जलमग्न पर्वत शृंखला पर मिली व्यापक जैव विविधता

हरे समुद्र में स्थित चट्टानों पर आकर्षक बैंगनी, हरे और नारंगी रंग के स्पॉन्ज हैं। मैरून कांटों वाले समुद्री अर्चिन झुंड में है और खसखसी रंग के क्रस्टेशियंस उनके बीच विचर रहे हैं। पारदर्शी, भूतिया से दिखने वाले जीव अंधेरे में इधर-उधर फिर रहे हैं। ये नज़ारे हैं चिली तट से कुछ दूरी पर स्थित जलमग्न पहाड़ों के आसपास के, जिन्हें श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने रोबोट पर कैमरा लगाकर कैद किया है।

वास्तव में उन्होंने समुद्र के भीतर फैली नाज़्का और सालास वाई गोमेज़ पर्वतमाला के पास 4500 मीटर की गहराई तक रिकॉर्डिंग की है। ये दो पर्वतमालाएं मिलकर लगभग 3000 किलोमीटर में फैली हैं। यहां उन्हें स्पॉन्ज, एम्फिपोड, समुद्री अर्चिन, क्रस्टेशियंस और मूंगा सहित कई जीवों की करीब 100 से अधिक नई प्रजातियां मिली हैं। उन्होंने चिली के नज़दीक समुद्र के नीचे चार समुद्री पर्वतों का मानचित्रण किया जिनके बारे में पहले पता नहीं था। इनमें से सबसे ऊंचा पर्वत समुद्र तल से 3530 मीटर ऊंचा है, जिसे शोधकर्ताओं ने सोलिटो नाम दिया है।

तस्वीरों के अलावा, रोबोट यहां से कुछ जीवों को लेकर भी आया है। इनकी मदद से उनकी प्रजातियों को पहचानने या उन्हें नई प्रजातियों में वर्गीकृत करने में मदद मिलेगी। इन नई प्रजातियों से वैज्ञानिकों को इस विशाल क्षेत्र की जटिल वंशावली बनाने और इन जीवों को अस्तित्व में लाने वाले वैकासिक पड़ावों के बारे में जानने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन समुद्री पर्वतों पर इतनी अधिक जैव विविधता पाए जाने और बचे रहने का श्रेय काफी हद तक इन जगहों के समुद्री पार्क के रूप में संरक्षण को जाता है। इस क्षेत्र का काफी बड़ा हिस्सा चिली द्वारा प्रशासित जुआन फर्नांडीज़ और नाज़्का-डेसवेंचुरडास समुद्री पार्कों के अंतर्गत संरक्षित है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जब हंसी मज़ाकिया न हो

ई के पहले रविवार को विश्व ठहाका दिवस होगा। इस अवसर पर अखबारों से लेकर व्हाट्सएप संदेश व अन्य (सोशल) मीडिया प्लेटफॉर्म हंसने के फायदे के बारे बताएंगे। बताया जाएगा कि हंसना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह हमारी धमनियों को तंदुरुस्त रखता है, आईवीएफ की सफलता दर को बढ़ाता है, तनाव से राहत देता है, यहां तक कि कैंसर को ठीक भी कर देता है।

लेकिन हंसना एक बीमारी भी हो सकती है जो बे-वक्त, बे-मौके पर फूटकर व्यक्ति को शर्मिंदा कर सकती है/परेशानी में डाल सकती है। अधिक हंसी जीर्ण सिरदर्द का कारण भी बन सकती है। यहां तक कि हंसी के बेकाबू दौरे पड़ सकते हैं।

हंसने के कारण उपजी ऐसी ही एक स्थिति है ‘परिस्थितिजन्य सिरदर्द’। एक 52 वर्षीय महिला परिस्थितिजन्य सिरदर्द यानी अत्यधिक हंसने के कारण उपजे सिरदर्द से 32 वर्षों से पीड़ित थी। मस्तिष्क का स्कैन करने पर पता चला कि उसके मस्तिष्क में तीन जगहों पर मस्तिष्क-मेरु द्रव के थक्के जमा हैं। जब वह हंसती थी तो हंसी के कारण द्रव के दबाव में होने वाले परिवर्तन के कारण सिरदर्द होने लगता था। हालांकि खांसने-छींकने पर भी उसे सिरदर्द होने लगता था। लेकिन हंसी भी सिरदर्द का कारण तो बनती थी।

इससे अलग, द्विध्रुवी विकार (बायपोलर डिसऑर्डर) से पीड़ित एक व्यक्ति को हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाने के कारण मिर्गी के दौरे पड़ते थे। टीवी पर कॉमेडी शो देखते हुए जब भी वह कोई चुटकुला सुनता, हंसी आती और हंसते-हंसते जब वह लोट-पोट होने लगता तो उसके हाथ कांपने लगते और उसे ऐसा लगता जैसे उसकी चेतना शून्य हो रही है। एक दिन में पड़ने वाले मिर्गी के दौरों की संख्या और कॉमेडी शो की लंबाई और शो कितना हंसोड़ था के बीच सम्बंध था; औसतन  दिन में पांच बार। पहले तो डॉक्टरों को लगा कि दौरे उसके द्विध्रुवी विकार के कारण पड़ते हैं। लेकिन जब उन्होंने ईईजी के माध्यम से दो दिनों तक उसकी मस्तिष्क तरंगों को नापा तो पता चला कि मिर्गी के दौरों का सम्बंध उसकी लोट-पोट होकर हंसने वाली हंसी से था।

हंसी मस्तिष्क के दो अलग-अलग क्षेत्रों में हलचल से आती है: टेम्पोरल लोब, जो भावनात्मक पहलुओं को संभालता है; और फ्रंटल कॉर्टेक्स, जो क्रियाकारी हिस्से (चलना, दौड़ना, कूदना, फेंकना, झेलना, पकड़ना वगैरह) को संभालता है। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि हंसने के कारण क्रियाकारी क्षेत्र में हलचल होने से मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। उपचार लेने से समस्या ठीक तो हो गई लेकिन यदि, खुदा न ख्वास्ता, उनका अनुमान ठीक न निकलता तो शायद उसे टीवी देखना बंद करना पड़ता।

हंसी के कारण एक और जो समस्याप्रद स्थिति बनती है वह है पैथालॉजिकल लाफ्टर। पैथालॉजिकल लाफ्टर से पीड़ित शख्स को अचानक ही वक्त-बेवक्त, मौके-बेमौके ही हंसी आ जाती है। ऐसे ही एक मामले में एक शख्स को अपने परिवार के साथ शराड का खेलते हुए हंसी का दौरा पड़ा। आगे चलकर किसी के अंतिम संस्कार में, यहां तक कि अपनी बीमार मां से मिलते वक्त भी हंसी का दौरा पड़ गया। इसके चलते उसे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई और उसने लोगों से मेल-जोल ही छोड़ दिया। मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर पाया गया कि मस्तिष्क कोशिकाओं को जोड़ने वाले सफेद पदार्थ में घाव थे। साथ ही, मध्य मस्तिष्क और टेम्पोरल लोब में भी घाव थे। पैथोलॉजिकल लॉफ्टर का कारण तो पता नहीं चल पाया है लेकिन ऐसे मौकों पर एकदम तुरंत हंसी आने के बजाय थोड़ी देर बाद हंसी (विलंबित हंसी) आने के आधार पर लगता है कि इसका कारण सिर्फ घाव नहीं हैं। विलंबित हंसी आने से लगता है कि स्वायत्त क्रियाकारी केंद्र बनने में समय लगता है। जिससे लगता है कि नई तंत्रिका गतिविधि या नए हंसी नियंत्रण केंद्र बन रहे हैं।

ये ऐसे कुछ मामले थे जो हंसी से सम्बंधित समस्याओं को दर्शाते थे। लेकिन इन्हें पढ़कर हंसना मत छोड़िए। बस, जब लगे कि आपका हंसना आपके लिए कोई गंभीर समस्या पैदा कर रहा है तो डॉक्टर से मिलिए। वरना हंसिये-हंसाइए। (स्रोत फीचर्स)

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टीकों में सहायक पदार्थों का उपयोग

टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।

टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।

एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।

हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।

इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।

अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।

इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।

विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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कीटनाशक: प्रभाव और विकल्प – डॉ. आष्मा अग्रवाल

कीटनाशक प्राकृतिक या रासायनिक रूप से संश्लेषित यौगिक हैं जो संपूर्ण खाद्य और पशु आहार उत्पादन चक्र के दौरान कीटों को रोकने, नष्ट करने, खदेड़ने या नियंत्रित करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। कीटनाशक कई तरह के होते हैं। जैसे, पौधों के विकास नियामक, डिफॉलिएटर्स (पत्तीनाशी), डेसिकैंट्स (जलशोषक), फलों की तादाद कम करने वाले रसायन, और परिवहन एवं भंडारण के दौरान फसल को खराब होने से बचाने वाले रसायन जिन्हें कटाई के पहले या बाद में फसलों पर लगाया जाता है। जंतुओं के बाह्य-परजीवियों का प्रबंधन भी कीटनाशकों के माध्यम से किया जाता है। कीटनाशी, शाकनाशी, कवकनाशी, कृमिनाशी और पक्षीनाशी वगैरह कीटनाशकों की विभिन्न श्रेणियां हैं।

कीटनाशकों को उनके सक्रिय घटक, रासायनिक संरचना, क्रिया के तरीके और विषाक्तता के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। कीटनाशक कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों तरह के हो सकते हैं। जैविक कीटनाशक कार्बन आधारित होते हैं, जैसे प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त कीटनाशक या कार्बनिक रसायनों से संश्लेषित कीटनाशक। अकार्बनिक कीटनाशक खनिज या ऐसे रासायनिक यौगिकों से प्राप्त होते हैं जो प्रकृति में जमा होते हैं। इनमें मुख्य रूप से एंटीमनी, तांबा, बोरॉन, फ्लोरीन, पारा, सेलेनियम, थैलियम, जस्ता के यौगिक तथा तात्विक फास्फोरस और सल्फर होते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कीटनाशकों को उनकी विषाक्तता के आधार पर वर्गीकृत किया है। अत्यधिक खतरनाक कीटनाशकों को वर्ग-1a, अधिक खतरनाक को वर्ग-1b, मध्यम खतरनाक को वर्ग-II और थोड़े खतरनाक को वर्ग-III में वर्गीकृत किया गया है।

किसानों की बढ़ती उत्पादकता और बढ़ती आमदनी के रूप में कीटनाशकों के उपयोग का भारी प्रभाव पड़ा है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या के चलते बढ़ती वैश्विक खाद्य मांग ने इनके उपयोग को बेतहाशा बढ़ा दिया है।

कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से खाद्य उपज में कीटनाशक अवशेष बचे रह जाते हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। कीटनाशकों के अनियमित उपयोग और दुरुपयोग के कारण पर्यावरण में अवशेष जमा हो जाते हैं, जिनमें से कई आसानी से नष्ट नहीं होते और वर्षों तक वहीं बने रहते हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनाज, सब्ज़ियों, फलों, शहद और उनसे व्युत्पन्न उत्पादों, जैसे जूस आदि में कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं। लापरवाह और अनुचित निपटान प्रथाएं मछली, अन्य जलीय जीवन, प्राकृतिक परागणकर्ताओं (मधुमक्खियों और तितलियों) सहित गैर-लक्षित जीवों  (पशुधन, पक्षी और लाभकारी सूक्ष्मजीव) पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं।

खाद्य, कृषि उत्पादों या पशु आहार में कीटनाशक अवशेष विभिन्न रूपों में हो सकते हैं – जैसे उनके चयापचय से बने, परिवर्तन से बने, अभिक्रियाओं से बने पदार्थ। कीटनाशकों के बार-बार उपयोग से लाभकारी जीव मारे जाते हैं, कीटों में प्रतिरोध बढ़ जाता है और जैव विविधता का नुकसान होता है। इन सबके चलते कीटों का वापिस लौटना आसान हो जाता है। हेप्टाक्लोर, एंड्रिन, डायएल्ड्रिन, एल्ड्रिन, क्लोर्डेन, डीडीटी और एचसीबी कुछ टिकाऊ कार्बनिक पर्यावरण प्रदूषक हैं।

भारत कीटनाशकों का एक प्रमुख निर्माता और आपूर्तिकर्ता है। भारत में कीटनाशक उद्योग एक अरब डॉलर का है। जिसमें एसीफेट का उत्पादन सबसे अधिक होता है, इसके बाद अल्फामेथ्रिन और क्लोरपाइरीफॉस का नंबर आता है। एनएसीएल इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, यूपीएल लिमिटेड और भारत रसायन लिमिटेड के अलावा बायर क्रॉप साइंस लिमिटेड, रैलीज़ कुछ प्रमुख कीटनाशक निर्माता हैं। एक ओर भारत से 6,29,606 मीट्रिक टन कीटनाशकों का निर्यात किया जाता है वहीं दूसरी ओर, 1,33,807 मीट्रिक टन कीटनाशकों का आयात किया जाता है।

कीटनाशकों की खपत युरोप में सबसे अधिक है। इसके बाद चीन और यूएसए का नंबर आता है। भारत में भी प्रति हैक्टर कीटनाशकों की खपत बढ़ी है।

2022 की आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कीटनाशकों की औसत खपत लगभग 0.381 कि.ग्रा सक्रिय घटक/हैक्टर है। तुलना के लिए, विश्व की औसत खपत 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय घटक/हैक्टर है। (विश्व स्तर पर) उपयोग के लिए पंजीकृत 293 कीटनाशकों में से भारत में 104 कीटनाशकों का निर्माण हो रहा है। 2022 तक, हमारे देश में 46 कीटनाशकों और 4 कीटनाशक फॉर्मूलेशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अभी भी 39 कीटनाशक वर्ग-1b के हैं, जबकि 23 कीटनाशक वर्ग-II और वर्ग-III स्तर के हैं। भारत में खपत होने वाले कुल कीटनाशकों में से अधिकांश अत्यधिक या अधिक खतरनाक (1a या 1b) श्रेणी में आते हैं और केवल 10-15 प्रतिशत गैर-विषैले कीटनाशक के रूप में पंजीकृत हैं।

भारत में कीटनाशकों के उपयोग का नियमन व नियंत्रण 1968 के कीटनाशक अधिनियम और 1971 के कीटनाशक नियमों के अधीन है। ये नियम-अधिनियम मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण की सुरक्षा के उद्देश्य से कीटनाशकों के आयात, पंजीकरण, निर्माण, बिक्री, परिवहन, वितरण और उपयोग को नियंत्रित करते हैं।

यद्यपि दो कीटनाशकों, बेरियम कार्बोनेट व कूमाक्लोर का उपयोग बंद कर दिया गया है लेकिन तीन बेहद खतरनाक कीटनाशक, ब्रोडिफाकम, ब्रोमैडायओलोन और फ्लोकोमाफेन (1a) अभी भी भारत में उपयोग के लिए पंजीकृत हैं। फरवरी 2020 में प्रकाशित एक मसौदा अधिसूचना (S.O.531(E)) में प्रस्ताव दिया गया था कि मनुष्यों व जानवरों के स्वास्थ्य और पर्यावरण सम्बंधी खतरों को देखते हुए ट्राइसाइक्लाज़ोल और बुप्रोफेज़िन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।

वैकल्पिक उपाय

1. जैव कीटनाशक – ये पौधों, जानवरों, बैक्टीरिया और कुछ खनिजों जैसे प्राकृतिक पदार्थों से बने होते हैं। ये पर्यावरण के अनुकूल हैं। और आम तौर पर रासायनिक कीटनाशकों की तुलना में अधिक सुरक्षित होते हैं।

2. एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) – कीट प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण जिसमें रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग को कम करने के लिए जैविक और यांत्रिक तरीकों सहित विभिन्न कीट नियंत्रण विधियां हैं।

3. मिश्रित फसलें – इसके तहत कीटों को दूर रखने या लाभकारी कीटों को आकर्षित करने के लिए एक साथ विभिन्न फसलें लगाई जाती हैं।

4. जैविक खाद – जैविक खाद का उपयोग मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करने के लिए किया जा सकता है; रासायानिक उर्वरक कीटों को आकर्षित कर सकते हैं।

हालांकि ये उपाय उतने प्रभावी नहीं हैं लेकिन अधिक सुरक्षित व टिकाऊ हैं। जैविक खेती, परिशुद्ध खेती और कृषि-पारिस्थितिकी जैसे कुछ अन्य वैकल्पिक उपाय रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता घटाकर अधिक टिकाऊ विधियां अपनाने में मदद कर सकते हैं (स्रोत फीचर्स)

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ऊदबिलाव की पूंछ पर शल्क पैटर्न ‘फिंगरप्रिंट’ जैसा है

युरेशियाई ऊदबिलाव (Castor fiber) की चपटी और चमड़े सरीखी पूंछ उनको तैरने में काफी मदद करती है। पूंछ उनके लिए पतवार का और दिशा देने का काम करती है। उनकी पूंछ की शल्कों का आवरण जहां पूंछ को उपयोगी बनाता है वहीं यह उनकी शिनाख्त में मदद भी कर सकता है और ‘फिंगरप्रिंट’ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। ‘फिंगरप्रिंट’ पहचान कृत्रिम बुद्धि (एआई) के पैटर्न पहचान एल्गोरिद्म द्वारा पूंछ के शल्कों के पैटर्न देखकर की गई है।

एआई की यह सफलता ऊदबिलाव को उन पर पड़ रहे उस दवाब, तनाव या परेशानी से मुक्त कर सकती है जो उन्हें उनकी पहचान के लिए उन पर टैग और कॉलर-आईडी लगाते वक्त झेलना पड़ता है। दरअसल युरेशियाई ऊदबिलाव 19वीं सदी में लगभग विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। उनका शिकार उनके फर और कैस्टोरियम (एक खूशबूदार पदार्थ) के लिए खूब किया जाता था। विलुप्ति की कगार पर पहुंचाने के बाद जब इन्हें बचाने की मुहिम चली तो इनके कानों पर टैग और रेडियो कॉलर लगाकर इनकी आबादी पर नज़र रखना शुरू हुआ। लेकिन इस काम के लिए उन्हें पकड़कर निशानदेही करना उनको परेशान कर सकता है।

इसलिए शोधकर्ताओं ने शिकार हो चुके 100 युरेशियन ऊदबिलावों की पूंछ की तस्वीरें खींचीं और इनसे एआई को पैटर्न सीखने के लिए प्रशिक्षित किया। जब एआई की परीक्षा ली गई तो 96 प्रतिशत बार एआई ने उन्हें सटीक पहचाना था। ये नतीजे इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुए हैं।

किंतु एक दिक्कत यह है कि वैज्ञानिकों ने ये तस्वीरें प्रयोगशाला में अच्छी रोशनी की परिस्थिति में ली थीं और उन्हीं के आधार पर एआई को प्रशिक्षित करके जांचा है। किंतु प्राकृतवास में विचरते हुए जो तस्वीरें मिलेंगी वे संभवत: इस तरह उजली और इतनी साफ नहीं होंगी। और वास्तव में तो प्राकृतवास में खींची गई (पूंछ की) तस्वीरों से ही एआई को ऊदबिलावों में भेद करने में सक्षम होना चाहिए। बहरहाल, शोधकर्ताओं का कहना है कि इन क्षेत्रों में तस्वीर खींचने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्वचालित कैमरों में एक छोटा प्लास्टिक लेंस जोड़ने से तस्वीर की गुणवत्ता चार गुना बढ़ाई जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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जंतु भी घात लगाकर शिकार करते हैं

घोंघों की पीठ पर कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल एक कवच का काम करती है और उन्हें शिकारियों से बचाती है। लेकिन उनके शिकारी भी कोई कम शातिर नहीं हैं; वे शिकार के तरीके ढूंढ निकालते हैं। हालिया अध्ययन में ऐसा ही एक तरीका पता चला है, जिसमें घोंघों का शिकारी – क्लिक बीटल (भृंग) का लार्वा – अपने मांदनुमा घोंसले में घात लगाए बैठा होता है। क्लिक बीटल में शिकार की यह रणनीति पहली बार देखी गई है।

क्लिक बीटल एलाटेरिडे कुल के सदस्य है और जुगनुओं के सम्बंधी हैं। क्लिक बीटल अपनी ‘क्लिक’ की आवाज़ के लिए प्रसिद्ध हैं। ये बीटल्स वक्ष पर मौजूद कांटे का लीवर की तरह उपयोग कर हवा में उछलते हैं और कांटे से चटकने (क्लिक) की आवाज़ पैदा होती है।

देखा गया है कि क्लिक बीटल की कई प्रजातियां लार्वा अवस्था में शिकारी होती हैं। ब्राज़ील में पाई जाने वाली इनकी एक प्रजाति शिकार को फांसने के लिए अपनी नैसर्गिक जैवदीप्ति का सहारा लेती है, और फ्लोरिडा में पाई जाने वाली एक अन्य प्रजाति कछुए के अंडों को तोड़ कर उन्हें चट कर जाती है।

एक तरह का क्लिक बीटल, ड्रिलिनी, घोंघों का शिकार करता है। घोंघों का शिकार करने के लिए ड्रिलिनी पहले तो घोंघा द्वारा पीछे छोड़े गए चिपचिपे पदार्थ की लकीर का पीछा करके उनके ठिकाने का पता लगाता है, और वहां पहुंच जाता है। जब उसे घोंघा मिल जाता है तो वह अपने डंकनुमा मुखांग से उसके कठोर कवच में छेद करके उस पर काबू कर लेता है और शिकार बना लेता है। कई बार वह एक विष का भी उपयोग करता है।

लेकिन इकॉलॉजी में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शिकार करती पाई गई क्लिक बीटल की प्रजाति एन्थ्राकेलौस साकागुची के पास कोई विशिष्ट हथियार नहीं होता बल्कि वह नीचे से वार करके चौंकाने की मदद लेता है।

जापान के ऋयुक्युस द्वीप पर रहने वाले क्लिक बीटल का लार्वा भूमि के नीचे बनी अपनी मांद में बैठा रहता है, और ऊपर से घोंघों के गुज़रने का इंतज़ार करता है। जैसे ही घोंघा ऊपर से गुज़रता है, लार्वा नीचे से उसके नरम और कवच-विहीन शरीर को पकड़ लेता है और अंदर खींचकर खा जाता है। घोंघे का खाली-खोखला कवच भूमि के ऊपर पड़ा रह जाता है।

दरअसल इन घोंघों के बारे में तब पता चला जब टोक्यो मेट्रोपोलिटन युनिवर्सिटी के कीटविज्ञानी नोज़ोमु सातो और उनके एक सहयोगी ऋयुक्युस के कुमे द्वीप पर घोंघा सर्वेक्षण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कई घोंघे मृत पड़े हैं और उनका नरम शरीर नीचे ज़मीन में बने बिलों में खींचा गया है। इन बिलों को खोदने पर उन्हें लार्वा मिले। लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि ये लार्वा क्लिक बीटल के हैं, वे तो इन्हें जुगनुओं के लार्वा समझ रहे थे। खैर, इन्हें वे अपनी प्रयोगशाला में ले आए और पाला। जब वे विकसित हुए तो पता चला कि ये तो ए. साकागुची क्लिक बीटल के लार्वा थे।

शोधकर्ता अब यह जानना चाहते हैं कि क्या ए. साकागुची के लार्वा घोघों को ऊपर से गुज़रने के लिए कोई प्रलोभन देते हैं या रंग वगैरह से आकर्षित करते हैं, या बस घात लगाए बैठे रहते हैं। साथ ही वे यह भी देखना चाहते हैं कि मृत पड़े झींगुर और तिलचट्टे भी क्या ए. साकागुची का शिकार बनते हैं या सिर्फ घोंघे ही इनका शिकार बनते हैं। हालांकि झींगुर और तिलचट्टों के मृत शरीर साबुत पड़े थे, किसी के द्वारा खाए नहीं गए थे।

इस अध्ययन से एक बात यह प्रकाश में आती है कि कीटों की वयस्क अवस्था पर तो काफी अध्ययन हुए हैं और उनके बारे में हमें मालूमात है, लेकिन उनके लार्वा अनदेखे ही रहे हैं और उनके बारे में हम बहुत कम जानते हैं। इन पर अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

लार्वा का हमला देखने के लिए इस लिंक पर जाएं – https://www.science.org/content/article/watch-beetle-larva-ambush-snails-below-dragging-them-their-demise

उसकी उछाल देखने और क्लिक की आवाज़ सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं – https://youtu.be/uH4roWTUMoA?si=FOs7uzaSq6xiXlTQ

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हर्बेरियम को बंद करने के फैसले पर आक्रोश

हाल ही में ड्यूक विश्वविद्यालय ने घोषणा की है कि वह अपने प्रतिष्ठित वनस्पति संग्रहालय (हर्बेरियम) को अगले 2-3 वर्षों में बंद कर देगा या अन्यत्र स्थानांतरित कर देगा। वैज्ञानिक समुदाय उसके इस निर्णय का जमकर विरोध कर रहा है। वित्तीय समस्याओं और बुनियादी ढांचे को अद्यतन करने की आवश्यकता से उत्पन्न इस निर्णय ने वनस्पति अनुसंधान और जैव विविधता अध्ययन के भविष्य को लेकर चिंताएं पैदा कर दी हैं। एक ओर तो विश्वविद्यालय के अधिकारी जीव विज्ञान के क्षेत्र में विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को बढ़ाने में संग्रहालय की भूमिका को स्वीकार करते हैं लेकिन दूसरी ओर उनका अधिक ज़ोर संस्था के अन्य वित्तीय दायित्वों को प्राथमिकता देने पर है।

गौरतलब है कि हर्बेरियम बनाना सदियों पुराना काम रहा है। हर्बेरियम ने वनस्पति अध्ययन को चिकित्सा से अलग एक स्वतंत्र विषय का रूप देने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा दूर-दराज के स्थानों और लंबी अवधि में प्राप्त होने वाली पौध सामग्री के लिए भी हर्बेरियम काफी उपयोगी रहे हैं। 1921 में स्थापित ड्यूक विश्वविद्यालय का हर्बेरियम वनस्पति विज्ञान की एक विशाल संपदा है जिसमें 8,25,000 से अधिक पौधों के नमूने हैं। इनमें विविध प्रकार के शैवाल, लाइकेन, कवक और काई भी शामिल हैं। यह न केवल वनस्पति की जानकारी का अमूल्य भंडार है, बल्कि पारिस्थितिक पैटर्न को समझने और पर्यावरणीय परिवर्तनों पर नज़र रखने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं।

येल विश्वविद्यालय के माइकल डोनोग्यू और स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन की कैथरीन पिकार्ड जैसे प्रमुख वैज्ञानिकों ने ड्यूक विश्वविद्यालय के इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। उनका तर्क है कि संग्रहालय को बंद करना ‘भारी भूल’ होगी और यह वर्तमान में पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान खोजने का प्रयास कर रहे शोधकर्ताओं और आने वाली पीढ़ियों के लिए अहितकारी होगा। संग्रहालय के बंद होने से न केवल वर्तमान अनुसंधान बाधित होंगे, बल्कि इसके नमूनों का व्यापक संग्रह भी खतरे में पड़ जाएगा। इनमें कई नमूने ऐसे भी हैं जो क्षेत्रीय जैव विविधता और पारिस्थितिक गतिशीलता को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

संग्रहालय को बचाने के लिए संग्रहालय की निदेशक कैथलीन प्रायर और उनकी टीम ने विभिन्न रणनीतियों से पूर्ण प्रस्ताव दिए। इनमें बाहर से वित्तीय मदद लेना, दो प्रतियों को अन्यत्र भेजना और मौजूदा संसाधनों और जगह का बेहतर प्रबंधन करना शामिल हैं। उनके इन प्रस्तावों के बावजूद, आवश्यक धनराशि जुटाने में ड्यूक विश्वविद्यालय की अनिच्छा उसके इरादों पर संदेह पैदा करती है।

गौरतलब है कि पिछले 30 वर्षों में कई छोटे-बड़े वनस्पति संग्रहालय बंद किए गए हैं। सबसे हालिया मामला 2015 का है जब मिसौरी विश्वविद्यालय ने डन-पामर संग्रहालय को बंद करने का फैसला किया था जिसमें 1,70,000 से अधिक पौधे और हज़ारों काई, शैवाल और कवक के 119 साल पुराने नमूने संग्रहित थे। इन नमूनों को विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों से 200 किलोमीटर दूर मिसौरी बॉटनिकल गार्डन में भेज दिया गया था।

ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम का बंद होना वित्तीय अनिश्चितता और भविष्य में अन्य संग्रहालयों के बंद होने की व्यापक प्रवृत्ति को दर्शाता है। ड्यूक हर्बेरियम की दुर्दशा बुनियादी वैज्ञानिक ढांचे की नाज़ुकता और वैज्ञानिक विरासत के संरक्षण को प्राथमिकता देने की अनिवार्यता का संकेत देती है। पादप वर्गिकी और जैव विविधता विज्ञान की दृष्टि से ऐसे संग्रहालय बचाने के लिए रणनीतिक दृष्टिकोण की दरकार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बायोटेक जोखिमों से सुरक्षा की नई पहल

जैव प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग के बढ़ते खतरों को देखते हुए जैव सुरक्षा विशेषज्ञों के एक वैश्विक समूह ने एक अंतर्राष्ट्रीय जैव सुरक्षा पहल (इंटरनेशनल बायोसिक्यूरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइन्स – IBBIS) की शुरुआत की है। इस गैर-मुनाफा संगठन का लक्ष्य डीएनए संश्लेषण और जीन संपादन जैसी आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी तकनीकों से जुड़े जोखिमों को कम करना है। इसके ज़रिए जाने-अनजाने किए जा रहे हानिकारक रोगजनकों या विषाक्त पदार्थों के निर्माण पर रोक लगाई जा सकेगी।

हालिया समय में बायोटेक तकनीकों की सुलभता ने उनके दुरुपयोग की चिंताओं को बढ़ाया है। हालांकि, वैज्ञानिक समुदाय हमेशा से खुलेपन का हिमायती रहा है लेकिन आधुनिक तकनीकों के उद्भव से खतरनाक वायरस और अन्य सूक्ष्मजीवों के निर्माण की क्षमता ने सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया है। वर्तमान में दुनियाभर की कंपनियों द्वारा ऑन-डिमांड डीएनए संश्लेषण सेवाएं प्रदान करने तथा क्रिस्पर और कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकों से आशंका है कि जैव-आतंकवादी इन तकनीकों का फायदा उठा सकते हैं।

IBBIS का पहला प्रोजेक्ट डीएनए संश्लेषण कंपनियों के लिए ऐसे मुफ्त सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराना है जिनकी मदद से संदिग्ध गतिविधियों वाले, हानिकारक जीन अनुक्रमों वाले ऑर्डरों और ग्राहकों की अच्छे से स्क्रीनिंग की जा सके। संदेह होने पर कंपनियां ऐसे ऑर्डरों को मना कर सकती हैं या अधिकारियों को सतर्क कर सकती हैं। वैसे तो कई स्क्रीनिंग साधन मौजूद हैं, लेकिन उन्हें व्यापक रूप से अपनाया नहीं जा रहा है।

IBBIS का एक उद्देश्य हितधारकों के बीच विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देना है। पारदर्शी और सुलभ समाधान पेश करके, इस पहल का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों और राजनीतिक संदर्भों में समझ और कार्यान्वयन में अंतर को कम करना है।

न्यूक्लिक एसिड प्रदाताओं के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को स्थापित करने के प्रयासों के लेकर IBBIS के विभिन्न प्रयासों की सराहना की जा रही है। IBBIS की एक योजना ऐसे सॉफ्टवेयर पैकेज विकसित करने की है जिनकी मदद से जीव वैज्ञानिक पांडुलिपियों का स्क्रीनिंग करके देखा सके कि कहीं उनमें रोगजनक या टॉक्सिक बनाने की विधि का खुलासा तो नहीं किया गया है।

IBBIS के कार्यकारी निदेशक पियर्स मिलेट वैज्ञानिक समुदाय के ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं। पारदर्शिता, सहयोग और जवाबदेही को बढ़ावा देकर, IBBIS का लक्ष्य वैश्विक जैव सुरक्षा प्रयासों को बढ़ाना और जैव प्रौद्योगिकी से जुड़े जोखिमों को कम करना है। IBBIS का दृष्टिकोण वैश्विक सुरक्षा के संभावित खतरों को कम करते हुए समाज की भलाई के लिए जैव प्रौद्योगिकी के सुरक्षित और ज़िम्मेदार उपयोग सुनिश्चित करना है। (स्रोत फीचर्स)

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शार्क व अन्य समुद्री जीवों पर संकट – सुदर्शन सोलंकी

मानवीय गतिविधियां समस्त जीव-जंतुओं के लिए संकट उत्पन्न कर रही हैं। समुद्री जीवों के शिकार व इंसानों द्वारा फैलाए गए प्रदूषण के कारण समुद्र के तापमानन में भी वृद्धि हुई है। नतीजतन समुद्री जीवों की कई प्रजातियां समाप्ति की ओर बढ़ रही हैं।

वर्ष 2019 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार वैज्ञानिकों ने दो अलग-अलग वातावरण में शार्क की एक प्रजाति की वृद्धि और उनकी शारीरिक स्थिति की तुलना करके पाया था कि बड़े आकार की रीफ शार्क के शिशुओं का विकास कम हो रहा है। शार्क अपने वातावरण में हो रहे परिवर्तनों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं।

नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट में छपे एक शोध से पता चला है कि समुद्री तापमान में होने वाले परिवर्तन के कारण शार्क के बच्चे समय से पहले ही जन्म ले रहे हैं, साथ ही उनमें पोषण की कमी भी देखी गई है। इस कारण से उनका ज़िंदा रहना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है एवं वे दुबले-पतले/बौने रह जाते हैं।

वर्ष 2013 में डलहौज़ी युनिवर्सिटी द्वारा किए एक शोध के अनुसार हर साल करीब 10 करोड़ शार्क को मार दिया जाता है। अनुमान है कि यह दुनिया भर में शार्क का करीब 7.9 फीसदी है। वर्ष 2016 में भारत को सबसे अधिक शार्क का शिकार करने वाला देश घोषित किया गया था।

शार्क और रे की 24 से 31 प्रजातियों पर विलुप्ति का संकट मंडरा रहा है जबकि शार्क की तीन प्रजातियां संकटग्रस्त श्रेणी में आ गई है। शोधकर्ताओं ने चिंता जताई है कि हिंद महासागर में वर्ष 1970 के बाद शॉर्क और रे की संख्या लगातार कम हो रही है। यहां तक कि अब तक इनकी आबादी में कुल 84.7 फीसदी तक की कमी आ चुकी है।

सिमोन फ्रेज़र युनिवर्सिटी और युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन से पता लगाया कि हिंद महासागर में वर्ष 1970 से अब तक मत्स्याखेट का दबाव 18 गुना बढ़ गया है जिसके कारण निश्चित ही समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ा है और कई जीव विलुप्त हो रहे हैं। अधिक मात्रा में मछली पकड़े जाने से न केवल शार्क बल्कि रे मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा बढ़ गया है।

दरअसल शार्क शिशुओं को प्रजनन करने लायक होने में सालों लग जाते हैं। अपने जीवन काल में ये कुछ ही बच्चों को जन्म दे पाते हैं। ऐसे में अत्यधिक मात्रा में इन्हें पकड़े जाने से स्वाभाविक रूप से इनकी आबादी में गिरावट आ रही है।

शार्क की विशेष पहचान उसके हमलवार स्वभाव के कारण है, जो समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यदि ये शिकारी न हों तो इनके बिना पूरा पारिस्थितिकी तंत्र ही ध्वस्त हो सकता है। बावजूद इसके हमारा ध्यान इनकी सुरक्षा और संरक्षण पर नहीं है।

इनके संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर कदम उठाने की ज़रूरत है। इनके प्रबंधन के लिए आम लोगों को सहयोग करना होगा ताकि समुद्री प्रजातियों और उनके आवासों को लंबे समय तक संरक्षित किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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कॉफी के स्वाद निराले – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कॉफी शब्द कहां से आया? कॉफी इथियोपिया से आई थी, जहां के लोग इसे कहवा कहते थे। स्वर्गीय डॉ. के. टी. अचया ने वर्ष 1998 में ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से प्रकाशित अपनी पुस्तक ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड में लिखा है कि कॉफी के बीज अरब व्यापारियों द्वारा कुलीन वर्ग के उपयोग के लिए भारत लाए गए थे। अरबी लोगों ने दक्षिण भारत और श्रीलंका में कॉफी के बागान लगाए। और सूफी बाबा बुदान ने कर्नाटक के चिकमगलुर के पास कॉफी के पौधे उगाए।

1830 की शुरुआत में, शुरुआती ब्रिटिश आगंतुकों ने दो प्रकार की कॉफी के कॉफी बागान लगाए – अच्छी ऊंची जगहों पर कॉफी अरेबिका के, और निचले इलाकों में कॉफी रोबस्टा के बागान। (चूंकि युरोप में कहवे का कारोबार अरब व्यापारी करते थे इसलिए अरेबिका नाम पड़ा; और रोबस्टा, क्योंकि पश्चिम अफ्रीका की यह किस्म रोगों के प्रति अधिक प्रतिरोधी है)। जैसा कि मैंने कॉफी पर अपने पूर्व लेखों में लिखा था, कॉफी एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है, खासकर जब इसे गर्म दूध के साथ मिला कर पीया जाता है। कई अमेरिकी लोग बिना दूध वाली (ब्लैक) कॉफी पीते हैं।

तमिलनाडु के कुंभकोणम शहर के कॉफी के शौकीन बाशिंदे अपनी कॉफी को कुंभकोणम डिग्री कॉफी कहते हैं। उनका दावा है कि उसके स्वाद का कोई मुकाबला नहीं है। वे आगे कहते हैं कि यह कॉफी विशुद्ध अरेबिका कॉफी है और इसमें चिकरी पाउडर नहीं मिला होता है, जो आम तौर पर डिपार्टमेंटल स्टोर या कॉफी शॉप पर मिलने वाले कॉफी पाउडर या कॉफी के बीजों में होता है। इसी तरह, सिकंदराबाद की जिस कॉफी शॉप से मैं कॉफी खरीदता हूं वहां शुद्ध अरेबिका कॉफी पावडर के साथ-साथ चिकरी मिश्रित अरेबिका कॉफी पीने वालों के लिए चिकरी मिश्रित कॉफी पावडर भी मिलता है।

लेकिन चिकरी है क्या? यह भी कॉफी की एक किस्म है, और भारत चिकरी का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। हमारे देश में यह सुदूर पूर्वी राज्यों (असम, मेघालय, सिक्किम) में उगाई जाती है। वहीं कुछ लोगों का ऐसा दावा है कि पोषण के मामले में चिकरी अरेबिका से बेहतर हो सकती है, क्योंकि इसमें कैफीन की मात्रा कम होती है। कैफीन एक अणु है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है, हालांकि इस सम्बंध में अब तक कोई निर्णायक प्रमाण नहीं मिले हैं।

आंध्र प्रदेश अराकू घाटी के पहाड़ी क्षेत्रों में उगाई जाने वाली अपनी विशेष कॉफी के लिए प्रसिद्ध है। अराकू कॉफी के बारे में दावा है कि यह न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी उपलब्ध सबसे अच्छी कॉफी है। यह शुद्ध अरेबिका कॉफी है। बहुत अच्छी किस्म की अरेबिका तमिलनाडु की शेवरॉय पहाड़ियों और कर्नाटक के मंजराबाद किले के आसपास के इलाकों में भी उगाई जाती है। भारत भर के बड़े शहरों में कई युवा स्टारबक्स की कॉफी खरीदते हैं और पीते हैं, और कैफे कॉफी डे (सीसीडी) से भी। स्टारबक्स सिर्फ शुद्ध अरेबिका कॉफी का उपयोग करता है, जबकि सीसीडी के बारे में स्पष्ट नहीं है कि वे शुद्ध अरेबिका का उपयोग करते हैं या मिश्रण का।

कॉफी की इन विभिन्न प्रमुख किस्मों को लेकर इतना शोर क्यों है? जवाब इतालवी आनुवंशिकीविद डॉ. मिशेल मॉर्गन्टे द्वारा किए गए हालिया आनुवंशिकी अध्ययन (नेचर कम्युनिकेशंस जनवरी 2024) से मिलता है जो बताता है कि कॉफी की कई कृष्य किस्में बेहतर स्वाद दे सकती हैं। दी हिंदू ने हाल में संक्षेप में अपने विज्ञान पृष्ठ पर यह बात बताई है और बीबीसी न्यूज़ के अनुसार कॉफी अरेबिका में आनुवंशिक परिवर्तन बेहतर महक दे सकते हैं। तो वक्त आ गया है कि भारतीय आनुवंशिकीविद भारतीय कॉफियों के जीन्स अनुक्रमित करके देखें। (स्रोत फीचर्स)

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