दक्षिणी स्पेन की चिलचिलाती गर्मी में हर चीज़ सूखी-सूखी नज़र आती है, घास सूख कर सरकंडे बन जाती है, पतझड़ी पेड़ों से पत्तियां झड़ कर सूख चुकी होती हैं। बस कुछ ही तरह की वनस्पतियों पर हरियाली दिखाई पड़ती है। ऐसा ही एक झंखाड़ है झुंड में उगने वाली कारलाइन थिसल (Carlina corymbosa)।
भटकटैया सरीखा, कांटेदार पत्तियों और पीले फूल वाला यह पौधा अगस्त महीने की चरम गर्मी में भी खिला रहता है। ज़ाहिर है मकरंद के चंद स्रोत में से एक होने के कारण स्थानीय मधुमक्खियां और अन्य परागणकर्ता इस पर मंडराते रहते हैं।
स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल के वैकासिक पारिस्थितिकीविद कार्लोस हेरेरा की टीम सिएरा डी कैज़ोरला पर्वत शृंखला के निकट इन्हीं परागणकर्ताओं की आबादी की गणना कर रही थी। जब उन्होंने यह देखने के लिए फूल को छुआ कि उसके अंदर कितना मकरंद है तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी कड़ी धूप में भी फूल ठंडा था। इसी अचंभे ने इस अध्ययन को दिशा दी। हेरेरा ने थिसल फूलों के ऊपरी भाग के भीतर का तापमान मापा और इससे करीबन एक इंच दूर के परिवेश का तापमान मापा।
साइंटिफिक नेचुरलिस्ट में उन्होंने बताया है कि सामान्य गर्म दिनों में फूलों का तापमान अपने परिवेश की तुलना में पांच डिग्री सेल्सियस कम था। और तो और, सबसे गर्म दिनों में तो कुछ फूलों का तापमान परिवेश के तापमान से 10 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था।
ये नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं कि पौधे खुद को जिलाए रखने के लिए थोड़ा जोखिम उठाते हैं। हालांकि पेड़-पौधों की पत्तियों में स्व-शीतलन देखा गया है, लेकिन यह उनमें संयोगवश होता लगता है। दरअसल, प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाईऑक्साइड की आवश्यकता होती है, जो पत्ती की सतह पर उपस्थित स्टोमेटा नामक छिद्रों के माध्यम से प्रवेश करती है। जब कार्बन डाईऑक्साइड के अंदर जाने के लिए स्टोमेटा खुलते हैं तो थोड़ी जलवाष्प भी बाहर निकल जाती है। नतीजतन पत्ती का तापमान थोड़ा कम हो जाता है। लेकिन स्पैनिश थिसल के मामले में वाष्पीकरण द्वारा शीतलन पौधों की (सोची-समझी) रणनीति हो सकती है। वरना सूखे गर्म मौसम में इतने कीमती पानी को वाष्पित कर वे सूखे की मार क्यों झेलना चाहेंगे? संभवत: अपने नाज़ुक प्रजनन अंगों (फूलों) को अत्यधिक गर्मी में ठंडा रखने के लिए।
आगे शोधकर्ता इसकी पंखुड़ियों के स्टोमेटा का अध्ययन करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या वास्तव में पौधा शीतलन के लिए पानी त्यागता है या किसी और कारण से। साथ ही देखना चाहते हैं कि शीतलन के लिए इतना पानी ज़मीन से खींचने में जड़ें कैसे मदद करती हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/4ffbe0d7ba6a0d42/original/GettyImages-831613996_WEB.jpg?w=1000
अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।
नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।
पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।
यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)
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डैल-ई और चैटजीपीटी जैसे जनरेटिव एआई (नया निर्माण करने में सक्षम) नवाचारों को विकसित करने वाली कंपनी ओपनएआई ने हाल ही में अपना नया उत्पाद ‘सोरा’ जारी किया है। यह एक ऐसा एआई मॉडल है जो टेक्स्ट से वीडियो निर्माण करने के लिए तैयार किया गया है। कल्पना करें तो यह कुछ ऐसा है कि आप कोई संगीत वीडियो या विज्ञापन देख रहे हैं लेकिन इनमें से कुछ भी वास्तविक दुनिया में मौजूद नहीं है। यही कमाल सोरा ने कर दिखाया है।
इस अत्याधुनिक कृत्रिम बुद्धि साधन को इनपुट के तौर पर तस्वीरें या संक्षिप्त लिखित टेक्स्ट दिया जाता है और वह उसे एक मिनट तक लंबे वीडियो में बदल देता है। कल्पना कीजिए कि एक महिला रात में शहर की एक हलचल भरी सड़क पर आत्मविश्वास से चल रही है, और आसपास जगमगाती रोशनी और पैदल लोगों की भीड़ है। सोरा द्वारा तैयार किए वीडियो में उसकी पोशाक से लेकर सोने की बालियों की चमक तक, हर बारीक से बारीक विवरण सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है। कुछ नमूने देखने के लिए इन लिंक्स पर जाएं:
गौरतलब है कि ओपनएआई द्वारा 15 फरवरी को सोरा को जारी करने की घोषणा की गई है लेकिन फिलहाल इसे परीक्षण के लिए कुछ चुनिंदा कलाकार समूहों तथा ‘रेड-टीम’ हैकर्स के उपयोग तक ही सीमित रखा गया है। इस परीक्षण का उद्देश्य इस नवीन और शक्तिशाली तकनीक के सकारात्मक अनुप्रयोगों और संभावित दुरुपयोग दोनों का पता लगाना है।
सोरा की मदद से ऐसे वीडियो निर्मित करना बहुत आसान है। केवल एक साधारण निर्देश से यह ऐसे दृश्य उत्पन्न कर सकता है जिन्हें बनाने के लिए व्यापक संसाधनों और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। फिल्मों में कहानी सुनाने से लेकर विज्ञापनों में आभासी यथार्थ के अनुभवों में क्रांति लाने तक, सोरा से रचनात्मक संभावनाओं की पूरी दुनिया खुलती है।
लेकिन ओपनएआई को इस शक्तिशाली साधन को जारी करने के साथ बड़ी ज़िम्मेदारी भी निभानी है। हालांकि कंपनी सोरा की क्षमताओं के नैतिक निहितार्थों को ध्यान में रखते हुए सावधानी से आगे बढ़ रही है, फिर भी इस साधन के नैतिक और ज़िम्मेदार उपयोग पर चर्चा को बढ़ावा देना ज़रूरी है।
ऐसी दुनिया में जहां यथार्थ और सिमुलेशन के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है, सोरा मानवीय सरलता और कृत्रिम बुद्धि की असीमित क्षमता के प्रमाण के रूप में उभरा है। बहरहाल, हम जिस उत्सुकता से इसके सार्वजनिक रूप से जारी होने का इंतज़ार कर रहे हैं उससे एक बात तो निश्चित है कि वीडियो के ज़रिए कहानी सुनाने का भविष्य पहले जैसा नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)
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आज प्लास्टिक हर जगह उपस्थित है। खाद्य पैकेजिंग, टायर, कपड़ा, पाइप आदि में उपयोग होने वाले प्लास्टिक से बारीक प्लास्टिक कण निकलते हैं जिसे माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। यह पर्यावरण में व्याप्त है और अनजाने में मनुष्यों द्वारा उपभोग या श्वसन के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर रहा है।
सर्जरी से गुज़रे 200 से अधिक रोगियों पर किए गए हालिया अध्ययन से पता चला है कि लगभग 60 प्रतिशत लोगों की किसी मुख्य धमनी में माइक्रोप्लास्टिक या नैनोप्लास्टिक मौजूद है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन प्लास्टिक कणों वाले व्यक्तियों में सर्जरी के बाद लगभग 34 महीनों के भीतर दिल के दौरे या स्ट्रोक जैसी हृदय सम्बंधी समस्याओं से पीड़ित होने की संभावना 4.5 गुना अधिक होती है।
वैसे दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित यह अध्ययन केवल माइक्रोप्लास्टिक को इसका ज़िम्मेदार नहीं बताता है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे अन्य कारक भी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं, जिन पर इस अध्ययन में विचार नहीं किया गया है।
दरअसल, जल्दी नष्ट न होने के कारण माइक्रोप्लास्टिक सजीवों के शरीर में जमा होते रहते हैं और पर्यावरण में भी टिके रहते हैं। माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़े और प्लेसेंटा में भी पाए गए हैं, लेकिन इनके स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव स्पष्ट नहीं हैं।
इसी विषय में अध्ययन करते हुए इटली स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पेनिया लुइगी वानविटेली के चिकित्सक ग्यूसेप पाओलिसो और उनकी टीम जानती थी माइक्रोप्लास्टिक्स वसा अणुओं की ओर आकर्षित होते हैं। लिहाज़ा, उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि क्या ये कण रक्त वाहिकाओं के भीतर प्लाक (वसा की जमावट) के भीतर इकट्ठे होते हैं। इसके बाद टीम ने ऐसे 257 लोगों को ट्रैक किया जो गर्दन की धमनी से प्लाक हटाकर स्ट्रोक के जोखिम को कम करने की सर्जरी करवा रहे थे।
प्लाक की जांच करने पर पता चला कि 150 प्रतिभागियों के नमूनों में कोशिकाओं और अपशिष्ट उत्पादों के साथ माइक्रोप्लास्टिक वाले दांतेदार थक्के मौजूद हैं। इनके रासायनिक विश्लेषण से पॉलीथीन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे प्रमुख प्लास्टिक घटक मिले जो आम तौर पर रोज़मर्रा की वस्तुओं में पाए जाते हैं। अधिक माइक्रोप्लास्टिक वाले लोगों में सूजन वाले आणविक चिंह मिले जो स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का संकेत देते हैं।
इसके अलावा, जिन व्यक्तियों के प्लाक में माइक्रोप्लास्टिक पाया गया वे युवा, पुरुष, धूम्रपान करने वाले थे और उन्हें पहले से मधुमेह या हृदय रोग जैसी समस्याएं थी। चूंकि यह अध्ययन केवल उन लोगों पर किया गया था जो स्ट्रोक का जोखिम कम करने के लिए सर्जरी करवा रहे थे, इसलिए इसके सामान्य प्रभाव पर अभी अनिश्चितता है।
शोधकर्ताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि 40 प्रतिशत प्रतिभागियों में माइक्रोप्लास्टिक्स अनुपस्थित थे क्योंकि प्लास्टिक से पूरी तरह बचना तो मुश्किल है। इसलिए यह समझने के लिए आगे के शोध की आवश्यकता है कि कुछ लोगों में माइक्रोप्लास्टिक क्यों नहीं पाया गया।
यह अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के उद्देश्य से एक वैश्विक संधि तैयार करने के राजनयिक प्रयासों से मेल खाता है। 2022 में, 175 देशों द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार इस संधि को 2024 के अंत तक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते का रूप देना है, हालांकि प्रगति काफी धीमी है। अध्ययन के निष्कर्षों से उम्मीद की जा रही है कि अप्रैल में ओटावा में होने वाली वार्ता में निर्णय लिए जाएंगे। तब तक, अपनी निजी आदतों में बदलाव लाना आवश्यक है ताकि प्लास्टिक उपयोग को कम से कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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लाखों लोग या तो वज़न घटाने या फिर धार्मिक आस्था के चलते नियमित उपवास करते हैं, और व्रत-उपवास करने से शरीर को होने वाले फायदे भी गिनाते हैं। लेकिन उपवास करने के कारण शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को वास्तव में बहुत कम जाना-समझा गया है। एक ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लंबे उपवास के कारण विभिन्न अंगों में होने वाले आणविक परिवर्तनों पर बारीकी से निगरानी रखी, और पाया कि उपवास से स्वास्थ्य पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव पड़ते हैं।
अध्ययन में महज़ 12 प्रतिभागियों को सात दिन तक उपवास करने कहा गया – इस दौरान उन्हें सिर्फ पानी पीने की अनुमति थी, किसी भी तरह के भोजन की नहीं। रोज़ाना उनके शरीर के लगभग 3000 विभिन्न रक्त प्रोटीनों में हो रहे परिवर्तनों को मापा गया। यह पहली बार है कि उपवास के दौरान पूरे शरीर में आणविक स्तर पर निगरानी रखी गई है।
नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित नतीजों के अनुसार उपवास के पहले कुछ दिनों में ही शरीर ने ऊर्जा हासिल करने का अपना स्रोत बदल लिया था, और ग्लूकोज़ की बजाय संग्रहित वसा का उपयोग शुरू कर दिया था। नतीजतन, पूरे सप्ताह में प्रतिभागियों का वज़न औसतन 5.7 किलोग्राम कम हुआ, और दोबारा भोजन शुरू करने के बाद भी उनका वज़न कम ही रहा।
अध्ययन में उपवास के प्रथम दो दिनों में रक्त प्रोटीन के स्तर में कोई बड़ा फर्क नहीं दिखा। लेकिन तीसरे दिन से सैकड़ों प्रोटीन के स्तर में नाटकीय रूप से घट-बढ़ हुई।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने पूर्व में हुए उन अध्ययनों को खंगाला जिनमें विभिन्न प्रोटीनों के घटते-बढ़ते स्तर और विभिन्न बीमारियों का सम्बंध देखा गया था। इस तरह शोधकर्ता उपवास के दौरान 212 प्लाज़्मा अणुओं में हुए बदलावों के स्वास्थ्य पर प्रभाव का आकलन कर पाए।
मसलन, उन्होंने पाया कि तीन दिनों से अधिक समय तक भोजन न करने के कारण प्लाज़्मा में स्विच-एसोसिएटेड प्रोटीन-70 का स्तर घट गया था। ज्ञात हो कि इसका स्तर कम हो तो रुमेटिक ऑर्थराइटिस का जोखिम कम होता है। संभवत: इसी कारण रुमेटिक ऑर्थराइटिस के रोगियों को लंबा उपवास करने से दर्द में राहत मिलती होगी। इसके अलावा, हाइपॉक्सिया अप-रेगुलेटेड-1 नामक प्रोटीन, जो हृदय धमनी रोग से जुड़ा है, के स्तर में कमी देखी गई। इससे लगता है कि लंबे समय तक ना खाना हृदय को तंदुरुस्त रखने में मददगार हो सकता है।
लेकिन अध्ययन में उपवास के स्वास्थ्य पर कई नकारात्मक परिणाम भी दिखे। जैसे, उन्होंने थक्का जमाने वाले कारक-XI में वृद्धि दिखी, जिसके चलते थ्रम्बोसिस होने का खतरा बढ़ सकता है।
कुल मिलाकर लगता है कि उपवास करने के फायदे भी हैं और नुकसान भी। बिना सोचे-समझे, या सिर्फ फायदों के बारे में सोचकर उपवास करना आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए अपने शरीर और उसकी क्षमताओं से अवगत रहें और उस आधार पर तय करें कि व्रत करें या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
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वर्तमान समय की सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है पर्यावरण को बचाते हुए ऊर्जा की अपूरणीय मांग को पूरा करना, जो कि मानव जाति के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक अर्थव्यवस्था पेट्रोलियम, कोयला, गैस आदि जैसे जीवाश्म ईंधनों पर बहुत अधिक निर्भर है, लेकिन ये तेज़ी से चुक रहे हैं। स्पष्ट है कि ये संसाधन हमेशा उपलब्ध नहीं रहने वाले, और ये हमारे ग्रह को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। इससे सभी देशों में एक गंभीर बहस छिड़ गई है कि पर्यावरण दिन-ब-दिन बदहाल हो रहा है और पृथ्वी धीरे-धीरे भावी पीढ़ी के लिए अनुपयुक्त होती जा रही है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए हमें ऊर्जा संकट से उबरना होगा, और इसके लिए नए एवं बेहतर ऊर्जा स्रोतों की खोज करना अत्यंत आवश्यक है। हाल के दिनों में, शोधकर्ताओं का ध्यान ऊर्जा के एक स्वच्छ और टिकाऊ नवीकरणीय स्रोत विकसित करने पर केंद्रित हुआ है। इस सम्बंध में, हाइड्रोजन एक संभावित उम्मीदवार की तरह उभरी है जो स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा प्रदान करके बढ़ती जलवायु चुनौतियों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। देखें तो यह विचार क्रिन्यावित करने में बहुत सरल और आसान-सा लगता है। लेकिन, एक सुस्थापित जीवाश्म ईंधन आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था से हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था में तबदीली इतना सीधा-सहज मामला नहीं है। इसके लिए समग्र रूप से वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों और समाज के बीच सहज और निर्बाध सहयोग की दरकार है। साथ ही ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिनसे हाइड्रोजन का व्यावसायीकरण करने से पहले निपटना होगा। इसलिए, यह समझना ज़रूरी है कि यह नई ‘रामबाण दवा’ किस तरह हमारी समस्याओं को हल करने का दावा करती है और आगे के मार्ग में किस तरह की चुनौतियां हैं। आगे बढ़ने से पहले, हाइड्रोजन के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं।
हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है, जो द्रव्यमान के हिसाब से सभी सामान्य पदार्थों का 74 प्रतिशत है। तात्विक हाइड्रोजन गैसीय H2 के रूप में हो सकती है, और यह गैर-विषाक्त एवं निहायत हल्की होती है। ब्रह्मांड का सबसे प्रचुर तत्व होने के बावजूद मुक्त हाइड्रोजन गैस पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत दुर्लभ है क्योंकि यह अत्यधिक क्रियाशील होती है और हल्की होने के कारण आसानी से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से निकल जाती है। इसलिए, हम वायुमंडल से सीधे हाइड्रोजन प्राप्त करने के बारे में नहीं सोच सकते। फिर, इसका सबसे आम स्रोत पानी है जो सभी जीवित प्राणियों में भी मौजूद है। दूसरे शब्दों में कहें तो, हाइड्रोजन हम सभी में मौजूद है!
कई वैज्ञानिकों एवं समृद्धजनों ने हाइड्रोजन को कार्बन आधारित ईंधन के आकर्षक और आशाजनक विकल्प के रूप में सुझाया है। यह सुझाव निम्नलिखित तथ्यों से उपजा है:
हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है।
हाइड्रोजन से चलने वाले ईंधन सेल बिजली, ऊष्मा और पानी का उत्पादन करते हैं एवं बहुत ही कम कार्बन फुटप्रिंट छोड़ते हैं।
आणविक हाइड्रोजन के ऑक्सीजन के साथ दहन से ऊष्मा उत्पन्न होती है और इसका एकमात्र उपोत्पाद पानी होता है। दूसरी ओर, जीवाश्म ईंधन का दहन कई हानिकारक प्रदूषक और भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करता है।
उल्लेखनीय है कि कई वाहन निर्माता कंपनियों ने यह दर्शाया है कि हाइड्रोजन का उपयोग सीधे अंत:दहन इंजन में किया जा सकता है। इसलिए, परिवहन उद्योग अब वाहनों के लिए हाइड्रोजन आधारित ईंधन में भारी निवेश कर रहे हैं।
अलबत्ता, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसा पहली बार नहीं है जब हाइड्रोजन को ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। किसी ज़माने में, ‘टाउन गैस’ नामक मिश्रण का महत्वपूर्ण घटक हाइड्रोजन थी, इसका उपयोग खाना पकाने और घरों एवं सड़कों को रोशन करने के ईंधन के रूप में व्यापक तौर पर किया जाता था। बाद में, टाउन गैस की जगह तेज़ी से प्राकृतिक गैस और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों ने ले ली। विद्युत के आने से टाउन गैस का महत्व और भी कम हो गया। कहा गया कि बिजली स्वच्छ ऊर्जा है।
समस्याएं
क्रांतिकारी ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का महत्व काफी बढ़ा दिया गया है, और यह माना जा रहा है कि यह जल्द ही पेट्रोलियम जैसे पारंपरिक ईंधन की जगह ले लेगी और दुनिया की ऊर्जा एवं पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं का समाधान करेगी। दुर्भाग्य से, हमें यह मानना होगा कि इसे साकार करना इतना आसान नहीं है। हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था स्थापित करने की तीन मुख्य चुनौतियां हैं: हाइड्रोजन का स्वच्छ उत्पादन, कुशल और रिसाव रोधी भंडारण और सुरक्षित परिवहन।
स्वच्छ उत्पादन
जैसा कि पहले बताया गया है, पृथ्वी पर तात्विक हाइड्रोजन बहुत अधिक मात्रा में मौजूद नहीं है। इसे पानी से प्राप्त करना आसान नहीं है, और महंगा भी है। बेशक ऐसा लगता है हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन की भूमिका निभा सकता है, लेकिन वास्तव में यह ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत नहीं बल्कि ऊर्जा का वाहक है। इसका उत्पादन कुछ अन्य स्रोतों से करना होगा और उसके बाद ही इसकी रासायनिक ऊर्जा का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए किया जा सकेगा। वर्तमान में, अधिकांश हाइड्रोजन का उत्पादन जीवाश्म ईंधनों से ही होता है, जो परोक्ष रूप से कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाता है। अगर हम मौजूदा मांग को देखें, मसलन सिर्फ परिवहन के लिए ही देखें, तो इसकी आपूर्ति के लिए बहुत अधिक मात्रा में हाइड्रोजन की आवश्यकता होगी। और हाइड्रोजन उत्पादन के मौजूदा संसाधनों से इस मांग की आपूर्ति करना बेहद मुश्किल है। इसलिए, यदि हम हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था पर आना चाहते हैं तो हमें हाइड्रोजन उत्पादन के लिए अधिक टिकाऊ, गैर-प्रदूषणकारी और कम लागत वाली विधियों की दरकार है। इस संदर्भ में स्वच्छ ऊर्जा के इस स्रोत के उत्पादन के लिए कार्यक्षम सामग्री व विधियां विकसित करने के कई प्रयास किए जा रहे हैं।
सुरक्षित भंडारण
दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है हाइड्रोजन के लिए सुरक्षित भंडारण व्यवस्था बनाना ताकि औद्योगिक, घरेलू और परिवहन के लिए पर्याप्त ईंधन उपलब्ध हो सके। गौरतलब है कि समान मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए आयतन के हिसाब से गैसोलीन की तुलना में हाइड्रोजन 3000 गुना अधिक लगती है, यानी आयतन के हिसाब से इसका ऊर्जा घनत्व कमतर है। इसका मतलब है कि इसका उपयोग करने के लिए इसके भंडारण हेतु विशाल टैंकों की आवश्यकता होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम समझ सकते हैं कि हाइड्रोजन टैंक कारों जैसे छोटे वाहनों के लिए मुनासिब नहीं हो सकते हैं, और इन छोटे वाहनों की कॉम्पैक्ट डिज़ाइन में टैंकों को फिट करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा, हाइड्रोजन की एक खासियत यह है कि वह कई धातुओं में से रिस जाती है। इसलिए धातु-आधारित मौजूदा ईंधन तंत्रों (टैंक, पाइप, चैम्बर वगैरह) को ठीक से इन्सुलेट करना होगा। उचित प्रौद्योगिकी के बिना हाइड्रोजन का भंडारण हाइड्रोजन रिसाव का कारण बन सकता है, जिससे न केवल ईंधन ज़ाया होगा बल्कि सुरक्षा सम्बंधी गंभीर खतरे भी पैदा हो सकते हैं क्योंकि हाइड्रोजन अत्यधिक ज्वलनशील और विस्फोटक गैस है। कुल मिलाकर, वाहनों के लिए हाइड्रोजन का भंडारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैसे, भंडारण को लेकर कई प्रस्ताव हैं ताकि उसका ऊर्जा घनत्व बढ़ाया जा सके – चाहे गैस के रूप में या अन्य तत्वों के साथ जोड़कर।
सुरक्षित परिवहन
भंडारण की तरह ही हाइड्रोजन का परिवहन भी तकनीकी रूप से पेचीदा है, और इसके भंडारण के विभिन्न चरणों में हाइड्रोजन के प्रबंधन की अपनी अलग-अलग सुरक्षा चुनौतियां हैं। वर्तमान में, हाइड्रोजन की आपूर्ति मुख्यत: स्टील सिलेंडर में संपीड़ित गैस, या टैंक में तरल हाइड्रोजन के रूप में की जाती है। इस तरह से आपूर्ति करना किफायती नहीं है, और यह अंतिम उपयोगकर्ताओं की जेब पर भारी पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वह दिन अभी दूर है जब हम अपनी कारों में पेट्रोल-डीज़ल की तरह हाइड्रोजन भरवा सकेंगे। जब तक हाइड्रोजन के सुरक्षित और निरंतर परिवहन के लिए उचित बुनियादी ढांचा नहीं बनेगा, तब तक हाइड्रोजन से चलने वाले वाहन आम आदमी को लुभा नहीं पाएंगे। अलबत्ता, यदि भंडारण का मुद्दा सुलझ गया, तो परिवहन सम्बंधी समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो सकेंगी।
स्वच्छ भविष्य का वरदान यानी हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में उपयोग करने के फायदे और चुनौतियां हमने इस लेख में देखीं। लेकिन, आदर्श बदलाव लाने के लिए विभिन्न हितधारकों का समन्वित प्रयास आवश्यक है। लोगों के बीच हाइड्रोजन के फायदों को प्रचारित कर इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है, और एक व्यापक वर्ग से भागीदारी का आग्रह किया जा सकता है।
कई देशों ने वास्तव में इन समस्याओं पर काम करना शुरू कर दिया है। सरकारों, उद्योग व शिक्षा जगत को एकजुट होकर काम करना होगा ताकि इस कठिन परिस्थिति का उपयोग स्वच्छ एवं हरित हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था पर स्थानांतरित होने के अवसर के रूप में हो सके। हाइड्रोजन में पूरे ऊर्जा क्षेत्र में क्रांति लाने की ताकत है, लेकिन इसकी कई वैज्ञानिक और तकनीकी बाधाओं को दूर करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
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जब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है, चर्चाओं का केंद्र कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन होते हैं। लेकिन जलवाष्प भी एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है जो जलवायु पर गंभीर प्रभाव डालती है। जलवाष्प कई वर्षों तक समताप मंडल में बनी रहती है और धरातल की गर्मी को अवशोषित कर इसे वापस धरती पर फेंकती है। एक अध्ययन में पाया गया था कि 1990 के दशक में संभवत: समतापमंडलीय पानी में आई उछाल ने उस समय वैश्विक तापमान को 30 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था। और साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैज्ञानिक इन दिनों जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जलवाष्प आधारित एक क्रांतिकारी रणनीति पर काम कर रहे हैं – समताप मंडल का निर्जलीकरण।
समतापमंडल के निर्जलीकरण का सिद्धांत यह है कि नमी से भरी हवा को समतापमंडल में पहुंचने से पहले ही रोक लिया जाए और उसे कणों के आसपास बादलों का रूप दे दिया जाए। नेशनल ओशियनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के भौतिक विज्ञानी शुका श्वार्ज़ के नेतृत्व में इस रणनीति ने पारंपरिक जियोइंजीनियरिंग विधियों का एक विकल्प प्रदान किया है। इस तकनीक में प्रति सप्ताह केवल 2 किलोग्राम पदार्थ की आवश्यकता होती है, जो संसाधन-कुशल साबित होगा। इसके अलावा, बिस्मथ ट्रायआयोडाइड नामक इस पदार्थ के छिड़काव के लिए हवाई जहाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; गुब्बारे या ड्रोन से इसका छिड़काव किया जा सकता है।
इस तकनीक का उपयोग करने के लिए कुछ ऐसे विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान की गई है जहां से ऊपर की ओर उठने वाली हवाओं की तेज़ धाराएं समताप मंडल तक पहुंचती हैं। जैसे पश्चिमी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर का क्षेत्र।
अलबत्ता, इस तकनीक में कई चुनौतियां और जोखिम भी हैं। एक संभावना अनपेक्षित परिणाम है; यदि सीडिंग कण के कारण बादल वांछित जगह पर न बनकर अन्यत्र कहीं एवं अलग तरह के बादल बन जाना जो गर्मी को परावर्तित करने की बजाय धरती से निकलने वाली गर्मी को सोखने लगें। ऐसे में इस तकनीक की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए गहन शोध आवश्यक है।
बहरहाल, नीति निर्माताओं और शोधकर्ताओं के बीच अपरंपरागत रणनीतियों के लिए खुलापन बढ़ रहा है। ताप-रोधी बादलों की जांच जैसी पहल जलवायु सम्बंधी बदलती सोच की द्योतक है। हालांकि, इस मुद्दे पर अभी भी चर्चाएं जारी है और अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। फिर भी यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए साहसिक और कल्पनाशील रणनीतियां आवश्यक हैं। (स्रोत फीचर्स)
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सूंघने की शक्ति कई खतरों को टालने में मदद करती है; जैसे हम खराब खाना खाने से बचने के लिए उसे सूंघकर देखते हैं या हम गैस रिसने या कुछ जलने जैसी गंध के प्रति सचेत रहते हैं। तो क्या हम सूंघकर बीमारी की आहट नहीं भांप सकते?
वैज्ञानिकों का कहना है कि दुरुस्त घ्राण इंद्रियों वाला कोई भी व्यक्ति किसी ‘बीमारी की गंध’ पहचान सकता है। वैज्ञानिकों ने देखा है कि कई बीमारियों की अपनी एक विशेष गंध होती है, जिसे पहचान कर आप बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति उस बीमारी से पीड़ित है या नहीं। जैसे डायबिटीज़ के रोगी के मूत्र से सड़े हुए सेब जैसी गंध आती है, टायफाइड के कारण शरीर की गंध ब्रेड जैसी हो सकती है, यहां तक कि पीत-ज्वर के कारण आपका शरीर कसाई की दुकान (कच्चे मांस) की तरह गंध मार सकता है।
दरअसल, हमारा शरीर हवा में लगातार वाष्पशील रासायनिक पदार्थ छोड़ता रहता है, जो हमारी सांस और त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट गंध हो सकती है। हमारे चयापचय तंत्र में उम्र, आहार, या किसी बीमारी के कारण आए बदलाव के कारण बाहर निकलने वाले वाष्पशील अणु बदल सकते हैं, जिसके चलते गंध भी अलग हो सकती है। फिर, हमारी आंत और त्वचा पर रहने वाले सूक्ष्मजीव भी चयापचय उप-उत्पादों के विघटन से विभिन्न गंधयुक्त अणु पैदा कर सकते हैं।
कुल मिलाकर हमारा शरीर गंध का एक कारखाना है। और यदि हम गंधों पर ध्यान दें, अपनी घ्राण शक्ति का भरपूर उपयोग करें और उसे प्रशिक्षित करें तो संभवत: हम बीमारियों की गंध पहचान पाएंगे।
कुछ समय पहले ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जिसमें पता चला था कि एक महिला पार्किंसन रोग की गंध सूंघ सकती है। गौरतलब है कि समय रहते पार्किंसन का पता करना बेहद मुश्किल है, और जब तक इस बीमारी के लक्षण सामने आते हैं और इसकी पुष्टि हो पाती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। दरअसल, इस महिला के पति को पार्किंसन से ग्रसित पाया गया था। लेकिन पति में पार्किंसन का पता चलने के छह साल पहले से ही इस महिला को अपने पति में से कुछ अजीब सी गंध आने लगी थी – यह गंध थोड़ी लकड़ी, थोड़ी कस्तूरी जैसी थी। बाद में महिला जब पार्किंसन के रोगियों से भरे वार्ड में गई तो उन्हें अहसास हुआ कि ऐसी गंध सिर्फ उनके पति से ही नहीं, बल्कि सभी पार्किंसन रोगियों से आती है।
उनकी इस क्षमता को परखा गया। इसके लिए उन्हें छह पार्किंसन-पीड़ित और छह स्वस्थ लोगों की टी-शर्ट सुंघाई गई, और उन्हें पार्किंसन रोगियों की टी-शर्ट पहचानना था। उन्होंने छह के छह पार्किंसन पीड़ितों की टी-शर्ट की सही पहचान की, लेकिन उन्होंने कंट्रोल (यानी स्वस्थ व्यक्तियों वाले) समूह में से भी एक व्यक्ति को पार्किसन पीड़ित बताया।
तब तो यह लगा था कि उन्होंने पहचानने में गड़बड़ी की है, लेकिन आठ महीने बाद वास्तव में उस व्यक्ति को पार्किंसन से पीड़ित पाया गया।
लेकिन इस तरह की विशिष्ट क्षमता वाले किसी व्यक्ति को हमेशा बीमारी की पहचान के लिए बुलाना कहां तक संभव है? साथ ही यह भी समस्या है कि गंध की अदला-बदली भी हो सकती है: एक-दूसरे के कपड़े पहनने से, खचाखच भरी बस या ट्रेन में चिपक-चिपक कर बैठे हुए लोगों से।
इनमें से कुछ चुनौतियों से निपटने के लिए मैनचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी की एनालिटिकल केमिस्ट पर्डिटा बैरेन की टीम ने यह पहचानने का प्रयास किया है कि पार्किंसन की गंध के लिए कौन से अणु ज़िम्मेदार हैं। उन्हें ऐसे तीन अणु (आईकोसेन, हिपुरिक एसिड और ऑक्टाडेकेनल) मिले जो पार्किंसन पीड़ितों में अधिक होते हैं और एक अणु (पेरिलिक एल्डिहाइड) ऐसा मिला जो उनमें कम होता है। इन अणुओं के मिश्रण से उन्होंने पार्किंसन की विशिष्ट गंध बनाई। इसकी मदद से उन्होंने एक ऐसा परीक्षण बनाया जो गंध से लोगों में पार्किंसन की पहचान कर सके। प्रयोगशाला जांच में उनका यह परीक्षण 95 प्रतिशत सटीक रहा। अब वे इसे लोगों के उपयोग लायक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।
लेकिन हमने जहां से बात शुरू की थी वापिस उसी पर आते हैं कि क्या हम जैसे साधारण लोग सूंघकर बीमारी पहचान सकते हैं? अध्ययनों ने पाया है कि हमारी घ्राण शक्ति बहुत शक्तिशाली है। हमारे मस्तिष्क के घ्राण बल्बों में न्यूरॉन्स की संख्या को देखकर पता चलता है कि मनुष्यों की सूंघने की क्षमता चूहों से बेहतर हो सकती है जबकि हम चूहों और कुत्तों की घ्राण शक्ति के कायल हैं और कई मामलों में उनकी इस क्षमता का उपयोग भी करते हैं। बस हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम गंधों पर उतना गौर नहीं करते जितना करना चाहिए। फिर हमारे पास ‘गंध कैसी है’ इसका विवरण देने वाली भाषा भी सीमित है।
लेकिन ऐसा देखा गया है कि यदि हम बारीकी से गौर करें तो हम बीमारी पहचान सकते हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में प्रतिभागियों ने शरीर की गंध और तस्वीरों के आधार पर बीमार और स्वस्थ लोगों की पहचान कर ली थी। तो हम भी अपनी या अपनों की गंध पर बारीकी से गौर करने की और शरीर का हाल जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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सोडा, कैंडी और फ्रोज़न फूड जैसे अति-संसाधित खाद्य पदार्थ हमारी लालसा को तो संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन अनुसंधान से पता चल रहा है कि ये हृदय और मस्तिष्क के लिए हानिकारक हो सकते हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध सारांश में इन खाद्य पदार्थों की अधिक खपत का हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा, सांस की दिक्कत, चिंता, अवसाद और संज्ञानात्मक क्षति के जोखिमों से सीधा सम्बंध बताया गया है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन अवसाद और चिंता के जोखिम में क्रमश: 44 और 48 प्रतिशत की वृद्धि करता है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि कुल कैलोरी उपभोग में से इन खाद्य पदार्थों का कुछ हिस्सा ही जोखिम को बढ़ा देता है। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स में 5 लाख लोगों पर किए गए एक अध्ययन में अति-संसाधित खाद्य उपभोग में केवल 10 प्रतिशत वृद्धि से मनोभ्रंश के जोखिम में 25 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है। वैसे अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे खाद्य पदार्थों और स्वास्थ्य के बीच कार्य-कारण सम्बंध क्या है।
यह तो सब जानते हैं उच्च मात्रा में नमक, चीनी और संतृप्त वसा लेने के कारण जीर्ण शोथ, उच्च रक्तचाप और टाइप-2 मधुमेह होने की संभावना होती है। लेकिन अधिकतर लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ये परिस्थितियां मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। कृत्रिम मिठास और मोनोसोडियम ग्लूटामेट जैसे पदार्थ मस्तिष्क द्वारा कतिपय रसायनों (जैसे डोपामाइन, सीरोटोनिन, नॉरएपिनेफ्रीन) के उत्पादन और विमोचन को बाधित कर सकते हैं, जिससे मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएं बढ़ सकती हैं।
अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की लत भी लग सकती है जिसे कंपनियां भोजन चुनाव सम्बंधी हमारे निर्णयों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल करती हैं।
नैसर्गिक तौर पर मिलने वाले फल या तो मीठे होते हैं (जैसे सेब) या वसा से भरपूर होते हैं (जैसे मूंगफली)। प्रकृति में सामान्यत: ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं मिलेंगे जिनमें शकर, नमक और वसा तीनों हों। दूसरी ओर, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों में चीनी और वसा दोनों एक साथ होते हैं, और ऊपर से नमक, कृत्रिम गंध और रंग-रोगन। ऐसे में, दिमाग बेकाबू हो जाता है। इन खाद्य पदार्थों की खपत कम करने और कम संसाधित विकल्पों को चुनने से बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य परिणाम हासिल हो सकते हैं।
हम तीन तरह की चीज़ें खाते हैं – अ-संसाधित, संसाधित और अति-संसाधित। असंसाधित खाद्य पदार्थ यानी ताज़ा या फ्रिज में रखे फल-सब्ज़ियां, आटा वगैरह। इनमें प्राय: एक ही पोषक पदार्थ होता है।
संसाधित पदार्थ वे कहलाते हैं जिन्हें असंसाधित खाद्य से सीधे प्राप्त किया जाता है – जैसे वनस्पति तेल, शकर वगैरह।
इसके बाद आते हैं थोड़े संसाधित खाद्य पदार्थ जैसे मक्खन, प्रिज़र्वेटिव रहित ब्रेड, अचार वगैरह। इनमें भी घटकों की सूची बहुत छोटी होती है।
फिर आते हैं अति-संसाधित खाद्य – केक, ऊर्जादायक बार वगैरह, प्रिज़र्वेटिव्स के साथ रखे गए तैयारशुदा भोजन वगैरह। इनमें अक्सर भरपूर वसा, शकर, नमक वगैरह होते हैं और ऊपर से तमाम खुशबुएं, रंग-रोगन वगैरह डाले जाते हैं। इनमें उपस्थित घटकों की फेहरिस्त काफी लंबी हो सकती है।
अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। ये खाद्य पदार्थ कैलोरी से भरपूर होते हैं, जिससे मोटापा बढ़ता है। शरीर की वसा कोशिकाएं निष्क्रिय होकर शोथजनक अणु मुक्त करने लगती है जिनसे अवसाद, चिंता और मनोभ्रंश जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
कई शोध अध्ययनों से पता चला है कि संभावना रहती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन खाद्य पदार्थों का आदी हो जाएगा, जिससे उनकी खपत में और अधिक वृद्धि हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले व्यक्ति फलों, सब्ज़ियों और साबुत अनाज में पाए जाने वाले आवश्यक पोषक तत्वों से वंचित रह जाएंगे जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। इन आवश्यक तत्वों की कमी से अवसाद जैसी मानसिक समस्याएं हो सकती हैं।
यह देखा गया है कि गरीब लोग ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन करते हैं। लुभावने विज्ञापनों और हर गली-नुक्कड़ पर मौजूद गुमठियों में आसानी से मिलने के कारण अति-संसाधित खाद्य पदार्थ लोगों को आकर्षित करते हैं, और खुद को रोक पाना काफी मुश्किल होता है।
अति-संसाधित खाद्य पदार्थों से बचने के लिए, विशेषज्ञ कुछ सुझाव देते हैं:
खुद को दोष देने की बजाय इस बात को जानें कि इन खाद्यों के आदी होने के लिए पूरा माहौल बनाया गया है।
भूख से प्रेरित लालसा से बचने के लिए नियमित समय पर भोजन करें।
अति-संसाधित खाद्य पदार्थों की जगह गिरियों और ताज़े फलों जैसे विकल्प अपनाएं।
कम सोडियम और कम शर्करा वाले खाद्य पदार्थों को प्राथमिकता दें।
कुछ अति-संसाधित खाद्य पदार्थ अन्य अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक विकल्प हो सकते हैं, जैसे मैदे की बजाय आटे की ब्रेड।
बच्चों को खाद्य विपणन की तिकड़मों के बारे में शिक्षित करें।
मुख्तसर सी बात है कि अति-संसाधित खाद्यों के प्रति सजग रहें और स्वयं को इनकी गिरफ्त से बचाएं। (स्रोत फीचर्स)
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आधुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।
वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ ठीक हो जाता था।
लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।
इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।
जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।
यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।
जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।
लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।
दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।
जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है।
मौसम भविष्यवाणी
दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।”
जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।
मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।
सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।
मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।
हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।
स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।
युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.istockphoto.com/id/538037191/vector/antique-illustration-the-leechs-chamber.jpg?s=612×612&w=0&k=20&c=EFV-NDQ0wc-pB1x4dXBM3ywJkXNiHZxmWJM56IVP8uA= https://i0.wp.com/erickimphotography.com/blog/wp-content/uploads/2018/09/parasite-leech.jpg?resize=640%2C542 https://i.guim.co.uk/img/static/sys-images/Guardian/Pix/pictures/2015/4/17/1429281109315/133923f2-5719-46f1-9719-54499d383542-2060×1236.jpeg?width=700&quality=85&auto=format&fit=max&s=179d117689d392448c9a7bca2f562609