षक संसाधन’ के रूप में देखते हैं जो हमारे घरों के अंदर फेज गतिविधि (Phage Activity) के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करता है। 

इस शोध की एक दिलचस्प संभावना यह भी है कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Antibiotic-Resistant Bacteria) से निपटने के लिए नए खोजे गए बैक्टीरियोफेज का उपयोग किया जा सकता है। जब एंटीबायोटिक्स विफल हो जाते हैं, तो इंजीनियर्ड बैक्टीरियोफेज (Engineered Phages) का उपयोग कभी-कभी इन सुपरबग्स (Superbugs) को मारने के लिए किया जा सकता है। यह उपचार के लिए एक आशाजनक विकल्प प्रदान करता है। 

सारत: साधारण-सा दिखने वाला टूथब्रश अदृश्य वायरसों (Invisible Viruses) से भरा और चिकित्सा में उपयोगी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन: कार्बन हटाने की बजाय उत्सर्जन घटाएं

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विरुद्ध वैश्विक जंग में, वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 Removal) को हटाने की तकनीकों पर ध्यान बढ़ रहा है। लेकिन उभरते शोध से पता चलता है कि इन तकनीकों पर अत्यधिक निर्भरता हमारे ग्रह (Planetary Health) को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है। 

वर्ष 2015 में पेरिस समझौते (Paris Agreement) में वैश्विक तापमान वृद्धि (Global Warming) को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और यथासंभव 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया था। अधिकांश जलवायु मॉडल (Climate Models) का अनुमान है कि कार्बन हटाने की विभिन्न तकनीकों से तापमान कम तो होगा लेकिन पूर्व निर्धारित सीमा को पार कर जाएगा। 

अब बड़ा सवाल यह है कि इस सीमापार (1.5 डिग्री से अधिक) अवधि के दौरान क्या हो सकता है? नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित कार्ल-फ्रेडरिक श्लूसनर के नेतृत्व में किया गया एक नया अध्ययन संभावित परिणामों पर प्रकाश डालता है। यदि हम तापमान (Global Temperature) को वापस नीचे लाने में सफल हो भी जाएं, तब भी 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के प्रभाव गंभीर और दीर्घकालिक होंगे, जिससे आने वाले दशकों तक लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystems) दोनों पर असर पड़ेगा। 

तापमान में वृद्धि का खतरा (Temperature Rise Risks) 

तापमान में वृद्धि का मतलब है कि अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान सीमा (Temperature Threshold) को पार करना और फिर बाद में वैश्विक तापमान को कम करना। श्लूसनर के शोध में चेतावनी दी गई है कि इस तरह की वृद्धि से भीषण तूफान (Extreme Weather Events) और लू जैसी चरम मौसमी घटनाएं हो सकती हैं तथा जंगल और कोरल रीफ (Coral Reefs) जैसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश हो सकता है। 

इसके अलावा, तापमान वृद्धि से पृथ्वी के जलवायु तंत्र (Climate Systems) का नाकाबिले-पलट बिंदु तक पहुंचने का जोखिम बढ़ सकता है। मसलन, उच्च तापमान ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर (Greenland Ice Sheet) का ढहना या अमेज़ॉन वर्षावन (Amazon Rainforest) के अपरिवर्तनीय पतन शुरू कर सकता है। भले ही हम बाद में वैश्विक तापमान कम करने में कामयाब हो जाएं लेकिन उससे पहले ही काफी स्थायी नुकसान हो चुका होगा। 

कार्बन हटाना: आसान काम नहीं (Carbon Removal Challenges) 

हालांकि, पेड़ लगाना या कार्बन कैप्चर (Carbon Capture) जैसे तरीके समाधान का हिस्सा हैं, लेकिन ये अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। श्लूसनर की टीम के अनुसार 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें वर्ष 2100 तक वायुमंडल से 400 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड (Gigaton CO2) हटाना होगा जो कि एक कठिन चुनौती होगी। 

यदि बड़े पैमाने पर कार्बन हटाना (Carbon Sequestration) संभव हो जाए, तो भी तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण होने वाले कुछ बदलाव स्थायी हो सकते हैं। बढ़ता समुद्र स्तर (Sea Level Rise), जलवायु क्षेत्रों में बदलाव और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान जारी रह सकते हैं, जिससे कृषि जैसे कारोबरों के लिए अनुकूलन करना कठिन हो जाएगा। 

नैतिक चिंताएं (Ethical Concerns) 

अध्ययन में उठाया गया एक और मुद्दा नैतिकता का है। एक बड़ा सवाल यह है कि तापमान में वृद्धि (Temperature Increase) के दौरान और उसके बाद जलवायु प्रभावों का खामियाजा कौन भुगतेगा। जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार कम आय वाले देश (Low-Income Nations) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। ये क्षेत्र पहले से ही इंतहाई मौसम और पर्यावरणीय क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, और तापमान में वृद्धि से उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी। 

उत्सर्जन रोकना आवश्यक है (Emission Reduction Necessary) 

लक्ष्य से अधिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि उत्सर्जन करने के बाद कार्बन डाईऑक्साइड हटाने पर। विशेषज्ञ सरकारों (Government Policies) और उद्योगों द्वारा उत्सर्जन में भारी कटौती करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। 

यू.के. ने हाल ही में अपने अंतिम कोयला-चालित बिजली संयंत्र (Coal Plants) को बंद किया है और अगले 25 वर्षों में कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियों (Carbon Capture and Storage) में 22 अरब पाउंड (करीब 230 अरब रुपए) का निवेश करने की घोषणा की है। आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों में लागू किए जा रहे इन प्रयासों का उद्देश्य जलवायु चुनौतियों का समाधान करते हुए रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाना है। 

अलबत्ता, ये केवल शुरुआती प्रयास हैं। वैश्विक नेताओं को, विशेष रूप से आगामी कोप 29 (COP29) शिखर सम्मेलन में, 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए उत्सर्जन में कटौती (Emission Reduction Targets) को प्राथमिकता देनी चाहिए। कार्रवाई में देरी करना और भविष्य में कार्बन हटाने पर निर्भर रहना एक जोखिम भरी रणनीति है जो लोगों और ग्रह दोनों के लिए विनाशकारी हो सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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