औद्योगिक कृषि से वन विनाश

विश्व स्तर पर जंगली क्षेत्र में हो रही लगातार कमी का मुख्य कारण औद्योगिक कृषि को बताया जा रहा है। प्रति वर्ष 50 लाख हैक्टर क्षेत्र औद्योगिक कृषि के लिए परिवर्तित हो रहा है। बड़ीबड़ी कंपनियों द्वारा वनों की कटाई ना करने की प्रतिज्ञा के बावजूद, ताड़ एवं अन्य फसलें उगाई जा रही हैं जिसके चलते पिछले 15 वर्षों में जंगली क्षेत्र का सफाया होने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आई है।

इस विश्लेषण से यह तो साफ है कि केवल कॉर्पोरेट वचन से जंगलों को नहीं बचाया जा सकता है। 2013 में, मैरीलैंड विश्वविद्यालय, कॉलेज पार्क में रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ मैथ्यू हैन्सन और उनके समूह ने उपग्रह तस्वीरों से 2000 और 2012 के बीच वन परिवर्तन के मानचित्र प्रकाशित किए थे। लेकिन इन नक्शों से वनों की कटाई और स्थायी हानि की कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई थी।

एक नए प्रकार के विश्लेषण के लिए सस्टेनेबिलिटी कंसॉर्शियम के साथ काम कर रहे भूस्थानिक विश्लेषक फिलिप कर्टिस ने उपग्रह तस्वीरों की मदद से जंगलों को नुकसान पहुंचाने वाले पांच कारणों को पहचानने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है। ये कारण हैं जंगलों की आग (दावानल), प्लांटेशन की कटाई, बड़े पैमाने पर खेती, छोटे पैमाने पर खेती और शहरीकरण। सॉफ्टवेयर को इनके बीच भेद करना सिखाने के लिए कर्टिस ने ज्ञात कारणों से जंगलों की कटाई वाली हज़ारों तस्वीरों का अध्ययन किया।

यह प्रोग्राम तस्वीर के गणितीय गुणों के आधार पर छोटेछोटे क्षेत्रों में अनियमित खेती और विशाल औद्योगिक कृषि के बीच भेद करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2001 से लेकर 2015 के बीच कुल क्षति का लगभग 27 प्रतिशत बड़े पैमाने पर खेती और पशुपालन के कारण था। इस तरह की खेती में ताड़ की खेती शामिल है जिसका तेल अधिकतर जैव र्इंधन एवं भोजन, सौंदर्य प्रसाधन, और अन्य उत्पादों में एक प्रमुख घटक के तौर पर उपयोग किया जाता है। इन प्लांटेशन्स के लिए जंगली क्षेत्र हमेशा के लिए साफ हो गए जबकि छोटे पैमाने पर खेती के लिए साफ किए गए क्षेत्रों में जंगल वापस बहाल हो गए।

कमोडिटी संचालित खेती से वनों की कटाई 2001 से 2015 के बीच स्थिर रही। लेकिन हर क्षेत्र में भिन्न रुझान देखने को मिले। ब्राज़ील में 2004 से 2009 के बीच वनों की कटाई की दर आधी हो गई। मुख्य रूप से इसके कारण पर्यावरण कानूनों को लागू किया जाना और सोयाबीन के खरीदारों का दबाव रहे। लेकिन मलेशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में, वनों की कटाई के खिलाफ कानूनों की कमी या लागू करने में कोताही के कारण ताड़ बागानों के लिए अधिक से अधिक जंगल काटा जाता रहा। इसी कारण निर्वनीकरण ब्राज़ील में तो कम हुआ लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में काफी बढ़ोतरी देखी गई।

कई कंपनियों ने हाल ही में वचन दिया है कि वे निर्वनीकरण के ज़रिए पैदा किया गया ताड़ का तेल व अन्य वस्तुएं नहीं खरीदेंगे। लेकिन अब तक ली गई 473 प्रतिज्ञाओं में से केवल 155 ने वास्तव में 2020 तक अपनी आपूर्ति के लिए वनों की शून्य कटाई के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसमें भी केवल 49 कंपनियों ने अच्छी प्रगति की सूचना दी है।

विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, मैडिसन की भूगोलविद लिसा रॉश के अनुसार कंपनियों के लिए शून्यकटाई वाले सप्लायर्स को ढूंढना भी एक चुनौती हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कपास का पालतूकरण और गुलामी प्रथा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

बैक्टीरिया की एक नई किस्म किस प्रकार विकसित होती है? मान लीजिए, किसी बैक्टीरिया का सामना किसी खतरे से होता है। यह खतरा एंटीबायोटिक के रूप में हो सकता है। संयोगवश बैक्टीरिया के जीन में एक छोटासा परिवर्तन होता है, जो उसे इस खतरे का सामना करने के काबिल बनाता है। दूसरे शब्दों में, उसे प्रतिरोधी बनाता है। चूंकि बैक्टीरिया कुछ मिनटों या घंटों में तेज़ी से बढ़ते हैं इसलिए हम देख सकते हैं कि कुछ ही हफ्तों में बैक्टीरिया की दवा प्रतिरोधी किस्म बढ़ जाएगी और दवा संवेदनशील किस्मों की जगह ले लेगी।

उपरोक्त बात जो बैक्टीरिया के लिए सत्य है वह पौधों और जानवरों पर भी लागू होती है। फर्क केवल इतना है कि पौधों और जंतुओं के मामले में समय मिनटों और घंटों में नहीं बल्कि दशकों, सदियों या सहस्त्राब्दी में देखा जाता है क्योंकि इनमें एकएक पीढ़ी काफी लंबे समय की होती है। मगर यह सही है कि जब उन पर भी जलवायु या पर्यावरण परिवर्तन, या पालतू बनाए जाने के कारण स्थानीय परिवर्तनों का दबाव पड़ता है तो वे भी उत्परिवर्तन पैदा करते हैं।

क्या ऐसे तनाव एक के बाद एक उत्परिवर्तन क्रमिक रूप से उत्पन्न करते हैं या जीनोम अपेक्षाकृत थोक में (झटके के साथ रुकरुककर) प्रतिक्रिया देता है? क्रमिकता में विश्वास रखने वाले जीव विज्ञानी इन वैज्ञानिकों को जर्क’ (झटका) कहते हैं। इसके जवाब में झटकेदार उत्परिवर्तन में विश्वास करने वाले वैज्ञानिक क्रमिकता में विश्वास करने वालों को क्रीप (सरका) कहते हैं।

मक्का, गेहूं, कपास या चावल जैसे पौधों को देखें। इन्हें जलवायु में बड़े बदलावों का सामना करना पड़ा है। इनमें से कई परिवर्तन पुरातन काल में पृथ्वी पर हुए थे। जब मनुष्य ने पालतू बनाने की प्रक्रिया में उन्हें नए वातावरण प्रदान किए तब भी इन्हें परिवर्तनों का सामना करना पड़ा था।

सवाल है कि पौधे इस तरह के तनाव में कैसी प्रतिक्रिया देते हैं? क्या उनके जीन में क्रमिक परिवर्तनों के ज़रिए सदियों में अनुकूलन होगा, जिसमें एक के बाद एक प्रत्येक उत्परिवर्तन पहले वाले उत्परिवर्तन की मदद करेगा? या एक बड़े पैमाने पर एक झटके में थोक परिवर्तन हो सकते हैं जिनकी वजह से नई किस्में एवं संकर उत्पन्न हो जाएंगे?

जीव विज्ञानी डॉ. बारबरा मैकलिंटॉक मक्का (मकई) में आनुवंशिक परिवर्तन का अध्ययन कर रही थीं। कई वर्षों के की अथक मेहनत के बाद यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि जीनोम के भीतर जीन अनुक्रमों का थोक स्थानांतरण होता रहता है।

उन्होंने पाया कि जीनोम के भीतर डीएनए के टुकड़े कटकर अलग होते हैं, कहीं औेर चिपक जाते हैं, या उनकी प्रतिलिपि बनकर कहीं और जुड़ जाती है। इस प्रकार से जीनोम एक जड़ाऊ काम है, जिसका अनुक्रम बदलता रहता है और अनुक्रम बदलने के साथ संदेश भी बदलता है और नई किस्में पैदा हो सकती हैं।

(उदाहरण के तौर पर, एक वाक्य देखिए: मारो मत, जाने दो। अब काटछांट या शब्दों को कॉपीपेस्ट करने पर वाक्य का संदेश बदल जाएगा: मारो, मत जाने दो)। मैकलिंटॉक ने ऐसे चलतेफिरते डीएनए अनुक्रमों को ट्रांसपोज़ॉन या ट्रांसपोज़ेबल घटक का नाम दिया था। इस खोज के लिए उन्हें 1983 में नोबेल पुरस्कार मिला।

ट्रांसपोज़ॉन्स या फुदकते जीनअनुक्रम तनाव होने पर या पालतूकरण का दबाव होने पर विकास के लिए एक व्यवस्था प्रदान करते हैं। हाल ही में इस बिंदु को वारविक विश्वविद्यालय, यूके में कपास के पौधे का अध्ययन करने वाले एक समूह द्वारा रेखांकित किया गया है।

उन्होंने कपास के पुरातात्विक नमूने लिए (पेरू से दो, एकएक ब्राज़ील और मिरुा से)। इनके डीएनए अनुक्रमों का विश्लेषण करने पर देखा कि पालतू बनाई गई किस्मों में काफी जीनोमिक पुनर्गठन हुआ है, जबकि इन्हीं से सम्बंधित जंगली किस्मों में जीनोम अनुक्रम काफी स्थिर बना रहा है।

पालतूकरण और इससे उत्पन्न तनाव पौधों को मजबूर करते हैं कि वे ट्रांसपोज़ॉन्स का उपयोग करके जीन्स का स्थानांतरण करें।

मनुष्यों की सांस्कृतिक प्रथाओं के कारण इस तरह के एपिसोडिक (घटनाआधारित) परिवर्तनों का अनुभव अकेले कपास ने नहीं किया है। बल्कि साथसाथ, कपास के कारण मानव व्यवहार और सभ्यता में भी एपिसोडिक परिवर्तन आए हैं।

यह प्राचीन पौधा पहली बार सिंधु घाटी में 6000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया गया था। वहां से यह अफ्रीका और अरेबिया तक फैल गया, जहां इसे अल कुत्न नाम दिया गया (स्पैनिश में यह अलगोडन हुआ और अंग्रेज़ी में कॉटन)

स्वतंत्र रूप से, मेक्सिको में 3000 ईसा पूर्व में, इसकी एक और प्रजाति उगाई गई थी। शुरुआती एशियाई और मेक्सिकन लोग इसे कातते और पहनते थे। मसाले, सोना और चांदी के साथ, कपास भी प्राचीन विश्व का खज़ाना था जिसे उपनिवेशवादी लूटा करते थे।

कपास की इस लूटपाट और व्यावसायीकरण ने गुलामी के अपमानजनक और अक्षम्य इतिहास को बढ़ावा दिया। जब युरोपीय लोगों ने अमेरिका की खोज की, और उसके अधिकांश दक्षिणी राज्यों को कपास के खेतों में परिवर्तित कर दिया तो उन्हें मज़दूरों की आवश्यकता पड़ी।

सिर्फ 1700 से 1900 के बीच, कपास खेतों में काम करने के लिए 40 लाख अफ्रीकी लोगों को गुलाम बनाकर यू.एस. लाया गया ताकि उन पर जानवरों की तरह अधिकार जताकर खरीदा और बेचा जा सके। (यहां तक कि अमेरिका के संस्थापक भी नीग्रो गुलामों के मालिक थे और उनका इस्तेमाल करते थे)

फलस्वरूप, कपास फलनेफूलने लगा। 1800 के दशक के मध्य तक अमेरिका प्रतिवर्ष लगभग दो अरब टन कपास निर्यात कर रहा था।

यह सही है कि इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ असंतोष था, लेकिन जब इसने गृहयुद्ध का रूप ले लिया तब राष्ट्रपति लिंकन ने हस्तक्षेप करके युद्ध जीता और देश को एकीकृत किया।

लेकिन काले और गोरे लोगों को समान अधिकार तो तब मिले जब गांधीवादी नेता मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में अश्वेत लोगों ने (अपने गोरे समर्थकों के साथ) इस लड़ाई को बहादुरी से बढ़ाया। उनका नारा था, हम होंगे कामयाब, हम होंगे आज़ाद एक दिन।

भारत में, ईस्ट इंडिया कंपनी की एक प्रमुख खोज कैलिको था। यह कोज़िकोड (कालीकट, इसलिए कैलिको) में बनाया गया एक कपड़ा था जिसे सूत और बिनौले के छिलके दोनों का उपयोग करके बनाया जाता था।

भारतीय (और मिस्र) सूत की मेहरबानी से कंपनी और साम्राज्य ने सालाना लाखों पाउंड कमाए। जब औद्योगिक क्रांति के दौरान इंग्लैंड में कपड़ा मिलों की स्थापना हुई, तो सूती कपड़ा और अधिक महीन व बेहतर हो गया और उसकी मांग बढ़ी। भारतीय सूती कपड़े ने यूके (जहां इसे प्रतिबंधित किया गया था) और खुद भारत में भी अपना मूल्य खो दिया।

गांधीजी ने मिलनिर्मित कपड़े के सांस्कृतिक और शोषक मूल्य को समझा। इसी के चलते उन्होंने चरखे और घर की बनी खादी को महत्व दिया। आर्थिक मूल्य के अलावा, यह आज भी राष्ट्रीय गौरव और देशभक्ति की भावना जगाता है। अर्थात कपास एक क्रमिक परिवर्तन नहीं लाया, बल्कि राष्ट्रवाद की भारतीय भावना में एक गहरे परिवर्तन को झटके से शुरू किया। यह कितना अन्यायपूर्ण है कि वर्तमान समय के खद्दरधारी नेताओं के युग में, ढाई लाख से अधिक किसान सिर्फ इस कारण आत्महत्या कर चुके हैं कि वे कपास की खेती करने के लिए उठाए गए ऋणों का भुगतान नहीं कर सके। और राहत की कोई उम्मीद भी नज़र नहीं आती (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रहस्यमयी मस्तिष्क कोशिका खोजी गई

हाल ही में शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क कोशिका परिवार में एक नया सदस्य पहचाना है। ये रहस्यमयी कोशिकाएं नए प्रकार के न्यूरॉन बंडल के रूप में कॉर्टेक्स की ऊपरी परत में पाई जाती हैं। इन्हें इंसानों में देखा गया है किंतु चूहों में ये अनुपस्थित हैं। इन्हें ‘रोज़हिप न्यूरॉन्स’ नाम दिया गया है। कॉर्टेक्स में कई ऐसे न्यूरॉन्स पाए जाते हैं जो अन्य न्यूरॉन्स की गतिविधि को रोकते हैं।

वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क संरचना के सूक्ष्म अध्ययन और अलग-अलग कोशिकाओं के आनुवंशिक विश्लेषण के के मिले-जुले उपयोग से मानव मस्तिष्क ऊतक की स्लाइसों में इन न्यूरॉन्स को देखा। ये कोशिकाएं घने, झाड़ीदार आकार के साथ छोटी और सुघटित रूप में थी। इन कोशिकाओं के विस्तारों पर, जहां से वे अन्य कोशिकाओं को संकेत भेजने का काम करती हैं, वहां असामान्य रूप से बड़ी और बल्ब जैसी रचनाएं थीं।

इन कोशिकाओं के सटीक वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिकों ने जीन संरचना का विश्लेषण किया। इस दौरान उन्होंने पाया कि अवरोधक रोज़हिप न्यूरॉन्स में मानव जीन का सेट पूर्व में चूहों में पाई गई किसी भी कोशिका से मेल नहीं खाता है जबकि चूहों को मनुष्य के अध्ययन के लिए मॉडल जंतु के रूप में उपयोग किया जाता है। नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ये मॉडल के रूप में उपयुक्त नहीं हैं। एक सवाल यह है कि क्या मस्तिष्क कार्यों के लिए महत्वपूर्ण यही वो न्यूरॉन है जो हमें चूहों से अलग करते हैं।

लेकिन इन नए न्यूरॉन्स का सटीक कार्य अभी भी एक रहस्य है। रोज़हिप न्यूरॉन्स कॉर्टेक्स की पहली परत में केवल 10-15 प्रतिशत अवरोधक न्यूरॉन्स के रूप में मौजूद हैं और इनके कहीं और पाए जाने की संभावना थोड़ी कम ही है। अन्य न्यूरॉन्स के संपर्क के स्थान से पता चलता है कि वे उत्तेजक संकेतों पर रोक लगाने के लिए एक उम्दा स्थिति में हैं। शोधकर्ता अब बड़े तंत्रिका सर्किटों में रोज़हिप न्यूरॉन्स की जमावट और तंत्रिका सम्बंधी रोगों में इनकी भूमिका का अध्ययन भी करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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मां के बिना ज़्यादा सहयोगी गुबरैले शिशु

ज़्यादातर कीट अंडे देने के बाद उन्हें छोड़ देते हैं। किंतु कालेनारंगी रंग की, छोटीसी खोदक भृंग (गुबरैला) अपने अंडों को छोड़ती नहीं बल्कि अपने बच्चों की तब तक देखभाल करती है जब तक वे स्वयं भोजन जुटाने लायक ना हो जाएं। किंतु शोधकर्ताओं ने हाल ही में आयोजित वैकासिक जीव विज्ञान पर हुई द्वितीय कांग्रेस में बताया है इसकी संतान जन्म से ही खुद अपना भोजन जुटाने में समर्थ हो सकती हैं।

युरोप के जंगलों और उत्तरी अमेरिका के दलदली इलाकों में पाई जाने वाली खोदक भृंग का भोजन ज़मीन में दबे मृत चूहे या पक्षी होते हैं। इन्हीं के नज़दीक मादा अंडे देती है। वयस्क भृंग शव के ऊपर के बाल या पंख को हटाकर उनका नर्म गोला बना लेते हैं और इन्हें अंडों के साथ रख देते हैं। जब अंडे से बच्चे निकलते हैं तो मांभृंग शव में सुराख कर देती है और नवजात लार्वा को भोजन देती है।  

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की वैकासिक जीव वैज्ञानिक रेबेका किलनर ने प्रयोगशाला में इन भृंगों के परिवारिक माहौल में बदलाव करके उनमें शारीरिक और व्यावहारिक बदलाव का अध्ययन किया। उन्होंने भृंगों को दो समूहों में रखा। एक समूह में अंडे देने के तुरंत बाद मां को उस समूह से हटा दिया गया। दूसरे समूह में उन्होंने ऐसा कोई बदलाव नहीं किया। लगातार 30 पीढ़ियों तक इस प्रयोग को दोहराने के बाद उन्होंने पाया कि मांविहीन समूह के नवजात लार्वा आकार में बड़े थे और उनके जबड़े मज़बूत थे। किलनर का कहना है कि आम तौर पर भृंगमाता मृत शरीर के आसपास की मिट्टी हटाने और शव में छेद करने का काम करती है। पर जब नवजात लार्वा को खुद ये काम करने पड़ा तो सिर्फ वही लार्वा भोजन तक पहुंच पाए जिनके जबड़े बड़े थे। इसलिए वे जीवित भी रह पाए। इस तरह उनकी संतानों के जबड़े बड़े होते गए।

लार्वा के व्यवहार को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दोनों समूह (मां वाले, और मां विहीन) से विभिन्न अनुपात में लार्वा को एक साथ शव के पास छोड़ा। उन्होंने पाया कि जिस समूह में सभी लार्वा मां विहीन समूह से थे वे भोजन तक पहुंच पाए। किलनर का कहना है कि वे नहीं जानते कि लार्वा यह कैसे कर सके, हो सकता है मिलजुलकर काम करने से उन्हें कामयाबी मिली हो। इसके विपरीत जिस समूह में सारे लार्वा मां वाले समूह से थे वे भोजन तक नहीं पहुंच पाए। देखा गया कि वे शव तक पहुंचने के लिए एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे।

मां विहीन समूह के लार्वा में सहयोग का एक और संकेत दिखाई दिया सभी लार्वा अंडों से एक साथ और जल्दी बाहर निकल आए। किलनर का कहना है कि शव को भेदने के लिए एक खास संख्या में लार्वा की ज़रूरत पड़ती है, अत: यदि अंडों से निकलने का समय एक होगा तो वे मिलजुलकर बेहतर काम कर सकेंगे।

जॉर्जिया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव वैज्ञानिक एलन मूरे का कहना है कि इस अध्ययन से पता चलता है कि परिस्थिति बदलने पर परिवार में कैसे अलगअलग तरह के समाजिक सम्बंध विकसित हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जल्दी ही भारत अंतरिक्ष में मानव भेजेगा

15 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा 2022 तक मानव को अंतरिक्ष में भेजने के लिए एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस घोषणा ने देश की अंतरिक्ष एजेंसी के प्रमुख समेत कई लोगों को आश्चर्यचकित किया।

इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) के अध्यक्ष डॉ. के. सिवान के अनुसार भारतीय अंतरिक्षउत्साही एक दशक से अधिक समय से मनुष्य को अंतरिक्ष में भेजने पर चर्चा कर रहे हैं लेकिन इस विचार को अब तक राजनीतिक समर्थन नहीं मिला था।

डॉ. सिवान का मानना है कि इसरो अन्य देशों की मदद से मिशन को अंजाम दे सकता है। आने वाले समय में वह तीन अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में पांच से सात दिनों के लिए भेजने की योजना पर काम कर रहे हैं। इस मिशन के साथ वे दो अन्य मानव रहित मिशन की भी तैयारी करेंगे जिसे पृथ्वी की निचली कक्षा (300-400 किलोमीटर) में पहुंचाने का प्रयास किया जाएगा। अनुमान है कि इस कार्यक्रम पर लगभग 100 अरब रुपए खर्च होंगे। यदि यह सफल रहा तो संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अपने स्वयं के मानवसहित अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपित करने वाला चौथा देश बन जाएगा।

इसरो के पास मानवसहित यान के लिए पहले से ही कई प्रमुख हिस्से मौजूद हैं। इनमें अंतरिक्ष यात्री को ले जाने और उनके बचाव के लिए एक मॉड्यूल मौजूद है। इसरो ने बारबार उपयोग में आने वाली एक अंतरिक्ष शटल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है। जीएसएलवी मार्क III रॉकेट का इस्तेमाल यान को लॉन्च करने के लिए किया जाएगा। एजेंसी को अपनी कुछ तकनीकों को अपग्रेड करके मानवसहित मिशन के लिए परीक्षण करना होगा। जैसे जीएसएलवी मार्क III रॉकेट को मानवसहित उपग्रह भेजने के लिए तैयार करना होगा जो वज़नी होते हैं। एजेंसी के पास अंतरिक्ष में यात्रियों को स्वस्थ रखने और उन्हें सुरक्षित वापस लाने का कोई अनुभव नहीं है।

इस कार्य को पूरा करने के लिए इसरो को एयरोस्पेस मेडिसिन संस्थान तथा कई विदेशी विशेषज्ञों की मदद की ज़रूरत पड़ेगी। हो सकता है अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षित करने संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस या युरोप में सुविधाओं का उपयोग करना पड़े। एक विकल्प तकनीक को खरीदने का भी हो सकता है लेकिन यह काफी महंगा होगा।   

सवाल यह भी है कि क्या इसरो द्वारा देश कि जनता की भलाई को देखते हुए संचार और मौसम पूर्वानुमान के लिए उपग्रहों को लॉन्च करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है या फ़िर लोगों को अंतरिक्ष में भेजना जिसमें कार्यक्रम के दुर्लभ संसाधन खर्च हो जाएंगे।

कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि भारत को कम समय सीमा में लक्ष्य को पूरा करने के लिए काफी संघर्ष करना है, जबकि अन्य विशेषज्ञों ने इसरो से परामर्श किए बिना अंतरिक्ष कार्यक्रम की घोषणा के लिए सरकार की आलोचना की है। सी.एस.आई.आर, दिल्ली के पूर्व सेवानिवृत्त शोधकर्ता गौहर रज़ा के अनुसार इसे भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की नई योजना की बजाय 2019 के चुनावी भाषण के रूप में देखा जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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खेल-खेल में जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई

जब कोई ज़िद्दी बच्चा होमवर्क करने से इंकार करता है तो कुछ रचनात्मक मातापिता समाधान के रूप में इसे एक खेल में बदल देते हैं। इसी तकनीक का उपयोग वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन जैसी कठिन चुनौती से निपटने के लिए कर रहे हैं।

वर्ष 2100 तक औसत वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की भविष्यवाणी के साथ, वैज्ञानिक आम जनता को इस मामले में लोगों को कार्रवाई में शामिल करने का सबसे प्रभावी तरीका खोजने का प्रयास कर रहे हैं। अभी तक सार्वजनिक सूचनाओं, अभियानों, बड़े पैमाने पर प्रयासों और चेतावनी के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के खतरों के बारे में बताकर लोगों को इसमें शामिल करने की कोशिश की जाती रही है। लेकिन वैज्ञानिकों को को लगता है कि अनुभव और प्रयोग के माध्यम से लोगों को सीखने में सक्षम बनाने से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।

इसलिए, उन्होंने दुनिया भर के हज़ारों लोगों को वल्र्ड क्लाइमेट नामक खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। यह खेल सहभागियों को संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के प्रतिनिधि के रूप में जलवायु परिवर्तन से दुनिया को बचाने पर विचार करने को प्रेरित करता है। इस खेल में प्रतिनिधियोंको उनके सुझावों/निर्णयों पर तुरंत प्रतिक्रिया मिलती है। उनके निर्णय सीरोड्स नामक एक जलवायु नीति कंप्यूटर मॉडल में दर्ज किए जाते हैं। यह मॉडल बता देता है कि स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा पर उनके निर्णय के प्रभाव क्या हो सकते हैं।

शोधकर्ताओं ने खेल के पहले और बाद में 2042 खिलाड़ियों का सर्वेक्षण किया और पाया कि प्रतिभागियों में जलवायु परिवर्तन के कारणों और प्रभावों की समझ में काफी वृद्धि हुई और उनमें इसके हल के लिए तत्परता भी देखने को मिली। प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इनमे से 81 प्रतिशत ने जलवायु परिवर्तन के बारे में सीखने और अधिक कार्य करने की इच्छा भी व्यक्त की। यह प्रवृत्ति उत्तरी और दक्षिण अमेरिका, युरोप और अफ्रीका में आयोजित 39 खेल सत्रों में एक जैसी थी।

इन परिणामों से यह संकेत भी मिला है कि यह खेल खास तौर पर अमरीकियों तक भी पहुंचने का अच्छा माध्यम हो सकता है जो जलवायु कार्रवाई के समर्थक नहीं हैं और मुक्त बाज़ार पर सरकारी नियंत्रण का खुलकर विरोध करते हैं।

लेकिन क्या यह सदी के अंत से पहले ग्रह को 2 डिग्री सेल्सियस से गर्म होने को रोकने के लिए पर्याप्त हो सकता है? वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके लिए अधिक खिलाड़ियों को जोड़ना होगा, और खेल के प्रति इस उत्साह को वास्तविक दुनिया में स्थानांतरित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पेड़ – पवित्र, आध्यात्मिक और धर्म निरपेक्ष – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

जापान के कामाकुरा तीर्थ का 800 साल पुराना पूजनीय गिंको वृक्ष इस वर्ष मार्च में बर्फीली आंधी में गिर गया। तीर्थ के पुजारियों और साध्वियों ने वृक्ष पर पवित्र शराब और नमक डालकर इसका शुद्धिकरण किया। यह गिंको वृक्ष 12 फरवरी 1219 को तानाशाह सानेतोमो की हत्या का साक्षी था। उस दिन वह प्रधान पद के लिए अपने नामांकन का जश्न मनाकर मंदिर से वापस आ रहा था, तभी उसके भतीजे मिनामोतो ने उस पर हमला करके उसे मौत के घाट उतार दिया। इस कृत्य के लिए कुछ ही घंटों बाद उसका भी सिर कलम कर दिया गया। इसके साथ ही साइवा गेंजी शोगुन राजवंश का अंत हो गया।

पेड़ न केवल इतिहास बताते हैं बल्कि लोगों में विस्मय और आध्यात्मिकता भी जगाते हैं। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गौतम बुद्ध हैं जिन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया था। इसी कारण बुद्ध का एक नाम बोधिसत्व भी है। 286 ईसा पूर्व में बोधि वृक्ष की एक शाखा को श्रीलंका के अनुराधापुर में लगाया गया था। इस तरह से यह वृक्ष मानव द्वारा लगाया गया सबसे प्राचीन वृक्ष है।

भगवान बुद्ध ने ही कहा था, “पेड़ अद्भुत जीव हैं जो अन्य जीवों को भोजन, आश्रय, ऊष्मा और संरक्षण देते हैं। ये उन लोगों को भी छाया देते हैं जो इन्हें काटने के लिए कुल्हाड़ी उठाते हैं।

कर्नाटक के रामनगरम ज़िले के हुलिकल की रहने वाली 81 वर्षीय सालमारदा तिमक्का बौद्ध विचारों से प्रेरित हैं। जब उन्हें और उनके पति को समझ में आया कि उन्हें बच्चा नहीं हो सकता तो उन्होंने पेड़ लगाने और हर पेड़ की परवरिश अपने बच्चे की तरह करने का निर्णय लिया। इसके बारे में और अधिक गूगल पर पढ़, सुन एवं देख सकते हैं।

पेड़ अत्यंत प्राचीन भी हो सकते हैं। बोधि वृक्ष यदि 2,300 साल पुराना हैतो वहीं कैलिफोर्निया के विशाल सिक्वॉइ पेड़ भी लगभग उतने ही प्राचीन हैं। ये विशाल पेड़ 275 फीट लंबे, 6000 टन भारी हैं और इनका आयतन करीब 1500 घन मीटर है। समुद्र तल से 3300 मीटर की उंचाई पर खड़ा ब्रिास्टलकोन पाइन वृक्ष तो इससे भी पुराना है। तकरीबन 4850 साल प्राचीन इस वृक्ष को मेथुसेला नाम दिया है। लेकिन दुनिया का सबसे प्राचीन वृक्ष तो नॉर्वेस्वीडन की सीमा पर दलामा के एक पेड़ को माना जाता है। यह सदाबहार शंकुधारी फर पेड़ है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसका तना 600 साल तक जीवित रहता है। इतने वर्षों में इसने अपना क्लोन बना लिया है।

पेड़ों की क्लोनिंग करने की यह क्षमता ही इन्हें जानवरों और हमसे अलग करती है। इसी खासियत के परिणामस्वरूप हमें अनुराधापुर में फलताफूलता क्लोन महाबोधि वृक्ष नज़र आता है, और इसी खासियत के चलते कामकुरा गिंको के उत्तराधिकारी वृक्ष बन जाएंगेऔर दलामा का फर वृक्ष आज भी मौजूद है। और डॉ. जयंत नार्लीकर द्वारा पुणे में लगाया गया सेब का पेड़ भी इसी खासियत का परिणाम है। यह पेड़ इंग्लैण्ड स्थित उस सेब के पेड़ की कलम से लगाया गया था जिसके नीचे कथित रूप से न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण का विचार कौंधा था।

इंसानों या जानवरों का जीवनकाल सीमित क्यों होता है? वे मरते क्यों हैं? क्यों जानवर या इंसान पेड़पौधों की तरह अपना क्लोन बनाकर अमर नहीं हो जाते। और तो और, 40 विभाजन के बाद हमारी कोशिकाएं और विभाजित नहीं हो पातीं। गुणसूत्र की आनुवंशिक प्रतिलिपि बनाने की प्रक्रिया को समझ कर इस रुकावट के कारण को समझा जा सकता है।

जब गुणसूत्र विभाजित होकर अपनी प्रतिलिपि बनाता है तो हर बार उसका अंतिम छोर, जिसे टेलोमेयर कहते हैं, थोड़ा छोटा हो जाता है। निश्चित संख्या में प्रतिलिपयां बनाने के बाद टेलोमेयर खत्म हो जाता है। टेलोमेयर के जीव विज्ञान की समझ और क्यों कैंसर कोशिकाएं मरती नहीं (टेलोमरेज़ एंजाइम की बदौलत) इसका कारण समझने में कई लोगों का योगदान है, जिसकी परिणति डॉ. एलिजाबेथ ब्लैकबर्न और कैरोल ग्राइडर के शोध कार्य में हुई थी जिसके लिए वर्ष 2009 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था।

यह बात काफी पहले ही स्पष्ट हो गई थी कि पौधों में उम्र बढ़ने का तरीका जंतुओं से अलग है। डॉ. बारबरा मैकलिंटॉक ने इसे गुणसूत्र मरम्मत का नाम दिया था। डॉ. मैकलिंटॉक को यह समझाने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था कि जीन कैसे फुदकते या स्थानांतरित होते हैं

अब हम बेहतर ढंग से जानते हैं कि उम्र बढ़ना और टेलोमेयर का व्यवहार पेड़पौधों और जंतुओं में अलगअलग तरह से होता है। जब हम किसी जंतु के जीवनकाल की बात करते हैं, तो हम उसके पूरे शरीर के जीवित रहने के बारे में बात करते हैं। किंतु पौधों में तुलनात्मक रूप से एक प्राथमिक शरीर योजना होती है। पौधे अलगअलग हिस्सों जड़, तना, शाखा, पत्ती, फूल जैसे मॉड्यूल्समें वृद्धि करते हैं।

यदि पत्तियां मर या झड़ भी जाती हैं तो बाकी का पेड़ या पौधा नहीं मरता। इसके अलावा पेड़पौधे वृद्धि में वर्धी विभाजी ऊतक (वेजिटेटिव मेरिस्टेम) का उपयोग करते हैं यानी ऐसी अविभाजित कोशिकाएं जो विभाजन करके पूरा पौधा बना सकती हैं। इसी वजह से किसी पेड़ या पौधे की एक शाखा या टहनी से नया पौधा उगाया जा सकता है या उसकी कलम किसी अन्य के साथ लगाकर अतिरिक्त गुणों वाला पौधा तैयार किया जा सकता है।

पेड़पौधों में कोशिका की मृत्यु पूरे पौधे की मृत्यु नहीं होती। इस विषय पर विएना के डॉ. जे. मेथ्यू वॉटसन और डॉ. केरल रिहा द्वारा प्रकाशित पठनीय समीक्षा टेलोमेयर बुढ़ाना और पौधे खरपतवार से मेथुसेला तक, एक लघु समीक्षाआप इंटरनेट पर मुफ्त में पढ़ सकते हैं। यह समीक्षा जेरेंटोलॉजी में अप्रैल 2010 को प्रकाशित हुई थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या डायनासौर जीभ लपलपा सकते थे? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी से डायनासौर का अस्तित्व 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हो गया था। किंतु जीव वैज्ञानिकों और जीवाश्म वैज्ञानिकों के प्रयासों से हम इनके बारे में बहुत कुछ जान पाए हैं। और ये डायनासौर अब भी हमारे बीच विज्ञान की रोचक कथाओं और एनीमेशन फिल्मों के रूप में जीवितहैं।

सभी डायनासौर प्रजातियों में सबसे बड़ा और मांसाहारी डायनासौर टायरेनोसौरस रेक्स (टी.रेक्स) रहा है। इसे आतंकी छिपकलियों का राजाभी कहा जाता है। इसमें बड़े आकार के सिर द्वारा, बेहद मज़बूत जांघों और ताकतवर पूंछ का संतुलन किया जाता था। 2011 में प्रकाशित एक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि इनमें शरीर की बनावट और उसका संतुलन इतना गज़ब का था कि अपनी विशाल काया के बावजूद टी. रेक्स 20 से 40 किलो मीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकते थे। टी. रेक्स की अगली टांगों में दोदो उंगलियां भी थी। परंतु अगली टांगें कमज़ोर थी। टांगों की कमज़ोरी की भरपाई उन्होंने जबड़ों की बेहतर पकड़ से कर ली थी। इस तरह टी. रेक्स बेहद सफल शिकारी रहे होंगे।

पर कई पिक्चरों और मॉडल्स में उनकी लपलपाती जीभ दिखाई जाती है। तो क्या वे अपनी जीभ से बर्फ के गोलों और लालीपॉप्स को चूस या चाट सकते थे, जैसे हम करते हैं। क्या वे आइसक्रीम के कोन के किनारों से बहतीटपकती आइसक्रीम को चाटने का मज़ा ले सकते थे?

वैज्ञानिकों को लगता है कि टी. रेक्स ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि उनकी जीभ काफी हद तक निचले जबड़े से जुड़ी हुई थी। हाल ही में एक नए शोध ने डायनासौर के चित्रकार एवं मॉडल बनाने वाले विशेषज्ञों की कला में खामियों की विवेचना की। एनिमेटर्स प्राय: टी. रेक्स को आधुनिक छिपकलियों के समान जीभ लपलपाते दिखाते हैं। किंतु वैज्ञानिकों को लगता है कि यह चित्र गलत है।

सरिसृप परिवार में सांप एवं कई छिपकलियां जीभ बाहर निकालकर अनेक कार्यों को अंजाम देते हैं। सभी सांपों में तो जीभ काफी लंबी तथा सिरे से द्विशाखित होती है। शिकार की गंध के कण हवा से पकड़कर लपलपाती जीभ उन्हें ऊपरी जबड़ों के समीप स्थित गंध संवेदी अंग जेकबसंस आर्गन में ले जाती है। कुछ गंध संवेदी तंत्रिकाएं इस अंग से मस्तिष्क में संदेश पहुंचा कर शिकार की पहचान बताने में मदद करती है।

केमेलियॉन जैसे गिरगिट में तो जीभ बेहद लंबी, चूषक युक्त और चिपचिपी भी हो गई है। कुछ दूर बैठे शिकार पर अचानक हमला कर उसे पकड़ने का कार्य हाथपैर के बजाय बहुत लंबी जीभ से ही बहुत कुशलता से संपन्न होता है। जीभ की मांसपेशियां ही शिकार को खींचकर जबड़ों के हवाले कर देती हैं।

कुछ रेगिस्तानी छिपकलियों में तो जीभ मुंह से बाहर निकलकर आंखों की साफ सफाई और गर्मी में थूक को माइस्चेराइज़र्स की तरह लगाने में मददगार होती है।

लेकिन भले ही उपरोक्त सभी आधुनिक सरिसृप जीभ को हवा में लहराने और अनेक कार्य करने में माहिर हैं परंतु भीमकाय टी. रेक्स ऐसा नहीं कर सकते थे। जीभ और होंठ जैसे नरम अंग जीवाश्म नहीं बन पाते और जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया में बेहद आसानी से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए वैज्ञानिकों को जीवाश्मित जीभ तो नहीं मिली परंतु जीभ को आकार देने वाली निचले जबड़े की छोटी एवं मज़बूत हड्डियों के समूह हयॉड (Hyoid) का अध्ययन अवश्य किया गया है। वैज्ञानिकों ने डायनासौर्स की हयॉड के साथ ही पक्षियों और मगरमच्छ जैसे डायनासौर के निकटतम रिश्तेदारों में भी जीभ लपलपाने की प्रवृत्ति को देखा। डायनासौर्स एवं मगरमच्छों की हयॉड हड्डियों की समानता के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला की डायनासौर्स की जीभ मगरमच्छों के समान ही निचले जबड़े के तालू में दृढ़ता से जुड़ी हुई होगी और इसका बाहर निकलना संभव नहीं रहा होगा।

कशेरुकी जीवाश्म शास्त्र की विशेषज्ञ, जैक्सन स्कूल ऑफ जियोलॉजी एवं टेक्सास विश्वविद्यालय की प्रोफेसर जूलिया क्लार्क के अनुसार अधिकांश लोग डायनासौर्स की शरीर रचना और उनकी जीवन शैली को शायद नहीं समझ पाते और उन्हें लपलपाती जीभ वाला दिखा देते हैं। चित्रकारों के मन में यह गलत धारणा बनी हुई है कि डायनासौर्स वर्तमान छिपकलियों जैसे ही थे। वास्तव में पृथ्वी पर उनके अब तक के सबसे नज़दीकी रिश्तेदार पक्षी एवं मगरमच्छ परिवार के सदस्य हैं। खास करके आधुनिक पक्षियों में तो जीभ असाधारण रूप से विविधता से भरी एवं गतिशील है। जीभ को अनेक कार्य एवं दिशाओं में मोड़ने की खूबी का मुख्य कारण जटिल हयॉड हड्डी है जो जीभ के अगले सिरे तक आधार देने का कार्य करती है।

डायनासौर एवं मगरमच्छ परिवार के सदस्यों में हयॉड एक जोड़ीदार छोटी, सरल एवं छड़ के समान संरचनाएं भर हैं। उपरोक्त दोनों ही जीवों में हयॉड उनकी पेशियों तथा संयुक्त करने वाले ऊतकों से पूरी लंबाई में आधार से जुड़ी रहती है। उड़ने वाले टाइरोसौरस एवं आधुनिक पक्षियों में भी हयॉड हड्डी एक समान लगती है। परंतु वैज्ञानिकों को लगता है कि टाइरोसौरस तथा डायनासौर का उद्विकास बिल्कुल भिन्न हुआ है। हवा में उड़ने वाले टाइरोसौरस की लपलपाती जीभ भोजन के नए प्रकार के कारण रही होगी। वैसे भी आधुनिक मगरमच्छों की काटने तथा निगलने की प्रवृत्ति में लपलपाती जीभ का कोई खास कार्य नहीं रह जाता है। इसलिए डायनासौर एवं मगरमच्छ अपने नज़दीकी रिश्तेदारों और कज़िन्स के समान जीभ को लपलपाकर चाटने की प्रक्रिया को अंजाम नहीं दे सकते थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विश्व उबलने की राह पर

ज़रा कल्पना कीजिए, आपके शहर का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया है। फुटपाथ खाली पड़े हैं, पार्क शांत हैं और दूर-दूर तक कोई इंसान दिखाई नहीं दे रहा है। दिन की तुलना में लोग रात में घर से बाहर निकलना पसंद कर रहे हैं। खेल के मैदानों में एक अजीब-सी चुप्पी है। दिन के सबसे गर्म समय में बाहर काम करने पर अघोषित प्रतिबंध लग चुका है। केवल वही लोग दिख रहे हैं जो गरीब, बेघर, असंगठित मज़दूर हैं क्योंकि उनके पास एयर कंडीशनिंग की सुविधा नहीं है।

इन्ही एयर कंडीशनिंग उपकरणों से वातावरण और गर्म हो रहा है। बढ़ते तापमान के कारण व्यवहार में और खानपान में भी बदलाव आ रहा है। बढ़ते तापमान से हमारे अंदर अधिक गुस्से की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो सकती है। बाहर लंबा समय गुज़ारना हमारी जान के लिए घातक हो सकता है।

अस्पतालों में गर्मी के कारण पैदा होने वाले तनाव, श्वसन सम्बंधी समस्याओं और उच्च तापमान के कारण मरीज़ों की संख्या ज़्यादा नज़र आ रही है। इस तापमान पर मानव कोशिकाएं झुलसने लगती हैं, रक्त गाढ़ा हो जाता है, फेफड़ों के चारों ओर मांसपेशियों की जकड़न पैदा हो जाती है और मस्तिष्क में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।

50 डिग्री सेल्सियस अब कोई अपवाद नहीं है, यह काफी तेज़ी से कई इलाकों में फैलता जा रहा है। इस वर्ष, पाकिस्तान के नवाबशाह के 11 लाख निवासियों ने 50.2 डिग्री सेल्सियस तापमान झेला। भारत में दो वर्ष पूर्व, फलोदी शहर में 51 डिग्री तामपान दर्ज किया गया था। एक सेहतमंद इंसान के लिए कुछ घंटे उमस भरा 35 डिग्री से अधिक तापमान जानलेवा साबित हो सकता है। वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी दी है कि वर्ष 2100 तक विश्व की आधी से ज़्यादा आबादी वर्ष के 20 दिन जानलेवा गर्मी की चपेट में रहेगी।

खाड़ी देश के कई शहर तो ऐसी गर्मी के आदी हो रहे हैं। बसरा (जनसंख्या 21 लाख) में दो वर्ष पूर्व 53.9 डिग्री तापमान दर्ज़ किया जा चुका है। कुवैत और दोहा शहर पिछले दशक में 50 डिग्री या उससे अधिक तापमान झेल चुके हैं। ओमान के तटीय इलाके कुरियत में, गर्मियों में रात का तापमान 42.6 डिग्री से ऊपर रहा, जो कि दुनिया में अब तक का सबसे ज़्यादा ‘न्यूनतम’ तापमान माना जाता है।

आने वाले वर्षों में मक्का शहर में होने वाली तीर्थ यात्रा भी भीषण गर्मियों के मौसम में होगी। इस तीर्थ यात्रा में लगभग 20 लाख यात्रियों का आना होता है। 50 डिग्री से अधिक तापमान के चलते यात्रियों के लिए ठंडा वातावरण तैयार करना एक बड़ी चुनौती होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए वर्ष 2022 में, कतर में होने वाले फुटबॉल विश्व कप के लिए फीफा ने फाइनल मैच गर्मियों की बजाय क्रिसमस से एक सप्ताह पहले स्थानांतरित कर दिया है। जापानी राजनेता अब 2020 टोक्यो ओलंपिक के लिए डे-लाइट सेविंग टाइम शुरू करने की चर्चा कर रहे हैं ताकि मैराथन और रेसवॉक सुबह 5 बजे शुरू करके दोपहर की गर्मी से बचा जा सके।

कई इलाके भीषण गर्मी से जूझ रहे हैं। अहमदाबाद में अस्पतालों ने विशेष वार्ड खोले हैं। ऑस्ट्रेलिया के शहरों ने बेघर लोगों के लिए मुफ्त स्विमिंग पूल उपलब्ध कराए हैं। तापमान 40 डिग्री से ऊपर होने पर स्कूलों को मैदानी खेल का समय रद्द करने के निर्देश दिए जाते हैं। कुवैत में दोपहर 12 बजे से 4 बजे के बीच बाहर काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

वर्तमान में, 354 बड़े शहरों में 35 डिग्री से अधिक औसत ग्रीष्मकालीन तापमान देखा गया है और 2050 तक यह तादाद 970 तक पहुंच जाएगी। अनुमान लगाया गया है कि चरम गर्मी को झेलने वालों की संख्या आठ गुना बढ़कर 1.6 अरब हो जाएगी।

इस साल, लॉस एंजेल्स से 50 कि.मी. दूर चिनो में 48.9 डिग्री तापमान दर्ज़ किया गया। सिडनी में 47, मैड्रिड और लिस्बन में 45 डिग्री के आसपास तापमान रहा। नए अध्ययनों से पता चलता है कि शताब्दी के अंत तक फ्रांस का उच्चतम तापमान काफी आसानी से 50 डिग्री से अधिक हो सकता है, जबकि ऑस्ट्रेलियाई शहर तो उससे भी जल्दी इस बिंदु तक पहुंच जाएंगे। इस बीच कुवैत 60 डिग्री तक पहुंच चुका होगा।

एक तरफ मज़दूर, रिक्शा चलाने वाले और खोमचे-ठेले वाले खुद को सिर से लेकर पैर तक ढांके हुए हैं ताकि इस गर्मी से अपना बचाव कर सकें। दूसरी ओर, अमीरों के लिए बात केवल एक अनुकूल वातावरण से दूसरे अनुकूल वातावरण में जाने की है, जैसे घर, कार्यालय, कार, जिम या शॉपिंग मॉल। इत तरह से, बढ़ती गर्मी ने असमानता का एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया है। गौर से देखिए, समाज ठंडे और गर्म दायरों में बंट चुका है।

घनी आबादी वाले क्षेत्रों को कैसे ठंडा रखा जाए, यह अर्बन क्लाइमेट संगोष्ठी का मुख्य एजेंडा है। जल संरक्षण, शेड और गर्मी को कम करने के अन्य उपायों के माध्यम से शहरों को गर्मी से बचाया जा सकता है। दुनिया के कई स्थानों में ऐसे प्रयास शुरू भी हो चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मल भक्षण मोल चूहिया में मातृत्व जगाता है

एक नए अध्ययन से पता चला है कि रेगिस्तानी नग्न मोल चूहों के समाज में श्रमिक अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए अपनी रानी का मल खाते हैं।

रेगिस्तानी मोल चूहे (Heterocephalus glaber) पूर्वी अफ्रीका के रेगिस्तान में भूमिगत कॉलोनी में रहते हैं। कुछ प्रजनन करने वाले नर चूहों के अलावा, कॉलोनी के शेष सदस्य अपना सारा समय भोजन के लिए कंद की तलाश, शिकारियों से बचाव और रानी के बच्चों की देखभाल में व्यतीत करते हैं। रानी के बच्चों की देखभाल करने के इस व्यवहार ने जीव विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया। आम तौर पर मादा स्तनधारियों में हार्मोन में होने वाले बदलाव मादा को अपने बच्चों की देखभाल करने को प्रवृत्त करते हैं। लेकिन इस रेगिस्तानी मोल में हार्मोन उत्पादन करने वाले सहायक प्रजनन अंग रानी के अलावा अन्य मादाओं में कभी विकसित नहीं होते। तो सवाल यह है कि फिर उनमें मातृत्व भावना कैसे पैदा होती है?

प्रोसीडिंग्स आफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, यह व्यवहार इन मोल चूहों के कुछ अजीब पहलुओं से सम्बंधित हो सकता है। जैसे मलभक्षण यानी कोप्रोफेजी। शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष प्रयोगशाला में रेगिस्तानी मोल चूहों की कॉलोनी के अध्ययन के आधार पर निकाले हैं। इस शोध कार्य में प्रजननहीन मादाओं के एक समूह ने गर्भवती रानी के मल का भक्षण किया जबकि दूसरे समूह ने ऐसी रानी के मल को खाया जो गर्भवती नहीं थी। तीसरे समूह ने एक गैरगर्भवती रानी के मल का सेवन किया जिसमें एस्ट्रोजेन हार्मोन मिलाया गया था। यह हारमोन मातृत्व व्यवहार शुरू करने के लिए जाना जाता है। देखा गया कि जिन मोल चूहों को गर्भवती रानी या हारमोन युक्त मल का सेवन करवाया गया था उनके मलमूत्र में अन्य चूहों की तुलना में ज़्यादा एस्ट्रोजेन पाया गया। अर्थात मोल रानियां अन्य मादा मोल चूहों में मल के माध्यम से मातृत्व जगाती हैं। यह रणनीति जंतु जगत में अद्वितीय प्रतीत होती है। (स्रोत फीचर्स)

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