स्मार्टफोन के क्लिक से रंग बदलते कपड़े – डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

पी.जी. वुडहाउस के प्रशंसकों को याद होगा कि ऑन्ट डहलिया कहानी के नायक बर्टी वूस्टर को उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका मिलेडीज़ बुडवारके लिए  “what the well dressed man is wearing” (बनेठने आदमी ने क्या पहना है?) विषय पर लेख लिखने को राज़ी कर लेती हैं। यह बात 1920 के दशक की है और तब लोगों के पास फुरसत के पल भी थे। पर आज, लगभग 100 साल बाद, भागदौड़ भरा समय है। और हाल ही में साइंस न्यूज़ नामक पाक्षिक पत्रिका ने फैशन फॉरवर्ड आधुनिक वस्त्र उद्योग परिधानों में गैजेट्स लगा सकेगानामक एक लेख प्रकाशित किया है। इसकी लेखक मारिया टेमिंग और मारियाह क्वांटानिला हैं।

मारिया और मारियाह ने अपने इस लेख में आने वाले समय में गैजेट से लैस स्मार्टकपड़ों के बारे में लिखा है। उन्होंने अमेरिका में हुई तकनीकी बैठक में कई डेवलपर्स और अन्वेषकों द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण दिए हैं। लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

रंग बदलते कपड़े

साठसत्तर साल पहले ब्लीडिंग मद्रासकहलाने वाली शर्ट बिकती थी। यह हर धुलाई पर रंग बदलती थी (और रंग हल्का पड़ता जाता था)। पर यहां जिन कपड़ों के बारे में बात की जा रही है वे धोने पर नहीं बल्कि रोशनी (सूरज वगैरह की रोशनी) पड़ने पर रंग बदलते हैं और यह बदलाव पलटा जा सकता है। इसके लिए पहनने वाले को अपने स्मार्टफोन के स्क्रीन को क्लिक करना होता है। पर यह रंग बदलता कैसे है?

दरअसल इन कपड़ों को बनाने के लिए ऐसे धागों का उपयोग किया जाता है जिनमें तांबे के अत्यंत पतले तार पॉलीस्टर (या नायलॉन) में लिपटे होते हैं। पॉलीस्टर के रेशों पर रंजक (पिगमेंट) होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सामान्य कपड़ों पर होते हैं। परिधान इन्हीं रंजक युक्त धागों से बनाए जाते हैं, और इन परिधानों पर छोटी बैटरी भी लगी होती है। यह बैटरी धागे में लिपटे तांबे के तार को गर्म करती है। परिधान पहना व्यक्ति अपने स्मार्टफोन से एक वाईफाई सिग्नल भेजता है, तो बैटरी चालू हो जाती है और तांबे का तार गर्म होने लगता है। इसके चलते कपड़े का रंग बदल जाता है या कपड़े पर नया पैटर्न (धारियां, चौखाने वगैरह) उभर आता है। अमेरिका स्थित सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. जोशुआ कॉफमैन और डॉ. अयमान अबॉरेड्डी द्वारा बनाए ये कपड़े, बैग और अन्य चीज़ें जल्द ही बाज़ार में पहुंच जाएंगी।

गुजरात और राजस्थान की महिलाएं वहां की पारंपरिक पोशाक लहंगा या घाघरा पहनती हैं, इनमें छोटेछोटे कांच जड़े होते हैं। जब इन कांच के टुकड़ों पर रोशनी पड़ती है तो ये चमकते हैं। पर अब जल्द ही इन कपड़ों का हाईटेक संस्करण आएगा जिनमें कपड़ों पर पारंपरिक निर्जीव कांच की जगह जलतेबुझते एलईडी लगे होंगे जो प्रकाश उत्सर्जित करेंगे। इन एलईडी को शोधकर्ताओं ने ओएलईडी का नाम दिया है। ये ओएलईडी पॉलीस्टर कपड़े पर ही बनाए जाते हैं और परंपरागत एलईडी की तुलना में कहीं अधिक लचीले होते हैं। इसे दक्षिण कोरिया के डीजॉन में कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉ. एस. क्वोन और उनके सहयोगियों ने विकसित किया है। स्मार्टफोन से विद्युत सिग्नल भेजकर इन ओएलईडी को चालू करके कपड़ों को रोशन किया जा सकता है। इस तरह कपड़ों पर पैटर्न, संदेश वगैरह बनाए जा सकते है या रात में पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए रोशनी की जा सकती है।

तेज़ चाल से चलने या दौड़ने के बाद हमें गर्मी लगती है चलनेफिरने से ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसी तरह कुछ देर धूप में खड़े रहने पर भी हमें गर्मी लगती है, उर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा गर्मी के रूप में खो जाती है। इस तरह गर्मी के माध्यम से ऊर्जा खोने की बजाय क्या हम इस गर्मी या शरीर की गति को विद्युत उर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं? इस सवाल पर स्टैनफोर्ड और जॉर्जिया टेक विश्वविद्यालय के डॉ. जून चेन और डॉ. झोंग लिन वांग ने काम किया है। उन्होंने कपडों में फोटोवोल्टेइक तार गूंथ दिए। इन तारों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने पर वे सोलर सेल की तरह, कुछ मात्रा में बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। इस बिजली को कपड़ों में लगी बैटरी में स्टोर किया जा सकता है। डॉ. चेन का कहना है कि आपकी टीशर्ट पर सौर सेल कपड़े का 4 सेमी × 5 सेमी टुकड़ा सिल दिया जाए, और आप सूर्य की रोशनी में दौड़ें तो एक सेलफोन चार्ज करने लायक बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सोचिए अगर आपने पूरी तरह इस कपड़े से बनी शर्ट या जैकेट पहनी हो तब!

डॉ. चेन ने एक और विशेष प्रकार के पॉलीमर या बहुलक (जिसे पीटीएफई कहा जाता है) से कपड़ा तैयार किया है। यह शरीर की गति से उत्पन्न उर्जा को सोखता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। मारिया और मारियाह लिखती हैं: इस तरह के ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र तंबुओं में भी लगाए जा सकते हैं। इन पर सूरज की रोशनी पड़ने या हवा के चलने पर ये शिविर में रहने वाले लोगों के उपकरणों को चार्ज कर सकते हैं।

मारिया और मारियाह का यह लेख इंटरनेट पर (https://www.sciencenews.org/article/future-smart-clothes-could-pack-serious-gadgetry) मुफ्त में उपलब्ध है और अत्यंत पठनीय है। लेख में और भी ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया गया है जो इस तरह के उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण की ऊर्जा को विद्युत उर्जा में परिवर्तित करके संग्रहित कर उसका उपयोग करते हैं।

हल्केफुल्के सेल फोन

कुछ लोग भारी भरकम सेलफोन संभालने के बजाए कलाई में पहने जाने वाले फोन उपयोग करना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग लैपटॉप की जगह स्मार्टफोन का उपयोग करने लगे हैं। (हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. मार्टिन चाफी ने हैदराबाद में तीन अलगअलग व्याख्यान दिए। व्याख्यान से जुड़ी स्लाइड, फिल्में वगैरह लैपटाप में नहीं स्मार्टफोन में थीं। पहनने योग्य उपकरण (कम्प्यूटर तक) तेज़ी से लोकप्रिय और सुविधाजनक हो जाएंगे। इन्हें अब आपके कपड़ों में लगे उपकरणों की मदद से चार्ज किया जा सकेगा। तो देखते हैं, अगले साल का फैशन क्या होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घोड़ा फुर्र-फुर्र क्यों करता रहता है? – अरविंद गुप्ते

ह सब जानते हैं कि घोड़े समय-समय पर नाक से फुर्र-फुर्र की आवाज़ निकालते हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करते हैं इसके बारे में जानकारों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग मानते हैं कि वे केवल अपनी नाक साफ करने के लिए ऐसा करते हैं – जैसा इंसान करते हैं। कुछ अन्य लोग मानते हैं कि यदि घोड़ा दुखी या नाराज़ हो तो वह ऐसी आवाज़ करता है। तीसरा समूह मानता है कि घोड़ा खुश होने पर फुर्र-फुर्र करता है।

हाल में फ्रांस के रेने विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है। कुछ घोड़े हमेशा समूहों में खुले चरागाहों में रहते हैं जबकि सवारी के काम आने वाले घोड़े हमेशा संकरे अस्तबलों में अकेले रहते हैं। खुली हवा में रहने वाले घोड़े अधिक बार फुर्र-फुर्र की आवाज़ करते हैं। अध्ययन में शामिल 48 घोड़ों को अस्तबल से चारागाह में ले जाया गया और उनके फुर्र-फुर्र करने की संख्या गिनी गई। यह देखा गया कि अस्तबल की तुलना में खुली हवा में घोड़े अधिक बार फुर्र-फुर्र करते हैं। इसके विपरीत, खुली हवा में रहने वाले घोड़े अस्तबल में रखे जाने पर कम बार फुर्र-फुर्र करते थे। घोड़ों के ‘मूड’का एक अन्य लक्षण उनके कानों की स्थिति होती है। खुश होने पर उनके कान सामने की ओर झुके होते हैं।

इससे पहले एक अध्ययन घोड़ों की एक-दूसरे को पहचानने की क्षमता पर किया गया था। समूह में रहने वाले 24 घोड़ों को इस अध्ययन में शामिल किया गया। एक घोड़े के सामने से उसके अपने समूह के एक परिचित घोड़े को एक अवरोध के पीछे से निकाला गया। दस सेकंड के बाद उस घोड़े को उसी या किसी दूसरे घोड़े की हिनहिनाहट की रिकार्डिंग सुनाई गई। जब आवाज़ उस घोड़े की आवाज़ से मेल नहीं खाती थी जिसे उसने देखा था तो प्रयोग वाला घोड़ा चौंक गया और आवाज़ की दिशा में अधिक समय तक देखता रहा, मानो कह रहा हो कि मैंने इसे देखा तो था लेकिन इसकी आवाज़ को क्या हुआ? इससे यह संकेत मिलता है कि हर घोड़े की हिनहिनाहट अलग होती है और वे एक दूसरे को आवाज़ से पहचान लेते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एयर कंडीशनर में परिवर्तन से ऊर्जा बचत की उम्मीद – आदित्य चुनेकर

र्जा मंत्रालय देश में एयर कंडीशनिंग का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री सेल्सियस करने की योजना बना रहा है। इससे क्या हासिल होगा तथा इसमें और क्या किया जा सकता है? डिफॉल्ट से आशय है कि यदि आप छेड़छाड़ नहीं करेंगे तो एयर कंडीशनर 24 डिग्री सेल्सियस पर काम करेगा।

सलाह क्या है?

उर्जा मंत्रालय (एमओपी) ने घोषणा की है कि वह एयर कंडीशनर निर्माताओं और हवाई अड्डों, होटल, शॉपिंग मॉल और सरकारी भवन जैसे प्रतिष्ठानों को यह सलाह जारी करने वाला है कि वे एयर कंडीशनिंग का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री सेल्सियस पर सेट रखें।

मंत्रालय के अनुसार, एयर कंडीशनर (एसी) के तापमान की सेटिंग में एक डिग्री की वृद्धि से बिजली की खपत में 6 प्रतिशत की कमी आती है। इसके अलावा, यह दावा भी किया गया है कि यदि सभी उपयोगकर्ता एसी की तापमान सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस पर रखते हैं, तो भारत में बिजली की खपत 20 अरब युनिट कम हो जाएगी। यह भारत की कुल बिजली खपत का लगभग 1.5 प्रतिशत है। लेकिन यह सलाह वास्तव में काम कैसे करेगी?

सबसे पहले, 24 डिग्री सेल्सियस के डिफॉल्ट तापमान सेटिंग के महत्व पर चर्चा करते हैं। अपने घरों के अंदर लोग किस तापमान पर आराम महसूस करते हैं यह व्यक्तिगत पसंद का मामला है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) की राष्ट्रीय भवन संहिता (एनबीसी) विभिन्न तापमान सेटिंग्स की सलाह देता है जिससे विभिन्न प्रकार की इमारतों में रहने वालों को ऊष्मीय आराम प्राप्त होता है। एनबीसी के अनुसार, लोग केंद्रीय वातानुकूलित इमारतों में 23-26 डिग्री सेल्सियस पर, मिश्रित शैली की इमारतों में 26-30 डिग्री सेल्सियस पर और गैरवातानुकूलित इमारतों में 29-34 डिग्री सेल्सियस पर आराम महसूस करते हैं। मिश्रित शैली इमारतों में, एसी आवश्यकता अनुसार चालूबंद किया जाता है। हालांकि तापमान की ये सीमाएं मात्र संकेतक के रूप में हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि लोग 26-32 डिग्री सेल्सियस पर आराम महसूस करते हैं। इसलिए, 24 डिग्री सेल्सियस गर्मी से राहत के लिए एक ठीकठाक सीमा है तथा इससे भी ऊंचा तापमान निर्धारित किया जा सकता है।

क्या हासिल होगा?

रूम एयर कंडीशनर का उपयोग घरों, छोटी दुकानों और छोटे कार्यालयों में किया जाता है। इस तरह के एसी के सभी निर्माता नए डिफॉल्ट सेट करने पर सहमत हैं। फिलहाल, अधिकांश एसी पहली बार चालू करने पर 18-20 डिग्री सेल्सियस से शुरू होते हैं। उसके बाद कभी भी चालू करने पर अंतिम बार सेट किए गए तापमान पर चालू होते हैं। इस सलाह के बाद, एसी हमेशा 24 डिग्री सेल्सियस पर चालू होंगे। चालू करने के बाद उपयोगकर्ता तापमान को बढ़ा या घटा सकते हैं। लेकिन अगली बार चालू करने पर सेटिंग वापिस डिफॉल्ट पर आ जाएगी। यानी यदि कोई उपभोक्ता एसी का उपयोग 20 डिग्री सेल्सियस पर करना चाहे तो हर बार एसी चालू करने के बाद उसे 20 डिग्री सेल्सियस पर लाना होगा। उम्मीद की जाती है कि इससे उपभोक्ता डिफॉल्ट तापमान के प्रति जागरूक होंगे और शायद वे अपना व्यवहार बदलकर थोड़े ऊंचे तापमान सेटिंग से काम चलाने लगेंगे। हालांकि, जो उपभोक्ता पहले से ही 24 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर एसी का उपयोग कर रहे हैं, उन पर इसका विपरीत असर हो सकता है और हो सकता है कि वे अब कम तापमान पर एसी सेट करने लगें। इस समस्या का एक समाधान यह हो सकता है कि अगली बार का डिफॉल्ट तापमान केवल तभी सेट हो जब अंतिम तापमान सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस से कम रही हो। यदि एसी का उपयोग 24 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा की सेटिंग पर किया गया है, तो वह उसी तापमान सेटिंग से शुरू हो सकता है।

क्रियान्वयन एजेंसी, ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई), हर 4-5 महीने में क्रियान्वयन के सर्वेक्षण की योजना बना रही है और फिर इस प्रणाली को अनिवार्य बना दिया जाएगा। इस सर्वेक्षण में लोगों के व्यवहार को समझने और आदर्श डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आराम और बिजली में बचत दोनों सुनिश्चित करे।

सेंट्रल एसी सिस्टम पर असर

हवाई अड्डे, होटल, अस्पताल और बड़े कार्यालय सेंट्रल एयर कंडीशनिंग सिस्टम का उपयोग करते हैं। इन अनुप्रयोगों में बचत की संभवाना और निश्चितता अधिक होती है क्योंकि इन स्थानों पर तापमान सेटिंग बहुत कम (18-21 डिग्री सेल्सियस) निर्धारित होती है। केंद्रीय रूप से नियंत्रित होने की वजह से इनमें डिफॉल्ट तापमान को नियंत्रित करना और बनाए रखना तुलनात्मक रूप से आसान है। ऊर्जा मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति से यह बात स्पष्ट नहीं है कि सरकार इन प्रतिष्ठानों के साथ डिफॉल्ट तापमान सेटिंग की सूचना देने और निगरानी करने की क्या योजना बना रही है। इसके क्रियान्वन के लिए जापान का कूल बिज़कार्यक्रम एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। 2005 की गर्मियों में, जापान सरकार ने पुस्तकालयों और सामुदायिक केंद्रों जैसे सभी कार्यालयों और सार्वजनिक इमारतों से एयर कंडीशनर को 28 डिग्री सेल्सियस पर रखने को कहा था। कर्मचारियों को आराम से रहने के लिए सूट और टाई के बजाय आरामदेह ड्रेस कोड की अनुमति थी। प्रारंभ में, अभियान की आलोचना इस आधार पर की गई कि रूढ़िवादी जापानी लोग कभी भी अनौपचारिक वस्त्रों में कार्यालय नहीं जाएंगे। लेकिन जापानी सरकार ने अभियान को जारी रखा। निरंतर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होते रहे और प्रधानमंत्री समेत वरिष्ठ कैबिनेट नेताओं ने अनौपचारिक वस्त्रों में साक्षात्कार देकर उदाहरण प्रस्तुत किए। इस अभियान का अब तेरहवां वर्ष है। 2011 में, भूकंप और सुनामी के बाद जापान के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने के कारण बिजली की कमी की समस्या का समाधान करने के लिए सुपर कूल बिज़अभियान शुरू किया गया। निजी क्षेत्र ने भी सरकार के उदाहरण का पालन किया है और कई कार्यालयों के साथसाथ शॉपिंग मॉल में थर्मोस्टैट को 28 डिग्री सेल्सियस पर सेट किया गया। कर्मचारी अब टीशर्ट और शॉर्ट्स में कार्यालय जा सकते हैं। कार्यालय में तापमान कम करने के लिए पर्दों और रंगीन शीशों का उपयोग किया जाने लगा। टोकियो समाचार और मेट्रो सिस्टम में हर सुबह बिजली की अपेक्षित मांग और आपूर्ति पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। 2011 में, इस अभियान ने टोकियो क्षेत्र में लगभग 12 प्रतिशत बिजली बचाई। भारत में भी स्थानीय परिवेश के अनुकूल एक अभियान इसी तरह के परिणाम प्राप्त करने के लिए तैयार किया जा सकता है।

और क्या हो सकता है?

एयर कंडीशनर के लिए उच्च डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करना बिजली की खपत को सीमित करने के लिए एक अच्छी पहल है। हालांकि, इससे और अधिक करने की जरूरत है। भारत में लगभग 4-5 प्रतिशत घरों में ही एसी हैं। बढ़ती आय, बढ़ते शहरीकरण और बढ़ते तापमान के साथ इसमें वृद्धि की उम्मीद है। इन एसी को चलाने के लिए लगने वाली बिजली हेतु महत्वपूर्ण संसाधनों की ज़रूरत होगी और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक, पर्यावरणीय और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी मुद्दे भी उठेंगे। बड़ी समस्या तो यह है कि व्यस्ततम समय में एसी की बिजली खपत में वृद्धि होती है जिसकी वजह से ऐसे ऊर्जा संयंत्रों की आवश्यकता बढ़ जाएगी, जो व्यस्ततम समय में सर्वोच्च मांग की पूर्ति कर सकें। इस समस्या का तकाज़ा है कि एसी का उपयोग कम करने के मामले में नीतिगत हस्तक्षेप किए जाएं।

सबसे अच्छी नीति वह है जो एसी की आवश्यकता को या तो कम या बिलकुल खत्म कर दे। उच्च ऊष्मारोधक गुणों वाली निर्माण सामग्री और हवा की अच्छी आवाजाही वाली बिल्डिंग डिज़ाइन से अंदर के तापमान को कम रखा जा सकता है। नीतियों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि लोग ऐसी तापमान रोधी डिज़ाइन व निर्माण के तरीकों को अपनाएं। इसके लिए जागरूकता अभियान चलाने के अलावा ऐसी ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता के बेहतर क्रियान्वन का लक्ष्य भी होना चाहिए जिसमें तापमान रोधी डिजाइनों का उपयोग शामिल हो।

इसके बाद एसी की दक्षता में सुधार की बात आती है। बीईई में पहले से ही एसी के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम भारतीय बाज़ारों में एसी को 1 सितारा (सबसे कम ऊर्जा दक्षता) से 5 सितारा (सबसे ज़्यादा ऊर्जा दक्षता) तक रेटिंग देता है। 1 स्टार से कम ऊर्जा दक्षता वाला एसी बेचा नहीं जा सकता। दक्षता स्तर की स्टार रेटिंग समयसमय पर संशोधित होती रहती है लेकिन इनमें आगे सुधार भी किया जा सकता है। यह भी देखा गया है कि जब बीईई स्टार रेटिंग को संशोधित करता है, तो बाज़ार कम रेटिंग वाले मॉडल्स की ओर चला जाता है। वर्तमान 5 सितारा रेटेड मॉडल संशोधन के आधार पर 4 या 3 सितारा मॉडल में बदल जाते हैं और कुछ ही 5 सितारा मॉडल शेष रह जाते हैं। जिस तरह एलईडी बल्ब के मामले में किया गया था, थोक खरीद जैसी नीतियां के द्वारा अत्यधिक कुशल मॉडल को प्रोत्साहित करके इस मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है। अंत में, बीईई को रेटिंग शुदा मॉडल्स में मानकों के अनुपालन की जांच करके परिणाम मीडिया में प्रकाशित करना चाहिए। इससे कार्यक्रम की विश्वसनीयता और दृश्यता बढ़ेगी।

एसी के अलावा, छत के पंखे और रेफ्रिजरेटर जैसे अन्य उपकरण भी हैं जो भारत की कुल आवासीय बिजली खपत में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। यह खपत वर्ष 2000 से अब तक तीन गुना हो गई है। 70 प्रतिशत से अधिक घरों में गर्मी से राहत के लिए छत के पंखों का उपयोग किया जाता है। यह भारत की कुल आवासीय बिजली खपत का लगभग 18 प्रतिशत है। भारत में बेचे जाने वाले अधिकांश छत के पंखे, सबसे कुशल पंखों की तुलना में दो गुना अधिक बिजली खर्च करते हैं। वर्ष 2009 में बीईई द्वारा छत के पंखों में दक्षता रेटिंग की शुरुआत की गई और उसके बाद से इसे कभी संशोधित नहीं किया गया। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर और फ्रॉस्ट फ्री रेफ्रिजरेटर की रेटिंग को अब तक 3-4 बार संशोधित किया जा चुका है। रेफ्रिजरेटर एक खामोश पियक्कड़ है जो किसी भी घर में 25-50 प्रतिशत बिजली की खपत कर जाता है। कुछ मामलों में एक अक्षम रेफ्रिजरेटर घर के वार्षिक बिजली बिल को 4-5 हज़ार रुपए तक बढ़ा सकता है। हालांकि, एसी की तुलना में उसकी खपत के बारे में जागरूकता कम होती है। इन उपकरणों की दक्षता में सुधार लाने और उनमें बिजली की खपत को कम करने के उद्देश्य से नीतियां बनाने के लिए उनका उपयोग पैटर्न और वास्तविक बिजली खपत के डैटा की आवश्यकता होगी। प्रयास (ऊर्जा समूह) ने स्मार्ट मीटर का उपयोग करके कुछ घरों की वास्तविक बिजली खपत और चयनित उपकरणों की निगरानी करने की एक पहल शुरू की है। यह डेटा emarc.watchyourpower.org पर देखा जा सकता है। इस डैटा का उपयोग विभिन्न उपकरणों की बिजली की खपत के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने के साथसाथ इन उपकरणों की दक्षता में सुधार के लिए मानक और लेबलिंग जैसे कार्यक्रमों की बुनियादी तैयार करने के लिए किया जा सकता है।

भारत में एसी के लिए डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करना देश में भविष्य में बिजली की खपत को कम करने के लिए एक अच्छा कदम है। इससे उपभोग के बारे में सामान्य जन जागरूकता को बढ़ावा मिलेगा जिसके परिणामस्वरूप अन्य उपकरणों का भी तर्कसंगत उपयोग हो सकता है। बिजली की खपत को घटाने के प्रयासों को न केवल एसी पर बल्कि अन्य घरेलू उपकरणों, जैसे छत के पंखों और रेफ्रिजरेटरों पर भी लक्षित करना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यान के उतरने पर चांद को कितना नुकसान

हमदाबाद स्थित राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने गणना की है कि जब कोई यान चांद पर उतरता है तो चांद की सतह पर कितने गहरे गड्ढे बनते हैं और कितनी धूल उड़ती है। इस गणना का मकसद चांद को कवियों और शायरों के लिए सुरक्षित रखना नहीं बल्कि अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाना है।

एस. के. मिश्रा व उनके साथियों ने अपने शोध के परिणाम प्लेनेट स्पेस साइन्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं। जब कोई यान चंद्रमा पर (या किसी भी ग्रह पर) उतरता है तो वह खूब धूल उड़ाता है। इसके चलते गड्ढे वगैरह तो बनते ही हैं, सारी धूल जाकर यान के सौर पैनल पर जमा हो जाती है। यान के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत यही सौर पैनल होते हैं जिनकी मदद से सौर ऊर्जा का दोहन होता है। जब इन पर धूल जमा हो जाती है तो ये पैनल ठीक से काम नहीं कर पाते।

मिश्रा व उनके साथियों ने इस क्षति की गणना करने के लिए यह देखा कि उतरने से पूर्व यान कितनी देर तक सतह के ऊपर मंडराता है और कितनी ऊंचाई पर मंडराता है। इन दोनों बातों का असर यान के द्वारा उड़ाई गई धूल की मात्रा पर और धूल के कणों की साइज़ पर पड़ता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: यान के सतह से ऊपर मंडराने के समय का असर धूल की मात्रा पर पड़ता है। उनकी गणना बताती है कि यदि मंडराने की अवधि को 25 सेकंड से बढ़ाकर 45 सेकंड कर दिया जाए तो धूल की मात्रा तीन गुनी हो जाती है।

इन परिणामों के मद्देनज़र शोधकर्ताओं का सुझाव है कि चांद की सतह पर क्षति को न्यूनतम रखने के लिए बेहतर होगा कि यान के मंडराने का समय कम से कम रखा जाए। इसके अलावा, उनका यह भी मत है कि अवतरण के समय यान पर ब्रेक लगाने का काम काफी ऊंचाई से ही शुरू कर देना चाहिए और जब यान सतह से 10 मीटर की ऊंचाई पर हो तो ब्रेक लगाना बंद कर देना चाहिए या कम से कम ब्रेक लगाने चाहिए। शोधकर्ताओं के मुताबिक उनके निष्कर्ष चांद पर अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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घोड़े आपके हावभाव को याद रखते हैं

दियों से घोड़ों का इस्तेमाल विभिन्न कार्यों के लिए किया जाता रहा है। एक समय में घोड़े लड़ाई के मैदानों और सवारी का मुख्य साधन हुआ करते थे। लेकिन घोड़ों में एक और विशेष बात है। घोड़े मानव चेहरों के हावभाव याद रख सकते हैं। वे पिछली मुलाकात में आपके व्यवहार, मुस्कराने या गुस्से, के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं। 

वर्ष 2016 में पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय की लीएन प्रूप्स और ससेक्स विश्वविद्यालय के उनके सहयोगियों ने बताया था कि घोड़े इंसानों के खुश या गुस्से वाले चेहरे की तस्वीरों पर अलगअलग प्रतिक्रिया देते हैं। अब उन्होंने अध्ययन किया है कि क्या घोड़े चेहरे के हावभाव के आधार पर लोगों की स्थायी यादें भी बना सकते हैं।

इस अध्ययन के लिए उन्होंने घोड़ों को दो मानव मॉडल में से एक की तस्वीर दिखाई। दोनों मॉडल एक ही व्यक्ति के थे किंतु एक के चेहरे पर गुस्से का तथा दूसरे के चेहरे पर खुशी का भाव था। कुछ घंटों बाद मॉडल खुद तटस्थ मुद्रा में घोड़ों के सामने आया। तुलना के लिए एक और प्रयोग साथ में किया गया था। इसमें दूसरी बार व्यक्ति की बजाय एक अन्य मॉडल को ही घोड़े के सामने रखा गया था।  

घोड़े नकारात्मक और खतरनाक चीज़ों को बार्इं आंख से एवं सकारात्मक सामाजिक उद्दीपन वाली चीज़ों को दार्इं आंख से देखना पसंद करते हैं। अध्ययन में, जब घोड़ों ने मॉडल को पहले गुस्से में देखा, तो उन्होंने वास्तविक व्यक्ति को देखते समय अपनी बार्इं आंख का अधिक उपयोग किया। इसके साथ ही उन्होंने फर्श को कुरेदने और सूंघने जैसे व्यवहार भी प्रदर्शित किए जो तनाव को दर्शाते हैं। इसके विपरीत, जब उनको दिखाया गया मॉडल मुस्करा रहा था तो वास्तविक व्यक्ति के सामने आने पर उन्होंने दार्इं आंख का अधिक इस्तेमाल किया। इससे पता चलता है कि घोड़ों को याद रहा कि पहली मुलाकात में उस व्यक्ति का व्यवहार कैसा था।

वैसे पहले भी घोड़ों की अद्भुत समझदारी के बारे में काफी चर्चा हुई है। बीसवीं सदी की शुरुआत में क्लेवर हैंस नाम का एक घोड़ा अपने पैरों की टाप से गणितीय समस्याओं का हल बताया करता था। बाद में पता चला था कि घोड़े को उसका प्रशिक्षक कुछ सुराग देता था कि उसे क्या करना है। वर्तमान प्रयोग में इस तरह की कोई चालबाज़ी नहीं थी।

कई अन्य जानवरों, जैसे भेड़ और मछली में मानव चेहरों को याद रखने की क्षमता पाई गई है। जंगली कौवा वर्षों तक उन लोगों का चेहरा याद रखते हैं जिन्होंने उसके साथ बुरा व्यवहार किया हो, और यहां तक वह अन्य कौवों को भी यह बात बता देता है।

इस प्रयोग से खास बात यह पता चली है कि घोड़े केवल तस्वीरों में लोगों की अभिव्यक्ति पर आधार पर राय बना सकते हैं। प्रूप्स के अनुसार यह कुछ ऐसा है जिसे पहले जानवरों में नहीं देखा गया है।(स्रोत फीचर्स)

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चूहों में खोई याददाश्त वापस लाई गई

नुष्यों की तरह चूहों में भी स्मृति लोप होता है जिसमें में वे अपने शैशव अवस्था के अनुभवों या यादों को भूल जाते हैं। हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार चूहों में ये अनुभव पूरी तरह से नहीं मिटते बल्कि उन तक पहुंचना मुश्किल होता है। इन्हें बहाल किया जा सकता है।

19वीं शताब्दी में सिग्मंड फ्रायड के पास कुछ ऐसे मरीज़ आए जिन्हें अपने शुरुआती सालों के अनुभव या बातें याद नहीं थीं। सिग्मंड फ्रायड ने इस बीमारी को शैशव स्मृतिलोप का नाम दिया। तब से लेकर अब तक वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मनुष्यों, अन्य प्राइमेट्स और कृंतक जीवों में ऐसा क्यों होता है। क्या यह यादों के गड़बड़ भंडारण के कारण होता है या यादों के भंडार में से यादों को वापस ना उभार पाने के कारण होता है। टोरोंटो स्थित हॉस्पिटल ऑफ सिक चिल्ड्रन में कार्यरत मनोवैज्ञानिक पॉल फ्रेकलैंड और उनके साथियों ने चूहों पर इसे समझने की कोशिश की।

शोधकर्ताओं ने चूहों को शुरुआती अनुभव देने के लिए उन्हें एक बक्से में रखा और उनके पैर पर हल्का बिजली का झटका दिया। युवा चूहों ने इस अनुभव को याद रखा और दूसरी बार जब उन्हें बक्से में डाला गया तो वे तुरंत सहम गए। जबकि इसके विपरीत शिशु चूहे एक दिन बाद ही इस वाकये को भूल गए और बक्से में उन्होंने समान्य व्यवहार किया।

हमारे दिमाग में मौजूद हिप्पोकैम्पस का एक हिस्सा नई समृतियां सहेजने के लिए ज़िम्मेदार होता है। चूहों को झटका देने पर भी इस हिस्से की तंत्रिकाएं सक्रिय होती हैं। शोधकर्ताओं ने बिजली का झटका खा चुके चूहों में इस हिस्से की तंत्रिकाओं को सक्रिय करने के लिए लेज़र का उपयोग किया। ऐसा करने पर शिशु चूहों को भी बॉक्स का उनका अनुभव याद आ गया और वे सहम गए।

फ्रेंकलैंड और उनके सहयोगी, झटके के 15, 30 और 90 दिनों के बाद भी उन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने में सफल रहे। चूहों को युवावस्था तक बिजली के झटके याद रहे। जब भी उन्हें बक्से में डाला जाता वे डर जाते।

इन्हीं शोधकर्ताओं ने पहले के अध्ययन में शिशुकाल की स्मृतियां ना बचने के पीछे का कारण बताया था कि वयस्क मस्तिष्क में नई स्मृति या अनुभव बनाने के लिए हिप्पोकैम्पस में नई तंत्रिकाएं बनती हैं। ये नई तंत्रिकाएं पुरानी तंत्रिकाओं की जगह ले लेती हैं। यह अध्ययन बताता है कि युवा चूहों में अपने शैशव के अनुभव की स्मृति मिटती नहीं है, पहुचं से दूर हो जाती है।

क्या इस प्रयोग के निष्कर्षों को मनुष्य पर लागू किया जा सकता है? कई वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्यों की स्थिति थोड़ी अलग होती है और सीधेसीधे इन परिणामों को लागू करने में सावधानी रखनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और आत्महत्या का सम्बंध

हाल ही में हुए शोध में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन (बढ़ता हुआ तापमान) लोगों की आत्महत्या की प्रवृत्ति को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि आर्थिक मंदी लोगों को आत्महत्या करने के लिए उकसाती है।

मानसिक स्वास्थ्य और ग्लोबल वार्मिंग के बीच सम्बंध पर व्यापक रूप से शोध नहीं हुए हैं। किंतु हाल ही के शोध में अमेरिका और मेक्सिको में पिछले दशक में हुई आत्महत्याओं और तापमान का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में पाया गया कि औसत मासिक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के साथ अमेरिका में आत्महत्या की दर में 0.7 प्रतिशत और मेक्सिको में 2.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

शोध में मौसम में बदलाव, गरीबी के स्तर (आर्थिक स्तर) को ध्यान में रखा गया था। यहां तक कि मशहूर लोगों की आत्महत्या की खबरों का भी ध्यान रखा गया था जिनकी वजह से ज़्यादा लोग आत्महत्या कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भी किसी क्षेत्र में गर्म दिनों में ज़्यादा आत्महत्याएं हुर्इं।

अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्शल बर्क और उनके साथियों का कहना है कि यह पता करना काफी महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या की दर में फर्क पड़ता है या नहीं क्योंकि विश्व भर में अकेले आत्महत्या के कारण होने वाली मृत्यु के आंकड़े अन्य हिंसक कारणों से होने वाली मृत्यु की कुल संख्या से ज़्यादा हैं। विश्व स्तर पर यह मृत्यु 10-15 प्रमुख कारणों में से एक है। यह विश्लेषण नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या दर में मामूली बदलाव भी विश्व स्तर पर बड़ा बदलाव ला सकता है, खासकर अमीर देशों में जहां वर्तमान आत्महत्या दर वैसे ही अधिक है। दुनिया भर में हाल ही के हफ्तों में उच्च तापमान दर्ज किया गया है। जो संभवतः जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ है।

इस प्रकार के अध्ययन बढ़ते तापमान और आत्महत्या के बीच कोई कार्यकारण सम्बंध नहीं दर्शाते पर समय के साथ और अलगअलग स्थानों पर परिणामों में उल्लेखनीय स्थिरता दिखी है। यह बात भारत के संदर्भ में हुए शोध में भी दिखी है जो कहता है कि पिछले 30 सालों में भारत में 60,000 आत्महत्याओं और तापमान बढ़ने के बीच सम्बंध है।

शोधकर्ताओं ने ट्विटर पर 60 करोड़ से अधिक संदेशों का भी विश्लेषण किया और पाया कि उच्च तापमान के दिनों में लोग मायूस शब्दों (जैसे अकेलापन, उदासी, उलझे हुए) वगैरह का उपयोग अधिक करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सामान्य से गर्म दिनों के दौरान बिगड़ता है। एक संभावना यह हो सकती है कि जब शरीर गर्म परिस्थितियों में खुद को ठंडा करता है तो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह में फर्क पड़ता हो।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि मौजूदा कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन के कारण अमेरिका और कनाडा में साल 2050 तक 9,000 से 40,000 तक अतिरिक्त आत्महत्या होने की आशंका है। यह बेरोज़गारी के कारण होने वाली आत्महत्या में 1 प्रतिशत की वृद्धि से भी ज़्यादा है। शोध यह बताते हैं कि तापमान बढ़ने से हिंसा बढ़ती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में नया युग

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने हाल ही में घोषणा की है कि पृथ्वी के वर्तमान दौर को एक विशिष्ट काल के रूप में जाना जाएगा। यह होलोसीन युग का एक हिस्सा है जिसे नाम दिया गया है मेघालयन। भूगर्भ संघ के मुताबिक हम पिछले 4200 वर्षों से जिस काल में जी रहे हैं वही मेघायलन है।

भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के लगभग 4.6 अरब वर्ष के अस्तित्व को कई कल्पों, युगों, कालों, अवधियों वगैरह में बांटा है। इनमें होलोसीन एक युग है जो लगभग 11,700 वर्ष पहले शुरू हुआ था। अब भूगर्भ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि पिछले 4,200 वर्षों को एक विशिष्ट नाम से पुकारा जाना चाहिए भारत के मेघालय प्रांत से बना नाम मेघालयन।

दरअसल, भूगर्भीय समय विभाजन भूगर्भ में तलछटों की परतों, तलछट के प्रकार, उनमें पाए गए जीवाश्म तथा तत्वों के समस्थानिकों की उपस्थिति के आधार पर किया जाता है। समस्थानिकों की विशेषता है कि वे समय का अच्छा रिकॉर्ड प्रस्तुत करते हैं। इनके अलावा उस अवधि में घटित भौतिक व रासायनिक घटनाओं को भी ध्यान में रखा जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने बताया है कि दुनिया के कई क्षेत्रों में आखरी हिम युग के बाद कृषि आधारित समाजों का विकास हुआ था। इसके बाद लगभग 200 वर्षों की एक जलवायुसम्बंधी घटना ने इन खेतिहर समाजों को तहसनहस कर दिया था। इन 200 वर्षों के दौरान मिस्र, यूनान, सीरिया, फिलीस्तीन, मेसोपोटेमिया, सिंधु घाटी और यांगत्से नदी घाटी में लोगों का आव्रजन हुआ और फिर से सभ्यताएं विकसित हुर्इं। यह घटना एक विनाशकारी सूखा था और संभवत: समुद्रों तथा वायुमंडलीय धाराओं में बदलाव की वजह से हुई थी।

इस अवधि के भौतिक, भूगर्भीय प्रमाण सातों महाद्वीपों पर पाए गए हैं। इनमें मेघायल में स्थित मॉमलुह गुफा (चेरापूंजी) भी शामिल है। भूगर्भ वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के कई स्थानों से तलछट एकत्रित करके विश्लेषण किया। मॉमलुह गुफा 1290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यह भारत की 10 सबसे लंबी व गहरी गुफाओं में से है (गुफा की लंबाई करीब 4500 मीटर है)। इस गुफा से प्राप्त तलछटों में स्टेलेग्माइट चट्टानें मिली हैं। स्टेलेग्माइट किसी गुफा के फर्श पर बनी एक शंक्वाकार चट्टान होती है जो टपकते पानी में उपस्थित कैल्शियम लवणों के अवक्षेपण के कारण बनती है। संघ के वैज्ञानिकों का मत है कि इस गुफा में जो परिस्थितियां हैं, वे दो युगों के बीच संक्रमण के रासायनिक चिंहों को संरक्षित रखने के हिसाब से अनुकूल हैं।

गहन अध्ययन के बाद विशेषज्ञों के एक आयोग ने यह प्रस्ताव दिया कि होलोसीन युग को तीन अवधियों में बांटा जाना चाहिए। पहली, ग्रीलैण्डियन अवधि जो 11,700 वर्ष पहले आरंभ हुई थी। दूसरी, नॉर्थग्रिपियन अवधि जो 8,300 वर्ष पूर्व शुरू हुई थी और अंतिम मेघालयन अवधि जो पिछले 4,200 वर्षों से जारी है। अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है।

मेघालयन अवधि इस मायने में अनोखी है कि यहां भूगर्भीय काल और एक सांस्कृतिक संक्रमण के बीच सीधा सम्बंध नज़र आता है। (स्रोत फीचर्स)

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स्वायत्त जानलेवा रोबोट न बनाने की शपथ

कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र में कार्यरत कई सारे अग्रणी वैज्ञानिकों ने शपथ ली है कि वे ऐसे रोबोट-अस्त्र बनाने के काम में भागीदार नहीं होंगे जो बगैर किसी मानवीय निरीक्षण के स्वयं ही किसी व्यक्ति को पहचानकर मार सकते हैं। शपथ लेने वालों में गूगल डीपमाइंड के सह-संस्थापक और स्पेसएक्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी समेत 2400 वैज्ञानिक शामिल हैं।

इस शपथ का मुख्य मकसद सैन्य कंपनियों और राष्ट्रों को लीथल ऑटोनॉमस वेपन्स सिस्टम (जानलेवा स्वायत्त अस्त्र प्रणाली) बनाने से रोकना है। संक्षेप में इन्हें लॉस भी कहते हैं। ये ऐसे रोबोट होते हैं जो लोगों को पहचानकर उन पर आक्रमण कर सकते हैं, इन पर किसी इन्सान का निरीक्षण-नियंत्रण नहीं होता।

हस्ताक्षर करने वाले वैज्ञानिकों और उनके संगठनों का कहना है कि जीवन-मृत्यु के फैसले कृत्रिम बुद्धि से संचालित मशीनों पर छोड़ने में कई खतरे हैं। वैज्ञानिकों ने ऐसे हथियारों की टेक्नॉलॉजी पर प्रतिबंध की मांग की है जो जनसंहार के हथियारों की नई पीढ़ी बनाने में काम आ सकती है।

इस शपथ पर हस्ताक्षर अभियान का संचालन बोस्टन की एक संस्था दी फ्यूचर ऑफ लाइफ इंस्टीट्यूट कर रहा है। शपथ में सरकारों से आव्हान किया गया है कि वे जानलेवा रोबोट के विकास को गैर-कानूनी घोषित करें। यदि सरकारे ऐसा नहीं करती हैं तो हस्ताक्षरकर्ता वैज्ञानिक जानलेवा स्वायत्त शस्त्रों के विकास में सहभागी नहीं बनेंगे।

इस संदर्भ में मॉन्ट्रियल इंस्टीट्यूट फॉर लर्निंग एल्गोरिदम के योशुआ बेंजिओ का कहना है कि इस हस्ताक्षर अभियान के ज़रिए जनमत बनाने की कोशिश हो रही है ताकि ऐसे क्रियाकलापों में लगी कंपनियां और संगठन शर्मिंदा हों। उनका कहना है कि यह रणनीति बारूदी सुरंगों के मामले में काफी कारगर रही है हालांकि यूएस जैसे प्रमुख देशों ने उस मामले में हस्ताक्षर नहीं किए थे।

अधुनातन कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी से लैस रोबोट शत्रु के इलाके में उड़ान भर सकते हैं, ज़मीन पर चहलकदमी कर सकते हैं और समुद्र के नीचे निगरानी कर सकते हैं। पायलट रहित वायुयान की टेक्नॉलॉजी विकास के अंतिम चरण में है। धीरे-धीरे इन रोबोटों को इस तरह विकसित किया जा रहा है कि ये बगैर मानवीय नियंत्रण के स्वयं ही निर्णय लेकर क्रियांवित कर सकेंगे। कई शोधकर्ताओं को यह अनैतिक लगता है कि मशीनों को यह फैसला करने का अधिकार दे दिया जाए कि कौन जीएगा और कौन मरेगा। (स्रोत फीचर्स)

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अब बृहस्पति के पूरे 79 चांद हैं

दि बृहस्पति पर रहते तो कवियों-शायरों को मज़ा आ जाता या उनकी शामत आ जाती। वहां के आकाश में अब कुल 79 चांद हैं। तो चांद की उपमा देते समय स्पष्ट करना होता कि किस नंबर के चांद की बात हो रही है। खैर, वह बहस तो शायर लोग कर लेंगे पर तथ्य है कि हाल ही में खगोलवेत्ताओं ने बृहस्पति के 10 नए उपग्रह खोजे हैं और कुल संख्या 79 हो गई है। और तो और, वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी गिनती पूरी नहीं हुई है।

और बृहस्पति के चांदों की फितरत भी सामान्य नहीं है। इनका अध्ययन करके वैज्ञानिक उम्मीद कर रहे हैं कि हमें ग्रहों के बनने की प्रक्रिया को समझने में भी मदद मिल सकती है। जैसे वैज्ञानिकों के मुताबिक इतने सारे छोटे-छोटे चंद्रमाओं की उपस्थिति से लगता है कि जब करीब 4 अरब वर्ष पूर्व बृहस्पति का निर्माण हुआ था, ये उपग्रह साथ-साथ नहीं बने थे। ये बाद में टक्करों के फलस्वरूप बने होंगे।

किसी ग्रह के उपग्रह ग्रह के चक्कर लगाते हैं। आम तौर पर उनकी चक्कर लगाने की दिशा वही होती है जिस दिशा में ग्रह अपनी अक्ष पर घूर्णन कर रहा है। बृहस्पति के कई सारे चंद्रमा तो इस परिपाटी का पालन करते हैं मगर कुछ ऐसे चंद्रमा भी हैं जो उल्टी दिशा में घूम रहे हैं। इससे भी लगता है कि ये गैस के उसी बादल से बृहस्पति के साथ-साथ अस्तित्व में नहीं आए होंगे।

वैसे बृहस्पति के तीन चंद्रमा का पता तो गैलीलियो के समय में ही लग चुका था। दूरबीन से देखने पर गैलीलियो ने पाया था कि ये पिंड बृहस्पति का चक्कर काट रहे हैं। इस अवलोकन ने पहली बार इस शंका को जन्म दिया था कि शायद सारे आकाशीय पिंड पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करते हैं। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में प्रसिद्ध खगोल शास्त्री रोमर ने बृहस्पति के चंद्रमाओं के उसके पीछे छिपने और वापिस प्रकट होने का अध्ययन करके पहली बार प्रकाश की गति का अनुमान लगाया था।

कहने का मतलब है कि बृहस्पति के चंद्रमाओं का खगोल शास्त्र के इतिहास में अहम स्थान रहा है। अब यही चंद्रमा हमें ग्रहों के निर्माण की प्रक्रिया को समझने में भी मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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