लोग, पर्यावरण और तूतीकोरिन – जाहिद खान

मिलनाडु सरकार ने आखिरकार तूतीकोरिन (तूतूकुड़ी) स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता स्टरलाइट के तांबा संयंत्र को स्थायी तौर पर बंद करने का आदेश जारी कर दिया है। यही नहीं तमिलनाडु उद्योग संवर्धन निगम ने भी इस संयंत्र के प्रस्तावित विस्तार के लिए ज़मीन के आवंटन को रद्द कर दिया है। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने अपने एक अंतरिम आदेश में संयंत्र की विस्तार योजना पर रोक लगाने का निर्देश दिया था।

सरकार के इस फैसले के बाद निश्चित तौर पर स्थानीय लोगों ने राहत की सांस ली होगी, जिनकी जि़ंदगी इस ज़हरीले संयंत्र से नरक बनी हुई थी। अन्नाद्रमुक सरकार ने जो फैसला आज लिया है, यदि पहले ही ले लिया गया होता, तो इलाके के इतने सारे लोगों को पुलिस की गोलीबारी से अपनी जान न गंवाना पड़ती और हज़ारों लोग जानलेवा बीमारियों से ग्रसित न होते।

तूतीकोरिन में वेदांता समूह का स्टरलाइट तांबा संयंत्र पिछले 20 साल से चल रहा था। इस संयंत्र की सालाना तांबा उत्पादन की क्षमता 70 हज़ार से 1.70 लाख टन है, लेकिन यह सालाना 4 लाख टन तांबे का उत्पादन कर रहा था। गौरतलब है कि गुजरात, गोवा और महाराष्ट्र विवादास्पद स्टरलाइट संयंत्र को पर्यावरण को होने वाले खतरे के चलते नामंज़ूर कर चुके थे। अंतत: इसे तमिलनाडु में लगाया गया।

तूतीकोरिन हत्याकांड के बाद, कंपनी द्वारा की गई कई अनियमितताएं एक के बाद एक सामने आ रही हैं। मसलन, कंपनी ने पर्यावरणीय मंज़ूरी लेते वक्त, सरकार को पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की गलत जानकारी दी थी। यही नहीं, नियमों के मुताबिक संयंत्र को पारिस्थितिक तौर पर संवेदनशील क्षेत्र के 25 किलोमीटर के दायरे में नहीं होना चाहिए। लेकिन यह संयंत्र ‘मुन्नार मरीन नेशनल पार्क’ के नज़दीक स्थित है। इसके अलावा कंपनी ने बिना स्थानीय लोगों को सुने गलत पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट पेश की।

जैसी कि आशंकाएं थीं, कुछ ही दिनों में संयंत्र का असर पर्यावरण और स्थानीय लोगों पर होना शुरू हो गया। साल 2008 में तिरुनेलवेली मेडिकल कॉलेज की ओर से जारी एक रिपोर्ट ‘हेल्थ स्टेटस एंड एपिडेमियोलॉजिकल स्टडी अराउंड 5 किलोमीटर रेडियस ऑफ स्टरलाइट इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेड’ में इलाके के बाशिंदों में सांस की बीमारियों के बढ़ते मामलों के लिए इस तांबा संयंत्र को जि़म्मेदार ठहराया गया था। इस शोध में करीब 80 हज़ार से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे। रिपोर्ट के मुताबिक तूतीकोरिन स्थित कुमारेदियापुरम और थेरकु वीरपनदीयापुरम के भूमिगत जल में लौह की मात्रा तय सरकारी मानक से 17 से 20 गुना ज़्यादा पाई गई, जो कि लोगों में कमज़ोरी के अलावा पेट व जोड़ों में दर्द की मुख्य वजह थी। यही नहीं, स्टरलाइट तांबा संयंत्र के आसपास के इलाकों में पूरे राज्य और गैर-औद्योगिक क्षेत्रों के मुकाबले 13.9 फीसदी अधिक सांस रोगियों की संख्या दर्ज की गई। दमा व ब्राॉन्काइटिस के मरीज़ राज्य औसत से दोगुना ज़्यादा मिले। साइनस और फैरिन्जाइटिस समेत आंख, नाक व गले की दीगर बीमारियों से जूझ रहे लोगों की तादाद भी काफी अधिक पाई गई।

इससे पहले 2005 में सुप्रीम कोर्ट की एक कमेटी ने भी अपनी जांच में पाया था कि संयंत्र ने ज़हरीले आर्सेनिक युक्त कचरे के निपटान के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं की है। प्लांट से निश्चित मात्रा से ज़्यादा सल्फर डाईऑक्साइड वातावरण में छोड़ी जा रही है जिसकी वजह से लोग गंभीर रूप से बीमार हो रहे हैं। शीर्ष अदालत ने आगे चलकर 2013 में कंपनी द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के चलते, उस पर 100 करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगाया था। अलबत्ता, कंपनी ने अपने काम में कोई सुधार नहीं किया।

संयंत्र के खिलाफ जब लोगों का विरोध सामने आया, तो राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने 2013 में संयंत्र को बंद करने का आदेश दे दिया। लेकिन कंपनी नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल (एनजीटी) में चली गई, जिसने राज्य सरकार का फैसला उलट दिया। इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी लगाई हुई है, जो कि अभी विचाराधीन है। राज्य सरकार ने इसके अलावा पिछले साल पर्यावरण नियमों का पालन नहीं करने के लिए तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कंपनी को नवीनीकरण न देने की अपील भी की थी। इसमें तांबा कचरे के निपटान न करने की बात कही गई थी।

एक तरह से, कंपनी लगातार सरकारी आदेशों और स्थानीय जनता की शिकायतों की अनदेखी कर रही थी। तमाम निर्देशों के बाद भी कंपनी ने तांबे का मलबा नदी में डालना बंद नहीं किया था और ना ही वह प्लांट के आसपास के बोरवेलों में पानी की क्वॉलिटी की रिपोर्टें साझा कर रही थी। राज्य सरकार की सख्ती के बाद भी कंपनी के रवैये में कोई फर्क नहीं आया। वह पहले की तरह अपना काम बिना रोक-टोक करती रही।

सरकारी और अदालती कार्रवाइयों की कछुआ गति को देखते हुए स्थानीय निवासियों ने कंपनी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। लोगों का कहना था कि संयंत्र से होने वाले प्रदूषण की वजह से जि़ले के लोगों के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा हो गई हैं। लिहाज़ा, संयंत्र को बंद किया जाए।

उनकी मांग पूरी तरह संवैधानिक थी। संविधान देश के हर नागरिक को जीने का अधिकार देता है। जीने का अधिकार, जिन कारणों से प्रभावित होता है, एक जि़म्मेदार सरकार को इनका निराकरण करना होता है। तमिलनाडु और केंद्र सरकारें लोगों की समस्याओं पर ध्यान देने की बजाय कंपनी को संरक्षण और सुरक्षा देती रहीं। आंदोलनकारियों का विरोध तब और भी बढ़ गया, जब साल की शुरुआत में इस प्लांट के विस्तार की योजना सामने आई। आंदोलनकारी पिछले 100 दिन से लगातार प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं जिसमें 10 से ज़्यादा लोगों की दर्दनाक मौत हो गई और 50 से ज़्यादा लोग ज़ख्मी हो गए।

जैसा कि इस तरह के हत्याकांडों के बाद होता है, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ए. पलनीसामी ने हत्याकांड की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं और दावा कर रहे हैं कि हत्याकांड के दोषी बख्शे नहीं जाएंगे। इतना सब कुछ हो जाने के बाद, केंद्र सरकार भी हरकत में आई है। गृह मंत्रालय ने तमिलनाडु सरकार से इस पूरी घटना की रिपोर्ट तलब की है। इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया रिपोर्टों का संज्ञान लेते हुए, राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को नोटिस जारी कर इस सम्बंध में जवाब मांगा है।

राज्य सरकार ने घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपए, गंभीर रूप से घायल लोगों को तीन-तीन लाख और मामूली रूप से घायल लोगों को एक-एक लाख रुपए मुआवज़ा देने का ऐलान किया है। लेकिन हत्याकांड की न्यायिक जांच और मुआवज़े के ऐलान से ही तूतीकोरिन के लोगों को इंसाफ नहीं मिलेगा। इस बर्बर हत्याकांड के लिए जो जि़म्मेदार हैं, उन्हें तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, साथ ही पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर इलाके में भयंकर प्रदूषण फैलाने वाली वेदांता कंपनी पर भी कड़ी कार्यवाही हो। वेदांता और उसकी सहायक कंपनियां पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का ज़बर्दस्त दोहन करती रही हैं और आज भी उसे ऐसा करने से कोई गुरेज नहीं। उद्योग-धंधों को बढ़ावा देना सरकारों का काम है, लेकिन इसके लिए कंपनियों द्वारा नियम-कानूनों की अनदेखी और सरकारों का इससे आंखें मूंदे रहना आपराधिक गलती है। पर्यावरण और प्रदूषण सम्बंधी कानूनों का यदि कहीं पर भी उल्लंघन हो रहा है, तो यह सरकार और सम्बंधित मंत्रालयों की जि़म्मेदारी बनती है कि वे इन कानूनों का सख्ती से पालन कराएं। यदि कंपनियां फिर भी न मानें, तो उन पर बिना किसी भेदभाव के कड़ी कार्रवाई हो। विकास हो, पर अवाम की जान और पर्यावरण की शर्त पर नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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पी. सी. वैद्य: एक गांधीवादी भौतिक शास्त्री – अपराजित रामनाथ

क भारी-भरकम गोलाकार तारे पर विचार कीजिए जो बाह्य अंतरिक्ष में विपुल मात्रा में विकिरण छोड़ रहा है। ऐसे किसी तारे के आसपास गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का व्यवहार कैसा होगा? अल्बर्ट आइंस्टाइन द्वारा 1915 में प्रतिपादित क्रांतिकारी सामान्य सापेक्षता सिद्धांत को लागू करके कई सवालों को संबोधित किया जा सकता था। उपरोक्त सवाल उनमें से एक महत्वपूर्ण सवाल था। और इसका समाधान सबसे पहले गणितज्ञ और खगोलविद पी.सी. वैद्य (1918-2010) ने निकाला था। इसे वैद्य मेट्रिक्स के नाम से जाना जाता है। मई में उनकी जन्म शती थी।

सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत को दस ‘क्षेत्र समीकरणों’ द्वारा व्यक्त किया जाता है जो समूचे ब्रह्मांड में वैध हैं। ये समीकरण कतिपय सरलीकृत मान्यताओं के अंतर्गत कुछ सटीक समाधान की गुंजाइश प्रदान करते हैं। पहला सटीक समाधान सिद्धांत के प्रतिपादन के फौरन बाद सामने आया था जब जर्मन वैज्ञानिक कार्ल श्वाजऱ्चाइल्ड ने अंतरिक्ष में विकिरण का उत्सर्जन न करने वाले किसी गोलाकार पिंड के आसपास के क्षेत्र का विवरण प्रस्तुत किया था।

इसके पूरे 26 साल बाद वैद्य ने 1943 में विकिरण करते गोलाकार पिंड के क्षेत्र की गणना की थी। 1960 के दशक में रेडियो दूरबीनों की मदद से दूरस्थ निहारिकाओं के मध्य में क्वासर (क्वासी-स्टेलर रेडियो स्रोतों) की खोज की गई जो विशाल मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। वैद्य ने बाद में याद करके बताया था, “न्यूटन का (गुरुत्वाकर्षण) सिद्धांत इन पिंडों के अत्यंत तीव्र गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के संदर्भ में अपर्याप्त साबित हुआ था और (इनके विवरण के लिए) आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत की आवश्यकता थी।”

वैद्य का समाधान इन परिस्थितियों के अध्ययन के लिए आदर्श था, और इसके चलते वे उच्च-ऊर्जा खगोल-भौतिकविदों की दुनिया में शामिल कर लिए गए।

महान, अनोखे

आने वाले दशकों में उन्होंने सामान्य सापेक्षता और खगोल-भौतिकी के संगम बिंदु पर कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उन्होंने सटीक समाधानों के अलावा अति-विशाल पिंडों और ब्लैक होल्स जैसे विषयों पर काम किया। अकेले या अपने शोध छात्रों के साथ काम करते हुए उन्होंने नेचर, फिजि़कल रिव्यू लेटर्स, एस्ट्रोफिजि़कल जर्नल और करंट साइन्स जैसी शोध पत्रिकाओं में कई शोध पत्र प्रकाशित किए।

वैद्य एक संस्था-निर्माता भी थे। इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी के संस्थापक सदस्य के रूप में उन्होंने भारत में इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों को साथ लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इन वैज्ञानिकों में सी.वी. विश्वेश्वरा, नरेश दधीच और जयंत नार्लीकर जैसे वैज्ञानिक शामिल थे। जयंत नार्लीकर आगे चलकर इंटरयुनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजि़क्स (IUCAA, पुणे) के प्रथम निदेशक बने।

हालांकि भारत में सामान्य सापेक्षता अनुसंधान के शुरुआती केंद्र जयंत नार्लीकर के पिता वी.वी. नार्लीकर और एन. आर. सेन के नेतृत्व में स्थापित हुए थे, अगली पीढ़ी पर वैद्य का ज़बर्दस्त प्रभाव रहा। सामान्य सापेक्षता के क्षेत्र में कार्यरत वैज्ञानिक कलकत्ता (अब कोलकाता) के गणितज्ञ अमल कुमार रायचौधरी के साथ-साथ वैद्य को अपना मार्गदर्शक मानते थे और 1985 में इन दोनों वैज्ञानिकों के सम्मान में पुस्तिका का प्रकाशन किया गया था।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि पी. सी. वैद्य अव्वल दर्जे के वैज्ञानिक थे और आइंस्टाइन से लेकर स्टीफन हॉकिंग और गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज करने वाली लिगो टीम तथा अन्य प्रायोगिक वैज्ञानिकों की परंपरा के हिस्से थे। और फिर भी – हालांकि मैं प्रशिक्षण और पेशे से विज्ञान का इतिहासकार हूं – मैंने चंह महीनों पहले तक पी.सी. वैद्य का नाम तक नहीं सुना था। मैंने उनका नाम पहली बार तब सुना जब एक मित्र ने हॉकिंग के जीवन और कार्य पर व्याख्यान देते हुए उनका जि़क्र किया।

यह मेरे अज्ञान का द्योतक हो सकता है किंतु एक गैर-वैज्ञानिक जनमतसंग्रह से लगता है कि बात इतनी ही नहीं है। गुजरात का यह महान व्यक्तित्व भारत के घर-घर में सी.वी. रामन, मेघनाथ साहा, एस.एस. भटनागर, सुब्रामण्यन चंद्रशेखर या होमी भाभा जैसा नाम नहीं बन पाया।

इसे कैसे समझें? इसका कुछ सम्बंध तो इस बात से है कि जिस परिवेश में उन्होंने अपना कैरियर बनाया और जिस असाधारण जीवन शैली को उन्होंने अपनाया। कई स्रोतों से हम उस कैरियर को पुनर्निर्मित कर सकते हैं। इनमें उनकी गुजराती स्मरण पुस्तिका चॉक एंड डस्टर तथा उनके सम्बंधियों और सहकर्मियों द्वारा लिखे गए जीवन वृत्त शामिल हैं।

शुरुआती वर्ष

प्रहलाद चुन्नीलाल वैद्य (कुछ लोगों के लिए वैद्य साहेब) का जन्म 1918 में जूनागढ़ रियासत के एक गांव शाहपुर में हुआ था। वे एक डाक अधिकारी के द्वितीय पुत्र थे। बचपन में ही उनके माता-पिता गुज़र गए और उनका लालन-पालन भावनगर के नज़दीक कुछ रिश्तेदारों ने किया, जहां 1933 तक वे अल्फ्रेड हाई स्कूल में पढ़े।

उनके भाई मधुसूदन को बंबई (अब मुंबई) में स्कूल शिक्षक की नौकरी मिल गई और पी. सी. वैद्य ने अपनी स्कूल शिक्षा वहीं पूरी की। रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स से बी.एससी. (और आगे चलकर एम.एससी.) करने से पहले वे जोगेश्वरी स्थित इस्माइल यूसुफ कॉलेज में पढ़े। स्नातक शिक्षा के दौरान उन्हें डिस्टिंक्शन मिला और स्नातकोत्तर परीक्षा में बंबई विश्वविद्यालय के टॉपर रहे।

इस दौर में उनके व्यक्तित्व पर एक गहरी छाप बंबई विश्वविद्यालय में 1937 में वी.वी. नार्लीकर (कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर) द्वारा दिए गए व्याख्यानों ने डाली। यहीं पी.सी. वैद्य ने पहली बार सुना था कि विकिरण करते तारों के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का विवरण अब तक सामान्य सापेक्षता के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिया गया है।

उनके अकादिमक कैरियर के बावजूद, जिस ढंग से पी.सी. वैद्य का शोध कैरियर शुरू हुआ, उसमें संयोग का कुछ पुट अवश्य है। भावनगर में पी. सी. वैद्य और उनके भाई पर गांधी के विचारों का काफी असर पड़ा था। अब राजकोट में एक कॉलेज शिक्षक के रूप में थोड़े दिन काम करने के बाद उन्होंने अपने कैरियर में एक गैर-परंपरागत कदम उठाया। 1941 में उन्होंने बंबई लौटकर एक गांधी-प्रेरित स्वैच्छिक संस्था स्थापित की। अहिंसक व्यायाम संघ नामक यह संस्था सत्याग्रहियों के प्रशिक्षण के लिए बनाई गई थी।

यह कई भारतीय युवाओं के लिए जुनून का दौर था क्योंकि इसी समय भारतीय नेताओं ने ब्रिटेन द्वारा भारत को एकतरफा ढंग से द्वितीय विश्व युद्ध में झोंकने के निर्णय के खिलाफ संघर्ष करते हुए भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी थी। यह पी. सी. वैद्य के लिए निराशा का कारण बना कि व्यायाम संघ की प्रेरक शक्ति पृथ्वी सिंह की वैचारिक उलझनों के चलते संस्था को समेट दिया गया। सिंह का वैचारिक झुकाव कम्यूनिज़्म की ओर था और वे ब्रिटिशों का विरोध करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे क्योंकि ब्रिटिश तब सोवियत संघ के सहयोगी थे।

खुद को मझधार में पाकर, पी. सी. वैद्य ने वी.वी. नार्लीकर का रुख किया। उन्होंने बनारस में नार्लीकर को चिट्ठी लिखकर पूछा कि क्या वे एक अनौपचारिक शोध छात्र के रूप में उनके साथ काम कर सकते हैं। अपनी बचत के भरोसे पी.सी. वैद्य अपने परिवार को लेकर बनारस आ गए, जहां उन्होंने नार्लीकर के मार्गदर्शन में काम करते हुए 1942 से कई शोध पत्र प्रकाशित किए। इनमें से एक – इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स द्वारा प्रकाशित करंट साइन्स में 1943 में प्रकाशित शोध पत्र – उनकी पहली बड़ी सफलता थी। इस शोध पत्र का शीर्षक था: दी एक्सटरनल फील्ड ऑफ ए रेडिएटिंग स्टार इन जनरल रिलेटिविटी। इस पर्चे ने विज्ञान जगत को वैद्य मेट्रिक्स की सूचना दी।

वैद्य ने 1950 के शुरुआती दशक में प्रकाशित शोध पत्रों में इसे विस्तार दिया। ऐसे में कोई अचरज नहीं कि पी.सी. वैद्य ने नार्लीकर के साथ बिताए अपने वर्षों को ‘काशी यात्रा’ की संज्ञा दी जिसने उन्हें अगले जीवन के लिए नहीं बल्कि इसी जीवन के शेष वर्षों के लिए तैयार किया।

संस्था निर्माण

जब बचत के पैसे चुक गए, तो वैद्य ने सूरत के एक कॉलेज में अध्यापक की नौकरी ले ली। आगे चलकर उन्होंने नवोदित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में एक शोध छात्र के रूप में दाखिला लिया और 1948 में पीएच.डी. पूरी की। टीआईएफआर उस समय विकसित हो रहा था और वैद्य को होमी भाभा के साथ काम करने का मौका मिला। यह बात शायद अविश्वसनीय लगे किंतु पी.सी. वैद्य को बंबई छोड़ना पड़ा था क्योंकि परिवार के रहने के लिए वहां उन्हें मकान नहीं मिला।

तब पी. सी. वैद्य गुजरात में आनंद के नज़दीक उभरते शैक्षणिक शहर वल्लभ विद्यानगर में नए-नए खुले विट्ठलभाई पटेल कॉलेज में प्रोफेसर बने। उनके जीवन पर बनी आयूका-विज्ञान प्रसार की एक फिल्म में उन्होंने बताया है कि उस समय वे बगैर छत के कमरे में पढ़ाया करते थे। मगर वहां उन्होंने अपने छात्रों की जो बुनियाद तैयार की वह बहुत मज़बूत थी। जैसा कि उनके भतीजे अरुण वैद्य (जो स्वयं एक प्रतिष्ठित गणितज्ञ हैं) ने बताया, पी. सी. वैद्य न सिर्फ अपने शोध कार्य के लिए बल्कि उनके द्वारा आयोजित खेलकूद शिविरों व अन्य गतिविधियों के लिए भी याद किए जाते हैं। लगता है व्यायाम संघ के उनके दिन फालतू नहीं गए।

अन्य कॉलेजों में अध्यापन करने के बाद, वैद्य ने गुजरात विश्वविद्यालय में गणित विभाग स्थापित करने में योगदान दिया (1959)। यहीं उन्होंने अपना शेष कार्य-जीवन व्यतीत किया। यहां उन्होंने कई शोध छात्र तैयार किए। आगे चलकर उन्हें प्रशासनिक जि़म्मेदारियां सौंपी गई। 1971 में वे गुजरात लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष बने और 1977 में संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य निर्वाचित किए गए। इसके बाद वे गुजरात विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे।

वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी हैसियत और उच्च पदों पर आसीन रहने के बावजूद, पी. सी. वैद्य कभी अपनी जड़ें नहीं भूले। आजीवन गांधीवादी रहे वैद्य की पहचान खादी के कुर्ते, सफेद गांधी टोपी और सायकिल से जुड़ी रही। जिन संस्थाओं की स्थापना को लेकर वे गर्व महसूस करते थे वे हर स्तर पर गणित शिक्षण को बेहतर बनाने से सम्बंधित थीं। इनमें गुजरात गणित मंडल (स्थापना 1963) शामिल है जो आज भी एक जीवंत संस्था है। इसी वर्ष उन्होंने एक पत्रिका सुगणितम की स्थापना की थी जो शिक्षकों व छात्रों के लिए गणित का एक उम्दा संसाधन है।

विनम्रता

वैद्य उस समय तक एक परिपक्व शोधकर्ता बन चुके थे जब नव-स्वतंत्र भारत विज्ञान में भारी निवेश कर रहा था। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिषद (CSIR) प्रयोगशालाओं के अपने नेटवर्क में विस्तार कर रहा था, अंतरिक्ष कार्यक्रम आकार ले रहा था और परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पर पैसे और प्रतिष्ठा की बौछार की जा रही थी। मगर इन सबका एक उपयोगितावादी रुझान था जबकि वैद्य ज़्यादा ‘बुनियादी’ अनुसंधान कर रहे थे।

जैसा कि एक भौतिक शास्त्री साथी ने मुझे बताया था, पी. सी. वैद्य का क्षेत्र (सामान्य सापेक्षता) अपेक्षाकृत गूढ़ था। यह विषय भारत में स्नातकोत्तर स्तर भी कहीं-कहीं ही पढ़ाया जाता था। ज़ाहिर है, इसने लोगों का ध्यान उस तरह नहीं खींचा जैसे परमाणु ऊर्जा या रॉकेट खींचते हैं। परिणाम यह रहा कि वैद्य ने अपना लगभग पूरा कैरियर विज्ञान के मान्य केंद्रों से दूर ही व्यतीत किया और शोध में उनके योगदान को बहुत थोड़े से वैज्ञानिक ही समझते हैं।

अलबत्ता, वैद्य का कैरियर सिर्फ इन परिस्थितियों का नहीं बल्कि उनके निर्णयों का भी परिणाम था। वैद्य ने कभी सार्वजनिक परिदृश्य में रहने की इच्छा नहीं की। वे एक ‘जड़ें जमाए विश्व नागरिक’ थे जो पूरी दुनिया से संवाद करते थे किंतु सबसे प्रसन्न अपनी धरती पर ही रहते थे। वे अपनी मातृभाषा और अपने आसपास के लोगों की भाषा की मदद से ज्ञान का प्रजातांत्रीकरण करना चाहते थे। वे गांधीवादी परंपरा में ‘रचनात्मक कार्यकर्ता’ थे।

1990 के दशक के अंतिम वर्षों में भी, बुलेटिन ऑफ दी एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया के संपादक के पत्र के जवाब में अपनी निशस्त्र कर देने वाली विनम्रता के साथ उन्होंने कहा था, “मैं हमेशा से स्वयं को एक शिक्षक मानता आया हूं और इतने वर्षों तक गणित पढ़ाकर ही अपनी जीविका अर्जित की है। यदि प्रतिष्ठित खगोल शास्त्रीय सोसायटी मुझे एक प्रतिष्ठित खगोल शास्त्री मानती है, तो मुझे गर्व महसूस हुआ और मैंने सोचना शुरू किया कि यह गणित शिक्षक एक खगोल शास्त्री के रूप में कैसे तबदील हो गया।” शायद यह तबदीली सितारों पर अंकित थी। (स्रोत फीचर्स)

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प्रोफेसर सी.वी. विश्वेश्वरा – टी.वी. वेंकटेश्वरन, दिनेश शर्मा एवं नवनीत कुमार गुप्ता

ब्लैक होल एवं आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत पर महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले प्रोफेसर सी. वी. विश्वेश्वरा का पिछले वर्ष निधन हो गया। उन्होंने कई वर्षों तक गुरुत्व तरंगों और ब्लैक होल के सिद्धांत पर शोध कार्य कर नई संकल्पना का विकास किया था।

सन 1970 में विश्वेश्वरा ने ब्लैक होल और गुरुत्व तरंगों सम्बंधी नई संकल्पना को प्रस्तुत कर सैद्धांतिक भौतिकी में योगदान दिया। बाइनरी ब्लैक होल में, गुरुत्व तरंगें दोगुनी गति से उत्पन्न होती हैं। इस प्रक्रिया में यह प्रणाली अपनी घूर्णन ऊर्जा खो देती है जिससे दो ब्लैक होल पास आते हैं और बहुत अधिक विकिरण उत्सर्जित करते हैं जिससे भंवरसा बनता है। इससे तरंगों का गुंजन पैदा होता है। इन तरंगों का आयाम और आवृत्ति तब तक बढ़ती है जब तक ये दोनों पिंड आपस में मिल न जाएं। पिंडों के आपस में मिलने से पहले सापेक्ष वेग प्रकाश की गति के नज़दीक पहुंचने लगता है।

विलय के परिणामस्वरूप एक नए ब्लैेक होल का निर्माण होता है। यह नया ब्लैक होल गुरुत्व विकिरण उत्सर्जित करता है जिसका द्रव्यमान और घूर्णन सम्बंधी गुणधर्म निर्णायक ब्लैक होल की तरह होता है। इसे अर्ध सामान्य मोड या रिंगडाउन संकेत कहते हैं। रिंगडाउन संकेत हथौड़े की चोट से उत्पन्न विकिरण के जैसा होता है।  

विश्वेश्वरा के सैद्धांतिक योगदान से हम समझ पाए कि किस प्रकार दो ब्लैक होल आपस में एक दूसरे से टकरा सकते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार से ब्लैक होल से फैलने वाली गुरुत्व तरंगों में रिंगडाउन संकेत के गुणधर्म हो सकते हैं। इसमें वही लचीलापन होता है जो कि गुरुत्व तरंगों में पाया जाता है। उनका यह शोध पत्र सन् 1970 में प्रतिष्ठित शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ था।

16 मार्च, 1936 को जन्मे विश्वेश्वरा का आरंभिक जीवन बैंगलुरु में बीता और उनकी प्राथमिक शिक्षा भी इसी शहर में हुई। उनके स्कूल के शिक्षक द्वारा भौतिकी को रोचक तरीके से समझाए जाने के कारण उन्हें भौतिकी विषय से लगाव हो गया। इसी तरह गणित विषय में भी उनकी दिलचस्पी थी। भौतिकी को विशेष विषय लेकर उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की।

बैंगलुरु में एम.एससी. करने के बाद, वे उच्च शिक्षा के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय गए। मैरीलैंड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर चाल्र्स मिसेनर के मार्गदर्शन में उन्होंने ब्लैक होल की स्थिरता पर काम करते हुए पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने ब्लैक होल स्थिरता के साथ ही ब्लैक होल भौतिकी में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

अमेरिका में कई विश्वविद्यालयों के विभागों में कार्य करने के बाद उन्होंने भारत आकर बैंगलुरु के रामन अनुसंधान संस्थान में अपनी सेवाएं दीं। बाद में उन्होंने भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान में वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया। वे बैंगलुरु स्थित जवाहरलाल नेहरू तारामंडल एवं विज्ञान केंद्र के संस्थापकनिदेशक थे।

इन विषयों पर लिखी गई उनकी लोकप्रिय पुस्तकों, ‘आइंस्टाइन्स एनिग्मा ऑर ब्लैक होल इन माय बबल बाथऔर युनिवर्स अनवाइल्ड दी कॉस्मॉस इन माय बबल बाथको दुनिया भर में काफी पढ़ा और सराहा गया। (स्रोत फीचर्स)

 

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पौधे की तरह दवा उत्पादन में खमीर की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पौधे औषधियों के समृद्ध स्रोत होते हैं। यह बात तब से ज्ञात है जब से मनुष्यों ने समुदायों के रूप में मिल-जुलकर रहना शुरू किया था। (वास्तव में, लगता तो यह है कि चिम्पैंज़ी भी दवा के रूप में चुनकर विशेष पौधे खाना पसंद करते हैं)। आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, आदिवासी औषधियां, प्राच्य चिकित्सा और होम्योपैथी में वनस्पति-आधारित यौगिकों का इस्तेमाल दवाइयों और टॉनिक के रूप में होता रहा है। कार्बनिक रसायन शास्त्र में खास तौर से प्राकृतिक उत्पाद और औषधि रसायन जैसी विशेष शाखाएं हैं। इस विधा में शोधकर्ता चुनिंदा पौधे इकट्ठा करते हैं और उनमें से विशेष अणुओं को अलग करने की कोशिश करते हैं। इसके बाद उनकी रासायनिक संरचनाओं का अध्ययन करके बीमारियों के खिलाफ उनकी प्रभाविता की जांच करते हैं (इस क्षेत्र को औषधि रसायन कहते हैं)।

किसी भी पौधे में हज़ारों अणु अलग-अलग मात्राओं उपस्थित होते हैं। अक्सर जिस दवा अणु की तलाश कर रहे हैं वह बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। एक मायने में यह मात्र घास के ढेर में सुई ढूंढने जैसी समस्या नहीं है बल्कि मनचाहे यौगिक तक पहुंचने के लिए ऐसे कई ढेरों की ज़रूरत होती है ताकि काम करने के लिए ठीक-ठाक मात्रा (कुछ ग्राम) मिल सके। इस प्रकार प्राकृतिक उत्पाद रसायन काफी चुनौतीपूर्ण क्षेत्र रहा है और सफल शोधकर्ताओं को हीरो माना जाता है और सम्मान व पुरस्कार से नवाज़ा जाता है। इसका एक हालिया उदाहरण चीन की महिला वैज्ञानिक डॉ. यूयू तू का है। उन्हें 2015 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन्होंने दशकों के परिश्रम के बाद मलेरिया के लिए चीनी जड़ी-बूटी क्विंगहाओ से आर्टेमिसीनीन नामक अणु को अलग किया था।

एक बार जब प्राकृतिक उत्पाद रसायनज्ञ दवा के अणु को अलग करके उसकी रासायनिक संरचना को निर्धारित कर लेता है, तब वह इस अणु को प्रयोगशाला में बनाने (संश्लेषण) का प्रयास करता है। अभी तक यह एक चुनौतीपूर्ण और कमरतोड़ काम रहा है। चूंकि अणु का आकार त्रि-आयामी होता है तो इसमें परमाणुओं की जमावट काफी जटिल हो सकती है। प्रयोगशाला में इस तरह के जटिल अणुओं का निर्माण कुछ हद तक एक आर्किटेक्ट के काम के समान है जो र्इंट-गारा जोड़कर इमारत बनाता है। इस मामले में भी हीरो को सम्मान दिया जाता है।

ऐसे ही एक हीरो हारवर्ड के स्वर्गीय प्रोफेसर रॉबर्ट वुडवर्ड थे जिन्होंने दशकों तक सफलतापूर्वक कई जटिल अणुओं का संश्लेषण किया था और इस काम के लिए उन्हें 1965 में रसायन में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। आर्किटेक्ट उपमा को आगे बढ़ाते हुए महान कार्बनिक रसायनज्ञ स्वर्गीय प्रोफेसर सुब्रामण्य रंगनाथन ने एक मोनोग्राफ लिखा था जिसका शीर्षक था ‘दी आर्ट ऑफ आर्गेनिक सिंथेसिस’ (कार्बनिक संश्लेषण की कला)।

क्विंगहाओ आर्टेमिसीनीन कैसे बनाता है? पूरी प्रक्रिया एक दर्जन से ज़्यादा चरणों में सम्पन्न होती है। इनमें से कई चरण एंज़ाइम द्वारा उत्प्रेरित होते हैं जो प्रोटीन अणु होते हैं। हमने इनमें से प्रत्येक चरण का खुलासा कर लिया है और यह भी समझ लिया है कि पादप कोशिकाओं में इन एंज़ाइम्स को बनाने में कौन से जीन्स शामिल हैं (दरअसल यह जीन का पूरा समूह है)। अब इस जानकारी के दम पर, और जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की मदद से क्या हम कार्बनिक रसायन की विधियों की बजाय जेनेटिक इंजीनियरिंग की विधियों का इस्तेमाल करके आर्टेमिसिनिन को प्रयोगशाला में बना सकते हैं? और यदि हम इस जीन समूह को किसी सूक्ष्मजीव (जैसे खमीर) में प्रविष्ट कराएं तो क्या वह आर्टेमिसिनिन बनाने लगेगा? यदि ऐसा कर पाते हैं तो हमें टनों जड़ी-बूटी उगाने और काटने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; खमीर के विशाल कल्चर में किलोग्राम के हिसाब से दवा बनाई जा सकेगी।

आर्टेमिसिनिन बनाने के लिए किसी सूक्ष्मजीव का इस्तेमाल एक नवाचारी विचार है। यदि हमें सफलता मिलती है तो हम खमीर को एक पौधे में तबदील कर देंगे जिसका इस्तेमाल हम कम से कम पांच सहस्त्राब्दियों से घरों और बेकरियों में करते आए हैं। लेकिन इसके लिए खमीर कोशिकाओं में उनके अपने जीनोम के साथ-साथ पौधे में उस दवा को बनाने के लिए ज़िम्मेदार जीन समूह भी होना चाहिए।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. केसलिंग और एमायरिस कंपनी के डॉ. नील रेनिंगर का तर्क है कि जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की बदौलत अब यह विचार बड़बोलापन नहीं है बल्कि काम करने के लायक है। गेट्स फाउंडेशन के अनुदान से उनकी टीम ने दवा उत्पादन के लिए पौधे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पूरे जीन समूह का रासायनिक संश्लेषण किया और उसे खमीर कोशिकाओं के अनुरूप संशोधित किया, और खमीर कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया। उन्होंने प्रयोगशाला में इस जेनेटिक रूप से परिवर्तित खमीर का कल्चर बनाया और पाया कि वह खमीर आर्टेमिसिनिन बना सकता है। इस समूह ने 2013 तक इस विधि में काफी सुधार करके प्रति लीटर कल्चर माध्यम से 25 ग्राम एंटी-मलेरिया दवा का उत्पादन किया है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, कई अन्य दवाइयों, जो प्राकृतिक रूप से पौधों और जड़ी-बूटियों में मिलती है, का उत्पादन खमीर की मदद से किया गया है। हाल ही में पीएनएएस पत्रिका में ली व साथियों ने अपने शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि उन्होंने खमीर की मदद से कैंसर-रोधी दवा नोस्केपाइन का उत्पादन किया है। यह कुदरती रूप से अफीम के पौधे में पाई जाती है। तिकड़म यह है कि पादप कोशिका में यह अणु बनाने वाले जीन समूह की पहचान की जाए, इन्हें प्रयोगशाला में बनाकर खमीर में डाल दिया जाए और अनुकूल परिस्थितियां निर्मित की जाएं। तब यह पौधा-रूपी खमीर उस अणु का उत्पादन करेगा। पांच हज़ार से अधिक वर्षों से जाना-माना जो खमीर ब्रोड और शराब बनाने के काम आता रहा है, अब एक नई भूमिका निभाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|

इटली में तीन हज़ार वर्ष पूर्व वाइन उद्योग – एस. अनंतनारायण

हा जा रहा है कि वाइन बनाने की शुरुआत संगठित खेती से पहले हो गई थी। यह संभव भी लगता है क्योंकि कुछ किस्मों के फल भंडारण के दौरान सड़ जाते हैं या पिलपिला जाते हैं तो उनमें किण्वन की प्रक्रिया होने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वाइन बनती है। किंतु अनाजों से वाइन या बीयर बनाना अलग बात है। इसके लिए काफी मात्रा में अनाज चाहिए और एक पूरी प्रक्रिया चाहिए। फलों के सड़ने-गलने से संयोगवश वाइन बनती भी है तो इतनी-सी वाइन से एक पूरा उद्योग पनपना संभव नहीं है। वह तो तभी होगा जब उत्पादन काफी मात्रा में हो और इसे संग्रहित करके बाद में उपयोग के लिए रखा जा सके।

दक्षिण फ्लोरिडा और इटली स्थित विश्वविद्यालयों व संस्थानों के शोधकर्ताओं ने माइक्रोकेमिकल जर्नल में रिपोर्ट किया है कि साक्ष्यों से पता चला है कि पहली सहत्राब्दी ईसा पूर्व से ही इटली में शराब (वाइन) का उत्पादन और संग्रहण होता रहा है। सिसली के दक्षिण-पश्चिमी तट पर चूने के पहाड़ मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में सिरेमिक (चीनी मिट्टी) पात्रों के हिस्से मिले हैं। इन पात्रों पर जैविक पदार्थ के अवशेष मिले हैं। शोधकर्ताओं ने पुरातात्विक अन्वेषण में प्रयोगशाला विधियों के उपयोग का एक नया दृष्टिकोण दिया है जिससे प्राचीन सभ्यताओं की पाक कला और आहार सम्बंधी व्यवहार को समझने में मदद मिल सकती है ।

निश्चित तौर पर प्राचीन काल में शराब उत्पादन के और भी प्रमाण मिलते हैं। मसलन फ्रांस स्थित रॉकप्रट्यूस में 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व बीयर बनाई जाती थी। इससे भी कई वर्ष पूर्व, लगभग 3000 ईसा पूर्व, चीन के शान्क्सी ज़िले में बीयर उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। 2011 में ह्यूमन बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सीएनआरएस, मॉन्टपेलियर के वैज्ञानिकों को सेल्टिक मठ के पुरातात्विक स्थल की खुदाई में बीयर बनाने में प्रयुक्त कच्चा माल और उपकरण मिले हैं। एक निवास स्थान के फर्श से अधजले जौं के दाने मिले हैं जिससे पता चलता है कि ये बीयर बनाते हुए दानों को सुखाने की प्रक्रिया में भट्टी में अधजले छूट गए होंगे।

उसी जगह पर ऐसे बर्तन मिले हैं जिनमें जौं को अंकुरित करने से पहले भिगोया जाता होगा। साथ ही भट्टी के अवशेष मिले हैं जो अंकुरित जौं सुखाने के काम आती होगी। वहां चक्की के पाट, भट्टी और संग्रहण के पात्रों की मौजूदगी से लगता है कि यहां बीयर बनाई जाती थी जो उनकी परंपरा का हिस्सा होगी। साथ ही साथ, अन्य समुदाय के लोगों के साथ व्यापार की वस्तु और संचार का ज़रिया होगी।

चीन में येलो रिवर घाटी में मिले अवशेष और भी प्राचीन हैं। माना जाता है कि चीनी सभ्यता की शुरुआत येलो रिवर के किनारे ही हुई थी। इस घाटी में कई पुरातात्विक खोजें हुई हैं। 2013 में पीएनएएस में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक दो गड्ढों से कुछ कलाकृतियां मिली हैं, जिनकी कार्बन डेटिंग से पता चला है कि ये 3400 से 2900 ईसा पूर्व की हैं। कलाकृतियों में चौड़े मुंह वाली कीप सही-सलामत मिली है। इसके अलावा चौड़े मुंह वाले घड़े, सकरे मुंह वाले लंबे घड़े (एम्फोरा) और चूल्हे के हिस्से मिले हैं। इन्हें देख कर लगता है कि ये विशेष रूप से मदिरा बनाने, छानने और उसके भंडारण के लिए और गर्म करने एवं तापमान नियंत्रण के लिए उपयोग किए जाते होंगे।

इन बर्तनों पर जो अवशेष मिले हैं वे मंड के कण हैं, जो अनाजों के कारण पड़े होंगे। साथ ही फाइटोलिथ जैसे खनिजों के कण भी इन बर्तनों पर मिले हैं जो आम तौर पर विघटित पौधों के अवशषों में पाए जाते हैं। मंड की जांच से पता चला है कि यह मोटे अनाज, कुछ किस्म के गेहूं, जौं या यैम जैसे कुछ कंदों से आया होगा। ये इस क्षेत्र में पाए भी जाते हैं। प्राप्त मंड के अवशेष एक तो शक्तिशाली, टिकाऊ और खुशबूदार बीयर बनाने की विधि का संकेत देते हैं वहीं मंड के कणों में क्षति के प्रमाण भी मिले हैं। इस तरह की क्षति अनाज को अंकुरित करने, भिगोने, सुखाने की प्रक्रिया में हुई होगी। अंकुरित अनाज को गर्म हवा से सुखाने (माल्टिंग) के दौरान एंज़ाइम मंड को शर्करा में तोड़ते हैं जिसके कारण मंडयुक्त अनाज में छेद हो जाते हैं। फिर जब कचूमर बनाने के लिए अनाज के दानों को गर्म पानी में डालते हैं तो वे फूलते हैं और उनका आकार बिगड़ जाता है।

पीएनएएस पेपर के मुताबिक “इस प्रकार, पुरातात्विक खोज में मिले विकृत आकार के मंडयुक्त अनाज को देखकर कहा जा सकता है कि ये अनाज मदिरा बनाने की प्रक्रिया के अवशेष हैं।” अवशेष के रासायनिक विश्लेषण में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के अवशेष भी दिखे। कैल्शियम ऑक्ज़लेट बीयर बनाने के पात्र में बीयरस्टोन के रूप में नीचे बैठ जाता है। यह बीयर बनाने की प्रक्रिया का द्योतक है। अवशेषों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट की उपस्थिति से इस बात की पुष्टि होती है कि प्रागैतिहासिक पात्रों का उपयोग बीयर बनाने में किया जाता था।

इटली के सिसली के दो प्रागैतिहासिक स्थलों से प्राप्त बर्तनों पर कार्बनिक अवशेष पाए गए थे। खुदाई में मिले इन बर्तनों के अध्ययन के दौरान कार्बनिक अवशेषों की विस्तृत प्रयोगशाला जांच की गई। यह अध्ययन माइक्रोकेमिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन का उद्देश्य “कुछ विशेष आकार के सिरेमिक पात्रों के उपयोग को समझना और प्राचीन आहार सम्बंधी आदतों के बारे में कुछ अनुमान लगाना” था। अध्ययन में मध्य कांस्य युग (1550-1250 ईसा पूर्व) से प्रारंभिक लौह युग (1050-950 ईसा पूर्व) तक के अवशेष शामिल थे।

शोधकर्ताओं के समूह ने उपलब्ध पारंपरिक तरीकों और नवीनतम तरीकों का उपयोग करके पुरातात्विक सामग्री का विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने नए सिरे से कार्बन डेटिंग, पशु कंकाल के अवशेषों के संरचनात्मक अध्ययन और सिरेमिक पात्रों और कार्बनिक अवशेषों के रासायनिक और अन्य विश्लेषण किए। बाद में अपना अध्ययन उन्होंने प्रारंभिक लौह युग के खाना पकाने के मर्तबान तक सीमित रखा। इसके लिए उन्होंने एनएमआर, इंफ्रारेड वर्णक्रम तथा स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप जैसी कई आधुनिक विधियों का उपयोग किया।

इन विधियों से प्राचीन लोगों के भोजन और आहार सम्बंधी आदतों के बारे में काफी जानकारी पता लगी है। लेकिन इस अध्ययन से एक जो महत्वपूर्ण चीज़ मिली वह है टारटरिक एसिड। मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में पाए गए पात्रों में से एक पात्र में टारटेरिक एसिड और इसके सोडियम लवण के निशान मिले हैं। टारटेरिक एसिड वाइन का एक महत्वपूर्ण घटक है और वाइन की रासायनिक स्थिरता सुनिश्चित करने में भूमिका निभाता है। टारटरिक एसिड ज़्यादातर फलों और पौधों में नहीं पाया जाता लेकिन अंगूर में विशेष रूप से पाया जाता है। निश्चित रूप इसी कारण से वाइन अक्सर अंगूर से ही बनाई जाती है।

मॉन्टे क्रोनियो के पात्रों पर अवशेष में टारटेरिक एसिड और इसके लवण की उपस्थिति इस बात का संकेत देते हैं कि लगभग 1000 ईसा पूर्व के सिरेमिक पात्र अंगूर से बनी वाइन के भंडारण के काम आते थे। इटली आज दुनिया का सबसे बड़ा वाइन निर्यातक है। लगता है, उन्होंने इसकी शुरुआत काफी पहले कर ली थी। (स्रोत फीचर्स)

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चिकित्सीय यंत्र हानिकारक हो सकते हैं

हाल में यूएसए में यह मुद्दा काफी ज़ोर से उठा है कि चिकित्सकीय उपकरणों (पेसमेकर, स्टेंट आदि) को लेकर मानक बहुत कमज़ोर हैं और इन्हें बगैर पर्याप्त प्रमाण के मंज़ूरी मिल जाती है।

अमेरिका के लगभग 30 लाख से 60 लाख लोग एट्रियल फिब्रिालेशन की दिक्कत से प्रभावित हैं। हमारे ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं – दो आलिंद (एट्रिया) और दो निलय (वेंट्रिकल)। पूरे शरीर से खून आकर आलिंद में भर जाता है। तब आलिंद में संकुचन होता है और खून निलय में पहुंचता है। इसके बाद निलय में संकुचन होता है और खून को शरीर में भेजा जाता है। यह क्रिया काफी लयबद्ध ढंग से चलती है। मगर कभी-कभी आलिंद अनियमित ढंग से फड़कने लगता है। इसे एट्रियल फिब्रिालेशन कहते हैं। ऐसा होने पर ह्रदयाघात और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है। पिछले दो दशकों से डॉक्टर इसका इलाज कैथेटर एब्लेशन से कर रहे हैं। इस तरीके में कैथेटर की मदद से ह्मदय के क्षतिग्रस्त ऊतकों को इस तरह उपचारित किया जाता है कि वहां घाव के निशान जैसा ऊतक (स्कार) बन जाए। इससे गड़बड़ विद्युत संकेतों को फैलने से रोका जा सकता है जो मांसपेशियों के फड़कने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इस उपचार में लगभग 20,000 डॉलर का खर्चा आता है। किंतु हाल ही में एक अध्ययन में पाया गया कि कैथेटर एब्लेशन अन्य सस्ते उपचारों से बेहतर नहीं हैं। किंतु कुछ लोगों का मत है कि अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि कैथेटर एब्लेशन से कुछ लोगों को तो फायदा हुआ है। लिहाज़ा, ज़्यादा गहन अध्ययन की ज़रुरत है।

इसी तरह, एक अध्ययन में पता चला था कि सीने में जीर्ण दर्द के मरीज़ों में दवाइयों की बजाय स्टेंट उपयोग करने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलता।

दिल की खून पंप करने की क्षमता बढ़ाने के लिए इंपेला नामक यंत्र दिल में लगाया जाता है। इसे लगवाने में 25,000 डॉलर का खर्च आता है। इसे अब तक 50,000 से भी अधिक रोगियों में लगाया जा चुका है जबकि इसके परिणामों के बारे में कोई डाटा नहीं है।

कई लोग मांग कर रहे हैं कि दवाइयों के समान ऐसे चिकित्सा उपकरणों के लिए भी सख्त मापदंड होने चाहिए, किंतु यूएसए जल्द ही ऐसे चिकित्सा यंत्रों की मंज़ूरी और आसान कर सकता है। खाद्य व औषधि प्रशासन का मत है कि यंत्र को मंज़ूरी देने से पहले ज़्यादा छानबीन करने की बजाय बाज़ार में आने के बाद उसके परिणामों को देखा जाए। तर्क है कि इससे तकनीकी नवाचार को बढ़ावा मिलेगा और मरीज़ों को मदद। हालांकि, ऐसे ढीले-ढाले नियमों के चलते युरोप में वज़न घटाने के लिए पेट में लगाए जाने वाले गुब्बारे व स्तन प्रत्यारोपण जैसे उपचारों के दुष्परिणाम देखकर वहां नियमों में बदलाव किए गए।

एफ.डी.ए. ने ह्रदय के ब्लॉकेज से निजात पाने के लिए एक नए प्रकार के स्टेंट को अनुमति दी थी जो लगभग तीन साल में घुल जाता है। तर्क यह था कि मरीज़ धातु के यंत्र की बजाय घुलने वाले यंत्र लगवाना बेहतर समझेंगे। और हुआ भी वही, बाज़ार में इसकी मांग बढ़ गई। लेकिन दीर्घावधि अध्ययनों से पता चला कि कई स्टेंट रक्त के थक्के में तबदील हो रहे थे जिनसे दिल के दौरे का खतरा और बढ़ गया था।

चिकित्सीय यंत्रों की मंज़ूरी के लिए सख्त मानकों की ज़रूरत है। दवाओं की तुलना में यंत्रों के असर का अध्ययन करना मुश्किल है। कुछ रोगियों को एक झूठी गोली (प्लेसिबो) देना आसान है। पर स्टेंट या अन्य यंत्र के प्रत्यारोपण करने का नाटक करना मुश्किल है। किंतु वास्तविक लाभ का आकलन करने के लिए यह ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन पक्षियों की चोंच का रहस्य

गभग 9 करोड़ वर्ष पूर्व पाए जाने वाले समुद्री पक्षी इकथायोर्निस और आजकल के आधुनिक पक्षियों के शरीर की बनावट काफी मेल खाती है। इसमें एक विचित्र बात यह भी है कि इसका शरीर तो आधुनिक पक्षियों के समान है लेकिन इसके थूथन (स्नाउट) में डायनासौर के समान दांत थे। इकथायोर्निस पक्षी का सबसे पहला जीवाश्म 1870 में कैंसास में पाया गया था। शुरुआत में पुरातत्व विज्ञानियों को लगा था कि यह जीवाश्म एक जीव का नहीं बल्कि दो जीवों का है। इसका धड़ तो किसी छोटे से पक्षी का है और जबड़ा किसी समुद्री सरिसृप का। लेकिन और अधिक खुदाई के बाद मालूम चला कि यह जीवाश्म एक ही जीव का है। इस जीव के बारे में चार्ल्स डारविन ने कहा था कि यह जैव विकास का एक उम्दा प्रमाण है।

इस जीवाश्म में ऊपरी जबड़ा मौजूद नहीं था और निचला जबड़ा किसी डायनासौर के जबड़े के समान नज़र आता है। इससे पुरातत्व विज्ञानियों ने यह अनुमान लगाया था कि प्राचीन पक्षियों का ऊपरी जबड़ा रीढ़धारी जीवों की तरह स्थिर रहा होगा।

वर्ष 2014 में कैंसास के पुराजीव वैज्ञानिकों को इकथायोर्निस का एक और जीवाश्म मिला। उन्होंने इसे येल विश्वविद्यालय की भर्त-अंजन भुल्लर और उनके साथियों के साथ साझा किया। इस बार जीवाश्म को चट्टान में से निकालने की बजाय शोधकर्ताओं ने मौके पर ही पूरे चूना पत्थर का सीटी स्कैन किया। इसके साथ ही उन्होंने संग्रहालय से तीन पूर्व अपरिचित नमूनों का स्कैन भी किया और सभी स्कैन को सम्मिलित करने के बाद इकथायोर्निस की खोपड़ी का एक मॉडल तैयार किया गया। इसके बाद 1870 में पाए गए जीवाश्म की दोबारा जांच की गई। जीवाश्म के साथ संग्रहित कुछ अज्ञात टुकड़ों का स्कैन करने पर मालूम चला कि ये टुकड़े ऊपरी थूथन की वे हड्डियां हैं जो नए नमूनों में मौजूद नहीं थीं।

त्रि-आयामी मॉडल तैयार करने के बाद समझ आया कि इकथायोर्निस आधुनिक चिड़िया और डायनासौर के बीच की कड़ी है। डायनासौर जैसे दांत होने के बावजूद इकथायोर्निस की हुकनुमा चोंच थी और वह आजकल के पक्षियों की तरह ऊपरी और निचले दोनों जबड़ों को अलग-अलग हिला सकता था।

शोधकर्ताओं का मानना है कि चोंच भी ठीक उसी समय विकसित हुई होगी जिस समय पंख विकसित हुए होंगे। एक कुशल जबड़े से खुद के पंख संवारने के साथ चिमटी जैसी पकड़ बनाने में मदद भी मिलती होगी। (स्रोत फीचर्स

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मशहूर दकियानूस वैज्ञानिक की प्रशंसा का खामियाजा

जेम्स वॉटसन मशहूर वैज्ञानिक हैं। 1950 के दशक में उन्होंने फ्रांसिस क्रिक के साथ मिलकर आनुवंशिक पदार्थ डीएनए की रचना का खुलासा किया था जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद वे मानव जीनोम परियोजना के निदेशक भी रहे। हाल ही में उनकी 90वीं सालगिरह मनाई गई। इस आयोजन में एमआईटी के ब्रॉड इंस्टीट्यूट के एरिक लैंडर को उनका प्रशस्ति पत्र पढ़ने को कहा गया था।

यह आयोजन कोल्ड हार्बर स्प्रिंग लेबोरेटरी में जीनोम्स बैठक के दौरान किया गया था। विडंबना यह है कि वॉटसन इस लेबोरेटरी के निदेशक थे और 2007 में उन्हें इस्तीफा देने को कहा गया था। कारण था कि उन्होंने एक ब्रिटिश अखबार में यह बयान दिया था कि अश्वेत लोग बौद्धिक दृष्टि से गोरों से कमतर होते हैं।

यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि वॉटसन के विचार कितने दकियानूसी हैं और वे किस अक्खड़ ढंग से अपने विचारों को व्यक्त करते रहे हैं। वास्तव में वॉटसन शुरू से ही विवादों में रहे हैं। 1962 में उन्हें फ्रांसिस क्रिक और मॉरिस विल्किन्स के साथ संयुक्त रूप से नोबेल मिला था। नोबेल की घोषणा होने से पहले रोज़लिंड फ्रेंकलिन का निधन हो चुका जिनका योगदान इस कार्य में बहुत महत्वपूर्ण रहा था। नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता किंतु वॉटसन ने जिस ढंग से फ्रेंकलिन के योगदान को कम करके बताया था, उसकी काफी आलोचना हुई थी।

वॉटसन यह भी कह चुके हैं कि भूमध्य रेखा के आसपास तेज़ धूप के कारण यौन इच्छाएं बढ़ जाती हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि अफ्रीका के लोगों की बुद्धि वास्तव हमारे जैसी है ही नहीं। वॉटसन के नस्लवादी, लिंगवादी विचारों से विज्ञान जगत परिचित रहा है। इसलिए जब उनकी सालगिरह पर उनका गुणगान किया गया तो सोशल मीडिया उबल पड़ा। परिणाम यह हुआ कि एरिक लैंडर को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी। (स्रोत फीचर्स)

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पुरामानव मस्तिष्क बनाने के प्रयास

धुनिक मानव होमो सेपिएन्स प्रजाति में आते हैं। मानवों के कई सगे सम्बंधी रहे हैं जो समय के साथ विलुप्त हो चुके हैं। इनमें से एक है निएंडर्थल। वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि निएंडर्थल मानव का मस्तिष्क प्रयोगशाला में बनाकर देखा जाए कि उनके मस्तिष्क और आधुनिक मानव के मस्तिष्क में किस तरह के अंतर रहे होंगे।

दरअसल, वैज्ञानिकों के पास निएंडर्थल मानव का आनुवंशिक पदार्थ डीएनए उसके जीवाश्मों से उपलब्ध है। इससे पहले जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर स्वांते पाबो के नेतृत्व में 2010 में निएंडर्थल मानव का पूरा आनुवंशिक सूत्र (यानी जीनोम) पढ़ा जा चुका है। डीएनए से ही निर्धारित होता है कि किसी जीव, उसके अंगों और ऊतकों की संरचना कैसी होगी।

मस्तिष्क निर्माण का वर्तमान प्रयोग भी इसी प्रयोगशाला में होने वाला है। मगर इससे पहले पाबो की टीम ने निएंडर्थल में खोपड़ी और चेहरे के विकास के लिए ज़िम्मेदार जीन को चूहों में प्रत्यारोपित किया था और निएंडर्थल के दर्द संवेदना के जीन्स को मेंढक के अंडों में प्रविष्ट कराया था। मकसद यह देखना था कि क्या निएंडर्थल की दर्द संवेदना का तंत्र मनुष्यों से भिन्न है और क्या उनकी दर्द सहने की क्षमता भी अलग थी।

अब यही टीम निएंडर्थल के मस्तिष्क विकास से सम्बंधित जीन्स को मनुष्य की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट कराएगी। यानी इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों से निएंडर्थल के जीन्स जोड़े जाएंगे। अब इनसे मस्तिष्क का विकास तो नहीं होगा (जो सोच सके या महसूस कर सके) किंतु मस्तिष्क के ऊतकों का विकास होगा। ऐसे ऊतकों को अंगाभ या ऑर्गेनॉइड कहते हैं।

इस तरह विकसित ऑर्गेनॉइड्स की मदद से वैज्ञानिक निएंडर्थल और आधुनिक मनुष्य की तंत्रिकाओं के कामकाज में अंतर समझ सकेंगे और यह देख पाएंगे कि आधुनिक मनुष्य संज्ञान के मामले में इतने खास क्यों हैं। (स्रोत फीचर्स)

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