फसल उत्पादन में मिट्टी के सूक्ष्मजीवों की भूमिका

कई और अन्य प्रमुख फसलों का विपुल उत्पादन संकरण तकनीक पर निर्भर है। जब अलग-अलग अंत:जनित किस्मों का संकरण किया जाता है तो पैदा होने वाली नस्ल लंबी और मज़बूत होती है तथा अधिक पैदावार देती है। इसे संकर ओज कहते हैं और इसके कारणों को भलीभांति समझा नहीं गया है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने इसके पीछे मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की भूमिका की संभावना जताई है, जो शायद पौधे की प्रतिरक्षा प्रणाली के माध्यम से अपना असर दिखाते हैं।

20वीं सदी की शुरुआत में, जीव विज्ञानियों ने संकर बीजों का निर्माण करके इस प्रभाव को कृषि क्षेत्र में लागू किया था। 1940 के दशक तक, अमेरिका के लगभग सभी किसानों ने संकर मकई लगाना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप फसल में कई गुना वृद्धि हुई। संकर ओज के बारे में कई सिद्धांत दिए गए हैं लेकिन अब तक कोई निश्चित व्याख्या नहीं मिल सकी है।  

इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैन्सास की पादप आनुवंशिकीविद मैगी वैगनर और उनके साथियों ने सोचा कि शायद इसमें सूक्ष्मजीवों की भूमिका होगी। वास्तव में इन सूक्ष्मजीवों का पौधों पर प्रभाव काफी व्यापक होता है। जैसे लाभदायक बैक्टीरिया और कवक अक्सर पत्तियों और जड़ों में बसेरा बनाते हैं और पौधे को रोगजनक सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। सोयाबीन और अन्य फलियों वाली फसलें ऐसे सूक्ष्मजीवों की मेज़बानी करती हैं जो नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं।

पिछले वर्ष वैगनर ने संकर मकई की पत्तियों और जड़ों में ऐसे सूक्ष्मजीव पाए थे जो मकई की अंत:जनित किस्म से भिन्न थे। वैगनर ने प्रयोगशाला में इस निष्कर्ष को दोहराने की कोशिश की। उन्होंने मिट्टी जैसे पदार्थ से भरी थैलियों में बीज लगाए। इस मिट्टी को पूरी तरह सूक्ष्मजीव रहित (स्टेरिलाइज़) कर दिया गया था। फिर कुछ थैलियों में मृदा बैक्टीरिया का एक सामान्य समूह (मकई की जड़ों में सामान्यत: पाए जाने वाले सात स्ट्रेन) मिलाया जबकि अन्य बैग्स को स्टेरिलाइज़ ही रहने दिया।

अपेक्षा के अनुरूप, सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति में संकर बीज की पैदावार अधिक हुई – उनकी जड़ें अंत:जनित किस्म की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक वज़नी थीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार आश्चर्यजनक रूप से सूक्ष्मजीव-रहित मिट्टी में संकर और अंत:जनित, दोनों किस्मों का विकास एक जैसा रहा।

वैगनर के अनुसार संभवत: संकर पौधे सूक्ष्मजीवों से अलग प्रकार से अंतर्क्रिया करते हैं। परिणामों के आधार पर टीम ने मत व्यक्त किया है कि सूक्ष्मजीवों ने संकर किस्म को बढ़ावा नहीं दिया बल्कि अंत:जनित किस्मों के विकास को धीमा किया। 

हो सकता है कि अंत:जनित किस्मों की प्रतिरक्षा प्रणाली लाभदायक सूक्ष्मजीवों के प्रति अधिक प्रतिक्रिया देती है जिसका प्रतिकूल असर उनके विकास पर पड़ता है। दूसरी ओर, संकर पौधे मृदा के कमज़ोर रोगजनकों से बचाव में बेहतर होते हैं। इस विचार पर और अध्ययन की ज़रूरत है। फिर भी कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये परिणाम दर्शाते हैं कि पौध प्रजनकों को फसल की आनुवंशिकी और उस क्षेत्र के मृदा सूक्ष्मजीवों के बीच तालमेल बनाना चाहिए ताकि खेती को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या वनस्पति विज्ञान का अंत हो चुका है? – डॉ. किशोर पंवार

पिछले दिनों सेल प्रेस रिव्यू में विज्ञान और समाज शीर्षक के अंतर्गत एक पर्चा छपा था – दी एंड ऑफ बॉटनी। यह पर्चा संयुक्त रूप से अर्जेंटाइना के वनस्पति संग्रहालय के जार्ज वी. क्रिसी, लिलियाना कैटीनास, मारिया एपीडोका और मिसौरी वनस्पति उद्यान के पीटर सी. हॉच द्वारा लिखा गया है। इस पर्चे का शीर्षक वाकई चौंका देने वाला है और हमें वनस्पति विज्ञान के वर्तमान यथार्थ से रू-ब-रू कराता है।

मैं स्वयं वनस्पति शास्त्र का शिक्षक रहा हूं। यह पर्चा पढ़ते हुए मुझे विक्रम विश्वविद्यालय की वानस्पतिकी अध्ययन शाला में स्नातकोत्तर शिक्षा (1977-78) के अपने दिन याद आ गए। 1982 तक वहीं मैं शोध छात्र भी रहा। बॉटनी डिपार्टमेंट में एम.एससी. की कक्षाएं खचाखच भरी होती थीं। वनस्पति विज्ञान के प्रतिष्ठित प्राध्यापकों द्वारा अध्यापन किया जाता था। फिर गिरावट का एक ऐसा दौर आया कि विद्यार्थी लगातार कम होते चले गए। अध्यापकों की नई भर्ती हुई नहीं और जो थे वे एक के बाद एक रिटायर होते गए। और वर्तमान में यहां एक ही स्थायी प्राध्यापक है। और विभाग आज वनस्पति शास्त्र विषय लेने वाले विद्यार्थियों को तरसता है।

मुख्य विषय वनस्पति विज्ञान की उपेक्षा वर्तमान में एक विश्वव्यापी चिंता का कारण बन चुकी है। इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कारण कमोबेश वैश्विक हैं। दूसरी ओर, इसकी उप-शाखाएं (जैसे बायो-टेक्नोलॉजी, मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, एनवायरमेंटल साइंस और माइक्रोबायोलॉजी आदि) फल-फूल रही हैं। दुख की बात तो यह है कि इन तथाकथित नए प्रतिष्ठित विषयों को पढ़ाने वाले, चलाने वाले प्राध्यापक मूल रूप से वनस्पति विज्ञान के विद्यार्थी ही रहे हैं।

वैसे यह पर्चा अमेरिका के संदर्भ में लिखा गया है लेकिन समस्या अमेरिका तक सीमित नहीं है, दुनिया भर में यही स्थिति है। वनस्पति विज्ञान के कई प्राध्यापक भी सामान्य पौधों तक को पहचानने में असमर्थ हैं। यह जानते हुए भी कि पेड़-पौधे जीवन का आधार हैं, हम इस संकट तक कैसे पहुंचे, इसके कारण क्या हैं? इस परिस्थिति को बदलने के लिए हम क्या कर सकते हैं? ऐसे ही कुछ सवाल उक्त पर्चे में उठाए गए हैं जिनका उल्लेख यहां किया जा रहा है।

इस पर्चे में एक विधेयक की भी बात है जिसका शीर्षक है ‘दी बॉटेनिकल साइंस एंड नेटिव प्लांट मटेरियर रिसर्च रीस्टोरेशन एंड प्रमोशन एक्ट’ जिसे ‘बॉटनी विधेयक’ भी कहा जा रहा है। यह उन चेतावनियों का नतीजा है जो यूएस नेशनल पार्क सर्विसेज़ एंड ब्यूरो आफ लैंड मैनेजमेंट जैसे संस्थानों द्वारा समय-समय पर दी गई थीं। इन संस्थानों का कहना है कि उन्हें वर्तमान में ऐसे वनस्पति शास्त्री पर्याप्त संख्या में नहीं मिल रहे हैं जो घुसपैठी पौध प्रजातियों, जंगल की आग के बाद पुन:वनीकरण और आधारभूत भूमि प्रबंधन के क्षेत्र में मदद कर सकें।

विधेयक का उद्देश्य वनस्पति शास्त्र में शोध और विज्ञान क्षमता को बढ़ावा देना और स्थानीय पौध सामग्री की मांग बढ़ाना है। बिल में त्वरित कार्रवाई की ज़रूरत बताई गई है क्योंकि अगले कुछ वर्षों में सेवा निवृत्ति के चलते तथा नई भर्ती के अभाव में यूएस अपने आधे से भी अधिक विशेषज्ञ वनस्पति शास्त्री गंवा देगा। यह टिप्पणी यूं तो विशेषकर यूएस के लिए है, पर कमोबेश यही स्थिति सारी दुनिया में है।  

बॉटनी शब्द आठवीं शताब्दी के दौरान होमर द्वारा इलियड में दिया गया था। यह धीरे-धीरे पूरे रोमन साम्राज्य में फैला और इसका व्यावहारिक महत्व रेनेसां काल में काफी बढ़ा। बॉटनी ने आधुनिक विज्ञान में लीनियस और डारविन के विचारों को बढ़ावा देने में मदद की और कई महान प्रकृतिविदों ने मिलकर 19वीं से लेकर 20वीं शताब्दी तक इसे स्थापित किया। लेकिन इन 2700 वर्षों में पहली बार यह शब्द विलोप के खतरे से जूझ रहा है। इसके लिए जाने-अनजाने स्वयं इससे जुड़े लोग ही ज़िम्मेदार हैं।

एक उदाहरण देखिए। वर्ष 2017 में शेनजेन में संपन्न हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में दुनिया भर के लगभग 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। यहां 14 अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वनस्पति शास्त्रियों द्वारा वनस्पति विज्ञान पर एक घोषणा प्रस्तुत की गई। जिसमें सात योजनाबद्ध प्राथमिकताएं बताई गई थीं। लेकिन घोषणा के मजमून में बॉटनी शब्द कहीं नहीं था; इसका स्थान पादप विज्ञान ने ले लिया था।

वनस्पति विज्ञान का ह्यास

वनस्पति विज्ञान के उपविषयों के प्रसार स्वीकार्य हैं, परंतु एक असंतुलित दृष्टिकोण अपनाने से गड़बड़ी होती है। आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान जैसे विषय वर्गीकरण विज्ञान एवं आकारिकी जैसे विषयों पर हावी हो जाते हैं। वस्तुत:,   इन तथाकथित उच्च श्रेणी के विषयों ने वनस्पति विज्ञान की बहुआयामी प्रकृति को तार-तार कर दिया है। गौरतलब है कि आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान, जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे विषय वनस्पति विज्ञान की बुनियाद के बिना अधूरे हैं। उदाहरण के लिए, पदानुक्रम के किसी भी स्तर पर कोई भी जैविक परियोजना बिना वैज्ञानिक नाम के पूरी नहीं होती।

प्राकृतिक इतिहास के संग्रह खतरे में

हर्बेरिया तथा अन्य प्राकृतिक इतिहास के संग्रहों का रख-रखाव संग्रहालयों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है। ऐसे संग्रह समाज के लिए अमूल्य हैं। ये जैव विविधता और इसके वितरण को समझने की नींव बनाते हैं। हर्बेरिया पौधों की फीनॉलॉजी (ऋतुचक्र) के अध्ययन के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इनके आधार पर परागण के इतिहास और शाकाहारियों के असर का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान पौधों में पाए जाने वाले स्टोमेटा की तुलना किसी हर्बेरिया के स्पेसिमेन से करके यह देखा जा सकता है कि उनमें स्टोमेटा की संख्या में कितना बदलाव आया है। इनसे यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कैसे तालमेल बैठाती हैं।

दुखद बात यह है कि प्राकृतिक इतिहास के ये संग्रह और सम्बंधित संस्थान तेज़ी से बंद हो रहे हैं। दुर्भाग्य से बजट का अभाव इनके बंद होने के लिए ज़िम्मेदार है। इस तरह के नकारात्मक सामाजिक परिणामों को व्यापक रूप से पत्र-पत्रिकाओं और संपादकों, यहां तक कि लोकप्रिय मीडिया ने भी व्यक्त किया है।

प्राकृतिक इतिहास संग्रह पर मंडराते इन वैश्विक खतरों का वनस्पति विज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि कई वनस्पति अनुसंधान परियोजनाओं को हर्बेरिया आदि की आधारभूत आवश्यकता होती है। यहां तक कि आणविक और पारिस्थितिकी विज्ञान सहित अधिकांश जैविक अनुसंधान जीवों की सही-सही पहचान पर निर्भर करता है। प्राकृतिक इतिहास संग्रह में जीवों के नमूनों (वाउचर) का संरक्षण आवश्यक है।

वनस्पति विज्ञान के क्षरण का एक और कारण वर्तमान में शोध पत्रों के महत्व को आंकने का तरीका भी है। आजकल यह देखा जाता है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में किया है। इसके चलते आणविक जीव विज्ञान या सूक्ष्मजीव अनुसंधान की तुलना में वनस्पति विज्ञान के शोध पत्रों को कमतर आंका जाता है।

वनस्पति विज्ञान में घटती रुचि का एक कारण कुछ गलतफहमियां भी हैं। उदाहरण के लिए एक विचार प्रचलित है कि वर्गीकरण विज्ञान (टेक्सॉनॉमी) मूलत: एक विवरणात्मक शाखा है, जिसमें केवल अवलोकन होते हैं। यह गलतफहमी का एक स्पष्ट उदाहरण है। वास्तव में वर्गीकरण विज्ञान में विवरणों की आवश्यकता तो होती है लेकिन साथ ही सिद्धांत, तथा आनुभविक और ज्ञान की मीमांसा की गहनता भी ज़रूरी होती है। यह परिकल्पना आधारित होता है और इसमें मैदानी तथा प्रयोगशालाई विशेषज्ञता ज़रूरी होती है।

तस्वीर कैसे बदल सकती है

इस समस्या का संभावित समाधान दो-तरफा है। पहला विज्ञान की वर्तमान संस्कृति का रोना न रोते हुए यह सोचना होगा कि व्यक्तिगत तौर पर वनस्पति शास्त्री क्या कर सकते हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक व्यक्तियों के रूप में क्या करते हैं इस पर न अटकते हुए यह सोचना होगा कि विज्ञान की संस्कृति क्या कर सकती है।

व्यक्तिगत स्तर पर इस हेतु कुछ प्रयास किए जा सकते हैं, जैसे –

  • वनस्पति विज्ञान शब्द का सम्मान करना और इसके निंदात्मक प्रयोग को अस्वीकार करना।
  • इस क्षेत्र में जोखिमपूर्ण लेकिन नई ज़मीन तोड़ने वाले काम करना, जबकि फिलहाल यह फैशन में नहीं है।
  • असंतुलित दृष्टिकोण को चुनौती देना। यह स्वीकार करना कि समकक्ष समीक्षित शोध पत्र काम के मूल्यांकन का प्रमुख आधार हैं।
  • शोध कार्य के मूल्यांकन में उल्लेखों की गिनती की विधि को अस्वीकार करना।
  • प्राकृतिक इतिहास संग्रह का मूल्य समझना बहुत ज़रूरी है।

विज्ञान की संस्कृति के संदर्भ में भी कई कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे –

  • सरकारों को ऐसे कानून और नीतियां बनानी चाहिए जो वनस्पति विज्ञान के कद को बढ़ा सकें।
  • वैज्ञानिक समुदायों को प्राकृतिक इतिहास के महत्व को समझना होगा और उन तरीकों को बदलना होगा जिनसे वैज्ञानिक अनुसंधान के नतीजों का मूल्यांकन विभिन्न एजेंसियों द्वारा किया जाता है।
  • जीव-स्तर पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ाना होंगे।
  • प्राकृतिक संग्रह को बोझ के रूप में नहीं बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने और जैव विविधता का संरक्षण करने की संपदा के रूप में देखना होगा।
  • इसी तरह फंडिंग एजेंसियों को उन मापदंडों में विविधता लानी होगी जिनके आधार पर वित्त प्रदान करने के निर्णय किए जाते हैं। वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान के महत्व को पहचानना और विज्ञान की अन्य शाखाओं के लिए इसके मूल्य और प्राकृतिक इतिहास संग्रह का समर्थन करना ज़रूरी है।
  • विश्वविद्यालय स्तर पर वनस्पति विज्ञान के पाठ्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और फैकल्टी को इस तरह संतुलित करना कि उन पाठ्यक्रम को पढ़ाने और वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान करने में सक्षम वैज्ञानिकों की पर्याप्त संख्या हो।
  • वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को वनस्पति विज्ञान की जीव-स्तर की पांडुलिपियों के खिलाफ संभावित पूर्वाग्रह से बचना होगा और बिब्लियोमेट्रिक्स के आधार पर अपनी पत्रिकाओं का महत्व स्थापित करने की प्रवृत्ति से बचना होगा।
  • विज्ञान अकादमियों को अपने घटकों को बॉटनी पर चर्चा हेतु प्रोत्साहित करना होगा।
  • मीडिया में आम जनता के लिये वनस्पति विज्ञान का कवरेज बढ़ाना। जिसमें पौधों के बारे में हमारे ज्ञान और समाज में उनके महत्व और प्राकृतिक इतिहास संग्रह की प्रासंगिकता और पौधों तथा अन्य जीवों की पहचान करने में सक्षम व्यक्तियों को महत्व देना शामिल है।
  • शिक्षकों को हमारे युवाओं के बीच जीवन के अंतर-सम्बंधों की भूमिका और मानव के अस्तित्व के लिए पौधों के महत्व और जैव विविधता के महत्व को समझाना होगा।

कुल मिलाकर पूरी दुनिया में वनस्पति विज्ञान के अध्यापन की मौजूदा स्थिति बहुत ही खराब है; हम सबके जीवन से सीधे तौर पर जुड़े इस विषय की महत्ता को पुन: स्थापित करने के लिए अभी से युद्ध स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे। तभी कुछ अच्छे नतीजों की आशा की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या कुछ पौधे रात में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं? – डॉ. किशोर पंवार

जकल अखबारों में, नेट पर, सोशल मीडिया पर ऐसे पौधों की सूचियों की भरमार है जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि वे रात में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया (https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/home-garden/5-plants-that-release-oxygen-at-night/photostory/59969056.cms) में छपी यह खबर ‘फाइव प्लांट्स रिलीज़ ऑक्सीजन एट नाइट’। ये पांच पौधे हैं एलो वेरा, स्नेक प्लांट, ऑर्किड, नीम और पीपल। इनमें पहले तीन पौधे तो ‘कैम’ प्रकार के हैं परंतु बाकी दो सामान्य प्रकार के हैं। अर्थात अन्य सभी पौधों जैसा प्रकाश संश्लेषण करने वाले हैं। कैम के बारे में आगे बात करते हैं। एक और साइट है फर्न एंड पेटल्स जिसमें आलेख है ‘9 प्लांट रिलीज़ ऑक्सीजन एट नाइट’। नाम हैं एलो वेरा, पीपल, स्नेक प्लांट, अरेका पाम, नीम, ऑर्किड, जरबेरा, क्रिसमस कैक्टस, तुलसी, मनी प्लांट।

इन सब में कहीं ना कहीं नासा का ज़िक्र है। परंतु नासा की मूल रिपोर्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ये पौधे रात में ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इस रिपोर्ट में यह ज़रूर कहा गया है कि ये तरह-तरह के वाष्पशील पदार्थों को सोखकर घर के अंदर की हवा को साफ करते हैं। ये हवा से रात में भी कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर कैम पौधे हैं।

हद तो तब हो गई जब प्राणी विज्ञान के मेरे एक परिचित प्राध्यापक ने रोज़ मेरे मोबाइल पर चौबीसों घंटे ऑक्सीजन छोड़ने वाले पौधों की लिस्ट भेजना शुरू कर दिया। मैंने उन्हें बताया कि ऐसा नहीं हो सकता परंतु वे मानते ही नहीं, पौधों की सूची रोज़ डाल देते हैं।

1989 में प्रकाशित नासा की उक्त रिपोर्ट में 15 पौधों की सूची है। इनमें इंग्लिश आईवी, स्पाइडर प्लांट, पीस लिली, चाइनीस एवरग्रीन, बैम्बू पाम, हार्टलीफ फिलोडेंड्रॉन, एलीफैंट फिलोडेंड्रॉन, गोल्डन पोथास, ड्रेसीना की विभिन्न किस्में, फाइकस बेंजामिना आदि के नाम हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये हवा को साफ करते हैं, हमारे आसपास की हवा से प्रदूषक पदार्थों को हटाते हैं। ये मुख्य रूप से बेंज़ीन, फॉर्मेल्डिहाइड, ट्राइक्लोरोएथेन, ज़ायलीन, अमोनिया जैसे वाष्पशील पदार्थों को सोखते हैं। साथ ही कार्बन डाईऑक्साइड भी सोखते हैं। इनमें से कुछ पौधे कैम प्रकार के भी हैं। रात में स्टोमैटा खुले होने के कारण ये इन प्रदूषकों को सोखते रहते हैं। रिपोर्ट में रात में ऑक्सीजन छोड़ने का ज़िक्र कहीं नहीं है।

तो भ्रम का कारण क्या है?

मुझे लगता है कि यह भ्रम आधी-अधूरी जानकारी से उत्पन्न हुआ है। हमने यह तो पढ़ लिया कि कैम पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण करते हैं पर यह ध्यान नहीं दिया कि इस क्रिया का कौन-सा चरण रात में और कौन-सा चरण दिन में चलता है। इस क्रिया के कितने चरण हैं? और कौन, कब और कैसे कार्य करता है?

पौधों में भोजन निर्माण अर्थात प्रकाश संश्लेषण एक बहुत ही जटिल जैव रासायनिक क्रिया है। इसमें चार चीज़ों की ज़रूरत होती है। पहला, प्रकाश; सामान्यत: इसका स्रोत सूर्य का प्रकाश ही है। वैसे कृत्रिम प्रकाश यानी फिलामेंट बल्ब, सीएफएल या एलईडी की तेज़ रोशनी में भी यह क्रिया हो सकती है। दूसरा, पानी (जो जड़ों से सोखा जाता है); तीसरा, कार्बन डाईऑक्साइड (गैस जो हवा से मिलती है)। और चौथा है क्लोरोफिल यानी पत्तियों में उपस्थित हरा पदार्थ। पौधों में भोजन निर्माण की क्रिया को एकदम सरल रूप में हम यू लिख सकते हैं

यह जटिल जैव रासायनिक क्रिया पौधों में 2 चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण के लिए प्रकाश ज़रूरी होता है। अत: इसे प्रकाश-निर्भर क्रिया कहते हैं। इसमें पानी भाग लेता है, कुछ इस तरह  – क्लोरोफिल की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा पानी के अणु को तोड़ती है जिसके फलस्वरूप ऑक्सीजन बनती है और साथ में एटीपी और एनएडीपीएच जैसे अणुओं के रूप में रासायनिक ऊर्जा संचित कर ली जाती है। इसके लिए प्रकाश ज़रूरी है।

अर्थात भोजन निर्माण (प्रकाश संश्लेषण) के प्रथम चरण में हरे पौधे प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं। इसे प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया कहते हैं और ऑक्सीजन इसी के दौरान निकलती है। यह ऑक्सीजन स्टोमैटा के रास्ते हवा में विसरित हो जाती है। अन्य सभी जीवों के लिए ऑक्सीजन का यही स्रोत है।

प्रकाश संश्लेषण के दूसरे चरण को डार्क रिएक्शन (प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया) कहते हैं। इसके लिए प्रकाश ज़रूरी नहीं होता परंतु यह प्रकाश की उपस्थिति में भी चलती रह सकती है और चलती है। अर्थात सामान्य पौधों में प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया दिन में साथ-साथ लगातार चलती रहती हैं। प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के दौरान उस रासायनिक ऊर्जा का उपयोग होता है जो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के दौरान रासायनिक रूप संचित हुई थी। प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया को हम कुछ इस प्रकार लिख सकते हैं

कार्बन डाईऑक्साइड + एटीपी + एनडीपीएच = कार्बोहाइड्रेट + पानी  + एडीपी + एनएडीपी

अधिकांश पौधों में यही चरण होते हैं। इन सामान्य पौधों के अलावा कुछ ऐसे भी पौधे हैं जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में उगते हैं। यहां पानी की कमी होती है और गर्मी अधिक होती है। लिहाज़ा, पानी बचाने के लिए इन पौधों के स्टोमैटा दिन में बंद रहते हैं और रात में खुलते हैं। इन्हें क्रेसुलेसियन एसिड मेटाबोलिज़्म (कैम) पौधे कहा जाता है। इस प्रक्रिया को सबसे पहले क्रेसुलेसी कुल के पौधों में खोजा गया था।

स्टोमैटा बंद होने के कारण कैम पौधों में दिन के समय गैसों का आदान-प्रदान बहुत कम होता है। रात में स्टोमैटा खुले रहते हैं और हवा की आवाजाही रहती है। अत: रात के समय ये पौधे कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण करते हैं। इस कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में परिवर्तित करके पत्तियों की कोशिकाओं में जमा कर लिया जाता है।

दिन में जब इन कोशिकाओं पर सूर्य की रोशनी गिरती है तब स्टोमैटा तो बंद रहते हैं परंतु रात में बने कार्बनिक अम्लों के टूटने से  कार्बन डाईऑक्साइड बनने लगती है जो प्रकाश संश्लेषण की सामान्य क्रिया में भाग लेती है। यह पहले चरण (प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया) में बनी ऑक्सीजन एवं रासायनिक ऊर्जा अर्थात एटीपी और एनएडीपीएच द्वारा प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के रास्ते कार्बोहायड्रेट में बदल जाती है।

कैम-प्रेमियों के लिए
वैसे तो यह स्पष्ट ही है कि पौधा चाहे सामान्य प्रकाश संश्लेषण करने वाला हो या कैम चक्र की मदद लेता हो, ऑक्सीजन का उत्पादन तो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के चरण में ही होता है और ज़ाहिर है यह अभिक्रिया दिन में होती है। लेकिन फिर भी यदि किसी कैम प्रेमी को पीपल के नीचे रात बिताकर ऑक्सीजन प्राप्त करने की धुन सवार है, तो एक सूचना काफी लाभदायक हो सकती है। पता यह चला है कि पीपल का पेड़ या पौधा उसी स्थिति में कैम चक्र का उपयोग करता है जव वह किसी अन्य पेड़ के ऊपर उगा हो। मिट्टी में लगा पीपल का पेड़ सामान्य प्रकाश संश्लेषण ही करता है। ज़ाहिर है किसी अन्य पेड़ के ऊपर पीपल के नन्हे पौधे ही उगते हैं, पेड़ तो ज़मीन पर ही होते हैं। तो कैम-सुख के लिए (यदि रात में ऑक्सीजन देने में मददगार हो तो भी) आपको किसी पेड़ के ऊपर उगे पीपल के पेड़ ढूंढने होंगे।

कैम पौधे इस मायने में विशिष्ट हैं उनमें रात में कैम चक्र चलता है। लेकिन दिन में उसी कोशिका में प्रकाश-निर्भर क्रिया और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया (केल्विन चक्र) दोनों चलते रहते हैं। अत: स्पष्ट है कि रात में ये ऑक्सीजन नहीं छोड़ते क्योंकि रात में उनमें प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया नहीं होती। रात में तो केवल कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण ही होता है। यानी सामान्य पौधों एवं कैम पौधों में अंतर सिर्फ इतना है कि कैम पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में जमा करके रखा जाता है और बाद में मुक्त कर दिया जाता है। शेष प्रक्रिया तो वही है।   

सवाल यह है कि क्या कुछ पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण का प्रथम चरण यानी प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। इसका जवाब है कि यह संभव नहीं है क्योंकि प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया में पानी को तोड़कर उससे ऑक्सीजन मुक्त करने की क्रिया के लिए प्रकाश की जितनी मात्रा चाहिए रात में नहीं मिलती। यहां तक कि चांदनी रात में भी नहीं, क्योंकि पूर्णिमा की रात को भी चंद्रमा से दिन के सूर्य के प्रकाश की तुलना में 32 हज़ार गुना कम प्रकाश मिलता है। अत: यह कहना गलत है कि कैम पौधे (जैसे एलो वेरा, स्नेक प्लांट आदि) रात में प्रकाश संश्लेषण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। हां, ये आसपास की हवा को साफ ज़रूर करते हैं। अत: कैम पौधे एयर प्यूरीफायर हो सकते हैं परंतु रात में ऑक्सीजन प्रदाता कदापि नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वानिकी का विवादास्पद प्रयोग

नों की कटाई जब चिंता का बड़ा विषय है, तब संयुक्त राज्य अमेरिका में दुनिया के सबसे बड़े वानिकी प्रयोग को 22 अप्रैल को हरी झंडी मिल गई है। प्रयोग के तहत यह आकलन करने की कोशिश की जाएगी कि जैव विविधता का संरक्षण करते हुए लकड़ी के उत्पादन के सबसे अच्छे तरीके क्या हो सकते हैं। प्रयोग के लिए वनों की नियंत्रित कटाई करने की अनुमति भी मिलेगी।

परियोजना की शुरुआत करने वाले ओरेगन स्टेट युनिवर्सिटी (ओएसयू) के थॉमस डीलुका का कहना है कि जंगल ज़रूरी हैं लेकिन हमें लकड़ी की भी ज़रूरत है। तो लकड़ी उत्पादन के बेहतर तरीके खोजने होंगे और यह परियोजना हमें इसी काम में मदद करेगी।

दक्षिण-पश्चिमी ओरेगन में नव-निर्मित एलियट स्टेट रिसर्च फॉरेस्ट की लगभग 33,000 हैक्टर भूमि इस परियोजना के अधीन होगी। इसे 40 से अधिक भागों में बांटकर वैज्ञानिक कई वन-प्रबंधन रणनीतियों का परीक्षण करेंगे, जिनमें से कुछ में वनों की कटाई भी की जाएगी। इस परियोजना की सलाहकार समिति के सदस्यों में पर्यावरणविद, शिकारी, लकड़हारे और स्थानीय जनजातियों के लोग शामिल हैं।

दशकों से एलियट वन क्षेत्र विवादों में घिरा रहा है। यहां वनों की कटाई एक बड़ा व्यवसाय है। जंगल के एक हिस्से में महत्वपूर्ण और प्राचीन डगलस फर और अन्य वृक्ष हैं। जंगल के अन्य हिस्सों में 1930 के बाद से सक्रिय रूप से कटाई और इनकी जगह नए पौधे लगाने का काम हो रहा है। प्राचीन जंगलों में कई विलुप्तप्राय पक्षी रहते हैं। 2012 में, इनके संरक्षण के उद्देश्य से यहां वाणिज्यिक वन कटाई पर रोक लगा दी गई थी।

2018 में ओएसयू शोधकर्ताओं द्वारा यह परियोजना प्रस्तावित करने से पहले तक, ओरेगन राज्य ने वन संरक्षण के लिए कई बातें स्वीकार की थीं। लेकिन इस संपदा को शोध वन में बदलने का ओएसयू का प्रस्ताव छोटे स्तर पर वनों की कटाई फिर से शुरू कर देगा। योजना के मुताबिक एलियट वन में कटाई से होने वाली आमदनी प्रयोग का बुनियादी ढांचा बनाने और संचालन में मदद करेगी।

यूएस सहित दुनिया भर में दर्जनों शोध वन हैं। यहां वैज्ञानिक पारिस्थितिकी और मिट्टी से लेकर अम्लीय वर्षा और कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर के प्रभावों का अध्ययन करते हैं। लेकिन एलियट शोध वन इनसे अलग और बड़ी परियोजना है। परियोजना के समर्थकों का कहना है कि यह वैज्ञानिकों को पहली बार इतने बड़े स्तर पर पारिस्थितिकी वानिकी का परीक्षण करने का अवसर प्रदान करेगी।

परियोजना के अनुसार इसके अधीन जंगल के उस 40 प्रतिशत से अधिक हिस्से में जंगल की कटाई नहीं होगी, जहां पुराने वृक्ष हैं। बाकी हिस्से को 40 छोटे हिस्सों में बांटकर विभिन्न तरह के भूमि प्रबंधन के अध्ययन किए जांएगे। इनमें से कुछ हिस्सों में चुनिंदा पेड़ों की कटाई होगी। बाकी वन के आधे हिस्से को काट कर पूरा साफ किया जाएगा, जबकि बाकी आधे वन क्षेत्र का संरक्षण किया जाएगा। प्रत्येक तरह के प्रबंधन का प्रभाव समझने के लिए वैज्ञानिक जंगल में कार्बन के स्तर, नदी-नालों के स्वास्थ्य, और कीटों, पक्षियों और मछलियों में विविधता का आकलन करेंगे।

मंज़ूरी मिलने के बावजूद परियोजना को कई बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। 1930 से ही ओरेगन पब्लिक स्कूल एलियट वन से कटाई के माध्यम से कानूनन राजस्व लेता है। परियोजना को इसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी।

अन्य बाधाएं भी हैं। इस परियोजना में वे जंगलों को कैसे नियंत्रित करेंगे, और जोखिमग्रस्त और लुप्तप्राय प्रजातियों का किस तरह प्रबंधन करेंगे इसकी एक विस्तृत योजना पहले ही तैयार करनी होगी। और इसके लिए यूएस फिश एंड वाइल्डलाइफ सर्विस का अनुमोदन भी प्राप्त करना होगा।

ओएसयू के दल ने पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय जनजातियों, उद्योगों, पर्यावरणविदों और परियोजना समिति के अन्य सदस्यों के साथ बैठकें और बातचीत करके सहमति बनाने की कोशिश की है। लेकिन इस पर बहस पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। कई पर्यावरणविदों का अब भी सवाल है कि जलवायु संकट के दौर में कार्बन सोखने और संग्रहित करने वाले जंगलों का पूरी तरह सफाया करना कितना जायज़ है। सौ साल पहले की गलतियों को फिर एक बार नहीं दोहराया जाना चाहिए।

इसके अलावा काष्ठ उद्योग के साथ ओएसयू के सम्बंध भी संदेह के दायरे में हैं। जैसे 2019 में, ओएसयू के कॉलेज ऑफ फॉरेस्ट्री ने अपने एक जंगल के 6.5 हैक्टर क्षेत्र में फैले पेड़ों को काटने की अनुमति दे दी थी, जिसमें सैकड़ों साल पुराने वृक्ष लगे थे।

डीलुका मानते हैं कि अतीत में गलतियां हुई थीं लेकिन युनिवर्सिटी का अच्छा अकादमिक रिकॉर्ड है, वे एलियट वन में एक विश्व स्तरीय अनुसंधान सुविधा बनाना चाहते हैं। अगर हम काष्ठ संसाधनों की आपूर्ति के लिए वनों में कटाई करते हुए प्रजातियों को बचाए रखने के तरीके पता कर लेते हैं, तो यह बहुत प्रभावी होगा। बहरहाल, सब कुछ अंतिम प्रबंधन योजना पर निर्भर करेगा लेकिन तब तक तो सलाहकार समिति ने परियोजना को अस्थायी हरी झंडी दिखा दी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फूलों का रूप धारण कर लेती है फफूंद – डॉ. किशोर पंवार एवं डॉ. भोलेश्वर दुबे

प्रकृति में शाकाहारी और वनस्पति, शिकारी व शिकार, तथा रोगकारी व पोषक के बीच गहरे सम्बंध पाए जाते  हैं। ऐसी विविध अंतर्क्रियाएं जहां शिकारी या रोगकारी की जीने की क्षमता को बढ़ाती हैं, वहीं शिकार या पोषक के जीवित रहने की संभावना को कम करती हैं। इन अंतर-सम्बंधों को हम एक सामान्य शीर्षक ‘शोषण या दोहन’ के तहत देख सकते हैं।

भोज्य संसाधनों का दोहन आबादी को एक ताने-बाने में गूंथ देता है जिसे ‘खाद्य संजाल’ के नाम से जानते हैं। एक पौधे और रोगजनक के ऐसे ही एक आश्चर्यजनक, रोमांचक, अद्भुत व कल्पनातीत सम्बंध की चर्चा हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन, प्लांट प्रेस तथा मायकोलॉजिया और फंगल जीनोम के पृष्ठों पर हुई है।

फूलों की नकल

मेक्सिको में प्रति वर्ष दक्षिणी चट्टानी पहाड़ों के ढलान पर जंगली फूलों की रंगीन बहार नज़र आती है। इसमें से कुछ जंगली फूल दिखते तो फूल जैसे हैं लेकिन होते नहीं हैं। एक चमकदार पीला और मीठी गंधवाला फूल दरअसल एक रोगकारी फफूंद द्वारा अपने पोषक पौधे में फेरबदल करके बनाया गया होता है। यह पौधे का असली फूल नहीं नकली फूल होता है। इस रोगजनक को हम रस्ट के नाम से जानते हैं क्योंकि इसके बीजाणु जंग लगे लोहे के रंग के होते हैं जो पौधों की पत्तियों पर बनते हैं।

यह गेहूं में लगने वाले रोग पक्सीनिया ग्रेमीनिस का सम्बंधी पक्सीनिया मोनोइका है। इसका पोषक पौधा गेहूं न होकर सरसों कुल का अरेबिस है।

अरेबिस प्रजातियां शाकीय पौधे हैं जो कुछ महीनों से लेकर वर्षों तक रोज़ेट के रूप में रहते हैं। रोज़ेट पौधे का एक ऐसा रूप होता है जिसमें पौधे पर ढेर सारी पत्तियां जमीन से सटी हुई लगभग एक घेरे में बहुत ही छोटे तने पर लगी होती है।

इस रोज़ेट अवस्था में अरेबिस पौधा जड़ों के विकास और उनमें पोषण का संग्रह करने में बहुत अधिक ऊर्जा लगाता है। इस अवस्था के अंत में यह तेज़ी से एकदम लंबा हो जाता है और फूलने लगता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को बोल्टिंग कहते हैं। फूलों का परागण होता है, फूल में बीज बनते हैं, बीजों से फिर नए पौधे बनते हैं और यह चक्र चलता रहता है।

लेकिन पक्सीनिया तो अरेबिस के जीवन चक्र को पूरी तरह से बदल देता है। यह पौधे की रोज़ेट अवस्था में उस पर आक्रमण करता है और इसके विकास में फेरबदल कर पौधे का ऐसा रूप बनाता है जो स्वयं पक्सीनिया फफूंद के लैंगिक प्रजनन को बढ़ावा देता है। इस दौरान सामान्यत: पोषक पौधा मर जाता है।

पक्सीनिया आम तौर पर अरेबिस को गर्मियों के आखरी दिनों में संक्रमित करता है। फिर तेज़ी से वृद्धि करने वाले उन ऊतकों में घुस जाता है जो आने वाली सर्दियों में पौधों की वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। बार-बार विभाजित होने वाले ऊतकों पर आक्रमण करके यह पौधे के रोज़ेट आकार में भविष्य में होने वाले परिवर्तन को अपने हिसाब से बदल डालता है। संक्रमित रोज़ेट आने वाले वसंत में तेज़ी से लंबे हो जाते हैं उनकी पूरी लंबाई और शीर्ष पर पत्तियों का घनत्व बढ़ जाता है। ये पत्तियां हरी होने की बजाय चमकदार पीली होती हैं। शीर्ष पर पीली पत्तियों का समूह बिल्कुल फूलों जैसा लगता है। इन फूलों में मुख्यत: स्पर्मेगोनिया नामक रचनाएं होती हैं, जो फफूंद के लैंगिक प्रजनन अंग हैं और इनसे चिपचिपा मीठा द्रव भी निकलता है। अधिकांश रस्ट में लैंगिक प्रजनन के लिए पर-परागण या संकरण की ज़रूरत होती है। यह विभिन्न प्रकार के कीटों की मदद से होता है। ये कीट एक फफूंद के बीजांड को दूसरी फफूंद पर ले जाते हैं।

शोधकर्ता बारबरा रॉय ने देखा कि पीले रंग और शर्करा युक्त यह संयोजन फूलों पर आने वाले कई प्रकार के कीटों को अपनी ओर आकर्षित करता है जिनमें तितलियां, मधुमक्खियां और अन्य प्रकार की छोटी मक्खियां शामिल होती है। कोलरेडो में मक्खियां इन नकली फूलों पर मंडराने वाली आम कीट हैं।

इस अध्ययन से यह भी पता चला कि पक्सीनिया पोषक पौधे के जीवन चक्र को छिन्न-भिन्न कर देती है और उसे मार डालती है। जो पौधे बच जाते हैं उन पर फूल तो बनते हैं परंतु बीज नहीं बनते। अर्थात पक्सीनिया अपने पोषक पौधे को भरपूर नुकसान पहुंचाती है।

पक्सीनिया तो मात्र पोषक का रूप बदलता है और पत्तियों को अपने स्पर्मेगोनिया से सजाकर रंगीन मीठे फूलों जैसा बना देती है, किंतु फ्यूसेरियम नामक फफूंद तो इससे चार कदम आगे है। यह पोषक पौधों को फूलने ही नहीं देती और जो फूल दिखता है वह पूरी तरह कवक के ऊतकों से बना होता है।

फ्यूसेरियम नामक यह कवक गुआना के सवाना में घास जैसे पौधों को संक्रमित करती है, और उन्हें निष्फल कर संपूर्ण कवक-फूल में परिवर्तित कर देती है। 2006 में गुआना में एक वनस्पति संग्रहकर्ता यात्री कैनेथ वर्डेक ने केटूर नेशनल पार्क में टहलते हुए पीली आंखों वाली घास की दो प्रजातियों पर कुछ असामान्य फूल देखे।

उन प्रजातियों के विशिष्ट फूलों के विपरीत वे ज़्यादा नारंगी, घने गुच्छेदार और स्पंजी थे। बाद की यात्राओं में उन्होंने ऐसी विचित्रताओं के और उदाहरण देखे। वनस्पति साहित्य की खाक छानने पर उन्होंने पाया कि ये नारंगी रचनाएं वास्तव में फूल थे ही नहीं और पीली आंखों वाले ज़ायरिस वंश के पौधों ने उन्हें नहीं बनाया था। वे असली फूल ना होकर नकली फूल थे जो एक कवक की कारस्तानी थे। इस कवक का नाम है फ्यूसेरियम ज़ायरोफिलम। यह ज़ायरिस पौधे को संक्रमित करती है और पौधों के स्वयं के पुष्पन को रोक कर अपने नकली फूल उन पर खिलाती है। इसके लिए फ्यूसेरियम पौधे की अब तक अज्ञात किसी व्यवस्था का अपहरण कर लेती है। यही नहीं, यह ज़ायरिस के परागणकर्ताओं को भी अपने बीजाणुओं को फैलाने के लिए छलती है।

वैज्ञानिक यह सोचकर हैरान हैं कि यह कवक धोखाधड़ी के लिए इतनी अच्छी तरह से कैसे विकसित हुई है। अमेरिकी कृषि विभाग के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक कैरी ओडोनल का कहना है कि “यह पृथ्वी पर एकमात्र ऐसा उदाहरण है जहां पूरा का पूरा नकली फूल कवक से बना है।” नकली फूलों के बारे में यह अध्ययन हाल ही में फंगल जेनेटिक्स और बॉयोलाजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

और भी हैं बाज़ीगर

मोनीलिनिया कोरिम्बोसी नामक कवक ब्लूबेरी की झाड़ी को संक्रमित करती है। यह कवक संक्रमित पत्तियों पर फूलों जैसी रचनाएं तो नहीं बनाती लेकिन ब्लूबेरी पत्तियां रोज़ेटनुमा हो जाती हैं, पराबैंगनी प्रकाश को परावर्तित करती हैं, साथ ही ब्लूबेरी के असली फूलों के समान किण्वित चाय जैसी गंध भी छोड़ती है। इससे कई कीट इसकी ओर आकर्षित होते हैं। इसी तरह पीले रंग की फूलों वाली घास से बने कवक फूल से निकलने वाली गंध से कई कीट इसका पता लगा लेते हैं और वे परावर्तित पराबैंगनी प्रकाश को भी पकड़ने में सक्षम होते है।

सूक्ष्म जीव वैज्ञानिक इमेने लारबा ने फ्यूसेरियम ज़ायरोफिलम के नकली फूलों के लिए पराबैंगनी फिल्टर का उपयोग किया था। ऐसा अनुमान है कि कवक के ऊतक पराबैंगनी प्रकाश को परावर्तित करते हैं और पीला रंग दोनों मिलकर परागणकर्ताओं को कवक के नकली फूलों का पता लगाने में मदद करते हैं। ऐसा ही असली फूलों पर भी होता है। यह नकलपट्टी की पराकाष्ठा है।

शोधकर्ताओं ने इन नकली फूलों से दो रंजक अलग किए हैं जो पराबैंगनी प्रकाश के परावर्तन तथा चमक के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। इसके अलावा, प्रयोगशाला में उन्होंने 10 गंधयुक्त पदार्थ भी प्राप्त किए जो परागणकर्ता कीटों को लुभाने के लिए जाने जाते हैं।

क्या प्रयोगशाला में प्राप्त यह सुगंधित रासायनिक कॉकटेल जंगली (असंक्रमित) फूलों की गंध से मेल खाता है? कोविड-19 के चलते गुयाना के बजाय इसी दल ने दक्षिणी अमेरिका के सवाना जंगलों में उगने वाली एक मिलती-जुलती प्रजाति ज़ायरिस लेक्सीफोलिया को खोजा। यह एक बारहमासी पौधा है और गुयाना में देखे गए पौधे से मिलता-जुलता है। ज़ायरिस लेक्सीफोलिया के असंक्रमित फूल और फ्यूसेरियम ज़ायरोफिलम कवक के कल्चर से निर्मित रसायनों के कॉकटेल की तुलना से पता चला है कि दोनों एक ऐसे यौगिक का उत्सर्जन करते हैं जो परागणकर्ता और अन्य प्रकार के कीटों (मधुमक्खियों, सफेद मक्खियों और काऊपी वीवल्स) को अपनी ओर आकर्षित करता है।

अलबत्ता कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि मामले को और समझना ज़रूरी है क्योंकि फूलों की गंध एक ही वंश की प्रजातियों के बीच भिन्न हो सकती है। अकेले यौगिक की अपेक्षा गंध को मिश्रण के रूप में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। फिर भी नकली फूलों की आकृति और रंग से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता।

पेनसिल्वेनिया स्टेट विश्वविद्यालय के प्लांट पैथोलॉजी के शोध छात्र टेरी टॉरैस क्रूज़ ने इनकी इस धोखाधड़ी के अध्ययन की अलग योजना भी बनाई है। इसमें वे ज़ायरिस और फ्यूसेरियम दोनों के फूलों द्वारा उत्पादित सुगंध को इकट्ठा करेंगी और उन फूलों पर मंडराने वाले कीटों की सूची बनाएंगी। वे यह देखने की कोशिश करेंगी कि यह प्रणाली वास्तविक परिस्थिति में कैसे काम करती है। उम्मीद है कि यह अध्ययन इन छलिया कवकों के रहस्य को उजागर करेगा।

उच्च श्रेणी के मेज़बान पौधों के फूलों और रोगजनक के बीच बना यह अनोखा सम्बंध कई मायनों में आश्चर्यजनक है। इससे कई रोचक सवाल उठते हैं जिनका उत्तर शायद अभी हमारे पास नहीं है। मसलन कवक को कैसे पता चलता है कि पौधों में फूलों जैसी रंगीन, सुगंधित और रसीली रचनाएं लैंगिक अंगों के प्रदर्शन का काम करती हैं। यह जानने के बाद कवक को इस रचना की नकल करना है। पोषक और परजीवी या परपोषी के बीच जैव विकास के दौरान विकसित हुआ यह आश्चर्यजनक रिश्ता दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर तो ज़रूर करता है। (स्रोत फीचर्स)

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फूलों की गंध खुद के लिए हानिकारक

ई फूलों में मीठी-मीठी गंध होती है जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करती है और पौधे को अपनी अगली पीढ़ी तैयार करने में मदद करती है। लेकिन ये सुगंधित अणु यदि फूल की कोशिकाओं में जमा हो जाएं तो हानिकारक भी हो सकते हैं। इसलिए फूलों को ऐसी कुछ व्यवस्था करनी होती है कि यह गंध बाहर उड़ती रहे। हाल में नेचर केमिकल बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र में इस व्यवस्था का खाका प्रस्तुत हुआ है। सारे प्रयोग पेटुनिया के फूलों पर किए गए थे।

फूलों में गंध कुछ वाष्पशील कार्बनिक पदार्थों के कारण होती है। कोशिका में पैदा होने के बाद ये अणु कोशिका द्रव्य में से होते हुए कोशिका की झिल्ली और उसके आसपास मौजूद कोशिका भित्ती तक पहुंचते हैं। यहां से ये कोशिका के बाहर उपस्थित एक मोमी परत क्यूटिकल में पहुंच जाते हैं जहां से ये बाहर हवा में फैलकर सुगंध फैलाते हैं। ऐसा माना जाता था कि इन वाष्पशील अणुओं की यह यात्रा विसरण नामक क्रिया की बदौलत सम्पन्न होती है जिसमें अणु अधिक सांद्रता से कम सांद्रता की ओर बढ़ते हैं। लेकिन फिर 2015 में कंप्यूटर अनुकृति से पता चला कि यदि यह यात्रा सिर्फ विसरण के दम पर चले तो ये कार्बनिक अणु बहुत तेज़ी से कोशिका के बाहर नहीं निकल पाएंगे और अंदर बने रहे तो नुकसान करेंगे।

2017 में पर्ड्यू विश्वविद्यालय की जैव रसायनविद नतालिया डुडरेवा और उनके साथियों ने इस संतुलन को बनाए रखने की तकनीक का खुलासा किया था। उन्होंने पाया कि जब फूल खिलते हैं और गंध तीक्ष्ण हो जाती है, तो PhABCG1 नामक एक प्रोटीन की मात्रा बढ़ने लगती है। यदि इस प्रोटीन के जीन की अभिव्यक्ति कम हो जाए तो गंध-अणुओं का बाहर निकलना भी कम हो जाता है। ये अणु कोशिका में जमा होने लगते हैं और कोशिका की झिल्ली का क्षय होने लगता है। इसके आधार पर डुडरेवा का निष्कर्ष था कि गंध-अणुओं को झिल्ली के पार पहुंचाने का काम PhABCG1 करता है।

फिर डुडरेवा की टीम नो यह पता लगाया कि ये गंध-अणु फूल की पंखुड़ी में कहां अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। पता चला कि इनमें से अधिकांश (लगभग 50 प्रतिशत) पंखुड़ियों की क्यूटिकल में जमा होते हैं। जब शोधकर्ताओं ने किसी प्रकार से मोम में से पार पहुंचाने वाले प्रोटीन PhABCG12 की मात्रा कम कर दी तो फूल की क्यूटिकल की मोटाई कम हो गई। और इसके साथ ही गंध-अणुओं का उत्सर्जन भी कम हो गया, उत्पादन भी गिर गया और क्यूटिकल में इन अणुओं का जमावड़ा भी कम हो गया। जब यह प्रयोग एक ऐसे रसायन के साथ दोहराया गया जो क्यूटिकल की मोटाई को कम करता है, तो भी ऐसे ही असर देखे गए।

यह बात थोड़ी विचित्र जान पड़ती है कि क्यूटिकल की मोटाई कम होने से गंध-अणुओं का उत्सर्जन कम हो जाता है क्योंकि सामान्य तौर पर हम मानते हैं कि जितनी पतली रुकावट होगी उत्सर्जन उतना अधिक होना चाहिए। जब और अधिक विश्लेषण किया गया तो पता चला कि यदि क्यूटिकल बहुत पतली हो तो वाष्पशील कार्बनिक अणु कोशिका में जमा होने लगते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसा होने पर कोशिका किसी प्रकार से वाष्पशील कार्बनिक अणुओं का उत्पादन कम कर देती है। यानी क्यूटिकल इन फूलों की गंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों कुछ सब्ज़ियां गले में खुजली पैदा करती हैं? – जितेश शेल्के एवं कालू राम शर्मा

ठंड के साथ ही मालवा में गराड़ू (Dioscoreaalata) मिलने लगते हैं। गराड़ू बहुत स्वादिष्ट होता है। इसका छिलका निकालकर तेल में तलकर, बस थोड़ा-सा नींबू निचोड़ो और नमक व मसाला बुरबुराओ। तैयार हो गई डिश! लेकिन गराड़ू को तलने के पहले छीलना व काटना एक झंझट भरा काम होता है। गराड़ू काटते हैं तो हाथों में खुजली होती है। लगता है मानो कुछ चुभन सी हो रही हो। मामला हाथों तक ही सीमित नहीं! अगर तलने में कच्चा रह जाए तो गराड़ू गले में भी खुजली मचाता है। कच्चा खाने का तो सवाल ही नहीं उठता।

सिर्फ गराड़ू ही नहीं अरबी के पत्ते व इसके कंद की सब्जी भी अगर कच्ची रह जाए तो गले में चुभती है। तो आखिर इनमें वह क्या चीज़ है जो चुभन व खुजली पैदा करती है।

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमने अरबी के पत्ते के एक टुकड़े को अच्छे से मसलकर उसके रस को स्लाइड पर फैलाकर सूक्ष्मदर्शी में देखा। स्लाइड में सुई जैसी रचनाएं स्पष्ट दिखाई दीं। ये महीन सुइयां कोशिकाओं में गट्ठर के रूप में जमी होती हैं। चुभन का एहसास इन्हीं की वजह से होता है।

जब हम गराड़ू काटते हैं या उसका छिलका उतारते हैं तो ये सूक्ष्म सुइयां हमें चुभ जाती है और खुजली मचाती है। वैसे गराड़ू को काटने के पहले कई लोग हाथों में तेल लगा लेते हैं। ऐसा ही कुछ अरबी के मामले में भी होता है।

सूक्ष्मदर्शी में कुछ ऐसीं दिखती हैं सुइया यानी रैफाइड्स

मालवा के लोग इस बात से परिचित हैं कि गराड़ू और नींबू का चोली दामन का साथ है। नींबू जहां अपने खट्टेपन से स्वाद को बढ़ाता है वहीं चुभन व जलन से भी निजात दिलाता है। तो फिर से सवाल उठता है कि क्या नींबू मिलाने से वे सुइयां गायब हो जाती हैं? इस सवाल पर हम आगे बात करेंगे। लेकिन पहले हम यह समझ लेते हैं कि आखिर ये सुइयां क्या है?

ये सुइयां कैल्शियम ऑक्ज़लेट की बनी होती हैं। ये सुइयां जिन कोशिकाओं के अंदर होती है उन्हें इडियोब्लास्ट कोशिकाएं कहा जाता है। यह तो हम जानते हैं कि कोशिकाओं में कोशिकांग होते हैं। कोशिकाएं अपने सामान्य कामकाज के दौरान कई पदार्थों का निर्माण करती हैं। ये पदार्थ कोशिकाओं में एक खास आकृति में जमा हो जाते हैं। इन पदार्थों को कोशिका समावेशन (सेल इंक्लूज़न) कहा जाता है। यानी कोशिका में निर्जीव पदार्थों का समावेशन। जैसे आलू में स्टार्च के कण, नागफनी और अकाव में सितारे के आकार के कैल्शियम ऑक्ज़लेट के कण इत्यादि।

यह बताना प्रासंगिक होगा कि पौधों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के क्रिस्टल कई आकृतियों में पाए जाते हैं। जैसे, सुई के आकार में (रैफाइड), घनाकार (स्टायलॉइड्स), प्रिज़्म के आकार में, गदा के आकार में।

रैफाइड कैल्शियम ऑक्ज़लेट के सुई के आकार के क्रिस्टल होते हैं जो कुछ वनस्पति प्रजातियों के पत्तों, जड़ों, अंकुरों, फलों के ऊतकों में मौजूद होते हैं। ये किवी फ्रूट, अनानास, यैम या जिमीकंद और अंगूर सहित कई प्रजातियों के पौधों में पाए जाते हैं। यह देखा गया है कि रैफाइड आम तौर पर एकबीजपत्री वनस्पति कुलों में पाए जाते हैं और कुछेक द्विबीजपत्री कुलों में देखे गए हैं।

रैफाइड के व्यापक वितरण व विशिष्ट मौजूदगी के बावजूद इनकी प्राथमिक भूमिका को लंबे वक्त तक नहीं समझा गया था। कैल्शियम के नियमन, पौधों की शाकाहारियों से सुरक्षा जैसी बातें कही गई हैं। शाकाहारी जंतुओं से सुरक्षा के मामले में एक पुराना अवलोकन है। पहली बार एक जर्मन वैज्ञानिक अर्न्स्ट स्टॉल ने देखा था कि घोंघे उन पौधों को अपना आहार नहीं बनाते जिनमें रैफाइड होते हैं। उन्होंने यह भी देखा कि अगर उन पौधों की पत्तियों को मसलकर उसमें थोड़ा अम्ल डाल दिया जाए तो फिर घोंघे उसे अच्छे से खाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अम्ल की कैल्शियम ऑक्ज़लेट से रासायनिक क्रिया से सुइयां गल जाती है। अब स्पष्ट हो गया होगा कि नींबू क्या करता है।

दरअसल, रैफाइड शाकाहारी जीव के खिलाफ पौधों की रक्षात्मक रणनीति है। पौधे अपने को बचाने के लिए कई तरीके अपनाते हैं। कहीं कांटे तो कहीं द्वितीयक उपापचय पदार्थ होते हैं। रैफाइड ऊतकों और कोशिका झिल्लियों में छेद करने का काम करते हैं। इसे सुई प्रभाव (निडिल इफेक्ट) कहा जाता है। यह देखा गया है कि जिन पौधों में रैफाइड मिलते हैं उनमें प्रोटीएज़ एंज़ाइम पाए जाते हैं। इन प्रोटीएज़ व रैफाइड की जुगलबंदी का ही कमाल है कि इनको काटने व खाने के दौरान चुभन व जलन होती है।

एक शोध में रैफाइड व प्रोटीएज़ के प्रभाव को देखने की कोशिश की गई। वैज्ञानिकों ने रैफाइड वाले किवी फ्रूट (एक्टिनिडिया डेलिसिओसा) से रैफाइड प्राप्त किए। सबसे पहले केवल रैफाइड का लेपन अरंडी की पत्ती पर किया और उस पर लार्वा को छोड़ा। इस स्थिति में लार्वा पर कोई प्रभाव नहीं दिखा और सभी लार्वा ज़िंदा रहे। जब रैफाइड सुइयों को अरंडी की पत्ती पर अधिक सांद्रता के साथ लेपन किया गया तो भी लार्वा पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया। इसका अर्थ यह है कि केवल रैफाइड सुई की कोई भूमिका नहीं है।

फिर जब अरंडी की पत्ती पर केवल सिस्टाइन प्रोटीएज़ का लेपन किया गया तब भी लार्वा पर कोई असर नहीं हुआ। लेकिन जब अरंडी की पत्ती पर रैफाइड और सिस्टाइन प्रोटीएज़ दोनों का लेपन किया तो 69 फीसदी लार्वा का शरीर काला पड़ गया व लगभग दो घंटे में मर गए। नतीजों में यह भी पाया गया कि जब बहुत थोड़े रैफाइड के साथ सिस्टाइन प्रोटीएज़ की मात्रा को बढ़ाया गया तो विषाक्तता 16-32 गुना बढ़ गई।

बेशक, रैफाइड सुई का काम कोशिकाओं को पंचर करने का होता है। जब कैल्शियम ऑक्ज़लेट की सुइयों की बजाय अक्रिस्टलीय कैल्शियम ऑक्ज़लेट व साथ में सिस्टाइन प्रोटीएज़ का लेपन किया गया, तो भी लार्वा पर कोई असर नहीं हुआ। इससे साबित होता है कि कैल्शियम ऑक्ज़लेट से बनी सुई की भूमिका अहम है, न कि कैल्शियम ऑक्ज़लेट की। यह भी देखा गया है कि काइटिन पचाने वाले प्रोटीएज़ एंज़ाइम के साथ भी रैफाइड इसी प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं।

एक अनुभव और। घर के आंगन में डफनबेकिया का एक सजावटी पौधा गमले में लगा था। गमले में गुलाब, चांदनी जैसे और भी पौधे थे। अगर घर का गेट खुला रह जाता तो गमले के पौधों को बकरियां चट कर जाती। लेकिन वे डफनबेकिया के पौधे को नहीं खाती थीं। खोजबीन करने पर पता चला कि डफनबेकिया के पौधे की पत्तियों में भी रैफाइड सुइयां होती हैं।

कुल मिलाकर रैफाइड और प्रोटीएज़ की जुगलबंदी कुछ पौधों की रक्षा प्रणाली है। इसकी प्रबल संभावनाएं हैं कि रैफाइड और रक्षात्मक प्रोटीएज़ के बीच तालमेल से फसलों की कीट-प्रतिरोधी किस्मों के विकास में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)

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चर्चित वनस्पति गिलोय – डॉ. किशोर पंवार

कोविड-19 के प्रकोप और खौफ के चलते बाज़ार में तरह-तरह की दवाओं और एंटीडोट के साथ-साथ इम्यूनिटी बूस्टर पदार्थों एवं दवाइयों की बाढ़-सी आ गई है। प्रोटीन जैसे सप्लीमेंट जो पहले मसल पॉवर बढ़ाने की बात करते थे, वे अचानक इम्यूनिटी बूस्टर हो गए हैं। जिन दवाइयों का विज्ञापन पहले शक्तिवर्धक के रूप में किया जाता था वे ही अचानक बाज़ार को देखते हुए इम्यूनिटी बूस्टर हो गई हैं।

पत्र-पत्रिकाओं में भी प्राकृतिक इम्यूनिटी बूस्टर फलों एवम पदार्थों की चर्चाएं हैं। जैसे खट्टे फल, नींबू, संतरा, अंगूर, लहसून, अदरख आदि। कोरोना के डर के चलते ग्रीन टी, पपीता, दही, कीवी, सूरजमुखी के बीज की मांग बढ़ गई है। विटामिन सी से भरपूर खट्टे फलों के बारे में कहा जाता है कि ये श्वेत रक्त कोशिकाओं को बढ़ाते हैं जो रोगकारकों से होने वाले संक्रमण से लड़ने का काम करते हैं। इसी तरह हल्दी में उपस्थित करक्यूमिन को भी इम्यूनिटी बूस्टर और एंटी-वायरल बताया जा रहा है। बचाव और सावधानी के लिए गोल्डन मिल्क आजकल खूब पिया जा रहा है।

सवाल यह है कि आखिर इम्यूनिटी है क्या, जिसे बूस्ट करने की ज़रूरत आन पड़ी है।

दरअसल शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली या रोग रोधक क्षमता को ही इम्यूनिटी कहा जाता है। इससे बैक्टीरिया, कवक, विषाणु जैसे संक्रमणकारी रोगजनक से लड़ने की हमारी शरीर की क्षमता बढ़ती है। इन दिनों इम्यूनिटी बूस्टर के नाम पर सर्वाधिक चर्चा में जो औषधियां हैं वे हैं तुलसी ड्रॉप्स और गिलोय वटी। आइए आज गिलोय के बारे में चर्चा करते हैं।    

डॉ. विजय नेगीहॉल द्वारा लिखित पुस्तक हैंडबुक ऑफ मेडिसिनल प्लांट्स में इसके कई नाम दिए गए हैं। आप और हम जिसे मात्र गिलोय के नाम से जानते हैं उसे आयुर्वेद में गुडुची के नाम से जाना जाता है। वनस्पति शास्त्र में गिलोय का टीनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया  है। आयुर्वेद की किताबों में गुणों के आधार पर इस पौधे के कई नाम मिलते हैं। जैसे पत्तियों से शहद जैसा गाढ़ा रस निकलता है तो नाम दे दिया मधुपर्णी। कटे हुए तने से फूटकर नया पौधा बन जाता है तो नाम हो गया छिन्नरूहा। इसका एक और नाम तंत्रिका है जो बेल से नीचे की ओर लटकती हवाई, तंतुनुमा, लंबी पतली धागों जैसी जड़ों के कारण दिया गया है। एक और नाम चक्रलक्षणिका है क्योंकि तने की आड़ी काट गाड़ी के पहियों जैसी नज़र आती है। किसी ने तो इसे कान के कुंडल की तरह देखा और नाम दे दिया कुंडलिनी।

अंत में सबसे खास नाम है अमृता। किंवदंती है कि अमृत मंथन के बाद निकले अमृत की बूंदें पृथ्वी पर जहां-जहां गिरीं उन्हीं बूंदों से इस वनस्पति की उत्पत्ति हुई। अत: इसे नाम दिया गया अमृता।

यह औषधीय महत्व की एक बहुवर्षीय, आरोही लता है जो बड़े-बड़े पेड़ों पर चढ़कर उन पर छा जाती है। यह मुख्यत: भारतीय उपमहाद्वीप का पौधा है और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। श्रीलंका और म्यांमार में भी मिलता है। यह तेज़ी से फैलने वाली झाड़ी है। पत्तियां बड़ी-बड़ी 15 सेंटीमीटर तक की होती हैं। बेल खेतों की मेड़ों, पहाड़ी चट्टानों और जंगलों में पेड़ों पर चढ़ी हुई पाई जाती है। पौधे एकलिंगी होते हैं, अर्थात नर बेल अलग और मादा बेल अलग होती है। ग्रीष्म ऋतु में पर्णहीन अवस्था में इस पर फूल आते हैं जो हरे पीले रंग के लंबी डंडियों पर लगते हैं। नर फूल समूह में जबकि मादा फूल अकेले ही खिलते हैं। फल चटक लाल नारंगी रंग के होते हैं जो 2 -3 के झुंड में लगते हैं। बीजों का फैलाव बुलबुल पक्षी के माध्यम से होता है।

इस बेल की पत्तियों, तने और जड़ में लगभग 29 प्रकार की एंडोफायटिक फफूंद पाई जाती हैं जो पौधे को कोई हानि नहीं पहुंचातीं। इन एंडोफायटिक फफूंद का रस एक बहुभक्षी पतंगे के नियंत्रण में बहुत उपयोगी पाया गया है।

इस औषधीय पौधे पर वर्तमान में दुनिया भर में शोध चल रहा है। सोहम साहा और शामश्री घोष द्वारा 2012 में एनशिएन्ट साइंस ऑफ लाइफ में प्रकाशित ‘वन प्लांट मैनी रोल्स’ के अनुसार इसमें एल्केलाइड्स, स्टेरॉयड्स, टरपीनॉइड्स और ग्लाइकोसाइड्स जैसे सक्रिय तत्व पाए गए हैं। एंटीडायबेटिक और एंटीबायोटिक प्रभाव के कारण विभिन्न बीमारियों में इसका काफी उपयोग किया जा रहा है।

गिलोय के इम्यूनोमॉड्यूलेटरी गुण अच्छी तरह से ज्ञात है। मिथाइल पायरोलीडोन, हाइड्रोक्सीमस्किटोन फार्माइल लेनोलेन जैसे सक्रिय तत्वों के प्रभाव प्रतिरक्षा तंत्र पर और कोशिका-विष के रूप में दर्ज किए जा चुके हैं।

जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र में इसमें सात इम्यूनोमॉड्यूलेटरी सक्रिय पदार्थ रिपोर्ट किए गए। 2019 में प्रियंका शर्मा और अन्य द्वारा हैलियोन में प्रकाशित केमिकल कांस्टीट्यूएंट्स एंड डायवर्स फार्मेकोलॉजिकल इम्पॉर्टेन्स ऑफ टीनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया में 100 से अधिक सक्रिय तत्व पहचाने गए हैं। इनमें से कई इम्यूनोलॉजिकली सक्रिय पदार्थ हैं।

श्रीलंका विश्वविद्यालय एवं आयुर्वेद संस्थान के दिसानायके और सहयोगियों द्वारा 2020 में प्रकाशित एक पर्चे इम्यूनोमॉड्यूलेटरी एफिशिएंसी ऑफ टीनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया अगेंस्ट वायरल इंफेक्शन में बताया गया है कि इसमें ऐसे पदार्थ पाए गए हैं जो इम्यूनिटी को बढ़ाते हैं। उन्होंने पाया कि पौधों के शुष्क तने में इम्यूनोमॉड्यूलेटरी प्रोटीन पाया गया है जो मानव में इम्यूनोलॉजिकल क्रिया बढ़ाता है।

गिलोय के सक्रिय पदार्थ कब तक असरकारी रहते हैं इस संदर्भ में शांतिकुंज हरिद्वार द्वारा प्रकाशित पुस्तक जड़ी-बूटियों द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण में अमृता के बारे में लिखा गया है कि इसके सक्रिय तत्व 2 महीने से ज़्यादा उपयोगी नहीं रहते। घनसत्व को भी 2 महीने से ज़्यादा सक्रिय नहीं माना जाता। अत: अच्छे लाभ के लिए ताज़े रस की ही सलाह दी जाती है। वैसे छाया में सुखाए गए तने को 3 महीने के अंदर उपयोग में लेने की बात कही गई है। तो यह शोध का विषय है कि फिर आयुर्वेदिक दवाइयों की एक्सपायरी डेट दो-तीन साल तक कैसे हो सकती है?

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गिलोय में बहुत सारे सक्रिय तत्व हैं जिनका गहन परीक्षण करने की ज़रूरत है। इसके औषधीय गुणों का ज़िक्र चरक और भाव प्रकाश निघंटु में भी किया गया है। इतनी उपयोगी इस बेल पर और गंभीरता से शोध की ज़रूरत है ।

एक और महत्वपूर्ण बात जो गिलोय के बारे में अक्सर पढ़ी-सुनी जाती है, वह यह कि नीम के ऊपर चढ़ी हुई गिलोय की बेल ज़्यादा औषधीय महत्व की होती है। इस पर भी शोध की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक फल के नीले रंग का अद्भुत रहस्य

युरोप में एक काफी लोकप्रिय झाड़ी है – लॉरस्टाइनस (विबर्नम टाइनस) और वहां कई बाग-बगीचों में शौक से लगाई जाती है। इसके चमकदार नीले फलों पर हर किसी की निगाहें ठहर जाती हैं। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल की रॉक्स मिडलटन और उनके साथी इन फलों की रंगत के पीछे का कारण जानने को उत्सुक थे।

शोधकर्ताओं ने फलों की आंतरिक संरचना पता करने के लिए फल के ऊतक लिए और इनका अवलोकन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में किया। अब तक कई वैज्ञानिकों को लगता था कि अन्य नीले फलों (जैसे ब्लूबेरी) की तरह लॉरस्टाइनस के फलों का नीला रंग भी किसी नीले रंजक से आता होगा। लेकिन करंट बायोलॉजी में उक्त शोधकर्ताओं ने बताया है कि इन फलों में सिर्फ वसा की छोटी बूंदें कई परतों में इस तरह व्यवस्थित होती हैं कि वे नीले रंग को परावर्तित करती हैं। ऐसे रंगों को स्ट्रक्चरल कलर (यानी संरचनागत रंग) कहा जाता है जो किसी पदार्थ की उपस्थिति की वजह से नहीं बल्कि पदार्थों की जमावट के कारण पैदा होते हैं।

वसा की बूंदों के नीचे गहरे लाल रंजक की एक परत भी थी, जो किसी भी अन्य तरंग लंबाई के प्रकाश को सोख लेती है और नीले रंग को गहरा बनाती है। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद से इन निष्कर्षों की जांच की और दर्शाया कि वास्तव में स्ट्रक्चरल कलर लॉरस्टाइनस के फलों का नीला रंग बना सकता है।

संभावना है कि लॉरस्टाइनस फलों का चटख रंग पक्षियों को इनमें उच्च वसा मौजूद होने का संकेत देता हो।

वैसे तो स्ट्रक्चरल कलर के उदाहरण जानवरों में काफी दिखते हैं। जैसे मोर पंख और तितली के पंखों के चटख रंग। लेकिन पौधों में ऐसे रंग कम ही देखे गए हैं। और ऐसा पहली बार ही देखा गया है कि इन रंगों के लिए वसा ज़िम्मेदार है। शोधकर्ताओं को लगता है कि ऐसी व्यवस्था कई अन्य पौधों में भी हो सकती है और उनके बारे में पता लगाया जाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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साबुन के बुलबुलों की मदद से परागण

रागणकर्ताओं के रूप में मधुमक्खियों की बराबरी करना मुश्किल है। लेकिन वैज्ञानिक इनके कुशल कृत्रिम विकल्प खोजने में लगे हुए हैं। और अब शोधकर्ता साबुन के बुलबुले से परागण कराने में सफल हुए हैं।

दरअसल तापमान कम हो तो मधुमक्खियां परागण नहीं करतीं, तब किसानों को कृत्रिम तरीकों से फूलों का परागण करना पड़ता है। ऐसे ही विकल्प के प्रयास में 2017 में जापान एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के पदार्थ-रसायनज्ञ इजिरो मियाको और उनके साथियों ने रिमोट संचालित एक छोटे ड्रोन में घोड़े के बाल चिपकाकर उन पर एक विशेष जेल लगा दी। विचार था कि मधुमक्खी की तरह बाल पर चिपककर परागकण एक फूल से दूसरे फूल पर पहुंच जाएंगे। ड्रोन ने फूलों को परागित तो किया मगर इसके पंखों ने फूलों को नुकसान भी पहुंचाया। फिर, जब मियाको अपने बेटे के साथ साबुन के बुलबुले बना रहे थे तो उन्हें ऐसे बुलबुलों की मदद से परागण करने का विचार आया।

उन्होंने बुलबुलों के लिए एक ऐसा डिटर्जेंट चुना जो परागकणों के अंकुरण को कम से कम प्रभावित करता हो। प्रयोगशाला में उन्होंने परागकण से भरे बुलबुलों की बौछार नाशपाती के फूलों पर की। जब बुलबुले फूटे तो परागकण वर्तिकाग्र पर पहुंचे और पराग नलिकाएं बनीं। लेकिन अगर 10 से ज़्यादा बुलबुले फूल से टकराते हैं तो नलिकाएं सामान्य से छोटी बनती हैं, जो शायद साबुन के घोल का प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है।

इसके बाद उन्होंने नाशपाती के एक बाग में तीन पेड़ों के फूलों पर पराग से भरे बुलबुलों की बौछार की। 16 दिनों के बाद इन फूलों से आए फल उतने ही अच्छे थे जितने कृत्रिम तरह से परागित करने पर आते हैं। जापान में कुछ किसान नाशपाती और सेब के फूलों को पारंपरिक रूप से ब्रश से परागित करते हैं। iscience पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ब्रश से एक फूल को परागित करने में लगभग 1800 मिलीग्राम पराग लगता है, वहीं बुलबुले से महज 0.06 मिलीग्राम में काम हो जाता है। यानी बुलबुलों से परागण करने में किसानों को बहुत कम पराग जमा करना होगा।

इसके बाद मियाको ने एक बबल गन को ड्रोन से जोड़ा और ड्रोन को नकली लिली के फूलों की कतार के चारों ओर एक मार्ग में उड़ने के लिए प्रोग्राम किया। उन्होंने पाया कि ड्रोन बुलबुले 90 प्रतिशत फूलों को परागित कर सकते हैं। लेकिन ड्रोन के साथ समस्या यह आई कि कई बुलबुले अपने लक्ष्य से चूक गए, जिससे परागकण बेकार गए। मियाको बेहतर लक्ष्य साधने वाले ड्रोन पर काम रहे हैं। इसके अलावा वे जैव-विघटनशील पर्यावरण हितैषी साबुन के लिए प्रयासरत हैं।

वेस्ट वर्जीनिया विश्वविद्यालय के रोबोटिक विशेषज्ञ यू गु को लगता है कि ड्रोन के रोटर से चलने वाली हवा के कारण बुलबुले का निशाना साधना मुश्किल होगा। ज़मीन पर चलने वाले रोबोट बेहतर इसके विकल्प हो सकते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों ने इन प्रयासों पर चिंता व्यक्त की है। उनके अनुसार इस तरह के प्रयास कम हो रहीं मधुमक्खियों के संरक्षण से ध्यान भटकाएंगे, परागण में रासायनिक हस्तक्षेप और मिट्टी प्रदूषण के खतरे बढ़ाएंगे। हम परागण के इससे कहीं अधिक प्रभावी और टिकाऊ तरीके ढूंढ सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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