जलवायु पर कार्रवाई के लिए रोल-प्ले

जैसे-जैसे जलवायु संकट गहराता जा रहा है, इस पर कार्रवाई के लिए प्रभावी तरीके खोजना उतना ही अर्जेंट होता जा रहा है। इस सम्बंध में एक आशाजनक साधन रोल-प्लेइंग गेम (आरपीजी) हो सकता है। ये गेम खिलाड़ियों को एक आभासी वातावरण में जटिल स्थितियों से निपटने का काम देता है जिससे उन्हें वास्तविक दुनिया पर खतरा पैदा किए बिना अपने उपायों के दीर्घकालिक प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस सम्बंध में नेचर में सैम इलिंगवर्थ ने कुछ सुझाव प्रस्तुत किए हैं।

यथार्थ विश्व में निर्णय

यह बहुत ही दिलचस्प खेल है जिसमें आपको एक निर्णायक व्यक्ति की भूमिका में रखा जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आप एक तटीय शहर के मेयर हैं, और आपको यह तय करना है कि भविष्य में बाढ़ से बचने के लिए समुद्र की दीवार कितनी ऊंची बनाई जाए। इस निर्णय में आपको बाढ़ के जोखिम और दीवार के निर्माण की लागत के बीच संतुलन बनाना है। और वह भी यह जाने बिना कि समुद्र का स्तर कितनी तेज़ी से बढ़ेगा। ऐसे जटिल निर्णय लेने वाले परिदृश्यों को इस तरह रोल-प्ले के माध्यम से प्रभावी ढंग से समझा जा सकता है।

खेल-खेल में सीखना

‘टेराफॉर्मिंग मार्स’ (यानी मंगल का पृथ्वीकरण) जैसे खेल खिलाड़ियों को नैतिक दुविधाओं से परिचित कराते हैं। मसलन  संसाधन खर्च की प्राथमिकता अंतरिक्ष औपनिवेशीकरण हो या पृथ्वी पर समस्याओं को हल करना। इसके हर सत्र में इस बात पर तीखी बहस होती है कि मंगल जैसे किसी ग्रह पर हरित स्थानों का निर्माण करना और रहने योग्य शहर बनाना बेहतर होगा या यहां पृथ्वी की समस्याओं को दुरुस्त करना।

इसी तरह, इलिंगवर्थ ने गेम शोधकर्ता पॉल वेक और जलवायु चैरिटी पॉसिबल के साथ मिलकर ताश का एक खेल बनाया था – कार्बन सिटी ज़ीरो। इसमें प्रत्येक खिलाड़ी पहला शून्य कार्बन शहर बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते थे। लेकिन इससे मिले फीड बैक से उन्हें समझ में आया कि प्रतिस्पर्धा वाला पहलू गलत संदेश देता है तो उन्होंने इसी खेल का नया संस्करण बनाया – ‘कार्बन सिटी ज़ीरो: वर्ल्ड एडिशन’। इसमें खिलाड़ी शून्य-कार्बन शहरों का निर्माण करने के लिए सहयोग करते हैं। यह खेल जलवायु संकट से निपटने में टीमवर्क की भूमिका को उजागर करता है।

मैजिक सर्किल की शक्ति

‘मैजिक सर्कल’ आधारित गेम्स में नियम लागू होते हैं। उदाहरण के लिए, ‘डे-ब्रेक’ नामक खेल में खिलाड़ी विश्व नेताओं की भूमिका निभाते हैं जो जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए मिलकर काम करते हैं। गेम में नियम लागू होते हैं जिनमें पर्यावरणीय लक्ष्य भी निर्धारित होते हैं और दंड का प्रावधान भी होता है। जैसे यदि उत्सर्जन कम नहीं किया जाता है तो दंड यह होता है कि वैश्विक तापमान बढ़ने लगता है और समुदायों पर संकट मंडराने लगता है।

लेकिन देखा गया है कि ऐसे खेल जिनमें एक तयशुदा प्रक्रिया हो और परिदृश्य भी सीमित हों, उनमें रचनात्मक समाधानों की गुंजाइश कम होती है। इस संदर्भ में, टेबल टॉप रोल प्ले खेल कहीं ज़्यादा लचीलापन और निजी अनुभव प्रदान करते हैं। खिलाड़ी गेम डिज़ाइनर के मार्गदर्शन में अपने पात्र और कहानी गढ़ते हैं। ‘डंजियन एंड ड्रैगन्स’ जैसे गेम खिलाड़ियों को अपने-अपने पात्र की पृष्ठभूमि कथा तैयार करने का मौका देते हैं, जो खेल के दौरान विकसित होती रहती है।

अध्ययनों से पता चलता है कि नियमित आरपीजी खिलाड़ी गैर-खिलाड़ियों की तुलना में अधिक समानुभूति प्रदर्शित करते हैं और अधिक समाज-हितैषी व्यवहार दर्शाते हैं। अधिक समानुभूति वाले लोग पर्यावरण-हितैषी निर्णयों पर अधिक ध्यान देते हैं, जैसे टिकाऊ उत्पादों का अधिक इस्तेमाल।

हालांकि, इस बात के स्पष्ट प्रमाण तो नहीं हैं कि आरपीजी का प्रत्यक्ष सम्बंध विशिष्ट पर्यावरणीय कार्रवाइयों से होता हैं लेकिन ऐसा लगता है कि समानुभूति को बढ़ावा देकर वे जलवायु कार्रवाई को प्रोत्साहित कर सकते हैं।

उपरोक्त संभावनाओं की प्रेरणा से ‘रूटेड इन क्राइसिस’ टेबलटॉप आरपीजी उभरा है जिसे शोधकर्ताओं, शिक्षकों और गेम डिज़ाइनरों की एक वैश्विक टीम ने विकसित किया है। इस गेम में जलवायु सम्बंधी प्रामाणिक जानकारी को कथा में गूंथा जाता है। जैसे, एक खेल में खिलाड़ियों को एक जादुई शहर में रखकर भयानक बाढ़ के बाद आपदा राहत पर बातचीत के लिए छोड़ दिया जाता है। या वे किसी आसन्न आपदा के साये में अंतरिक्ष में किसी स्थान की खोज करने जैसी विचित्र परिस्थिति का सामना करते हैं।

इस तरह के खेलों को अपनाने में कई दिक्कतें भी आती है। वैज्ञानिकों द्वारा समर्थित होने पर भी इन्हें अक्सर बचकाना माना जाता है। आलोचकों को यह भी चिंता है कि ऐसे खेल जटिल वैज्ञानिक डैटा और नीति सम्बंधी चर्चाओं का अतिसरलीकरण सकते हैं। इन चिंताओं को दूर करने के लिए, ‘रूटेड इन क्राइसिस’ में ऐसे परिदृश्य शामिल किए गए हैं जो वास्तविक दुनिया की जलवायु चुनौतियों को दर्शाते हैं। इसमें बढ़ते समुद्र स्तर पर शहर की प्रतिक्रिया का प्रबंधन करने, हितधारी समूहों का मुकाबला करने और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी के लिए बातचीत करने जैसे विषय शामिल किए गए हैं।

जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को संबोधित करने में खेलों की शक्ति कुछ लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों से प्रमाणित हुई है। खेल अलग-अलग व्यक्तित्वों को अपनाने और विभिन्न स्थितियों में समानुभूति और समस्या-समाधान का अभ्यास करने के अवसर प्रदान करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों से नए खतरे – भारत डोगरा

कुछ वर्षों से कई देशों में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छर यह कहकर रिलीज़ किए गए हैं कि इससे मच्छरों द्वारा फैलाई गई डेंगू जैसी बीमारियां की रोकथाम होती हैं। पर कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने इन प्रयासों की यह कहकर आलोचना की है कि प्राकृतिक जीवन-चक्र से किए जा रहे इस खिलवाड़ से ऐसी बीमारियां और विकट भी हो सकती हैं।
इस वर्ष के आरंभ में ब्राज़ील के संदर्भ में आलोचकों का पक्ष अधिक मज़बूत हो गया है। जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को सबसे अधिक ब्राज़ील में ही छोड़ा गया था, और अब वर्ष 2024 के आरंभ में यहां डेंगू की बीमारी में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई। यहां तक कि कुछ स्थानों पर आपात स्थिति बन गई।
यहां यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अनेक देशों में ऐसे परीक्षण पहले ही इनसे जुड़े तमाम खतरों के कारण काफी विवादास्पद रहे हैं। ये परीक्षण डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी मच्छर-वाहित बीमारियों के नियंत्रण के नाम पर किए जाते हैं, परंतु इस बारे में बार-बार चिंता प्रकट की गई है कि वास्तव में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को छोड़ने पर व इससे जुड़े प्रयोगों से कई बीमारियों की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ज़ीका के प्रकोप के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों ने यह चिंता व्यक्त की थी कि जिस तरह सेे जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों पर प्रयोग किए गए हैं, ऐसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न करने में उन प्रयोगों की भूमिका हो सकती है।
भारत में सबसे पहले जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों के प्रयोग 1970 के दशक में जेनेटिक कंट्रोल ऑफ मास्कीटोस (मच्छरों के आनुवंशिक नियंत्रण) परियोजना में किए गए थे। उस समय मीडिया में व संसद में इसकी बहुत आलोचना हुई थी। आलोचना इससे जुड़े स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों के कारण और उससे भी अधिक इस कारण हुई थी कि इससे विदेशी ताकतों को भारत पर जैविक हमलों के हथियार की तैयारी करने में सहायता मिल सकती है। इस आलोचना को भारतीय संसद की पब्लिक अकाउंट्स समिति की 167 वीं रिपोर्ट से भी बल मिला।
इस पृष्ठभूमि में यह उम्मीद थी कि भविष्य में इस तरह के प्रयोगों की अनुमति नहीं दी जाएगी पर कुछ समय पहले यह सिलसिला फिर आरंभ हो गया है।
इस बीच विश्व के कई देशों में किए गए ऐसे प्रयोगों की भरपूर आलोचना पहले ही हो चुकी है। ऐसे अनेक प्रयोग ब्रिटेन की ऑक्सीटेक कंपनी द्वारा किए गए हैं जिसकी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका रही है। विभिन्न देशों में इस बारे में चिंता व्यक्त की गई है कि ऐसे प्रयोगों में पारदर्शिता नहीं बरती गई है व सही जानकारी को छुपाया गया है। जीन वाॅच, फ्रेण्ड्स ऑफ दी अर्थ जैसी विभिन्न संस्थाओं ने इस तरह की आलोचना कई बार की है। जीन वाॅच की निदेशक डॉ. हेलेन वैलेस ने इस सम्बंध में अपने अनुसंधान में बताया है कि जिन बीमारियों की रोकथाम की संभावना इस तकनीक द्वारा बताई जा रही है, वास्तव में इस तकनीक के उपयोग से इन बीमारियों की वृद्धि की संभावना है और बीमारी व स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या पहले से अधिक गंभीर रूप में प्रकट हो सकती है।
भारत में वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर के पूर्व निदेशक पी. के. राजगोपालन ने कुछ समय पहले इस विषय पर अपना विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया था कि इस तकनीक के संदर्भ में विश्व स्तर पर स्थिति क्या है। उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि इस तकनीक के द्वारा बीमारी नियंत्रण के जो दावे किए जा रहे हैं वे असरदार नहीं हैं तथा दूसरी ओर इस तकनीक के खतरे बहुत हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि मलेरिया की जांच से जुड़े जो ब्लड-सैंपल विदेश भेजे जा रहे हैं, वह भी उचित नहीं है।
इस सम्बंध में उपलब्ध विश्व स्तरीय जानकारी को देखते हुए भारत में जेनेटिक रूप से संवर्धित जीवों के प्रयोगों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कितना सेहतमंद है बोतलबंद पानी – सुदर्शन सोलंकी

पानी की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पेय जल प्रदूषित हो तो यह ज़हर के समान हो जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि ज़्यादातर जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में सभी लोगों को शुद्ध व स्वच्छ पेयजल मिल पाना अपने आप में एक चुनौती हो गई है।
कुछ सालों पहले से बोतलबंद पानी दुनिया भर के बाज़ारों में बिकना शुरू हुआ। जिसे कंपनियों ने यह कहकर बेचना शुरू किया था कि यह स्वच्छ, शुद्ध और खनिज युक्त है। जिसे वास्तविकता मान कर लोग इसे धड़ल्ले से खरीदने लगे हैं। पर क्या वास्तव में बोतलबंद पानी खनिज युक्त होता है? और क्या यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है?
पहले तो यह स्पष्ट करते चलें कि बाज़ार में बिकने वाला हर बोतलबंद पानी मिनरल वॉटर नहीं होता है। मिनरल वॉटर वह पानी होता है जो ऐसे प्राकृतिक स्रोतों से भरा जाता है जहां के पानी में कई लाभदायक खनिज तत्व पाए जातेे हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक लवणों, खनिजों से भरपूर और ऑक्सीजन युक्त होता है। जो स्वाद में अच्छा और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है।
बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर बोतलबंद पानी पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर होता है। पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर नल से आने वाला सामान्य पानी होता है जिसे फिल्टर से छान कर, रिवर्स ऑस्मोसिस, ओज़ोन ट्रीटमेंट आदि से साफ करके पैक कर दिया जाता है।
इसी प्रकार, लोगों में आरओ सिस्टम को लेकर भ्रांति है कि इससे नितांत शुद्ध व स्वच्छ जल मिलता है। किंतु वास्तव में आरओ सिस्टम से गुज़रा हुआ पानी भी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। कारण, क्योंकि आरओ सिस्टम में लगे फिल्टर कुछ दिनों बाद ही पानी को साधारण तरीके से फिल्टर करने लगते है।
बोतलबंद पानी को लेकर अमेरिका में हुई रिसर्च से पता चला है कि बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिल रहे हैं। अमेरिकी संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डिफेंस काउंसिल के अनुसार बोतल बनाने में एन्टिमनी का उपयोग किया जाता है। इस वजह से बोतलबंद पानी को अधिक समय तक रखने पर उसमें एन्टिमनी की मात्रा घुलती जाती है। इस रसायन युक्त पानी को पीने से कई तरह की बीमारियां होने लगती हैं।
स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में बोतलबंद पानी पर शोध कर बताया है कि भारत सहित दुनिया भर में मिलने वाले बोतलबंद पानी में 93 फीसदी तक प्लास्टिक के महीन कण देखे गए हैं।
इसके अतिरिक्त जिन प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल या फिल्टर वॉटर बिकता है वे पॉलीएथिलीन टेरीथेलेट (PET) की बनी होती हैं। जब तापमान अधिक होता है या गर्म पानी बोतल में भरा जाता है तो बोतल में डायऑक्सिन का रिसाव होता है, और यह पानी में घुलकर हमारे शरीर में पहुंच जाता है। इसके कारण महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
बोतलबंद पानी पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है। पैसिफिक इंस्टीटयूट के अनुसार अमेरिकी लोग जितना मिनरल वॉटर पीते हैं, उसे बनाने में 2 करोड़ बैरल पेट्रो उत्पाद खर्च किए जाते हैं। एक टन बोतलों के निर्माण में तीन टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। मिनरल वॉटर को बनाने के लिए दुगना पानी खर्च करना पड़ता है। अर्थात एक लीटर मिनरल वॉटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है।
इसके अलावा बोतल का पानी तो हम पी जाते हैं, लेकिन बोतल कहीं भी फेंक देते हैं जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। इसके अतिरिक्त दुनिया भर में जहां भी इन कंपनियों ने अपने बॉटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहां भूजल स्तर बहुत तेज़ी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ता है।
स्पष्ट है कि शुद्ध और स्वच्छ जल के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी लोगों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा रहा है। साथ ही प्लास्टिक की बोतल के निर्माण के दौरान होने वाली अतिरिक्त जल की बर्बादी से भूजल स्तर में कमी हो रही हैै। पेयजल का कोई सुरक्षित विकल्प खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आम फलों का राजा क्यों है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

देश में आम का मौसम जारी है, और इसी के साथ यह बहस भी कि आम की कौन सी किस्म सबसे बढ़िया है। हम तेलंगाना के लोगों का कहना है कि ‘बंगनपल्ली’ और ‘बेनिशां’ आम का कोई सानी नहीं है; आम की कोई भी अन्य किस्म इनके आसपास भी नहीं ठहरती। मेरी पत्नी और उनका परिवार गुजरात से है; उनका कहना है कि सबसे अच्छे आम रत्नागिरी या हापुस (Alphonso) हैं। और उत्तर प्रदेश के रहवासी मेरे दोस्त दसहरी आम के गुण गाते नहीं थकते।
आम के बगीचे लगाने, पैदावार और आम के शौकीन लोगों के हिसाब से भारत पहले नंबर पर है और फिर चीन, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस, पाकिस्तान और मेक्सिको का नंबर आता है। हालांकि, दुनिया भर में पैदा होने वाले कुल आमों में से 54.2 प्रतिशत के योगदान साथ भारत आम उत्पादन में सबसे अव्वल है। हम न सिर्फ सबसे ज़्यादा आम खाते हैं, बल्कि निर्यात भी करते हैं। पिछले साल हमने 28,000 मीट्रिक टन आम निर्यात किए थे और इससे करीब 4 अरब रुपए कमाए थे।
डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड में बताते हैं कि आम मूलत: भारत का देशज है, जिसे उत्तरपूर्वी पहाड़ों और म्यांमार में उगाया जाता था, और पड़ोसी देशों में निर्यात किया जाता था। आजकल, आम के बगीचे उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में लगाए जाते हैं; प्रत्येक राज्य के फलों का अपना विशेष स्वाद होता है।
पिछली गणना के अनुसार, भारत में आम की 1000 से अधिक किस्में हैं। इतनी विविध किस्मों का श्रेय जाता है आम के पौधों की आसान ग्राफ्टिंग को। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तीन केन्द्र आम अनुसंधान में अग्रणी हैं। इसके अलावा, नई दिल्ली स्थित नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन प्लांट बायोटेक्नॉलॉजी आम के पौधे के बुनियादी जीव विज्ञान को समझने के लिए उसके जीनोम का विश्लेषण कर रहा है। इस संस्थान के डॉ. नागेंद्र सिंह और उनके साथियों द्वारा इंडियन जर्नल ऑफ दी हिस्ट्री ऑफ साइंस में प्रकाशित शोध पत्र में इस पहलू पर चर्चा की गई है। हाल ही में, आर. सी. जेना और पी. के. चांद ने भारतीय आम के डीएनए में विविधता का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया है, जो बताता है कि हर क्षेत्र के आम की आनुवंशिकी में विविधता होती है, नतीजतन अलग-अलग जगहों के आम का आकार, रंग और स्वाद अलग होता है (साइंटिफिक रिपोर्ट, 2021)।
आम को फलों का राजा क्यों कहा जाता है? पूरे देश में, आम के अलावा कई अन्य मौसमी फल भी मिलते हैं और खाए जाते हैं। इनमें से कुछ मौसमी फल हैं अंगूर, अमरूद, कटहल, पपीता, संतरा। फिर, केले जैसे कुछ फल साल भर मिलते हैं। फिर भी, आम को फलों का राजा कहा जाता है। इसका कारण यह है कि आम न केवल स्वादिष्ट होता है, बल्कि यह सबसे स्वास्थ्यप्रद भी है; अन्य फलों के मुकाबले एक आम से अधिक विटामिन A, B, C, E और K, तथा अन्य धात्विक यौगिक (मैग्नीशियम, कॉपर, पोटेशियम), और एंटीऑक्सीडेंट मिलते हैं। हालांकि इनमें से कुछ स्वास्थ्य लाभ कई अन्य फलों से भी मिलते हैं, लेकिन आम सबमें अव्वल है क्योंकि इसमें अन्य की तुलना में विटामिन, खनिज और फाइबर सबसे अधिक होते हैं। इसलिए इसकी बादशाहत है।
अमेरिका के क्लीवलैंड क्लीनिक की वेबसाइट पर एक दिलचस्प लेख है, जिसका शीर्षक है: मैंगोलिशियस: आम के प्रमुख छह स्वास्थ्य लाभ (Mangolicious: the top six health benefits of mango)। ये लाभ हैं :
यह आपका पेट दुरुस्त करता है; इसका उच्च फाइबर परिमाण कब्ज़ और पेट फूलने से निपटने में मदद करता है;
आम भूख को नियंत्रित करने में मदद करता है, जो आपको अपने स्वास्थ्यकर खाने के लक्ष्यों पर टिके रहने में मदद कर सकता है;
आम में मौजूद विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट बालों और त्वचा को स्वस्थ रखते हैं;
इसमें मौजूद घुलनशील फाइबर कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करते हैं;
आम खाने से रक्तचाप नियंत्रित रहता है; और
आम में मौजूद एक एंटीऑक्सीडेंट – मैंगिफेरिन – कुछ प्रकार के कैंसर को रोकने में मदद करता है। और तो और, हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक शोध दल ने भी यह पता लगाया है कि मैंगिफेरिन अल्सर को कम करता है।
स्वाद, किस्में, उपलब्धता और स्वास्थ्य लाभ – इन सभी के मद्देनज़र चलिए हम सभी अपने-अपने पसंदीदा बादशाह आम का लुत्फ उठाएं! (स्रोत फीचर्स)

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मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला सबसे छोटा जीव

मात्र 1.1 सें.मी. लंबा, खुरदुरा-सा दिखने वाला वुडलाउज़ (Porcellio scaber) एक अकशेरुकी प्राणी है, जो सड़ती-गलती वनस्पतियों पर अपना जीवन यापन करता है। यह एक प्रकार की दीमक है। पीपल, प्लांट्स, प्लेनेट पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि वुडलाउज़ एक कुशल माली की तरह काम करता है; साथ ही यह मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला अब तक का ज्ञात सबसे छोटा जीव है।
बीजों को दूर-दूर तक फैलाने में बड़े जानवरों और पक्षियों की भूमिका तो काफी समय से पता है और सराही जाती है, लेकिन इसमें वुडलाउज़ और इस जैसे कई अन्य छोटे जीवों या कीटों की भूमिका को इतनी तवज्जो नहीं मिली है।
इसलिए कोबे युनिवर्सिटी के केंजी सुएत्सुगु और उनके दल ने कीटों की भूमिका पर थोड़ा प्रकाश डालने के उद्देश्य यह अध्ययन किया। उन्होंने एक पौधे सिल्वर ड्रैगन (Monotropastrum humile) और अकशेरुकी जीवों के आपसी सम्बंध या लेन-देन को समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि सिल्वर ड्रैगन के बीज धूल के कणों जैसे महीन होते हैं।
अध्ययन में उन्होंने पौधों के करीब कुछ स्वचालित डिजिटल कैमरे लगाकर इनके फलों को खाते कीटों व अन्य अकशेरुकी जीवों की 9000 से अधिक तस्वीरें प्राप्त कीं।
अब, यह पता करने की ज़रूरत थी कि कीटों के पाचन तंत्र से गुज़रने के बाद क्या फलों के बीज साबुत बचे रहते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन अकशेरुकी जीवों – ऊंट-झींगुर, रफ वुडलाउज़ और कनखजूरे – को सिल्वर ड्रैगन के फल खिलाए और सूक्ष्मदर्शी से इनके मल का विश्लेषण किया।
अंत में उन्होंने यह पता किया कि मल से त्यागे गए बीज अंकुरित होने में सक्षम हैं या नहीं। ऊंट-झींगुर अंकुरण-क्षम बीजों को फैलाने में कुशल थे। इसके अलावा यह भी पता चला कि वुडलाउज़ और कनखजूरों द्वारा त्यागे गए बीजों में से करीब 30 प्रतिशत में अंकुरण की क्षमता बरकरार थी।
शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस शोध से इसी तरह के बीज फैलाने वाले अन्य जीवों को पहचानने में और उनके महत्व के चलते उनका संरक्षण करने में मदद मिलेगी। क्योंकि किसी पौधे के जितने विविध बीज वाहक होंगे उतना उनके लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

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नील नदी कभी पिरामिडों के पास से गुज़रती थी

मिस्र के पिरामिड प्राचीन दुनिया के सात अजूबों में शुमार हैं, और पुरातत्वविदों के लिए पड़ताल का विषय रहे हैं। गौरतलब है कि ये पिरामिड गीज़ा से लेकर लिश्त तक के रेगिस्तानी इलाके में फैले हुए हैं। यहां से नील नदी कई किलोमीटर दूर बहती है। पुरातत्वविदों को इस सवाल ने हमेशा से परेशान किया है कि यदि प्राचीन समय में भी नील नदी इतनी दूर बह रही थी तो पिरामिडों को बनाने के लिए इतने भारी-भरकम पत्थरों को ढोना कितना मुश्किल रहा होगा। कैसे ढोया गया होगा इस सामग्री को? जबकि कुछ दस्तावेज़ कहते हैं कि पिरामिड को बनाने के लिए सामग्री नावों से लाई जाती थी, लेकिन यदि नदी इतनी दूर है तो ढुलाई कैसे होती होगी?
अलबत्ता, वैज्ञानिकों को काफी समय से यह भी संदेह था कि हो न हो, उस समय नील नदी इन स्थानों के नज़दीक से गुज़रती होगी, जिसने पत्थरों की ढुलाई में मदद की होगी। उनके इस संदेह का आधार था नील नदी के रास्ता बदलने की प्रवृत्ति; देखा गया है कि टेक्टोनिक प्लेटों में हुई बड़ी हलचल के कारण पिछली कुछ सदियों में नील नदी पूर्व की ओर कई किलोमीटर खिसक गई है। साथ ही, अध्ययनों में गीज़ा और लिश्त के बीच के स्थलों पर अतीत में कभी यहां बंदरगाह की उपस्थिति और ऐसे अन्य सुराग मिले थे जो कभी यहां नदी होने के संकेत देते थे। लेकिन इन अध्ययनों में नदी के सटीक मार्ग पता नहीं लगाया जा सका था।
ताज़ा अध्ययन में नॉर्थ कैरोलिना युनिवर्सिटी के भू-आकृति विज्ञानी एमान गोनीम की टीम को इन स्थलों पर एक सूखे हुए नदी मार्ग सरीखी रचना दिखी, जो लगभग 60 किलोमीटर लंबी थी, खेतों के बीच से गुज़र रही थी और करीब उतनी ही गहरी और चौड़ी थी जितनी आधुनिक नील नदी है।
अब बारी थी यह जांचने की कि क्या यह मार्ग किसी प्राचीन नदी का हिस्सा था? मार्ग से लिए गए तलछट के नमूनों की जांच में उन्हें अमूमन नदी के पेंदे में मिलने वाली बजरी और रेत की एक तह मिली। इस जानकारी को शोधकर्ताओं ने उपग्रह से ली गई तस्वीरों के साथ मिलाया और उनका विश्लेषण किया, जिससे वे नदी के बहने का रास्ता चित्रित कर पाए। पता लगा कि नील नदी की यह शाखा लगभग 2686 ईसा पूर्व से लेकर 1649 ईसा पूर्व के बीच बने 30 से अधिक पिरामिडों के पास से होकर बहती थी। शोधकर्ताओं ने इस नदी को अरबी नाम ‘अहरामत‘ दिया है, जिसका अर्थ है पिरामिड।
ऐसा लगता है कि सहारा रेगिस्तान से उड़कर आने वाली रेत और नील नदी के रास्ता बदलने के कारण अहरामत शाखा सूख गई और नौका परिवहन के लायक नहीं रह गई। फिलहाल कुछ जगहों पर कुछ झीलें और नाले ही बचे हैं।
कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित ये नतीजे उन दस्तावेज़ों के कथन से मेल खाते हैं जो बताते हैं कि पिरामिड निर्माण के लिए सामग्री नाव से लाई जाती थी। अर्थात मिस्रवासी हमारी सोच से कहीं अधिक व्यावहारिक थे। (स्रोत फीचर्स)

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शुक्र ग्रह से पानी शायद तेज़ी से गायब हुआ होगा

हमारे पड़ोसी ग्रह शुक्र की सतह का आजकल का तापमान सीसे को भी पिघला सकता है लेकिन अध्ययन बताते हैं कि किसी समय यहां समुद्र लहराते रहे होंगे और वातावरण जीवन के अनुकूल रहा होगा। तो सारा पानी गया कहां? यह एक मुश्किल सवाल रहा है।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन ने पानी के ह्रास की एक ऐसी क्रियाविधि को उजागर किया है जो शुक्र के वायुमंडल में अत्यधिक ऊंचाई पर काम करती है और दुगनी रफ्तार से पानी के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार हो सकती है। इसका यह भी मतलब है कि शुक्र ज़्यादा हाल तक जलीय व जीवनक्षम रहा होगा।
दूरबीनों व अंतरिक्ष यानों से प्राप्त आंकड़े शुक्र के वायुमंडल में जलवाष्प की उपस्थिति दर्शा चुके थे। 1970 के दशक में पायोनीयर वीनस ऑर्बाइटर से शुक्र पर अतीत में समुद्र की उपस्थिति के संकेत मिले थे; वहां के वायुमंडल में हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक (ड्यूटीरियम)की उपस्थिति। आगे चलकर किए गए मॉडलिंग से अनुमान लगाया गया था कि किसी समय शुक्र पर इतना पानी थी कि उसकी पूरी सतह पर 3 किलोमीटर गहरी पानी की परत रही होगी।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अरबों वर्ष पूर्व शुक्र ग्रह पर महासागर रहे होंगे, लेकिन ज्वालामुखी गतिविधि और ज़ोरदार ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण संभवत: अधिकांश पानी वाष्पित हो गया होगा। लेकिन शेष बचेे थोड़े से पानी (अंतिम लगभग 100 मीटर की परत) के खत्म होने की व्याख्या नहीं कर सके हैं।
इस नए अध्ययन में एक नई प्रक्रिया – HCO+ क्रियाविधि – पर चर्चा की गई है जो शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में चलती है। इसमें सूर्य का प्रकाश न सिर्फ पानी के अणुओं को बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को भी तोड़ देता है। कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने से कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है। जलवाष्प और कार्बन मोनोऑक्साइड की परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप HCO+ नामक एक अस्थिर आयन का निर्माण होता है। यह आयन तत्काल विघटित हो जाता है। चूंकि हाइड्रोजन अत्यंत हल्की होती है, वह वायुमंडल से पलायन कर जाती है। यह प्रक्रिया शुक्र के वायुमंडल से रहे-सहे पानी को खत्म करने के अवसर प्रदान करती है।
इस नए पहचानी गई प्रक्रिया को पहले से ज्ञात प्रक्रियाओं के साथ जोड़कर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि शुक्र का पूरा पानी उड़ने में केवल 60 करोड़ वर्ष लगे होंगे। यह अवधि पूर्व अनुमान से आधी है। इसका तात्पर्य यह है कि शुक्र पर, आज की दुर्गम दुनिया बनने से पहले, संभवत: 2 से 3 अरब साल पहले तक महासागर रहे होंगे।
शुक्र के विकास को समझना न केवल हमारे सौर मंडल के रहस्यों को जानने बल्कि सुदूर चट्टानी ग्रहों का अध्ययन करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। शुक्र और पृथ्वी के बीच समानताएं इस बात की जांच के महत्व पर प्रकाश डालती हैं कि समान संघटन वाले ग्रह किस तरह अलग-अलग तरीके से विकसित हो सकते हैं। शुक्र के इतिहास से प्राप्त जानकारी ब्रह्मांड में अन्यत्र जीवन योग्य वातावरण की पहचान करने के लिए मूल्यवान सबक प्रदान कर सकती है। एक अनुमान है कि शुक्र के समान मंगल से पानी के ह्रास में भी इस प्रक्रिया की भूमिका रही हो सकती है।
हालांकि, निकट भविष्य में कोई मिशन प्रत्यक्ष रूप से शुक्र पर HCO+ प्रक्रिया की खोजबीन नहीं कर पाएंगे, लेकिन शुक्र की वायुमंडलीय गतिशीलता को समझना जारी है। जल्दी ही कोई उपकरण ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन के ह्रास की जांच के लिए सामने आ जाएगा।
तब भविष्य के मिशन शुक्र पर पानी की उपस्थिति और ग्रह विज्ञान के व्यापक क्षेत्र पर इसके प्रभाव पर अधिक जानकारी एकत्रित कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में कोविड-19 टीकाकरण: विज्ञान बनाम राजनीति – डॉ. अनंत फड़के

भारत में कोविड-19 टीके का इस्तेमाल एक अंतर्विरोध का शिकार रहा। एक ओर था कोविड-19 टीका शीघ्र उपलब्ध कराने वाले अद्भुत तकनीकी-वैज्ञानिक विकास तथा दूसरी ओर था सरकार का संकीर्ण, लोकलुभावन राजनीतिक हित जिसके चलते लोगों के बीच अपनी छवि को मसीहा के रूप में पेश करना था लेकिन साथ ही टीका निर्माताओं के हितों को भी साधना था।

गैरमुनाफा पहलों का स्वागत

आम तौर पर कोई भी नया टीका विकसित करने में 5 से 15 साल तक का समय लग जाता है, क्योंकि यह वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों के लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है। लेकिन, SARS-Cov-2 वायरस, दरअसल SARS-CoV-1 वायरस और MERS वायरस के जैसा था जिन पर पहले ही काफी काम किया जा चुका था।

इसके अलावा, WHO तथा कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की पहल के चलते वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति बन पाई कि सामान्य क्रमिक परीक्षण की प्रक्रिया की बजाय चरण-1 व चरण-2 की प्रक्रिया को तेज़ी से सम्पन्न करने के लिए उन्हें साथ-साथ चलाया जाए और आंकड़ों की समीक्षा की जाए।

सरकारों द्वारा भारी निवेश और नवाचारी वित्तीय मॉडल्स ने दवा कंपनियों को मदद की कि वे पूरा का पूरा वित्तीय जोखिम झेले बिना टीका विकसित करने का काम कर सकें। ऐसी गैर-मुनाफा पहलों (निवेश) से टीका विकास में जुटी कंपनियां काफी लाभान्वित भी हुईं। उदाहरण के लिए, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोविशील्ड टीका बनाने वाली ब्रिटिश फार्मा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका से कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया। अपने तईं एस्ट्राज़ेनेका ने भी सहमति जताई कि वह महामारी खत्म होने तक इस टीके पर कोई मुनाफा नहीं कमाएगी। लिहाज़ा, उसने सीरम इंस्टीट्यूट से इस टीके का उत्पादन करने के एवज में अत्यधिक शुल्क नहीं लिया।

अलबत्ता, दवा कंपनियों के मुनाफा हितों और विभिन्न दक्षिणपंथी सरकारों के राष्ट्रवादी दिखावे (अंधराष्ट्रवाद की हद तक) ने इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट में वैश्विक मानवतावादी प्रतिक्रिया को बहुत नुकसान पहुंचाया। यहां मैं सिर्फ भारत का उदाहरण लेकर यह दर्शाने की कोशिश करूंगा कि लोकलुभावन, राष्ट्रवादी दिखावे और मुनाफा-केंद्रित दवा कंपनियों की भूमिका कैसी रही।

टीके की भूमिका और राजनीति

वायरस संक्रमण वाली कोई भी महामारी असुरक्षित या कमज़ोर आबादी (अधिकांश मामलों में बच्चों) को अपना शिकार बनाती है और फिर ‘सामूहिक प्रतिरक्षा’ (हर्ड इम्युनिटी) विकसित होने के बाद खत्म हो जाती है।

टीके विकसित होने के पहले तक खसरा, गलसुआ जैसी महामारियां फैलती रहती थीं और लोगों के स्वास्थ्य को क्षीण कर देने के बाद बिना किसी टीकाकरण के ही खत्म भी हो जाती थीं। स्वाइन फ्लू महामारी भी बिना किसी टीके के खत्म हो गई थी। 1918 की कुख्यात फ्लू महामारी को छोड़ दें तो अन्य किसी भी वायरल महामारी की तुलना में कोविड-19 महामारी कहीं अधिक क्षतिकारक थी, और अन्य वायरल महामारियों की तुलना में सिर्फ एक वर्ष में कोविड-19 से कहीं अधिक लोगों की मौतें हुई।

अलबत्ता, शुक्र है चमत्कारी वैज्ञानिक-तकनीकी विकास का, जिसने मानव इतिहास में पहली बार हमें एक ऐसा टीका दिया जो किसी नई बीमारी की पहली महामारी में ही लोगों को उसके प्रकोप से बचा सके। अन्य सभी टीकों ने केवल महामारी की रोकथाम की है और कुछ ने असुरक्षित या कमज़ोर लोगों को संक्रमित होने से बचाया है। कोविड-19 टीका दुनिया का पहला ऐसा टीका था जिसने महामारी के दौरान ही लोगों के स्वास्थ्य को कुछ हद तक सुरक्षित रखने में मदद की।

हालांकि इस पर शंका है कि क्या कोविड-19 के टीके ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वायरस के प्रसार को कम करके महामारी को फैलने से रोका है। लेकिन कोविड-19 का टीका असुरक्षित या कमज़ोर लोगों, जैसे वृद्धजनों और मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा एवं फेफड़ों के जीर्ण रोग वगैरह से पीड़ित लोगों, में बीमारी के बिगड़ने और इसके चलते उनकी मृत्यु की संभावना को कम करता है। (कोविड-19 का टीका बच्चों के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि सामान्यत: छोटे बच्चों में कोविड-19 विकसित नहीं होता है और वे कोविड-19 से नहीं मरते हैं। दूसरी ओर, अति बुज़ुर्ग लोगों में कोविड-19 की मृत्यु दर बहुत अधिक है)।

देखा जाए तो, भारत के संदर्भ में कोविड-19 टीके को रक्षक कहने की बात बकवास है। इस महामारी पर काबू पाने में इस टीके की भूमिका के बारे में भारत सरकार और उसके समर्थकों के दावे वास्तविक कम और प्रपोगंडा अधिक थे। सरकार ने तरह-तरह से यह दावा किया है कि भारत में कोविड-19 टीकाकरण से महामारी पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिली और लोगों को कोविड-19 के कारण होने वाली स्वास्थ्य-क्षति से काफी हद तक बचाया जा सका।

वैज्ञानिक साहित्य पहले दावे की पुष्टि नहीं करते हैं कि टीके ने SARS-Cov-2 के प्रसार को कम किया है, लेकिन इस बात के प्रमाण हैं कि समय पर टीकाकरण ने असुरक्षित आबादी में गंभीर संक्रमण पनपने को रोका है और मृत्यु दर को कम किया है। बहरहाल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत में कोविड-19 के नैसर्गिक तरह से फैलने की रफ्तार टीकाकरण की रफ्तार से कहीं अधिक थी क्योंकि टीकाकरण कार्यक्रम बहुत धीमी गति से चला था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में इस टीकाकरण ने कोविड-19 की गंभीरता और मृत्यु दर को कम करने में कोई खास भूमिका निभाई हो।

विपणन अनुमति पर सवाल

किसी भी नई औषधि या टीके के विपणन या प्रचार-प्रसार की अनुमति प्राप्त होने के लिए उसे पहले जंतु मॉडल परीक्षण से गुज़रना होता है, फिर मानव प्रतिभागियों पर तीन चरणों (चरण-I, II, III) के क्लीनिकल परीक्षणों से गुज़रना होता है। चरण-I व चरण-II के अध्ययन मुख्य रूप से औषधि या टीके की सुरक्षितता और प्रतिरक्षा उत्पन्न करने की क्षमता का आकलन करते हैं, और चरण-III में बड़े पैमाने पर क्लीनिकल परीक्षण किए जाते हैं जिसमें मुख्यत: प्लेसिबो से तुलना करते हुए टीके की प्रभाविता परखी जाती है।

भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ विनिर्माण समझौते की मदद से ‘कोविशील्ड’ टीके का उत्पादन किया। इस टीके के विकास में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका के टीके को इंग्लैंड और ब्राज़ील में तीसरे चरण के परीक्षण को पूरा करने के बाद यूके के नियामक प्राधिकरण से विपणन (या इस्तेमाल) की अनुमति मिल गई। भारत में यहां के ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के तहत,  किसी अन्य देश में अनुमति प्राप्त किसी भी औषधि या टीके को भारत में उपयोग से पहले एक सेतु परीक्षण (ब्रिज ट्रायल) से गुज़रना पड़ता है ताकि यह जाना जा सके कि क्या वह औषधि या टीका भारतीय आबादी पर प्रभावी है या नहीं। लेकिन, तीसरे चरण के परीक्षण का भारतीय डैटा न होने के बावजूद भी सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड की विपणन अनुमति के लिए भारत के औषधि नियंत्रक को आवेदन दे दिया था। ऐसा करने के लिए कोई भी विस्तृत एवं विश्वसनीय वैज्ञानिक तर्क नहीं दिया गया था। लेकिन 2 जनवरी 2021 को अनुमति मिल गई; वैज्ञानिक रूप से और ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के मद्देनज़र इसे उचित ठहराना मुश्किल है।

विषय विशेषज्ञ समिति, भारत के औषधि नियामक को भारत में किसी नए टीके या दवा अपनाने के बारे में सलाह देती है। 30 दिसंबर, 2020 को इस समिति ने मीटिंग के दौरान, सीरम इंस्टीट्यूट को ‘पर्याप्त डैटा’ प्रस्तुत करने को कहा था। 1 जनवरी, 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा इंग्लैंड और ब्राज़ील में किए गए परीक्षण के आंकड़े पेश किए थे, जिसके अनुसार कोविड-19 की गंभीर स्थिति न बनने देने और मृत्यु न होने देने में टीके की प्रभाविता औसतन 70 प्रतिशत है। इसे भारत के संदर्भ में चरण-I और चरण-II के परीक्षण का डैटा माना गया था। इसके आधार पर, 2 जनवरी 2021 को इस समिति ने चरण-III के भारतीय डैटा के बिना ही कोविशील्ड के उपयोग को हरी झंडी दिखा दी और चरण-III का डैटा न होने के पीछे कोई वैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया।

कोवैक्सीन के मामले में तो चरण-III डैटा के सर्वथा अभाव में अनुमति दी गई थी!! हालांकि, अनुमति में कहा गया था कि इंग्लैंड में उभरे नए उत्परिवर्ती संस्करण के मद्देनजर कोवैक्सीन का उपयोग ‘अत्यधिक ऐहतियात’ के साथ और ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ के तहत किया जाएगा। तकनीकी विवरण में गए बिना, यह कहा जाना चाहिए कि कोवैक्सीन की यह सशर्त अनुमति भी वैज्ञानिक मानदंडों और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक अधिनियम के प्रासंगिक नियमों के मद्देनज़र सवालों के घेरे में है। इसके अलावा ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ का पालन बमुश्किल ही किया गया और आगे चलकर तो इसे भुला ही दिया गया।

यह तो सही है कि टीकाकरण महामारी काफी फैल जाने से पहले करना ज़रूरी होता है; लेकिन तीसरे चरण के भारतीय परीक्षणों के डैटा के अभाव में अनुमति देने की जल्दबाज़ी के पीछे इस ज़रूरत के अलावा दो अन्य बातें भी थीं।

सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक ने अनुमति का आवेदन करने से पहले ही क्रमश: 5 करोड़ और 1 करोड़ टीके बना लिए थे। सीरम इंस्टीट्यूट को इस स्टॉक को प्राथमिकता के आधार पर भारत सरकार को 200 रुपए प्रति खुराक की विशेष रियायती दर पर बेचना था, जबकि सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक अदार पूनावाला ने कहा था कि वे कोविशील्ड की प्रति खुराक खुले बाज़ार में 1000 रुपए में बेचेंगे। यदि हम टीके की कीमत 200 रुपये प्रति खुराक भी मानें, तो यदि कोविशील्ड को अनुमति नहीं मिलती तो सीरम इंस्टीट्यूट 1000 करोड़ रुपए गंवाता और कोविशील्ड की 5 करोड़ खुराक बर्बाद हो जाती। लिहाज़ा, व्यवसाय के नज़रिए से सीरम इंस्टीट्यूट के लिए ज़रूरी था कि टीके को जल्द से जल्द अनुमति मिले। यही हाल भारत बायोटेक का भी था।

नियामक निर्णय-प्रक्रिया को व्यावसायिक मसलों से पूरी तरह अलग रखा जाना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने में पारदर्शिता सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इस विषय विशेषज्ञ समिति के सदस्य कौन थे, क्या इन सदस्यों का सम्बंधित दवा कंपनियों के साथ कोई सम्बंध था, समिति द्वारा अनुमति देने के पक्ष में दिए गए विस्तृत वैज्ञानिक तर्क क्या थे? अमेरिका में इस तरह की विशेषज्ञ सलाहकार समिति की मीटिंग बाहरी लोगों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध होती हैं। भारत में नए टीकों के बारे में सरकार को सलाह देने के लिए नेशनल टेक्निकल एडवायज़री ग्रुप ऑन इम्युनाइज़ेशन (NTAGI) है। अलबत्ता, इसकी वेबसाइट पर कोविड-19 के इन दो टीकों की अनुमति के बारे में कोई जानकारी नहीं है!

कुछ लोगों ने राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काकर कोवैक्सीन की अनुमति को इस आधार पर उचित ठहराने की कोशिश की कि कोवैक्सीन को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने विकसित किया है। यकीनन यह बहुत ही संतोष और गर्व की बात है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने एक वर्ष के भीतर कोविड-19 के लिए एक नया टीका विकसित कर लिया। लेकिन यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि भारतीय लोगों में किसी टीके की प्रभाविता और सुरक्षितता के पर्याप्त सबूत के बिना ही उसके उपयोग की अनुमति दे दी जाए।

ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया था, और न ही एस्ट्राज़ेनेका ने सीरम इंस्टीट्यूट से कोई पेटेंट शुल्क लिया। चूंकि सीरम इंस्टीट्यूट एक भारतीय कंपनी है इसलिए इसे कोविशील्ड के विपणन की अनुमति आत्म-निर्भर भारत की नीति के पूरी तरह अनुकूल थी, और इसीलिए कोविशील्ड को ‘विदेशी’ टीका कहने और कोवैक्सीन को भारतीय स्वदेशी टीके की तरह पेश करने का कोई तुक नहीं था।

टीकों की धीमी खरीद

सरकार ने 12 जनवरी 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट को केवल 2.1 करोड़ खुराक और अप्रैल के अंत तक 13.1 करोड़ खुराक का ऑर्डर दिया था। यह तब था जब सीरम इंस्टीट्यूट ने पहले ही, दिसंबर 2020 तक, टीके की 5 करोड़ खुराकें बना ली थीं और उसके पास प्रति माह 5 करोड़ खुराक बनाने की क्षमता थी। एक बार जब कोविशील्ड को भारत में विपणन की अनुमति दे दी गई, तो सार्वजनिक क्षेत्र के टीका निर्माताओं को शामिल करने के अलावा भारत सरकार को कोविड-19 टीकों के लिए अग्रिम ऑर्डर देना चाहिए था और इसके लिए अग्रिम भुगतान करना चाहिए था, जैसा कि कई विकसित देशों ने किया था। ऐसा करने पर टीका उत्पादन क्षमता बहुत तेज़ी से बढ़ती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। 13.1 करोड़ खुराक के ऑर्डर पर करीब 200 करोड़ रुपए दिए गए थे जबकि वित्तमंत्री ने घोषणा की थी कि केंद्रीय बजट में कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं! भारत बायोटेक की प्रति माह लगभग 2 से 3 करोड़ खुराक उत्पादन करने क्षमता थी। और यदि अग्रिम ऑर्डर मिल जाते, तो सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक मिलकर लक्ष्य (31 दिसंबर 2021 तक 200 करोड़ खुराक) को हासिल करने के लिए आवश्यक खुराकों की आपूर्ति कर सकते थे। लेकिन ऐसी योजना के अभाव में अप्रैल 2021 के बाद टीकों की कमी पड़ गई।

दूसरी बात। 45 वर्ष से अधिक उम्र के (सभी) लोगों को टीका लगाने का अपना लक्ष्य पूरा करने के पहले ही सरकार ने 18 अप्रैल को घोषणा कर दी कि अब 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी वयस्कों को टीका लगाया जाएगा! टीकाकरण केंद्रों पर बहुत अधिक तादाद में वयस्क टीका लगवाने पहुंचने लगे, जिसके परिणामस्वरूप केंद्रों पर टीकों की भारी कमी पड़ गई।

उससे भी बदतर तो केंद्र सरकार की यह घोषणा थी कि वह केवल 50 प्रतिशत टीकों की आपूर्ति करेगी; 25 प्रतिशत टीके निजी क्षेत्रों द्वारा खरीदे जाएंगे और 25 प्रतिशत टीके राज्य सरकारें खरीदेंगी। हालांकि कुल टीकाकरण केंद्रों में से केवल 3 प्रतिशत ही निजी टीकाकरण केंद्र थे, लेकिन निजी क्षेत्र को 25 प्रतिशत टीके आवंटित किए गए थे! जाहिर तौर पर यह फैसला इन दोनों कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए था (जिसकी कीमत आम लोगों से वसूली जाती) क्योंकि खुले बाज़ार में इन दोनों टीकों की कीमत काफी अधिक तय की गई थी।

इसके चलते बड़ा विवाद और अराजकता पैदा हो गई क्योंकि विभिन्न राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए पर्याप्त निवेश करने में असमर्थता जताई। सबके लिए मुफ्त कोविड-19 टीकाकरण की नीति को लागू करने की बजाय निजी क्षेत्र को इसमें शामिल करने के लिए कई विशेषज्ञों और जनप्रतिनिधियों ने सरकार की कड़ी आलोचना की। जबकि अन्य सभी देशों सरकारों द्वारा मुफ्त टीकाकरण किया जा रहा था। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया और केंद्र सरकार को यह याद दिलाया कि सबका निशुल्क टीकाकरण करना केंद्र सरकार की सामान्य ज़िम्मेदारी है और इसके लिए केंद्रीय बजट में आवंटित 35,000 करोड़ के फंड का उपयोग किया जाना चाहिए।

टीकाकरण की धीमी गति

महामारी विज्ञानियों का कहना था कि कोविड-19 बीमारी के खिलाफ सामूहिक प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी) हासिल करने के लिए लगभग 70 प्रतिशत भारतीय (95 करोड़ लोग) टीकाकृत हो जाने चाहिए। इसका मतलब था कि 31 दिसंबर 2021 तक (यानी 351 दिनों में) करीब 180 करोड़ खुराकें दी जानी थीं, यानी औसतन प्रति दिन लगभग 51 लाख खुराकें। भारत सरकार द्वारा 16 जनवरी 2021 से शुरू किए गए टीकाकरण कार्यक्रम में सबसे पहले सभी स्वास्थ्य कर्मियों और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को टीकाकृत करना था, जिनकी कुल संख्या लगभग 3 करोड़ थी। इसके बाद अप्रैल के अंत से चरणबद्ध तरीके से 50 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों (कुल संख्या 27 करोड़) को टीका लगाया जाना था। फिर 50 वर्ष से कम आयु के उन सभी लोगों को भी टीका लगाने की आवश्यकता थी जिन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, जीर्ण फेफड़ों सम्बंधी बीमारी, एचआईवी संक्रमण आदि जैसी बीमारियां थी। इस तरह कुल मिलाकर करीबन 40-50 करोड़ लोग ऐसे थे जिन्हें जल्द और पहले टीकाकृत किया जाना चाहिए था ताकि वायरस इन लोगों तक पहुंचने के पहले ये टीकाकृत हो चुके हों।

गौरतलब है कि भारत में सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता हर साल पांच साल से छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को लगभग 15 करोड़ विभिन्न टीके लगाते हैं। अब उसी तंत्र से यह उम्मीद करना कि वह आने वाले तीन महीनों में अतिरिक्त 3 करोड़ कोविड-19 टीके लगाएगा, का मतलब था कि वे लगभग दुगनी गति से काम करें। कर्मचारियों की कमी और (1980 के दशक की निजीकरण की नीति की बदौलत) वित्त के अभाव से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पहले से ही थकी हुई थी क्योंकि उसे महामारी में जबरदस्त अतिरिक्त काम करना पड़ा था। सरकार द्वारा टीकाकरण की गति बढ़ाने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती भी नहीं की गई थी। सरकार ने शुरुआत में केवल 3000 टीकाकरण केंद्र स्थापित किए थे जिनमें प्रति दिन 100-100 टीके लगाए गए, यानी प्रति दिन ज़रूरी 51 लाख की बजाय मात्र 3 लाख टीके लगाए गए। इस दर से तो 3 करोड़ लोगों को टीकाकृत करने में 100 दिन लगते, और प्राथमिकता वाले 30 करोड़ लोगों को कवर करने में 1000 दिन!

टीकाकरण को रफ्तार देने के लिए, अस्थायी रूप से ही सही, प्रशिक्षित लोगों को त्वरित और बड़े पैमाने पर भर्ती करने की ज़रूरत थी, और आवश्यकतानुसार निजी क्षेत्र के डॉक्टरों को भी शामिल करना लाज़मी था। ऐसे डॉक्टरों की संख्या दस लाख से अधिक है। लेकिन इन दोनों उपायों पर कोई बात तक नहीं हुई। बस, टीकाकरण अभियान के बारे में प्रचार-प्रसार खूब हुआ! ‘कोविड-19 के खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान’ के बारे में झूठे, दम्भी दावे किए गए!

शुरुआती महीनों में टीकाकरण की इस बहुत धीमी गति के चलते 21 जुलाई 2021 तक केवल 23 प्रतिशत भारतीयों को टीके की एक खुराक मिली थी और केवल 6.2 प्रतिशत को दो खुराक मिली थी। अलबत्ता, ICMR द्वारा किए गए अखिल भारतीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ के चौथे दौर के सर्वेक्षण से पता चला था कि जुलाई 2021 के अंत तक 67 प्रतिशत वयस्कों में कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो गई थी। (बच्चों को टीका नहीं लगाया गया था, लेकिन लगभग इसी अनुपात में बच्चों में भी कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडीज़ मिलीं!) इससे यह स्पष्ट है कि जितनी तेज़ी से कोविड-19 फैला उसकी तुलना में टीकाकरण बहुत धीमा था। इसलिए भारत में जिन लोगों ने कोविड-19 संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित कर ली थी, उनमें से अधिकांश में यह नैसर्गिक संक्रमण के ज़रिए विकसित हुई थी। भारतीयों का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही टीकाकरण के कारण गंभीर कोविड-19 बीमारी और मृत्यु से सुरक्षित हो पाया था।

बहरहाल, उपरोक्त ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ ने बहुत तेज़ी से अपना काम करके लोगों के स्वास्थ्य को बहुत अधिक प्रभावित किया, क्योंकि SARS-Cov-2 वायरस से संक्रमित हुए अधिकांश लोगों को कोविड-19 रुग्णता हुई; इनमें से काफी लोग मध्यम से लेकर गंभीर स्थिति तक पहुंच गए और लगभग 0.1 प्रतिशत संक्रमित लोगों की मृत्यु हुई।

अर्थात कोविड-19 के खिलाफ यह ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ लोगों को बहुत महंगा पड़ा। इसलिए, कोविड-19 टीकों के बेतुके विरोध पर आधारित राजनीति से भी दूरी बनाने की आवश्यकता है। भारत में शुरुआती महीनों में बहुत धीमी खरीद और टीकाकरण प्रक्रिया के कारण गैर-टीकाकृत लाखों लोग कोविड-19 के संक्रमण की चपेट में आए, और सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम उन तक पहुंचने के पहले लाखों लोग मारे गए।

हैरतअंगेज़ बात है कि ICMR ने जुलाई 2021 के बाद राष्ट्रीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ करना बंद कर दिया था, और इस तथ्य के बारे में बहुत कम चर्चा हुई कि अधिकांश भारतीयों में टीकाकरण के पहले SARS-Cov-2 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो चुकी थी! बाद का टीकाकरण ‘घोड़े के भाग जाने के बाद अस्तबल का दरवाज़ा बंद करने’ जैसा था!

कोविशील्ड के कुप्रभाव

यह पहली बार व्यापक रूप से यूके और कुछ अन्य युरोपीय देशों में बताया गया था कि एस्ट्राज़ेनेका टीके की पहली खुराक देने के बाद पहले चार हफ्तों के भीतर टीके के कारण कुछ मुख्य शिराओं में रक्त का थक्का जमने (वैक्सीन इनड्यूस्ड थ्रम्बोसाइटोपेनिया और थ्रम्बोसिस, VITT) की स्थिति बन सकती है। इसलिए कुछ युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को अस्थायी तौर पर बंद भी कर दिया था। बाद में यह सामने आया कि यह स्थिति करीब 10 लाख लोगों में से महज 5 मामलों में उभरने संभावना है और इनमें मृत्यु की संभावना 25 प्रतिशत है। दूसरी ओर, स्वयं कोविड-19 के कारण इस तरह के रक्त के थक्के जमने की संभावना 8-10 गुना अधिक थी। इसलिए युरोपीय मेडिसिन एजेंसी ने यह सिफारिश की थी कि एस्ट्राज़ेनेका का टीका कोविड-19 के कारण अधिक गंभीर जोखिम से बचाव के लिए देना जारी रखा जाए। भारत में, कोविशील्ड पर सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी फैक्ट शीट में लिखा है कि लगभग एक लाख में से एक व्यक्ति में टीकाकरण की पहली खुराक के बाद रक्त का थक्का बनने की समस्या हो सकती है।

टीकाकरण उपरांत प्रतिकूल प्रभाव (AEFI) देखने के लिए भारत सरकार के निगरानी तंत्र द्वारा पहले 75 करोड़ टीकाकरणों में AEFI के केवल 27 मामले दर्ज हुए, यानी प्रति 15 लाख में 1 मामला! ऐसा इसलिए है कि 1988 में स्थापित इस तंत्र का काम संतोषप्रद नहीं रहा है। इसकी कार्यप्रणाली भी विवादास्पद है। चूंकि यह प्रणाली पारदर्शी नहीं है, इसलिए हो सकता है कि टीके से सम्बंधित किसी घटना या दुष्परिणाम को ‘टीके से सम्बंधित नहीं’ की श्रेणी में डाल दिया गया हो और इसलिए मुआवजे से कोई अनुचित इनकार नहीं किया गया है। इसके अलावा, भारत में टीके से पहुंची क्षति के लिए पीड़ितों को ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’  (no fault compensation)देने की कोई व्यवस्था नहीं है, और इन 27 मामलों में से किसी को भी मुआवजा नहीं दिया गया। भारत में ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’ व्यवस्था शुरू करने की सख्त ज़रूरत है। इससे सरकार पर राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत पर्याप्त जांच-परीक्षण और औचित्य के बिना नए टीके लाने पर भी लगाम लगेगी।

निजी निर्माताओं की मुनाफाखोरी

आपूर्ति की बाधा को दूर करने के लिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों में इन टीकों के उत्पादन की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का प्रावधान लागू करना चाहिए था। ये इकाइयां आज़ादी के 40 वर्षों बाद तक राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बहुत कम कीमत पर उच्च गुणवत्ता वाले टीकों का मुख्य स्रोत रही हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के विपरीत जाकर सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों को व्यवस्थित रूप से कमज़ोर कर देने के बाद स्थिति काफी बदल गई है। ICMR के वैज्ञानिक एक साल के भीतर कोविड-19 का एक अच्छा टीका विकसित करने में सक्षम हुए हैं, यह बड़े गर्व की बात है। सरकार के लिए यह काफी तर्कपूर्ण होता कि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को इस टीके का उत्पादन करने देती। लेकिन इस आपात स्थिति में भी, निजीकरण की नीति जारी रही और कोविड-19 टीके का निर्माण पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में ही रहा।

सरकार ने सम्बंधित निजी कंपनियों को कोविड-19 टीके पर अत्यधिक मुनाफा कमाने की अनुमति भी दी। उदाहरण के लिए, सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला ने एनडीटीवी को बताया कि जब वे केंद्र सरकार को 150 रुपए प्रति खुराक की दर पर टीका बेच रहे थे तो उन्हें घाटा तो नहीं हुआ, लेकिन यह कीमत इतना लाभ कमाने के लिए पर्याप्त नहीं है जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु निवेश किया जा सके। मान लेते हैं कि कोविशील्ड की प्रति खुराक उत्पादन लागत लगभग 125 रुपए थी और इसलिए सरकार को इस टीके की (अधिकतम) कीमत 250 रुपए प्रति खुराक रखनी चाहिए थी। यह 1995-2013 तक सरकारी नीति के अनुसार होती, जिसमें कहा गया है कि मूल्य नियंत्रण के तहत आने वाली सभी ज़रूरी दवाइयों का अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) उत्पादन लागत से दुगना तक हो सकता है (उससे अधिक नहीं)। इस तथ्य को देखते हुए कि कोविशील्ड न केवल एक आवश्यक टीका था बल्कि जीवनरक्षक भी था, अत: इसकी MRP 250 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन सरकार ने घोषणा की कि 7 जून 2021 से लोगों को कोविशील्ड 780 रुपए में उपलब्ध होगा (अस्पतालों के 150 रुपए सेवा शुल्क सहित)। इसका मतलब यह हुआ कि सीरम इंस्टीट्यूट को प्रति खुराक करीब 500 रुपए का मुनाफा होता। निजी अस्पतालों में कोवैक्सीन की कीमत 1410 रुपए प्रति खुराक घोषित की गई थी!!

निष्कर्ष में, यह कहा जा सकता है कि भारत में कोविड-19 टीकों के मामले में संकीर्ण कॉर्पोरेट हितों और लोकलुभावने, राष्ट्रवादी राजनीतिक हितों/रुखों ने इस महामारी के प्रति मानवतावादी, विज्ञान-आधारित प्रतिक्रिया को धूमिल कर दिया। सरकार के कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम का बड़े ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार का उद्देश्य यह धारणा बनाना था कि इस टीकाकरण ने लोगों को महामारी से बचाया है। लेकिन कटु सत्य यह है कि भारत सरकार की कोविड-19 टीकों की खरीद और उपयोग में ढिलाई के कारण टीकारण कार्यक्रम से इस महामारी से लोगों को गंभीर हालत में पहुंचने और मौत के घाट उतरने से बचाने में बहुत मदद नहीं मिली। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या गिलहरियों को भी कुष्ठ रोग होता था?

कुष्ठ रोग लंबे समय से मानवता के लिए एक अभिशाप रहा है। यह रोग तंत्रिका को नुकसान पहुंचाता है, शरीर में घाव पैदा करता है तथा गंध व दृष्टि संवेदना को प्रभावित करता है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने कुष्ठ रोग के फैलने में मनुष्यों और गिलहरियों के बीच एक आश्चर्यजनक सम्बंध का पता लगाया है, और बताया है कि मध्य युग में गिलहरियां भी इस बीमारी की चपेट में थी।

गौरतलब है कि माइकोबैक्टीरियम लेप्रे और माइकोबैक्टीरियम लेप्रोमैटोसिस नामक बैक्टीरिया से होने वाला कुष्ठ रोग आज भी सालाना 2 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित करता है। इसके अधिकांश मामले एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं। अब तक इस बीमारी को केवल मनुष्यों से जुड़ा माना जाता था लेकिन मध्ययुगीन गिलहरियों के अस्थि अवशेषों में कुष्ठ रोग के बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम लेप्री) की खोज इसके व्यापक पारिस्थितिक प्रभाव को रेखांकित करती है। आजकल आर्मेडिलो में यह बैक्टीरिया पाया जाता है और कभी-कभार आर्मेडिलो इस बैक्टीरिया को मनुष्यों व प्राइमेट्स में पहुंचाता है।

दरअसल मध्यकालीन इंगलैंड में गिलहरियां पालतू जीव की तरह और फर के लिए पाली जाती थीं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विंचेस्टर शहर की मध्ययुगीन गिलहरियों के अवशेषों की जांच करके कुष्ठ रोग के संचरण को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास किया है। विंचेस्टर खास तौर से गिलहरियां पालने और उनके फर का उपयोग करने के कारोबार के लिए मशहूर था। यहां एक कुष्ठ रोग अस्पताल भी था।

गिलहरी की हड्डियों पर काम करते हुए एक अनुसंधान टीम ने प्राचीन कुष्ठ रोग बैक्टीरिया के जीनोम का पुनर्निर्माण किया तो देखा कि यह मध्ययुगीन मनुष्यों में पाए जाने वाले संस्करण से काफी मिलता-जुलता है। यह प्रजातियों के बीच बीमारी के आदान-प्रदान का संकेत देता है।

हालांकि, आजकल कुष्ठ रोग के प्रसार में गिलहरियों की कोई भूमिका नहीं हैं, लेकिन भावी जोखिमों को समझने के लिए अतीत की घटनाओं को समझना ज़रूरी है। पशु रोगविज्ञानी एलिजाबेथ उहल रोग के एक प्रजाति से दूसरी में पहुंचने को समझने के लिए बहुविषयी दृष्टिकोण पर ज़ोर देती हैं। उनका मत है कि गैर-मानव रोगवाहकों की भूमिका की उपेक्षा करने से बीमारी का प्रकोप जारी रह सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमालय के मैगपाई – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

हियर या मैगपाई पक्षी कॉर्विडे (Corvidae) कुल के सदस्य हैं, जिसमें कौवा, नीलकण्ठ और रैवन आते हैं। आम तौर पर इस कुल के पक्षियों को कांव-कांव करने वाले और जिज्ञासु पक्षी के तौर पर देखा जाता है। दुनिया भर की लोककथाओं में अक्सर इन्हें शगुन-अपशगुन के साथ भी जोड़ा जाता है। जैसे कुछ युरोपीय संस्कृतियों में इन्हें चुड़ैलों का साथी माना जाता हैं। अंग्रेज़ी की एक तुकबंदी कहती है कि यदि एक अकेली मैगपाई दिखे तो बुरी खबर सुनने को मिलती है: “One for sorrow, two for joy; three for a girl, four for a boy; Five for silver, six for gold; Seven for a secret never to be told,” (हिंदी में यह कुछ इस तरह होगी: “एक यानी दुख, दो यानी खुशी; तीन यानी लड़की, चार यानी लड़का; पांच यानी चांदी, छह यानी सोना; सात यानी किसी को न बताने वाला राज़।”

लेकिन यह तो सभी मानेंगे कि मैगपाई दिखने में आकर्षक होती हैं। और इसकी कुछ सबसे सजीली (रंग-बिरंगी) प्रजातियां हिमालय में पाई जाती हैं।

नीली मैगपाई की कुछ निकट सम्बंधी प्रजातियां कश्मीर से लेकर म्यांमार तक में दिखना आम हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई (Urocissa flavirostris, जिसे पीली चोंच वाली नीली मैगपाई भी कहते हैं) की आंखें शरारती लगती हैं, और यह समुद्रतल से 2000 से 3000 मीटर ऊंचे स्थलों पर मिलती है। इससे थोड़ी कम ऊंचाई पर हमें लाल चोंच वाली मैगपाई दिखाई देती हैं, और नीली मैगपाई निचले इलाकों पर पाई जाती है जहां बड़ी तादाद में इंसान रहते हैं।

ट्रेकिंग पथ

पीली और लाल चोंच वाली मैगपाई सबसे अधिक दिखाई देती हैं पश्चिमी सिक्किम के ट्रैकिंग पथ पर, जो समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊंचाई पर स्थित युकसोम कस्बे से शुरू होता है और लगभग 4700 मीटर की ऊंचाई पर गोचे ला दर्रे तक जाता है जहां से कंचनजंगा के शानदार नज़ारे दिखते हैं। इस ट्रेकिंग में आपका सफर थोड़ी ऊंचाई पर उष्णकटिबंधीय आर्द्र चौड़ी पत्ती वाले वन से शुरू होता है, उप-अल्पाइन जंगलों से गुज़रते हुए ऊंचाई पर आप वृक्षविहीन, जुनिपर झाड़ियों वाली जगह पर पहुंचते हैं। बीच में कहीं-कहीं ऐसे जंगल भी मिलते हैं जिनके घने आच्छादन से आप ढंके होते हैं, और जहां आपको पक्षियों की हैरतअंगेज़ विविधता और आबादी दिखती है।

सिक्किम गवर्नमेंट कॉलेज के प्राणी शास्त्रियों द्वारा किए गए क्षेत्रीय अध्ययनों से पता चला है कि इस क्षेत्र में पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं, और समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर आप हर पांच मिनट के अंतराल पर लगभग 60 अलग-अलग पक्षियों को देख या सुन सकते हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई की कूक अक्सर इन पक्षियों के कलरव के साथ सुनाई देती है। इस मैगपाई का शरीर लगभग कबूतर जितना बड़ा होता है, लेकिन इसकी पूंछ 45 सेंटीमीटर लंबी होती है, जिससे इसकी कुल लंबाई 66 सेंटीमीटर हो जाती है। ज़मीन पर कीड़े-मकोड़ों-कृमियों की तलाश करते समय इसकी पूंछ ऊपर की ओर उठी रहती है; लेकिन पेड़ों से जामुन तोड़ते समय इसकी पूंछ नीचे की ओर झुक जाती है। इसकी उड़ान भी खास होती है: शुरुआत में थोड़े समय तक यह लगातार पंख फड़फड़ाती है, और फिर उसके बाद देर तक हवा में शांत तैरती रहती है।

फूलदार बुरुंश

सुनहरी चोंच वाली मैगपाई बुरुंश वृक्ष पर उस जगह घोंसला बनाती है जहां शाखाएं दो में बंटती हैं। उसका घोंसला टहनियों पर जल्दबाज़ी में घास की मुलायम तह लगाकर बनाया गया लगता है। इन घोंसलों में मई-जून में तीन से छह अंडे दिए जाते हैं। चूज़ों का पालन-पोषण माता-पिता दोनों मिलकर करते हैं। अच्छी बात है, जैसा कि तुकबंदी में कहा गया है – ‘दो यानी खुशी’।

नीली मैगपाई और लाल चोंच वाली मैगपाई दिखने में बहुत हद तक एक जैसी दिखती हैं, बस एक थोड़ी छोटी होती है। नीली मैगपाई जंगलवासी पक्षी नहीं है, और अक्सर गांवों के आसपास पाई जाती हैं। मैगपाई की सभी प्रजातियां या तो अकेले फुदकते हुए, या जोड़े में, या शोरगुल मचाते हुए 8-10 के झुंड में देखी जा सकती हैं।

जैसे-जैसे इंसानों की जंगलों में मौजूदगी बढ़ रही है, इस बात की चिंता बढ़ रही है कि ये पक्षी इस दखल का कितना सामना कर पाएंगे। बुरुंश झाड़ी के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पर्यटकों को ठहराने और उनकी सुविधाओं के लिए ग्रामीण अक्सर जलाऊ लकड़ी जैसे वन संसाधनों को दोहते हैं। आशा है कि कृषि की तरह पर्यटन भी एक वहनीय व्यापार करना सीखेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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