कंप्यूटर बताएगा रसायनों का विषैलापन

म रोज़ाना कई रसायनों का उपयोग करते हैं। ये रसायन औषधियों से लेकर सौंदर्य प्रसाधन सामग्री तक में इस्तेमाल किए जाते हैं। किंतु उन चीज़ों को बाज़ार में उतारने से पहले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी होता है कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है, आखों में जलन पैदा नहीं करेंगे, चमड़ी पर फुंसियां पैदा नहीं करेंगे वगैरह। और इस जांच के लिए आम तौर पर जंतुओं पर प्रयोग किए जाते हैं। लेकिन अब कंप्यूटर विशेषज्ञों ने एक ऐसी विधि तैयार की है जिसमें जंतु प्रयोगों की ज़रूरत नहीं रहेगी या बहुत कम हो जाएगी।

रसायनों की विषाक्तता की जांच आम तौर पर चूहों, खरगोशों और गिनी पिग्स (एक प्रकार का चूहा) पर की जाती है। किंतु इन जांच के परिणाम बहुत वि·ासनीय नहीं होते और ये प्रयोग बहुत महंगे भी होते हैं। नैतिकता व जंतु अधिकारों के सवाल तो इन प्रयोगों के साथ जुड़े ही हैं।

कंप्यूटर आधारित विधि का प्रकाशन थॉमस ल्यूक्टफेल्ड और साथियों ने टॉक्सिकोलॉजिकल साइन्सेज़ नामक शोध पत्रिका में किया है। यह विधि एक विशाल डैटाबेस पर आधारित है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने पिछले वर्षों में किए गए लगभग 8 लाख जंतु प्रयोगों के आंकड़े शामिल किए हैं। ये प्रयोग 10,000 रसायनों के परीक्षण से सम्बंधित हैं।

एक कंप्यूटर प्रोग्राम में ये सारे आंकड़े डाल दिए गए हैं। अब यह प्रोग्राम इनका विश्लेषण करके इन रसायनों को संरचना के आधार पर विषाक्तता के विभिन्न समूहों में रखता है। आजकल इस तरीके का उपयोग खूब हो रहा है और इसे मशीन लर्निंग कहते हैं जिसमें कंप्यूटर प्रोग्राम विशाल आंकड़ों के आधार पर पैटर्न निर्मित करता है।

इस विधि का उपयोग करते हुए शोधकर्ताओं ने कई रसायनों के जोखिमों की सही-सही भविष्यवाणी करने में सफलता प्राप्त की है। यहां तक कि उन्होंने नए रसायनों की विषाक्तता की भी भविष्यवाणी की है। अब यह कंप्यूटर प्रोग्राम व्यापारिक रूप से उपलब्ध कराने की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक उल्टी चलनी

म तौर पर चलनियां ऐसी होती हैं कि उनमें से छोटे कण तो निकल जाते हैं जबकि बड़े कण रुक जाते हैं। गेहूं, चावल की चलनी के अलावा चाय छननी भी तो यही करती है। मगर साइन्स एडवांसेज़ जर्नल में शोधकर्ताओं ने एक ऐसी चलनी का विचार पेश किया है जो इससे ठीक उल्टा काम करती है। वह बड़े-बड़े कणों को निकल जाने देती है और छोटे-छोटे कणों को रोक लेती है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के द्वारा बनाई गई यह चलनी कणों की छंटाई उनकी साइज़ के आधार पर नहीं करती बल्कि उनमें उपस्थित गतिज ऊर्जा के आधार पर करती है। जिन कणों की गतिज ऊर्जा ज़्यादा होती है वे इस चलनी को पार कर जाते हैं।

यह चलनी एक ऐसी झिल्ली है जो तरल पदार्थ से बनी है और यह तरल पदार्थ पृष्ठ तनाव नामक बल से अपनी जगह टिका रहता है। जैसे साबुन के पानी की झिल्ली बनती है। शोधकर्ताओं ने इस झिल्ली का निर्माण सोडियम डोडेसिल सल्फेट को पानी में घोलकर किया है। जब कोई अधिक गतिज ऊर्जा वाला कण इस झिल्ली से टकराता है तो वह झिल्ली को चीरकर पार निकल जाता है। पृष्ठ तनाव की वजह से कण के निकल जाने के बाद झिल्ली वापिस जुड़कर साबुत हो जाती है।

शोधकर्ताओं ने ऐसी कई झिल्लियां बनार्इं जिनके पृष्ठ तनाव अलग-अलग थे। इसके बाद इस झिल्ली पर अलग-अलग ऊंचाइयों से कांच या प्लास्टिक के मोती टपकाए गए। यह देखा गया कि अधिक ऊंचाई से गिरने वाले मोती या अधिक वज़न वाले मोती झिल्ली के पार निकल जाते हैं जबकि कम ऊंचाई से गिरने वाले या कम वज़न वाले मोती ऊपर ही अटक जाते हैं।

गौरतलब है कि किसी भी वस्तु की गतिज ऊर्जा दो बातों पर निर्भर करती हैं। पहली है उसका द्रव्यमान और दूसरी है उसकी गति। इसलिए भारी कणों को ज़्यादा ऊंचाई से गिराया जाए तो उनमें गतिज ऊर्जा ज़्यादा होती है और वे झिल्ली पर इतना बल लगा पाती हैं कि उसे चीर दें।

शोधकर्ताओं ने तरह-तरह से प्रयोग करके ऐसी झिल्ली के लिए गणितीय समीकरण भी विकसित किए हैं। उनका कहना है कि इस झिल्ली का उपयोग मच्छरों, जीवाणुओं, धूल के कणों और यहां तक कि गंध के अणुओं को रोकने में किया जा सकेगा। ऐसी झिल्ली चिकित्सा की दृष्टि से काफी उपयोगी साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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गोरैया और मनुष्य का साथ कैसे हुआ

हां-जहां मुनष्य रहते हैं, गोरैया भी रहती है। वैसे जीव वैज्ञानिकों का कहना है कि गोरैया एक पालतू जीव नहीं है किंतु मनुष्य के निकट रहती है। और वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास करते रहे हैं कि गोरैया और मनुष्य के इस साथ का राज़ क्या है।

आम तौर पर देखी जानी वाली घरेलू गोरैया (Passer domesticus) अंटार्कटिका महाद्वीप के अलावा पृथ्वी के हर हिस्से में पाई जाती है। नन्ही सी यह चिडि़या आम तौर पर घरों के आसपास, गलियों में फुदकती और मनुष्यों द्वारा छोड़े/फेंके गए भोजन को चुगते हुए दिख जाएगी। इसका हमारा साथ इतना पुराना है कि प्राचीन साहित्य में भी यह नज़र आती है।

ओस्लो वि·ाविद्यालय के मार्क रैविनेट और उनके साथियों ने गोरैया के इस व्यवहार की छानबीन जेनेटिक दृष्टि से की है और कुछ आश्चर्यजनक परिणाम प्रकाशित किए हैं। अपने अध्ययन के लिए उन्होंने युरोप और मध्य-पूर्व में पाई जाने वाली विभिन्न गोरैया प्रजातियों को पकड़ा। इनमें 46 घरेलू गोरैया, 43 स्पैनिश गोरैया, 31 इटालियन गोरैया और 19 बैक्ट्रिएनस गोरैया थीं। इन सभी के रक्त के नमूने लिए गए।

रक्त के नमूनों से डीएनए प्राप्त किया गया और फिर प्रत्येक के डीएनए में क्षारों का अनुक्रम पता लगाया गया। जब उन्होंने घरेलू गोरैया और बैक्ट्रिएनस गोरैया के डीएनए अनुक्रमों की तुलना की तो पता चला कि उनके दो जीन्स में प्रमुख रूप से अंतर होते हैं।

एक जीन तो वह था जो घरेलू गोरैया को मंड को पचाने की क्षमता प्रदान करता है। यह जीन एक एंज़ाइम एमायलेज़ का निर्माण करवाता है। यह एंज़ाइम मनुष्यों के अलावा उसके पालतू जानवर कुत्ते में भी पाया जाता है। इस जीन व उसके द्वारा बनाए गए एंज़ाइम की बदौलत घरेलू गोरैया अनाज के दानों को खाकर पचा सकती है।

दूसरा परिवर्तन ऐसे जीन में देखा गया जो खोपड़ी का आकार निर्धारित करता है। इस परिवर्तन की वजह से घरेलू गोरैया अनाज के सख्त दानों को फोड़ सकती है। अपने अध्ययन के परिणाम प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी-बी में प्रकाशित करते हुए शोधकर्ताओं ने कहा है कि वे इन जीन्स और गोरैया के व्यवहार में परिवर्तन की जांच और बारीकी से करना चाहते हैं।

जेनेटिक विश्लेषण से एक बात और सामने आई है कि घरेलू गोरैया और बैक्ट्रिएनस गोरैया एक-दूसरे से करीब 11,000 साल पहले अलग हुई थीं। यह नव-पाषाण युग का प्रारंभिक काल था और लगभग इसी समय मध्य-पूर्व में खेती की शुरुआत हुई थी। अर्थात विकास की दृष्टि से एक नया पर्यावरणीय परिवेश उभर रहा था। (स्रोत फीचर्स)

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पेड़ बड़े मगर कमज़ोर हो रहे हैं

रती का औसत तापमान बढ़ने के साथ दुनिया भर में पेड़ों को वृद्धि के लिए ज़्यादा लंबी अवधि मिलने लगी है। कहीं-कहीं तो प्रति वर्ष पेड़ों को तीन सप्ताह ज़्यादा समय मिलता है वृद्धि के लिए। यह अतिरिक्त समय पेड़ों को बढ़ने में मदद करता है। किंतु मध्य यूरोप में किए गए जंगलों के एक अध्ययन में पता चला है कि इन पेड़ों की लकड़ी कमज़ोर हो रही है जिसके चलते पेड़ आसानी से टूट जाते हैं और उनसे मिली इमारती लकड़ी उतनी टिकाऊ नहीं होती।

सन 1870 से उपलब्ध रिकॉर्ड बताते हैं कि तब से लेकर आज तक मध्य युरोप में बीचवृक्ष और स्प्रूस वृक्षों की वृद्धि में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब आम तौर पर यह लगाया जाता है कि हमें निर्माण कार्य के लिए ज़्यादा लकड़ी मिलेगी और इतनी अतिरिक्त लकड़ी के निर्माण के लिए इन वृक्षों ने वायुमंडल से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखी होगी, जिसका पर्यावरण पर सकारात्मक असर होगा।

किंतु जर्मनी के म्यूनिख विश्वविद्यालय के टेक्निकल इंस्टिट्यूट के वन वैज्ञानिक हैन्स प्रेट्ज़ और उनके साथियों को कुछ शंका थी। पूरे मामले को समझने के लिए उन्होंने वास्तविक आंकड़े जुटाकर विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने दक्षिण जर्मनी के 41 प्रायोगिक प्लॉट्स से शुरुआत की। इन प्लॉट्स के बारे में विविध आकड़े 1870 से उपलब्ध हैं। उन्होंने यहां से वृक्षों के तनों के नमूने लिए। इनमें चार प्रजातियों के वृक्ष शामिल थे। उन्होंने इन वृक्षों के वार्षिक वलयों का भी विश्लेषण किया।

अध्ययन में पाया गया कि चारों प्रजातियों में लकड़ी का घनत्व 8 से 12 प्रतिशत तक घटा है। और घनत्व कम होने के साथ-साथ लकड़ी का कार्बन प्रतिशत भी घटा है। फॉरेस्ट इकॉलॉजी एंड मेनेजमेंट में प्रकाशित इस अध्ययन के बारे में टीम का कहना है कि उन्हें घनत्व में गिरावट की आशंका तो थी किंतु उन्होंने सोचा नहीं था कि यह गिरावट इतनी अधिक हुई होगी। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि तापमान बढ़ने के साथ तेज़ी से हो रही वृद्धि इसमें से कुछ गिरावट की तो व्याख्या करती है किंतु संभवत: इस गिरावट में मिट्टी में उपस्थित बढ़ी हुई नाइट्रोजन की भी भूमिका है। प्रेट्ज़ का मत है कि यह नाइट्रोजन खेतों में डाले जा रहे रासायनिक उर्वरकों और वाहनों के कारण हो रहे प्रदूषण की वजह से बढ़ रही है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या पैदाइशी दांत चिंता का विषय है? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

दांत आना बच्चे के जीवन के पहले वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है।  पहला दांत निकलना माता-पिता एवं परिवार के लिए बेहद खुशी का अवसर होता है। कुछ संस्कृतियों में इस समय बच्चे को दूध के अलावा पहला भोजन दिया जाता है।

सामान्यत: बच्चों में दांतों का पहला जोड़ा 6 माह की उम्र में दिखता है। इन्हें कृंतक दांत कहते हैं। कुछ ही हफ्तों बाद ऊपरी चार कृंतक भी दिखने लगते हैं। इसके बाद अन्य दांत आने लगते हैं। ढाई-तीन साल में निचले जबड़े और ऊपरी जबड़े में 10-10 दांत निकल आते हैं। ये दूध के दांत कहलाते हैं। फिर 6-12 वर्ष की आयु में दूध के दांत गिरने लगते हैं तथा उनकी जगह नए तथा मज़बूत दांत ले लेते हैं। जैव-विकास के क्रम में हमारे जबड़े छोटे हुए हैं और उनमें 32 दांतों के लिए जगह नहीं बची है। इसलिए अक्सर 28 दांत ही आते हैं और कई बार तो एक के ऊपर दूसरा दांत आ जाता है।

हाल ही में एक नवजात बच्ची ने सबको आश्चर्य में डाल दिया क्योंकि 12 दिन की आयु में ही उसके निचले मसूड़े में एक दांत चमक रहा था। जन्म के समय या एक महीने के भीतर दांतों का आना एक बिरली बात है। इस प्रकार के दांतों को पैदाइशी या प्रसव दांत कहते हैं और ये 2500 में किसी एक बच्चे में देखे जाते हैं। पैदाइशी दांत जबड़ों में मज़बूती से न जुड़े होने के कारण मसूड़ों में हिलते रहते हैं। दांतों के डॉक्टर ऐसे दांतों को निकाल देते हैं क्योंकि खुद निकलकर ये सांस की नली में भी जा सकते हैं हालांकि चिकित्सा साहित्य में पैदाइशी दांत के सांस की नली में जाने का कोई उदाहरण नहीं मिलता। इसके अलावा दर्द और अड़चन के कारण बच्चे अक्सर दूध पीना छोड़ देते हैं। मां को भी दूध पिलाने में दिक्कत हो सकती है।

इंडियन जनरल ऑफ डेंटिस्ट्री में सन 2012 में छपे एक शोध के अनुसार पैदाइशी दांतों के मामले में आनुवंशिकी की भी भूमिका होती है। अगर माता-पिता, नज़दीकी रिश्तेदार या भाई-बहन में पैदाइशी दांत थे तो नवजात में इसकी संभावना 15 प्रतिशत ज़्यादा होती है। अक्सर पैदाइशी दांत पर एनेमल की मज़बूत परत भी नहीं होती है और ये पीले-भूरे रंग के होते हैं।

कई संस्कृतियों में पैदाइशी दांत को शगुन-अपशगुन माना जाता है। रोमन इतिहासज्ञ टाइटस लिवियस (ईसा पूर्व पहली सदी) ने इन्हें विनाशकारी घटनाओं का संकेत बताया था। दूसरी ओर, प्लिनी दी एल्डर नामक इतिहासकार ने पैदाइशी दांतों को लड़कों में शानदार भविष्य तथा लड़कियों में खराब घटना का द्योतक बताया था। इंग्लैंड के लोग पैदाइशी दांत वाले बच्चों को मशहूर सैनिक और फ्रांस एवं इटली में ऐसे बच्चों को भाग्यशाली मानते थे। चीन, पोलैंड और अफ्रीका में ऐसे बच्चों को राक्षस एवं दुर्भाग्य का वाहक समझा जाता था।

आजकल बेहतर इलाज की उपलब्धता के चलते पैदाइशी दांतों के आने पर बच्चों को तुरंत ही दांतों के डॉक्टर को दिखाना चाहिए और सावधानीपूर्वक बच्चे की जांच की जानी चाहिए। माता-पिता की जागरूकता बढ़ाने के लिए चिकित्सकीय परामर्र्श भी बेहद आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
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बोतलबंद पानी का कारोबार – प्रमोद भार्गव

देश में लगातार फैल रहे बोतलबंद पानी के कारोबार पर संसद की स्थाई समिति ने कई सवाल खड़े किए हैं। समिति की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि पेयजल के कारोबार से अरबों रुपए कमाने वाली कंपनियों से सरकार भूजल के दोहन के बदले में न तो कोई शुल्क ले रही है और न ही कोई टैक्स वसूलने का प्रावधान है। समिति ने व्यावसायिक उद्देश्य के लिए भूजल का दोहन करने वाली इन कंपनियों से भारी-भरकम जल-कर वसूलने की सिफारिश की है। समिति का विचार है कि इससे जल की बरबादी पर भी अंकुश लगेगा। भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी की अध्यक्षता में जल संसाधन सम्बंधी इस समिति ने अपनी रिपोर्ट लोकसभा में पेश की है।

रिपोर्ट का शीर्षक है उद्योगों द्वारा जल के व्यावसायिक दोहन के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव। इसमें केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्रालय की खूब खिंचाई की गई है। समिति ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि जनता को शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करना सरकार का नैतिक और प्राथमिक कर्तव्य है। किंतु सरकार इस दायित्व के पालन में कोताही बरत रही है।

रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने भूजल के दोहन के लिए 375 बोतलबंद पेयजल को अनापत्ति प्रमाण-पत्र दिए हैं। इसके इतर 5,873 पेयजल इकाइयों को बीआईएस से बोतलबंद पानी उत्पादन के लायसेंस मिले हैं। ये कंपनियां हर साल 1.33 करोड़ घनमीटर भूजल जमीन से निकाल रही हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि ये कंपनियां कई ऐसे क्षेत्रों में भी जल के दोहन में लगी हैं जहां पहले से ही जल का अधिकतम दोहन हो चुका है।

समिति ने सवाल उठाया है कि न तो सरकार के पास ऐसा कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड है कि वाकई ये इकाइयां कुल कितना पानी निकाल रही हैं और न ही इनसे किसी भी प्रकार के टैक्स की वसूली की जा रही है जबकि ये देशी-विदेशी कंपनियां करोड़ों-अरबों रुपए का मुनाफा कमा रही हैं और इनसे राजस्व प्राप्त करके जन-कल्याण में लगाने की ज़रूरत है। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि जनता को शुद्ध और स्वच्छ जल की आपूर्ति को केवल निजी उद्योगों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार देता है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाओं को बिंदुवार परिभाषित नहीं किया गया है। इसीलिए आज़ादी के 70 साल बाद भी पानी की तरह भोजन, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक अधिकार के दायरे में नहीं आए हैं। यही वजह रही कि 2002 में केंद्र सरकार ने औद्योगिक हितों को लाभ पहुंचाने वाली जल-नीतिपारित की और निजी कंपनियों को पेयजल का व्यापार करने की छूट दे दी गई। भारतीय रेल भी रेलनीरनामक उत्पाद लेकर बाज़ार में उतर आई।

पेयजल के इस कारोबार की शुरुआत छत्तीसगढ़ से हुई। यहां शिवनाथ नदी पर देश का पहला बोतलबंद पानी संयंत्र स्थापित किया गया। इस तरह एकतरफा कानून बनाकर समुदायों को जल के सामुदायिक अधिकार से अलग करने का सिलसिला चल निकला। यह सुविधा युरोपीय संघ के दबाव में दी गई थी। पानी को वि·ा व्यापार के दायरे में लाकर पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर एक-एक कर विकासशील देशों के जल रुाोत अंधाधुंध दोहन के लिए इन कंपनियों के हवाले कर दिए गए। इसी युरोपीय संघ ने दोहरा मानदंड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि वि·ा के अन्य देश पश्चिमी देशों में आकर पानी का कारोबार नहीं कर सकते हैं।

युरोपीय संघ विकासशील देशों के जल का अधिकतम दोहन करना चाहता है, ताकि इन देशों की प्राकृतिक संपदा का जल्द से जल्द नकदीकरण कर लिया जाए। पानी अब केवल पीने और सिंचाई का पानी नहीं रह गया है, बल्कि विश्व बाज़ार में नीला सोनाके रूप में तब्दील हो चुका है। पानी को लाभ का बाज़ार बनाकर एक बड़ी आबादी को जीवनदायी जल से वंचित करके आर्थिक रूप से सक्षम लोगों को जल उपभोक्ता बनाने के प्रयास हो रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया में देखते-देखते पानी का कारोबार 40 हज़ार 500 अरब डॉलर का हो गया है।

प्रमुख राज्यों में बोतलों में भरने के लिए भूजल निकासी           

                  

प्रांत कंपनियों  की संख्या प्रतिदिन निकासी (घन मीटर)
आंध्र प्रदेश 41 55
उत्तर-प्रदेश 111 941
गुजरात 24 —-
कर्नाटक 63 —-
तमिलनाड़ु 374 1000

 

भारत में पानी और पानी को शुद्ध करने के उपकरणों का बाज़ार लगातार फैल रहा है। देश में करीब 85 लाख परिवार जल शोधन उपकरणों का उपयोग करने लगे हैं। भारत में बोतल और पाउच में बंद पानी का 11 हज़ार करोड़ का बाजार तैयार हो चुका है। इसमें हर साल 40 से 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है। देश में इस पानी के करीब एक सौ ब्रांड प्रचलन में हैं और 1200 से भी ज्यादा संयंत्र लगे हुए हैं। देश का हर बड़ा कारोबारी समूह इस व्यापार में उतरने की तैयारी में है। कंप्यूटर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भारत में ओम्नी प्रोसेसर संयंत्र लगाना चाहते हैं। इस संयंत्र से दूषित मलमूत्र से पेयजल बनाया जाएगा।

भारतीय रेल भी बोतलबंद पानी के कारोबार में शामिल है। इसकी सहायक संस्था इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज़्म कार्पोरेशन (आईआरसीटीसी) रेल नीरनाम से पानी पैकिंग करती है। इसके लिए दिल्ली, पटना, चैन्नई और अमेठी सहित कई जगह संयंत्र लगे हैं। उत्तम गुणवत्ता और कीमत में कमी के कारण रेल यात्रियों के बीच यह पानी लोकप्रिय है। अलबत्ता, निजी कंपनियों की कुटिल मंशा है कि रेल नीर को घाटे के सौदे में तब्दील कराकर सरकारी क्षेत्र के इस उपक्रम को बाज़ार से बेदखल कर दिया जाए। तब कंपनियों को रेल यात्रियों के रूप में नए उपभोक्ता मिल जाएंगे।

वर्तमान में भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। यहां हर साल 250 घन किमी पानी धरती के गर्भ से खींचा जाता है, जो विश्व की कुल खपत के एक चौथाई से भी ज़्यादा है। इस पानी की खपत 60 फीसदी खेतों की सिंचाई और 40 प्रतिशत पेयजल के रूप में होती है। इस कारण 29 फीसदी भूजल के रुाोत अधिकतम दोहन की श्रेणी में आकर सूखने की कगार पर हैं। औद्योगिक इकाइयों के लिए पानी का बढ़ता दोहन इन रुाोतों के हालात और नाज़ुक बना रहा है। कई कारणों से पानी की बर्बादी भी खूब होती है। आधुनिक विकास और रहन-सहन की पश्चिमी शैली अपनाना भी पानी की बर्बादी का बड़ा कारण बन रहा है। 25 से 30 लीटर पानी सुबह मंजन करते वक्त नल खुला छोड़ देने से व्यर्थ चला जाता है। 300 से 500 लीटर पानी टब में नहाने से खर्च होता है। जबकि परंपरागत तरीके से स्नान करने में महज 25-30 लीटर पानी खर्चता है। एक शौचालय में एक बार फ्लश करने पर कम से कम दस लीटर पानी खर्च होता है। 50 से 60 लाख लीटर पानी मुंबई जैसे महानगरों में रोज़ाना वाहन धोने में खर्च हो जाता है जबकि मुंबई भी पेयजल का संकट झेल रहा है। 17 से 44 प्रतिशत पानी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगरों में वॉल्वों की खराबी से बर्बाद हो जाता है।

पेयजल की ऐसी बर्बादी और पानी के निजीकरण पर अंकुश लगाने की बजाय सरकारें पानी को बेचने की फिराक में ऐसे कानूनी उपाय लागू करने को तत्पर हैं। संयुक्त राष्ट्र भी कमोबेश इसी विचार को समर्थन देता दिख रहा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने पानी और स्वच्छता को बुनियादी मानवाधिकार घोषित किया हुआ है लेकिन इस बाबत उसके अजेंडे में पानी एवं स्वच्छता के अधिकार का वास्ता मुफ्त में मिलने से कतई नहीं है। बल्कि इसका मतलब यह है कि ये सेवाएं सबको सस्ती दर पर हासिल हों। साफ है, पानी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाज़ार के हवाले करने की साजि़श रची जा रही है। (स्रोत फीचर्स)
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टोकियो चिकित्सा परीक्षा: लड़कियों के अंक कम किए गए

ता चला है कि टोकियो मेडिकल विश्वविद्यालय में मेडिकल प्रवेश परीक्षा में लड़कियों के अंक व्यवस्थित रूप से कम किए गए ताकि उन्हें प्रवेश न मिल सके। महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की बातों के साथ इस प्रकार के भेदभाव को लेकर बहुत आक्रोश है।

दरअसल, वकीलों का एक दल इन आरोपों की जांच कर रहा था कि मेडिकल प्रवेश परीक्षा में शिक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के पुत्र को प्रवेश दिलवाने के लिए अंकों में हेराफेरी की गई थी। जांच के दौरान पता चला कि उपरोक्त छात्र के अंक तो बढ़ाए ही गए बल्कि कई अन्य पुरुष अभ्यर्थियों के अंक भी बढ़ाए गए। एक मामले में तो 49 अंकों की बढ़ोतरी की गई।

वकीलों की समिति को यह हैरतअंगेज़ बात भी पता चली कि अंकों में इस तरह हेराफेरी की गई थी कि लड़कियों के मुकाबले लड़कों को ज़्यादा अंक मिलें ताकि लड़कियों को प्रवेश देना ही न पड़े। विश्वविद्यालय के अधिकारियों को लगता है कि लड़कियों को प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि शादी और बच्चे हो जाने के बाद वे यह व्यवसाय छोड़ देती हैं।

जांच में स्पष्ट हुआ कि उन लड़कों के भी अंक बढ़ाए गए थे जो इसी परीक्षा में पहले एक या दो बार अनुत्तीर्ण हो चुके थे। वहीं दूसरी ओर, तीन बार अनुत्तीर्ण हो चुके लड़कों और समस्त लड़कियों के अंक नहीं बढ़ाए गए। समिति अभी यह निर्धारित नहीं कर पाई है कि इस हेराफेरी में कितनी लड़कियों का नुकसान हुआ है किंतु लगता है कि यह कारस्तानी पिछले दस सालों से चल रही थी।

जहां विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने इस दुर्भाग्यपूर्ण भेदभाव के लिए क्षमा याचना की है वहीं यह भी कहा है कि उन्हें इसके बारे में पता नहीं था। समिति का मत है कि जिन लड़कियों के साथ भेदभाव हुआ है उनकी क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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टापुओं पर निवास का विचित्र असर

हा जा रहा है कि जंतुओं के अलगथलग टापुओं पर रहने से उनकी साइज़ पर अजीबोगरीब असर होता है। और एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह असर मनुष्यों पर भी होता है।

देखा गया है कि सायप्रस पर रहने वाले हिप्पोपोटेमस घटकर सीलायन के आकार के हो गए हैं। इसी प्रकार से, इंडोनेशिया के एक टापू फ्लोर्स पर हाथियों के जो जीवाश्म मिले हैं, वे बड़े सूअर की साइज़ के थे। दूसरी ओर, वहीं रहने वाले चूहे बिल्ली के बराबर हो गए थे। ये सब तथाकथित टापू प्रभाव के उदाहरण हैं। टापू प्रभाव अलगअलग साइज़ के जंतुओं पर अलगअलग असर डालता है। जब भोजन और शिकार का अभाव होता है तो बड़े जीव सिकुड़ने लगते हैं और छोटे जीव बड़े होने लगते हैं। अब प्रिंसटन विश्वविद्यालय के जोशुआ एकी, सेरेना टुक्सी और उनके साथियों द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि टापू प्रभाव मनुष्यों को भी नहीं बख्शता।

इन शोधकर्ताओं ने फ्लोर्स टापू पर रहने वाले रैम्पासासा पिग्मी लोगों का अध्ययन किया। इनका औसत कद मात्र 145 से.मी. होता है। पहले एक प्रतिष्ठित पुरामानव वैज्ञानिक ने सुझाव दिया था कि शायद पिग्मी लोगों में कुछ जेनेटिक लक्षण पुरामानव हॉबिट से आए हैं। उनका ख्याल था कि हॉबिट एक आधुनिक मानव था। चूंकि हॉबिट की ऊंचाई कम होती थी इसलिए ऐसा मत बना था कि उनके जेनेटिक लक्षण पिग्मी लोगों में आने के परिणामस्वरूप पिग्मी लोगों की ऊंचाई भी कम होती है।

शोधकर्ताओं की टीम इसी परिकल्पना को परखना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने पिग्मी लोगों के डीएनए के नमूने प्राप्त किए। गौरतलब है कि इसकी अनुमति उन्होंने पिग्मी लोगों से ले ली थी। इन डीएन नमूनों के क्षार अनुक्रम का विश्लेषण करने पर पता चला कि इनमें और हॉबिट में कोई समानता नहीं है बल्कि पिग्मी लोग पूर्वी एशियाई लोगों के ज़्यादा करीब हैं। इनके पूर्वज फ्लोर्स टापू पर 50,000 से लेकर 5000 वर्ष पूर्व तक पूर्वी एशिया और न्यू गिनी से पहुंचे थे।

पिग्मी डीएनए के विश्लेषण से यह भी पता चला कि इनमें एक जीन का प्राचीन संस्करण मौजूद है जो एक एंज़ाइम का कोड है। यह एंज़ाइम मांस और समुद्री भोजन के वसा अम्लों को विघटित करने में मदद करता है। इसके अलावा पिग्मी जीनोम में वे जीन भी बहुतायत से पाए गए जो कद को छोटा रखने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। 

टीम का मत है कि इस विश्लेषण से लगता है कि टापू पर प्राकृतिक चयन की जो प्रक्रिया चली उसने छोटे कद के जीन्स को तरजीह दी। मतलब यह पर्यावरण के दबाव में विकास का उदाहरण है। इसी तरह के एक अन्य अध्ययन में पता चला है कि अंडमान द्वीपसमूह के टापुओं पर भी प्राकृतिक चयन ने छोटे कद को तरजीह दी है। लगता है कि अन्य जंतुओं के समान मनुष्य भी प्राकृतिक चयन का दबाव झेलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आओ तुम्हें सूरज पर ले जाएं!

चांद की लोरियां गातेगाते मनुष्य आखिर चांद पर पहुंच ही गया। और अब इच्छा और तैयारी सूरज पर जाने की है। यह तैयारी सिर्फ अवधारणा के स्तर पर नहीं बल्कि सूरज पर जाने को तैयार अंतरिक्ष यान के रूप में है।

जल्दी ही नासा का पारकर सोलर प्रोब फ्लोरिडा स्थित केनेडी स्पेस सेंटर से छोड़ा जाएगा और शुक्र ग्रह पर पहुंचेगा। शुक्र का गुरुत्वाकर्षण इसे सूरज की ओर धकेल देगा। इसके 6 सप्ताह बाद पारकर प्रोब सूरज के प्रभामंडल से टकराएगा और उसे पार कर जाएगा। प्रभामंडल दरअसल अत्यंत गर्म, आवेशित कणों का एक वायुमंडल है। अब से लेकर 2024 तक पारकर प्रोब सूरज के करीब 24 बार पहुंचेगा।

इस प्रोब का नाम सौर भौतिकविद यूजीन पारकर के नाम पर रखा गया है। पारकर ने 1958 में सौर आंधियों की बात की थी जो प्लाज़्मा कणों की एक धारा होती है और जब सूर्य सक्रिय होता है तो यह धारा सौर मंडल में दूरदूर तक पहुंचती है और हमारे कृत्रिम उपग्रहों, संचार प्रणालियों को तहसनहस करने की क्षमता रखती है। पारकर प्रोब का एक प्रमुख मकसद सौर आंधियों का अध्ययन करना है।

जब यह सूरज के इतना नज़दीक पहुंचेगा तो ज़ाहिर है इसे अत्यंत उच्च तापमान का सामना करना होगा। तापमान इतना अधिक होगा कि धातु पिघल जाए, वाष्पित हो जाए। तो इस प्रोब को सूर्य के उच्च तापमान से सुरक्षित रखने के लिए कार्बनफोम का रक्षा कवच प्रदान किया गया है। यदि सब कुछ आशा के अनुरूप चला तो पारकर प्रोब प्रभामंडल के प्लाज़्मा और वहां उपस्थित चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड पृथ्वी पर भेजेगा।

सूरज की सैर पर निकलने वाला पारकर अकेला यान नहीं है। दो अन्य यानों को भेजने की भी तैयारियां हो चुकी हैं। हवाई द्वीप पर डीकेआईएसटी दूरबीन को अंतिम रूप दिया जा रहा है। जून 2020 में यह दूरबीन सूरज की सतह के नज़दीकी चित्र खींच पाएगी।

इसी के साथ युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी भी एक सोलर ऑर्बाइटर की योजना पर काम कर रही है। यह सूरज के उतना करीब तो नहीं जाएगा जितना पारकर प्रोब पहुंचेगा किंतु काफी करीब पहुंचेगा और वहां से निकलने वाले अतिऊर्जावान विकिरण का अध्ययन करेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होंठों को पढ़ेगी कृत्रिम बुद्धि

जो लोग सुन नहीं सकते वे अक्सर होंठों की हरकत को देखकर अंदाज़ लगाते हैं कि सामने वाला क्या बोल रहा है। इसे लिप रीडिंग कहते हैं। मगर यह आसान नहीं होता और बहुत गलतियां होती हैं। अब शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धि पर आधारित लिप रीडिंग का एक प्रोग्राम बनाया है जो कहीं बेहतर परिणाम दे सकता है। उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक सरल से उपकरण के रूप में बधिरों की सहायता कर सकेगा। मगर इसे बनाना आसान नहीं रहा है।

पहले तो कंप्यूटर को लाखों घंटे के वीडियो दिखाए गए। इनमें लोग बोल रहे थे और साथ में लिखा था कि वे क्या बोल रहे हैं। इसके आधार पर कंप्यूटर को स्वयं सीखना था कि कौनसी ध्वनि के लिए होंठ कैसे हिलते हैं।

अब शोधकर्ताओं ने यूट्यूब पर उपलब्ध वीडियो में से 1 लाख 40 हज़ार घंटे का फुटेज लिया। इनमें लोग विभिन्न परिस्थितियों में बातें करते दिखाई देते हैं। इसके बाद उन्होंने इनमें से छोटेछोटे टुकड़े या क्लिप्स बनाए। प्रत्येक क्लिप में किसी एक शब्द की ध्वनि थी और उससे जुड़ी होंठों की हरकत थी। क्लिप्स मात्र अंग्रेज़ी भाषियों की ही बनाई गई थीं, और ध्वनि स्पष्ट थी तथा चित्र सामने से लिए गए थे। इन क्लिप्स में से शोधकर्ताओं ने वीडियो को इस तरह काटा कि सिर्फ मुंह दिखाई दे और शब्द सुनाई दे। इस तरह से उन्होंने 4000 घंटे का फुटेज तैयार किया जिसमें सवा लाख अंग्रेज़ी शब्द बोले गए थे। प्रत्येक क्लिप पर वह शब्द भी लिखा गया था जो उस क्लिप के होंठ बोल रहे हैं।

अब इन वीडियो क्लिप्स को एक अन्य प्रोग्राम के सामने चलाया गया। इस दूसरे प्रोग्राम को करना यह था कि होंठों की किसी भी हरकत के लिए वह संभावित शब्दों की सूची बनाए। और अंत में इन संभावित शब्दों को लेकर एक अन्य प्रोग्राम ने वाक्य बना दिए।

शोधकर्ताओं ने इस प्रोग्राम को 37 मिनट का वीडियो दिखाया और उसके द्वारा पहचाने गए शब्दों को रिकॉर्ड किया। पता चला कि कृत्रिम बुद्धि ने मात्र 41 प्रतिशत शब्दों को गलत पहचाना। aiXiv नामक वेबसाइट पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में टीम ने कहा है कि 59 प्रतिशत गलतियां बहुत ज़्यादा लगती हैं किंतु इन्हें पहले हासिल की गई उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। मसलन पूर्व में विकसित एक कंप्यूटर प्रोग्राम 77 प्रतिशत बार गलत होता था।

यदि यह कृत्रिम बुद्धि आधारित होंठ पढ़ने वाला प्रोग्राम सफल रहता है तो बधिरों के लिए काफी सुविधाजनक होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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