8 लाख वर्षों में सर्वोच्च वायुमंडलीय कार्बन स्तर

क नई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 405 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) तक पहुंच गई। यह स्तर पिछले 8 लाख वर्षों में सर्वाधिक माना जा रहा है। यह उन वर्षों में से सबसे गर्म वर्ष रहा जिनमें एल नीनो नहीं हुआ हो। एल नीनो वास्तव में प्रशांत महासागर के पानी के गर्म होने के परिणामस्वरूप होता है। यदि सारे वर्षों में देखें, तो 1800 के दशक के बाद 2017 सबसे गर्म वर्षों में दूसरे या तीसरे नंबर पर रहेगा।

यूएस के राष्ट्रीय महासागर और वायुमंडलीय प्रशासन (एनओएए) द्वारा प्रकाशित 28वीं वार्षिक स्टेट ऑफ दी क्लाइमेट इन 2017रिपोर्ट में 65 देशों में काम कर रहे 524 वैज्ञानिकों द्वारा संकलित डैटा शामिल है। रिपोर्ट के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:

·         वर्ष 2017 में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता वर्ष 2016 के मुकाबले 2.2 पीपीएम अधिक रही। इससे पहले यह स्तर लगभग 8 लाख वर्ष पूर्व भी पहुंचा था। 8 लाख वर्ष पूर्व का यह आंकड़ा प्राचीन बर्फ कोर में फंसे हवा के बुलबुलों के विश्लेषण से प्राप्त हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी को गर्म करने वाली मुख्य गैस है।

·         पृथ्वी को गर्म करने वाली अन्य गैसों मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर भी काफी अधिक था। मीथेन का स्तर 2016 से 2017 के बीच 6.9 भाग प्रति अरब (पीपीबी) बढ़ा और 1849.7 पीपीबी हो गया। इसी प्रकार, नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर 0.9 पीपीबी बढ़कर 329.8 पीपीबी दर्ज किया गया।

·         पिछले वर्ष विश्वव्यापी कोरल ब्लीचिंग घटना का भी अंत हुआ। कोरल ब्लीचिंग समुद्री जल के गर्म होने पर होता है जिसके कारण कोरल अपने ऊतकों में रहने वाले शैवाल को छोड़ देते हैं और सफेद पड़ जाते हैं। यह अब तक की सबसे लंबे समय तक रिकॉर्ड की गई कोरलब्लीचिंग घटना थी।

·         2017 में वैश्विक वर्षा/हिमपात औसत से अधिक रहा। 1900 के बाद से इस वर्ष रूस में सबसे अधिक हिम/वर्षापात हुआ। वेनेज़ुएला, नाइजीरिया और भारत के कुछ हिस्सों में भी असामान्य बारिश और बाढ़ का अनुभव हुआ।

·         गर्म तापमान से विश्व के कई जंगली इलाकों में आग लगने की खबर सामने आई। संयुक्त राज्य अमेरिका में 40 लाख हैक्टर जंगली क्षेत्र जलने से 18 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। अमेज़न के जंगलों में 2 लाख 72 हज़ार दावानल हुए।

·         अलास्का में 6 में से 5 पर्माफ्रॉस्ट वेधशालाओं में उच्च तापमान दर्ज किया गया। पिघलता पर्माफ्रॉस्ट वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन छोड़ता है और ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दे सकता है।

·         आर्कटिक सागर के बर्फ का क्षेत्रफल 1981 से 2010 के औसत क्षेत्रफल से 8 प्रतिशत कम रहा। 2017 आर्कटिक के लिए दूसरा सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया।

·         अर्जेंटाइना, उरुग्वे, बुल्गारिया और मेक्सिको आदि देशों ने उच्च तापमान का रिकॉर्ड स्थापित किया।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अनुपस्थित रोग की दवा

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1980 में ऐलान कर दिया था कि दुनिया से चेचक का सफाया हो चुका है। चेचक से आखरी मरीज़ की मृत्यु 1978 में हुई थी। और अब एक आश्चर्यजनक आदेश के तहत चेचक के लिए एक नहीं बल्कि दो दवाइयों को मंज़ूरी मिली है। यह मंज़ूरी यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने पिछले माह दी है।

आखिर एक ऐसी बीमारी के लिए दोदो दवाइयों को मंज़ूरी क्यों दी गई है, जिसका सफाया 40 साल पहले हो चुका है। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं। जैसे एक कारण तो यह बताया जा रहा है कि हालांकि चेचक रोग का सफाया हो चुका है किंतु चेचक पैदा करने वाले वायरस का सफाया नहीं हुआ है। चेचक उन्मूलन के बाद इसके वायरस के नमूने दो जगहों पर संभालकर रख दिए गए थे। एक स्थान था यूएस में अटलांटा स्थित रोग नियंत्रण व रोकथाम केंद्र और दूसरा स्थान था रूस में नोवोसिबिर्स्क स्थित वेक्टर नामक केंद्र। यहां इस वायरस को अनुसंधान की दृष्टि से सहेजकर रखा गया है। हाल ही में पता चला था कि यूएस के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान में भी इस वायरस के नमूने रखे हुए हैं।

विश्व स्वास्थ्य सभा में इन वायरसों को नष्ट करने का मुद्दा कई बार उठा है और तारीखें भी तय की गई हैं किंतु हर बार विशेषज्ञ तारीखों को आगे बढ़वाते रहे हैं। विशेषज्ञों का तर्क है कि हो सकता है कि चेचक का वायरस मनुष्यों से रुखसत होने के बाद प्रकृति में मौजूद हो और किसी समय फिर से सिर उठाए। इसलिए इन नमूनों को रखना ज़रूरी है ताकि ज़रूरत पड़ने पर दवा या टीका बनाया जा सके। एक आशंका यह भी व्यक्त की गई है कि हो सकता है कि ममियों में या दफन कर दी गई लाशों में या बर्फ में दबे शवों में यह वायरस छिपा बैठा हो। फिर एक आशंका यह भी है कि इस वायरस का इस्तेमाल कोई आतंकी संगठन कर सकता है। ऐसा हुआ तो हमारे पास इनका नमूना होना चाहिए। और तो और, यह भी कहा जा रहा है कि हो सकता है कि कोई प्रयोगशाला इस वायरस का नए सिरे से निर्माण कर ले और वह जानबूझकर या गलती से पर्यावरण में फैल जाए।

कुल मिलाकर यह कहा जा रहा है कि एक ऐसे वायरस के खिलाफ दवा बनाना और ऐसी दवा के भंडार रखना मानवता के लिए अनिवार्य है जिसका सफाया चार दशक पूर्व किया जा चुका है। जब हमारे पास कई ऐसी बीमारियों के लिए दवाइयां नहीं हैं जो फिलहाल मौजूद हैं, तो यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बायोमार्कर देगा सिलिकोसिस की जानकारी – नवनीत कुमार गुप्ता

गातार और लंबे समय तक सिलिका धूलकणों के संपर्क में रहने से सिलिकोसिस रोग होता है। सिलिकोसिस के लक्षण सिलिका धूलकणों के संपर्क में आने के कुछ हफ्तों से लेकर कई वर्षों बाद तक प्रकट हो सकते हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 30 लाख लोग सिलिका के संपर्क में रहने का गंभीर जोखिम झेलते हैं। 95 प्रतिशत ज्ञात चट्टानों में सिलिका मुख्य रूप से पाया जाता है। यह भी देखा गया है कि खनन एवं खदानों में लगे 50 प्रतिशत से अधिक मज़दूरों पर सिलिका के संपर्क का खतरा मंडराता रहता है।

सिलिका कणों के फेफड़ों में पहुंचने पर फेफड़ों में धब्बे पड़ने लगते हैं। खांसी इसका शुरुआती लक्षण है जो सिलिका के निरंतर प्रवेश से बढ़ती जाती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सिलिकोसिस की पुष्टि के लिए पारंपरिक एक्स-रे, मेडिकल हिस्ट्री और स्टैंडर्ड लंग फंक्शन टेस्ट आवश्यक बताए हैं। दुर्भाग्यवश इन जांचों से भी इसकी पुष्टि तभी संभव हो पाती है जब रोग अंतिम चरण में पहुंच चुका होता है।

भारत में सिलिकोसिस के निदान के लिए सही ढंग से एक्स-रे को समझने में प्रशिक्षित व माहिर रेडियोलाजिस्ट की कमी मुख्य चुनौती है। इस रोग से प्रभावित लोगों के सिलिका धूलकणों के लगातार संपर्क में रहने के कारण चिकित्सकों के लिए इसकी रोकथाम और भी मुश्किल हो जाती है। यही नहीं, भारत में ज़्यादातर चिकित्सक पेशेजनित स्वास्थ्य रोगों की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित भी नही हैं।

सिलिकोसिस के रोगियों में अन्य बीमारियों, जैसे टीबी, फेफड़ों में कैंसर और जीर्ण दमा का जोखिम भी बढ़ जाता है। सिलिकोसिस के लक्षण टीबी के लक्षणों से मिलते-जुलते होने के कारण भी इसकी पहचान आसान नहीं है। टीबी रोगाणुओं की घुसपैठ के कारण सिलिकोटिक नोड्यूल्ज़ की गलत पहचान होने से भी सिलिकोसिस के रोगियों के एक्स-रे की व्याख्या करना मुश्किल हो जाता है।

कुल मिलाकर, सिलिकोसिस का जल्दी पता लगाने की कोई भी उपयुक्त निदान पद्धति उपलब्ध नहीं है। इस संदर्भ में अहमदाबाद के राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक  डॉ. कमलेश सरकार और उनकी टीम ने सिलिकोसिस के लिए एक संभावित बायोमार्कर खोजने पर शोध किया है। उन्होंने फेफड़ों की छोटी-छोटी वायु-थैलियों की कोशिकाओं में पाए जाने वाले खून में क्लब सेल प्रोटीन (cc16) की खोज की है।

भारत और अन्य देशों में अनेक बायोमार्करों पर प्रयोग हुए हैं। लेकिन इनमें से cc16 के अलावा कोई भी इस रोग विशेष से अधिक सम्बंधित नहीं था। यदि cc16 को सिलिकोसिस का पता लगाने वाले बायोमार्कर के रूप में प्रयोग किया जाए तो यह उन लोगों के लिए फायदेमंद होगा जिनमें सिलिकोसिस शुरू हो रहा है। जब सिलिका के कण फेफड़ों में प्रवेश करते हैं, तब वे फेफड़ों की कोशिकाओं को नष्ट कर देते हैं। जिससे cc16 खून में पहुंचने लगता है। cc16 के स्तर के आधार पर सिलिकोसिस की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है और इसकी रोकथाम के उपाय किए जा सकते हैं। cc16 नामक यह बायोमार्कर सिलिकोसिस निदान की वर्तमान नीति में संशोधन करने के साथ ही, ऐसे रोगियों के लिए स्वास्थ्य योजना तैयार करने का भी आधार बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय में शोध – डॉ. नटराजन पंचापकेसन

र्ष 2017, गुरुत्वाकर्षण और खगोल भौतिकी के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए काफी रोमांचक रहा। अगस्त में लीगो समूह ने घोषणाएं कीं। लीगो समूह में हैनफोर्ड और लिविंगस्टन (यूएसए) के अलावा पीसा (इटली) स्थित समूह भी शामिल हैं। लीगो का पहला अवलोकन एक ब्लैक होल के विलय का था। दूसरा अवलोकन दो न्यूट्रॉन तारों के विलय का था। दूसरे अवलोकन की सूचनाएं ऐसे उपकरणों को प्रेषित की गई थीं जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों के विभिन्न हिस्सों (रेडियो तरंगों, गामा तरगों, और प्रकाशीय तरंगों) के विभिन्न क्षेत्रों के प्रति संवेदनशील थे। आश्चर्यजनक रूप से, ये उपकरण भी घटना को देखने में सक्षम थे। इस तरह मिलेजुले डैटा की मदद से न्यूट्रॉन तारों के विलय का बेहतर विवरण प्राप्त हुआ। जैसा कि स्टीफन हॉकिंग ने बीबीसी को दिए गए अपने अंतिम साक्षात्कार में कहा था: हम अपनी आंखों या सही मायनों में अपने कानों को अभी मसल ही रहे हैं, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण तरंगों की आवाज़ ने हमें अभी जगाया है।

यह लगभग ऐसा था जैसे प्रकृति ने खुद इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों की हिचकिचाती सोच की पुष्टि कर दी हो। यह एहसास कुछ हद तक वैसा ही था जैसा तब हुआ था जब 1965 में पेन्ज़ियास और विल्सन ने ब्राहृांडीय सूक्ष्म तरंग पृष्ठभूमि विकिरण (सीएमबीआर) की खोज की थी। इस खोज के साथ गैमोव, एल्फर और हरमन के वे परिणाम अचानक सही साबित हो गए थे जिन्हें अटकलबाज़ी माना जा रहा था।

न्यूट्रॉन तारों की खोज 1967 में बर्नेल और हेविश ने की थी। चूंकि ये तारे नियमित समयअंतराल पर ऊर्जापुंज (पल्स) उत्सर्जित कर रहे थे इसलिए उन्हें पल्सरनाम दिया गया। हम अभी भी विस्तार से पल्स उत्सर्जन की क्रियाविधि नहीं समझ पाए हैं। हालांकि, 50 साल बाद हम यह समझ गए हैं कि उनका आपस में विलय कैसे होता है।

2015 में, ब्लैक होल विलय ने विश्वेश्वरा के ब्लैक होल के क्वासीनॉर्मल मोड्स की गणना को सही साबित कर दिया था। जिस समय उन्होंने ये गणनाएं की थीं उससमय तक कोई भी ब्लैक होल के अस्तित्व में विश्वास तक नहीं करता था।

वास्तव में गुरुत्वाकर्षण तरंग के विस्थापन प्रोटॉन के आकार की तुलना में बहुत छोटे होते हैं। इसलिए जो कुछ हम देख पा रहे हैं, उसे लेकर हमारे अंदर बेचैनी उत्पन्न हो रही है। वैसे, रेडियो, प्रकाशीय और उच्च ऊर्जा संकेतों का एक साथ अवलोकन इस बात की पुष्टि करता है कि न्यूट्रॉन तारों के विलय के दौरान गुरुत्व तरंगें निर्मित होती हैं और वास्तव में, अब हमारे पास ब्राहृांड को देखने के लिए एक नया झरोखा है।

2015 के परिणाम (जिसके परिणामस्वरूप नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था) केवल लीगो समूह के थे, किंतु 2017 के परिणाम लीगो और वर्गो समूह के संयुक्त परिणाम थे। इसने अंतरिक्ष में उक्त घटना स्थल को अधिक सटीकता से परिसीमित करने में मदद की।

आने वाले कुछ वर्षों में भारत भी उम्मीद करेगा कि उसके पास स्वयं का लिगो (इंडिगो) हो और वह भी इस संयुक्त उपक्रम का हिस्सा बने। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज स्पष्ट रूप से अधिकांश लोगों के लिए अवलोकन का एक नया झरोखा है।

एक समानांतर विकास में, पुणे स्थित इंटर युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (आईयूसीएए) और बैंगलुरू में रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआई) तथा अन्य कुछ अन्य स्थानों के भारतीय वैज्ञानिक, दुनिया भर के हज़ारों शोधकर्ताओं के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण तरंगों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आईयूसीएए में, नार्लीकर ने शुरुआत से ही गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। धुरंधर और उनके सहयोगियों ने सिग्नल के लिए कुछ टेम्पलेट्स के उपयोग का विचार दिया, जिनकी मदद से तमाम शोर को अलग किया जा सकता था। ऑस्ट्रेलिया और यूएसए के संस्थानों के साथ भी सहयोग था। आरआरआई में, बाला अय्यर और उनके समूह ने गुरुत्वाकर्षण समीकरणों के समाधान के अध्ययन के लिए न्यूटनउपरांत विधियों का उपयोग करके तारों के विलय के परिणामों की गणना की। अय्यर को फ्रांस में डामौर और उनके समूह के साथ काम करने का मौका मिला। मैं उनके कुछ छात्रों का थीसिस परीक्षक था। मैं मासूमियत से सोचता (चिंता करता) था कि इन छात्रों को नौकरियां कहां मिलेंगी? परंतु ये वैज्ञानिक तो अब भारत में चल रहे प्रयासों के केंद्र में हैं। दी इंटरनेशनल सेंटर फॉर थिएरेटिकल साइंस अब इस क्षेत्र में एक प्रमुख केंद्र बन गया है। तरुण सौरादीप ने आईयूसीएए, पुणे समूह के साथसाथ पूरे भारत के लिए गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अनुसंधान और इंडिगो की स्थापना का ज़िम्मा उठाया है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में खगोल भौतिकी और सामान्य सापेक्षता में कुछ सक्रिय कार्यकर्ता हैं जिनमें से कई आईयूसीएए का दौरा कर चुके हैं। अतीत में वैज्ञानिक अनुसंधान में विश्वविद्यालयों ने एक प्रमुख भूमिका निभाई है। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद उनका महत्व तेज़ी से कम हो रहा है। पश्चिम में, खासकर ब्रिाटेन और यूएसए में, विश्वविद्यालय शिक्षण और अनुसंधान दोनों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। भारत में ऐसा क्यों नहीं है?

इसका एक कारण देश में अनुसंधान का निम्न स्तर हो सकता है। हालांकि, विश्वविद्यालय औसत से भी कम प्रतीत होते हैं। इसके दो व्यापक कारण हैं: एक प्रशासनिक और दूसरा शैक्षणिक। बहुत कम विश्वविद्यालयों में दूरगामी योजनाएं बनाने के लिए कोई समूह है। अक्सर कुलपति विश्वविद्यालय के बाहर से आता है और थोड़ीबहुत जानकारी के साथ ही विश्वविद्यालय के संकाय में से अपनी टीम चुनता है। लंबे समय के लिए योजनाएं बनाने में मदद करने के लिए बहुत कम संकायों के पास आवश्यक दृष्टि होती है। इसके परिणामस्वरूप निरंतरता नहीं बन पाती और एक कुलपति का पांच वर्ष का कार्यकाल मानकों को सुधारने या बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि समय पर हों और निष्पक्ष रूप से हों, तो भी नियुक्तियां लॉटरी की तरह होती हैं, जिनमें चयन उस समय उपलब्ध उम्मीदवारों में से करना होता है। दूसरा कारण शिक्षण पद्धति है, जो छात्र को उस स्तर पर जानकारी देने पर ज़ोर देती है जो उसकी उपलब्धियों से बहुत दूर है। इसके साथ, ट्यूटोरिअल वगैरह के लिए अपर्याप्त समय का नतीजा यह होता है कि अधिकांश छात्र लगभग रटने को मजबूर हो जाते हैं। छात्रों को कभी भी संतुष्टि और खुशी का अनुभव नहीं होता, जो कुछ नया समझने और इसे अपने वैश्विक दृष्टिकोण में जोड़ने से आता है। यहां तक कि आंतरिक रूप से आयोजित की जाने वाली परीक्षाएं भी वर्णनात्मक प्रश्नों पर आधारित होती हैं जिनके उत्तर देने के लिए याददाश्त से उत्तर तेज़ी से निकालने पड़ते हैं। परिणामस्वरूप हमें ऐसे छात्र मिलते हैं, जो अक्सर अंत में जाकर शिक्षक (स्कूलों से लेकर कॉलेजों के सभी स्तरों पर) बनते हैं और अपने शिक्षकों की तरह ही काम करते हैं।

इसे कैसे बदलें? मेरे विचार में हम आईआईटी जैसे संस्थानों से सबक ले सकते हैं। प्रत्येक संकाय के लिए एक गवर्निंग बॉडी हो ताकि नीतियों को निरंतरता और दिशा मिल सके। आदर्श रूप से विभागों या संकाय के डीन या प्रमुख को यह नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। हालांकि, अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रमुख की नियुक्ति के लिए वरिष्ठता का मापदंड होता है जिसके चलते उनमें नेतृत्व करने के गुण सीमित होते हैं। इस मामले में आईयूसीएए आदर्श होगा जहां बढ़िया गवर्निंग बॉडी के साथ अच्छा कार्यकारी प्रमुख होता है। निदेशक को पश्चिमी विशेषज्ञों की एक अंतर्राष्ट्रीय समिति का सहयोग प्राप्त था। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सेलेरेटर सेंटर (आईयूएसी) में संयुक्त राज्य अमेरिका के सक्रिय एनआरआई थे जो सलाह देने के साथ उनकी मदद भी कर रहे थे। अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? यूजीसी, विश्वविद्यालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार या विज्ञान अकादमियां?

वास्तव में, यूजीसी ने उपरोक्त मुद्दों पर पहले से ही कुछ अच्छा काम किया है। वास्तविकता तो यह है कि यूजीसी द्वारा इंटरयुनिवर्सिटी सेंटर (आईयूसीएए) की स्थापना की बदौलत ही विश्वविद्यालयों के मेरे जैसे लोग भी ब्राहृांड विज्ञान, गुरुत्वाकर्षण तरंगों, अष्टेकर वेरिएबल्स और क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के क्षेत्र में शामिल हो पाए थे। 1980 के दशक के अंत में पुणे में स्थापित आईयूसीएए की अध्यक्षता नार्लीकर ने की थी, जिसने केंद्र के भवन को डिज़ाइन करने के लिए प्रसिद्ध वास्तुकार चाल्र्स कोरिया को राज़ी किया था। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ उदार कलाओं का संयोजन था। यूजीसी के एक अन्य केंद्र आईयूएसी के साथ भी मैंने काम किया है। इसका नेतृत्व आईआईटी कानपुर के एक परमाणु भौतिक विज्ञानी गिरिजेश मेहता कर रहे थे। इन केंद्रों की स्थापना के लिए, यूजीसी के तत्कालीन उपाध्यक्ष रईस अहमद को संसद में यूजीसी अधिनियम संशोधन करवाना पड़ा था। यूजीसी के अध्यक्ष बनने पर यश पाल ने भी वास्तव में कई चीज़ों को आगे बढ़ाया। इन दो और इंदौर में तीसरे केंद्र के कारण ही आज विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक विशेषज्ञों से चर्चा कर सकते हैं और नवीनतम प्रगति जान सकते हैं। उनके प्रवास पूरा खर्च यूजीसी केंद्र वहन करता है।

जो छात्र हाल ही में पीएचडी प्राप्त करके अपने संस्थानों में वापस गए थे (जैसे नेपाल का मेरा छात्र), उन्होंने इन केंद्रों का दौरा किया और वहां वरिष्ठ संकाय द्वारा उन्हें सलाह भी दी गई। वहां कुछ ने टेलीस्कोप डैटा के साथ काम करना भी सीख लिया। टीआईएफआर के नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोफिज़िक्स के पुणे में होने से मदद मिलती है। गोविंद स्वरूप हमेशा विश्वविद्यालयों को याद दिलाते रहते हैं कि छात्रों और शिक्षकों को विषय और डैटा विश्लेषण के बारे में सीखने के लिए भेजें। दिल्ली विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों को इस तरह की मदद से काफी फायदा हुआ। आईयूएसी में, प्रत्येक परियोजना में विश्वविद्यालयोंकॉलेजों के शिक्षकों को शामिल करना होता था। आईयूएसी अनुप्रयोगों के लिए परमाणु वैज्ञानिकों को परिचित कर रहा है पहले संघनित पदार्थ भौतिकी में और अब जीव विज्ञान में। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के बीच इन अंतरविश्वविद्यालयीन केंद्रों के प्रभाव को और मज़बूत करने की आवश्यकता है।

हमें कचरा निपटान, नदी की सफाई, नरवाई जलाने जैसी खराब कृषि प्रथाओं, आदि के लिए अंतर्विषयक परियोजनाओं के लिए उपकेंद्र स्थापित करना चाहिए। हम इन क्षेत्रों में भारतीय विज्ञान संस्थान, आईआईटी आदि में विशेषज्ञता विकसित कर रहे हैं। अपने कैरियर के दौरान कई शिक्षक अपनी पीएचडीसमस्याओं में रुचि खो देते हैं, जिनका महत्व अब खत्म हो गया है। कुछ ही सामाजिक हितों की समस्याओं पर ध्यान देते हैं।

अंत में, अकादमियों और समितियों की भूमिका जुड़ाव और संबद्धता की समझ उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण है। दी एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया और दी इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी एंड ग्रेविटेशन ने एक समावेशी तरीके से मेरी रुचि के क्षेत्रों में उपयोगी भूमिका निभाई है। विश्वविद्यालय और कॉलेज में पी. सी. वैद्य और ए. के. रायचौधरी जैसे सक्षम शिक्षकों की उपस्थिति काफी प्रेरणादायक थी। उच्च ऊर्जा और परमाणु भौतिकी समूहों की वार्षिक या द्विवार्षिक बैठकें भी बेहद उपयोगी और कामकाजी थीं। ए. एस. दिवातिया, बी. एम. उदगांवकर और अन्य द्वारा स्थापित भारतीय भौतिकी संघ काफी महत्वाकांक्षी था, लेकिन वह अपने अमेरिकी समकक्ष की तरह विकसित नहीं हो पाया। मैं विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से अनुदान की भूमिका का भी ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसमें प्रयोगात्मक काम के अलावा दिल्ली में एस्ट्रोपार्टिकल भौतिकी में सैद्धांतिक कार्य के लिए भी एक बड़ा अनुदान (सौजन्य एन. मुकुंदा) दिया गया। राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी (एनआईआरएफ) की हालिया रिपोर्ट में कई विश्वविद्यालयों के बारे में सकारात्मक बातें कही गई हैं। हालांकि, अभी रास्ता काफी लंबा है। प्रतिभा को तलाशने और पोषित करने की बेहतर क्षमता के अलावा, सभी अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों के बीच और अधिक सहयोग की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कंप्यूटर और संस्कृत भाषा – प्रतिका गुप्ता

ह बात आम बातचीत में अक्सर उभरती है कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है और इसे वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। इस बात का काफी समर्थन किया जा रहा है। यहां तक कि कुछ प्रदेशों की सरकारों ने बच्चों के लिए संस्कृत भाषा अनिवार्य विषय कर दिया है।

कंप्यूटर एक मशीन है जो निर्देशों पर काम करती है। इसके लिए निर्देश लिखने में किसी भाषा का उपयोग किया जाता है। कंप्यूटर उस भाषा में लिखे निर्देशों को पढ़ता है और उन्हीं निर्देशानुसार काम करता है। इसलिए इन निर्देशों को सटीकता से लिखा जाना ज़रूरी है।

कंप्यूटर उपयुक्त भाषा

कंप्यूटर की भाषा संदर्भमुक्त होनी चाहिए। संदर्भमुक्त भाषा यानी किसी निर्देश, वाक्य या शब्द का अर्थ संदर्भ पर आधारित ना हो। हम जो भाषा बोलते उसमें कई बार किसी वाक्य या शब्द का अर्थ इससे निकालते हैं कि वे किस बारे में कहा जा रहा है (जैसे सोना, हवा में उड़ना, उसको चमका देना वगैरह)। मशीन के लिए संदर्भ समझकर उस हिसाब से निर्देश लागू करना मुश्किल है और इसमें गड़बड़ियों की संभावना ज़्यादा है। इसलिए भाषा ऐसी हो जिसका अर्थ समझने के लिए किसी संदर्भ का उपयोग ना करना पड़े। सिर्फ वाक्य ही अपने आप में पूरा और एकमेव अर्थ व्यक्त करे। अर्थात एक वाक्य का एक ही अर्थ होना चाहिए।

कंप्यूटर जब निर्देशों को पढ़ता है तो पूरा वाक्य एक साथ पढ़कर मतलब समझने की बजाय उसे तोड़ता है। उसके वाक्य विन्यास को पढ़ता है और अर्थ निकालता है। भाषा ऐसी होना चाहिए कि उसके वाक्यों को तोड़ने पर उसका अर्थ ना बदले। कंप्यूटर इसे आसानी से पढ़कर निर्देशित कार्य कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की मदद से सामान्य भाषा की बातों को इस रूप में बदला जाएगा जिसे कंप्यूटर समझ सके। यह काम इंसानों को करना होगा। अत: कंप्यूटर की भाषा सीखने में आसान होनी चाहिए ताकि कोई भी इसे सीख सके और काम कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की एक विशेषता यह भी होगी उस भाषा के अक्षर मेमोरी में कम जगह घेरते हों। ज़्यादा जगह मतलब ज़्यादा कीमत। और ज़्यादा जगह घेरने वाली भाषा कार्य को पूरा करने का समय भी बढ़ा सकती है।

दुनिया में बोली जाने वाली समस्त भाषाएं (प्राकृतिक भाषाएं) संदर्भ आधारित हैं। यानी वाक्यों या शब्दों का अर्थ संदर्भ से निकलता है। इसलिए भाषा सम्बंधी गड़बड़ियों से बचने के लिए, कुछ वैज्ञानिकों का मत बना कि कंप्यूटर के लिए कृत्रिम भाषा बनाई जाए।

संस्कृत भाषा

संस्कृत भी एक प्राकृतिक भाषा है। ये ऐसी पहली भाषा मानी जाती है जिसके व्याकरण को सुव्यवस्थित तरीके से लिपिबद्ध किया गया था। इसके भाषा के नियमों को व्यवस्थित करने का काम  पाणिनी ने किया था। व्याकरण को लिखने में पाणिनी ने सहायक प्रतीकोंका उपयोग किया था। जिसमें शब्दों या वाक्यों के अर्थ में दोहरापन कम से कम करने के लिए शब्दों में नए प्रत्यय लगाए।

संस्कृत भाषा वाक्य के लगभग हर हिस्से में विभक्तियों का उपयोग करती है। यहां तक की किसी व्यक्ति, जगह के नाम के अंत में भी विभक्ति का सम्बंधित रूप का होता है। जिससे पता चलता है कि वह वाक्य में कर्ता है या कर्म। इसलिए संस्कृत में शब्द का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी वाक्य में तीन शब्द हैं तो उन्हें लिखने के 6 संभावित क्रम होंगे (जैसे बुद्धम् शरणम् गच्छामि, इसे बुद्धम् गच्छामि शरणम् या शऱणम् गच्छामि बुद्धम् लिखा जा सकता है)। इसी तरह किसी वाक्य में 4 शब्द हैं तो उसको 24 संभावित क्रमों में लिखा जा सकता है। और इनमें से किसी भी तरीके से लिखने पर उस वाक्य का अर्थ नहीं बदलता। विभक्ति के उपयोग से सीमित शब्दों में वाक्य पूरा हो जाता है। पर सिर्फ संस्कृत ही ऐसी अकेली भाषा नहीं है ऐसी और भी भाषाएं हैं। जैसे लैटिन की यही स्थिति है।

संस्कृत और कंप्यूटर

फिलहाल संस्कृत देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इसमें स्वर या व्यंजन मेमोरी में स्टोर होने के लिए 2 बाइट की जगह लेते हैं। स्वर या व्यंजनों से मिलकर बने अक्षर 4 से 8 बाइट तक की जगह घेरते हैं। जबकि लैटिन में एक अक्षर एक बाइट की जगह लेता है। उदाहरण के तौर पर लैटिन में लिखे Sanskritमें 8 अक्षर हैं इसे स्टोर करने में 8 बाइट लगेंगे। वहीं देवनागरी में संस्कृतलिखने में 18 बाइट लगेंगे। यानि संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा बनाने से मेमोरी में स्टोरेज बढ़ेगा जो शायद कंप्यूटर के निर्देश पूरे करने में लगने वाले समय को बढ़ा दे और कंप्यूटर की लागत को भी।

कंप्यूटर की भाषा सीखनेसमझने में सरल होनी चाहिए। किंतु दुनिया में बहुत ही कम लोग हैं जो संस्कृत भाषा का उपयोग करते हैं, बोलचाल में तो शायद उतने भी नहीं करते।

संस्कृत में वाक्यों या शब्दों के संदर्भ आधारित होने की संभावना कम है पर एक प्राकृतिक भाषा होने के नाते संस्कृत पूरी तरह से संदर्भ मुक्त भाषा नहीं है। इन बातों को देखते हुए तो संस्कृत कंप्यूटर के लिए इतनी उपयुक्त भाषा नहीं लगती।

कैसे उठी संस्कृत की बात

80 के दशक में वैज्ञानिक कंप्यूटर के लिए बेहतर कृत्रिम भाषा बनाने जुटे हुए थे। जिसमें बोलचाल की भाषा की अस्पष्टताएं ना हो। कंप्यूटर के लिए कुछ कृत्रिम भाषाएं जैसे कोबोल, लिस्प, सी पहले ही बन चुकीं थी। इस संदर्भ में अमरीकी कंप्यूटर वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में एक पेपर प्रकाशित किया। इस पेपर में उन्होंने प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर उपयोग करने के बारे में लिखा। इसमें उन्होंने संस्कृत को केस स्टडी के रूप में लिया। उन्होंने बताया कि कैसे संस्कृत का ढांचा बेहतर है और संस्कृत भाषा नियमबद्ध है और ये नियम स्पष्ट हैं। ये नियम कृत्रिम भाषा के नियमों के काफी करीब हैं। चूंकि संस्कृत में शब्दों के स्थान बदलने से उसके अर्थ पर फर्क नहीं पड़ता इसलिए कंप्यूटर में वाक्यों को तोड़ने और उसे क्रम में जमाने की समस्या कम आएगी। उन्होंने प्राचीन व्याकरण लिखने वालों के तरीकों का अध्ययन किया और ये सुझाव दिया कि प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के लिए उपयोग किया जा सकता है। किंतु इस पेपर की सिर्फ कुछ बातों को लिया गया और यह मान लिया गया कि संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है।

यदि इस शोरगुल के चलते संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया भी जाए तो क्या यह इतना आसान होगा? वर्तमान में एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने के लिए ही बेहतर सॉफ्टवेयर नहीं हैं तो पूरे मौजूदा तंत्र को संस्कृत भाषा के तंत्र में बदलना क्या आसान होगा? संस्कृत भाषा को जानने वाले लोग कम बहुत कम हैं। क्या इतने बड़े पैमाने पर नए लोगों को भाषा सिखाने, प्रोग्राम, सॉफ्टवेयर बनाने के लिए पर्याप्त समूह जुटा पाएंगे?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आइंस्टाइन एक बार सही साबित हुए

क तारा आकाशगंगा के मध्य में स्थित एक ब्लैक होल के नज़दीक से गुज़रते हुए आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत को और पुष्ट कर गया। s2 नामक इस तारे के अवलोकन की रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल फिज़िक्स के राइनहार्ड गेंज़ेल और उनकी अंतर्राष्ट्रीय टीम ने एस्ट्रॉनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स नामक जर्नल में प्रकाशित की है। इस टीम में जर्मनी, नेदरलैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्विटज़रलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के वैज्ञानिक शामिल थे।

ऐसे ही अवलोकन एक और टीम ने भी किए हैं। एंड्रिया गेज़ के नेतृत्व में कार्य रही इस दूसरी टीम ने कहा है कि वे अपने आंकड़े व निष्कर्ष कुछ समय बाद प्रकाशित करेंगे क्योंकि उन्हें कुछ और अवलोकनों का इंतज़ार है।

गेंज़ेल की टीम के सारे अवलोकन चिली स्थित युरोपियन दक्षिणी वेधशाला में स्थापित एक विशाल दूरबीन से किए गए। दरअसल तारा s2 आकाशगंगा के मध्य में स्थित एक ब्लैक होल की परिक्रमा करता है। इसे यह परिक्रमा करने में पूरे 16 साल लगते हैं। गेंज़ेल की टीम इस तारे को 1990 के दशक से देखती आ रही है। जब यह तारा ब्लैक होल के नज़दीक आया तो इसका वेग 7600 किलोमीटर प्रति सेकंड हो गया, जो प्रकाश के वेग का लगभग 3 प्रतिशत है।

गौरतलब है कि उक्त ब्लैक होल आकाशगंगा का सबसे भारी-भरकम पिंड है। यह हमसे 26,000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर धनु तारामंडल में स्थित है और इसका द्रव्यमान हमारे सूर्य से 40 लाख गुना ज़्यादा है। यह ब्लैक होल आकाशगंगा में सबसे सशक्त गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र उत्पन्न करता है।

जब तारा च्2 ब्लैक होल के सबसे नज़दीक था उस समय किए गए अवलोकनों से पता चला कि इस तारे से उत्सर्जित प्रकाश की आवृत्ति में कमी आई। दूसरे शब्दों में इसके प्रकाश में लाल-विचलन या रेडशिफ्ट देखा गया। आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत का यही निष्कर्ष था कि जब कोई प्रकाश उत्सर्जित करता पिंड सशक्त गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होगा तो उसके प्रकाश में लाल-विचलन होना चाहिए। पिछले दो दशकों के अवलोकन आइंस्टाइन की इस भविष्यवाणी को सही साबित कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक्स और स्कूल में बिताए वर्ष

हाल ही में सम्पन्न एक अध्ययन में यह देखने की कोशिश की गई है कि किसी व्यक्ति के जीन्स और स्कूली शिक्षा के बीच क्या सम्बंध है। इस अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता सदर्न कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डेनियल बेंजामिन ने कहा है कि इसके परिणामों को बहुत सावधानीपूर्वक समझने की ज़रूरत है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने शोध पत्र के साथ इस विषय पर कुछ आम सवालों के जवाब भी दिए हैं।

पिछले पांच वर्षों में बेंजामिन और उनकी टीम ने यह समझने की कोशिश की है कि मानव जीनपुंज में कौनसी भिन्नताओं का सम्बंध इस बात से है कि आप कितने वर्षों की स्कूली शिक्षा हासिल करेंगे। 2013 में उनकी टीम ने युरोपीय मूल के 1 लाख से ज़्यादा लोगों के आनुवंशिक पदार्थ (डीएनए) का विश्लेषण करके पाया था कि मात्र तीन जेनेटिक भिन्नताएं स्कूली शिक्षा के वर्षों को प्रभावित करती हैं। इसके बाद 2016 में उन्होंने अपने अध्ययन का साइज़ तिगुना किया और 71 और भिन्नताएं पहचानीं।

इस टीम ने ऐसा ही अध्ययन अब युरोपीय मूल के 11 लाख लोगों पर किया है और इस बार उन्हें 1271 शिक्षासम्बंधी भिन्नताएं मिली हैं। टीम ने गणित में दक्षता और दिमागी क्षमता के परीक्षणों से जुड़े जीन्स भी देखे हैं। टीम का कहना है कि उन्होंने शिक्षा के जीन्सकी खोज नहीं की है बल्कि उपरोक्त में से कई जीन्स गर्भस्थ व नवजात शिशु में सक्रिय होते हैं और उनमें तंत्रिकाओं व मस्तिष्क की अन्य कोशिकाओं के निर्माण को और उनके द्वारा बनाए जाने वाले रसायनों तथा नई सूचनाओं के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को प्रभावित करते हैं।

टीम ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने ऐसा कोई जीन नहीं खोजा है जो स्कूल में बने रहने के वर्षों का निर्धारण करता है। और तो और, टीम के मुताबिक ये सारे जीन्स मिलकर भी लोगों के शैक्षिक भाग्य का निर्धारण नहीं करते। जब उन्होंने उपरोक्त 1271 जीन भिन्नताओं के आधार पर एक बहुजीन स्कोर बनाया तो उसके आधार पर स्कूली शिक्षा के वर्षों की मात्र 11 प्रतिशत व्याख्या हो पाई।

शोधकर्ताओं का कहना है कि उनके इन परिणामों की व्याख्या सामाजिकआर्थिक संदर्भों में तथा वर्तमान शिक्षा प्रणाली के संदर्भों में की जानी चाहिए। उनका अध्ययन बच्चों को छांटने का नहीं बल्कि शिक्षा प्रणाली में सुधार का आधार बनना चाहिए। उदाहरण के लिए उनका कहना है कि आज से कुछ दशक पहले यदि ऐसा अध्ययन किया जाता तो पता चलता कि एक्स और वाय गुणसूत्र की उपस्थिति स्कूली शिक्षा का निर्धारण करती है। गौरतलब है कि दो एक्स गुणसूत्र हों तो लड़की और एक एक्स व एक वाय गुणसूत्र होने पर लड़का बनता है। इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि लड़के स्कूली शिक्षा में लड़कियों की तुलना में ज़्यादा अनुकूल हैं। इसके आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि पूर्व में समाज का गठन इस प्रकार हुआ था कि लड़कियों की शिक्षा को बहुत कम महत्व दिया जाता था। इसी तरह आज कुछ जीन्स शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण नज़र आ रहे हैं, तो इसलिए कि शिक्षा व्यवस्था उन जीन्स को ज़्यादा महत्व देती है। (स्रोत फीचर्स)

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मल-जल के विश्लेषण से नशीली दवाइयों की निगरानी

चीन में वैज्ञानिक और पुलिस मिलकर नशीली दवाइयों के उपयोग व उनकी रोकथाम की निगरानी करने के लिए मल-जल (सीवेज) के नमूनों की जांच का सहारा ले रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तरीका काफी कारगर हो सकता है और अन्य देशों में भी अपनाया जा सकता है। इस तरीके में किया यह जाता है कि मल-जल के नमूनों में नशीली दवाइयों और उनके विघटन से बने रसायनों की जांच की जाती है।

उदाहरण के लिए, चीन के दक्षिणी शहर ज़ोंगशान में नशीली दवाओं के सेवन को कम करने के लिए चलाए जा रहे एक कार्यक्रम की सफलता को जांचने के लिए इस तरीके का उपयोग किया गया है। इस विधि को मल-जल आधारित तकनीक कहा जा रहा है। ज़ोंगशान पुलिस द्वारा इसकी मदद से नशीली दवाइयों के एक निर्माता को गिरफ्तार भी किया गया है।

वैसे बेल्जियम, नेदरलैंड, स्पेन और जर्मनी जैसे कई अन्य देशों में भी इस तकनीक के अध्ययन चल रहे हैं। किंतु इन देशों में इस तकनीक का उपयोग मात्र आंकड़े इकट्ठे करने के लिए किया जा रहा है जबकि चीन में इन आंकड़ों के आधार पर नीतिगत निर्णय किए जा रहे हैं और कार्रवाई की जा रही है। इस सम्बंध में चीन के राष्ट्रपति ज़ी जिनपिंग का कहना है कि नशीली दवाइयों के खिलाफ युद्ध उनके देश के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है।

इस तकनीक के विभिन्न अध्ययनों में मल-जल में किसी नशीली दवा या उसके विघटन से बने पदार्थों के विश्लेषण से उभरी तस्वीर और अन्य विधियों से दवाइयों के उपयोग की तस्वीर काफी मिलती-जुलतीरही हैं। मसलन, 2016 में युरोप के आठ शहरों में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि मल-जल में उपस्थित कोकेन और दवाइयों की जब्ती से प्राप्त आंकड़ों के बीच समानता थी। अलबत्ता, ऐसा लगता है कि कुछ दवाइयों के संदर्भ में दिक्कत है। जैसे मेट-एम्फीटेमिन्स के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़े मेल नहीं खाते। बहरहाल वैज्ञानिक सहमत हैं कि मल-जल परीक्षण नशीली दवाइयों के उपयोग का ज़्यादा वस्तुनिष्ठ तरीका है।

इस संदर्भ में यह बात भी सामने आई है कि इस तकनीक का उपयोग ड्रग्स-विरोधी अभियानों के मूल्यांकन हेतु भी किया जा सकता है। जैसे, पेकिंग विश्वविद्यालय के पर्यावरण रसायनज्ञ ली ज़ीक्विंग और उनके दल ने चीन के विभिन्न स्थानों के मल-जल में दो नशीली दवाइयों – मेथ-एम्फीटेमिन और किटेमीन – का मापन किया था। यह मापन इन दवाइयों के खिलाफ चलाए गए अभियान के दो वर्ष पूरे होने पर एक बार फिर किया गया। पता चला कि मेथ-एम्फीटेमीन का उपयोग 42 प्रतिशत तथा किटेमीन का उपयोग 67 प्रतिशत कम हुआ था। (स्रोत फीचर्स)

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बीमारी की गोपनीयता पर उठे नैतिकता के सवाल

रीज़ का इलाज करते समय चिकित्सकों के कुछ दायित्व होते हैं। कुछ देशों में डॉक्टर का अपने मरीज़ के मर्ज़ को गोपनीय रखना एक महत्वपूर्ण दायित्व है, चाहे मर्ज़ कितना भी गंभीर हो।

गोपनीयता के इस दायित्व के साथ अधिकार सम्बंधी सवाल उठे हैं। जैसे यदि मरीज़ की ऐसी गंभीर आनुवंशिक बीमारी का पता चलता है जिसके उसके बच्चों में होने की संभावना हो तो इस परिस्थिति में डॉक्टर के दायित्व क्या और किसके प्रति होंगे? एक तरफ तो मरीज़ की गोपनीयता का सवाल है और दूसरी ओर मरीज़ के परिजनों को बीमारी होने की आशंका के बारे में उन्हें जानने का हक है।

साल 2013 में एक मामला सामने आया था। एक महिला ने अदालत में मुकदमा दायर किया था कि डॉक्टर ने उन्हें पिता की गंभीर आनुवंशिक बीमारी (हंटिंगटन) के बारे मे आगाह नहीं किया। उस वक्त भी नहीं जब वह गर्भवती थी। बीमारी की गंभीरता जानते हुए डॉक्टर को पिता की मर्ज़ी के खिलाफ उन्हें आगाह करना चाहिए था ताकि वे शिशु को जन्म देने के निर्णय को बदल पातीं।

2017 में यूके की एक अदालत ने कहा था कि यदि बीमारी गंभीर आनुवंशिक हो तो डॉक्टर के दायित्व का दायरा उसके परिजनों तक बढ़ जाता है। किंतु इसके चलते मरीज़ और डॉक्टर के बीच का विश्वास टूटता है। उम्मीद है कि 2019 में यह केस ट्रायल के लिए जाएगा। कोर्ट शायद यह कहे कि यदि बीमारी आनुवंशिक हो तो गोपनीयता का दायरा मरीज़ के बच्चों तक बढ़ जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो मरीज़ के परिजन मरीज़ के रिकार्ड की मांग करने लगेंगे। पिछले कई सालों में इस तरह के और भी मामले उठे हैं।

लाइसेस्टर लॉ स्कूल के लेक्चरर रॉय गिबलर और ग्रीन टेम्पटन कॉलेज के प्रोफेसर चाल्र्स फोस्टर का कहना है कि उपरोक्त फैसला ना सिर्फ मरीज़ के प्रति डॉक्टर के दायित्व को फिर से परिभाषित कर सकता है बल्कि ‘मरीज़’की परिभाषा को भी बदल सकता है।

एडिनबरा युनिवर्सिटी के चिकित्सा न्यायशास्त्र के प्रोफेसर ग्रेएम लॉरी के मुताबिक यह डॉक्टर के लिए असमंजस की स्थिति होगी कि उनकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी किसके प्रति है – मरीज़ के प्रति या उसके परिजन के प्रति। हो सकता है डॉक्टर बीमारी को सिर्फ इसलिए उजागर करें क्योंकि यह कानूनी तौर पर ज़रूरी माना जाएगा।

गोपनीयता से सम्बंधित एक अध्ययन में गंभीर आनुवंशिक बीमारी को परिजनों को बताए जाने के बारे में डॉक्टर, मरीज़ और लोगों की राय ली गई थी। देखा गया कि ज़्यादातर लोग गंभीर बीमारियों के बारे में अपने परिजनों को बता देते हैं या बताना चाहते हैं। पर कुछ लोग दोषी ठहराए जाने, ताल्लुक अच्छे ना होने, सही वक्त ना होने, साफ-साफ ना कह पाने जैसे कारणों के चलते नहीं बता पाते। एक अध्ययन में 30 प्रतिशत मरीज़ उनकी बीमारी के बारे में उनकी मर्ज़ी के खिलाफ परिजनों को बताने के पक्ष में थे जबकि 50 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इसके लिए डॉक्टर को सज़ा मिलनी चाहिए। एक अन्य अध्ययन में एक चौथाई से भी कम मरीज़ उनकी मर्ज़ी के विपरीत परिजनों के बताने के पक्ष में थे जबकि एक अन्य अध्ययन में रिश्तेदारों के नज़रिए से सोचने पर आधे से ज़्यादा लोग परिजनों को बताने के पक्ष में थे।

आनुवंशिक बीमारियो के मामले में दो अंतर्राष्ट्रीय संधियां ‘ना जानने के अधिकार’के बारे में बात करती हैं। यदि यह फैसला आता है तो उन लोगों के इस अधिकार के बारे में क्या होगा जो बीमारी होने की आशंका के बारे में नहीं जानना चाहते और बेखौफ ज़िंदगी बिताना चाहते हैं। मामला काफी पेचीदा है और निष्कर्ष आसानी से निकलने वाला नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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मंगल ग्रह के गड्ढों से उसके झुकाव की जानकारी

ह तो हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी का अक्ष या धुरी 23.5 डिग्री झुकी हुई है। इस कारण से इसके उत्तरी ध्रुव का झुकाव कभी सूरज की ओर हो जाता है तो कभी दूर हो जाता है। इस झुकाव के चलते हमें विभिन्न मौसम मिलते हैं। मंगल सहित अन्य ग्रहों की धुरियां भी झुकी हुई हैं हालांकि प्रत्येक के झुकाव का कोण अलग-अलग है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने पिछले 3.5 अरब वर्षों में मंगल के झुकाव में आए बदलाव का खुलासा किया है। इस अध्ययन के परिणामों से पता चल सकता है कि लाल ग्रह पर बर्फ कितनी बार पिघलकर पानी बना होगा।

अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने मंगल के विभिन्न कंप्यूटर मॉडल तैयार किए। प्रत्येक मॉडल में ग्रह अलग-अलग कोण पर झुका हुआ था। अब उन्होंने ग्रह के प्रत्येक मॉडल पर क्षुद्रग्रहों की बौछार की। देखा गया कि अधिक झुकाव वाले मॉडलों पर क्षुद्रग्रहों की बौछार से निर्मित अंडाकार क्रेटर बड़ी तादाद में मॉडल पर समान रूप से वितरित हुए थे। दूसरी ओर, झुकाव रहित मॉडल्स में क्षुद्रग्रहों की टक्कर के बाद अंडाकार क्रेटर भूमध्य (मंगलमध्य) रेखा के इर्द-गिर्द पाए गए। ऐसे अंडाकार क्रेटर तब बनते हैं जब कोई उल्का ग्रह की सतह से न्यून कोण पर (क्षितिज के लगभग समांतर) टकराए। यदि उल्का लंबवत गिरे या लगभग लंबवत गिरे तो क्रेटर वृत्ताकार बनता है।

अब शोधकर्ताओं ने मंगल की वास्तविक सतह पर उपस्थित 1500 से अधिक अंडाकार क्रेटर्स को देखा और उनके वितरण की तुलना मॉडलों से की। इस तुलना के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि अतीत में मंगल 10 डिग्री से लेकर 30 डिग्री के बीच झुका हुआ था। वर्तमान में यह 25 डिग्री झुका है। शोधकर्ताओं ने अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में बताया है कि अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के चलते समय के साथ मंगल के झुकाव में परिवर्तन आया है। लेकिन उनका यह भी विचार है कि पिछले कुछ अरब वर्षों में अधिक से अधिक 20 प्रतिशत समय मंगल का झुकाव 40 डिग्री से अधिक रहा होगा।

टीम के अनुसार इतने लंबे समय तक मंगल ग्रह के कम झुकाव के चलते काफी भूमिगत स्रोत सूख गए होंगे। किंतु सारे स्रोत नहीं सूखे होंगे क्योंकि मंगल पर पानी का एक भूमिगत स्रोत हाल ही में खोजा गया है।(स्रोत फीचर्स)

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