ग्रीष्म लहर के कारण ट्रेनों में विलम्ब की संभावना

ट्रेन में यात्रा करते समय, पटरियों की लयबद्ध “खट… खट” की ध्वनि एक सुपरिचित अनुभव से कहीं ज़्यादा चतुर इंजीनियरिंग का प्रमाण है। इस्पात से बनी ट्रेन की पटरियां तापमान बढ़ने पर फैलती हैं। करीब 550 मीटर की पटरी में, हर 5.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर एक इंच से अधिक की वृद्धि होती है। परंपरागत रूप से, इस फैलाव को समायोजित करने के लिए, पटरियां 12 से 15 मीटर के टुकड़ों में बिछाई जाती हैं और दो टुकड़ों के बीच छोटे-छोटे खाली स्थान छोड़े जाते हैं। ऐसे में जब भारी रेलगाड़ी पटरी पर से गुज़रती है तो हमको सुनाई देने वाली विशिष्ट आवाज़ (जबलपुर के दोदो पैसे या मराठी में कशा साठी, कुणा साठी) पटरियों के बीच इन छोटी जगहों के कारण होती है जिन्हें प्रसार को संभालने के लिए छोड़ा जाता है।

गर्मी बहुत अधिक हो तो पटरियों का प्रसार इन छोटी जगहों को भर देता है। ऐसे में पटरियां मुड़ सकती हैं और लहरदार हो सकती हैं; इसे ‘सन किंक’ कहा जाता है। ये सन किंक ट्रेन संचालन के लिए गंभीर जोखिम पैदा करते हैं। यदि रेलगाड़ियां ऐसी पटरियों पर चलती हैं तो वे बेपटरी हो सकती हैं, और गंभीर मामलों में सीधी पटरियां अचानक से खतरनाक रूप से मुड़ सकती हैं।

ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए, तापमान बढ़ने की स्थति में रेल सेवाएं ट्रेनों की गति धीमी कर देती हैं। कम गति का मतलब है पटरियों पर यांत्रिक तनाव कम होगा, जिससे बकलिंग की संभावना कम हो जाएगी। उदाहरण के लिए, जब पटरियों का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो अमेरिका में एमट्रैक अपनी ट्रेनों की गति को 128 किलोमीटर प्रति घंटे तक सीमित कर देता है। यह एहतियात हाल की ग्रीष्म लहर के दौरान एमट्रैक के नॉर्थईस्ट कॉरिडोर में हुई देरियों के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी।

इन सावधानियों से यह समझने में मदद मिलती है कि ग्रीष्म लहरें अक्सर ट्रेन की देरी का कारण क्यों बनती हैं। यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और रेलवे के बुनियादी ढांचे को टूट-फूट से बचाने के लिए यह एक आवश्यक कदम है। चूंकि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ रहे हैं, इसलिए रेल सेवाओं को बढ़ते तापमान से निपटने के लिए और भी कड़े उपाय अपनाने की आवश्यकता होगी।

बहरहाल पटरियों की खट-खट ध्वनि कुछ लोगों के लिए मनमोहक हो सकती है, लेकिन यह भीषण गर्मी के दौरान रेल यात्रा को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक परिष्कृत इंजीनियरिंग की शानदार मिसाल भी है। अगली बार जब आप गर्मियों में ट्रेन में देरी का अनुभव करें, तो याद रखें कि यह आपको सुरक्षित रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://qph.cf2.quoracdn.net/main-qimg-32467dbb51d14eabe2ef6acbd3ee5059-lq

एक अति-दुर्लभ, विचित्र बीमारी का उपचार

फायब्रोडिसप्लेसिया ओसिफिकेन्स प्रोग्रेसिवा या संक्षेप में FOP का नाम आपने शायद ही सुना हो। सुनेंगे भी कैसे। यह बीमारी दुनिया भर में महज 8000 लोगों को पीड़ित करती है। लेकिन जिन्हें भी डसती है, बहुत तकलीफ पहुंचाती है और अंतत: जान ले लेती है।

FOP नामक इस दुर्लभ बीमारी में शरीर में हड्डियां कहीं भी उग आती हैं, जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। जैसे स्नायु में, कंडराओं में और यहां तक कंकाल की मांसपेशियों में भी। दरअसल, होता यह है कि कंकाल की मांसपेशियों और मुलायम संयोजी ऊतकों में कायांतरण होने लगता है और वे हड्डियों में परिवर्तित होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि हड्डियों के जोड़ सख्त हो जाते हैं और कोई भी हरकत नामुमकिन हो जाती है।

FOP के मरीज़ों में जन्मजात बड़े पंजे होते हैं और बाकी की विकृतियां धीरे-धीरे सामने आती हैं। इसके चलते उनके लिए गर्दन, कंधों, कोहनी, कूल्हों, घुटनों, कलाइयों और जबड़ों की गति असंभव हो जाती है।

यह एक जेनेटिक रोग है जिसमें अस्थि निर्माण में शामिल एक जीन (ACVR1 जिसे ALK2 भी कहते हैं) के नए संस्करण बन जाते हैं। यह जीन एक प्रोटीन (BMP) बनाता है जो भ्रूण में कंकाल के निर्माण तथा जन्म के उपरांत कंकाल की मरम्मत में भूमिका निभाता है।

ज़ाहिर है इतनी दुर्लभ बीमारी का इलाज खोजने में किसी की दिलचस्पी नहीं होगी क्योंकि इस इलाज के ग्राहक ही नहीं होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि कम से कम 13 कंपनियां इस काम में लगी हुई हैं। और उनके प्रयास रंग लाने लगे हैं। पिछले वर्ष यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने FOP के लिए पहली दवा – पैलोवैरोटीन – को मंज़ूरी दी थी। चार अन्य दवाइयां परीक्षण से गुज़र रही हैं।

लेकिन…एक लेकिन और है। आशंका है कि ये दवाइयां निहायत महंगी होंगी। जैसे पैलोवैरोटीन की सालाना लागत छ: लाख चौबीस हज़ार डॉलर है। एक संभावना यह है कि यह औषधि बीमारी को आगे बढ़ने से रोक देगी और सर्जन यहां-वहां उगी हड्डियों को हटा देंगे।

इस बीमारी पर अध्ययन अनुसंधान का एक कारण तो यही है कि यह इतनी क्रूर बीमारी है। साथ ही शोधकर्ताओं को लगता है कि इसके गहन अध्ययन से हड्डियों के विकास सम्बंधी अन्य विकारों को भी समझ पाएंगे। जैसे पहले तो यह भी पता नहीं था कि यह रोग जेनेटिक है। फिर 2006 में वह जीन पहचाना गया जिसमें उत्परिवर्तन की वजह से यह रोग पैदा होता है: ALK2 नामक प्रोटीन के जीन में उत्परिवर्तन। यह प्रोटीन कई कोशिकाओं की सतह पर पाया जाता है। यह पता चल चुका है कि असामान्य ALK2 अति-सक्रिय हो जाता है और  इसके द्वारा भेजे गए संदेश से मांसपेशियों की स्टेम कोशिकाएं हड्डियों में बदलने लगती हैं।

बहरहाल, शोधकर्ताओं ने सीधे-सीधे ALK2 पर निशाना न साधते हुए उस अणु को सक्रिय करने का मार्ग चुना जो उपास्थि के निर्माण को रोकता है। उपास्थि हड्डी के निर्माण में पूर्ववर्ती होती है। अंतत: पैलोवैरोटीन हाथ लगी। परीक्षण के दौरान पैलोवैरोटीन लेने वाले मरीज़ों में नई हड्डियों का निर्माण 60 प्रतिशत कम देखा गया। अलबत्ता, इसकी कीमत के अलावा कुछ अन्य समस्याएं भी हैं। एक तो यही है कि पैलोवैरोटीन बीमारी को रोकती नहीं – सिर्फ टालती है। दूसरी समस्या यह है कि यह दवा बच्चों को देने में परेशानी होगी क्योंकि शायद यह उनमें सामान्य हड्डी निर्माण को भी बाधित कर देगी।

रीजेनेरॉन नामक कंपनी ने एक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (गैरेटोस्मैब) तैयार की है। इसके परीक्षण के नतीजे तो ठीक-ठाक रहे हैं लेकिन परीक्षण के दौरान 5 मरीज़ों की मृत्यु हो गई थी। जापान के एक समूह ने भी पाया था कि ALK2 जीन का दोषपूर्ण संस्करण एक्टिविन-ए नामक प्रोटीन के असर से अति-सक्रिय हो जाता है। दरअसल, गैरेटोस्मैब एक्टिविन-ए को निष्क्रिय कर देता है। कुछ शोध समूह सीधे-सीधे ALK2 जीन को  लक्षित कर रहे हैं। अन्य विकल्पों पर काम चल रहा है लेकिन उनकी अपनी-अपनी दिक्कतें हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.semanticscholar.org/paper/Insights-into-the-biology-of-fibrodysplasia-using-Nakajima-Ikeya/9b0f31108afe844a4f8c5dfd57a02e08e3563a37/figure/0

प्रयोगशाला में निर्मित मांस का स्वाद सुधरा

प्रयोगशाला में विकसित मांस काफी समय से चर्चा में है। लेकिन पर्यावरण और नैतिक लाभों के बावजूद यह मांस पारंपरिक बीफ जैसा स्वाद हासिल करने के लिए जूझता रहा है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने संवर्धित मांस में कुछ परिवर्तन किए हैं जिससे इस मांस को उच्च तापमान पर पकाए जाने पर पारंपरिक बीफ का स्वाद मिलता है। इस सफलता से प्रयोगशाला में विकसित मांस की मांग में वृद्धि की संभावना है।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित इस अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने मैलार्ड अभिक्रिया से उत्पन्न यौगिकों का उपयोग किया है – मैलार्ड अभिक्रिया अमीनो अम्लों और अवकारक शर्कराओं के बीच होती है और इससे मेलेनॉइडिन नामक यौगिक बनते हैं। ये पदार्थ गहरा रंग व जायका पैदा करते हैं।

शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में विकसित पशु कोशिकाओं को इन यौगिकों से समृद्ध किया। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप प्रयोगशाला निर्मित मांस में सही रंग और महक पैदा हुए।

गौरतलब है कि पारंपरिक मांस उत्पादन की तुलना में प्रयोगशाला में निर्मित मांस के कई लाभ हैं। यह जीव हत्या को रोकता है और पशुपालन से होने वाले कार्बन पदचिह्न को कम कर सकता है।

पिछले शोध में मांस उत्पादों की बनावट को दोहराने पर ध्यान केंद्रित किया जाता था, लेकिन वर्तमान अध्ययन में यह देखा गया कि पारंपरिक मांस उच्च तापमान पर मैलार्ड अभिक्रिया से गुज़रता है, जिससे परिचित स्वाद और सुगंध पैदा होती है।

इसके मद्देनज़र, सिओल विश्वविद्यालय के मिले ली की टीम ने फरफ्यूरिल मर्कैप्टन युक्त एक यौगिक विकसित किया, जो एक मैलार्ड अभिक्रिया उत्पाद है और पसंदीदा जायके के लिए जाना जाता है। उन्होंने इस यौगिक को मांस के साथ उपयोग करने और 150 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने तक स्थिर रहने के लिए विकसित किया है। यह जायका तभी मुक्त होता है जब संवर्धित मांस को 150 डिग्री सेल्सियस पर तपाया जाता है।

शोधकर्ताओं ने इस यौगिक को हाइड्रोजेल में डाला, जो स्टेम कोशिकाओं को मांसपेशियों के ऊतकों में विकसित करने के लिए एक ढांचे के रूप में कार्य करता है। एक इलेक्ट्रॉनिक नाक की मदद से टीम ने पाया कि कमरे के तापमान पर मांस का स्वाद थोड़ा कम था लेकिन इसे 150 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने पर मांस की सुगंध पैदा हुई।

आगे के अध्ययनों से पता चला है कि तीन अलग-अलग मैलार्ड उत्पाद मिलाने से स्वाद पारंपरिक बीफ के और भी करीब पहुंच गया। फिलहाल टीम अन्य स्वाद मिश्रणों का पता लगाने और प्रक्रिया की धीमी गति और श्रम-गहनता को कम करने का प्रयास कर रही है।

गोमांस के अलावा अन्य तरह के मांस में स्वाद यौगिकों की जांच भी की जाएगी। इससे संवर्धित मांस की विविधता बढ़ सकती है और उपभोक्ताओं के लिए इसे अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है। इससे अधिक टिकाऊ खाद्य उत्पादन को बढ़ावा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-02273-0/d41586-024-02273-0_27324984.jpg?as=webp

वायरस समुद्र स्तर में वृद्धि को थाम सकते हैं

र्माती दुनिया का एक असर है हिमनदों और बर्फ की चादरों का पिघलना और इसके चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ना। एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि विशाल वायरस बर्फ पिघलने की गति को धीमा कर सकते हैं।

दरअसल, विशाल वायरस (न्यूक्लियोसाइटोप्लाज़्मिक लार्ज डीएनए वायरस) पूरी दुनिया की मिट्टी, नदियों और महासागरों में पाए जाते हैं। लेकिन आरहुस विश्वविद्यालय की लॉरा पेरिनी यह जानना चाहती थीं कि क्या विशाल वायरस बर्फीले ग्रीनलैंड में भी पाए जाते हैं। उन्होंने वहां की बर्फ के नमूने लेकर उनका जेनेटिक विश्लेषण किया। पता चला कि ये वायरस सैकड़ों सालों से यहां मौजूद हैं और यहां उगने वाली रंगीन शैवाल को संक्रमित कर रहे हैं। संभव है कि विशाल वायरस इन रंगीन शैवाल के फलने-फूलने और वृद्धि को सीमित कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि ये वायरस ग्रीनलैंड में रंगीन शैवाल को फैलने से रोकते हैं तो इससे बढ़ रहे समुद्र स्तर को धीमा करने में मदद मिल सकती है क्योंकि कुछ अध्ययन बताते हैं कि बर्फ पर पनपने वाली शैवाल का गहरा-काला रंग बर्फ के पिघलने को बढ़ाता है; उजली बर्फ पर शैवाल का गहरा रंग अधिक ऊष्मा सोखता है, नतीजतन बर्फ तेज़ी से पिघलती है।

ऐसे में विशाल वायरस द्वारा शैवाल को संक्रमित करने और इनकी वृद्धि सीमित करने से बर्फ पर फैले गहरे रंग में कमी आएगी, जिसके नतीजे में बर्फ के पिघलने की रफ्तार धीमी होगी।

लेकिन ऐसे उपायों की कुछ दिक्कतें भी दिखती हैं। एक तो यही ठीक से नहीं पता है कि ग्रीनलैंड की बर्फ पिघलाने में शैवाल वास्तव में कितना योगदान देती है, इसलिए शैवाल को फैलने से रोककर समुद्र स्तर बढ़ने में वाकई कितनी कमी लाई जा सकेगी इसका पक्का अंदाज़ा नहीं है। बर्फ को तेज़ी से पिघलाने में अन्य कारक भी ज़िम्मेदार हो सकते हैं; जैसे गर्माती जलवायु के कारण बर्फ के पिघलने से (गहरे रंग के) पानी के डबरे बन सकते हैं। ये डबरे भी अधिक ऊष्मा सोख सकते हैं और बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ा सकते हैं।

दूसरा, यह ज़रूरी नहीं कि शैवाल-नियंत्रण के इरादे से विशाल वायरस को फैलाना एक अच्छा विचार साबित हो क्योंकि शैवाल के अन्य कार्य भी हैं, जैसे कार्बन भंडारण। कार्बन भंडारण कर शैवाल जलवायु परिवर्तन के एक प्रमुख कारक से तो निजात दिलाते ही हैं।

तीसरा, जलवायु परिवर्तन के नुमाया लक्षणों को दबाने या थामने के उपाय वास्तविक समस्या को हल करने से ध्यान हटाते हैं। मर्ज़ को ठीक न कर उसके लक्षणों से निपटने के प्रयास समस्या को इतना भयावह कर सकते हैं कि हो सकता है मर्ज़ काबू से बाहर निकल जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/546d0eafa33e7c36/original/IMG_4542_WEB.jpg?w=1200

पॉपकॉर्न की खोज कैसे हुई?

सिनेमा और पॉपकॉर्न का रिश्ता तो जाना-माना है। लेकिन कभी आपने सोचा है कि पॉपकॉर्न की खोज कैसे और कब हुई?

वैसे तो भोजन से जुड़े इन रहस्यों को सुलझाना बड़ा मुश्किल होता है। क्योंकि पुरातत्ववेत्ताओं के लिए अतीत में झांकने की एकमात्र खिड़की अतीत में छूटे हुए अवशेष होते हैं, खासकर उन मामलों में जब लोगों ने चीज़ें लिखकर दर्ज नहीं की हों।

प्राचीन लोग प्राय: लकड़ी, जानवरों के अंगों से बनी सामग्री या कपड़े इस्तेमाल करते थे जो बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और ये सब खुदाई में मिलना दुर्लभ है; सबूत के तौर पर खुदाई में अक्सर मिट्टी के बर्तन या पत्थर के औज़ार जैसी कठोर चीज़ें ही मिलती हैं। लेकिन नरम चीज़ें – जैसे भोजन के बचे हुए हिस्से – मिलना बहुत मुश्किल है। बिरले ही, कुछ शुष्क जगहों पर कोई नरम चीज़ संरक्षित मिल जाती है। या फिर किसी जली हुई चीज़ के अवशेष सलामत मिलने की संभावना रहती है।

सौभाग्य से, मक्के में कुछ कठोर भाग होते हैं जैसे कर्नेल खोल (भुट्टा या पॉपकॉर्न खाते वक्त जो आपके दांतों में फंस जाता है वह हिस्सा)। फिर, खाने के पहले हम इसे भूनते या सेंकते हैं इसलिए कभी-कभी यह जल भी जाता है। और इसका जलना पुरातत्वविदों को प्रमाण के रूप में मिलकर फायदा पहुंचा जाता है। और सबसे बड़ी बात यह है कि मक्के सहित कुछ पौधों में छोटे, सख्त हिस्से होते हैं जिन्हें फायटोलिथ कहा जाता है, जो हज़ारों सालों तक सलामत रह सकते हैं।

अब, यह तो हम जानते हैं कि मक्का पिछले 9000 साल से हमारी खेती का हिस्सा है। इसकी खेती सबसे पहले वर्तमान के मेक्सिको में शुरू हुई थी। तब के किसानों ने एक तरह की घास, टेओसिन्टे, को मक्का में विकसित किया था। खेती से पहले लोग जंगली टेओसिन्टे इकट्ठा करते थे और उसके बीज खाते थे, जिसमें बहुत सारा स्टार्च होता था। खेती के लिए उन्होंने हमेशा सबसे बड़े बीजों वाले टेओसिन्टे चुने और उगाए। इस चयन से समय के साथ टेओसिन्टे से मक्का प्राप्त हुआ।

मक्के की भी कई किस्में हैं। इनमें से ज़्यादातर किस्में गर्म करने पर पॉप हो जाती हैं या फूट जाती हैं। लेकिन इसकी एक किस्म, जिसे वास्तव में ‘पॉपकॉर्न’ कहा जाता है, सबसे अच्छे से पॉपकॉर्न बनाती है। पेरू से 6700 साल प्राचीन पॉप होने वाले मक्के के फायटोलिथ और जले हुए दानों के अवशेष मिले हैं।

ऐसा अनुमान है कि पॉपिंग मक्के की खोज दुर्घटनावश हुई होगी। खाना पकाते समय कुछ दाने आग में गिर गए होंगे, और खाना बनाने वाले ने नए व्यंजन बनाने के इस तरीके पर गौर कर लिया होगा। और फिर, नए व्यंजन के अलावा पॉपकॉर्न बना कर रखना मक्के को लंबे समय तक सहेजने में आसानी देता होगा।

दरअसल, आग में तपाकर दाने से पानी सुखाने से इसे जल्दी खराब होने से बचाया जा सकता है। गर्म करके सुखाते वक्त दाने का पानी भाप बनकर निकलता है, यही पॉपकॉर्न को पॉप करता है। तो हो सकता है कि सिनेमा हॉल का यह साथी अनाज को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की कोशिश का परिणाम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/414f26c5-33ac-48c8-933f-98222503a90d/47232.jpg

चींटियां भी अंग-विच्छेदन शल्य क्रिया करती हैं!

ई बार डॉक्टरों को किसी घायल मरीज़ की जान बचाने के लिए नागंवार फैसला करना पड़ता है – मरीज़ की भुजा या कोई अंग काटकर अलग करना। इसे अंग-विच्छेद या एम्प्यूटेशन कहते हैं। क्या अन्य जंतु भी ऐसा करते हैं?

हाल ही में जर्मनी के वुर्ज़बर्ग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक एरिक फ्रैंक ने ऐसा ही एक चौंकाने वाला अवलोकन रिपोर्ट किया है। वे और उनके सहयोगी फ्लोरिडा कारपेंटर चींटियों (Camponotus floridanus) को अपनी प्रयोगशाला में लाए। वे देखना चाहते थे कि चोट लगने पर ये चींटियां क्या करती हैं।

देखा गया है कि अधिकांश प्रजातियों की चीटियां अपने घायल साथी की चोटग्रस्त या कटी हुई भुजा पर सूक्ष्मजीव-रोधी लेप लगा देती हैं। अधिकांश प्रजातियों में कुछ ग्रंथियां सूक्ष्मजीव-रोधी पदार्थों का स्राव करती हैं और ये पदार्थ बैक्टीरिया व फफूंद संक्रमण से बचाव करते हैं।

लेकिन कारपेंटर चींटियां अलग तरीका अपनाती हैं। वे तो शेष बची भुजा को चबा डालती हैं। कहा जा सकता है कि वे उस भुजा का एम्प्यूटेशन कर देती हैं। मनुष्य के अलावा यह पहला जंतु देखा गया है जो इस तकनीक का सहारा लेता है। इन चींटियों में उद्विकास के दौरान किसी वजह से उक्त ग्रंथियां नदारद हो गईं। तो फिर ये अपना बचाव कैसे करती होंगी?

इसी सवाल का जवाब पाने की दृष्टि से फ्रेंक के दल ने चींटियों की टांग को फीमर नामक हड्डी के निकट से काट दिया और घाव को मिट्टी में पाए जाने वाले एक बैक्टीरिया स्यूडोमोनास एरुजिनोसा (Pseudomonas aeruginosa) के संपर्क में रखा। इसके बाद कुछ चींटियों को अलग-थलग रहने दिया गया जबकि कुछ को उनकी बांबी में छोड़ दिया गया।

जिन चींटियों को बांबी में छोड़ा गया था, जल्दी ही उनके पास एक-दो साथी चींटियां पहुंच गईं। उन्होंने टांग के फीमर के ऊपर वाले हिस्से को कुतर डाला और पूरी टांग को अलग कर दिया। जिन चींटियों को यह ‘शल्य क्रिया’ मिली थी उनमें से 90 प्रतिशत जी गईं जबकि अलग-थलग रखी गई चींटियों में से मात्र 40 प्रतिशत ही बच पाईं।

कुछ मामलों में शोधकर्ताओं ने टांग को थोड़ा नीचे (टिबिया के पास) क्षतिग्रस्त किया। ऐसा करने पर उनकी साथी चींटियों ने टांग को काटकर अलग नहीं किया बल्कि सिर्फ घाव को चाटा ताकि अपनी जीभ से बैक्टीरिया वगैरह को साफ कर सकें। इस मामले में भी अलग-थलग पड़ी घायल चींटियों में से मात्र 10 प्रतिशत जीवित रहीं जबकि बांबियों में रखी गईं 75 प्रतिशत जीवित रहीं।

शोधकर्ताओं ने यह भी समझने की कोशिश की कि कारपेंटर चींटियां ये अलग-अलग रणनीतियां क्यों अपनाती हैं। उन्होंने पाया कि इसका सम्बंध चीटिंयों की शरीर क्रिया से है। फ्लोरिडा कारपेंटर चींटी की फीमर हड्डी से जुड़ी कई मांसपेशियां होती हैं जो हीमोलिंफ (हमारे रक्त जैसा) के बहाव को रोकती हैं, और प्रवाह बाधित होने पर बैक्टीरिया शरीर में अंदर प्रवेश नहीं कर पाते। हो सकता है कि इसी वजह से फीमर की चोट के मामले में एम्प्यूटेशन का सहारा लिया जाता है क्योंकि उन्हें इतना समय मिल जाता है। दूसरी ओर, टिबिया के इर्द-गिर्द इतनी मांसपेशियां नहीं होतीं जो हिमोलिंफ के प्रवाह को रोक सकें। अर्थात टिबिया चोट का उपचार तुरंत करना ज़रूरी होता है। वास्तव में शोधकर्ताओं ने जांच की तो पाया कि फीमर चोट के बाद एम्प्यूटेशन से बैक्टीरिया संक्रमण सचमुच रुक जाता है जबकि टिबिया चोट के संदर्भ में नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/content/article/ants-may-be-only-animal-performs-surgical-amputations

अतीत में भी नए पंख आजकल जैसे ही झड़ते-उगते थे

क हालिया और दिलचस्प अध्ययन से पता चला है कि संभवत: कन्फ्यूशियसॉर्निस वंश के प्राचीन पक्षी आधुनिक चिड़ियाओं के सामान पंख छोड़ते थे। पक्षियों में उड़ान दक्षता बनाए रखने के लिए पंखों का निर्मोचन (यानी पुराने पंख झड़कर नए पंख आना) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन प्राचीन पक्षियों में मौजूद थी।

पंखों की उत्पत्ति संभवत: डायनासौर और टेरोसौर के साझा पूर्वजों में लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले ट्राएसिक काल में हुई थी। इन पक्षियों के शुरुआती पंख हल्के रोएं से अधिक कुछ नहीं होते थे। समय के साथ, शिकारी पक्षियों (रैप्टर्स) और पक्षियों की पूर्ववर्ती प्रजातियों (जैसे मांसाहारी डायनासौर) में केरेटिन से बने जटिल पंख विकसित हुए। केरेटीन वही प्रोटीन है जिससे मनुष्यों में बाल और नाखून का निर्माण होता है। लेकिन नाखूनों के विपरीत पंख अपने आधार से निरंतर नहीं बढ़ते। परिपक्व होने के बाद ये मृत संरचना ही होते हैं। इसलिए पक्षियों को अपने पुराने पंखों को छोड़ना पड़ता है। विभिन्न पक्षियों में इसके तरीके अलग-अलग होते हैं।

उड़ने में असमर्थ पेंगुइन जैसे पक्षी एक बार में बहुत सारे पंख गिराते हैं, जबकि उड़ने वाले पक्षी अपनी उड़ने की क्षमता बनाए रखने के लिए एक बार में कुछ ही पंख गिराते हैं। इसे क्रमिक निर्मोचन कहते हैं। इस तरीके में उनके डैनों पर छोटी-छोटी रिक्तियां रह जाती हैं, जहां नए पंख उगते हैं।

इस अध्ययन के लिए फील्ड म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीव विज्ञानी योसेफ किआट और उनकी टीम ने चीन के एक म्यूज़ियम के 600 से अधिक पक्षी जीवाश्मों का अध्ययन किया। ये पक्षी शुरुआती क्रेटेशियस काल (लगभग 12.5 करोड़ साल पूर्व) के दौरान वर्तमान के पूर्वी चीन में रहते थे। इनमें कन्फ्यूशियसॉर्निस सबसे आम पक्षी था। कौवे की साइज़ के इस पक्षी की खोपड़ी सरीसृपों के समान, पंजे मुड़े हुए, घने पंख और दांत-विहीन चोंच होती थी। यह संरचना डायनासौर और पक्षी दोनों से मिलती-जुलती थी। टीम को कन्फ्यूशियसॉर्निस के दो ऐसे जीवाश्म भी मिले जो निर्मोचन प्रक्रिया के दौरान ही अश्मीभूत हुए थे। उनके परिपक्व पंखों के बीच रिक्तियों में काले, बढ़ते पंख दिखाई दे रहे थे। ये नए पंख दोनों डैनों में सममित रूप से मौजूद थे। यह आधुनिक सॉन्गबर्ड में देखी जाने वाली क्रमिक निर्मोचन प्रक्रिया के समान ही है। टीम के अनुसार ये जीवाश्म पक्षियों में निर्मोचन के सबसे पुराने ज्ञात साक्ष्य हैं। अनुमान है कि पंख निर्मोचन की यह प्रक्रिया साल में एक बार न होते हुए उनके शारीरिक विकास में उछाल के अनुरूप होती होगी।

ये साक्ष्य 12 करोड़ वर्ष पहले पाए जाने वाले चार डैनों वाले डायनासौर माइक्रोरैप्टर में क्रमिक निर्मोचन के साक्ष्यों से भी मेल खाते हैं और इस विचार का समर्थन करते हैं कि माइक्रोरैप्टर उड़ सकता था, क्योंकि क्रमिक निर्मोचन अक्सर उड़ने वाली प्रजातियों में देखा जाता है।

यह अध्ययन कई डायनासौर में निर्मोचन की संभावना जताता है और उड़ान के विकास में इस प्रक्रिया का महत्व बताता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z1qy3t5/files/_20240702_on_bird_molting_secondary.jpg

सिकल सेल रोग के सस्ते इलाज की उम्मीद

सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गंवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महंगे हैं – इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपए बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है।

हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुंह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है।

यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंस जर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।

गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुंचाती हैं।

रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनने लगें।

सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।

दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।

लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहां सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।

अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियां विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।

जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुंचा सके ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता।

इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।

dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ाता देता है।

दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.genengnews.com/wp-content/uploads/2019/08/Aug16_2016_Getty_481945753_SickleCellRedCells.jpg

भारत में कार्बन बाज़ार: संतुलित दृष्टिकोण की ज़रूरत

अशोक श्रीनिवास, आदित्य चुनेकर

ह सही है कि भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन और अतीत में किया गया उत्सर्जन दोनों वैश्विक औसत से काफी कम हैं, लेकिन फिर भी भारत जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इसके जवाब में, भारत ने अपने जीएचजी उत्सर्जन को सीमित करने के लिए कई सक्रिय कदम उठाए हैं। जैसे, औद्योगिक ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना शुरू की गई है और साथ ही नवीकरणीय खरीद अनिवार्यता (आरपीओ) भी लागू की गई है। प्रस्तावित कार्बन बाज़ार भी इसी तरह का एक उपाय है। पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने घरेलू कोटा-अनुपालन कार्बन बाज़ार की स्थापना के लिए रूपरेखा तैयार की है। इसके अंतर्गत ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन और कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) की अधिसूचना शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रस्तावित योजना के बारे में और अधिक विवरण जल्द ही पेश किए जाएंगे और संभवत: प्रारंभ में चार क्षेत्रों – लोहा और इस्पात, सीमेंट, पेट्रोकेमिकल्स और पल्प एंड पेपर – पर केंद्रित होंगे। इस लेख में, हम भारत के लिए प्रस्तावित कार्बन बाज़ार योजना का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, हम उन चुनौतियों पर भी चर्चा करेंगे जिन्हें संबोधित करना ज़रूरी है ताकि कार्बन बाज़ार भारत के कार्बन-मुक्तिकरण में लागतक्षम ढंग से असरदार हो सकें।

वैश्विक कार्बन बाज़ार

कार्बन बाज़ार काफी समय से अस्तित्व में हैं। कार्बन बाज़ार दो प्रकार के होते हैं: स्वैच्छिक और अनिवार्य। स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार या ऑफसेट बाज़ार में परियोजना चलाने वाले ऐसे तरीके अपनाते हैं जिससे उत्सर्जन कम हो सके। ऊर्जा दक्षता बढ़ाकर, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके या ईंधन परिवर्तन के माध्यम से कम किए गए कार्बन उत्सर्जन को ऑफसेट कहते हैं। इसके अलावा कार्बन कैप्चर, युटिलाइज़ेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) परियोजनाओं या वनीकरण परियोजनाओं के ज़रिए वायुमंडल से कार्बन हटाकर भी ऑफसेट उत्पन्न किए जा सकते हैं। इन ऑफसेट को स्वतंत्र एजेंसियां विभिन्न वैश्विक मानकों के आधार पर सत्यापित करती हैं। कई कंपनियां ये ऑफसेट खरीदकर अपने स्वयं के कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य पूरा करती हैं। इस खरीद के लिए कई रजिस्ट्रियां व व्यापार मंच हैं।

अनिवार्य कार्बन बाज़ार एक निर्धारित नियम कैप-एंड-ट्रेड प्रणाली के तहत काम करता है। इन्हें एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) भी कहा जाता है। इन बाज़ारों में सरकारों या अन्य प्राधिकरणों द्वारा कंपनियों को एक निश्चित सीमा तक ही कार्बन उत्सर्जित करने की अनुमति मिलती है। जो कंपनियां अपनी निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जित करती हैं, वे अपने बचे हुए कार्बन क्रेडिट उन कंपनियों को बेच सकती हैं जो अपने लक्ष्य से अधिक उत्सर्जन करती हैं। इसका उद्देश्य कंपनियों को यह अनुमति देना है कि या तो वे कार्बन क्रेडिट खरीदें या अपनी तकनीक में सुधार करके कार्बन उत्सर्जन को कम करें। कुछ अनिवार्य बाज़ार, एक निश्चित प्रतिशत को स्वैच्छिक बाज़ार से पूरा करने की भी अनुमति देते हैं।

इस समय दुनिया भर में लगभग 37 उत्सर्जन ट्रेडिंग योजनाएं (ईटीएस) लागू हैं – 1 क्षेत्रीय स्तर पर, 13 राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी उप-राष्ट्रीय स्तर पर हैं। लगभग 24 अन्य योजनाएं विभिन्न स्तरों पर विचाराधीन या विकासाधीन हैं। तीन सबसे बड़े ईटीएस युरोपीय संघ (ईयू), कैलिफोर्निया और चीन में हैं। इन योजनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानने योग्य हैं।

पहली, इन तीनों योजनाओं को स्थिर होने में काफी समय लगा है। युरोपीय संघ ईटीएस को 2005 में शुरू किया गया था और तब से लेकर अब तक इसमें चार चरणों में कई सुधार हुए हैं। कैलिफोर्निया की कैप एंड ट्रेड (CaT) योजना 2013 में शुरू हुई थी और इसके बाद से इसमें भी कई सुधार हुए हैं। चीन का ईटीएस लगभग 9 साल के उप-राष्ट्रीय पायलट कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ था।

दूसरी, युरोपीय संघ ईटीएस और कैलिफोर्निया CaT के लक्ष्य पूर्ण उत्सर्जन (absolute emissions) पर आधारित हैं जबकि चीन का ईटीएस उत्सर्जन तीव्रता (emission intensity) पर आधारित है। युरोपीय संघ ईटीएस का लक्ष्य निर्धारित सेक्टर्स में उत्सर्जन को 2005 की तुलना में 2030 तक 62 प्रतिशत कम करना है। यह लक्ष्य 2030 तक उत्सर्जन में 55 प्रतिशत की कमी के युरोपीय संघ के समग्र लक्ष्य के साथ मेल खाता है। इस योजना में, हर साल निर्धारित क्षेत्रों के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा एक निश्चित दर से लगभग 5.1 प्रतिशत, से घटाई जाती है। इसी प्रकार, कैलिफोर्निया की योजना में भी 2030 तक हर साल उत्सर्जन की कुल मात्रा लगभग 4 प्रतिशत घटाई जाएगी ताकि 1990 की तुलना में 2030 तक 40 प्रतिशत कमी का लक्ष्य पूरा हो सके। दूसरी ओर, चीन की योजना उत्सर्जन तीव्रता (यानी प्रति इकाई उत्पादन पर प्रति टन उत्सर्जित कार्बन) के लक्ष्यों पर आधारित है, जिसमें कुल उत्सर्जन पर कोई सीमा नहीं है। इसकी हर दो साल में समीक्षा की जाती है।

तीसरी, समय के साथ और तीनों ईटीएस के कार्बन की कीमत में काफी भिन्नता रही है। कार्बन क्रेडिट की कीमत निर्धारित करने में लक्ष्य की महत्वाकांक्षा के स्तर, दीर्घकालिक निश्चितता और प्रवर्तन तंत्र की प्रभावशीलता के साथ-साथ देश-विशिष्ट के तकनीकी और आर्थिक कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

भारत की स्थिति

ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) ने अक्टूबर 2022 में भारतीय कार्बन बाज़ार (आईसीएम) पर एक मसौदा नीति पत्र जारी किया था। इसके बाद, दिसंबर 2022 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन करके बीईई को कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) लागू करने का अधिकार दिया गया। इस योजना को जून 2023 में अधिसूचित किया गया और अक्टूबर 2023 में बीईई ने अनिवार्य प्रणाली और कार्बन सत्यापन एजेंसियों की मान्यता की पात्रता और प्रक्रिया के ड्राफ्ट विवरण जारी किए। इसके बाद दिसंबर 2023 में, CCTS में एक संशोधन किया गया ताकि स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार की अनुमति दी जा सके।

ड्राफ्ट नीति पत्र ने भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए चरणबद्ध दृष्टिकोण का प्रस्ताव दिया, जिसमें पायलट चरण को 1 जनवरी, 2023 तक लागू करने की योजना थी। हाल ही में बीईई ने सूचित किया है कि इस योजना का पहला चरण 2024 में चार प्रमुख क्षेत्रों के लिए शुरू किया जाएगा। यहां भारत में प्रस्तावित CCTS की मुख्य बातें साझा कर रहे हैं।

CCTS का कानूनी आधार पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए), 1986 और ऊर्जा संरक्षण अधिनियम (ईसीए), 2001 (2022 में संशोधित) से आता है। इस योजना के नोडल मंत्रालय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) तथा विद्युत मंत्रालय (MoP) होंगे, और इसका प्रबंधन बीईई द्वारा किया जाएगा। आईसीएम का संचालन एक राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा किया जाएगा। भारत का ग्रिड नियंत्रक कार्बन क्रेडिट का पंजीयक होगा और केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) ट्रेडिंग गतिविधियों का नियमन करेगा। वर्तमान में मौजूद तीन पॉवर एक्सचेंज कार्बन क्रेडिट के लिए खरीद-फरोख्त प्लेटफॉर्म होंगे। आईसीएम की संस्थागत संरचना मौजूदा परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना के समान रहेगी जिसका विलय अंतत: CCTS में कर दिया जाएगा।

जून 2023 में अधिसूचित CCTS में केवल उन्हीं संस्थाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जिन्हें उत्सर्जन के लक्ष्य दे दिए जाएंगे। इस तरह से यह एक अनिवार्यता बाज़ार था। लेकिन, दिसंबर 2023 की अधिसूचना ने आईसीएम के दायरे को स्वैच्छिक ऑफसेट कार्बन बाज़ार तक बढ़ा दिया, जिसकी रूपरेखा और कार्यप्रणाली जल्द ही जारी होगी।

यहां हम प्रस्तावित योजना के तीन प्रमुख पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो इसकी प्रभाविता के लिए महत्वपूर्ण होंगे: CCTS की निगरानी के लिए संस्थागत तंत्र, लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया और योजना की प्रवर्तन सम्बंधी प्रक्रिया।

संस्थान और संचालन

बीईई भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए CCTS का प्रबंधन करेगा जबकि देख-रेख एवं निगरानी का काम राष्ट्रीय संचालन समिति (एनएससी) द्वारा किया जाएगा। एनएससी में विभिन्न मंत्रालयों (बिजली मंत्रालय, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय, कोयला मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय आदि) के संयुक्त सचिव और पांच बाहरी विशेषज्ञ शामिल होंगे। एनएससी का काम CCTS के लक्ष्य निर्धारित करना (बीईई की सिफारिशों के आधार पर) और प्रक्रियाएं बनाना होगा। वह विशिष्ट विशेषज्ञता वाले तकनीकी विशेषज्ञों के समूह भी बना सकता है। हर तीन माह में एक बैठक का आयोजन किया जाएगा। लेकिन एनएससी में नियुक्त उच्च अधिकारियों की व्यस्तता को देखते हुए, यह संभव है कि एनएससी मात्र एक औपचारिक निकाय रहे और सिर्फ बीईई या कामकाजी समूहों की सिफारिशों को मान ले। इससे एनएससी द्वारा बीईई की निगरानी करने का उद्देश्य कमज़ोर हो सकता है। इसके अलावा, बीईई विद्युत मंत्रालय के अधीन है, जो बिजली उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार है और बिजली उत्पादन उत्सर्जन के बड़े स्रोतों में से एक है। बेहतर होता कि यह किसी ‘तटस्थ’ एजेंसी के अधीन होता।

हालांकि, बीईई के पास ऊर्जा दक्षता और संरक्षण तथा पीएटी स्कीम के प्रबंधन का लंबा अनुभव है, लेकिन कार्बन बाज़ार की देख-रेख अलग तरह की चुनौती है। चूंकि उत्सर्जन कई स्रोतों से हो सकता है और इसकी निगरानी ऊर्जा दक्षता की निगरानी से अलग है, इसलिए बीईई को इस नई ज़िम्मेदारी के लिए अधिक तैयारी करना होगी। अर्थ व्यवस्था पर इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए CCTS के प्रबंधन के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन कोई एजेंसी अधिक उपयुक्त होगी। अन्य देशों में, इस तरह के कार्य पर्यावरण एजेंसियों द्वारा किए जाते हैं।

इस योजना की देख-रेख दो बड़े मंत्रालयों – पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन (MoEFCC) और बिजली मंत्रालय MoP – द्वारा की जाने से प्रक्रिया अधिक जटिल हो जाती है। इसके अलावा उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया बहुत लंबी है और कई चरणों में बंटी हुई है। इसमें तकनीकी समिति से शुरू होकर, बीईई, एनएससी, MoP और अंत में MoEFCC की सिफारिशें शामिल होंगी। इसके चलते यह प्रक्रिया बहुत जटिल और धीमी होने की आशंका है। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि यदि एक एजेंसी की सिफारिशें अगली एजेंसी को पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हुईं तो क्या होगा। इसे सरल और पारदर्शी बनाना चाहिए, ताकि इसमें शामिल सभी एजेंसियों की भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियां स्पष्ट रहें।

उत्सर्जन लक्ष्यों का निर्धारण

CCTS को प्रभावी बनाने के लिए बाज़ार के प्रतिभागियों के लिए उत्सर्जन कोटा तय करना सबसे महत्वपूर्ण है। इसी कोटे पर निर्भर करेगा कि कोई प्रतिभागी नई तकनीक में निवेश करे या क्रेडिट खरीदने का निर्णय करे।

यदि इन लक्ष्यों को बहुत ढीला रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत अधिक है तो इसके दो परिणाम होंगे। पहला, यह डीकार्बोनाइज़ेशन के उद्देश्य को आगे नहीं बढ़ाएगा तथा प्रतिभागियों के पास उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं होगा। दूसरा, चूंकि प्रतिभागियों के लिए निर्धारित कोटा हासिल करना आसान होगा, बाज़ार में कार्बन क्रेडिट की अधिकता हो जाएगी। इस स्थिति में कार्बन क्रेडिट की कीमतें भी नीचे आ जाएंगी।

दूसरी ओर, अगर लक्ष्यों को बहुत सख्त रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत कम है तो लक्ष्य को पूरा करने के लिए निवेश की आवश्यकता अधिक होगी। इससे बाज़ार में क्रेडिट की कमी हो जाएगी और कीमतें बहुत अधिक बढ़ जाएंगी, उन्हें खरीदना मुश्किल हो जाएगा। इससे भारतीय उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले कमज़ोर हो सकते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव उन उद्योगों पर होगा जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं। नतीजतन वस्तुओं की कीमतें बढ़ भी सकती हैं। इसलिए, उत्सर्जन कोटा या लक्ष्य सही स्तर पर निर्धारित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

बीईई द्वारा संचालित पीएटी योजना ने उद्योगों की ऊर्जा दक्षता सुधारने के लिए ऊर्जा तीव्रता लक्ष्य दिए थे। प्रस्तावित CCTS भी मुख्य रूप से पीएटी योजना पर आधारित है, जिसमें उद्योगों को उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य देने का प्रस्ताव है। पीएटी योजना के अनुभव से पता चलता है कि इसके लक्ष्य शिथिल थे, जिससे बाज़ार में एनर्जी सेविंग सर्टिफिकेट (ESCerts) की अधिकता हुई और उनकी कीमतें काफी कम हो गईं। इसके अलावा, उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि इन शिथिल लक्ष्यों को भी ठीक से लागू नहीं किया गया यानी उन सभी भागीदारों ने ESCerts नहीं खरीदे, जो ऐसा करने के लिए बाध्य थे। इस अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के आधार पर हम भारत में उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य विकसित करते समय ध्यान देने योग्य कुछ मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।

लक्ष्य तय करने की पद्धति: उत्सर्जन लक्ष्य तय करने के लिए एक पारदर्शी और स्पष्ट पद्धति होना चाहिए, जो विभिन्न सेक्टर्स के अनुसार निर्धारित की जा सके। इससे बाज़ार के प्रतिभागी अधिक स्पष्टता और विश्वास के साथ योजनाएं बना सकेंगे।

लक्ष्यों की स्पष्टता: कंपनियों को योजना में सही तरीके से भाग लेने के लिए दीर्घकालिक और स्पष्ट लक्ष्य चाहिए। इससे उन्हें अपनी निवेश योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। पीएटी योजना में केवल 3 साल के लक्ष्य होते हैं, जो निवेश की योजना के लिए बहुत कम समय है। इसकी बजाय, ईयू में 2030 तक के वार्षिक लक्ष्य तय किए गए हैं। भारतीय CCTS में भी 2030 तक के लक्ष्य रखे जा सकते हैं और 2026 या 2027 में 2035 तक के लक्ष्य घोषित किए जा सकते हैं।

सेक्टरआधारित लक्ष्य: पीएटी योजना में हर कंपनी को अलग-अलग ऊर्जा लक्ष्य दिए जाते थे, जिससे योजना काफी जटिल हो जाती है क्योंकि लक्ष्य निर्धारित करने का प्रमुख आधार बेसलाइन होता है। इससे मौजूदा अक्षमताओं को नज़रअंदाज़ किया जाता है और उन लोगों को प्रोत्साहन नहीं मिलता जिन्होंने पहले ही सुधार कर लिए हैं। इसलिए, पूरे सेक्टर के लिए एक ही उत्सर्जन लक्ष्य रखना बेहतर होगा, जैसे पूरे लोहा और इस्पात क्षेत्र के लिए एक ही लक्ष्य निर्धारित करना अधिक बेहतर विकल्प है। ईयू ईटीएस और CaT में यही होता है। यह लक्ष्य क्षेत्र के सर्वोत्तम प्रदर्शनकर्ताओं के आधार पर हो सकता है। यदि छोटे और मध्यम उद्योगों (SMEs) को विशेष मदद की ज़रूरत है, तो बड़े उद्योगों और SMEs के लिए अलग-अलग लक्ष्य रखे जा सकते हैं।

लक्ष्य का स्तर: उत्सर्जन लक्ष्यों को सही स्तर पर रखना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद मिले और उद्योग प्रतिस्पर्धी बने रहें। भारत के पास पहले से ही कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य हैं। जैसे, राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान कि उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 45 प्रतिशत कम किया जाएगा और सभी बिजली उपभोक्ताओं के लिए नवीकरणीय ऊर्जा खरीदना अनिवार्य किया जाएगा। नए लक्ष्य इन्हीं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करने चाहिए। हालिया रुझानों से पता चलता है कि 2005 और 2019 के बीच भारत अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33 प्रतिशत की कमी कर चुका है।

अन्य बाजारों के साथ सम्बंध: CCTS कार्बन क्रेडिट्स का एकमात्र बाज़ार नहीं है। अन्य प्रस्तावों में स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार और ‘ग्रीन क्रेडिट्स’ योजना को शामिल किया गया है। फिलहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि ये बाज़ार कैसे एक साथ काम करेंगे। अलग-अलग बाज़ारों में कार्बन क्रेडिट्स की कीमत अलग-अलग हो सकती है। बीईई के पास वनीकरण जैसी गतिविधियों से कार्बन क्रेडिट्स का मूल्यांकन करने की विशेषज्ञता नहीं है। इसलिए शुरुआत में, अनिवार्य कार्बन बाज़ार को अलग रखना बेहतर होगा। बाद में, जैसे-जैसे बाज़ार मज़बूत होंगे, कुछ अनिवार्य बाज़ार को ऑफसेट बाज़ार के माध्यम से पूरा करने की अनुमति दी जा सकती है।

लक्ष्यों को लागू करवाना

कंपनियों के लिए उचित लक्ष्य निर्धारित करना महत्वपूर्ण है, लेकिन पूरी प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाने वाली कंपनियों को कार्बन क्रेडिट खरीदवाने की सामर्थ्य कितनी है। यदि वे ऐसा नहीं करतीं, तो उन पर सख्त दंडात्मक कार्रवाई होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो उद्योगों के लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने का कोई प्रोत्साहन/कारण नहीं रह जाएगा।

प्रस्तावित CCTS की मॉडल योजना – पीएटी – ने इसके पर्याप्त साक्ष्य प्रदान किए हैं। पीएट के पहले चरण में केवल 8 प्रतिशत गैर-अनुपालन देखा गया यानी आवश्यक ESCerts में से 92 प्रतिशत ही खरीदे गए। शायद इसलिए कि इस गैर-अनुपालन पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई। और तो और, पीएटी के दूसरे चरण में कई बार समय सीमा बढ़ाने के बाद भी अनुपालन दर 50 प्रतिशत तक गिर गई।

पीएटी के तहत दोषी कंपनियों के विरुद्ध दंडात्मक प्रावधान लागू किए जाने का कोई सार्वजनिक डैटा उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में, पीएटी में दोषी कंपनियों पर दंड लगाने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। इसमें बीईई को सम्बंधित राज्य की प्राधिकृत एजेंसी को सूचित करना पड़ता है। प्राधिकृत एजेंसी इस बात का सत्यापन करती है कि सम्बंधित कंपनी ने लक्ष्य पूरा नहीं किया है और उसके बाद राज्य विद्युत नियामक आयोग (SERC) के समक्ष याचिका दायर करना पड़ती है जो ज़ुर्माना लगाने का काम करता है। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे सफलतापूर्वक लागू करना मुश्किल हो जाता है, खास तौर से तब जब अधिकांश प्राधिकृत एजेंसियों की क्षमताएं सीमित हैं।

प्रस्तावित कार्बन बाज़ार के तहत दंड के प्रावधान में एक कानूनी अनिश्चितता भी है। इस योजना की उत्पत्ति ईपीए और ईसीए दोनों में हो सकती है, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि किस कानून के तहत दंड लगाया जाएगा और उसकी प्रक्रिया क्या होगी। इस संदर्भ में स्पष्टता आवश्यक है ताकि एक सरल, सीधी प्रक्रिया बनाई जा सके और दंडात्मक कार्रवाई का एक विश्वसनीय संकेत दिया जा सके। संभव है कि CCTS की परिभाषा स्पष्ट कर सकती है कि क्या बीईई सीधे दोषी इकाई पर दंड लगा सकती है।

स्वाभाविक रूप से, किसी भी प्रमाणपत्र का उपयोग उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य को पूरा करने के बाद तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए और वह आगे खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, दोषी फर्मों के लेखा परीक्षकों द्वारा इसे एक कानूनी उल्लंघन के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए, ताकि इसे शेयरधारकों के ध्यान में लाया जा सके।

इसके अतिरिक्त, बीईई को बाज़ार निगरानी और दंड रिपोर्ट नियमित रूप से प्रकाशित करनी चाहिए ताकि इस बात पर विश्वास बने कि बाज़ार ठीक ढंग से काम कर रहा है। इसमें तमाम जानकारी शामिल हो; जैसे कितनी इकाइयों ने उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य हासिल किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र जारी किए गए, कितनी इकाइयों ने लक्ष्य हासिल नहीं किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र खरीदने थे, और वास्तव में कितने खरीदे गए, लगाए गए दंड, वसूले गए दंड और दोषी इकाइयों के नाम वगैरह। अन्य जानकारी जैसे खरीद-फरोख्त किए गए प्रमाणपत्रों की मात्रा, कीमतें, और निरस्त किए गए प्रमाणपत्रों की संख्या इत्यादि भी प्रकाशित की जानी चाहिए ताकि भारतीय कार्बन बाज़ारों की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी सार्वजनिक तौर पर मिल सके।

निष्कर्ष

भारत अपने निरंकुश उद्योगों के डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए एक कार्बन बाज़ार की महत्वपूर्ण योजना बना रहा है। इसे हासिल करने के लिए CCTS को सावधानी से डिज़ाइन करने और उसके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं की आवश्यकता है। संस्थागत संरचना को सुगम और मज़बूत बनाने के लिए उसे पर्याप्त संसाधनों के माध्यम से संभालने की आवश्यकता है। इसे एक सरल, प्रभावी और पारदर्शी प्रवर्तन प्रणाली का समर्थन मिलना चाहिए जो कंपनियों को योजना में भाग लेने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करे। उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित करने में भी सतर्कता की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये न तो बहुत ही ढीले हों और न ही बहुत ही कठोर, तथा कंपनियों को डीकार्बोनाइज़ेशन प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाएं। इसके बिना, संभावना है कि भारत के पास एक कार्बन मार्केट तो होगा, लेकिन यह न तो भारतीय उद्योगों के प्रभावी डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद करेगा, और न ही भारतीय उद्योग उत्सर्जन कम करने के वैश्विक दबावों के चलते वैश्विक उद्योगों से मुकाबला कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://businessindia.co/media/general/carboncreditmarket_3.large.jpg

वायरसों का सामाजिक जीवन – डॉ. सुशील जोशी

कोविड महामारी ने हम सबको वायरस के अस्तित्व और महत्व से दर्दनाक ढंग से परिचित करा दिया है। दरअसल, वायरसों की खोज 1800 के दशक के उत्तरार्ध में हुई थी। ये छोटी-से-छोटी कोशिकाओं से भी छोटे होते हैं। इनमें एक प्रोटीन कवच होता है और उस कवच के अंदर ज़्यादा कुछ नहीं, बस चंद जीन्स होते हैं। लेकिन इनकी दिक्कत यह है कि इनके पास वह व्यवस्था नहीं होती कि इन जीन्स की प्रतिलिपियां बना सकें। अपनी प्रतिलिपि बनाने के लिए ये किसी अन्य कोशिका के ताम-झाम पर निर्भर होते हैं। लिहाज़ा, खोज के साथ ही यह बहस शुरू हो गई कि ये वायरस कण सजीव माने जाएं या निर्जीव। ये तो अपनी प्रतिलिपि तभी बना पाते हैं जब ये किसी उपयुक्त कोशिका में प्रवेश कर पाएं।

लेकिन इनकी सरल संरचना ने जीव वैज्ञानिकों को बहुत लुभाया। कई लोग तो मानते हैं कि वायरसों के अध्ययन ने ही आधुनिक जीव विज्ञान (खासकर जेनेटिक्स, जेनेटिक इंजीनियरिंग, बायोटेक्नॉलॉजी वगैरह) को संभव बनाया है। कोशिकाओं की जटिलताओं से मुक्त वायरसों के अध्ययन से वे नियम उजागर हुए जिनसे जीन्स के कामकाज को समझा जा सका। लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि सरलता एक तरफ, वायरसों में कई जटिलताएं भी होती हैं।

हाल के दशकों में हुए अनुसंधान ने वायरसों के कई ऐसे गुणधर्म उजागर किए हैं जिनकी कल्पना तक नहीं गई थी। नए अनुसंधान ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह उजागर की है कि वायरसों को एक-दूसरे से स्वतंत्र कण मानकर उनके सारे गुणों को नहीं समझा जा सकता। दरअसल नए अनुसंधान से वायरसों के सामाजिक संसार की बातें सामने आने लगी हैं। कई वायरस-विज्ञानी मानने लगे हैं कि वायरसों की वास्तविकता को तभी समझा जा सकता है जब आप उन्हें एक समुदाय का सदस्य मानें – इस अर्थ में कि वे एक-दूसरे से सहयोग करते हैं, एक-दूसरे को ठगते हैं और अन्य तरह से परस्पर क्रिया करते हैं।

पूरी सोच की शुरुआत 1940 के दशक में एक डैनिश वायरस विज्ञानी प्रेबेन फॉन मैग्नस के प्रयोगों से हुई थी। फॉन मैग्नस जब अपनी प्रयोगशाला में वायरस पनपा रहे थे, तब उन्होंने एक विचित्र बात पर गौर किया। वायरसों की वृद्धि के लिए वे मुर्गी के अंडे में वायरस स्टॉक का इंजेक्शन लगाते थे और फिर उन्हें संख्यावृद्धि करने देते थे। आम तौर पर बैक्टीरिया वगैरह को पनपने के लिए पोषक पदार्थों से परिपूर्ण माध्यम पर्याप्त होता है। लेकिन चूंकि वायरस के पास अपनी प्रतिलिपि बनाने के लिए आवश्यक जीन्स नहीं होते, इसलिए उन्हें किसी सजीव कोशिका में ही पनपाना होता है। फॉन मैग्नस के प्रयोग में जीवित कोशिका के रूप में मुर्गी के अंडे का उपयोग किया गया था। उन्होंने पाया कि एक अंडे में तैयार कई वायरस दूसरे अंडे में इंजेक्ट करने पर वृद्धि नहीं कर पाते थे। ऐसे तीन चक्र पूरा होने के बाद 10,000 में से मात्र एक वायरस ही संख्यावृद्धि कर पा रहा था। लेकिन इसके बाद के चक्रों में ‘दोषपूर्ण’ वायरसों की संख्या कम होती गई और संख्यावृद्धि योग्य वायरसों की संख्या बढ़ गई।

फॉन मैग्नस ने माना कि संख्यावृद्धि न कर पाने वाले वायरस पूरी तरह विकसित नहीं हो पाए हैं और उन्हें ‘अपूर्ण’ घोषित कर दिया। आगे चलकर, अपूर्ण वायरसों के उतार-चढ़ाव की इस तरह की घटनाएं कई बारी देखी गईं और इसे नाम दे दिया गया ‘फॉन मैग्नस प्रभाव’। लेकिन वायरस वैज्ञानिकों के लिए यह मात्र एक समस्या थी जिसे हल करने की ज़रूरत थी क्योंकि यह प्रयोगों में अड़चन पैदा करती थी। वैसे भी किसी ने प्रयोगशाला से बाहर यानी प्राकृतिक परिस्थिति में अपूर्ण वायरस नहीं देखे थे, इसलिए माना गया कि यह प्रयोगशाला कल्चर तक सीमित मामला है।

बहरहाल, 1960 के दशक में शोधकर्ताओं ने देखा कि अपूर्ण वायरस के जीनोम सामान्य वायरसों के जीनोम से छोटे होते हैं। इस खोज के चलते वायरस विज्ञानियों का यह विश्वास और दृढ़ हो गया कि अपूर्ण वायरस इसलिए संख्या-वृद्धि नहीं कर पाते क्योंकि उनमें प्रतिलिपि बनाने के लिए ज़रूरी जीन नहीं होता। यानी ये दोषपूर्ण हैं। लेकिन 2010 के दशक में शक्तिशाली जीन अनुक्रमण टेक्नॉलॉजी की मदद से यह स्पष्ट हो गया कि तथाकथित अपूर्ण वायरस स्वयं हमारे शरीर में बहुतायत में पाए जाते हैं।

2013 में प्रकाशित एक अध्ययन में पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने विचित्र अवलोकन किया। उन्होंने फ्लू से पीड़ित व्यक्तियों की नाक व मुंह से फोहों पर नमूने (स्वाब) एकत्रित किए। इन नमूनों में से उन्होंने फ्लू के वायरसों का जेनेटिक पदार्थ अलग किया और देखा कि उनमें से चंद वायरसों में कुछ जीन्स नदारद हैं। ये ‘बौने’ वायरस तब बनते हैं जब संक्रमित मेज़बान कोशिका किसी कामकाजी वायरस के जीनोम की गलत नकल कर देती है, और कुछ जीन्स की नकल करना चूक जाती है। इस खोज की पुष्टि कई अन्य अध्ययनों से भी हुई। अन्य अध्ययनों से अपूर्ण वायरसों के बनने के कई अन्य रास्ते भी सामने आए।

जैसे कुछ वायरसों में जीनोम गड्ड-मड्ड हुए होते हैं। होता यह है कि संक्रमित कोशिका वायरस जीनोम की नकल करने लगती है और किसी वजह से बीच में रुककर उल्टी नकल कर डालती है और प्रारंभिक बिंदु तक फिर से नकल कर देती है। कुछ अन्य अपूर्ण वायरस तब बनते हैं जब कोई उत्परिवर्तन किसी जीन के अनुक्रम को तहस-नहस कर देता है और फिर वह जीन कोई काम का प्रोटीन नहीं बना पाता।

इन तमाम अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया कि फॉन मैग्नस के अपूर्ण वायरस मात्र प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वायरस जैविकी का कुदरती हिस्सा है। फिर हमारे अपने शरीरों में अपूर्ण वायरसों की खोज ने इनमें दिलचस्पी में इजाफा किया। और तो और, यह भी पता चला कि अपूर्ण वायरस मात्र फ्लू तक सीमित नहीं हैं बल्कि कई अन्य संक्रमणों (जैसे आरएसवी और खसरा) से बीमार व्यक्तियों के शरीर में पाए गए अधिकांश वायरस अपूर्ण होते हैं।

समस्या यह है कि अपूर्ण वायरस कोशिकाओं में बाकी वायरसों के समान ही घुस सकते हैं लेकिन घुसने के बाद वे अपनी प्रतिलिपि नहीं बना सकते। उनके पास वे जीन्स ही नहीं होते जो मेज़बान की प्रोटीन-निर्माण मशीनरी को अगवा करने के लिए ज़रूरी होते हैं। जैसे उनके पास जीन-प्रतिलिपिकरण का एंज़ाइम (पोलीमरेज़) बनाने के लिए ज़रूरी जीन होता ही नहीं। लेकिन वे अपनी प्रतिलिपि बनाते तो हैं। इसके लिए वे ठगी का सहारा लेते हैं। वे अपने हमसफर वायरसों का फायदा उठाते हैं।

ठगों के लिए अच्छी बात यह होती है कि अमूमन कोई भी कोशिका एक से अधिक वायरसों द्वारा संक्रमित की जाती है। यदि ऐसी संक्रमित कोशिका में कोई कामकाजी वायरस हो, तो वह पोलीमरेज़ बनाएगा। तब ठग वायरस इस पोलीमरेज़ का लाभ लेकर अपने जीन्स की प्रतिलिपि बनवा सकता है।

वास्तव में, ऐसी मेज़बान कोशिका में दोनों वायरस अपने-अपने जीनोम की प्रतिलिपि बनवाने की होड़ करते हैं। ठग वायरस इस होड़ में फायदे में रहता है: उसके पास प्रतिलिपिकरण के लिए कम सामग्री है। लिहाज़ा वही पोलीमरेज़ एक अपूर्ण जीनोम की प्रतिलिपियां जल्दी बना देता है। और जब ये पूर्ण व अपूर्ण वायरस संक्रमण को आगे बढ़ाते हैं (यानी एक से दूसरी कोशिका में जाते हैं) तो ठग को और फायदा मिलता है। यह फायदा संक्रमण बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।

ठगों की अन्य रणनीतियां भी होती हैं। जैसे कुछ अपूर्ण वायरसों में पोलीमरेज़ का जीन तो होता है लेकिन उनके पास वह प्रोटीन कवच बनाने का जीन नहीं होता जिसके अंदर वे अपनी जेनेटिक सामग्री को सहेज सकें। ऐसे ठग प्रतिलिपिकरण करके इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई पूर्ण कामकाजी वायरस उस मेज़बान कोशिका में प्रवेश करके कवच बनाए। वे चुपचाप उस कवच में घुस जाते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि कवच में घुसने के मामले में ठग का जीनोम कहीं फुर्तीला होता है, छोटा जो है।

एशर लीक येल विश्वविद्यालय में एक पोस्ट-डॉक छात्र के रूप में ऐसे वायरसों पर शोध करते रहे हैं जिनके लिए ज़रूरी होता है कि वे एक ही कोशिका में एक साथ उपस्थित हों, तभी वे प्रतिलिपियां बना सकते हैं। इन्हें मल्टीपार्टाइट वायरस कहते हैं। उनके अनुसार, लगता तो है कि ये वायरस परस्पर सहयोग कर रहे हैं लेकिन शायद यह व्यवहार ठगी से ही उपजा है। बहरहाल, अपूर्ण वायरस जो भी रणनीति अपनाएं, एक बात स्पष्ट है – वे इसकी कीमत नहीं चुकाते।

लेकिन एक समस्या पर विचार करना ज़रूरी है। ठग खुद तो अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन किसी अन्य (पूर्ण) वायरस की उपस्थिति में उसका प्रदर्शन पूर्ण वायरस की अपेक्षा बेहतर रहता है। समस्या यह है कि यदि इस तरह से बहुत सारे ठग इकट्ठे हो गए तो वे ठगेंगे किसे? दूसरे शब्दों में कहें, तो ठग की बेइन्तहा सफलता का परिणाम होना चाहिए कि वायरसों का सफाया हो जाए, वे विलुप्त हो जाएं। क्योंकि हर पीढ़ी के बाद अपूर्ण वायरसों की संख्या बढ़ती जाएगी और वे हावी हो जाएंगे। अब यदि उनका अनुपात बहुत बढ़ गया तो उनके अपने प्रतिलिपिकरण में मददगार वायरस बहुत कम बचेंगे और वायरस का नामोनिशान मिटने की कगार पर होगा।

ज़ाहिर है, ऐसा होता नहीं। फ्लू के वायरस इस तरह के विलुप्तिकरण के शिकार नहीं हुए हैं। यानी इस ठगी-चालित मृत्यु के चक्र में कुछ और पहलू भी हैं जो वायरसों की रक्षा करते हैं। वॉशिंगटन विश्वविद्यालय की कैरोलिना लोपेज़ का मत है कि ठगी में लिप्त वायरस संभवत: कोई अन्य भूमिका भी निभाते होंगे। शायद वे अपने हमसफर वायरसों को लूटने की बजाय उन्हें पनपने में सहयोग करते हैं। लेकिन कैसे?

लोपेज़ सैन्डाई वायरस का अध्ययन करती हैं। यह वायरस चूहों को संक्रमित करता है। अध्ययनों से पता चल चुका था कि इस वायरस की दो किस्में (स्ट्रेन्स) अलग-अलग ढंग से व्यवहार करती हैं। इनमें से एक को SeV-52 कहते हैं और यह प्रतिरक्षा तंत्र से ओझल रहता है। इसके चलते SeV-52 ज़ोरदार संक्रमण पैदा कर पाता है। लेकिन एक अन्य किस्म (SeV-Cantell) के खिलाफ त्वरित व शक्तिशाली प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है जिसके चलते इसके संक्रमण के परिणाम ज़्यादा घातक नहीं होते। लोपेज़ की टीम ने पाया कि इस अंतर की वजह यह है कि SeV-Cantell बड़ी संख्या में अपूर्ण वायरस उत्पन्न करता है।

तो सवाल यह उठा कि ये अपूर्ण वायरस चूहों में इतनी शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया क्यों उत्पन्न करते हैं। काफी अनुसंधान के बाद लोपेज़ की टीम यह दर्शाने में सफल रही कि अपूर्ण वायरस संक्रमित कोशिका के चेतावनी तंत्र को सक्रिय कर देते हैं। इसके चलते कोशिका इंटरफेरॉन नामक एक संदेशवाहक अणु बनाने लगती है जो आसपास की कोशिकाओं को चेता देता है कि कोई घुसपैठिया आया है। इस चेतावनी का परिणाम यह होता है कि वे कोशिकाएं वायरस के खिलाफ तैयारी कर लेती हैं और वायरस का त्वरित प्रसार थम जाता है।

 लोपेज़ ने परिकल्पना बनाई कि किसी कोशिका के अंदर अपूर्ण वायरस कामकाजी वायरसों से ठगी करता होगा लेकिन कुल मिलाकर असर यह होता है कि संक्रमण के प्रसार पर अंकुश लग जाता और यह पूरे वायरस समुदाय के लिए लाभदायक होता है। और तो और, लोपेज़ के दल ने पाया कि यह स्थिति सिर्फ सेन्डाई वायरस के साथ नहीं होती। जब उन्होंने RSV पर ध्यान दिया तो पाया कि उसमें भी संक्रमण के दौरान अपूर्ण वायरस शक्तिशाली प्रतिरक्षा उत्पन्न करता है।

स्थिति बहुत ही दिलचस्प है। क्योंकि यदि अपूर्ण वायरस ठग हैं तो उनके लिए यह तो कदापि लाभदायक नहीं होगा कि वे संक्रमण को जल्दी खत्म करवा दें। यदि प्रतिरक्षा तंत्र ने सारे कामकाजी वायरसों को नष्ट कर दिया तो ठग किसे ठगेंगे?

उपरोक्त परिणामों को एक ही ढंग से देखने पर कोई अर्थ निकलता है। लोपेज़ ने अपूर्ण वायरसों को ठग के तौर पर देखने की बजाय यह विचार करना शुरू किया कि शायद अपूर्ण वायरस और कामकाजी वायरस मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। और इस सहयोग का अंतिम लक्ष्य है समुदाय का लंबे समय तक जी पाना। लोपेज़ ने विचार किया कि यदि कामकाजी वायरस अनियंत्रित ढंग से नए-नए वायरस बनाते रहे तो वे अपने मेज़बान पर हावी होकर उसकी जान ले लेंगे, इससे पहले कि वे किसी नए मेज़बान तक पहुंच सकें। यह तो आत्मघाती होगा। लोपेज़ कहती हैं कि एक स्तर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया ज़रूरी है तभी मेज़बान कम से कम इतने समय जीवित रहेगा कि वायरस नए मेज़बान में पहुंच सके।

इसी मुकाम पर अपूर्ण वायरस प्रकट होते हैं। वे संक्रमण पर लगाम लगाते हैं ताकि अगले मेज़बान तक पहुंचा जा सके। इस तरह से देखें तो शायद अपूर्ण और कामकाजी वायरस परस्पर सहयोग कर रहे हैं। हाल के वर्षों में लोपेज़ की टीम ने पता किया है कि अपूर्ण वायरस कई तरीकों से संक्रमण पर लगाम लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे कोशिका में ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं कि जैसे वह गर्मी या ठंड के कारण तनाव में है। ऐसी स्थिति में कोशिका की एक प्रतिक्रिया यह होती है कि वह अपनी प्रोटीन-निर्माण मशीनरी को बंद कर देती है। ऐसा होने पर वायरसों का बनना स्वत: कम हो जाएगा।

हाल ही में इलिनॉय विश्वविद्यालय के क्रिस्टोफर ब्रुक ने बताया है कि संक्रमित कोशिका सैकड़ों विचित्र प्रोटीन बनाने लगती है जो अपूर्ण वायरस जीनोम के जीन्स के ज़रिए बनते हैं। वे भी इस बात से सहमत हैं कि वायरस अकेले-अकेले नहीं बल्कि समुदाय के रूप में रहते हैं। ब्रुक अब इसी तरह के प्रमाण फ्लू वायरस के संदर्भ में खोजने की जुगाड़ में हैं। गौरतलब है कि एक संपूर्ण फ्लू वायरस में 8 जीन खंड होते हैं जो आम तौर पर 12 या अधिक प्रोटीन बनाते हैं। लेकिन जब संक्रमित कोशिकाएं अपूर्ण वायरस पैदा करती हैं, तब किसी जीन का मध्य भाग छोड़ दिया जाता है और शेष भागों को आपस में जोड़ दिया जाता है। इतनी उथल-पुथल के बावजूद ये परिवर्तित जीन्स प्रोटीन बनाते रहते हैं। अलबत्ता, इन प्रोटीन्स के काम सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में ब्रुक ने बताया है कि फ्लू संक्रमित कोशिकाओं में उन्हें ऐसे सैकड़ों नए प्रोटीन्स मिले हैं। ये विज्ञान के लिए एकदम नए हैं। शोधकर्ता पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये प्रोटीन करते क्या हैं।

ऐसे एक प्रोटीन पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि यह जाकर संपूर्ण वायरस द्वारा बनाए गए पोलीमरेज़ से चिपक जाता है और उसे नए वायरस जीनोम बनाने से रोक देता है। लेकिन फिलहाल वैज्ञानिक नहीं जानते कि अपूर्ण वायरस द्वारा बनाए गए इतने सारे प्रोटीन करते क्या हैं।

लेकिन ये दो परिकल्पनाएं महत्वपूर्ण हैं – ठगी और सहयोग। इनके बीच फैसला कर पाना मुश्किल है।

इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उदाहरण नैनोवायरसों का है। ये वायरस पार्सले और फेवा बीन्स जैसे पौधों को संक्रमित करते हैं। इनका प्रतिलिपिकरण का तरीका बहुत अजीब होता है। इनमें कुल मिलाकर 8 जीन्स होते हैं लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्रत्येक वायरस कण में इन 8 में से एक ही जीन पाया जाता है। तो होता यह है कि जब ऐसे सारे 8 अलग-अलग जीनधारी वायरस कण एक साथ एक ही कोशिका में उपस्थित हों, तभी वे अपनी प्रतिलिपि बना सकते हैं। पौधे की कोशिका सभी 8 जीन्स के प्रोटीन बनाती है और उनके जीन्स की प्रतिलिपि भी बनाती है जो नए कवचों में पैक हो जाते हैं।

यह तो सहयोग का शास्त्रोक्त मामला लगता है। देखा जाए तो इन आठों वायरस कणों को मिल-जुलकर काम करना पड़ेगा, तभी प्रतिलिपि बन पाएगी। लेकिन लीक्स और उनके साथियों ने दर्शाया है कि नैनोवायरस (जिन्हें मल्टीपार्टाइट वायरस भी कहते हैं) में यह सहयोग बारास्ता ठगी भी विकसित हो सकता है।

मान लीजिए कि शुरुआत में नैनोवायरसों में सारे जीन्स एक ही जीनोम में मौजूद थे। यह संभव है कि इस वायरस ने गलती से कोई अपूर्ण वायरस उत्पन्न कर दिया जिसमें एक ही जीन है। यह अपूर्ण ठग वायरस तभी जी सकता है जब कोई पूर्ण वायरस इसके जीन की प्रतिलिपि बनवा दे। इसी प्रकार से किसी दूसरे जीन से युक्त कोई अन्य अपूर्ण ठग बन सकता है और उसे भी किसी पूर्ण वायरस को लूटकर ऐसा ही लाभ मिल जाएगा। लीक्स के दल ने इस तरह की क्रियाविधि का गणितीय मॉडल बनाया तो समझ में आया कि वायरस काफी तेज़ी से ठगों का रूप ले सकते हैं। यानी लगेगा सहयोग, लेकिन शुरुआत होगी ठगी से। इनके बीच फैसला करने के लिए बहुत अनुसंधान की ज़रूरत होगी, लेकिन वैज्ञानिकों के बीच एक उम्मीद भी जगी है।

सामाजिक वायरस विज्ञानी यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वायरसों में उपस्थित ठगी और सहयोग की घटना का उपयोग वायरस से लड़ने में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए सिंगापुर एजेंसी फॉर साइन्सेज़ के मार्को विग्नुज़ी की टीम ने इस विचार की जांच ज़िका वायरस के संदर्भ में की है। उन्होंने जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक से ऐसे अपूर्ण ज़िका वायरस तैयार किए जो कामकाजी वायरसों का भरपूर शोषण कर सकते थे। जब उन्होंने ऐसे ठगों को संक्रमित चूहों में प्रविष्ट किया तो उनमें कामकाजी वायरसों की संख्या में तेज़ी से कमी आई। अब इसे एक उपचार विधि के रूप में विकसित करने पर काम चल रहा है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में शोधकर्ता बेन टेनोवर की टीम फ्लू वायरस के ठग वायरस विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे वायरस के ही एक लक्षण का फायदा उठाने की फिराक में हैं। ऐसा देखा गया है कि कभी-कभार एक ही कोशिका को एक ही समय पर संक्रमित करने वाले दो अलग-अलग वायरसों की जेनेटिक सामग्रियां एक ही कवच में पैक हो जाती हैं और एक नया वायरस प्रकट हो जाता है। टेनोवर का दल ऐसे अपूर्ण वायरस विकसित करना चाहता है जो फ्लू वायरस के जीनोम में घुसपैठ कर सकें।

इस दिशा में टेनोवर की टीम ने ठग वायरस से एक नेज़ल स्प्रे तैयार किया है। यह स्प्रे चूहों की नाक में छिड़क दिया जाए तो वे फ्लू के संक्रमण को झेल जाते हैं। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की इस टीम ने फ्लू संक्रमित कोशिकाओं से अपूर्ण वायरस हासिल किए हैं। इनमें से उन्होंने कुछ महा-ठग पहचाने हैं जो अपने जीन्स को कामकाजी फ्लू वायरस में पहुंचाने में कामयाब रहते हैं। इसके बाद जो वायरस बनता है वह संख्या-वृद्धि करने में कमज़ोर रहता है। जब कुछ चूहों को जानलेवा फ्लू से संक्रमित करने के बाद इस महा-ठग के संपर्क में लाया गया तो उनका संक्रमण काफी नियंत्रण में आ गया। यही प्रयोग उन्होंने गंधबिलावों पर भी करके अच्छे परिणाम हासिल किए।

अचरज की बात तो यह रही कि संक्रमित गंधबिलावों ने अन्य को जो वायरस हस्तांतरित किए उनमें काफी सारे महा-ठग भी थे। अर्थात यह संभव है कि ये महा-ठग वायरस के प्रसार पर भी अंकुश लगा सकते हैं।

अलबत्ता, कई शोधकर्ताओं ने चेताया है कि हम इस विषय में अभी बहुत कुछ नहीं जानते हैं। इसलिए इन ठगों के चिकित्सकीय उपयोग से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.wired.com/photos/664794450289e528557fbd67/4:3/w_1920,h_1440,c_limit/Science_1_Quanta_VirusSocialLives-byCarlosArrojo-Lede-scaled.jpg