एक हालिया और दिलचस्प अध्ययन से पता चला है कि संभवत: कन्फ्यूशियसॉर्निस वंश के प्राचीन पक्षी आधुनिक चिड़ियाओं के सामान पंख छोड़ते थे। पक्षियों में उड़ान दक्षता बनाए रखने के लिए पंखों का निर्मोचन (यानी पुराने पंख झड़कर नए पंख आना) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो बायोलॉजीलेटर्समें प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन प्राचीन पक्षियों में मौजूद थी।
पंखों की उत्पत्ति संभवत: डायनासौर और टेरोसौर के साझा पूर्वजों में लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले ट्राएसिक काल में हुई थी। इन पक्षियों के शुरुआती पंख हल्के रोएं से अधिक कुछ नहीं होते थे। समय के साथ, शिकारी पक्षियों (रैप्टर्स) और पक्षियों की पूर्ववर्ती प्रजातियों (जैसे मांसाहारी डायनासौर) में केरेटिन से बने जटिल पंख विकसित हुए। केरेटीन वही प्रोटीन है जिससे मनुष्यों में बाल और नाखून का निर्माण होता है। लेकिन नाखूनों के विपरीत पंख अपने आधार से निरंतर नहीं बढ़ते। परिपक्व होने के बाद ये मृत संरचना ही होते हैं। इसलिए पक्षियों को अपने पुराने पंखों को छोड़ना पड़ता है। विभिन्न पक्षियों में इसके तरीके अलग-अलग होते हैं।
उड़ने में असमर्थ पेंगुइन जैसे पक्षी एक बार में बहुत सारे पंख गिराते हैं, जबकि उड़ने वाले पक्षी अपनी उड़ने की क्षमता बनाए रखने के लिए एक बार में कुछ ही पंख गिराते हैं। इसे क्रमिक निर्मोचन कहते हैं। इस तरीके में उनके डैनों पर छोटी-छोटी रिक्तियां रह जाती हैं, जहां नए पंख उगते हैं।
इस अध्ययन के लिए फील्ड म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीव विज्ञानी योसेफ किआट और उनकी टीम ने चीन के एक म्यूज़ियम के 600 से अधिक पक्षी जीवाश्मों का अध्ययन किया। ये पक्षी शुरुआती क्रेटेशियस काल (लगभग 12.5 करोड़ साल पूर्व) के दौरान वर्तमान के पूर्वी चीन में रहते थे। इनमें कन्फ्यूशियसॉर्निस सबसे आम पक्षी था। कौवे की साइज़ के इस पक्षी की खोपड़ी सरीसृपों के समान, पंजे मुड़े हुए, घने पंख और दांत-विहीन चोंच होती थी। यह संरचना डायनासौर और पक्षी दोनों से मिलती-जुलती थी। टीम को कन्फ्यूशियसॉर्निस के दो ऐसे जीवाश्म भी मिले जो निर्मोचन प्रक्रिया के दौरान ही अश्मीभूत हुए थे। उनके परिपक्व पंखों के बीच रिक्तियों में काले, बढ़ते पंख दिखाई दे रहे थे। ये नए पंख दोनों डैनों में सममित रूप से मौजूद थे। यह आधुनिक सॉन्गबर्ड में देखी जाने वाली क्रमिक निर्मोचन प्रक्रिया के समान ही है। टीम के अनुसार ये जीवाश्म पक्षियों में निर्मोचन के सबसे पुराने ज्ञात साक्ष्य हैं। अनुमान है कि पंख निर्मोचन की यह प्रक्रिया साल में एक बार न होते हुए उनके शारीरिक विकास में उछाल के अनुरूप होती होगी।
ये साक्ष्य 12 करोड़ वर्ष पहले पाए जाने वाले चार डैनों वाले डायनासौर माइक्रोरैप्टर में क्रमिक निर्मोचन के साक्ष्यों से भी मेल खाते हैं और इस विचार का समर्थन करते हैं कि माइक्रोरैप्टर उड़ सकता था, क्योंकि क्रमिक निर्मोचन अक्सर उड़ने वाली प्रजातियों में देखा जाता है।
यह अध्ययन कई डायनासौर में निर्मोचन की संभावना जताता है और उड़ान के विकास में इस प्रक्रिया का महत्व बताता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z1qy3t5/files/_20240702_on_bird_molting_secondary.jpg
सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गंवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महंगे हैं – इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपए बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है।
हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुंह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है।
यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंसजर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।
गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुंचाती हैं।
रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनने लगें।
सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।
दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।
लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहां सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।
अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियां विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।
जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुंचा सके ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता।
इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।
dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ाता देता है।
दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स)
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यह सही है कि भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन और अतीत में किया गया उत्सर्जन दोनों वैश्विक औसत से काफी कम हैं, लेकिन फिर भी भारत जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इसके जवाब में, भारत ने अपने जीएचजी उत्सर्जन को सीमित करने के लिए कई सक्रिय कदम उठाए हैं। जैसे, औद्योगिक ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना शुरू की गई है और साथ ही नवीकरणीय खरीद अनिवार्यता (आरपीओ) भी लागू की गई है। प्रस्तावित कार्बन बाज़ार भी इसी तरह का एक उपाय है। पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने घरेलू कोटा-अनुपालन कार्बन बाज़ार की स्थापना के लिए रूपरेखा तैयार की है। इसके अंतर्गत ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन और कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) की अधिसूचना शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रस्तावित योजना के बारे में और अधिक विवरण जल्द ही पेश किए जाएंगे और संभवत: प्रारंभ में चार क्षेत्रों – लोहा और इस्पात, सीमेंट, पेट्रोकेमिकल्स और पल्प एंड पेपर – पर केंद्रित होंगे। इस लेख में, हम भारत के लिए प्रस्तावित कार्बन बाज़ार योजना का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, हम उन चुनौतियों पर भी चर्चा करेंगे जिन्हें संबोधित करना ज़रूरी है ताकि कार्बन बाज़ार भारत के कार्बन-मुक्तिकरण में लागतक्षम ढंग से असरदार हो सकें।
वैश्विककार्बनबाज़ार
कार्बन बाज़ार काफी समय से अस्तित्व में हैं। कार्बन बाज़ार दो प्रकार के होते हैं: स्वैच्छिक और अनिवार्य। स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार या ऑफसेट बाज़ार में परियोजना चलाने वाले ऐसे तरीके अपनाते हैं जिससे उत्सर्जन कम हो सके। ऊर्जा दक्षता बढ़ाकर, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके या ईंधन परिवर्तन के माध्यम से कम किए गए कार्बन उत्सर्जन को ऑफसेट कहते हैं। इसके अलावा कार्बन कैप्चर, युटिलाइज़ेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) परियोजनाओं या वनीकरण परियोजनाओं के ज़रिए वायुमंडल से कार्बन हटाकर भी ऑफसेट उत्पन्न किए जा सकते हैं। इन ऑफसेट को स्वतंत्र एजेंसियां विभिन्न वैश्विक मानकों के आधार पर सत्यापित करती हैं। कई कंपनियां ये ऑफसेट खरीदकर अपने स्वयं के कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य पूरा करती हैं। इस खरीद के लिए कई रजिस्ट्रियां व व्यापार मंच हैं।
अनिवार्य कार्बन बाज़ार एक निर्धारित नियम कैप-एंड-ट्रेड प्रणाली के तहत काम करता है। इन्हें एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) भी कहा जाता है। इन बाज़ारों में सरकारों या अन्य प्राधिकरणों द्वारा कंपनियों को एक निश्चित सीमा तक ही कार्बन उत्सर्जित करने की अनुमति मिलती है। जो कंपनियां अपनी निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जित करती हैं, वे अपने बचे हुए कार्बन क्रेडिट उन कंपनियों को बेच सकती हैं जो अपने लक्ष्य से अधिक उत्सर्जन करती हैं। इसका उद्देश्य कंपनियों को यह अनुमति देना है कि या तो वे कार्बन क्रेडिट खरीदें या अपनी तकनीक में सुधार करके कार्बन उत्सर्जन को कम करें। कुछ अनिवार्य बाज़ार, एक निश्चित प्रतिशत को स्वैच्छिक बाज़ार से पूरा करने की भी अनुमति देते हैं।
इस समय दुनिया भर में लगभग 37 उत्सर्जन ट्रेडिंग योजनाएं (ईटीएस) लागू हैं – 1 क्षेत्रीय स्तर पर, 13 राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी उप-राष्ट्रीय स्तर पर हैं। लगभग 24 अन्य योजनाएं विभिन्न स्तरों पर विचाराधीन या विकासाधीन हैं। तीन सबसे बड़े ईटीएस युरोपीय संघ (ईयू), कैलिफोर्निया और चीन में हैं। इन योजनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानने योग्य हैं।
पहली, इन तीनों योजनाओं को स्थिर होने में काफी समय लगा है। युरोपीय संघ ईटीएस को 2005 में शुरू किया गया था और तब से लेकर अब तक इसमें चार चरणों में कई सुधार हुए हैं। कैलिफोर्निया की कैप एंड ट्रेड (CaT) योजना 2013 में शुरू हुई थी और इसके बाद से इसमें भी कई सुधार हुए हैं। चीन का ईटीएस लगभग 9 साल के उप-राष्ट्रीय पायलट कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ था।
दूसरी, युरोपीय संघ ईटीएस और कैलिफोर्निया CaT के लक्ष्य पूर्ण उत्सर्जन (absolute emissions) पर आधारित हैं जबकि चीन का ईटीएस उत्सर्जन तीव्रता (emission intensity) पर आधारित है। युरोपीय संघ ईटीएस का लक्ष्य निर्धारित सेक्टर्स में उत्सर्जन को 2005 की तुलना में 2030 तक 62 प्रतिशत कम करना है। यह लक्ष्य 2030 तक उत्सर्जन में 55 प्रतिशत की कमी के युरोपीय संघ के समग्र लक्ष्य के साथ मेल खाता है। इस योजना में, हर साल निर्धारित क्षेत्रों के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा एक निश्चित दर से लगभग 5.1 प्रतिशत, से घटाई जाती है। इसी प्रकार, कैलिफोर्निया की योजना में भी 2030 तक हर साल उत्सर्जन की कुल मात्रा लगभग 4 प्रतिशत घटाई जाएगी ताकि 1990 की तुलना में 2030 तक 40 प्रतिशत कमी का लक्ष्य पूरा हो सके। दूसरी ओर, चीन की योजना उत्सर्जन तीव्रता (यानी प्रति इकाई उत्पादन पर प्रति टन उत्सर्जित कार्बन) के लक्ष्यों पर आधारित है, जिसमें कुल उत्सर्जन पर कोई सीमा नहीं है। इसकी हर दो साल में समीक्षा की जाती है।
तीसरी, समय के साथ और तीनों ईटीएस के कार्बन की कीमत में काफी भिन्नता रही है। कार्बन क्रेडिट की कीमत निर्धारित करने में लक्ष्य की महत्वाकांक्षा के स्तर, दीर्घकालिक निश्चितता और प्रवर्तन तंत्र की प्रभावशीलता के साथ-साथ देश-विशिष्ट के तकनीकी और आर्थिक कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
भारतकीस्थिति
ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) ने अक्टूबर 2022 में भारतीय कार्बन बाज़ार (आईसीएम) पर एक मसौदा नीति पत्र जारी किया था। इसके बाद, दिसंबर 2022 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन करके बीईई को कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) लागू करने का अधिकार दिया गया। इस योजना को जून 2023 में अधिसूचित किया गया और अक्टूबर 2023 में बीईई ने अनिवार्य प्रणाली और कार्बन सत्यापन एजेंसियों की मान्यता की पात्रता और प्रक्रिया के ड्राफ्ट विवरण जारी किए। इसके बाद दिसंबर 2023 में, CCTS में एक संशोधन किया गया ताकि स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार की अनुमति दी जा सके।
ड्राफ्ट नीति पत्र ने भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए चरणबद्ध दृष्टिकोण का प्रस्ताव दिया, जिसमें पायलट चरण को 1 जनवरी, 2023 तक लागू करने की योजना थी। हाल ही में बीईई ने सूचित किया है कि इस योजना का पहला चरण 2024 में चार प्रमुख क्षेत्रों के लिए शुरू किया जाएगा। यहां भारत में प्रस्तावित CCTS की मुख्य बातें साझा कर रहे हैं।
CCTS का कानूनी आधार पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए), 1986 और ऊर्जा संरक्षण अधिनियम (ईसीए), 2001 (2022 में संशोधित) से आता है। इस योजना के नोडल मंत्रालय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) तथा विद्युत मंत्रालय (MoP) होंगे, और इसका प्रबंधन बीईई द्वारा किया जाएगा। आईसीएम का संचालन एक राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा किया जाएगा। भारत का ग्रिड नियंत्रक कार्बन क्रेडिट का पंजीयक होगा और केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) ट्रेडिंग गतिविधियों का नियमन करेगा। वर्तमान में मौजूद तीन पॉवर एक्सचेंज कार्बन क्रेडिट के लिए खरीद-फरोख्त प्लेटफॉर्म होंगे। आईसीएम की संस्थागत संरचना मौजूदा परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना के समान रहेगी जिसका विलय अंतत: CCTS में कर दिया जाएगा।
जून 2023 में अधिसूचित CCTS में केवल उन्हीं संस्थाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जिन्हें उत्सर्जन के लक्ष्य दे दिए जाएंगे। इस तरह से यह एक अनिवार्यता बाज़ार था। लेकिन, दिसंबर 2023 की अधिसूचना ने आईसीएम के दायरे को स्वैच्छिक ऑफसेट कार्बन बाज़ार तक बढ़ा दिया, जिसकी रूपरेखा और कार्यप्रणाली जल्द ही जारी होगी।
यहां हम प्रस्तावित योजना के तीन प्रमुख पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो इसकी प्रभाविता के लिए महत्वपूर्ण होंगे: CCTS की निगरानी के लिए संस्थागत तंत्र, लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया और योजना की प्रवर्तन सम्बंधी प्रक्रिया।
संस्थानऔरसंचालन
बीईई भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए CCTS का प्रबंधन करेगा जबकि देख-रेख एवं निगरानी का काम राष्ट्रीय संचालन समिति (एनएससी) द्वारा किया जाएगा। एनएससी में विभिन्न मंत्रालयों (बिजली मंत्रालय, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय, कोयला मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय आदि) के संयुक्त सचिव और पांच बाहरी विशेषज्ञ शामिल होंगे। एनएससी का काम CCTS के लक्ष्य निर्धारित करना (बीईई की सिफारिशों के आधार पर) और प्रक्रियाएं बनाना होगा। वह विशिष्ट विशेषज्ञता वाले तकनीकी विशेषज्ञों के समूह भी बना सकता है। हर तीन माह में एक बैठक का आयोजन किया जाएगा। लेकिन एनएससी में नियुक्त उच्च अधिकारियों की व्यस्तता को देखते हुए, यह संभव है कि एनएससी मात्र एक औपचारिक निकाय रहे और सिर्फ बीईई या कामकाजी समूहों की सिफारिशों को मान ले। इससे एनएससी द्वारा बीईई की निगरानी करने का उद्देश्य कमज़ोर हो सकता है। इसके अलावा, बीईई विद्युत मंत्रालय के अधीन है, जो बिजली उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार है और बिजली उत्पादन उत्सर्जन के बड़े स्रोतों में से एक है। बेहतर होता कि यह किसी ‘तटस्थ’ एजेंसी के अधीन होता।
हालांकि, बीईई के पास ऊर्जा दक्षता और संरक्षण तथा पीएटी स्कीम के प्रबंधन का लंबा अनुभव है, लेकिन कार्बन बाज़ार की देख-रेख अलग तरह की चुनौती है। चूंकि उत्सर्जन कई स्रोतों से हो सकता है और इसकी निगरानी ऊर्जा दक्षता की निगरानी से अलग है, इसलिए बीईई को इस नई ज़िम्मेदारी के लिए अधिक तैयारी करना होगी। अर्थ व्यवस्था पर इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए CCTS के प्रबंधन के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन कोई एजेंसी अधिक उपयुक्त होगी। अन्य देशों में, इस तरह के कार्य पर्यावरण एजेंसियों द्वारा किए जाते हैं।
इस योजना की देख-रेख दो बड़े मंत्रालयों – पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन (MoEFCC) और बिजली मंत्रालय MoP – द्वारा की जाने से प्रक्रिया अधिक जटिल हो जाती है। इसके अलावा उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया बहुत लंबी है और कई चरणों में बंटी हुई है। इसमें तकनीकी समिति से शुरू होकर, बीईई, एनएससी, MoP और अंत में MoEFCC की सिफारिशें शामिल होंगी। इसके चलते यह प्रक्रिया बहुत जटिल और धीमी होने की आशंका है। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि यदि एक एजेंसी की सिफारिशें अगली एजेंसी को पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हुईं तो क्या होगा। इसे सरल और पारदर्शी बनाना चाहिए, ताकि इसमें शामिल सभी एजेंसियों की भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियां स्पष्ट रहें।
उत्सर्जनलक्ष्योंकानिर्धारण
CCTS को प्रभावी बनाने के लिए बाज़ार के प्रतिभागियों के लिए उत्सर्जन कोटा तय करना सबसे महत्वपूर्ण है। इसी कोटे पर निर्भर करेगा कि कोई प्रतिभागी नई तकनीक में निवेश करे या क्रेडिट खरीदने का निर्णय करे।
यदि इन लक्ष्यों को बहुत ढीला रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत अधिक है तो इसके दो परिणाम होंगे। पहला, यह डीकार्बोनाइज़ेशन के उद्देश्य को आगे नहीं बढ़ाएगा तथा प्रतिभागियों के पास उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं होगा। दूसरा, चूंकि प्रतिभागियों के लिए निर्धारित कोटा हासिल करना आसान होगा, बाज़ार में कार्बन क्रेडिट की अधिकता हो जाएगी। इस स्थिति में कार्बन क्रेडिट की कीमतें भी नीचे आ जाएंगी।
दूसरी ओर, अगर लक्ष्यों को बहुत सख्त रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत कम है तो लक्ष्य को पूरा करने के लिए निवेश की आवश्यकता अधिक होगी। इससे बाज़ार में क्रेडिट की कमी हो जाएगी और कीमतें बहुत अधिक बढ़ जाएंगी, उन्हें खरीदना मुश्किल हो जाएगा। इससे भारतीय उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले कमज़ोर हो सकते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव उन उद्योगों पर होगा जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं। नतीजतन वस्तुओं की कीमतें बढ़ भी सकती हैं। इसलिए, उत्सर्जन कोटा या लक्ष्य सही स्तर पर निर्धारित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
बीईई द्वारा संचालित पीएटी योजना ने उद्योगों की ऊर्जा दक्षता सुधारने के लिए ऊर्जा तीव्रता लक्ष्य दिए थे। प्रस्तावित CCTS भी मुख्य रूप से पीएटी योजना पर आधारित है, जिसमें उद्योगों को उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य देने का प्रस्ताव है। पीएटी योजना के अनुभव से पता चलता है कि इसके लक्ष्य शिथिल थे, जिससे बाज़ार में एनर्जी सेविंग सर्टिफिकेट (ESCerts) की अधिकता हुई और उनकी कीमतें काफी कम हो गईं। इसके अलावा, उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि इन शिथिल लक्ष्यों को भी ठीक से लागू नहीं किया गया यानी उन सभी भागीदारों ने ESCerts नहीं खरीदे, जो ऐसा करने के लिए बाध्य थे। इस अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के आधार पर हम भारत में उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य विकसित करते समय ध्यान देने योग्य कुछ मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।
लक्ष्यतयकरनेकीपद्धति: उत्सर्जन लक्ष्य तय करने के लिए एक पारदर्शी और स्पष्ट पद्धति होना चाहिए, जो विभिन्न सेक्टर्स के अनुसार निर्धारित की जा सके। इससे बाज़ार के प्रतिभागी अधिक स्पष्टता और विश्वास के साथ योजनाएं बना सकेंगे।
लक्ष्योंकीस्पष्टता: कंपनियों को योजना में सही तरीके से भाग लेने के लिए दीर्घकालिक और स्पष्ट लक्ष्य चाहिए। इससे उन्हें अपनी निवेश योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। पीएटी योजना में केवल 3 साल के लक्ष्य होते हैं, जो निवेश की योजना के लिए बहुत कम समय है। इसकी बजाय, ईयू में 2030 तक के वार्षिक लक्ष्य तय किए गए हैं। भारतीय CCTS में भी 2030 तक के लक्ष्य रखे जा सकते हैं और 2026 या 2027 में 2035 तक के लक्ष्य घोषित किए जा सकते हैं।
सेक्टर–आधारितलक्ष्य: पीएटी योजना में हर कंपनी को अलग-अलग ऊर्जा लक्ष्य दिए जाते थे, जिससे योजना काफी जटिल हो जाती है क्योंकि लक्ष्य निर्धारित करने का प्रमुख आधार बेसलाइन होता है। इससे मौजूदा अक्षमताओं को नज़रअंदाज़ किया जाता है और उन लोगों को प्रोत्साहन नहीं मिलता जिन्होंने पहले ही सुधार कर लिए हैं। इसलिए, पूरे सेक्टर के लिए एक ही उत्सर्जन लक्ष्य रखना बेहतर होगा, जैसे पूरे लोहा और इस्पात क्षेत्र के लिए एक ही लक्ष्य निर्धारित करना अधिक बेहतर विकल्प है। ईयू ईटीएस और CaT में यही होता है। यह लक्ष्य क्षेत्र के सर्वोत्तम प्रदर्शनकर्ताओं के आधार पर हो सकता है। यदि छोटे और मध्यम उद्योगों (SMEs) को विशेष मदद की ज़रूरत है, तो बड़े उद्योगों और SMEs के लिए अलग-अलग लक्ष्य रखे जा सकते हैं।
लक्ष्यकास्तर: उत्सर्जन लक्ष्यों को सही स्तर पर रखना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद मिले और उद्योग प्रतिस्पर्धी बने रहें। भारत के पास पहले से ही कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य हैं। जैसे, राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान कि उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 45 प्रतिशत कम किया जाएगा और सभी बिजली उपभोक्ताओं के लिए नवीकरणीय ऊर्जा खरीदना अनिवार्य किया जाएगा। नए लक्ष्य इन्हीं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करने चाहिए। हालिया रुझानों से पता चलता है कि 2005 और 2019 के बीच भारत अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33 प्रतिशत की कमी कर चुका है।
अन्यबाजारोंकेसाथसम्बंध: CCTS कार्बन क्रेडिट्स का एकमात्र बाज़ार नहीं है। अन्य प्रस्तावों में स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार और ‘ग्रीन क्रेडिट्स’ योजना को शामिल किया गया है। फिलहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि ये बाज़ार कैसे एक साथ काम करेंगे। अलग-अलग बाज़ारों में कार्बन क्रेडिट्स की कीमत अलग-अलग हो सकती है। बीईई के पास वनीकरण जैसी गतिविधियों से कार्बन क्रेडिट्स का मूल्यांकन करने की विशेषज्ञता नहीं है। इसलिए शुरुआत में, अनिवार्य कार्बन बाज़ार को अलग रखना बेहतर होगा। बाद में, जैसे-जैसे बाज़ार मज़बूत होंगे, कुछ अनिवार्य बाज़ार को ऑफसेट बाज़ार के माध्यम से पूरा करने की अनुमति दी जा सकती है।
लक्ष्योंकोलागूकरवाना
कंपनियों के लिए उचित लक्ष्य निर्धारित करना महत्वपूर्ण है, लेकिन पूरी प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाने वाली कंपनियों को कार्बन क्रेडिट खरीदवाने की सामर्थ्य कितनी है। यदि वे ऐसा नहीं करतीं, तो उन पर सख्त दंडात्मक कार्रवाई होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो उद्योगों के लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने का कोई प्रोत्साहन/कारण नहीं रह जाएगा।
प्रस्तावित CCTS की मॉडल योजना – पीएटी – ने इसके पर्याप्त साक्ष्य प्रदान किए हैं। पीएट के पहले चरण में केवल 8 प्रतिशत गैर-अनुपालन देखा गया यानी आवश्यक ESCerts में से 92 प्रतिशत ही खरीदे गए। शायद इसलिए कि इस गैर-अनुपालन पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई। और तो और, पीएटी के दूसरे चरण में कई बार समय सीमा बढ़ाने के बाद भी अनुपालन दर 50 प्रतिशत तक गिर गई।
पीएटी के तहत दोषी कंपनियों के विरुद्ध दंडात्मक प्रावधान लागू किए जाने का कोई सार्वजनिक डैटा उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में, पीएटी में दोषी कंपनियों पर दंड लगाने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। इसमें बीईई को सम्बंधित राज्य की प्राधिकृत एजेंसी को सूचित करना पड़ता है। प्राधिकृत एजेंसी इस बात का सत्यापन करती है कि सम्बंधित कंपनी ने लक्ष्य पूरा नहीं किया है और उसके बाद राज्य विद्युत नियामक आयोग (SERC) के समक्ष याचिका दायर करना पड़ती है जो ज़ुर्माना लगाने का काम करता है। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे सफलतापूर्वक लागू करना मुश्किल हो जाता है, खास तौर से तब जब अधिकांश प्राधिकृत एजेंसियों की क्षमताएं सीमित हैं।
प्रस्तावित कार्बन बाज़ार के तहत दंड के प्रावधान में एक कानूनी अनिश्चितता भी है। इस योजना की उत्पत्ति ईपीए और ईसीए दोनों में हो सकती है, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि किस कानून के तहत दंड लगाया जाएगा और उसकी प्रक्रिया क्या होगी। इस संदर्भ में स्पष्टता आवश्यक है ताकि एक सरल, सीधी प्रक्रिया बनाई जा सके और दंडात्मक कार्रवाई का एक विश्वसनीय संकेत दिया जा सके। संभव है कि CCTS की परिभाषा स्पष्ट कर सकती है कि क्या बीईई सीधे दोषी इकाई पर दंड लगा सकती है।
स्वाभाविक रूप से, किसी भी प्रमाणपत्र का उपयोग उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य को पूरा करने के बाद तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए और वह आगे खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, दोषी फर्मों के लेखा परीक्षकों द्वारा इसे एक कानूनी उल्लंघन के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए, ताकि इसे शेयरधारकों के ध्यान में लाया जा सके।
इसके अतिरिक्त, बीईई को बाज़ार निगरानी और दंड रिपोर्ट नियमित रूप से प्रकाशित करनी चाहिए ताकि इस बात पर विश्वास बने कि बाज़ार ठीक ढंग से काम कर रहा है। इसमें तमाम जानकारी शामिल हो; जैसे कितनी इकाइयों ने उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य हासिल किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र जारी किए गए, कितनी इकाइयों ने लक्ष्य हासिल नहीं किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र खरीदने थे, और वास्तव में कितने खरीदे गए, लगाए गए दंड, वसूले गए दंड और दोषी इकाइयों के नाम वगैरह। अन्य जानकारी जैसे खरीद-फरोख्त किए गए प्रमाणपत्रों की मात्रा, कीमतें, और निरस्त किए गए प्रमाणपत्रों की संख्या इत्यादि भी प्रकाशित की जानी चाहिए ताकि भारतीय कार्बन बाज़ारों की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी सार्वजनिक तौर पर मिल सके।
निष्कर्ष
भारत अपने निरंकुश उद्योगों के डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए एक कार्बन बाज़ार की महत्वपूर्ण योजना बना रहा है। इसे हासिल करने के लिए CCTS को सावधानी से डिज़ाइन करने और उसके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं की आवश्यकता है। संस्थागत संरचना को सुगम और मज़बूत बनाने के लिए उसे पर्याप्त संसाधनों के माध्यम से संभालने की आवश्यकता है। इसे एक सरल, प्रभावी और पारदर्शी प्रवर्तन प्रणाली का समर्थन मिलना चाहिए जो कंपनियों को योजना में भाग लेने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करे। उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित करने में भी सतर्कता की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये न तो बहुत ही ढीले हों और न ही बहुत ही कठोर, तथा कंपनियों को डीकार्बोनाइज़ेशन प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाएं। इसके बिना, संभावना है कि भारत के पास एक कार्बन मार्केट तो होगा, लेकिन यह न तो भारतीय उद्योगों के प्रभावी डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद करेगा, और न ही भारतीय उद्योग उत्सर्जन कम करने के वैश्विक दबावों के चलते वैश्विक उद्योगों से मुकाबला कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://businessindia.co/media/general/carboncreditmarket_3.large.jpg
कोविड महामारी ने हम सबको वायरस के अस्तित्व और महत्व से दर्दनाक ढंग से परिचित करा दिया है। दरअसल, वायरसों की खोज 1800 के दशक के उत्तरार्ध में हुई थी। ये छोटी-से-छोटी कोशिकाओं से भी छोटे होते हैं। इनमें एक प्रोटीन कवच होता है और उस कवच के अंदर ज़्यादा कुछ नहीं, बस चंद जीन्स होते हैं। लेकिन इनकी दिक्कत यह है कि इनके पास वह व्यवस्था नहीं होती कि इन जीन्स की प्रतिलिपियां बना सकें। अपनी प्रतिलिपि बनाने के लिए ये किसी अन्य कोशिका के ताम-झाम पर निर्भर होते हैं। लिहाज़ा, खोज के साथ ही यह बहस शुरू हो गई कि ये वायरस कण सजीव माने जाएं या निर्जीव। ये तो अपनी प्रतिलिपि तभी बना पाते हैं जब ये किसी उपयुक्त कोशिका में प्रवेश कर पाएं।
लेकिन इनकी सरल संरचना ने जीव वैज्ञानिकों को बहुत लुभाया। कई लोग तो मानते हैं कि वायरसों के अध्ययन ने ही आधुनिक जीव विज्ञान (खासकर जेनेटिक्स, जेनेटिक इंजीनियरिंग, बायोटेक्नॉलॉजी वगैरह) को संभव बनाया है। कोशिकाओं की जटिलताओं से मुक्त वायरसों के अध्ययन से वे नियम उजागर हुए जिनसे जीन्स के कामकाज को समझा जा सका। लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि सरलता एक तरफ, वायरसों में कई जटिलताएं भी होती हैं।
हाल के दशकों में हुए अनुसंधान ने वायरसों के कई ऐसे गुणधर्म उजागर किए हैं जिनकी कल्पना तक नहीं गई थी। नए अनुसंधान ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह उजागर की है कि वायरसों को एक-दूसरे से स्वतंत्र कण मानकर उनके सारे गुणों को नहीं समझा जा सकता। दरअसल नए अनुसंधान से वायरसों के सामाजिक संसार की बातें सामने आने लगी हैं। कई वायरस-विज्ञानी मानने लगे हैं कि वायरसों की वास्तविकता को तभी समझा जा सकता है जब आप उन्हें एक समुदाय का सदस्य मानें – इस अर्थ में कि वे एक-दूसरे से सहयोग करते हैं, एक-दूसरे को ठगते हैं और अन्य तरह से परस्पर क्रिया करते हैं।
पूरी सोच की शुरुआत 1940 के दशक में एक डैनिश वायरस विज्ञानी प्रेबेन फॉन मैग्नस के प्रयोगों से हुई थी। फॉन मैग्नस जब अपनी प्रयोगशाला में वायरस पनपा रहे थे, तब उन्होंने एक विचित्र बात पर गौर किया। वायरसों की वृद्धि के लिए वे मुर्गी के अंडे में वायरस स्टॉक का इंजेक्शन लगाते थे और फिर उन्हें संख्यावृद्धि करने देते थे। आम तौर पर बैक्टीरिया वगैरह को पनपने के लिए पोषक पदार्थों से परिपूर्ण माध्यम पर्याप्त होता है। लेकिन चूंकि वायरस के पास अपनी प्रतिलिपि बनाने के लिए आवश्यक जीन्स नहीं होते, इसलिए उन्हें किसी सजीव कोशिका में ही पनपाना होता है। फॉन मैग्नस के प्रयोग में जीवित कोशिका के रूप में मुर्गी के अंडे का उपयोग किया गया था। उन्होंने पाया कि एक अंडे में तैयार कई वायरस दूसरे अंडे में इंजेक्ट करने पर वृद्धि नहीं कर पाते थे। ऐसे तीन चक्र पूरा होने के बाद 10,000 में से मात्र एक वायरस ही संख्यावृद्धि कर पा रहा था। लेकिन इसके बाद के चक्रों में ‘दोषपूर्ण’ वायरसों की संख्या कम होती गई और संख्यावृद्धि योग्य वायरसों की संख्या बढ़ गई।
फॉन मैग्नस ने माना कि संख्यावृद्धि न कर पाने वाले वायरस पूरी तरह विकसित नहीं हो पाए हैं और उन्हें ‘अपूर्ण’ घोषित कर दिया। आगे चलकर, अपूर्ण वायरसों के उतार-चढ़ाव की इस तरह की घटनाएं कई बारी देखी गईं और इसे नाम दे दिया गया ‘फॉन मैग्नस प्रभाव’। लेकिन वायरस वैज्ञानिकों के लिए यह मात्र एक समस्या थी जिसे हल करने की ज़रूरत थी क्योंकि यह प्रयोगों में अड़चन पैदा करती थी। वैसे भी किसी ने प्रयोगशाला से बाहर यानी प्राकृतिक परिस्थिति में अपूर्ण वायरस नहीं देखे थे, इसलिए माना गया कि यह प्रयोगशाला कल्चर तक सीमित मामला है।
बहरहाल, 1960 के दशक में शोधकर्ताओं ने देखा कि अपूर्ण वायरस के जीनोम सामान्य वायरसों के जीनोम से छोटे होते हैं। इस खोज के चलते वायरस विज्ञानियों का यह विश्वास और दृढ़ हो गया कि अपूर्ण वायरस इसलिए संख्या-वृद्धि नहीं कर पाते क्योंकि उनमें प्रतिलिपि बनाने के लिए ज़रूरी जीन नहीं होता। यानी ये दोषपूर्ण हैं। लेकिन 2010 के दशक में शक्तिशाली जीन अनुक्रमण टेक्नॉलॉजी की मदद से यह स्पष्ट हो गया कि तथाकथित अपूर्ण वायरस स्वयं हमारे शरीर में बहुतायत में पाए जाते हैं।
2013 में प्रकाशित एक अध्ययन में पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने विचित्र अवलोकन किया। उन्होंने फ्लू से पीड़ित व्यक्तियों की नाक व मुंह से फोहों पर नमूने (स्वाब) एकत्रित किए। इन नमूनों में से उन्होंने फ्लू के वायरसों का जेनेटिक पदार्थ अलग किया और देखा कि उनमें से चंद वायरसों में कुछ जीन्स नदारद हैं। ये ‘बौने’ वायरस तब बनते हैं जब संक्रमित मेज़बान कोशिका किसी कामकाजी वायरस के जीनोम की गलत नकल कर देती है, और कुछ जीन्स की नकल करना चूक जाती है। इस खोज की पुष्टि कई अन्य अध्ययनों से भी हुई। अन्य अध्ययनों से अपूर्ण वायरसों के बनने के कई अन्य रास्ते भी सामने आए।
जैसे कुछ वायरसों में जीनोम गड्ड-मड्ड हुए होते हैं। होता यह है कि संक्रमित कोशिका वायरस जीनोम की नकल करने लगती है और किसी वजह से बीच में रुककर उल्टी नकल कर डालती है और प्रारंभिक बिंदु तक फिर से नकल कर देती है। कुछ अन्य अपूर्ण वायरस तब बनते हैं जब कोई उत्परिवर्तन किसी जीन के अनुक्रम को तहस-नहस कर देता है और फिर वह जीन कोई काम का प्रोटीन नहीं बना पाता।
इन तमाम अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया कि फॉन मैग्नस के अपूर्ण वायरस मात्र प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वायरस जैविकी का कुदरती हिस्सा है। फिर हमारे अपने शरीरों में अपूर्ण वायरसों की खोज ने इनमें दिलचस्पी में इजाफा किया। और तो और, यह भी पता चला कि अपूर्ण वायरस मात्र फ्लू तक सीमित नहीं हैं बल्कि कई अन्य संक्रमणों (जैसे आरएसवी और खसरा) से बीमार व्यक्तियों के शरीर में पाए गए अधिकांश वायरस अपूर्ण होते हैं।
समस्या यह है कि अपूर्ण वायरस कोशिकाओं में बाकी वायरसों के समान ही घुस सकते हैं लेकिन घुसने के बाद वे अपनी प्रतिलिपि नहीं बना सकते। उनके पास वे जीन्स ही नहीं होते जो मेज़बान की प्रोटीन-निर्माण मशीनरी को अगवा करने के लिए ज़रूरी होते हैं। जैसे उनके पास जीन-प्रतिलिपिकरण का एंज़ाइम (पोलीमरेज़) बनाने के लिए ज़रूरी जीन होता ही नहीं। लेकिन वे अपनी प्रतिलिपि बनाते तो हैं। इसके लिए वे ठगी का सहारा लेते हैं। वे अपने हमसफर वायरसों का फायदा उठाते हैं।
ठगों के लिए अच्छी बात यह होती है कि अमूमन कोई भी कोशिका एक से अधिक वायरसों द्वारा संक्रमित की जाती है। यदि ऐसी संक्रमित कोशिका में कोई कामकाजी वायरस हो, तो वह पोलीमरेज़ बनाएगा। तब ठग वायरस इस पोलीमरेज़ का लाभ लेकर अपने जीन्स की प्रतिलिपि बनवा सकता है।
वास्तव में, ऐसी मेज़बान कोशिका में दोनों वायरस अपने-अपने जीनोम की प्रतिलिपि बनवाने की होड़ करते हैं। ठग वायरस इस होड़ में फायदे में रहता है: उसके पास प्रतिलिपिकरण के लिए कम सामग्री है। लिहाज़ा वही पोलीमरेज़ एक अपूर्ण जीनोम की प्रतिलिपियां जल्दी बना देता है। और जब ये पूर्ण व अपूर्ण वायरस संक्रमण को आगे बढ़ाते हैं (यानी एक से दूसरी कोशिका में जाते हैं) तो ठग को और फायदा मिलता है। यह फायदा संक्रमण बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।
ठगों की अन्य रणनीतियां भी होती हैं। जैसे कुछ अपूर्ण वायरसों में पोलीमरेज़ का जीन तो होता है लेकिन उनके पास वह प्रोटीन कवच बनाने का जीन नहीं होता जिसके अंदर वे अपनी जेनेटिक सामग्री को सहेज सकें। ऐसे ठग प्रतिलिपिकरण करके इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई पूर्ण कामकाजी वायरस उस मेज़बान कोशिका में प्रवेश करके कवच बनाए। वे चुपचाप उस कवच में घुस जाते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि कवच में घुसने के मामले में ठग का जीनोम कहीं फुर्तीला होता है, छोटा जो है।
एशर लीक येल विश्वविद्यालय में एक पोस्ट-डॉक छात्र के रूप में ऐसे वायरसों पर शोध करते रहे हैं जिनके लिए ज़रूरी होता है कि वे एक ही कोशिका में एक साथ उपस्थित हों, तभी वे प्रतिलिपियां बना सकते हैं। इन्हें मल्टीपार्टाइट वायरस कहते हैं। उनके अनुसार, लगता तो है कि ये वायरस परस्पर सहयोग कर रहे हैं लेकिन शायद यह व्यवहार ठगी से ही उपजा है। बहरहाल, अपूर्ण वायरस जो भी रणनीति अपनाएं, एक बात स्पष्ट है – वे इसकी कीमत नहीं चुकाते।
लेकिन एक समस्या पर विचार करना ज़रूरी है। ठग खुद तो अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन किसी अन्य (पूर्ण) वायरस की उपस्थिति में उसका प्रदर्शन पूर्ण वायरस की अपेक्षा बेहतर रहता है। समस्या यह है कि यदि इस तरह से बहुत सारे ठग इकट्ठे हो गए तो वे ठगेंगे किसे? दूसरे शब्दों में कहें, तो ठग की बेइन्तहा सफलता का परिणाम होना चाहिए कि वायरसों का सफाया हो जाए, वे विलुप्त हो जाएं। क्योंकि हर पीढ़ी के बाद अपूर्ण वायरसों की संख्या बढ़ती जाएगी और वे हावी हो जाएंगे। अब यदि उनका अनुपात बहुत बढ़ गया तो उनके अपने प्रतिलिपिकरण में मददगार वायरस बहुत कम बचेंगे और वायरस का नामोनिशान मिटने की कगार पर होगा।
ज़ाहिर है, ऐसा होता नहीं। फ्लू के वायरस इस तरह के विलुप्तिकरण के शिकार नहीं हुए हैं। यानी इस ठगी-चालित मृत्यु के चक्र में कुछ और पहलू भी हैं जो वायरसों की रक्षा करते हैं। वॉशिंगटन विश्वविद्यालय की कैरोलिना लोपेज़ का मत है कि ठगी में लिप्त वायरस संभवत: कोई अन्य भूमिका भी निभाते होंगे। शायद वे अपने हमसफर वायरसों को लूटने की बजाय उन्हें पनपने में सहयोग करते हैं। लेकिन कैसे?
लोपेज़ सैन्डाई वायरस का अध्ययन करती हैं। यह वायरस चूहों को संक्रमित करता है। अध्ययनों से पता चल चुका था कि इस वायरस की दो किस्में (स्ट्रेन्स) अलग-अलग ढंग से व्यवहार करती हैं। इनमें से एक को SeV-52 कहते हैं और यह प्रतिरक्षा तंत्र से ओझल रहता है। इसके चलते SeV-52 ज़ोरदार संक्रमण पैदा कर पाता है। लेकिन एक अन्य किस्म (SeV-Cantell) के खिलाफ त्वरित व शक्तिशाली प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है जिसके चलते इसके संक्रमण के परिणाम ज़्यादा घातक नहीं होते। लोपेज़ की टीम ने पाया कि इस अंतर की वजह यह है कि SeV-Cantell बड़ी संख्या में अपूर्ण वायरस उत्पन्न करता है।
तो सवाल यह उठा कि ये अपूर्ण वायरस चूहों में इतनी शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया क्यों उत्पन्न करते हैं। काफी अनुसंधान के बाद लोपेज़ की टीम यह दर्शाने में सफल रही कि अपूर्ण वायरस संक्रमित कोशिका के चेतावनी तंत्र को सक्रिय कर देते हैं। इसके चलते कोशिका इंटरफेरॉन नामक एक संदेशवाहक अणु बनाने लगती है जो आसपास की कोशिकाओं को चेता देता है कि कोई घुसपैठिया आया है। इस चेतावनी का परिणाम यह होता है कि वे कोशिकाएं वायरस के खिलाफ तैयारी कर लेती हैं और वायरस का त्वरित प्रसार थम जाता है।
लोपेज़ ने परिकल्पना बनाई कि किसी कोशिका के अंदर अपूर्ण वायरस कामकाजी वायरसों से ठगी करता होगा लेकिन कुल मिलाकर असर यह होता है कि संक्रमण के प्रसार पर अंकुश लग जाता और यह पूरे वायरस समुदाय के लिए लाभदायक होता है। और तो और, लोपेज़ के दल ने पाया कि यह स्थिति सिर्फ सेन्डाई वायरस के साथ नहीं होती। जब उन्होंने RSV पर ध्यान दिया तो पाया कि उसमें भी संक्रमण के दौरान अपूर्ण वायरस शक्तिशाली प्रतिरक्षा उत्पन्न करता है।
स्थिति बहुत ही दिलचस्प है। क्योंकि यदि अपूर्ण वायरस ठग हैं तो उनके लिए यह तो कदापि लाभदायक नहीं होगा कि वे संक्रमण को जल्दी खत्म करवा दें। यदि प्रतिरक्षा तंत्र ने सारे कामकाजी वायरसों को नष्ट कर दिया तो ठग किसे ठगेंगे?
उपरोक्त परिणामों को एक ही ढंग से देखने पर कोई अर्थ निकलता है। लोपेज़ ने अपूर्ण वायरसों को ठग के तौर पर देखने की बजाय यह विचार करना शुरू किया कि शायद अपूर्ण वायरस और कामकाजी वायरस मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। और इस सहयोग का अंतिम लक्ष्य है समुदाय का लंबे समय तक जी पाना। लोपेज़ ने विचार किया कि यदि कामकाजी वायरस अनियंत्रित ढंग से नए-नए वायरस बनाते रहे तो वे अपने मेज़बान पर हावी होकर उसकी जान ले लेंगे, इससे पहले कि वे किसी नए मेज़बान तक पहुंच सकें। यह तो आत्मघाती होगा। लोपेज़ कहती हैं कि एक स्तर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया ज़रूरी है तभी मेज़बान कम से कम इतने समय जीवित रहेगा कि वायरस नए मेज़बान में पहुंच सके।
इसी मुकाम पर अपूर्ण वायरस प्रकट होते हैं। वे संक्रमण पर लगाम लगाते हैं ताकि अगले मेज़बान तक पहुंचा जा सके। इस तरह से देखें तो शायद अपूर्ण और कामकाजी वायरस परस्पर सहयोग कर रहे हैं। हाल के वर्षों में लोपेज़ की टीम ने पता किया है कि अपूर्ण वायरस कई तरीकों से संक्रमण पर लगाम लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे कोशिका में ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं कि जैसे वह गर्मी या ठंड के कारण तनाव में है। ऐसी स्थिति में कोशिका की एक प्रतिक्रिया यह होती है कि वह अपनी प्रोटीन-निर्माण मशीनरी को बंद कर देती है। ऐसा होने पर वायरसों का बनना स्वत: कम हो जाएगा।
हाल ही में इलिनॉय विश्वविद्यालय के क्रिस्टोफर ब्रुक ने बताया है कि संक्रमित कोशिका सैकड़ों विचित्र प्रोटीन बनाने लगती है जो अपूर्ण वायरस जीनोम के जीन्स के ज़रिए बनते हैं। वे भी इस बात से सहमत हैं कि वायरस अकेले-अकेले नहीं बल्कि समुदाय के रूप में रहते हैं। ब्रुक अब इसी तरह के प्रमाण फ्लू वायरस के संदर्भ में खोजने की जुगाड़ में हैं। गौरतलब है कि एक संपूर्ण फ्लू वायरस में 8 जीन खंड होते हैं जो आम तौर पर 12 या अधिक प्रोटीन बनाते हैं। लेकिन जब संक्रमित कोशिकाएं अपूर्ण वायरस पैदा करती हैं, तब किसी जीन का मध्य भाग छोड़ दिया जाता है और शेष भागों को आपस में जोड़ दिया जाता है। इतनी उथल-पुथल के बावजूद ये परिवर्तित जीन्स प्रोटीन बनाते रहते हैं। अलबत्ता, इन प्रोटीन्स के काम सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में ब्रुक ने बताया है कि फ्लू संक्रमित कोशिकाओं में उन्हें ऐसे सैकड़ों नए प्रोटीन्स मिले हैं। ये विज्ञान के लिए एकदम नए हैं। शोधकर्ता पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये प्रोटीन करते क्या हैं।
ऐसे एक प्रोटीन पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि यह जाकर संपूर्ण वायरस द्वारा बनाए गए पोलीमरेज़ से चिपक जाता है और उसे नए वायरस जीनोम बनाने से रोक देता है। लेकिन फिलहाल वैज्ञानिक नहीं जानते कि अपूर्ण वायरस द्वारा बनाए गए इतने सारे प्रोटीन करते क्या हैं।
लेकिन ये दो परिकल्पनाएं महत्वपूर्ण हैं – ठगी और सहयोग। इनके बीच फैसला कर पाना मुश्किल है।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उदाहरण नैनोवायरसों का है। ये वायरस पार्सले और फेवा बीन्स जैसे पौधों को संक्रमित करते हैं। इनका प्रतिलिपिकरण का तरीका बहुत अजीब होता है। इनमें कुल मिलाकर 8 जीन्स होते हैं लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्रत्येक वायरस कण में इन 8 में से एक ही जीन पाया जाता है। तो होता यह है कि जब ऐसे सारे 8 अलग-अलग जीनधारी वायरस कण एक साथ एक ही कोशिका में उपस्थित हों, तभी वे अपनी प्रतिलिपि बना सकते हैं। पौधे की कोशिका सभी 8 जीन्स के प्रोटीन बनाती है और उनके जीन्स की प्रतिलिपि भी बनाती है जो नए कवचों में पैक हो जाते हैं।
यह तो सहयोग का शास्त्रोक्त मामला लगता है। देखा जाए तो इन आठों वायरस कणों को मिल-जुलकर काम करना पड़ेगा, तभी प्रतिलिपि बन पाएगी। लेकिन लीक्स और उनके साथियों ने दर्शाया है कि नैनोवायरस (जिन्हें मल्टीपार्टाइट वायरस भी कहते हैं) में यह सहयोग बारास्ता ठगी भी विकसित हो सकता है।
मान लीजिए कि शुरुआत में नैनोवायरसों में सारे जीन्स एक ही जीनोम में मौजूद थे। यह संभव है कि इस वायरस ने गलती से कोई अपूर्ण वायरस उत्पन्न कर दिया जिसमें एक ही जीन है। यह अपूर्ण ठग वायरस तभी जी सकता है जब कोई पूर्ण वायरस इसके जीन की प्रतिलिपि बनवा दे। इसी प्रकार से किसी दूसरे जीन से युक्त कोई अन्य अपूर्ण ठग बन सकता है और उसे भी किसी पूर्ण वायरस को लूटकर ऐसा ही लाभ मिल जाएगा। लीक्स के दल ने इस तरह की क्रियाविधि का गणितीय मॉडल बनाया तो समझ में आया कि वायरस काफी तेज़ी से ठगों का रूप ले सकते हैं। यानी लगेगा सहयोग, लेकिन शुरुआत होगी ठगी से। इनके बीच फैसला करने के लिए बहुत अनुसंधान की ज़रूरत होगी, लेकिन वैज्ञानिकों के बीच एक उम्मीद भी जगी है।
सामाजिक वायरस विज्ञानी यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वायरसों में उपस्थित ठगी और सहयोग की घटना का उपयोग वायरस से लड़ने में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए सिंगापुर एजेंसी फॉर साइन्सेज़ के मार्को विग्नुज़ी की टीम ने इस विचार की जांच ज़िका वायरस के संदर्भ में की है। उन्होंने जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक से ऐसे अपूर्ण ज़िका वायरस तैयार किए जो कामकाजी वायरसों का भरपूर शोषण कर सकते थे। जब उन्होंने ऐसे ठगों को संक्रमित चूहों में प्रविष्ट किया तो उनमें कामकाजी वायरसों की संख्या में तेज़ी से कमी आई। अब इसे एक उपचार विधि के रूप में विकसित करने पर काम चल रहा है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में शोधकर्ता बेन टेनोवर की टीम फ्लू वायरस के ठग वायरस विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे वायरस के ही एक लक्षण का फायदा उठाने की फिराक में हैं। ऐसा देखा गया है कि कभी-कभार एक ही कोशिका को एक ही समय पर संक्रमित करने वाले दो अलग-अलग वायरसों की जेनेटिक सामग्रियां एक ही कवच में पैक हो जाती हैं और एक नया वायरस प्रकट हो जाता है। टेनोवर का दल ऐसे अपूर्ण वायरस विकसित करना चाहता है जो फ्लू वायरस के जीनोम में घुसपैठ कर सकें।
इस दिशा में टेनोवर की टीम ने ठग वायरस से एक नेज़ल स्प्रे तैयार किया है। यह स्प्रे चूहों की नाक में छिड़क दिया जाए तो वे फ्लू के संक्रमण को झेल जाते हैं। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की इस टीम ने फ्लू संक्रमित कोशिकाओं से अपूर्ण वायरस हासिल किए हैं। इनमें से उन्होंने कुछ महा-ठग पहचाने हैं जो अपने जीन्स को कामकाजी फ्लू वायरस में पहुंचाने में कामयाब रहते हैं। इसके बाद जो वायरस बनता है वह संख्या-वृद्धि करने में कमज़ोर रहता है। जब कुछ चूहों को जानलेवा फ्लू से संक्रमित करने के बाद इस महा-ठग के संपर्क में लाया गया तो उनका संक्रमण काफी नियंत्रण में आ गया। यही प्रयोग उन्होंने गंधबिलावों पर भी करके अच्छे परिणाम हासिल किए।
अचरज की बात तो यह रही कि संक्रमित गंधबिलावों ने अन्य को जो वायरस हस्तांतरित किए उनमें काफी सारे महा-ठग भी थे। अर्थात यह संभव है कि ये महा-ठग वायरस के प्रसार पर भी अंकुश लगा सकते हैं।
अलबत्ता, कई शोधकर्ताओं ने चेताया है कि हम इस विषय में अभी बहुत कुछ नहीं जानते हैं। इसलिए इन ठगों के चिकित्सकीय उपयोग से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.wired.com/photos/664794450289e528557fbd67/4:3/w_1920,h_1440,c_limit/Science_1_Quanta_VirusSocialLives-byCarlosArrojo-Lede-scaled.jpg
विगत दो सदी में भारत में विज्ञान लेखन वृहद स्तर पर हुआ है और कई विशिष्ट शैलियों का विकास हुआ है। इन्हें पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के ज़रिए पाठकों तक पहुंचाया जा चुका है। यहां मूलत: विज्ञान पत्रिकाओं की चर्चा की गई है।
पत्रिकाओंकीविषयवस्तु
शुरुआत में भारतीय विज्ञान पत्रिकाओं में 19वीं सदी का समय मूल रूप से साहित्य, सूचना और शिक्षा पर केंद्रित रहा। विज्ञान को भी प्राथमिक स्तर पर साहित्यिक मनीषियों, पत्रिकाओं ने जगह दी। भारतीय संदर्भ में विज्ञान जागृति की अलख जगाने की शुरुआत सर्वप्रथम साहित्यिक पत्रिकाओं से हुई। साहित्यिक पत्रिकाओं ने जनमानस में विज्ञान जागरण के प्रति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विज्ञान जागरण की पहली आधार स्तंभ बांग्ला भाषा बनी। अप्रैल 1818 में श्रीरामपुर (ज़िला हुगली, पश्चिम बंगाल) के बेपटिस्ट मिशनरियों ने बांग्ला और अंग्रेज़ी में मासिक दिग्दर्शन पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। इसके संपादक थे क्लार्क मार्शमैन (1793-1877)। दिग्दर्शन का हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया था। पत्रिका के हिंदी में अंक में दो वैज्ञानिक लेख प्रकाशित किए गए थे – ‘अमेरिका की खोज’ और ‘बैलून द्वारा आकाश यात्रा’। यह भारत में विज्ञान प्रकाशन का पहला कदम था।
जनवरी 1878 से बनारस से प्रकाशित द्विभाषी पत्रिका काशी को हिंदी में विज्ञान लोकप्रियकरण का पहला उदाहरण माना जा सकता है। बालेश्वर प्रसाद के संपादन और रामानंद के प्रबंधन में चन्द्रप्रभा प्रेस द्वारा हिंदी और उर्दू में यह पत्रिका हर शुक्रवार को प्रकाशित होती थी। इसके मुखपृष्ठ पर छपा होता था – ‘ए वीकली एजुकेशनल जर्नल ऑफ साइंस, लिटरेचर एण्ड न्यूज़ इन हिन्दुस्तानी’।
विज्ञानपत्रिकाओंकाआरंभ
विज्ञान पत्रिकाओं में सर्वप्रथम विज्ञान के किसी एक विषय को ही आधार बनाते हुए प्रकाशन आरंभ हुआ। चिकित्सा पहला मुख्य विषय रहा जिस पर किसी विज्ञान पत्रिका का प्रकाशन हुआ। डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के अनुसार चिकित्सा विषय की पहली पत्रिका 1842 में चिकित्सासोपान नाम से श्रीराम शास्त्री के संपादन में प्रकाशित हुई। इसके बाद सन 1881 में प्रयाग से आरोग्यदर्पण नाम से चिकित्सा सम्बंधी विषयों को लेकर एक और पत्रिका प्रकाशित हुई।
चिकित्सा के बाद कृषि मुख्य विषय रहा जिस पर पत्रिका प्रकाशन हुआ। डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के अनुसार कृषि की पहली पत्रिका 1911 में किसानमित्र नाम से पटना से रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा हिंदी भाषा में प्रकाशित की गई।
अलबत्ता विज्ञान के और भी विविध विषय थे जो अभी तक अछूते रहे थे। 20वीं सदी के दूसरे दशक में विज्ञान के सभी विषयों को समावेशित कर उन पर लेख, समाचार और जानकारी प्रकाशित करने का कार्य हुआ। विशुद्ध रूप से विज्ञान पत्रिका होने का श्रेय विज्ञान नामक पत्रिका को जाता है। 1913 में प्रयागराज में विज्ञान परिषद की स्थापना की गई थी जिसने 1915 से विज्ञान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था।
विज्ञान पत्रिका के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम प्राणिशास्त्रनामक पत्रिका का आता है। इसका प्रकाशन प्रसिद्ध विद्वान देवी शंकर मिश्र द्वारा किया गया। 1948 में देवी शंकर द्वारा भारतीय प्राणिशास्त्र परिषद की स्थापना की गई थी और इसी परिषद के अंतर्गत 1948 में प्राणिशास्त्र का प्रकाशन आरंभ किया गया।
भारत सरकार द्वारा भी आज़ादी के बाद विज्ञान प्रसार को बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया गया। इसके लिए सन 1952 से भारत सरकार की वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा विज्ञानप्रगति पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया गया। पत्रिका अपने उत्कृष्ट प्रकाशन तथा सामग्री के लिए सन 2022 में राष्ट्रीय राजभाषा कीर्ति सम्मान से भी सम्मानित हो चुकी है।
विज्ञान संसार की एक और महत्वपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन 1961 में इंडियन प्रेस, प्रयाग द्वारा विज्ञानजगत नाम से हुआ। इस सचित्र मासिक पत्रिका के संपादक आर. डी. विद्यार्थी थे।
सन 1969 से भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई द्वारा वैज्ञानिक विषयों पर वैज्ञानिक नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जा रहा है। पत्रिका के शुरुआती अंकों का संपादन ब्रजमोहन पांडे, डॉ. प्रताप कुमार माथुर, उमेश चंद्र मिश्र तथा माधव सक्सेना द्वारा किया गया था।
भारत सरकार के उपक्रम द्वारा एक और राष्ट्रीय पत्रिका आविष्कार का प्रकाशन सन 1971 से नेशनल रिसर्च डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन, नई दिल्ली द्वारा किया जा रहा है।
हिंदी विज्ञान पत्रिकाओं के प्रकाशन इतिहास के क्रम में सन 2018 तक कई अन्य पत्रिकाएं भी प्रकाशित की गईं। इनकी सूची लेख के अंत में दी गई है।
सामाजिकप्रभाव
साक्षरता के स्तर को बढ़ाने तथा जन-जागृति पैदा करने में पत्र-पत्रिकाओं की विशेष भूमिका रही है। इस दृष्टिकोण से हिंदी की विज्ञान पत्रिकाओं ने अपने सौ वर्षों से भी लंबे सफर में महत्वपूर्ण कार्य किया है। पत्रिकाओं ने जनमानस और विद्यार्थियों में तार्किक वैज्ञानिक सोच विकसित करने का कार्य किया। नवागत विज्ञान लेखकों का सृजन हुआ। हिंदी विज्ञान लेखन हिंदी साहित्य की नई विधा के रूप में स्थापित हुआ। महिलाओं को भी विज्ञान लेखन के प्रति आकृष्ट करने का कार्य विज्ञान पत्रिकाओं ने किया। विज्ञान विषयों पर प्रकाशित महत्वपूर्ण विशेषांकों ने विषय विशेष पर सामाजिक जागरूकता उत्पन्न की। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitVf5P6yMvwMuuwqLOvfVseEAPAQWzmmr78kt6gLaYYXRPKI7qrx1weRTi3zTXZ6zO4HQRFFUcaECJmstVf0NLFa8Hd60U6xE6Zreij6onLkanm_LWGGjLe5uHKVg6dn9Pk1FbPkAJMtbm/s1600/hindi+science+magazines.jpg
भारत में हाथियों की आबादी करीब 25-30 हज़ार बची है। नतीजतन, इन्हें ‘लुप्तप्राय’ श्रेणि में रखा गया है। अनुमान है कि पहले हाथी जितने बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे, उसकी तुलना में आज ये उसके मात्र 3.5 प्रतिशत क्षेत्र में सिमट गए हैं – अब ये हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत के कुछ जंगलों और पश्चिमी एवं पूर्वी घाट के पहाड़ी जंगलों तक ही सीमित हैं।
विशेष चिंता का विषय उनके प्राकृतवास का छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंट जाना है: हाथियों को भोजन एवं आश्रय देने वाले वन मनुष्यों द्वारा विकसित भू-क्षेत्रों (रेलमार्ग, सड़कमार्ग, गांव-शहर वगैरह बनने) की वजह से खंडित होकर छोटे-छोटे वन क्षेत्र रह गए हैं। इस विखंडन से हाथियों के प्रजनन विकल्प भी सीमित हो सकते हैं। इससे आनुवंशिक अड़चनें पैदा होती हैं और आगे जाकर झुंड की फिटनेस में कमी आती है।
हाथियों का अपने आवास क्षेत्र में लगातार आवागमन उन्हें सड़कों और रेलवे लाइनों के संपर्क में लाता है। दरअसल, एक हथिनी के आवास क्षेत्र का दायरा लगभग 500 वर्ग किलोमीटर होता है, और टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अपने आवास में इतनी दूरी तय करते हुए उसकी सड़क या रेलवे लाइन से गुज़रने की संभावना (और इसके चलते दुर्घटना की संभावना) बहुत बढ़ जाती है।
सौभाग्य से, सभी हाथी-मार्गों (जिन रास्तों से वे आवागमन करते हैं) पर इस तरह के खतरे नहीं हैं। बांदीपुर, मुदुमलाई और वायनाड के हाथी गर्मियों में मौसमी प्रवास पर जाते हैं। वे पानी और हरी घास के लिए काबिनी बांध के बैकवाटर की ओर जाते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि तमिलनाडु और केरल के बीच हाथियों के 18 प्रवास-मार्ग मौजूद हैं।
इस समस्या का एक समाधान वन्यजीव गलियारे हैं – ये गलियारे मनुष्यों के साथ कम से कम संपर्क के साथ जानवरों को प्रवास करने का रास्ता देते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण उत्तराखंड का मोतीचूर-चिल्ला गलियारा है, जो कॉर्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यानों के बीच हाथियों के आने-जाने (और इस तरह जीन के प्रवाह) को सुगम बनाता है। हालांकि, मनुष्यों के साथ संघर्ष का खतरा तो हमेशा बना रहता है – हाथी कभी-कभी फसलों को खा जाते हैं, या सड़कों और रेल पटरियों पर आ जाते हैं।
ट्रेनकीरफ्तार
कनाडा में हुई एक पहल ने पशु-ट्रेन टकराव को कम करने का प्रयास किया है – इस प्रयास में ट्रेन के आने की चेतावनी देने के लिए पटरियों के किनारे विभिन्न स्थानों पर जल-बुझ लाइट्स और घंटियां लगाई गई थीं। ये लाइट्स और घंटियां ट्रेन के आने के 30 सेकंड पहले चालू हो जाती थीं – इन संकेतों का उद्देश्य जानवरों में इन चेतावनियों और ट्रेन आने के बीच सम्बंध बैठाना था।
चेतावनी प्रणाली युक्त और चेतावनी प्रणाली रहित सीधी और घुमावदार दोनों तरह की पटरियों पर कैमरों ने ट्रेन आने के प्रति जानवरों की प्रतिक्रियाओं को रिकॉर्ड किया। देखा गया कि बड़े जानवर, जैसे हिरण परिवार के एल्क और धूसर भालू चेतावनी प्रणाली विहीन ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 10 सेकंड पहले पटरियों से दूर चले जाते हैं, जबकि चेतावनी प्रणाली युक्त ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 17 सेकंड पहले। (यह अध्ययन ट्रांसपोर्टेशनरिसर्चजर्नल में प्रकाशित हुआ है।)
घुमावदार ट्रैक पर आती ट्रेन के प्रति प्रतिक्रिया कम दिखी, संभवत: कम दृश्यता के कारण। ऐसी जगहों पर, जानवर ट्रेन की आहट का आवाज़ से पता लगाते हैं। अलबत्ता, ट्रेन आ रही है या नहीं इसकी टोह आवाज़ से मिलना ट्रेन की तेज़ रफ्तार जैसे कारकों से काफी प्रभावित होती है।
कृत्रिमबुद्धि (एआई) कीमदद
हाथियों के आवास वाले जंगलों से गुज़रते समय इंजन चालक को कब ट्रेन की रफ्तार कम करनी चाहिए? भारतीय रेलवे के पास ऑप्टिकल फाइबर केबल का एक विशाल नेटवर्क है। ये केबल दूरसंचार और डैटा के आवागमन को संभव बनाते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से ट्रेन नियंत्रण के लिए संकेत भेजते हैं। हाल ही में शुरू की गई गजराज नामक प्रणाली में, इन ऑप्टिकल फाइबल केबल की लाइनों पर जियोफोनिक सेंसर लगाए गए हैं, जो हाथियों के भारी और ज़मीन को थरथरा देने वाले कदमों के कंपन को पकड़ सकते हैं।
एआई-आधारित प्रणाली इन सेंसर से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करती है और प्रासंगिक जानकारियां निकालती है – जैसे आवागमन की आवृत्ति और कंपन की अवधि। यदि हाथी-जनित विशिष्ट कंपन का पता चलता है, तो उस क्षेत्र के इंजन ड्राइवरों को तुरंत अलर्ट भेजा जाता है, और ट्रेन की रफ्तार कम कर दी जाती है। ऐसी प्रणालियां फिलहाल उत्तर पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार क्षेत्र में लगाई गई हैं, जहां पूर्व में कई दुर्घटनाएं हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)
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अश्व प्रशांतक और पार्टी ड्रग के रूप में मशहूर केटामाइन को इन दिनों गंभीर अवसाद के आसान उपचार के रूप में विकसित किया जा रहा है। पारंपरिक रूप से, अवसाद से ग्रस्त लोगों को केटामाइन की खुराक अस्पताल में इंट्रावीनस रूप में दी जाती है। लेकिन नेचरमेडिसिन में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि केटामाइन का स्लो-रिलीज़ गोली के रूप में उपयोग इस उपचार को अधिक सुलभ बना सकता है।
ओटागो विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक पॉल ग्लू के अनुसार गोली के रूप में इस औषधि का सेवन आसानी से अन्य किसी साधारण गोली की तरह घर पर किया जा सकेगा और इसके लिए विशेष निगरानी की आवश्यकता भी नहीं होगी।
गौरतलब है कि नसों या नेज़ल स्प्रे के माध्यम से केटामाइन का उपयोग अवसाद के उपचार के लिए किया जाता रहा है। लेकिन इन तरीकों से उच्च रक्तचाप, तेज़ हृदय गति और आसपास की दुनिया और स्वयं से असम्बद्धता जैसे दुष्प्रभाव देखे गए हैं। वहीं, केटामाइन औषधि को स्लो-रिलीज़ तरीके से देने पर ये दुष्प्रभाव कम देखे गए हैं।
इसके मद्देनज़र ग्लू और उनकी टीम ने एक स्लो-रिलीज़ केटामाइन गोली (R-107) विकसित की है। कारगरता की जांच के लिए उन्होंने गंभीर अवसाद विकार वाले 231 प्रतिभागियों को अध्ययन में शामिल किया। ये प्रतिभागी कम से कम दो तरह की अवसादरोधी औषधियों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे। इन रोगियों को पांच दिनों तक रोज़ाना 120-मिलीग्राम R-107 की खुराक दी गई। आठ दिन बाद भी जिन रोगियों के लक्षणों में सुधार नहीं हुआ वे स्वयं इस अध्ययन से हट गए। इसके बाद 168 प्रतिभागियों के साथ इस अध्ययन को जारी रखा गया। उन्हें या तो प्लेसिबो या फिर R-107 टेबलेट्स (30, 60, 120, या 180 मिलीग्राम) की एक खुराक हफ्ते में दो बार 12 सप्ताह के लिए दी गई।
टीम ने पाया कि 13 हफ्तों के बाद, प्लेसिबो वाले 71 प्रतिशत प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण मध्यम पाए गए, जबकि उच्चतम खुराक वाले केवल 43 प्रतिशत प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण बने रहे। इस प्रक्रिया के दौरान प्रतिभागियों में दुष्प्रभाव न्यूनतम रहे: रक्तचाप में कोई परिवर्तन नहीं देखा गया जबकि कुछ रोगियों ने केवल बेहोशी या अम्बद्धता की शिकायत की।
ये निष्कर्ष आशाजनक लगते हैं। लेकिन बड़े पैमाने पर जांच और दुरुपयोग सम्बंधी चिंताओं को संबोधित करने के बाद ही इसे आम उपयोग में लाया जा सकेगा। फिलहाल दुरुपयोग के जोखिम को कम करने के लिए, R-107 गोली को अत्यधिक कठोर और कुचलने में कठिन बनाया गया है ताकि इसे सूंघकर नशा करना मुश्किल हो जाए।
इसके अलावा, शराब की लत जैसी अन्य मानसिक स्थितियों से निपटने के लिए केटामाइन की प्रभाविता पता लगाने की योजना भी है। प्रारंभिक शोध से पता चलता है कि केटामाइन शराब की लालसा को कम करने में भी मददगार साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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बचपन से ही हम तारों को देखते आए हैं। परंतु बहुत कम ही लोगों के दिमाग में सवाल उठते हैं कि आकाश में इतने सारे तारें क्यों हैं? ये हम से कितनी दूर हैं? कितने बड़े हैं? ये किन चीज़ों से बने हैं? और ये सतत जगमगाते क्यों रहते हैं?
सभी को प्राय: हर रात नज़र आने वाले तारों के इन नज़ारों के बारे में हमारे दिमाग में ये सवाल कोलाहल क्यों नहीं मचाते? क्यों नहीं हम सब इन सवालों के उत्तर जानने के लिए लालायित हो उठते?
तारों-भरे खगोल को हम प्रतिदिन पृथ्वी की परिक्रमा करते देखते हैं। बस, इसके अलावा तारों में हमें कोई उलटफेर नज़र नहीं आता। चंद्रमा की कलाएं घटती-बढ़ती हैं। आकाश के ग्रह भी तारों के सापेक्ष अपनी स्थितियां बदलते रहते हैं। सूर्य भी स्थान बदलता है। उल्कापात तथा पुच्छल तारे (धूमकेतु) जैसे आकाश के नज़ारे पुरातन काल से मानव को प्रभावित करते रहे हैं, भयभीत करते रहे हैं। किंतु तारे हमें उस तरह प्रभावित नहीं करते, क्योंकि परंपरा से हमने उन्हें ‘स्थिर’ मान लिया है। वस्तुत:, इस भौतिक विश्व में कोई भी वस्तु स्थिर या निश्चल नहीं है।
तारों के अध्ययन के प्रति हमारी उपेक्षा का एक और कारण है कि बचपन से ही हमको बताया जाता है कि आकाश में अनगिनत तारे हैं एवं ये हमसे अनंत दूरी पर स्थित हैं। परिणामस्वरूप इस ‘अनगिनत और अनंत’ के सामने हम घुटने टेक देते हैं। ‘अनादि-अनंत’ जैसे विशेषणों से विभूषित काल्पनिक ईश्वर के प्रति हममें से बहुतों का यही भाव है। परंतु तारों का भौतिक अस्तित्व है और आज हम जानते हैं कि इस भौतिक विश्व में अनादि-अनंत जैसी कोई चीज़ नहीं है। ब्रह्मांड के सारे तारों के सारे अणु-परमाणु भी अनंत नहीं हैं। ‘शून्य’ की तरह ‘अनंत’ का भी इस विश्व में कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है।
आज हम जानते हैं कि तारे कितने बड़े हैं और ये किन तत्वों से बने हैं। तारे सतत क्यों जगमगाते रहते हैं, इसकी जानकारी हमें पिछले करीब 90 वर्षों में ही मिली है। आज हम जानते हैं कि तारों में भीषण उथल-पुथल होती रहती है। ये जन्म लेते हैं, ये तरुण होते हैं, इन्हें बुढ़ापा आता है और अंत में इनकी ‘मृत्य’ भी होती है!
नक्षत्र लोक के बारे में और एक बात। आप स्वयं देख लीजिए, पुराकाल में कल्पित किसी भी ‘अनादि, अनंत और निश्चल’ धारणा का पोषण एवं प्रतिनिधित्व करने के लिए मानव समाज में एक वर्ग-विशेष का उत्थान होता रहा है। जैसे, पुरोहित वर्ग। तारों को जब अनादि, अनंत एवं स्थिर मान लिया गया तो उनकी तरफ से बोलने वाला, मानव-जीवन पर उनके तथाकथित ‘प्रभाव’ की पैरवी करने वाला, एक वर्ग पैदा हो गया – बहुत प्राचीन काल में ही। यह वर्ग है – फलित ज्योतिषियों का वर्ग!
आज हम जानते हैं कि तारे अनादि-अनंत एवं स्थिर तो नहीं ही हैं, बल्कि ये मूक भी नहीं हैं। हालांकि ये स्वयं अपनी बात कहने में असमर्थ हैं। लेकिन इनकी एक वैज्ञानिक भाषा है। इस भाषा को आज हम समझ सकते हैं। यह भाषा है – तारों की किरणों की भाषा। अपनी किरणों के माध्यम से तारे अपने बारे में हम तक जानकारी भेजते रहते हैं। यह जानकारी हमें फलित-ज्योतिषियों की पोथियों में नहीं बल्कि वेधशालाओं की दूरबीनों, वर्णक्रम-दर्शियों, कैमरों आदि से ही प्राप्त हो सकती है।
विश्व की हर चीज़ हर दूसरी चीज़ को प्रभावित करती है। तारे भी पार्थिव जीवन पर अपना ‘प्रभाव’ डालते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य एक तारा है और इसकी प्रत्येक हलचल का पृथ्वी के प्राणी-जगत पर प्रभाव पड़ता है। मानव जीवन पर तारों के प्रभाव को जन्म-कुण्डलियों से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक उपकरणों से जाना जा सकता है।
इस लेख का मकसद यही है कि इन सारे प्रश्नों को सिलसिलेवार समझने की कोशिश की जाए।
तारों की चमक और रंग
रात को आकाश पर एक उड़ती सी नज़र ही आपको बता देगी कि कुछ तारे चमकदार हैं और कुछ धुंधले। कुछ तारों को तो देखना भी मुश्किल होता है और कुछ बल्ब की तरह दमकते हैं। ज़्यादा ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि सारे तारे, चाहे धुंधले हों या चमकदार, एक से रंग में नहीं दमकते। कम से कम दो रंग साफ तौर पर अलग-अलग देखे जा सकते हैं – लाल और नीला। ज़्यादा गहराई से अध्ययन करने पर मालूम होगा कि ये रंग नीले से पीले और नारंगी से लाल तक होते हैं। पहले हम इन्हीं दो गुणों को समझने की कोशिश करेंगे।
तारों की चमक – दो तारों की चमक की आपस में तुलना कैसे की जाए? एक 100 वॉट के बल्ब की तुलना टॉर्च के बल्ब से कैसे की जाए? स्वाभाविक रूप से 100 वॉट का बल्ब ‘अपने आप में’ टॉर्च के बल्ब से कहीं ज़्यादा चमकदार होता है। परंतु यदि इस 100 वॉट के बल्ब को आपसे बहुत दूर और टॉर्च को बहुत पास रख दिया जाए तो? तो 100 वॉट के बल्ब की अपेक्षा टॉर्च का बल्ब कहीं अधिक चमकदार दिखेगा। तब आपको यह मानना ही पड़ेगा कि यदि दोनों की वास्तविक चमक की तुलना करना है तो दोनों को देखने वाले से बराबर दूरी पर रखना होगा। इसे हम स्टैण्डर्ड या मानक दूरी कह सकते हैं – यह दूरी कुछ भी तय की जा सकती है, दस मीटर, सौ मीटर या कुछ और। सबसे ज़रूरी बात यह है कि जिन चीज़ों की तुलना करना है उन सब को इस निर्धारित मानक दूरी पर ही रखा जाए।
यही बात तारों पर भी लागू होती है। कुछ तारे वास्तव में तो बहुत चमकदार होते हैं – वे प्रकाश के बहुत शक्तिशाली स्रोत हैं, किंतु हो सकता है कि वे धुंधले दिखें क्योंकि वे हमसे बहुत दूर हैं। कुछ तारे ऐसे भी हो सकते हैं जो वाकई बहुत ज़्यादा चमकदार न हों पर पास होने के कारण तेज़ चमकते दिखें। तारों की इस चमक की तुलना करने के लिए आपको कल्पना करनी होगी कि वे देखने वाले से बराबर की दूरी पर रखने पर कितने चमकेंगे। (क्योंकि आप इन्हें वास्तव में बराबर दूरी पर रख तो सकते नहीं!)। वैसे तो यह दूरी पृथ्वी से नापी जा सकती है परंतु ज़्यादा उपयुक्त यह होगा कि इस दूरी को सूर्य से नापा जाए। खगोलशास्त्रियों ने गणना के लिए यह दूरी पृथ्वी और सूर्य की दूरी से तकरीबन दो लाख गुना (पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी करीब 90 लाख किलोमीटर है) तय की है। गणना के लिए खगोलशास्त्री काल्पनिक तौर पर सारे तारों (जिनकी चमक की तुलना करनी है) को सूर्य से इस मानक दूरी पर रखते हैं। यदि सूर्य सहित इन सभी तारों को इस मानक दूरी पर रखा जाए तो जानते हैं क्या होगा? हमारा सूरज दिखाई देना बंद हो जाएगा। हमारा सूरज भी एक तारा है, और यह वास्तव में न तो बहुत बड़ा है और न ही बहुत चमकदार। आकाश में ऐसे भी तारे हैं जो हमारे सूरज से सैकड़ों गुना बड़े और सैकड़ों गुना चमकदार हैं।
किसी तारे की मानक दूरी पर दिखने वाली चमक ‘परम दीप्तता’ (absolute luminosity) कहलाती है।
तारों का रंग – जैसे कि पहले ही कहा गया है, तारों का रंग नीले से लाल तक कुछ भी हो सकता है (दूसरे शब्दों में इंद्रधनुष के सारे रंगों के तारे देखे जा सकते हैं)। प्रत्येक तारे से आने वाले प्रकाश को स्पेक्ट्रोस्कोप (वर्णक्रमदर्शी) नामक यंत्र की मदद से बारीकी से जांचा जा सकता है। जैसे एक प्रिज़्म सूर्य के प्रकाश के रंगों को अलग-अलग कर देता है, उसी प्रकार वर्णक्रमदर्शी भी प्रत्येक तारों से आने वाले प्रकाश के रंगों को अलग-अलग कर देता है (इस प्रकार के चित्र को, जिसमें प्रकाश के सारे रंग अलग-अलग दिखते हैं, उस प्रकाश का वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम कहते हैं)। यदि सूर्य के प्रकाश को किसी पारदर्शी बॉलपेन (जैसे रोटोमेक या सेलो-ग्रिपर के पेन) में से सफेद सतह पर गिरने दें तो आपको इंद्रधनुष के सारे रंग उसमें दिखेंगे। यही सूर्य के प्रकाश का वर्णक्रम है।
इसी प्रकार की प्रक्रिया वर्णक्रमदर्शी में भी होती है और वर्णक्रम की तस्वीर प्राप्त हो जाती है, जिसका बाद में गहराई से अध्ययन किया जाता है।
अब तक हज़ारों तारों के वर्णक्रमों का अध्ययन किया जा चुका है। आश्चर्य की बात यह है कि इन परिमाणों में गज़ब की समानता पाई जाती है। इन्हीं समानताओं के आधार पर सारे तारों को नौ वर्गों में बांटा जा सकता है – इन वर्गों को रोमन वर्णमाला के अक्षरों O, B, A, F, G, K, M, R, N और I द्वारा दिखाया जाता है। अत: जब तारों की बात करते हैं तो कहते हैं कि अमुक तारा O वर्ग का है या B वर्ग का है। हमारा सूरज G वर्ग का एक नारंगी तारा है।
जब तारों के जन्म और मृत्यु की खोजबीन करनी होती है तो हर एक तारे का अध्ययन करना ज़रूरी नहीं होता। सिर्फ इतना काफी होता है कि एक विशेष वर्ग के कुछ तारों का अध्ययन कर लिया जाए। इससे उस वर्ग में आने वाले अनगिनत तारों के बारे में पर्याप्त जानकारी मिल जाती है। कहने का मतलब यह है कि सारे O वर्ग के तारे एक जैसे होते हैं और उनके परम परिमाण इस हद तक समान होते हैं कि यदि एक वर्ग के सारे तारों को मानक दूरी पर रख दिया जाए तो वे लगभग एक जैसे दिखेंगे – लगभग एक समान वर्णकम, एक समान साइज़, एक समान चमक! सिर्फ लाल तारों में थोड़ी जटिलता होती है। क्योंकि लाल दानव और लाल वामन (रेड ड्वार्फ) दोनों प्रकार के लाल तारे पाए जाते हैं। बहरहाल, हम इन दोनों जटिलताओं को छोड़कर इस बात को ध्यान में रखेंगे कि सारे तारों को समझने के लिए मात्र कुछ प्रतिनिधि तारों को समझना पर्याप्त है। यह बात कि एक ही रंग के तारे एक बराबर वास्तविक चमक वाले होते हैं, दो भौतिक शास्त्रियों आयनार हर्ट्ज़स्प्रन्ग और हेनरी नॉरिस रसेल ने खोजी थी।
तारों का जीवन चक्र
करीब डेढ़ सौ साल पहले तक यह मालूम नहीं था कि तारे जन्म लेते हैं और मरते हैं। कोई तारा करोड़ों सालों तक ज़िंदा रह सकता है, पर एक दिन ऐसा आता है जब उसका ऊर्जा का स्रोत चुक जाता है। और तब वह या तो फूट सकता है या एक ठंडे, शांत, काले पिंड में परिवर्तित हो सकता है।
जब खगोलशास्त्री दूरदर्शी से आकाश का अध्ययन करते हैं तो वे न सिर्फ अनगिनत तारे देखते हैं बल्कि हाइड्रोजन नामक गैस का धब्बों के रूप में वितरण भी देखते हैं, जिन्हें वे ‘बादल’ कहते हैं। हमारे वातावरण के बाहर की सारी जगह, जिसे अंतरिक्ष कहते हैं, इसी हाइड्रोजन गैस से भरी है। किंतु गैस का घनत्व अविश्वसनीय रूप से कम है – करीब एक परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर (जो कि करीब-करीब निर्वात ही है)। इसका अर्थ है कि एक गिलास में करीब 20 परमाणु आएंगे, जबकि सामान्य वातावरण में उसी गिलास में अरबों परमाणु होते हैं। परंतु अंतरिक्ष इतना विस्तृत है कि इतने कम घनत्व पर भी उसमें अरबों तारे बनाने के लिए पर्याप्त पदार्थ मौजूद हैं। कहीं-कहीं यह घनत्व ज़्यादा भी होता है – करीब 10 से 100 परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर। अब, सवाल उठता है कि अंतरिक्ष में कौन सी शक्ति इन बादलों को स्थिरता देती है? इनके कण खुद एक-दूसरे को केंद्र की तरफ खींचते हैं और इसलिए इन्हें स्व-गुरुत्वाकर्षण जनित कहा जाता है। ये ‘बादल’ काफी स्थिर होते हैं और लाखों साल तक एक जैसे बने रहते हैं परंतु समय-समय पर कुछ भौतिक क्रियाएं इन्हें सिमटने पर मजबूर कर देती हैं। इन प्रक्रियाओं को भली-भांति समझा नहीं जा सका है। जब कोई गैस गर्म की जाती है तो वह फैलती है और जब ठंडी की जाती है तो सिकुड़ती है। इसके विपरीत जब गुरुत्वाकर्षण शक्ति ज़्यादा होती है तो कोई भी वस्तु सिकुड़ती है और जब गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम होती है तो वस्तु फैलती है।
अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार इन ‘बादलों’ में केंद्र की तरफ खींचने वाली शक्ति (गुरुत्वाकर्षण) और उनके तापमान के बीच एक संतुलन होता है। तापमान के कारण बादल फैलने की कोशिश करते हैं। और गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने की। जब इन दो शक्तियों में संतुलन होता है तो ‘बादल’ स्थिर रहता है। जब बादल ठंडा होता है और उसका तापमान कम होने लगता है तो वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने लगता है। जब यह सिकुड़न शुरू होती है, तो बादल का तापमान बढ़ने लगता है। इसी के साथ-साथ ‘बादल’ छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता है और ये टुकड़े अपने आप में सिकुड़ते हैं। इस प्रकार से सिकुड़ते हुए टुकड़े एक हल्की लाल आभा से दमकते हैं। इस लाल आभा को पृथ्वी पर विशेष उपकरणों द्वारा देखा जा सकता है और जब यह देखी जाती है तो कहा जाता है कि एक नए तारे का प्रादुर्भाव हो रहा है।
सवाल यह उठता है कि यह सिकुड़ना कब तक जारी रहेगा? एक विशेष अवस्था आएगी जब अंदर के द्रव्य का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि वहां उपस्थित हाइड्रोजन परमाणु एक-दूसरे से रासायनिक रूप से जुड़ने लगेंगे। इस क्रिया को संलयन (fusion) कहते हैं। इसमें हाइड्रोजन के चार परमाणुओं के केंद्रक मिलकर हीलियम नामक एक नया तत्व बनाते हैं। हाइड्रोजन के इस प्रकार हीलियम में बदलने की प्रक्रिया के दौरान निहायत बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलती है (यही प्रक्रिया हाइड्रोजन बम में भी होती है)। यह गर्मी जो केंद्र में उत्पन्न होती है वह गैस को फैलने पर मजबूर करती है और सिकुड़ना रुक जाता है। अब फिर एक संतुलन स्थापित हो गया है – गर्मी के कारण फैलने और गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने की प्रक्रिया के बीच। इस अवस्था में तारा स्थिर हो जाता है और कहा जाता है कि वह अपने जीवनचक्र के मुख्यक्रम की अवस्था में पहुंच गया है। इस प्रकार से केंद्र की गर्मी और गुरुत्वाकर्षण के बीच का संतुलन बहुत महत्वपूर्ण है। केंद्र में जो भी गर्मी पैदा होती है वह तारे की सतह से अंतरिक्ष में बिखेर दी जाती है (इस क्रिया को विकिरण कहते हैं)। धीरे-धीरे तारे के केंद्र में गर्मी कम हो जाती है। जब यह गर्मी बहुत ही कम हो जाती है तो गुरुत्वाकर्षण के साथ इसका संतुलन खत्म हो जाता है। ऐसी स्थिति में गुरुत्वाकर्षण का बल फिर तारे को सिकुड़ने पर मजबूर करता है। कई बार यह प्रकिया बहुत तेज़ी से हो सकती है। इसके विपरीत, यदि केंद्र में इतनी ज़्यादा शक्ति या गर्मी पैदा हो रही है जो तारे की सतह से विकिरण द्वारा अंतरिक्ष में नहीं बिखेरी जा सकती तो भी संतुलन समाप्त हो जाता है, किंतु इस बार तारा गर्मी के कारण फैलता है और कई बार इतनी तेज़ी से फैलता है कि फट पड़ता है।
किसी तारे के केंद्र में हाइड्रोजन का विपुल भंडार होता है। और इसे धीरे-धीरे हीलियम में बदला जाता है। इस तरह से कोई तारा करोड़ों वर्षों तक ऊर्जा के स्रोत के रूप में चमकता रह सकता है। हमारा सूरज इस वक्त अपनी मुख्यक्रम अवस्था में है। यह ‘बादलों’ से करोड़ों वर्ष पहले बना था और करोड़ों वर्ष तक चमकता रहेगा।
तारे के जीनव चक्र में आगे की कहानी इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी संहति क्या है। (मोटे-मोटे शब्दों में उसके वज़न पर निर्भर करेगी)।
बहुत बड़े तारे – हमारे सूरज से सौ गुना बड़े तारों को ‘बहुत बड़े तारे’ कहते हैं। ये चमकदार, O और B वर्ग के तारे हैं जिन्हें नीले दानव कहा जाता है। ये अंतरिक्ष में इतनी ऊर्जा बिखेरते हैं कि इनकी ऊर्जा का स्रोत (केंद्र में हाइड्रोजन का भंडार) बहुत जल्दी समाप्त हो जाएगा – मात्र 10-20 करोड़ वर्षों में। यह वैसा ही है जैसे समुद्र को इतनी तेज़ी से खाली किया जाए कि वह सूख जाए। एक छोटी टंकी ज़्यादा देर तक चलेगी यदि उसका पानी धीरे-धीरे उपयोग किया जाए। 10-20 करोड़ वर्षों के बाद सारी हाइड्रोजन समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा? केंद्र का तापमान धीरे-धीरे कम होने लगेगा और इसके साथ ही साथ अंदर की गैस के फैलने से जो दवाब उत्पन्न होता है वह भी कम होगा। ऐसी स्थिति में खुद के गुरुत्वाकर्षण के कारण तारा सिकुड़ने लगेगा। पर इसके साथ ही (जैसा पहले भी हुआ था) केंद्र का तापमान बढ़ेगा और इस बार हीलियम (हाइड्रोजन तो है नहीं) के परमाणुओं के बीच रासायनिक क्रिया आरंभ हो जाएगी। इस क्रिया में हीलियम के तीन परमाणु मिलकर कार्बन नामक पदार्थ का एक परमाणु बनाएंगे। इस क्रिया में भी बहुत सारी ऊर्जा निकलती है। इस ऊर्जा के कारण तापमान बढ़ेगा और यह बढ़ता तापमान तारे की सिकुड़ने की प्रक्रिया को रोक देगा। परंतु बहुत बड़े तारे में यह स्थिति थोड़ी देर ही रहेगी क्योंकि सारी हीलियम जल्दी ही कार्बन में तबदील हो जाएगी। फिर से वही कहानी दोहराई जाएगी किंतु ज़्यादा रफ्तार से। कार्बन के परमाणु मिलकर और भारी तत्व बनाएंगे। इस सारी प्रक्रिया के दौरान इतनी ज़्यादा ऊर्जा पैदा होगी कि उसे तारे की सतह से धीरे-धीरे बिखेरना असंभव हो जाएगा। और ऐसी स्थिति में गर्मी और गुरुत्वाकर्षण का संतुलन इस कदर बिगड़ेगा कि तारे में ज़बरदस्त विस्फोट होगा। विस्फोट हज़ारों सूर्य की चमक के बराबर चमक पैदा करेगा और हो सकता है कि पृथ्वी पर भी दिखे। इस प्रकार का एक विस्फोट चीनवासियों ने पंद्रहवी शताब्दी में देखा था। ऐसे विस्फोट को सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। ऐसे सुपरनोवा विस्फोट में करोड़ों टन गैस अंतरिक्ष में छोड़ी जाएगी और यह अंतरिक्ष में पहले से उपस्थित गैस के साथ घुल-मिल जाएगी। इस गैस के द्वारा ही तारों की अगली पीढ़ी निर्मित होगी। इस नए तारे का जीवन चक्र मुख्यत: इस मिश्रण के तत्वों पर निर्भर करेगा, खास तौर से भारी तत्वों पर। तारे का बचा हुआ केंद्रीय भाग धीरे-धीरे एक ठंडे मृत पिंड में बदल जाएगा। इस बचे हुए भाग में ऊर्जा पैदा करने के लिए कोई ईंधन नहीं है, इसलिए यह अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ता ही जाएगा। और इस कदर सिकुड़ेगा कि इसका घनत्व बहुत ही ज़्यादा हो जाएगा। इतने अधिक घनत्व के कारण इसका गुरुत्वाकर्षण बहुत बढ़ जाएगा और यह अपने आसपास की हर चीज़ को आकर्षित करेगा। इसका गुरुत्वाकर्षण इतना तीव्र होगा कि जो भी चीज़ इस पर पड़ेगी वापस नहीं लौटेगी – यहां तक कि प्रकाश भी! चूंकि इससे कोई प्रकाश नहीं निकलेगा, इसलिए यह अदृश्य हो जाएगा। ऐसे पिंड को ब्लैकहोल या न्यूट्रॉन तारा कहते हैं।
छोटे तारे – ये वे तारे हैं जिनकी मात्रा लगभग सूर्य के बराबर होती है। इनका जीवनचक्र करीब-करीब वैसा ही होता है जैसा बहुत बड़े तारों का। अंतर इतना है कि ये ज़्यादा लंबे समय तक जीवित रहेंगे और इनका हाइड्रोजन भंडार धीरे-धीरे खत्म होगा। जब सारी हाइड्रोजन हीलियम में बदल जाएगी तो सिकुड़ना शुरु होगा; किंतु सारी प्रक्रिया में उत्पन्न ऊर्जा और बिखेरी गई ऊर्जा के बीच एक संतुलन बना रहेगा। अत: विस्फोट नहीं होगा।
छोटे तारों के विकास में एक विशेष गुण होता है। जब केंद्रीय भाग में हीलियम का संलयन (दहन) शुरु होता है तो इस प्रकिया के दौरान उत्पन्न गर्मी के कारण तारे का बाहरी भाग फैलना शुरू करता है और साथ ही साथ ठंडा होता है। इसके फलस्वरूप तारा एक फूला हुआ लाल दानव बन जाता है। यदि हमारे सूरज के साथ ऐसा हुआ तो हमारे सूरज का बाहरी हिस्सा पृथ्वी तक पहुंच जाएगा। यद्यपि यह बाहरी हिस्सा ‘अपेक्षाकृत ठंडा’ होगा, फिर भी यह धरती का तापमान कुछ हज़ार डिग्री सेल्सियस बढ़ा देगा और यह तापक्रम इतना होगा कि धरती वाष्प बनकर अंतरिक्ष में उड़ जाएगी! पर ऐसा होने में अभी कई करोड़ वर्ष बाकी हैं। और जिस तरह मानव जाति चल रही है वह अपने विनाश का कोई अन्य रास्ता इस घटना के पहले स्वयं ही ढूंढ लेगी।
यह लाल दानव धीरे-धीरे अपने केंद्र के हीलियम का स्रोत समाप्त कर देगा और फिर गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने लगेगा। और इतना सिकुड़ेगा कि पृथ्वी से भी छोटा हो जाएगा। ऐसी अवस्था में इसके अंदर का पदार्थ बहुत ही दबाव की स्थिति में रहेगा। इसका घनत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाएगा। ऐसे तारों को श्वेत वामन (व्हाइट ड्वार्फ) कहते हैं, जो करीब-करीब अदृश्य होते हैं।
इस प्रकार से तारों की कहानी खत्म होती है, फिर शुरू होने के लिए। यह पूरी प्रक्रिया कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है। (स्रोत फीचर्स)
दो शब्द…
1937 में मुंबई (तत्कालीन बंबई) में जन्मे डॉ. मॉइज़ रस्सीवाला विज्ञान के अध्यापन व लोकप्रियकरण में सक्रिय रहे। बंबई विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने हाइडेलबर्ग (जर्मनी) से स्नातकोत्तर उपाधि पूरी की। इसके बाद वे अल्जीरिया, फ्रांस वगैरह के कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में अध्यापन व शोध कार्य में जुटे रहे। उनका प्रिय विषय खगोल-भौतिकी रहा।
विज्ञान शिक्षा में रुचि के चलते 1970 के दशक में वे होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) स्थित संस्था किशोर भारती में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के प्रारंभिक विकास में शरीक रहे। कुछ अंतराल के बाद वे एकलव्य संस्था में आए और उज्जैन केंद्र के प्रभारी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंतत: वे फ्रांस में बस गए। अपने लंबे फलदायी कार्यकाल में उन्होंने कई शोध पत्र लिखे और लगभग सात किताबों का लेखन किया।
विगत 21 जून को वे इस दुनिया से रुखसत हो गए और अपने पीछे अपने लेख, शोध कार्य, किताबों और सौम्यता की विरासत छोड़ गए।
यहां प्रकाशित उनका यह लेख मूलत: पिपरिया में आयोजित ‘विज्ञान व्याख्यानमाला’ शृंखला का पहला व्याख्यान है। उनके इस व्याख्यान को ‘होशंगाबाद विज्ञान बुलेटिन’ के जनवरी-फरवरी 1985 के अंक में प्रकाशित किया गया था।
चीनी शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म हो रही है, फफूंद जन्य रोग मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकते हैं। अध्ययन के दौरान दो रोगियों में एक ऐसी फफूंद पाई गई जो पहले मनुष्यों को संक्रमित नहीं करती थी। इस फफूंद में न केवल दो आम फंफूद-रोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित हो गया था बल्कि उच्च तापमान के संपर्क में आने पर तीसरी दवा के प्रति भी जल्द प्रतिरोध विकसित हो गया, जिससे यह लगभग असाध्य हो गई।
आम तौर पर बैक्टीरिया या वायरस की तुलना में फफूंद मनुष्यों को कम ही बीमार करती है। मानव प्रतिरक्षा प्रणाली फफूंद से प्रभावी रूप से लड़ती है और शरीर का तापमान उन्हें पनपने भी नहीं देता है। लेकिन, पिछले कुछ समय में फफूंद संक्रमणों में वृद्धि हुई है जिसका एक कारण एचआईवी और प्रतिरक्षा-शामक दवाओं के कारण लोगों की कमज़ोर होती प्रतिरक्षा प्रणाली है। और अब, नए दवा प्रतिरोधी फफूंद संक्रमण सामने आए हैं जो काफी चिंताजनक है।
एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय फफूंद को मानव शरीर तापमान के प्रति अनुकूलित होने और दवा प्रतिरोध विकसित करने में मदद कर सकता है? इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 2009 से 2019 तक चीन के 96 अस्पतालों में रोगियों से नमूने एकत्र किए, जिसमें उन्होंने दो रोगियों में एक प्रकार की खमीर रोडोस्पोरिडियोबोलस फ्लुविएलिस (आर. फ्लुविएलिस) पाई। दोनों रोगी परस्पर असम्बंधित थे। ये गंभीर रूप से बीमार हुए थे और दवा प्रतिरोधी फफूंद से संक्रमित थे। बाद में इनकी मृत्यु हो गई।
फफूंद द्वारा स्तनधारियों को संक्रमित करने की क्षमता का पता लगाने के लिए, शोधकर्ताओं ने इसे कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले चूहों में इंजेक्ट किया। इससे चूहे बीमार हो गए, और कुछ फफूंद तो उत्परिवर्तित होकर अधिक आक्रामक भी हो गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि 37 डिग्री सेल्सियस (मानव शरीर का सामान्य तापमान) पर संवर्धित फफूंदों में उन फफूंदों की तुलना में 21 गुना तेज़ी से उत्परिवर्तन हुए जिन्हें 25 डिग्री सेल्सियस पर संवर्धित किया गया था। इसके अलावा, 37 डिग्री सेल्सियस पर फफूंद-रोधी दवा एम्फोटेरिसिन बी के संपर्क में आने वाली फफूंदों में प्रतिरोध भी अधिक तेज़ी से विकसित हुआ।
बहरहाल, वर्तमान परिस्थिति में इसके प्रभाव का सामान्यीकरण करना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी, लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस पैटर्न को समझने के लिए अधिक उच्च तापमान पर जांच करना होगा। हालांकि आर. फ्लुविएलिस से तत्काल मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा तो नहीं है, लेकिन ये परिणाम इस क्षेत्र में और अधिक शोध की आवश्यकता दर्शाते हैं।
चाइनीज़ अकेडमी ऑफ साइंसेज़ के माइक्रोबायोलॉजिस्ट लिंकी वांग के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग अधिक खतरनाक रोगजनक फफूंदों के विकसित होने में भूमिका निभा सकता है। ज़ाहिर है इस विषय में सतर्कता एवं अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.gavi.org/sites/default/files/vaccineswork/2023/Header/media_fungi-climate-change-1600x600_h1.jpg
एक अभूतपूर्व अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पाया है कि हाथी एक-दूसरे को संबोधित करने के लिए विशिष्ट नामों का उपयोग करते हैं। अभी तक ऐसे व्यवहार को मनुष्यों के लिए अद्वितीय माना जाता था। हालांकि डॉल्फिन और तोतों के बारे में यह देखा गया है कि वे अपने साथियों द्वारा निकाली गई ध्वनि की नकल करके उन्हें पुकारते हैं, लेकिन हाथी अपने झुंड के प्रत्येक सदस्य के लिए विशिष्ट ध्वनि का उपयोग करते हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने कृत्रिम बुद्धि (एआई) का उपयोग करके केन्या स्थित अफ्रीकी सवाना हाथियों के दो जंगली झुंडों की आवाज़ों का विश्लेषण किया। उन्होंने 469 अलग-अलग आवाज़ों की पहचान की, जिसमें 101 ध्वनि संकेत हाथियों द्वारा उत्पन्न किए गए थे और 117 प्राप्त ध्वनि संकेत शामिल थे। नेचर इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चलता है कि हाथी अपने नाम की पुकार को पहचानते हैं और उनका जवाब देते हैं। वे अन्य को दी जा रही पुकार को अनदेखा कर देते हैं। यह मनुष्यों के समान अमूर्त विचारों के परिष्कृत स्तर का संकेत देता है।
इसके अवाला शोधकर्ताओं ने केन्या स्थित सांबुरु नेशनल रिज़र्व और एम्बोसेली नेशनल पार्क से 1986 और 2022 के बीच रिकॉर्ड की गई हाथियों की ‘चिंघाड़’ ध्वनियों का विश्लेषण करके पाया कि नामों का इस्तेमाल अक्सर लंबी दूरी पर और ज़्यादातर वयस्कों द्वारा शिशु हाथियों को संबोधित करने के लिए किया जाता था। नन्हे हाथियों की तुलना में वयस्कों द्वारा नामों के अधिक उपयोग से लगता है कि इस कौशल में महारत हासिल करने में वर्षों लगते होंगे।
अध्ययन से पता चला कि सबसे आम आवाज़ कम आवृत्ति की संगीतमय ध्वनि होती है। जब हाथियों ने अपने किसी करीबी द्वारा पैदा की गई अपने नाम की रिकॉर्डिंग सुनी, तो उनकी प्रतिक्रिया अधिक उत्साहपूर्ण थी।
इस अध्ययन के वरिष्ठ लेखक जॉर्ज विटमायर इस खोज के आधार पर बताते हैं कि एक-दूसरे के लिए नाम गढ़ना मनुष्यों और हाथियों में ही नज़र आता है, जो अमूर्त विचार की उन्नत क्षमता का द्योतक है।
‘सेव दी एलीफेंट्स’ के सीईओ फ्रैंक पोप का कहना है कि सारे अंतरों के बावजूद मनुष्यों और हाथियों के बीच विस्तृत सामाजिक ताने-बाने की उपस्थिति जैसी समानताएं भी हैं जो एक विकसित दिमाग का प्रमाण है। यह अध्ययन हाथियों के बीच संवाद को समझने की शुरुआत मात्र है और जैव विकास में नामकरण की उत्पत्ति का अध्ययन करने के लिए नए रास्ते खोलता है तथा हाथियों की गहन संज्ञानात्मक क्षमताओं को और उजागर करता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/677388999bdddd37da7886fe477e625fe9eee226/0_300_4000_2400/master/4000.jpg?width=620&dpr=1&s=none